लाल मूली (Red Radish) की अच्छी खेती कैसे करें

लाल मूली सब्जी बाजार की बड़ी दुकानों और बड़ेबड़े होटलों पर ज्यादा परोसी जाती है. इस का इस्तेमाल सलाद, परांठे और कच्ची सब्जी के रूप में ज्यादा किया जाता है. इस में गोलाकार और लंबे आकार की 2 किस्में होती हैं.

इस सब्जी को ज्यादातर कच्चा ही खाया जाता है. इस में तीखापन नहीं होता और यह स्वादिष्ठ होती है. इस में पोषक तत्त्वों की भरपूर मात्रा होती है. भोजन के साथ खाने से यह जल्दी पच जाती है व खून साफ करती है. छिलके के साथ इस का इस्तेमाल करना चाहिए.

सही जमीन व वातावरण : सफेद मूली की तरह ही लाल मूली भी हलकी बलुई दोमट मिट्टी में पैदा होती है. इसे हमेशा मेंड़ों पर ही लगाना चाहिए. लेकिन इस के लिए मिट्टी में भरपूर जीवांश पदार्थ मौजूद होने जरूरी हैं. इस के लिए जमीन का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए.

लाल मूली की खेती के लिए ठंडी जलवायु की जरूरत होती है, क्योंकि यह भी शरद ऋतु की फसल है. 30 से 32 डिगरी सैल्सियस तापमान इस की खेती के लिए जरूरी है. लेकिन 20 से 25 डिगरी सैल्सियस तापमान पर इस की अच्छी पैदावार होती है.

खेत की तैयारी : अच्छी फसल के लिए 4 से 5 जुताई जरूरी हैं. जड़ वाली फसल होने की वजह से इसे भुरभुरी मिट्टी की जरूरत पड़ती है. इसलिए इस की 1 से 2 जुताई मिट्टी पलटने वाले हल देशी हल से करें या फिर ट्रैक्टर ट्रिलर से करनी चाहिए. खेत को ढेलारहित और सूखी घासरहित होना जरूरी है.

ढेले न रहें, इस के लए हर जुताई के बाद पाटा चलाना जरूरी है. मिट्टी बारीक रहने से इस की जड़ें ज्यादा तेजी से बढ़ती हैं.

अच्छी किस्में : लाल मूली की 2 किस्में होती हैं. यह लंबी और गोल होती है. आमतौर पर इन्हीं किस्मों को ज्यादा उगाया जाता है. साथ ही, इन से ज्यादा उपज मिलती है.

* रैपिड रैड वाइट ट्रिटड (लंबी जड़ वाली)

* स्कारलेट ग्लोब (गोल जड़ वाली)

खाद और उर्वरक : सड़ी गोबर की खाद 8-10 टन प्रति हेक्टेयर और नाइट्रोजन 80 किलोग्राम, फास्फोरस 60 किलोग्राम और पोटाश 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए. फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई से पहले खेत में देनी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी आधी मात्रा बोआई के 15 से 20 दिन बाद देनी चाहिए.

बीज की मात्रा : लाल मूली के बीज की बोआई लाइन में करने पर 8-10 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है लेकिन छिड़काव विधि से बोने पर 12 से 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है.

बोआई का समय और तरीका : बोआई का सही समय मध्य सितंबर से अक्तूबर तक है, क्योंकि अगेती फसल की ज्यादा मांग होती है.

बोआई का तरीका लाइनों में मेंड़ बना कर करें तो ज्यादा अच्छा है. 10 से 12 सैंटीमीटर की दूरी पर बीज को 2 से 3 मिलीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए ताकि बीज पूरी तरह से अंकुरित हो सकें. गहरा बीज कम अंकुरित होता है. मेंड़ से मेंड़ की दूरी 45 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 8 से 12 सैंटीमीटर रखनी चाहिए.

सिंचाई: जब बीज अंकुरित हो कर 10 से 12 दिन हो जाएं, तब पहली सिंचाई करनी चाहिए. उस के बाद दूसरी सिंचाई के 10 से 12 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए. इस तरह 8 से 10 सिंचाई काफी होती हैं. खेत में पानी कम देना चाहिए जिस से मेंड़ें डूब न पाएं.

निराईगुड़ाई: मूली की फसल में निराईगुड़ाई की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है, क्योंकि 40 दिन में इस की फसल पूरी तरह से तैयार हो जाती है. जंगली घास या पौधों को हाथ से उखाड़ देना चाहिए. इस तरह जरूरत पड़ने पर जंगली घास निकालने के लिए 1-2 निराईगुड़ाई की जरूरत पड़ती है.

मिट्टी चढ़ाना : मूली बोने के लिए ऊंची मेंड़ें बनाना जरूरी हैं, क्योंकि यह जड़ वाली फसल है. ऐसा करने से इस की अच्छी उपज मिलती है.

मूली उखाड़ना : तैयार मूली को खेत से निकालते रहना चाहिए. इस तरह मूली की जड़ों को साफ कर के पत्तियों सहित मूली को बाजार या सब्जी की दुकानों पर बेचने के लिए भेजते हैं ताकि जड़ व पत्तियां मुरझा न पाएं और ताजी बनी रहें.

उपज : अच्छी देखभाल होने पर 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिल जाती है. जड़ों को ज्यादा दिन तक न रखें क्योंकि ये जल्दी खराब हो जाती हैं. समयसमय पर खुदाई भी करते रहना चाहिए.

बीमारियां और कीट रोकथाम : ज्यादातर पत्तियों पर धब्बे लगने वाली बीमारी लगती है. इस की रोकथाम के लिए फफूंदीनाशक दवा बाविस्टिन से बीज उपचारित कर के बोएं और 0.2 फीसदी के घोल का छिड़काव करें.

लाल मूली में ज्यादातर ऐफिड्स और सूंड़ी का असर होता है. उन कीटों की रोकथाम के लिए रोगोर, मेलाथियान का 1 फीसदी का घोल बना कर छिड़कें.

रेन गन से सिंचाई

हमारे यहां खेतीकिसानी करना कोई आसान काम नहीं है. इस के लिए दिनरात खेतों में मेहनत करनी पड़ती है. कैसा भी मौसम हो, किसान के कामों में रुकावट नहीं आ सकती, क्योंकि हर मौसम में खेतों में खाद, पानी, कीटनाशक और खरपतवारों की निराईगुड़ाई करनी पड़ती है.

सर्दियों में कड़ाके की ठंड में दिन हो या रात, किसान सिंचाई के लिए खेतों में जाते हैं. कभीकभी तो किसानों की सर्दी लगने से मौत भी हो जाती है,क्योंकि सिंचाई करने के लिए उन्हें खेतों में घुसना पड़ता है और वे ठंड की चपेट में आ जाते हैं.

रेन गन तरीके से सिंचाई करने में कम पानी लगता है और किसानों की मेहनत कम लगती है. साथ ही, उन की आमदनी में भी इजाफा होता है.

नई तकनीक के जमाने में किसानों की राह आसान करते हुए माहिरों ने रेन गन ईजाद की है. इस से किसानों को यह फायदा होगा कि वे खेतों में घुसे बिना बाहर से ही रेन गन के जरीए सिंचाई कर देंगे, जबकि अभी तक उन को अपनी जान जोखिम में डाल कर सिंचाई करनी पड़ती थी.

एक फायदा और होगा कि खेतों में बहुत ज्यादा पानी भरने की जरूरत नहीं होगी, बल्कि कम पानी में ही खेतों की सिंचाई हो जाएगी.

नई तकनीक से किसानों को खेतों में सिंचाई करना पहले के मुकाबले में अब आसान हो गया है. उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले में फसलों की सिंचाई के लिए किसानों ने रेन गन का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है.

सरकार किसानों की माली हालत देखते हुए इस में सब्सिडी भी दे रही है. जिले के कई किसानों को इस का फायदा दिया जा चुका है. संबंधित महकमे का टारगेट ज्यादा से ज्यादा किसानों तक इस तकनीक को पहुंचाना है, ताकि सुविधा के साथ ही पानी की भी बचत की जा सके.

देश के किसानों की समस्या यह है कि उन्हें जो भी स्कीम सरकार की तरफ से मिलती है, उस का ज्यादातर फायदा बड़े किसान ही उठाते हैं. छोटे किसानों को सरकार को दिखाने के लिए नाममात्र का फायदा दिया जाता है.

किसानों को रेन गन प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत दी जा रही है. इस स्कीम में किसानों को 3 इंच मोटे 20 फुट के 25 पाइप, 5 फुट का स्टैंड और रेन गन दी जाती है. इस की लागत 46,880 रुपए है.

किसानों को सब्सिडी में महज 11 हजार रुपए ही दिए जा रहे हैं. किसानों को यह फायदा डीबीटी योजना के तहत मिलता है.

rain gun irrigation

कृषि माहिरों का कहना है कि रेन गन से 25-30 मीटर तक सिंचाई की जा सकती है. यह चारों तरफ सिंचाई करती है. यदि किसान सिर्फ एक तरफ ही सिंचाई करना चाहें तो एक तरफ ही रेन गन लगाई जा सकती है.

उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में पानी का जमीनी लैवल काफी नीचे जा चुका है और कलक्ट्रेट ने ऐसे इलाकों में सबमर्सिबल बोर करवाने में रोक लगा रखी है.

इस फैसले से किसानों को नुकसान उठाना पड़ा था, लेकिन इस नए तरीके से उन के नुकसान की भरपाई की जा सकती है.

मक्का और गन्ने के लिए ज्यादा फायदेमंद : रेन गन मक्का और गन्ने की फसल के लिए काफी अच्छी है. इस का इस्तेमाल शुरुआती दौर में बागबानी में भी किया जा सकता है, खासकर पौधे जब छोटे हों.

