फरवरी में इन बातों पर दें ध्यान

कभी नरम धूप में खिला तो कभी धुंध की चादर में सिकुड़ा फरवरी का महीना खेतीकिसानी के लिए बहुत अहम है, क्योंकि यह मौसम फसल और पशुओं के लिए नाजुक होता है, इसलिए किसान बरतें कुछ  एहतियात:

* समय पर बोई गेहूं की फसल में इन दिनों फूल आने लगते हैं. इस दौरान फसल को सिंचाई की बहुत जरूरत होती है. झुलसा, गेरूई, करनाल बंट जैसी बीमारी का हमला फसल पर दिखाई दे तो मैंकोजेब दवा के 2 फीसदी घोल का छिड़काव करें.

* गन्ने की बोआई 15 फरवरी के बाद कर सकते हैं. बोआई के लिए अपने इलाके की आबोहवा के मुताबिक गन्ने की किस्मों का चुनाव करें. बोआई में 3 आंख वाले सेहतमंद बीजों का इस्तेमाल करें. बोआई 75 सेंटीमीटर की दूरी पर कूंड़ों में करें. बीज को फफूंदनाशक दवा से उपचारित कर के ही बोएं.

* सूरजमुखी की बोआई 15 फरवरी के बाद कर सकते हैं. उन्नत बीजों को बोआई लाइन में 4-5 सेंटीमीटर गहराई पर बोएं. बीज को कार्बंडाजिम से उपचारित कर के बोएं.

* मैंथा की बोआई करें. बोआई के लिए उन्नतशील किस्में जैसे हाईब्रिड एमएसएस का चुनाव करें. 1 हेक्टेयर खेत के लिए 400-500 किलो मैंथा जड़ों की जरूरत पड़ती है. बोआई के दौरान 30 किलोग्राम नाइट्रोजन,75 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* आलू की फसल पर पछेता झुलसा बीमारी दिखाई दे, तो इंडोफिल दवा के 0.2 फीसदी वाले घोल का अच्छी तरह छिड़काव करें. फसल को कोहरे और पाले से बचाने का भी इंतजाम  करें.

* चना, मटर, मसूर की फसल में फलीछेदक कीट की रोकथाम के लिए कीटनाशी का इस्तेमाल करें. चने की फसल की सिंचाई करें. मटर की चूर्ण फफूंदी बीमारी की रोकथाम के लिए कैराथेन दवा का इस्तेमाल करें.

* टमाटर की गरमियों की फसल की रोपाई करें. रोपाई 60×45 सेंटीमीटर की दूरी पर करें. रोपाई से पहले खेत को अच्छी तरह तैयार कर लें.

* प्याज की रोपाई अभी तक नहीं की गई है, तो फौरन रोपाई करें. पिछले महीने रोपी गई फसल की निराईगुड़ाई करें. जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

* आम की चूर्णिल आसिता बीमारी की रोकथाम के लिए कैराथेन दवा का पेड़ों पर अच्छी तरह छिड़काव करें. भुनगा कीट के लिए सेविन दवा का इस्तेमाल करें.

* नर्सरी में अंगूर की सेहतमंद कलमों की रोपाई करें. अंगूर की श्यामवर्ण बीमारी की रोकथाम के लिए ब्लाइटाक्स 50 दवा का छिड़काव करें.

* इस महीने धूप में चटकपन आ जाता है. धूप देख कर किसान पशुओं की देखरेख में लापरवाही बरतने लगते हैं. ऐसा न करें, पशुओं का ठंड से पूरा बचाव करें. जरा सी लापरवाही नुकसानदायक हो सकती है.

* अपने ऐसे पशु जो कि जल्द ही ब्याने वाले हों, उन्हें दूसरे पशुओं से अलग कर दें और उन पर लगातार निगरानी रखें. गाभिन पशु का कमरा आदामदायक और कीटाणुरहित हो. इस में तूड़ी का सूखा डाल कर रखें.

अगर बरसीम सही मात्रा में उपलब्ध हो तो दाना मिश्रण में 5-7 फीसदी खल को कम कर के अनाज की मात्रा बढ़ा दें. दोहते समय थूक, झाग या दूध न लगाएं.

