Agriculture News: किसानों को खून के आंसू रुला रहा है प्याज (Onions)

Onions : प्याज, जो सब्जियों में लाजवाब स्वाद दिलाने के लिए जाना जाता है, वही प्याज (Onions )अब किसानों को नौ – नौ आंसू रुला रहा है. इसका कारण यह है कि प्याज के दामों में भारी गिरावट होने से किसानों को मुनाफा तो दूर, उनकी लागत भी नहीं निकल रही है. आखिर ऐसा क्या हुआ कि मुनाफे की फसल किसान की बर्बादी का कारण बन रही है, जानिए-

क्यों बनी मुनाफे की फसल घाटे का सौदा

प्याज (Onions ) एक मसाले वाली औषधीय फसल है, जिसकी पैदावार भारत में बड़े पैमाने पर होती है और देश-भर में महाराष्ट्र के नासिक प्याज का बोलबाला है, लेकिन इन दिनों प्याज की कीमतों में भारी गिरावट के चलते किसानों का बुरा हाल है. इसका सबसे बड़ा कारण क्षेत्र में भारी बारिश और अचानक मौसम बदलाव का असर बताया गया. इसके अलावा प्याज की खेती में इस्तेमाल किए जाने वाले पारंपरिक तौर-तरीके भी नुकसान का कारण बनते हैं.

आधुनिक तकनीक से मिलता लाभ

प्याज (Onions ) की खेती में पानी का रुकना भारी नुकसान का कारण बनता है. अगर तैयार में पानी भर गया और उसकी निकासी नहीं होगी तो प्याज का सड़ना तय है, इसलिए प्याज की खेती में जल निकासी की व्यवस्था होनी चाहिए और सिंचाई के आधुनिक तकनीकों को अपनाना चाहिए, जिससे भारी नुकसान से बचा जा सके.

ड्रिप और फव्वारा सिंचाई है लाभकारी

प्याज की खेती में सिंचाई के लिए सामान्य तरीके ना अपनाकर ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई के तरीके अपनाने चाहिए, जबकि प्याज की खेती में ये दोनों विधियां कम ही इस्तेमाल होती हैं.

प्याज स्टोरेज की कमी भी है कारण

प्याज (Onions ) का भंडारण करने के लिए स्टोरेज की कमी होने से भी प्याज खराब होने लगता है, जिसके कारण किसान अपनी उपज को औने – पौने दामों पर बाजार में बेचने को मजबूर होता है और फसल तैयार होने पर बड़े पैमाने पर उपज मंडियों में आती है तो दाम गिरना भी तय है, इसलिए सरकार को अन्य फसलों की उपज भंडारण की तर्ज पर प्याज भंडारण के लिए भी व्यवस्था करनी चाहिए.

महाराष्ट्र के अलावा प्याज देश के अनेक प्रदेशों की मंडी में प्याज कौड़ियों के भाव बिक रहा है, जिसके चलते किसान फसल फेंकने को मजबूर हो रहे हैं. ऐसे में सरकार से उचित मूल्य और समर्थन की पहल की आवश्यकता है. अन्यथा किसान प्याज की खेती से मुंह मोड़ लेंगे और फिर बाहर के देशों से प्याज आयात भी करना पड़ सकता है, जो सरकार की किरकिरी करने वाला काम है.

Cinnamon : औषधीय फसल दालचीनी की खेती

Cinnamon : दालचीनी के पेड़ का पत्ता ही तेजपत्र या तेजपात कहा जाता है. तेजपात व दालचीनी का बहुतायत से इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए इन्हें विदेशों से भी मंगाना पड़ता है.

भारतीय किसान दालचीनी (Cinnamon) की खेती कर के काफी पैसा कमा सकते हैं और देश की पूंजी विदेश जाने से बचा कर देश की सेवा कर सकते हैं. दक्षिण भारत के किसान इस के उत्पादन की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं.

श्रीलंका और मलय प्रायद्वीप दालचीनी (Cinnamon) की खेती के लिए बहुत मशहूर हैं. ये छोटे देश दालचीनी आयात से अच्छीखासी विदेशी मुद्रा कमा लेते हैं. भारत में भी दालचीनी का आयात श्रीलंका से किया जाता है. वहां की दालचीनी को सेहत के लिए काफी अच्छा माना जाता है. वहां दालचीनी की आर्गेनिक (जैविक) खेती जैसे प्रयोग भी किए जा रहे हैं.

भारत के हिमाचल प्रदेश में भी इस की खेती की जाती है. ध्यान दिए जाने पर वहां भी बहुत सफलता पाई जा सकती है. पूसा के वैज्ञानिक डा. जानकीराम का कहना है कि केरल, नार्थ ईस्ट व अंडमान में स्पाइस क्राप की काफी खेती की जा रही है. मगर कुछ जगहों को छोड़ कर आमतौर पर इस का उत्पादन साइड क्राप की तरह किया जाता है. इस को मुख्य फसल की तरह अपनाने पर किसानों को काफी लाभ मिल सकता है.

अब तमिलनाडु, केरल व कर्नाटक में किसान बड़े पैमाने पर इस की खेती कर रहे हैं. इस से उन्हें काफी लाभ मिल रहा है.

दालचीनी का इस्तेमाल : मसाले के रूप में इस का नियमित इस्तेमाल किया जाता है. इस के पत्तों से तेल निकाला जाता है, जिसे यूजिनोल के कारण काफी उपयोगी माना जाता है. दालचीनी (Cinnamon) के बीजों व मूल से भी तेल निकाला जाता है.

गरम मिजाज वालों और गर्भवती औरतों के लिए दालचीनी का इस्तेमाल किया जाना ठीक नहीं रहता है. गरम मिजाज वालों को इस के इस्तेमाल से सिरदर्द हो सकता है. इसी तरह गर्भवती औरतों के लिए यह गर्भनाशी साबित हो सकती है.

दालचीनी के गुण : यह यकृत की सफाई व भोजन के पाचन में काफी उपयोगी है, इसलिए इसे ओजक कहा जाता है. यह दिल को उत्तेजित करती है. इसे शहद के साथ इस्तेमाल करने से कोलेस्ट्राल कम होता है. यह मुंह की बदबू दूर करती है. इस के पत्तों के मंजन से दांत साफ व चमकीले होते हैं. यह दांत का दर्द भी कम करती है. यह हिचकी रोकने में भी मदद करती है. यह वायु, कफ व शरीर के जहर नष्ट करती है. यह बैठे गले को ठीक कर देती है.

रंग को साफ करने में भी इस की भूमिका कारगर है. दालचीनी ( (Cinnamon)) के अर्क का लेपन दिमाग के लिए बेहद उपयोगी है. इसे पाचन सुधारने और गैस खत्म करने में बहुत उपयोगी माना गया है.

औषधीय उपयोग : मोतीझरा, कान का बहरापन, आंखों की फड़कन, चर्मरोगों व संक्रामक रोगों में दालचीनी के इस्तेमाल से आराम मिलता है.

दालचीनी (Cinnamon) के काढ़े से रक्तस्राव रोकने में बहुत लाभ होता है. फेफड़ों व गर्भाशय के रक्तस्राव को रोकने में भी दालचीनी कारगर होती है. वैसे यह किसी भी तरह के रक्तस्राव को रोकने में उपयोगी है. प्रसव पीड़ा के कारण मांसपेशियों में कमजोरी को दूर करने में भी यह उपयोगी है.

दालचीनी का तेल : यह काफी महंगा मिलता है. चर्मरोग में इस की मालिश से बहुत लाभ होता है. पेट पर इस की मालिश से आंतों का खिंचाव दूर होता है. प्रसव के कारण पेट पर बने निशान भी तेल की मालिश से काफी कम किए जा सकते हैं.

यूरोप, उत्तरी अमेरिका व थाइलैंड वगैरह देशों में भारत इस का निर्यात काफी मात्रा में करता है. अन्य कई देशों में भी इस के निर्यात के रास्ते खुले हुए हैं.

कीट प्रकोप : दालचीनी में केंकर का प्रकोप ज्यादा होता है. इस्टोप्सेमाइसिन 100 पीटीएम के घोल के छिड़काव से इस कीट को नष्ट किया जा सकता है. वैसे पौधों के आसपास हाइजीन रख कर भी इस कीट से दालचीनी के पेड़ को बचाया जा सकता है. बारिश के मौसम में दालचीनी में लीफ माइंट का प्रकोप भी होता है. इसे क्यूनालफास के .05 फीसदी घोल का छिड़काव कर के खत्म किया जा सकता है. पत्तीधब्बा व झुलसा रोग होने पर बोडोमिक्सचर के छिड़काव से फसल को बचाया जा सकता है.

दालचीनी (Cinnamon) का पेड़ सदाहरित माना जाता है. इस के पेड़ 20-25 फुट ऊंचे होते हैं. इस की पत्तियों से बहुत तेज महक आती है, इसलिए उन्हें तेजपात या तेजपत्र कहा जाता है. इस की व्यावसायिक व अच्छी खेती के लिए हाई ह्यूमिडिटी अच्छी रहती है.

दालचीनी की दुनियाभर में काफी मांग है. छोटे देश भी इस में आत्मनिर्भर बनने में रुचि दिखा रहे हैं. श्रीलंका तो इस की खेती में आगे है ही, वियतनाम ने भी इस की खेती में काफी रुचि दिखाई है. वहां इस की खेती शुरू हो चुकी है और इस के काफी अच्छे नतीजे मिल रहे हैं.

