आम (Mango) के रोग और उपचार

आम का नाम सुनते ही मुंह में पानी आ जाता है और दिल को सुकून मिलता है. हमारे दिमाग में एक ऐसे फल की तसवीर उभरती है जिसे सोच कर ही खुशी से झूमने लगता है. आम ऐसी फसल है जिसे हर कोई खाना पसंद करता है.

भारत में आम फलों का राजा है. इस की पैदावार तकरीबन पूरे भारत में होती है, लेकिन खासतौर से उत्तर प्रदेश आम के लिए जाना जाता है. यहां पर मलीहाबाद के आमों की मिठास विदेशों में भी लोगों को अपना मुरीद बना चुकी है.

पाकिस्तान, बंगलादेश, अमेरिका, फिलीपींस, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण अफ्रीका, जांबिया, माले, ब्राजील, पेरू, केन्या, जमायका, थाईलैंड, इंडोनेशिया, श्रीलंका वगैरह देशों में भी आम उगाया जाता है.

भारत में आम के बाग सब से ज्यादा उत्तर प्रदेश में हैं, लेकिन इस की सब से ज्यादा पैदावार आंध्र प्रदेश में होती है. आम की बागबानी के लिए गरम आबोहवा बेहतर है.

आम के लिए 24 से 26 डिगरी सैल्सियस तापमान वाला इलाका सब से अच्छा माना गया है. यह नम व सूखी दोनों तरह की जलवायु में उगता है. लेकिन जिन इलाकों में जून से सितंबर माह तक अच्छी बारिश होती है और बाकी महीने सूखे रहते हैं, वहां आम की पैदावार ज्यादा होती है.

आम के पेड़ों को रोगों से बचाना बहुत जरूरी है. समयसमय पर आम में लगने वाली खास बीमारियों पर नजर रख कर ही रोगों से बचाया जा सकता है.

काली फफूंद रोग

आम के पुराने और घने गहरे बगीचों में आम के फूलों और मुलायम पत्तियों से रस चूसने वाले कीट जैसे भुनगा, फुदका, मधुआ और कढ़ी कीट का प्रकोप चैत्र माह से ही शुरू हो जाता है. ये कीट छोटीछोटी नई मुलायम पत्तियों और फूलों से रस चूसते रहते हैं. इस वजह से आम की पत्तियों और फूलों के ऊपर एक चिपचिपाहट सी बनने लगती है और फल झड़ने लगते हैं.

यह रोग भुनगा कीट की वजह से होता है. फफूंद के जरीए भी यह रोग तेजी से फैलती है. कुछ समय बाद आम के बगीचों में पेड़ों की पत्तियों पर काले रंग की एक परत बन जाती है, जो सीधा पत्तियों से भोजन बनाने की प्रक्रिया को प्रभावित करती है.

उपचार

काली फफूंदी के नियंत्रण के लिए नीम की पत्तियों को उबालें. इस के बाद 10-12 लिटर उबले हुए पानी को 100 लिटर पानी में मिला कर पेड़ों पर 2-3 बार अच्छी तरह से स्प्रेयर पंप की मदद से छिड़काव करना चाहिए.

आम का भुनगा, फुदका और कढ़ी कीट पर 300 से 400 मिलीलिटर नीम के तेल को 100 लिटर पानी में घोल कर फूल खिलने से पहले या फिर मटर के दाने के बराबर फल बनने के बाद 2-3 छिड़काव करने से इन कीटों पर काबू पाया जा सकता है.

इस के अलावा ब्यूबेरिया बेसियाना की 200 ग्राम मात्रा को 100 लिटर पानी में घोल कर 2-3 बार छिड़काव करने या 15-20 दिन पुरानी सड़ी हुई छाछ या मट्ठा 10 लिटर व 8 से 10 दिन पुराने 10 लिटर गौमूत्र को 100 लिटर पानी में मिला कर पूरे पौधे पर 2-3 छिड़काव करने से कीट पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

चूर्णिल आसिता रोग

आम का यह रोग फफूंद की वजह से फैलता है. इस रोग का हमला होने आम की पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसे धब्बे बन जाते हैं. कभीकभी फूलों की टहनियों और छोटेछोटे फलों पर भी ये धब्बे हवा के रुख के साथ फैल जाते हैं. इस वजह से फल पकने से पहले ही पेड़ से पत्ते गिर जाते हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए 100 लिटर पानी में मिलाएं 10 दिन पुरानी सड़ी हुई छाछ या मट्ठा 10 लिटर या 10 लिटर गौमूत्र 10-12 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करने से रोग इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

सूखा रोग

आम के पेड़ों में लगने वाला सूखा रोग यानी तनाछेदक कीट हरियाली का दुश्मन है. इस रोग के प्रकोप से आम का हराभरा पेड़ कुछ ही महीनों में सूख कर ढांचे में तबदील हो जाता है.

तनाछेदक कीट पौधे के तने में छेद कर आसानी से अंदर घुस जाता है. पेड़ के तने को सावधानी से देखने पर किसानों को कीड़ों के होने की प्रारंभिक दशा में छाल पर चूर्ण जैसा पदार्थ देखने को मिलता है. तना गीला हो जाता है. कीट के बड़े हो जाने पर तने में सुराख साफसाफ दिखाई देने लगता है.

उपचार न होने की दशा में कीट तने को खोखला कर देते हैं. इस से पेड़ सूखने लगता है. इस में पत्तियां ऊपर से सूखना शुरू होती हैं, जो नीचे की ओर बढ़ती जाती हैं.

ऐसे करें रोकथाम

तनाबेधक या तनाछेदक कीट साल में सिर्फ 2 महीने मई व जून माह में बाहर रहता है. नियंत्रण के लिए क्विनालफास व साइपरमैथलीन दवा का स्प्रे करें.

रोकथाम के लिए बाद में तने को छील कर सुराख में साइकिल की तीली डाल कर बड़े कीटों को मारा जा सकता है.

अंडे बच्चों को नष्ट करने के लिए मोनोक्रोटोफास के घोल को रुई में भिगो कर सुराख में डाल दें व ऊपर से गाय के गोबर में मिट्टी मिला कर लेप लगा दें.

देशी उपचार में 2 किलोग्राम तंबाकू व ढाई सौ ग्राम फ्यूरोडान प्रति पेड़ की जड़ में डालने से भी रोकथाम हो सकती है.

बौर का रोग

आम के बौरों, फलों या पत्तियों पर सफेद चूर्ण की तरह का पदार्थ दिखाई देता है. ऐसा लगता है कि पेड़ों पर राख छिड़क दी गई है. प्रकोप होने से उन की बढ़वार रुक जाती है और फूल गिरने लगते हैं.

बौर के समय फुहार और ठंडी रातें इस रोग के बढ़ने में मददगार होती हैं. कवक से नए फल बिलकुल ढक जाते हैं और धीरेधीरे उस की बाहरी सतह पर दरारें पड़ने लगती हैं. दरार वाला वह भाग कड़ा हो जाता है. नए फल मटर के दाने के बराबर होने के पहले ही गिर जाते हैं.

नई पत्तियों की पिछली सतह पर यह रोग काफी फैलता है और स्लेटी रंग के धब्बे बनने लगते हैं, जिस पर सफेद चूर्ण दिखाई पड़ता है और रोगग्रस्त पत्तियां टेढ़ी हो जाती हैं. ऐसी पत्तियां पूरे साल पौधों पर लगी रहती हैं और अगले साल भी रोगों को फैलाने में सहायक होती हैं.

उपचार से करें बचाव

इस रोग से बचाव के लिए फूल के मौसम में कुल 3 छिड़काव करने चाहिए. पहला छिड़काव 0.2 फीसदी विलयशील गंधक (वेटेबल सल्फर) (सल्फेट या दूसरा विलयशील गंधक फफूंदनाशक 2 ग्राम प्रति लिटर), दूसरा छिड़काव 0.1 फीसदी ट्राइडीमार्फ या 0.04 फीसदी फ्लूजिजाल (1 मिलीलिटर कैलिक्सीन या 0.4 मिलीलिटर पंच प्रति लिटर) और तीसरा छिड़काव 0.1 फीसदी डाइनोकैप या बावस्टीन (1 मिलीलिटर 5 प्रति केराथेन या 1 ग्राम ट्राइडीमेफान प्रति लिटर) से करना चाहिए.

पहला छिड़काव बौर निकलने के दौरान करना चाहिए. दूसरा और तीसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए.