शीतलहर और पाले से फसलों की हिफाजत

सर्दी के मौसम में फसलों को शीतलहर और पाले से बचाना बहुत जरूरी है. इन के प्रकोप से भी फसलों को नुकसान होता है. टमाटर, आलू, मिर्च बैगन, पपीता, केला, मटर व चना आदि का शीतलहर व पाले से सब से ज्यादा 80 से 90 फीसदी तक नुकसान हो सकता है. इस से अरहर में 70 फीसदी, गन्ने में 50 फीसदी और गेहूं व जौ में 10 से 20 फीसदी तक नुकसान हो सकता है.

पाले की वजह से पौधों की पत्तियां व फूल खराब हो कर झड़ जाते हैं. पाले के असर से अधपके फल सिकुड़ जाते हैं और उन में झुर्रियां पड़ जाती हैं. इस से फलियों व बालियों में दाने नहीं बनते हैं और रहे दाने सिकुड़ कर और पतले हो जाते हैं.

रबी की फसलों में फूल निकलने और बालियां या फलियां आने व उन के विकास के वक्त पाला पड़ने की सब से ज्यादा उम्मीद रहती है. उस वक्त किसानों को सावधानी बरत कर फसलों की हिफाजत के तरीके अपनाने चाहिए.

सर्दी के मौसम में जब बहुत ज्यादा ठंड पड़ने लगती है और हवा रुक जाती है, तब रात में पाला पड़ने का खतरा रहता है. किसान पाला गिरने का अंदाजा मौसम से लगा सकते हैं.

सर्दी के दिनों में जिस रोज दोपहर से पहले ठंडी हवा चलती रहे और फिर दोपहर बाद अचानक बंद हो जाए और असामान साफ रहे, फिर उस दिन आधी रात से ही हवा रुक जाए, तो पाला पड़ने की आशंका ज्यादा रहती है. रात को खासतौर से तीसरे और चौथे पहर में पाला पड़ने का खतरा रहता है.

बचाव के तरीके

* जिस रात पाला पड़ने की आशंका हो उस रात 12 से 2 बजे के आसपास खेत की उत्तरीपश्चिमी दिशा से आने वाली ठंडी हवा की दिशा में खेत के किनारे पर बोई हुई फसल के आसपास मेंड़ों पर कूड़ाकचरा या घासफूस जला कर धुआं करना चाहिए ताकि खेत में धुआं आने से वातावरण में गरमी आ जाए. सुविधा के लिए मेंड़ पर 10 से 20 फुट के अंतर पर कूड़ेकरकट के ढेर लगा कर धुआं करें.

* जब पाला पड़ने की आशंका हो, तब खेत में सिंचाई करनी चाहिए. इस से जमीन में काफी देर तक गरमी रहती है, इस वजह से खेत का तापक्रम एकदम कम नहीं होता है. इस तरह से नमी होने पर शीतलहर व पाले से नुकसान का खतरा कम रहता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक सर्दी में फसल में सिंचाई करने का 0.5 से 2 डिगरी सेंटीग्रेड तक तापमान बढ़ जाता है.

* जिन दिनों पाला पड़ने की आशंका हो उन दिनों फसलों पर गंधक के तेजाब का 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए. इस के लिए 1 लीटर गंधक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोल कर 1 हेक्टेयर क्षेत्र में प्लास्टिक के स्प्रेयर से छिड़कें. ध्यान रखें कि पौधों पर घोल की फुहार अच्छी तरह लगे. छिड़काव का असर 2 हफ्ते तक रहता है. यदि इस के बाद भी शीतलहर व पाले की आशंका बनी रहे, तो 15 दिनों के अंतर से छिड़काव करते रहें.

* सरसों, गेहूं, चना, आलू, मटर जैसी फसलों को पाले से बचाने के लिए गंधक के तेजाब का छिड़काव करने से न केवल पाले से बचाव होता है, बल्कि पौधों में लौह तत्त्व की जैविक और रासायनिक सक्रियता भी बढ़ जाती है, जो पौधों को रोगों से लड़ने की कूवत देती है और फसल को जल्दी पकाने में मददगार होती है.

पपीता (Papaya) लागत कम फायदा ज्यादा

पपीता एक जायकेदार फल होने के साथ ही कई खूबियों से भरपूर होता है. जब किसी को आंखों में कमजोरी या पेट की तकलीफ होती है, तब डाक्टर उसे पपीता खाने की सलाह देते हैं. पपीता हर जगह आसानी से मिलने वाला फल है.

