Cotton : कपास के खास रोग और उन का इलाज

Cotton : भारत में कपास के 25 से भी ज्यादा रोग अलगअलग कपास उगाने वाले राज्यों में पाए जाते हैं. इन रोगों में खास हैं छोटी अवस्था में पौधों का मरना, जड़गलन, उकठा रोग और मूलग्रंथि सूत्रकृमि रोग.

पौध का मरना : जमीन में रहने वाली फफूंदों जैसे राईजोक्टोनिया, राइजोपस, ग्लोमेरेला व जीवाणु जेनथोमोनास के प्रकोप से कपास के बीज उगते ही नहीं हैं. अगर उग भी जाते हैं, तो जमीन के बाहर निकलने के बाद छोटी अवस्था में ही मर जाते हैं, जिस से खेतों में पौधों की संख्या घट जाती है व कपास के उत्पादन में कमी आ जाती है.

रोकथाम

* अच्छे किस्म के बीज का इस्तेमाल करना चाहिए.

* बोआई से पहले फफूंदनाशी, थिराम, विटाबेक्स, कार्बंडाजिम व एंटीबायोटिक्स स्ट्रेप्टोसाइक्लिन से बीजों का उपचार करना चाहिए.

जड़गलन : यह रोग देशी कपास का भयंकर रोग है. आमतौर पर इस बीमारी से 2-3 फीसदी नुकसान हर साल होता है. यह रोग जमीन में रहने वाली राइजोक्टोनिया सोलेनाई व राइजोक्टोनिया बटाटीकोला नामक फफूंद से होता है. रोग लगे पौधे एकदम से सूखने लगते हैं और मर जाते हैं. बीमार पौधों को आसानी से उखाड़ा जा सकता है. जड़ सड़ने लगती है व छाल फट जाती है. बुरी तरह से रोग लगे पौधे की जड़ अंदर से भूरी व काली हो जाती है. हवा में और जमीन में ज्यादा नमी व गरमी रहने से व सिंचाई से सही नमी का वातावरण मिलने पर बीमारी का असर बढ़ता है. बीमारी आमतौर पर पहली सिंचाई के बाद पौधों की 35 से 45 दिनों की उम्र में दिखना शुरू हो जाती है.

रोकथाम

* मई के पहले पखवाड़े में बोआई से बीमारी कम होती है. ज्योंज्यों पछेती बोआई करते हैं, बीमारी बढ़ती है.

* बीजोपचार कार्बंडाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए.

* कपास और मोठ की मिलीजुली खेती से बीमारी का असर कम होता है.

* बीजोपचार बायोएजेंट ट्राइकोडर्मा

4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करने से रोग का असर कम होता है.

* मिट्टी का उपचार जिंकसल्फेट

24 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से करने

से बीमारी में कमी आती है.

* देसी कपास की आरजी 18 और सीए 9, 10 किस्मों में यह रोग कम लगता है.

* ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले जमीन में देने से रोग में कमी आती है.

उकठा : यह रोग भारत के मध्य पश्चिम इलाकों में पाया जाता है. मध्य प्रदेश, कर्नाटक व दक्षिण गुजरात के काली मिट्टी वाले इलाकों में यह रोग बहुत होता है. रोग लगे पौधे छोटी अवस्था में मर जाते हैं या छोटे रह जाते हैं. फूल छोटे लगते हैं व उन का रेशा कच्चा होता है. राजस्थान में देसी कपास में यह बीमारी श्रीगंगानगर व मेवाड़ कपास क्षेत्रों में ज्यादा होती है. यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्योरम वाइन्फेटस नामक फफूंद से होता है. रोगी पौधे को चीर कर देखने पर ऊतक काले दिखाई देते हैं.

रोकथाम

* जिन इलाकों में यह रोग होता है वहां गोसिपियम आरबोरियम की जगह पर गोसिपियम हिरसुटम कपास उगाएं.

* जड़ गलन की रोकथाम के लिए बीजोपचार कार्बंडाजिम से व भूमि उपचार जिंकसल्फेट से करना चाहिए. इस से यह रोग कम होता है.

मूलग्रंथि रोग : यह रोग मिलाईरोगायनी नामक सूत्रकृमि के पौधों की जड़ों पर आक्रमण करने से पैदा होता है. इस रोग के कारण कपास की जड़ों की बढ़वार रुक जाती है व छोटीछोटी गांठें दिखाई देने लगती हैं. इस वजह से पौधा जमीन से पानी व दूसरे रासायनिक तत्त्वों का इस्तेमाल ठीक तरह से नहीं कर पाता है. पौधा छोटा रह जाता है और पीला पड़ कर व सूख कर मर जाता है.

