तिलहन फसलों की उन्नत तकनीकी पर एकदिवसीय कृषक प्रशिक्षण कार्यक्रम

उदयपुर : 29 जनवरी, 2025. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय के अंतर्गत अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के तिलहन पर फ्रंटलाइन डेमोंस्ट्रेशन के तहत एकदिवसीय कृषक प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन हुआ. इस कार्यक्रम का उद्देश्य फसल विविधीकरण में तिलहन फसलों को शामिल करने को प्रोत्साहित करते हुए किसानों की आय और कृषि स्थिरता को बढ़ाना था.

कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र में परियोजना प्रभारी डा. हरि सिंह ने तिलहन फसलों के महत्व, कृषि प्रणाली में विविधता लाने और किसानों की आय बढ़ाने के तरीकों पर जोर दिया.

डा. जगदीश चौधरी, आर्चाय (कृषि विज्ञान) ने तिलहन आधारित खेती प्रणालियों के माध्यम से स्थायी कृषि विषय पर व्याख्यान दिया. उन्होंने तिलहन आधारित फसल प्रणाली अपनाने के लाभों पर चर्चा की, जिस में मृदा स्वास्थ्य सुधार, संसाधनों का कुशल उपयोग और आर्थिक संवर्धन शामिल हैं.

डा. एचएल बैरवा, आर्चाय (उद्यानिकी) ने पर्यावरण अनुकूल और लाभकारी विविधीकृत उद्यानिकी में तिलहन विषय पर चर्चा की. उन्होंने किसानों को तिलहन फसलों को उद्यानिकी फसलों के साथ एकीकृत करने के आर्थिक और पारिस्थितिक लाभों के बारे में बताया. वहीं डा. बीजी छिप्पा, सहआर्चाय (उद्यानिकी) ने तिलहन और उद्यानिकी फसलों के संयोजन से होने वाले लाभों और तकनीकी पहलुओं पर गहराई से चर्चा की.

सहायक आर्चाय डा. दीपक ने तिलहन फसलों में सूत्रकृमि (नेमाटोड) प्रबंधन पर व्याख्यान दिया. उन्होंने किसानों को तिलहन फसलों में होने वाले सूत्रकृमियों की पहचान, उन के प्रभाव और प्रभावी प्रबंधन तकनीकों पर विस्तृत जानकारी दी.

अंत में डा. हरि सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया और सभी वक्ताओं, प्रतिभागियों और आयोजन टीम को कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए धन्यवाद दिया. उन्होने कहा कि यह प्रशिक्षण कार्यक्रम किसानों को तिलहन आधारित खेती प्रणालियों को अपनाने की दिशा में प्रेरित करने और उन की आय बढ़ाने के लिए तकनीकी जानकारी प्रदान करने में सफल रहा.

इस कार्यक्रम में झाड़ोल और फलासिया से कुल 30 किसानों ने भाग लिया और प्रशिक्षण को अत्यंत लाभप्रद बताया. प्रतिभागियों ने इस ज्ञान को अपने खेतों में लागू करने का संकल्प लिया, ताकि फसल विविधीकरण के माध्यम से उन की कृषि आय और स्थिरता में सुधार हो सके.

कार्यक्रम में परियोजना से जुड़े प्रमुख अधिकारियों में रामजी लाल,  एकलिंग सिह, मदन लाल, एनएस झाला, गोपाल नाई और नरेंद्र यादव उपस्थित थे.

एनएबीएल मान्यता पर एकदिवसीय जागरूकता कार्यशाला संपन्न

उदयपुर : 29 जनवरी, 2025. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के संघटक राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर के आईपीएम थिएटर में प्रयोगशालाओं की एनएबीएल मान्यता पर एकदिवसीय जागरूकता कार्यशाला हुई.

इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता डा. भूमि राजगुरू द्वारा एनएबीएल संस्थान द्वारा आयोजित विभिन्न कार्ययोजनाओं की रूपरेखा एवं एनएबीएल द्वारा प्रदत्त प्रयोगशालाओं की मान्यता प्राप्त करने के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया और संस्थान द्वारा दी जाने वाली मान्यता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए खाद्य एवं कृषि रसायनों के मान्यताप्राप्त प्रयोगशालाओं के परीक्षण, प्रमाणपत्र का राष्ट्रीय एवं वैश्विक स्तर उपयोगिता पर विस्तृत चर्चा की. डा. राजगुरू ने विकसित भारत 2047 हेतु गुणवत्तायुक्त उत्पादन उपलब्ध कराए जाने पर जोर दिया.

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अभियंता कुलदीप सिंह राजपूत ने प्रयोगशालाओं की गुणवत्ता के मापदंडों की जानकारी देते हुए वर्तमान युग में एनएबीएल संस्थान द्वारा किए जा रहे कामों की सराहना की.

कार्यक्रम संयोजक डा. एसएस लखावत, प्राध्यापक, उद्यान विज्ञान एवं सहायक अधिष्ठाता छात्र कल्याण ने बताया कि विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों के प्रतिभागियों, विभागाध्यक्षों, संकाय सदस्यों एवं स्नातक, स्नातकोत्तर एवं विद्या वाचस्पति विद्याथियों को इस कार्यशाला के माध्यम से एनएबीएल द्वारा प्रयोगशालाओं की मान्यता हेतु आयोजित जागरूकता कार्यक्रम के तहत 200 प्रतिभागियों ने अपना पंजीयन करवाते हुए कार्यक्रम में भाग लिया.

कार्यक्रम के अंत में कृषि रसायन एवं मृदा विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डा. केके यादव द्वारा मिट्टी की गुणवत्ता एवं स्वास्थ्य सुधार पर प्रकाश डालते हुए विश्वविद्यालय के निर्देशन में आयोजित एनएबीएल कार्यशाला हेतु कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक व महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. आरबी दुबे का आभार व्यक्त किया.

कार्यक्रम का संचालन डा. अमित दाधिच, सहप्राध्यापक एवं प्लेसमेंट अधिकारी, पादप प्रजनन एवं अनुवांशिकी विभाग द्वारा समस्त सहभागियों का आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया.

आम (Mango) के रोग और उपचार

आम का नाम सुनते ही मुंह में पानी आ जाता है और दिल को सुकून मिलता है. हमारे दिमाग में एक ऐसे फल की तसवीर उभरती है जिसे सोच कर ही खुशी से झूमने लगता है. आम ऐसी फसल है जिसे हर कोई खाना पसंद करता है.

भारत में आम फलों का राजा है. इस की पैदावार तकरीबन पूरे भारत में होती है, लेकिन खासतौर से उत्तर प्रदेश आम के लिए जाना जाता है. यहां पर मलीहाबाद के आमों की मिठास विदेशों में भी लोगों को अपना मुरीद बना चुकी है.

पाकिस्तान, बंगलादेश, अमेरिका, फिलीपींस, संयुक्त अरब अमीरात, दक्षिण अफ्रीका, जांबिया, माले, ब्राजील, पेरू, केन्या, जमायका, थाईलैंड, इंडोनेशिया, श्रीलंका वगैरह देशों में भी आम उगाया जाता है.

भारत में आम के बाग सब से ज्यादा उत्तर प्रदेश में हैं, लेकिन इस की सब से ज्यादा पैदावार आंध्र प्रदेश में होती है. आम की बागबानी के लिए गरम आबोहवा बेहतर है.