5 फुट के पाइप को बीच में लगा कर चारों ओर बारिश कराई जा सकती है. इस तरीके से तकरीबन 1 एकड़ क्षेत्रफल में फायदा होगा.

मक्का और गन्ने की फसल के लिए रेन गन काफी कारगर साबित हो रही है. वजह यह है कि मक्का हो या गन्ना, इस के पौधे काफी बड़े और ऊंचे होते हैं. इस वजह से खेतों के अंदर जा कर सिंचाई करने में काफी परेशानी होती है. लेकिन इस के इस्तेमाल से बाहर से ही बड़े क्षेत्रफल में पानी की बारिश की जा सकती है.

सर्दियों के मौसम में आलू की फसल में हलकी सिंचाई की जरूरत पड़ती है. अभी तक किसानों की मुश्किल यह थी कि सिंचाई के नाम पर खेतों में खूब पानी भर दिया जाता था. इस से पानी की खपत भी ज्यादा होती थी और किसानों का खर्च भी ज्यादा होता था. आलू के खेतों में रेन गन से बारिश कराई जा सकती है और जो नमी बचती है, उसी में जुताई भी की जा सकती है. इस से पानी की तकरीबन 60 फीसदी बचत होती है और किसानों का खर्च भी कम होता है.

कुछ फसलें खेत में ज्यादा पानी भरने से खराब हो जाती हैं और पौधे कभीकभी सड़ भी जाते हैं, लेकिन रेन गन जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल की जा सकती है. इस में कम पानी की जरूरत होती है और फसल भी खराब नहीं होती.

इस नई तकनीक से किसानों को काफी फायदा हो सकता है. इसे एक किसान खरीद कर दूसरे किसान को किराए पर भी दे कर अपनी लागत निकाल सकता है. साथ ही, दूसरे किसान भी कम किराया अदा कर ज्यादा फायदा कमा सकते हैं.

मूंग की खेती (Moong Cultivation) जायद में भी

मूंग से कई तरह के मजेदार पकवान अकसर सभी घरों में बनते हैं. इन में मूंग का हलवा सब से खास है. मूंग की दाल से दही बड़ा, लड्डू, खिचड़ी, नमकीन, कचौड़ी, पकौड़े, सलाद, चाट, खीर, सूप और सैंडविच वगैरह बनाए जाते हैं. मूंग सेहत के लिए काफी फायदेमंद है, क्योंकि खाने के बाद यह जल्दी हजम हो जाती है. मूंग की खेती किसानों के लिए काफी लाभदायक है.

मूंग की खेती खासकर भारत में की जाती है. मूंग को अकसर छिलके या बिना छिलके के साथ अंकुरित या उबाल कर खाया जाता है. मूंग का इस्तेमाल सलाद, सूप, सब्जी और दूसरे स्वादिष्ठ पकवान बनाने के लिए किया जाता है.

मूंग से मिले स्टार्च को निकाल कर इस से जैली और नूडल्स बनाए जाते हैं. इन तमाम खूबियों की वजह से मूंग सभी को काफी पसंद आती है.

दलहनी फसलों में मूंग दूसरी दालों से ज्यादा उपयोगी है. यदि पेट में दर्द या दस्त हो रहे हों तो डाक्टर मरीज को मूंग की खिचड़ी खाने की सलाह देता है. इस में प्रोटीन भरपूर पाया जाता है, जोकि सेहत के लिए काफी खास है.

मूंग में 25 फीसदी प्रोटीन, 60 फीसदी कार्बोहाइड्रेट, 13 फीसदी वसा और कुछ मात्रा में विटामिन ‘सी’ पाया जाता है. मूंग की खासीयत यह है कि इस में वसा काफी कम है, लेकिन विटामिन ‘बी’ कौंप्लैक्स, कैल्शियम और पोटैशियम भरपूर होता है.

वातावरण और जमीन

मूंग की खेती खरीफ और जायद दोनों ही मौसमों में आसानी से की जा सकती है. इस की फसल को पकते समय शुष्क जलवायु की जरूरत पड़ती है.

मूंग की खेती के लिए अच्छी जलनिकासी की व्यवस्था होना काफी जरूरी है, साथ ही दोमट और बलुई दोमट जमीन इस की पैदावार के लिए काफी अच्छी मानी जाती है, जिस का पीएच मान 7-8 हो.

जिन खेतों में दीमक का अंदेशा हो, उन की सुरक्षा के लिए एल्ड्रिन 5 फीसदी चूर्ण 8 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से आखिरी जुताई से पहले खेत में बिखेर दें और उस के बाद जुताई कर उसे मिट्टी में मिला दें. मूंग की फसल में सिंचाई की जरूरत कम पड़ती है, लेकिन जायद की फसल में ज्यादा सिंचाई की जरूरत पड़ती है.

खेत की पहली जुताई हैरो या मिट्टी पलटने वाले रिजर हल से करनी चाहिए. इस के बाद 2 से 3 जुताई कल्टीवेटर से कर के खेत की मिट्टी को अच्छी तरह भुरभुरा बना लें. जब आखिरी जुताई करनी हो तब लेवलर लगाना काफी जरूरी होता है, ताकि खेत में नमी ज्यादा समय तक बरकरार रह सके.

पहले किसान परंपरागत तरीके से खेतों की जुताई करते थे, लेकिन अब आधुनिक तकनीक आने से ट्रैक्टर, पावर टिलर और रोटावेटर जैसे यंत्रों से खेतों की तैयारी काफी जल्द हो जाती है.

बीज की मात्रा और बीजोपचार : खरीफ के मौसम में मूंग का बीज जायद की फसल के मुकाबले काफी कम लगता है. इस मौसम में 6 से 8 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की जरूरत पड़ती है जबकि जायद की फसल में बीज की मात्रा 10-12 किलोग्राम प्रति एकड़ होनी चाहिए. 1 ग्राम कार्बंडाजिम, 2 से 3 ग्राम थायरम, फफूंदनाशक दवा से प्रति किलोग्राम बीज में मिला कर बोआई करने से बीज और जमीन की बीमारियों से फसल की सुरक्षा होती है. इस के बाद बीज को रायजोबियम कल्चर से उपचारित करें,

5 ग्राम रायजोबियम कल्चर प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें और बीज को छाया में सुखा कर जल्दी बोआई करनी चाहिए. इस के उपचार से राइजोबियम की गांठें ज्यादा बनती हैं और अच्छी फसल होती है.

बोने का समय और तरीका

खरीफ और जायद दोनों फसलों में अलगअलग बोआई की जाती है. खरीफ के मौसम में जुलाई के आखिरी हफ्ते से अगस्त के तीसरे हफ्ते तक बोआई करनी चाहिए. कूंड़ से कूंड़ की दूरी 30 से 35 सैंटीमीटर रखनी चाहिए और जायद में 10 मार्च से 10 अप्रैल तक बोआई करनी चाहिए. कूंड़ से कूंड़ की दूरी 25 से 30 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज की बोआई कूंड़ में 4 से 5 सैंटीमीटर की गहराई में करनी चाहिए, ताकि गरमी में जमाव अच्छा हो सके. जायद में या गरमी की फसल में बोआई के बाद लेवलर से खेत बराबर करना काफी जरूरी है, जिस से कि खेत की नमी न रहे.

खाद डालने का तरीका

किसानों की मुख्य समस्या यह है कि वह बिना मिट्टी जांच के अपने खेतों में ज्यादा पैदावार के लिए काफी ज्यादा उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं, जिस से उन की लागत बढ़ जाती है और खेतों की पैदावार आने वाले साल में घटने लगती है.

अनुमान के मुताबिक, 10 से 15 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर में इस्तेमाल करना चाहिए.

यदि किसान फसल की पैदावार ज्यादा लेना चाहते हैं तो इन्हें बोआई के समय कूंड़ों में बीज से 2 से 3 सैंटीमीटर नीचे देना चाहिए, जिस से अच्छी पैदावार हो.

मूंग की खेती (Moong Cultivation)

मूंग की प्रजातियां

मूंग में खासतौर पर 2 तरह की उन्नतशील प्रजातियां पाई जाती हैं. खरीफ की फसल में बोआई के लिए टाइप 44, पंत मूंग 1, पंत मूंग 2, पंत मूंग 3, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय ज्योति, मालवीय जनचेतना, मालवीय जनप्रिया, सम्राट, मालवीय जाग्रति, मेहा, आशा और मालवीय जनकल्याणी ये सभी किस्में खरीफ की फसल के लिए हैं.

इसी तरह जायद की फसल के लिए पंत मूंग 2, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय जाग्रति, सम्राट मूंग, जनप्रिया, मेहा, मालवीय ज्योति प्रजातियां काफी लाभकारी हैं.

कुछ प्रजातियां ऐसी हैं जो खरीफ और जायद दोनों में बोई जाती हैं और उन की पैदावार भी अच्छी होती है, जैसे कि पंत मूंग 2, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय ज्योति, सम्राट, मेहा, मालवीय जाग्रति.

किसानों को इस बात का खासा ध्यान रखना चाहिए कि मूंग की खेती करते समय वह अपने राज्यों के हिसाब से मूंग की प्रजाति का चुनाव करें, जिस से ज्यादा उत्पादन हो सके.

सिंचाई : खरीफ की फसल में सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन जब फूल आ जाएं और सूखने लगें, ऐसी हालत में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोतरी होती है. खरीफ की फसल में बारिश कम होने पर फलियां बनते समय सिंचाई की जरूरत पड़ती है और जायद की फसल में पहली सिंचाई बोआई के 30 से 35 दिन बाद और बाद में हर 10 से 15 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए, जिस से अच्छी पैदावार मिल सके.