आम (Mango)

पत्तियों पर एंथ्रेक्नोज रोग

तुड़ाई के बाद आम का यह सब से खास रोग है. यह एक फफूंद कोलेटोट्राइकम ग्लोयोस्पोराइडिस से होती है. इस का प्रकोप हर आम उगाने वाली जगहों पर होता है. फलों पर इन के लक्षण शुरू में छोटेछोटे भूरे रंग के धब्बों के रूप में दिखाई देते  हैं, जो बाद में बढ़ कर पूरे फल को ढक लेते हैं. ये धब्बे 3-4 दिन में ही पूरे फल को ढक लेते हैं और पूरा फल काला हो कर सड़ जाता है.

रोकथाम

कार्बंडाजिम या टापसिन-एम (0.1 फीसदी यानी 1 ग्राम प्रति लिटर) का 3 छिड़काव तुड़ाई से पहले करें फिर 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए. छिड़काव इस तरह करना चाहिए कि अंतिम छिड़काव तुड़ाई से 15 दिन पहले हो जाए.

फलों को 0.05 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 15 मिनट तक डुबो कर रखने से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है.

शाखा रोग

इस रोग से शाखाएं और टहनियां सूखने लगती हैं. उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि शाखा आग से झुलस गई है. रोग की शुरुआत में शाखाओं के अगले भाग की छाल काली पड़ जाती है, जो धीरेधीरे बढ़ती है और फिर पूरी शाखा ही सूख जाती है. साथ ही, गोंद का रिसाव भी होने लगता है.

रोकथाम

रोगग्रस्त शाखाओं की कटाई रोग से ग्रसित हिस्से के करीब 7.5-10 सैंटीमीटर नीचे से करनी चाहिए. इस के बाद 3 ग्राम फफूंदनाशक दवा प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए और कटे हुए भाग पर इसी फफूंदनाशक दवा का लेप लगाना चाहिए. छोटे पेड़ों में भी रोगग्रस्त शाखाओं की छंटाई के बाद कौपर औक्सीक्लोराइड का लेप लगाना फायदेमंद है.

रेड रस्ट रोग

पत्तियों पर गोलाकार, मटमैले रंग के मखमली धब्बे दिखाई देते हैं, जिन का आकार बाद में बड़ा और रंग बादामी हो जाता है.

धब्बे की सतह भी उभरी हुई होती है. इस के ऊपर काई के बीजाणु बनते हैं जो बाद में तांबे के रंग के हो जाते हैं. आखिर में बीजाणुओं के झड़ने की वजह से पत्तियों पर गोलाकार सफेद निशान रह जाते हैं.

इस रोग के कारण पत्तियां और टहनियां छोटी रह जाती हैं और बाद में सूखने लगती हैं.

दिसंबरजनवरी माह में रोग से ग्रसित पत्तियां अधिक झड़ती हैं और पौधे दूर से ही मुरझाए हुए से दिखाई देते हैं.

रोकथाम

इस रोग की रोकथाम के लिए 0.3 फीसदी कौपर औक्सीक्लोराइड (3 ग्राम प्रति लिटर का 2-3 ग्राम प्रति लिटर) का छिड़काव करना असरदार पाया गया है.

ये सारे रोग आम के फलों में तुड़ाई से पहले लगते हैं, लेकिन इन सारे रोगों से निबटने के बाद भी आम के उत्पादकों को तुड़ाई के बाद भी कई तरह के रोगों से अपने फलों को बचाने की चुनौती रहती है. अगर जरा सी लापरवाही की गई तो सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है.

आम (Mango)

तुड़ाई के बाद रोग

फलों में तुड़ाई के बाद भी उत्पादन का तकरीबन 25-40 फीसदी कई वजहों से खराब हो जाता है. यह नुकसान गलत समय पर फलों की तुड़ाई, गलत तुड़ाई के तरीके और गलत ढंग से भंडारण करने की वजह से होता है. लेकिन जो नुकसान होता है, वह मुख्य रूप से फलों की तुड़ाई के बाद लगने वाले रोग हैं.

आम की तुड़ाई के बाद होने वाले रोगों में मुख्य फफूंद है. तुड़ाई के बाद फलों में संक्रमण, आम की ढुलाई, भंडारण और लाने और ले जाने के दौरान होता है.

आम में बीमारियों का प्रकोप 2 तरह से होता है. एक तो फलों के लगते समय ही उन को संक्रमित कर देते हैं, दूसरे तुड़ाई के बाद फलों के रखरखाव के दौरान होता है.

आम की तुड़ाई के बाद भी बहुत सी बीमारियां लगती हैं, लेकिन इन में एंथ्रेक्नोज, ढेपी विगलन और काला सड़न बीमारी से अधिक नुकसान का डर रहता है.

गहरे भूरे रंग का डंठल

तुड़ाई के बाद आम की यह खास बीमारी है. यह लेसियोडिपलोडिया थियोब्रोमी नामक फफूंद से होती है. इस में तकरीबन 15-20 फीसदी तक का नुकसान होता है. यह बीमारी आम की चौसा किस्म में अधिक पाई जाती है. फलों में यह बीमारी ढेपी की तरह से शुरू होती है तभी इसे ढेपी विगलन रोग कहते हैं.

शुरू में जहां पर डंठल लगा होता है, वह भाग गहरे भूरे रंग का हो जाता है और धीरेधीरे बढ़ कर यह पूरे फल को ढक लेता है. 3-4 दिन बाद पूरा फल सड़ कर काले रंग का हो जाता है.

रोकथाम

फल को 1 से 2 सैंटीमीटर के डंठल सहित तोड़ना चाहिए. इस के बाद फल को मिट्टी के संपर्क में नहीं आने देना चाहिए.

तुड़ाई से पहले 2 छिड़काव 15 दिन के अंतराल पर कार्बंडाजिम या टापसिन एम (0.1 फीसदी यानी 1 ग्राम प्रति लिटर) का करना चाहिए. फलों को 0.05 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 5 मिनट डुबो कर रखने से इस रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है.

काला सड़न रोग

यह रोग एस्परजीलस नाइजर नामक फफूंद से होता है. यह रोग फलों में चोट या कटे स्थान से शुरू होता है.

शुरू में इस के लक्षण पीले रंग के गोल धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं. 3-4 दिन में धब्बे आकार में बढ़ जाते हैं और इन के ऊपर काले रंग के फफूंद के जीवाणु दिखाई देने लगते हैं.

रोकथाम

फलों को सावधानी से तोड़ना चाहिए, ताकि फलों पर खरोंच न लगे या फल न कटे.

फलों को 0.5 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 5 मिनट तक डुबो कर रखने से इस रोग पर काबू किया जा सकता है.

अगर आप को आम की अच्छी उपज लेनी है तो शुरू से ही पौधों की देखभाल करें. आम के पौधों को जितना फल लगने के बाद देखभाल की जरूरत होती है, उस से कहीं ज्यादा फल आने के पहले होती है.

आमतौर पर किसान यहीं गलती करते हैं. इस वजह से उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है. बौर आने के पहले रोगों से आम को बचाएं, साथ ही, बौर आने के बाद भी कई तरह के छिड़काव से रोगों से बचाना अहम हो जाता है. जब फल बड़े हो कर तुड़ाई के लिए तैयार हो जाएं तब भी उन्हें सड़नेगलने से बचाना उतना ही जरूरी है, जितना शुरुआत में बचाया गया था.

बागबानी (Gardening) का बढ़ता दायरा

पिछले कुछ सालों में केंद्र और राज्य सरकारों ने बागबानी को बढ़ावा देने के लिए नीतियां बनाई हैं और बजट जारी किए हैं. सरकारी एजेंसियां जो ग्रामीण विकास के लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें इस दिशा में काम करने का लक्ष्य दिया गया है. धीरेधीरे किसानों की समझ में भी आने लगा है कि जिस बागबानी से वे लाभ ले रहे हैं, उस की देखभाल करने के लिए अब नए तौरतरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए.

बागबानी के मामले में भारत का दुनिया में दूसरा स्थान है. आम, केला, पपीता, काजू, आलू, भिंडी व सुपारी आदि के मामले में भारत पहले नंबर पर है. ग्रामीण इलाकों में बागबानी ही किसानों की निश्चित आय का जरीया है.

खेतीबारी से होने वाली आमदनी की भागीदारी 50 फीसदी से भी नीचे चली गई है, जबकि बागबानी से होने वाली आमदनी कृषि क्षेत्र की कुल आमदनी की 33 फीसदी हो गई है. इन आंकड़ों से पता चलता है कि किसानों की निर्भरता खेती के बजाय बागबानी पर तेजी से बढ़ रही है और किसान बागबानी के माध्यम से ज्यादा लाभ कमा रहे हैं.

