Green Manure : ढैंचे की खेती से बढ़ाएं मिट्टी की उर्वरता

Green Manure : भारतीय किसानों द्वारा अपने खेतों में बोई गई फसलों से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए अंधाधुंध रासायनिक खादों व उर्वरकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिस की वजह से मिट्टी में जीवाश्म की मात्रा में दिनोंदिन कमी होती जा रही है और मिट्टी ऊसर होने की कगार पर पहुंचती जा रही है. ऐसी हालत से बचने व फसल उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों को ऐसे उर्वरकों का इस्तेमाल करना होगा, जिन से मिट्टी में मौजूद लाभदायक जीवाणुओं को कोई हानि न पहुंचे.

खेत में जीवाश्म की मात्रा को बढ़ाने और उर्वरा शक्ति के विकास में जैविक व हरी खादों का इस्तेमाल काफी फायदेमंद होता है. हरी खाद के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली ढैंचे की फसल न केवल खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ाती है, बल्कि फसल उत्पादन को बढ़ा कर लागत में भी कमी लाती है. ढैंचा एक ऐसी फसल है, जिसे खेत में बोआई के 55-60 दिनों बाद हल से पलट कर मिट्टी में दबा दिया जाता है. ढैंचे की बोआई उसी खेत में की जाती है, जिस में हरी खाद का इस्तेमाल करना हो. इस के नाजुक पौधों को बोआई के 55-60 दिनों बाद जुताई कर के खेत में मिला कर पानी भर दिया जाता है. ढैंचे की फसल थोड़ी नमी पाने के बाद ही सड़ना शुरू हो जाती है.

ढैंचे की हरी खाद से मिट्टी को भरपूर मात्रा में नाइट्रोजन मिलता है, जिस से खेत में पोषक तत्त्वों का संरक्षण होता है और मिट्टी में नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के साथ ही क्षारीय व लवणीय मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है. ढैंचे से अन्य हरी खादों के मुकाबले नाइट्रोजन की ज्यादा मात्रा मिलती है.

ढैंचे की उन्नत किस्में : ढैंचे में खनिज पदार्थों की मौजूदगी, नाइट्रोजन की अच्छी मात्रा व बोई गई फसलों पर अच्छे असर को देखते हुए इस की कुछ किस्में अनुकूल मानी गई हैं, जिन में सस्बेनीया, एजिप्टिका, यस रोसट्रेटा व एस एक्वेलेटा खास हैं.

हरी खाद के लिए अनुकूल मिट्टी : वैसे तो हरी खाद के लिए ढैंचे की बोआई किसी भी तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन जलमग्न, क्षारीय, लवणीय व सामान्य मिट्टियों में ढैंचे की फसल लगाने से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद मिलती है.

बोआई का समय व बीज की मात्रा : ढैंचे की बोआई से पहले खेत की 1 बार जुताई कर लेनी चाहिए. इस के बाद प्रति हेक्टेयर 35-50 किलोग्राम बीज का इस्तेमाल करना चाहिए. ढैंचे की बोआई अप्रैल के अंतिम हफ्ते से ले कर जून के अंतिम हफ्ते तक की जाती है. बोआई के 10 से 15 दिनों के बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. जब फसल 20 दिनों की हो जाए, तो 25 किलोग्राम यूरिया का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. इस से फसल में नाइट्रोजन की मात्रा बनने में मदद मिलती है.

फसल की पलटाई : जब ढैंचे  की फसल की लंबाई 2 से ढाई फुट की हो जाए तो इसे हल द्वारा खेत में पलट देना चाहिए. इस के बाद ढैंचे की फसल सड़नी शरू हो जाती है, जिस से मिट्टी की उर्वरा कूवत बढ़ने के साथ ही सूक्ष्म पोषक तत्त्वों व सूक्ष्म जीवाणुओं की तादाद भी बढ़ती है. इस से मिट्टी की संरचना में सुधार होता है और बोई गई फसल की जड़ों का फैलाव बेहतर होता है. हरी खाद मिट्टी की जलधारण कूवत को बढ़ा कर नमी को लंबे समय तक बनाए रखने में मददगार होती है. हरी खाद को दबाने के बाद बोई गई धान की फसल में कुछ प्रजातियों के खरपतवार न के बराबर होते हैं. इस प्रकार खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रयोग किए जाने वाले खरपतवारनाशी के कुप्रभाव से मिट्टी को बचाने में मदद मिलती है.

इस प्रकार बेहद कम लागत और मेहनत से हम अपनी मिट्टी की उर्वरा ताकत को बढ़ाने के लिए ढैंचे की फसल को हरी खाद के रूप में इस्तेमाल कर के रासायनिक उर्वरकों पर होने वाले खर्च में कमी ला सकते हैं और मिट्टी को रासायनिक उर्वरकों के प्रभाव से बचा सकते हैं.

लौकी (Bottle Gourd) की खेती और फसल की सुरक्षा

लौकी बेल वाली फसल है और किसान इस की खेती कर के अच्छाखासा मुनाफा कमाते हैं. साथ ही यह सेहत के लिए भी काफी फायदेमंद मानी जाती है. यह कम समय में तैयार होने वाली फसल है.

खेत की तैयारी : लौकी की फसल वैसे तो हर तरह की जमीन में हो जाती है, लेकिन सही जल निकास वाली जीवांश से भरपूर दोमट मिट्टी इस की खेती के लिए फायदेमंद है. इस के लिए जमीन का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए.

खेत की तैयारी के लिए सब  पहले हरी खाद डालनी चाहिए. इस के लिए 1 एकड़ जमीन में 2 किलोग्राम सतई, 4 किलोग्राम मूंग या दलहन, 1 किलोग्राम तिलहन और 2 किलोग्राम ढेंचा बीज ले कर बोआई करें. जैसे ही यह फसल 45 दिन की हो जाए, तभी हैरो से जुताई कर 1000 लिटर बायोगैस स्लरी या संजीवक खाद डालें और एक हफ्ते बाद मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर इसे खुला छोड़ दें.

इस के एक हफ्ते बाद 3 से 4 बार देशी हल से जुताई कर खेत में पाटा लगा कर समतल कर लें. उस के बाद 10-10 फुट पर 1 फुट गहरी और 2 फुट चौड़ी नालियां बना कर 3-3 फुट के अंतर पर थावले (थाले) बना कर हर थावले में 1 किलोग्राम वर्मी कंपोस्ट खाद या गोबर की सड़ी खाद और 200 ग्राम राख मिला कर थाला ढक दें. उस के बाद नालियों में सिंचाई के 5-6 दिन बाद लौकी के बीजों को बोएं. बोआई के दौरान हरेक थाले में 4 से 6 बीज बोएं.

खेती के लिए सही

समय : लौकी की खेती के लिए गरम और आर्द्र वातावरण काफी अच्छा रहता है, जबकि ज्यादा बारिश और बादलों से भरा आसमान इस की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. बिना पाले वाली जलवायु में लौकी की पैदावार काफी अच्छी होती है. इसलिए लौकी की खेती के लिए उत्तरमध्य भारत में फरवरी से जून का समय काफी मुफीद रहता है.

लौकी की अच्छी किस्में

पूसा समर लौंग : यह किस्म गरमियों और बरसात दोनों ही मौसम में अच्छी उपज देती है. इस की बेल में फल ज्यादा लगते हैं और 40 से 50 सैंटीमीटर तक लंबे होते हैं. इस की उपज 70 से 75 क्विंटल प्रति एकड़ तक हो जाती है.

पंजाब लौंग : यह किस्म काफी उपयोगी और अच्छी उपज देती है. इस के फल लंबे, हरे और कोमल होते हैं. बरसात में इसे लगाना ज्यादा अच्छा रहता है. इस की उपज 80 से 85 क्विंटल प्रति एकड़ होती है.

पंजाब कोमल : लौकी की यह अगेती मध्यम आकार की लंबे फल वाली अंगूरी रंग की किस्म है. इस के फल काफी समय तक ताजा रहते हैं और इस की उपज 150 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है.