निराईगुड़ाई : पहली सिंचाई के 30 से 35 दिन बाद निराईगुड़ाई करनी चाहिए. इस से खरपतवार नष्ट होने के साथसाथ हवा भी बहती है, जिस से फसल की बढ़ोतरी तेजी से होती है.

खरपतवार की रोकथाम के लिए किसान पेंडीमेथिलीन 30 ईसी की 3.3 लिटर या एलाकोलोर 50 ईसी 3 लिटर को 600 से 700 लिटर पानी में घोल कर बोआई 2 से 3 दिन के भीतर जमाव से पहले प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. ऐसा करने से खेतों में खरपतवार का जमाव नहीं होता.

पौध का रखरखाव : हर फसल में कोई न कोई बीमारी जरूर लगती है, चाहे खरीफ की फसल हो या फिर रबी और जायद की. कीटों के प्रकोप से बचने के लिए किसान समयसमय पर कई तरह की कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करते हैं, जिस से फसल की सुरक्षा की जा सके.

मूंग में पीला चित्रवर्ण मोजैक रोग लगता है. इस के विषाणु सफेद मक्खी के जरीए फैलते हैं. इस की रोकथाम के लिए समय पर बोआई करना काफी जरूरी है, दूसरा मोजेक अवरोधी प्रजातियों का इस्तेमाल बोआई में करना चाहिए. तीसरा, मोजेक रोग वाले पौधे को सावधानी से उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

मूंग की फसल में थ्रिप्स हरे फुदके वाला कीट और फलीछेदक कीट लगता है. इन से बचने के लिए किसानों को क्विनालफास 25 ईसी 1.25 लिटर मात्रा 600 से 800 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए, जिस से कीटों का असर न हो और फसल बरबाद न हो.

फसल की शुरुआती अवस्था में तनामक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफेद मक्खी, माहू, जैसिड, थ्रिप्स आदि का हमला होता है. इन की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी 400 से 500 मिलीलिटर क्विनालफास 25 ईसी 600 मिलीलिटर प्रति एकड़ या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी, 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें. यदि दोबारा जरूरत पड़े तो 15 दिन बाद फिर छिड़काव करें.

जब पौधों में फूल लगने लगते हैं तो फलीछेदक, नीली तितली का ज्यादा असर होता है. क्विनालफास 25 ईसी का 600 मिलीलिटर या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी का 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करने से इन की रोकथाम हो सकती है.

कई क्षेत्रों में कंबल कीड़े का ज्यादा असर होता है. इस की रोकथाम के लिए पेराथियान चूर्ण 2 फीसदी, 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

फसल की कटाईमड़ाई : जब फसल की फलियां पक कर सही तरीके से सूख जाएं, तब खेतों से फसल की कटाई करनी चाहिए. मूंग की फलियां पकने पर काली पड़ने लगती हैं. यदि थोड़ीबहुत नमी रहे तो फसल को खेतों में एकदो दिन के लिए छोड़ दें, ताकि सही तरह से सूख जाए. कटाई करने के बाद खलिहान में अच्छी तरह सुखा कर ही मड़ाई करें. इस के बाद ओसाई कर के बीज और भूसा अलगअलग कर लेना चाहिए.

उपज : यदि मूंग की फसल आधुनिक तकनीक से की जाए और सही वक्त पर फसल की सिंचाई और कीटनाशक दवा का छिड़काव किया जाए तो पैदावार ज्यादा होती है.

चूंकि मूंग की फसल साल में 2 मौसम में की जाती है, तो दोनों की पैदावार में भी थोड़ाबहुत फर्क रहता है. खरीफ की फसल में 4-5 क्विंटल प्रति एकड़ तक पैदावार होती है और जायद की फसल में तकरीबन 4 क्विंटल प्रति एकड़ तक की पैदावार हो जाती है.

भंडारण : किसी भी फसल का भंडारण करने से पहले कुछ सावधानियां बरतनी जरूरी हैं, तभी ज्यादा समय तक बीज सुरक्षित रहेगा, वरना उस में कीड़े पड़ जाते हैं. बीज भंडारण से पहले सही तरीके से सुखा लेना चाहिए. बीज में 8 से 10 फीसदी से ज्यादा नमी नहीं रहनी चाहिए.

मूंग के भंडारण में सूखी नीम की पत्ती का इस्तेमाल करने से कीड़ों से बचाव किया जा सकता है. कुछ किसान कीड़ों से अनाज बचाने के लिए सल्फास का इस्तेमाल करते हैं जो काफी नुकसानदायक है.

सल्फास काफी जहरीला होता है, इस के इस्तेमाल से सेहत पर बुरा असर पड़ता है. इसलिए किसानों को चाहिए कि वह अनाज की सुरक्षा के लिए परंपरागत तरीके अपनाएं, इस में सब से ज्यादा लाभदायक नीम की पत्तियां होती हैं, जिन से सालभर बीज सुरक्षित रहता है और सेहत के लिए किसी तरह का नुकसान भी नहीं होता.

पुदीना (Mint) उगा कर फायदा पाएं ज्यादा

पुदीना मेंथा लेमीएसी कुल का पौधा है. इस की 4 प्रजातियां हैं: जापानी, विलायती, स्पीयर और बारगामांट. यह दुनियाभर के तमाम देशों में उगाया जाता है.

सब से पहले इसे मिस्र में उगाया गया था. भारत में इसे पश्चिमी हिमालय, कश्मीर, पंजाब, कुमाऊं, गढ़वाल में उगाया जाता है. इस की 2 प्रजातियां ज्यादा उगाई जाती हैं, पहली जापानी और दूसरी विलायती.

यहां पर पुदीने की कारोबारी खेती 3 दशकों से की जा रही है. इन प्रजातियों में जापानी पुदीना सब से ज्यादा उगाया जाता है. इसे ब्राजील, जापान, चीन, फरमोसा और भारत के अलावा अब पूर्वी एशिया, विश्व के दूसरे देशों में भी उगाया जाता है.

जापानी पुदीने में 65-75 फीसदी मेंथाल पाया जाता है. इसे विदेशों में भेजा जाता है. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश का जापानी पुदीने के उत्पादन में पहला स्थान है, जबकि दूसरा स्थान राजस्थान का है.

पुदीना से सुगंधित तेल और इस में पाए जाने वाले दूसरे अवयवों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता है. इस के अलावा सौंदर्य प्रसाधनों, तमाम तरह की खाने की चीजों, मेंथाल बनाने, टौफी बनाने, पान मसालों को सुगंधित करने, सर्दीजुकाम, खांसी, कमरदर्द के मलहम बनाने, अच्छी क्वालिटी की शराब को सुगंधित करने, गरमी के मौसम में पेय पदार्थ बनाने के लिए दुनियाभर में इस्तेमाल किया जाता है.

जलवायु : इसे अलगअलग तरह की जलवायु में भी उगाया जा सकता है. लेकिन पिपरमैंट की खेती के लिए ठंडी जलवायु अच्छी मानी जाती है.

भारत के तराई वाले इलाकों में इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है. ऐसे इलाकों में खासतौर पर पहाड़ी क्षेत्र में जहां सर्द में पाला और बर्फ पड़ती हो, इस के सफल उत्पादन में रुकावट माने गए हैं. जहां न्यूनतम तापमान 5 डिगरी सैंटीग्रेड और अधिकतम तापमान 40 डिगरी सैंटीग्रेड तक जाता है, वहां पर भी इस की खेती की जा सकती है.

उत्तर प्रदेश में लखनऊ, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली, बाराबंकी, सीतापुर, जिले, नैनीताल, देहरादून (उत्तराखंड) में इस की खेती की जाती है. इस के अलावा हरियाणा, पंजाब, बिहार व मध्य प्रदेश की जलवायु भी पुदीना उगाने के लिए काफी अच्छी मानी गई है.

जमीन : इसे अलगअलग तरह की जमीनों में उगाया जा सकता है, लेकिन सही जलनिकास वाली रेतीली दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6-7 के बीच हो, अच्छी मानी गई है. ज्यादा अम्लीय या क्षारीय मिट्टी इस के लिए अच्छी मानी गई है. जमीन में जैविक पदार्थ प्रचुर मात्रा में होने चाहिए. अधिक देर तक नमी बनाए रखने वाली जमीन जो कभीकभी सूख भी जाए, इस के लिए अच्छी मानी गई है.

खेत की तैयारी : पुदीने की भरपूर उपज लेने के लिए खेत की तैयारी की खास अहमियत है. इसलिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. उस के बाद 2-3 जुताइयां आरपार करें. हर जुताई के बाद पाटा लगाएं. अगर जमीन में दीमक की संभावना हो तो 25 किलोग्राम लिंडेन डस्ट खेत की तैयारी के समय जरूर डालें.

खाद और उर्वरक : पुदीना की ज्यादा उपज लेने के लिए मिट्टी की जांच कराना काफी जरूरी है. मिट्टी की जांच के आधार पर ही खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए. अगर किसी वजह से मिट्टी की जांच न हो सके तो उस हालत में प्रति हेक्टेयर निम्न मात्रा में खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए:

* गोबर की खाद 15-20 टन

* नाइट्रोजन 120-150 किलोग्राम

* फास्फोरस 50-60 किलोग्राम

* पोटाश 50-60 किलोग्राम.

गोबर की खाद को खेत की तैयारी से पहले ही खेत में डाल कर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें. नाइट्रोजन की एकतिहाई मात्रा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को बोने से पहले खेत में मिला देना चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा को खड़ी फसल में 2-3 बार टौप ड्रैसिंग के रूप में डाल कर मिट्टी में मिला देना चाहिए. पहला बुरकाव रोपाई के बाद देना चाहिए.

