खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming) और सरकार की अनदेखी

जब कभी दाल, तेल, सब्जी, फल, मांस व अंडे आदि की कमी महसूस होती है, तो भारीभरकम आयात कर के उन की कमी पूरी की जाती है, जबकि हमारे किसान इन चीजों की कमी को पूरा कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें फसल की उत्पादन लागत से थोड़ा फायदा मिलने की उम्मीद हो.

देश में तेजी से नए शहरों का विकास हो रहा है, साथ ही ग्रामीण जनता भी शहरों की तरफ भाग रही है. देश की आजादी के समय ग्रामीण आबादी तकरीबन 85 फीसदी थी, जो कि घट कर आज 65 फीसदी तक रह गई है.

अब भोजन की थाली में पोषण का खयाल रखा जाने लगा है. आज भोजन पेट भरने के साथ ही शारीरिक तंदुरुस्ती का भी महत्त्वपूर्ण साधन है. तंदुरुस्त शरीर पाने के लिए दूध, फल, सब्जी, तेल, मांस व अंडे की मांग में काफी इजाफा हुआ है. आएदिन इन चीजों की पूर्ति में कमी के कारण इन के दामों में तेजी देखने को मिलती है. इन की कीमत में आई तेजी को रोकने के लिए सरकार आयात का सहारा लेती है.

खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming)

यदि सरकार इन चीजों को बेचने की बेहतर सुविधाएं मुहैया कराए, तो देश के किसान इन का भरपूर उत्पादन करेंगे.

अगर पिछले 20 साल के आंकड़े देखें तो मक्का, फल, दूध, मांस, अंडा, मछली व तेल आदि की मांग में चौगुनी वृद्धि देखने को मिली है, जबकि गेहूं व दाल आदि की मांग में मामूली बढ़ोतरी देखी गई है.

यदि कुछ चुनिंदा फसलों को देखें तो उन में से मक्का व सोयाबीन की मांग में साल दर साल तकरीबन 12 से 15 फीसदी का इजाफा हो रहा है, क्योंकि पोल्ट्री उद्योग के साथ ही कई सौफ्ट ड्रिंकों में भी इन दोनों फसलों का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. इसी तरह पोल्ट्री उद्योग की मांग में भी 12 से 15 फीसदी का साल दर साल जबरदस्त इजाफा देखने को मिल रहा है. आज देश में पोल्ट्री उद्योग और तकरीबन 1 करोड़ 60 लाख लोगों को रोजगार मुहैया करा रहा है.

जब बेमौसम बारिश या सूखे के कारण फसलों के उत्पादन पर असर पड़ता है, तो उन फसलों के दामों में अप्रत्याशित तेजी देखने को मिलती है, क्योंकि आज भी देश में भंडारण के लिए अच्छे गोदामों का अभाव है.

सरकारी स्तर पर यदि ढांचागत क्षेत्र में कुछ बदलाव किए जाएं, तो सफलता मिल सकती है.

गोदाम और कोल्ड चेन का निर्माण : देश में आज भी गोदामों की बहुत कमी है. गेहूं, चावल और चीनी के सही भंडारण के लिए ही गोदामों की कमी है, तो इस स्थिति में मक्का, बाजरा और सोयाबीन के लिए गोदामों की उपलब्धता दूर की बात है.

अगर सरकार सिर्फ गोदामों की व्यवस्था ही सही कर दे तो किसान इस बढ़ती मांग को पूरा कर सकते हैं, जिस में उन को भी भारी लाभ होगा.

खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming)जैसा कि बताया जा चुका है कि देश में गोदामों की काफी कमी है. कमोबेश वही स्थिति कोल्ड स्टोरेज की भी है. तकरीबन 40 फीसदी सब्जियां कोल्ड स्टोरेज के अभाव में खुले में ही सड़ जाती हैं.

प्रदेश सहकारी समिति के गोदामों का इस्तेमाल सिर्फ उर्वरकों के स्टोरेज के लिए ही किया जाता है, जबकि आधे से ज्यादा गोदामों की हालत जर्जर और दयनीय है, जबकि केंद्रीय भंडारण निगम व भारतीय खाद्य निगम सिर्फ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गेहूं, चावल और चीनी का भंडारण करते हैं. किसानों के माल के भंडारण की जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश में पूरी तरह राज्य भंडारण निगम के पास है, जिस की कूवत जरूरत के मुकाबले सिर्फ एकचौथाई ही है. सरकार को किसानों व उपभोक्ताओं की भलाई के लिए प्राइवेट सेक्टर की मदद करनी चाहिए ताकि इस क्षेत्र में अधिक से अधिक लोग आकर्षित हो सकें.

अब सारा दारोमदार प्राइवेट सेक्टर के हाथ में है कि वह अधिक से अधिक भंडारण में निवेश करे, मगर सवाल यह उठता है कि वह अपना निवेश क्यों करे, जब तक उसे अपना निवेश सुरक्षित और कमाऊ न लगता हो.

इसलिए जरूरत है कि सरकार कुछ खास उपाय करे जैसे कि निवेश की गई रकम पर कम से कम 5 साल का ब्याज सरकार सब्सिडी के तौर पर दे, साथ ही साथ पहले 3 साल तक गोदाम में 50 फीसदी सरकारी माल रखने की गारंटी दे, जिस से सिर्फ 2 साल के अंदर ही कम से कम 10 लाख टन के गोदाम बन कर तैयार हो जाएं. यदि सरकार गोदामों का इंतजाम पक्का कर दे तो किसानों की आर्थिक तरक्की में बहुत बदलाव परिवर्तन देखने को मिलेगा.

केला उत्पादन से आमदनी बढ़ाएं

हमारे देश में केला एक लोकप्रिय फल है. यह लाभदायक होता है और आसानी से ज्यादा पैदावार होने से किसानों में काफी लोकप्रिय है. देश में केले की सभी किस्मों में गुच्छे के निचले हिस्से के फलों का कमजोर होना सब से बड़ी समस्या है, पर इस का अभी तक कोई इलाज नहीं है. कार्बनिक, जैविक, रासायनिक खादों और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के छिड़काव के बावजूद इस समस्या से नजात नहीं मिल पाई है. दक्षिणपूर्वी देशों में गुच्छे के निचले आधे भाग को गुच्छा बनने के तुरंत बाद काट देते हैं, लेकिन भारत की जलवायु की वजह से यह संभव नहीं है.

भारत में (2013-14 के अनुसार) केले की खेती 802.6 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है. क्षेत्रफल के हिसाब से आम व नीबू के बाद केले का तीसरा स्थान है, जबकि 29724.6 हजार मीट्रिक टन (2013-14 के अनुसार) उत्पादन के साथ यह पहले स्थान पर है.

मिट्टी : केला सभी तरह की मिट्टी में उग जाता है, लेकिन व्यावसायिक रूप से खेती करने के लिए अच्छे जल निकास वाली गहरी दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच हो, फायदेमंद रहती है. ज्यादा रेतीली मिट्टी जो देर तक पोषक तत्त्वों को रोकने में असमर्थ रहती है और ज्यादा चिकनी मिट्टी जिस में पानी की कमी से दरारें पड़ जाती हैं, केले की खेती के लिए अच्छी नहीं होती हैं.

जलवायु : केला उष्ण जलवायु का पौधा है. गरम और नमी वाली जलवायु में इस की अच्छी पैदावार होती है. केले की खेती के लिए 20 से 35 डिगरी सेल्सियस तापमान अच्छा रहता है. 500 से 2000 मिलीमीटर वर्षा वाले इलाकों में इस की खेती की जा सकती है. केले को पाला और शुष्क तेज हवाओं से नुकसान होता है.

किस्में

ड्वार्फ कैवेंडिस (एएए) : यह सब से ज्यादा उगाई जाने वाली एक व्यावसायिक प्रजाति है. पौधे लगाने के 250-260 दिनों बाद इस में फूल आने शुरू हो जाते हैं. फूल आने के 110-115 दिनों बाद घार (फलों का गुच्छा) काटने लायक हो जाती है. इस तरह पौधे लगाने के 12-13 महीने बाद घार तैयार हो जाती है. फल 15 से 20 सेंटीमीटर लंबे और 3.0-3.5 सेंटीमीटर मोटे पीले व हरे रंग के होते हैं. घार का वजन 20 से 27 किलोग्राम तक होता है, जिस में औसतन 130 फल होते हैं.

यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है, लेकिन शीर्ष गुच्छा रोग के प्रति संवेदनशील होती है.

रोवस्टा (एएए) : इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. फल 12-13 महीने में पक कर तैयार हो जाते हैं. फल आकार में 20 से 25 सेंटीमीटर लंबे और 3-4 सेंटीमीटर मोटे होते हैं. घार का भार औसतन 25 से 30 किलोग्राम तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है और सिगाटोका रोग के प्रति संवेदनशील होती है.

रसथली (एएबी) : इस किस्म के फल आकार में बड़े तथा पकने पर सुनहरेपीले रंग के होते हैं. घार का भार 15 से 18 किलोग्राम तक होता है. फसल 13 से 15 महीने में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म में फल फटने की समस्या आती है.

पूवन (एएबी) : यह दक्षिण और उत्तरपूर्वी राज्यों में उगाई जाने वाली एक लोकप्रिय प्रजाति है. इस के पौधों की लंबाई ज्यादा होने से उन्हें सहारे की जरूरत नहीं होती है. पौधा लगाने के 12 से 14 महीने बाद घार काटने लायक हो जाती है. घार में मध्यम लंबाई वाले फल ऊपर की तरफ लगते हैं.

फल पकने के बाद पीले और स्वाद में हलका सा खट्टापन लिए मीठे होते हैं. फलों की भंडारण कूवत अच्छी है, इसलिए फल एक जगह से दूसरी जगह आसानी से भेजे जा सकते हैं. घार का औसत वजन 20 से 24 किलोग्राम तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है और स्ट्रीक विषाणु रोग से प्रभावित होती है.

नेंद्रेन (एएबी) : इस किस्म का इस्तेमाल मुख्य रूप से चिप्स और पाउडर बनाने के लिए किया जाता है. इसे सब्जी केला भी कहा जाता है. इस के फल लंबे, मोटी छाल वाले थोड़े मुड़े हुए होते हैं. फल पकने पर पीले हो जाते हैं. घार का भार 8 से 12 किलोग्राम तक होता है. हर घार में 30-35 फल होते हैं. इस की खेती केरल और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में की जाती है.

मांथन (एएबी) : इस किस्म के पौधे ऊंचे और मजबूत होते हैं. घार का भार 18 से 20 किलोग्राम होता है. प्रति घार औसतन 60-70 फल होते हैं. यह किस्म पनामा उकटा रोग से प्रभावित होती है, लेकिन पत्ती धब्बा और सूत्रकृमि रोगों की प्रतिरोधी होती है.

गें्रड नाइन (एएए) : इस किस्म के पौधों की ऊंचाई मध्यम और उत्पादकता ज्यादा होती है. फसल की अवधि 11-12 महीने की होती है. घार का भार 25 से 30 किलोग्राम होता है. सारे फल समान लंबाई के होते हैं.

कपूराबलि (एबीबी) : इस किस्म के पौधों की बढ़ोतरी काफी अच्छी होती है. घार का भार 25 से 35 किलोग्राम होता है. प्रति घार करीब 200 फल लगते हैं. फलों में मिठास और पेक्टिन की मात्रा दूसरी किस्मों के मुकाबले ज्यादा पाई जाती है. फलों की भंडारण क्षमता काफी अच्छी होती है. यह किस्म पनामा मिल्ट रोग और तना छेदक कीट के प्रति संवेदनशील और पत्ती धब्बा रोग की प्रतिरोधी होती है. यह तमिलनाडु और केरल की एक महत्त्वपूर्ण किस्म है.

संकर किस्में

एच 1 : इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. घार का भार 14 से 16 किलोग्राम होता है. फल लंबे और पकने पर सुनहरेपीले होते हैं. इस किस्म से 3 साल के फसलचक्र में 4 बार फसलें ली जा सकती हैं.

एच 2 : इस के पौधे मध्यम ऊंचाई (2.13 मीटर से 2.44 मीटर) के होते हैं. फल छोटे, गसे हुए और गहरे हरे रंग के थोड़ा खट्टापन लिए हुए मीठी खुशबू वाले होते हैं.

को 1 : इस के फल में खास अम्लीय महक होती है. यह किस्म ज्यादा ऊंचाई वाले क्षेत्रों के लिए ज्यादा कारगर होती है.

एफएचआर 1 (गोल्ड फिंगर) : इस किस्म की घार का वजन 18 से 20 किलोग्राम होता है. यह किस्म सिगाटोका और फ्यूजेरियम बिल्ट के प्रति अवरोधी होती है.

केले की खेती मुख्य रूप से अंत: भूस्तारी से की जाती है. केले की जड़ों से 2 तरह के सकर निकलते हैं यानी तलवार सकर और जलीय सकर. व्यावसायिक नजरिए से तलवार सकर खेती के लिए सब से सही हैं. इन की पत्तियां तलवार की तरह पतली और ऊपर की तरफ उठी रहती हैं. 0.5 से 1 मीटर ऊंचे और 3-4 महीने पुराने तलवार सकर रोपाई के लिए सही होते हैं. सकर ऐसे पौधों से लेने चाहिए, जो अच्छे और पूरी तरह विकसित हों और किसी रोग से पीडि़त न हों.

वर्तमान दौर में केले की खेती शूट टोप कल्चर, इन विट्रो, ऊतक प्रवर्धन विधि से भी की जाती है. इस विधि से तैयार पौधे विषाणु रोग से बचे रहते हैं.

banana production

रोपाई का समय

रोपाई का सही समय जलवायु, प्रजाति के चयन और बाजार की मांग आदि पर निर्भर करता है. तमिलनाडु में ड्वार्फ कैवेंडिश और नेंद्रेन किस्मों को फरवरी से अप्रैल, जबकि पूवन और कपूरावली किस्मों को नवंबरदिसंबर में रोपा जाता है. महाराष्ट्र में साल में 2 बार यानी जूनजुलाई और सितंबरअक्तूबर में रोपाई की जाती है.

रोपाई की विधि : खेत को 2-3 बार कल्टीवेटर चला कर समतल कर लें. रोपाई के लिए 60×60×60 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोदें. हर गड्ढे में मिट्टी, रेत और गोबर की खाद 1:1:1 के अनुपात में भरें. सकर को गड्ढे के बीच में रोप कर उस के चारों तरफ मिट्टी को अच्छी तरह से दबाएं. पौधों की दूरी, किस्म, जमीन की उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है. सामान्य रूप से केले के पौधों की दूरी किस्मों के अनुसार सारणी में दिखाई गई है.

घनी रोपाई : घनी रोपाई विधि आर्थिक नजरीए से खास है. इस विधि में खरपतवारों की बढ़ोतरी कम होती है और तेज हवाओं से नुकसान कम होता है.

बौनी या मध्यम ऊंचाई वाली किस्मों जैसे कैवेंडिश, बसराई और रोबस्टा आदि घनी रोपाई के लिए सही होती हैं. रोबस्टा और ग्रेंड नाइन को 1.2×1.2 मीटर की दूरी पर रोप कर क्रमश: 68.98 और 94.07 टन प्रति हेक्टेयर की उपज हासिल होती है.

खाद व उर्वरक : केला अधिक पोषक तत्त्व लेने वाली फसल है. खाद और उर्वरक की मात्रा मिट्टी की उर्वराशक्ति, किस्म, उर्वरक देने की विधि और जलवायु पर टिकी रहती है. सामान्य वृद्धि और विकास के लिए 100 से 250 ग्राम नाइट्रोजन, 20 से 50 ग्राम स्फुर और 200-300 ग्राम पोटाश प्रति पौधा जरूरी है. नाइट्रोजन और पोटाश को 4-5 भागों में बांट कर देना चाहिए और स्फुर की पूरी मात्रा को रोपण के समय ही देनी चाहिए.

