GulabJamun – मिनी गुलाबजामुन स्वाद का नया अंदाज

GulabJamun| रसीला गुलाबजामुन देश की सब से मशहूर मिठाई है. गुलाबजामुन (GulabJamun) बनाने वाले इसे ले कर नएनए प्रयोग करने लगे हैं. सब से ज्यादा प्रयोग इस के आकार को ले कर होने लगे हैं. पहले गुलाबजामुन (GulabJamun) नीबू के आकार बनता था. अब इस के आकार को छोटा कर दिया गया है. इसे मिनी गुलाबजामुन के नाम से जाना जाता है. छप्पन भोग मिठाई शाप के मालिक रवींद्र गुप्ता कहते हैं, ‘आज के समय में लोग मिठाई को भरपेट नहीं खाते. वे स्वाद लेने के लिए मिठाई खाते हैं. ऐसे में मिनी गुलाबजामुन भी चलन में आ गया.’

गुलाबजामुन का नाम गुलाब और जामुन से मिल कर बना है. यह अपनी तरह की अलग मिठाई है, जिस का नाम फल और फूल पर रखा गया है. गुलाबजामुन की चाशनी को बनाने के लिए गुलाबजल को खुशबू के लिए डाला जाता है और जामुन के गोल आकार और रंग के कारण इसे गुलाबजामुन कहा जाता है. गुलाबजामुन मुगल काल की मिठाई है. गुलाबजामुन भारत और दूसरे मुसलिम देशों की खास मिठाई है. अब दुनिया में जहांजहां भारतीय रहते हैं, वहांवहां मिठाई  की दुकानों में गुलाबजामुन मिलता है.

चाशनी में डूबा गुलाबजामुन गरमगरम खाने में ही मजा देता है. कोई दावत गुलाबजामुन के बिना अधूरी मानी जाती है. अगर आप गरम और ठंडा स्वाद एकसाथ लेना चाहते हैं, तो गुलाबजामुन और वनीला आइसक्रीम को मिला कर खाया जा सकता है. एक बार इस अंदाज में गुलाबजामुन का स्वाद लेंगे, तो किसी और मिठाई का स्वाद याद ही नहीं रहेगा.

गुलाबजामुन और कालाजाम में अंतर

मिठाई की दुकानों पर गुलाबजामुन से मिलतीजुलती एक और मिठाई दिख जाती है, जिसे कालाजाम कहा जाता है. आमतौर पर लोग कालाजाम और गुलाबजामुन को एक ही मिठाई समझ बैठते हैं, मगर इन में फर्क होता है. गुलाबजामुन चाशनी में डूबा होता है, जबकि कालाजाम सूखा होता है. गुलाबजामुन गरम खाया जाता है और कालाजाम सामान्य तापमान में रख कर खाया जाता है. गुलाबजामुन खोए से तैयार होता है और इस के अंदर कुछ भरा नहीं जाता, जबकि कालाजाम में अंदर मेवाइलायची जैसी दूसरी चीजें डाली जाती हैं. गुलाबजामुन को चांदी के वर्क से सजाया नहीं जाता है, जबकि कालाजाम को चांदी के वर्क और केसर पाउडर से सजाया जाता है. कालाजाम गोल आकार का ही बनता है, जबकि गुलाबजामुन गोल और लंबे दोनों आकारों में बनते हैं. इन के स्वाद में भी अंतर होता है. गुलाबजामुन पंजाबी मिठाई होती है, जबकि कालाजाम बंगाली मिठाई होती है.

कैसे बनता है गुलाबजामुन

गुलाबजामुन बनाने के लिए खोया, मैदा, बेकिंग पाउडर और इलायची पाउडर का इस्तेमाल किया जाता है. सब से पहले खोए को कद्दूकस कर लें. फिर उस में मैदा, बेंकिग पाउडर और इलायची पाउडर मिला लें. इस में थोड़ा दूध डालते हुए आटे की तरह गूंध लें. जब यह खूब चिकना जाए तो मनचाहे गोल या लंबे आकार में गुलाबजामुन तैयार कर लें. ध्यान रखें कि ये फटे नहीं.  फटने से इन में दरारें पड़ जाती हैं. तैयार कच्चे गुलाबजामुन को कपड़े से ढक  कर रख दें. इस के बाद कढ़ाई में जरू रत के अनुसार तेल डाल कर इन्हें तल लें. जब ये ब्राउन कलर के हो जाएं,  तो इन को बाहर निकाल लें और किचन पेपर पर रखें.

इस के बाद चीनी और पानी बराबर मात्रा में ले कर चाशनी बनाएं. इसे धीमी आंच पर गरम करें. जब चाशनी तैयार हो जाए, तो तले गुलाबजामुन उस में डाल दें. चाशनी में कुटी इलायची, गुलाबजल और केसर डाल दें. जब गुलाबजामुनों के अंदर तक रस घुल जाए, तो उन को निकाल कर गरमगरम खाएं. चाशनी में भीगे होने के कारण इन को गरम करना आसान होता है.

Agricultural Waste : खेती के कचरे को बनाएं कमाई का जरीया

Agricultural Waste : चावल निकालने के बाद बची धान की भूसी पहले भड़भूजों की भट्ठी झोंकने में जलावन के काम आती थी, लेकिन अब मदुरै, तिरूनवैल्ली और नमक्कन आदि में उस से राइस ब्रान आयल यानी खाना पकाने में काम आने वाला कीमती तेल बन रहा है. इसी तरह गेहूं का भूसा व गन्ने का कचरा जानवरों को चारे में खिलाते थे, लेकिन अब उत्तराखंड के काशीपुर में उस से उम्दा जैव ईंधन 2जी एथनाल व लिग्निन बन रहा है.

फिर भी खेती के कचरे को बेकार का कूड़ा समझ कर ज्यादातर किसान उसे खेतों में जला देते हैं, लेकिन उसी कचरे से अब बायोमास गैसीफिकेशन के पावर प्लांट चल रहे हैं. उन में बिजली बन रही है, जो राजस्थान के जयपुर व कोटा में, पंजाब के नकोदर व मोरिंडा में और बिहार आदि राज्यों के हजारों गांवों में घरों को रोशन कर रही है. स्वीडन ऐसा मुल्क है, जो बिजली बनाने के लिए दूसरे मुल्कों से हरा कचरा खरीद रहा है.

तकनीकी करामात से आ रहे बदलाव के ये तो बस चंद नमूने हैं. खेती का जो कचरा गांवों में छप्पर डालने, जानवरों को खिलाने या कंपोस्ट खाद बनाने में काम आता था, अब उस से कागज बनाने वाली लुग्दी, बोर्ड व पैकिंग मैटीरियल जैसी बहुत सी चीजें बन रही हैं. साथ ही खेती का कचरा मशरूम की खेती में भी इस्तेमाल किया जाता है.

धान की भूसी से तेल व सिलकान, नारियल के रेशे से फाइबर गद्दे, नारियल के छिलके से पाउडर, बटन व बर्तन और चाय के कचरे से कैफीन बनाया जाता है यानी खेती के कचरे में बहुत सी गुंजाइश बाकी है. खेती के कचरे से डीजल व कोयले की जगह भट्ठी में जलने वाली ठोस ब्रिकेट्स यानी गुल्ली अपने देश में बखूबी बन व बिक रही है. खेती के कचरे की राख से मजबूत ईंटें व सीमेंट बनाया जा सकता है.

Agricultural Wasteजानकारी की कमी से भारत में भले ही ज्यादातर किसान खेती के कचरे को ज्यादा अहमियत न देते हों, लेकिन अमीर मुल्कों में कचरे को बदल कर फिर से काम आने लायक बना दिया जाता है. इस काम में कच्चा माल मुफ्त या किफायती होने से लागत कम व फायदा ज्यादा होता है. नई तकनीकों ने खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल करने के कई रास्ते खोल दिए हैं. लिहाजा किसानों को भरपूर फायदा उठाना चाहिए.

कचरा है सोने की खान

अमीर मुल्कों में डब्बाबंद चीजें ज्यादा खाते हैं, लेकिन भारत में हर व्यक्ति औसतन 500 ग्राम फल, सब्जी आदि का हरा कचरा रोज कूड़े में फेंकता है. यानी कचरे का भरपूर कच्चा माल मौजूद है, जिस से खाद, गैस व बिजली बनाई जा सकती है. खेती के कचरे को रीसाइकिल करने का काम नामुमकिन या मुश्किल नहीं है.

खेती के कचरे का सही निबटान करना बेशक एक बड़ी समस्या है. लिहाजा इस का जल्द, कारगर व किफायती हल खोजना बेहद जरूरी है. खेती के कचरे का रखरखाव व इस्तेमाल सही ढंग से न होने से भी किसानों की आमदनी कम है.

किसानों का नजरिया अगर खोजी, नया व कारोबारी हो जाए, तो खेती का कचरा सोने की खान है. देश के 15 राज्यों में बायोमास से 4831 मेगावाट बिजली बनाई जा रही है. गन्ने की खोई से 5000 मेगावाट व खेती के कचरे से 17000 मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है. उसे नेशनल ग्रिड को बेच कर किसान करोड़ों रुपए कमा सकते हैं. 10 क्विंटल कचरे से 300 लीटर एथनाल बन रहा है. लिहाजा खेती के कचरे को जलाने की जगह उस से पैसा कमाया जा सकता है, लेकिन इस के लिए किसानों को उद्यमी भी बनना होगा.