पूसा नवीन : यह वसंत के मौसम की सब से अच्छी किस्म है. इस के फल दूसरी किस्मों की तुलना में जल्दी तैयार होते हैं. इस के फल छोटे, लंबे, बेलनाकार और मध्यम मोटाई के हरे रंग के होते हैं. फल का वजन 800 ग्राम के आसपास होता है.

कोयंबटूर: दक्षिण भारत की यह सब से अच्छी किस्म है. क्षारीय मिट्टी में यह अच्छी उपज देती है. इस की उपज 70 क्विंटल प्रति एकड़ है.

आजाद नूतन : यह प्रजाति काफी लोकप्रिय है, क्योंकि यह बीज की बोआई के 60 दिन बाद फल देना शुरू कर देती है. इस के फल 1 किलोग्राम वजनी होते हैं और उपज 80 से 90 क्विंटल प्रति एकड़ मिलती है.

सिंचाई और निराईगुड़ाई : लौकी की खेती के लिए सिंचाई काफी खास है. इस में पानी पूरे खेत में न दे कर केवल थाले में ही दें, ताकि फंगस कम नुकसान पहुंचा सकें.

वैसे तो गरमी के मौसम में 4 से 5 दिन में सिंचाई करनी चाहिए. सिंचाई के एक दिन बाद 200 ग्राम राख में 5 ग्राम हींग खेत में डालने से पौधे की बेल स्वस्थ रहती है और फल भी समय से पहले नहीं टूटते.

लौकी की फसल गरमी और बरसात की होने से इस में खरपतवार ज्यादा उगते हैं. समयसमय पर इन्हें खेत से निकालना चाहिए. साथ ही, समय पर जरूरत के मुताबिक निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए.

कुदरती खाद का इस्तेमाल : लौकी की फसल में बीज बोने के 3 हफ्ते बाद जब पौध में 3-4 पत्ते निकलने लगते हैं, तब 2000 लिटर बायोगैस स्लरी या संजीवक खाद या फिर 10 किलोग्राम गोबर से बनी खाद प्रति एकड़ के हिसाब से इस्तेमाल करनी चाहिए. जब पौधों में फूल निकलने लगें तब दूसरी बार 1000 लिटर बायोगैस स्लरी या 1000 लिटर संजीवक खाद या फिर 20 किलोग्राम गोबर की खाद प्रति एकड़ की दर से डालें.

तीसरी बार इस खाद को पहली बार लौकी की तुड़ाई के बाद देने से अच्छी उपज हासिल होती है.

लौकी की खेती में कुदरती कीटरक्षक का समय पर छिड़काव करने से फसल पूरी तरह रोगमुक्त रहती है और अच्छी उपज हासिल होती है. लौकी की फसल पर लगने वाले कुछ खास रोगों का कुदरती निदान इस तरह करते हैं.

रैड बीटल : यह एक हानिकारक कीट है जो लौकी के पौधे की शुरुआती बढ़ोतरी के दौरान लगता है और पत्तियों को खाता है. इस वजह से पौधों की सही तरीके से बढ़वार नहीं हो पाती है. रैड बीटल की यह सूंड़ी काफी खतरनाक होती है. यह जमीन के भीतर पौधों की जड़ों को काट कर उन्हें नुकसान पहुंचाती है.

रोकथाम : रैड बीटल से लौकी की फसल को बचाने के लिए पतंजलि निंबादि कीटरक्षक काफी असरकारक है. 5 लिटर कीटरक्षक को 40 लिटर पानी में मिला कर हफ्ते में 2 बार छिड़काव करें. छिड़काव के बाद नीम की लकड़ी की राख छिड़कने से अच्छी पैदावार हासिल होती है.

फ्रूट फ्लाई : यह मक्खी लौकी की फसल में घुस कर अंडे देती है. इन अंडों से सूंड़ी निकलती है, जो फलों को नुकसान पहुंचाती है. इस से किसानों को अच्छी कीमत नहीं मिल पाती है.

रोकथाम : फ्रूट फ्लाई से फसल को बचाव के लिए जब लौकी की फसल पर फूल निकलने शुरू होते हैं, उस समय पतंजलि बायो रिसर्च इंस्टीट्यूट के ‘अभिमन्यु’ 100 मिलीलिटर को 3 लिटर खट्टी छाछ में 150 ग्राम कौपर सल्फेट पाउडर के साथ 40 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. यह छिड़काव हर हफ्ते करना जरूरी है.

पाउडरी मिल्ड्यू : यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक कवक के चलते होता है. इस फंगस की वजह से लौकी की बेल और पत्तियों पर सफेद गोलाकार जाल जैसा फैल जाता है, जो बाद में कत्थई रंग में तबदील हो जाता है. इस में पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती हैं.

रोकथाम : इस रोग से बचाव के लिए 5 लिटर खट्टी छाछ में 2 लिटर गोमूत्र और 30 लिटर पानी मिला कर 4 दिन के अंतर पर छिड़काव करें. इस रोग से होने वाले नुकसान से फसल बच जाती है.

लौकी का एंथ्रेक्नोज : लौकी की फसल में एंथ्रेक्नोज रोग क्लेटोटाइकम नामक फंगस के कवक के कारण होता है. इस रोग की वजह से पत्तियों पर लालकाले धब्बे बन जाते हैं. इस की वजह से पौधा सेहतमंद नहीं रह पाता है.

रोकथाम : 5 लिटर गोमूत्र में 2 किलोग्राम अमरूद या आड़ू के पत्ते उबाल कर ठंडा कर छानें, उस में 30 लिटर पानी मिला कर 3-3 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.

लौकी की तोड़ाई: लौकी के फलों की तोड़ाई कोमल अवस्था में ही करनी चाहिए. कठोर फलों से सब्जी अच्छी नहीं बनती और बाजार में इस की कीमत भी सही नहीं मिलती.

हरी खाद (Green Manure) से बढ़ाएं मिट्टी की पैदावार कूवत

पौधों के लिए तकरीबन 16 पोषक तत्त्वों की जरूरत होती है. इन में से कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, फास्फोरस व गंधक प्रोटीन में पाए जाने की वजह से पौधों के प्रोटोप्लाज्म के लिए जरूरी होते हैं. इस के अलावा 10 अन्य पोषक तत्त्व किसी खास पौधे या पौधों के लिए जरूरी होते हैं. इन के नाम हैं: कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटैशियम, लोहा, तांबा, मैगनीज, जस्ता, बोरोन, मोली, ब्डेनम. ये सभी पोषक तत्त्व पौधों की बढ़वार और पैदावार के लिए जरूरी होते हैं.

आज के समय में किसान ज्यादा उपज लेने के लिए कैमिकल खादों का बेतहाशा मात्रा में इस्तेमाल करते हैं. इस वजह से मिट्टी की पैदावार कूवत पर उलटा असर पड़ता है. इसलिए मिट्टी के इन गुणों को सुधारने के लिए हरी खाद का इस्तेमाल समय की पुकार है. किसान अपने खेत में हरी खाद का इस्तेमाल कर मिट्टी की पैदावार कूवत बढ़ाने के साथसाथ अधिक उपज ले सकेंगे.

दलहनी और अदलहनी फसलों या दूसरे हरे पौधों को उखाड़ कर या उस के भागों को हरी अवस्था में फूल निकलने से पहले मिट्टी में जैविक पदार्थ या पोषक तत्त्वों की मात्रा में बढ़वार करने के मकसद से जुताई कर दबाने की प्रकिया को हरी खाद की संज्ञा दी जाती है.

हरी खाद के लिए प्रयुक्त फसलों का मिट्टी में विच्छेदन होता है, ताकि मिट्टी में उर्वराशक्ति बढ़ती है. इस वजह से मिट्टी की भौतिक, रासायनिक और जैविक दशाओं में सुधार होता है, जिस से खेती उत्पादन में बढ़ोतरी होती है.

हरी खाद बनाने की विधियां

जलवायु और मिट्टी के मुताबिक हरी खाद बनाने की विभिन्न विधियां प्रचलित हैं. उत्तरी व पश्चिमी भारत में हरी खाद की फसल उगा कर उसी खेत में फूल आने से पहले दबा दी जाती है, जबकि पूर्वी व मध्य भारत में हरी खाद की फसल मुख्य फसल के साथ उगा कर तैयार की जाती है. वहीं दक्षिण भारत में हरी खाद की फसलों को खेत की मेंड़ों पर उगाया जाता है.

