कृषि विविधीकरण (Agricultural diversification): आमदनी का मजबूत जरीया

लगातार बढ़ रही कृषि उत्पादन लागत एवं जलवायु परिवर्तन को देखते हुए किसानों को चाहिए कि वे कृषि में विविधीकरण अपनाएं, जिस से कि वे टिकाऊ खेती, औद्यानिकीकरण, पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय, मधुमक्खीपालन, मुरगीपालन सहित अन्य लाभदायी उद्यम को करते हुए अपने परिवार की आय को बढ़ाने के साथसाथ स्वरोजगार भी कर सकें.

कृषि विविधीकरण का उद्देश्य

कृषि विविधीकरण का उद्देश्य कृषि के साथसाथ वे सभी कामों के करने से है, जिन से पर्यावरण सुरक्षित रहे और किसानों को लाभ  हो. हवा, जमीन, जानवर, जंगल, जो कि हमारी प्राकृतिक संपदाएं हैं, उन में गुणवत्ता बनी रहे और किसान इन से लगातार अच्छा उत्पादन लेते रहें. जैसे कि मिट्टी की सेहत को बनाए रखने के लिए मिट्टी जांच की संस्तुतियों के अनुसार जैविक विधियों से ज्यादा से ज्यादा आवश्यक पोषक तत्त्वों का भूमि में प्रयोग करें, जिस से कि मिट्टी में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ सके.

उचित फसल चक्र अपनाएं, कम दिनों की फसलें एवं उन की प्रजातियां उगाएं, आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में बौछारी एवं टपक विधि से फसलों की सिंचाई करें. बाजारोन्मुखी औद्यानिक फसलों एवं पौध को पौलीहाउस या शैडनैटहाउस द्वारा समय की मांग के अनुसार उत्पादन करें. साथ ही, उत्पादन में मूल्य संवर्धन कर के बेच कर अधिक लाभ लें.

वर्तमान समय की मांग को देखते हुए शीतकालीन गन्ने के साथसाथ मसूर, चना, दाल वाली मटर, सब्जी की मटर जैसी दलहनी और तिलहन में पीली सरसों का उत्पादन भी करें.

वसंतकालीन गन्ने में अंत:फसली के रूप में लोबिया, उड़द, मूंग भी ले सकते हैं. गन्ने से गुड़, शीरा, सिरका बना कर बेचने से निश्चित रूप से लाभ होता है.

कृषि विविधीकरण (Agricultural diversification)

प्रत्येक किसान के पास गृहवाटिका अवश्य होनी चाहिए, जिस से मौसम के अनुसार लहसुन, प्याज, धनिया, मेथी, मूली, भिंडी, कद्दू, लौकी, पालक, मिर्च, शिमला मिर्च, अदरक, बैगन, टमाटर, सब्जी मटर इत्यादि पैदा करें. फलस्वरूप, गुणवत्तायुक्त ताजी सब्जियों को खाएं, जिस से उन का स्वास्थ्य अच्छा रहे और पैसे की भी बचत हो. केले में धनिया, मेथी, बरसीम की अंत:फसल ले कर प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.

कृषि से संबंधित अन्य व्यवसाय

शहरीकरण के चलते पशुपालन को बढ़ावा देने की जरूरत है, क्योंकि समय की मांग है कि किसान दूध बेचने के बजाय उस का घी, मक्खन, दही, पनीर, छाछ इत्यादि बना कर बेचें, जिस से कि उन को अधिक लाभ हो व उन्नत नस्ल की भैंस मुर्रा, भदावरी, गाय हरियाणा, साहीवाल, थारपारकर, बकरियों में जमुनापारी एवं बरबरी को पालें.

मछलीपालन के लिए रोहू, कतला, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प और कौमन कार्प का प्रयोग करें. औद्योगिक फसलों में बटन मशरूम का उत्पादन करें, क्योंकि इस का बाजार उपलब्ध है.

आवागमन के अच्छे साधन होने की वजह से गेंदा, गुलाब, जरबेरा, ग्लैडिओलस, रजनीगंधा इत्यादि फूलों की खेती करें एवं इत्र के लिए पामारोजा, लैमनग्रास, गुलाब, खस जैसे सगंधीय पौधों की खेती भी कर सकते हैं.

बैकयार्ड मुरगीपालन भी एक कम लागत का लाभदायी घरेलू उद्यम है. वनराजा, कैरीप्रिया, ग्रामप्रिया, कड़कनाथ की उत्पादन क्षमता अधिक है. इन से तकरीबन 200 अंडे हर साल लिए जा सकते हैं. इन के ब्रायलर 40 दिन पर एक से डेढ़ किलो तक के हो जाते हैं.

मधुमक्खीपालन भी कम लागत का एक अच्छा उद्यम है. 50 बक्सों के साथ यह व्यवसाय शुरू किया जा सकता है, जिस से 5 क्विंटल तक शहद हर साल लिया जा सकता है.

इस के अतिरिक्त बटेरपालन भी एक अच्छा व्यवसाय है. किसान संबंधित विभागों से नियमित संपर्क करते रहें, जिस से कि योजनाओं की समय पर जानकारी ले कर उस का उपयोग कर सकें.

फसल बीमा योजना और नुकसान की भरपाई के लिए क्या है पैमाना

वर्तमान में केंद्र सरकार द्वारा उपज गारंटी योजना के रूप में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों के लिए चलाई जा रही है, जिस के अंतर्गत प्रतिकूल मौसमीय स्थितियों के कारण फसल की बोआई न कर पाने/असफल बोआई, फसल की बोआई से कटाई की अवधि में प्राकृतिक आपदाओं, रोगों व कीटों से फसल नष्ट होने की स्थिति एवं फसल कटाई के बाद खेत में कटी हुई फसलों को बेमौसम/चक्रवाती वर्षा, चक्रवात से फसल नुकसान की स्थिति में फसल पैदा करने वाले किसानों, जिन के द्वारा फसल का बीमा कराया गया है, को बीमा कवर के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है.

चयनित जनपदों में पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना को लागू किया गया है, जिस में प्रतिकूल मौसमीय स्थितियों कम व अधिक तापमान, कम व अधिक वर्षा आदि से फसल नष्ट होने की संभावना के आधार पर फसल के उत्पादक किसानों, जिन के द्वारा फसल का बीमा कराया गया है, को बीमा कवर के रूप में वित्तीय सहायता दी जाती है.

प्राकृतिक आपदा से बरबाद फसल की भरपाई के लिए क्या पैमाना है?

अधिसूचित फसलों पर मौसम के अंत में संपादित फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर फसल की क्षति का आकलन किया जाता है और संबंधित किसानों को उपज में कमी के अनुरूप क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है.

योजना के नियमों के अनुरूप क्षतिपूर्ति देय होने पर बीमा कंपनी द्वारा किसानों के बैंक खाते में क्षतिपूर्ति की धनराशि जमा करा दी जाती है, इसलिए क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए किसानों को व्यक्तिगत दावा प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं है.

ग्राम पंचायत में अधिसूचित फसल के अधिकांश किसानों द्वारा फसल की बोआई न कर पाने/असफल बोआई की स्थिति में क्षति का आकलन ग्राम पंचायत स्तर पर करते हुए प्राथमिकता पर क्षतिपूर्ति देय होती है.

crop insurance scheme

योजना में स्थानिक आपदाओं, ओला, भूस्खलन व जलभराव और फसल की कटाई के उपरांत आगामी 14 दिन की अवधि तक फसल नष्ट होने की स्थिति में फसल की क्षति का आकलन व्यक्तिगत बीमित किसान के स्तर पर करते हुए किसानों को प्राथमिकता पर आंशिक क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है, जिस को मौसम के अंत में फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर देय कुल क्षतिपूर्ति की धनराशि में समायोजित किया जाता है.

