Aquaponics : खेती का भविष्य है ‘एक्वापौनिक्स’ तकनीक

Aquaponics : हमारे देश की 60 फीसदी आबादी का हिस्सा किसी न किसी रूप से खेती से जुड़ा है. यही वजह है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है. अगर हम इस क्षेत्र में दूर तक नजर दौड़ाएं तो खेती में नवाचार की खासी कमी है. आज भी अनेक किसान पारंपरिक तरीके से खेती कर रहे हैं. खेती में हमें आज बहुतकुछ नए प्रयोग करने की जरूरत है. इन्हें इस्तेमाल कर के अच्छी पैदावार ली जा सकती है.

ऐसी ही एक आधुनिक तकनीक है एक्वापौनिक्स (Aquaponics). इस तकनीक में मछलियां और पौधे आपस में एकदूसरे की मदद करते हैं यानी इस सिस्टम का इस्तेमाल कर मछलियों को सब्जियों के उत्पादन के एक्वाकल्चर और हाइड्रोपौनिक्स (पानी में पौधे उगाना) सिस्टम का एकसाथ इस्तेमाल किया जाता है. इस तकनीक को हम कम जगह में भी अपना सकते हैं. इस में मिट्टी या जमीन की जरूरत नहीं होती है.

Aquaponics

एक्वापौनिक्स (Aquaponics) की शुरुआत शायद एशिया से हुई. यहां के किसानों ने देखा कि ज्यादा बरसात या बाढ़ आने के बाद खेतों में पानी भर जाता है जिस में मछलियां भी होती हैं. उन खेतों में उगाई गई धान की फसलों से अच्छी पैदावार मिलती है. मछलियों से निकलने वाली गंदगी धान या दूसरी फसल के लिए पोषक तत्त्वों का काम करती है.

अगर आसान तरीके से बताया जाए तो जिस पानी का इस्तेमाल इस तकनीक में किया जाता है उस पानी में मछली छोड़ दी जाती हैं, जो उस पानी में रह कर अपना मल वगैरह छोड़ती हैं, वही पानी पौधों के लिए जैविक उर्वरक का काम करता है. इस के उलट हाइड्रोपौनिक्स सिस्टम में हमें पानी में जैविक उर्वरक के रूप में कुछ रसायन डालने होते हैं.

Aquaponics

इसी तकनीक को आज विकसित कर एक्वापौनिक्स (Aquaponics) सिस्टम का नाम दिया है. पारंपरिक खेती, एक्वाकल्चर या हाइड्रोपौनिक्स की तुलना में एक्वापौनिक्स (Aquaponics) तकनीक के कई फायदे हैं.

इस तकनीक में पौधे पानी से अमोनिया और नाइट्रोजन लेते हैं जिस से मछलियां शुद्ध और आक्सिजनयुक्त बेहतर माहौल में पलतीबढ़ती हैं.

माहिरों का मानना है कि जमीन में खेती करने की तुलना में एक्वापौनिक्स (Aquaponics) सिस्टम के तहत सलाद और सब्जियां, जिस में टमाटर, बैगन, शलगम वगैरह पैदा की जा सकती हैं. इस तरह के पौधों में पानी की बहुत ही कम जरूरत होती है. साथ ही, इस सिस्टम के लिए ऊर्जा भी कम लगती है.

Aquaponicsआने वाले समय में इस तकनीक को इस्तेमाल किया जाएगा तो इस से मछलियों के साथसाथ रसायनमुक्त सब्जियां भी मिलेंगी.

दुनियाभर में प्राकृतिक रूप से मछलियों का उत्पादन घटा है और अब माहिर भी मछली उत्पादन के लिए नए समाधान तलाश रहे हैं. फार्म में मछलीपालन करने वालों के लिए भी एक्वापौनिक्स (Aquaponics) सिस्टम बेहतर विकल्प साबित हो सकता है.

इस बारे में हमारी बात अनुभव दास से हुई. वे एक्वापौनिक्स (Aquaponics) के क्षेत्र में काम कर रही कंपनी ‘रैड ओटर फार्म्स’ के संस्थापक हैं. उन का कहना है कि पैदावार के मामले में हम दुनियाभर में कुछ उत्पादों में ऊंचाई पर हो सकते हैं, लेकिन हमारी फसल पैदावार प्रति हेक्टेयर के हिसाब से कम है. पिछले 5 सालों में हमारे कृषि उत्पादन की वृद्धि दर 0.2 फीसदी से 4.2 फीसदी के आसपास रही है.

टमाटर का उदाहरण लें. साल 2017 में भारत चीन के बाद दुनिया में सब से ज्यादा टमाटर पैदा करने वाला देश था. चीन ने तकरीबन 110,000 हेक्टेयर जमीन पर 56.8 मिलियन टन टमाटर का उत्पादन किया, वहीं भारत ने तकरीबन 10 फीसदी कम जमीन पर 18.7 मिलियन टन का उत्पादन किया. टमाटर की यह प्रति हेक्टेयर उत्पादकता अतुलनीय है.

