Quinoa : भविष्य की फसल किनोआ

Quinoa : अपने नए शोध कामों के लिए स्वामी केशवानंद कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर, राजस्थान देशभर में जाना जाता है. पिछले दिनों यहां कृषि अनुसंधान केंद्र के एक बड़े भूभाग में खड़ी रंगबिरंगी फसल ने बरबस ही ध्यान खींच लिया. जिज्ञासावश हम ने यहां के रिसर्च डायरैक्टर पीएस शेखावत से बात की. पेश हैं उसी बातचीत के खास अंश:

ये इतनी खूबसूरत रंगबिरंगी कोई नई फसल है क्या?

जी हां, इसे किनोआ (Quinoa) कहते हैं. यह बथुआ प्रजाति का पौधा है. यह एक ओर्नामैंटल प्लांट है. जब यह कच्चा होता है तो ग्रीन, कुछ पकने पर लाल और कटाई के समय यह पूरी तरह से सफेद हो जाता है, जो देखने में बहुत ही सुंदर लगता है. कुछकुछ हमारे देशी प्रोडक्ट बाजरा एमएच 17 प्रजाति की तरह. इसे दक्षिणी अमेरिका में उगाया जाता है. हमारे देश में इसे हम भविष्य की फसल भी कह सकते हैं. इस के बीजों को पीस कर अनाज की तरह से इस्तेमाल किया जाता है.

क्या आप को लगता है कि यह विदेशी पौधा हमारे यहां की आबोहवा में पनप सकेगा?

बिलकुल पनप सकेगा. यह बहुत हार्डी पौधा है यानी किसी भी तरह की प्रतिकूल आबोहवा में यह अपनेआप को जिंदा रखने की क्षमता वाला पौधा है. यह रबी की फसल है. इसे बोने का सही समय नवंबर माह है और कटाई अप्रैल माह में होती है. इसे समय से पहले काश्त भी किया जा सकता है. इस की बोआई दोमट मिट्टी में होती है. इस पर सर्दी या पाले का कोई असर नहीं होता. इसे ज्यादा पानी की भी जरूरत नहीं होती. यह एक तरह से खरपतवार है. कहने का मतलब यह है कि इस पौधे के लिए यहां की आबोहवा पूरी तरह से माकूल है.

इस पर शोध की कोई खास वजह?

इस पौधे की खूबी ही इस पर शोध की वजह है. यह अनाज वाली फसल है. यह लगने, पकने और सिंचाई में तकरीबन गेहूं जैसा ही है लेकिन इस की बढ़वार गेहूं से कई गुना बेहतर है. इसे मेंटेनैंस फ्री फसल भी कहा जा सकता है यानी वे किसान जिन के पास मैन पावर कम हो, वे भी इसे काश्त कर सकते हैं. इसे खाने में अकेला या दूसरे अनाज के साथ मिला कर भी उपयोग में लाया जा सकता है.

क्या यह सचमुच किसानों के लिए फायदे का सौदा हो सकता है?

देखिए, हम पिछले 3 सालों से इस पर शोध का काम कर रहे हैं और यह बात सामने आई है कि इस की खेती से किसानों को बहुत फायदा हो सकता है. हमारे रिसर्च सैंटर में हम ने 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर इस की पैदावार ली है, लेकिन हमारे प्रोत्साहन से यहां पास ही में रायसर गांव में एक खेत में लगी फसल से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार भी ली गई है.

हमारे देश में फिलहाल इस का ज्यादा प्रचारप्रसार नहीं हुआ है लेकिन विदेशों में इस की कीमत 500-1,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक है. वैसे, हम ने अपने यहां उगाए गए किनोआ को 60 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचा है.

Quinoa

क्या आप को यह लगता है कि इतना महंगा अनाज आम आदमी की पहुंच में हो सकता है?

यह आमतौर पर मैडिसिनल प्लांट है इसलिए औषधि के रूप में ज्यादा कारगर साबित हो सकता है. इसे वैल्यू एडेड प्रोडक्ट यानी दूसरे अनाजों के साथ मिला कर इस्तेमाल में लाया जाता है. इस में मैगनीज होता है जो दिल को मजबूती देता है. इस में एंटीऔक्सिडेंट है जो रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है.

इस के अलावा इस में चावल की तरह कार्बोहाइड्रेट भी होता है लेकिन इस में फाइबर की मात्रा ज्यादा होने से यह डायबिटीज के मरीजों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद है.

अभी आप ने बताया कि किनोआ का प्रचारप्रसार ज्यादा नहीं हुआ है तो आप इस के लिए क्या कोशिश कर रहे हैं?

आप जैसे लोग ही हमारी बात दूर तक पहुंचाएंगे. हम किसानों के लिए पैकेज तैयार कर रहे हैं. पैकेज यानी एक तरह की बुकलैट. इस बुकलैट में किनोआ से संबंधित जानकारी होगी, जैसे कितना बीज, कैसी मिट्टी, मिट्टी का कितना पीएच मान, कितना फर्टिलाइजर, कितनी सिंचाई, क्या बीमारी और उस का उपचार वगैरह. हम इच्छुक किसानों को अपने यहां विजिट करवा कर उन की जिज्ञासा का समाधान भी करते हैं.

आप ने इसे भविष्य की फसल क्यों कहा?

क्योंकि इस फसल को हम आने वाले समय में एक विकल्प के तौर पर इस्तेमाल करेंगे. अभी मैं ने बताया था कि यह डायबिटीज और दिल के मरीजों के लिए ज्यादा फायदेमंद है. हम देख रहे हैं कि इन मरीजों की तादाद में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है. ऐसे में हम इसे दूसरे विकल्प के तौर पर अनाज की तरह इस्तेमाल करेंगे.

दूसरी बात यह भी है कि अब आबोहवा में बदलाव हो रहा है. इस वजह से आने वाले समय में हमारी कुछ फसलें ज्यादा पैदावार देंगी तो कुछ का उत्पादन बहुत कम हो जाएगा.

अब सोचिए कि किसी एक ऐसे समय में जब हमारी क्रौप डाउन हो गई और हमारे पास सीरियल के रूप में कुछ न हो, तब यह फसल किनोआ अनाज के रूप में उभरेगी.

राजस्थान के अलावा इसे देश के किस भूभाग में लगाया जा सकता है?

जैसा कि मैं ने बताया था कि यह एक हार्डी पौधा है और यह किसी भी हालात में उग सकता है. इसे पानी और बेहतर मिट्टी व माकूल आबोहवा के मुताबिक कहीं भी लगाया जा सकता है.

किनोआ विदेशी फसल है. आप हमारे यहां इस का क्या भविष्य देखते हैं?

मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यह आने वाले समय में अनाज के एक बेहतरीन विकल्प के रूप में सामने आएगा. जैसेजैसे लोगों में इस के बारे में जागरूकता बढ़ेगी, वैसेवैसे लोग इस की मांग करेंगे और किसानों में इसे उगाने के प्रति रुझान बढ़ेगा.

अब आप बताइए कि कुछ साल पहले तक ओट्स के बारे में कितने लोग जानते थे, लेकिन आज उस के प्रचारप्रसार के चलते यह लोगों की जबान पर चढ़ा हुआ है. है तो वह भी एक फोडर क्रौप ही न. उसी तरह से सही प्रचारप्रसार से किनोआ भी जल्दी ही आम लोगों की जिंदगी में शामिल हो जाएगा क्योंकि यह कम मात्रा में अधिक पोषण देने वाला अनाज है.

मेरा दावा है कि यह किसानों के लिए किसी भी तरह से घाटे का सौदा नहीं है क्योंकि किसी मेंटेनैंस फ्री फसल का 60 रुपए प्रति किलोग्राम भी हो तो नुकसान नहीं है.

यदि किसान इसे उगाएं तो इस का मार्केट क्या है?

किनोआ लगाने की किसानों में काफी दिलचस्पी है लेकिन फिलहाल परेशानी मार्केट की है क्योंकि लोगों को इस के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. अभी तो इसे हमारे विभाग ने ही बीज के तौर पर खरीदा है लेकिन इस के पक्ष में मार्केट बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा. इस पर होने वाले शोध के काम और सैमिनार जैसेजैसे आम लोगों के बीच आएंगे, इस का भी अच्छाखासा मार्केट बन जाएगा.

क्या इसे प्रोसैस कर अनाज की तरह दूसरे उत्पाद भी बनाए जा सकते हैं?

सीधे खाने पर इस का स्वाद हलका सा कसैला होता है लेकिन कड़वा होने पर करेला भी तो खाया जाता है न. वैसे, किसी भी दूसरे सीरियल की तरह से इस से भी खीर, बिसकुट, दलिया, सूप वगैरह बनाए जा सकते हैं.

औषधीय फसल चंद्रशूर (Medicinal Crop Chandrashoor) की उन्नत खेती

सेहत के लिहाज से फायदेमंद मानी जाने वाली कई फसलें खेती न किए जाने से विलुप्त होने के कगार पर हैं. इन में कुछ ऐसी फसलें हैं, जो न केवल अपने औषधीय गुणों के चलते खास पहचान रखती हैं, बल्कि इन में उपलब्ध पोषक गुण व्यावसयिक नजरिए से भी बेहद खास माने जाते हैं.