आमतौर पर हरी खाद को इन विधियों से भी उगाया जाता है:

खेत में हरी खाद की फसल उगा कर मिट्टी में दबाना : इस विधि का इस्तेमाल उन्हीं इलाकों में किया जाता है, जहां सिंचाई का सही इंतजाम होता है.

इस विधि में हरी खाद बनाने के लिए जिस खेत में हरी खाद वाली फसलें उगाई जाती हैं, उसी खेत में पलट कर दबा दी जाती हैं. हरी खाद के लिए दलहनी और अदलहनी फसलें उगाई जाती हैं. जल्दी पकने वाली फसलें जैसे सनई, ढैंचा, मूंग, उड़द, लोबिया वगैरह की बोआई की गई फसल को फूल आते ही खेत में दबा देते हैं.

हरी खाद की हरित पर्ण विधि : इस विधि में पेड़ों या झाडि़यों की कोमल पत्तियों, शाखाओं व टहनियों को दूसरे खेत से तोड़ कर वांछित खेत में डाल कर जुताई कर के दबाते हैं.

यह विधि उन इलाकों में ज्यादा चलन में हैं, जहां सालाना बारिश कम होती है. इस विधि में दूसरे खेतों में उगाई गई हरी खाद की फसल को काट कर वहीं खेतों में डाल कर मिट्टी में दबा देते हैं.

अनेक पौधों को मेंड़ों और बेकार पड़ी मिट्टी में हरी पत्तियों के मकसद से उगाया जाता है. इन झाडि़यों की हरी पत्तियों को तोड़ कर खेत में डाल देते हैं. मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर जमीन में दबा देते हैं. इस विधि में दलहनी या अदलहनी दोनों तरह के पौधे हो सकते हैं. सदाबहार, सुबबूल, अमलताश, सफेद आक वगैरह.

हरी खाद की फसल के गुण

* फसल दलहनी होनी चाहिए. उस के पौधों की जड़ों में ग्रंथियां होने के चलते राइजोबियम द्वारा वायुमंडल से नाइट्रोजन का मिट्टी में स्थिरीकरण हो सके.

* हरी खाद की फसल ऐसी होनी चाहिए, जो कम उर्वर वाली मिट्टी में भी उगाई जा सके.

* फसल को कम पानी की जरूरत हो.

* फसल कम अवधि की होनी चाहिए.

* फसल को ज्यादा खाद और उर्वरकों की जरूरत न हो.

* फसल चक्र में हरी खाद की सही जगह हो.

* फसल जल्दी बढ़ने वाली हो.

* फसल का वानस्पतिक भाग कोमल हो, ताकि वह सुगमता और सरलता से टूट सके.

* फसल की पत्तियों व शाखाओं की तादाद ज्यादा हो, जिस से प्रति हेक्टेयर ज्यादा मात्रा में जैविक पदार्थ और पोषक तत्त्व मिल सकें.

* फसल गहरी जड़ प्रणाली वाली हो, ताकि मिट्टी में गहराई से नमी और पोषक मात्रा से ले कर पौधे में संचित कर सके. साथ ही, जमीन में वायु संचार अच्छा हो सके.

* फसल पर रोगों का हमला कम से कम हो.

हरी खाद बनाने के लिए फसलें

हरी खाद बनाने के लिए उपयोग की जाने वाली फसलों को इस तरह से बांटा जा सकता है:

खरीफ फसलों के लिए

दलहनी फसलें : दलहनी या फलीदार फसलें हरी खाद बनाने के लिए सही रहती हैं, क्योंकि इन फसलों की जड़ों की ग्रंथियों में मौजूद राइजोबियम जीवाणु वायुमंडल से नाइट्रोजन लेते हैं. साथ ही, इन फसलों की वानस्पतिक बढ़वार अच्छी होती है. ये फसलें कम अवधि वाली होती हैं और इन की जड़ें गहरी जाती हैं.

सनई : इस का इस्तेमाल खासतौर से उत्तरी भारत में किया जाता है. यह बोने के महज 6-8 हफ्ते बाद मिट्टी में पलट दी जाती है. इस से 60-100 किलोग्राम नाइट्रोजन और 280 किलोग्राम जैविक पदार्थ प्रति हेक्टेयर फसल मिल जाती है. इसे अप्रैलजुलाई में उगाया जा सकता है. 80-100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर मिलता है.

ढैंचा : हरी खाद के रूप में ढैंचा का प्रमुख स्थान है. इस फसल का इस्तेमाल ऊसर जमीन को सुधारने में भी किया जाता है. इस की फसल को महज 45-50 दिन में खेत में पलट दिया जाता है. इस से 80-100 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर मिल जाता है.

20-25 टन हरे पदार्थ की मात्रा प्रति हेक्टेयर हासिल होती है.

लोबिया : खरीफ मौसम में पौधों की अच्छी बढ़वार होने की वजह से हरी खाद के लिए यह खास फसल है. इस से 15-18 टन हरा पदार्थ प्रति हेक्टेयर मिल जाता है. 74-88 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाता है. इसे अप्रैलजुलाई में उगाया जा सकता है. 45-50 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर मिलता है.

उड़द : खरीफ मौसम में पौधों की अच्छी बढ़वार होने के चलते हरी खाद के लिए यह अहम फसल है. इस से 40-49 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर मिल जाती है. 10-12 टन हरे पदार्थ की मात्रा प्रति हेक्टेयर मिल जाती है. इसे जूनजुलाई में उगाया जा सकता है. 20-22 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही होता है.

मूंग : खरीफ मौसम में पौधों की अच्छी बढ़वार होने से हरी खाद के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण फसल है. इस से 38-48 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर हासिल हो जाती है. इस से 8-10 टन हरे पदार्थ की मात्रा प्रति हेक्टेयर मिल जाती है. इसे जूनजुलाई में उगाया जा सकता है. 20-22 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर काफी है.

ग्वार : खरीफ मौसम में पौधों की अच्छी बढ़वार होने और रेतीली मिट्टी में आसानी से उगने की वजह से यह हरी खाद के लिए सही और महत्त्वपूर्ण फसल है. इस से 8-10 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर हासिल हो जाती है. इस से 20-25 टन हरा पदार्थ प्रति हेक्टेयर हासिल हो जाता है. इसे अप्रैल से जुलाई के मध्य तक उगाया जा सकता है. 30-40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर हासिल होता है.

रबी फसलों के लिए

सैंजी : यह रबी फसलों के लिए हरी खाद के लिए मुफीद फसल है. इसे अक्तूबरदिसंबर में उगाया जा सकता है. प्रति हेक्टेयर 25-30 किलोग्राम बीज सही होता है. प्रति हेक्टेयर 120-135 किलोग्राम नाइट्रोजन और 26-29 टन हरा पदार्थ मिल सकता है.

बरसीम : रबी फसल के रूप में यह हरी खाद के लिए सही फसल है. इसे अक्तूबरदिसंबर में उगाया जा सकता है. प्रति हेक्टेयर 20-30 किलोग्राम बीज सही होता है. प्रति हेक्टेयर 60 किलोग्राम नाइट्रोजन और16 टन हरा पदार्थ प्राप्त हो जाता है.

मटर : यह रबी फसल के रूप में हरी खाद के लिए मुफीद है. प्रति हेक्टेयर 80-100 किलोग्राम बीज सही होता है. प्रति हेक्टेयर 67 किलोग्राम नाइट्रोजन और 21 टन हरा पदार्थ मिल जाता है.

अदलहनी फसलें

ये फसलें मिट्टी में नाइट्रोजन स्थिरीकरण तो नहीं करती हैं, पर विलय नाइट्रोजन का संरक्षण जरूर करती हैं और मिट्टी में जैविक पदार्थ की मात्रा में बढ़ोतरी करती हैं. इस वजह से मिट्टी की रासायनिक, भौतिक और जैविक गुणों में सुधार होता है.

हरी खाद के लिए फसल उत्पादन की तकनीक

हरी खाद के लिए फसल उत्पादन की तकनीकी जानकारी होना बहुत ही जरूरी है:

जलवायु : हरी खाद वाली फसलों के लिए गरम और नम जलवायु की जरूरत होती है. जांच से पता चला है कि 50-60 सैंटीमीटर से ज्यादा सालाना बारिश वाले इलाके हरी खाद उत्पादन के लिए उत्तम माने गए हैं क्योंकि इस समय हरी खाद वाली फसल की बढ़वार अधिक होती है. फसल के अपघटन के लिए 25 डिगरी सैंटीग्रेड से ले कर 35 डिगरी सैंटीग्रेड तक तापमान सही माना गया है.

मिट्टी : हरी खाद फसल उत्पादन के लिए रेतीली हलकी दोमट मिट्टी से ले कर लवणीय व कम उपजाऊ मिट्टी सही होती है.

खेत की तैयारी : हरी खाद की फसल उगाने के लिए खेत की विशेष तैयारी की जरूरत नहीं होती है. एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और फिर पाटा लगाएं.

खाद और उर्वरक

हरी खाद के लिए खाद और उर्वरकों की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि हरी खाद के लिए दलहनी या अदलहनी फसलें उगाई जा रही हैं.

दलहनी फसलों की सही बढ़वार के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए, जबकि अदलहनी फसलों के लिए ज्यादा मात्रा की जरूरत होती है.

अदलहनी फसलों में 40-60 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर दिया जाना चाहिए. दलहनी फसलों में फास्फोरस की मौजूदगी में राइजोबियम जीवाणु अधिक क्रियाशील रहते हैं. इसलिए नाइट्रोजन का यौगिकीकरण अच्छी तरह होता है. फास्फोरस जैविक पदार्थ से मिल कर इस तरह यौगिक बनाता है कि अगली फसल को फास्फोरस आसानी से मिलता है.

सिंचाई : सिंचित इलाकों में अप्रैल में उगाई गई फसल की जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें. अगर सिंचाई की सुविधा न हो तो बारिश में हरी खाद की फसल की बोआई करें.

फसल को खेत में पलटना : फसल की एक विशेष अवस्था आने पर पलटाई करने से जमीन को अधिकतम नाइट्रोजन व जीवांश पदार्थ मिलते हैं. फसल में जब पुष्प अवस्था शुरू हो जाए और उस की टहनियां कोमल, रसीली और उन पर ज्यादा पत्तियों और तने बिना रेशेदार हों, पलटना चाहिए.

जांच से पता चला है कि खरीफ की फसल को पलटने का काम फूल निकलने के बाद शुरू के पहले हफ्ते में कर लेना चाहिए. सनई व ढैंचा को क्रमश: 50 व 40 दिन के बाद पलट देना चाहिए.

हरी खाद की फसल में पाटा चला कर फसल को खोद देते हैं, बाद में मिट्टी पलटने वाले हल से फसल को खेत में ही दबा देते हैं. रेतीली मिट्टी में फसल को गहराई पर और आर्द्र मौसम में कम गहराई पर दबाते हैं.

हरी खाद का अपघटन

हरी खाद से हासिल जैविक पदार्थ के पूर्ण अपघटन में सूक्ष्म जीवाणुओं का खासा महत्त्व है. ये सूक्ष्म जीवाणु हरे पदार्थों को सड़ा कर अमोनीकरण करते हैं और आखिर में नाइट्रोजन को सुलभ अवस्था में उपलब्ध कराते हैं.

हरी खाद की पलटाई और आगामी फसल में अंतराल

हरी खाद की फसल को खेत में पलटने और आगामी फसल को खेत में पलटने और आगामी फसल के बीच अंतर जीवांश पदार्थ के अपघटन पर निर्भर करता है. आमतौर पर हरी खाद की पलटाई के 45 -60 दिन बाद आगामी फसल की बोआई करनी चाहिए.

हरी खाद के फायदे

* मिट्टी में जैविक तत्त्वों की बढ़वार होती है, जिस से मिट्टी की उपजाऊ कूवत बढ़ती है.

* खनिज पौषक तत्त्वों की मौजूदगी में बढ़ोतरी होती है.

* मिट्टी की जुताई और उस पर होने वाली खेती में सुधार करती है.

* मिट्टी की जैविक गतिविधियों में सुधार होता है.

* खेती उत्पाद की स्वादिष्ठता में बढ़ोतरी होती है.

* उपभोक्ताओं को जहरीले कैमिकल से रहित उपज मिलती है.

* खरपतवारों की रोकथाम में मदद मिलती है.

हरी खाद के प्रचारप्रसार में देश की कृषि प्रसार की सब से बड़ी जिम्मेदारी है, इसलिए उन्हें हरी खाद के महत्त्व और योगदान के लिए ग्राम ब्लौक या जिला स्तर पर पहली लाइन में प्रर्दशनों का आयोजन करना चाहिए, ताकि किसान उन के नतीजों को देख कर उन्हें अपनाने की ओर बढ़े. ऐसा करने से किसानों की माली व सामाजिक हालत में सुधार होगा.

कम लागत में प्राकृतिक खेती (Natural Farming) से कैसे करें अच्छी कमाई?

प्राकृतिक खेती के जरीए खेती की लागत में न केवल कमी लाई जा सकती है, बल्कि फसलों पर किए जाने वाले अंधाधुंध रसायनों के प्रयोग पर लगाम लगा कर सेहतमंद अनाज, फलसब्जियों आदि का उत्पादन भी किया जा सकता है.

प्राकृतिक खेती का सब से प्रमुख आधार है पशुपालन. क्योंकि पशुपालन से प्राप्त गोबर और गौमूत्र को मिट्टी की उत्पादन कूवत में कई गुना वृद्धि करने में सहायक माना जाता है.

गौपालन के जरीए खेती करने वाले प्रगतिशील किसान राममूर्ति मिश्रा ने अपने खेत की लागत को न केवल कम करने में सफलता पाई है, बल्कि वह जहरमुक्त खेती के जरीए लोगों की सेहत को सुधारने का काम भी कर रहे हैं.

किसान राममूर्ति मिश्रा से गौआधारित खेती को ले कर लंबी बातचीत हुई. पेश है उन से हुई बातचीत के खास अंश :

खेती की लागत में कमी लाने के साथ उसे टिकाऊ कैसे बनाएं?

खेती में प्रयुक्त रसायनों की बढ़ती कीमतों एवं घटती उत्पादकता और मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण प्रदूषण जैसी चुनौतियों का समाधान प्राकृतिक खेती में ही संभव है. अगर किसान फसल चक्र अपनाएं, तो खेती में विविधीकरण होता है और इस से पैदावार बिना लागत बढ़ाए ही बढ़ जाती है. प्राकृतिक खेती करने पर पारिस्थितिकी में विभिन्न वनस्पतियों, जीवों व जंतुओं की विविधता अधिक होने से इन का संतुलन बना रहता है और फसलों के स्वस्थ होने पर उन में रोग व व्याधि भी नहीं लगते. साथ ही, पैदावार भी अधिक प्राप्त होती है.

अगर किसान खेती की लागत में कमी के साथ टिकाऊ बनाना चाहते हैं, तो उन्हें गौआधारित प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए आगे कदम बढ़ाना होगा.

चूंकि प्राकृतिक खेती से प्राप्त उपज को सेहतमंद माना जाता है, इसलिए किसानों को उत्पाद की कीमत अधिक मिलती है.

अगर किसान जैविक खेती प्रमाणीकरण के नियमों का पालन कर जैविक प्रमाणीकरण करा लें, तो उन की उपज की मांग अपनेआप बढ़ जाती है.

प्राकृतिक खेती से मिट्टी की उत्पादन कूवत कैसे बढ़ती है?

हरित क्रांति से उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन कई प्रकार की गंभीर समस्याएं भी पैदा हुई हैं. रसायनों के बहुत ज्यादा उपयोग के कारण कीटों में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने से उन की जनसंख्या का नियंत्रण नहीं हो पा रहा है. साथ ही, जैव विविधता में कमी आ रही है. प्राकृतिक खेती से मिट्टी की सेहत अच्छी होगी और उत्पादन भी बेहतर होगा.

प्राकृतिक खेती में जीवाणु और केंचुए की संख्या बढ़ाने के लिए कुछ सस्य क्रियाएं, जैसे खेत की कम से कम जुताई, जीवाणुओं के फूड सोर्स के तौर पर फसल अवशेष व हरी खाद का प्रयोग, मल्चिंग, वापसा, जैव विविधता और ड्रिप सिंचाई के माध्यम से जीवामृत के प्रयोग खेत में जीवाणुओं की वृद्धि करने में सहायक होते हैं. इसे अपना कर किसान कृषि निवेशों की बाजार से निर्भरता को कम कर सकते हैं. इस प्रकार लागत में भी कमी आएगी. इस से उत्पादित खाद्य पदार्थों से मानव स्वास्थ्य को सुरक्षित बनाया जा सकता है. साथ ही, मृदा स्वास्थ्य को सुधारा जा सकता है.

किसान शुरुआत में प्राकृतिक खेती के जरीए थोड़ी सी भूमि पर इस का परीक्षण अवश्य करें.

आधुनिक रासायनिक खेती से उत्पादन बढ़ा है, तो किसानों की आय भी बढ़ी है, किंतु आमदनी का ज्यादा हिस्सा बीमारी में चला जाता है और पर्यावरण का नुकसान हो रहा है. साथ ही, उत्पादकता भी घट रही है. इसलिए प्राकृतिक खेती एक अच्छा विकल्प हो सकती है.

एक देशी गाय से किसान कितने क्षेत्रफल में प्राकृतिक खेती कर सकते हैं?

प्राकृतिक खेती में एक देशी गाय से 30 एकड़ तक की खेती की जा सकती है, क्योंकि एक एकड़ की खुराक तैयार करने के लिए गाय के एक दिन के गोबर और गौमूत्र की आवश्यकता होती है. प्राकृतिक खेती में बाजार से कुछ भी खरीदने की जरूरत नहीं है, जबकि जैविक खेती एक महंगी पद्धति है.

गेहूं की कटाई (Wheat Harvesting) के बाद करें ये काम

गेहूं की कटाई के बाद काफी समय खेत खाली रहते  हैं. इस समय कुछ कमजोर खेतों में हरी खाद बनाने के लिए ढैंचा, लोबिया या मूंग लगा दें और जब खेत जोतने लायक हो जाएं तो मिट्टी में जुताई कर के मिला दें. इस से मिट्टी की सेहत सुधरती है.

गेहूं फसल को गहाई से पहले अच्छी तरह सुखा लें जिस से सारे दाने भूसे से अलग हो जाएं.

थ्रैशर से गेहूं निकालते समय सावधानी बरतें. नशीली चीजों का सेवन न करें. ढीले कपड़े न पहनें. कटाई व गहाई एकसाथ कंबाइन हारवैस्टर से भी हो जाती है. गेहूं का ठीक तरह से भंडारण करें. नमी की मात्रा 10 फीसदी तक रखें, इस से गेहूं में कीड़ा नहीं लगेगा.

गेहूं की कटाई के बाद अप्रैल महीने में गन्ना भी लगा सकते हैं. गन्ने की फसल में 7-10 दिनों के अंतर से पानी देते रहें. कीट रोग का हमला हो जाए तो कृषि वैज्ञानिकों के बताए हुए कीटनाशकों का इस्तेमाल करें. नरमे की बिजाई अप्रैल महीने में खत्म करें.

अप्रैल में बोया गया चारा गरमियों व बरसात में चारे की कमी नहीं आने देता.

मक्का की पंजाबी साठी 1 किस्म को पूरे अप्रैल में लगा सकते हैं. यह किस्म गरमी सहन कर सकती है और 70 दिनों में पक कर 1 क्विंटल पैदावार देती है. धान की फसल लगाने के लिए खेत भी समय पर खाली हो जाता है.

अप्रैल के आखिरी हफ्ते में गेहूं की कटाई के तुरंत बाद मूंगफली बोई जा सकती है जो अगस्त के आखिर तक या सितंबर तक तैयार हो जाती है. मूंगफली को अच्छी जल निकास वाली हलकी दोमट मिट्टी में उगाना चाहिए.

पूसा बैशाखी मूंग भी गेहूं कटने के तुरंत बाद अप्रैल में लगा सकते हैं जो जल्दी पक जाती है. उस के बाद उस में धान बोया जा सकता है.

लोबिया की कुछ किस्में 65-70 दिनों में तैयार हो जाती हैं और गेहूं कटने के बाद व धानमक्का लगने के बीच फिट हो जाती है. उस की बोआई भी कर सकते हैं.

अरहर की 2 लाइनों के बीच एक मिश्रित फसल (मूंग या उड़द) की लाइन भी लगा सकते हैं जो 60 से 90 दिनों तक काट ली जाती है.

फूल उगाने के लिए खेत को धूप लगाएं ताकि कीड़े और बीमारियों की रोकथाम हो. गेंदा के पौधे अप्रैल के शुरू में लगा सकते हैं ताकि गरमियों में फूल मिल सकें.

फूलों की खेती करने वाले किसान भी अपनी फसल की समय से देखरेख करें. गुलाब की फसल में गुड़ाई करें. बेकार टहनियों को काटछांट दें.

रजनीगंधा में एक हफ्ते के अंतराल पर सिंचाई करें व निराईगुड़ाई का भी ध्यान रखें.

इस के अलावा ऊंचे पहाड़ी इलाकों में अप्रैल के पहले हफ्ते तक सूरजमुखी की बोआई कर सकते हैं.

सूरजमुखी की बिजाई के 3-4 हफ्ते के बाद निराईगुड़ाई करें.

अमरूद के बागों में थालों की गुड़ाई करें और बेकार की टहनियों को कलम करें. पपीते के पेड़ों में भी सिंचाई का ध्यान रखें और फलों की तुड़ाई भी समयसमय पर करें. अंगूर वगैरह फसलों की सिंचाई भी तकरीबन 15 दिनों में करते रहें.

लहसुन और प्याज की फसल में जरूरत के मुताबिक निराईगुड़ाई व सिंचाई करें. बैगनी धब्बा रोग व थ्रिप्स कीट की रोकथाम करें. लहसुनप्याज की फसल अगर तैयार हो चुकी हो तो 20 दिन पहले उस में पानी देना बंद कर दें, जिस से फसल की खुदाई करने में सुविधा रहे.

पौधों में डालें ये खाद फसल नहीं होगी खराब

सर्दी का मौसम सब से ज्यादा मुश्किल भरा होता है. इस मौसम में पौधों की बढ़वार धीमी हो जाती है, इसलिए उन्हें अधिक पोषण की जरूरत होती है. ऐसे में पौधों को सही खाद देना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है.

पौधों को सर्दियों में मजबूत और स्वस्थ बनाए रखने के लिए कुछ खास तरह की खादें दी जाती हैं. ये खादें घर पर भी बनाई जा सकती हैं.

इस के लिए आप चाय की पत्ती, अंडे के छिलके, सब्जी और फलों के छिलके आदि का खाद बनाने में प्रयोग कर सकते हैं. कंपोस्ट बनाने के लिए आप एक गड्ढा खोद सकते हैं या किसी बरतन में भी. पौधों को खाद देने से पहले मिट्टी को अच्छी तरह से ढीला कर लें, फिर खाद को मिट्टी में मिला दें.

खाद को पौधे की जड़ों के पास न डालें. खाद देने के बाद मिट्टी को अच्छी तरह से पानी दें. पौधों को खाद देने का सब से अच्छा समय सुबह या शाम का होता है. जब मौसम ठंडा हो, तब खाद देनी चाहिए.

डीएपी खाद एक प्राकृतिक खाद है, जो पौधों को पोटैशियम, नाइट्रोजन और फास्फोरस देती है. यह खाद पौधों की बढ़वार में बहुत अच्छी है. डीएपी खाद पौधों को सर्दियों में देने से वे स्वस्थ और मजबूत होते हैं.

कंपोस्ट खाद एक कार्बनिक खाद है, जो पौधों को सभी पोषक तत्त्व देती है. यह खाद पौधों के आसपास की मिट्टी भी उपजाऊ बनाती है. कंपोस्ट खाद सर्दियों में पौधों को मजबूत और स्वस्थ बनाती है.

गोबर खाद एक प्राकृतिक खाद है, जो पौधों के आसपास की मिट्टी को भी उपजाऊ बनाती है. गोबर खाद सर्दियों में पौधों को स्वस्थ और मजबूत बनाती है.

मस्टर्ड केक खाद एक प्राकृतिक खाद है, जो पौधों को पोटैशियम, नाइट्रोजन और फास्फोरस देती है. पौधों की प्रतिरक्षा प्रणाली भी इस खाद से मजबूत होती है. सर्दियों में यह खाद देने से पौधे ठंड से बचते हैं और अच्छी तरह से विकसित होते हैं.

सर्दियों के समय पौधों में डालने के लिए वर्मी कंपोस्ट बहुत अच्छी खाद है. आप इस खाद को सभी प्रकार के पौधों में इस्तेमाल कर सकते हैं. हालांकि, फूलों, फलों और सब्जियों वाले पौधों के लिए यह खाद अधिक फायदेमंद है.

वर्मी कंपोस्ट, मिट्टीरहित माध्यम जैसे कोकोपिट आदि में उगाए जाने वाले पौधों के लिए भी अच्छी मानी जाती है. यह पौधों को अतिरिक्त पोषक तत्त्व देती है. इस के अलावा वर्मी कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल करने से मिट्टी की संरचना में भी सुधार होता है.

वर्मी कंपोस्ट का उपयोग नए पौधों को लगाने के दौरान पौटिंग मिक्स बनाने के लिए किया जाता है. वर्मी कंपोस्ट खाद का प्रयोग पौधों की बढ़वार अवस्था में भी किया जाता है. पौधे की बढ़वार अवस्था के दौरान हर 2-3 महीने में एक गमले में एक मुट्ठी वर्मी कंपोस्ट डाली जा सकती है.

सर्दियों में पौधों की बढ़वार के लिए एप्सम साल्ट एक सब से अच्छा उर्वरक है. इस का इस्तेमाल तकरीबन सभी प्रकार के पौधों में कर सकते हैं. एप्सम साल्ट का प्रयोग पौटिंग मिक्स बनाने के दौरान और पौधे की बढ़वार अवस्था में किया जा सकता है. पौधे की बढ़वार अवस्था के दौरान महीने में 1-2 बार 1 लिटर पानी में 1 चम्मच एप्सम साल्ट मिला कर पौधों की जड़ों में डाल दें या इस पानी का दिन के समय पौधों पर छिड़काव करें.

अगर सर्दी में होम गार्डन में लगी सब्जियों और फूलों वाले पौधे नहीं बढ़ रहे हैं या फिर उन में फूल और फल नहीं आ रहे हैं, तो इस के लिए किसान मस्टर्ड केक खाद का उपयोग पौधों में कर सकते हैं. यह उर्वरक पौधों की ग्रोथ को बढ़ाता है और साथ ही पौधों को कीड़ों और बीमारी से भी बचाता है.

पौधों में इस फर्टिलाइजर का इस्तेमाल घोल बना कर किया जाता है. सौल्यूशन बनाने के लिए मिट्टी के बरतन में थोड़ी मात्रा में मस्टर्ड केक खाद ले कर उस में 1 लिटर पानी डालें और फिर उसे कुछ समय के लिए ढक कर रख दें. इस के बाद इस घोल को कपड़े की मदद से अच्छे से छान लें. छानने के बाद तकरीबन 50 मिलीलिटर मस्टर्ड केक घोल को 1 लिटर पानी में मिलाएं और फिर उसे पौधों में डालें.

सर्दी के मौसम में पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए लकड़ी की राख, एक बैस्ट खाद का काम करती है. इस में पोटैशियम, कैल्शियम, फास्फोरस, मैंगनीज और जस्ता जैसे उपयोगी पोषक तत्त्व पाए जाते हैं. लकड़ी की राख का गार्डन में अनेक उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपयोग किया जाता है: जैसे कि यह मिट्टी के पीएच स्तर को बढ़ा देती है, स्लग और घोंघे जैसे कीटों को गार्डन से दूर रखती है और पौधों को जरूरी पोषक तत्त्व प्रदान कर के पौधों की ग्रोथ को बढ़ाती है.

होम गार्डन में लकड़ी की राख का उपयोग करने का सब से अच्छा तरीका यह है कि इसे पौधों की मिट्टी के ऊपर फैला (टौप ड्रैसिंग) दिया जाए. सभी पौधों पर लकड़ी की राख का उपयोग न करें, केवल वे पौधे, जिन्हें पोटैशियम पोषक तत्त्व की जरूरत हो या मिट्टी के पीएच लैवल को बढ़ाना हो, तभी इस का प्रयोग थोड़ी मात्रा में करें.

केला खाने के बाद जो छिलका बचता है, उस का उपयोग जैविक खाद बनाने में किया जा सकता है. सर्दी के मौसम में यह खाद पौधों के लिए बहुत ही फायदेमंद होती है. इस में पोटैशियम, मैग्नीशियम और फास्फोरस पोषक तत्व की भरपूर मात्रा पाई जाती है.

केले के छिलकों को फर्टिलाइजर के रूप में इस्तेमाल करने के लिए सब से पहले एक बरतन लें और उस में 3-4 छिलकों को डाल कर पानी भर दें. कुछ (4-5) दिनों के बाद केले के छिलकों को पानी में से निकाल कर अलग कर दें और पानी को पौधों में फर्टिलाइजर के रूप में इस्तेमाल करें.

जैविक खेती (Organic farming) की जरूरत और अहमियत

कृषि में वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित फसल चक्रों का अपनाना फसल के अवशेष व कृषि प्रक्षेपण के अलावा पैदा होने वाले कूड़ेकचरे की बनी खाद, गोबर की खाद और हरी खाद का इस्तेमाल करना, दलहनी फसलों को उगाना, कीट, बीमारियों व खरपतवार का नियंत्रण शस्य क्रियाओं और जैविक विधि द्वारा करना, रोग व कीटरोधी प्रजातियों को उगाना, जीवाणुओं व दूसरे पादप स्रोतों से प्रमुख व सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की पूर्ति करना, ग्रीष्मकालीन जुताई करना आदि शामिल हैं. यह कृषि पद्धति सरल, सस्ती व प्रदूषण निवारक है.

यह सच है कि हरित क्रांति से अनाजों की पैदावार में आशातीत वृद्धि हुई है, लेकिन रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशी रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से अनेक पर्यावरणीय समस्या पैदा हो गई है. कीटनाशी व खरपतवारनाशी दवाओं (रसायन) के प्रयोग से न केवल फसल उत्पादन की लागत में बढ़ोतरी हुई है,  बल्कि इन के प्रयोग से अनाज, तिलहन, सब्जियां, फल आदि जहरीले होते चले जा रहे हैं, जिस से हमारी खाद्य सुरक्षा व भूमि की उत्पादन क्षमता के टिकाऊपन को खतरा पहुंच गया है.

इन सब रसायनों का निर्माण भूमिगत पैट्रो रसायन की मदद से किया जाता है, जिन का तेजी से दोहन हो रहा है. इस के कारण इन के निकट भविष्य में खत्म होने का डर है. जैविक खादों व फसल सुरक्षा की जैविक दवाओं के इस्तेमाल से ऐसी समस्याओं से बचा जा सकता है और कृषि उत्पादन लागत में भारी कमी लाई जा सकती है.

यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि विश्व के अनेक विकसित देशों में जैविक खेती का प्रचलन बढ़ता जा रहा है और जैविक विधि द्वारा तैयार खाद्य उत्पादों का 30 से 40 फीसदी ज्यादा कीमत पर अलग दुकानों से विपणन किया जा रहा है.

जैविक खेती के दूरगामी लाभ

* इस पद्धति से खेती करने से भूमि में जीवांश की पर्याप्त मात्रा बनी रहती है.

* भूमि में जैविक गतिविधियां बढ़ जाती हैं, जिस से पेड़पौधों की वृद्धि तीव्र गति से होती है.

* फसल चक्र में दलहनी फसलें, हरी खाद व अंतरशस्य फसलों के समावेश को प्रोत्साहन मिलता है, जिस से भूमि की उर्वरता में टिकाऊपन रहता है.