भले ही कृषि अर्थव्यवस्था में बागबानी ने बढ़त बना ली है, लेकिन अभी भी इस का अर्थशास्त्र उतना सरल नहीं है. बागबानी के क्षेत्र में आ रही परेशानियां, शोध की धीमी रफ्तार, कीटनाशकों की बढ़ती कीमत और अन्य देशों के मुकाबले बागबानी की उत्पादकता को चर्चा का विषय नहीं माना जा रहा है.

किसानों की जीवनशैली सुधारने में बागबानी ने बहुत योगदान दिया है. लेकिन बागबानी की सफलता के साथसाथ कहीं न कहीं इस में नुकसान भी है, जैसे ज्यादा उत्पादन होने पर फलों की कीमतों में गिरावट होना.

बागबानी (Gardening)

भारतीय बागबानी की खास उपलब्धियां : आम, केला, नारियल, काजू, पपीता व अनार वगैरह के उत्पाद में भारत का पहला स्थान है. बात करें मसालों की तो सब से बड़ा उत्पादक और निर्यातक देश भी भारत ही है. बागबानी पर पूरा ध्यान देने से उत्पादन और निर्यात बढ़ा है. बागबानी उत्पादों में इजाफे से पोषण सुरक्षा और रोजगार के अवसरों में इजाफा हुआ है. पिछले कुछ अरसे के दौरान केला, अंगूर, आलू, प्याज, इलायची, अदरक व हलदी आदि बागबानी फसलों के उत्पादन में महत्त्वपूर्ण इजाफा हुआ है. सेब, आम, अंगूर, केला, संतरा, अमरूद, लीची, पपीता, अनन्नास, चीकू, प्याज, टमाटर, मटर व फूलगोभी आदि की निर्यात के लिए उम्दा किस्मों का विकास किया जा चुका है.

नीबू वर्गीय फलों, केला, अमरूद, आलू और शकरकंद की रोगमुक्त, अच्छी रोपण सामग्री के उत्पादन के लिए उन्नत तकनीकों का विकास किया गया है. विभिन्न फलों व मसालों आदि के लिए सूक्ष्म प्रवर्धन तकनीकों का विकास किया गया है. केला, नीबू वर्गीय फलों, अंगूर और काली मिर्च में विषाणु, जीवाणु, कवक और सूत्रकृमि की जांच के लिए सेरोलाजिकल और पीसीआर आधारित नैदानिक तकनीकें विकसित की गई हैं. अंगूर में सूखा और लवणता के लिए मूलसामग्री की पहचान की गई. नीबू वर्गीय फलों, सेब, अमरूद और आम की भी मूलसामग्री की पहचान की जा चुकी है.

सौर ऊर्जा के उपयोग के लिए विभिन्न फलों के लिए छत्रक प्रबंधन पद्धतियों का विकास किया गया है. साथ ही साथ आम, अमरूद, बेर और आंवला के पुराने बागों के जीर्णोद्धार की प्रौद्योगिकी द्वारा जल और पोषण कूवत को लगातार बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है. टिकाऊ लाभ के लिए नारियल, सुपारी, बेर और आंवला के लिए अंत: सस्यन और बहुस्तरीय फसल प्रणाली का विकास किया जा रहा है. सफेद मूसली, नीबू घास, पामरोजा व सेना आदि औषधीय पौधों के लिए अच्छी कृषि क्रियाओं का विकास किया गया, जिस से किसानों को लाभ मिलने लगा है. कट फ्लावर और औषधीय पौधों के उत्पादन में कम समय में ही भारत ने खास तरक्की की है.

पिछले कुछ अरसे में मशरूम उत्पादन में तेजी आई है, जिस से मशरूम उत्पादक किसानों और उद्यमियों के सामाजिक व आर्थिक स्तर में बेहद सुधार हुआ है. उच्च उत्पादक आयस्टर और ब्लू आयस्टर मशरूम की प्रजातियों और उत्पादन प्रौद्योगिकी का विकास किया गया है, जिस से उन की बिक्री में आसानी होती है और अधिक मुनाफा मिलता है.

फ्रूट हारवेस्टर, ग्रेडिंग और कटिंग मशीन, ड्रायर आदि विकसित कर के फसल हानि को कम कर के फल तोड़ाई और फसल दक्षता बढ़ाने के लिए फार्म मशीनरी का इस्तेमाल किया गया. फलों और सब्जियों के भंडारण के लिए कम लागत के पर्यावरण हितैषी कूल चैंबरों का विकास किया गया है.

आलू, अंगूर व मसालों में जर्मप्लाज्म साधनों, कीटों और रोगों पर डेटाबेस, सूचना और विशेषज्ञ पद्धति का विकास किया गया है. नारियल, आम, अमरूद, आंवला, लीची, विभिन्न सब्जियों जैसे आलू, कंदीय फसलों व मशरूम आदि के कई उत्पाद विकसित किए गए हैं.

आम के बागों  में उर्वरक प्रबंधन

आजकल आम का सीजन जोरों पर है. ज्यादातर किसानों ने आम को तोड़ कर मंडियों में भेज दिया है. कुछ किसानों ने फसल को खुद पकने के लिए छोड़ भी रखा होगा. जिन किसानों के बाग 10 साल या उस से ज्यादा पुराने हैं, उन को अब अपने बागों में उर्वरक प्रबंधन करना चाहिए, ताकि अगले साल भी फल आ सकें. इस के लिए सड़ी गोबर की खाद, डीएपी, पोटाश, बोरैक्स एजोटोबैक्टर, पीएसबी, माइकोराइजा को मिला कर मिश्रण तैयार कर लें.

इस मिश्रण को तने से एक मीटर की दूरी पर पेड़ की पूरी कैनोपी के नीचे मिट्टी में मिला कर हलकी सिंचाई करें और बाद में नमी रहने पर चूना, जिंक सल्फेट और यूरिया को भी मिट्टी में मिला दें. इस खाद की आधा मात्रा को फल तोड़ने के बाद जुलाई महीने में और बाकी आधी मात्रा नवंबर महीने में बाग में डालें.

आम के बाग का उर्वरक प्रबंधन

आम के लिए मिट्टी का पीएच मान 7.00 और जीवांश कार्बन 1-3 फीसदी तक सब से अच्छा रहता है.

खाद की मात्रा

गोबर की खाद : 100 ग्राम प्रति पेड़

पोटाश : 1 किलोग्राम प्रति पेड़

जिंक सल्फेट : 200 ग्राम प्रति पेड़

बोरैक्स : 100 ग्राम प्रति पेड़

कौपर सल्फेट : 100 ग्राम प्रति पेड़

केंचुए की खाद : 5 किलोग्राम प्रति पेड़

माइकोराइजा : 100 ग्राम प्रति पेड़

एजोटोबैक्टर : 100 ग्राम प्रति पेड़

सारी मात्रा को बताई गई विधियों के मुताबिक ही इस्तेमाल करें. ज्यादा जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से संपर्क करें.

फल की तुड़ाई के उपरांत आम के बागों का प्रबंधन

आम की खेती का लाभ  मुख्य रूप से समय पर बाग में किए जाने वाले विभिन्न खेती के कामों पर निर्भर करता है. समय से खेती के काम या गतिविधियां न करने से बागबान को भारी नुकसान हो सकता है, जो  लाभहीन उद्यम हो कर रह जाता है.

बागबान आम की तोड़ाई कर बेच कर या खुद आम खा कर अकसर आम की बगिया को भूल जाते हैं कि उस के लिए भी कुछ करना है या नहीं, जिस ने मीठे फल दिए.

याद रखें, फल की तुड़ाई के बाद से ले कर मंजर के आने तक क्याक्या किया जाना चाहिए, इन सिफारिशों को जब अपनाएंगे, तो निश्चित रूप से उत्पादों की उत्पादकता, गुणवत्ता के साथसाथ शुद्ध रिटर्न में वृद्धि करने में मदद मिलेगी.

गहरी जुताई और उर्वरक : फलों की तुड़ाई के बाद बाग की अच्छी तरह से गहरी जुताई करनी चाहिए. इस के बाद बाग  से खरपतवार निकाल दें. उस के बाद 10 साल या 10 साल से बड़े आम के पेड़ों के लिए यूरिया 2.20 किलोग्राम, सिंगल सुपर फास्फोरस 3.12 किलोग्राम और म्यूरेट औफ पोटाश 1.73 किलोग्राम प्रति पेड़ देना चाहिए. इसी के साथ 80 से 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर या कंपोस्ट खाद भी देनी चाहिए.