किसानों के लिए पपीते की खेती करना काफी फायदे का सौदा साबित हो सकता है. पपीते की खेती में लागत कम आती है, लेकिन समयसमय पर उस की देखभाल बहुत जरूरी है. पपीते की खेती के लिए किसी खास किस्म की मिट्टी की जरूरत नहीं होती. इस की खेती किसी भी मिट्टी और जलवायु में आसानी से की जा सकती है.

पपीते की खेती के लिए ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती. अगर किसान जरा सी सावधानी से काम लें, तो कम लागत में अच्छी पैदावार कर के काफी मुनाफा कमा सकते हैं.

रोपाई : पौधे लगाने के लिए 1 या 2 मीटर की दूरी पर 50×50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोद लेते हैं. 15-20 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद और 2 किलोग्राम आर्गेनिक खाद का मिश्रण मिट्टी में मिला कर सभी गड्ढों में जरूरत के हिसाब से भर देते हैं.

जिन इलाकों में पाला पड़ता है और सिंचाई के साधन मौजूद हों, वहां पौधे लगाने का काम फरवरीमार्च में करना चाहिए. उत्तर भारत में पौधे लगाने का काम आमतौर पर जुलाईअगस्त में किया जाता है.

वैसे तमाम प्रयोगों से साबित हो गया है कि अक्तूबरनवंबर में पौधे लगाने से विषाणु रोग का खतरा कम हो जाता है.

सिंचाई: पपीता उथली जड़ वाला पौधा है, इसलिए इसे ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है. यह पानी के भराव को सहन नहीं कर सकता. पपीते में कम दिनों पर हलकी सिंचाई करनी चाहिए. गरमी के दिनों में हर हफ्ते और सर्दी के मौसम में 10-15 दिनों पर सिंचाई करना ठीक रहता है. बारिश के मौसम की खेती के लिए सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती.

खरपतवारों से बचाव : पपीते की अच्छी फसल के लिए 20-25 दिनों के अंतराल में खरपतवार निकालते रहना चाहिए. इस से यह फायदा होता है कि पौधों का विकास तेजी से होता है. पेड़ों की कतारों के बीच में गुड़ाई करना जरूरी है. 2 कतारों के बीच पलवार बिछा देने से खरपतवार कम हो जाते हैं और नमी भी बनी रहती है.

कीड़ों और बीमारियों से बचाव

माहूं : पपीते में खासतौर से माहूं का प्रकोप होता है. ये पौधों का रस चूस कर फलों को नुकसान पहुंचाते हैं. इन से फलों को बचाने के लिए किसान नीम के काढ़े या गौमूत्र का छिड़काव कर सकते हैं.

लाल मकड़ी : ये कीड़े पत्तियों से रस चूस कर पौधों को कमजोर करते हैं. ज्यादा प्रकोप होने पर कीड़े फलों से भी रस चूसने लगते हैं. इन की रोकथाम के लिए गौमूत्र या नीम के काढ़े का छिड़काव करना चाहिए.

कालर राट : यह रोग पीथियम एफेनीडरमेटेम नामक कवक से फैलता है. इस के असर से जमीन के पास वाले तने पर धब्बे उभरते हैं और तना सड़ने लगता है. कुछ दिनों बाद पौधा गिर जाता है. इस की रोकथाम के लिए अरंडी की खली और नमी की खाद देना बहुत जरूरी है. इस के अलावा गौमूत्र या नीम के काढ़े का छिड़काव भी करते हैं.

आर्द्रगलन : यह नर्सरी का गंभीर रोग है, जो कई तरह के फफूंदों के आक्रमण की वजह से होता है. इस में पौधे जमीन के पास से सड़ने लगते हैं और गिर जाते हैं.

इस की रोकथाम के लिए केरोसिन तेल, गौमूत्र, नीम के तेल या नीम के काढ़े से बीच उपचारित कर के बोआई करते हैं और नर्सरी की मिट्टी में माइक्रो नीम की खाद और अरंडी की खली मिला कर पौधे तैयार करते हैं.

मौजेक : यह विषाणु से होने वाला रोग है, जो माहूं द्वारा फैलता है. भारत में पपीते की ज्यादातर प्रजातियां इस से प्रभावित होती हैं. इस के असर से पत्तियां चितकबरी हो जाती हैं और डंठल छोटे हो जाते हैं, नतीजतन फल कम लगते हैं. इस की रोकथाम के लिए माहूं की रोकथाम करना जरूरी होता है. माहूं की रोकथाम के लिए नीम के काढ़े या गौमूत्र का 10-15 दिनों में छिड़काव करें. मौसम खराब होने पर तुरंत छिड़काव करना चाहिए.

नीम का काढ़ा : नीम की 25 हरी व ताजी पत्तियां तोड़ें और कुचल कर पीस लें. फिर उन्हें 50 लीटर पानी में पकाएं. जब पानी घट कर 20-25 लीटर रह जाए, तब बरतन उतार कर उसे ठंडा करें और जरूरत के हिसाब से छिड़काव करें.

गौमूत्र : देशी गाय का 10 लीटर मूत्र ले कर पारदर्शी कांच या प्लास्टिक के जार में भर कर 10-15 दिनों तक धूप में रखें और उस के बाद जरूरत के मुताबिक छिड़काव करें.

फलों की तोड़ाई : जब फल पक जाते हैं, तो उन का रंग हरे से पीला हो जाता है. पके फलों को एकएक कर हाथ से तोड़ें. उन्हें जमीन पर न गिरने दें.

पपीता (Papaya)

पैदावार: पपीता के फलों की पैदावार प्रजातियों, जलवायु और रखरखाव पर निर्भर करती है. औसतन 1 पौधे से 15 से 50 किलोग्राम तक फल हासिल होते हैं. 1 हेक्टेयर से 400-500 क्विंटल तक उपज हासिल हो जाती है.

फलों का रखरखव : पपीता के फलों को बांस या प्लास्टिक की टोकरियों में भर कर शीतगृहों में रखा जाता है. पपीता के फल 7-8 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान और 80-90 फीसदी सापेक्ष आर्द्रता पर 3 हफ्ते तक सुरक्षित रखे जा सकते हैं.

पपेन निकलना : पपीते के फलों से हासिल दूध को सुखाने से जो सफेद पाउडर बनता है, उसे पपेन कहते हैं. पपेन का इस्तेमाल पेट की तमाम बीमारियों की दवा के तौर पर किया जाता है. इस का इस्तेमाल बवासीर, टेप वर्म, रिंग वर्म के इलाज में, मांस को मुलायम बनाने में, सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण में और ऊनी, रेशमी व सूती कपड़ों की सिकुड़न ठीक करने में किया जाता है.

जब पपीते का फल बड़ा हो जाता है, तब उस पर स्टील के चाकू से 3 मिलीमीटर गहरा खरोंच बनाया जाता है. खरोंचों से दूध टपकता है, उसे स्टेनलेस स्टील या कांच के बरतन में जमा कर लेते हैं.

इस दूध को 40 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान पर सुखा लिया जाता है. सुखाने से पहले इस में 0.05 पोटेशियम मेटा बायीसल्फाइट परीक्षक के रूप में मिलाते हैं. इसे कम तापमान पर ही सुखाते हैं, क्योंकि ज्यादा तापमान पर सुखाने से इस का पेपसिन एंजाइम खत्म हो जाता है. इसे रासायनिक विधि से शुद्ध किया जाता है.

पपीते की किस्में

वाशिंगटन : यह पश्चिमी भारत की खास किस्म है. इस के तने की गांठें और पत्तियों के डंठल बैगनी रंग के होते हैं. फल अंडाकार होते हैं और उन के गूदे का रंग पीला होता है. फलों का औसत वजन 1.5 से 2.5 किलोग्राम होता है.

कोयंबटूर : इस के पौधे बोने व एक लिंगी होते हैं. इस के फल 60-70 सेंटीमीटर की ऊंचाई से लगने शुरू हो जाते हैं. फलों का आकार गोल और औसत वजन 1.25 किलोग्राम तक होता है.

पूस डिलीशस : यह एक गाइनो डायोसियास किस्म है. इस के फल बहुत अच्छी क्वालिटी के होते हैं. फलों का वजन 1 से 2 किलोग्राम तक होता है.

पूसा मेजीसटी : इस किस्म का पौधा जमीन से 50-55 सेंटीमीटर ऊंचा हो जाने पर फलने लगता है. इस किस्म के एक पौधे से 30 से 40 किलोग्राम तक पैदावार हो जाती है.

पंत पपीता : यह किसम कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर ने विकसित की है. इस में फल जमीन से 50-60 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर लगते हैं. फलों का आकार मध्यम और औसत वजन डेढ़ किलोग्राम तक होता है. इस के फल खाने वालों को काफी पसंद आते हैं.

सूर्या : भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान बेंगलुरु ने इस संकर किस्म को विकसित किया है. इस के फल का औसत वजन 600-700 ग्राम तक हो जाता है. इस के गूदे का रंग लाल होता है. इस किस्म में 60 किलोग्राम प्रति पौधा तक पैदावार हो जाती है.

सरसों के तेल (Mustard Oil) में मिलावट से दूर रहें

दुनियाभर में खाद्य तेलों का इस्तेमाल साल दर साल बढ़ता जा रहा है. भारत में सरसों के तेल का खाद्य तेलों में खास स्थान है. ऐसे में सरसों से तेल निकालने की यूनिट लगा कर आप भी अपना कारोबार शुरू कर सकते हैं.

तेल मिल शुरू करने के लिए जरूरी नहीं है कि आप बड़ी यूनिट ही लगाएं, बल्कि आप छोटी मिनी तेल मिल लगा कर भी काम शुरू कर सकते हैं. यह काम आप अपने घर में भी शुरू कर सकते हैं.

इस के लिए सब से पहले जरूरी है कच्चे माल की जानकारी होना कि कच्चा माल कहां से, कैसे खरीदा जाए. सरसों का तेल निकालने के लिए सब से पहले सरसों की ही जरूरत पड़ती है.

सरसों के 100 किलोग्राम दानों से तकरीबन 30 से 35 किलोग्राम तेल मिलता है. बाकी अवशेष को खली के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जिसे पशुओं को खिलाया जाता है.

सरसों एक मौसमी रबी फसल है, जो साल में केवल एक बार ही पैदा होती है, इसलिए अगर आप के पास जगह मौजूद है, तो कोशिश करें कि सीजन के दौरान ही ज्यादा से ज्यादा सरसों खरीद कर रख लें,क्योंकि सीजन के दौरान सरसों की कीमत कम होती है, वरना आप को बाद में दूसरे शहर या राज्य से भी सरसों खरीदनी पड़ सकती है, जिस से उस के लाने और ले जाने का खर्च बढ़ेगा और बेमौसम खरीदने पर माल महंगा भी मिलेगा.

सरसों का भंडारण एकदम सूखी जगह पर करें. वहां नमी न हो वरना सरसों खराब हो सकती है. खुद का कारोबार शुरू करने के लिए सरकार की अनेक योजनाएं हैं, जिन के तहत आप को लघु उद्योग इकाई लगाने के लिए लोन भी मिल सकता है. भारत सरकार की मुद्रा योजना के तहत भी लोन के लिए आवेदन किया जा सकता है, जिस से 10 लाख रुपए तक का लोन मिल सकता है. इसलिए अपनी जरूरत के मुताबिक आप सरसों तेल एक्सपेलर खरीद कर अपनी तेल इकाई लगा कर कारोबार शुरू कर सकते हैं.

इसी सिलसिले में एक कृषि मेले में ‘फार्म एन फूड’ के इस प्रतिनिधि की बात मुकेश गोयल से हुई, जिन्होंने मुकेश गिनिंग मिल के नाम से मंडी आदमपुर, हिसार, हरियाणा में अपनी तेल निकालने की इकाई लगा रखी है. पीला घोड़ा के नाम से वे सरसों के तेल का उत्पादन कर रहे हैं. पेश हैं, उन से हुई बातचीत के खास अंश:

आप इस कारोबार से कब जुड़े और इस काम की शुरुआत कैसे की?

इस काम की शुरुआत साल 2007 में मेरे पिता और मैं ने मिल कर की थी. इस से पहले हम कपास के क्षेत्र में काम करते थे. हम ने उस समय कौटन मिल लगा रखी थी, लेकिन खास मुनाफा न होने के कारण हम ने उस काम को बंद कर के सरसों का तेल निकालने का काम शुरू किया. इस काम की शुरुआत करने के लिए उस समय तकरीबन 30 से 35 लाख रुपए खर्च हुए थे. कुछ खेती की जमीन भी हमारे पास थी, जिस का फायदा हमें मिला.

बेहतर तरीके से काम शुरू करने के लिए कम से कम कितने एक्सपेलर लगाने पड़ते हैं?

1 एक्सपेलर का खर्च तकरीबन साढ़े 4 लाख रुपए आता है और 4 एक्सपेलर लगा कर इस काम की शुरुआत कर सकते हैं.