Fennel Cultivation : बढ़िया कमाई देती सौंफ की खेती

Fennel Cultivation : राजस्थान के जोधपुर जिले के बिलाड़ा क्षेत्र के एक प्रगतिशील किसान कुन्नाराम ने सौंफ की सफल खेती (Fennel Cultivation) कर के अच्छी कमाई की है. कुन्नाराम के पास 10 बीघा जमीन है और वे साल 1982 में 10वीं जमात पास करने के बाद से ही खेतीबारी के काम में जुट गए थे.

कुन्नाराम पिछले तकरीबन 5 साल से सौंफ की खेती (Fennel Cultivation) कर रहे हैं. उन्होंने सौंफ की खेती के लिए उन्नत बीज लिया और अच्छी तरह जुताई कर उस में 2 ट्रॉली प्रति बीघा की दर से गोबर की देशी खाद का इस्तेमाल किया.

कुन्नाराम सौंफ की बोआई जुलाई के आखिरी हफ्ते में करते हैं और जरूरत के मुताबिक फसल की सिंचाई करते हैं. उन्होंने सिंचाई के लिए ‘बूंदबूंद सिंचाई पद्धति’ अपनाई है.

कुन्नाराम सौंफ की फसल में रसायनों का इस्तेमाल बिलकुल नहीं करते हैं. वे सौंफ की पूरी खेती जैविक तरीके से ही करते रहे हैं. वे खेती के साथसाथ पशुपालन भी करते हैं, जिस से उन्हें अपने घर की ही देशी खाद भी मिल जाती है.

कुन्नाराम बताते हैं कि सौंफ की फसल के गुच्छों की कटाई वे 3 बार 7 से 10 दिन के अंतराल पर करते हैं और 3 बार गुच्छों की कटाई करने के बाद चौथी बार में पूरी फसल काट लेते हैं और उस में से सौंफ को अलग कर लेते हैं. इस तरह वे कुल 4 बार सौंफ के गुच्छों की कटाई करते हैं.

कटाई के बाद सौंफ के गुच्छों को छाया में रस्सी पर सूखने से सौंफ का हरापन बना रहता है. इस के बाद पक्के फर्श पर सौंफ को गुच्छों से अलग कर लिया जाता है.

सौंफ मसाला फसल है. इसे औषधीय फसल भी कहा जाता है. इसे मसाले के रूप में और सीधा भी खाने के काम में लिया जाता है.

इस साल कुन्नाराम ने कुल 10 बीघा में सौंफ की खेती (Fennel Cultivation) की, जिस का उत्पादन कुल 150 मन प्राप्त किया यानी एक बीघा में कुल 6 क्विंटल पैदावार हुई. बाजार में बिलाड़ा मंडी में इस बार उन्हें 13,000 रुपए प्रति क्विंटल का भाव मिला, तो एक बीघा में कुल 78,000 रुपए की पैदावार मिली. खेती के सभी खर्च निकाल कर कुल 35 से 50 हजार रुपए की शुद्ध आय प्रति बीघा मिली है. इस प्रकार उन्हें सौंफ की खेती से हर साल साढ़े 3 लाख से 4 लाख रुपए तक का कुल शुद्ध लाभ मिल जाता है. इस फसल को कृषि विभाग के अधिकारियों, वैज्ञानिकों और प्रगतिशील किसानों ने देखा और सराहा.

कुन्नाराम बताते हैं कि उन्होंने कृषि विभाग के प्रशिक्षणों में नवीन तकनीक को जानने ले लिए भाग लिया. पड़ोसी राज्य गुजरात में भी सौंफ की खेती और नवीनतम तकनीक अपनाई.

कुन्नाराम के पड़ोसी ओमप्रकाश और मांगीलाल ने उन से सीख ले कर सौंफ की अच्छी खेती की है. पिचियाक गांव के बुधाराम, मिश्रीलाल दगलाराम बताते हैं कि सौंफ की खेती (Fennel Cultivation) से उन्होंने भी 30,000 रुपए प्रति बीघा की दर से शुद्ध आय मिल जाती है.

बिलाड़ा क्षेत्र के कृषि अधिकारी भीखाराम बताते हैं कि सौंफ की खेती (Fennel Cultivation) किसानों की अच्छी कमाई दे रही है, इसलिए बिलाड़ा पंचायत समिति में सौंफ की खेती का रकबा बढ़ा है और सौंफ की खेती का कुल रकबा 800 हेक्टेयर तक पहुंच गया है. खरीफ में कपास, मूंग, तिल, ज्वार की खेती करते हैं और रबी में ज्यादातर किसान सौंफ और जीरा की फसल लेते हैं.

कुन्नाराम की जैविक खेती देख कर पड़ोसी गांव के किसानों ने भी इसे अपनाने की सोची. गांव रामपुरिया के किसान चुन्नीलाल बताते है कि सौंफ में बूंदबूंद सिंचाई से कालिया रोग (ब्लाइट) और गूंदिया वोग (गमोसिस) का नियंत्रण हो जाता है. इस प्रकार बिलाड़ा, पिचियाक, खारिया, जेलवा, भानी, उचियाडा रामपुरिचा गांवों में भी सौंफ की खेती (Fennel Cultivation) से किसानों की अच्छी कमाई हो जाती है.

अधिक जानकारी के लिए आप कुन्नाराम के मोबाइल नंबर 941366051 और लेखक के मोबाइल नंबर में 9414921262 पर संपर्क कर जानकारी ले सकते हैं.

fenugreek : मेथी की वैज्ञानिक खेती

fenugreek : पालक के बाद मेथी दूसरी पत्तेदार या भाजी वाली फसल है, जिस की खेती पूरे देश में की जाती है. मेथी की गिनती मसालेदार फसलों में होती है और इस का इस्तेमाल दवाएं बनाने में भी होता है. मेथी गुणों से भरपूर होती है. इसलिए इस की मांग साल भर बनी रहती है. मेथी में प्रोटीन काफी मात्रा में पाया जाता है. इस में सूक्ष्म तत्त्व भी मौजूद होते हैं. यह विटामिन सी के अलावा विटामिन के का भी अच्छा जरीया है.

आयुर्वेद में मेथी का गुणगान जम कर किया जाता है. यह बात नाशक है और कफ हटाती है. गर्भवती औरतें इस का सेवन करें, तो गर्भाशय ठीक रहता है और दूध भी ठीकठाक बनता है.

मेथी सर्दियों की खास फसल है. अब तो इस के तरहतरह व्यंजन भी बनने लगे हैं. मेथी के लड्डू सेहत बनाने वाले होते हैं, जो अब मिठाई की दुकानों पर भी मिलने लगे हैं. कई बीमारियों और जाड़ों में मेथी खाने की सलाह दी जाती है.

आइए जानें कि कैसे मेथी की वैज्ञानिक तरीके से खेती कर के ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है.

मिट्टी और जलवायु

मेथी की खेती के लिए कम तापमान और औसत बारिश वाले इलाके सही होते हैं. यह पाले को दूसरी फसलों के मुकाबले ज्यादा बरदाश्त कर लेती है, इसलिए पंजाब, राजस्थान, दिल्ली सहित तमाम उत्तरी सूबों में इस की खेती कामयाबी से की जाती है. दक्षिण भारत में भी इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है, लेकिन ज्यादा बारिश वाले इलाकों में इस की खेती नहीं की जा सकती. दक्षिण भारत में यह खरीफ की, जबकि उत्तरी भारत में रबी की फसल है.

वैसे तो मेथी की खेती सभी तरह की मिट्टियों में की जा सकती है, लेकिन चिकनी मिट्टी इस की खेती के लिए ज्यादा मुफीद होती है जिस का पीएच मान 6-7 के बीच होता है. जहां पानी के निकास के बेहतर इंतजाम होते हैं, वहां इस की पैदावार ज्यादा मिलती है.

बोआई

सितंबर से ले कर मार्च तक के महीने मेथी की बोआई के लिए ठीक रहते हैं. पहाड़ी इलाकों में इसे जुलाई से ले कर अगस्त तक बोया जा सकता है.

मेथी की खेती में इन खास बातों का हमेशा ध्यान रखना चाहिए:

* 1 हेक्टेयर के लिए औसत बीज दर 20 किलोग्राम होती है.

* अगर भाजी के लिए फसल उगाई जा रही है, तो इसे 8-10 दिनों के अंतर से बोना चाहिए, जिस से भाजी हर समय मिलती रहे. इस के लिए खेत को 8-10 हिस्सों या छोटीछोटी क्यारियों में बांट लेना चाहिए. क्यारियों की मेंड़ पर मूली लगा कर और पैसा कमाया जा सकता है.

* अगर केवल बीज के लिए फसल बोई जा रही है, तो बोआई नवंबर के आखिर तक कर लेनी चाहिए. इस के लिए बीज दर 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ठीक रहती है.

* ज्यादा पैदावार लेने के लिए लाइन से लाइन की दूरी 20 से 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखी जानी चाहिए.

* मेथी की बोआई छिटकवां विधि से भी की जा सकती है.

खाद और उर्वरक

मेथी अपने आप में एक खाद वाली फसल है, इसलिए इस के लिए ज्यादा खाद व उर्वरक इस्तेमाल नहीं करने पड़ते. लेग्यूमिनेसी यानी दलहनी कुल की होने के कारण यह वायुमंडल से नाइट्रोजन इकट्ठा कर लेती है. लेकिन पत्तियां और बीज ज्यादा तादाद में हासिल करने के लिए खाद व उर्वरक निम्नलिखित तादाद में देने चाहिए.

* खेत तैयार करते 150 क्विंटल गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से डालें.

* 20 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश बोआई के वक्त प्रति हेक्टेयर की दर से डालें.

* मैगनीज और जिंक देने से मेथी की पैदावार बढ़ती है, लिहाजा कृषि वैज्ञानिकों से राय ले कर इन का इस्तेमाल भी करें.

* बोआई के बाद 20 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से देने पर पैदावार ज्यादा मिलती है.

सिंचाई

मेथी की अच्छी बढ़वार के लिए 4 बार सिंचाई करना ठीक रहता है. अगर खेती भाजी के लिए की जा रही है, तो हर कटाई के बाद सिंचाई करनी चाहिए. लेकिन बीज के लिए फसल ली जा रही है, तो बोआई के 1 महीने बाद और फूल बनते समय सिंचाई जरूर करनी चाहिए. फलियां भरते वक्त भी 1 सिंचाई करने से बीजों की तादाद बढ़ती है.

खरपतवारों की रोकथाम

ज्यादा पैदावार के लिए जरूरी है कि खरपतवारों को पनपने न दिया जाए. मेथी की फसल शुरुआत में धीमी गति से बढ़ती है, इसलिए इस समय में खेत से खतरपतवार निकाल देने चाहिए वरना वे मेथी के पौधों से ज्यादा बढ़ कर पैदावार घटा देते हैं. 1 महीने के बाद मेथी की फसल तेजी से बढ़ती है, इसलिए इस के बाद खरपतवार ज्यादा नहीं फैल पाते. अगर बोआई से पहले फ्लूक्लोरेलीन नाम की दवा 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला दी जाए तो खरपतवार ज्यादा नहीं होते.

रोग और कीट

पत्ता रोग : यह बीमारी मेथी में आमतौर पर हर जगह पाई जाती है, जो सर्कोस्पोरा ट्रेवरसियान नाम की फफूंद की वजह से होती है. इस की मार से छोटेछोटे गोल भूरे रंग के धब्बे पत्ती पर बन जाते हैं. शुरुआत में ये हलके और अलगअलग दिखाई देते हैं, पर बड़े हो जाने पर बहुत से धब्बे मिल कर एक धब्बा बना लेते हैं.

इस बीमारी की रोकथाम के लिए लक्षण दिखते ही ब्लाइटाक्स 50 नाम की दवा का 0.3 फीसदी का घोल बना कर छिड़कना चाहिए. छिड़काव से पहले पत्तियों की कटाई कर के उन्हें 8-10 दिनों बाद इस्तेमाल करना ठीक रहता है.

पाउडरी सिड्यू : एरीसाइफी नाम की फफूंद से होने वाले इस रोग में पत्तियों के ऊपर चूर्ण जैसी परत जमी दिखाई देती है. अगर वक्त रहते इसे काबू न किया जाए, तो फसल की बढ़वार रुक जाती है और दाम भी अच्छे नहीं मिलते.

इस की रोकथाम के लिए घुलने वाली गंधक का 0.2 फीसदी घोल बना कर छिड़कना कारगर साबित होता है. इस के अलावा कैरोथेन नाम की दवा का 0.1 फीसदी वाला घोल छिड़कना चाहिए. रोग का असर कम न हो तो दवा को 15-20 दिनों बाद फिर छिड़कना चाहिए.

डाउनी मिल्ड्यू : यह रोग भी फफूंद से फैलता है, जिस के शुरुआती लक्षण पत्तियों की निचली परत पर दिखते हैं. इस से पौधों की बढ़वार रुक जाती है और फलियां पीली हो कर झड़ने लगती हैं.

इस की रोकथाम के लिए रिडोमिल दवा का 0.2 फीसदी का घोल छिड़कना चाहिए. अगर पहली बार में पूरा असर न दिखे तो फिर 10-15 दिनों बाद छिड़काव करना चाहिए.

जड़ गलन : मेथी में होने वाली यह बीमारी भी आम है और बेहद नुकसानदेह है, जिस में पहले पत्तियों का सूखना शुरु होता है और फिर धीरेधीरे पूरा पौधा सूख जाता है. अगर पौधा बड़ा हो गया हो तो ये लक्षण भी देर से दिखते हैं. इस से बचने के लिए बीजों को ट्राइकोडर्मा नाम की दवा से उपचारित कर के बोना चाहिए, 1 किलोग्राम बीज के लिए दवा की 4 ग्राम मात्रा ठीक रहती है. अगर मेथी हर साल उगाई जानी है, तो खेत की गरमियों में जुताई करने से भी फायदा होता है.

एफिड या माहू : मेथी में लगने वाले कीड़ों में एफिड खास है, जो अधिकतर बीज के लिए बोई गई फसल पर लगता है. एफिड छोटेछोटे कीट होते हैं, जो पत्तियों, फलियों और पौधे के दूसरे हिस्सों को कुतर कर कमजोर बना देते हैं.

एफिड से बचने के लिए डाइमेथोएट नाम की दवा 25 ईसी को 4 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए.

कटाई और पैदावार

पत्ती यानी भाजी वाली फसल की पहली कटाई बोआई के 3 हफ्ते बाद की जाती है. तब तक पौधों की ऊंचाई करीब 25-30 सेंटीमीटर तक हो जाती है. हमारे देश में मेथी की कटाई के अलगअलग तरीके चलन में है. कहींकहीं पूरा पौधा ही जड़ सहित उखाड़ कर गुच्छे बना कर बेचा जाता है, तो कहींकहीं डालियों को काट कर बेचा जाता है. कसूरी मेथी की कटाई देर से की जाती है.

अगर मेथी की कटाई ज्यादा की जाए तो जाहिर है कि उस का बीज कम मिलता है, इसलिए मेथी की कटाई तभी करनी चाहिए, जब बाजार में भाव अच्छा हो.

अगर 1 बार कटाई के बाद बीज लिया जाए, तो औसत पैदावार 6-8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है और 4-5 कटाइयां की जाएं तो यही पैदावार घट कर 1 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रह जाती है.

भाजी या हरी पत्तियों की पैदावार 70-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक मिलती है. नवंबर और मार्चअप्रैल में भाजी महंगी बिकती है, इसलिए जल्द या देर से ली जाने वाली किस्में बोई जानी चाहिए.

मेथी की पत्तियों को सुखा कर गरमियों में बेचने से भी 100 रुपए प्रति किलोग्राम तक दाम मिल जाते हैं. अगर वैज्ञानिक तरीके से मेथी की खेती की जाए, तो 1 हेक्टेयर से करीब 50000 रुपए कमाए जा सकते हैं.

fenugreek

मेथी की उन्नत किस्में

मेथी की आमतौर पर उगाई जाने वाली खास किस्में निम्नलिखित हैं :

कसूरी मेथी : यह किस्म भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद दिल्ली द्वारा विकसित की गई है. इस की पत्तियां छोटी और हंसिए के आकार की होती हैं. इस में 2-3 बार कटाई की जा सकती है. इस किस्म की यह खूबी है कि इस में फूल देर से आते हैं और पीले रंग के होते हैं, जिन में खास किस्म की महक भी होती है. बोआई से ले कर बीज बनने तक यह किस्म लगभग 5 महीने लेती है. इस की औसत पैदावार 65 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

लाम सिलेक्शन : दक्षिणी राज्यों में इस किस्म को बीज लेने के मकसद से उगाया जाता है. इस का पौधा औसत ऊंचाई वाला, लेकिन झाड़ीदार होता है. इस में शाखाएं ज्यादा निकलती हैं.

पूसा अर्ली बंचिंग : मेथी की इस जल्द पकने वाली किस्म को भी आईसीएआर द्वारा विकसित किया गया है. इस के फूल गुच्छों में आते हैं. इस में 2-3 बार कटाई की जा सकती है. इस की फलियां 6-8 सेंटीमीटर लंबी होती हैं. इस किस्म का बीज 4 महीने में तैयार हो जाता है.

यूएम 112 : यह मेथी की उन गिनीचुनी किस्मों में से एक है, जो सीधी बढ़ती है. इस के पौधे औसत से लंबे होते हैं. भाजी और बीज दोनों के लिहाज से यह किस्म उम्दा होती है.

कश्मीरी : मेथी की कश्मीरी किस्म की ज्यादातर खूबियां हालांकि पूसा अर्ली बंचिंग किस्म से मिलतीजुलती हैं, लेकिन यह 15 दिन देर से पकने वाली किस्म है, जो ठंड ज्यादा बरदाश्त कर लेती है. इस के फूल सफेद रंग के होते हैं और फलियों की लंबाई 6-8 सेंटीमीटर होती है. पहाड़ी इलाकों के लिए यह एक अच्छी किस्म है.

हिसार सुवर्णा : चौधरी चरणसिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार द्वारा विकसित की गई यह किस्म पत्तियों और दानों दोनों के लिए अच्छी होती है. इस की औसत उपज 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. सर्कोस्पोरा पर्र्ण धब्बा रोग इस में नहीं लगता है. हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के लिए यह एक बेहतर किस्म है.

इन किस्मों के अलावा मेथी की उन्नतशील किस्में आरएमटी 1, आरएमटी 143 और 365, हिसार माधवी, हिसार सोनाली और प्रभा भी अच्छी उपज देती हैं.

Quinoa : भविष्य की फसल किनोआ

Quinoa : अपने नए शोध कामों के लिए स्वामी केशवानंद कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर, राजस्थान देशभर में जाना जाता है. पिछले दिनों यहां कृषि अनुसंधान केंद्र के एक बड़े भूभाग में खड़ी रंगबिरंगी फसल ने बरबस ही ध्यान खींच लिया. जिज्ञासावश हम ने यहां के रिसर्च डायरैक्टर पीएस शेखावत से बात की. पेश हैं उसी बातचीत के खास अंश:

ये इतनी खूबसूरत रंगबिरंगी कोई नई फसल है क्या?

जी हां, इसे किनोआ (Quinoa) कहते हैं. यह बथुआ प्रजाति का पौधा है. यह एक ओर्नामैंटल प्लांट है. जब यह कच्चा होता है तो ग्रीन, कुछ पकने पर लाल और कटाई के समय यह पूरी तरह से सफेद हो जाता है, जो देखने में बहुत ही सुंदर लगता है. कुछकुछ हमारे देशी प्रोडक्ट बाजरा एमएच 17 प्रजाति की तरह. इसे दक्षिणी अमेरिका में उगाया जाता है. हमारे देश में इसे हम भविष्य की फसल भी कह सकते हैं. इस के बीजों को पीस कर अनाज की तरह से इस्तेमाल किया जाता है.

क्या आप को लगता है कि यह विदेशी पौधा हमारे यहां की आबोहवा में पनप सकेगा?

बिलकुल पनप सकेगा. यह बहुत हार्डी पौधा है यानी किसी भी तरह की प्रतिकूल आबोहवा में यह अपनेआप को जिंदा रखने की क्षमता वाला पौधा है. यह रबी की फसल है. इसे बोने का सही समय नवंबर माह है और कटाई अप्रैल माह में होती है. इसे समय से पहले काश्त भी किया जा सकता है. इस की बोआई दोमट मिट्टी में होती है. इस पर सर्दी या पाले का कोई असर नहीं होता. इसे ज्यादा पानी की भी जरूरत नहीं होती. यह एक तरह से खरपतवार है. कहने का मतलब यह है कि इस पौधे के लिए यहां की आबोहवा पूरी तरह से माकूल है.

इस पर शोध की कोई खास वजह?

इस पौधे की खूबी ही इस पर शोध की वजह है. यह अनाज वाली फसल है. यह लगने, पकने और सिंचाई में तकरीबन गेहूं जैसा ही है लेकिन इस की बढ़वार गेहूं से कई गुना बेहतर है. इसे मेंटेनैंस फ्री फसल भी कहा जा सकता है यानी वे किसान जिन के पास मैन पावर कम हो, वे भी इसे काश्त कर सकते हैं. इसे खाने में अकेला या दूसरे अनाज के साथ मिला कर भी उपयोग में लाया जा सकता है.

क्या यह सचमुच किसानों के लिए फायदे का सौदा हो सकता है?

देखिए, हम पिछले 3 सालों से इस पर शोध का काम कर रहे हैं और यह बात सामने आई है कि इस की खेती से किसानों को बहुत फायदा हो सकता है. हमारे रिसर्च सैंटर में हम ने 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर इस की पैदावार ली है, लेकिन हमारे प्रोत्साहन से यहां पास ही में रायसर गांव में एक खेत में लगी फसल से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार भी ली गई है.

हमारे देश में फिलहाल इस का ज्यादा प्रचारप्रसार नहीं हुआ है लेकिन विदेशों में इस की कीमत 500-1,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक है. वैसे, हम ने अपने यहां उगाए गए किनोआ को 60 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचा है.

Quinoa

क्या आप को यह लगता है कि इतना महंगा अनाज आम आदमी की पहुंच में हो सकता है?

यह आमतौर पर मैडिसिनल प्लांट है इसलिए औषधि के रूप में ज्यादा कारगर साबित हो सकता है. इसे वैल्यू एडेड प्रोडक्ट यानी दूसरे अनाजों के साथ मिला कर इस्तेमाल में लाया जाता है. इस में मैगनीज होता है जो दिल को मजबूती देता है. इस में एंटीऔक्सिडेंट है जो रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है.

इस के अलावा इस में चावल की तरह कार्बोहाइड्रेट भी होता है लेकिन इस में फाइबर की मात्रा ज्यादा होने से यह डायबिटीज के मरीजों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद है.

अभी आप ने बताया कि किनोआ का प्रचारप्रसार ज्यादा नहीं हुआ है तो आप इस के लिए क्या कोशिश कर रहे हैं?

आप जैसे लोग ही हमारी बात दूर तक पहुंचाएंगे. हम किसानों के लिए पैकेज तैयार कर रहे हैं. पैकेज यानी एक तरह की बुकलैट. इस बुकलैट में किनोआ से संबंधित जानकारी होगी, जैसे कितना बीज, कैसी मिट्टी, मिट्टी का कितना पीएच मान, कितना फर्टिलाइजर, कितनी सिंचाई, क्या बीमारी और उस का उपचार वगैरह. हम इच्छुक किसानों को अपने यहां विजिट करवा कर उन की जिज्ञासा का समाधान भी करते हैं.

आप ने इसे भविष्य की फसल क्यों कहा?

क्योंकि इस फसल को हम आने वाले समय में एक विकल्प के तौर पर इस्तेमाल करेंगे. अभी मैं ने बताया था कि यह डायबिटीज और दिल के मरीजों के लिए ज्यादा फायदेमंद है. हम देख रहे हैं कि इन मरीजों की तादाद में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है. ऐसे में हम इसे दूसरे विकल्प के तौर पर अनाज की तरह इस्तेमाल करेंगे.

दूसरी बात यह भी है कि अब आबोहवा में बदलाव हो रहा है. इस वजह से आने वाले समय में हमारी कुछ फसलें ज्यादा पैदावार देंगी तो कुछ का उत्पादन बहुत कम हो जाएगा.

अब सोचिए कि किसी एक ऐसे समय में जब हमारी क्रौप डाउन हो गई और हमारे पास सीरियल के रूप में कुछ न हो, तब यह फसल किनोआ अनाज के रूप में उभरेगी.

राजस्थान के अलावा इसे देश के किस भूभाग में लगाया जा सकता है?

जैसा कि मैं ने बताया था कि यह एक हार्डी पौधा है और यह किसी भी हालात में उग सकता है. इसे पानी और बेहतर मिट्टी व माकूल आबोहवा के मुताबिक कहीं भी लगाया जा सकता है.

किनोआ विदेशी फसल है. आप हमारे यहां इस का क्या भविष्य देखते हैं?

मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यह आने वाले समय में अनाज के एक बेहतरीन विकल्प के रूप में सामने आएगा. जैसेजैसे लोगों में इस के बारे में जागरूकता बढ़ेगी, वैसेवैसे लोग इस की मांग करेंगे और किसानों में इसे उगाने के प्रति रुझान बढ़ेगा.

अब आप बताइए कि कुछ साल पहले तक ओट्स के बारे में कितने लोग जानते थे, लेकिन आज उस के प्रचारप्रसार के चलते यह लोगों की जबान पर चढ़ा हुआ है. है तो वह भी एक फोडर क्रौप ही न. उसी तरह से सही प्रचारप्रसार से किनोआ भी जल्दी ही आम लोगों की जिंदगी में शामिल हो जाएगा क्योंकि यह कम मात्रा में अधिक पोषण देने वाला अनाज है.

मेरा दावा है कि यह किसानों के लिए किसी भी तरह से घाटे का सौदा नहीं है क्योंकि किसी मेंटेनैंस फ्री फसल का 60 रुपए प्रति किलोग्राम भी हो तो नुकसान नहीं है.

यदि किसान इसे उगाएं तो इस का मार्केट क्या है?

किनोआ लगाने की किसानों में काफी दिलचस्पी है लेकिन फिलहाल परेशानी मार्केट की है क्योंकि लोगों को इस के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. अभी तो इसे हमारे विभाग ने ही बीज के तौर पर खरीदा है लेकिन इस के पक्ष में मार्केट बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा. इस पर होने वाले शोध के काम और सैमिनार जैसेजैसे आम लोगों के बीच आएंगे, इस का भी अच्छाखासा मार्केट बन जाएगा.

क्या इसे प्रोसैस कर अनाज की तरह दूसरे उत्पाद भी बनाए जा सकते हैं?

सीधे खाने पर इस का स्वाद हलका सा कसैला होता है लेकिन कड़वा होने पर करेला भी तो खाया जाता है न. वैसे, किसी भी दूसरे सीरियल की तरह से इस से भी खीर, बिसकुट, दलिया, सूप वगैरह बनाए जा सकते हैं.

औषधीय फसल चंद्रशूर (Medicinal Crop Chandrashoor) की उन्नत खेती

सेहत के लिहाज से फायदेमंद मानी जाने वाली कई फसलें खेती न किए जाने से विलुप्त होने के कगार पर हैं. इन में कुछ ऐसी फसलें हैं, जो न केवल अपने औषधीय गुणों के चलते खास पहचान रखती हैं, बल्कि इन में उपलब्ध पोषक गुण व्यावसयिक नजरिए से भी बेहद खास माने जाते हैं.

ऐसी ही एक फसल का नाम है चंद्रशूर. इसे हालिम, हलम, असालिया, रिसालिया, असारिया, हालू, अशेलियो, चमशूर, चनसूर, चंद्रिका, आरिया, अलिदा, गार्डन-कैस,  लेपीडियम सेटाईवम आदि नामों से भी जाना जाता है.

इस औषधीय फसल की खेती पहले उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में व्यावसायिक स्तर पर खूब होती थी, लेकिन बीते 2 दशकों में इस की खेती सिमट कर छिटपुट रूप में होती है.

चंद्रशूर का औषधीय महत्त्व 

आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में चंद्रशूर के बीज का टूटी हड्डी को जोड़ने, पाचन प्रणाली और मन को शांत करने, सांस संबंधी रोगों, खूनी बवासीर, कैंसर, अस्थमा, सूजन, मांसपेशियों के दर्द आदि में प्रयोग किया जाता है. बच्चों के शरीर के सही विकास के लिए इस के बीज का पाउडर बहुत लाभकारी होता है.

इस के अलावा चंद्रशूर बच्चों की लंबाई बढ़ाने में भी खासा मददगार होता है. बच्चों की याददाश्त को बढ़ाने में भी यह सहायक है. इस के पौधे की ताजा पत्तियों को सलाद और चटनी के रूप में बना कर खाया जाता है. मूत्र संबंधी रोगों में पौधे का काढ़ा बना कर दिन में 3 बार सेवन करने पर लाभ मिलता है. दस्त में चंद्रशूर के बीज का चूर्ण बना कर चीनी अथवा मिश्री के साथ मिला कर उपयोग में लाया जाता है. इस के बीजों को एनीमिया से ग्रस्त मरीजों के इलाज के लिए भी उपयोग किया जाता है.

(Medicinal Crop Chandrashoor)

पोषक तत्त्वों से भरपूर

चंद्रशूर का वनस्पतिक नाम लेपीडियम सेटाईवम है. यह कुसीफेरी कुल का सदस्य है. इस का पौधा 30-60 सैंटीमीटर ऊंचा होता है, जिस की उम्र 3-4 माह होती है. इस के बीज लालभूरे रंग के होते हैं, जो 2-3 मिलीमीटर  लंबे, बारीक और बेलनाकार होते हैं. पानी लगने पर बीज लसलसे हो जाते हैं. यही लसलसा पदार्थ अरेबिक गम के विकल्प के रूप में उपयोग में लाया जाता है.

चंद्रशूर की खेती रबी के मौसम में की जाती है. इस का पौधा अलसी से मिलताजुलता है. बोआई अक्तूबर माह में की जाती है. इस के बीजों में प्रोटीन (25 फीसदी), वसा (24 फीसदी), कार्बोहाइड्रेट (33 फीसदी) और फाइबर (3 फीसदी) भी पाए जाते हैं. इस के अलावा इस में अन्य तत्त्व जैसे आयरन, कैल्शियम, फोलिक एसिड, विटामिन ए और सी भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं.

पशुओं के लिए भी है फायदेमंद

पशु डाक्टरों की मानें, तो चंद्रशूर के पौधों को बरसीम में मिला कर हरे चारे के रूप में उपयोग में लाने से बीजों में पाए जाने वाला गैलेक्टगौग तत्त्व लैक्टेशन (दूध) बढ़ाने में सहायक होता है और दूध में कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन एवं लैक्टोस में वृद्धि होती है.

यह डोपामिन रिसैप्टर के साथ क्रिया कर के प्रोलैक्टिन की मात्रा को बढ़ाता है. यह दूध की मात्रा बढ़ाने में भी सहायक होता है. इस से किसानों की आय में बढ़ोतरी की जा सकती है. चंद्रशूर को पशुओं को खिलाने से दूध की गुणवत्ता भी अच्छी हो जाती है.

उन्नत किस्में

चंद्रशूर की कुछ किस्मों, जिन की व्यावसायिक लैवल पर खेती की जाती है, में आरवीए-1007, जीए-1 एवं राज विजय-1007 प्रमुख हैं. हाल ही में हिसार के चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में विकसित की गई औषधीय फसल चंद्रशूर की उन्नत किस्म एचएलएस-4 पूरे देश विशेषकर उत्तरी हिस्से में खेती के लिए अनुमोदित की गई है.

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज के अनुसार, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के उपमहानिदेशक (फसल विज्ञान) डा. टीआर शर्मा की अध्यक्षता वाली फसल मानक अधिसूचना एवं फसल किस्म अनुमोदन केंद्रीय उपसमिति द्वारा चंद्रशूर की इस किस्म को समस्त भारत विशेषकर उत्तरी भारत (हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में खेती के लिए जारी की गई है.

चंद्रशूर की एचएलएस-4 किस्म के विकसित होने से हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर के किसान भी इस की खेती आसानी से कर सकेंगे.

इस वनस्पति का औषधि के रूप में प्रयोग होने वाला मुख्य भाग इस का बीज है. राष्ट्रीय स्तर पर एचएलएस-4 किस्म के बीज की पैदावार 10.58 फीसदी, जबकि उत्तरी भाग में 30.65 फीसदी अधिक दर्ज की गई है.

इस किस्म से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 306.71 किलोग्राम तेल प्राप्त होता है, जो चंद्रशूर की प्रचलित जीए-1 किस्म के लगभग समान (306.82 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) है.

चंद्रशूर की यह किस्म हकृवि के औषधीय, सगंध एवं क्षमतावान फसल अनुभाग के वैज्ञानिकों डा. आईएस यादव, डा. जीएस दहिया, डा. ओपी यादव, डा. वीके मदान, डा. राजेश आर्य, डा. पवन कुमार, डा. ?ाबरमल सुतालिया और डा. वंदना की कड़ी मेहनत का परिणाम है.

(Medicinal Crop Chandrashoor)

बोआई के लिए मिट्टी और खेत की तैयारी

चंद्रशूर की खेती करने के लिए अच्छे जल निकास और सामान्य पीएच मान वाली बलुईदोमट मिट्टी में इस की खेती होती है. मुख्य रूप से चंद्रशूर की खेती रबी सीजन वाली फसलों के साथ की जाती है. चंद्रशूर की बारानी और असिंचित अवस्था में पलेवा की गई नमीयुक्त मिट्टी में बिजाई की जाती है.

चंद्रशूर की बिजाई अक्तूबर माह के दूसरे पखवारे में की जा सकती है. सिंचित अवस्था में ही चंद्रशूर की बिजाई की जाए, तो वह सर्वोत्तम रहती है. चंद्रशूर की खेती के लिए सिंचित बलुईदोमट मिट्टी पर 2 बार हैरो से जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बनाने वाले यंत्र से भुरभुरा बना लेना चाहिए.

बीज की मात्रा

चंद्रशूर के बीज आकार में बहुत छोटे होते हैं, इसलिए एक एकड़ के लिए लगभग 1.5 से 2 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सैंटीमीटर और बीज की गहराई 1 से 2 सैंटीमीटर रखना उचित रहता है. बीज अधिक गहरा डालने पर अंकुरण पर बुरा प्रभाव पड़ने से कम जमाव होने का खतरा रहता है. बीजों का अंकुरण आमतौर पर 5 से 15 दिनों में हो जाता है.

खाद और उर्वरक की मात्रा

चंद्रशूर की खेती के लिए लगभग 6 टन प्रति एकड़ गोबर की अच्छी सड़ीगली खाद एकसाथ खेत की तैयारी से पहले भूमि में मिला दें. इस के साथसाथ खेत में 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 20 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ डाल कर मिला दें. पोटाश खाद बिजाई के समय जरूरत के मुताबिक डालना सही रहता है.

फसल की सिंचाई

चंद्रशूर की फसल असिंचित भूमि में ली जा सकती है, लेकिन अगर 2-3 सिंचाई उपलब्धता के आधार पर क्रमश: एक माह, 2 माह एवं ढाई माह पर सिंचाई करें, तो यह लाभकारी होता है.

बीज जमाव के समय मिट्टी में पर्याप्त नमी का रहना अति आवश्यक है. बोआई के समय अगर मिट्टी में पर्याप्त नमी न हो, तो बिजाई के तुरंत बाद हलका पानी लगाने से अंकुरण शीघ्र एवं पर्याप्त मात्रा में होता है. दूसरा जल छिड़काव दाना बनते समय अवश्य करना चाहिए. स्वस्थ फसल और अधिक पैदावार लेने के लिए 2 निराईगुड़ाई, बोआई के क्रमश: 3 एवं 6 हफ्ते बाद करनी चाहिए.

कीट व बीमारियों का नियंत्रण

चंद्रशूर की फसल में तेला (एफिड) और पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप देखा गया है. अगर फसल में तेला (एफिड) रोग का प्रकोप दिखाई देता है, तो एक मिलीलिटर मैलाथियान प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना लाभदायक रहता है. अगर फसल में पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप दिखाई पड़े, तो सल्फर डस्ट का छिड़काव करना भी हितकर रहता है.

90 से 120 दिन में पक कर तैयार होती है फसल

चंद्रशूर के पौधों में बोआई के 2 महीने बाद फूल आने शुरू हो जाते हैं. चंद्रशूर की फसल 90 से 120 दिन के भीतर पक कर कटाई के लिए तैयार हो जाती है. पत्तियां जब हरी से पीली पड़ने लगें या फल में बीज लाल रंग का हो जाए, तो यह समय कटाई के लिए उपयुक्त रहता है. हंसिए या हाथ से इसे उखाड़ कर खलिहान में 2-3 दिन सूखने के लिए डाल दें, फिर डंडे से पीट कर या ट्रैक्टर से मिंजाई कर बीज को साफ कर लें.

उपज

असिंचित भूमि में इस की उपज 10-12 क्विंटल और सिंचित भूमि में 14-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त की जा सकती है. इस के बीजों का बाजार भाव आमतौर पर 7,000 से 8,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक रहता है.

चंद्रशूर के औषधीय महत्त्व को देखते हुए इस के संरक्षण और व्यासायिक खेती के महत्त्व को ले कर सरकार और कृषि संस्थानों को आगे आ कर किसानों को जागरूक करने की जरूरत है. इसी के साथ देश के सभी राज्यों में चंद्रशूर की खेती को बढ़ावा मिले, इस के लिए चंद्रशूर की नई किस्मों को विकसित कर किसानों की आय में इजाफा भी किया जा सकता है.

Buckwheat: कुट्टू उगाने की नई तकनीक

Buckwheat कुट्टू की खेती दुनियाभर में की जाती है. चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, यूरोप, कनाडा समेत अन्य देशों में भी इस की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है. वहीं भारत की बात करें, तो उत्तरपश्चिमी हिमालयी क्षेत्रों में इस की खेती अधिक की जाती है.

किसान इस की खेती परंपरागत तरीके से करते हैं, जिस के चलते बेकार गुणवत्ता वाली कम पैदावार मिलती है. अधिक पैदावार लेने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली नई तकनीक को अपना कर कुट्टू (Buckwheat) की खेती की जानी चाहिए.

भूमि का चयन

कुट्टू (Buckwheat) को विभिन्न प्रकार की कम उपजाऊ मिट्टी में उगाया जा सकता है. वैसे, उचित जल निकास वाली दोमद मिट्टी इस के सफल उत्पादन के लिए सर्वोत्तम मानी गई है, लेकिन अधिक अम्लीय और क्षारीय मिट्टी इस के उत्पादन के लिए अच्छी नहीं होती है.

खेत की तैयारी

कुट्टू (Buckwheat) की अधिक पैदावार लेने के लिए खेत की तैयारी अच्छी तरह करनी चाहिए. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. उस के बाद 2 जुताई कल्टीवेटर या हैरो से आरपार करनी चाहिए, फिर पाटा लगा कर भूमि को समतल कर लेना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक

कुट्टू (Buckwheat) उत्पादन के लिए खाद एवं उर्वरकों की कम मात्रा में जरूरत होती है. वैसे, मिट्टी जांच के बाद ही खाद एवं उर्वरक का उपयोग करना सही रहता है.

यदि किसी कारणवश मिट्टी की जांच न हो सके, तो यहां दी गई मात्रा के अनुसार खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए :

गोबर की खाद : 10 टन

नाइट्रोजन : 40 किलोग्राम

फास्फोरस : 20 किलोग्राम

पोटाश : 20 किलोग्राम

गोबर की खाद को खेत की तैयारी से पहले खेत में समान रूप से बिखेर कर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए. साथ ही, फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा को अंतिम जुताई से पहले खेत में डालें. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा को बोआई के 50-60 दिन बाद खड़ी फसल में टौप ड्रैसिंग के दौरान डालें.

प्रवर्धन

ध्यान रखें कि कुट्टू (Buckwheat) का विस्तारण बीज द्वारा किया जाता है.

बीज दर

कुट्टू (Buckwheat) के उत्पादन के लिए प्रति हेक्टेयर 60-80 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार

कुट्टू (Buckwheat) के बीज को खेत में बोने से पहले कैपरौन 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करना चाहिए. इस से फसल को फफूंदी से होने वाले रोगों से बचाया जा सकता है.

बीजों को उपचारित करने के 10-15 मिनट बाद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से दोबारा उपचारित करने के 15-20 मिनट बाद बीज की बोआई कर देनी चाहिए.

आपसी दूरी व उचित समय

कुट्टू (Buckwheat) के बीजों को हमेशा पंक्तियों में बोना चाहिए. पंक्तियों और पौधों की आपसी दूरी 20×10 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. इस के अंकुरण के लिए 35 सैंटीमीटर सही माना जाता है. पर्वतीय क्षेत्रों में इस की बोआई मईजून माह में करनी चाहिए.

सिंचाई एवं जल निकासी

आमतौर पर कुट्टू (Buckwheat) को वर्षा आधारित फसल के रूप में उगाया जाता है. इस के सफल उत्पादन के लिए इस की फसल अवधि में फूल आने व दाने बनने के समय सिंचाई करनी चाहिए.

फसल सुरक्षा

खरपतवार नियंत्रण

चूंकि कुट्टू (Buckwheat) की फसल को खरीफ मौसम में उगाया जाता है, जिस के कारण फसल के साथसाथ खरपतवार भी उग जाते हैं, जो फसल के विकास की बढ़ोतरी और उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं.

फसल की शुरुआती अवस्था में खेत को खरपतवारों से मुक्त रखना बहुत जरूरी है, इसलिए जरूरत के अनुसार निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

रोग नियंत्रण

पत्ती झुलसा: यह एक फफूंदीजनित रोग है. यह रोग फूल बनने या फसल की शुरुआती अवस्था में होता है. रोग की शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर छोटेछोटे धब्बे आ जाते हैं, फिर बाद में पत्तियां गिर जाती हैं. ये छोटे धब्बे बाद में बड़े हो जाते हैं. इस वजह से पौधे की भोजन बनाने की प्रक्रिया पर बुरा असर पड़ता है. बाद में पूरा पौधा सूख जाता है.

इस रोग की रोकथाम के लिए रोग का शुरूआती लक्षण दिखाई देने पर 0.2 फीसदी कौपरऔक्साइड के घोल का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए.

कीट नियंत्रण

आमतौर पर इस फसल पर कोई कीट नहीं पनपता है.

फसल की कटाई

बीज बोने के 40-50 दिन बाद फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है. जब फसल में फूल आने शुरू हो जाते हैं, तो यह कटाई की सर्वोत्तम अवस्था होती है.

कुट्टू (Buckwheat) की फसल की कटाई का सब से बढि़या समय सितंबरअक्तूबर माह का होता है यानी दानों के बनने से पहले इस की कटाई कर लेनी चाहिए.

यदि कटाई देरी से की जाती है, तो उस में रूटीन की मात्रा 6 फीसदी से घट कर 3.8 फीसदी रह जाती है. यह कटाई का समय औषधि उत्पादन के लिए सब से बेहतर है. जब कुट्टू (Buckwheat) को इस के दाने के लिए उगाया जाता है, तब दाने पूरी तरह से पक जाने के बाद ही फसल की कटाई करनी चाहिए.

मड़ाई

फसल को 2-3 दिन सुखा कर फिर उस की गहाई करनी चाहिए. फसल के दाने और भूसे को अलगअलग कर लेना चाहिए.

उपज

कुट्टू (Buckwheat) की उपज कई बातों पर निर्भर करती है, जिस में भूमि की उर्वराशक्ति, फसल उगाने की विधि और फसल की देखभाल प्रमुख है.

यदि बताई गई नई तकनीक से इस की खेती की जाए, तो तकरीबन 10-12 क्विंटल दाने की उपज मिल जाएगी.

नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) कमाई से छाई बहार

राजस्थान का मारवाड़ इलाका लजीज खाने की वजह से दुनियाभर में अपनी खास पहचान रखता है, चाहे बीकानेर की नमकीन भुजिया हो या रसगुल्ले की बात हो या फिर जोधपुर के मिरची बड़े व कचौरी की, एक खास तसवीर उभर कर सामने आती है. वहीं दूसरी ओर इस इलाके में मसालों की खेती भी की जाती है. प्रदेश का नागौर जिला एक ऐसी ही मसाला खेती के लिए दुनियाभर में जाना जाता है और वह है कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की खेती.

डाक्टर और वैज्ञानिक कई तरह की बीमारियों के इलाज के लिए भी कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के इस्तेमाल की सलाह देते हैं. कई औषधीय गुणों से भरपूर इस मेथी का इस्तेमाल पुराने जमाने से ही पेट दर्द दूर करने, कब्जी दूर करने और बलवर्धक औषधीय के रूप में होता आया है.

मेथी (Fenugreek) की बहुउपयोगी पत्तियां सेहत के लिए फायदेमंद होने के साथसाथ खाने को लजीज बनाने में भी खास भूमिका निभाती है. खास तरह की खुशबू और स्वाद की वजह से मेथी का इस्तेमाल सब्जियों, परांठे, खाखरे, नान और कई तरह के खानों में होता है.

नागौर की यह मशहूर मेथी (Fenugreek) अंतर्राष्ट्रीय कारोबार जगत में बेहद लजीज मसालों के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है. अब तो मेथी (Fenugreek) का इस्तेमाल लोग ब्रांड नेम के साथ करने लगे हैं. सेहत की नजर से देखें तो मेथी (Fenugreek) में प्रचुर मात्रा में विटामिन ए, कैल्शियम, आयरन व प्रोटीन मौजूद है.

किसान सेवा समिति, मेड़ता के बुजुर्ग किसान बलदेवराम जाखड़ बताते हैं कि किसी जमाने में पाकिस्तान के कसूरी इलाके में ही यह मेथी (Fenugreek) पैदा होती थी, जिस के चलते इस का नाम कसूरी पड़ा. धीरेधीरे इस की पैदावार फसल के रूप में सोना उगलने वाली नागौर की धरती पर होने लगी.

आज हाल यह है कि नागौर दुनियाभर में कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) उपजाने वाला सब से बड़ा जिला बन गया है. यहां की मेथी (Fenugreek) मंडियों ने विश्व व्यापारिक मंच पर अपनी एक अलग जगह बनाई है. न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) बिकने के लिए जाती है.

नागौर के ही एक मेथी (Fenugreek) कारोबारी बनवारी लाल अग्रवाल के मुताबिक, कई मसाला कंपनियों ने कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को दुनियाभर में पहचान दिलाई है. देश की दर्जनभर मसाला कंपनियां कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को खरीद कर देशविदेश में कारोबार करती हैं. इसी वजह से इस मेथी (Fenugreek) का कारोबारीकरण हो गया है.