अगर पत्तियां पीली पड़ जाएं तो उस स्थिति में 0.25 फीसदी  जिंक सल्फेट का घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. पहले छिड़काव के एक हफ्ते बाद दूसरा छिड़काव करना चाहिए.

रोपने का तरीका

सीधे रोपाई : यह विधि उन परिस्थितियों में ज्यादा उपयोगी पाई गई है, जहां रबी मौसम में खेत में कोई फसल न उगाई गई हो या पुदीना की फसल पहली बार उगाई जा रही हो.

इस विधि में सर्कस को सीधे तैयार खेत में 60-70 सैंटीमीटर की दूरी पर रोप दिया जाता है. अगर रोपाई जनवरीफरवरी माह में की जा रही है और उस खेत से 3 कटाइयां लेनी हों तो पंक्तियों की दूरी का ध्यान रखना बहुत जरूरी है. इस स्थिति में पंक्तियों की आपसी दूरी 75 सैंटीमीटर रखनी चाहिए, परंतु अगर रोपाई अप्रैलमई माह में करनी हो तो उस स्थिति में दूरी कम रखी जाती है. पौधे से पौधे की दूरी 4-5 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. रोपाई हल के पीछे बने कूंड़ों में की जानी चाहिए. सर्कस रोपते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे 5 सैंटीमीटर से ज्यादा गहराई पर न जाएं.

तैयार पौध की रोपाई: इस विधि में 500 किलोग्राम पौधे की जड़ (भूस्तारियों) की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. इन जड़ों के 9-10 सैंटीमीटर लंबे टुकड़ों को बोना चाहिए. रोपने से पहले इन्हें टेफासान फफूंदीनाशक घोल में 5-10 मिनट तक डुबो लेना चाहिए, ऐसा करने से कल्ले ज्यादा निकलते हैं और फसल भी अच्छी होती है.

साल के आखिर में आधा हेक्टेयर क्षेत्र में लगाए गए पौधे 10 हेक्टेयर क्षेत्र में लगाए जा सकते हैं.

उत्तरी भारत में इस की रोपाई जनवरीफरवरी माह में की जाती है. पौधों को नाली में 60-70 सैंटीमीटर की दूरी पर रोप दिया जाता है. इन्हें एकदूसरे पर चढ़ा हुआ या उन के सिरों को सटा कर मिट्टी से ढक दिया जाता है. अच्छा तो यह होगा कि देशी हल से कूंड़ बना कर रोपाई की जाए.

सिंचाई का इंतजाम

जांच से पता चलता है कि पुदीना की उपज और तेल की क्वालिटी पर सिंचाई का बहुत लाभदायक प्रभाव पड़ता है. पुदीना की सिंचाई सही समय और सही मात्रा में करनी चाहिए.

पहली सिंचाई रोपाई के तुरंत बाद करनी चाहिए, क्योंकि पौधों की बढ़वार गरमियों में होती है. इसलिए 10-12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए.

कटाई के तुरंत बाद भी सिंचाई करते रहना चाहिए, अन्यथा अंकुरित होने में दिक्कत पड़ सकती है. कटाई के एक सप्ताह पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए.

पुदीना में अधिक समय तक फालतू पानी के ठहराव को सहन करने की जरा भी कूवत नहीं होती है. इसलिए खेत में फालतू पानी को निकालने की सही व्यवस्था की जानी चाहिए.

फसल की सुरक्षा

पुदीना की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो पौधों की बढ़वार को प्रभावित करते हैं और उत्पादन पर भी प्रतिकूल असर डालते हैं. जांच से पता चला है कि रोपाई के 30-75 दिन और पहली कटाई से 15-45 दिन बाद खरपतवार हटाना बहुत ही जरूरी है. इसलिए खरपतवारों से फसल को छुटकारे के लिए फसल में 3 बार निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

पहली निराई रोपाई के एक महीने बाद, दूसरी 2 महीने बाद और तीसरी कटाई के 15 दिन बाद करनी चाहिए.

खरपतवारों के नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशकों का उपयोग भी किया जा सकता है. 3 किलोग्राम पेंडीमेथिलीन का 300 लिटर पानी में घोल बना कर रोपाई के तुरंत बाद छिड़काव करना चाहिए. ऐसा करने से फसल को 40-50 दिन तक खरपतवार नहीं उगेंगे. 7-8 टन प्रति हेक्टेयर धान की पुआल या गन्ने की सूखी पत्तियां भी पुदीने की पंक्तियों के बीच रोपाई के 30-35 दिन बाद पलवार के रूप में बिछाने से मोंथा नामक खरपतवार की रोकथाम हो जाती है.

कीट पर करें नियंत्रण

दीमक : यह कीट पुदीना की फसल को काफी नुकसान पहुंचाता है. इस कीट का हमला पौधों की जड़ों पर होता है. इस के चलते पौधे के ऊपरी भागों में पोषक तत्त्वों की पूर्ति नहीं हो पाती है. इस के चलते पौधे मुरझा जाते हैं और बढ़वार भी रुक जाती है. इस वजह से उपज पर उलटा असर पड़ता है.

इस की रोकथाम के लिए निम्न उपाय करने चाहिए:

* खेत की तैयारी के समय 25 किलोग्राम लिंडेन डस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से डालें.

* खेत में सही समय पर सिंचाई करें.

* खेत में खरपतवारों को न पनपने दें.

* इन जड़ों यानी भूस्तारियों को रोपने से पहले क्लोरीपाइरीफास 20 ईसी के घोल से उपचारित करें.

सफेद मक्खी: यह मक्खी 1-2 मिलीमीटर लंबी और दूधिया रंग की होती है. इस के शिशु और प्रौढ़ दोनों ही पुदीने की पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं. नतीजतन, पौधों की बढ़वार रुक जाती है. पौधे में प्रकाश संश्लेषण क्रिया बंद हो जाती है.

इस कीट की रोकथाम के लिए फास्फेमिडान के 200 मिलीलिटर को 700 लिटर पानी में मिला कर पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती लपेटक कीट : इस की सूंड़ी हरे रंग की होती है, जिस के ऊपर लाल व पीले रंग की बिंदियां पाई जाती हैं. सूरज की रोशनी तेज होने पर इस की सूंडि़या क्रियाशील हो जाती हैं, जो शुरू में पत्तियों की ऊपरी कोशिकाओं को खाती हैं. एक सूंड़ी 2-3 पत्तियों पर 10-12 दिन तक रहती है. इस के प्रकोप से पुदीना के शाक और तेल उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ता है.

इस कीट की रोकथाम के लिए इकालक्स 300-400 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर 625 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

माहू : यह कीट पौधे के कोमल हिस्सों का रस चूसता है. इस के शिशु और प्रौढ़ दोनों ही ज्यादा तादाद में बड़ी जल्दी पनपते हैं. इस वजह से पौधे की बढ़वार पर प्रतिकूल असर पड़ता है. यह कीट विषाणु रोग फैलाने में मददगार होता है.

इस कीट की रोकथाम के लिए मैटासिस्टाक्स 25 ईसी का 1 फीसदी घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

रोएंदार सूंड़ी : यह सूंड़ी पीले भूरे रंग की रोएंदार 2.5 से 3.0 सैंटीमीटर लंबी होती है. इस का प्रकोप अप्रैलमई में शुरू हो जाता है, जो कभीकभी अगस्त तक चलता रहता है. इस की सूंड़ी पत्तियों के हरे ऊतकों को खा कर कागज की तरह जालीदार बना देती है. इस से पौधे की कूवत कम हो जाती है और फसल की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

इस कीट की रोकथाम के लिए 1.25 लिटर थायोडान 50 ईसी या मेलाथियान 50 ईसी को 1000 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

सेमी लूपर : इस कीट की सूंड़ी 3-4 मिलीमीटर लंबी और हरे रंग की होती है. इस के शरीर के किनारों पर दोनों ओर लंबाई में सफेद रेखा होती है. इस कीट का प्रकोप पुदीना की दूसरी फसल लेने पर होता है.

इस कीट को खत्म करने के लिए मेलाथियान 300 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 625 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

रोग पर नियंत्रण

भूस्तारी यानी जड़ विगलन : यह रोग मैक्रोफोनिया फैसिवोलामी और पिथियम प्रजातियों की फफूंदियों की वजह से होता है. शुरू में यह रोग खेत के कुछ भाग में शुरू हो कर सारे खेत की फसल को खराब कर देता है.

प्रकोप की शुरुआती अवस्था में जड़ों पर भूरे मृत चिह्न दिखाई देते हैं, जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं और आखिर में सड़ने लगते हैं. पत्तियां पीली पड़ कर बेकार हो जाती हैं.

रोकथाम के उपाय

* इन जड़ों को रोपने से पहले किसी फफूंदीनाशक दवा से उपचारित करना चाहिए.

* जल भराव से बचाव के लिए भूस्तारियों की रोपाई मेंड़ों पर करनी चाहिए.

रतुआ : यह रोग पक्सिनिया मेंथाल नामक फफूंदी की वजह से होता है. आमतौर पर इस रोग के लक्षण वसंत ऋतु में दिखाई देते हैं. रोगी पौधों के तने फूलना, सेंढ़ना, पत्तियों का मुरझाना वगैरह चिह्न प्रकट होने लगते हैं. पत्तियों का रंग हलका हो जाता है और तने कटफट जाते हैं.