सिंचाई : केले की रोपाई से ले कर तोड़ाई के समय तक 1800 से 2200 मिलीमीटर पानी की जरूरत होती है. केले में खासकर कूंड़, थाला और टपक सिंचाई विधि से सिंचाई की जाती है. केले को गरमियों में 3-4 दिनों और सर्दियों में 8-10 दिनों के भीतर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. ड्रिप विधि से सिंचाई किसानों के बीच लोकप्रिय हो रही है. इस विधि से सिंचाई करने पर 40-50 फीसदी पानी की बचत के साथ ही उत्पादन भी ज्यादा हासिल होता है.

मल्च का इस्तेमाल : मल्च के इस्तेमाल से जमीन में नमी बनी रहती है. साथ ही खरपतवारों की बढ़ोतरी भी रुकती है. गुजरात कृषि विश्वविद्यालय, नवसारी में ड्रिप सिंचाई विधि से गन्ने की खोई या सूखी पत्तियों द्वारा 15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मल्चिंग करने से केले के उत्पादन में 49 फीसदी तक बढ़ोतरी दर्ज की गई है और इस के साथ ही 30 फीसदी पानी की बचत भी होती है. इस के अलावा पौलीथीन शीट द्वारा मल्चिंग से भी अच्छे नतीजे हासिल हुए हैं.

देखभाल

मिट्टी चढ़ाना : पौधों पर मिट्टी चढ़ाना जरूरी होता है, क्योंकि इस की जड़ें उथली होती हैं. कभीकभी कंद जमीन से बाहर आ जाते हैं, जिस की वजह से उन की बढ़ोतरी रुक जाती हैं.

बेकार सकर हटाना : केले के पौधों में पुष्प गुच्छ निकलने से पहले तक बेकार सकर्स को हटाते रहना चाहिए. जब 3/4 पौधों में फूल आ जाएं तब 1 सकर को छोड़ कर अन्य को काटते रहें.

सहारा देना : केले के फलों का गुच्छा भारी होने से पौधे नीचे झुक जाते हैं. पौधों को गिरने से बचाने के लिए बांस की बल्ली या 2 बांस आपस में बांध कर कैंची की तरह बना कर फलों के गुच्छों को सहारा दें.

गुच्छों को ढकना : गुच्छों को सूरज की सीधी रोशनी से बचाने और फलों का आकर्षक रंग हासिल करने के लिए गुच्छों को छेद वाले पौलिथीन बैगों या सूखी पत्तियों से ढकना चाहिए.

कचरे के पहाड़ों पर खेती : कमाई की तकनीक

वर्तमान में कचरा एक गंभीर वैश्विक समस्या बन कर उभरा है. भारत की बात करें, तो साल 2023 में पर्यावरण की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिदिन तकरीबन डेढ़ करोड़ टन ठोस कचरा पैदा हो रहा है, जिस में से केवल एकतिहाई से भी कम कचरे का ठीक से निष्पादन हो पाता है. बचे कचरे को खुली जगहों पर ढेर लगाते हैं, जिसे कचरे की लैंडफिलिंग कहते हैं.

हमारे देश में कचरे की लैंडफिलिंग कचरा निष्पादन का प्रमुख तरीका है, जो बिलकुल अवैज्ञानिक है. देश में हजारों लैंडफिल जगहें हैं, जहां हजारों टन ठोस कचरा जमा है, जिस में दिल्ली की गाजीपुर, ओखला, भलस्वा, मुंबई की मुलुंड, देवनार, नागपुर की भांडेवाड़ी, अहमदाबाद की पिराना और बैंगलुरु की मंदूर लैंडफिल साइट्स ऐसी डंपिंग साइट्स हैं, जहां कचरे के बड़ेबड़े पहाड़ बन चुके हैं.

एक अनुमान के मुताबिक, देशभर में मौजूद कचरे के पहाड़ों के नीचे तकरीबन 15,000 एकड़ जमीन दबी हुई है, जिस पर तकरीबन 16 करोड़ टन कचरा जमा है. देश में बढ़ते कचरे के पहाड़ पानी, हवा एवं मिट्टी को दूषित कर पर्यावरण एवं सेहत के लिए गंभीर खतरा बने हुए हैं.

कचरे के पहाड़ों को खत्म करने के लिए सरकार ने ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत 10 साल में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए, लेकिन आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के अनुसार महज 15 फीसदी ही कचरे के पहाड़ों को साफ एवं 35 फीसदी कचरे को निष्पादित किया जा सका है.

अगर इस गति और इतने खर्च से कचरे के पहाड़ों के निष्पादन का काम होगा, तो शायद ये कचरे के पहाड़ कभी भी खत्म नहीं हो पाएंगे. अगर कचरे के पहाड़ खत्म हो भी जाते हैं, तो उन को खत्म करने में जो खर्चा आएगा, वह शायद कचरे के पहाड़ों से होने वाले नुकसान से भी ज्यादा होगा, इसलिए मौजूदा कचरे के पहाड़ों को साफ करने की व्यवस्था के साथसाथ कचरे के पहाड़ों पर खेती करने की कार्ययोजना बनाई जाए, क्योंकि देश में मौजूद ज्यादातर कचरे के पहाड़ों में 50 फीसदी से अधिक जैव कचरा है, इसलिए कचरे के पहाड़ों पर खेती संभव हो सकती है.

कचरा खेती

कचरा खेती तकनीक पर्यावरण हितैषी, आर्थिक रूप से सस्ती और सामाजिक रूप से स्वीकार्य तकनीकी है. इस तकनीक में कचरे के पहाड़ों पर खेती करते हैं, जिस में सजावटी पौधों, फूलों, औषधीय पौधों और हरी खाद की खेती के साथसाथ बड़े पेड़पौधों और ?ाडि़यों को भी उगाते हैं.

कचरा खेती में अनाज, दलहन एवं तिलहन की फसलें, फल एवं सब्जियों की खेती नहीं करते हैं, क्योंकि कचरे के पहाड़ों में जहरीला कचरा भी मौजूद होता है जैसे भारी धातुएं और जैव रासायनिक प्रक्रिया से बहुत से जहरीले कैमिकल पैदा होते हैं, जो उगाए गए पौधों में चिपक जाते हैं.

यदि इन पौधों के किसी भी भाग का इस्तेमाल पशुओं या इनसानों द्वारा किया जाता है, तो ये जहरीले तत्त्व पौधों के माध्यम से इनसानों एवं पशुओं के शरीर में जा कर गंभीर सेहत संबंधी समस्याएं पैदा कर सकते हैं.

कचरे के पहाड़ों पर खेती करने के लिए सब से पहले कचरे के पहाड़ों को सीढ़ीनुमा खेत में बदलते हैं, जिस में सीढ़ी का ढाल अंदर की ओर रखते हैं. इस से कचरे के पहाड़ से निकलने वाला जहरीला तरल पदार्थ बह कर पहाड़ के बाहर न जाए.

इस के बाद सीढ़ीनुमा कचरे के खेत में न सड़ने वाला कचरा जैसे पौलीथिन, प्लास्टिक और धातु के कचरे को तकरीबन 30 सैंटीमीटर गहराई की परत से छांट कर निकाल देते हैं और बचे कचरे को महीन कर लेते हैं. इस के बाद खेत की उपजाऊ मिट्टी में जरूरत के मुताबिक गोबर या केंचुए या कंपोस्ट खाद और उर्वरकों को मिला कर सीढ़ीनुमा कचरे के खेत में अच्छी तरह मिला देते हैं.

यदि नमी न हो, तो पानी का छिड़काव कर कचरे को नम कर देते हैं. इस के बाद सीढ़ीनुमा खेत में नर्सरी में तैयार पौधों का रोपण करते हैं.

ध्यान रहे कि कचरा खेती में बीजों को सीधे खेत में नहीं बोते, क्योंकि कचरे में बीजों का जमाव ठीक से नहीं हो पाता है, इसलिए पौधों को नर्सरी में तैयार कर रोपण करते हैं. लेकिन जिन पौधों या फसलों की नर्सरी तैयार करना कठिन होता है, ऐसी फसलों के बीजों की बोआई करते हैं, जैसे हरी खाद की फसलें ढैंचा, सनई आदि.