ऐसी ही एक फसल का नाम है चंद्रशूर. इसे हालिम, हलम, असालिया, रिसालिया, असारिया, हालू, अशेलियो, चमशूर, चनसूर, चंद्रिका, आरिया, अलिदा, गार्डन-कैस,  लेपीडियम सेटाईवम आदि नामों से भी जाना जाता है.

इस औषधीय फसल की खेती पहले उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में व्यावसायिक स्तर पर खूब होती थी, लेकिन बीते 2 दशकों में इस की खेती सिमट कर छिटपुट रूप में होती है.

चंद्रशूर का औषधीय महत्त्व 

आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में चंद्रशूर के बीज का टूटी हड्डी को जोड़ने, पाचन प्रणाली और मन को शांत करने, सांस संबंधी रोगों, खूनी बवासीर, कैंसर, अस्थमा, सूजन, मांसपेशियों के दर्द आदि में प्रयोग किया जाता है. बच्चों के शरीर के सही विकास के लिए इस के बीज का पाउडर बहुत लाभकारी होता है.

इस के अलावा चंद्रशूर बच्चों की लंबाई बढ़ाने में भी खासा मददगार होता है. बच्चों की याददाश्त को बढ़ाने में भी यह सहायक है. इस के पौधे की ताजा पत्तियों को सलाद और चटनी के रूप में बना कर खाया जाता है. मूत्र संबंधी रोगों में पौधे का काढ़ा बना कर दिन में 3 बार सेवन करने पर लाभ मिलता है. दस्त में चंद्रशूर के बीज का चूर्ण बना कर चीनी अथवा मिश्री के साथ मिला कर उपयोग में लाया जाता है. इस के बीजों को एनीमिया से ग्रस्त मरीजों के इलाज के लिए भी उपयोग किया जाता है.

(Medicinal Crop Chandrashoor)

पोषक तत्त्वों से भरपूर

चंद्रशूर का वनस्पतिक नाम लेपीडियम सेटाईवम है. यह कुसीफेरी कुल का सदस्य है. इस का पौधा 30-60 सैंटीमीटर ऊंचा होता है, जिस की उम्र 3-4 माह होती है. इस के बीज लालभूरे रंग के होते हैं, जो 2-3 मिलीमीटर  लंबे, बारीक और बेलनाकार होते हैं. पानी लगने पर बीज लसलसे हो जाते हैं. यही लसलसा पदार्थ अरेबिक गम के विकल्प के रूप में उपयोग में लाया जाता है.

चंद्रशूर की खेती रबी के मौसम में की जाती है. इस का पौधा अलसी से मिलताजुलता है. बोआई अक्तूबर माह में की जाती है. इस के बीजों में प्रोटीन (25 फीसदी), वसा (24 फीसदी), कार्बोहाइड्रेट (33 फीसदी) और फाइबर (3 फीसदी) भी पाए जाते हैं. इस के अलावा इस में अन्य तत्त्व जैसे आयरन, कैल्शियम, फोलिक एसिड, विटामिन ए और सी भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं.

पशुओं के लिए भी है फायदेमंद

पशु डाक्टरों की मानें, तो चंद्रशूर के पौधों को बरसीम में मिला कर हरे चारे के रूप में उपयोग में लाने से बीजों में पाए जाने वाला गैलेक्टगौग तत्त्व लैक्टेशन (दूध) बढ़ाने में सहायक होता है और दूध में कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन एवं लैक्टोस में वृद्धि होती है.

यह डोपामिन रिसैप्टर के साथ क्रिया कर के प्रोलैक्टिन की मात्रा को बढ़ाता है. यह दूध की मात्रा बढ़ाने में भी सहायक होता है. इस से किसानों की आय में बढ़ोतरी की जा सकती है. चंद्रशूर को पशुओं को खिलाने से दूध की गुणवत्ता भी अच्छी हो जाती है.

उन्नत किस्में

चंद्रशूर की कुछ किस्मों, जिन की व्यावसायिक लैवल पर खेती की जाती है, में आरवीए-1007, जीए-1 एवं राज विजय-1007 प्रमुख हैं. हाल ही में हिसार के चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में विकसित की गई औषधीय फसल चंद्रशूर की उन्नत किस्म एचएलएस-4 पूरे देश विशेषकर उत्तरी हिस्से में खेती के लिए अनुमोदित की गई है.

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज के अनुसार, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के उपमहानिदेशक (फसल विज्ञान) डा. टीआर शर्मा की अध्यक्षता वाली फसल मानक अधिसूचना एवं फसल किस्म अनुमोदन केंद्रीय उपसमिति द्वारा चंद्रशूर की इस किस्म को समस्त भारत विशेषकर उत्तरी भारत (हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में खेती के लिए जारी की गई है.

चंद्रशूर की एचएलएस-4 किस्म के विकसित होने से हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर के किसान भी इस की खेती आसानी से कर सकेंगे.

इस वनस्पति का औषधि के रूप में प्रयोग होने वाला मुख्य भाग इस का बीज है. राष्ट्रीय स्तर पर एचएलएस-4 किस्म के बीज की पैदावार 10.58 फीसदी, जबकि उत्तरी भाग में 30.65 फीसदी अधिक दर्ज की गई है.

इस किस्म से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 306.71 किलोग्राम तेल प्राप्त होता है, जो चंद्रशूर की प्रचलित जीए-1 किस्म के लगभग समान (306.82 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) है.

चंद्रशूर की यह किस्म हकृवि के औषधीय, सगंध एवं क्षमतावान फसल अनुभाग के वैज्ञानिकों डा. आईएस यादव, डा. जीएस दहिया, डा. ओपी यादव, डा. वीके मदान, डा. राजेश आर्य, डा. पवन कुमार, डा. ?ाबरमल सुतालिया और डा. वंदना की कड़ी मेहनत का परिणाम है.

(Medicinal Crop Chandrashoor)

बोआई के लिए मिट्टी और खेत की तैयारी

चंद्रशूर की खेती करने के लिए अच्छे जल निकास और सामान्य पीएच मान वाली बलुईदोमट मिट्टी में इस की खेती होती है. मुख्य रूप से चंद्रशूर की खेती रबी सीजन वाली फसलों के साथ की जाती है. चंद्रशूर की बारानी और असिंचित अवस्था में पलेवा की गई नमीयुक्त मिट्टी में बिजाई की जाती है.

चंद्रशूर की बिजाई अक्तूबर माह के दूसरे पखवारे में की जा सकती है. सिंचित अवस्था में ही चंद्रशूर की बिजाई की जाए, तो वह सर्वोत्तम रहती है. चंद्रशूर की खेती के लिए सिंचित बलुईदोमट मिट्टी पर 2 बार हैरो से जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बनाने वाले यंत्र से भुरभुरा बना लेना चाहिए.

बीज की मात्रा

चंद्रशूर के बीज आकार में बहुत छोटे होते हैं, इसलिए एक एकड़ के लिए लगभग 1.5 से 2 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सैंटीमीटर और बीज की गहराई 1 से 2 सैंटीमीटर रखना उचित रहता है. बीज अधिक गहरा डालने पर अंकुरण पर बुरा प्रभाव पड़ने से कम जमाव होने का खतरा रहता है. बीजों का अंकुरण आमतौर पर 5 से 15 दिनों में हो जाता है.

खाद और उर्वरक की मात्रा

चंद्रशूर की खेती के लिए लगभग 6 टन प्रति एकड़ गोबर की अच्छी सड़ीगली खाद एकसाथ खेत की तैयारी से पहले भूमि में मिला दें. इस के साथसाथ खेत में 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 20 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ डाल कर मिला दें. पोटाश खाद बिजाई के समय जरूरत के मुताबिक डालना सही रहता है.

फसल की सिंचाई

चंद्रशूर की फसल असिंचित भूमि में ली जा सकती है, लेकिन अगर 2-3 सिंचाई उपलब्धता के आधार पर क्रमश: एक माह, 2 माह एवं ढाई माह पर सिंचाई करें, तो यह लाभकारी होता है.

बीज जमाव के समय मिट्टी में पर्याप्त नमी का रहना अति आवश्यक है. बोआई के समय अगर मिट्टी में पर्याप्त नमी न हो, तो बिजाई के तुरंत बाद हलका पानी लगाने से अंकुरण शीघ्र एवं पर्याप्त मात्रा में होता है. दूसरा जल छिड़काव दाना बनते समय अवश्य करना चाहिए. स्वस्थ फसल और अधिक पैदावार लेने के लिए 2 निराईगुड़ाई, बोआई के क्रमश: 3 एवं 6 हफ्ते बाद करनी चाहिए.

कीट व बीमारियों का नियंत्रण

चंद्रशूर की फसल में तेला (एफिड) और पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप देखा गया है. अगर फसल में तेला (एफिड) रोग का प्रकोप दिखाई देता है, तो एक मिलीलिटर मैलाथियान प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना लाभदायक रहता है. अगर फसल में पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप दिखाई पड़े, तो सल्फर डस्ट का छिड़काव करना भी हितकर रहता है.

90 से 120 दिन में पक कर तैयार होती है फसल

चंद्रशूर के पौधों में बोआई के 2 महीने बाद फूल आने शुरू हो जाते हैं. चंद्रशूर की फसल 90 से 120 दिन के भीतर पक कर कटाई के लिए तैयार हो जाती है. पत्तियां जब हरी से पीली पड़ने लगें या फल में बीज लाल रंग का हो जाए, तो यह समय कटाई के लिए उपयुक्त रहता है. हंसिए या हाथ से इसे उखाड़ कर खलिहान में 2-3 दिन सूखने के लिए डाल दें, फिर डंडे से पीट कर या ट्रैक्टर से मिंजाई कर बीज को साफ कर लें.

उपज

असिंचित भूमि में इस की उपज 10-12 क्विंटल और सिंचित भूमि में 14-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त की जा सकती है. इस के बीजों का बाजार भाव आमतौर पर 7,000 से 8,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक रहता है.

चंद्रशूर के औषधीय महत्त्व को देखते हुए इस के संरक्षण और व्यासायिक खेती के महत्त्व को ले कर सरकार और कृषि संस्थानों को आगे आ कर किसानों को जागरूक करने की जरूरत है. इसी के साथ देश के सभी राज्यों में चंद्रशूर की खेती को बढ़ावा मिले, इस के लिए चंद्रशूर की नई किस्मों को विकसित कर किसानों की आय में इजाफा भी किया जा सकता है.

Buckwheat: कुट्टू उगाने की नई तकनीक

Buckwheat कुट्टू की खेती दुनियाभर में की जाती है. चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, यूरोप, कनाडा समेत अन्य देशों में भी इस की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है. वहीं भारत की बात करें, तो उत्तरपश्चिमी हिमालयी क्षेत्रों में इस की खेती अधिक की जाती है.

किसान इस की खेती परंपरागत तरीके से करते हैं, जिस के चलते बेकार गुणवत्ता वाली कम पैदावार मिलती है. अधिक पैदावार लेने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली नई तकनीक को अपना कर कुट्टू (Buckwheat) की खेती की जानी चाहिए.

भूमि का चयन

कुट्टू (Buckwheat) को विभिन्न प्रकार की कम उपजाऊ मिट्टी में उगाया जा सकता है. वैसे, उचित जल निकास वाली दोमद मिट्टी इस के सफल उत्पादन के लिए सर्वोत्तम मानी गई है, लेकिन अधिक अम्लीय और क्षारीय मिट्टी इस के उत्पादन के लिए अच्छी नहीं होती है.

खेत की तैयारी

कुट्टू (Buckwheat) की अधिक पैदावार लेने के लिए खेत की तैयारी अच्छी तरह करनी चाहिए. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. उस के बाद 2 जुताई कल्टीवेटर या हैरो से आरपार करनी चाहिए, फिर पाटा लगा कर भूमि को समतल कर लेना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक

कुट्टू (Buckwheat) उत्पादन के लिए खाद एवं उर्वरकों की कम मात्रा में जरूरत होती है. वैसे, मिट्टी जांच के बाद ही खाद एवं उर्वरक का उपयोग करना सही रहता है.

यदि किसी कारणवश मिट्टी की जांच न हो सके, तो यहां दी गई मात्रा के अनुसार खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए :

गोबर की खाद : 10 टन

नाइट्रोजन : 40 किलोग्राम

फास्फोरस : 20 किलोग्राम

पोटाश : 20 किलोग्राम

गोबर की खाद को खेत की तैयारी से पहले खेत में समान रूप से बिखेर कर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए. साथ ही, फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा को अंतिम जुताई से पहले खेत में डालें. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा को बोआई के 50-60 दिन बाद खड़ी फसल में टौप ड्रैसिंग के दौरान डालें.

प्रवर्धन

ध्यान रखें कि कुट्टू (Buckwheat) का विस्तारण बीज द्वारा किया जाता है.

बीज दर

कुट्टू (Buckwheat) के उत्पादन के लिए प्रति हेक्टेयर 60-80 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार

कुट्टू (Buckwheat) के बीज को खेत में बोने से पहले कैपरौन 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करना चाहिए. इस से फसल को फफूंदी से होने वाले रोगों से बचाया जा सकता है.

बीजों को उपचारित करने के 10-15 मिनट बाद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से दोबारा उपचारित करने के 15-20 मिनट बाद बीज की बोआई कर देनी चाहिए.

आपसी दूरी व उचित समय

कुट्टू (Buckwheat) के बीजों को हमेशा पंक्तियों में बोना चाहिए. पंक्तियों और पौधों की आपसी दूरी 20×10 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. इस के अंकुरण के लिए 35 सैंटीमीटर सही माना जाता है. पर्वतीय क्षेत्रों में इस की बोआई मईजून माह में करनी चाहिए.

सिंचाई एवं जल निकासी

आमतौर पर कुट्टू (Buckwheat) को वर्षा आधारित फसल के रूप में उगाया जाता है. इस के सफल उत्पादन के लिए इस की फसल अवधि में फूल आने व दाने बनने के समय सिंचाई करनी चाहिए.

फसल सुरक्षा

खरपतवार नियंत्रण

चूंकि कुट्टू (Buckwheat) की फसल को खरीफ मौसम में उगाया जाता है, जिस के कारण फसल के साथसाथ खरपतवार भी उग जाते हैं, जो फसल के विकास की बढ़ोतरी और उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं.

फसल की शुरुआती अवस्था में खेत को खरपतवारों से मुक्त रखना बहुत जरूरी है, इसलिए जरूरत के अनुसार निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

रोग नियंत्रण

पत्ती झुलसा: यह एक फफूंदीजनित रोग है. यह रोग फूल बनने या फसल की शुरुआती अवस्था में होता है. रोग की शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर छोटेछोटे धब्बे आ जाते हैं, फिर बाद में पत्तियां गिर जाती हैं. ये छोटे धब्बे बाद में बड़े हो जाते हैं. इस वजह से पौधे की भोजन बनाने की प्रक्रिया पर बुरा असर पड़ता है. बाद में पूरा पौधा सूख जाता है.

इस रोग की रोकथाम के लिए रोग का शुरूआती लक्षण दिखाई देने पर 0.2 फीसदी कौपरऔक्साइड के घोल का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए.

कीट नियंत्रण

आमतौर पर इस फसल पर कोई कीट नहीं पनपता है.

फसल की कटाई

बीज बोने के 40-50 दिन बाद फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है. जब फसल में फूल आने शुरू हो जाते हैं, तो यह कटाई की सर्वोत्तम अवस्था होती है.

कुट्टू (Buckwheat) की फसल की कटाई का सब से बढि़या समय सितंबरअक्तूबर माह का होता है यानी दानों के बनने से पहले इस की कटाई कर लेनी चाहिए.

यदि कटाई देरी से की जाती है, तो उस में रूटीन की मात्रा 6 फीसदी से घट कर 3.8 फीसदी रह जाती है. यह कटाई का समय औषधि उत्पादन के लिए सब से बेहतर है. जब कुट्टू (Buckwheat) को इस के दाने के लिए उगाया जाता है, तब दाने पूरी तरह से पक जाने के बाद ही फसल की कटाई करनी चाहिए.

मड़ाई

फसल को 2-3 दिन सुखा कर फिर उस की गहाई करनी चाहिए. फसल के दाने और भूसे को अलगअलग कर लेना चाहिए.

उपज

कुट्टू (Buckwheat) की उपज कई बातों पर निर्भर करती है, जिस में भूमि की उर्वराशक्ति, फसल उगाने की विधि और फसल की देखभाल प्रमुख है.

यदि बताई गई नई तकनीक से इस की खेती की जाए, तो तकरीबन 10-12 क्विंटल दाने की उपज मिल जाएगी.

नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) कमाई से छाई बहार

राजस्थान का मारवाड़ इलाका लजीज खाने की वजह से दुनियाभर में अपनी खास पहचान रखता है, चाहे बीकानेर की नमकीन भुजिया हो या रसगुल्ले की बात हो या फिर जोधपुर के मिरची बड़े व कचौरी की, एक खास तसवीर उभर कर सामने आती है. वहीं दूसरी ओर इस इलाके में मसालों की खेती भी की जाती है. प्रदेश का नागौर जिला एक ऐसी ही मसाला खेती के लिए दुनियाभर में जाना जाता है और वह है कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की खेती.

डाक्टर और वैज्ञानिक कई तरह की बीमारियों के इलाज के लिए भी कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के इस्तेमाल की सलाह देते हैं. कई औषधीय गुणों से भरपूर इस मेथी का इस्तेमाल पुराने जमाने से ही पेट दर्द दूर करने, कब्जी दूर करने और बलवर्धक औषधीय के रूप में होता आया है.

मेथी (Fenugreek) की बहुउपयोगी पत्तियां सेहत के लिए फायदेमंद होने के साथसाथ खाने को लजीज बनाने में भी खास भूमिका निभाती है. खास तरह की खुशबू और स्वाद की वजह से मेथी का इस्तेमाल सब्जियों, परांठे, खाखरे, नान और कई तरह के खानों में होता है.

नागौर की यह मशहूर मेथी (Fenugreek) अंतर्राष्ट्रीय कारोबार जगत में बेहद लजीज मसालों के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है. अब तो मेथी (Fenugreek) का इस्तेमाल लोग ब्रांड नेम के साथ करने लगे हैं. सेहत की नजर से देखें तो मेथी (Fenugreek) में प्रचुर मात्रा में विटामिन ए, कैल्शियम, आयरन व प्रोटीन मौजूद है.

किसान सेवा समिति, मेड़ता के बुजुर्ग किसान बलदेवराम जाखड़ बताते हैं कि किसी जमाने में पाकिस्तान के कसूरी इलाके में ही यह मेथी (Fenugreek) पैदा होती थी, जिस के चलते इस का नाम कसूरी पड़ा. धीरेधीरे इस की पैदावार फसल के रूप में सोना उगलने वाली नागौर की धरती पर होने लगी.

आज हाल यह है कि नागौर दुनियाभर में कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) उपजाने वाला सब से बड़ा जिला बन गया है. यहां की मेथी (Fenugreek) मंडियों ने विश्व व्यापारिक मंच पर अपनी एक अलग जगह बनाई है. न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) बिकने के लिए जाती है.

नागौर के ही एक मेथी (Fenugreek) कारोबारी बनवारी लाल अग्रवाल के मुताबिक, कई मसाला कंपनियों ने कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को दुनियाभर में पहचान दिलाई है. देश की दर्जनभर मसाला कंपनियां कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को खरीद कर देशविदेश में कारोबार करती हैं. इसी वजह से इस मेथी (Fenugreek) का कारोबारीकरण हो गया है.

नागौर जिला मुख्यालय में 40 किलोमीटर की दूरी में फैले इलाके खासतौर से कुचेरा, रेण, मूंडवा, अठियासन, खारड़ा व चेनार गांवों में मेथी (Fenugreek) की सब से ज्यादा पैदावार होती है. मेथी (Fenugreek) की फसल के लिए मीठा पानी सब से अच्छा रहता है. चिकनी व काली मिट्टी इस की खेती के लिए ठीक रहती है.

कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की फसल अक्तूबर माह में बोई जाती है. 30 दिन बाद इस की पत्तियां पहली बार तोड़ने लायक हो जाती हैं. इस के बाद फिर हर 15 दिन बाद इस की नई पत्तियां तोड़ी जाती हैं.

मेथी (Fenugreek) के एकएक पौधे की पत्तियां किसान भाई अपने हाथों से तोड़ते हैं. लोकल बोलचाल में मेथी की पत्तियां तोड़ने के काम को लूणना या सूंठना कहते हैं. पहली बार तोड़ी गई पत्तियां स्वाद व क्वालिटी के हिसाब से सब  अच्छी होती है.

वर्तमान में मेथी (Fenugreek) की पैदावार में संकर बीज का इस्तेमाल सब से ज्यादा होता है. यहां के इसे किसान काश्मीरो के नाम से जानते हैं. कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) उतारने में सब से ज्यादा मेहनत होती है, क्योंकि इस के हरेक पौधे की पत्तियों को हाथ से ही तोड़ना पड़ता है.

कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek)

कैसे करें खेती

भारत में मेथी की कई किस्में पाई जाती हैं. कुछ उन्नत हो रही किस्मों में चंपा, देशी, पूसा अलविंचीरा, राजेंद्र कांति, हिंसार सोनाली, पंत रागिनी, काश्मीरी, आईसी 74, कोयंबूटर 1 व नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) खास हैं. इस की अच्छी खेती के लिए इन बातों पर ध्यान देना जरूरी है:

आबोहवा व जमीन : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की खेती के लिए शीतोष्ण आबोहवा की जरूरत होती है, जिस में बीजों के जमाव के लिए हलकी सी गरमी, पौधों की बढ़वार के लिए थोड़ी ठंडक और पकने के लिए गरम मौसम मिले. वैसे, यह मेथी हर तरह की जमीन में उगाई जा सकती है, लेकिन इस की सब से अच्छी उपज के लिए बलुई या दोमट मिट्टी बेहतर रहती है.

खाद व उर्वरक : अच्छी फसल के लिए 5 से 6 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत तैयार करते समय मिला देनी चाहिए. इस के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-40 किलो फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर देने से उपज में बढ़ोतरी होती है. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई से पहले देते हैं. बाकी नाइट्रोजन 2 बार में 15 दिन के अंतराल पर देते हैं.

बोआई : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को अगर बीज के रूप में उगाना है, तो इसे मध्य सितंबर से नवंबर माह तक बोया जाता है. लेकिन अगर इसे हरी सब्जी के लिए उगाना है तो मध्य अक्तूबर से मार्च माह तक भी बो सकते हैं. वैसे, सब से अच्छी उपज लेने के लिए नागौर इलाके में इसे ज्यादातर अक्तूबर से दिसंबर माह के बीच ही बोया जाता है.

इस की बोआई लाइनों में करनी चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी 15 से 20 सैंटीमीटर व गहराई 2 से 3 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. ज्यादा गहराई पर बीज का जमाव अच्छा नहीं रहता. बीज बोने के बाद पाटा जरूर लगाएं, ताकि बीज मिट्टी से ढक जाए. यह मेथी 8 से 10 दिनों में जम जाती है.

सिंचाई: कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के पौधे जब 7-8 पत्तियों के हो जाएं, तब पहली सिंचाई कर देनी चाहिए. यह समय खेत की दशा, मिट्टी की किस्म व मौसमी बारिश वगैरह के मुताबिक घटबढ़ सकता है. हरी पत्तियों की ज्यादा कटाई के लिए सिंचाई की तादाद बढ़ा सकते हैं.

फसल की हिफाजत : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) में पत्तियों व तनों के ऊपर सफेद चूर्ण हो जाता है व पत्तियां हलकी पीली पड़ जाती हैं. बचाव के लिए 800 से 1200 ग्राम प्रति हेक्टेयर ब्लाईटाक्स 500-600 लिटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़क दें.

पत्तियां व तनों को खाने वाली गिड़ार से बचाने के लिए 2 मिलीलिटर रोगर 200 लिटर पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करें. छिड़काव कटाई से 5 से 7 दिन पहले करें.

कटाई : हरी सब्जि के लिए बोआई के 3-4 हफ्ते बाद कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) कटाई के लिए तैयार हो जाती है. बाद में फूल आने तक हर 15 दिन में कटाई करते हैं. बीज उत्पादन के लिए 2 कटाई के बाद कटाई बंद कर देनी चाहिए.

उपज और स्टोरेज : सब्जी के लिए मेथी की औसत उपज 80 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व बीज के लिए 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल होती है. हरी सब्जी के लिए मेथी की पत्तियों को अच्छी तरह से सुखा कर एक साल तक स्टोर कर सकते हैं और बीज को 3 साल तक स्टोर किया जा सकता है.

गौरतलब है कि कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के बीजों का मसाले के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है.

पपीता (Papaya) लागत कम फायदा ज्यादा

पपीता एक जायकेदार फल होने के साथ ही कई खूबियों से भरपूर होता है. जब किसी को आंखों में कमजोरी या पेट की तकलीफ होती है, तब डाक्टर उसे पपीता खाने की सलाह देते हैं. पपीता हर जगह आसानी से मिलने वाला फल है.

किसानों के लिए पपीते की खेती करना काफी फायदे का सौदा साबित हो सकता है. पपीते की खेती में लागत कम आती है, लेकिन समयसमय पर उस की देखभाल बहुत जरूरी है. पपीते की खेती के लिए किसी खास किस्म की मिट्टी की जरूरत नहीं होती. इस की खेती किसी भी मिट्टी और जलवायु में आसानी से की जा सकती है.

पपीते की खेती के लिए ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती. अगर किसान जरा सी सावधानी से काम लें, तो कम लागत में अच्छी पैदावार कर के काफी मुनाफा कमा सकते हैं.

रोपाई : पौधे लगाने के लिए 1 या 2 मीटर की दूरी पर 50×50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद लेते हैं. 15-20 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद और 2 किलोग्राम आर्गेनिक खाद का मिश्रण मिट्टी में मिला कर सभी गड्ढों में जरूरत के हिसाब से भर देते हैं.

जिन इलाकों में पाला पड़ता है और सिंचाई के साधन मौजूद हों, वहां पौधे लगाने का काम फरवरीमार्च में करना चाहिए. उत्तर भारत में पौधे लगाने का काम आमतौर पर जुलाईअगस्त में किया जाता है.

वैसे तमाम प्रयोगों से साबित हो गया है कि अक्तूबरनवंबर में पौधे लगाने से विषाणु रोग का खतरा कम हो जाता है.

सिंचाई: पपीता उथली जड़ वाला पौधा है, इसलिए इसे ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है. यह पानी के भराव को सहन नहीं कर सकता. पपीते में कम दिनों पर हलकी सिंचाई करनी चाहिए. गरमी के दिनों में हर हफ्ते और सर्दी के मौसम में 10-15 दिनों पर सिंचाई करना ठीक रहता है. बारिश के मौसम की खेती के लिए सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती.

खरपतवारों से बचाव : पपीते की अच्छी फसल के लिए 20-25 दिनों के अंतराल में खरपतवार निकालते रहना चाहिए. इस से यह फायदा होता है कि पौधों का विकास तेजी से होता है. पेड़ों की कतारों के बीच में गुड़ाई करना जरूरी है. 2 कतारों के बीच पलवार बिछा देने से खरपतवार कम हो जाते हैं और नमी भी बनी रहती है.

कीड़ों और बीमारियों से बचाव

माहूं : पपीते में खासतौर से माहूं का प्रकोप होता है. ये पौधों का रस चूस कर फलों को नुकसान पहुंचाते हैं. इन से फलों को बचाने के लिए किसान नीम के काढ़े या गौमूत्र का छिड़काव कर सकते हैं.

लाल मकड़ी : ये कीड़े पत्तियों से रस चूस कर पौधों को कमजोर करते हैं. ज्यादा प्रकोप होने पर कीड़े फलों से भी रस चूसने लगते हैं. इन की रोकथाम के लिए गौमूत्र या नीम के काढ़े का छिड़काव करना चाहिए.

कालर राट : यह रोग पीथियम एफेनीडरमेटेम नामक कवक से फैलता है. इस के असर से जमीन के पास वाले तने पर धब्बे उभरते हैं और तना सड़ने लगता है. कुछ दिनों बाद पौधा गिर जाता है. इस की रोकथाम के लिए अरंडी की खली और नमी की खाद देना बहुत जरूरी है. इस के अलावा गौमूत्र या नीम के काढ़े का छिड़काव भी करते हैं.

आर्द्रगलन : यह नर्सरी का गंभीर रोग है, जो कई तरह के फफूंदों के आक्रमण की वजह से होता है. इस में पौधे जमीन के पास से सड़ने लगते हैं और गिर जाते हैं.

इस की रोकथाम के लिए केरोसिन तेल, गौमूत्र, नीम के तेल या नीम के काढ़े से बीच उपचारित कर के बोआई करते हैं और नर्सरी की मिट्टी में माइक्रो नीम की खाद और अरंडी की खली मिला कर पौधे तैयार करते हैं.

मौजेक : यह विषाणु से होने वाला रोग है, जो माहूं द्वारा फैलता है. भारत में पपीते की ज्यादातर प्रजातियां इस से प्रभावित होती हैं. इस के असर से पत्तियां चितकबरी हो जाती हैं और डंठल छोटे हो जाते हैं, नतीजतन फल कम लगते हैं. इस की रोकथाम के लिए माहूं की रोकथाम करना जरूरी होता है. माहूं की रोकथाम के लिए नीम के काढ़े या गौमूत्र का 10-15 दिनों में छिड़काव करें. मौसम खराब होने पर तुरंत छिड़काव करना चाहिए.

नीम का काढ़ा : नीम की 25 हरी व ताजी पत्तियां तोड़ें और कुचल कर पीस लें. फिर उन्हें 50 लीटर पानी में पकाएं. जब पानी घट कर 20-25 लीटर रह जाए, तब बरतन उतार कर उसे ठंडा करें और जरूरत के हिसाब से छिड़काव करें.

गौमूत्र : देशी गाय का 10 लीटर मूत्र ले कर पारदर्शी कांच या प्लास्टिक के जार में भर कर 10-15 दिनों तक धूप में रखें और उस के बाद जरूरत के मुताबिक छिड़काव करें.

फलों की तोड़ाई : जब फल पक जाते हैं, तो उन का रंग हरे से पीला हो जाता है. पके फलों को एकएक कर हाथ से तोड़ें. उन्हें जमीन पर न गिरने दें.

पपीता (Papaya)

पैदावार: पपीता के फलों की पैदावार प्रजातियों, जलवायु और रखरखाव पर निर्भर करती है. औसतन 1 पौधे से 15 से 50 किलोग्राम तक फल हासिल होते हैं. 1 हेक्टेयर से 400-500 क्विंटल तक उपज हासिल हो जाती है.

फलों का रखरखव : पपीता के फलों को बांस या प्लास्टिक की टोकरियों में भर कर शीतगृहों में रखा जाता है. पपीता के फल 7-8 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान और 80-90 फीसदी सापेक्ष आर्द्रता पर 3 हफ्ते तक सुरक्षित रखे जा सकते हैं.

पपेन निकलना : पपीते के फलों से हासिल दूध को सुखाने से जो सफेद पाउडर बनता है, उसे पपेन कहते हैं. पपेन का इस्तेमाल पेट की तमाम बीमारियों की दवा के तौर पर किया जाता है. इस का इस्तेमाल बवासीर, टेप वर्म, रिंग वर्म के इलाज में, मांस को मुलायम बनाने में, सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण में और ऊनी, रेशमी व सूती कपड़ों की सिकुड़न ठीक करने में किया जाता है.

जब पपीते का फल बड़ा हो जाता है, तब उस पर स्टील के चाकू से 3 मिलीमीटर गहरा खरोंच बनाया जाता है. खरोंचों से दूध टपकता है, उसे स्टेनलेस स्टील या कांच के बरतन में जमा कर लेते हैं.

इस दूध को 40 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान पर सुखा लिया जाता है. सुखाने से पहले इस में 0.05 पोटेशियम मेटा बायीसल्फाइट परीक्षक के रूप में मिलाते हैं. इसे कम तापमान पर ही सुखाते हैं, क्योंकि ज्यादा तापमान पर सुखाने से इस का पेपसिन एंजाइम खत्म हो जाता है. इसे रासायनिक विधि से शुद्ध किया जाता है.

पपीते की किस्में

वाशिंगटन : यह पश्चिमी भारत की खास किस्म है. इस के तने की गांठें और पत्तियों के डंठल बैगनी रंग के होते हैं. फल अंडाकार होते हैं और उन के गूदे का रंग पीला होता है. फलों का औसत वजन 1.5 से 2.5 किलोग्राम होता है.

कोयंबटूर : इस के पौधे बोने व एक लिंगी होते हैं. इस के फल 60-70 सेंटीमीटर की ऊंचाई से लगने शुरू हो जाते हैं. फलों का आकार गोल और औसत वजन 1.25 किलोग्राम तक होता है.

पूस डिलीशस : यह एक गाइनो डायोसियास किस्म है. इस के फल बहुत अच्छी क्वालिटी के होते हैं. फलों का वजन 1 से 2 किलोग्राम तक होता है.

पूसा मेजीसटी : इस किस्म का पौधा जमीन से 50-55 सेंटीमीटर ऊंचा हो जाने पर फलने लगता है. इस किस्म के एक पौधे से 30 से 40 किलोग्राम तक पैदावार हो जाती है.

पंत पपीता : यह किसम कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर ने विकसित की है. इस में फल जमीन से 50-60 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर लगते हैं. फलों का आकार मध्यम और औसत वजन डेढ़ किलोग्राम तक होता है. इस के फल खाने वालों को काफी पसंद आते हैं.

सूर्या : भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान बेंगलुरु ने इस संकर किस्म को विकसित किया है. इस के फल का औसत वजन 600-700 ग्राम तक हो जाता है. इस के गूदे का रंग लाल होता है. इस किस्म में 60 किलोग्राम प्रति पौधा तक पैदावार हो जाती है.

नीम से करें कीटनाशक (Insecticide) तैयार

भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां की बढ़ती जनसंख्या का असर आने वाले समय में खाद्यान्न पर पड़ेगा. देश में अनाज का उत्पादन तो बढ़ा है, लेकिन यह जनसंख्या के मुकाबले काफी कम है. यदि यही हाल रहा तो देश को फिर से खाद्यान्नों का आयात करना पड़ेगा.

इसलिए सरकार को इस दिशा में सावधानीपूर्वक कदम उठाने होंगे. किसानों की सब से बड़ी दिक्कत है कि वे अपनी फसलों को कीड़ेमकोड़ों से कैसे बचाएं. उन के पास संसाधनों की भारी कमी है. कोल्ड स्टोरेज में उपज रखना महंगा पड़ता है, साथ ही वहां तक उपज ले जाने में भी काफी भाड़ा लग जाता है.

आज अनाज को सुरक्षित रखने के लिए जिन कीटनाशकों या रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है, वे सेहत के लिए नुकसानदेय हैं, इन जहरीले कीटनाशकों से बचने के लिए किसान परंपरागत कीटनाशकों का इस्तमाल कर सकते हैं, इन के इस्तेमाल से अनाज को कीड़ेमकोड़ों व फफूंद और घुन से भी सुरक्षित रखा जा सकता है. पहले लोग कीटनाशक के तौर पर नीम का इस्तेमाल करते थे, जिस का सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ता था.

नीम का इस्तेमाल

* जब आप अनाज को इकट्ठा कर के रख रहे  तो उस दौरान अनाज में सूखी नीम की पत्तियां मिला दें, इस से घुन और अन्य कीड़ेमकोड़े नहीं लगते हैं और अनाज सुरक्षित रहता है.

* आप जिस जगह अनाज रख रहे हों, वहां अनाज रखने से पहले तकरीबन 3-4 इंच नीम की सूखी पत्तियों की परत बिछा देनी चाहिए. इस के बाद आप तकरीबन 2 फुट तक अनाज भरें, फिर नीम की पत्तियों की तह लगाते जाएं.

* कुछ किसान अनाज को जूट की बोरियों में भी भर कर रखते हैं, जिस बोरे में अनाज भरना हो, नीम की पत्तियां डाल कर उबाले गए पानी में रातभर भिगो दें, फिर बोरे को छांव में सुखा लें, उस के बाद उस में अनाज भरें. आप का अनाज एकदम सुरक्षित रहेगा.

* दालों के भंडारण के लिए 1 किलोग्राम दाल में 1 ग्राम नीम का तेल ऐसे मिलाएं जिस से वह पूरी तरह फैल जाए, जब दालों को पकाने के लिए निकालना हो, तब उसे अच्छी तरह धो कर इस्तेमाल करें, समय के साथ नीम के तेल की महक धीरेधीरे कम होने लगती है. जब दलहन को बोआई के लिए तैयार करना हो तो उस स्थिति में 1 किलोग्राम दाल बीज में 2 ग्राम नीम के तेल की जरूरत पड़ती है. इस विधि से दाल के बीज खराब नहीं होते.

* नीम की पकी निबौली को 12 से 18 घंटे पानी में भिगोएं, उस के बाद भीगी निबौली को लकड़ी के डंडे से चलाएं, जिस से निबौली के बीज का छिलका व गूदा अलग हो जाए, गूदा निकाल कर छाया में सुखाएं और सूखे गूदे को बारीक पीस कर पाउडर बना कर पतले सूती कपड़े में पोटली बना कर शाम को पानी में भिगो दें. सुबह पोटली को दबा कर उस निकाल लें और रस में 1 फीसदी साबुन मिला दें, अब आप तैयार निबौली कीटनाशक का खेत में छिड़काव कर सकते हैं.

* 1 हेक्टेयर क्षेत्र में छिड़काव के लिए 5 फीसदी घोल तैयार करने के लिए 25 किलोग्राम निबौली 500 लीटर पानी और 5 किलोग्राम साबुन की जरूरत होती है.

नीम की पत्तियों से कीटनाशक बनाने में किसानों को ज्यादा फायदा होता है, क्योंकि अन्य रासायनिक कीटनाशक बाजार में इस से महंगे मिलते हैं, जो स्वास्थ्य के अलावा मिट्टी के लिए भी हानिकारक हैं. नीम की पत्तियां हर जगह आसानी से मिल जाती हैं और इस पर किसी तरह का खर्च भी नहीं आता. किसानों के साथ ही अन्य लोग भी इस विधि से अपने अनाज को कीड़ेमकोड़ों, फफूंद और घुन से बचा सकते हैं.

मसाला तथा औषधिय फसल मैथी (Fenugreek)

दुनिया में मसाला उत्पादन और मसाला निर्यात के हिसाब से भारत का प्रथम स्थान है, इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. मसाले हमारे खाद्य पदार्थों को स्वादिष्ठता तो प्रदान करते ही हैं, साथ ही हम इस से विदेशी पैसा भी कमाते हैं.

मसाले की एक प्रमुख फसल मेथी है. इस की हरी पत्तियों में प्रोटीन, विटामिन सी और भरपूर मात्रा में खनिज तत्त्व पाए जाते हैं. मेथी के बीज मसाले और दवा के रूप में काफी उपयोगी है.

भारत में मेथी की खेती व्यावसायिक स्तर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब राज्यों में की जाती है. भारत मेथी का मुख्य उत्पादक और निर्यातक देश है. इस का उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है.

भूमि और जलवायु

मेथी को अच्छे जल निकास एवं पर्याप्त जीवांश वाली सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है, परंतु दोमट मिट्टी इस के लिए उत्तम रहती है. यह ठंडे मौसम की फसल है. पाले व लवणीयता को भी यह कुछ स्तर तक सहन कर सकती है.

मेथी की प्रारंभिक वृद्धि के लिए मध्यम आर्द्र जलवायु और कम तापमान उपयुक्त है, परंतु पकने के समय गरम व शुष्क मौसम उपज के लिए लाभप्रद होता है. पुष्प व फल बनते समय अगर आकाश बादलों से घिरा हो, तो फसल पर कीड़ों व बीमारियों के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है.

उन्नत किस्में

आरएमटी 305 : यह एक बहुफलीय किस्म है. इस का औसत बीज भार और कटाई सूचकांक अधिक है. फलियां लंबी और अधिक दानों वाली होती हैं, जिस के दाने सुडौल, चमकीले पीले होते हैं. इस किस्म में छाछ्या रोग के प्रति अधिक प्रतिरोधकता है. इस किस्म के पकने की अवधि 120-130 दिन है. औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरएमटी 1 : समूचे राजस्थान के लिए यह उपयुक्त किस्म है. इस के पौधे अर्ध सीधे एवं मुख्य तना नीचे की ओर गुलाबीपन लिए होता है. बीमारियों एवं कीटों का प्रकोप कम होता है. पकने की अवधि 140-150 दिन है. इस की औसत उपज 14-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

हरी पत्तियों के लिए

पूसा कसूरी : यह छोटे दाने वाली मेथी होती है. इस की खेती हरी पत्तियों के लिए की जाती है. कुल 5-7 हरी पत्तियों की कटाई की जा सकती है. इस की औसत उपज 5-7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

खेत की तैयारी : भारी मिट्टी में खेत की 3-4 और हलकी मिट्टी में 2-3 जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए और खरपतवार को निकाल देना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक : प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन सड़ी गोबर की खाद खेत को तैयार करते समय डालें. इस के अलावा 40 किलोग्राम नाइट्रोजन एवं 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले खेत में ऊपर से दें.

बीज की बोआई एवं मात्रा : इस की बोआई अक्तूबर माह के अंतिम सप्ताह से नवंबर माह के पहले सप्ताह तक की जाती है. बोआई में देरी करने से फसल के पकने की अवस्था के समय तापमान अधिक हो जाता है. इस वजह से फसल शीघ्र पक जाती है और उपज में कमी आती है. पछेती फसल में कीट व बीमारियों का प्रकोप अधिक बढ़ जाता है.

इस के लिए 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है. बीजों को 30 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में 5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोएं. बीजों को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर बोने से फसल अच्छी मिलती है.

सिंचाई एवं निराईगुड़ाई : मेथी की खेती रबी में सिंचित फसल के रूप में की जाती है. सिंचाइयों की संख्या मिट्टी की संरचना और वर्षा पर निर्भर करती है. वैसे, रेतीली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज के लिए तकरीबन 8 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है. परंतु अच्छे जल धारण क्षमता वाली भूमि में 4-5 सिंचाइयां पर्याप्त हैं.

फली व बीजों के विकास के समय पानी की कमी नहीं रहे. बीज बोने के बाद हलकी सिंचाई करें. उस के बाद आवश्यकतानुसार 15 से 20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें.

बोआई के 30 दिन बाद निराईगुड़ाई कर पौधों की छंटाई कर देनी चाहिए व कतारों में बोई फसल में अनावश्यक पौधों को हटा कर पौधों के बीच की दूरी 10 सैंटीमीटर रखें.

अगर जरूरी हो, तो 50 दिन बाद दूसरी निराईगुड़ाई करें. पौधों की वृद्धि की प्राथमिक अवस्था में निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में पूरी तरह से हवा का संचार होता है और खरपतवार रोकने में मदद मिलती है.

खरपतवार नियंत्रण

मेथी को उगने के 25 व 50 दिन बाद 2 निराईगुड़ाई कर पूरी तरह से खरपतवार से मुक्त रखा जा सकता है. इस के अलावा मेथी की बोआई के पहले 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फ्लूक्लोरेलिन को 600 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें. उस के बाद मेथी की बोआई करें या फिर पेंडीमिथेलीन 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर  को 600 लिटर पानी में घोल कर मेथी की बोआई के बाद, मगर उगने से पहले छिड़काव कर के खरपतवारों से मुक्त किया जा सकता है.

यह ध्यान रखें कि फ्लूक्लोरेलिन के छिड़काव के बाद खेत को खुला न छोड़ें, अन्यथा इस का वाष्पीकरण हो जाता है और पेंडीमिथेलीन के छिड़काव के समय खेत में नमी होना आवश्यक है.

मैथी (Fenugreek)

प्रमुख कीट एवं उन का प्रबंधन

फसल पर नाशीकीटों का प्रकोप कम होता है, परंतु कभीकभी माहू, तेला, पत्ती भक्षक, सफेद मक्खी, थ्रिप्स, माइट्स, फली छेदक एवं दीमक आदि का आक्रमण पाया गया है. सब से ज्यादा नुकसान माहू कीट से होता है.

माहू का प्रकोप मौसम में अधिक नमी व आकाश में बादल के रहने पर अधिक होता है. यह कीट पौधों के कोमल भागों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता है. दाने कम व निम्न गुणवत्ता के बनते हैं.

इस की रोकथाम के लिए जैविक विधियों का अधिकाधिक प्रयोग करें. आक्रमण बढ़ता दिखने पर नीम आधारित रसायनों निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल आधारित 0.03 फीसदी का 1 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. कीटनाशी अवशेषों से उपज को बचाएं.

प्रमुख रोग और उन का प्रबंधन

छाछ्या : यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी’ नामक कवक से होता है. रोग के प्रकोप से पौधों की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देने लगता है और पूरे पौधे पर फैल जाता है. इस से काफी नुकसान होता है.

प्रबंधन : गंधक चूर्ण 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर भुरकाव करें या केराथेन एलसी 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 10 से 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार माधवी बोएं.

तुलासिता (डाउनी मिल्ड्यू) : यह रोग ‘पेरेनोस्पोरा स्पी. ’ नामक कवक से होता है. इस रोग से पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले घब्बे दिखाई देते हैं और नीचे की सतह पर फफूंद की वृद्धि दिखाई देती है. उग्र अवस्था में रोग से ग्रसित पत्तियां झड़ जाती हैं.

प्रबंधन : फसल में अधिक सिंचाई न करें. इस रोग के लगने की प्रारंभिक अवस्था में फसल पर मैंकोजेब 0.2 फीसदी या रिडोमिल 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार मुक्ता एचएम 346 बोएं.

जड़गलन : मेथी की फसल में जड़गलन रोग का प्रकोप भी बहुत होता है, जो बीजोपचार कर और फसलचक्र अपना कर, ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले भूमि में दे कर कम किया जा सकता है.

कटाई एवं उपज

जब पौधों की पत्तियां झड़ने लगें व पौधे पील रंग के हो जाएं, तो पौधों को उखाड़ कर या फिर दंताली से काट कर खेत में छोटीछोटी ढेरियोंं में रखें. सूखने के बाद कूट कर या थ्रैशर से दाने अलग कर लें. साफ दानों को पूरी तरह सुखाने के बाद बोरियों मे भरें. समुचित तरीके से खेती की क्रियाओं को अपनाने से 15 से 20 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार हो सकती है.

क्यों रुलाता है प्याज

जब घर में रोटी खाने के लिए दाल या सब्जी न हो, तो गरीबों का खाना रोटी के साथ प्याज होता है. साल में कुछ दिनों के लिए प्याज सभी को खूब रुलाता है, बावजूद इस के सभी घरों के किचन में प्याज मौजूद रहता है.

प्याज भले ही कितना भी महंगा हो जाए, लेकिन बिना प्याज के सब्जी अच्छी नहीं लगती.

इस की सब से खास बात यह है कि इसे खाने या काटने वाले को प्याज रुलाता जरूर है. लेकिन क्या आप ने कभी सोचा है कि प्याज काटने पर आंसू क्यों आते हैं और आंखों में जलन क्यों होती है, जबकि कोई और सब्जी काटने पर ऐसा नहीं होता. यहां तक कि तीखी मिर्च काटने पर भी आंखों से आंसू नहीं आते. आखिर ऐसा क्यों होता है? आइए आप को बताते हैं इस की असली वजह.

दरअसल, प्याज में एक साइन प्रोपेंथियल एस आक्साइड नामक रसायन पाया जाता है, जो प्याज काटते समय हमारी आंखों की लेक्राइमल ग्लैंड को उत्तेजित करता है और इस वजह से आंखों में आंसू आ जाते हैं.

पहले वैज्ञानिकों को लगता था कि ऐसा प्याज में मौजूद एलीनेस नामक एंजाइम के कारण होता है, लेकिन शोध में पाया गया कि इसी में लेक्राइमेट्री फैक्टर सिंथेस नामक एंजाइम पाया जाता है, जो काटते समय इस से निकलता है और यह एंजाइम प्याज के अमीनो एसिड को सल्फेनिक एसिड में बदल देता है, साथ ही सल्फेनिक एसिड, साइन प्रोपेंथियल एस आक्साइड में बदल जाता  है. जब ये साइन प्रोपेंथियल एस आक्साइड हवा द्वारा हमारी आंखों के संपर्क में आता है, तो इस के कारण आंखों की लेक्राइमल ग्लैंड में परेशानी होती है और इस से आंखों में जलन होती है और आंसू आने लगते हैं.

प्याज के लाभ

* गरमी के मौसम में लू लगना आम बात है, लेकिन यदि आप इन दिनों कच्चा प्याज खाते हैं तो आप को लू नहीं लगेगी. लू लगने पर प्याज का रस पीने से भी फायदा होता है. आप ने बुजुर्गों को यह कहते सुना होगा कि प्याज साथ रखने से लू नहीं लगती है.

* यदि घर में किसी को गठिया या जोड़ों का दर्द हो, तो प्याज के रस की मालिश करने से आराम मिलेगा. प्याज का रस सरसों के तेल में मिला कर मालिश करने से काफी आराम मिलता है.

* प्याज के रस को सरसों के तेल में मिला कर 2 महीने तक लगातार मालिश करने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है.

* प्याज के रस में मिश्री मिला कर चाटने से कफ की समस्या से जल्द ही नजात मिलती है.

* गरमी के मौसम में ज्यादा गरमी की वजह से सिर में दर्द होने पर प्याज के सफेद कंद को तोड़ कर सूंघने से जल्द आराम मिलता है. मसूड़ों में सूजन और दांत में दर्द होने पर प्याज के रस और नमक का मिश्रण लगाने से दर्द से जल्द राहत मिलती है.

* बाल गिरने की समस्या से नजात पाने के लिए प्याज बहुत असरकारी है. बालों की जड़ों पर प्याज का रस रगड़ने से बाल गिरने बंद हो जाते हैं. इस के अलावा प्याज का लेप लगाने पर काले बाल उगने शुरू हो जाते हैं.

* यदि आप को पथरी की शिकायत है, तो प्याज आप के लिए काफी उपयोगी है. प्याज के रस को चीनी में मिला कर शरबत बना कर पीने से पथरी से नजात मिलती है. प्याज का रस सुबह खाली पेट पीने से पथरी अपनेआप कट कर मूत्र के साथ बाहर निकल जाती है.

* अगर पायरिया की समस्या है, तो प्याज के टुकड़ों को गरम कर दांतों के नीचे दबा कर मुंह बंद कर लें. ऐसा करने से आप के मुंह में लार इकट्ठा हो जाएगी. उसे कुछ देर मुंह में रखने के बाद बाहर निकाल दें. ऐसा दिन में 4-5 बार करने से पायरिया की समस्या से नजात मिल जाएगी.

* डायबिटीज के रोगियों को भोजन के साथ कच्चा प्याज खाना चाहिए. इस से शरीर में इंसुलिन का स्तर सामान्य हो जाता है.

* प्याज कैंसर सेल को बढ़ने से रोकता है. इस में सल्फर तत्त्व ज्यादा मात्रा में होते हैं. यह सल्फर पेट, कोलोन, बे्रस्ट, फेफड़े और प्रोस्टेट के कैंसर से बचाता है.

मूली (Radish): सेहत के लिए खास

खाने का जायका बढ़ाने वाली मूली काफी मुफीद चीज?है. दुनियाभर में मूली शौक से खाई जाती?है. आइए, जानते?हैं मूली के बेशुमार फायदे:

* रोजाना खाने में मूली का इस्तेमाल करने से डायबिटीज से जल्दी छुटकारा मिल सकता है.

* मूली खाने से जुकाम नहीं होता है, इसीलिए मूली सलाद में जरूर खानी चाहिए.

* रोज मूली के ऊपर काला नमक डाल कर खाने से भूख न लगने की समस्या दूर हो जाती?है.

* मूली खाने से हमें विटामिन ‘ए’ मिलता है, जिस से दांतों को मजबूती मिलती?है.

* मूली खाने से बाल झड़ने बंद हो जाते हैं.

* बवासीर में कच्ची मूली व उस के पत्तों की सब्जी बना कर खाना फायदेमंद रहता?है.

* यदि पेशाब का बनना बंद हो जाए तो मूली का रस पीने से पेशाब दोबारा बनने लगता है.

* कच्ची मूली रोज सुबह उठते ही खाने से पीलिया रोग में आराम मिलता है.

* नियमित मूली खाने से मधुमेह का खतरा कम हो जाता है.

* यदि आप को खट्टी डकारें आ रही?हैं, तो 1 कप मूली के रस में मिश्री मिला कर पीने से लाभ होता है.

* नियमित रूप से मूली खाने से मुंह, आंत और किडनी के कैंसर का खतरा कम रहता है.

* थकान मिटाने और नींद लाने में भी मूली सहायक है.

* मोटापा दूर करने के लिए मूली के रस में नीबू और नमक मिला कर इस्तेमाल करें.

* पायरिया से परेशान लोग मूली के रस से दिन में 2-3 बार कुल्ला करें और इस का रस पिएं.

* सुबहशाम मूली का रस पीने से पुराने कब्ज में भी लाभ होता है.

* मूली के रस में बराबर मात्रा में अनार का रस मिला कर पीने से हीमोग्लोबिन बढ़ता है.

उन्नत तकनीक से करें ब्रोकली (Broccoli) की खेती

भारत में तकरीबन 40-50 किस्मों की अलगअलग तरह की सब्जियों की खेती काफी पहले से की जाती है, लेकिन अब भी कुछ ऐसी सब्जियां हैं, जिन से काफी किसान अनजान हैं.

ऐसी ही एक सब्जी है ब्रोकली यानी हरे रंग की गोभी. गोभी वर्ग की यह खास सब्जी कभीकभी बैगनी या सफेद रंग की भी होती है. इस के खाने लायक शीर्ष भाग के अलावा मांसल पुष्पदंड का भी सलाद और सूप के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. देश में इस की खेती पिछले कुछ सालों से शुरू की गई है. ब्रोकली की सब्जी की मांग बड़ेबड़े होटलों और पर्यटन स्थलों पर काफी तेजी से बढ़ी है.

पोषक तत्त्व : ब्रोकली में फूलगोभी, पत्तागोभी, गांठगोभी के मुकाबले प्रोटीन, विटामिन और खनिज पदार्थ ज्यादा होते हैं. इस के अलावा थियोमिन, रोइबोफलेविन व नियासिन वगैरह तत्त्व भी इस में भरपूर मात्रा में मौजूद होते हैं. इस के अलावा इस सब्जी का और भी महत्त्व है, क्योंकि खोजों से पता चला है कि ब्रोकली में मौजूद आईसोथियोसिनेट्रस श्रेणी के रसायन फाइटोकैमिकल्स के रूप में मौजूद होते हैं, जो कैंसर रोगियों का कैंसर से बचाव करते हैं और स्वस्थ लोगों में कैंसर की आशंका काफी कम करते हैं. इस के इस्तेमाल से खून में सीरम कोलेस्ट्राल का स्तर कम होता है, जो हृदय रोगियों के लिए लाभयदायक है. ब्रोकली के सूखे अंकुर ट्यूमर के खतरे को भी कम करते हैं. ब्रोकली में तमाम पौष्टिक तत्त्व दूसरी गोभियों की तुलना में ज्यादा पाए जाते हैं.