आम के लिए 24 से 26 डिगरी सैल्सियस तापमान वाला इलाका सब से अच्छा माना गया है. यह नम व सूखी दोनों तरह की जलवायु में उगता है. लेकिन जिन इलाकों में जून से सितंबर माह तक अच्छी बारिश होती है और बाकी महीने सूखे रहते हैं, वहां आम की पैदावार ज्यादा होती है.

आम के पेड़ों को रोगों से बचाना बहुत जरूरी है. समयसमय पर आम में लगने वाली खास बीमारियों पर नजर रख कर ही रोगों से बचाया जा सकता है.

काली फफूंद रोग

आम के पुराने और घने गहरे बगीचों में आम के फूलों और मुलायम पत्तियों से रस चूसने वाले कीट जैसे भुनगा, फुदका, मधुआ और कढ़ी कीट का प्रकोप चैत्र माह से ही शुरू हो जाता है. ये कीट छोटीछोटी नई मुलायम पत्तियों और फूलों से रस चूसते रहते हैं. इस वजह से आम की पत्तियों और फूलों के ऊपर एक चिपचिपाहट सी बनने लगती है और फल झड़ने लगते हैं.

यह रोग भुनगा कीट की वजह से होता है. फफूंद के जरीए भी यह रोग तेजी से फैलती है. कुछ समय बाद आम के बगीचों में पेड़ों की पत्तियों पर काले रंग की एक परत बन जाती है, जो सीधा पत्तियों से भोजन बनाने की प्रक्रिया को प्रभावित करती है.

उपचार

काली फफूंदी के नियंत्रण के लिए नीम की पत्तियों को उबालें. इस के बाद 10-12 लिटर उबले हुए पानी को 100 लिटर पानी में मिला कर पेड़ों पर 2-3 बार अच्छी तरह से स्प्रेयर पंप की मदद से छिड़काव करना चाहिए.

आम का भुनगा, फुदका और कढ़ी कीट पर 300 से 400 मिलीलिटर नीम के तेल को 100 लिटर पानी में घोल कर फूल खिलने से पहले या फिर मटर के दाने के बराबर फल बनने के बाद 2-3 छिड़काव करने से इन कीटों पर काबू पाया जा सकता है.

इस के अलावा ब्यूबेरिया बेसियाना की 200 ग्राम मात्रा को 100 लिटर पानी में घोल कर 2-3 बार छिड़काव करने या 15-20 दिन पुरानी सड़ी हुई छाछ या मट्ठा 10 लिटर व 8 से 10 दिन पुराने 10 लिटर गौमूत्र को 100 लिटर पानी में मिला कर पूरे पौधे पर 2-3 छिड़काव करने से कीट पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

चूर्णिल आसिता रोग

आम का यह रोग फफूंद की वजह से फैलता है. इस रोग का हमला होने आम की पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसे धब्बे बन जाते हैं. कभीकभी फूलों की टहनियों और छोटेछोटे फलों पर भी ये धब्बे हवा के रुख के साथ फैल जाते हैं. इस वजह से फल पकने से पहले ही पेड़ से पत्ते गिर जाते हैं.

इस रोग की रोकथाम के लिए 100 लिटर पानी में मिलाएं 10 दिन पुरानी सड़ी हुई छाछ या मट्ठा 10 लिटर या 10 लिटर गौमूत्र 10-12 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करने से रोग इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है.

सूखा रोग

आम के पेड़ों में लगने वाला सूखा रोग यानी तनाछेदक कीट हरियाली का दुश्मन है. इस रोग के प्रकोप से आम का हराभरा पेड़ कुछ ही महीनों में सूख कर ढांचे में तबदील हो जाता है.

तनाछेदक कीट पौधे के तने में छेद कर आसानी से अंदर घुस जाता है. पेड़ के तने को सावधानी से देखने पर किसानों को कीड़ों के होने की प्रारंभिक दशा में छाल पर चूर्ण जैसा पदार्थ देखने को मिलता है. तना गीला हो जाता है. कीट के बड़े हो जाने पर तने में सुराख साफसाफ दिखाई देने लगता है.

उपचार न होने की दशा में कीट तने को खोखला कर देते हैं. इस से पेड़ सूखने लगता है. इस में पत्तियां ऊपर से सूखना शुरू होती हैं, जो नीचे की ओर बढ़ती जाती हैं.

ऐसे करें रोकथाम

तनाबेधक या तनाछेदक कीट साल में सिर्फ 2 महीने मई व जून माह में बाहर रहता है. नियंत्रण के लिए क्विनालफास व साइपरमैथलीन दवा का स्प्रे करें.

रोकथाम के लिए बाद में तने को छील कर सुराख में साइकिल की तीली डाल कर बड़े कीटों को मारा जा सकता है.

अंडे बच्चों को नष्ट करने के लिए मोनोक्रोटोफास के घोल को रुई में भिगो कर सुराख में डाल दें व ऊपर से गाय के गोबर में मिट्टी मिला कर लेप लगा दें.

देशी उपचार में 2 किलोग्राम तंबाकू व ढाई सौ ग्राम फ्यूरोडान प्रति पेड़ की जड़ में डालने से भी रोकथाम हो सकती है.

बौर का रोग

आम के बौरों, फलों या पत्तियों पर सफेद चूर्ण की तरह का पदार्थ दिखाई देता है. ऐसा लगता है कि पेड़ों पर राख छिड़क दी गई है. प्रकोप होने से उन की बढ़वार रुक जाती है और फूल गिरने लगते हैं.

बौर के समय फुहार और ठंडी रातें इस रोग के बढ़ने में मददगार होती हैं. कवक से नए फल बिलकुल ढक जाते हैं और धीरेधीरे उस की बाहरी सतह पर दरारें पड़ने लगती हैं. दरार वाला वह भाग कड़ा हो जाता है. नए फल मटर के दाने के बराबर होने के पहले ही गिर जाते हैं.

नई पत्तियों की पिछली सतह पर यह रोग काफी फैलता है और स्लेटी रंग के धब्बे बनने लगते हैं, जिस पर सफेद चूर्ण दिखाई पड़ता है और रोगग्रस्त पत्तियां टेढ़ी हो जाती हैं. ऐसी पत्तियां पूरे साल पौधों पर लगी रहती हैं और अगले साल भी रोगों को फैलाने में सहायक होती हैं.

उपचार से करें बचाव

इस रोग से बचाव के लिए फूल के मौसम में कुल 3 छिड़काव करने चाहिए. पहला छिड़काव 0.2 फीसदी विलयशील गंधक (वेटेबल सल्फर) (सल्फेट या दूसरा विलयशील गंधक फफूंदनाशक 2 ग्राम प्रति लिटर), दूसरा छिड़काव 0.1 फीसदी ट्राइडीमार्फ या 0.04 फीसदी फ्लूजिजाल (1 मिलीलिटर कैलिक्सीन या 0.4 मिलीलिटर पंच प्रति लिटर) और तीसरा छिड़काव 0.1 फीसदी डाइनोकैप या बावस्टीन (1 मिलीलिटर 5 प्रति केराथेन या 1 ग्राम ट्राइडीमेफान प्रति लिटर) से करना चाहिए.

पहला छिड़काव बौर निकलने के दौरान करना चाहिए. दूसरा और तीसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल पर करना चाहिए.

आम (Mango)

पत्तियों पर एंथ्रेक्नोज रोग

तुड़ाई के बाद आम का यह सब से खास रोग है. यह एक फफूंद कोलेटोट्राइकम ग्लोयोस्पोराइडिस से होती है. इस का प्रकोप हर आम उगाने वाली जगहों पर होता है. फलों पर इन के लक्षण शुरू में छोटेछोटे भूरे रंग के धब्बों के रूप में दिखाई देते  हैं, जो बाद में बढ़ कर पूरे फल को ढक लेते हैं. ये धब्बे 3-4 दिन में ही पूरे फल को ढक लेते हैं और पूरा फल काला हो कर सड़ जाता है.

रोकथाम

कार्बंडाजिम या टापसिन-एम (0.1 फीसदी यानी 1 ग्राम प्रति लिटर) का 3 छिड़काव तुड़ाई से पहले करें फिर 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए. छिड़काव इस तरह करना चाहिए कि अंतिम छिड़काव तुड़ाई से 15 दिन पहले हो जाए.

फलों को 0.05 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 15 मिनट तक डुबो कर रखने से इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है.

शाखा रोग

इस रोग से शाखाएं और टहनियां सूखने लगती हैं. उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि शाखा आग से झुलस गई है. रोग की शुरुआत में शाखाओं के अगले भाग की छाल काली पड़ जाती है, जो धीरेधीरे बढ़ती है और फिर पूरी शाखा ही सूख जाती है. साथ ही, गोंद का रिसाव भी होने लगता है.

रोकथाम

रोगग्रस्त शाखाओं की कटाई रोग से ग्रसित हिस्से के करीब 7.5-10 सैंटीमीटर नीचे से करनी चाहिए. इस के बाद 3 ग्राम फफूंदनाशक दवा प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए और कटे हुए भाग पर इसी फफूंदनाशक दवा का लेप लगाना चाहिए. छोटे पेड़ों में भी रोगग्रस्त शाखाओं की छंटाई के बाद कौपर औक्सीक्लोराइड का लेप लगाना फायदेमंद है.

रेड रस्ट रोग

पत्तियों पर गोलाकार, मटमैले रंग के मखमली धब्बे दिखाई देते हैं, जिन का आकार बाद में बड़ा और रंग बादामी हो जाता है.

धब्बे की सतह भी उभरी हुई होती है. इस के ऊपर काई के बीजाणु बनते हैं जो बाद में तांबे के रंग के हो जाते हैं. आखिर में बीजाणुओं के झड़ने की वजह से पत्तियों पर गोलाकार सफेद निशान रह जाते हैं.

इस रोग के कारण पत्तियां और टहनियां छोटी रह जाती हैं और बाद में सूखने लगती हैं.

दिसंबरजनवरी माह में रोग से ग्रसित पत्तियां अधिक झड़ती हैं और पौधे दूर से ही मुरझाए हुए से दिखाई देते हैं.

रोकथाम

इस रोग की रोकथाम के लिए 0.3 फीसदी कौपर औक्सीक्लोराइड (3 ग्राम प्रति लिटर का 2-3 ग्राम प्रति लिटर) का छिड़काव करना असरदार पाया गया है.

ये सारे रोग आम के फलों में तुड़ाई से पहले लगते हैं, लेकिन इन सारे रोगों से निबटने के बाद भी आम के उत्पादकों को तुड़ाई के बाद भी कई तरह के रोगों से अपने फलों को बचाने की चुनौती रहती है. अगर जरा सी लापरवाही की गई तो सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है.

आम (Mango)

तुड़ाई के बाद रोग

फलों में तुड़ाई के बाद भी उत्पादन का तकरीबन 25-40 फीसदी कई वजहों से खराब हो जाता है. यह नुकसान गलत समय पर फलों की तुड़ाई, गलत तुड़ाई के तरीके और गलत ढंग से भंडारण करने की वजह से होता है. लेकिन जो नुकसान होता है, वह मुख्य रूप से फलों की तुड़ाई के बाद लगने वाले रोग हैं.

आम की तुड़ाई के बाद होने वाले रोगों में मुख्य फफूंद है. तुड़ाई के बाद फलों में संक्रमण, आम की ढुलाई, भंडारण और लाने और ले जाने के दौरान होता है.

आम में बीमारियों का प्रकोप 2 तरह से होता है. एक तो फलों के लगते समय ही उन को संक्रमित कर देते हैं, दूसरे तुड़ाई के बाद फलों के रखरखाव के दौरान होता है.

आम की तुड़ाई के बाद भी बहुत सी बीमारियां लगती हैं, लेकिन इन में एंथ्रेक्नोज, ढेपी विगलन और काला सड़न बीमारी से अधिक नुकसान का डर रहता है.

गहरे भूरे रंग का डंठल

तुड़ाई के बाद आम की यह खास बीमारी है. यह लेसियोडिपलोडिया थियोब्रोमी नामक फफूंद से होती है. इस में तकरीबन 15-20 फीसदी तक का नुकसान होता है. यह बीमारी आम की चौसा किस्म में अधिक पाई जाती है. फलों में यह बीमारी ढेपी की तरह से शुरू होती है तभी इसे ढेपी विगलन रोग कहते हैं.

शुरू में जहां पर डंठल लगा होता है, वह भाग गहरे भूरे रंग का हो जाता है और धीरेधीरे बढ़ कर यह पूरे फल को ढक लेता है. 3-4 दिन बाद पूरा फल सड़ कर काले रंग का हो जाता है.

रोकथाम

फल को 1 से 2 सैंटीमीटर के डंठल सहित तोड़ना चाहिए. इस के बाद फल को मिट्टी के संपर्क में नहीं आने देना चाहिए.

तुड़ाई से पहले 2 छिड़काव 15 दिन के अंतराल पर कार्बंडाजिम या टापसिन एम (0.1 फीसदी यानी 1 ग्राम प्रति लिटर) का करना चाहिए. फलों को 0.05 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 5 मिनट डुबो कर रखने से इस रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है.

काला सड़न रोग

यह रोग एस्परजीलस नाइजर नामक फफूंद से होता है. यह रोग फलों में चोट या कटे स्थान से शुरू होता है.

शुरू में इस के लक्षण पीले रंग के गोल धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, जो बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं. 3-4 दिन में धब्बे आकार में बढ़ जाते हैं और इन के ऊपर काले रंग के फफूंद के जीवाणु दिखाई देने लगते हैं.

रोकथाम

फलों को सावधानी से तोड़ना चाहिए, ताकि फलों पर खरोंच न लगे या फल न कटे.

फलों को 0.5 फीसदी कार्बंडाजिम (0.5 ग्राम प्रति लिटर) के कुनकुने पानी में 5 मिनट तक डुबो कर रखने से इस रोग पर काबू किया जा सकता है.

अगर आप को आम की अच्छी उपज लेनी है तो शुरू से ही पौधों की देखभाल करें. आम के पौधों को जितना फल लगने के बाद देखभाल की जरूरत होती है, उस से कहीं ज्यादा फल आने के पहले होती है.

आमतौर पर किसान यहीं गलती करते हैं. इस वजह से उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है. बौर आने के पहले रोगों से आम को बचाएं, साथ ही, बौर आने के बाद भी कई तरह के छिड़काव से रोगों से बचाना अहम हो जाता है. जब फल बड़े हो कर तुड़ाई के लिए तैयार हो जाएं तब भी उन्हें सड़नेगलने से बचाना उतना ही जरूरी है, जितना शुरुआत में बचाया गया था.