Agricultural Wasteफसलों की कटाई के बाद तने, डंठल, ठूंठ, छिलके व पत्ती आदि के रूप में बहुत सा कचरा बच जाता है. खेती में तरक्की से पैदावार बढ़ी है. उसी हिसाब से कचरा भी बढ़ रहा है. खेती के तौरतरीके भी बदले हैं. उस से भी खेती के कचरे में इजाफा हो रहा है. मसलन गेहूं, धान वगैरह की कटाई अब कंबाइन मशीनों से ज्यादा होने लगी है. लिहाजा फसलों के बकाया हिस्से खेतों में ही खड़े रह जाते हैं. उन्हें ढोना व निबटाना बहुत टेढ़ी खीर है.

गेहूं का भूसा, धान की पुआल, गन्ने की पत्तियां, मक्के की गिल्ली और दलहन, तिलहन व कपास आदि रेशा फसलों का करीब 5000 टन कचरा हर साल बचता है. इस में तकरीबन चौथाई हिस्सा जानवरों को चारा खिलाने, खाद बनाने व छप्पर आदि डालने में काम आ जाता है. बाकी बचे 3 चौथाई कचरे को ज्यादातर किसान बेकार मान कर खेतों में जला कर फारिग हो जाते हैं, लेकिन इस से सेहत व माहौल से जुड़े कई मसले बढ़ जाते हैं.

जला कर कचरा निबटाने का तरीका सदियों पुराना व बहुत नुकसानदायक है. इस जलावन से माहौल बिगड़ता है. बीते नवंबर में दिल्ली व आसपास धुंध के घने बादल छाने से सांस लेना दूभर हो गया था. आगे यह समस्या और बढ़ सकती है. लिहाजा आबोहवा को बचाने व खेती से ज्यादा कमाने के लिए कचरे का बेहतर इस्तेमाल करना लाजिम है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के बागबानी महकमे ने ऐसे कई तरीके निकाले हैं, जिन से कचरा कम निकलता है.

चाहिए नया नजरिया

उद्योगधंधों में छीजन रोक कर लागत घटाने व फायदा बढ़ाने के लिए वेस्ट मैनेजमेंट यानी कचरा प्रबंधन, रीसाइकलिंग यानी दोबारा इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है. कृषि अपशिष्ट प्रबंधन यानी खेती के कचरे का सही इंतजाम करना भी जरूरी है. कचरे को फायदेमंद बनाने के बारे में किसानों को भी जागरूक होना चाहिए. इंतजाम के तहत हर छोटी से छोटी छीजन को रोकने व उसे फायदे में तब्दील करने पर जोर दिया जाता है.

अपने देश में ज्यादातर किसान गरीब, कम पढ़े व पुरानी लीक पर चलने के आदी हैं. वे पोस्ट हार्वेस्ट टैक्नोलोजी यानी कटाई के बाद की तकनीकों की जगह आज भी सदियों पुराने घिसेपिटे तरीके ही अपनाते रहते हैं. इसी कारण वे अपनी उपज की कीमत नहीं बढ़ा पाते, वे उपज की प्रोसेसिंग व खेती के कचरे का सही इंतजाम व इस्तेमाल भी नहीं कर पाते.

ज्यादातर किसानों में जागरूकता की कमी है. उन्हें खेती के कचरे के बेहतर इस्तेमाल की तनकीकी जानकारी नहीं है. ऊपर से सरकारी मुलाजिमों का निकम्मापन, भ्रष्टाचार व ट्रेनिंग की कमी रास्ते के पत्थर हैं. लिहाजा खेती का कचरा फुजूल में बरबाद हो जाता है. इस से किसानों को माली नुकसान होता है, गंदगी बढ़ती है व आबोहवा खराब होती है.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकार ने खेती का कचरा बचाने के लिए राष्ट्रीय पुआल नीति बनाई थी. इस के तहत केंद्र के वन एवं पर्यावरण, ग्रामीण विकास व खेती के महकमे राज्यों को माली इमदाद देंगे, ताकि खेती के कचरे का रखरखाव आसान करने की गरज से उसे ठोस पिंडों में बदला जा सके. लेकिन सरकारी स्कीमें कागजों में उलझी रहती हैं. खेती के कचरे से उम्दा, असरदार व किफायती खाद बनाई जा सकती है.

Agricultural Waste

अकसर किसानों को दूसरी फसलें बोने की जल्दी रहती है, लिहाजा वे कचरे को खेतों में सड़ा कर उस की खाद बनाने के मुकाबले उसे जलाने को सस्ता व आसान काम मानते हैं. मेरठ के किसान महेंद्र की दलील है कि फसलों की जड़ें खेत में जलाने से कीड़ेमकोड़े व उन के अंडे भी जल कर खत्म हो जाते हैं, लिहाजा अगली फसल पर हमला नहीं होता.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के वैज्ञानिक खेतों में कचरा जलाना नुकसानदायक मानते हैं. चूंकि इस से मिट्टी को फायदा पहुंचाने वाले जीव खत्म होते हैं, लिहाजा किसान खेती का कचरा खेत में दबा कर सड़ा दें व बाद में जुताई कर दें तो वह जीवांश खाद में बदल जाता है. रोटावेटर मशीन कचरे को काट कर मिट्टी में मिला देती है.

आलू व मूंगफली की जड़ों, मूंग व उड़द की डंठलों और केले के कचरे आदि से बहुत बढि़या कंपोस्ट खाद बनती है. खेती के कचरे को किसी गड्ढे में डाल कर उस में थोड़ा पानी व केंचुए डालने से वर्मी कंपोस्ट बन जाती है, लेकिन ज्यादातर किसान खेती के कचरे से खाद बनाने को झंझट व अंगरेजी खाद डालने को आसान मानते हैं.

ऐसा करें किसान

तकनीक की बदौलत तमाम मुल्कों में अब कचरे का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. इस में अरबों रुपए की सालाना खरीदफरोख्त होती है. लिहाजा बहुत से मुल्कों में कचरा प्रबंधन, उस के दोबारा इस्तेमाल व कचरे से बने उत्पादों पर खास ध्यान दिया जा रहा है. अपने देश में भी नई तकनीकें, सरकारी सहूलियतें व मशीनें मौजूद हैं. लिहाजा किसान गांव में ही कचरे की कीमत बढ़ाने वाली इकाइयां लगा कर खेती से ज्यादा धन कमा सकते हैं.

खेती के कचरे से उत्पाद बनाने के लिए किसान पहले माहिरों व जानकारों से मिलें, कचरा प्रबंधन व उसे रीसाइकिल करने की पूरी जानकारी हासिल करें, पूरी तरह से इस काम को सीखें और तब पहले छोटे पैमाने पर शुरुआत करें. तजरबे के साथसाथ वे इस काम को और भी आगे बढ़ाते जाएं.

कृषि अपशिष्ट प्रबंधन आदि के बारे में खेती के रिसर्च स्टेशनों, कृषि विज्ञान केंद्रों व जिलों की नवीकरणीय उर्जा एजेंसियों से जानकारी मिल सकती है. पंजाब के कपूरथला में सरदार स्वर्ण सिंह के नाम पर चल रहे जैव ऊर्जा के राष्ट्रीय संस्थान में नई तकनीकों के बारे में बढ़ावा व ट्रेनिंग देने आदि का काम होता है.

पूंजी इस तरह जुटाएं

किसान अकेले या आपस में मिल कर पूंजी का इंतजाम कर सकते हैं. सहकारिता की तर्ज पर इफको, कृभको, कैंपको व अमूल आदि की तरह से ऐसे कारखाने लगा सकते हैं, जिन में खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके. खाने लायक व चारा उपज के अलावा होने वाली पैदावार व खरपतवारों से जैव ऊर्जा व ईंधन बनाने वाली बायोमास यूनिटों को सरकार बढ़ावा दे रही है. लिहाजा सरकारी स्कीमों का फायदा उठाया जा सकता है.

केंद्र सरकार का नवीकरण ऊर्जा महकमा भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास संस्था, इरेडा, लोधी रोड, नई दिल्ली फोन 911124682214 के जरीए अपनी स्कीमों के तहत पूंजी के लिए माली इमदाद 15 करोड़ रुपए तक कर्ज व करों की छूट जैसी कई भारीभरकम सहूलियतें देता है. जरूरत आगे बढ़ कर पहल करने व फायदा उठाने की है.

मशीनें

खेती के कचरे की प्रोसेसिंग कर के उस की गैस से बिजली व ठोस से ब्रिकेट बनाने में काम आने वाली मशीनों व औजारों आदि के लिए उद्यमी किसान निम्न पतों पर संपर्क कर सकते हैं:

* मैं. एडवांस हाईड्राउ टेक, प्रा. लि. बी 91, मंगोलपुरी, इंडस्ट्रियल एरिया, फेज 2, नई दिल्ली-110034.

फोन 91-11-4757100-99

* मैं. टेक्नोकैम इंजीनियरिंग प्रा. लि. चैतन्यपुरी, हैदराबाद, मो. 08071676221.