* भूमि में केंचुओं की ज्यादा से ज्यादा संख्या में वृद्धि होती है, जो फसल अवशेष को जैविक खाद में बदलने में मदद करते हैं.

* प्रक्षेत्र व बाग के चारों तरफ वायुरोधक वृक्षों के रोपण को प्रोत्साहन मिलता है, जिस से बाग व फसल की सुरक्षा तो होती ही है, बल्कि पर्यावरण शुद्ध होता है. इस के अलावा कीमती लकड़ी प्राप्त होती है. वायु व जल द्वारा क्षरण रोकने के लिए शस्य क्रियाओं के अपनाने को प्रोत्साहन मिलता है, जिस से भूसंरक्षण होता है.

जैविक खेती (Organic farming)

जैविक खेती की विधि

रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को कम करने का एकमात्र विकल्प गांव में ज्यादा से ज्यादा संख्या में पशुपालन करना और उन से प्राप्त गोबर को खाद के रूप में प्रयोग करना है. इस के अलावा कूड़ाकचरा, फसल के अवशेष, खरपतवार, मिट्टी व पानी को बायोडायनामिक विधि द्वारा खाद बना कर इस्तेमाल करने से भी रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कम किया जा सकता है.

कंपोस्ट बनाना

यह अंदाजा लगाया गया है कि देश में 60-70 टन कृषि से उत्पन्न अवशेष हर साल उपलब्ध होता है. लेकिन इस का शायद ही 10 फीसदी भाग जैविक खाद के बनाने के काम में लाया जाता है. अगर कृषि से पैदा संपूर्ण अवशेष को जैविक खाद में बदल दिया जाए, तो देश की 70 फीसदी वर्षा पर आधारित कृषि में बाहर से रासायनिक उर्वरकों की जरूरत नहीं पड़ेगी. इस के साथ ही साथ इस से प्रदूषण की समस्या का भी निदान हो सकेगा.

फसल को सर्दी से बचाए सल्फर

उचित खाद व उर्वरकों के प्रयोग से हम न्यूनतम तापमान, पाला, बादल, ओस जैसी सर्दियों की प्राकृतिक समस्याओं से मुकाबला कर के कम लागत में ज्यादा उत्पादन पा सकते हैं. आइए जानते हैं, किनकिन उर्वरकों का इस्तेमाल कर के पौधों को सर्दियों से बचाया जा सकता है :

सल्फर का प्रयोग : सर्दियों में पौधों को गरम करने की बात हो, तो पहला नंबर आता है सल्फर का. यह 2 तरह का है. पहला, पाउडर के रूप में, जो कि पानी में घुलनशील होता है. दूसरा दानेदार, जो कि ज्यादातर बेसल ड्रैसिंग के रूप में प्रयोग किया जाता है. किसी भी फसल में जब पत्तियां आ गई हों, तो सर्दियों से बचाव के लिए 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

अगर दानेदार सल्फर का प्रयोग करना हो, तो मिट्टी जांच की सिफारिश के अनुसार प्रयोग करना चाहिए. यदि मिट्टी जांच की सिफारिश नहीं है, तो मोटेतौर पर 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दानेदार सल्फर देना पर्याप्त होता है.

तिहरा यानी ट्रिपल फायदा दिलाता है सल्फर : ‘सल्फर एक काम अनेक’ वाली कहावत चरितार्थ होती है. सर्दियों को देखते हुए एक तो पौधों को इस से गरमी मिलती है, वहीं दूसरी ओर यह फफूंदीनाशक का काम करता है, जिस से यह आलू और दूसरी सब्जियों में   झुलसा रोग से रोकथाम करता है.

तीसरी अहम बात यह है कि सल्फर एक द्वितीयक पोषक तत्त्व है, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के बाद सर्वाधिक जिस तत्त्व की जरूरत होती है, वह है सल्फर. इस की कमी से पौधों की नई पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, तने पतले और कमजोर हो जाते हैं. सल्फर की कमी से दलहनी फसलों में दाने ढंग से नहीं बनते, जबकि तिलहनी फसलों में तेल की मात्रा घट जाती है, इसलिए सर्दियों में सल्फर का प्रयोग करना लाभकारी है.

सल्फर की अधिकता वाले अन्य उर्वरक : कुछ अन्य ऐसे उर्वरक हैं, जिन्हें प्रयोग कर के खेत में सल्फर की मात्रा दी जा सकती है. ऐसे उर्वरकों में मुख्य रूप से अमोनियम सल्फेट नाइट्रेट, क्षारीय, लवणीय मिट्टी के लिए पोटाश से बेहतर सल्फेट औफ पोटाश, जिप्सम, सिंगल सुपर फास्फेट, पोटैशियम सल्फेट, कौपर सल्फेट, फेरस सल्फेट, जिंक सल्फेट आदि. बता दें कि इन उर्वरकों का प्रयोग बोआई के पहले, बोआई के समय और कई बार खड़ी फसल में प्रयोग करना बेहतर होता है.

ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रयोग की जाने वाली मात्रा मिट्टी जांच की सिफारिश के मुताबिक ही करनी चाहिए.

मिट्टी के लिए सेहतमंद हरी खाद

मिट्टी की उर्वरकता व उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है. बिना सड़ेगले हरे पौधे (दलहनी या अदलहनी या फिर उन के भाग) को जब मिट्टी की नाइट्रोजन या जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिए खेत में दबाया जाता है, तो इस क्रिया को हरी खाद देना कहते हैं.

सघन कृषि पद्धति के विकास और नकदी फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चित ही कमी आई है, लेकिन बढ़ते ऊर्जा उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि और गोबर की खाद व अन्य कंपोस्ट जैसे कार्बनिक स्रोतों की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्त्व और बढ़ गया है.

रासायनिक उर्वरकों के पर्याय के रूप में हम जैविक खादों जैसे गोबर की खाद, कंपोस्ट हरी खाद आदि का उपयोग कर सकते हैं. इन में हरी खाद सब से सरल व अच्छा प्रयोग है. इस में पशु धन में आई कमी के कारण गोबर की उपलब्धता पर भी हमें निर्भर रहने की जरूरत नहीं है, इसलिए हमें हरी खाद के उपयोग पर गंभीरता से विचार कर क्रियान्वयन करना चाहिए.

हरी खाद केवल नाइट्रोजन व कार्बनिक पदार्थों का ही साधन नहीं है, बल्कि इस से मिट्टी में कई पोषक तत्त्व भी उपलब्ध होते हैं. एक अध्ययन के मुताबिक, एक टन ढैंचा के शुष्क पदार्थ द्वारा मिट्टी में जुटाए जाने वाले पोषक तत्त्व इस प्रकार हैं :

हरी खाद फसल के आवश्यक गुण

* फसल ऐसी हो, जिस में शीघ्र वृद्धि की क्षमता जिस से न्यूनतम समय में काम पूरा हो सके.

* चयन की गई दलहनी फसल में अधिकतम वायुमंडल नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करने की क्षमता होनी चाहिए, जिस से जमीन को अधिक से अधिक नाइट्रोजन उपलब्ध हो सके.

* फसल की वृद्धि होने पर अतिशीघ्र, अधिक से अधिक मात्रा में पत्तियां व कोमल शाखाएं निकल सकें, जिस से प्रति इकाई क्षेत्र से अत्यधिक हरा पदार्थ मिल सके और आसानी से सड़ सके.

* फसल गहरी जड़ वाली हो, जिस से वह जमीन में गहराई तक जा कर अधिक से अधिक पोषक तत्त्वों को खींच सके. हरी खाद की फसल को सड़ने पर उस में उपलब्ध सारे पोषक तत्त्व मिट्टी की ऊपरी सतह पर रह जाते हैं, जिन का उपयोग बाद में बोई जाने वाली मुख्य फसल के द्वारा किया जाता है.

* फसल के वानस्पतिक भाग मुलायम होने चाहिए.

* फसल की जल व पोषक तत्त्वों की मांग कम से कम होनी चाहिए.

* फसल जलवायु की विभिन्न परिस्थितियों जैसे अधिक तापमान, कम तापमान, कम या अधिक वर्षा सहन करने वाली हो.

