Barren Land : जिप्सम और पायराइट से सुधरेगा ऊसर

Barren Land| भारत में एक बड़ा हिस्सा ऊसर जमीन का है, जिस में खासतौर पर लवणीय और क्षारीय जमीन मुख्य रूप से पाई जाती है. एक अनुमान के मुताबिक देश में लवणीय और क्षारीय जमीन उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान समेत अन्य प्रदेशों के बड़े क्षेत्र में पाई जाती है. ऊसरीले इलाकों में खेती करना मुश्किल है या फिर मुमकिन ही नही है. ऐसे में इन समस्याग्रस्त जमीनों का जल्दी से सुधार करने के लिए एक अचूक तरीका है जिप्सम और पायराइट से जमीन का सुधार.

ध्यान देने वाली बात यह है कि जिप्सम और पायराइट न केवल ऊसर जमीन को सुधारते हैं, बल्कि नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के बाद सब से जरूरी द्वितीयक पोषक तत्त्व जैसे सल्फर, कैल्शियम, मैग्नीशियम और कुछ सूक्ष्म पोषक तत्त्वों जैसे लोहा वगैरह का भी अच्छा स्रोत हैं.

क्या है ऊसर जमीन की पहचान : ऐसी जमीन, जिस में लवण (सोडियम, सोडियम बाईकार्बोनेट, सोडियम क्लोराइड) वगैरह की अधिकता की वजह से ऊपरी सतह सफेद दिखाई देने लगती है या जमीन बहुत ही कठोर हो जाती है और फसलें नहीं उगाई जा सकती हैं, उसे ऊसर जमीन कहते हैं.

ऊसर जमीन की मुख्य पहचान है, जमीन का कड़ा हो जाना, पानी न सोखना, जिस से जमीन पर कटाव होता है और नाले बन जाते हैं, जहां ऊसर क्षेत्र होता है, वहां मकानों में प्लास्टर जल्दी गिरने लगते हैं, यह धीरेधीरे ईंटों को गलाने लगता है. बारिश होने पर यह मिट्टी साबुन की तरह फिसलने लगती है.

ऊसर जमीन 3 प्रकार की होती है, लवणीय, क्षारीय और लवणीय व क्षारीय.

लवणीय जमीन : लवणीय मिट्टी का निर्माण आमतौर पर 55 सेंटीमीटर से कम बारिश वाले शुष्क और अर्द्धशुष्क इलाकों में होता है. इस मिट्टी में मृदा स्तर की ऊपरी सतह पर सब से ज्यादा लवण की मात्रा रहती है और सूखे मौसम में मिट्टी की सतह पर उजली पपड़ी सी नजर आती है. मिट्टी का पीएच मान 8.5 से कम पाया जाता है.

क्षारीय जमीन : इसे सोडिक मिट्टी या काली क्षारीय, अलवणीय क्षारीय मिट्टी भी कहते हैं. इस का रंग काला होता है. मिट्टी का पीएच मान 8.5 से 10 तक होता है. मिट्टी में कड़ी परत बनी होती है, जिस से ऐसी जमीन का सुधार करना मुश्किल होता है. लिहाजा, इस में जिप्सम या पायराइट का इस्तेमाल जमीन सुधारक के रूप में करना बेहतर रहता है.

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लवणीय व क्षारीय जमीन : यह मिट्टी ज्यादातर भूरे रंग की पाई जाती है और शुष्क क्षेत्रों में ज्यादा देखने में आती है. इस में ऊपरी सतह पर लवण पाए जाते हैं, लेकिन नीचे की सतह पर क्षारीय जमीन की तरह कड़ी परत पाई जाती है. इस का पीएच मान 8.5 से कम, लेकिन नितारने के बाद 8.5 से अधिक होता है.

क्या है जिप्सम : जिप्सम को कैल्शियम सल्फेट के नाम से जानते हैं. इस में 29.2 फीसदी कैल्शियम, 18.6 फीसदी सल्फर व 20.9 फीसदी भारानुसार पानी होता है. इस की खास विशेषताएं निम्न प्रकार हैं:

* यह जमीन सुधारक के साथसाथ कैल्शियम और सल्फर का मुख्य स्रोत होने के कारण मिट्टी को कैल्शियम और सल्फर जैसे द्वितीयक पोषक तत्त्व देता है. इन दिनों ज्यादातर मिट्टी में इन दोनों तत्वों की भारी कमी है. इस की वजह से पैदावार पर नकारात्मक असर पड़ रहा है.

* यह जल में घुलनशील होता है.

* इस का कैल्शियम आयन क्षारीय मृदा में से विनिमेय सोडियम आयन को विस्थापित कर के सोडियम क्ले को कैल्शियम क्ले (खराब आयन को लाभदायक आयन) में बदल देने का माद्दा रखता है. कैल्शियम कार्बनिक पदार्थों को मृदा के क्ले कणों को बांधता है, जिस से मिट्टी के कणों में टिकाऊपन आता है, लिहाजा, मिट्टी में हवा का आनाजाना आसान हो जाता है.

* यह सस्ता और सुलभ है.

क्या है पायराइट : इसे आयरन सल्फाइड कहते हैं. इस में सब से ज्यादा 22 से 24 फीसदी सल्फर, 20 से 22 फीसदी आयरन, 0.5 से 0.6 फीसदी मैग्नीशियम, 35 से 40 फीसदी सिलिका होता है. इस की खास विशेषताएं निम्न प्रकार हैं.

* पायराइट में द्वितीयक पोषक तत्त्वों मैग्नीशियम व सल्फर के अलावा भरपूर मात्रा में आयरन जैसे सूक्ष्म पोषक तत्त्व भी पाए जाते हैं. मिट्टी को मिलने वाले पोषक तत्त्वों के आधार पर यह जिप्सम से ज्यादा बेहतर है.

* यह पानी व हवा से क्रिया कर के तुरंत ही सल्फ्यूरिक अम्ल और आयरन सल्फेट बनाता है. सल्फ्यूरिक अम्ल और आयरन सल्फेट मिट्टी की क्षारीयता को तेजी से घटा देते हैं.

* इस के द्वारा बनाया गया सल्फ्यूरिक अम्ल ऊसरीली मिट्टी में कैल्शियम कार्बोनेट से क्रिया कर के कैल्शियम सल्फेट बनता है, जो मिट्टी को कैल्शियम मिट्टी में बदल देता है.

* जमीन सुधार के समय जिप्सम के मुकाबले पायराइट जल्दी लगभग 7-10 दिनों में ही मिट्टी में क्रिया पूर्ण कर लेता है. वहीं दूसरी ओर जिप्सम को 10-15 दिनों तक पानी में डूबे रहने की जरूरत पड़ती है.

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कब होगा प्रयोग : ऊसर जमीन का सुधार साल भर किया जा सकता है. मगर सब से मुफीद समय गरमियों का महीना है. इन दिनों में मिट्टी में पानी सोखने की कूवत ज्यादा होती है. साथ ही, इस से रिसने की क्रिया आसान हो जाती है. रिसाव होने से नुकसानदायक लवण जमीन की निचली सतह में चले जाते हैं, जिस से ऊपरी सतह में लवण की सांद्रता काफी कम हो जाती है.

साथ में क्या होगा प्रयोग : ऊसर जमीन को सुधारने के लिए संस्तुत मात्रा में जिप्सम अथवा पाइराइट की आधी मात्रा और 10 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद अथवा 10 टन प्रेसमड अथवा 10 टन फ्लाईएैश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें. यदि गोबर की खाद, प्रेसमड, फ्लाईएैश न हो, तो जिप्सम अथवा पायराइट की संस्तुत की गई पूरी मात्रा का प्रयोग करना चाहिए.

कैसे होगा प्रयोग : जिप्सम या पायराइट का प्रयोग करने से पहले खेत में 5-6 मीटर चौड़ी क्यारियां लंबाई में बना लेनी चाहिए. उस के बाद जिप्सम अथवा पायराइट को देशी हल अथवा कल्टीवेटर से जमीन की ऊपरी सतह में मिला कर और खेत को समतल कर के पानी भर कर के रिसाव क्रिया करनी चाहिए. पहले खेत में 12-15 सेंटीमीटर पानी भर कर छोड़ देना चाहिए. 7-8 दिनों बाद जो पानी बचे, उसे जल निकास नाली द्वारा बाहर निकाल कर फिर से 12-15 सेंटीमीटर पानी भर कर रिसाव क्रिया करनी चाहिए. ऊसर सुधार के बाद 2-3 साल अनिवार्य रूप से पहली फसल धान की लेनी चाहिए.

Women Farmers: मजदूर ही नहीं खेतिहर भी हैं महिला किसान

महिला किसानों (Women Farmers) को ले कर आमतौर पर यह सोचा जाता है कि वे केवल खेती में मजदूरी का ही काम करती हैं. असल में यह बात सच नहीं है. आज महिलाएं किसान भी हैं. वे खेत में काम कर के घर की आमदनी बढ़ा रही हैं. बैंक से लोन लेने के साथ ही साथ ट्रैक्टर चलाने, बीज रखने, जैविक खेती करने, खेत में खाद और पानी देने जैसे बहुत सारे काम करती हैं.

ऐसी महिला किसानों की अपनी सफल कहानी है, जिस से दूसरी महिला किसान भी प्रेरणा ले रही हैं. जरूरत इस बात की है कि हर गांव में ऐसी महिला किसानों की संख्या बढे़ और खेती की जमीन में उन को भी मर्दों के बराबर हक मिले.

महिलाओं की सब से बड़ी परेशानी यह है कि खेती की जमीन में उन का नाम नहीं होता. इस वजह से बहुत सी सरकारी योजनाओं का लाभ महिला किसानों को नहीं मिल पाता है. खेती की जमीन में महिलाओं का नाम दर्ज कराने के लिए चले ‘आरोह’ अभियान से महिलाओं में एक जागरूकता आई है. आज वे बेहतर तरह सेअपना काम कर रही हैं. तमाम प्रगतिशील महिला किसानों से बात करने पर पता चलता है कि वे किस तरह से अपनी मेहनत के बल पर आगे बढ़ीं.

मुन्नी देवी शाहजहांपुर की रहने वाली हैं. उन के परिवार में 2 बेटे व एक बेटी है. लेकिन घर के हालात कुछ ऐसे बदले कि मुन्नी देवी का परिवार तंगहाली में आ गया. घर में बंटवारा हुआ. पति के हिस्से में जो जमीन आई, उस से गुजारा करना मुश्किल था.

मुन्नी देवी को आश्रम से जुड़ने का मौका मिला. हिम्मत जुटा कर उन्होंने पति से बात कर आश्रम में वर्मी कंपोस्ट बनाने का प्रशिक्षण ले कर बाद में खुद ही खाद बनाने का काम शुरू कर दिया.

आर्थिक उन्नयन के लिए मुन्नी देवी फसलचक्र व फसल प्रबंधन को बेहद जरूरी मानती हैं. 3 बीघे खेत में सब्जी व 5 बीघे खेत में गेहूं 4 बीघे खेत में गन्ने की फसल उगा रही हैं. गन्ने के साथ मूंग, उड़द, मसूर, लहसुन, प्याज, आलू, सरसों वगैरह की सहफसली खेती करती हैं, जिस से परिवार की रसोई के लिए नमक के अलावा बाकी चीजों की जरूरत पूरी कर लेती हैं.

इसलावती देवी अंबेडकरनगर से हैं. उन्होंने कहा कि हम ने मायके में देखा था कि मिर्च की खेती किस तरह होती है और यह लाभप्रद भी है, उसी अनुभव से हम ने मिर्च की खेती शुरू की और आज हम अपने 7 बीघे खेत में सिर्फ सब्जी और मेंथा आयल की फसल उगाते हैं. मिर्च की खेती एक नकदी फसल है. दूसरी सब्जियां भी महंगे दामों में बिक जाती हैं. खेत में हमारा पूरा परिवार कड़ी मेहनत करता है. खेती कोई घाटे का काम नहीं है.

कुंता देवी सहारनपुर की एक साहसी, जुझारू व संघर्षशील महिला किसान हैं. 1 दिन जब वे पशुओं के लिए मशीन में चारा काट रही थीं, तो उन का हाथ घास की गठरी के साथ मशीन में चला गया और पूरी बाजू ही कट गई. कुंता ने उसे ही अपना नसीब समझा और सबकुछ चुपचाप सह लिया. लेकिन यहीं कुंता के दुख का अंत नहीं था. उस के देवर व जेठ की बुरी नजर उस पर थी. कुंता का पति मानसिक रोगी था, जिस के कारण कुंता का देवर धर्म सिंह उस का फायदा उठाना चाहता था. वह कुंता पर लगातार दबाव डालने लगा कि पति के साथसाथ वह देवर के साथ भी रहे.

एक दिन जब कुंता पति के साथ अपने खेत में काम कर रही थी, तभी उस का जेठ जय सिंह वहां आया और उस के पति को जबरदस्ती पेड़ से बांध दिया और कुंता के साथ जबरदस्ती करने लगा. लेकिन कुंता बहुत हिम्मतवाली महिला है. उस ने खेत में ही डंडा निकाल कर अपने जेठ को पीटना शुरू कर दिया. उस का जेठ वहां से जान बचा कर भाग गया.

मीरा देवी गोरखपुर की एक लघु सीमांत महिला किसान हैं. आरोह अभियान से पिछले 10 वर्षों से जुड़ी हैं. ग्राम जनकपुर की आरोह महिला मंच की अध्यक्ष भी हैं. आरोह अभियान से जुड़ने के बाद मीरा में जो साहस व हिम्मत आई है, वह एक मिसाल है.

जगरानी देवी ललितपुर की एक महिला किसान हैं. उन की शहरी आदिवासी पट्टे की जमीन पर वर्षों से दंबगों का कब्जा था, जिस पर इन को कब्जा नहीं मिल रहा था. जब यह आरोह अभियान से जुड़ीं, उस के बाद आरोह अभियान द्वारा जनसुनवाई की गई, जिस में एसडीएम आए तब इन्होंने उन के सामने अपनी समस्या रखी. उस के बाद एसडीएम ने उन्हें कब्जा दिलाया. अब जगरानी देवी अपने खेत में सब्जी की खेती करती हैं और अपनी सब्जी को खुद ही बाजार में बेचती हैं.

Chilli Nursery : वैज्ञानिक विधि द्वारा मिर्च की पौधशाला करें तैयार

Chilli Nursery| हर दिन इस्तेमाल की जाने वाली मिर्च की खेती बरसात में जुलाई से अक्तूबर तक, सर्दी में सितंबर से जनवरी तक और जायद मौसम में फरवरी से जून तक की जाती है. मिर्च को सुखा कर बेचने के लिए सर्दी के मौसम की मिर्च का इस्तेमाल होता है.

मिर्च की खासीयत यह है कि यदि पौध अवस्था में ही इस की देखभाल ठीक से कर ली जाए तो अच्छा उत्पादन मिलने में कोई शंका नहीं होती है. भरपूर सिंचाई समयानुसार करने से ज्यादा फायदा लिया जा सकता है. टपक सिंचाई अपनाने से मिर्च की फसल से दोगुनी उपज हासिल की जा सकती है. टपक सिंचाई से 50-60 फीसदी जल की बचत होती है और खरपतवार से नजात मिल जाती है.

मिर्च की नर्सरी ऐसे लगाएं

पौधशाला, रोपणी या नर्सरी एक  ऐसी जगह है, जहां पर बीज या पौधे के अन्य भागों से नए पौधों को तैयार करने के लिए सही इंतजाम किया जाता है. पौधशाला का क्षेत्र सीमित होने के कारण देखभाल करना आसान व सस्ता होता है.

पौधशाला के लिए जगह का चुनाव

* पौधशाला के पास बहुत बड़े पेड़ न हों.

* जमीन उपजाऊ, दोमट, खरपतवार रहित व अच्छे जल निकास वाली हो, अम्लीय क्षारीय जमीन का चयन न करें.

* पौधशाला में लंबे समय तक धूप रहती हो.

* पौधशाला के पास सिंचाई की सुविधा मौजूद हो.

* चुना हुआ क्षेत्र ऊंचा हो ताकि पानी न ठहरे.

* एक फसल के पौध लगाने के बाद दूसरी बार पौध उगाने की जगह बदल दें यानी फसलचक्र अपनाएं.

क्यारियों की तैयारी व उपचार

पौधशाला की मिट्टी की एक बार गहरी जुताई करें या फिर फावड़े की मदद से खुदाई करें. खुदाई करने के बाद ढेले फोड़ कर गुड़ाई कर के मिट्टी को भुरभुरी बना लें और उगे हुए सभी खरपतवार निकाल दें. फिर सही आकार की क्यारियां बनाएं. इन क्यारियों में प्रति वर्गमीटर की दर से 2 किलोग्राम गोबर या कंपोस्ट की सड़ी खाद या फिर 500 ग्राम केंचुए की खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं. यदि मिट्टी कुछ भारी हो तो प्रति वर्गमीटर 2 से 5 किलोग्राम रेत मिलाएं.