खाद व उर्वरक देने के लिए पेड़ के मुख्य तने से 2 मीटर की दूरी पर 25 सैंटीमीटर चौड़ा व 25 सैंटीमीटर गहरा घेरा पेड़ के चारों तरफ खोद दें. इस के बाद आधी मिट्टी निकाल कर अलग करने के बाद उस में सभी खाद व उर्वरक मिलाने के बाद उसे घेरे में भर देते हैं, इस के बाद शेष बची मिट्टी से घेरे को भर देते हैं, उस के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए.

कीट प्रबंधन :  जहां नमी ज्यादा होती है, वहां शूट गाल कीट की एक विकट समस्या खड़ी हो जाती है. इस कीट के नियंत्रण के लिए जुलाई व अगस्त का महीना बहुत महत्त्वपूर्ण है. अगस्त के मध्य में डाईमेथोएट 30 ईसी 2 मिलीलिटर को प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

बाग में मकड़ी के जाले को साफ करते रहना चाहिए और सूखे से प्रभावित हिस्से को काट कर जला देना चाहिए.

रोग प्रबंधन : अधिक वर्षा व नमी ज्यादा होने की वजह से लाल जंग रोग (रैड रुस्ट) और एंथ्रेक्नोज रोग ज्यादा देखने को मिलता है. इस के नियंत्रण के लिए कौपरऔक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. सितंबर के महीने में डाईमेथोएट (2 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी) का दोबारा छिड़काव करें.

अक्तूबर के महीने के दौरान डाईबैक रोग के लक्षण अधिक दिखाई देते हैं. इस रोग के प्रबंधन के लिए जरूरी है कि जहां तक टहनी सूख गई है, उस के आगे 5-10 सैंटीमीटर हरे हिस्से तक टहनी की कटाईछंटाई कर के उसी दिन कौपरऔक्सीक्लोराइड (3 ग्राम प्रति लिटर पानी) का छिड़काव करें और 10-15 दिन के अंतराल पर एक छिड़काव दोबारा करें.

आम के पेड़ से गोंद निकलने की भी एक बड़ी समस्या है. इस के नियंत्रण के लिए सतह को साफ करें और प्रभावित हिस्से पर बोर्डो पेस्ट लगाएं या प्रति पेड़ 200-400 ग्राम कौपर सल्फेट पेड़ की उम्र के हिसाब से जड़ के चारों ओर डालना उपयोगी होता है.

अक्तूबरनवंबर महीने के दौरान डाईबैक के लक्षण आम में दिखाई देने लगते हैं, इसलिए 5-10 सैंटीमीटर हरे भाग में मृत लकडि़यों की छंटाई की सलाह दी जाती है और आम के पेड़ों को सूखने या मरने से बचाने के लिए 15 दिनों के अंतराल पर कौपरऔक्सीक्लोराइड (3 ग्राम/लिटर पानी) का 2 बार छिड़काव किया जाता है. दिसंबर माह में बाग की हलकी जुताई करें और बाग से खरपतवार निकाल दें.

इस महीने के अंत तक मिली बग के नियंत्रण के लिए आम के पेड़ की बैडिंग की व्यवस्था करें. 25-30 सैंटीमीटर की चौड़ाई वाली एक अल्केथेन शीट (400 गेज) को 30-40 सैमी. की ऊंचाई पर पेड़ के तने के चारों ओर लपेटा जाना चाहिए. इस शीट के दोनों छोर पर बांधा जाना चाहिए और पेड़ पर चढ़ने के लिए मिली बग कीट को रोकने के लिए निचले सिरे पर ग्रीस लगाया जाना चाहिए.

दिसंबर माह में छाल खाने वाले और मुख्य तने में छेद (ट्रंक बोरिंग) कीड़ों को नियंत्रित करने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होता है. पहले छेदों को पहचानें और उस को साफ करें. इन छेदों में डाईक्लोरवास (1 मिलीलिटर दवा प्रति 2 लिटर पानी) का इंजैक्शन लगाएं. कीटनाशक डालने के बाद इन छेदों को वैक्स या गीली मिट्टी से बंद कर देना चाहिए.

बाग लगाने के लिए गड्ढे करें तैयार

आम के बाग लगाने की योजना जो किसान बना रहे हैं, उन के लिए गड्ढे खोदने का उपयुक्त समय है. किसान को जिस खेत में बाग लगाना हो, सब से पहले उस खेत की मिट्टी की जांच करा लें, ताकि पोषण प्रबंधन आसानी से समय से किया जा सके. इस समय तकरीबन 8 से 12 मीटर की दूरी पर 1 मीटर लंबे, 1 मीटर चौड़े और 1 मीटर गहरे गड्ढे खोद कर छोड़ दें. इन गड्ढों को जून के अंत में आधा भाग मिट्टी और आधा भाग सड़ी हुई गोबर की खाद अथवा कंपोस्ट मिला कर भरते हैं.

दीमक से बचाव के लिए हरेक गड्ढे में 50 मिलीलिटर क्लोरोपायरीफास का 2 लिटर पानी में घोल बना कर गड्ढे में भरे जाने वाले मिश्रण में मिला लेना चाहिए. उस के बाद गड्ढे में भर कर सिंचाई कर देनी चाहिए, फिर गड्ढों को छोड़ देते हैं.

पौधों की रोपाई का सही समय बरसात का मौसम है. परंतु कोशिश करनी चाहिए कि बरसात का मौसम जब खत्म होने वाला हो, उस समय पौधों को लगाना चाहिए. बरसात में गड्ढे की मिट्टी दब जाने के कारण अगर अतिरिक्त मिट्टी को मिलाना हो तो उपरोक्तानुसार मिश्रण तैयार कर के दोबारा मिला देना चाहिए.

इस तरह किसान आम के बाग लगाने के लिए समय का सदुपयोग कर के अच्छा बाग लगा सकते हैं.

आम पौध की रोपाई तकनीक और कीटरोगों की रोकथाम

आम की खेती के लिए पौध रोपाई आमतौर पर 10-12 मीटर पर की जा रही है. इस में केवल 70-100 पेड़ एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगाए जा सकते हैं. इस प्रणाली के तहत उपलब्ध क्षेत्र या जमीन का बहुत अधिक कुशलता से उपयोग नहीं किया जा सकता है. इस वजह से कम पैदावार मिलती है, वहीं पासपास पौध की रोपाई से बाग को 375-450 से अधिक पेड़ों को रोपा जा सकता है.

पासपास तय दूरी पर बाग लगाने के लिए जमीन के मुहैया होने में लगातार गिरावट, बागबानी ऊर्जा की बढ़ती मांग, ऊर्जा व जमीन की लागत में लगातार गिरावट के नतीजे हैं. पेड़ों की बढ़ी हुई तादाद प्रति हेक्टेयर के अलावा एक उच्च घनत्व वाला बाग, रोपने के बाद 2-3 सालों के भीतर असर में आना चाहिए.

जैसेजैसे पेड़ का घनत्व बढ़ेगा, पैदावार तकरीबन 2,500 टन प्रति हेक्टेयर तक बढ़ जाएगी.

उच्च घनत्व वाले बागों में न केवल शुरुआती सालों में प्रति यूनिट क्षेत्र में अच्छी पैदावार मिलती है, वहीं खालिस मुनाफा भी होता है. अच्छे उर्वरक, खादपानी, पौधों की सुरक्षा के उपायों को अपना कर खरपतवार नियंत्रण पर काबू पाना आसान होता है. इसलिए यह तकनीक  ‘आम्रपाली’ आम के लिए विकसित की गई थी जो आनुवंशिक रूप से बौनी किस्म है. पेड़ों को त्रिकोणीय प्रणाली के साथ (2.5 मीटर × 2.5 मीटर) लगाने की सिफारिश की गई है. इस में प्रति हेक्टेयर 1,600 पेड़ हैं.

यदि मुमकिन हो, तो बाग को साफसुथरी जगह पर लगाया जाना चाहिए. इस प्रणाली में रूटस्टौक्स को सीधे बाग में लगाया जाना चाहिए, जो बाद में खेत में ही तैयार हो जाता है.

पेड़ को झाड़ी का रूप देने के लिए टर्मिनल की शाखाओं से 2 साल के लिए पौधों की छंटाई की जानी चाहिए. 3 साल बाद पौधे फल देना शुरू कर देते हैं.

‘आम्रपाली’ में मुनाफाखोरी है. यह फल के आकार को कम करती है इसलिए फलों के आकार को बढ़ावा देने के लिए पतला होना जरूरी है. 7-8 साल की उम्र के पेड़ से अच्छे फल की उम्मीद की जाती है.