* मैं. अली इंजी, वर्क्स, अहमदगढ़, लुधियाना, मो. 08071682911.

* मैं. रौनक इंजी. 275, निकट ग्रेविटी कास्टिंग, राजकोट, गुजरात, मो. : 08048601411.

Brinjal : बैगन की आधुनिक खेती

गरमी के मौसम की खास सब्जियों में बैगन, टमाटर, भिंडी व कद्दू वर्गीय सब्जियां शामिल हैं. बैगन (Brinjal) का आमतौर पर सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. इस के अलावा इस का इस्तेमाल भरता, पकौड़े, अचार कलौंजी बनाने में भी किया जाता है. इस में कुछ औषधीय गुण भी पाए जाते हैं. यह भूख बढ़ाने वाला और कफ के लिए फायदेमंद बताया गया है. सफेद बैगन की सब्जी डाइबिटीज के रोगियों के लिए फायदेमंद पाई गई है.

बैगन (Brinjal) का जन्म मध्य अमेरिका में माना जाता है. यह भारत में 4000 सालों से बोया जा रहा है. बैगन में सब से जयादा नुकसान चोटी व फल छेदक कीट के द्वारा होता है.

इस कीट के कारण करीब 60-70 फीसदी पौधों को नर्सरी से ले कर फलों की तोड़ाई तक नुकसान उठाना पड़ जाता है. यह कीट बढ़ते पौधों की नईनई कलियों को खाता है और फलों में सुराख कर के उन को नुकसान पहुंचाता है. बैगन की अच्छी उपज व ज्यादा आमदनी के लिए उन्नतशील किस्मों की वैज्ञानिक तरीकों से खेती करना आवश्यक है.

भूमि का चुनाव और तैयारी

बैगन की अच्छी उपज के लिए गहरी दोमट भूमि जिस में जल निकास का सही इंतजाम हो, सब से अच्छी समझी जाती है. भूमि की तैयारी के लिए पहली जुताई डिस्क हैरो से और 3 से 4 जुताइयां कल्टीवेटर से कर के पाटा लगा दें. खेत की तैयारी के समय पुरानी फसल के बचे भागों को इकट्ठा कर के जला दें जिस से कीटों व बीमारियों का प्रकोप कम हो.

खाद व उर्वरक

बैगन में खाद व उर्वरक  की मात्रा इस की किस्म, स्थानीय जलवायु व मिट्टी की किस्म पर निर्भर करती है. अच्छी फसल के लिए 8 से 10 टन सड़ी गोबर की खाद खेत को तैयार करते समय प्रति हेक्टेयर की दर से डालें.

80 किलोग्राम नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी तय मात्रा खेत की आखिरी जुताई के समय डालें. बची नाइट्रोजन को 2 भागों में बांट कर 30 व 45 दिनों बाद खरपतवार नियंत्रण के बाद खड़ी फसल में छिड़क दें.

बीज की मात्रा

1 हेक्टेयर में फसल की रोपाई के लिए 250 से 300 ग्राम बीजों की जरूरत होती है. बीजों को  पौधशाला में बो कर पौधे तैयार किए जाते हैं.

बोआई व रोपाई

उत्तर भारत में बैगन लगाने का सही समय जूनजुलाई है. अच्छी तरह से तैयार खेत में सिंचाई के साधन के अनुसार क्यारियां बना लें. क्यारियों में लंबे फल वाली प्रजातियों के लिए 70 से 75 सेंटीमीटर और गोल फल वाली किस्मों के लिए 90 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधों की रोपाई करें. रोपाई के समय यह ध्यान रखें कि पौधे कीट व रोग रहित हों. वर्षा के अनुसार रोपाई मेंड़ों या समतल क्यारियों में करें.

सिंचाई

रोपाई के बाद फुहारे की सहायता से पौधों के थालों में 2 से 3 दिनों तक सुबह और शाम के वक्त हलका पानी दें. इस के बाद हलकी सिंचाई करें ताकि पौधे जमीन में अच्छी तरह जड़ पकड़ लें. बाद में जरूरतानुसार सिंचाई करते रहें. साधारणतया गरमी के मौसम में 10 से 15 दिनों और सर्दी के मौसम में 15 से 20 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें. यदि पौधे मेड़ों पर लगाए गए हैं, तो सिंचाई आधी मेड़ तक करें और सिंचाई का अंतर कम रखें. बारिश के मौसम में यदि बारिश अधिक हो रही हो, तो खेत से पानी निकालने के लिए निकास नाली की सही व्यवस्था होनी चाहिए.

Mango Orchards : आम के बागों में कीड़ों व रोगों की रोकथाम जरूरी

Mango Orchards : आम की बागबानी में स्वस्थ्य और अच्छी उपज लेने के लिए कीटरोगों की रोकथाम समय रहते कर देनी चाहिए अन्यथा आम की मिठास कड़वाहट में बदलने में समय नहीं लगेगा.

कीड़ों की रोकथाम

भुनगा: इस कीट के बच्चे व वयस्क दोनों ही मुलायम टहनियों, पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. इस की वजह से फूल सूख कर गिर जाते हैं. यह कीट एक प्रकार का मीठा पदार्थ निकालता है, जो पेड़ों की पत्तियों, टहनियों आदि पर लग जाता है. इस मीठे पदार्थ पर काली फफूंदी पनपती है, जो पत्तियों पर काली परत के रूप में फैल कर पेड़ों के प्रकाश संश्लेषण पर खराब असर डालती है.

इलाज : बाग से खरपतवार हटा कर उसे साफसुथरा रखें. घने बाग की कटाईछंटाई दिसंबर में करें. बौर फूटने के बाद बागों की बराबर देखभाल करें. पुष्पगुच्छ की लंबाई 8-10 सेंटीमीटर होने पर भुनगे का प्रकोप होता है. इस की रोकथाम के लिए 0.005 फीसदी इमिडा क्लोप्रिड का पहली बार छिड़काव करें. 0.005 फीसदी थायामेथोक्लाज या 0.05 फीसदी प्रोफेनोफास का दूसरा छिड़ाकाव फल लगने के बाद करें.

गुजिया: इस के बच्चे और वयस्क पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. जब इन की तादाद ज्यादा हो जाती है, तो इन के द्वारा रस चूसे जाने के कारण पेड़ों की पत्तियां व बौर सूख जाते हैं और फल नहीं लगते हैं. इस कीट का हमला दिसंबर से मई महीने तक देखा जाता है.

इलाज : खरपतवारों और अन्य घासों को नवंबर में जुताई द्वारा बाग से निकालने से सुप्तावस्था में रहने वाले अंडे धूप, गरमी व चीटियों द्वारा नष्ट हो जाते हैं. दिसंबर के तीसरे हफ्ते में पेड़ के तने के आसपास 250 ग्राम क्लोरपाइरीफास चूर्ण 1.5 फीसदी प्रति पेड़ की दर से मिट्टी में मिला देने से अंडों से निकलने वाले निम्फ मर जाते हैं. पालीथीन की 30 सेंटीमीटर चौड़ी पट्टी पेड़ के तने के चारों ओर जमीन की सतह से 30 सेंटीमीटर ऊंचाई पर दिसंबर के दूसरेतीसरे हफ्ते में गुजिया के निकलने से पहले लपेटने से निम्फों का पेड़ों पर ऊपर चढ़ना रुक जाता है. पट्टी के दोनों सिरों को सुतली से बांधना चाहिए. इस के बाद थोड़ी ग्रीस पट्टी के निचले घेरे पर लगाने से गुजिया को पट्टी पर चढ़ने से रोका जा सकता है. यह पट्टी बाग में मौजूद सभी आम के पेड़ों व अन्य पेड़ों पर भी बांधनी चाहिए. अगर किसी वजह से यह विधि नहीं अपनाई गई और गुजिया पेड़ पर चढ़ गई, तो ऐसी हालत में 0.05 फीसदी कार्बोसल्फान 0.2 मिलीलीटर प्रति लीटर या 0.06 फीसदी डायमेथोएट 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर का छिड़काव करें.

Mango Orchards

पुष्प गुच्छ मिज : आम के पेड़ों पर मिज के प्रकोप से 3 चरणों में हानि होती है. इस का पहला प्रकोप कली के खिलने की अवस्था में होता है. नए विकसित बौर में अंडे दिए जाने व लार्वा द्वारा बौर के मुलायम डंठल में घुसने से बौर पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं. इस का दूसरा प्रकोप फलों के बनने की अवस्था में होता है. फलों में अंडे देने व लार्वा के घुसने की वजह से फल पीले हो कर गिर जाते हैं. तीसरा प्रकोप बौर को घेरती हुई पत्तियों पर होता है.

इलाज : अक्तूबर व नवंबर में बाग में की गई जुताई से मिज की सूंडि़यों के साथ सोए पड़े प्यूपे भी नष्ट हो जाते हैं. जिन बागों में इस कीट का हमला होता रहा है, वहां बौर फूटने पर 0.06 फीसदी डायमेथोएट का छिड़काव करना चाहिए. अप्रैलमई में 250 ग्राम क्लोरपाइरीफास चूर्ण प्रति पेड़ के हिसाब से छिड़काव करने पर पेड़ के नीचे सूंडि़यां नष्ट हो जाती हैं. फरवरी में भुनगे के लिए किए जाने वाले कीटनाशी के छिड़काव से इस कीट की भी अपनेआम रोकथाम हो जाती है.

डासी मक्खी : वयस्क मक्खियां अप्रैल में जमीन से निकल कर पके फलों पर अंडे देती हैं. 1 मक्खी 150 से 200 तक अंडे देती है. 2-3 दिनों के बाद सूंडि़यां अंडों से निकल कर गूदे को खाना शुरू कर देती हैं.

इलाज : इस कीट के असर को कम करने के लिए सभी गिरे हुए व मक्खी के प्रकोप से ग्रसित फलों को इकट्ठा कर के नष्ट कर देना चाहिए. पेड़ों के आसपास सर्दी के मौसम में जुताई करने से जमीन के अंदर के प्यूपों को नष्ट किया जा सकता है. काठ से बने यौनगंध ट्रैप को पेड़ पर लगाना इस की रोकथाम में बहुत कारगर है. इस ट्रैप के लिए प्लाईवुड के 5×5×1 सेंटीमीटर आकार के गुटके को 48 घंटे तक 6:4:1 के अनुपात में अल्कोहल, मिथाइल यूजिनाल, मैलाथियान के घोल में भिगो कर लगाना चाहिए. यौनगंध ट्रैप को 2 महीने के अंतर पर बदलना चाहिए. 10 ट्रैप प्रति हेक्टेयर लटकाने चाहिए.

रोगों की रोकथाम

पाउडरी मिल्ड्यू (खर्रा, दहिया) : इस रोग के लक्षण बौरों, पत्तियों व नए फलों पर देखे जा सकते हैं. इस रोग का खास लक्षण सफेद कवक या चूर्ण के रूप में जाहिर होता है. नई पत्तियों पर यह रोग आसानी से दिखता है, जब पत्तियों का रंग भूरे से हलके हरे रंग में बदलता है. नई पत्तियों पर ऊपरी और निचली सतह पर छोटे सलेटी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो निचली सतह पर ज्यादा होते हैं. बौरों पर यह रोग सफेद चूर्ण की तरह दिखाई पड़ता है और बौरों में लगे फूलों के झड़ने की वजह बनता है. इस रोग की वजह से फूल नहीं खिलते हैं और समय से पहले ही झड़ जाते हैं. नए फलों पर पूरी तरह सफेद चूर्ण फैल जाता है और मटर के दाने के बराबर हो जाने के बाद फल पेड़ से झड़ जाते हैं.

इलाज : पहला छिड़काव 0.2 फीसदी घुलनशील गंधक का घोल बना कर उस समय करना चाहिए, जब बौर 3-4 इंच का होता है. दूसरा छिड़काव 0.1 फीसदी डिनोकोप का होना चाहिए, जो पहले छिड़काव के 15-20 दिनों के बाद हो. दूसरे छिड़काव के 15-20 दिनों के बाद तीसरा छिड़काव 0.1 फीसदी ट्राईडीमार्फ का होना चाहिए.

एंथ्रेकनोज : यह रोग पत्तियों, टहनियों और फलों पर देखा जा सकता है. पत्तियों की सतह पर पहले गोल या अनियमित भूरे या गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. प्रभावित टहनियों पर पहले काले धब्बे बनते हैं और फिर पूरी टहनी सलेटी रंग की हो जाती है. पत्तियां नीचे की ओर झुक कर सूखने लगती हैं और बाद में गिर जाती हैं. बौर पर सब से पहले पाए जाने वाले लक्षण हैं, गहरे भूरे रंग के धब्बे, जो कि फूलों पर जाहिर होते हैं. बौर व खिले फूलों पर छोटे काले धब्बे उभरते हैं, जो धीरेधीरे फैलते हैं और आपस में जुड़ कर फूलों को सुखा देते हैं. ज्यादा नमी होने पर यह रोग तेजी से फैलता है.

इलाज : सभी रोगग्रसित टहनियों की छंटाई कर देनी चाहिए और बाग में गिरी हुई पत्तियों, टहनियों और फलों को इकट्ठा कर के जला देना चाहिए. मंजरी संक्रमण को रोकने केलिए 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम का 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना चाहिए. संक्रमण को रोकने के लिए 0.3 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव भी लाभकारी है. 0.1 फीसदी थायोफनेट मिथाइल या 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम का बाग में फल तोड़ाई से पहले छिड़काव करने से गुप्त संक्रमण को कम किया जा सकता है.

उल्टा सूखा रोग : टहनियों का ऊपर से नीचे की ओर सूखना इस रोग का मुख्य लक्षण है. विशेष तौर पर पुराने पेड़ों में बाद के पत्ते सूख जाते हैं, जो आग से झुलसे हुए से मालूम पड़ते हैं. शुरू में नई हरी टहनियों पर गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. जब ये धब्बे बढ़ते हैं, तब नई टहनियां सूख जाती हैं. ऊपर की पत्तियां अपना हरा रंग खो देती हैं और धीरेधीरे सूख जाती हैं. इस रोग का ज्यादा असर अक्तूबरनवंबर में दिखाई पड़ता है.

इलाज : छंटाई के बाद गाय का गोबर व चिकनी मिट्टी मिला कर कटे भाग पर लगाना फायदेमंद होता है. संक्रमित भाग में 3 इंच नीचे से छंटाई के बाद बोर्डो मिक्चर 5:5:50 या 0.2 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव रोग की रोकथाम में बेहद कारगर होता है.

Artificial Insemination : कृत्रिम गर्भाधान से मवेशियों की नस्लें सुधारें

Artificial Insemination : भारत में मुख्य रूप से गायों और भैंसों से ही दूध का उत्पादन होता है. यहां साहिवाल, हरियाणा, गिर, रेड सिंधी जैसी देशी नस्लों की गायें और जाफरावादी, मुर्रा और मेहसाना नस्ल की भैंसें पाई जाती हैं. सभी देशी नस्लों के दुधारू पशुओं की दूध उत्पादन कूवत विदेशी नस्ल के पशुओं की तुलना में काफी कम है. इस से पशुपालकों को उन की मेहनत और लागत के हिसाब से मुनाफा नहीं हो पाता है. पशुपालकों की माली हालत में सुधार तभी मुमकिन है, जब वे उम्दा नस्ल के शुक्राणुओं से कृत्रिम गर्भाधान द्वारा अपनी गायभैंसों को गाभिन कराएं.

कृत्रिम गर्भाधान (Artificial Insemination) के बारे में ज्यादातर किसानों और पशुपालकों के मन में यह शंका होती है कि इस से मवेशी को गर्भ नहीं ठहरता है और पैसे व समय की बरबादी होती है. वेटनरी डाक्टर सुरेंद्र नाथ कहते हैं कि अगर मवेशी को सही समय पर ट्रेंड मुलाजिम के द्वारा कृत्रिम गर्भाधान कराया जाए तो गर्भ ठहरने की गारंटी 100 फीसदी होती है. मवेशी अगर सुबह गरम हुआ हो तो शाम को और शाम को गरम हुआ हो तो सुबह के वक्त कृत्रिम गर्भाधान कराना चाहिए. मादा मवेशी का जोरजोर से रंभाना, पेशाब के रास्ते से चिपचिपा स्राव आना, बारबार पेशाब करना, दूसरे पशुओं पर चढ़ने की कोशिश करना, बेचैनी बढ़ना आदि उस के गरम होने के लक्षण हैं.

कृत्रिम गर्भाधान से गायभैंसों के गर्भधारण की उम्मीद काफी बढ़ जाती है. पशुओं के डाक्टर की मदद और देखरेख में शुक्राणुओं को गर्भाशय में डालना चाहिए. पाल खिलाने यानी शुक्राणु डालने के 60 दिनों बाद गर्भधारण हुआ या नहीं इस की जांच हाथ से की जा सकती है. 4 से 8 साल तक के भैंसे के शुक्राण सब से अच्छा नतीजा देते हैं. इस आयु में कम समय में अच्छे किस्म के शुक्राणु मिल जाते हैं. ध्यान रखें कि गरमी के दिनों में प्राप्त शुक्राणु अच्छे नतीजे नहीं देते हैं. भैंस को पहला पाल खिलाने के समय उस का वजन 321 से 360 किलोग्राम के बीच होना चाहिए. इस से कम या ज्यादा वजन होने से गर्भधारण में दिक्कतें आती हैं.

कृत्रिम गर्भाधान एक ऐसी विधि है, जिस में उन्नत नस्ल के सांड़ के वीर्य को कृत्रिम उपकरणों की मदद से मादा पशुओं के जनन अंगों में सही समय पर सही जगह डाला जाता है.

Artificial Insemination

कुदरती गर्भाधान में सांड़ अपने वीर्य को मादा पशु की योनि में सीधे छोड़ता है, जबकि कृत्रिम गर्भाधान में पहले सांड़ के वीर्य को कृत्रिम योनि में डाल कर जमा किया जाता है, उस के बाद उस वीर्य की जांच कर के उसे संरक्षित कर लिया जाता है. मादा पशु की योनि में कृत्रिम तरीके से यानी उपकरण की मदद से जमा किए गए वीर्य को डाल दिया जाता है.