इसी प्रकार फसल की मध्य अवस्था तक ग्राम पंचायत में फसल की संभावित उपज सामान्य उपज से 50 फीसदी कम होने की स्थिति में भी किसानों को आपदा की स्थिति तक उत्पादन लागत में व्यय के अनुरूप तात्कालिक सहायता प्रदान की जाती है, जिसे मौसम के अंत में फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर देय कुल क्षतिपूर्ति की धनराशि में समायोजित किया जाता है.

पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना में फसल की क्षति का आकलन ब्लौक में स्थापित स्वचालित मौसम केेंद्र स्तर पर मौसम के प्रतिदिन के आंकड़ों के आधार पर किया जाता है.

फसल की बोआई से कटाई के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण चरणों में फसल की आवश्यकतानुसार निर्धारित मौसमीय स्थितियों एवं मौसम की वास्तविक स्थिति में अंतर के अनुरूप फसल की संभावित क्षति को दृष्टिगत रखते हुए किसानों को क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है.

औषधीय व खुशबूदार पौधों की जैविक खेती

शुरू से ही इनसान दूसरे जीवों की तरह पौधों का इस्तेमाल खाने व औषधि के रूप में करता चला आ रहा है. आज भी ज्यादातर औषधियां जंगलों से उन के प्राकृतिक उत्पादन क्षेत्र से ही लाई जा रही हैं. इस की एक मुख्य वजह तो उन का आसानी से मिलना है. वहीं दूसरी वजह यह है कि जंगल के प्राकृतिक वातावरण में उगने की वजह से इन पौधों की क्वालिटी अच्छी और गुणवत्ता वाली होती है.

वर्तमान में एलोपैथी की रासायनिक दवाओं के कई बुरे प्रभावों के चलते पौधों से उत्पादित आयुर्वेदिक हर्बल दवाओं का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है. इस वजह से इन का जंगलों से दोहन अधिक बढ़ रहा है और मांग को पूरा करने के लिए कई औषधीय एवं सुगंधीय पौधों की खेती की जा रही है.

चूंकि औषधियां रोगों को ठीक करने और सुगंधीय फसलों में से सुगंधित पदार्थ निकालने में काम आती हैं, इसलिए उत्पादन अधिक करने के बजाय अच्छी क्वालिटी के लिए उत्पादन बाजार की मांग के मुताबिक करना जरूरी है. अच्छी क्वालिटी हासिल करने के लिए जैविक या प्राकृतिक तरीके से उत्पादन ही एकमात्र तरीका है, क्योंकि :

* प्राकृतिक या जैविक तरीके से उत्पादन करने पर औषधीय पौधों में घुलनशील तत्त्व व खुशबूदार पौधों में तेल की मात्रा बढ़ जाती है, जबकि रसायनिक उर्वरकों जैसे यूरिया, डीएपी आदि के प्रयोग से उन की क्वालिटी लगातार घटती जाती है.

* रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से औषधि विष बन जाती है अर्थात कीटनाशकों के अवशेष रोगी के रोग ठीक करने के बजाय रोग को और अधिक बढ़ा सकते हैं. इसलिए सिर्फ प्राकृतिक तरीकों से रोग, कीट नियंत्रण ही औषधीय पौधों की खेती में न केवल बाजार के लिए जरूरी है, बल्कि यह एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है.

* इस के अलावा कई अन्य प्रकार की हानियां हैं, जो रासायनिक खेती से जुड़ी हैं. ये सभी इन फसलों की खेती में भी होती हैं. जैसे लागत का बढ़ना, भूमि की कूवत का कम होना, कीटनाशकों में प्रतिरोधकता पैदा होना और गांवखेत में प्रदूषण का लैवल बढ़ना आदि. इसलिए सही यही है कि औषधीय और खुशबूदार पौधों की जैविक खेती की जाए.

जरूरी भी और मजबूरी भी

पर्यावरण व भूमि को बचाने के लिए और लोगों के स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती बहुत जरूरी है. कर्ज के बोझ को कम करने एवं कम होते भूजल से ही खेती करने के लिए जैविक खेती मजबूरी है.

भविष्य में पैट्रोलियम पदार्थों के लगातार बढ़ते दाम और घटती मांग से उवर्रक एवं कीटनाशकों की उपलब्धता (पैट्रोलियम से ही बनते हैं) अपनेआप खतरे में पड़ जाएगी, तब जैविक खेती ही संभव होगी, इसलिए वर्तमान या भविष्य की जरूरत को समझ कर जैविक खेती करना ही एकमात्र विकल्प है.

जैविक खेती के लिए सुझाव

औषधीय और खुशबूदार पौधों की खेती हमेशा जंगल जैसा वातावरण बना कर ही की जाए अर्थात खेत में कुछ पेड़, कुछ झाडि़यां, कुछ लताएं और कुछ शाकीय फसलें हों. इस में मिट्टी की उर्वरता, सूरज की रोशनी, मिट्टी में नमी से जो संतुलन होगा, उस से इन की क्वालिटी बढ़ेगी. दूसरे कई फसलों के होने से बाजार में मांगपूर्ति में संतुलन हो सकेगा, जिस से किसानों को नुकसान होने की संभावना कम होगी.

वर्मी कंपोस्ट या केंचुआ खाद का प्रयोग 10-12 टन प्रति हेक्टेयर हर साल अवश्य किया जाना चाहिए, जिस में अधिकांश मात्रा निराईगुड़ाई के समय दी जानी चाहिए. इस से न केवल अच्छा उत्पादन प्राप्त होगा, बल्कि क्वालिटी भी अच्छी होगी, किंतु वर्मी कंपोस्ट खुद के खेत अथवा ग्राम स्तर पर बना कर नमीयुक्त अवस्था में छायादार जगह पर भंडारण कर 15-20 दिन में उपयोग कर लेना चाहिए, क्योंकि प्लास्टिक के बोरों में पैक सूखा या 15 दिन से ज्यादा पुराने वर्मी कंपोस्ट के गुण बहुत कम हो जाते हैं.

रोग एवं कीट पर नियंत्रण पाने के लिए नीम+ गोमूत्र का छिड़काव 15-20 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए. भूमि के रोग एवं कीटों को खत्म करने के लिए नीम की खल या पिसी हुई निंबोली 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में 2 साल में एक बार अवश्य मिलानी चाहिए.

अग्निहोत्र, अमृतपानी, पंचगव्य आदि का प्रयोग मिट्टी में लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या बढ़ाने व जलवायुजनित कीट व रोग से बचाव करने के लिए किया जा सकता है.

कुछ औषधीय फसलों की खेती सामान्य फसल चक्र या अन्य के रूप में भी की जा सकती है. जैसे धान के साथ बच की खेती से धान के कई कीटों से छुटकारा मिलता है, इसी प्रकार सब्जियों की खेती के अंतराशस्य के रूप में खुशबूदार घासों/मसालों की खेती से कई रोग व कीट कम हो जाते हैं.

औषधीय पौधों में क्वालिटी सब से प्रमुख है, इसलिए सही समय पर कटाई, तुड़ाई और छाया में सुखा कर भंडारण/विक्रय करना चाहिए.

थोड़ा बीज या पौध को बाजार से ला कर उस का खुद के खेत में जैविक तरीके से उत्पादन करना चाहिए. इस से प्राप्त बीज को ही पूरे खेत में लगाने के लिए उपयोग करना चाहिए.