12 साल बाद पेड़ घना हो जाता है जो बदले में फल की पैदावार को कम कर देता है. इसलिए पेड़ों को अच्छी धूप में रखने के लिए सालाना नियमित छंटाई की जरूरत होती है.

ज्यादा आमदनी हासिल करने के लिए पैदावार को बेहतर बनाए रखने के लिए बाग में पोषण प्रबंधन जरूरी है, इसलिए पौधे के विकास के 10 साल बाद पेड़ के प्रत्येक बेसिन में 20-25 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुई खाद, 2.17 किलोग्राम यूरिया, 3.12 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 2.10 किलोग्राम पोटैशियम सल्फेट डालें.

शुरू के सालों में यानी 1 साल में 10 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद, 217 ग्राम यूरिया, 312 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 210 ग्राम पोटैशियम सल्फेट डालें.

फार्म यार्ड खाद और फास्फोरस अक्तूबर माह में ही डाल देना चाहिए. यूरिया और पोटैशियम सल्फेट की आधी खुराक अक्तूबर माह में और बाकी आधी मात्रा जूट की फसल की कटाई (जूनजुलाई माह) के बाद दी जाती है.

जस्ता और मैंगनीज की कमी को पूरा करने के लिए मार्चअप्रैल, जून और सितंबर माह के दौरान 2 फीसदी जिंक सल्फेट और 1 फीसदी चूना डाला जाना चाहिए, वहीं पर्ण स्प्रे द्वारा 0.5 फीसदी मैंगनीज सल्फेट. बोरेक्स 250-500 ग्राम प्रति पेड़ का छिड़काव फलों की क्वालिटी में सुधार करने में मदद करता है.

अप्रैलमई माह में 10 दिनों के अंतराल पर बोरेक्स की 0.6 फीसदी घोल के साथ बोरोन की कमी होने पर छिड़कें. सिंचाई ठीक से होनी चाहिए. ड्रिप सिंचाई अत्यधिक कारगर है और फलों की क्वालिटी में भी सुधार करती है.

कुलतार का प्रयोग

आम के पेड़ में हर साल फल आने व पेड़ की बढ़वार के नियंत्रण के लिए कुलतार यानी पैक्लोब्यूटाजोल का इस्तेमाल किया जाता है. इस के लिए हर पेड़ को उस की सालाना उम्र पर 1 मिलीलिटर कुलतार को 5 लिटर पानी में मिला कर मुख्य तने के चारों ओर मिट्टी में मिला कर हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए.

उत्तर भारत में कुलतार के इस्तेमाल का सही समय 15 सितंबर से 15 नवंबर माह माना जाता है. इस के इस्तेमाल से जुलाईअगस्त माह में आई नई शाखाओं पर, फरवरीमार्च माह में फूलों का खिलना व फलना शुरू हो जाता है.

कीट व रोगों की रोकथाम

नाशकीट प्रबंधन : आम के पौधों को नर्सरी से ले कर फल लगने तक तकरीबन दर्जनभर कीटों की प्रजातियां नुकसान पहुंचाती हैं इसलिए इन की रोकथाम बेहद जरूरी है. इन में से मुख्य कीट जैसे भुनगा, गुजिया, डासी मक्खी वगैरह आम की फसल को अच्छाखासा नुकसान पहुंचाती हैं. इन की रोकथाम कुछ इस तरह करनी चाहिए.

भुनगा :

इस कीट की सूंड़ी व वयस्क दोनों ही मुलायम प्ररोहों, प्रत्तियों व फलों का रस चूसते हैं. फूलों पर इस का बुरा असर पड़ता है. इस वजह से फूल सूख कर गिर जाते हैं.

यह कीट एक प्रकार का मीठा रस निकालता है जो पेड़ों की पत्तियों, प्ररोहों वगैरह पर लग जाता है. इस मीठे रस पर काली फफूंदी पनपती है. यह पत्तियों पर काली परत के रूप में फैल कर पेड़ों के प्रकाश संश्लेषण पर बुरा असर डालती है.

रोकथाम :

बाग से खरपतवार हटा कर उसे साफसुथरा रखें. घने बाग की कटाईछंटाई दिसंबर माह में करें. वहीं दूसरी ओर बौर फूटने के बाद बागों की बराबर देखभाल करें.

पुष्प गुच्छ की लंबाई 8-10 सैंटीमीटर होने पर भुनगा कीट का हमला होता है. इस की रोकथाम के लिए 0.005 फीसदी इमिडा क्लोप्रिड का पहली बार छिड़काव करें. 0.005 फीसदी थायोमेथोक्जाम या 0.05 फीसदी प्रोफेनोफास का दूसरा छिड़काव फल लगने के तुरंत बाद करें.

गुजिया :

इस कीट के बच्चे व वयस्क मादा प्ररोहों, पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. जब इन की तादाद बढ़ जाती है तो इन के द्वारा रस चूसे जाने के चलते पेड़ों के प्ररोह, पत्तियों व बौर सूख जाते हैं और फल नहीं लगते हैं.

यह कीट मीठा रस पैदा करता है, जिस के ऊपर काली फफूंदी पनपती है. इस कीट का प्रकोप दिसंबर से मई माह तक देखा जाता है.

रोकथाम :

खरपतवार और दूसरी घास को नवंबर माह में जुताई कर के निकाल दें. बाग से निकालने से सुसुप्तावस्था में रहने वाले अंडे धूप, गरमी व चींटियों द्वारा खत्म हो जाते हैं.

दिसंबर माह के तीसरे सप्ताह में पेड़ के तने के आसपास 250 ग्राम क्लोरोपाइरीफास चूर्ण 1.5 फीसदी प्रति पेड़ की दर से मिट्टी में मिला देने से अंडों से निकलने वाले निम्फ मर जाते हैं. पौलीथिन की 30 सैंटीमीटर पट्टी पेड़ के तने के चारों ओर जमीन की सतह से 30 सैंटीमीटर ऊंचाई पर दिसंबर में गुजिया के निकलने से पहले लपेटने से निम्फ का पेड़ों पर ऊपर चढ़ना रुक जाता है.

पट्टी के दोनों सिरों को सुतली से बांधना चाहिए. इस के बाद थोड़ी ग्रीस पट्टी के निचले घेरे पर लगाने से गुजिया को पट्टी पर चढ़ने से रोका जा सकता है. यह पट्टी बाग में स्थित सभी आम के पेड़ों व दूसरे पेड़ों पर भी बांधनी चाहिए.

यदि किसी कारणवश गुजिया पेड़ पर चढ़ गई है तो ऐसी अवस्था में 0.05 फीसदी कार्बोसल्फान 0.2 मिलीलिटर प्रति लिटर या 0.06 फीसदी डाईमिथोएट 2.0 मिलीलिटर प्रति लिटर का छिड़काव करें.

पुष्प गुच्छ मिज :

आम के पौधों पर मिज के प्रकोप से 3 चरणों में नुकसान होता है. इस का पहला प्रकोप कली के खिलने की अवस्था में होता है. नए विकसित बौर में अंडे दिए जाने व लार्वा द्वारा बौर के मुलायम डंठल में घुसने से बौर पूरी तरह से खराब हो जाते हैं. पूरी तरह विकसित लार्वा बौर के डंठल से निकलने के लिए छेद बनाते हैं. इस का दूसरा प्रकोप फलों के बनने की अवस्था में होता है. फलों में अंडे देने और लार्वा के घुसने के फलस्वरूप फल पीले हो कर गिर जाते हैं और तीसरा प्रकोप बौर को घेरती हुई पत्तियों पर होता है.

रोकथाम :

अक्तूबरनवंबर माह में बाग में की गई जुताई से मिज की सूंडि़यों के साथ सुसुप्तावस्था में पड़े प्यूपा खत्म हो जाते हैं. जिन बागों में इस कीट का असर होता रहा है, वहां बौर फूटने पर 0.06 फीसदी डाईमिथोएट का छिड़काव करना चाहिए.

वहीं, अप्रैलमई माह में 250 ग्राम क्लोरोपाइरीफास चूर्ण प्रति पेड़ के हिसाब से छिड़काव करने पर पेड़ के नीचे सूंडि़यां नष्ट हो जाती हैं. फरवरी माह में भुनगा कीट के लिए किए जाने वाले कीटनाशी छिड़काव से इस कीट का भी नियंत्रण हो जाता है.