कचरे के सीढ़ीनुमा खेतों में पेड़पौधों को लगाने के लिए चिह्नित जगहों पर एक मीटर लंबाई, चौड़ाई और गहराई के गड्ढे खोद कर उन का कचरा बाहर निकाल देते हैं और फिर उन में मिट्टी और सड़ी गोबर की खाद के तैयार मिश्रण को भर कर पौधों को रोप देते हैं.

पौधों का रोपण बारिश के मौसम में करते हैं, जिस से पौधों को पानी देने की जरूरत न पड़े और पौधों की बढ़वार भी अच्छी हो सके. पौधों की अच्छी बढ़वार एवं विकास के लिए जरूरत के मुताबिक ड्रोन, स्प्रिंकलर या ड्रिप विधि से सिंचाई करते हैं. साथ ही, कीट, रोग एवं खरपतवार प्रबंधन का भी काम करते रहते हैं.

Farming on mountainsकचरा खेती के लाभ

* कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से कचरे के दुर्गंध वाले पहाड़ों को बिना खत्म किए हरित क्षेत्र में बदला जा सकता है.

* गरमियों के दिनों में कचरे के पहाड़ों में आग लगने की समस्या का भी समाधान हो जाएगा.

* कचरे के पहाड़ों से निकलने वाली दुर्गंध फूलों की सुगंध में परिवर्तित हो कर आसपास के वातावरण को शुद्ध करेगी.

* कचरे के पहाड़ों से उड़ने वाली धूल पर भी नियंत्रण होगा.

* कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से आसपास का वातावरण स्वच्छ रहेगा, तो पहाड़ों के आसपास की बस्तियों के लोगों में बीमारियों का खतरा भी कम होगा.

* कचरा खेती से कचरे के पहाड़ों के आसपास के लोगों को रोजगार और आय सृजन के अवसर भी उपलब्ध होंगे.

* लंबे समय तक कचरे के पहाड़ों पर खेती करते रहने पर कचरे के पहाड़ धीरेधीरे अपघटित हो कर समतल खेत में बदल जाएंगे, क्योंकि कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से पेड़पौधों की जड़ों के माध्यम से वर्षा एवं सिंचाई का पानी पहाड़ के अंदर तक कचरे को गीला रखेगा, जिस से कचरे का अपघटन तेज होगा और पेड़पौधों की जड़ों में उपस्थित असंख्य सूक्ष्म जीव कचरे को सड़ाने में मददगार होंगे.

* पेड़पौधों की जड़ों से निकलने वाले विभिन्न प्रकार के अम्ल कचरे को गलाने एवं सड़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, इसलिए कचरे के पहाड़ धीरेधीरे विघटित एवं अपघटित हो कर जमींदोज हो जाएंगे.

मौजूद कचरे के पहाड़ों को खत्म करने के काम के साथसाथ स्थानीय स्तर पर ही कचरे के निष्पादन की कार्ययोजना पर काम  किया जाए, जिस से भविष्य में नए कचरे के पहाड़ वजूद में न आ सकें.

मसाला तथा औषधिय फसल मैथी (Fenugreek)

दुनिया में मसाला उत्पादन और मसाला निर्यात के हिसाब से भारत का प्रथम स्थान है, इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. मसाले हमारे खाद्य पदार्थों को स्वादिष्ठता तो प्रदान करते ही हैं, साथ ही हम इस से विदेशी पैसा भी कमाते हैं.

मसाले की एक प्रमुख फसल मेथी है. इस की हरी पत्तियों में प्रोटीन, विटामिन सी और भरपूर मात्रा में खनिज तत्त्व पाए जाते हैं. मेथी के बीज मसाले और दवा के रूप में काफी उपयोगी है.

भारत में मेथी की खेती व्यावसायिक स्तर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब राज्यों में की जाती है. भारत मेथी का मुख्य उत्पादक और निर्यातक देश है. इस का उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है.

भूमि और जलवायु

मेथी को अच्छे जल निकास एवं पर्याप्त जीवांश वाली सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है, परंतु दोमट मिट्टी इस के लिए उत्तम रहती है. यह ठंडे मौसम की फसल है. पाले व लवणीयता को भी यह कुछ स्तर तक सहन कर सकती है.

मेथी की प्रारंभिक वृद्धि के लिए मध्यम आर्द्र जलवायु और कम तापमान उपयुक्त है, परंतु पकने के समय गरम व शुष्क मौसम उपज के लिए लाभप्रद होता है. पुष्प व फल बनते समय अगर आकाश बादलों से घिरा हो, तो फसल पर कीड़ों व बीमारियों के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है.

उन्नत किस्में

आरएमटी 305 : यह एक बहुफलीय किस्म है. इस का औसत बीज भार और कटाई सूचकांक अधिक है. फलियां लंबी और अधिक दानों वाली होती हैं, जिस के दाने सुडौल, चमकीले पीले होते हैं. इस किस्म में छाछ्या रोग के प्रति अधिक प्रतिरोधकता है. इस किस्म के पकने की अवधि 120-130 दिन है. औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरएमटी 1 : समूचे राजस्थान के लिए यह उपयुक्त किस्म है. इस के पौधे अर्ध सीधे एवं मुख्य तना नीचे की ओर गुलाबीपन लिए होता है. बीमारियों एवं कीटों का प्रकोप कम होता है. पकने की अवधि 140-150 दिन है. इस की औसत उपज 14-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

हरी पत्तियों के लिए

पूसा कसूरी : यह छोटे दाने वाली मेथी होती है. इस की खेती हरी पत्तियों के लिए की जाती है. कुल 5-7 हरी पत्तियों की कटाई की जा सकती है. इस की औसत उपज 5-7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

खेत की तैयारी : भारी मिट्टी में खेत की 3-4 और हलकी मिट्टी में 2-3 जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए और खरपतवार को निकाल देना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक : प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन सड़ी गोबर की खाद खेत को तैयार करते समय डालें. इस के अलावा 40 किलोग्राम नाइट्रोजन एवं 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले खेत में ऊपर से दें.

बीज की बोआई एवं मात्रा : इस की बोआई अक्तूबर माह के अंतिम सप्ताह से नवंबर माह के पहले सप्ताह तक की जाती है. बोआई में देरी करने से फसल के पकने की अवस्था के समय तापमान अधिक हो जाता है. इस वजह से फसल शीघ्र पक जाती है और उपज में कमी आती है. पछेती फसल में कीट व बीमारियों का प्रकोप अधिक बढ़ जाता है.

इस के लिए 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है. बीजों को 30 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में 5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोएं. बीजों को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर बोने से फसल अच्छी मिलती है.

सिंचाई एवं निराईगुड़ाई : मेथी की खेती रबी में सिंचित फसल के रूप में की जाती है. सिंचाइयों की संख्या मिट्टी की संरचना और वर्षा पर निर्भर करती है. वैसे, रेतीली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज के लिए तकरीबन 8 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है. परंतु अच्छे जल धारण क्षमता वाली भूमि में 4-5 सिंचाइयां पर्याप्त हैं.

फली व बीजों के विकास के समय पानी की कमी नहीं रहे. बीज बोने के बाद हलकी सिंचाई करें. उस के बाद आवश्यकतानुसार 15 से 20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें.

बोआई के 30 दिन बाद निराईगुड़ाई कर पौधों की छंटाई कर देनी चाहिए व कतारों में बोई फसल में अनावश्यक पौधों को हटा कर पौधों के बीच की दूरी 10 सैंटीमीटर रखें.

अगर जरूरी हो, तो 50 दिन बाद दूसरी निराईगुड़ाई करें. पौधों की वृद्धि की प्राथमिक अवस्था में निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में पूरी तरह से हवा का संचार होता है और खरपतवार रोकने में मदद मिलती है.

खरपतवार नियंत्रण

मेथी को उगने के 25 व 50 दिन बाद 2 निराईगुड़ाई कर पूरी तरह से खरपतवार से मुक्त रखा जा सकता है. इस के अलावा मेथी की बोआई के पहले 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फ्लूक्लोरेलिन को 600 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें. उस के बाद मेथी की बोआई करें या फिर पेंडीमिथेलीन 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर  को 600 लिटर पानी में घोल कर मेथी की बोआई के बाद, मगर उगने से पहले छिड़काव कर के खरपतवारों से मुक्त किया जा सकता है.

यह ध्यान रखें कि फ्लूक्लोरेलिन के छिड़काव के बाद खेत को खुला न छोड़ें, अन्यथा इस का वाष्पीकरण हो जाता है और पेंडीमिथेलीन के छिड़काव के समय खेत में नमी होना आवश्यक है.

मैथी (Fenugreek)

प्रमुख कीट एवं उन का प्रबंधन

फसल पर नाशीकीटों का प्रकोप कम होता है, परंतु कभीकभी माहू, तेला, पत्ती भक्षक, सफेद मक्खी, थ्रिप्स, माइट्स, फली छेदक एवं दीमक आदि का आक्रमण पाया गया है. सब से ज्यादा नुकसान माहू कीट से होता है.

माहू का प्रकोप मौसम में अधिक नमी व आकाश में बादल के रहने पर अधिक होता है. यह कीट पौधों के कोमल भागों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता है. दाने कम व निम्न गुणवत्ता के बनते हैं.

इस की रोकथाम के लिए जैविक विधियों का अधिकाधिक प्रयोग करें. आक्रमण बढ़ता दिखने पर नीम आधारित रसायनों निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल आधारित 0.03 फीसदी का 1 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. कीटनाशी अवशेषों से उपज को बचाएं.

प्रमुख रोग और उन का प्रबंधन

छाछ्या : यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी’ नामक कवक से होता है. रोग के प्रकोप से पौधों की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देने लगता है और पूरे पौधे पर फैल जाता है. इस से काफी नुकसान होता है.

प्रबंधन : गंधक चूर्ण 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर भुरकाव करें या केराथेन एलसी 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 10 से 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार माधवी बोएं.

तुलासिता (डाउनी मिल्ड्यू) : यह रोग ‘पेरेनोस्पोरा स्पी. ’ नामक कवक से होता है. इस रोग से पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले घब्बे दिखाई देते हैं और नीचे की सतह पर फफूंद की वृद्धि दिखाई देती है. उग्र अवस्था में रोग से ग्रसित पत्तियां झड़ जाती हैं.

प्रबंधन : फसल में अधिक सिंचाई न करें. इस रोग के लगने की प्रारंभिक अवस्था में फसल पर मैंकोजेब 0.2 फीसदी या रिडोमिल 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार मुक्ता एचएम 346 बोएं.

जड़गलन : मेथी की फसल में जड़गलन रोग का प्रकोप भी बहुत होता है, जो बीजोपचार कर और फसलचक्र अपना कर, ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले भूमि में दे कर कम किया जा सकता है.

कटाई एवं उपज

जब पौधों की पत्तियां झड़ने लगें व पौधे पील रंग के हो जाएं, तो पौधों को उखाड़ कर या फिर दंताली से काट कर खेत में छोटीछोटी ढेरियोंं में रखें. सूखने के बाद कूट कर या थ्रैशर से दाने अलग कर लें. साफ दानों को पूरी तरह सुखाने के बाद बोरियों मे भरें. समुचित तरीके से खेती की क्रियाओं को अपनाने से 15 से 20 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार हो सकती है.

पूसा संस्थान में तैयार हो रही अनेक फसलों की उन्नत किस्में

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई), नई दिल्ली में उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने संस्थान के कृषि फार्म का अवलोकन किया और वहां चल रहे अनुसंधान एवं नवीनतम कृषि तकनीकों को देखा.

संस्थान के निदेशक डा. सीएच श्रीनिवासराव ने कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही का स्वागत करते हुए संस्थान के प्रमुख अनुसंधान कार्यों और उन की उपलब्धियों पर जानकारी दी.

संयुक्त निदेशक (अनुसंधान) डा. सी. विश्वनाथन ने चल रही उन्नत अनुसंधान परियोजनाओं और नई किस्मों के विकास के बारे में कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही को विस्तार से बताया.

डा. बीएस तोमर, अध्यक्ष, शाकीय विज्ञान संभाग ने कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही को संस्थान में की जा रही पूसा लाल गोभी संकर-1, पूसा गोभी संकर-81, गोल्डन एकड़, पूसा स्नोबौल एच-1, गांठ गोभी, पूसा साग-1 और पूसा भारती जैसी उन्नत किस्मों के बारे में जानकारी दी. साथ ही, उन्होंने उन्हें एक जीवंत फसल प्रदर्शनी भी दिखाई.

varieties of crops

कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने फल एवं बागबानी प्रौद्योगिकी का भी निरीक्षण किया. फल एवं बागबानी प्रौद्योगिकी संभाग के प्राध्यापक डा. आरएम शर्मा ने उन्नत नीबूवर्गीय फलों जैसे पूसा शरद और पूसा राउंड की जानकारी दी.

इस के अलावा किन्नू, संतरा, और मौसंबी के बागों का भी कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने अवलोकन किया.
उत्तर प्रदेश में चने की खेती को और अधिक विकसित किया जा सके, इस के लिए उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने चने की उन्नत खेती के लिए पूसा मानव और पूसा पार्वती जैसी नई किस्मों की भी जानकारी ली.

मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने संस्थान के अनुसंधान कार्यों को देखा और उन की सराहना की. साथ ही, वहां उपस्थिति किसानों के लिए खेती को और अधिक लाभदायक बनाने के लिए कुछ सुझाव भी दिए.

कृषि उत्पादन वृद्धि (Agricultural Production) के लिए भरतपुर में कार्यशाला

भरतपुर : देश के विभिन्न क्षेत्रों में कृषि उत्पादन की वृद्धि के लिए अपनाई जा रही तकनीक व कृषि क्रियाओं पर काम कर रही विभिन्न संस्थानों के अनुभवों को साझा कर समावेशी जिला विकास मौडल बनाने की दृष्टि से भरतपुर में ‘समृद्ध भारत अभियान’ संस्था की पहल पर दोदिवसीय कार्यशाला का आयोजन हुआ.

इस आयोजन में विषय विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, चिंतक व विचारकों ने भाग लिया. कार्यशाला में विभिन्न संस्थाओं के कार्यों एवं कृषि उत्पादन वृद्धि और रसायनमुक्त खेती के संबंध में आए सुझावों को नीति आयोग को भेजा जाएगा, ताकि नीति आयोग ग्रामीण विकास अथवा आकांक्षी जिला कार्यक्रम में इन सुझावों को शामिल कर सके, ताकि किसानों की आमदनी बढ़ सके.

‘समृद्ध भारत अभियान’ के निदेशक सीताराम गुप्ता ने बताया कि कार्यशाला में ‘राष्ट्रीय रबड़ बोर्ड’ के चेयरमैन डा. सांवर धनानिया, भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी नरेंद्र सिंह परमार, वेद प्रकाश, ग्वालियर के संत स्वामी ऋषभ देवानंद, कनेरी मठ (महाराष्ट्र) के कृषि विशेषज्ञ डा. रविंद्र सिंह, ‘सर्वोदय फाउंडेशन’ की अंशु गुप्ता, ‘जीवजंतु कल्याण बोर्ड’ के सदस्य जब्बर सिंह, नोएडा, उत्तर प्रदेश के सत्येंद्र सिंह, विमल पटेल, पना (भरतपुर) के कमल सिंह, इंदौर की रीना भारतीय, जालौर (राजस्थान) के ईश्वर सिंह, ग्वालियर के डा. अंकित अग्रवाल, संजीव गोयल, आगरा के मो. हबीब, इंदौर की ध्वनि रामा, कांकरोली (राजसमंद) के विनीत सनाढ्य आदि ने कृषि एवं गोपालन के क्षेत्र में किए जा रहे अनुभवों की जानकारी दी.

कार्यशाला में सभी वक्ताओं ने सुझाव दिया कि रसायनमुक्त एवं कीटनाशकमुक्त खेती करने के लिए हमें प्राचीन परंपरागत खेती अर्थात प्राकृतिक व जैविक खेती शुरू करनी होगी. साथ ही, खेती के साथ गोपालन के काम को भी प्रोत्साहित करना होगा.

कृषि उत्पादन वृद्धि (Agricultural Production)

सभी वक्ताओं ने बताया कि रसायन एवं कीटनाशक दवाओं के उपयोग के चलते कृषि उत्पाद इतने जहरीले हो गए हैं कि इन से आज कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी सामने आ रही है. सभी वक्ताओं ने एक मत से सुझाव दिया कि केंद्र सरकार को प्राकृतिक खेती अथवा जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सभी ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर प्रशिक्षण शिविर व प्रदर्शन आयोजित किए जाएं.

सभी विशेषज्ञों का कहना था कि जैविक खेती की शुरुआत में कृषि उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, किंतु मानव शरीर पर रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों के कारण पैदा होने वाली बीमारियों से जरूर नजात मिल जाएगी.

सभी वक्ताओं ने कहा कि केंद्र व राज्य सरकारों को जैविक उत्पादों के प्रमाणीकरण की जटिल प्रक्रिया को आसान बनाना होगा और प्राकृतिक अथवा जैविक खेती को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष अनुदानित योजना लागू करनी होगी.

गेहूं में खरपतवार नियंत्रण के प्रभावी उपाय  

खरपतवार ऐसे पौधों को कहते हैं, जो बिना बोआई के ही खेतों में उग आते हैं और बोई गई फसलों को कई तरह से नुकसान पहुंचाते हैं. मुख्यत: खरपतवार फसलीय पौधों से पोषक तत्त्व, नमी, स्थान यानी जगह और रोशनी के लिए होड़ करते हैं. इस से फसल के उत्पादन में कमी होती है. इन सब के साथसाथ कुछ खरपतवार ऐसे भी होते हैं, जिन के पत्तों और जड़ों से मिट्टी में हानिकारक पदार्थ निकलते हैं. इस से पौधों की बढ़वार पर बुरा असर पड़ता है, जैसे गाजरघास (पार्थेनियम) एवं धतूरा आदि न केवल फार्म उत्पाद की गुणवत्ता को घटाते हैं, बल्कि इनसान और पशुओं की सेहत के प्रति भी नुकसानदायक हैं.

गेहूं की फसल भारत की खेती का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. इस के सफल उत्पादन के लिए खरपतवार नियंत्रण एक अनिवार्य प्रक्रिया है. खरपतवार न केवल फसल की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, बल्कि फसल की वृद्धि और उपज को भी बाधित करते हैं.

गेहूं की भरपूर और स्वस्थ उपज लेने के लिए सही समय पर खरपतवार का नियंत्रण करना बहुत ही जरूरी होता है. अकसर खरपतवार कई हानिकारक कीड़े और रोगों का भी घर बन जाता है. इस के साथसाथ ये फसलों के नुकसानदायक कीटों व रोगों को भी आश्रय दे कर फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं.

अगर सही समय पर खरपतवारों का नियंत्रण नहीं किया जाता है, तो फसल उत्पादन में 50 से 60 फीसदी तक की कमी हो सकती है और किसानों को माली नुकसान भी उठाना पड़ता है. पर इन का नियंत्रण भी एक कठिन समस्या है.

इन खरपतवारों को नियंत्रित करने से फसल की उत्पादकता और गुणवत्ता में सुधार हो सकता है. इन खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग किया जा सकता है, जैसे कि यांत्रिक विधियां, सस्य क्रियाएं, भूपरिष्करण क्रियाएं, कार्बनिक खादों का प्रयोग, जैव नियंत्रण उपाय और रासायनिक विधियां.

गेहूं की फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए विभिन्न तरीकों की विस्तृत जानकारी निम्नलिखित है :

weeds in wheat

यांत्रिक विधियां

* हाथों से खरपतवार निकालना : यह सब से पुरानी और प्रभावी विधि है, लेकिन इस में समय और मेहनत अधिक लगती है.

* खुरपी, हंसिया, कुदाल आदि से खरपतवार निकालना : इन उपकरणों का उपयोग कर के खरपतवार को निकाला जा सकता है.

* मशीन से खरपतवार निकालना : रोटरी वीडर, वीडर और हार्वेस्टर जैसी मशीनें खरपतवार निकालने में मदद करती हैं.

सस्य क्रियाएं

* फसलों का चुनाव : तेजी से वृद्धि करने वाली फसलें और जड़ें गहरी व फैलने वाली फसलें खरपतवारों को नियंत्रित करने में मदद करती हैं.

* फसल चक्र : विभिन्न फसलों को लगाने से खरपतवारों की वृद्धि रुक जाती है.

* फसल की सघनता : अधिक सघनता से खरपतवारों को वृद्धि करने का अवसर नहीं मिलता.

कार्बनिक खादों का प्रयोग

* कार्बनिक खाद सड़ने और गलने के बाद कार्बनिक अम्ल का निस्तारण करते हैं, जो खरपतवारों की वृद्धि को कम कर देता है.

* जैविक खादों का उपयोग कर के मिट्टी की उर्वरता बढ़ाई जा सकती है और खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है.

जैव नियंत्रण के उपाय

* जैविक नियंत्रण एजेंट जैसे नेमाटोड, बैक्टीरिया और फंजाई खरपतवारों को नियंत्रित करने में मदद करते हैं.

weeds in wheat

रासायनिक विधियां

रासायनिक विधियों के जरीए खरपतवार नियंत्रण करना एक प्रभावी तरीका है, लेकिन इस के उपयोग से पहले कुछ सावधानियां बरतें.

शाकनाशी रसायन के प्रकार

संपर्क शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन पत्तियों पर लगाया जाता है और खरपतवार को मारता है. उदाहरण : ग्लाईफोसेट, 2,4-डी.

सिस्टैमिक शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन खरपतवार के पौधे में अवशोषित होता है और उस की वृद्धि को रोकता है. उदाहरण : डाइक्लोफेनाक, मैटोलाक्लोर.

पहले उगाया गया शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन मिट्टी में लगाया जाता है और खरपतवार की वृद्धि को रोकता है. उदाहरण : ट्राईफ्लुरेलिन.

बाद में उगाया गया शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन खरपतवार के उगने के बाद लगाया जाता है और उस की वृद्धि को रोकता है. उदाहरण : ग्लाइफोसेट, 2,4-डी.

शाकनाशी रसायन के उपयोग के तरीके

फसल के पहले : शाकनाशी रसायन को फसल के पहले लगाया जाता है, ताकि खरपतवार की वृद्धि को रोका जा सके.

फसल के साथ : शाकनाशी रसायन को फसल के साथ लगाया जाता है, ताकि खरपतवार की वृद्धि को रोका जा सके.

खरपतवार के ऊपर : शाकनाशी रसायन को खरपतवार के ऊपर लगाया जाता है, ताकि उस की वृद्धि को रोका जा सके.

शाकनाशी रसायन के फायदे

यह शाकनाशी रसायन खरपतवार की वृद्धि को रोकता है और फसल की उत्पादकता को बढ़ाता है.

फसल की सुरक्षा : शाकनाशी रसायन फसल को खरपतवार से बचाता है और उस की सुरक्षा करता है.

समय और मेहनत की बचत : शाकनाशी रसायन का उपयोग करने से समय और मेहनत की बचत होती है.

शाकनाशी रसायन के नुकसान

पर्यावरण पर प्रभाव : शाकनाशी रसायन पर्यावरण पर बुरा प्रभाव डाल सकता है और जीवजंतुओं को नुकसान पहुंचा सकता है.

फसल को नुकसान : शाकनाशी रसायन फसल को नुकसान पहुंचा सकता है, अगर उस का उपयोग सही तरीके से नहीं किया जाए.

मिट्टी का प्रदूषण : शाकनाशी रसायन मिट्टी का प्रदूषण कर सकता है और उस की उर्वरता को कम कर सकता है.

इन विधियों को अपना कर गेहूं की फसल में खरपतवार को नियंत्रित किया जा सकता है.

किसानों को इन विभिन्न उपायों को अपना कर अपनी फसल की गुणवत्ता और उत्पादकता को बनाए रखना चाहिए.

वर्तमान में उपलब्ध नई तकनीकें और उन्नत विधियां खरपतवार नियंत्रण को अधिक प्रभावी और स्थायी बनाने में मददगार साबित हो रही हैं, जो कृषि की चुनौतियों का सामना करने में मददगार हैं.

गेहूं में खरपतवार नियंत्रण के प्रभावी उपाय

कंडाली : कंडाली एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-60 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं.

सरसों : सरसों एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-90 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल पीले रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

खूबकला : खूबकला एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 20-50 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल पीले रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

मटर के परिवार की खरपतवार

मटरी : मटरी एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-60 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल बैगनी रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

फूली मटर : फूली मटर एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 20-40 सैंटीमीटर तक होती है.

काली मटर : पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल बैगनी रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं. यह एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-60 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं. इन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल बैगनी रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

गंदेरी परिवार की खरपतवार

गंदेरी : गंदेरी एक बहुवर्षीय खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं. इस की जड़ें गहरी होती हैं और मिट्टी में पानी को सोख लेती हैं.

बांस घास : बांस घास एक बहुवर्षीय खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 100-200 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

weeds in wheat

खरपतवार की पहचान

खरपतवार की पहचान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि विभिन्न प्रकार के खरपतवारों की विशेषताएं और नियंत्रण की विधियां भिन्न होती हैं. गेहूं की फसल में सामान्य रूप से उगने वाले खरपतवार निम्नलिखित हैं :

मकोय : मकोय एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. मकोय गेहूं की फसल में तेजी से वृद्धि करता है और फसल की उत्पादकता को कम कर देता है.

हिरनखुरी : हिरनखुरी एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल पीले रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

ककमाची : ककमाची एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल सफेद रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

बथुआ : बथुआ एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं. बथुआ गेहूं की फसल में तेजी से वृद्धि करता है और फसल की उत्पादकता को कम कर देता है.

चौलाई : इस की पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

जंगली गाजर : जंगली गाजर एक द्विवर्षीय खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल सफेद रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

महिलाओं और युवाओं को मिलेंगे रोजगार (Employment)

नई दिल्ली: केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने नई दिल्ली में 10,000 नवगठित बहुद्देशीय प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (PACS), डेयरी व मत्स्य सहकारी समितियों का शुभारंभ किया. उन्होंने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी की जन्म शताब्दी के दिन 10,000 नई बहुद्देश्यीय प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (MPACS), डेयरी व मत्स्य सहकारी समितियों का शुभारंभ हो रहा है.

अमित शाह ने कहा कि 19 सितंबर, 2024 को इसी स्थान पर हम ने एक SOP बनाई थी. उस के 86 दिन के अंदर ही हम ने 10,000 पैक्स को रजिस्टर करने का काम समाप्त कर दिया है. जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सहकारिता मंत्रालय की स्थापना की, तो उन्होंने ‘सहकार से समृद्धि’ का मंत्र दिया था.

मंत्री अमित शाह ने आगे कहा कि ‘सहकार से समृद्धि’ तभी संभव है, जब हर पंचायत में सहकारिता उपस्थिति हो और वहां किसी न किसी रूप में काम करे. उन्होंने कहा कि हमारे देश के त्रिस्तरीय सहकारिता ढांचे को सब से ज्यादा ताकत प्राथमिक सहकारी समिति ही दे सकती है, इसलिए मोदी सरकार ने 2 लाख नए पैक्स बनाने का निर्णय लिया था.

केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कहा कि नाबार्ड (NABARD), एनडीडीबी(NDDB) और एनएफडीबी (NFDB) ने 10,000 प्राथमिक सहकारी समितियों के पंजीकरण में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. सहकारिता मंत्रालय की स्थापना के बाद सब से बड़ा काम सभी पैक्स का कंप्यूटराइजेशन करने का काम किया गया.

उन्होंने आगे कहा कि कंप्यूटराइजेशन के आधार पर पैक्स को 32 प्रकार की नई गतिविधियों से जोड़ने का काम किया गया. हम ने पैक्स को बहुआयामी बना कर और उन्हें भंडारण, खाद, गैस, उर्वरक एवं जल वितरण के साथ जोड़ा है.

मंत्री अमित शाह ने कहा कि ट्रेंड मैनपावर न होने के कारण ये सब हम नहीं कर सकते. इस के लिए आज यहां प्रशिक्षण मौड्यूल का भी शुभारंभ हुआ है, जो पैक्स के सदस्यों और कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने का काम करेंगे.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि ये प्रशिक्षण मौड्यूल हर जिला सहकारी रजिस्ट्रार की जिम्मेदारी बनेगी कि पैक्स के सचिव एवं कार्यकारिणी के सदस्यों का अच्छा प्रशिक्षण सुनिश्चित हो.

केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री ने कहा कि यहां 10 सहकारी समितियों को रुपे किसान क्रेडिट कार्ड (RuPay Kisan Credit Card), माइक्रो एटीएम (Micro ATM) का वितरण किया गया है. इस अभियान के तहत आने वाले दिनों में हर प्राथमिक डेयरी को माइक्रो एटीएम दिया जाएगा. माइक्रो एटीएम और रुपे किसान क्रेडिट कार्ड (RuPay Kisan Credit Card) हर किसान को कम खर्च पर लोन यानी ऋण देने का काम करेगा.

मंत्री अमित शाह ने कहा कि पैक्स के विस्तार के लिए विजिबिलिटी, रेलेवेंस, वायबिलिटी और वाइब्रेंसी का ध्यान रखा गया है. पैक्स में 32 कामों को जोड़ कर इसे विजिबल और वायबल बनाया गया है.

उन्होंने जानकारी देते हुए कहा कि गांव में कौमन सर्विस सैंटर (Common Service Centre) (CSC) का जब पैक्स बन जाता है, तो गांव के हर नागरिक को किसी न किसी रूप में पैक्स के दायरे में आना पड़ता है. इस प्रकार हम ने इस की रेलेवेंस भी बढ़ाई है.

गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि जब पैक्स गैस वितरण, भंडारण, पैट्रोल वितरण आदि का काम करते हैं, तो उन की वाइब्रेंसी अपनेआप बढ़ जाती है. साथ ही, पैक्स के बहुद्देश्यीय होने से पैक्स का जीवन भी लंबा होने की पूरी संभावना रहती है.

उन्होंने कहा कि यह एक बहुद्देशीय कार्यक्रम है, जिस से किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने का प्रयास होगा.

मंत्री अमित शाह ने कहा कि कंप्यूटराइजेशन और टैक्नोलौजी से पैक्स में पारदर्शिता आएगी, सहकारिता का जमीनी स्तर पर विस्तार होगा और ये महिलाओं और युवाओं के रोजगार का माध्यम भी बनेगा. साथ ही, पैक्स, कृषि संसाधनों की आसान उपलब्धता भी सुनिश्चित करेगा.

अमित शाह ने कहा कि हमारी 3 नई राष्ट्रीय स्तर की कोऔपरेटिव्स के माध्यम से पैक्स, और्गेनिक उत्पादों, बीजों और ऐक्सपोर्ट के साथ किसानों की समृद्धि के रास्ते भी खोलेगा. इस से सामाजिक और आर्थिक समानता भी आएगी, क्योंकि नए मौडल में महिलाओं, दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित की है, जिस से सामाजिक समरसता भी बढ़ेगी.

केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कहा कि मोदी सरकार ने लक्ष्य रखा है कि अगले 5 साल में 2 लाख नए पैक्स का गठन करेंगे. उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि 5 साल से पहले ही हम इस लक्ष्य को पूरा लेंगे.

उन्होंने आगे बताया कि पहले चरण में नाबार्ड 22,750 पैक्स और दूसरे चरण में 47,250 पैक्स बनाएगा. इसी प्रकार एनडीडीबी 56,500 नई समितियां बनाएगा और 46,500 मौजूदा समितियों को और मजबूत बनाएगा. वहीं एनएफडीबी 6,000 नई मत्स्य सहकारी समितियां बनाएगा और 5,500 मौजूदा मत्स्य सहकारी समितियों का सशक्तीकरण करेगा. इन के अलावा राज्यों के सहकारी विभाग 25,000 पैक्स बनाएंगे.

अमित शाह ने इस अवसर पर कहा कि नए मौडल के साथ अब तक 11,695 नई प्राथमिक सहकारी समितियां पंजीकृत हुई हैं, जो हमारे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है. साथ ही, 2 लाख नए पैक्स बनने के बाद फौरवर्ड और बैकवर्ड लिंकेजेस के माध्यम से किसानों की उपज को वैश्विक बाजार में पहुंचाना बड़ा आसान हो जाएगा.

सरस मेलों से ग्रामीण महिलाएं (Rural Women) बन रहीं सशक्त

जयपुर : कृषि एवं ग्रामीण विकास मंत्री डा. किरोड़ी लाल मीणा ने राजस्थान ग्रामीण आजीविका विकास परिषद (राजीविका) द्वारा जवाहर कला केंद्र, जयपुर में संचालित ‘सरस राजसखी मेला, 2024’ का अवलोकन करते हुए कहा कि सरस मेलों का ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने में अहम योगदान है. इन मेलों में देश की ग्रामीण महिलाएं अपने हाथों से बने शोपीस आइटम बेचती है.

मेले में मंत्री डा. किरोड़ी लाल ने सरस मेले में सभी स्टालों का अवलोकन किया एवं विभिन्न राज्यों से आए स्वयं सहायता समूह की महिलाओं से बातचीत की और उन के उत्पादों की सराहना की. मेले में 250 से अधिक जीआई टैग उत्पादों के तकरीबन 400 स्टाल थे.

उन्होंने आगे कहा कि सरस मेले में राजीविका दीदियों द्वारा बने शिल्पकला, एंब्रौयडरी, जैविक उत्पाद, घर का साजोसामान एवं खानेपीने से संबंधित चीजों को एक स्थान पर खरीदारी करने का अवसर प्रदान करता है. ये मेले पारंपरिक भारतीय कला एवं संस्कृति को प्रदर्शित करने के लिए एक मंच प्रदान करते हैं.
उन्होंने यह भी कहा कि मेले में विभाग द्वारा पैकेजिंग, ब्रांडिंग, सोशल मीडिया मार्केटिंग और वित्तीय प्रबंधन जैसे विषयों पर कार्यशालाओं का आयोजन भी किया गया, जिस से कि राजीविका महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा उत्पाद बेचने के अवसर उपलब्ध हो सकें.

सरस मेले में नैशनल क्रेडिट कोर यानी एनसीसी के 70 कैडेटों ने भी अवलोकन किया और खरीदारी कर मेले का लुत्फ उठाया. साथ ही, अजमेर एवं अलवर जिले से आई स्वयं सहायता समूह की महिलाओं द्वारा भी मेले का भ्रमण किया गया एवं भविष्य में मेले में अपने उत्पादों के साथ सहभागिता निभाने की मंशा जाहिर की गई.

यह मेला ग्रामीण महिलाओं के आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तीकरण को बढ़ावा देने का एक अहम प्रयास है, जिस में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं के हस्तनिर्मित उत्पादों का प्रदर्शन किया गया. मेले में देशभर के 250 से अधिक भौगोलिक संकेतक (जीआई) टैग वाले उत्पादों और पारंपरिक शिल्प का शानदार संग्रह देखने को मिला.

सरस राज्य सखी राष्ट्रीय मेला एक अद्वितीय मंच है, जहां विभिन्न राज्यों की महिला सदस्य अपने पारंपरिक हस्तशिल्प, हैंडलूम, खाद्य उत्पाद और उन्नत तकनीकी उत्पादों का प्रदर्शन कर रही है. इस आयोजन में क्षेत्रवाद मंडप बनाए गए, जिन में प्रत्येक राज्य की विशिष्ट सांस्कृतिक कलाकृतियां और पारंपरिक उत्पाद प्रदर्शित हुए. यहां पर तकरीबन 300 से अधिक स्वयं सहायता समूहों की महिलाओं ने अपने उत्पादों को बेचा. यह मेला देश की सांस्कृतिक विविधता, पारंपरिक स्वादों और हस्तशिल्प के अनूठे संगम को दर्शाता है.

3 लाख लिटर दूध प्रतिदिन की क्षमता का नया संयंत्र (New Milk Plant) लगेगा

जयपुर : दूध उत्पादक सहकारी संघ गोवर्धन परिसर, उदयपुर में पंजाब के राज्यपाल एवं प्रशासक चंडीगढ़ गुलाबचंद कटारिया के मुख्य आतिथ्य में विशाल ‘किसान सहकार सम्मेलन’ कार्यक्रम आयोजित किया गया.

कार्यक्रम को संबोधित करते हुए संघ के अध्यक्ष डालचंद डांगी ने संघ का संयंत्र अत्यंत पुराना होने के मद्देनजर राज्यपाल पंजाब एवं गोपालन मंत्री जोराराम कुमावत से उदयपुर में 3 लाख लिटर दूध प्रतिदिन की क्षमता का नया संयंत्र स्थापित कराने एवं 150 टन प्रतिदिन की क्षमता का पशु आहार संयंत्र लगाने का अनुरोध करते हुए विस्तृत परियोजना प्रस्ताव प्रस्तुत किया.

कार्यक्रम में पंजाब के राज्यपाल एवं प्रशासक चंडीगढ़ गुलाबचंद कटारिया ने अपने उदबोधन में पशुपालकों की माली हालत को मजबूत करने और कीमत अंतर राशि दूध समितियों के बजाय सीधे दूध उत्पादकों के बैंक खातों में भेजने का सुझाव दिया. साथ ही, बाजार की होड़ के मद्देनजर दूध एवं दूध से बने उत्पादों की गुणवत्ता बनाए रखने पर भी जोर दिया.

पशुपालन, गोपालन एवं देवस्थान मंत्री जोराराम कुमावत ने अपने उद्बोधन में दूध उत्पादकों को दर अंतर दिए जाने पर ख़ुशी जाहिर करते हुए दुग्ध संघ, उदयपुर के अध्यक्ष एवं प्रबंध संचालक के प्रयासों की सराहना की एवं भविष्य में दर अंतर राशि डीबीटी के माध्यम से सीधे दूध उत्पादकों के बैंक खाते मे भेजने का सुझाव दिया.

उन्होंने आगे कहा कि दूध उत्पादकों को दूध पर दी जाने वाली सब्सिडी जारी रखी जाएगी. इस से दूध उत्पादकों की माली हालत और भी मजबूत होगी. उन्होंने सभी से अपना पूरा दूध दुग्ध उत्पादक सहकारी समिति पर ही देने के लिए कहा, ताकि उन को सहकारी डेयरी से मिलने वाली सभी सुविधाओं का लाभ मिल सके.

उन्होंने कहा कि राज्य सरकार द्वारा पशुपालकों के कल्याण के लिए चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं जैसे दुधारू पशु बीमा योजना, गोपालक कार्ड योजना, किसान क्रेडिट कार्ड योजना, पशु मोबाइल चिकित्सा योजना की विस्तृत जानकारी देते हुए इन का लाभ उठाने को कहा. उन्होंने यह भी कहा कि राज्य सरकार दूध में मिलावट करने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही कर रही है.

उदयपुर डेयरी परिसर में स्थित पार्लर को सरस संकुल पार्लर, जयपुर की तर्ज पर विकसित करने पर भी उन्होंने जोर दिया और कहा कि आगामी बजट मे उदयपुर में 3 लाख लिटर का नया संयंत्र एवं 150 टन प्रतिदिन की क्षमता का पशु आहार संयंत्र स्थापित लगाने का प्रयास किया जाएगा.

कार्यक्रम को संबोधित करते हुए जनजाति विकास एवं गृह रक्षा मंत्री बाबूलाल खराड़ी ने आज के समय में ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालन एवं डेयरी व्यवसाय को रोजगार एवं आजीविका का सशक्त माध्यम बताया एवं ज्यादा से ज्यादा किसानों एवं पशुपालकों से सहकारी डेयरी से जुड़ कर आमदनी बढाने का आह्वान किया.

उदयपुर डेयरी के प्रबंध संचालक विपिन शर्मा ने किसान सहकार सम्मेलन कार्यक्रम में पधारे सभी अतिथियों का आभार एवं धन्यवाद ज्ञापित किया.