रोकथाम

* जिन खेतों में सूत्रकृमि का असर देखने को मिले उन में दोबारा कपास न बोएं.

* गरमी के मौसम में खेत में गहरी जुताई करें व खेतों को गहरी धूप में तपाएं, ताकि सूत्रकृमि मर जाएं.

* फसलचक्र में ज्वार, घासे, रीज्का की बोआई करें.

* बोआई से पहले रोग लगे खेतों का कार्बोफ्यूरान 3 जी से 45 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपचार करें.

Cotton

कपास की पत्तियों पर लगने वाले रोग

कपास की फसल में फफूंद, जीवाणु व वायरस के असर से पत्तियों पर कई बीमारियां लग जाती हैं. इन रोगों की वजह से पौधों की पत्तियां भोजन ठीक तरह से नहीं बना पातीं. कपास के डोडे सड़ जाते हैं, फल कम बनते हैं व कपास के रेशे की किस्म अच्छी नहीं रहती है. पत्तियों की मुख्य बीमारियां हैं शाकाणु झुलसा, पत्तीधब्बा व लीफ कर्ल.

शाकाणु झुलसा : कपास का यह भयंकर रोग जेंथोमोनास एक्सोनोपोडिस मालवेसिएरम जीवाणु बैक्टीरिया द्वारा होता है. यह पौधों के सब हिस्सों में लग सकता है. इस रोग को कई नामों से जाना जाता है. रोग लगने पर बीज पत्तों पर गहरे हरे रंग के पारदर्शक धब्बे दिखाई देते हैं.

ये शाकाणु धीरेधीरे नई पत्तियों की ओर फैलते हैं और पौधा किशोरावस्था में ही मुरझा कर मर जाता है. इस को सीडलिंग ब्लाइट कहते हैं. जब फसल करीब 6 हफ्ते की हो जाती है, तो पत्तियों पर छोटेछोटे पानी के धब्बे बनने लगते हैं. ये धीरेधीरे बड़े हो कर कोणीय आकार लेने लगते हैं. इसीलिए इसे कोणीय पत्ती धब्बा रोग या एंगुलर लीफ स्पौट कहते हैं.

पत्तियों की नसों में भी यह रोग फैल जाता  है व उन के सहारे बढ़ता रहता है. इसे बेनबलाइट कहते हैं. रोग का जोर ज्यादा होने पर पत्तियां सूख कर गिरने लगती हैं. जब रोग तने और शाखाओं पर आक्रमण करता है, तो काला कर देता है.

रोगी भाग हवा चलने पर टूट जाता है. डोडियों पर भी रोग का हमला हो सकता है. डोडियों पर नुकीले और तिकोने धब्बे हो जाते हैं. धब्बों से सड़ा हुआ पानी सा निकलता है. ज्यादा धब्बे होने पर रेशे की किस्म पर भी असर पड़ता है.

* अमेरिकन कपास की बोआई 1 मई से 20 मई के बीच करनी चाहिए.

* कपास के बीजों को 8 से 10 घंटे तक स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या प्लांटोमाइसीन 100 पीपीएम घोल में डुबो कर उपचारित करना चाहिए. यदि डिलिटेंड बीज है, तो उसे केवल 2 घंटे ही भिगोना चाहिए.

* फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या प्लांटोमाइसीन 50 पीपीएम और कापरआक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए. इसे 15 दिनों पर दोहराना चाहिए.

पत्ती धब्बा रोग : यह रोग कपास में आल्टरनेरिया, मायरोथिसियम, सरकोस्पोरा, हेल्मिन्थोस्पोरियम नामक फफूंदों से होता है. रोग के लक्षण पत्तों पर धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं. धीरेधीरे धब्बे बड़े होने से पत्ती का पूरा भाग रोग ग्रसित हो जाता है. नतीजतन कपास की पत्तियां गिरने लगती हैं व उपज में कमी आ जाती है.

रोकथाम : बीज को बोने से पहले बीजोपचार करना चाहिए व फसल पर रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही कौपरआक्सीक्लोराइड या मेंकोजेब 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती मुड़न लीफ कर्ल : कपास का पत्ती मुड़न रोग सब से पहले 1993 में श्रीगंगानगर में किसानों के खेतों में देखा गया था. अब यह रोग काफी फैल गया है. कपास का लीफ कर्ल रोग जैमिनी वायरस से होता है व सफेद मक्खी से फैलता है.