पौधों की पत्तियों पर जीवाणुओं का प्रकोप हो जाता है, जिस के चलते पत्तियों पर सुनहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, जो बाद में भूरे रंग की हो जाती हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए कैराथन 2.5 किलोग्राम मात्रा को 1125 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

पत्ती धब्बा : यह रोग केराइनास्पोरा कैसीकोला नामक फफूंदी के प्रकोप से होता है. रोगी पौधों की पत्तियों की ऊपरी सतह भूरे रंग की हो जाती है. अत्यधिक प्रकोप की अवस्था में पत्तियां गिर जाती हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए कौपर औक्सीक्लोराइड या डायथेन एम. 45 के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

चूर्णिल आसिता : यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसियेरस नामक फफूंदी की वजह से होता है. पौधे पर सफेद चूर्ण जैसा दिखाई देता है. इस वजह से पौधे के भोजन बनने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

इस रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक के 0.25 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

जड़ व तना विगलन : यह रोग थिलेविया वैसिकौला नामक फफूंदी के चलते होता है. इस के प्रकोप से पुदीना की जड़ों के ऊपर काले बैंगनी रंग के धब्बे हो जाते हैं, जो बाद में सड़ने शुरू हो जाते हैं. धीरेधीरे धब्बे जड़ों से बढ़ कर तनों की ओर बढ़ने लगते हैं. नतीजा पौधे पोषक तत्त्व न मिलने के चलते विकसित होने से पहले सूखने लगते हैं. बाद में पौधा बीमारी के चलते खराब हो जाता है. यह रोग सितंबर से दिसंबर माह तक फैलता है.

इस रोग की रोकथाम के लिए ये उपाय करने चाहिए:

* रोपने के पहले भूस्तारियां यानी जड़ों के 0.3 फीसदी मैंकोजेब के घोल में आधा घंटा तक डुबो कर रखें.

* मैंकोजेब 3 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से घोल बना कर खेत में रोपाई से पहले छिड़काव करें.

कटाई : पुदीना की कटाई हमेशा सही समय पर ही करनी चाहिए अन्यथा इस की उपज और क्वालिटी दोनों पर प्रतिकूल असर पड़ता है. इस की पहली कटाई 100-120 दिन बाद की जानी चाहिए. दूसरी कटाई पहली कटाई के 60-70 दिन बाद करनी चाहिए. हर साल इस की कटाई की तादाद जलवायु के मुताबिक 2-3 बार की जा सकती है.

जब पौधा खूब फूला हो और फूल आने शुरू हो जाएं तो इस समय तेल की मात्रा सर्वोत्तम होती है. उसी समय कटाई करना अच्छा माना गया है.

यदि इस अवस्था से पहले कटाई कर ली जाएगी तो तेल में मेंथाल की कम मात्रा मिलेगी. यदि कटाई देर से की जाएगी तो पत्तियों के सूखने से तेल की मात्रा घट जाएगी.

उत्तर भारत में पुदीना 1, 2 या 3 बार फूलता है, इसलिए 2 कटाई मईजून और अगस्तसितंबर के महीनों में की जानी चाहिए.  तीसरी कटाई दूसरी कटाई के 65-70 दिन बाद करनी चाहिए, परंतु हर हाल में नवंबर के आखिर तक जरूर कटाई कर लेनी चाहिए.

कटाई करते समय मौसम साफ होना चाहिए और धूप निकली होनी चाहिए. कटाई हंसिया से जमीन की सतह से 4-5 सैंटीमीटर की ऊंचाई पर करनी चाहिए, ताकि पौधों का फुटाव जल्दी और सुगमता से हो सके.

काटी गई फसल का ढेर नहीं लगाना चाहिए, बल्कि जब पत्तियों में नमी कम हो जाए, तब उन्हें इकट्ठा कर तेल निकालने के लिए मशीन पर ले जाना चाहिए. यदि किसी वजह से तेल निकालने में देरी हो तो फसल को छाया में फैला कर रखना चाहिए.

नीम से करें कीटनाशक (Insecticide) तैयार

भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां की बढ़ती जनसंख्या का असर आने वाले समय में खाद्यान्न पर पड़ेगा. देश में अनाज का उत्पादन तो बढ़ा है, लेकिन यह जनसंख्या के मुकाबले काफी कम है. यदि यही हाल रहा तो देश को फिर से खाद्यान्नों का आयात करना पड़ेगा.

इसलिए सरकार को इस दिशा में सावधानीपूर्वक कदम उठाने होंगे. किसानों की सब से बड़ी दिक्कत है कि वे अपनी फसलों को कीड़ेमकोड़ों से कैसे बचाएं. उन के पास संसाधनों की भारी कमी है. कोल्ड स्टोरेज में उपज रखना महंगा पड़ता है, साथ ही वहां तक उपज ले जाने में भी काफी भाड़ा लग जाता है.

आज अनाज को सुरक्षित रखने के लिए जिन कीटनाशकों या रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है, वे सेहत के लिए नुकसानदेय हैं, इन जहरीले कीटनाशकों से बचने के लिए किसान परंपरागत कीटनाशकों का इस्तमाल कर सकते हैं, इन के इस्तेमाल से अनाज को कीड़ेमकोड़ों व फफूंद और घुन से भी सुरक्षित रखा जा सकता है. पहले लोग कीटनाशक के तौर पर नीम का इस्तेमाल करते थे, जिस का सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ता था.

नीम का इस्तेमाल

* जब आप अनाज को इकट्ठा कर के रख रहे  तो उस दौरान अनाज में सूखी नीम की पत्तियां मिला दें, इस से घुन और अन्य कीड़ेमकोड़े नहीं लगते हैं और अनाज सुरक्षित रहता है.

* आप जिस जगह अनाज रख रहे हों, वहां अनाज रखने से पहले तकरीबन 3-4 इंच नीम की सूखी पत्तियों की परत बिछा देनी चाहिए. इस के बाद आप तकरीबन 2 फुट तक अनाज भरें, फिर नीम की पत्तियों की तह लगाते जाएं.

* कुछ किसान अनाज को जूट की बोरियों में भी भर कर रखते हैं, जिस बोरे में अनाज भरना हो, नीम की पत्तियां डाल कर उबाले गए पानी में रातभर भिगो दें, फिर बोरे को छांव में सुखा लें, उस के बाद उस में अनाज भरें. आप का अनाज एकदम सुरक्षित रहेगा.

* दालों के भंडारण के लिए 1 किलोग्राम दाल में 1 ग्राम नीम का तेल ऐसे मिलाएं जिस से वह पूरी तरह फैल जाए, जब दालों को पकाने के लिए निकालना हो, तब उसे अच्छी तरह धो कर इस्तेमाल करें, समय के साथ नीम के तेल की महक धीरेधीरे कम होने लगती है. जब दलहन को बोआई के लिए तैयार करना हो तो उस स्थिति में 1 किलोग्राम दाल बीज में 2 ग्राम नीम के तेल की जरूरत पड़ती है. इस विधि से दाल के बीज खराब नहीं होते.

* नीम की पकी निबौली को 12 से 18 घंटे पानी में भिगोएं, उस के बाद भीगी निबौली को लकड़ी के डंडे से चलाएं, जिस से निबौली के बीज का छिलका व गूदा अलग हो जाए, गूदा निकाल कर छाया में सुखाएं और सूखे गूदे को बारीक पीस कर पाउडर बना कर पतले सूती कपड़े में पोटली बना कर शाम को पानी में भिगो दें. सुबह पोटली को दबा कर उस निकाल लें और रस में 1 फीसदी साबुन मिला दें, अब आप तैयार निबौली कीटनाशक का खेत में छिड़काव कर सकते हैं.

* 1 हेक्टेयर क्षेत्र में छिड़काव के लिए 5 फीसदी घोल तैयार करने के लिए 25 किलोग्राम निबौली 500 लीटर पानी और 5 किलोग्राम साबुन की जरूरत होती है.

नीम की पत्तियों से कीटनाशक बनाने में किसानों को ज्यादा फायदा होता है, क्योंकि अन्य रासायनिक कीटनाशक बाजार में इस से महंगे मिलते हैं, जो स्वास्थ्य के अलावा मिट्टी के लिए भी हानिकारक हैं. नीम की पत्तियां हर जगह आसानी से मिल जाती हैं और इस पर किसी तरह का खर्च भी नहीं आता. किसानों के साथ ही अन्य लोग भी इस विधि से अपने अनाज को कीड़ेमकोड़ों, फफूंद और घुन से बचा सकते हैं.

केला फसल कीड़े व बीमारियां की रोकथाम

आज कुछ किसानों के लिए खेती जहां घाटे का सौदा साबित हो रही है, वहीं देश के कई किसानों ने केले की खेती की बारीकियों, नई तकनीकों और वैज्ञानिक पहलू से सफलता हासिल की है. केले की फसल से ज्यादा पैदावार लेने और उम्दा किस्म का केला हासिल करने के लिए जरूरी है कि केले की खेती के हर तकनीकी पहलू को सही तरीके से अपनाया जाए. दुनियाभर में केला एक महत्त्वपूर्ण फसल है.

देश में तकरीबन 4.9 लाख हेक्टेयर जमीन पर केले की खेती की जाती है. इस की खेती के लिए पानी सोखने वाली जमीन ज्यादा मुफीद रहती है.

कीड़े व बीमारियां

प्रकंद छेदक कीट : इस कीट का वैज्ञानिक नाम कास्मोपोलाइट्स साडिडस है. इस का असर पौध लगाने के 1-2 महीने बाद ही शुरू हो जाता है. शुरुआत में ये कीट तने में छेद कर के तने को खाते हैं, जो बाद में राइजोम की तरफ चले जाते हैं. इस के असर से पौधों की बढ़ोतरी धीमी पड़ जाती है, वे बीमार दिखने लगते हैं और पत्तियों पर पीली धारियां उभर आती हैं. इस कीट के ज्यादा असर से पत्तियों और धारियों का आकार छोटा हो जाता है.

रोकथाम

* हमेशा स्वस्थ सकर ही चुनें.

* लगातार एक ही खेत में केले की फसल न लें.

* सकर को रोपाई से पहले 0.1 फीसदी कीनालफास के घोल में डुबोएं.