उन्होंने आगे बताया कि आज बड़े पैमाने पर सरकार द्वारा खेती से जुड़े कामों के लिए मदद भी की जाती है. इस के बाद भी भारत का कृषि उत्पादन कमजोर है. तो क्या आने वाले कृषि उत्पादन बढ़ती आबादी की मांगों को पूरा करेगा  क्या हमारे खेत की पैदावार और उस की क्वालिटी बेहतर होगी जो स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है? क्या खेती कभी मौडर्न होगी? वगैरह.

इस पर अनुभव दास ने कहा कि आने वाले कल को बेहतर बना सकें, इस के लिए हमें कृषि क्षेत्र की मौडर्न तकनीकों की तरफ जाना होगा. बदलाव बहुत जरूरी है. एक बेहतर राष्ट्र के लिए खेती के विकास पर ध्यान देना ही होगा. दिनोंदिन हमारी खेत की जोत घट रही है जबकि आबादी बढ़ रही है. हमारे 65 फीसदी खेत फसल विकास के लिए मानूसन पर निर्भर हैं. इसलिए अगर हम प्रकृति के भरोसे रहे तो हम प्रगति की राह नहीं चल सकते. सामाजिक नवाचारकों के रूप में हम एक बदलाव लाना चाहते थे. हमें कृषि के क्षेत्र में एक अलग और नई सोच पैदा करने की जरूरत है. मानसून के भरोसे रह कर खेती नहीं की जा सकती. इस के अलावा हमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल को भी कम करने की जरूरत है.

Aquaponics

हमारा मानना है कि एक्वापौनिक्स (Aquaponics) हमें यह यह मौका देता है. इसे हमें अपनाना चाहिए. एक्वापौनिक्स चक्र पारंपरिक मिट्टी आधारित कृषि की तुलना में 90 फीसदी से ज्यादा बढ़ने वाली फसलों के लिए पानी की जरूरत को कम करता है.

एक्वापौनिक्स (Aquaponics) तकनीक खेती की जमीन पर निर्भर नहीं है. यह बिना मिट्टी के होने वाली इस तकनीक को दुर्गम इलाकों, यहां तक कि शहरी जगहों में ले जाया जा सकता है. इस से बड़ी मात्रा में पानी की बचत होती है और खेती की पैदावार रासायनिक मुक्त होती है. पारंपरिक खेती के मुकाबले पैदावार भी 10-12 गुना ज्यादा है और क्वालिटी बेहतर है. एक लाइन में अगर कहा जाए तो एक्वापौनिक्स जिम्मेदार और टिकाऊ कृषि प्रणाली है और आने वाले समय में यह खेती का भविष्य है.

इंटरनैशनल लैवल पर एक्वापौनिक्स (Aquaponics) ने खेती के विकल्प के रूप में अच्छा कदम बढ़ाया है. खासतौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका और आस्ट्रेलिया में. भारत में एक्वापौनिक्स (Aquaponics) अभी शुरुआती दौर में है. लेकिन अगर हम मिल कर कदम बढ़ाएंगे तो आने वाले समय में एक्वापौनिक्स (Aquaponics) एक प्रभावी तकनीक साबित होगी और अपनेआप में कृषि क्षेत्र में एक लीडर का काम करेगी.

महिला किसानों (Women Farmers) के साथ भेदभाव (Discrimination) क्यों

भारत कृषि प्रधान देश है. यहां तकरीबन 65 फीसदी आबादी कृषि कार्यों में लगी है. देश के सभी राज्यों में किसानों की स्थिति काफी दयनीय है, जबकि किसान खेतों में रातदिन काम करते हैं. फिर चाहे सर्दियों की ठिठुरन भरी रात हो या मईजून की तपती धूप, हर मौसम में किसान कड़ी मेहनत करते हैं. देश के ज्यादातर हिस्सों में पुरुष किसानों के साथ ही महिलाएं भी बढ़चढ़ कर खेती के कामों में अपना योगदान दे रही हैं.

एक तरफ जहां पुरुष किसानों को खेतों में काम करने के बदले ज्यादा मजदूरी मिलती है, वहीं दूसरी तरफ महिलाओं को उन से काफी कम रुपयों में काम करना पड़ता है.

आज भी देश की महिला मजदूरों को अपनी मेहनत की वाजिब मजदूरी नहीं मिल पाती. आज 21वीं सदी में भी पुरुष और महिला में इतना बड़ा भेद है. इस के लिए हमारी पुरुषवादी सोच जिम्मेदार है. हम इस के आगे सोच नहीं पा रहे हैं.

आप देश के किसी कोने में खेतों में जा कर देखेंगे तो चाहे झुलसा देने वाली गरमी हो या फिर बदन को कंपकंपा देने वाली ठंड, हर मौसम में अपनी सेहत की परवाह किए बिना घंटों खेतों में काम करती औरतें मिल जाएंगी. देश की मौजूदा स्थिति यह है कि घरों के बाहर काम करने वाली तकरीबन 80 फीसदी महिलाएं खेतीबारी से जुड़े कामों में लगी हैं, इन सब के बावजूद जब भी किसानों की बात आती है, तो हम सब के जेहन में जो तसवीर उभरती है, वह पुरुष किसानों की होती है.

ऐसा नहीं है कि देश के कुछ राज्यों में ही यह स्थिति हो, सभी जगह ऐसा ही है. आप सब से ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश को देख लें, वहां भी महिला किसानों की यही दुर्दशा है.