जलवायु : ब्रोकली शीतोष्ण जलवायु की फसल है, लेकिन इसे अन्य इलाकों में भी आसानी से उगाया जा सकता है. अधिकतर भागों में इस की खेती रबी मौसम में की जाती है, जबकि ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में इस की खेती गरमी के मौसम में की जाती है. ब्रोकली की अच्छी पैदावार के लिए 20-25 डिगरी सेल्सियस और शीर्ष विकास के लिए 12-18 डिगरी सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है.

खेत की तैयारी : सब  पहले खेत की गहरी जुताई के बाद ढेलों को तोड़ कर जमीन को समतल और मुलायम किया जाता है. नीम की खली 100 किलोग्राम और ट्राइकोडर्मा 1 किलोग्राम का मिश्रण (200 ग्राम प्रतिवर्ग मीटर) डाल कर अच्छी तरह मिला लें. पौध लगाने से पहले प्रतिवर्ग मीटर में नाइट्रोजन 5 ग्राम, फास्फोरस 5 ग्राम और पोटाश 5 ग्राम डाली जाती है. 100 सेंटीमीटर चौड़ी और 15 सेंटीमीटर ऊंची क्यारियां बनाई जाती हैं और कतारों के बीच 50 सेंटीमीटर का फासला रखा जाता है. सड़ी गोबर की खाद 20 किलोग्राम प्रतिवर्ग मीटर में डाल कर मिट्टी में अच्छी तरह मिलाई जाती है.

किस्में : ब्रोकली की खेत के लिए बोआई के समय और उगाए जाने वाले क्षेत्र के मुताबिक उन्नत किस्मों का चयन करते हैं. ब्रोकली की 3 किस्में होती हैं, हरी, बैगनी और सफेद. हरे रंग की गढे़ हुए शीर्ष वाली किस्मों को लोग ज्यादा पसंद करते हैं. पकने के आधार पर इन किस्मों को 3 हिस्सों में बांटा जाता है.

अगेती किस्में : ये किस्में रोपाई के बाद 40-50 दिनों में तैयार हो जाती हैं. ये मध्यम ठंड में ही पकती है. इन में मुख्य हैं: ऐश्वर्य, डीसिम्को, ग्रीनबड और स्पार्टनअली.

मध्यावधि किस्में : ये किस्में 100 दिनों में तैयार हो जाती हैं. सकाटा, अर्या, ग्रीन स्प्राउटिंग अच्छी मध्यावधि किस्में हैं.

पछेती किस्में : ये किस्में तकरीबन 120 दिनों में तैयार होती हैं. इन में मुख्य हैं, पूसा ब्रोकली व केटी सलेक्शन 1, जो 90 से 105 दिनों में तैयार हो जाती है.

संकर किस्में : निजी बीज कंपनियों ने ब्रोकली की अच्छी संकर किस्में तैयार की हैं.

अगेती संकर किस्में : प्रीमियम क्राप, लेसर, कलियर.

मध्यावधि संकर किस्में : लौर सायर, कुइजर, ऐक्स कैलिबर.

पछेती संकर किस्में : स्टिफकायक, ग्रीन सर्फ आदि.

बोआई : मैदानी भागों में ब्रोकली की बोआई मध्य सितंबर से नवंबर के पहले हफ्ते के बीच की जाती है. पहाड़ी इलाकों में बोआई का समय सितंबरअक्तूबर होता है. मध्यावधि किस्मों की बोआई सितंबरअक्तूबर में पौधशाला में करनी चाहिए. पछेती किस्मों के बीजों की बोआई का सही समय अक्तूबर के आखिर से मध्य नवंबर तक है. काफी ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में मार्चअप्रैल में बोआई करते हैं.

नर्सरी तैयार करना : 98 छेदों वाली प्रोट्रे यानी प्लास्टिक की ट्रे का इस्तेमाल पौध तैयार करने के लिए किया जा सकता है. इस प्रोटे्र का आकार आमतौर पर 54 सेंटीमीटर लंबा और 27 सेंटीमीटर चौड़ा होता है. सड़ी गोबर की खाद और जैविक मिश्रण का रोगमुक्त पौध उगाने के लिए इस्तेमाल किया जाना जरूरी है.

नर्सरी में परंपरागत मिश्रण, मिट्टी, गोबर की खाद, कोकोपीट, वर्मीकुलाइट, बालू या परलाइट मिश्रण का इस्तेमाल किया जा सकता है. यह रोगमुक्त होने के साथसाथ एकदम भुरभुरा होता है, जिस से जड़ों का अच्छी तरह विकास होता है. प्रोट्रे के हर छेद में 1 बीज डाल कर वर्मीकुलाट से बीज को ढक देना चाहिए. इस के बाद हजारे की मदद से हलकी सिंचाई कर के प्रोट्रे को एकदूसरे के ऊपर जमा कर पौलीथिन शीट से ढक देना चाहिए. इस से बीज आसानी से अंकुरित हो जाता है. अंकुरण सामान्यत: 6 से 8 दिनों में हो जाता है. अंकुरण के बाद पौलीथिन शीट हटाने के बाद प्रोट्रे को एकएक कर के जमीन पर रख देना चाहिए. पौधे 4 से 6 हफ्ते के भीतर रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं.

रोपाई : उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में पौधों की रोपाई अक्तूबर के पहले हफ्ते से नवंबर के पहले हफ्ते और पहाड़ी इलाकों में मई में की जाती है. नर्सरी में जब पौधे 10-12 सेंटीमीटर या 4-5 हफ्ते के हो जाते , तब खेत में इन की रोपाई कर देनी चाहिए. रोपाई से पहले 1 लीटर पानी में 1 ग्राम फफूंदीनाशक दवा यानी कार्बेंडाजिम डाल कर इस मिश्रण से जड़ों का उपचार करना चाहिए.

पौधों को पौलीथिन शीट के छेदों के बीच में लगाया जाता है, जिस से पौधे कहीं भी पौलीथिन शीट को न छुएं. रोपाई के फौरन बाद हजारे से हलकी सिंचाई की जाती है. पौधों की रोजाना इसी तरह हलकी सिंचाई करनी चाहिए. इस की रोपाई लाइनों में की जाती है. इस की किस्मों के अनुसार लाइनों की दूरी 45-60 सेंटीमीटर तक रखते हैं. ध्यान रहे कि पौधे 3-4 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरे नहीं लगाने चाहिए.

पोषक तत्त्वों का मिश्रण : खाद और उर्वरक का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के आधार पर करें. आमतौर पर 150-200 क्विंटल गोबर की खाद, 120-125 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 से 80 किलोग्राम सुपरफास्फेट और 25 से 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर में डालनी चाहिए. गोबर की खाद, सुपरफास्फेट और पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई के समय और शेष आधी मात्रा को खड़ी फसल पर छिड़काव यानी टापड्रेसिंग विधि से दें.

टापड्रेसिंग के बाद सिंचाई जरूर करें. इस के अलावा इस फसल में कुछ सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की भी जरूरत होती है, जैसे बोरान मोलिब्डेनम. इन सूक्ष्म तत्त्वों की कमी दूर करने के लिए रोपाई से पहले खेत की तैयारी करते समय 10-15 किलोग्राम बोरेक्स और 500 ग्राम अमोनियम मोलिब्डेट प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करते हैं.

मल्चिंग : तैयार क्यारियों को 100 गेज यानी 25 माइक्रोन की काली पौलीथिन शीट से ढक देना चाहिए और दोनों तरफ किनारों को मिट्टी से दबा देना चाहिए.

सिंचाई : पहली हलकी सिंचाई रोपाई के एकदम बाद और दूसरी रोपाई के 6 से 7 दिनों बाद करें. इस के बाद फिर हलकी सिंचाई करें. इस तरह 5-6 बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है. पानी खेत में ज्यादा समय तक नहीं रुकना चाहिए. खास बात यह है कि फसल की शुरुआत में और बीज निकलते समय पानी की कमी नहीं होनी चाहिए.

खरपतवारों की रोकथाम : खरपतवारों की रोकथाम के लिए बेसालिन 2.0 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रोपाई से पहले खेत में छिड़काव कर के मिट्टी में मिला दें. इस के अलावा 15 दिनों के अंतर पर 2-3 बार निराईगुड़ाई करें.

तोड़ाई : अगेती किस्मों की फसल दिसंबर में तोड़ाई लायक हो जाती है. मध्यावधि प्रजातियां जनवरीफरवरी में और पछेती प्रजातियां फरवरी के बाद तोड़ाई लायक होती हैं.

उपज : यदि ब्रोकली की खेती बताई गई विधि से करते हैं, तो 100-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज हासिल की जा सकती है. इस का इस्तेमाल बड़ेबड़े होटलों में सब्जी और सलाद के रूप में किया जाता है.