* रोपाई के समय क्लोरोपायरीफास चूर्ण प्रति गड्ढे की दर से मिट्टी में मिलाएं.

* प्रभावित और सूखी पत्तियों को काट कर जला दें.

* कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधे पर इस्तेमाल से इस कीट की रोकथाम होती है.

केला फसल (banana crop)

तनाबेधक कीट : इस कीट का वैज्ञानिक नाम ओडोइपोरस लांगिकोल्लिस है. इस कीड़े के असर से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में तने पर छेद दिखाई देते हैं. उस के बाद तने से गोंद जैसा लिसलिसा पदार्थ निकलना शुरू हो जाता है. इस कीट के असर से पौधों पर फूल नहीं आते या फूलों की संख्या काफी कम रहती है. घार का आकार काफी छोटा रह जाता है और फल ठीक तरह से नहीं पनप पाते हैं.

रोकथाम

* रोग प्रभावित पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें.

* प्रकंदछेदक कीट की रोकथाम के उपाय करें.

माहू : इस कीट का वैज्ञानिक नाम पेंटालोनिया नाइग्रोनर्वोसा है. यह पौधों से रस चूस कर इस की बढ़ोतरी को प्रभावित करता है और शीर्ष गुच्छ रोग पैदा करने वाले विषाणुओं का फैलाव करता है.

रोकथाम

* प्रभावित पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें.

* प्रभावित इलाके में पेड़ी फसल न लें.

* डायमिथोएट 2 मिलीलीटर की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करें.

सिगाटोका पत्ती धब्बा : यह रोग सरकोस्पोरा म्यूजीकोला नामक फफूंद से पनपता है. इस रोग की शुरुआत में पत्ते की बाहरी सतह पर पीले धब्बे बनने शुरू हो कर बाद में लंबी काली धारियों के रूप में बदल जाते हैं और बड़ेबड़े धब्बों का रूप ले लेते हैं. इस तरह के धब्बे पत्तियों के किनारे और अगले हिस्से में ज्यादा पाए जाते हैं.

खास किस्मों में 2-3 पत्तियों को छोड़ कर बाकी पत्तियां इस रोग से सूख जाती हैं. साथ ही, फलों का आकार भी छोटा रहता है और समय से पहले ही फल पक जाते हैं. वातावरण में नमी ज्यादा होने और औसत तापमान के कम होने से रोग का असर ज्यादा होता है.

पर्ण धब्बा : यह रोग ग्लोइयोस्पोरियम म्यूजी और टोट्रायकम ग्लोइयोस्पोरियोडियम नामक विषाणुओं से होता है. इस रोग में पत्तियों के सिरे पर हलके भूरे या काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जिस से बाद में पत्तियां सूख जाती हैं और पैदावार पर उलटा असर पड़ता है.

रोकथाम

कार्बेंडाजिम 1 ग्राम या कवच 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

उकठा रोग : यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम किस्म की यूबेंस नामक फफूंद से होता है. इस के लक्षण पौध लगाने के 5 से 8 महीने में दिखाई देते हैं.

पुरानी पत्तियों में पीलापन किनारे से शुरू हो कर मध्य की तरफ बढ़ता है और पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है.

पत्तियां तने के चारों ओर गोलाई में लटक जाती हैं. तने का निचला भाग लंबाई में फट जाता है. 1 से 2 महीने के भीतर पौधा मर जाता है.

रोकथाम

* कंदों को कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में डुबो कर रोपाई करें.

* रोपाई के 5 महीने बाद खेत में कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर 2 महीने में 1 बार टोआ दें.

टिप ओवर : यह रोग इर्विनया केरोटोवोरा नामक जीवाणु से होता है.

इस रोग में राइजोम में सड़न पैदा होने लगती है. इस से प्रभावित पौधा मुलायम हो जाता है और पत्तियां भी पीली पड़ने लग जाती हैं.

रोकथाम

* स्ट्रप्टोसाइक्लिन 750 पीपीएम कापरआक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

banana crop

सिगार गलन : यह रोग वर्टिसीलियम थियोब्रामी नामक फफूंद से होता है. यह बरसात में ज्यादा होता है. अधपके फलों के सिरे से सड़न शुरू हो कर धीरेधीरे आगे तक फैल जाती है.

रोकथाम

इस रोग की रोकथाम के लिए फल आने के दौरान थायोफेनेटमिथाइल या बिटरटेनाल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

शीर्ष विषाणु रोग : यह रोग विषाणु द्वारा होता है. इस रोग में पत्तियों के बीचोंबीच गहरी धारियां शुरुआती लक्षण के रूप में दिखाई देती हैं. इस से पत्तियों का आकार काफी छोटा हो जाता है. इस रोग से प्रभावित पौधों की बढ़ोतरी कम होती है और इन में फूल नहीं आते हैं. इस विषाणु का फैलाव माहू द्वारा होता है.

रोकथाम

* रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट करें.

* रोगवाहक कीट माहू की रोकथाम करें.

* माहू की रोकथाम के लिए डायमिथोएट 2 मिलीलिटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

केले का धारी विषाणु : यह रोग विषाणु से होता है. इस रोग में पत्तियों पर छोटेछोटे पीले धब्बे बनते हैं और पत्तियां सड़ने लगती हैं. इस रोग से केले की पैदावार में 30-40 फीसदी तक की कमी हो सकती है. यह रोग मिली बग से फैलता है.

रोकथाम

* रोगी सकर की रोपाई न करें.

* मिली बग कीट की रोकथाम करें.

banana crop

नेमाटोड : नेमाटोड से केले की पैदावार में करीब 20 फीसदी की कमी आती है. केला बुरोइंग नेमाटोड रेडोफोलस सिमिलिस, लीजन नेमाटोड, प्रैटिलेंकस काफफिर्ड, स्पाइरल नेमाटोड, हेलाकोटीलेप्चस मल्टीसिनकट्स और सिस्ट नेमाटोड, हेटेरोठोरा स्पी से प्रभावित होता है.

नेमाटोड के हमले से पौधों की बढ़वार धीमी पड़ जाती है, तना पतला रह जाता है, पत्तियों पर धब्बे बन जाते हैं और घार का आकार काफी छोटा रह जाता है. इन के लक्षण जड़ों और कंदों पर ज्यादा दिखाई देते हैं. इन से प्रभावित पौधे खेत में नमी होने पर हलकी तेज हवा से भी गिर जाते हैं.

रोकथाम

* प्रभावित इलाकों से रोपाई की सामग्री न लें.

* गन्ना या धान फसलचक्र अपनाएं.

* सनई, धनिया और गेंदा को अंत:फसल के रूप में उगाएं.

* नीम केक 400 ग्राम प्रति पौधा रोपाई के समय और उस के 4 महीने बाद ही इस्तेमाल करना चाहिए.

* रोपाई के समय और उस के बाद 3 महीने के अंतर पर कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधे की दर से इस्तेमाल करें.

तोड़ाई : फलों की तोड़ाई किस्म, बाजार और यातायात के साधन आदि पर निर्भर करती है. केले की बौनी किस्में 12 से 15 महीने बाद और ऊंची किस्में 15 से 18 महीने बाद तोड़ने लायक हो जाती हैं.

फलों की धारियों के पूरी तरह गोल होने पर गुच्छों की तोड़ाई तेज धारदार हंसिए से करनी चाहिए. बाजारों में भेजने के लिए जब केले एकतिहाई पक जाएं, तो उन्हें काट लेना चाहिए.

पकाना : केला एक क्लाईमैक्टेरिक फल है, जिसे पौधे से तोड़ने के बाद पकाया जाता है. केले को पकाने के लिए इथिलिन गैस का इस्तेमाल किया जाता है. इथिलिन गैस फल पकाने का एक हार्मोन है, जो फलों के भीतर सांस लेने की क्रिया को बढ़ा कर उन्हें पकाने में तेजी लाता है.

केले को बंद कमरे में इकट्ठा कर 15 से 18 डिगरी तापक्रम पर इथिलिन (1000 पीपीएम) से 24 घंटे तक उपचार कर के पकाया जाता है.

पैकिंग : केले को आकार के अनुसार श्रेणी में बांट कर अलगअलग गत्ते के 5 फीसदी छेदों वाले छोटेछोटे (12-13 किलोग्राम) डब्बों में भर कर बाजार में भेजना चाहिए.

पशुपालन में 40 योजनाओं का शुभारंभ : पशुपालकों को होगा मुनाफा

पुणे : पुणे के जीडी मदुलकर नाट्यगृह में 13 जनवरी, 2025 को उद्यमिता विकास सम्मेलन 2025, जिस का विषय था “उद्यमियों को सशक्त बनाना, पशुधन अर्थव्यवस्था में बदलाव लाना” का आयोजन किया गया.

इस कार्यक्रम का उद्घाटन केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्री  राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने राज्य मंत्री एसपी सिंह बघेल और जौर्ज कुरियन के साथ किया.  इस अवसर पर महाराष्ट्र की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री  पंकजा मुंडे भी मौजूद थीं.

इस सम्मेलन के दौरान केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने कुल 40 परियोजनाओं का शुभारंभ किया. इन में से 20 परियोजनाएं राष्ट्रीय पशुधन मिशन और 20 परियोजनाएं पशुपालन अवसंरचना विकास निधि के तहत शामिल हैं.

इस सम्मेलन में आए मंत्रियों ने प्रदर्शनी स्टालों का दौरा किया, उद्यमियों से बातचीत की और उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले राज्यों को सम्मानित किया गया. पशुपालन अवसंरचना विकास निधि के लिए महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु और उद्यमिता कार्यक्रम के लिए कर्नाटक, तेलंगाना और मध्य प्रदेश राज्यों को सम्मानित किया गया. साथ ही, कैनरा बैंक, भारतीय स्टेट बैंक और एचडीएफसी जैसे बैंकों को इन योजनाओं के तहत क्रेडिट सहायता के लिए भी सम्मानित किया गया.