इस के अलावा महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, असम व ओडिशा आदि राज्यों में कमोबेश एकजैसे हालात हैं. उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में सर्दियों के मौसम में महिलाएं गन्ने के खेतों में गन्ने की कटाई करने के लिए हंसिया या चापड़ हाथों में लिए देखी जा सकती हैं.

इस के अलावा धान की रोपाई, खेतों से खरपतवार निकालना, फसलों की कटाई और मड़ाई तक सभी काम महिलाएं आसानी से कर लेती हैं. देश के चुनिंदा इलाकों में हल से खेतों की जुताई करते हुए भी महिलाएं दिख जाएंगी. इतना सब होने के बाद भी उन के हक की वाजिब कीमत कोई देने को तैयार नहीं है.

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं का श्रम पुरुषों की तुलना में दोगुना है. इस के बावजूद महिलाओं को किसान का दर्जा देने में आज तक आनाकानी हो रही है, जबकि यह महिलाओं के हक की बात है.

मेहनत की बात करें तो महिलाएं घर के कामों के साथसाथ खेतों की भी जिम्मेदारी संभालती हैं. इतना ही नहीं, वे अपने दुधमुंहे बच्चे को खेतों में ले जा कर काम करती हैं, साथ ही अपने बच्चों का भी खयाल रखती हैं.

महिला किसानों का यह श्रम यहीं खत्म नहीं होता है, वे पशुपालन का काम भी करती हैं. कृषि प्रधान देश होते हुए भी यहां किसानों की हालत दयनीय है और यदि बात महिला किसानों की करें तो उन की हालत पुरुष किसानों से भी बदतर है.

देश में 60 से 80 फीसदी महिलाएं खेती के काम में लगी रहती हैं. अगर जमीन के मालिकाना हक की बात करें तो सिर्फ 13 फीसदी महिलाओं के पास ही हक है.

महिलाओं को जब मर्दों के समान काम करने के बावजूद बराबर का मेहनताना नहीं मिल पाता, तो इस हालत में उन को मालिकाना हक देने की बात दूर की कौड़ी है. जब तक समाज में महिलाओं को ले कर लोगों का नजरिया नहीं बदलेगा, तब तक उन्हें उन का हक नहीं मिल पाएगा.

अगर समाज को प्रगतिशील बनाना है तो महिलाओं को प्रोत्साहित करना होगा. इस के लिए हमें सोच बदलनी पड़ेगी. जब सोच बदलेगी तो समानता आ ही जाएगी.

नीम से करें कीटनाशक (Insecticide) तैयार

भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां की बढ़ती जनसंख्या का असर आने वाले समय में खाद्यान्न पर पड़ेगा. देश में अनाज का उत्पादन तो बढ़ा है, लेकिन यह जनसंख्या के मुकाबले काफी कम है. यदि यही हाल रहा तो देश को फिर से खाद्यान्नों का आयात करना पड़ेगा.

इसलिए सरकार को इस दिशा में सावधानीपूर्वक कदम उठाने होंगे. किसानों की सब से बड़ी दिक्कत है कि वे अपनी फसलों को कीड़ेमकोड़ों से कैसे बचाएं. उन के पास संसाधनों की भारी कमी है. कोल्ड स्टोरेज में उपज रखना महंगा पड़ता है, साथ ही वहां तक उपज ले जाने में भी काफी भाड़ा लग जाता है.

आज अनाज को सुरक्षित रखने के लिए जिन कीटनाशकों या रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है, वे सेहत के लिए नुकसानदेय हैं, इन जहरीले कीटनाशकों से बचने के लिए किसान परंपरागत कीटनाशकों का इस्तमाल कर सकते हैं, इन के इस्तेमाल से अनाज को कीड़ेमकोड़ों व फफूंद और घुन से भी सुरक्षित रखा जा सकता है. पहले लोग कीटनाशक के तौर पर नीम का इस्तेमाल करते थे, जिस का सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ता था.

नीम का इस्तेमाल

* जब आप अनाज को इकट्ठा कर के रख रहे  तो उस दौरान अनाज में सूखी नीम की पत्तियां मिला दें, इस से घुन और अन्य कीड़ेमकोड़े नहीं लगते हैं और अनाज सुरक्षित रहता है.

* आप जिस जगह अनाज रख रहे हों, वहां अनाज रखने से पहले तकरीबन 3-4 इंच नीम की सूखी पत्तियों की परत बिछा देनी चाहिए. इस के बाद आप तकरीबन 2 फुट तक अनाज भरें, फिर नीम की पत्तियों की तह लगाते जाएं.

* कुछ किसान अनाज को जूट की बोरियों में भी भर कर रखते हैं, जिस बोरे में अनाज भरना हो, नीम की पत्तियां डाल कर उबाले गए पानी में रातभर भिगो दें, फिर बोरे को छांव में सुखा लें, उस के बाद उस में अनाज भरें. आप का अनाज एकदम सुरक्षित रहेगा.

* दालों के भंडारण के लिए 1 किलोग्राम दाल में 1 ग्राम नीम का तेल ऐसे मिलाएं जिस से वह पूरी तरह फैल जाए, जब दालों को पकाने के लिए निकालना हो, तब उसे अच्छी तरह धो कर इस्तेमाल करें, समय के साथ नीम के तेल की महक धीरेधीरे कम होने लगती है. जब दलहन को बोआई के लिए तैयार करना हो तो उस स्थिति में 1 किलोग्राम दाल बीज में 2 ग्राम नीम के तेल की जरूरत पड़ती है. इस विधि से दाल के बीज खराब नहीं होते.

* नीम की पकी निबौली को 12 से 18 घंटे पानी में भिगोएं, उस के बाद भीगी निबौली को लकड़ी के डंडे से चलाएं, जिस से निबौली के बीज का छिलका व गूदा अलग हो जाए, गूदा निकाल कर छाया में सुखाएं और सूखे गूदे को बारीक पीस कर पाउडर बना कर पतले सूती कपड़े में पोटली बना कर शाम को पानी में भिगो दें. सुबह पोटली को दबा कर उस निकाल लें और रस में 1 फीसदी साबुन मिला दें, अब आप तैयार निबौली कीटनाशक का खेत में छिड़काव कर सकते हैं.

* 1 हेक्टेयर क्षेत्र में छिड़काव के लिए 5 फीसदी घोल तैयार करने के लिए 25 किलोग्राम निबौली 500 लीटर पानी और 5 किलोग्राम साबुन की जरूरत होती है.

नीम की पत्तियों से कीटनाशक बनाने में किसानों को ज्यादा फायदा होता है, क्योंकि अन्य रासायनिक कीटनाशक बाजार में इस से महंगे मिलते हैं, जो स्वास्थ्य के अलावा मिट्टी के लिए भी हानिकारक हैं. नीम की पत्तियां हर जगह आसानी से मिल जाती हैं और इस पर किसी तरह का खर्च भी नहीं आता. किसानों के साथ ही अन्य लोग भी इस विधि से अपने अनाज को कीड़ेमकोड़ों, फफूंद और घुन से बचा सकते हैं.

किसान कंगाल, खेती बदहाल, किस ने किया यह हाल?

‘मरीज ए इश्क पर रहमत खुद की, मरज बढ़ता गया ज्योंज्यों दवा की…’ मिर्जा गालिब की ये पंक्तिया भारत की खेती और किसानों के हालात पर बिलकुल सटीक बैठती है. हाल ही में देश का ‘आर्थिक सर्वे’ और सालाना बजट 24 लगातार 2 दिनों तक देश की सब से बड़ी पंचायत ‘संसद’ में पेश किया गया.

इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि को देश के विकास का इंजन बताया. सैध्दांतिक आधार पर उन का यह कहना गलत भी नहीं है, क्योंकि देश की लगभग 70 फीसदी जनता रोजगार के लिए और सौ फीसदी जनता भोजन के लिए कृषि व कृषि संबद्ध उपक्रमों पर ही आश्रित है. लेकिन जब बजट में कृषि के लिए राशि आवंटन की बात आई, तो हमेशा की तरह इस बार भी महज 3 से 4 फीसदी के बीच में ही सिमट गई.

विडंबना यह भी रही कि जब एक ओर सरकार कृषि के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियां गिना रही थी, उसी समय दिल दहलाने वाली खबर आई कि देश के अमरावती जिले में पिछले 152 दिनों में 145 किसानों ने आत्महत्या की है. संसद में यह भी बताया गया कि देश में 31 किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर रहे हैं. कृषि प्रधान कहलाने वाले देश के लिए इस से बड़ा दुख और शर्म का विषय और क्या हो सकता है.
विश्व की 5वीं सब से बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का दम अवश्य भरिए, पर हकीकत से भी आंख मत चुराइए. आंकड़े हमें आईना दिखा रहे हैं कि अमेरिका के किसान की सालाना आमदनी 65 लाख रुपए है यानी दैनिक आमदनी 18,000 रुपए है, वहीं भारत के किसान की प्रतिदिन की आमदनी महज 27 रुपए है. ऐसे में देश के करोड़ों किसान परिवार किन कठिन हालात में जीवनयापन करते होंगे, यह हमारे देश के नेताओं को आखिर कब समझ में आएगा?

क्या इन सवालों के जवाब हासिल करना जरूरी नहीं है कि जिस देश में ‘कृषि मूलम जगत सर्वम’ एवं ‘कृषिकर्मणि सर्वश्रेष्ठम्’ यानी कृषि को संपूर्ण जगत का आधार एवं सर्वोत्तम कार्य का दर्जा दिया जाता रहा है, वहां खेती और किसानों की यह दयनीय दुर्दशा आखिर कैसे हो गई?

भारत में कृषि का इतिहास हजारों साल पुराना है. वेदों में कृषि से संबद्ध पर्याप्त ऋचाएं हैं. ऋग्वेद में उल्लेख है कि किसान अपने खेतों में काम कर के समाज के लिए अनाज पैदा करता है और समृद्धि लाता है. यह माना जाता रहा है. ‘कृष्याः फलप्रदा धर्म्या प्रजा भूषणमुत्तमम्’ (कृषि धर्म है, जो उत्तम फल देती है और प्रजा का भूषण है.)

मुगलकालीन दौर में भी भारतीय कृषि का महत्वपूर्ण विकास हुआ. अकबर के शासन में तोतानामा और आयन ए अकबरी जैसी व्यवस्थाओं में कृषि का विशेष ध्यान रखा गया. लेकिन कालांतर में किसानों को भारी करों का सामना करना पड़ता था और सूखे या बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय उन की स्थिति और भी खराब हो जाती थी.

औपनिवेशिक काल में कंपनी और ब्रिटिश सरकार की कृषि नीतियों ने किसानों की स्थिति को बहुत प्रभावित किया. भारी कर, नकदी फसलों की ओर मजबूरी और किसानों की भूमि से जबरिया बेदखली जैसी नीतियों ने भारतीय किसानों को अत्यधिक कष्ट दिया. औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीय कृषि का एक बड़ा हिस्सा निर्यात के लिए तैयार नकदी फसलों की ओर मुड़ गया, जिस से खाद्यान्न की कमी और किसानों की दुर्दशा बढ़ गई. यूरोपीय औपनिवेशिक औद्योगिक क्रांति के कारण भारत के कृषि आधारित ग्रामीण कुटीर उद्योगधंधे भी धीरेधीरे चौपट होते गए.

स्वातंत्र्योत्तर कृषि नीतियां व विसंगतियां

स्वतंत्रता के बाद कृषि को प्राथमिकता देने की बातें तो लगातार हुईं, लेकिन कृषि नीतियां धीरेधीरे योजनाबद्ध विकास की अन्य प्राथमिकताओं के नीचे दबती चली गईं. हरित क्रांति (1960 के दशक) ने कृषि उत्पादन में महत्वपूर्ण वृद्धि की, लेकिन इस ने कई जटिल समस्याओं को जन्म दिया. उर्वरकों, बीजों और सिंचाई की सुविधाओं पर अनुदान का भी प्रावधान रखा गया. लेकिन इस का फायदा बिचौलियों व रसूखदारों के अनैतिक गठजोड़ ने उठाया. लूट का ये सिलसिला आज भी जारी है.

वहीं दूसरी ओर असंगत रासायनिक खादों के प्रयोग ने आज देश की लगभग 85 फीसदी जमीन बंजर होने की कगार पर है. किसानों के उत्पाद को वाजिब मूल्य दिलाने के लिए ‘कृषि उत्पाद मूल्य आयोग’ बनाया गया, पर यह किसानों का पक्षधर कभी नहीं रहा और उन के द्वारा तय किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य खेती की वास्तविक लागत की तुलना में किसानों को घाटा ही देते रहे हैं. कृषि उपज मंडियां भी बनाई गईं, पर यहां भी राजनीतिक छुटभैयों, बिचौलियों आढ़तियों ने कब्जा कर लिया. यहां भी किसानों की लूट पर रोक नहीं लग पाई.

भारतीय कृषि की वर्तमान व भावी ज्वलंत समस्याएं
जलवायु परिवर्तन : पिछले दिनों एक खबर आई कि गेहूं पकने के समय गरमी के बढ़ जाने के कारण गेहूं के दाने सिकुड़ गए और देश के सकल गेहूं उत्पादन में लगभग 16 फीसदी की कमी आई. लगभग डेढ़ अरब की आबादी वाले देश भारत के लिए यह बेहद ही चिंताजनक है. ‘पर्जन्यः पर्जन्याः फलं कृषकस्य सुखाय’ (वर्षा का फल किसान के सुख के लिए है) – यह वैदिक उद्धरण खेती में मौसम की महत्ता को दर्शाता है. वैश्विक जलवायु परिवर्तन की अनियमित वर्षा, बाढ़ और सूखे जैसी समस्याओं से निबटना किसान के बस का नहीं है.

फसलचक्र बदलने के साथ ही किसानों को अपनी खेती की पद्धतियों में भी आवश्यक बदलाव करना जरूरी है.

खेती की बढ़ती लागत और किसानों के उत्पादों का वाजिब मूल्य न मिलना : किसानों की सब से बड़ी समस्या यही है कि उन्हें उन के उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता है. आर्थिक सहयोग विकास संगठन और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2000 से 2017 के बीच किसानों को उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ.

सरकार की ही ‘शांता कुमार समिति’ ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ 6 फीसदी किसानों को ही मिल पाता है. इस का सीधा सा मतलब है कि देश के 94 फीसदी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता है और वे एमएसपी के फायदे से दूर रहते हैं.

देश के किसानों को उचित मूल्य न मिल पाने के कारण 5 से 7 लाख करोड़ का सालाना घाटा होता है, जबकि कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के सरकारी दावों के बावजूद बजट 2024 में कृषि के लिए महज 1.52 लाख करोड़ रुपए ही प्रावधानित किए हैं यानी किसानों को इस चिड़िया की चुग्गे जैसे बजट के बावजूद इस साल भी तकरीबन 5 लाख करोड़ रुपए का घाटा उठाना पड़ेगा. जाहिर है कि स्थिति और भी विकराल होने वाली है.

किसानों पर कर्ज का बोझ : किसान को उन के उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण अकसर ही घाटा उठाना पड़ता है और उन की आय बहुत ही कम रहती है. कर्ज का बोझ और ब्याज की ऊंची दरें किसानों की माली हालत को और भी खराब करती हैं.