पशुपालन में मशीनीकरण (Mechanization) को बढ़ावा

उदयपुर : 28 जनवरी, 2025. अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के अंतर्गत ‘पशुपालन के लिए मशीनीकरण’ (Mechanization) विषय पर 2 दिवसीय 24वीं वार्षिक राष्ट्रीय कार्यशाला अनुसंधान निदेशालय सभागार में हुई.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की मेजबानी में आयोजित इस कार्यशाला में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली सहित देशभर के 100 से ज्यादा कृषि वैज्ञानिक, अभियंता और अनुसंधानकर्ताओं ने हिस्सा लिया.

उद्घाटन सत्र में आयुक्त पशुपालन, भारत सरकार, नई दिल्ली डा. अभिजीत मित्रा ने कहा कि कृषि पशुपालन के 3 प्रमुख घटक उत्पादन, रखरखाव एवं फूड सेफ्टी में मैकेनाइजेशन की अपार संभावनाएं  हैं. डेयरी पोल्ट्री के क्षेत्र में भी मशीनीकरण (Mechanization) को तरजीह दी जानी चाहिए, तभी हम दुनिया के साथ कदम से कदम मिला कर चल पाएंगे.

उन्होंने आगे कहा कि पशुपालकों में आज 70 फीसदी महिलाएं काम कर रही हैं. पशुपालन के क्षेत्र में केवल एक छोटे से घटक गोबर उठाना, पोल्ट्री मल व अन्य अपशिष्ट की साफसफाई के लिए भी मशीन तैयार कर ली जाए, तो मानव श्रम की काफी बचत होगी और यह श्रम अन्य कार्यों के उपयोग में आ जाएगा.

डा. अभिजीत मित्रा ने आगे कहा कि पशुपालन विभाग, नई दिल्ली भविष्य में पंचायत राज, उद्यान, कृषि विपणन और अन्य संबद्ध विभागों को साथ ले कर पशुपालन में मशीनीकरण (Mechanization) पर कुछ इस तरह का रोल मौडल तैयार करेगा, जो देशभर में ब्लौक व पंचायत लैवल पर उपयोगी साबित हो. भारत में वर्तमान में 192 मिलियन गौवंश है. इन में से 27 फीसदी क्रौस ब्रीड हैं, जबकि 10 फीसदी ही दूध उत्पादन में शामिल है.

इस बीच उन्होंने राजस्थान की गाय की नस्ल ‘थारपारकर’ का भी जिक्र किया और कहा कि ‘थारपारकर’ वह नस्लीय गाय है, जो विपरीत परिस्थितियों में थार रेगिस्तान को पार करने की क्षमता रखती है और भरपूर दूध भी देती है.

उपमहानिदेशक, आईसीएआर, नई दिल्ली डा. एसएन झा ने कहा कि मौजूदा परिवेश में पशुपालन ही नहीं, बल्कि ‘संपूर्ण मशीनीकरण’ (Mechanization) की दिशा में भी काम करना होगा. विकास के मामले में दुनिया की गति काफी तेज है और ज्ञान के बल पर ही हम इस गति का मुकाबला कर पाएंगे. उन्होंने कृषि वैज्ञानिकों को हर समय अपडेट रहने को कहा.

पशुपालन के साथसाथ फार्म मैकेनाइजेशन पर जोर देते हुए डा. एसएन झा ने कहा कि केवल जलवायु, साफसफाई व आर्द्रता को नियंत्रण करने मात्र से हम दूध उत्पादन में 10 फीसदी की और भी अधिक वृद्धि कर सकते हैं.

उन्होंने कहा कि हमें स्वीकार करना होगा कि ‘जब तक सूरज चांद रहेगा, इस धरा पर पशुधन रहेगा’ पुरानी परंपराओं का त्याग करते हुए पशुधन के रखरखाव, दूध व मांस उत्पादन में वृद्धि के लिए नए तौरतरीकों को अमल में लाना होगा.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने बेबाकी से तर्क रखा कि जल, जंगल, जलवायु और जमीन अकेले मनुष्य की बपौती नहीं हैं, वरन इस चराचर जगत में विचरण करने वाले हर जीव का इस पर अधिकार है. गलती यहां हुई कि प्रकृति की इस देन को आदमी ने अपनी बपौती मान लिया. ऐसे में जलचर, नभचर और थलचर प्राणी कहां जाएंगे भलाई इसी में है कि पशुपक्षियों को भी पर्याप्त दानापानी मिलना चाहिए, ताकि प्राकृतिक संतुलन बना रहे.

उन्होंने पशु आहार बनाने, दूध निकालने, अपशिष्ट प्रबंधन और पानी देने की व्यवस्था के लिए भी उपकरण व मशीनरी विकसित करने पर जोर दिया. साथ ही, पशुधन के लिए बेहतर आवास, स्वच्छता व स्वास्थ्य नियंत्रण की भी आवश्यकता है.

आईसीएआर, नई दिल्ली के सहायक महानिदेशक डा. अमरीश त्यागी ने कहा कि आने वाला समय क्षमता निर्माण व कौशल विकास का है. पशुपालन के लिए मशीनीकरण (Mechanization) इसी सोच का हिस्सा है. हर क्षेत्र में गहन अध्ययन, सर्वे तकनीक व प्रौद्योगिकी हस्तांतरण से ही हम उपकरण और मशीन की कल्पना कर उसे साकार रूप में धरातल पर उतर पाएंगे.

परियोजना समन्वयक डा. एसपी सिंह, निदेशक, सीआईएई, भोपाल, डा. सीआर मेहता ने पशु प्रबंधन की आधुनिक तकनीकियों का जिक्र किया. आरंभ में सीटीएई डीन डा. अनुपम भटनागर ने अभियांत्रिकी महावि़द्यालय में होने वाली गतिविधियों पर प्रकाश डाला.

पुस्तक एवं पैम्फलेट का विमोचन

आरंभ में अतिथियों ने अधिष्ठाता सीडीएफडी डा. लोकेश गुप्ता द्वारा लिखित पुस्तक ‘आधुनिक पशुपालन एवं प्रबंधन’ एवं पैम्फलेट समुचित पशु आहार प्रबंधन, पशुचलित उन्नत कृषि यंत्र का विमोचन किया.

कार्यशाला में इन का रहा प्रतिनिधित्व

आईसीएआर-सीआईएई, भोपाल (मध्य प्रदेश), एमपीयूएटी, उदयपुर (राजस्थान), जीबीपीयूएटी, पंतनगर (उत्तराखंड), यूएएस, रायचूर (कर्नाटक), वीएनएमयू, परभणी (महाराष्ट्र), आईजीकेवी, रायपुर (छत्तीसगढ़), ओयूएटी, भुवनेश्वर (ओडिशा), आईसीएआर-एनडीआरआई, करनाल (हरियाणा) और सीएयू-सीएईपीएचटी, गंगटोक (सिक्किम).

बढ़ेगा दलहन एवं तिलहन (Pulses and Oilseeds) का उत्पादन

मऊ : भाकृअनुप-राष्ट्रीय बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, कुश्मौर, मऊ में 27 से 31 जनवरी, 2025 तक चलने वाले पांचदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में भोजपुर, बिहार से 30 किसान भाग लेने आए. ‘दलहन एवं तिलहन फसलों में बीज की गुणवत्ता का महत्व’ विषय पर आधारित प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्घाटन समारोह 27 जनवरी, 2025 को हुआ.

निदेशक, डा. संजय कुमार ने कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन अभिकरण, भोजपुर, बिहार से आए किसानों का स्वागत किया. उन्होंने किसानों से उन की कृषि से जुड़ी समस्याएं एवं चिंताएं जानने का प्रयास किया.