यह रोग बीज व भूमि जनित नहीं है. रोग के लक्षण कपास की ऊपरी कोमल पत्तियों पर दिखाई पड़ते हैं. पत्तियों की नसें मोटी हो जाती हैं, तो पत्तियां ऊपर की तरफ या नीचे की तरफ मुड़ जाती हैं. पत्तियों के नीचे मुख्य नसों पर छोटीछोटी पत्तियों के आकार दिखाई पड़ते हैं. रोगी पौधों की बढ़वार रुक जाती है, कलियां व डोडे झड़ने लगते हैं और उपज में कमी आ जाती हैं.

रोकथाम

* रोगरोधी किस्में आरएस 875, एलआर 2013, ए 5188, शंकर जीके 151, एलएचएच 144, आरजी 8, आरजी 18 की बोआई करनी चाहिए.

* खेतों से पीलीभुटी, भिंडी, होलीहाक व जीनिया वगैरह पौधे और खरपतवार निकाल देने चाहिए.

* रोग ग्रसित पौधों में रोग के लक्षण नजर आते ही उन्हें नष्ट कर देना चाहिए.

* समय पर सिस्टेमिक कीटनाशी से वायरस फैलाने वाले कीटों को नष्ट करना चाहिए ताकि रोग आगे नहीं फैल सके.

कपास (Cotton) में नवाचार से कमाया नाम

राजस्थान के जोधुपर जिले के भोपालगढ़ क्षेत्र में पालड़ी राणावता गांव के प्रगतिशील किसान ओम गिरि के पास परिवार की 100 बीघे जमीन है, जिस में से 40 बीघे में उन्होंने कपास की खेती में नवाचारों से ज्यादा पैदावार कर के फायदा उठाया है.

ओम गिरी जैव तकनीक यानी बायोटैक्नोलौजी से विकसित राशि 134, अंकुर, कृषि धन, सरपास 700 फीसदी माहिको वगैरह कपास की बीटी किस्मों का इस्तेमाल करते हैं, जिस से कपास की फसल पर लट कीट का असर नहीं होता है. वे बीजों का बोआई से पहले उपचार करते हैं. वे पड़ोसी किसानों की मदद भी करते हैं. वे गोबर की खाद को सड़ा कर इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने खेत में कंपोस्ट के गड्ढे बना कर रखे हैं. कंपोस्ट के इस्तेमाल से दीमक भी नहीं लगती और जमीन की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती है.

वे कपास की बोआई के लिए जमीन की जांच के आधार पर उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं. वे खड़ी फसल में रस चूसक कीटों की रोकथाम ईटीएल के आधार पर करते हैं. इस के तहत वे पहला छिड़काव इमिडाक्लोप्रिड 17.8 (1 मिलीलीटर प्रति 3 लीटर पानी), दूसरा छिड़काव एसीफेट (1 ग्राम प्रति लीटर पानी) व तीसरा छिड़काव नीम आधारित दवा (एजाडिरेक्टीन) का करते हैं, जिस से रस चूसक कीट सफेदमक्खी, हरा तेला और थ्रिप्स की रोकथाम हो जाती है. फसल के लिए संतुलित उर्वरक एनपीके 18:18:18 के 1 फीसदी घोल का छिड़काव करते हैं. फूल गिरने की समस्या को रोकने के लिए प्लानोफिक्स 4 मिलीलीटर प्रति 15 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करते हैं. इस से फसल के सूखने की शिकायत नहीं रहती.

कपास (Cotton)

अच्छी क्वालिटी की खेती के लिए जरूरी है कि कपास की चुनाई 50 फीसदी डोडे खिलने पर शुरू करें. पूरी तरह खिले डोडे से ही चुनाई करें. चुनाई सुबह ओस सूखने के बाद शुरू करें. चुनाई करते वक्त सिर को कपड़े से ढक लें ताकि कपास में बाल न मिलें. चुनाई करते समय कपास में पत्तियां न मिलने दें. चुनाई नीचे के डोडे से शुरू करें. कपास की चुनाई प्लास्टिक के थैले की बजाय सूती कपड़े में करें. चुनी कपास में पानी न मिलाएं. जमीन पर गिरी कपास को अच्छी तरह चुनें. चुनाई करते वक्त बीड़ीसिगरेट न पीएं व खानापीना न खाएं. चुनी कपास को सूती कपड़े या तिरपाल पर ढक कर रखें. भंडारित कपास को आग व पानी से बचाएं. अंतिम चुनाई की कपास अलग से इकट्ठा करें.