इस काम को करने के लिए कितने लोगों की जरूरत होती है?

ज्यादा लोगों की तो नहीं, हां 2-3 लोग इस काम के लिए जरूरी होते हैं, जो रोजाना तकरीबन 12 घंटे काम करते हैं.

आज हर तरफ खाद्य तेलों में मिलावट का जोर है. इस बारे में आप क्या कहेंगे?

जी हां, आज के समय में मिलावट बड़ी समस्या है. शुद्ध उत्पाद होगा तो जाहिर है कि कीमत भी ज्यादा होगी. आज हमें 100 दुकानदारों में से 10 दुकानदार ही ऐसे मिलते हैं जो कहते हैं कि हमें शुद्ध माल चाहिए वरना ज्यादातर लोगों को तो सस्ता माल ही चाहिए भले ही वह मिलावटी हो. लेकिन हमें बाजार में अपनी साख बनाए रखने के लिए अपने उत्पाद की गुणवत्ता का खास खयाल रखना होगा, तभी आप सफल उद्योगपति साबित हो सकते हैं.

सरसों के 2 तरह के तेल आ रहे हैं, एक कच्ची घानी का दूसरा एक्सपेलर का. कौन सा तेल सेहत के लिए सही है?

खाने में इस्तेमाल करने के लिए कच्ची घानी का तेल बेहतर होता है. इस के लिए हम ने भी अपनी यूनिट में बदलाव किया है. एक्सपेलर की जगह अब कोल्हू लगाए गए हैं, क्योंकि अब लोगों की डिमांड कच्ची धानी का तेल है.

कच्ची घानी और पक्की घानी का क्या मतलब है?

देखिए, कच्ची घानी में तेल कोल्हू के जरीए निकाला जाता है, जो हमारा पुराना तरीका था, जिस ने अब आधुनिक कोल्हू का रूप ले लिया है. हां, कोल्हू के जरीए तेल धीरेधीरे निकलता है. पक्की घानी तरीके यानी एक्सपेलर से तेल जल्दी निकलता है. इस तरीके में तेल गरम हो जाता है. कोल्हू से तेल धीरेधीरे निकलता है, इसलिए वह ठंडा रहता है और एक्सपेलर वाले तरीके से निकाले गए तेल से ज्यादा अच्छा होता है.

सरसों के तेल (Mustard Oil)

आधुनिक कोल्हू के बारे में कुछ जानकारी दें?

जैसे पुराने समय में लकड़ी का कोल्हू होता था, तरीका अब भी वही है. हां अब थोड़ा आधुनिक हो गया है. कोल्हू वैसा ही होता है. लकड़ी को पहले बैलों द्वारा चलाया जाता था अब बैलों की जगह बिजली की मोटर से कोल्हू चलाए जाते हैं.

एक खास बात और कि कोल्हू में एक बार में सिर्फ 22 किलोग्राम सरसों ही डाली जाती है, जिस का तेल निकालने में 1  घंटे का समय लगता है. हां, तेल की वैराइटी बढि़या होती है.

यह तेल पौष्टिक होता है और हार्ट के लिए अच्छा माना जाता है. इसी को देखते हुए हम ने अपनी यूनिट में 48 कोल्हू लगवा रखे हैं, ताकि उत्पादन समय से और अच्छा मिल सके. एक्सपेलर में एक बार में 5 क्विंटल सरसों का इस्तेमाल किया जा सकता है.

क्या दोनों तरीकों से निकाले गए तेल की कीमत में भी फर्क होता है?

हां, कुछ कंपनियां इस का फायदा उठाती हैं. वे 15 रुपए प्रति किलोग्राम तक की दर से तेल की कीमत में फर्क कर देती हैं. हम अपने उत्पादों में करीब 5 रुपए प्रति किलोग्राम का ही फर्क रखते हैं.

आप 1 दिन में कितने तेल का उत्पादन करते हैं?

हम 1 दिन में तकरीबन 4 टन तेल का उत्पादन कर लेतेहैं.

आप किसानों को बताएं कि वे सरसों की कौन सी वैराइटी खरीदें, जिस से उन्हें अच्छी आमदनी हो सके?