उन्होंने किसानों को आश्वासन दिया कि प्रशिक्षण कार्यक्रम में संस्थान के वैज्ञानिक किसानों की हर प्रकार की समस्याओं का समाधान करेंगे और व्यक्तिगत रूप से किसानों को उन के खेत, उस में लगने वाले बीज, बीज की प्रजाति समेत सभी प्रकार की जानकारी देंगे, ताकि वे अपने खेती के विषय में सक्षम और सही निर्णय ले सकें. कार्यक्रम का संचालन संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डा. अंजनी कुमार सिंह की अध्यक्षता में हो रहा है.

कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह में प्रतिभागी किसानों ने अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए बताया कि भोजपुर, बिहार में दलहन एवं तिलहन के साथ धान, गेहूं, खेसारी और सब्जी की खेती की जाती है.

प्रधान वैज्ञानिक डा. अंजनी कुमार सिंह ने किसानों को फसलों की नई प्रजाति लगाने के लिए और गुणवत्ता बीज उत्पादन में अपना योगदान देने के लिए प्रेरित किया. प्रशिक्षण कार्यक्रम का समन्वयन डा. अंजनी कुमार सिंह, डा. आलोक कुमार, डा. पवित्रा वी. एवं डा. विनेश बनोथ कर रहे हैं.

सोर्फ मशीन (Machine) से गन्ने (sugarcane) की अच्छी पैदावार

गन्ना उगाने के मामले में भारत पहले नंबर पर है, ऐसा माना जाता है. पर इसे पूरी दुनिया में उगाया जाता है. वैसे, इसे उगाने की शुरुआत ही भारत से मानी गई है और देश में गन्ना पैदा करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है. गन्ने की फसल को आम बोलचाल की भाषा में ईख भी कहा जाता है. इस फसल को एक बार बो कर इस से 3 साल तक उपज ली जा सकती है.

तकरीबन 50 मिलियन गन्ना किसान और उन के परिवार अपने दैनिक जीवनयापन के लिए इस फसल पर ही निर्भर हैं या इस से संबंधित चीनी उद्योग से जुड़े हुए हैं. इसलिए पेड़ी गन्ने की पैदावार में बढ़ोतरी करना बेहद जरूरी है, क्योंकि भारत में इस की औसत पैदावार मुख्य गन्ना फसल की तुलना में 20-25 फीसदी कम है. हर साल गन्ने के कुछ रकबे यानी आधा रकबा पेड़ी गन्ने की फसल के रूप में लिया जाता है.

गन्ने से अधिक उपज लेने में किल्ले की अधिक मृत संख्या, जमीन में पोषक तत्त्वों की कमी होना, ट्रेश यानी गन्ने की सूखी पत्तियां जलाना वगैरह खास कारण हैं.

इन बातों को ध्यान में रखते हुए गन्ना पेड़ी प्रबंधन के लिए ‘सोर्फ’ नाम से एक खास बहुद्देशीय कृषि मशीन मौजूद है. इस के इस्तेमाल से गन्ना पेड़ी से अच्छी फसल ली जा सकती है.

मशीन (Machine)

मशीन की खूबी : यह मशीन एकसाथ 4 काम करने में सक्षम है.

  1. पोषक तत्त्व प्रबंधन : सोर्फ मशीन गन्ने की सूखी पत्तियों वाले खेत में भी कैमिकल उर्वरकों को जमीन के अंदर पेड़ी गन्ने की जड़ों तक पहुंचाने में सहायक है.
  2. ठूंठ प्रबंधन : गन्ना फसल कटने के बाद खेत में जो ठूंठ रह जाते हैं या ऊंचेनीचे होते हैं, उन असमान ठूंठों को जमीन की सतह के पास से बराबर ऊंचाई पर काटने के लिए भी इस मशीन का इस्तेमाल किया जा सकता है.
  3. मेंड़ों का प्रबंधन : गन्ने की पुरानी मेंड़ों की मिट्टी को अगलबगल से आंशिक रूप से काट कर यह मशीन उस को 2 मेंड़ों के बीच पड़ी सूखी पत्तियों पर डाल देती है, जिस से पत्तियां गल कर खाद का काम करती हैं.
  4. जड़ प्रबंधन : ‘सोर्फ’ मशीन द्वारा गन्ने की पुरानी जड़ों को बगल से काट दिया जाता है, जिस से नई जड़ें आ जाती हैं और पेड़ी गन्ने में किल्ले की संख्या में बढ़ोतरी होती है.

सोर्फ मशीन से जुड़ी अधिक जानकारी के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-राष्ट्रीय अजैविक स्ट्रैस प्रबंधन संस्थान, (समतुल्य विश्वविद्यालय), मालेगाव, बासमती 413115, पुणे (महाराष्ट्र) फोन : 02112-254057 पर जानकारी ले सकते हैं.

भारत के एप्पल मैन (Apple Man) हरिमन शर्मा को पद्मश्री पुरस्कार (Padmashree Award)

हिमाचल प्रदेश : हिमाचल प्रदेश के दूरदर्शी किसान हरिमन शर्मा को भारतीय कृषि में उन के परिवर्तनकारी योगदान के लिए सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री (Padmashree Award) से सम्मानित किया गया है. उन्होंने एचआरएमएन-99 नामक एक अभिनव, स्वपरागण (पौधे के परागकण उसी पौधे के किसी फूल के वर्तिकाग्र पर या उसी पौधे के किसी दूसरे फूल के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं) और कम ठंड में उपजने वाली सेब की किस्म विकसित की है, जिस ने देश में सेब की बागबानी में क्रांति ला दी है. इस से भौगोलिक दृष्टि से बागबानी व्यापक हो गई है और रसदार पौष्टिक सेब की यह किस्म लोगों तक पहुंच गई है.

व्यावसायिक सेब की अन्य किस्मों को समशीतोष्ण जलवायु और लंबे समय तक शीतकालीन मौसम की आवश्यकता होती है, पर इस के विपरीत एचआरएमएन-99 की बागबानी उष्ण कटिबंधीय, उपोष्ण कटिबंधीय और मैदानी क्षेत्रों में हो सकती है, जहां गरमियों में तापमान 40-45 डिगरी सैल्सियस तक पहुंच जाता है. इस से अब उन क्षेत्रों में भी सेब की खेती संभव हो सकती है, जहां पहले इसे अव्यवहारिक माना जाता था.

मुश्किलों ने दिखाया रास्ता

बचपन में ही अनाथ हो चुके हरिमन शर्मा का बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश) स्थित छोटे से गांव पनियाला की पहाड़ी गलियों से राष्ट्रपति भवन के भव्य कक्ष तक का सफर किसान समुदाय के साथ ही देश के छात्रों, शोधकर्ताओं और बागबानी करने वालों के लिए काफी प्रेरणादायक है.

तमाम मुश्किलों के बावजूद हरिमन शर्मा ने मैट्रिक तक की शिक्षा पूरी की और खेतीकिसानी और फल उपजाने के प्रति अपना जुनून बनाए रखा.

एचआरएमएन-99 सेब किस्म की उपज की कहानी साल 1998 में तब शुरू हुई, जब हरिमन शर्मा ने अपने घर के पिछले हिस्से में घर में इस्तेमाल किए गए सेब के कुछ बीज लगा दिए. इन में से एक बीज उल्लेखनीय रूप से अगले साल अंकुरित हो गया और 1,800 फुट की ऊंचाई पर स्थित पनियाला की गरम जलवायु के बावजूद साल 2001 में पौधे ने फल दिए.