मिट्टी का उपचार

जमीन में विभिन्न प्रकार के कीडे़ और रोगों के फफूंद जीवाणु वगैरह पहले से रहते हैं, जो मुनासिब वातावरण पा कर क्रियाशील हो जाते हैं व आगे चल कर फसल को विभिन्न अवस्थाओं में नुकसान पहुंचाते हैं. लिहाजा नर्सरी की मिट्टी का उपचार करना जरूरी है.

सूर्यताप से उपचार

इस विधि में पौधशाला में क्यारी बना कर उस की जुताईगुड़ाई कर के हलकी सिंचाई कर दी जाती है, जिस से मिट्टी गीली हो जाए. अब इस मिट्टी को पारदर्शी 200-300 गेज मोटाई की पौलीथीन की चादर से ढक कर किनारों को मिट्टी या ईंट से दबा दें ताकि पौलीथीन के अंदर बाहरी हवा न पहुंचे और अंदर की हवा बाहर न निकल सके. ऐसा उपचार तकरीबन 4-5 हफ्ते तक करें. यह काम 15 अप्रैल से 15 जून तक किया जा सकता है. उपचार के बाद पौलीथीन शीट हटा कर खेत तैयार कर के बीज बोएं. सूर्यताप उपचार से भूमि जनित रोग कारक जैसे फफूंदी, निमेटोड, कीट व खरपतवार वगैरह की संख्या में भारी कमी हो जाती है.

रसायनों द्वारा जमीन उपचार

बोआई के 4-5 दिनों पहले क्यारी को फोरेट 10 जी 1 ग्राम या क्लोरोपायरीफास 5 मिलीलीटर पानी के हिसाब से या कार्बोफ्यूरान 5 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से जमीन में मिला कर उपचार करते हैं. कभीकभी फफूंदीनाशक दवा कैप्टान 2 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिला कर भी जमीन को सही किया जा सकता है.

जैविक विधि द्वारा उपचार

क्यारी की जमीन का जैविक विधि से उपचार करने के लिए ट्राइकोडर्मा विरडी की 8 से 10 ग्राम मात्रा को 10 किलोग्राम गोबर की खाद में मिला कर क्यारी में बिखेर देते हैं. इस के बाद सिंचाई कर देते हैं. जब खेत का जैविक विधि से उपचार करें, तब अन्य किसी रसायन का इस्तेमाल न करें.

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बीज खरीदने में सावधानियां

* बीज अच्छी किस्म का शुद्ध व साफ हो, अंकुरण कूवत 80-85 फीसदी हो.

* बीज किसी प्रमाणित संस्था, शासकीय बीज विक्रय केंद्र, अनुसंधान केंद्र या विश्वसनीय विक्रेता से ही लेना चाहिए. बीज प्रमाणिकता का टैग लगा पैकेट खरीदें.

* बीज खरीदते समय पैकेट पर लिखी किस्म, उत्पादन वर्ष, अंकुरण फीसदी, बीज उपचार वगैरह जरूर देख लें ताकि पुराने बीजों से बचा जा सके. बीज बोते समय ही पैकेट खोलें.

बीज उपचार : बीज हमेशा उपचारित कर के ही बोने चाहिए ताकि बीज जनित फफूंद से फैलने वाले रोगों को काबू किया जा सके. बीज उपचार के लिए 1.5 ग्राम थाइरम, 1.5 ग्राम कार्बेंडाजिम या 2.5 ग्राम डाइथेन एम 45 या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरडी का प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिए. यदि क्यारी की जमीन का उपचार जैविक विधि (ट्राइकोडर्मा) से किया गया है, तो बीजोपचार भी ट्राइकोडर्मा विरडी से करें.

बीज बोने की विधि : क्यारियों में उस की चौड़ाई के समानांतर 7-10 सेंटीमीटर की दूरी पर 1 सेंटीमीटर गहरी लाइनें बना लें और उन्हीं लाइनों पर करीब 1 सेंटीमीटर के अंतर से बीज बोएं. बीज बोने के बाद उसे कंपोस्ट, मिट्टी व रेत के 1:1:1 के 5-6 ग्राम थाइरम या केपटान से उपचारित मिश्रण से 0.5 सेंटीमीटर की ऊंचाई तक ढक देते हैं.

क्यारियों को पलवार से ढकना : बीज बोने के बाद क्यारी को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पुआल, सरकंडों, गन्ने के सूखे पत्तों या ज्वारमक्का के बने टटीयों से ढक देते हैं ताकि मिट्टी में नमी बनी रहे और सिंचाई करने पर पानी सीधे ढके हुए बीजों पर न पड़े, वरना मिश्रण बीज से हट जाएगा और बीज का अंकुरण प्रभावित होगा.

सिंचाई : क्यारियों में बीज बोने के बाद 5-6 दिनों तक हलकी सिंचाई करें ताकि बीज ज्यादा पानी से बैठ न जाएं. बरसात में क्यारी की नालियों में मौजूद ज्यादा पानी को पौधशाला से बाहर निकालना चाहिए. क्यारियों से पलवार घासफूल तब हटाएं जब तकरीबन 50 फीसदी बीजों का अंकुरण हो चुका हो. बोआई के बाद यह अवस्था मिर्च में 7-8 दिनों बाद, टमाटर में 6-7 दिनों बाद व बैगन में 5-6 दिनों बाद आती है.

खरपतवार नियंत्रण : क्यारियों में उपचार के बाद भी यदि खरपतवार उगते हैं, तो समयसमय पर उन्हें हाथ से निकालते रहना चाहिए. इस के लिए पतलीलंबी डंडियों की भी मदद ली जा सकती है. बेहतर रहेगा अगर यदि पेंडीमिथालिन की 3 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर बोआई के 48 घंटे के भीतर क्यारियों में छिड़क दें.

पौध विरलन : यदि क्यारियों में पौधे अधिक घने उग आएं तो उन को 1-2 सेंटीमीटर की दूरी पर छोड़ते हुए अन्य पौधों को छोटी उम्र में ही उखाड़ देना चाहिए, वरना पौधों के तने पतले व कमजोर बने रहते हैं. घने पौधे पदगलन रोग लगने की संभावना बढ़ाते हैं. उखाड़े गए पौधे खाली जगह पर रोपे जा सकते हैं.

पौध सुरक्षा : पौधशाला में रस चूसने वाले कीट जैसे माहू, जैसिड, सफेद मक्खी व थ्रिप्स से काफी नुकसान पहुंचता है. विषाणु अन्य बीमारियों को फैलाते हैं, लिहाजा इन के नियंत्रण के लिए नीम का तेल 5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में या डायमिथियेट (रोगोर) 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर बोआई के 8-10 दिनों और 25-27 दिनों बाद छिड़कना चाहिए. क्यारी और बीज उपचार करने के बाद भी यदि पदगलन बीमारी लगती है (जिस में पौधे जमीन की सतह से गल कर जमीन पर गिरने लगते हैं और सूख जाते हैं), तो फसल पर मैंकोजेब या कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

पौधे उखाड़ना : क्यारी में तैयार पौधे जब 25-30 दिनों के हो जाएं और उन की ऊंचाई 10-12 सेंटीमीटर की हो जाए और उन में 5-6 पत्तियां आ जाएं, तब उन्हें पौधशाला से खेत में रोपने के लिए निकालना चाहिए. पौध निकालने से पहले उन की हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. सावधानी से पौधे निकालने के बाद 50 या 100 पौधों के बंडल बना लें.

पौधों का रोपाई से पहले उपचार : पौधशाला से निकाले गए पौध समूह या रोपा की जड़ों को कार्बेंडाजिम बाविस्टीन 10 ग्राम प्रति लीटर पानी में बने घोल में 10 मिनट तक डुबोना चाहिए, रोपाई के बाद सिंचाई जरूर करें.

गरमी के मौसम में कतार से कतार की दूरी 45 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंटीमीटर और बरसात में कतार से कतार की दूरी 60 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 45 सेंटीमीटर रखें.

मिर्च से अधिकतम उत्पादन हासिल करने के लिए उस की नर्सरी लगा कर पौधशाला में स्वस्थ पौधे तैयार करने का अपना अलग महत्त्व है. जितनी स्वस्थ नर्सरी रहेगी, उतनी ही अच्छी रोप मिलेगी.

Phirni : फिरनी का स्वाद सदा रहेगा याद

Phirni| खास त्योहारों पर बनाई जाने वाली फिरनी अब खाने के बाद की सब से ज्यादा पसंद की जाने वाली मीठी डिश बन गई है. छोटेबड़े सभी किस्म के होटलों और रेस्त्राओं में इस को बनाया जा रहा है.