नैशनल सैंपल सर्वे औफिस के आंकड़ों के अनुसार, देश के लगभग 47 फीसदी किसान औसतन कर्ज में डूबे हुए हैं.

समाज का नासूर किसान आत्महत्याएं : महाराष्ट्र के अमरावती डिवीजन की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट आई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, 6 महीने में इस डिवीजन में 557 किसानों ने खुदकुशी कर ली, जबकि किसान संगठनों का कहना है कि विदर्भ में प्रतिदिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो के अनुसार, साल 2020 में 10,677 किसानों और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या की. यह आंकड़ा दर्शाता है कि आर्थिक और मानसिक दबावों के चलते किसानों की स्थिति कितनी गंभीर है.

नीतिगत विसंगतियां – प्राचीन मान्यता रही है कि ‘राज्यं पालयेत् कृषि पालेन’ अर्थात राज्य की रक्षा कृषि की रक्षा से होती है. यह दर्शाता है कि कृषि की रक्षा किसी भी राष्ट्र की समृद्धि के लिए अनिवार्य है, जबकि हमारी सरकारों की नीतियां अकसर किसान विरोधी रही हैं. पिछले भूमि अधिग्रहण कानून, नए तीनों विवादास्पद कृषि कानून, हालिया बिजली बिल कानून इस के उदाहरण हैं. किसानों को यह डर है कि सरकार की ये सभी नीतियां आखिरकार उन के हितों के खिलाफ ही काम करेंगी और उन्हें बड़े कारपोरेट्स के सामने मजबूर कर देंगी.

असल जिम्मेदार कौन? : अब लाख टके का सवाल यह है कि इन किसान विरोधी नीतियों के लिए कौन जिम्मेदार है. यह सवाल और इस के जवाब दोनों बहुआयामी हैं, जैसे :

सरकारी नीतियां : सत्ता के लिए वोटों की ओछी राजनीति, कारपोरेट एवं सरकार की अनैतिक गठजोड़ के कारण सरकार की नीतियों और उन की कार्यान्वयन की प्रक्रिया अकसर किसानों के हितों के उलट होती है. कई वजहों से कृषि कानूनों और तमाम अन्य सुधारों के बावजूद उन का क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं हो पाता.

कारपोरेट हित सर्वोपरि : राजनीतिक पार्टियां चुनाव लड़ने के खर्च के लिए बड़े कारपोरेट्स के चंदे पर निर्भर हैं. इसलिए बड़े कारपोरेट घरानों के हितों का प्रभाव भी कृषि नीतियों पर साफसाफ देखा जा सकता है. भूमि अधिग्रहण, नकदी फसलों की प्रवृत्ति और कृषि में निवेश की नीतियों पर कारपोरेट का दबदबा रहता है.

साल 2020-21 में कारपोरेट कंपनियों का कृषि में निवेश बढ़ कर 78,000 करोड़ रुपए हो गया.  इन दिनों हर बड़ा कारपोरेट येनकेन प्रकरेण किसानों की भूमि हासिल कर अपने ‘लैंडबैंक’ की वृद्धि करने में लगा हुआ है. यह स्थिति देश के छोटे किसान, जो कि लगभग 84 फीसदी है, के लिए बेहद चिंताजनक है.

सामाजिक कुचक्र : भारतीय समाज की सामंती और जातिगत संरचना भी कृषि में असमानता को बढ़ावा देती है. छोटे और सीमांत किसान अकसर बड़े जमींदारों और अमीर किसानों के दबाव में रहते हैं. हालांकि इस स्थिति में कुछ बदलाव आया है, पर अभी भी उन की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए बहुतकुछ किया जाना है.

वोट केंद्रित राजनीति व बिखरा किसान नेतृत्व : लोकतंत्र में हर समुदाय व समूह अपनी सामाजिक स्थिति के अनुरूप अपना हक हासिल करने का प्रयास करता है. इस दौड़ में किसान कतार में सब से अंतिम पायदान पर खड़े हैं. दरअसल, देश की आबादी का सब से बड़ा भाग होने के बावजूद आज भी किसान एक संगठित वोट बैंक नहीं बन पाए हैं. भले ही  उन के मुद्दे और सारी समस्याएं समान होती हैं, पर यह समुदाय कभी भी अपने मुद्दों पर न तो पूरी तरह से एकजुट होता है और न ही अपने मुद्दों पर एकमुश्त वोट देता है.

किसान मतदाता बूथ में पहुंचने के बाद किसान रह ही नहीं रह जाता, बल्कि वह हिंदू, मुसलिम, सवर्ण, दलित, अगड़े, पिछड़े जैसे अनगिनत खांचों में बंट जाता है.

शातिर राजनीतिबाज अब यह तथ्य भलीभांति समझ गए हैं कि किसान कभी भी एकजुट हो कर एक वोट बैंक नहीं बन सकता और अपने मुद्दों के लिए एकजुट हो कर खड़ा नहीं हो सकता, इसलिए ये इन का भरपूर फायदा उठाते हैं. इस स्थिति के लिए किसानों का स्वार्थी, नपुंसक, अहंकारी, नकारा नेतृत्व भी काफी हद तक जिम्मेदार है.