कृत्रिम गर्भाधान का चलन शुरू हुए काफी समय हो चुका है, इस के बाद भी लोगों के मन में इसे ले कर कई तरह की शंकाएं बैठी हुई हैं. पशुपालकों का पढ़ालिखा नहीं होना और पोंगापंथी होना कृत्रिम गर्भाधान के रास्ते की सब से बड़ी रुकावट है.

कृत्रिम गर्भाधान के जरीए अपने मवेशियों की नस्लें सुधारने में कामयाबी हासिल करने वाले बिहार के नालंदा जिले के नूरसराय गांव के रहने वाले पशुपालक रामखेलावन कहते हैं कि अब पशुपालकों को यह जानना और समझना जरूरी है कि कृत्रिम गर्भाधान के कई फायदे हैं. इस के जरीए कम दूध देने वाली देशी नस्ल की गायों और भैंसों की नस्लों में सुधार किया जा सकता है. इस से गायभैंसों की दूध देने की कूवत पहले के मुकाबले 2-3 गुना ज्यादा हो जाती है.

कृत्रिम गर्भाधान का एक फायदा यह भी है कि उन्नत नस्ल के सांड़ से 1 बार इकट्ठा किए गए वीर्य को संरक्षित कर के कई सालों तक रखा जा सकता है. इसे कहीं भी आसानी से ले जाया जा सकता है. विदेशों से भी उम्दा नस्ल के सांड़ों के वीर्य को आयात किया जा सकता है.

कृत्रिम गर्भाधान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले वीर्य में एंटीबायोटिक दवा मिली होती है, जिस से मादा पशुओं के जननांगों में बीमारी फैलने का खतरा भी नहीं होता है. कृत्रिम गर्भाधान केंद्र पर कृत्रिम  गर्भाधान की सुविधा होने की वजह से पशुपालकों को अपने पशुओं को गाभित करने के लिए इधरउधर भटक कर समय बरबाद नहीं करना पड़ता है.

देश भर में दुधारू मवेशियों की नस्लों को सुधारने की मुहिम शुरू की गई है. इस के लिए कृत्रिम गर्भाधान केंद्र की संख्या बढ़ाने की कवायद चल रही है. बिहार जैसे पिछड़े राज्य में फिलहाल 800 कृत्रिम गर्भाधान केंद्र चल रहे हैं. इन्हें बढ़ा कर 1400 करने की योजना है.

बिहार सरकार के कृषि रोड मैप के मुताबिक हर साल 50 लाख पशुओं का कृत्रिम गर्भाधान किया जाना है और बचौर, गिर, साहीवाल, रेड सिंघी, देवौनी आदि नस्लों की गायभैंसों की नस्लों को बेहतर बनाया जाना है.

Jowar : जायद में ज्वार (sorghum) की खेती

ज्वार (Jowar) को देश में अलगअलग नामों से जानते हैं. इसे उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय भाषा में कर्बी, मराठी में ज्वारी, कन्नड़ में जोर और तेलुगू में जोन्ना कहते हैं. महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान व गुजरात जैसे सूबों में इस की खूब खेती की जाती है. उत्तरी भारत में इस की खेती खरीफ और रबी दोनों मौसमों में की जाती है. खास बात यह है कि इसे कम बारिश वाले इलाकों में भी उगाया जा सकता है. चारे के अलावा इसे अन्न और जैव उर्जा के लिए भी इस्तेमाल करते हैं. इस से साइलेज भी तैयार किया जाता है. इस की खास किस्म से स्टार्च व दानों से अल्कोहल भी हासिल किया जाता है. यही कारण है कि खाद्यान्न फसलों में कुल बोए जाने वाले रकबे में इस का तीसरा स्थान है.

मिट्टी : ज्वार की खेती के लिए दोमट, बलुई दोमट और हलकी व औसत काली मिट्टी जिस का पीएच मान सामान्य हो बेहतर होती है. अगर अधिक अम्लीय या अधिक क्षारीय मिट्टी हो तो ऐसे स्थानों पर इस की खेती करना सही नहीं होता.

खेत की तैयारी : पलेवा कर के पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से या हैरो से कर के 1 से 2 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए.

बोआई का समय : हरे चारे के लिए जायद में बोआई का सही समय फरवरी के अंतिम हफ्ते से ले कर मार्च के अंत तक होता है.

बीज दर : मल्टीकट (कई बार कटने वाली) प्रजातियों के 25-30 किलोग्राम बीज और सिंगल कट (सिर्फ 1 बार कटने वाली) प्रजातियों के 30-40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने चाहिए.

बीज उपचार : बीजजनित और मिट्टी रोगों से बचाव के लिए बोआई से पहले बीजों को 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए.

बोआई का तरीका : ज्वार की ज्यादातर बोआई छिटकवां विधि से की जाती है, जो कि वैज्ञानिक तरीका नहीं है. बेहतर होगा कि इसे हल के पीछे कूड़ों में लाइन से लाइन की दूरी 30 सेंटीमीटर रखते हुए बोएं.

खाद और उर्वरक : खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के बाद मिली रिपोर्ट के अनुसार ही करना चाहिए. यदि किसान के पास खूब सड़ी हुई गोबर की खाद, खली या कंपोस्ट वगैरह मौजूद हो, तो बोआई से 15-20 दिनों पहले इन का इस्तेमाल करें.

सिंगल कट वाली प्रजातियों में 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन बोआई के 1 महीने बाद सही नमी होने पर छिड़क कर देना चाहिए. मल्टीकट वाली प्रजातियों में 60-70 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस बोआई के समय और 15-20 किलोग्राम नाइट्रोजन हर कटाई के बाद प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई : बारिश होने से पहले फसल की हर 8-12 दिनों के अंतराल पर या जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

खरपतवार नियंत्रण : फसल की बोआई के तुरंत बाद 1.5 किलोग्राम घुलनशील एट्राजिन 50 फीसदी या सिमेजिन को 1000 लीटर पानी में घोल कर अंकुरण से पहले खेत में छिड़काव करना चाहिए.

कटाई : पशुओं को उम्दा चारा खिलाने के लिए सिंगल कट फसल की कटाई 5 फीसदी फूल आने पर या 60-70 दिनों के बाद करनी चाहिए. वहीं दूसरी ओर मल्टी कट प्रजातियों की पहली कटाई सामान्य प्रजातियों से तकरीबन 10 दिनों पहले कर लेनी चाहिए और बाद की कटाई 30-35 दिनों के अंतराल पर जमीन की सतह से 6-8 सेंटीमीटर की (तकरीबन 4 अंगुल) ऊंचाई से करनी चाहिए. इस से कल्ले आसानी से निकलते हैं.

उपज : सिर्फ हरे चारे की बात की जाए तो मल्टी कट वाली प्रजाति की उपज तकरीबन 750-800 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है. वहीं सिंगल कट वाली प्रजातियों की उपज तकरीबन 250-450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई जाती है.

Jowar

ज्वार की कुछ उन्नत प्रजातियां

यूपी चरी 1 : सिंगल कट वाली यह प्रजाति पत्ती रोगों के लिए सहनशील है. इस का तना रसीला और मिठास वाला होता है. यह तेजी से बढ़ोतरी करने वाली अगेती प्रजाति है, जो पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 330 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 115 से 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

एचसी 171 : सिंगल कट वाली यह प्रजाति पत्ती रोगों और कीटों के लिए सहनशील है. इस का तना मध्यम मोटा, मीठा और रसीला होता है. यह प्रजाति पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 520 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

पूसा चरी 1 : सिंगल कट वाली इस प्रजाति के बीज बहुत कठोर व सफेद होते हैं. इस का तना रसीला और मध्यम मोटाई का होता है. यह पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 280 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

एसएल 44 : सिंगल कट वाली इस प्रजाति का तना पतला, मिठास रहित व रसीला होता है. इस की पत्तियां लंबी और मध्यम चौड़ाई की होती हैं. इसे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान  व उत्तर प्रदेश में उगाया जा सकता है. इस की उपज 320 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 75 से 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

पूसा चरी 23 : मल्टी कट वाली यह प्रजाति सूखा और पानी रुकने के प्रति सहनशील होती है. इस की पत्तियां संकरी, दाना नीलेलाल रंग का और तना पतला होता है. यह पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के पकने में 95 से 100 दिनों का समय लगता है.

Farming Work : मार्च महीने में करें ये जरूरी काम

Farming Work: गन्ने की बोआई का काम मार्च महीने में पूरा कर लें. गन्ने की देर से बोआई करने पर पैदावार में गिरावट आती है. बोआई के लिए 3 आंख वाले गन्ने के टुकड़ों का इस्तेमाल करें.

बीज सेहतमंद गन्ना फसल से ही लें और बीज के टुकड़ों को उपचारित कर के 60-70 सैंटीमीटर की दूरी पर कूंड़ों में बोआई करें. बोआई का काम शुगरकेन प्लांटर मशीन से करें तो ज्यादा बेहतर रहेगा.

गन्ने के साथ दूसरी फसलें जैसे मूंग, उड़द, लोबिया, चारे वाली मक्का वगैरह को 2 कूंड़ों के बीच वाली खाली जगह में बोआई करें. बोआई के लिए अपने इलाके की आबोहवा के मुताबिक ही किस्में चुनें.

जायद फसल मूंग की बोआई का काम भी इसी महीने पूरा करें. बोआई के लिए अच्छी उपज वाली किस्में जैसे पूसा बैसाखी, के-851, एसएसएल-668 वगैरह की बोआई करें. अगर खेत में नमी की कमी है तो बोआई से पहले खेत का पलेवा कर दें.

जायद फसल उड़द की बोआई का काम इस महीने में जरूर पूरा कर लें. बोआई के लिए अच्छी किस्में ही चुनें. अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करें.

बेहतर होगा, अगर पोषक तत्त्वों की मात्रा तय करने से पहले मिट्टी की जांच करा लें. फसल को बीमारी से बचाने के लिए बीजोपचार के बाद ही उन्हें बोएं.

चारे के लिए लोबिया की बोआई इस महीने कर सकते हैं. बोआई से पहले बीज को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर लें. खाद की मात्रा खेत के उपजाऊपन के आधार पर ही तय करनी चाहिए.

अगर मिट्टी जांच की सुविधा मौजूद नहीं है तो खेत की तैयारी के समय 20-30 क्विंटल सड़ी हुई गोबर की खाद मिट्टी में मिला दें. साथ ही, 30-40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर दें.

अभी तक अगर  सूरजमुखी की फसल नहीं बोई है तो बोआई का काम 15 मार्च तक जरूर पूरा कर लें.

सूरजमुखी में निराईगुड़ाई भी इसी माह करें. आल्टरनेरिया ब्लाइट, डाउनी मिल्डयू और सफेद रतुआ के उपचार के लिए 600 से 800 ग्राम डाइथेन या इंडोफिल एम 45 को 250 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

कटुआ सूंड़ी या हरे रंग की सूंड़ी का हमला हो तो 10 किलोग्राम फैनवालरेट 0.4 प्रतिशत प्रति एकड़ के हिसाब से स्पे्र करें. सफेद रतुआ या मृदुरोमिल रोग से ग्रसित टहनियों को काट कर जला दें.

इसी महीने गेहूं की फसल में दाने बनने लगते हैं. इस दौरान फसल को पानी की बहुत जरूरत होती है, इसलिए जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

Farming Work

अगर दिन में तेज हवा चल रही है तो सिंचाई रात के समय करें. खेत में बीमारी से ग्रसित बाली या पौधा दिखाई दे तो पूरा पौधा उखाड़ कर जला दें अन्यथा सेहतमंद पौधों को भी यह बीमारी अपनी चपेट में ले लेती है.

गेहूं में अमेरिकन सूंड़ी की रोकथाम के लिए कीटनाशक दवा का स्प्रे करें. गेहूं, सरसों व जौ में चेंपा या माहू कीट का हमला होने पर 400 मिलीलिटर मैटासिस्टाक्स या रोगर 30 ईसी को 300 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़कें. जिन स्थानों पर पत्तों में कांगियारी देखें, उन पौधों को काट कर जला दें.

चारे के लिए ज्वार, बाजरा, मक्का, सूडान घास वगैरह की बोआई इसी महीने करें. इसी महीने मेंथा की फसल में निराईगुड़ाई करें.

अगर अभी तक मेंथा की बोआई नहीं की गई है तो फौरन मेंथा की बोआई का काम पूरा करें.

बोआई के लिए उन्नतशील किस्में जैसे हिमालय, कुशल कोसी वगैरह को चुनें. ध्यान रहे कि बोआई के लिए इस्तेमाल होने वाली जड़ें सेहतमंद हों या सेहतमंद फसल से ली गई हों.

चने की फसल को पानी की जरूरत महसूस हो रही है तो हलकी सिंचाई करें. कीट व बीमारी से फसल को बचाने के लिए कारगर कीटनाशी दवा छिड़कें.

प्याज की फसल की निराईगुड़ाई भी इसी माह करें और जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें. हलदी व अदरक की बोआई भी इसी महीने पूरी कर लें. बैगन की रोपाई भी इसी महीने करें. पहले से रोपी गई फसल में निराईगुड़ाई करें व जरूरत के मुताबिक सिंचाई करते रहें.

अगर मटर के दाने वाली फसल तैयार हो गई है तो कटाई करें और हरी फलियों वाले खेत भी खाली हो गए हैं तो अगली फसल के लिए खेत तैयार करें.

आम के बागों को हौपर कीट की रोकथाम के लिए कारगर कीटनाशी दवा का स्प्रे करें, वहीं नीबू के पेड़ों को कैंकर बीमारी से बचाने के लिए कीटनाशी दवा का छिड़काव करें. पपीते की पौध तैयार करें. साथ ही, केले के बागों की सिंचाई करें. बीमारीग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जला दें.

अंगूर की फसल की देखभाल अच्छी तरह करें. अंगूर के गुच्छों के फूल खिलते वक्त जिब्रेलिक एसिड के 50 पीपीएम वाले घोल में डुबाएं. तुलसी, गुलदाऊदी, सदाबहार वगैरह की बोआई भी इसी माह करें.

Mung Bean : ग्रीष्मकालीन मूंग की उन्नत खेती

Mung Bean  : दलहनी फसलों में मूंग का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है. इस में 24 फीसदी प्रोटीन के साथसाथ रेशा एवं लौह तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. आज जल्दी पकने वाली किस्मों एवं उच्च तापमान को सहन करने वाली प्रजातियों की उपलब्धता के कारण यह फायदेमंद सिद्ध हो रही है.

वर्तमान में सघन खेती, अंधाधुंध कीटनाशियों एवं असंतुलित खादों के इस्तेमाल से जमीनों की उर्वराशक्ति घट रही है. साथ ही, सभी फसलों की उत्पादकता में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है.

इस स्थिति से निबटने के लिए हरी खादों व दलहनी फसलों को अपनाएं और अपनी जमीनों की उर्वराशक्ति को बरकरार रखने व देश की बढ़ती हुई खाद्यान्न समस्याओं से निबटने में अपना भरपूर योगदान दें.

ग्रीष्मकालीन मूंग (Mung Bean) उगाने के फायदे

* अतिरिक्त आय

* कम समय के कारण धान व गेहूं फसल चक्र में उपयोगी

* खाली पड़े खेतों का सही उपयोग

* भूमि की उपजाऊ शक्ति में सुधार

* उगाने में कम खर्च

* पानी का सदुपयोग

* बीमारी व कीटों का कम प्रकोप

* भूमि कटाव से बचाव

* दलहन उत्पादन में वृद्धि

* विदेशी पैसों की बचत

उन्नत किस्में : मूंग की बिजाई के लिए के-851 (70-75 दिन) मुसकान (65 दिन), एसएमएल-668 (60-65 दिन), एमएच-421 (60 दिन) व नई किस्म एमएच-1142 (63-70 दिन) की खेती की जा सकती है जो धान व गेहूं चक्र के लिए बहुपयोगी पाई गई है.

भूमि : अच्छी मूंग की फसल लेने के लिए दोमट या रेतली दोमट भूमि सही रहती है. समय पर बिजाई वाले गेहूं से खाली खेतों में ग्रीष्मकालीन मूंग ली जा सकती है.

इस के अलावा धानगेहूं उगाने वाले क्षेत्रों में आलू, गन्ना व सरसों से खाली खेतों में भी मूंग की खेती की जा सकती है.

भूमि की तैयारी : गेहूं की कटाई के एक सप्ताह पहले रौनी/पलेवा करें और गेहूं की कटाई के तुरंत बाद 2-3 जुताई कर के खेत को अच्छी तरह तैयार करें.

इस बात का खास खयाल रखें कि खेत में बिजाई के समय समुचित नमी हो, ताकि समुचित जमाव हो सके.

बिजाई का सही समय : इस मौसम में वैसे तो मूंग की बिजाई फरवरी के दूसरे सप्ताह से मार्च तक की जाती है, लेकिन धानगेहूं बहुमूल्य क्षेत्रों में गेहूं की कटाई यदि 15 अप्रैल तक भी हो जाती है, तो इस के बाद भी मूंग की अच्छी पैदावार ली जा सकती है, क्योंकि ये किस्में 55-65 दिन में ही पक कर तैयार हो जाती हैं.

बीजोपचार : मृदाजनित रोगों से फसल को बचाने के लिए बोए जाने वाले बीजों को कैप्टान, थिरम या बाविस्टिन 3-4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से सुखा कर बीज तैयार करें.

दलहनी फसलें में राइजोबयिम (जीवाणु टीके) से बीज उपचार करने से बनने वाली गांठें अधिक मजबूत होती हैं, जो वायुमंडल में उपलब्ध नाइट्रोजन ले कर भूमि में जमा करती हैं. जीवाणु टीके से उपचार हेतु 50 ग्राम गुड़ को लगभग 250 मिलीलिटर पानी में घोल बना लें और छाया में पक्के फर्श पर बीज फैला कर हाथों से मिला दें, ताकि सभी बीजों पर गुड़ चिपक जाए.

बाद में इन बीजों पर जीवाणु टीके का पैकेट व घोल को गुड़ लगे बीजों पर डालें और हाथ से मिलाएं, जिस से सभी दानों पर कल्चर लग जाए. बीजों को छाया में सुखा कर बिजाई के काम में लाएं.

बीज की मात्रा : गरमी के मौसम में पौधों की बढ़वार पहले के मुकाबले कम हो जाती है, इसलिए अच्छी पैदावार लेने के लिए बीज अधिक डालें और फासला भी कम रखें.

पौधों की उचित संख्या के लिए बीज की मात्रा तकरीबन 10-12 किलो बीज प्रति एकड़ का प्रयोग करें.

खादों का प्रयोग : दलहनी फसलों को खाद की कम जरूरत होती है. बिजाई के समय तकरीबन 6-8 किलोग्राम शुद्ध नाइट्रोजन व 16 किलोग्राम फास्फोरस की जरूरत होती है जिसे 12-15 किलोग्राम यूरिया व 100 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट से पूरा किया जा सकता है.

अच्छी पैदावार लेने के लिए 10 किलो जिंक सल्फेट प्रति एकड़ का प्रयोग जरूर करें.

छंटाई : बिजाई के लगभग 2 सप्ताह बाद जब पौधे व्यवस्थित हो जाएं, तब पौधे से पौधे का फासला 8-10 सैंटीमीटर रख कर फालतू पौधे निकाल देने चाहिए. पौधों की सही बढ़वार के लिए छंटाई करना बहुत जरूरी है, ताकि हर एक पौधे को उचित हवा, नमी, सूर्य की रोशनी व पोषक तत्त्व पूरी मात्रा में मिल सकें.

मूंग (Mung Bean)

खरपतवार नियंत्रण : खरपतवार फसल के दुश्मन हैं, क्योंकि यह जमीन से नमी का शोषण करते है और फसल की बढ़वार में  बाधक साबित होते हैं. इसलिए पहली सिंचाई के बाद चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार उग आते हैं, जिन्हें कसोले से निकाल देना चाहिए.

पैंडीमेथिलीन नामक खरपतवारनाशी 1.25 किलोग्राम को 200 लिटर पानी में घोल बना कर बिजाई के तुरंत बाद छिड़काव करने से खरपतवारों पर काबू पाया जा सकता है.

सिंचाई : ग्रीष्मकालीन मूंग में सिर्फ 2 सिंचाई काफी रहती है. फसल में पहली सिंचाई 20-25 दिन बाद की जाती है, जबकि दूसरी सिंचाई 15-20 दिन के बाद करनी चाहिए.

ज्यादा सिंचाई करने से पौधों की बढ़वार अत्यधिक हो जाती है और फलियां कम लगती हैं और एकसाथ भी नहीं पकती.

कीड़े व बीमारी

ग्रीष्मकालीन मूंग में खरीफ मूंग की तुलना में कीड़ों का प्रकोप कम होता है. कभीकभार बालों वाली सुंडी, पत्ती छेदक, फली छेदक, हरा तेला व सफेद मक्खी आदि कीड़ों का प्रकोप देखने में आता है.

बालों वाली सुंडी की रोकथाम के लिए 200 मिली मोनोक्रोटोफास 36 एसएल या 500 मिली क्विनालफास का 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

हरा तेला व सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए 400 मिली मैलाथियान या 250 से 300 मिली रोगोर या मेटासिस्टोक्स का प्रयोग 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

बीमारी

ज्यादातर ग्रीष्मकालीन मूंग में बीमारियों का प्रकोप नहीं होता. कभीकभार पत्ती धब्बा रोग व पीला मौजेक रोग का प्रकोप देखने में आता है.

पत्ती धब्बा रोग : पत्तियों पर कोणदार व भूरे लाल रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो बीच में धूसर या भूरे रंग के और सिरों पर लालजामुनी रंग के होते हैं.

इन धब्बों को रोकने के लिए ब्लिटौक्स-50 या इंडोफिल एम-45 की 600-800 ग्राम दवा की मात्रा 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

पीला मौजेक रोग : मूंग में लगने वाला यह एक भयानक रोग है और इस रोग को सफेद मक्खी फैलाती है. इस रोग से प्रभावित पौधों के पत्ते दूर से ही पीले नजर आने शुरू हो जाते हैं. रोग अधिक फैलने से पूरा पौधा पीला पड़ जाता है.

इस रोग को रोकने के लिए जब भी खेत में पीले पौधे दिखाई पड़ें, तो उन्हें तुरंत उखाड़ देना चाहिए, क्योंकि यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है, इसलिए समयसमय पर इस के नियंत्रण के लिए रोगोर या मेटासिस्टोक्स कीटनाशी का 200 से 350 मिलीलिटर दवा का छिड़काव 100 से 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव कर देना चाहिए.

उपज व कटाई

ग्रीष्मकालीन मूंग में बिजाई के लगभग 50-55 दिन बाद फलियां पकनी शुरू हो जाती है. पकने पर फलियों का रंग गहरा भूरा हो जाता है. एक एकड़ से तकरीबन 4 से 6 क्विंटल पैदावार मिल जाती है.

Toxic Chemicals : जमीन को जहरीला बनाते रसायन

इन खतरनाक रसायनों (Toxic Chemicals) के इस्तेमाल से धीरेधीरे जमीन की उर्वराशक्ति खत्म हो जाती है, जिस की वजह से पैदावार कम हो जाती है.

यही नहीं जहरीले रसायनों (Toxic Chemicals) के इस्तेमाल से कीटों की प्रतिरोधक कूवत बढ़ गई है और उन पर इन का अब कोई असर नहीं होता यानी कीट आसानी से इन रसायनों को हजम कर जाते हैं. रसायनों के इस तरह अंधाधुंध इस्तेमाल से जमीन के बंजर होने का खतरा बढ़ जाता है, साथ ही इस से इनसानों के स्वास्थ्य को भी नुकसान होता है.

इन रसायनों का असर फसलों पर भी पड़ रहा है. किसानों के स्वास्थ्य पर भी इन कीटनाशकों का असर देखने को मिल रहा है. हाल में ऐसी ही एक खबर महाराष्ट्र के यवतमाल जिले से सामने आई, जहां 18 किसानों और खेत में काम कर रहे मजदूरों की इन कीटनाशकों की चपेट में आ कर मौत हो गई. महीने भर में तकरीबन 500 मजदूर और किसान अस्पताल में भर्ती हो गए.

इस इलाके में कपास की खेती काफी मात्रा में होती है. इस बार कपास को गुलाबी कीड़ों ने काफी नुकसान पहुंचाया, जिन से फसल को बचाने के लिए किसानों ने मजबूरन प्रोफेनोफास जैसे जहरीले कीटनाशक का इस्तेमाल किया. इस छिड़काव के लिए उन्होंने चीन में बने पंपों का इस्तेमाल किया, जिन की कीमत कम थी और गति ज्यादा थी यानी दवा का छिड़काव ज्यादा हो रहा था. किसान व मजदूर इस छिड़काव के दौरान नंगे बदन, नंगे पांव बिना हाथों पर दस्ताने लगाए खेतों में काम कर रहे थे, जिस वजह से उन पर दवा का गंभीर असर हुआ. इस से कई किसानों की आंखें खराब हो गईं तो कई त्वचा रोग से पीडि़त हो गए.

नुकसान से बचने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा है, मगर ये जहरीले कीटनाशक देश के पर्यावरण को खराब कर रहे हैं. इन का तकरीबन एकतिहाई हिस्सा विभिन्न स्वास्थ्य कार्यक्रमों के तहत छिड़का जा रहा है.

60 के दशक में करीब साढ़े 6 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में कीटनाशकों का छिड़काव होता था, लेकिन 1988-89 के दौरान यह बढ़ कर 80 लाख हेक्टेयर हो गया और मौजूदा वक्त में इस का क्षेत्र तकरीबन डेढ़ करोड़ हेक्टेयर होने की आशंका है. ये कीटनाशक हवा, पानी, मिट्टी, जन स्वास्थ्य और जैविक विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं. दवाओं और रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है. दवाएं महज 10 से 15 फीसदी ही असरकारक होती हैं.

70 के दशक के आसपास कर्नाटक के मलनाड इलाके में एक अजीबोगरीब रोग फैला. लकवे से मिलतेजुलते इस रोग के शिकार अधिकतर मजदूर थे. इस रोग के कारण शुरू में तो उन की पिंडलियों और घुटने के जोड़ों में दर्द की शिकायत हुई, लेकिन धीरेधीरे रोगी खड़ा भी नहीं हो पाया.

साल 1975 में हैदराबाद के नेशनल इंस्टिट्यूट आफ न्यूट्रीशन ने चेताया कि ‘ऐंडमिक एमिलिइन आर्थ्रराइटिस आफ मलनाड’ नामक इस बीमारी का कारण ऐसे धान के खेतों में पैदा हुई मछली व केकड़े खाना है, जहां जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल हुआ हो. इस के बावजूद वहां धान के खेतों में पैराशिया और एल्ड्रिन नामक कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल जारी है, जबकि बीमारी 1 हजार से ज्यादा गांवों को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है.

रसायन (Chemicals)

इन दिनों बेहतर किस्म के ‘रूपाली’ और ‘रश्मि’ किस्म के टमाटर सब से ज्यादा इस्तेमाल किए जा रहे हैं. इन प्रजातियों को सब से ज्यादा नुकसान हेल्योशिस अर्मिजरा नामक कीड़े से होता है.

टमाटर में सुराख करने वाले इस कीड़े की वजह से आधी फसल बरबाद हो जाती है. इन कीड़ों को मारने के लिए बाजार में रोग हाल्ट, सुपर किलर, रेपलीन और चैलेंजर नामक दवाएं मिलती हैं.

इन दवाओं पर बाकायदा निर्देश है कि इन का इस्तेमाल फसल पर 3 या 4 बार किया जाए, लेकिन किसान 20-25 बार इन का छिड़काव करते हैं, जिस की वजह से इन्हें खाने से अधिकांश लोग इन की चपेट में आ जाते हैं और गंभीर बीमारियां उन्हें घेर लेती हैं. इस की पुष्टि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा की जा चुकी है.

इन दिनों बाजार में मिल रही चमचमाती सब्जियों में भिंडी व बैगन प्रमुख हैं. ये देखने में जितने खूबसूरत व ताजे लगते हैं, खाने में उतने ही जहरीले हैं. बैगन को चमकदार बनाने के लिए उसे फोलिडज नाम के खतरनाक रसायन में डुबोया जाता है.

इसी तरह भिंडी को छेद करने वाले कीड़ों से बचाने के लिए एक जहरीली दवा का छिड़काव किया जाता है. ऐसी कीटनाशकयुक्त सब्जियों का लगातार इस्तेमाल करने से सांस की नली के बंद होने की आशंका रहती है.

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के फार्माकोलौजी विभाग के एक अध्ययन से पता चला है कि काक्रोच मारने वाली दवाओं का कुप्रभाव सब से ज्यादा 14 साल से कम उम्र के बच्चों पर होता है. ग्रीन पीस इंडिया की एक रिपोर्ट बताती है कि कीटनाशक बच्चों के दिमाग को घुन की तरह खोखला कर रहे हैं. संस्था ने कीटनाशकों के असर का बच्चों के मानसिक विकास पर अध्ययन करने के लिए देश के 6 अलगअलग राज्यों के जिलों में शोध किया. इस में पाया गया कि इन कीटनाशकों के अंधाधुंध असुरक्षित इस्तेमाल के कारण भोजन और पानी में रासायनिक जहर की मात्रा बढ़ रही है, जिस की वजह से इन का सेवन करने वाले बच्चों का मानसिक विकास काफी धीमा है.

इन जहरीले रसायनों के इस्तेमाल से जमीन की उर्वराशक्ति भी नष्ट हो रही है. विषैले और जनजीवन के लिए खतरा बन चुके कीटनाशकों पर विकसित देशों ने अपने यहां पाबंदी लगा दी है, लेकिन अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए इन्हें भारत में भेजना जारी रखा है.

साल 1993 में केंद्र सरकार ने 12 कीटनाशकों पर पूरी तरह रोक लगा दी थी और 13 कीटनाशकों के इस्तेमाल पर कुछ पाबंदियों की औपचारिकता निभाई थी. इन में सल्फास के नाम से कुख्यात एल्युमीनियम फास्फाइड भी है. आज सल्फास खा कर मरने वालों की तादाद काफी ज्यादा हो गई है. आएदिन ऐसी खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती हैं. डीडीटी और बीएचसी जैसे बहुप्रचलित कीटनाशक भी प्रतिबंधित हैं.

रसायन (Chemicals)

सरकार ने भले ही इन दवाओं की बिक्री पर प्रतिबंध सिर्फ कागजों में लगाया हो, लेकिन इन का उत्पादन आज भी बेखौफ जारी है. सरकारी महकमों के लिए खरीद के नाम पर इन के कारखानों के लाइसेंस धड़ल्ले से जारी किए जा रहे हैं.

अफसोस की बात यह है कि देश में हरित क्रांति का झंडा लहराने वालों ने हमारे खेतों और खाद्यान्नों को विषैले रसायनों का गुलाम बना दिया है. इस से पैदावार जरूर बढ़ी है, लेकिन इन से जल्दी ही जमीन बंजर हो जाएगी. साथ ही इस से खेती की लागत बढ़ रही है और स्वास्थ्य पर खर्चे में बढ़ोतरी हो रही है. हमारा देश युगों से खेती करता आ रहा है.

हमारे पास कम लागत में अच्छी फसल उगाने के पारंपरिक तरीके हैं, लेकिन यह ज्ञान जरूरत तो पूरी कर सकता है, लेकिन ज्यादा पाने की इच्छा पूरी नहीं हो सकती.

हमारे पारंपरिक बीज, गोबर की खाद, नीम, गौमूत्र जैसे प्राकृतिक तत्त्वों से भले ही कम फसल पैदा होगी, लेकिन यह तय है कि इन जानलेवा रसायनों से मुक्ति मिल जाएगी और जहर नहीं उपजेगा.

Nematodes : नीम (Neem) से निमेटोड का समाधान

निमेटोड (Nematodes) एक तरह का बहुत ही सूक्ष्म धागानुमा कीट होता है, जो जमीन के भीतर पाया जाता है. वैसे, निमेटोड (Nematodes) कई तरह के होते हैं. हर किस्म के निमेटोड (Nematodes) नामक कीड़े फसलों को बरबाद करने के लिए कुख्यात हैं. ये वर्षों तक मिट्टी के नीचे दबे रह सकते हैं और पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. ये पौध की जड़ों का रस चूसते हैं, जिस के कारण पौधे को भूमि से खाद, पानी या पोषक तत्त्व पूरी मात्रा में नहीं मिल पाते हैं और पौधे की बढ़वार रुक जाती है.

वहीं दूसरी ओर निमेटोड (Nematodes) लगने से जड़ में गांठ बन जाती है, जिस से पौधे का विकास रुक जाता है और पौधा मर भी सकता है.

संसार की हर फसल पर निमेटोड (Nematodes) का प्रकोप होता है. जड़ गांठ रोग, पुट्टी रोग, नीबू का सूखा रोग, जड़ गलन रोग, जड़ फफोला रोग वगैरह प्रमुख हैं.

कीड़े द्वारा ग्रसित होने वाली फसलें

निमेटोड (Nematodes) द्वारा प्रभावित होने वाली मुख्य फसलें गेहूं, टमाटर, मिर्च, बैगन, भिंडी, परवल, धान इत्यादि हैं. फल में अमरूद, सीताफल, अनार, नीबू, किन्नू, अंगूर व समस्त प्रकार के फल व अन्य पौधे हैं.

कैसे पहचानें?

आप के पौधे बढ़ न पा रहे हों, पौधे सूख कर मुरझा जाते हैं और उन की जड़ों में गांठ पड़ गई हो व उन में फल और फूल की संख्या बहुत कम हो गई हो.

जैविक समाधान व पौध संरक्षण 

मिट्टी में रसायन छिड़क कर मारने का प्रयास महंगा ही नहीं, बल्कि निष्प्रभावी भी होता है. निमेटोड (Nematodes) और दीमक आदि कीड़ों को प्रभावी रूप से समाप्त करने के लिए नीम (Neem) खाद पाउडर का इस्तेमाल ही जरूरी है. इस के लिए नीम खली का तेलयुक्त होना आवश्यक है.

होता यह है कि नीम (Neem) खाद या नीम (Neem) खली के इस्तेमाल से निमेटोड (Nematodes) बनना रुक जाते हैं. नीम (Neem) खाद के इस्तेमाल से उपज में 40 फीसदी तक की वृद्धि भी होती है और फूलों का ज्यादा बनना और फलों की संख्या भी बढ़ती है. साथ ही, फल अधिक स्वादिष्ठ, चमकदार एवं बड़े आकार के साथसाथ और ज्यादा वजनदार बनते है.

फसलों के लिए उपचार

गरमियों के मौसम में मिट्टी की गहरी जुताई करें और एक हफ्ते के लिए खुला छोड़ दें. बोआई से पहले नीम (Neem) खली 2 क्विंटल प्रति एकड़ के हिसाब से डाल कर फिर से जुताई करें. इस के बाद ही बीज बोएं.

फलों में उपचार

अनार, नीबू, किन्नू, अंगूर व समस्त प्रकार के फलों व अन्य पौधे के रोपण के समय एक मीटर गहरा गड्ढा खोद कर नीम (Neem) खली व सड़े गोबर की खाद या बकरी की मिंगन आदि मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर पौध रोपण करें.

अगर पौधे पहले से लगा रखे हैं तो भी पौध की उम्र के हिसाब से नीम (Neem) खाद की मात्रा संतुलित करें. 1 से 2 साल तक के पौधे में 1 किलोग्राम व 3 से 5 साल तक के पौधे में 2 से 3 किलोग्राम प्रति पौधे के हिसाब से डाल कर पौधे की जड़ों के पास थाला बना कर मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर पानी दें और नीम तेल घुलनशील भी ड्रिप के साथ दें.

नीम (Neem) खाद या नीम (Neem) खली व घुलनशील नीम (Neem) तेल की खरीद की अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें : अभिषेक गर्ग, 9993441010, 9826721248.