फिरनी एक मीठा व्यंजन है. इसे बहुत ही कम समय में बनाया जा सकता है. चावल की खीर की जगह यह खाने में बहुत अलग होती है. फिरनी खाने में जितनी स्वादिष्ठ लगती है, इसे बनाना उतना ही आसान है.

बच्चों को भी ये डिश बहुत पसंद आती है. फिरनी पंजाबी लोग बहुत पसंद करते हैं. अब यह धीरेधीरे हर जगह के लोगों को पसंद आने लगी है. जिस समय नया चावल बाजार में आता है, उस समय बहुत सारे लोग खुशी में फिरनी बनाते और खाते हैं. अलगअलग स्वाद के लिए कभी पिस्ता फिरनी, तो कभी मैंगो फिरनी भी तैयार की जाती है. इस से फिरनी के साथ मेवों और ताजा फलों के स्वाद का भी एहसास मिलता है.

लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में चल रहे करीम रेस्त्रां में फिरनी को बहुत ही अच्छी तरह से बनाया जाता है. अनुराग सिंह और श्वेता सिंह बताते हैं कि वैसे यहां आने वाले करीम के नानवेज व्यंजन सब से ज्यादा पसंद करते हैं. खाने के बाद मिठाई के रूप में फिरनी लोगों को खूब पसंद आती है. फिरनी को मिट्टी की छोटी सी कटोरी में रख कर दिया जाता है. जो खाने के स्वाद को और भी बढ़ा देती है.

खाने से पहले इसे फ्रिज में रख कर ठंडा किया जाता है. फिरनी में पड़े मेवे इसे और भी खास बना देते हैं. खोए की जगह इस में दूध का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में यह अलग किस्म का स्वाद देती है, जो ताजगी का एहसास कराता है.

फिरनी बनाने की सामग्री : फुल क्रीम दूध 1 लीटर, चावल 100 ग्राम, चीन 1 मध्यम कटोरी, काजू 50 ग्राम, बादाम 50 ग्राम किशमिश 25 ग्राम, छोटी इलायची 2, पिसा नारियल 20 से 30 ग्राम.

फिरनी बनाने के लिए सब से पहले चावल को 30 मिनट के लिए भिगो कर रख दें. दूध को उबाल कर थोड़ा गाढ़ा कर लें और उस में चीनी डाल कर धीरेधीरे मिलाएं. काजू, बादाम को छोटेछोटे टुकड़ों में काट लें.

अब उबलते हुए दूध में काजू, बादाम, छोटी इलायची, किशमिश और पिसा नारियल डाल दें. इस में पिस्ता और केसर भी डाल सकते हैं.

सब कुछ डालने के बाद दूध को अच्छे से मिला लें और दूध को उबलने दें. अब जो चावल भिगो कर रखा था, उसे थोड़ा सा पानी डाल कर पीस लें. पिसे हुए चावल को दूध के मिक्सचर में धीरेधीरे डालें, ध्यान रखें कि इसे लगातार चलाते रहें, नहीं तो इस में गांठ पड़ जाएगी.

जब दूध गाढ़ा हो जाए, तो गैस की आंच बंद कर दें. ध्यान रखें, फिरनी सूखे नहीं. अब फिरनी को थोड़ा ठंडा होने दें. जब फिरनी ठंडी हो जाए, तो बाउल में डाल कर काजू, किशमिश, बादाम और पिसे गोले से सजा दें. अब इस बाउल को 5 से 10 मिनट के लिए फ्रिज में ठंडा होने के लिए रख दें. जब फिरनी ठंडी हो जाए, तो सर्व करें. फिरनी को ठंडा ही खाया जाता है. अगर फिरनी ज्यादा सूख जाए, तो इसे पतला करने के लिए ठंडा दूध डाल कर मिला लें.

फिरनी के फायदे

चावल में कार्बोहाइड्रेट होता है, जो इंस्टेंट एनर्जी देता है. फिरनी में काजू डालते हैं, जो शरीर के लिए बहुत ही फायदेमंद होता है. काजू दिल के मरीजों के लिए बहुत फायदेमंद होता है. काजू ब्लडप्रेशर को कम करने में मदद करता है. काजू हमारी हड्डियों को मजबूत बनाता है. काजू वजन कम करने में मदद करता है. ऐसे में फिरनी खाने से शरीर को लाभ होता है. यह दूसरी मिठाइयों की तरह नुकसान नहीं करती है.

Guava Processing : अमरूद की प्रोसैसिंग – बनाए स्वादिष्ठ उत्पाद

Guava Processing| अमरूद सेहद के लिए एक लाभकारी फल है और इस की प्रोसैसिंग कर सालोंसाल इस का जायका लिया जा सकता है.

अमरूद का पल्प (गूदा) : हर मौसम में फल के गूदे को संरक्षित किया जा सकता है, ताकि इसे टाफी, स्लैब, नेक्टर व पेय वगैरह बनाने में काम लाया जा सके. नेक्टर या पेय बनाने के मकसद से संरक्षित गूदे को निकालने के लिए फल को पानी के साथ पकाया नहीं जाता, क्योंकि इस से गूदे में ताजगी का गुण कम हो जाता है. फलों को धोकाट कर पल्पर से गूदा निकालें, ताकि बीज व छिलके निकल जाएं. गूदे के संरक्षण के लिए प्रति किलोग्राम के लिए 1 ग्राम साइट्रिक एसिड और 2 ग्राम पोटेशियम मेटाबाईसल्फाइड थोड़े पानी में घोल कर भलीभांति मिलाएं. फिर इसे अच्छी तरह साफ की गई शीशे या पालीथीन के जारों में भर कर मुंह को रुई और ढक्कन से बंद करें और मोम से अच्छी तरह सील करें. इसे ठंडे स्थान पर भंडारित करें.

अमरूद का रस : अमरूद का रस निकालना कठिन होता है. संस्थान में साफ व पारदर्शक रस निकालने की विधि खोजी गई है. पहले कम से कम पानी इस्तेमाल करते हुए अमरूद का गूदा निकालें. गूदे को तोल लें और भार का 0.1 फीसदी पेक्टिक इंजाइम भलीभांति गूदे में मिला दें. अब इसे सामान्य तापमान पर 18-20 घंटे के लिए रख दें. इस के बाद एक मोटे कपड़े से छानें और बोतलों में भर कर रखें. इस से गूदा नीचे बैठ जाता है. सावधानी से रस निकाल लें या साइफन कर लें. रस को बोतलों में भर कर 82-85 डिगरी सेंटीगे्रड तक गरम करें और गरमगरम सूखी, सट्रालाइज की हुई बोतलों में भर कर क्राउन कार्क लगा दें. इन बोतलों को एक पतीले में मोटी कपड़े की गद्दी के ऊपर रख कर 80 डिगरी सेंटीग्रेड पर पानी में तकरीबन 30 मिनट गरम करें. आंच से उतार कर ठंडी हो जाने पर इन को सूखे व ठंडे स्थान पर रखें.

अमरूद का पेय : इसे बनाने के लिए ऊपर बताई विधि से प्राप्त गूदे को छोटेछोटे छेदों वाली स्टेनलेस स्टील या अल्यूमिनियम की छलनी से छान कर गूदे को एकरस कर लें और तोल लें. 12-13 फीसदी शक्कर का शरबत बनाएं. इस में 0.3 फीसदी साइट्रिक एसिड और 10 फीसदी अमरूद का गूदा मिलाएं. इसे गरमगरम ही 200 मिलीलीटर की बोतलों में भर कर क्राउन कार्क लगा कर बंद कर दें. अब इन को 15-20 मिनट तक उबलते पानी में एक पतीले में मोटी गद्दी पर रख कर गरम करें. फिर आंच से उतार कर ठंडा होने दें.

अमरूद का नेक्टर: यह भी अमरूद के गूदेसे बनाया जाता है. गूदा निकाल कर इस के लिए 15 फीसदी चीनी का घोल बनाएं. घोल में 0.25-0.35 फीसदी साइट्रिक एसिड मिलाएं. इस में 20-25 फीसदी गूदा मिलाएं. गरमगरम ही 200 मिलीलीटर की बोतलों में भर कर क्राउन कार्क लगा कर बंद कर दें. अब इन को 15-20 मिनट उबलते पानी में एक पतीले में मोटी गद्दी पर रख कर गरम करें. आंच से उतार कर ठंडा होने दें.

अमरूद का पाउडर : पहले अमरूद का गूदा निकाल कर तोल लें. इस के वजन के मुताबिक 20 फीसदी चीनी और 0.2 फीसदी पोटेशियम मेटाबाई सल्फाइट अच्छी तरह मिला दें. इसे 1 पौलीथीन की शीट पर फैला कर अल्यूमिनियम या स्टेनलेस स्टील की ट्रे में रखें और धूप में या डीहाइडे्रटर में सुखा लें. पल्प के शीट के रूप में सूख जाने पर उसे छोटेछोटे टुकड़ों में तोड़ लें. इन टुकड़ों को थोड़ा और सुखाएं और एक ग्राइंडर की सहायता से पाउडर बनाएं. इस पाउडर को पौलीथीन की थैलियों में भर कर रखा जा सकता है. यह पाउडर कार्बोहाइड्रेट्स व मिनरल्स का सही जरीया होने के कारण बालाहार बनाने में इस्तेमाल किया जाता है.

अमरूद की जेली

जरूरी सामान : 1 किलोग्राम अमरूद, डेढ़ लीटर पानी, 750 ग्राम चीनी, 3 ग्राम सिट्रिक एसिड या खट्टा नीबू.

बनाने की विधि : अमरूदों को पानी से अच्छी तरह धो कर गोलगोल आकार में कई टुकड़ों में काटिए और डेढ़ लीटर पानी में 20-25 मिनट तक धीमी आंच पर पकाइए. उबालते समय टुकड़ों को चम्मच से कुचलते भी जाइए, जिस से रस अच्छी तरह निकल आए. उबालने के बाद मारकीन के कपड़े से छानिए. रस को अपनेआप छनने दीजिए. इस के लिए कपड़े को साफ जगह पर लटका दें ताकि रस बरतन में आसानी से इकट्ठा हो जाए.

छने हुए जूस से 1 लीटर जूस ले कर रस में 750 ग्राम चीनी मिला कर आंच पर रख कर अच्छी तरह घोलें. घुल जाने पर रस को फिर से छानिए, जिस से चीनी की गंदगी निकल जाए. अब रस को देगची सहित मध्यम आंच पर रख कर पकने दें. कुछ मिनट बाद सिट्रिक एसिड या नीबू का छना रस मिला दीजिए. कुछ देर बाद आप देखेंगे कि पकतेपकते बुलबुले उठना शुरू हो जाते हैं. उस समय चम्मच से जूस को ले कर ठंडा कर के गिराएं. जब आप देखें कि चम्मच के दोनों छोरों पर तार बन कर लटक रहे हैं, तो समझ लें कि जेली तैयार हो गई है. अब इसे बोतल में भर लें. बोतल की ऊपरी सतह पर सफेद पदार्थ आ जाए तो उसे छोटे चम्मच से धीरे से हटा दें. फिर जेली को ठंडी होने के लिए रख दें. 4-5 घंटे बाद आप इसे इस्तेमाल कर सकते हैं.

Guava Processing

अमरूद की चीज या टौफी

जरूरी सामान : 1 किलोग्राम अमरूद का गूदा, 1 किलोग्राम चीनी, 50 ग्राम मक्खन, आधा चम्मच नमक, सिट्रिक एसिड, जरूरत के मुतबिक नारंगी रंग.

बनाने की विधि : देगची की तली में थोड़ा सा मक्खन लगाएं. फिर थोड़ीथोड़ी मात्रा में गूदे को बर्तन में डालें.

इसी तरह चीनी की मात्रा का इस्तेमाल करें. थोड़ा मक्खन डालें और रंग, सिट्रिक एसिड व नमक मिलाएं. 30-40 मिनट के अंदर चीज तैयार हो जाएगी. तैयार होने की पहचान यह है कि वह तली छोड़ने लगेगी. ट्रे या थाली में मक्खन लगा कर गूदे को पलट कर ऊपर मक्खन द्वारा चिकना कर के कुछ समय के लिए छोड़ दें. जम जाने पर छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर बटर पेपर में लपेट कर टौफी का रूप दे दें. यह अमरूद टौफी या चीज पाचन के लिए बहुत फायदेमंद होती है.

Field Fertility: खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाने में गेहूं की नरई की भूमिका

Field Fertility| ग्लोबल वार्मिंग की वजह से मौसम गरम हो रहा है, गेहूं की फसल समय से पहले पक जाती है. गेहूं की कटाई किसान ज्यादातर कंबाइन मशीन द्वारा करते हैं, जिस से समय की बचत के साथसाथ बदलते मौसम के नुकसान से बचा जा सकता है. इस प्रकार कटाई करने से गेहूं के दाने मशीन द्वारा इकट्ठा कर के भंडारगृह में रख लेने से नुकसान कम होता है. लेकिन इस की नरई खेत में खड़ी रह जाती है, जिस को भूसा बनाने की मशीन द्वारा भूसा बना कर आमदनी बढ़ाई जा सकती है.

कई किसान नरई को नष्ट करने के लिए जानकारी न होने की वजह से खेत में आग लगा देते हैं. इस से खेत तो साफ हो जाता है, लेकिन नरई जलाने में जरा सी चूक हो जाए तो आसपास खड़ी हजारों एकड़ जमीन पर गेहूं की फसल जल कर राख हो जाती है. किसानों के परिवारों द्वारा साल भर सजाए अरमानों पर पानी फिर जाता है.

इन सभी से बचने के लिए किसानों को सलाह दी जाती है कि वे नरई प्रबंधन कर के मिट्टी में घटती हुई जीवांश पदार्थ की मात्रा को रोक सकते हैं.

नरई का प्रबंधन करने के लिए किसानों को चाहिए कि जब खेत कंबाइन द्वारा कट जाए तो उस के बाद भूसा बनाने वाली मशीन (रीपर) से नरई का भूसा बनवा लें. नरई को खेत में सड़ाने के लिए किसानों को चाहिए कि जैसे ही खेत की कटाई कंबाइन से हो जाए, उस के तुरंत बाद ही खेत में पानी लगा दें. शाम के समय 5-7 फीसदी यूरिया घोल यानी तकरीबन 200 लीटर पानी में 10-15 किलोग्राम यूरिया घोल कर प्रति एकड़ दर से छिड़काव कर दें. इस के बाद हैरो या मिट्टी पलटने वाले हल से खेत में पलट दें.

Field Fertility

इस समय किसान यूरिया का तकरीबन 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव जरूर करें. जब पलटाई को तकरीबन 15-20 दिन हो जाएं तब पानी लगा कर दोबारा पलटाई कर दें, जिस से खेत में खड़ी नरई सड़ कर खेत में मिल जाएगी. जिस खेत में अगली फसल धान की रोपाई करनी हो उस में हरी खाद के रूप में सनई या ढैंचा की बोआई कर दें और सही समय और नमी पर पलटाई कर के धान की रोपाई कर दें.

नरई को सड़ाने के बाद कार्बनिक पदार्थ 1092 किलोग्राम प्रति एकड़ पोषक तत्त्व दोबारा जमीन में वापस हो जाते हैं. यानी नाइट्रोजन 14.3 किलोग्राम प्रति एकड़ और अन्य पोषक तत्त्व भी जमीन को वापस हो जाते हैं. इस प्रकार से नरई का प्रबंधन अगर किसान करेंगे तो उन के खेतों की घटती उर्वरता व कार्बनिक पदार्थ की मात्रा 0.3-0.5 फीसदी से बढ़ा कर 0.8 फीसदी या इस से ज्यादा की जा सकती है और हरी खाद से तकरीबन 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की बचत कर सकते हैं, साथ ही खेत में खरपतवार भी कम हो जाते हैं.

नरई जलाने से नुकसान

Field Fertility

* नरई जलाने से पशुओं के चारे में रूप में साल भर इस्तेमाल में आने वाला भूसा नहीं मिल पाता है, जिस से किसानों को पशुपालन में अधिक खर्च उठाना पड़ सकता है.

* भूसा प्राप्त न होने की वजह से किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है, जो कि गेहूं की उत्पादन लागत को बढ़ा देता है.

* नरई जलाने से जमीन के अंदर मौजूद फायदेमंद असंख्य जीवाणु जल कर मर जाते हैं, जिस की वजह से आने वाली फसल का उत्पादन कम हो जाता है व जमीन में पोषक तत्त्वों की मौजूदगी कम हो जाती है.

* नरई जलाने से कार्बनिक पदार्थ व ह्यूमस नहीं मिल पाते हैं, जिस से जमीन की उर्वरता पर बुरा असर पड़ता है. साथ ही साथ जमीन में बारबार पानी लगाना पड़ सकता है.

* भूसे या गेहूं के पौधों की जड़ों के सड़ने से पौधों को जो जरूरी पोषक तत्त्व वापस मिल सकते हैं, वे नहीं मिल पाते, जिस से अगली फसलों के लिए किसान को पोषक तत्त्व फालतू मात्रा में डालने पड़ते हैं. नतीजतन उन्हें कम फायदा होता है.

* नरई जलाते समय अगर एक भी चिंगारी किसी दूसरे खेत में चली जाए तो पूरा खेत जल कर राख हो जाता है, जिस के कारण किसान को काफी घाटा उठाना पड़ता है.

* नरई जलाने से वायुमंडल में प्रदूषण फैलने के साथसाथ वायुमंडल के तापमान में बढ़ोतरी होती है.

नरई की रासायनिक संरचना

नरई में कार्बन 42.0, नाइट्रोजन 5.50, फास्फोरस 0.40, पोटाश 10.40, सल्फर 0.60, कैल्शियम 2.90, मैग्नीशियम 0.60, कार्बन/नाइट्रोजन 76.4, कार्बन/फास्फोरस 105.0, कार्बन/सल्फर 466.7, नाइट्रोजन/सल्फर 13.8 ग्राम प्रति किलोग्राम पाया जाता है.

इस के अलावा यदि किसान अपने खेत में फसल कंबाइन से काटने के बाद उस की नरई जमा कर लें, तो उस से बाद में नाडेप कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट या अन्य कंपोस्टिंग के द्वारा कंपोस्ट खाद बनाई जा सकती है.

उसे खेत में डाल कर बाद में फसल उत्पादन के समय जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

Award: डा.अपूर्वा को ‘फार्म एन फूड वुमन एग्री-इनोवेटर औफ द ईयर’ अवार्ड

Award |  छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठित बौद्धिक संपदा कानून विशेषज्ञ और नवाचार विशेषज्ञ डा. अपूर्वा त्रिपाठी को इसी 28 फरवरी को भोपाल के रवींद्र भवन में आयोजित ‘फार्म एंड फूड कृषि सम्मान समारोह’ में ‘वुमन एग्री-इनोवेटर औफ द ईयर अवार्ड – 2025’ से सम्मानित किया गया. यह पुरस्कार उन्हें कृषि क्षेत्र में किए गए उन के महत्वपूर्ण नवाचारों, महिलाओं के सशक्तीकरण और आदिवासी समाज के उत्थान में उन की असाधारण भूमिका के लिए प्रदान किया गया.

डा. अपूर्वा त्रिपाठी, प्रसिद्ध कृषिविद और पर्यावरणविद डा. राजाराम त्रिपाठी की बेटी हैं. वह बस्तर के कोंडागांव में स्थित अपने परिवार के लगभग 50 सदस्यों के संयुक्त परिवार में पलीबढ़ी हैं, जिस में 7 भाईबहनों का बड़ा परिवार है.

अपूर्वा त्रिपाठी के नवाचार और योगदान :

डा. अपूर्वा त्रिपाठी ने अपने पिता के मार्गदर्शन में कई उल्लेखनीय कृषि नवाचार किए हैं. उन के उल्लेखनीय कार्यों में बस्तर के आदिवासी समाज के साथ मिल कर वन औषधियों पर आधारित कई तरह की हर्बल चाय का निर्माण प्रमुख है, जो परंपरागत आदिवासी चिकित्सा पद्धति पर आधारित हैं. ये हर्बल चाय विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान में अत्यंत प्रभावी सिद्ध हुई हैं.

इस के अतिरिक्त, डा. राजाराम त्रिपाठी द्वारा विकसित की गई अत्यंत उत्पादक ‘मां दंतेश्वरी काली मिर्च-16’ (एमडीबीपी-16) प्रजाति के विकास में भी अपूर्वा त्रिपाठी का बड़ा योगदान रहा है. यह विशेष प्रजाति अन्य काली मिर्च की किस्मों की तुलना में चार से पांच गुना अधिक उत्पादन देती है और इस की गुणवत्ता भी अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है. इस विशेष प्रजाति को भारत सरकार के इंडियन प्लांट वैरायटी प्रोटैक्शन एंड रजिस्ट्रेशन अथौरिटी (Indian Plant Variety Protection and Registration Authority) में आधिकारिक रूप से पंजीकृत भी कराया गया है.

अपूर्वा त्रिपाठी के प्रयासों के कारण अब तक दक्षिण भारत की फसल मानी जाने वाली काली मिर्च को मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में सफलतापूर्वक उगाया जा रहा है, जिस से इस क्षेत्र को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है.

अपूर्वा त्रिपाठी का प्रेरणादायक सफर :

अपूर्वा त्रिपाठी की शिक्षा देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में हुई है, जहां उन्होंने कृषि विज्ञान, जैविक खेती और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया है. उन की उपलब्धियां यह दर्शाती हैं कि समर्पण, परिश्रम और नवाचार के माध्यम से कोई भी युवा कृषि क्षेत्र में सफलता के नए आयाम स्थापित कर सकता है.

महिलाओं के सशक्तीकरण में भूमिका  :

डा. अपूर्वा त्रिपाठी ने बस्तर क्षेत्र की आदिवासी महिलाओं को जैविक कृषि के माध्यम से आत्मनिर्भर बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उन्होंने इन महिलाओं को प्रशिक्षित कर उन के उत्पादों को प्रोसैसिंग, ब्रांडिंग और मार्केटिंग के माध्यम से राष्ट्रीय बाजार में पहचान दिलाई है. इस के चलते आदिवासी परिवारों की माली हालत में सुधार हुआ है.

पुरस्कार समारोह के मुख्य बिंदु :

भोपाल में आयोजित इस सम्मान समारोह में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के 150 से अधिक किसान, कृषि वैज्ञानिक और कृषि विशेषज्ञ उपस्थित रहे. कार्यक्रम के मुख्य अतिथि एवं मध्य प्रदेश सरकार के सहकारिता, खेल एवं युवा कल्याण मंत्री विश्वास सारंग ने कहा कि भारत के किसानों को नवाचार के माध्यम से सशक्त करना ही हमारी प्राथमिकता है. डा. अपूर्वा त्रिपाठी जैसी युवा महिलाएं कृषि क्षेत्र में नए आयाम स्थापित कर रही हैं, जो पूरे देश के लिए गौरव की बात है.”

विशिष्ट अतिथि एवं मध्य प्रदेश सरकार के कौशल विकास एवं रोजगार मंत्री गौतम टेटवाल ने अपने उद्बोधन में कहा कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है और डा. अपूर्वा त्रिपाठी जैसी नवाचारशील महिलाएं अन्य किसानों के लिए प्रेरणास्रोत हैं.

दिल्ली प्रैस के कार्यकारी प्रकाशक अनंत नाथ ने कहा कि डा. अपूर्वा त्रिपाठी का योगदान न केवल कृषि क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक विकास में भी सराहनीय है.

इस समारोह में कुल 17 श्रेणियों में 30 किसानों, कृषि वैज्ञानिकों और कृषि विज्ञान केंद्रों को सम्मानित किया गया.

Planter : पौधे लगाने का यंत्र

Planter| कुछ फसलें खेतीकिसानी में  ऐसी होती हैं, जिन के बीज सीधे जमीन में छिड़कवा तरीके या मशीनों से बो दिए जाते हैं, लेकिन कुछ फसलें ऐसी होती हैं, जिन के पौधे जमीन में लगाए जाते हैं, खासकर सब्जियों व फलों की खेती के लिए पौधारोपण ही किया जाता है.

पौधे की खेत में रोपाई करना खासा थकाने वाला काम है. इस में ज्यादा मजदूरों की भी जरूरत होती है. बड़े किसानों के लिए तो यह बात कोई माने नहीं रखती, क्योंकि उन के पास खेती के काम के लिए अनेक तरह के कृषि यंत्र मौजूद होते हैं और मजदूरों को देने के लिए पैसे भी होते हैं, लेकिन आम छोटे किसानों के पास ये सुविधाएं मौजूद नहीं होतीं.

हम यहां पौधे लगाने के एक ऐसे यंत्र के बारे में जिक्र कर रहे हैं, जिस के इस्तेमाल से समय व मजदूरों की बचत तो होती ही है, साथ ही काम भी जल्दी होता है. इस यंत्र की कीमत भी ज्यादा नहीं है और न ही यंत्र चलाने के लिए बिजली या डीजल का खर्च पड़ता है.

यह एक बहुत ही साधारण तरीके का प्लांटर है, बेहद आसानी से इस्तेमाल किया जाता है. अकेला आदमी भी इस यंत्र से पौधारोपण कर सकता है. खड़े हो कर चलते हुए इस यंत्र से पौधे लगाए जाते हैं.

यह लोहे या स्टील या स्टील पाइप का बना यंत्र होता है, जिस का निचला हिस्सा बंद व खुलने होने वाला होता है और ऊपरी हिस्से पर एक हैंडल लगा होता है, जिस को पौधा रोपाई के समय दबाना व छोड़ना पड़ता है.

पौधे लगाने का तरीका : जुताई किए हुए खेत में मेंड़ों पर पौधे लगाने के लिए सब से पहले हैंडल को बिना दबाए प्लांटर के निचले नुकीले भाग को जमीन में दबाएं. उस के बाद प्लांटर में पौधा डाल दें. फिर प्लांटर के हैंडल को दबाएं और प्लांटर को जमीन से ऊपर उठा लें. यही तरीका अपनाते जाएं और पौधे लगाते हुए आगे बढ़ते जाएं (देखें चित्र में पौधे लगाने का तरीका).

यह यंत्र खासा लोकप्रिय हो रहा है. कुछ लोग इसे खुद भी बना रहे हैं. अभी हाल ही में ट्रू नेस्ट एग्रो प्रोडक्ट्स कंपनी ने अपने इस यंत्र को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली में लगे कृषि उन्नति मेले में प्रदर्शित किया था, जिस की कीमत तकरीबन 4500 रुपए बताई गई. यंत्र का डेमो भी मेले में किया गया. कुछ लोग यंत्र खरीद भी रहे थे. आप भी यह यंत्र प्राप्त करने के लिए या अधिक जानकारी के लिए मोबाइल नंबरों 08605995511 व 8605995533 पर संपर्क कर सकते हैं.

इस यंत्र की खासीयतें

*             यह यंत्र इस्तेमाल के लिए बहुत सरल व वजन में हलका है.

*             किसान बिना झुके पौधे लगा सकते हैं.

*             पौधे की बोआई एक कतार में करें.

*             पौधों की जड़ों पर दबाव नहीं पड़ता, इसलिए पौधे मरते नहीं हैं.

*             एक किसान 7 घंटे में औसतन 5000 से 8000 पौधे आसानी से लगा सकता है.

*             बड़ी मात्रा में मजदूरी और पैसों की बचत.

*             सब्जियों में टमाटर, बैगन, पत्तागोभी, मिर्च, फूलगोभी, करेला, भिंडी और सेम वगैरह के पौधे लगा सकते हैं.

*             पपीता और गेंदा वगैरह के पौधे लगा सकते हैं

*             इस यंत्र का सीधा सा हिसाब है, एक किसान एक प्लांटर.

*             इस यंत्र से एक निश्चित क्षेत्र में बीज रोपण भी किया जा सकता है. तरीका वही है, जो पौधे लगाने का है.

किसानों की तकदीर बदलने में लगे हामिद को मिले कई सम्मान

बिहार में औषधीय व सुगंधित पौधों की खेती की ओर किसानों का झुकाव ज्यादा हुआ है, जिस का मुख्य कारण है लागत कम और मुनाफा ज्यादा. हालांकि राज्य स्तर पर इन पौधों या इन के बीजों के साथ इन की खेती से होने वाले उत्पादन की खरीदबिक्री की सुविधा न के बराबर ही है, पर किसानों में कुछ कर गुजरने की ललक ने उन्हें इन की खेती की जानकारी व इन के उत्पादों की बिक्री के लिए दूसरे प्रदेशों तक पहुंचा दिया. इसी का नतीजा है कि अब राज्य के प्रगतिशील किसान नई ऊंचाइयां छूने की ओर बढ़ रहे हैं.

परंपरागत खेती जैसे दलहन, तिलहन, धान व गेहूं आदि से इतनी कम आय होती है कि किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा बन कर रह गई है. परंतु कुछ प्रयोगधर्मी किसान हैं, जो खेती में नफानुकसान की ज्यादा चिंता न कर के नित नए प्रयोग करते रहते हैं. इन्हीं में से एक किसान हैं राज्य के सीवान जिले के हसनपुर प्रखंड के लहेजी गांव निवासी मोहम्द हामिद खां. वे जिला व राज्य स्तरीय कई पुरस्कार हासिल कर चुके हैं. हामिद का कहना है कि किसान वैसी खेती करना चाहते हैं, जिस में समय कम व मुनाफा अधिक हो. जिले के अधिकतर किसान मेंथा, घृतकुमारी, पोपुलर व पेपट्रा की खेती कर रहे हैं. इन का बाजार देश के अलावा विदेशों में भी है. कीमत भी अच्छी मिल जाती है. पेपट्रा 1500 रुपए प्रति किलोग्राम और मेंथा 900 रुपए प्रति किलोग्राम बिकता है, इसलिए किसान इन की खेती ज्यादा कर के मुनाफा कर रहे हैं.

किसानों को कम लागत  में हो रही लाखों की आय : आज से करीब 3 साल पहले खस की खेती की शुरुआत करने वाले हामिद खां सीवान, छपरा व गोपालगंज आदि जिलों के दर्जनों किसानों को प्रशिक्षण दे कर खस के अलावा मेंथा, पेपट्रा, घृतकुमारी व पोपुलर की खेती करा रहे हैं, जिस से इन किसानों के जीवन की तसवीर बदल गई है. इन की खेती से किसानों को कम लागत में हर साल लाखों रुपए की आय हो रही है.

खस, सतावर, कालमेघ, मेंथा, पामारोजा, सेट्रोनेला, लेमनग्रास, आर्टीमीसिया व कोलियस आदि की खेती से किसानों में कामयाबी की उम्मीद जगी है. बिहार के सीवान, छपरा व गोपालगंज जिलों में अभी लगभग 10 एकड़ में खस की खेती कर के तेल का उत्पादन किया जा रहा है. यह फसल 1 साल में तैयार हो जाती है. यदि अच्छी फसल हुई तो प्रति कट्ठा (1350 वर्ग फुट) 400 से 700 ग्राम तक तेल निकलता है, जिस की कीमत 15000 से 18000 रुपए प्रति लीटर होती है. फरवरी में इस फसल की खुदाई कर के आसवन विधि द्वारा तेल निकाला जाता है. इस मौसम में तेल की मात्रा ज्यादा मिलती है. जड़ निकाल कर बचे हुए पौधों को फिर से नई फसल के लिए खेत में लगाया जा सकता है.

इत्र बनाने वाली कंपनियां खरीदार : खस की खेती करने वाले ऐसे किसान जिन  के पास तेल निकालने का साधन नहीं है, उन के द्वारा उत्पादित जड़ें मोहम्द हामिद लगभग 6000 रुपए प्रति क्विंटल की दर से खरीदने के साथ ही 1000 से ले कर, 1500 रुपए प्रति कट्ठे की दर से खेत में लगी फसल खरीदने के बाद जड़ों की खुदाई कर के खुद तेल निकालते हैं. इस का तेल लखनऊ व बाराबंकी आदि स्थानों पर इत्र बनाने वाली कंपनियां और व्यापारी 10000 से 12000 रुपए प्रति लीटर खरीद कर ले जाते हैं.

हामिद सीमैप लखनऊ से 2 रुपए प्रति पौधे की दर से पौधे ला कर नर्सरी तैयार करने के बाद 1 रुपए प्रति पौधे की दर से किसानों को बेचते हैं. वैसे तो इस की रोपाई पूरे साल की जा सकती है, परंतु दिसंबर से मार्च तक का समय इस की रोपाई के लिए ज्यादा अच्छा होता है. इस की खेती 6 महीने तक जलजमाव वाले खेत में भी की जा सकती है. कई विशेषज्ञों का ऐसा भी मानना है कि खस के पौधे यदि 2-3 महीने तक पानी में पूरी तरह से डूबे रह जाते हैं, तब भी इस की फसल पर कोई खराब असर नहीं पड़ता है.

जुलाई में रोपाई

सीमैप लखनऊ के वैज्ञानिक वीरेंद्र कुमार सिंह तोमर का कहना है कि राज्य की मिट्टी, विशेष रूप से दियारा की मिट्टी के लिए यह फसल ज्यादा लाभकारी है.

जलजमाव वाली जमीन में फरवरी व मार्च और सामान्य जमीन में जुलाई में बारिश होने पर खस की रोपाई कर के अच्छी फसल तैयार की जा सकती है. यदि खस की नर्सरी तैयार करनी हो तो फरवरी या मार्च में पौधे लगाने के 1 महीने बाद डीएपी खाद की एक सीमति मात्रा डाल कर नर्सरी की गुड़ाई व सिंचाई के साथ 3 महीने में 1 पौधे में 18 से 20 कल्ले तक निकल आते हैं, जिन्हें बाद में दूसरे खेतों में फसल के रूप में लगाया जाना चाहिए. राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर के वैज्ञानिक डा. हांडू का कहना है कि बिहार की मिट्टी व जलवायु खस की खेती के लिए सही है. यहां के किसान इस की खेती कर के अपनी माली हालत सुधार सकते हैं. साथ ही उन का यह भी मानना है कि खस की खेती पर बाढ़ व सूखे का ज्यादा असर नहीं होता है. इस की खेती बंजर जमीन में भी की जा सकती है. पशु इस के कड़े डंठलों को नहीं खाते हैं, इसलिए इस की फसल की ज्यादा देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती है.

वैज्ञानिकों का मिलता रहा सहयोग : अपनी इस सफलता का श्रेय सीमैप लखनऊ के वैज्ञानिक डा. कलीम अहमद, वैज्ञानिक वीरेंद्र कुमार सिंह तोमर व डा. एचपी सिंह आदि को देते हुए हामिद कहते हैं कि यदि आज के प्रगतिशील किसान वैज्ञानिकों के सहयोग व अपनी सूझबूझ के साथ औषधीय खेती करें, तो अच्छी कमाई कर सकते हैं.

प्रति एकड़ 40000 रुपए की आय : हामिद खां ने बताया कि खस, पोपुलर, घृतकुमारी, मेंथा व पेपट्रा की औषधीय खेती से 1 साल में प्रति एकड़ तकरीबन 40000 रुपए की आमदनी होती है. किसान यदि फरवरी में खस को काट कर मेंथा की सह फसल लेते हैं, तो प्रति एकड़ 15000 से 20000 रुपए की अलग से आमदनी की जा सकती है.

प्रयोग के तौर पर हामिद पापुलर के साथ पामारोजा, सेट्रोनेला व खस की खेती कर रहे हैं.

हामिद द्वारा 4 एकड़ में 6 से 14 फुट की दूरी पर पापुलर लगाया गया है, जिस के बीच में सह फसल ली जाती है. उन का मानना है कि पापुलर के 400 पौधे प्रति एकड़ लगा कर 7 सालों में 3000 रुपए प्रति पेड़ की दर से लाखों रुपए की आय हासिल की जा सकती है.

खस के पौधों में दीमक लगती है, जिस से बचाव के लिए ट्राइसेल 20 ईसी 200 ग्राम प्रति एकड़ डाल कर खेत की अच्छी तरह जुताई करनी चाहिए. खस के पौधे से पौधे की दूरी डेढ़ फुट व लाइन से लाइन की दूरी 2 फुट की होनी चाहिए.

केंद्रीय औषिध एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा आयोजित औषधीय एवं सुगंध पौधों के उत्पादन हेतु उन्नत प्रौद्योगिकी पर प्रशिक्षण कार्यक्रम लहेली गांव में किया गया था, जिस से यहां के किसानों को काफी जानकारी मिली.

हामिद द्वारा ढाई लाख की लागत से स्टील डिस्टलेशन प्लांट भी लगाया गया है. 1 टन की कूवत वाले इस प्लांट में 8 क्विंटल खस की जड़ें भर कर 72 घंटे में तेल निकाला जाता है. इसी प्लांट से लेमनग्रास, पामारोजा, सिट्रोनेला व मेंथा का भी तेल निकाला जाता है.

खरीफ के लिए फायदेमंद है रबी के बाद खेत की जुताई (Ploughing)

Ploughing | जब हम खेतखलिहान की बात करते हैं, तो हमें खेत की तैयारी से ले कर फसल की कटाई, गहाई और उपज भंडारण तक के कई स्तरों से हो कर गुजरना पड़ता है. खेती का हर काम  समय पर किया जाना बहुत ही जरूरी है, इसलिए अच्छी फसल पाने व खेती को फायदे का सौदा बनाने के लिए बेहद जरूरी है कि तय समय व योजना के मुताबिक खेतीकिसानी के काम किए जाएं.

मौजूद जमीन जलवायु व संसाधनों के अनुसार फसलों व उन की प्रमाणित किस्मों का चयन, सही  समय पर सही तकनीक से बोआई, मिट्टी परीक्षण के आधार पर संतुलित पोषक तत्त्व प्रबंधन, फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई, खरपतवार, कीट व रोग  नियंत्रण के जरूरी उपाय व समय पर कटाई, गहाई, उपज का सुरक्षित भंडारण तथा विपणन जितना जरूरी है, उतना ही खेत की समय पर जुताई भी जरूरी है.

रबी फसल की कटाई होने के साथ ही खेत खाली हो जाते हैं. ऐसे में खेत में कीट व रोग पर काबू पाने के लिए ग्रीष्मकालीन जुताई का खास महत्त्व है, इसलिए खेत की गहरी जुताई कर के आगामी खरीफ की अच्छी पैदावार ली जा सकती है.

खेत की तैयारी में गरमी की जुताई व पलटाई का खास योगदान होता है, क्योंकि इस से जमीन में 1 फुट नीचे मौजूद कड़ी परत टूट जाती है व इस से तमाम कीट व खरपतवार के बीज भी खत्म हो जाते हैं. इस के अलावा मिट्टी में पानी सोखने की कूवत भी बढ़ती है. मिट्टी नरम होने से जड़ों का विकास होता है. इस तरह से खेत की उत्पादन कूवत में बढ़ोतरी होती है.

ग्रीष्मकालीन जुताई 15 सेंटीमीटर गहराई तक किसी भी मिट्टी पलटने वाले हल से करें. जुताई हमेशा खेत के ढलान की उलटी दिशा में ढलान को काटते हुए करनी चाहिए, जिस से बरसात का पानी व मिट्टी नहीं बहे. मिट्टी के बड़ेबड़े ढेले रहने चाहिए व मिट्टी भुरभुरी न हो, इस बात का खास ध्यान रखें.

गहरी जुताई के लिए एक विशेष यंत्र रेवल ट्रिपल मोल्ड प्लाऊ का इस्तेमाल करें. इस के अलावा डिश प्लाऊ और मिट्टी पलटने वाले हल का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. जुताई के लिए मध्य अप्रैल से 15 मई तक का समय ठीक रहता है.

Ploughing

जुताई करने के बाद 4 से 5 हफ्ते तक खेत को खुला छोड़ दें. मानसून की पहली बारिश तक खेत को खुला रखें. बारिश होने से हफ्तेभर पहले खुले खेत में देशी खाद व गोबर भी डाल सकते हैं. बारिश होने पर खेत की जुताई करें.

गौरतलब है कि जुताई करने से मिट्टी में मौजूद कीटपतंगे मिट्टी की ऊपरी सतह पर आ जाते हैं. मईजून की तेज गरमी से कीटपतंगे खत्म हो जाते हैं. इस से खरपतवार की समस्या भी नहीं रहती है व खेत की जल ग्रहण कूवत बढ़ती है. मिट्टी में मौजूद जरूरी पोषक तत्व फसल को सही मात्र में मिलने लगते हैं. मिट्टी के ऊपरनीचे होने से मिट्टी के क्षारीय व अम्लीय गुण बराबर हो जाते हैं. इस से उत्पादन कूवत में बढ़ोतरी होती है व मिट्टी नरम होने से पौधे की जड़ का अच्छा विकास होता है.

खेतीबारी के माहिर भी किसानों को गरमी में खाली पडे़ खेतों की गहराई से जुताई करने की सलाह देते हैं. खेतीबारी के माहिर रामराय जाट का कहना है कि इस से फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले रोगाणु कीटों के अंडे ऊपरी सतह पर आ जाते हैं और गरमी से खत्म हो जाते हैं.

उन्होंने बताया कि रोगाणु, रोगजनक कीड़े, खरपतवारों के बीज वगैरह फसल की कटाई के बाद जमीन की दरारों में सोते से पड़े रहते हैं. जब अगली फसल की बोआई की जाती है, तो अनुकूल मौसम मिलने पर ये सक्रिय हो कर फसल को जम कर नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं.

रामराय जाट ने आगे बताया कि इस के अलावा जमीन को गहराई से जोतने पर जल संरक्षण भी होगा. फसल की बोआई के समय बारबार एक तय गहराई तक कल्टीवेटर चलाने से खेतों में नीचे एक कड़ी परत बन जाती है, जिस से बारिश का पानी खेत के बाहर चला जाता है और अपने साथ मिट्टी और पोषक तत्वों को बहा ले जाता है.

गरमी की जुताई 9 से 15 इंच तक मिट्टी पलटने वाले हल से करने पर यह कड़ी परत टूट जाती है और वर्षाजल खेत में अधिक मात्रा में सोख लिया जाता है. मिट्टी भी धूप लगने से भुरभुरी हो जाती है. इस में वायु संचार बढ़ जाता है और खेत की जलधारण कूवत में बढ़ोतरी हो जाती है. इस के अलावा जुताई से खरपतवार भी नष्ट होते हैं और मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है.