नागौर जिला मुख्यालय में 40 किलोमीटर की दूरी में फैले इलाके खासतौर से कुचेरा, रेण, मूंडवा, अठियासन, खारड़ा व चेनार गांवों में मेथी (Fenugreek) की सब से ज्यादा पैदावार होती है. मेथी (Fenugreek) की फसल के लिए मीठा पानी सब से अच्छा रहता है. चिकनी व काली मिट्टी इस की खेती के लिए ठीक रहती है.

कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की फसल अक्तूबर माह में बोई जाती है. 30 दिन बाद इस की पत्तियां पहली बार तोड़ने लायक हो जाती हैं. इस के बाद फिर हर 15 दिन बाद इस की नई पत्तियां तोड़ी जाती हैं.

मेथी (Fenugreek) के एकएक पौधे की पत्तियां किसान भाई अपने हाथों से तोड़ते हैं. लोकल बोलचाल में मेथी की पत्तियां तोड़ने के काम को लूणना या सूंठना कहते हैं. पहली बार तोड़ी गई पत्तियां स्वाद व क्वालिटी के हिसाब से सब  अच्छी होती है.

वर्तमान में मेथी (Fenugreek) की पैदावार में संकर बीज का इस्तेमाल सब से ज्यादा होता है. यहां के इसे किसान काश्मीरो के नाम से जानते हैं. कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) उतारने में सब से ज्यादा मेहनत होती है, क्योंकि इस के हरेक पौधे की पत्तियों को हाथ से ही तोड़ना पड़ता है.

कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek)

कैसे करें खेती

भारत में मेथी की कई किस्में पाई जाती हैं. कुछ उन्नत हो रही किस्मों में चंपा, देशी, पूसा अलविंचीरा, राजेंद्र कांति, हिंसार सोनाली, पंत रागिनी, काश्मीरी, आईसी 74, कोयंबूटर 1 व नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) खास हैं. इस की अच्छी खेती के लिए इन बातों पर ध्यान देना जरूरी है:

आबोहवा व जमीन : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की खेती के लिए शीतोष्ण आबोहवा की जरूरत होती है, जिस में बीजों के जमाव के लिए हलकी सी गरमी, पौधों की बढ़वार के लिए थोड़ी ठंडक और पकने के लिए गरम मौसम मिले. वैसे, यह मेथी हर तरह की जमीन में उगाई जा सकती है, लेकिन इस की सब से अच्छी उपज के लिए बलुई या दोमट मिट्टी बेहतर रहती है.

खाद व उर्वरक : अच्छी फसल के लिए 5 से 6 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत तैयार करते समय मिला देनी चाहिए. इस के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-40 किलो फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर देने से उपज में बढ़ोतरी होती है. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई से पहले देते हैं. बाकी नाइट्रोजन 2 बार में 15 दिन के अंतराल पर देते हैं.

बोआई : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को अगर बीज के रूप में उगाना है, तो इसे मध्य सितंबर से नवंबर माह तक बोया जाता है. लेकिन अगर इसे हरी सब्जी के लिए उगाना है तो मध्य अक्तूबर से मार्च माह तक भी बो सकते हैं. वैसे, सब से अच्छी उपज लेने के लिए नागौर इलाके में इसे ज्यादातर अक्तूबर से दिसंबर माह के बीच ही बोया जाता है.

इस की बोआई लाइनों में करनी चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी 15 से 20 सैंटीमीटर व गहराई 2 से 3 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. ज्यादा गहराई पर बीज का जमाव अच्छा नहीं रहता. बीज बोने के बाद पाटा जरूर लगाएं, ताकि बीज मिट्टी से ढक जाए. यह मेथी 8 से 10 दिनों में जम जाती है.

सिंचाई: कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के पौधे जब 7-8 पत्तियों के हो जाएं, तब पहली सिंचाई कर देनी चाहिए. यह समय खेत की दशा, मिट्टी की किस्म व मौसमी बारिश वगैरह के मुताबिक घटबढ़ सकता है. हरी पत्तियों की ज्यादा कटाई के लिए सिंचाई की तादाद बढ़ा सकते हैं.

फसल की हिफाजत : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) में पत्तियों व तनों के ऊपर सफेद चूर्ण हो जाता है व पत्तियां हलकी पीली पड़ जाती हैं. बचाव के लिए 800 से 1200 ग्राम प्रति हेक्टेयर ब्लाईटाक्स 500-600 लिटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़क दें.

पत्तियां व तनों को खाने वाली गिड़ार से बचाने के लिए 2 मिलीलिटर रोगर 200 लिटर पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करें. छिड़काव कटाई से 5 से 7 दिन पहले करें.

कटाई : हरी सब्जि के लिए बोआई के 3-4 हफ्ते बाद कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) कटाई के लिए तैयार हो जाती है. बाद में फूल आने तक हर 15 दिन में कटाई करते हैं. बीज उत्पादन के लिए 2 कटाई के बाद कटाई बंद कर देनी चाहिए.

उपज और स्टोरेज : सब्जी के लिए मेथी की औसत उपज 80 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व बीज के लिए 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल होती है. हरी सब्जी के लिए मेथी की पत्तियों को अच्छी तरह से सुखा कर एक साल तक स्टोर कर सकते हैं और बीज को 3 साल तक स्टोर किया जा सकता है.

गौरतलब है कि कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के बीजों का मसाले के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है.

पपीता (Papaya) लागत कम फायदा ज्यादा

पपीता एक जायकेदार फल होने के साथ ही कई खूबियों से भरपूर होता है. जब किसी को आंखों में कमजोरी या पेट की तकलीफ होती है, तब डाक्टर उसे पपीता खाने की सलाह देते हैं. पपीता हर जगह आसानी से मिलने वाला फल है.

किसानों के लिए पपीते की खेती करना काफी फायदे का सौदा साबित हो सकता है. पपीते की खेती में लागत कम आती है, लेकिन समयसमय पर उस की देखभाल बहुत जरूरी है. पपीते की खेती के लिए किसी खास किस्म की मिट्टी की जरूरत नहीं होती. इस की खेती किसी भी मिट्टी और जलवायु में आसानी से की जा सकती है.

पपीते की खेती के लिए ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती. अगर किसान जरा सी सावधानी से काम लें, तो कम लागत में अच्छी पैदावार कर के काफी मुनाफा कमा सकते हैं.

रोपाई : पौधे लगाने के लिए 1 या 2 मीटर की दूरी पर 50×50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद लेते हैं. 15-20 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद और 2 किलोग्राम आर्गेनिक खाद का मिश्रण मिट्टी में मिला कर सभी गड्ढों में जरूरत के हिसाब से भर देते हैं.

जिन इलाकों में पाला पड़ता है और सिंचाई के साधन मौजूद हों, वहां पौधे लगाने का काम फरवरीमार्च में करना चाहिए. उत्तर भारत में पौधे लगाने का काम आमतौर पर जुलाईअगस्त में किया जाता है.

वैसे तमाम प्रयोगों से साबित हो गया है कि अक्तूबरनवंबर में पौधे लगाने से विषाणु रोग का खतरा कम हो जाता है.

सिंचाई: पपीता उथली जड़ वाला पौधा है, इसलिए इसे ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है. यह पानी के भराव को सहन नहीं कर सकता. पपीते में कम दिनों पर हलकी सिंचाई करनी चाहिए. गरमी के दिनों में हर हफ्ते और सर्दी के मौसम में 10-15 दिनों पर सिंचाई करना ठीक रहता है. बारिश के मौसम की खेती के लिए सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती.

खरपतवारों से बचाव : पपीते की अच्छी फसल के लिए 20-25 दिनों के अंतराल में खरपतवार निकालते रहना चाहिए. इस से यह फायदा होता है कि पौधों का विकास तेजी से होता है. पेड़ों की कतारों के बीच में गुड़ाई करना जरूरी है. 2 कतारों के बीच पलवार बिछा देने से खरपतवार कम हो जाते हैं और नमी भी बनी रहती है.

कीड़ों और बीमारियों से बचाव

माहूं : पपीते में खासतौर से माहूं का प्रकोप होता है. ये पौधों का रस चूस कर फलों को नुकसान पहुंचाते हैं. इन से फलों को बचाने के लिए किसान नीम के काढ़े या गौमूत्र का छिड़काव कर सकते हैं.

लाल मकड़ी : ये कीड़े पत्तियों से रस चूस कर पौधों को कमजोर करते हैं. ज्यादा प्रकोप होने पर कीड़े फलों से भी रस चूसने लगते हैं. इन की रोकथाम के लिए गौमूत्र या नीम के काढ़े का छिड़काव करना चाहिए.

कालर राट : यह रोग पीथियम एफेनीडरमेटेम नामक कवक से फैलता है. इस के असर से जमीन के पास वाले तने पर धब्बे उभरते हैं और तना सड़ने लगता है. कुछ दिनों बाद पौधा गिर जाता है. इस की रोकथाम के लिए अरंडी की खली और नमी की खाद देना बहुत जरूरी है. इस के अलावा गौमूत्र या नीम के काढ़े का छिड़काव भी करते हैं.

आर्द्रगलन : यह नर्सरी का गंभीर रोग है, जो कई तरह के फफूंदों के आक्रमण की वजह से होता है. इस में पौधे जमीन के पास से सड़ने लगते हैं और गिर जाते हैं.

इस की रोकथाम के लिए केरोसिन तेल, गौमूत्र, नीम के तेल या नीम के काढ़े से बीच उपचारित कर के बोआई करते हैं और नर्सरी की मिट्टी में माइक्रो नीम की खाद और अरंडी की खली मिला कर पौधे तैयार करते हैं.

मौजेक : यह विषाणु से होने वाला रोग है, जो माहूं द्वारा फैलता है. भारत में पपीते की ज्यादातर प्रजातियां इस से प्रभावित होती हैं. इस के असर से पत्तियां चितकबरी हो जाती हैं और डंठल छोटे हो जाते हैं, नतीजतन फल कम लगते हैं. इस की रोकथाम के लिए माहूं की रोकथाम करना जरूरी होता है. माहूं की रोकथाम के लिए नीम के काढ़े या गौमूत्र का 10-15 दिनों में छिड़काव करें. मौसम खराब होने पर तुरंत छिड़काव करना चाहिए.

नीम का काढ़ा : नीम की 25 हरी व ताजी पत्तियां तोड़ें और कुचल कर पीस लें. फिर उन्हें 50 लीटर पानी में पकाएं. जब पानी घट कर 20-25 लीटर रह जाए, तब बरतन उतार कर उसे ठंडा करें और जरूरत के हिसाब से छिड़काव करें.

गौमूत्र : देशी गाय का 10 लीटर मूत्र ले कर पारदर्शी कांच या प्लास्टिक के जार में भर कर 10-15 दिनों तक धूप में रखें और उस के बाद जरूरत के मुताबिक छिड़काव करें.

फलों की तोड़ाई : जब फल पक जाते हैं, तो उन का रंग हरे से पीला हो जाता है. पके फलों को एकएक कर हाथ से तोड़ें. उन्हें जमीन पर न गिरने दें.

पपीता (Papaya)

पैदावार: पपीता के फलों की पैदावार प्रजातियों, जलवायु और रखरखाव पर निर्भर करती है. औसतन 1 पौधे से 15 से 50 किलोग्राम तक फल हासिल होते हैं. 1 हेक्टेयर से 400-500 क्विंटल तक उपज हासिल हो जाती है.

फलों का रखरखव : पपीता के फलों को बांस या प्लास्टिक की टोकरियों में भर कर शीतगृहों में रखा जाता है. पपीता के फल 7-8 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान और 80-90 फीसदी सापेक्ष आर्द्रता पर 3 हफ्ते तक सुरक्षित रखे जा सकते हैं.

पपेन निकलना : पपीते के फलों से हासिल दूध को सुखाने से जो सफेद पाउडर बनता है, उसे पपेन कहते हैं. पपेन का इस्तेमाल पेट की तमाम बीमारियों की दवा के तौर पर किया जाता है. इस का इस्तेमाल बवासीर, टेप वर्म, रिंग वर्म के इलाज में, मांस को मुलायम बनाने में, सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण में और ऊनी, रेशमी व सूती कपड़ों की सिकुड़न ठीक करने में किया जाता है.

जब पपीते का फल बड़ा हो जाता है, तब उस पर स्टील के चाकू से 3 मिलीमीटर गहरा खरोंच बनाया जाता है. खरोंचों से दूध टपकता है, उसे स्टेनलेस स्टील या कांच के बरतन में जमा कर लेते हैं.

इस दूध को 40 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान पर सुखा लिया जाता है. सुखाने से पहले इस में 0.05 पोटेशियम मेटा बायीसल्फाइट परीक्षक के रूप में मिलाते हैं. इसे कम तापमान पर ही सुखाते हैं, क्योंकि ज्यादा तापमान पर सुखाने से इस का पेपसिन एंजाइम खत्म हो जाता है. इसे रासायनिक विधि से शुद्ध किया जाता है.

पपीते की किस्में

वाशिंगटन : यह पश्चिमी भारत की खास किस्म है. इस के तने की गांठें और पत्तियों के डंठल बैगनी रंग के होते हैं. फल अंडाकार होते हैं और उन के गूदे का रंग पीला होता है. फलों का औसत वजन 1.5 से 2.5 किलोग्राम होता है.

कोयंबटूर : इस के पौधे बोने व एक लिंगी होते हैं. इस के फल 60-70 सेंटीमीटर की ऊंचाई से लगने शुरू हो जाते हैं. फलों का आकार गोल और औसत वजन 1.25 किलोग्राम तक होता है.

पूस डिलीशस : यह एक गाइनो डायोसियास किस्म है. इस के फल बहुत अच्छी क्वालिटी के होते हैं. फलों का वजन 1 से 2 किलोग्राम तक होता है.

पूसा मेजीसटी : इस किस्म का पौधा जमीन से 50-55 सेंटीमीटर ऊंचा हो जाने पर फलने लगता है. इस किस्म के एक पौधे से 30 से 40 किलोग्राम तक पैदावार हो जाती है.

पंत पपीता : यह किसम कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर ने विकसित की है. इस में फल जमीन से 50-60 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर लगते हैं. फलों का आकार मध्यम और औसत वजन डेढ़ किलोग्राम तक होता है. इस के फल खाने वालों को काफी पसंद आते हैं.

सूर्या : भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान बेंगलुरु ने इस संकर किस्म को विकसित किया है. इस के फल का औसत वजन 600-700 ग्राम तक हो जाता है. इस के गूदे का रंग लाल होता है. इस किस्म में 60 किलोग्राम प्रति पौधा तक पैदावार हो जाती है.

नीम से करें कीटनाशक (Insecticide) तैयार

भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां की बढ़ती जनसंख्या का असर आने वाले समय में खाद्यान्न पर पड़ेगा. देश में अनाज का उत्पादन तो बढ़ा है, लेकिन यह जनसंख्या के मुकाबले काफी कम है. यदि यही हाल रहा तो देश को फिर से खाद्यान्नों का आयात करना पड़ेगा.

इसलिए सरकार को इस दिशा में सावधानीपूर्वक कदम उठाने होंगे. किसानों की सब से बड़ी दिक्कत है कि वे अपनी फसलों को कीड़ेमकोड़ों से कैसे बचाएं. उन के पास संसाधनों की भारी कमी है. कोल्ड स्टोरेज में उपज रखना महंगा पड़ता है, साथ ही वहां तक उपज ले जाने में भी काफी भाड़ा लग जाता है.

आज अनाज को सुरक्षित रखने के लिए जिन कीटनाशकों या रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है, वे सेहत के लिए नुकसानदेय हैं, इन जहरीले कीटनाशकों से बचने के लिए किसान परंपरागत कीटनाशकों का इस्तमाल कर सकते हैं, इन के इस्तेमाल से अनाज को कीड़ेमकोड़ों व फफूंद और घुन से भी सुरक्षित रखा जा सकता है. पहले लोग कीटनाशक के तौर पर नीम का इस्तेमाल करते थे, जिस का सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ता था.

नीम का इस्तेमाल

* जब आप अनाज को इकट्ठा कर के रख रहे  तो उस दौरान अनाज में सूखी नीम की पत्तियां मिला दें, इस से घुन और अन्य कीड़ेमकोड़े नहीं लगते हैं और अनाज सुरक्षित रहता है.

* आप जिस जगह अनाज रख रहे हों, वहां अनाज रखने से पहले तकरीबन 3-4 इंच नीम की सूखी पत्तियों की परत बिछा देनी चाहिए. इस के बाद आप तकरीबन 2 फुट तक अनाज भरें, फिर नीम की पत्तियों की तह लगाते जाएं.

* कुछ किसान अनाज को जूट की बोरियों में भी भर कर रखते हैं, जिस बोरे में अनाज भरना हो, नीम की पत्तियां डाल कर उबाले गए पानी में रातभर भिगो दें, फिर बोरे को छांव में सुखा लें, उस के बाद उस में अनाज भरें. आप का अनाज एकदम सुरक्षित रहेगा.

* दालों के भंडारण के लिए 1 किलोग्राम दाल में 1 ग्राम नीम का तेल ऐसे मिलाएं जिस से वह पूरी तरह फैल जाए, जब दालों को पकाने के लिए निकालना हो, तब उसे अच्छी तरह धो कर इस्तेमाल करें, समय के साथ नीम के तेल की महक धीरेधीरे कम होने लगती है. जब दलहन को बोआई के लिए तैयार करना हो तो उस स्थिति में 1 किलोग्राम दाल बीज में 2 ग्राम नीम के तेल की जरूरत पड़ती है. इस विधि से दाल के बीज खराब नहीं होते.

* नीम की पकी निबौली को 12 से 18 घंटे पानी में भिगोएं, उस के बाद भीगी निबौली को लकड़ी के डंडे से चलाएं, जिस से निबौली के बीज का छिलका व गूदा अलग हो जाए, गूदा निकाल कर छाया में सुखाएं और सूखे गूदे को बारीक पीस कर पाउडर बना कर पतले सूती कपड़े में पोटली बना कर शाम को पानी में भिगो दें. सुबह पोटली को दबा कर उस निकाल लें और रस में 1 फीसदी साबुन मिला दें, अब आप तैयार निबौली कीटनाशक का खेत में छिड़काव कर सकते हैं.

* 1 हेक्टेयर क्षेत्र में छिड़काव के लिए 5 फीसदी घोल तैयार करने के लिए 25 किलोग्राम निबौली 500 लीटर पानी और 5 किलोग्राम साबुन की जरूरत होती है.

नीम की पत्तियों से कीटनाशक बनाने में किसानों को ज्यादा फायदा होता है, क्योंकि अन्य रासायनिक कीटनाशक बाजार में इस से महंगे मिलते हैं, जो स्वास्थ्य के अलावा मिट्टी के लिए भी हानिकारक हैं. नीम की पत्तियां हर जगह आसानी से मिल जाती हैं और इस पर किसी तरह का खर्च भी नहीं आता. किसानों के साथ ही अन्य लोग भी इस विधि से अपने अनाज को कीड़ेमकोड़ों, फफूंद और घुन से बचा सकते हैं.