मंत्रियों ने पशुपालन अवसंरचना विकास निधि और राष्ट्रीय पशुधन मिशन लाभार्थियों की सफलता की कहानियों पर प्रकाश डालने वाले 2 संग्रहों का अनावरण किया. राष्ट्रीय पशुधन मिशन 2.0 का शुभारंभ किया और राष्ट्रीय पशुधन मिशन योजना के लिए एक निगरानी डैशबोर्ड भी लौंच किया गया.

इस के अतिरिक्त पशुपालन और डेयरी विभाग ने 14 जनवरी से 13 फरवरी, 2025 तक “पशुपालन और पशु कल्याण माह” घोषित किया, जिस के दौरान देशभर में जागरूकता अभियान और शैक्षिक गतिविधियां आयोजित की जाएंगी.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने पंकजा मुंडे और महाराष्ट्र सरकार को इस सम्मलेन की मेजबानी के लिए धन्यवाद किया. उन्होंने ग्रामीण आर्थिक विकास में पशुपालन की भूमिका, “एफएमडीमुक्त भारत”  को प्राप्त करने के लिए एफएमडी टीकाकरण कार्यक्रमों की आवश्यकता और महाराष्ट्र सहित 9 एफएमडीमुक्त क्षेत्रों के बनाने पर जोर दिया.

उन्होंने  सरकारी उद्यमिता कार्यक्रमों में अधिक से अधिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया और बैंकों से किसानों व महिला उद्यमियों का समर्थन करने के लिए लोन प्रक्रियाओं को आसान बनाने का निवेदन किया.

उन्होंने आगे बताया कि 24 जून, 2020 को ‘आत्मनिर्भर भारत’ पैकेज के तहत शुरू किया गया पशुपालन अवसंरचना विकास निधि 17,296 करोड़ रुपए की धनराशि के साथ  डेयरी प्रसंस्करण, मांस प्रसंस्करण, चारा उत्पादन और पशु चिकित्सा के बुनियादी ढांचे में परियोजनाओं को बढ़ावा दे रहा है, जिसे अब अतिरिक्त वित्त पोषण और विस्तारित लाभों के साथ बढ़ाया गया है. अब तक 10,356.90 करोड़ रुपए की लागत वाली 362 परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है, जिस में 247.69 करोड़ रुपए ब्याज सब्सिडी जारी की गई है.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने बताया कि साल 2021 में शुरू की गई पुनर्गठित राष्ट्रीय पशुधन मिशन योजना के तहत राष्ट्रीय पशुधन मिशन- उद्यमिता विकास कार्यक्रम गतिविधि मुरगीपालन, भेड़, बकरी, सूअर, ऊंट और अन्य पशुधन के साथसाथ चारा उत्पादन और ग्रेडिंग बुनियादी ढांचे में परियोजनाओं के लिए 50 फीसदी पूंजी सब्सिडी (50 लाख रुपए तक) प्रदान करती है. अब तक 2,182.52 करोड़ रुपए की कुल लागत वाली 3,010 परियोजनाओं को 1,005.87 करोड़ रुपए की सब्सिडी के साथ मंजूरी दी गई है. यह योजना आनुवंशिक विकास कार्यक्रम, चारा एवं खाद्य पहल और राज्य वर्गीकरण के आधार पर प्रीमियम सब्सिडी के साथ पशुधन बीमा भी प्रदान करती है.

महाराष्ट्र की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री पंकजा मुंडे ने इस क्षेत्र के विकास, उत्पादकता वृद्धि के लिए उद्यमिता के महत्व पर जोर दिया और बैंकों से किसानों के लिए लोन प्रक्रिया को सरल बनाने का अनुरोध किया.

राज्य मंत्री जौर्ज कुरियन ने पुणे की एक शैक्षणिक केंद्र के रूप में प्रशंसा की और पशुपालन अवसंरचना विकास निधि  और राष्ट्रीय पशुधन मिशन के माध्यम से 15,000 से अधिक नौकरियों का सृजन होगा, इस की भी जानकारी दी.

मंत्री एसपी सिंह बघेल ने पारंपरिक प्रथाओं की तुलना में नवीन पशुपालन तकनीकों को अपनाने की वकालत की और सटीक पशुधन गणना और बेहतर प्रजनन प्रथाओं के महत्व पर बल दिया.

कार्यक्रम की शुरुआत भारत सरकार की सचिव अलका उपाध्याय के भाषण से हुई, जिन्होंने पशुपालन को “उदयशील क्षेत्र” बताया, जिस में निवेश की अपार संभावनाएं हैं. उन्होंने लंपी स्किन डिजीज के लिए वैक्सीन बनाने के महाराष्ट्र के प्रयासों की सराहना की और निजी क्षेत्र के निवेश, प्रयोगशाला मान्यता और उत्पादकता बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया.

इस सम्मलेन में गोसेवा आयोग के अध्यक्ष शेखर मुंदड़ा और कई सांसदों व परिषद के सदस्यों सहित कई प्रमुख व्यक्तियों ने भी भाग लिया. सम्मेलन में 2 तकनीकी सत्र हुए, ‘पशुधन क्षेत्र  विकास को गति देना: उद्यमिता, प्रसंस्करण और अवसर’ और ‘पशुधन क्षेत्र और लोन सुविधा में बैंकों और एमएसएमई की भूमिका’, जहां विशेषज्ञों ने निवेश और उद्यमिता के अवसरों पर चर्चा की.

पशुओं की वैक्सीन नवाचार (Innovation) पर हुआ सम्मेलन

हैदराबाद : मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के तहत पशुपालन और डेयरी विभाग ने इंडियन इम्यूनोलौजिकल्स लिमिटेड और राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) के सहयोग से पिछले दिनों हैदराबाद में “महामारी की तैयारी और वैक्सीन नवाचार पर सम्मेलन” का आयोजन किया.

इस सम्मेलन का उद्घाटन मुख्य अतिथि के रूप में नीति आयोग के सदस्य स्वास्थ्य प्रो. डा. विनोद के. पौल ने किया. इस अवसर पर उन्होंने कहा कि भविष्य की महामारियों से अच्छी तरीके से निबटने के लिए हमें पशु चिकित्सा के बुनियादी ढांचे को और अधिक मजबूत करने की आवश्यकता है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि इस में उभरती बीमारियों का शीघ्र पता लगाने और तेजी से प्रतिक्रिया सुनिश्चित करने के लिए नैदानिक सुविधाओं को बढ़ाना शामिल है. अगली पीढ़ी के पशु टीकों के विकास और उत्पादन के लिए उन्नत प्लेटफार्मों की स्थापना के महत्व पर भी उन्होंने जोर दिया, जो कि जूनोटिक रोगों के फैलाव को रोकने, पशु और इनसानी सेहत दोनों की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं.

इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि इन महत्वपूर्ण घटकों को मजबूत करने के पीछे ‘वन हेल्थ’ दृष्टिकोण के तहत एक लचीला स्वास्थ्य देखभाल ढांचा बनाने के बड़े लक्ष्य के साथ मिल कर चलना है.

पशुपालन एवं डेयरी विभाग की सचिव अलका उपाध्याय ने कहा कि सरकार को बेहतर उत्पादकता के लिए पशु स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करने की आवश्यकता है और अंतिम छोर तक डिलीवरी को प्रभावी बनाने के लिए आपूर्ति श्रंखला और कोल्ड चेन प्रणालियों में भी सुधार करने की जरूरत है.

पशुपालन आयुक्त डा. अभिजीत मित्रा ने पशुओं के लिए टीकों की सुरक्षा और पूर्वयोग्यता सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल दिया.

इस सम्मलेन का उद्देश्य ‘वन हेल्थ’ के विभिन्न पहलुओं की समझ को बढ़ावा देना था, जिस में टीकाकरण कार्यक्रमों को बढ़ाने, पशुधन के स्वास्थ्य में सुधार, महामारी की तैयारी के लिए लचीली आपूर्ति श्रंखलाओं को बनाना, महामारी प्रतिक्रियाओं को मजबूत करना, रोग निगरानी को आगे बढ़ाना और टीका परीक्षण को सुव्यवस्थित करना, स्वास्थ्य सेवा में कृत्रिम बुद्धिमत्ता को बढ़ावा देना, कोशिका और जीन थेरेपी टीकों और अनुमोदन के लिए नियामक मार्गों पर ध्यान केंद्रित करना शामिल था.

इस कार्यक्रम में पशुपालन एवं डेयरी विभाग के संयुक्त सचिव रमाशंकर सिन्हा, इंडियन इम्यूनोलौजिकल्स लिमिटेड के प्रबंध निदेशक डा. के. आनंद कुमार, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण के सदस्य सचिव डा. संजय शुक्ला, निवेदी के निदेशक डा. बीआर गुलाटी सहित स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के विशेषज्ञ, वैक्सीन उद्योग, सीडीएससीओ आदि के सदस्य भी उपस्थित थे.

भारत : वैश्विक वैक्सीन हब

भारत को वैश्विक टीकाकरण केंद्र के रूप में जाना जाता है, जिस में 60 फीसदी  से अधिक टीके भारत में बनते हैं और 50 फीसदी  से अधिक टीका निर्माता हैदराबाद से टीकों का उत्पादन  करते हैं.

पशुपालन एवं डेयरी विभाग, केंद्र सरकार से सौ फीसदी वित्तीय सहायता के साथ पशुधन में दुनिया का सब से बड़ा टीकाकरण कार्यक्रम लागू कर रहा है, जिस में खुरपकामुंहपका रोग के 102 करोड़ टीकाकरण किए गए. वहीं ब्रुसेलोसिस के 4.23 करोड़ टीकाकरण किए गए.