बीज से बाजार तक की सारी जानकारी होने पर ही औषधीय पौधे की खेती बड़े स्तर पर करनी चाहिए.

अन्न वाली फसलों की मांग हमेशा रहेगी और औषधीय एवं खुशबूदार फसलों की मांग व बाजार भाव तेजी से ऊपरनीचे होते रहते हैं, इसीलिए किसान अन्न वाली फसलों को पूरी तरह न हटाएं, बल्कि औषधीय एवं खुशबूदार फसलों को फसल चक्र अंतराशस्य के रूप में स्थान दें. इस से बाजार के अनुसार तालमेल बनाने में आसानी रहेगी.

Organic farming

प्रकृति का एक मुफ्त उपहार

जैविक खेती के लिए उपयोग की जाने वाली खाद खेती के अवशेष और पशु अपशिष्ट से बनती है, जिस में लागत के नाम पर सिर्फ मेहनत ही होती है. इन के उपयोग से भूमि उपजाऊ और पानी की बचत भी होती है. इसी प्रकार जैविक कीट नियंत्रण नीम व गोमूत्र के माध्यम से बनाए जाते हैं, जिन का कोई नुकसान नहीं होता.

जैविक उत्पाद स्वादिष्ठ, अच्छी गंध व रूप वाले और अधिक समय तक भंडारण करने के योग्य होते हैं और इन का बाजार मूल्य भी अधिक मिलता है.

इस प्रकार जैविक खेती प्रकृति का एक मुफ्त उपहार है, जिस के लिए केवल मेहनत और प्रकृति से तालमेल की आवश्यकता होती है.

एक बीघा जमीन सिर्फ एक गाय और एक नीम

एक हेक्टेयर (100 मीटर × 100 मीटर) भूमि में लगभग 6 बीघा होते हैं. अकसर किसान बीघा नाप को ही आधार मान कर खेती की सभी गणनाएं (नापतौल) आदि का काम करते हैं, इसलिए एक बीघा में जितनी खाद एवं जैविक कीट नियंत्रक की आवश्यकता होती है, उसी के हिसाब से गणना की जाए तो समझने में आसानी रहेगी.

एक गाय : सालभर में एक गाय लगभग 3-3.5 टन गोबर देती है. यदि सिर्फ गोबर से ही खाद बने तो लगभग 2 टन खाद तो बनेगी, जो कि एक  बीघा जमीन में यदि 3 फसल या सब्जियों की फसल भी लगाई जाए तो भी पर्याप्त रहेगी.

इसी प्रकार एक गाय लगभग 1,000 लिटर मूत्र पैदा करती है, जिस में से आधा खाद या सिंचाई के साथ मिला देने के बाद भी 500 लिटर गोमूत्र व नीम की पत्ती से इतना कीट नियंत्रक बन सकता है कि एक बीघा जमीन में साल में हर 15 दिन बाद लगभग 20 छिड़काव किए जा सकते हैं.

एक नीम : नीम की पत्तियां तो गोमूत्र आधारित कीटनाशक व भूमि में हरी खाद के रूप में काम आ ही जाती हैं. साथ ही, एक नीम से हर साल कम से कम 50-60 किलोग्राम निंबोली मिलती है, जिस का लगभग 10-15 लिटर नीम तेल निकालने के बाद 40 किलोग्राम खल को जमीन में मिलाने से पोषक तत्त्व तो मिलते ही हैं, साथ ही जमीन से पैदा होने वाली फसलों के कीड़े व रोग भी कम हो जाते हैं.

इसलिए जैविक खेती को आसान बनाने के लिए प्रति बीघा जमीन के हिसाब से एक गाय पालें और एक नीम का पेड़ लगाएं, तो बाहर से शायद कुछ भी लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. साथ ही, नीम की छाया और गाय का शुद्ध दूध मिलेगा.

पेड़ों का सहारा जरूरी

* औषधीय पौधों की खेती के लिए जंगल जैसा वातावरण बनाने के लिए खेत में पेड़ों की उचित संख्या का उचित प्रणाली में होना बहुत जरूरी हो जाता है. यह पेड़ औषधीय उपयोग के भी हो सकते हैं.

* पेड़ों को फसलों के साथ लगाने का तरीका नया नहीं है. यह शस्य वानिकी या एग्रो फोरैस्ट्री के नाम से जाना जाता है.

* खेत को जंगल बनाने का अर्थ एक उचित संख्या में पेड़ लगाने से है, जो कि एक हेक्टेयर में 10 से 20 तक संख्या हो सकती है. अधिक पेड़ लगाने पर वह फसल के साथ धूप, पानी और पोषक तत्त्व के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, जिस से फसल की बढ़वार पर उलटा असर पड़ सकता है.

जैविक खेती के लिए औषधीय पेड़ों को लगाना ज्यादा सही रहता है. थोड़े से प्रयास से किसान स्वयं की पौधशाला में पौधे तैयार कर सकते हैं. खेत के पास पौधशाला में तैयार किए गए पौधे अधिक स्वस्थ, विकसित जड़ वाले और अच्छे से पनपते हैं.

पेड़/पौधों की प्रजाति ऐसी होनी चाहिए, जिस से साल में थोड़ीथोड़ी पत्तियां झड़ती रहें, जो जमीन पर गिर कर मल्च का काम करें (भूमि को ढक कर रखें) और बाद में खाद के रूप में पोषण भी दें.

कभी भी सफेदा (यूकेलिप्टिस) जैसे पेड़ को खेत में न लगाएं, क्योंकि इन की पत्तियां न तो सड़ती हैं, बल्कि भूमि के दूसरे कामों में बाधा पैदा करती हैं.

बड़े पौधों को खेत की बाड़ पर वायु अवरोधक के रूप में और छोटे पौधों या फलदार पौधों जैसे आंवला, बेल, किन्नू व बेर आदि को फसल की कतारों के बीच कम से कम 8 से 10 मीटर के गैप पर लगाना चाहिए, ताकि फसलों से प्रतिस्पर्धा न हो.

कुछ कांटेदार झाडि़यों जैसे कांटा-करंज (औषधीय पौधा) आदि को खेत की सुरक्षा के लिए बाढ़ के रूप में भी लगाया जा सकता है.

खेत की मेंड़ या गौशाला या चौपाल में कम से कम 2 से 3 पेड़ नीम, बकायन, करंज और सहजन आदि के जरूर लगाएं, जो कि औषधीय पौधे होने के साथसाथ रोग के नियंत्रण में भी सहायक होते हैं.

पेड़ों की नियमित रूप से काटछांट करते रहना चाहिए, ताकि वह सीधे तने वाले बने रहें और खेती के काम में बाधक न बनें.

सुबह की धूप सभी पौधों के लिए अच्छी होती है, इसलिए पेड़ों को हमेशा ऐसी दिशा में लगाना चाहिए, ताकि फसल को सुबह सूरज की रोशनी जरूर मिलती रहे.

सुरक्षा के लिहाज से चारों उन की छाया के बराबर थाला बना देना चाहिए, जिस से नियमित रूप से खादपानी देते रहना चाहिए. इस से फसल और पेड़ों में किसी भी प्रकार की होड़ नहीं होगी और दोनों का विकास अच्छा होगा. थालों में घासफूस की मल्च बिछाने से पानी का नुकसान कम होता है.

दीमक से बचाव : दीमक से बचाव के लिए पौधे लगाने से पहले गड्ढा भरते समय सड़ी गोबर की खाद में आंक, नीम के पत्तों व निंबोली का चूरा मिला कर गड्ढे को भरना चाहिए और हर साल खाद के साथ नीम एवं आंक के पत्ते भी मिलाने चाहिए.

भोपाल में लगे कृषि मेले में ‘फार्म एन फूड’ का जलवा

मध्य प्रदेश खेतीकिसानी पर निर्भर राज्य है, वहां कि सानों, बागबानों और कृषि से जुड़े उद्यमियों को कृषि, बागबानी, डेयरी व कृषि अभियांत्रिकी से जुड़ी नवीनतम और उन्नत जानकारियों से लैस करने के लिए भोपाल के केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान में पिछले दिनों 20 से ले कर 22 दिसंबर, 2024 को विशाल कृषि मेले का आयोजन हुआ.

यह आयोजन भारतीय मीडिया ऐंड इवैंट्स लिमिटेड व बीएसएल कौंफ्रैंस ऐंड ऐक्जीबिशन प्राइवेट लिमिटेड द्वारा भोज आत्मा समिति, भोपाल के सहयोग से किया गया, जिस  में मीडिया पार्टनर के रूप में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका की अहम भूमिका रही.

मंत्री लखन पटेल ने किया आह्वान

भोपाल के सीआईएई में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी में अतिथि के रूप में पहुंचे मध्य प्रदेश के पशुपालन एवं डेयरी विकास मंत्री लखन पटेल ने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि किसानों को तकनीक का लाभ उठा कर स्वावलंबी बनने का प्रयास करना चाहिए.

उन्होंने यह भी कहा कि सरकार की योजनाओं और नई तकनीकों का मुख्य उद्देश्य किसानों को रोजगार और आत्मनिर्भरता प्रदान करना है. उन्होंने किसानों से सरकार की स्कीमों का लाभ ले कर आमदनी बढ़ाने का आह्वान किया. इस दौरान मंत्री लखन पटेल नें प्रदर्शनी में लगाए गए सभी स्टालों पर पहुंच कर जानकारी ली.

इस अवसर पर विधायक घनश्याम रघुवंशी ने प्रदेश सरकार की कृषि हितैषी नीतियों और खेती को लाभकारी बनाने के प्रयासों की जानकारी दी. उन्होंने कहा कि सरकार किसानों की समस्याओं का समाधान करने और उन की आय बढ़ाने के लिए लगातार प्रयासरत है.

 

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विशेषज्ञों ने साथ किए टिप्स

9वें इंटरनैशनल एग्री ऐंड हौर्टी टैक्नोलौजी ऐक्सपो में भारत सहित अन्य कई देशों के कृषि विशेषज्ञों की भागीदारी रही. इस दौरान मेले में भ्रमण पर आए किसानों और कृषि के छात्रों को विशेषज्ञों द्वारा खेतीबारी से जुड़ी जानकारी भी दी गई.

संगोष्ठी में वैज्ञानिकों में प्रमुख रूप से

डा. एसएस सिंधु, एमेरिट्स वैज्ञानिक, आईएआरआई, नई दिल्ली, डा. वाईसी गुप्ता, पूर्व डीन, एफएलए विभाग, डा. पीबी भदोरिया, आईआईटी खड़गपुर, प्रोफैसर डा. सीके गुप्ता, पूर्व डीन, डीवाईएस परमार विश्वविद्यालय, सोलन, डा. सीआर मेहता, डायरैक्टर, सीआईएई, डा. सुरेश कौशिक, पूर्व सीटीओ, आईएआरआई पूसा, नई दिल्ली, डा. प्रकाश, पूर्व अध्यक्ष, स्टूडैंट्स वर्ल्ड, नेपाल की भागीदारी रही.

वैज्ञानिकों ने किसानों की समस्याओं को सुना और उन के समाधान के लिए उपयोगी सुझाव  दिए. किसानों ने संगोष्ठी में अपनी जिज्ञासाओं को साथ किया और विशेषज्ञों से मार्गदर्शन प्राप्त किया.

इस दौरान मंच संचालन का जिम्मा संभाल रहे कृषि वैज्ञानिक विजी श्रीवास्तव ने खेतीबारी से जुड़ी उन्नत जानकारियों को प्रभावी ढंग से पेश करते हुए किसानों को कार्यक्रम के अंत तक बांधे रखा. उन्होंने कृषि स्टूडैंट्स के कैरियर से जुड़े सवालों का समाधान करते हुए उन्हें प्रोत्साहित भी किया.

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आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रदर्शन

कृषि, बागबानी, डेयरी एवं कृषि अभियांत्रिकी से जुड़े इस मेले में देश की नामी कृषि यंत्र और ट्रैक्टर निर्माता कंपनियों ने खेतीबारी के साथ ही हार्वेस्टिंग, प्रोसैसिंग और सिंचाई से जुड़े छोटेबड़े कृषि यंत्रों का प्रदर्शन और बिक्री की.

यंत्र निर्माता कंपनियों ने प्रदर्शनी में छोटे और मंझले किसानों का खास खयाल रखा था, जिस में कोनो वीडर, छोटी और बड़ी पावर के ट्रैक्टर, जायरोवेटर, रोटावेटर, बूम छिड़काव मशीन, मिनी हार्वेस्टर सहित सैकड़ों तरह के यंत्रों और कंबाइन का प्रदर्शन कर मौके पर बुकिंग कराने वालों को विशेष छूट का लाभ भी दिया गया.

इस प्रदर्शनी में खरपतवार नियंत्रण के लिए मैनुअल यंत्रों, फसल कटाई, निराईगुड़ाई सहित तमाम छोटे यंत्रों की रिकौर्डतोड़ बिक्री भी हुई. इस में सौ से अधिक कंपनियों ने आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रदर्शन किया. संगोष्ठी में प्रमुख वैज्ञानिकों ने किसानों को तकनीक और समस्याओं के समाधान पर मार्गदर्शन दिया.

ड्रिप इरिगेशन, रेनगन और सिंचाई प्रबंधन से जुड़े उत्पादों को बनाने वाली देश की जानीमानी कंपनी जैन इरिगेशन सिस्टम लिमिटेड ने भी सिंचाई प्रबंधन से जुड़ी जानकारियों और विधियों को साथ करते हुए अपने उत्पादों को प्रोत्साहित किया.

इस के अलावा ट्रैक्टर, कंबाइन और अन्य कृषि यंत्रों में उपयोग होने वाले टायर की प्रमुख कंपनियों में बालकृष्ण इंडस्ट्रीज लिमिटेड (बीकेटी) और जेके टायर्स ने भी अपनी विस्तृत रेंज पेश की.

इस के अलावा करतार ट्रैक्टर, कंबाइन, वंसुधरा कंपनी के छोटे और मंझले हार्वेस्टिंग से जुड़े कृषि यंत्र, रिपर, शक्तिमान कंपनी के जुताई और छिड़काव से जुड़े यंत्रों की भारी रेंज किसानों को अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल रही.

प्रदर्शनी में आने वाले किसानों को अपने उत्पादों से जोड़ने के लिए निर्माता कंपनियों ने जम कर गिफ्ट भी बांटे.

सरकारी महकमों के स्टाल पर रही भीड़

केंद्रीय कृषि अभियान अभियांत्रिकी संस्थान के प्रदर्शनी ग्राउंड में लगे अंतर्राष्ट्रीय मेले में मध्य प्रदेश सहित देश के तमाम राज्यों के कृषि और बागबानी के महकमों और आईसीएआर से जुड़ी संस्थाओं, डीआरडीओ, जल संसाधन विभाग आदि ने अपने स्टाल लगा कर किसानों को सरकारी योजनाओं सहित उन्नत खेती की जानकारियां साथ कीं, जिस में प्रमुख रूप से उद्यान विभाग, उत्तर प्रदेश, उद्यान विभाग, मध्य प्रदेश, उद्यान विभाग, तमिलनाडु, पंजाबहरियाणा और अन्य राज्यों के कृषि महकमों ने अपने स्टाल पर आने वाले किसानों को जानकारियां दीं.

रंगबिरंगी सब्जियां और फल रहे आकर्षण का केंद्र

मेले में विभिन्न राज्यों और केंद्र सरकार के महकमों के स्टाल पर प्रदर्शित की गई सब्जियों और फलों ने लोगों को अपनी तरफ खूब आकर्षित किया. इस में देशी और विदेशी दोनों तरह की सब्जियां और फल शामिल रहे.

इस मौके पर किसानों को रंगीन देशीविदेशी सब्जियों और फलों के व्यावसायिक उत्पादन व फायदे पर भी जानकारियां दी गईं, जिस में प्रमुख रूप से रंगीन पत्तागोभी, रंगीन फूलगोभी, रंगबिरंगी शिमला मिर्च की किस्में, चेरी, टमाटर की किस्में, रंगीन आम, स्ट्राबेरी, कमलम यानी ड्रैगन फू्रट सहित तमाम चीजें शामिल रहीं.

खूब बिके पौधे

भोपाल में लगे इस मेले में उन्नत किस्मों के फल और सब्जियों के पौधों की जम कर खरीदारी हुई, जिस में सब से ज्यादा, टमाटर, गोभी, बैगन, शिमला मिर्च सहित जैन इरिगेशन सिस्टम लिमिटेड द्वारा तैयार किए गए उन्नत किस्मों के आम, अमरूद, कटहल और केले की किस्मों की खरीदारी किसानों द्वारा की गई.

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‘फार्म एन फूड’ के स्टाल पर हुआ अवार्ड नौमिनेशन

इस कृषि मेले के मीडिया पार्टनर के रूप में दिल्ली प्रैस की पत्रिका ‘फार्म एन फूड’ द्वारा भी स्टाल लगाया गया था, जिस में ‘फार्म एन फूड’ के अलावा दिल्ली प्रैस की अन्य पत्रिकाओं ‘सरस सलिल’, ‘सरिता’, ‘चंपक’, ‘गृहशोभा’, ‘सत्यकथा’, ‘मनोहर कहानियां’ सहित अन्य भाषाओं की पत्रिकाओं का प्रदर्शन भी किया गया.

इस दौरान ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका द्वारा फरवरी महीने में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के लिए प्रस्तावित ‘फार्म एन फूड कृषि सम्मान अवार्ड’ के लिए मौके पर ही तमाम किसानों और वैज्ञानिकों द्वारा अपने नौमिनेशन पेश किए गए.

इस दौरान दिल्ली प्रैस में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका की जिम्मेदारी संभाल रहे भानु प्रकाश राणा और मध्य प्रदेश में दिल्ली प्रैस ब्रांच के इंचार्ज भारत भूषण श्रीवास्तव द्वारा प्रकाशन से जुड़ी जानकारियां भी दी गईं.

इस के अलावा कृषि की पढ़ाई और शोध कर रहे छात्रों द्वारा अपनी नवीनतम खोज और शोध का प्रस्तुतीकरण भी किया गया. इस दौरान कार्यक्रम के संचालक वीजी श्रीवास्तव ने छात्रों से सवालजवाब भी किए, जिस में सवालों के सही जवाब देने वाले छात्रों को इनाम के रूप में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका दी गई.

मिर्च में क्यों होता है तीखापन

भारत में ज्यादातर लोग ज्यादा मिर्चमसाले का इस्तेमाल करते हैं और महिलाएं तीखी मिर्च खरीदना ही पसंद करती हैं. मिर्च का नाम सुनते ही कई लोगों को पसीना आ जाता है, तो कई के मुंह में पानी आ जाता है. अकसर आप ने सुना होगा या महसूस किया होगा कि कुछ मिर्च काफी तीखी होती हैं, तो कुछ बिलकुल भी तीखी नहीं होतीं. आप के मन में सवाल उठता होगा कि आखिर ऐसा क्यों होता है. तो आइए, जानते हैं कि आखिर मिर्च तीखी क्यों होती है:

तमाम शोधों के बाद वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे कि कोई मिर्च ज्यादा तीखी तो कोई कम तीखी क्यों होती है? जीवविज्ञान की पत्रिका बायोलाजिकल साइंसेज के मुताबिक इस का खास कारण मिर्च के पौधे का जल के संपर्क में आने से है.

वैज्ञानिकों का मानना है कि मिर्च में कसैलापन कैपसाइपिनोइड नाम के पदार्थ की वजह से पाया जाता है. यह मिर्च को फफूंद से बचाता है. इंडियाना यूनिवर्सिटी के डेविड हाक के नेतृत्व में शोध करने वाले दल ने बोलिविया जा कर मिर्च के पौधे में कैपसाइपिनोइड तत्त्व की जांच की.

इस जांच में उन्होंने पाया कि उत्तरी क्षेत्र में मात्र 15-20 फीसदी मिर्चों में ही यह तीखा पदार्थ मौजूद था, जबकि दक्षिणी हिस्से में मिर्च के तीखेपन की स्थिति एकदम से अलग थी. इस इलाके में 100 फीसदी मिर्च के पौधों में इस तीखे पदार्थ कैपसाइपिनोइड के होने से मिर्च बहुत तीखी और कसैली थी.

आखिर शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि मिर्च का तीखापन फफूंद से बचने के लिए इस तत्त्व के विकास से पनपता है, जितना अधिक यह पदार्थ मिर्च में मौजूद रहेगा, उतनी ही मिर्च ज्यादा तीखी और कसैली होगी.

समोसे तरहतरह के

पहले जहां केवल आलू के समोसे ही बाजार में बिकते थे अब कई तरह के समोसे जिन में खोया वाले मीठे समोसे भी मिठाई की दुकानों में बिकने लगे हैं. खोया और आलू के समोसे ज्यादा दिन तक नहीं रखे जा सकते इसलिए इन्हें बनने के कुछ घंटे बाद ही खाना सही रहता है. अब मेवा और मसालों से ऐसे समोसे भी तैयार किए जाने लगे हैं, जो कई दिनों तक चलते हैं. यह नमकीन की तरह नाश्ते में इस्तेमाल होते हैं. पौष्टिक होने से इन को खाने के बाद भूख कम लगती है. मेवा मिला होने से यह शरीर को ताकत भी देते हैं.

समोसा भारत का ही नहीं पश्चिम एशियाई देशों का भी प्रमुख नाश्ता है. कमाल की बात यह है कि 1000 साल से इस का तिकोना आकार नहीं बदला है. अपने खास आकार के कारण ही इस को कई इलाकों में तिकोना भी कहा जाता है. यह छोटे से बडे सभी तरह के आकार में मिलता है. आकार के हिसाब से ही इस को कीमत तय होती है.

मुगलकाल में मीट वाला समोसा सब से ज्यादा प्रचलित था. भारत में आने के बाद समोसा के अंदर भरी जाने वाली सामग्री में बदलाव आया. ब्रिटिश काल में जब चाय का चलन बसे तो भारतीयों को चाय का स्वाद पसंद नहीं आता था. ऐसे में चाय और समोसे की जुगलबंदी तैयार हो गई. आज गलीचौराहों पर सब से ज्यादा चायसमोसा ही बिकता है.