गुणवत्ता वाली साफ कपास का बाजार में 100 से 200 रुपए प्रति क्विंटल ज्यादा मिलता है.

कपास में नवाचारों से ओम गिरी ने कपास का उत्पादन 7 क्विंटल प्रति बीघा यानी तकरीबन 44 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल किया है, जो रिकार्ड उत्पादन है. जोधपुर जिले में सब से ज्यादा यानी 44 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से कपास का उत्पादन लेने के कारण भारतीय वस्त्र उद्योग परिसंघ, कपास विकास और अनुसंधान संगठन ने हाल ही में विजयनगर में ओम गिरी को नकद राशि और प्रशस्तिपत्र दे कर सम्मानित किया है.

कपास (Cotton)

इस तरह ओम गिरी ने कपास में नवाचार जैव तकनीक से उन्नत किस्म का कपास हासिल कर के ज्यादा मुनाफा कमाया है और दूसरे किसानों को भी इस की जानकारी दी है.

एचडीपीएस पध्दति से कपास की खेती

पांढुरना : पांढुरना जिले के विकासखंड सौंसर के गांव मर्राम में उपसंचालक, कृषि, जितेंद्र कुमार सिंह की उपस्थिति में ‘सघन रोपण प्रणाली (एचडीपीएस) पद्धति से कपास की खेती में पौधों की बढ़वार नियंत्रण एवं कीट प्रबंधन’ विषय पर एकदिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया.

कार्यशाला में पहले से चयनित अनुसूचित जनजाति के 51 किसानों को केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान, नागपुर से पधारे वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डा. रामाकृष्णा द्वारा एचडीपीएस पद्वति से कपास फसल उत्पादन के संबंध में विस्तारपूर्वक किसानों को बताया गया.

उन्होंने कहा कि हलकी जमीन का चयन करते हुए कतार से कतार की दूरी 90 सैंटीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 15 सैंटीमीटर के अंतराल पर फसल बोई गई. सघन रोपण प्रणाली (एचडीपीएस) पद्धति से कपास की खेती करने वाले किसानों को उचित केनोपी मैनेजमेंट के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी प्रदान की गई, जिस में फसल की 45 दिन की अवस्था में कम से कम पौधे 1.5 से 2.0 फीट एवं पाति निर्माण अवस्था पर ग्रोथरेगुलेटिंग हार्मोंस चमत्कार 12 मिलीलिटर प्रति 15 लिटर पानी की दर से घोल बना कर एक एकड में 10 टंकी दवा का छिड़काव करने की सलाह दी गई, जिस से कि पौधे की बढ़वार नियंत्रित करते हुए प्रति एकड़  क्षेत्रफल से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सके. सभी चयनित किसानों को केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान, नागपुर द्वारा उन्नत किस्म का बीज एवं ग्रोथरेगुलेटिंग हार्मोंस नि:शुल्क प्रदान किया गया.

kapas keet

केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान, नागपुर के डा. दीपक नागराले द्वारा कपास फसल में रोग एवं कीट प्रबंधन के संबंध में तकनीकी जानकारी प्रदान की गई. वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं डीन जेडएआरएस डा. आरसी शर्मा ने कपास फसल में पोषक तत्व प्रबंधन के बारे में जानकारी दी.

कृषि विज्ञान केंद्र के प्रमुख डा. डीसी श्रीवास्तव के द्वारा कपास फसल नवाचार को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया, जिस से कि अच्छा उत्पादन प्राप्त हो सके. उपसंचालक, कृषि, जितेंद्र कुमार सिंह द्वारा एचडीपीएस पध्दति से कपास की खेती के लिए जिले में हलकी जमीन में कपास उत्पादक किसानों के लिए वरदान साबित होना बताया गया, जिस से किसानों को पूर्व में हो रहे उत्पादन की तुलना में दोगुना से अधिक उत्पादन होने की बात कही गई.

इस कार्यक्रम में अनुविभागीय कृषि अधिकारी सौंसर, वरिष्ठ कृषि विकास अधिकारी, कृषि विस्तार अधिकारी, बीटीएम, एटीएम. आत्मा, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के प्रतिक्षा मेहरा एवं सृजन के अधिकारी उपस्थित थे.