हरिमन शर्मा ने यह देखते हुए सावधानीपूर्वक मातृ पौध की देखभाल की और ग्राफ्टिंग द्वारा कई पौधे लगाए और अंततः सेब का एक समृद्ध बाग बना लिया.

अगले दशक में उन्होंने विभिन्न कलमों में ग्राफ्टिंग तकनीकों का प्रयोग कर के सेब की अभिनव किस्म को परिष्कृत करने पर ध्यान केंद्रित किया. समान जलवायु परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में इस सफलता को दोहराने के प्रयासों के बावजूद शुरुआत में उन के काम पर कृषि और वैज्ञानिक समुदायों का अधिक ध्यान नहीं गया.

सेब की नई प्रजाति को देश की सभी जलवायु में उगाना आसान

साल 2012 में भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के एक स्वायत्त संस्थान, राष्ट्रीय नवाचार फाउंडेशन (एनआईएफ) भारत ने इस का पता लगाया. एनआईएफ ने सेब की किस्म की विशिष्टता सत्यापित करते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद संस्थानों, कृषि विज्ञान केंद्रों, कृषि विश्वविद्यालयों, राज्य कृषि विभागों, किसानों और देशभर के स्वयंसेवी संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ मिल कर आणविक अध्ययन, फल गुणवत्ता परीक्षण और बहुस्थान परीक्षणों की सुविधा प्रदान कर इस की विशिष्टता प्रमाणन में सहयोग दिया.

इन सहयोगी प्रयासों से सेब की यह किस्म 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पहुंच गई. इन में बिहार, झारखंड, मणिपुर, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, दादरा और नगर हवेली, कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान, जम्मूकश्मीर, पंजाब, केरल, उत्तराखंड, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, पांडिचेरी, हिमाचल प्रदेश शामिल हैं. साथ ही, इसे नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन में भी लगाया गया है. एनआईएफ ने इस का पंजीकरण नई दिल्ली के पौधा किस्म और किसान अधिकार संरक्षण प्राधिकरण में करने में सहायता प्रदान की.

राष्ट्रपति से मिली सराहना

अपने अभिनव प्रयास के लिए हरिमन शर्मा को साल 2017 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 9वें राष्ट्रीय द्विवार्षिक ग्रासरूट इनोवेशन और उत्कृष्ट पारंपरिक ज्ञान पुरस्कारों के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था.

इस के अलावा भी हरिमन शर्मा कई पुरस्कारों से सम्मानित किए गए हैं. इन में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय नवोन्मेषी किसान पुरस्कार (2016), आईएआरआई फैलो पुरस्कार (2017), डीडीजी, आईसीएआर द्वारा किसान वैज्ञानिक उपाधि (2017), राष्ट्रीय सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार (2018), राष्ट्रीय कृषक सम्राट सम्मान (2018) जगजीवन राम कृषि अभिनव पुरस्कार (2019) के अलावा कई राज्य और केंद्र सरकार के पुरस्कार शामिल हैं. हरिमन शर्मा ने नवंबर, 2023 में मलेशिया में आयोजित चौथे आसियान इंडिया ग्रासरूट इनोवेशन फोरम में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया था.

गुणों से भरपूर

एचआरएमएन-99 सेब की किस्म की विशेषता इस की धारीदार लालपीली त्वचा, मुलायम और रसदार गूदा और प्रति पौधा सालाना 75 किलोग्राम तक फल देने की क्षमता है. सेब की इस प्रजाति की बागबानी से देश में हजारों किसान लाभान्वित हुए हैं.

राष्ट्रीय नवाचार फाउंडेशन ने इस की व्यावसायिक बागबानी को सहयोग देने, बाग लगाने और राज्य कृषि विभागों एवं भारत सरकार के पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय के उत्तरपूर्वी परिषद के अंतर्गत उत्तरपूर्वी क्षेत्र सामुदायिक संसाधन प्रबंधन परियोजना के साथ मिल कर बड़े पैमाने पर उत्तरपूर्वी राज्यों में इस किस्म को रोपने के प्रशिक्षण प्रदान करने में भी सहायता दी है. इस के परिणामस्वरूप सभी पूर्वोत्तर राज्यों में इस किस्म के एक लाख से अधिक पौधे रोपे गए हैं, जिस से किसानों को आय का एक अतिरिक्त स्रोत मिला है.

हरिमन शर्मा के विशिष्ट नवाचार से भारत में सेब की बागबानी में उल्लेखनीय बदलाव आया है, साथ ही इस ने बड़े पैमाने पर किसानों को अतिरिक्त आय और पोषण के बेहतर स्रोत अपनाने के लिए प्रेरित किया है. उन के प्रयासों से कभी अमीरों का आहार माना जाने वाला सेब अब आम आदमी की पहुंच में आ गया है.

पद्मश्री पुरस्कार द्वारा सम्मानित हरिमन शर्मा के प्रयासों को मान्यता मिलना, राष्ट्रीय चुनौतियों के समाधान और सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के साथ संरेखित स्थायी आजीविका सृजन में जमीनी स्तर के नवाचारों की परिवर्तनकारी शक्ति का प्रमाण है.

गणतंत्र दिवस (Republic Day) पर किसानों को कराया पूसा संस्थान का भ्रमण

नई दिल्ली : 27 जनवरी, 2025  को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में 500 किसानों ने भ्रमण किया. ये किसान कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान के विशेष अतिथि के तौर पर देशभर से राजधानी के गणतंत्र दिवस (Republic Day)  उत्सव में शामिल होने आए थे. ये किसान भारत सरकार की विभिन्न योजनाओं जैसे किसान उत्पादक समूह, किसान सम्मान निधि, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजनाओं के लाभार्थी थे.

किसानों के दिल्ली आने का ज्यादा से ज्यादा फायदा मिल सके और किसान कृषि की आधुनिकतम तकनीकों की जानकारी से लाभान्वित हो सकें, इस उद्देश्य को ध्यान में रख कर इस भ्रमण की योजना बनाई गई.

पूसा संस्थान के संपूर्ण अनुसंधान प्रक्षेत्र में ऐसे 16 क्लस्टर चिह्नित किए गए, जैसे संरक्षित खेती, ग्रीनहाउस एवं अलंकृत नर्सरी, सब्जी नर्सरी, टपक सिंचाई के अंतर्गत सब्जी उत्पादन, वर्टिकल खेती एवं हाइड्रोपोनिक्स, मशरूम इकाई, समन्वित खेती (सिंचित) मौडल, समन्वित खेती (वर्षा आधारित) मौडल, जल प्रौद्योगिकी केंद्र में जल संसाधन प्रबंधन के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियां, अधिक समय तक फसल प्रबंधन हेतु पूसा फार्म सनफ्रीज, सरसों प्रक्षेत्र, गेहूं पोषण प्रबंधन प्रक्षेत्र, उपसतही सिंचाई एवं फर्टिगेशन प्रक्षेत्र, मसूर और चना प्रक्षेत्र, पुष्प उद्यान, आम एवं किन्नू का बगीचा एवं उद्यमिता विकास में सक्षम पूसा एग्री कृषि हाट शामिल थे.