डासी मक्खी :

प्रौढ़ मक्खियां अप्रैल माह में जमीन से निकल कर पके फलों पर अंडे देती हैं. एक मक्खी 150 से 200 तक अंडे देती है. 2-3 दिन के बाद सूंडि़यां अंड़ों से निकल कर गूदे को खाना शुरू कर देती हैं. इस कीट की सूंडि़यां आम के गूदे खा कर उसे एक सड़े अर्धतरल बदबूदार पदार्थ के रूप में बदल देती हैं.

रोकथाम :

इस कीट के प्रकोप के असर को कम करने के लिए सभी गिरे हुए फल और मक्खी के प्रकोप से ग्रसित फलों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए.

पेड़ों के आसपास सर्दियों में जुताई करने से जमीन में मौजूद प्यूपा को खत्म किया जा सकता है, वहीं लकड़ी की बनी यौनगंध टैंप को पेड़ पर लगाना काफी कारगर है.

इस टैंप के लिए प्लाइवुड के 5×5×1 सैंटीमीटर आकार के गुटके को 48 घंटे तक 6:4:1 के अनुपात में अल्कोहल : मिथाइल यूजीनौल : मैलाथियान के घोल में भिगो कर लगाना चाहिए. यौनगंध टैंप को 2 माह के अंतराल पर बदलना चाहिए. 10 टैंप प्रति हेक्टेयर लटकाने चाहिए.

रोग की रोकथाम :

आम के पेड़ों में नर्सरी से ले कर फल लगने तक तमाम रोग लगते हैं जो पौधे के तकरीबन हरेक भाग को प्रभावित कर नुकसान पहुंचाते हैं. फल भंडारण के दौरान भी तमाम रोगों का प्रकोप होता है जो फलों में सड़न पैदा करते हैं. इसलिए इस के लक्षण व रोकथाम की जानकारी होना बेहद जरूरी है.

पाउडरी मिल्ड्यू :

इस रोग के लक्षण बौर, पुष्प गुच्छ की डंडियों, पत्तियों व नए फलों पर देखे जा सकते हैं. इस रोग का खास लक्षण सफेद कवक या चूर्ण के रूप में दिखाई देता है.

नई पत्तियों पर यह रोग आसानी से दिख जाता है, जब पत्तियों का रंग भूरे से हलके हरे रंग में बदलता है. नई पत्तियों पर ऊपरी और निचली सतह पर छोटे सलेटी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं जो निचली सतह पर ज्यादा साफ दिखते हैं.

बौरों पर यह रोग सफेद चूर्ण की तरह दिखाई पड़ता है और बोरों में लगे फूलों के झड़ने की वजह बनता है. भीतरी दल के मुकाबले बाहरी दल इस से ज्यादा प्रभावित होते हैं. ग्रसित होने पर फूल नहीं खिलते हैं और समय से पहले ही झड़ जाते हैं. नए फलों पर पूरी तरह सफेद चूर्ण फैल जाता है और मटर के दाने के बराबर हो जाने के बाद फल पेड़ से झड़ जाते हैं.

रोकथाम :

पहला छिड़काव 0.2 फीसदी घुलनशील गंधक का घोल बना कर उस समय करना चाहिए जब बोर 3-4 इंच का होता है. दूसरा छिड़काव 0.1 फीसदी डिनोकेप का होना चाहिए, जो पहले छिड़काव के 15-20 दिन बाद हो. दूसरे छिड़काव के 15-20 दिन बाद तीसरा छिड़काव 0.1 फीसदी टाइडीमार्फ का होना चाहिए.

एंथ्रेक्नोज :

यह रोग पत्तियों, टहनियों, मंजरियों और फलों पर देखा जा सकता है. पत्तियों की सतह पर पहले गोल या अनियमित भूरे या गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. प्रभावित टहनियों पर पहले काले धब्बे बनते हैं और फिर पूरी टहनी या पर्णवृंत सलेटी काले रंग की हो जाती है. पत्तियां नीचे की ओर झुक कर सूखने लगती हैं और आखिर में गिर जाती हैं.

बौर पर सब से पहले पाए जाने वाले लक्षण हैं, गहरे भूरे रंग के धब्बे, जो कि फूलों और पुष्पवृंतों पर प्रकट होते हैं. बौर व खिले फूलों पर छोटे काले धब्बे उभरते हैं जो धीरेधीरे फैलते हैं और आपस में जुड़ कर फूलों को सुखा देते हैं. अधिक नमी होने पर यह कवक तेजी फैलता है.

रोकथाम :

सभी रोग से ग्रसित टहनियों की छंटाई कर देनी चाहिए. बाग में गिरी हुई पत्तियों, टहनियों और फलों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए. मंजरी संक्रमण को रोकने के लिए 0.1 फीसदी कार्बंडाजिम का 2 बार छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करने से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है.

पर्णीय संक्रमण को रोकने के लिए 0.3 फीसदी कौपर औक्सीक्लोराइड का छिड़काव कारगर है. 0.1 फीसदी थायोफेनेट मिथाइल या 0.1 फीसदी कार्बंडाजिम का बाग में फल की तुड़ाई से पहले छिड़काव करने से अंदरूनी संक्रमण को कम किया जा सकता है.

उल्टा सूखा रोग :

टहनियों का ऊपर से नीचे की ओर सूखना इस रोग का मुख्य लक्षण है. खासतौर पर पुराने पेड़ों में बाद के पत्ते सूख जाते हैं जो आगे से झुलसे हुए से मालूम पड़ते हैं. शुरू में नई हरी टहनियों पर गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. जब ये धब्बे बढ़ते हैं, तब नई टहनियां सूख जाती हैं. ऊपर की पत्तियां अपना हरा रंग खो देती हैं. इस रोग का साफसाफ असर अक्तूबरनवंबर माह में दिखाई पड़ता है.

रोकथाम :

छंटाई के बाद गाय का गोबर व चिकनी मिट्टी मिला कर कटे भाग पर लगाना फायदेमंद होता है. संक्रमित भाग से 3 इंच नीचे से छंटाई करने के बाद बोर्डो मिश्रण 5:5:50 या 0.3 फीसदी कौपर औक्सीक्लोराइड का छिड़काव अधिक प्रभावशाली है.

यह भी ध्यान रखें कि कलम के लिए इस्तेमाल में आने वाली सांकुर डाली रोग से ग्रसित न हो.

ऐसे सीख सकते हैं बागबानी करना जो व्यक्ति इस काम में नए हैं, उन को पहले बागबनी की ट्रेनिंग ले लेनी चाहिए. ट्रेनिंग लेने के लिए केंद्रीय उपोष्ण बागबानी संस्थान, रहमान खेड़ा, काकोरी, लखनऊ से संपर्क कर सकते हैं या फिर आप अपने जिले के उद्यान विभाग से भी संपर्क कर दूसरे बागबानी संस्थानों पर जा कर ट्रेनिंग ले सकते हैं. इस के लिए प्रदेश सरकार समयसमय पर किसानों को सहयोग भी करती है.

ट्रेनिंग के बाद यही काम आप दूसरों को भी सिखा सकते हैं और अतिरिक्त आमदनी ले सकते हैं. अच्छा उत्पादन हासिल करने के बाद बाजार में भेज कर अच्छा मुनाफा कमाने के साथसाथ स्वयंसहायता समूह बना कर आम से बनने वाली दूसरी चीजें भी बना सकते हैं और दूसरों को भी रोजगार दे सकते हैं.

आम के बाग में बरतें कुछ जरूरी निर्देश

*           आम के नए और सघन बाग लगाने से पहले सभी जरूरी चीजों की सटीक जानकारी ले लेनी चाहिए.

*           किसानों को हमेशा ये बातें ध्यान रखनी चाहिए कि पुरानी पद्धतियों के साथसाथ उन्हें नई तकनीक को अपनाने में संकोच नहीं करना चाहिए.

*           जब भी मौका मिले, बागबानी करने वालों और उद्यान विशेषज्ञों से समयसमय पर सलाह लेते रहना चाहिए. उन के द्वारा सुझाए गए उपायों को अमल में लाना चाहिए.

*           बाग से समयसमय पर खरपतवार निकालते रहना चाहिए.

*           पौधों के लिए महत्त्वपूर्ण है समय पर सिंचाई करना. इस का लगातार ध्यान रखना चाहिए.

*           सिंचाई के लिए बूंदबूंद टपक सिंचाई व्यवस्था अच्छी मानी गई है.

*           अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए कीट व रोगों का नियंत्रण बेहद जरूरी है.