आज समोसा भारत का सब से ज्यादा बिकने वाला स्ट्रीट फूड है. उत्तर भारत के हर कस्बे और शहर में समोसे की दुकान है. महाराष्ट्र के कुछ शहरों में रगड़ा समोसा चलन में है.

इस में समोसे के अंदर ब्रेड, आलू, भुजिया और दूसरी कई चीजें भरी जाती हैं. समोसे में स्वाद के लिए पनीर समोसा व मटरकाजू समोसे का इस्तेमाल भी होने लगा है. गोआ में कुछ खास दुकानों पर मीट वाला मांसाहारी समोसा मिलता है. समोसा अकेला ऐसा व्यंजन है जो इतना पुराना होने के बाद भी बदला नहीं है.

आलू भरे समोसे का अपना अलग बाजार है. समोसा भारतीय खानपान व संस्कृति के साथ पूरी तरह से रच बस गया है. यह रोजगार का भी बडा साधन है. कसबों और सड़क किनारे छोटी सी पूंजी लगा कर समोसा बनाने की दुकान खोली जा सकती है. समोसा लोगों को इतना पसंद है कि इस में नुकसान की आशंका नहीं रहती है.

मुनाफे का गणित

डेढ़ किलो आलू और 1 किलो मैदा से करीब 35 समोसे तैयार होंगे. यह सामान्य आकार के करीब 60-70 ग्राम वाले समोसे होंगे. इस को बनाने के लिए 30 रुपए का आलू, 30 रुपए का मैदा, 30 रुपए का बेजिटेबल आयल और 30 रुपए का मसाला लगता है. ऐसे में 120 रुपए खर्च कर करीब 35 समोसे तैयार होंगे. यह समोसे 8 रुपए प्रति समोसे के हिसाब से बिकेंगे. ऐसे में यह समोसे 280 रुपए के बिकेंगे. जिस में 95 रुपए का मुनाफा होगा. समोसा महंगा करने के लिए दुकानदार उस में कई बार मटर, काजू और पनीर डाल कर उस की कीमत दोगुनी कर देते हैं. जबकि ऐसा करने में प्रति समोसा केवल 2 रुपए की लागत बढ़ेगी.

समोसा बनाना आसान

समोसा बनाने के लिए सामग्री के रूप में मैदा, आलू , रिफाइंड तेल, नमक, धनिया पाउडर, गरम मसाला और पिसी खटाई का प्रयोग किया जाता है. सब से पहले आलू को उबाल लें. इस के बाद मैदा में तेल और नमक डाल कर अच्छी तरह से गूंथ लें. उबले आलू हाथ से ही मोटामोटा फोड़ दें. कढ़ाई में तेल डाल कर कर उस में धनिया पाउडर, गरम मसाला, नमक और अमचूर मिलाते हुए भून लें. अब इस में आलू डाल कर ठीक से मिला कर रख दें. पहले से तैयार मैदा के छोटेछोटे पीस तैयार करें. इन को गोल रोटी की तरह 8 इंच व्यास के आकार में तैयार करें. फिर चाकू से 2 हिस्सों में काट दें. एक भाग को तिकोना बनाते हुए उस में आलू मसाला भर लें. दोनों कोने चिपका दें. कढ़ाई में रिफाइंड तेल डाल कर तैयार समोसे तल लें. समोसे को मीठी और नमकीन दोनों ही चटनी के साथ खाया जाता है. मेवा और मसाला समोसे में आलू की जगह मेवा और मसाला पहले से तैयार कर के भरा जाता है.

22 से 24 फरवरी तक लगेगा पूसा संस्थान, नई दिल्ली में कृषि मेला

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा आयोजित किया जाने वाला पूसा कृषि विज्ञान मेला इस वर्ष फरवरी 22-24, 2025 के दौरान संस्थान के मेला ग्राउंड में आयोजित किया जा रहा है. इस मेले का मुख्य विषय “उन्नत कृषि – विकसित भारत” है. इस में विभिन्न कृषि कंपनियां, सरकारी व गैरसरकारी संस्थान, उद्यमी और प्रगतिशील किसान अपना स्टाल लगाएंगे. इस मेले में हर साल देश के विभिन्न भागों से 1 लाख से अधिक किसान, उद्यमी, राज्यों के अधिकारी, छात्र एवं अन्य उपयोक्ता भाग लेते हैं.

इस मेले के प्रमुख आकर्षणों में फसलों का जीवंत प्रदर्शन, फूलों और सब्जियों की संरक्षित खेती, गमलों में खेती, ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) खेती, मिट्टी एवं पानी की मुफ्त जांच, कट फ्लावर, विदेशी सब्जियों एवं उन्नत किस्म के फलों की प्रदर्शनी और विभिन्न भागीदारों द्वारा उच्च उपजशील बीजों/पौधों, कृषि प्रकाशनों की बिक्री और वैज्ञानिकों व किसानों की परस्पर चर्चा शामिल हैं.

इस अवसर पर किसानों को नवोन्मेषी एवं अध्येता सम्मान से सम्मानित किया जाएगा, जिस के लिए उन से आवेदन मांगे गए हैं. किसान अधिक से अधिक संख्या में इस सम्मान के लिए अपना आवेदन अतिशीघ्र भेजें. संबंधित विवरण पूसा संस्थान की वैबसाइट पर उपलब्ध है :

https://iari.res.in/en/krishi-vigyan-mela-2025.php.

कुलपति डा. कर्नाटक नई दिल्ली में मानद फैलो 2024 पुरस्कार से सम्मानित

नई दिल्ली : भारतीय कीट विज्ञान सोसाइटी ने 7 जनवरी, 2025 को नई दिल्ली में कीट विज्ञान में स्थापना दिवस समारोह और फ्रंटियर्स इन एंटोमोलौजी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक को मानद फैलो 2024 पुरस्कार से सम्मानित किया.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक को पुरस्कार प्रदान करते हुए सोसाइटी के अध्यक्ष डा. वीवी राममूर्ति ने कीट विज्ञान शिक्षण, अनुसंधान व प्रसार में उन के आजीवन योगदान की सराहना की.

उल्लेखनीय है कि डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने 40 साल तक कृषि एवं कीट विज्ञान क्षेत्र में अपनी उत्कृष्ट सेवाएं दी हैं. इन्हें मधुमक्खीपालन, चावलगेहूं और गन्ना पारिस्थितिकी तंत्र के कीट प्रबंधन और मृदा जैव प्रबंधन में विशेषज्ञता प्राप्त है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने तराई क्षेत्र में मधुमक्खी की एपिस मेलिफेरा प्रजाति स्थापित की और इस के पालन के लिए प्रबंधन पद्धतियां विकसित कीं, जिस से शहद, मोम और दूसरे शहद उत्पादों के उत्पादन से किसानों की आय में वृद्धि हुई है और परपरागण वाली फसलों की उत्पादकता में भी वृद्धि हुई है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने उत्तराखंड सरकार के कृषि पोर्टल का मधुमक्खीपालन भाग विकसित किया. डा. कर्नाटक को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री द्वारा साल 2021 का सर्वश्रेष्ठ कुलपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

पिछले कुछ सालों में डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त किए हैं, जिन में सोसाइटी फौर कम्युनिटी मोबिलाइजेशन फौर सस्टेनेबल डवलपमेंट, नई दिल्ली द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड, प्लांटिका एसोसिएशन औफ प्लांट साइंस रिसर्चर्स, देहरादून द्वारा डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन शिक्षाविद सम्मान और सतत कृषि व संबद्ध विज्ञान के लिए वैश्विक अनुसंधान पहल पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान कीट विज्ञान अनुसंधान में उन के योगदान के लिए चौधरी हंसा सिंह पुरस्कार शामिल हैं.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली और राजस्थान के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के कार्यान्वयन के लिए कई महत्वपूर्ण समितियों में नामित भी किया गया है.

स्वास्थ्यवर्धक है चुकंदर

व्यस्तता के चलते आजकल लोग अपनी सेहत का ध्यान नहीं रख पाते, जिस से आएदिन शरीर की इम्यूनिटी कमजोर होने से वे कई बीमारियों के शिकार हो जाते हैं. लंबी आयु के लिए जरूरी है कि अपने खानपीन में फल व हरी सब्जियों के साथ चुकंदर भी शामिल किया जाए. जब खानपान पर सही ध्यान दिया जाएगा तो निश्चित रूप से शरीर की इम्यूनिटी अच्छी होगी और आएदिन होने वाली तकलीफों से बचा जा सकेगा.

चुकंदर खाने से शरीर कई बीमारियों से लड़ने में सक्षम हो जाता है. यह महिलाओं में होने वाली एनीमिया की बीमारी को दूर करने का सब से सही साधन है. इस के गुणों को देखते हुए भारत में इस की व्यापक खेती की जा रही है. यह कैंसर, हाईब्लड प्रेशर के साथ ही अल्जाइमर  की बीमारी को भी दूर करने में कारगर है. चुकंदर स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी खास है. इस में मौजूद तत्त्व जहां शरीर को ऊर्जावान बनाते हैं, वहीं विभिन्न रोगों से लड़ने की कूवत भी विकसित करते हैं. चुकंदर का नियमित सेवन स्वास्थ्य के लिए काफी लाभप्रद है. खासतौर से बढ़ती उम्र के बच्चों और महिलाओं के लिए यह सब से उत्तम आहार है.

चुकंदर सलाद के रूप में नियमित खाने से शरीर कई बीमारियों से लड़ने में सक्ष्म हो जाता है. गर्भवती महिलाओं को तो इस का सेवन जरूर करना चाहिए. गर्भावस्था के दौरान आमतौर पर खून की कमी हो जाती है, जिसे एनीमिया कहा जाता है. जो महिलाएं नियमित रूप से चुकंदर का सेवन करती हैं. उन्हें खून की कमी नहीं होती. कई बार बच्चे भी खून की कमी की वजह से बीमार रहने लगते हैं. ऐसे बच्चों को चुकंदर का जूस पिलाना लाभकारी रहता है. चुकंदर एक तरह की जड़ है. आमतौर पर यह लाल रंग का होता है. कुछ जगहों पर सफेद रंग का चुकंदर भी पाया जाता है. इस के पत्तों को शाक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

किसानों को चुकंदर का अच्छा दाम मिलता है. इस में मौजूद गुणों के कारण इसे अब मौसमी सब्जी के रूप में भी इस्तेमाल किया जाने लगा है. चुकंदर में सही मात्रा में लौह, विटामिन और खनिज होते हैं जो रक्तवर्धन और रक्तशोधन के काम में सहायक होते हैं. इस में मौजूद एंटीऔक्सीडेंट तत्त्व शरीर को रोगों से लड़ने की कूवत देते हैं. इस में सोडियम, पोटेशियम, फास्फोरस, क्लोरीन, आयोडीन और अन्य खास विटामिन पाए जाते हैं.

चुकंदर में गुर्दे और पित्ताशय को साफ करने के प्राकृतिक गुण पाए जाते हैं. इस में मौजूद पोटेशियम जहां शरीर को प्रतिदिन पोषण प्रदान करने में मदद करता है तो वहीं क्लोरीन गुर्दों के शोधन में सहायता करता है. यह पाचन संबंधी समस्याओं में भी लाभकारी है. चुकंदर का रस हाइपरटेंशन और हृदय संबंधी समस्याओं को दूर रखता है. महिलाओं के लिए तो यह काफी गुणकारी है. चुकंदर में बेटेन नामक तत्त्व पाया जाता है, जिस की आंत व पेट को साफ रखने के लिए हमारे शरीर को जरूरत रहती है, चुकंदर में मौजूद यह तत्त्व उस की आपूर्ति करता है.

काफी पहले यूरोप में कैंसर के इलाज के लिए चुकंदर का काफी इस्तेमाल किया जाता था. चुकंदर और इस के पत्ते फोलेट का अच्छा जरीया हैं, जो उच्च रक्तचाप और अल्जाइमर की परेशानी को दूर करने में मदद करते हैं.

कैसे खाएं : चुकंदर कई तरीके से खाया जाता है. आमतौर पर इसे कच्चे सलाद के रूप में खाया जाता है. मूली, गाजर, प्याज, टमाटर आदि की तरह ही चुकंदर को भी सलाद में शामिल करें.

इस के अलावा इसे दक्षिण भारत में उबाल कर खाने का भी प्रचलन है. हालांकि उबालने से इस के कुछ तत्त्व खत्म हो जाते हैं. इसलिए इसे कच्चा खाना ही सब से लाभप्रद है. बुजुर्गों और बच्चों को चुकंदर का जूस देना चाहिए. इस के अलावा देश में चुकंदर की सब्जी बना कर खाने का भी चलन है.

Beetroot

चुकंदर के औषधीय गुण

एनीमिया दूर करे चुकंदर : एनीमिया रोग के लिए चुकंदर रामबाण माना जाता है. चुकंदर में उचित मात्रा में आयरन, विटामिंन और मिनिरल्स होते हैं, जो रक्त बढ़ाने और उस के शोधन का काम करते हैं. यही कारण है कि महिलाओं को इस के नियमित सेवन की सलाह दी जाती है.

गुर्दों के लिए लाभकारी : चुकंदर में गुर्दे को स्वस्थ और साफ रखने के गुण मौजूद हैं. किडनी रोगियों को चुकंदर का रस देना लाभकारी है. इस में मौजूद क्लोरीन लीवर और किडनी को साफ रखने में मदद करता है.

पित्ताशय के लिए गुणकारी : शोध में पाया गया है कि यह किडनी के साथ ही पित्ताशय के लिए भी कारगर है. इस में मौजूद पोटेशियम शरीर को रोजाना पोषण देने में मदद करता है, वहीं क्लोरीन लीवर और किडनी को साफ करने में मदद करता है.

पाचन में सहायक : बच्चों और युवाओं को चुकंदर चबाचबा कर खाना चाहिए. इस से दांत और मसूढे़ मजबूत होते हैं. यह पाचन संबंधी समस्याओं को दूर करने में भी लाभकारी है. इस का नियमित सेवन करने से अपाच्य की समस्या खत्म हो जाती है. बढ़ती उम्र के बच्चों को चुकंदर जरूर खिलाना चाहिए, इस से उन का शारीरिक सौष्ठव बेहतर होता है और बच्चों के चेहरे पर चमक दिखती है.

उल्टीदस्त : यदि उल्टीदस्त की शिकायत हो तो चुकंदर के रस में चुटकीभर नमक मिलाना फायदेमंद रहता है. इस से पेट में बनने वाली गैस खत्म हो जाती है. उल्टी बंद होने के साथ ही दस्त भी बंद हो जाते हैं.

पीलिया में लाभकारी : चुकंदर पीलिया के रोगियों के लिए भी फायदेमंद है. पीलिया के रोगियों को चुकंदर का रस दिन में 4 बार देना चाहिए. ध्यान रखें कि एक बार 1 कप से ज्यादा जूस न दें.

हाइपरटेंशन : चुकंदर का जूस हाइपरटेंशन और हृदय संबंधी समस्याओं को दूर करता है. इस के नियमित सेवन से चिड़चिड़ापन दूर हो जाता है. खास कर यह महिलाओं के लिए काफी लाभकारी है.

मासिक धर्म में लाभकारी : मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को कमर व पेडू दर्द और अन्य शारीरिक दुर्बलताओं जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. चुकंदर के नियमित इस्तेमाल से मासिक धर्म के दौरान होने ली तकलीफ नहीं होती है.

माहवारी, फोड़े, जलन और मुहासों के लिए भी यह काफी उपयोगी है. खसरा और बुखार में भी त्वचा साफ करने में इस का इस्तेमाल किया जा सकता है.

बालों की रूसी भगाए : चुकंदर के काढ़े में थोड़ा सा सिरका मिला कर सिर में लगाएं या सिर पर चुकंदर के पानी में अदरक के टुकउ़ों को भिगो कर रात में मसाज करें. सुबह बालों को धो लें.

चुकंदर खाएं ब्लडप्रेशर भगाएं : ब्लडप्रेशर के रोगियों को चुकंदर जरूर खिलाएं. चुकंदर और इस के पत्ते फोलेट का एक अच्छा जरीया है, जो उच्च रक्तचाप और अल्जाइमर की समस्या को दूर करने में मदद करते हैं. रोज चुकंदर में गाजर और सेब मिला कर उस का जूस पीने से हाईब्लड प्रेशर में कमी आती है. एक अध्ययन के मुताबिक रोजाना 2 कप चुकंदर का जूस पीने से ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहता है.

हालांकि इस का ज्यादा सेवन नहीं करना चाहिए. इस के ज्यादा सेवन करने से चक्कर आना या वोकल कार्ड पैरालिसिस का खतरा बढ़ जाता है.

चुकंदर की सब्जी भी लाभदायक : चुकंदर स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद सब्जी है. इस में कार्बोहाइड्रेट और कम मात्रा में प्रोटीन और वसा पाई जाती है. यह प्राकृतिक शुगर का सब से अच्छा स्रोत है. इस में सोडियम, पोटेशियम, फास्फोरस, कैल्शियम, सल्फर, क्लोरीन, आयोडीन, आयरन, विटामिन ‘बी1’, ‘बी2’ और ‘सी’ पाया जाता है. इस में कैलोरी काफी कम होती हैं.

पशुओं के स्वास्थ्य में भी कारगर : चुकंदर इतना गुणकारी है कि यह इंसान के साथसाथ पशुओं के लिए भी कारगर है. यही कारण है कि हरियाणा, पंजाब, गुजरात और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे सीजनल पशु आहार के रूप में खिलाया जाता है. विशेष रूप से दुधारू पशुओं को खिलाने से उन का स्वास्थ्य ठीक रहता है और दूध में भी इजाफा होता है.

इस में मौजूद तत्त्व पशुओं में होने वाले विभिन्न रोगों से उन का बचाव करते हैं. इसे खिलाने से पशुओं में आमतौर पर होने वाली बांझपन की समस्या खत्म हो जाती है.

दुधारू पशु 3 से 4 बार ब्याने के बाद कमजोर हो जाते हैं और कुछ में बांझपन के लक्षण भी आ जाते हैं, लेकिन जिन पशुपालकों ने नियमित रूप से उन के चारे में चुकंदर को शामिल किया है, उन्हें इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है.

किसानों को महज एक रुपए में मिलेगा पौधा

देश के किसानों के लिए सरकार द्वारा अनेक लाभकारी योजनाएं समयसमय पर आती रहती हैं, जिस का लाभ अनेक किसान और कृषि से जुड़े लोग उठाते रहे हैं. इन योजनाओं में चाहे कृषि यंत्र अनुदान योजना हो, पशुपालन योजना हो, सिंचाई योजना हो, अनेकों योजनाएं हैं, जिन का किसान लाभ उठा सकते हैं.

इसी कड़ी में अब किसानों के लिए कम कीमत में अनेक तरह के फलसब्जियों के पौधे उपलब्ध कराने की योजना आई है, ताकि किसानों को नाममात्र की कीमत पर पौधे मिल सकें.

किसानों के लिए सरकार की ओर से हाईटैक नर्सरियों को बनाया जा रहा है. इन नर्सियों से मात्र 1 रुपए में उन्नत किस्म के पौधे किसानों को उपलब्ध कराए जाएंगे. इस से उत्तर प्रदेश राज्य के किसानों को बहुत ही कम कीमत पर फलसब्जियों के पौधे प्राप्त हो सकेंगे, जिस से उन के फसल उत्पादन की लागत कम होने के साथ ही अधिक मुनाफा मिलेगा.

उत्तर प्रदेश सरकार के उद्यान विभाग की ओर से 2.16 करोड़ रुपए की लागत से 2 हाईटैक  नर्सरी का निर्माण कराया जा रहा है. इन नर्सरियों में फल व सब्जियों की उन्नत किस्मों के पौधे जल्दी ही किसानों को मिलने लगेंगे.

मिली जानकारी के अनुसार, उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले की सदर तहसील में एक करोड़ से अधिक लागत में एक हाईटैक नर्सरी तैयार हो गई है, जहां से कुछ ही दिनों में पौधे भी तैयार होने लगेंगे. इसी प्रकार महरौनी तहसील के अंतर्गत करीब एक एकड़ भूमि पर नर्सरी तैयार हो गई है. इस नर्सरी में भी किसानों के लिए सब्जीफल की पौध तैयार की जा रही है.

उद्यान विभाग की ओर से तैयार की गई नर्सरी  में उन्नत किस्मों के बीजों से प्याज, टमाटर, गोभी, लौकी, खीरा,  शिमला मिर्च, हरी मिर्च, बैगन आदि सब्जियों की तैयार पौध मिलेगी.

खास तकनीक से तैयार हो रही पौध

इन नर्सरियों में हाइड्रोलिक तकनीक इस्तेमाल कर के मौसम के अनुसार सब्जियों की पौध को तैयार किया जा रहा है. इस के लिए यहां पौलीहाउस के अंदर और आधुनिक तकनीक द्वारा पौध तैयार की जा रही है.

पौध तैयार करने में  कृषि यंत्रों की भी भूमिका है और  सीडलिंग तकनीक से पौध तैयार की जा रही है. इस के तहत किसानों की मांग को ध्यान में रख कर पौध तैयार की जा रही है.

उत्तर प्रदेश में फल व सब्जियों की खेती के लिए अनुदान:

प्रदेश में उद्यान विभाग की ओर से किसानों को सब्जी व मसाले की खेती पर सब्सिडी दी जाती है और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत साल 2024–25 में उत्तर प्रदेश के किसानों को सब्जियों की खेती के लिए अनुदान दिया जाता है.

उद्यान विभाग की ओर से इस योजना के तहत यहां के किसानों को एक हेक्टेयर में सब्जी की खेती के लिए 20,000 रुपए की सब्सिडी दी जाती है. एक किसान को एक एकड़ में खेती के लिए ही अनुदान का लाभ प्रदान किया जाता है. इस के अलावा मसाला फसलों की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर 12,000 रुपए का अनुदान दिया जाता है.

इन फसलों पर अनुदान का लाभ लेने के लिए किसान को औनलाइन आवेदन करना होता है.

इस के अलावा उत्तर प्रदेश में किसानों के लिए अनेक लाभदायक सरकारी योजनाएं हैं, जिन का लाभ किसान उठा रहे हैं.