गणतंत्र दिवस (Republic Day)

सभी स्थानों में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों एवं तकनीकी अधिकारी मौजूद थे. उन्होंने संबंधित तकनीकों की जानकारी दी. पूसा संस्थान में भ्रमण करने आए किसानों में महिलाएं, बुजुर्ग, युवा, सभी तबके के किसान थे. उन्होंने वैज्ञानिकों के साथ बढ़चढ़ कर चर्चा में हिस्सा लिया एवं तकनीकी सीखने में रुचि दिखाई.

इस अवसर पर संस्था एवीपीएल की ओर से अंजुल त्यागी व उन की टीम मौजूद थी. इन्होंने ड्रोन द्वारा खेत पर छिड़काव का जीवंत प्रदर्शन किया.

कार्यक्रम की योजना कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय एवं भारतीय कृषि अनुसंधान के संयुक्त निदेशक डा. आरएन पडारिया ने बनाई. इस कार्यक्रम का सफल संचालन डा. एके सिंह, प्रभारी, कृषि प्रौद्योगिकी आकलन एवं स्थानांतरण केंद्र ने किया.

कार्यक्रम में पूसा संस्थान के अनेक कृषि विशेषज्ञ, वैज्ञानिक व तकनीकी अधिकारी विभिन्न क्लस्टरों में तकनीकी ज्ञान एवं प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए अनुसंधान प्रक्षेत्र में किसानों के साथ चर्चा के लिए उपलब्ध रहे.

पपीता (Papaya) लागत कम फायदा ज्यादा

पपीता एक जायकेदार फल होने के साथ ही कई खूबियों से भरपूर होता है. जब किसी को आंखों में कमजोरी या पेट की तकलीफ होती है, तब डाक्टर उसे पपीता खाने की सलाह देते हैं. पपीता हर जगह आसानी से मिलने वाला फल है.

किसानों के लिए पपीते की खेती करना काफी फायदे का सौदा साबित हो सकता है. पपीते की खेती में लागत कम आती है, लेकिन समयसमय पर उस की देखभाल बहुत जरूरी है. पपीते की खेती के लिए किसी खास किस्म की मिट्टी की जरूरत नहीं होती. इस की खेती किसी भी मिट्टी और जलवायु में आसानी से की जा सकती है.

पपीते की खेती के लिए ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती. अगर किसान जरा सी सावधानी से काम लें, तो कम लागत में अच्छी पैदावार कर के काफी मुनाफा कमा सकते हैं.

रोपाई : पौधे लगाने के लिए 1 या 2 मीटर की दूरी पर 50×50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद लेते हैं. 15-20 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद और 2 किलोग्राम आर्गेनिक खाद का मिश्रण मिट्टी में मिला कर सभी गड्ढों में जरूरत के हिसाब से भर देते हैं.

जिन इलाकों में पाला पड़ता है और सिंचाई के साधन मौजूद हों, वहां पौधे लगाने का काम फरवरीमार्च में करना चाहिए. उत्तर भारत में पौधे लगाने का काम आमतौर पर जुलाईअगस्त में किया जाता है.

वैसे तमाम प्रयोगों से साबित हो गया है कि अक्तूबरनवंबर में पौधे लगाने से विषाणु रोग का खतरा कम हो जाता है.

सिंचाई: पपीता उथली जड़ वाला पौधा है, इसलिए इसे ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है. यह पानी के भराव को सहन नहीं कर सकता. पपीते में कम दिनों पर हलकी सिंचाई करनी चाहिए. गरमी के दिनों में हर हफ्ते और सर्दी के मौसम में 10-15 दिनों पर सिंचाई करना ठीक रहता है. बारिश के मौसम की खेती के लिए सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती.

खरपतवारों से बचाव : पपीते की अच्छी फसल के लिए 20-25 दिनों के अंतराल में खरपतवार निकालते रहना चाहिए. इस से यह फायदा होता है कि पौधों का विकास तेजी से होता है. पेड़ों की कतारों के बीच में गुड़ाई करना जरूरी है. 2 कतारों के बीच पलवार बिछा देने से खरपतवार कम हो जाते हैं और नमी भी बनी रहती है.

कीड़ों और बीमारियों से बचाव

माहूं : पपीते में खासतौर से माहूं का प्रकोप होता है. ये पौधों का रस चूस कर फलों को नुकसान पहुंचाते हैं. इन से फलों को बचाने के लिए किसान नीम के काढ़े या गौमूत्र का छिड़काव कर सकते हैं.

लाल मकड़ी : ये कीड़े पत्तियों से रस चूस कर पौधों को कमजोर करते हैं. ज्यादा प्रकोप होने पर कीड़े फलों से भी रस चूसने लगते हैं. इन की रोकथाम के लिए गौमूत्र या नीम के काढ़े का छिड़काव करना चाहिए.

कालर राट : यह रोग पीथियम एफेनीडरमेटेम नामक कवक से फैलता है. इस के असर से जमीन के पास वाले तने पर धब्बे उभरते हैं और तना सड़ने लगता है. कुछ दिनों बाद पौधा गिर जाता है. इस की रोकथाम के लिए अरंडी की खली और नमी की खाद देना बहुत जरूरी है. इस के अलावा गौमूत्र या नीम के काढ़े का छिड़काव भी करते हैं.

आर्द्रगलन : यह नर्सरी का गंभीर रोग है, जो कई तरह के फफूंदों के आक्रमण की वजह से होता है. इस में पौधे जमीन के पास से सड़ने लगते हैं और गिर जाते हैं.

इस की रोकथाम के लिए केरोसिन तेल, गौमूत्र, नीम के तेल या नीम के काढ़े से बीच उपचारित कर के बोआई करते हैं और नर्सरी की मिट्टी में माइक्रो नीम की खाद और अरंडी की खली मिला कर पौधे तैयार करते हैं.

मौजेक : यह विषाणु से होने वाला रोग है, जो माहूं द्वारा फैलता है. भारत में पपीते की ज्यादातर प्रजातियां इस से प्रभावित होती हैं. इस के असर से पत्तियां चितकबरी हो जाती हैं और डंठल छोटे हो जाते हैं, नतीजतन फल कम लगते हैं. इस की रोकथाम के लिए माहूं की रोकथाम करना जरूरी होता है. माहूं की रोकथाम के लिए नीम के काढ़े या गौमूत्र का 10-15 दिनों में छिड़काव करें. मौसम खराब होने पर तुरंत छिड़काव करना चाहिए.

नीम का काढ़ा : नीम की 25 हरी व ताजी पत्तियां तोड़ें और कुचल कर पीस लें. फिर उन्हें 50 लीटर पानी में पकाएं. जब पानी घट कर 20-25 लीटर रह जाए, तब बरतन उतार कर उसे ठंडा करें और जरूरत के हिसाब से छिड़काव करें.

गौमूत्र : देशी गाय का 10 लीटर मूत्र ले कर पारदर्शी कांच या प्लास्टिक के जार में भर कर 10-15 दिनों तक धूप में रखें और उस के बाद जरूरत के मुताबिक छिड़काव करें.

फलों की तोड़ाई : जब फल पक जाते हैं, तो उन का रंग हरे से पीला हो जाता है. पके फलों को एकएक कर हाथ से तोड़ें. उन्हें जमीन पर न गिरने दें.

पपीता (Papaya)

पैदावार: पपीता के फलों की पैदावार प्रजातियों, जलवायु और रखरखाव पर निर्भर करती है. औसतन 1 पौधे से 15 से 50 किलोग्राम तक फल हासिल होते हैं. 1 हेक्टेयर से 400-500 क्विंटल तक उपज हासिल हो जाती है.