दूसरी ओर, पेस्ट डेस पेटिट्स रूमिनेंट्स यानी पीपीआर के 17.3 करोड़ टीकाकरण किए गए, क्लासिकल स्वाइन फीवर के 0.59 करोड़ टीकाकरण किए गए और लंपी स्किन डिजीज के 26.38 करोड़ टीकाकरण किए गए के लिए साझा पैटर्न शामिल हैं, जिस के तहत प्रत्येक पशु को भारत पशुधन यानी राष्ट्रीय डिजिटल पशुधन मिशन में दर्ज एक विशिष्ट पहचान संख्या प्राप्त होती है, जो टीकाकरण कार्यक्रम पर नजर रखती है और पता लगाने की क्षमता सुनिश्चित करती है. इस तरह के टीकाकरण कार्यक्रमों से देश में प्रमुख पशु रोगों की घटनाओं में काफी कमी आई है.

कृषि विविधीकरण (Agricultural diversification): आमदनी का मजबूत जरीया

लगातार बढ़ रही कृषि उत्पादन लागत एवं जलवायु परिवर्तन को देखते हुए किसानों को चाहिए कि वे कृषि में विविधीकरण अपनाएं, जिस से कि वे टिकाऊ खेती, औद्यानिकीकरण, पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय, मधुमक्खीपालन, मुरगीपालन सहित अन्य लाभदायी उद्यम को करते हुए अपने परिवार की आय को बढ़ाने के साथसाथ स्वरोजगार भी कर सकें.

कृषि विविधीकरण का उद्देश्य

कृषि विविधीकरण का उद्देश्य कृषि के साथसाथ वे सभी कामों के करने से है, जिन से पर्यावरण सुरक्षित रहे और किसानों को लाभ  हो. हवा, जमीन, जानवर, जंगल, जो कि हमारी प्राकृतिक संपदाएं हैं, उन में गुणवत्ता बनी रहे और किसान इन से लगातार अच्छा उत्पादन लेते रहें. जैसे कि मिट्टी की सेहत को बनाए रखने के लिए मिट्टी जांच की संस्तुतियों के अनुसार जैविक विधियों से ज्यादा से ज्यादा आवश्यक पोषक तत्त्वों का भूमि में प्रयोग करें, जिस से कि मिट्टी में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ सके.

उचित फसल चक्र अपनाएं, कम दिनों की फसलें एवं उन की प्रजातियां उगाएं, आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में बौछारी एवं टपक विधि से फसलों की सिंचाई करें. बाजारोन्मुखी औद्यानिक फसलों एवं पौध को पौलीहाउस या शैडनैटहाउस द्वारा समय की मांग के अनुसार उत्पादन करें. साथ ही, उत्पादन में मूल्य संवर्धन कर के बेच कर अधिक लाभ लें.

वर्तमान समय की मांग को देखते हुए शीतकालीन गन्ने के साथसाथ मसूर, चना, दाल वाली मटर, सब्जी की मटर जैसी दलहनी और तिलहन में पीली सरसों का उत्पादन भी करें.

वसंतकालीन गन्ने में अंत:फसली के रूप में लोबिया, उड़द, मूंग भी ले सकते हैं. गन्ने से गुड़, शीरा, सिरका बना कर बेचने से निश्चित रूप से लाभ होता है.

कृषि विविधीकरण (Agricultural diversification)

प्रत्येक किसान के पास गृहवाटिका अवश्य होनी चाहिए, जिस से मौसम के अनुसार लहसुन, प्याज, धनिया, मेथी, मूली, भिंडी, कद्दू, लौकी, पालक, मिर्च, शिमला मिर्च, अदरक, बैगन, टमाटर, सब्जी मटर इत्यादि पैदा करें. फलस्वरूप, गुणवत्तायुक्त ताजी सब्जियों को खाएं, जिस से उन का स्वास्थ्य अच्छा रहे और पैसे की भी बचत हो. केले में धनिया, मेथी, बरसीम की अंत:फसल ले कर प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.

कृषि से संबंधित अन्य व्यवसाय

शहरीकरण के चलते पशुपालन को बढ़ावा देने की जरूरत है, क्योंकि समय की मांग है कि किसान दूध बेचने के बजाय उस का घी, मक्खन, दही, पनीर, छाछ इत्यादि बना कर बेचें, जिस से कि उन को अधिक लाभ हो व उन्नत नस्ल की भैंस मुर्रा, भदावरी, गाय हरियाणा, साहीवाल, थारपारकर, बकरियों में जमुनापारी एवं बरबरी को पालें.

मछलीपालन के लिए रोहू, कतला, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प और कौमन कार्प का प्रयोग करें. औद्योगिक फसलों में बटन मशरूम का उत्पादन करें, क्योंकि इस का बाजार उपलब्ध है.

आवागमन के अच्छे साधन होने की वजह से गेंदा, गुलाब, जरबेरा, ग्लैडिओलस, रजनीगंधा इत्यादि फूलों की खेती करें एवं इत्र के लिए पामारोजा, लैमनग्रास, गुलाब, खस जैसे सगंधीय पौधों की खेती भी कर सकते हैं.

बैकयार्ड मुरगीपालन भी एक कम लागत का लाभदायी घरेलू उद्यम है. वनराजा, कैरीप्रिया, ग्रामप्रिया, कड़कनाथ की उत्पादन क्षमता अधिक है. इन से तकरीबन 200 अंडे हर साल लिए जा सकते हैं. इन के ब्रायलर 40 दिन पर एक से डेढ़ किलो तक के हो जाते हैं.

मधुमक्खीपालन भी कम लागत का एक अच्छा उद्यम है. 50 बक्सों के साथ यह व्यवसाय शुरू किया जा सकता है, जिस से 5 क्विंटल तक शहद हर साल लिया जा सकता है.

इस के अतिरिक्त बटेरपालन भी एक अच्छा व्यवसाय है. किसान संबंधित विभागों से नियमित संपर्क करते रहें, जिस से कि योजनाओं की समय पर जानकारी ले कर उस का उपयोग कर सकें.

फसल बीमा योजना और नुकसान की भरपाई के लिए क्या है पैमाना

वर्तमान में केंद्र सरकार द्वारा उपज गारंटी योजना के रूप में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों के लिए चलाई जा रही है, जिस के अंतर्गत प्रतिकूल मौसमीय स्थितियों के कारण फसल की बोआई न कर पाने/असफल बोआई, फसल की बोआई से कटाई की अवधि में प्राकृतिक आपदाओं, रोगों व कीटों से फसल नष्ट होने की स्थिति एवं फसल कटाई के बाद खेत में कटी हुई फसलों को बेमौसम/चक्रवाती वर्षा, चक्रवात से फसल नुकसान की स्थिति में फसल पैदा करने वाले किसानों, जिन के द्वारा फसल का बीमा कराया गया है, को बीमा कवर के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है.

चयनित जनपदों में पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना को लागू किया गया है, जिस में प्रतिकूल मौसमीय स्थितियों कम व अधिक तापमान, कम व अधिक वर्षा आदि से फसल नष्ट होने की संभावना के आधार पर फसल के उत्पादक किसानों, जिन के द्वारा फसल का बीमा कराया गया है, को बीमा कवर के रूप में वित्तीय सहायता दी जाती है.

प्राकृतिक आपदा से बरबाद फसल की भरपाई के लिए क्या पैमाना है?

अधिसूचित फसलों पर मौसम के अंत में संपादित फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर फसल की क्षति का आकलन किया जाता है और संबंधित किसानों को उपज में कमी के अनुरूप क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है.

योजना के नियमों के अनुरूप क्षतिपूर्ति देय होने पर बीमा कंपनी द्वारा किसानों के बैंक खाते में क्षतिपूर्ति की धनराशि जमा करा दी जाती है, इसलिए क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए किसानों को व्यक्तिगत दावा प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं है.

ग्राम पंचायत में अधिसूचित फसल के अधिकांश किसानों द्वारा फसल की बोआई न कर पाने/असफल बोआई की स्थिति में क्षति का आकलन ग्राम पंचायत स्तर पर करते हुए प्राथमिकता पर क्षतिपूर्ति देय होती है.

crop insurance scheme

योजना में स्थानिक आपदाओं, ओला, भूस्खलन व जलभराव और फसल की कटाई के उपरांत आगामी 14 दिन की अवधि तक फसल नष्ट होने की स्थिति में फसल की क्षति का आकलन व्यक्तिगत बीमित किसान के स्तर पर करते हुए किसानों को प्राथमिकता पर आंशिक क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है, जिस को मौसम के अंत में फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर देय कुल क्षतिपूर्ति की धनराशि में समायोजित किया जाता है.

इसी प्रकार फसल की मध्य अवस्था तक ग्राम पंचायत में फसल की संभावित उपज सामान्य उपज से 50 फीसदी कम होने की स्थिति में भी किसानों को आपदा की स्थिति तक उत्पादन लागत में व्यय के अनुरूप तात्कालिक सहायता प्रदान की जाती है, जिसे मौसम के अंत में फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर देय कुल क्षतिपूर्ति की धनराशि में समायोजित किया जाता है.

पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना में फसल की क्षति का आकलन ब्लौक में स्थापित स्वचालित मौसम केेंद्र स्तर पर मौसम के प्रतिदिन के आंकड़ों के आधार पर किया जाता है.

फसल की बोआई से कटाई के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण चरणों में फसल की आवश्यकतानुसार निर्धारित मौसमीय स्थितियों एवं मौसम की वास्तविक स्थिति में अंतर के अनुरूप फसल की संभावित क्षति को दृष्टिगत रखते हुए किसानों को क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है.