कलम विधि से तैयार करें आम की नर्सरी

भारत में फलदार वृक्षों की बागबानी में सर्वाधिक आम की ही बागबानी की जाती रही है. लेकिन आम की बागबानी शुरू करने के लिए जरूरत होती है अधिक पैदावार देने वाली अच्छी प्रजाति के आम के पौधों की. ये पौधे उद्यान विभाग की नर्सरी या प्राइवेट नर्सरियों से खरीद कर लाते हैं, जि सके लिए आम की किस्मों के अनुसार 30 रुपए से ले कर 500 रुपए प्रति पौधों की दर से भुगतान कर के खरीदना पड़ता है.

अगर हमारे किसान स्वयं आम की प्रजाजियों की नर्सरी तैयार कर बागबानी के लिए उपयोग में लाएं, तो उन्हें विश्वसनीय प्रजाति के साथ अच्छे उत्पादन देने वाले पौधे कम लागत में प्राप्त हो सकते हैं. इसी के साथ आम की नर्सरी को कारोबारी स्तर पर तैयार कर अन्य किसानों में बेच कर अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सकती है.

आम की नर्सरी तैयार करने की सब से उपयुक्त कलम विधि होती है, क्योंकि इस विधि से हम जिस प्रजाति के पौधों को तैयार करना चाहते हैं, वह कम समय और कम लागत में तैयार हो जाती है. साथ ही, पौधे में फल भी जल्दी आना शुरू हो जाता है. इस के लिए जरूरत होती है कि जिस प्रजाति के पौधे तैयार करने हों, उस प्रजाति के 5-6 साल पुराने पौधे आप के पास लगे हों. इन्हीं पुराने पौधों के कल्ले को कलम कर बीज से तैयार पौधों में संवर्धित किया जाता है. कलम से आम की नर्सरी तैयार करने के लिए निम्न तरीके अपनाने पड़ते हैं :

आम की गुठलियों से पौध तैयार करना

आम से कलम विधि से नर्सरी तैयार करने के लिए बीजू पौधों की जरूरत पड़ती है, जिस के लिए आम की गुठलियों को जमीन में रोप कर तैयार किया जाता है.

बीज से पौध तैयार करने के लिए भूमि के चयन पर ध्यान देना जरूरी होता है. इस के लिए दोमट या बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है, जिस में गोबर की सड़ी खाद या उपलब्धता के अनुसार वर्मी कंपोस्ट मिला कर मिट्टी को भुरभुरी बना लेते हैं. इस में यह भी ध्यान देना होता है कि जिस स्थान पर हम आम की गुठलियों को नर्सरी में डाल रहे हैं, वहां की जमीन समतल व ऊंची हो, जहां बरसात का पानी न लगे.

नर्सरी में आम की गुठलियों से पौध तैयार करने के लिए हमें देशी प्रजाति के बीजों की आवश्यकता पड़ती है, जो हमें जिला उद्यान विभाग या लखनऊ के मलीहाबाद के बीज उपलब्ध कराने वाली फर्मों से मिल सकते हैं.

देशी आम की गुठलियां, जिन्हें हम पपैया कहते हैं, को जुलाई के प्रथम सप्ताह से ले कर अगस्त के प्रथम सप्ताह तक 8X8 फुट की क्यारियां बना कर डालनी चाहिए. ध्यान रखें कि क्यांरियों में डाली जाने वाली गुठलियां मिट्टी में दबने न पाए, क्योंकि इस से पौध के स्थान बदलने पर जड़ के टूटने का डर रहता है. इसलिए गुठलियों को क्यारी में डालने के बाद उन को गोबर की खाद व आम की पत्तियों से ढकाई कर देनी चाहिए.

नर्सरी में डाली गई गुठलियों का जमाव 15-20 दिनों में हो जाता है. वर्तमान में गुठलियों को पौली बैग में पहले से ही डाल कर उगाया जाने लगा है. इस से अब पौधों को ट्रांसप्लांट करने के दौरान होने वाली क्षति में कमी आ गई है.

पौधो की ट्रांस प्लांटिंग

जब क्यारी के आम के पौधे 25-35 दिन के हो जाएं, तो इस की ट्रांस प्लांटिंग (पौधे का स्थान परिवर्तन) का काम किया जाता है, अन्यथा पोपैया से गुठली की जड़ टूट जाती है, जिस से पौधे के स्थान बदलने के बाद सूखने का डर बना रहता है.

पहले और आज भी सामान्य तौर पर पौधों की ट्रांस प्लांटिंग जमीन से जमीन में की जाती थी, पर नई तकनीक में पौधों की ट्रांस प्लांटिंग पौली बैग में की जाती है. ये पौली बैग पहले से तैयार कर के रखने चाहिए, जिस में गोबर की खाद, मिट्टी, बालू व भूसी को बराबर मात्रा में मिला कर भरा जाता है. इस तैयार पौली बैग में क्यारी से पौधों को निकाल कर लगाने के बाद स्प्रिंकलर या प्लास्टिक के पाइप द्वारा आवश्यकतानुसार 2-3 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए. पौली बैग में तैयार पौधे सूखते नहीं हैं.

कलम बांधने से पूर्व की तैयारी

कलम बांधने से पूर्व कुछ तैयारियां अति आवश्यक होती हैं, क्योंकि हमें जिस भी प्रजाति के आम का पौध तैयार करना है, उस के 4-6 वर्ष पुराने पौध हमारे पास उपलब्ध होने चाहिए. उस के लिए अधिक उत्पादन और अच्छी गुणवत्ता वाली प्रजातियां बांबे ग्रीन, दशहरी, लंगडा, चौसा, गौरजीत, पंत सिंदूरी, लखनऊ सफेदा, मल्लिका, खजली, आम्रपाली, रामकेला, अरुणिमा, नीलम इत्यादि हैं. अगर कलम तैयार करने के लिए आप के पास आम की अच्छी प्रजाति के पेड़ नहीं हैं, तो आप बागबानी करने वालों से भी संपर्क कर सकते हैं.

ऊपर बताई गई प्रजातियों में से जिस प्रजाति के पौधों की नर्सरी कलम विधि से तैयार करनी हो, उन पौधों की पुरानी टहनियों की काटछांट कर आम की गुठलियों को नर्सरी में डालने के पहले ही कर लें. जब इन में नए कल्ले (साइन) निकल आएं और यह 60-70 दिन पुराने हो जाएं, तो इन कल्लों को डिफलिएट यानी कल्लों के पत्तों की जड़ को डेढ़ इंच से ऊपर काट दिया जाता है. डिफलिएट किए गए कल्लों से एक से दो सप्ताह के भीतर पत्तों की जड़ झड़ जाने के बाद ये बीजू पौधों में कलम लगाने के लिए तैयार हो जाते हैं.

कलम बांधना

आम की गुठलियों से तैयार पौधे की 8-9 माह में कलम बांधने योग्य हो जाते हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रायः 15 जून से 15 सितंबर तक का समय आम की नर्सरी के कलम बांधने के लिए उपयुक्त होता है. वैसे तो आम की कलम की बंधाई गरमी के महीने को छोड़ कर हर माह में की जाने लगी है.

कलम बांधने के लिए हमें पहले से तैयार किए गए उपयुक्त प्रजाति के पौधे के कल्ले, जो डिफलिएट किए गए हैं, उन्हें 6 इंच लंबाई में पेड़ से काट कर अलग कर लिया जाता है. फिर बीज से तैयार पौधे के ऊपरी हिस्से को काट दिया जाता है और काटे गए स्थान में चाकू से चीरा लगा दिया जाता है. इस के उपरांत डिफलिएट किए गए कल्ले के निचले सिरे को दोनों तरफ से छील लेते हैं, फिर बीज वाले पौधे के सिरे में इस को फिट कर दिया जाता है.

कलम के लगाने के बाद इसे प्लास्टिक की पन्नी से कस कर बांध देते हैं. बांधे गए कलम में पौलीथीन कैप, जिसे क्लेप्ट विधि कहा जाता है, ऊपर से लगा दिया जाता है. यह कैप बांधे गए कलम को सूखने से बचाता है और कलम पर मौसम का प्रभाव भी कम पडता है. इस के साथ ही यह प्लास्टिक कैप कलम की नमी को बनाए रखने के साथ उत्प्रेरक का भी काम करता है.

कलम लगाने के बाद यह ध्यान रखना जरूरी है कि पौधे की जड़ों में पर्याप्त नमी बनी रहे. कलम बांधे गए हिस्से में जड़ की तरफ निकलने वाले हिस्से को तोड़ दिया जाता है, क्योंकि उस से पौधा बीजू हो जाता है.