ज्यादातर कूपमंडूक किसान नेता प्राय: स्वकेंद्रित व अपनेअपने झूठे अहंकारों में डूबे रहते हैं और ओछी राजनीतिक फायदे के लिए किसान हितों से भी समझौता करने को तैयार रहते हैं. इसलिए ये साझा मुद्दों पर भी जरूरी मजबूती के साथ एकजुट नहीं होते.

ज्यादातर किसान नेता किसी न किसी राजनीतिक पार्टी के किसी न किसी छोटेबड़े नेता के उपग्रह होते हैं. कई बड़े आंदोलनों के निर्णायक मौकों पर ऐसे नेता अपने स्वार्थों के लिए आंदोलन को बेचने तक से बाज नहीं आते. अपने इन्हीं बुरे कामों से किसानों की आबादी 70 फीसदी होने के बावजूद यह समुदाय पिछले 75 सालों से 40 फीसदी वोट पा कर बनने वाली निकम्मी सरकारों का मुंह ताक रहा है.

खेतीबारी, खेतीशिक्षा की महत्ता समझने की जरूरत

केवल गैरकृषि साधन बढ़ाने से ही किसानों की दशा नहीं सुधरेगी, उन्हें शिक्षा भी देनी होगी. किसानों को गांवों में ही बुनियादी सुविधाएं देनी होंगी. इस में स्वास्थ्य सुविधाएं, बाजार, बैंक जैसी सेवाएं भी शामिल हैं. अगर किसान के बच्चे शिक्षित होंगे तो वे गैरकृषि क्षेत्र में नौकरी भी कर सकते हैं.

भारत कृषि प्रधान देश है या नहीं रहा, इसे 2 तरह से देखे जाने की जरूरत है. जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में अब कृषि की हिस्सेदारी बहुत कम रह गई है और अगर यही हालात रहे, तो अगले 15 सालों में भारत की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी और भी कम हो जाएगी. ऐसे में आय के नजरिए से देखा जाए, तो अब भारत कृषि प्रधान नहीं रह गया है, लेकिन यह पूरी तरह से सही नहीं है, क्योंकि खेतीबारी पर निर्भर आबादी की नजर से देखा जाए तो हम अभी भी कृषि प्रधान देश हैं.

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, लगभग 55 फीसदी श्रम शक्ति यानी वर्क फोर्स खेतीबारी पर निर्भर है. खेतीबारी पर निर्भर आबादी तो 65-70 फीसदी होगी और एनएसएसओ के मुताबिक, साल 2011 में 49 फीसदी श्रम शक्ति खेतीबारी पर निर्भर थी और अब भी लगभग 44 फीसदी श्रम शक्ति खेतीबारी पर निर्भर है. सीधेसीधे यह कह देना कि ‘भारत कृषि प्रधान देश नहीं रहा’ सही नहीं है.

अब यहां यह समझना जरूरी है कि खेतीबारी से जुड़ी आबादी क्या करती है? पिछले कई सर्वे बताते हैं कि कई राज्य ऐसे हैं, जहां फसल की खेती से आमदनी कम है, लेकिन वहां के छोटे या सीमांत किसान या भूमिहीन किसानों की आमदनी मजदूरी से भी होती है, वे बाहर नहीं जाते, बल्कि वहीं बड़े किसानों के पास खेत में काम करते हैं. वे कोई गैरकृषि गतिविधि नहीं करते. केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक सहित कई राज्यों में किसानों की जो कुल आमदनी है, उस में खेतिहर मजदूरों का हिस्सा काफी उल्लेखनीय है. इसे गैरकृषि आय माना जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है. जिसे अभी गैरकृषि आय कहा जा रहा है, सही माने में वह गैरकृषि आय नहीं है.  हां, गैरकृषि व्यापार आय की बात करें तो उस का अनुपात काफी कम है, इसलिए अभी यह कह देना जल्दबाजी होगी कि कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में कमी आ रही है. इस की एक वजह यह भी है कि देश में अभी भी खेतीबारी क्षेत्र में जितनी संभावनाएं हैं, उस का दोहन ही नहीं किया गया.

लेकिन इस का मतलब यह नहीं है कि गैरकृषि आय की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत नहीं है. देश में गैरकृषि से होने वाली आय को भी बढ़ाने की सख्त जरूरत है. खेतीबारी पर निर्भर इतनी बड़ी आबादी को केवल इसी के भरोसे नहीं छोड़ सकते. अब या तो खेतीबारी से होने वाली आमदनी बढ़ाइए या फिर गैरकृषि आमदनी बढ़ाइए.

Farmingकिसानों को ऐसे मौके देने होंगे कि वे अपनी खेती के अलावा दूसरे कामों से आमदनी बढ़ाएं, जैसे पशुपालन, मधुमक्खीपालन, मछलीपालन वगैरह. सही माने में किसानों की सुनिश्चित आमदनी गैरकृषि काम से ही होती है, वरना तो खेतीबारी से होने वाली आमदनी का कोई भरोसा नहीं. कभी सूखा पड़ गया, तो कभी बाढ़ आ गई. कभी आग लग गई और अब कोरोना वायरस. कुलमिला कर खेतीबारी बहुत जोखिम भरा रोजगार का साधन हो चुका है, इसलिए गैरकृषि आय पर फोकस बढ़ाना होगा.