फलों का रखरखव : पपीता के फलों को बांस या प्लास्टिक की टोकरियों में भर कर शीतगृहों में रखा जाता है. पपीता के फल 7-8 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान और 80-90 फीसदी सापेक्ष आर्द्रता पर 3 हफ्ते तक सुरक्षित रखे जा सकते हैं.

पपेन निकलना : पपीते के फलों से हासिल दूध को सुखाने से जो सफेद पाउडर बनता है, उसे पपेन कहते हैं. पपेन का इस्तेमाल पेट की तमाम बीमारियों की दवा के तौर पर किया जाता है. इस का इस्तेमाल बवासीर, टेप वर्म, रिंग वर्म के इलाज में, मांस को मुलायम बनाने में, सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण में और ऊनी, रेशमी व सूती कपड़ों की सिकुड़न ठीक करने में किया जाता है.

जब पपीते का फल बड़ा हो जाता है, तब उस पर स्टील के चाकू से 3 मिलीमीटर गहरा खरोंच बनाया जाता है. खरोंचों से दूध टपकता है, उसे स्टेनलेस स्टील या कांच के बरतन में जमा कर लेते हैं.

इस दूध को 40 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान पर सुखा लिया जाता है. सुखाने से पहले इस में 0.05 पोटेशियम मेटा बायीसल्फाइट परीक्षक के रूप में मिलाते हैं. इसे कम तापमान पर ही सुखाते हैं, क्योंकि ज्यादा तापमान पर सुखाने से इस का पेपसिन एंजाइम खत्म हो जाता है. इसे रासायनिक विधि से शुद्ध किया जाता है.

पपीते की किस्में

वाशिंगटन : यह पश्चिमी भारत की खास किस्म है. इस के तने की गांठें और पत्तियों के डंठल बैगनी रंग के होते हैं. फल अंडाकार होते हैं और उन के गूदे का रंग पीला होता है. फलों का औसत वजन 1.5 से 2.5 किलोग्राम होता है.

कोयंबटूर : इस के पौधे बोने व एक लिंगी होते हैं. इस के फल 60-70 सेंटीमीटर की ऊंचाई से लगने शुरू हो जाते हैं. फलों का आकार गोल और औसत वजन 1.25 किलोग्राम तक होता है.

पूस डिलीशस : यह एक गाइनो डायोसियास किस्म है. इस के फल बहुत अच्छी क्वालिटी के होते हैं. फलों का वजन 1 से 2 किलोग्राम तक होता है.

पूसा मेजीसटी : इस किस्म का पौधा जमीन से 50-55 सेंटीमीटर ऊंचा हो जाने पर फलने लगता है. इस किस्म के एक पौधे से 30 से 40 किलोग्राम तक पैदावार हो जाती है.

पंत पपीता : यह किसम कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर ने विकसित की है. इस में फल जमीन से 50-60 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर लगते हैं. फलों का आकार मध्यम और औसत वजन डेढ़ किलोग्राम तक होता है. इस के फल खाने वालों को काफी पसंद आते हैं.

सूर्या : भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान बेंगलुरु ने इस संकर किस्म को विकसित किया है. इस के फल का औसत वजन 600-700 ग्राम तक हो जाता है. इस के गूदे का रंग लाल होता है. इस किस्म में 60 किलोग्राम प्रति पौधा तक पैदावार हो जाती है.

कपास (Cotton) में नवाचार से कमाया नाम

राजस्थान के जोधुपर जिले के भोपालगढ़ क्षेत्र में पालड़ी राणावता गांव के प्रगतिशील किसान ओम गिरि के पास परिवार की 100 बीघे जमीन है, जिस में से 40 बीघे में उन्होंने कपास की खेती में नवाचारों से ज्यादा पैदावार कर के फायदा उठाया है.

ओम गिरी जैव तकनीक यानी बायोटैक्नोलौजी से विकसित राशि 134, अंकुर, कृषि धन, सरपास 700 फीसदी माहिको वगैरह कपास की बीटी किस्मों का इस्तेमाल करते हैं, जिस से कपास की फसल पर लट कीट का असर नहीं होता है. वे बीजों का बोआई से पहले उपचार करते हैं. वे पड़ोसी किसानों की मदद भी करते हैं. वे गोबर की खाद को सड़ा कर इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने खेत में कंपोस्ट के गड्ढे बना कर रखे हैं. कंपोस्ट के इस्तेमाल से दीमक भी नहीं लगती और जमीन की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती है.

वे कपास की बोआई के लिए जमीन की जांच के आधार पर उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं. वे खड़ी फसल में रस चूसक कीटों की रोकथाम ईटीएल के आधार पर करते हैं. इस के तहत वे पहला छिड़काव इमिडाक्लोप्रिड 17.8 (1 मिलीलीटर प्रति 3 लीटर पानी), दूसरा छिड़काव एसीफेट (1 ग्राम प्रति लीटर पानी) व तीसरा छिड़काव नीम आधारित दवा (एजाडिरेक्टीन) का करते हैं, जिस से रस चूसक कीट सफेदमक्खी, हरा तेला और थ्रिप्स की रोकथाम हो जाती है. फसल के लिए संतुलित उर्वरक एनपीके 18:18:18 के 1 फीसदी घोल का छिड़काव करते हैं. फूल गिरने की समस्या को रोकने के लिए प्लानोफिक्स 4 मिलीलीटर प्रति 15 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करते हैं. इस से फसल के सूखने की शिकायत नहीं रहती.

कपास (Cotton)

अच्छी क्वालिटी की खेती के लिए जरूरी है कि कपास की चुनाई 50 फीसदी डोडे खिलने पर शुरू करें. पूरी तरह खिले डोडे से ही चुनाई करें. चुनाई सुबह ओस सूखने के बाद शुरू करें. चुनाई करते वक्त सिर को कपड़े से ढक लें ताकि कपास में बाल न मिलें. चुनाई करते समय कपास में पत्तियां न मिलने दें. चुनाई नीचे के डोडे से शुरू करें. कपास की चुनाई प्लास्टिक के थैले की बजाय सूती कपड़े में करें. चुनी कपास में पानी न मिलाएं. जमीन पर गिरी कपास को अच्छी तरह चुनें. चुनाई करते वक्त बीड़ीसिगरेट न पीएं व खानापीना न खाएं. चुनी कपास को सूती कपड़े या तिरपाल पर ढक कर रखें. भंडारित कपास को आग व पानी से बचाएं. अंतिम चुनाई की कपास अलग से इकट्ठा करें.

गुणवत्ता वाली साफ कपास का बाजार में 100 से 200 रुपए प्रति क्विंटल ज्यादा मिलता है.

कपास में नवाचारों से ओम गिरी ने कपास का उत्पादन 7 क्विंटल प्रति बीघा यानी तकरीबन 44 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल किया है, जो रिकार्ड उत्पादन है. जोधपुर जिले में सब से ज्यादा यानी 44 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से कपास का उत्पादन लेने के कारण भारतीय वस्त्र उद्योग परिसंघ, कपास विकास और अनुसंधान संगठन ने हाल ही में विजयनगर में ओम गिरी को नकद राशि और प्रशस्तिपत्र दे कर सम्मानित किया है.

कपास (Cotton)

इस तरह ओम गिरी ने कपास में नवाचार जैव तकनीक से उन्नत किस्म का कपास हासिल कर के ज्यादा मुनाफा कमाया है और दूसरे किसानों को भी इस की जानकारी दी है.