इस के अलावा साइज विधि से भी कलम लगाई जाती है, जिस के लिए फिफलिएट किए गए कल्ले व बीजू पौधे को छील कर आपस में बांध दिया जाता है, लेकिन इस प्रकार के कलम में 20 फीसदी पौधों के मरने की आशंका बनी रहती है.

कलम बांधने के 5-6 माह में पौधे बिक्री योग्य हो जाते हैं, पर प्लास्टिक बैग में लगाए गए कलम के पौधे 30-40 दिन के भीतर ही बिक्री के लिए तैयार हो जाता है.

कृषि वैज्ञानिक राघवेंद्र विक्रम सिंह का कहना है कि आम के पौधों की नर्सरी 50 रुपए से ले कर 500 रुपए तक में बिकती है. उन्होंने बताया कि विश्वविख्यात आम्रपाली प्रजाति बस्ती जिला उद्यान में विकसित की गई है, जिस की मांग की अपेक्षा आपूर्ति नही की जा पा रही है, क्योंकि आम्रपाली की प्रजाति कम समय में फल देना शुरू करती है. साथ ही, अन्य प्रजातियों की अपेक्षा यह जगह भी कम घेरती है.

आम के फलों पर लाल पट्टीधारी फल छेदक कीट : कैसे करें प्रबंधन?

आजकल आम उत्पादक किसान आम के फलों पर लाल पट्टीधारी फल छेदक (रैड बैंडेड बोरर) कीट के आक्रमण से बहुत परेशान हैं. उन का कहना है कि 20 से 25 फीसदी आम के फलों में इस कीट के आक्रमण से फल फट कर सड़ रहा है. इस के लिए विश्वविद्यालय के आसपास के बागों का निरीक्षण किया गया. देखने में आया कि इस कीट की वजह से निश्चित रूप से किसानों को खासा नुकसान हुआ है. इस के पूर्व यह कीट ज्यादा नुकसान तब पहुंचाता था, जब फल टिकोले की अवस्था में होते थे, लेकिन इस वर्ष जबकि लगभग सभी फलों में गुठली बन गई हैं, इस अवस्था में भी इस कीट से भारी नुकसान देखा जा रहा है.

सकरा, मुजफ्फरपुर के पास के एक बाग में लगभग 30 फीसदी आम के फलों में स्पष्ट तौर से छेद देखा जा सकता है. किसानों का कहना है कि उन्होंने लगभग सभी कीटनाशकों का छिड़काव कर लिया है, लेकिन कोई फायदा नहीं हो रहा है.

आम उत्पादक किसानों के पास इस कीट के प्रबंधन के संबंध में सही जानकारी न होने की वजह से भारी नुकसान हो रहा है.

आम के रैड बैंडेड कैटरपिलर कीट का प्रकोप टिकोले की अवस्था से ले कर जब तक फल कच्चा रहता है हो सकता है. यह कीट समस्तीपुर के साथसाथ पश्चिम चंपारण, मुजफ्फरपुर एवं दरभंगा, सीतामढ़ी, शिवहर जिले के आम उत्पादक किसान आम के फ्रूट ब्रोरर यानी फल छेदक कीट के हमले से भारी नुकसान हो रहा है.

पिछले 2 साल से भारी वर्षा एवं वातावरण में अत्यधिक नमी होने की वजह से इस कीट का व्यापक प्रकोप देखा जा रहा है. यदि समय से इस कीट का प्रबंधन नहीं किया गया, तो भारी नुकसान होने की संभावना है. ये कीड़ा लार्वा के रूप में दो सटे हुए आम के फलों पर लगता है.

शुरुआत में ये आम के फल पर काला धब्बा जैसा दाग डाल देता है. यदि समय से इस की रोकथाम नहीं की गई, तो ये फल को छेद कर अंदर से सड़ा देता है, जो कुछ ही दिनों में गिर जाता है. इसे रैड बैंडेड मैंगो कैटरपिलर भी कहते हैं.

कैसे करें पहचान :

रैड बैंडेड मैंगो कैटरपिलर (RBMC) एशिया के उष्णकटिबंधीय भागों में आम का एक महत्वपूर्ण कीट है. भारतवर्ष में इस कीट से 10 फीसदी से ले कर 50 फीसदी के बीच नुकसान का आकलन किया गया है. यह कीट आम के लिए एक गंभीर खतरा है. इस कीट को आम का फल छेदक (बोरर)/ लाल पट्टी वाला छेदक/आम का गुठली छेदक इत्यादि नामों से जाना जाता है.

इस कीट के अंडे का आकार 0.45 x 0.7 मिमी, रंग दूधिया सफेद, लेकिन 2-3 दिनों के बाद क्रिमसन रंग में बदल जाता है. शुरू में इस कीट के लार्वा बहुत ही छोटे होते हैं, गुलाबी बैंडिंग और काले सिर क्रीम रंग के होते हैं. जैसे ही लार्वा बढ़ता है, वे चमकीले, गहरे लाल और सफेद रंग के बैंड के साथ चमकदार हो जाते हैं और सिर के पास एक काला ‘कौलर’ होता है. लंबाई में 2 सैंटीमीटर तक बढ़ सकता है. एक आम के फल में एक से अधिक लार्वा मौजूद हो सकते हैं, और वे अलगअलग आकार के हो सकते हैं.

फल आम के पेड़ का एकमात्र हिस्सा है, जो इस कीट से प्रभावित होता है. आम के फल का छिलका और फल के हिस्से के अंदर लाल बैंडेड कैटरपिलर सुरंगें बनाती हैं और फल के अंदर की गुठली को भी खाती हैं, जिस से फल खराब होते हैं और जल्दी गिर जाते हैं.

इस कीट के अंडे आमतौर पर फलों के डंठल यानी पेडुनकल पर पाए जाते हैं. अंडे देने के लिए आम की मार्बल स्टेज सब से अनुकूल अवस्था होती है. शुरुआती मौसम में पतझड़ के मौसम में पतंगों की तुलना में बड़ी संख्या में अंडे दिए जा सकते हैं, 12 दिनों के बाद अंडे लार्वा में आ जाते हैं, जो फलों के गूदे में और बाद में आम की गुठली में सुरंग बनाते हैं. लार्वा फल में आमतौर पर 1 बोर छेद के माध्यम से प्रवेश करते हैं. 15-20 दिनों के लिए लार्वा खाते हुए, 5 विकास चरणों (इंस्टार) से गुजरते हुए बढ़ते हैं. पहले 2 इंस्टार्स आम के गूदे पर, बाद में इंस्टार्स आम की गुठली को खाते हैं. लार्वा रेशम के एक कतरा का उत्पादन कर सकते हैं, जिस का उपयोग वे अन्य फलों पर या आसपास के फलों को अन्य पेड़ों पर ले जाने के लिए कर सकते हैं, जब वे भोजन से बाहर निकलते हैं या पेड़ की छाल या मिट्टी को छोड़ने के लिए छोड़ देते हैं. आम के पेड़ों की छाल के नीचे या मिट्टी में होता है और आमतौर पर लगभग 20 दिन लगते हैं.

जब आम के फलने का मौसम खत्म हो जाता है, तो प्यूपा अगले फलने के मौसम तक जीवित रह सकता है. आम में मंजर निकलने के समय वयस्क पतंगे का उद्भव होता है. एक बार वयस्क कीट उभरने के बाद, संभोग के बाद मादा अंडे देना शुरू कर देती है. वयस्क मादा पतंगे 3-9 दिनों तक जीवित रह सकती हैं. पतंगे ज्यादातर निशाचर होते हैं, दिन में पत्तियों के नीचे आराम करते हुए अपना समय बिताते हैं.

कीट की रोकथाम :

आम के फल को इस कीट से बचाने के लिए आवश्यक है कि बाग से सड़ेगले और गिरे हुए फल को इकट्ठा कर बाहर कहीं नष्ट कर दें. अगर संभव हो, तो फल की बैंगिंग कर दें.

इस कीट के प्रबंधन के लिए क्लोरीनट्रानिलिप्रोएल (कोरिजन) 0.4 मिली. प्रति लिटर पानी या इमामेक्टिन बेंजेट 0.4 ग्राम या डेल्टामेथ्रिन 28 ईसी 1 मिली. प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करने से इस कीट की उग्रता में कमी लाई जा सकती है. आम के फल के मटर के बराबर होने पर छिड़काव करें और 2 सप्ताह बाद पुनः दोहराएं.

– प्रो. (डा.) एसके सिंह,
सह मुख्य वैज्ञानिक (पौध रोग), प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना एवम् सह निदेशक अनुसंधान, डा. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर