लसोड़ा ताकत बढ़ाने में लाभकारी

हमारे देश में कोरोना महामारी से बचाव के लिए सब से अच्छा उपाय शरीर की इम्यूनिटी को बढ़ाना है. अगर शरीर की इम्यूनिटी अच्छी होगी तो आसानी से कोरोना के वायरस से लड़ा जा सकता है. इस के लिए विभिन्न प्रकार की आयुर्वेदिक औषधियां उपयोगी हैं, वहीं लसोड़ा पेड़ के फल, पत्ती व छाल भी उपयोगी है.

प्राकृतिक संसाधनों वाले पूर्वी क्षेत्र के राज्यों में कृषि क्षेत्र को बड़ी उम्मीदें हैं. इन पूर्वी राज्यों को जैविक खेती वाला क्षेत्र घोषित किया भी गया है, वहीं आदिवासी क्षेत्रों को एग्रीकल्चर ऐक्सपोर्ट जोन में तबदील भी किया गया है

अगर इन क्षेत्रों में थोडी सी कोशिश कर के हम लोग लसोड़ा के पौधे को लगाते हैं, तो इस से किसानों की आमदनी भी दोगुनी होगी, साथ ही साथ उन को व्यवसाय के रूप में रोजगार भी प्राप्त होगा और इस से यह स्वास्थ्य के लिए बड़ा लाभकारी पेड़ साबित होगा.

लसोड़ा पोषक तत्त्वों और औषधीय गुणों से भरपूर होता है. देश की कई जगहों पर इसे गोंदी और निसूरा भी कहा जाता है. इस के फल सुपारी के बराबर होते हैं. कच्चे लसोड़े का साग और अचार भी बनाया जाता है. पके हुए लसोड़े मीठे होते हैं और इन के अंदर गोंद की तरह चिकना और मीठा रस होता है.

लसोड़ा के फायदे

अगर शरीर में दादखुजली है, तो इस के बीज को पीस कर दादखुजली वाली जगह पर लगाने से आराम मिलता है. गांव में जहां पर आसानी से औषधियां उपलब्ध नहीं हो पाती हैं, वहां पर लोग इस का उपयोग काफी मात्रा में करते हैं.

इस के पेड़ की छाल का काढ़ा और कपूर का मिश्रण तैयार कर सूजन वाले हिस्सों में मालिश करने से आराम मिलता है.

लसोड़े के पेड़ की छाल को पानी में उबाल कर छान कर पिलाने से खराब गला भी ठीक हो जाता है और यह गले की खराश को भी दूर करता है.

जब आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं, तो लसोड़ा के प्रयोग से ही कई बीमारियां दूर की जाती थीं. तकरीबन हर घर में लसोड़ा रखा जाता था और जरूरत पड़ने पर उस का इस्तेमाल किया जाता था और उस के अच्छे नतीजे मिलते थे.

लसोड़ा में मौजूद पोषक तत्त्व

शरीर की इम्यूनिटी बढ़ाने में लसोड़ा की अहम भूमिका हो सकती है, क्योंकि इस में 2 फीसदी प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, फाइबर, आयरन, फास्फोरस, कैल्शियम के अलावा कई अहम तत्त्व मौजूद होते हैं.

लसोड़ा सूखे जंगलों में बढ़ता है. यह हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र व राजस्थान में आज भी पाया जाता है. जंगल के अलावा लोग अपने खेतों की मेड़ों पर भी इसे लगाते हैं. जलवायु परिवर्तन के चलते इस के पेड़ लगातार लुप्त होते जा रहे हैं

इस के बीज से पेड़ तैयार करना तकरीबन असंभव होता है, इसलिए कई प्रयोगशालाओं में टिशु कल्चर विधि से लसोड़ा के पेड़ तैयार किए जा रहे हैं, जिस से कि इस के क्षेत्रफल में बढ़ोतरी की जा सके और औषधीय गुणों से भरपूर इस पेड़ को देश में बढ़ाया जा सके.

इस प्रजाति को संरक्षण की जरूरत है. यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह धीरेधीरे लुप्त होता जाएगा. वर्तमान समय में लसोड़ा के फलों की मांग काफी बड़ी है और इस की कीमत भी बाजार में अच्छी मिल रही है.

औषधीय गुणों से भरपूर लसोड़ा

अब किसान कम क्षेत्र में ऐसे खेती के काम करने लगे हैं, जिस से उन्हें कम लागत में ज्यादा मुनाफा हो. किसान अब बाजार की हर गतिविधि पर भी नजर रखने लगे हैं कि उन्हें किस गतिविधि से ज्यादा आमदनी मिल सकती है.

पिछले कुछ सालों में लोगों में सेहत के प्रति जागरूकता बढ़ी है और वे परंपरागत खाद्य पदार्थों के बजाय ऐसी चीजों का इस्तेमाल करने लगे हैं जो पौष्टिक और गुणकारी हों.

लसोड़ा या लहसुआ के औषधीय गुणों को देखते हुए इस की मांग बाजार में बढ़ने लगी है. इस नजरिए से किसानों में लसोड़े के बाग लगाने में दिलचस्पी बढ़ी है, क्योंकि उन्हें कम लागत में ज्यादा आमदनी मिल रही है. साथ ही, लसोड़े को बेचने में कोई समस्या भी नहीं होती.

लसोड़े के फल 30-35 रुपए प्रति किलोग्राम तक में आसानी से बिक जाते हैं. लसोड़े के एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगाए बाग से किसान हर साल तकरीबन साढ़े 4 लाख रुपए आसानी से हासिल कर लेते हैं.

लसोड़े के फल में जो चिकना गूदा होता है, उस में कई गुणकारी तत्त्व होते हैं जो कब्ज, अतिसार, हैजा, कफ वगैरह रोगों की रोकथाम में उपयोगी साबित हुए हैं, वहीं इस का अचार ज्यादा गुणकारी माना गया है. इसी वजह से इस की मांग दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.

राजस्थान में लसोड़े के बाग ऐसे मरुस्थलीय इलाकों में लगाए जा रहे हैं, जहां पानी की उपलब्धता बहुत कम होती है क्योंकि लसोड़े को साल में महज 4 बार पानी देने से ही फल आने शुरू हो जाते हैं. कुछ किसान इसी के बाग लगाने के बजाय खेतों की मेंड़ों पर पौधे लगाते हैं.

लसोड़े के बाग लगाने से पहले गरमियों में तकरीबन डेढ़ से 2 फुट चौड़े गड्ढे खोद कर उस में मिट्टी व गोबर की खाद बराबर मात्रा में मिला कर भर देते हैं. जुलाई या अगस्त माह में बारिश होती  है तो इन गड्ढों में पानी भर जाता है.

पानी के सूख जाने के बाद उस की फिर से खुदाई कर 6-6 मीटर की दूरी पर इस के पौधे लगाए जाते हैं यानी एक हेक्टेयर क्षेत्र में तकरीबन 177 पौधों की जरूरत होती है. पौधे लगाने के तकरीबन 15-20 दिन बाद सिंचाई करना शुरू कर दिया जाता है ताकि पौधे की बढ़वार बनी रह सके.

सालभर बाद ही लसोड़े में फल आना शुरू हो जाते हैं. एक परिपक्व पेड़ से साल में केवल एक बार में ही तकरीबन 60 से 70 किलोग्राम कच्चे फल हासिल किए जा सकते हैं. लसोड़े के पौधों के बीच की खाली जगह पर दूसरी फसलें जैसे मेथी, पालक, लहसुन, प्याज वगैरह की फसलें भी ली जा सकती हैं.

राजस्थान के झुंझुनूं जिले की चिड़ावा तहसील में रामकृष्ण जयदयाल डालमिया सेवा संस्थान ने क्षेत्र की भौगोलिक व पर्यावरणीय परिस्थिति को देखते हुए लसोड़े के बाग लगाए हैं जिन से किसानों की आमदनी बढ़ कर तकरीबन डेढ़ से दोगुनी हो गई है. संस्थान ने क्षेत्र के तकरीबन 40 गांवों में 3,000 पौधे अनुदानित कीमत पर मुहैया कराए हैं जो आज फल उत्पादन कर किसानों की आमदनी में भागीदार बने हुए हैं.