हालांकि, केवल गैरकृषि साधन बढ़ाने से ही किसानों की दशा नहीं सुधरेगी, उन्हें शिक्षा भी देनी होगी. किसानों को गांवों में ही बुनियादी सुविधाएं देनी होंगी. इस में स्वास्थ्य सुविधाएं, बाजार, बैंक जैसी सेवाएं भी शामिल हैं. अगर किसान के बच्चे शिक्षित होंगे तो वे गैरकृषि क्षेत्र में नौकरी भी कर सकते हैं. कौशल विकास कार्यक्रम चला कर उन्हें तकनीकी तौर पर मजबूत करने से वे उद्यमिता की ओर भी आगे बढेंगे. शिक्षा के अलगअलग फायदे होते हैं नौजवानों के लिए, खासकर यह सब करना पड़ेगा.

लेकिन कुछ हो नहीं रहा है. न तो कृषि क्षेत्र और न ही गैरकृषि क्षेत्र की ओर कोई विशेष ध्यान दिया जा रहा है. ऐसे में क्या होगा? किसान और उस के परिवारों के सामने भुखमरी के सिवा रास्ता नहीं बचेगा या वे आपराधिक गतिविधियों में शामिल हो जाएंगे.

देश की व्यवस्था अगर कृषि क्षेत्र में सुधार लाना चाहती है, तो कृषि शिक्षा पर खास ध्यान देना होगा. अब कृषि क्षेत्र में नईनई तकनीक की बातें की जा रही हैं. ड्रोन के इस्तेमाल की बात हो रही है. सिंचाई में नई तकनीक की बात हो रही है. लेकिन यह सब तब ही संभव है, जब किसान को उस की तकनीकी जानकारी हो. उसे इस की शिक्षा देने की जरूरत है. किसानों को ट्रेंड करना होगा, ताकि वे खेतीबारी में सुधार कर सकें. साथ ही, कृषि क्षेत्र में नौकरी कर सकें.

राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो इनोवेशन हो रहे हैं, उन्हें सरकार अगर जमीनी स्तर पर लागू नहीं करेगी, तो कृषि क्षेत्र में सुधार नहीं होगा, इसलिए कृषि शिक्षा की ओर बहुत ही ध्यान देना होगा.

Farmingसरकार यदि चाहती है कि किसान के बच्चे भी खेतीबारी ही करें, तो उन्हें कृषि शिक्षा देने की जरूरत है खासकर आधुनिक तकनीक की जानकारी देनी पड़ेगी, तभी जा कर वे कृषि क्षेत्र में रहेंगे और आमदनी बढ़ाएंगे, लेकिन ओवरओल जो स्थिति है, उस से लगता है कि कृषि क्षेत्र में लोग रहेंगे नहीं, खासकर युवा पीढ़ी. इस की बड़ी वजह यह भी है कि खेत छोटे होते जा रहे हैं, जिस से आमदनी ज्यादा होती नहीं है. रिस्क भी बहुत हैं, लोग तैयार नहीं हो रहे हैं. अब तक हम कोई ऐसा मेकैनिज्म तैयार नहीं कर पाए, जिस से खेती को जोखिम मुक्त बनाया जा सके. बीमा योजनाएं भी यह काम नहीं कर पाई हैं. सपोर्ट सिस्टम नहीं है. पैदावार ज्यादा हो जाए, तो उसे फेंकना पड़ता है. सरकार को सिस्टम बनाना होगा कि वह खेती को रिस्क फ्री कर दे.

युवा कृषि की ओर जाना चाहते हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में रोजगार की संभावनाएं बढ़ी हैं, लेकिन सरकारी कृषि विश्वविद्यालयों में सीटें नहीं बढ़ाई जा रही हैं, उन्हें सुविधाएं भी नहीं दी जा रही हैं, इसलिए इस क्षेत्र में प्राइवेट सैक्टर हाथ मार रहा है.

पिछले दिनों सरकार ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद यानी आईएसएआर से कहा है कि वह अपने स्तर पर संसाधन जुटाए. अब अगर वैज्ञानिक ही संसाधन जुटाने लगेगा, तो वह रिसर्च क्या करेगा? संसाधन ही जुटाना था तो वह वैज्ञानिक क्यों बना?

यह सही नहीं है. इस से सरकारी क्षेत्र में रिसर्च खत्म हो जाएगी. प्राइवेट कंपनियां ही कृषि क्षेत्र में रिसर्च कराएंगी. जिन को बीज बेचना है, उर्वरक बेचना है, मशीन बेचनी है, वे लोग ही कृषि क्षेत्र में रिसर्च करेंगे और अपने मुनाफे के लिए उसे लागू करेंगे. इस से प्राइवेट सैक्टर को फायदा होगा.

ऐसी हालत में कृषि शिक्षा, जो भी उपलब्ध है, चौपट होगी, उस की अहमियत कम होगी और खेतीबारी की गुणवत्ता, जैसी भी है, भी प्रभावित होगी व किसी न किसी रूप में खाद्यान्न का संकट भी महसूस किया जाता रहेगा.