* फसल के बीज सस्ती दरों पर उपलब्ध हों.

* फसल विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में पैदा होने में समर्थ हो.

हरी खाद बनाने की विधि

* अप्रैलमई महीने में गेहूं की कटाई के बाद जमीन की सिंचाई कर लें. खेत में खड़े पानी में 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से ढैंचा का बीज छितरा लें.

* जरूरत पड़ने पर 10 से 15 दिन में ढैंचा फसल की हलकी सिंचाई कर लें.

* 20 दिन की अवस्था पर 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया को खेत में छितराने से नोड्यूल बनने में सहायता मिलती है.

* 55 से 60 दिन की अवस्था में हल चला कर हरी खाद को दोबारा खेत में मिला दिया जाता है. इस तरह लगभग 10.15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हरी खाद उपलब्ध हो जाती है.

* इस से लगभग 60.80 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है. मिट्टी में ढैंचा के पौधों के गलनेसड़ने से बैक्टीरिया द्वारा नियत सभी नाइट्रोजन जैविक रूप में लंबे समय के लिए कार्बन के साथ मिट्टी को वापस मिल जाते हैं.

हरी खाद देने की विधियां

हरी खाद की स्थानीय विधि : इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है, जिस में हरी खाद का उपयोग करना होता है. यह विधि समुचित वर्षा अथवा सुनिश्चित सिंचाई वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है.

इस विधि में फूल आने से पूर्व वानस्पतिक वृद्धिकाल (45-60 दिन) में मिट्टी में पलट दिया जाता है. मिश्रित रूप से बोई गई हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई द्वारा खेत में दबा दिया जाता है.

 

Hari Khad

 

हरी पत्तियों की हरी खाद : जलवायु और मिट्टी की दशाओं के आधार पर उपयुक्त फसल का चुनाव करना आवश्यक होता है. जलमग्न व क्षरीय और लवणीय मिट्टी में ढैंचा और सामान्य मिट्टियों में सनई व ढैंचा दोनों फसलों से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद प्राप्त होती है.

हरी खाद के प्रयोग के बाद अगली फसल की बोआई या रोपाई का समय : जिन क्षेत्रों में धान की खेती होती है, वहां जलवायु नम और तापमान अधिक होने से अपघटन क्रिया तेज होती है, इसलिए खेत में हरी खाद की फसल की आयु 40-45 दिन से अधिक नहीं होनी चाहिए.

समुचित उर्वरक प्रबंधन : कम उर्वरता वाली मिट्टियों में नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का प्रयोग उपयोगी होता है. राइजोबियम कल्चर का प्रयोग करने से नाइट्रोजन स्थिरीकरण सहजीवी जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है.

हरी खाद की फसल के लाभ

हरी खाद की फसल का उद्देश्य प्रत्येक स्थिति के आधार पर भिन्नभिन्न होता है, लेकिन उन के द्वारा दिए जाने वाले कुछ लाभ इस प्रकार हैं :

* जैविक पदार्थ और मिट्टी में ह्यूमस का बढ़ना.

* नाइट्रोजन निर्धारण में वृद्धि.

* मिट्टी की सतह का संरक्षण.

* कटाव की रोकथाम.

* मिट्टी की संरचना को बनाए रखना या सुधारना.

* लीचिंग के लिए संवेदनशीलता कम हो जाती है.

* निम्न मिट्टी प्रोफाइल से अनुपलब्ध पोषक तत्त्वों तक पहुंच.

* अगली फसल को आसानी से उपलब्ध पोषक तत्त्व प्रदान करें.

ट्राइकोडर्मा किसानों का दोस्त

ट्राइकोडर्मा जैविक खेती में उपयोगी एक हरफनमौला मित्र कवक है. यह मिट्टी से उत्पन्न होने वाले रोगों विशेष रूप से विल्ट रोग, उकठा रोग, म्लानि रोग के लिए एक कुशल जैविक नियंत्रक के रूप में काम करता है. इस के साथ ही यह जैव उर्वरक के रूप में भी काम करता है, जिस से उत्कृष्ट पौधे की वृद्धि होती है. यह सभी तरह की फसलों, सब्जियों, फलों और फूलों में इस्तेमाल किया जा सकता है.

प्रयोग की विधि

बीज उपचार : बीज उपचार के लिए प्रति किलोग्राम बीज में 5 ग्राम से 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर को मिश्रित कर छाया में सुखा लें, फिर बोआई करें.

कंद उपचार : 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति लिटर पानी में डाल कर घोल बना लें. इस घोल में कंद को 30 मिनट तक डुबा कर रखें, फिर उसे छाया में आधा घंटा रखने के बाद बोआई करें.

नर्सरी उपचार : 5 ग्राम ट्राइकोडर्मा उत्पाद प्रति लिटर पानी में घोल कर नर्सरी बैड में प्रयोग करें.

पौधा उपचार : प्रति लिटर पानी में 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर को घोल कर पौधे के जड़ क्षेत्र को भिगोएं.

पौधों पर छिड़काव : कुछ खास तरह के रोग जैसे पर्ण चित्ती, ?ालसा आदि की रोकथाम के लिए पौधे में रोग के लक्षण दिखाई देने पर 5 ग्राम से 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

फलदार वृक्ष : पेड़ के छत्रक की बाहरी सीमा से लगभग एक फुट अंदर की तरफ मिट्टी में 100 ग्राम से 200 ग्राम प्रति पेड़ (उम्र के हिसाब से) ट्राइकोडर्मा को 3 किलोग्राम से 5 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद या वर्मी कंपोस्ट में मिला कर पेड़ के चारों तरफ 30 सैंटीमीटर की चौड़ाई में छिड़क दें और उसे कुदाल से मिलाएं.

मिट्टी में नमी की मात्रा पर्याप्त होनी चाहिए. अगर नहीं हो, तो ट्राइकोडर्मा डालने के बाद हलकी सिंचाई कर दें.

मृदा शोधन : एक किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर को 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर एक हफ्ते तक छायादार जगह पर रख कर उसे गीले बोरे से ढकें, ताकि इस के बीजाणु अंकुरित हो जाएं.

इस कंपोस्ट को एक एकड़ क्षेत्र में फैला कर मिट्टी में मिला दें, फिर बोआई या रोपाई करें.

हरी खाद के लिए : अच्छी हरी खाद के लिए ढांचा को मिट्टी में पलटने के बाद 5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति हेक्टेयर की दर से डाल कर जुताई कर दें.

ट्राइकोडर्मा के प्रयोग से लाभ

* यह रोगकारक जीवों की वृद्धि को रोकता है या उन्हें मार कर पौधे को रोग मुक्त करता है या पौधों की रासायनिक प्रक्रियाओं को बदलने के साथसाथ पौधों में रोग रोधी क्षमता को बढ़ाता है.

* यह मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के अपघटन की दर बढ़ाता है, इसलिए यह जैव उर्वरक की तरह काम करता है.

* यह पौधों की वृद्धि को बढ़ाता है, क्योंकि यह फास्फेट और दूसरे सूक्ष्म पोषक तत्त्वों को घुलनशील बनाता है.

ट्राइकोडर्मा के प्रयोग में सावधानियां

* ट्राइकोडर्मा कल्चर 6 महीने से ज्यादा पुराना न हो.

* बीज या पौधों के उपचार का काम छायादार और सूखी जगह पर करें.

* ट्राइकोडर्मा के साथसाथ कवकनाशी रसायनों का प्रयोग न करें.

* ट्राइकोडर्मा के प्रयोग के 4 से 5 दिनों के बाद तक रासायनिक कवकनाशी का प्रयोग न करें.

* ट्राइकोडर्मा से उपचारित बीज को सूरज की सीधी किरणें न लगने दें.

* कार्बनिक खाद में मिलाने के बाद उसे लंबी अवधि के लिए न रखें.

नोट : ट्राइकोडर्मा की संगतता-ट्राइकोडर्मा रासायनिक कवकनाशी मेटैलैक्सिल और थीरम द्वारा उपचारित बीज के साथ प्रयोग किया जा सकता है, पर दूसरे किसी भी रासायनिक कवकनाशी के साथ नहीं.