आजकल हाइब्रिड सरसों चल रही है, उस में तेल की मात्रा ज्यादा होती है. मुनाफे की नजर से यह ठीक भी है. वैसे हम जब भी सरसों खरीदते हैं, तो उस का वजन देख कर ही खरीदते हैं. सरसों में अगर भारीपन होगा तो जाहिर है कि तेल की मात्रा भी ज्यादा ही होगी.

आप सरसों कहां से लेते हैं? सीधे किसानों से लेते हैं या कृषि मंडी से लेते हैं?

हम सरकार द्वारा तय की गई कीमत पर ही मंडी से सरसों खरीदते हैं. यह पूरे साल मंडी में मौजूद होती है, क्योंकि किसान समयसमय पर मंडी में आ कर अपने अनाज और सरसों बेचते ही हैं.

आज बाजार में कंपीटिशन का दौर है. आप इस में खुद को कहां खड़ा पाते हैं?

देखिए, मैं किसी से कंपीटिशन नहीं करता. मेरा ध्यान केवल अपने उत्पाद की शुद्धता पर है. आज बाजार में 20 फीसदी माल ही शुद्ध मिल रहा है. 80 फीसदी मिलावटी माल बाजार में है. मैं अपनेआप को 20 फीसदी वाली कैटेगरी में रखना चाहता हूं.

बाजार में सरसों का तेल कब ज्यादा शुद्ध मिलता है, फसल सीजन के समय या बिना सीजन के?

देखिए, सीजन के समय तेल की गुणवत्ता में फर्क होता है. उस समय सरसों ताजी आई होती है, उस में नमी होती है इसलिए तेल में कच्चापन और हरापन होता है. सीजन निकलने के कुछ महीने बाद सरसों की नमी खत्म हो जाती है, इस से सरसों के तेल की गुणवत्ता भी अच्छी होती है. इसलिए घरेलू इस्तेमाल के लिए अगर इकट्ठा तेल खरीदना हो, तो सरसों की फसल का सीजन निकलने के कुछ समय बाद ही खरीदें,क्योंकि उस समय तक सरसों अच्छी तरह सूख जातीहै, जिस से में शुद्ध व पौष्टिक तेल निकलता है.

आप अपने प्रचार के लिए भी कोई जरीया अपनाते हैं?

इस में मुझे मंडी का काफी सहयोग रहता है. मैं मंडी से हमेशा अच्छा माल खरीदता हूं, जिस से आसपास के लोग मुझे जानतेहैं और हमारे उत्पाद पर भरोसा करते हैं.

कोई इस काम की शुरुआत छोटे स्तर से करना चाहे तो उस के लिए आप कुछ बताना चाहेंगे? कितनी रकम से यह काम शुरू किया जा सकता है? कहां से मशीनें खरीदें?

छोटी मशीनें लगा कर 3 से 4 लाख रुपए से इस काम की शुरुआत की जा सकती है. जैसेजैसे मांग बढ़ती जाए मशीनें बढ़ा दें. मशीनें पंजाब के लुधियान से खरीदी जा सकती हैं. मशीन बनाने वाली कंपनियां मशीन के बारे में जानकारी देने के अलावा उस से जुड़े कारीगरों की भी जानकारी देती हैं.

अगर आप भी खुद का रोजगार शुरू करना चाहते हैं या इस संबंध में अन्य जानकारी लेना चाहते हैं, तो मुकेश गोयल से उन के मोबाइल नंबर 09354966007 पर बात कर सकते हैं.

कैसे करें मिलावटी तेल की पहचान

*             सरसों का तेल यदि फ्रिज में रखने पर जमने लगे तो समझो कि उस में मिलावट है.

*             सरसों के तेल को हाथ पर रगड़ कर देखें. अगर वह हाथों पर रंग छोड़ने लगे तो मिलावट है, क्योंकि तेल में रंग और खुशबू के लिए रसायन मिलाए जाते हैं.

*             1 चम्मच सरसों के तेल में 5 मिलीलीटर नाइट्रिक एसिड डाल कर हिलाएं. अगर तेल रंग बदलता है, तो उस में सत्यानाशी के तेल की मिलावट हो सकती है.

*             सरसों के तेल में मिलावट करने के लिए काफी आयल, अरंडी का तेल, सत्यानाशी का तेल, पाम आयल और सोयाबीन का तेल वगैरह के अलावा अनेक तरह के रसायन इस्तेमाल किए जाते हैं.

कपास (Cotton) में नवाचार से कमाया नाम

राजस्थान के जोधुपर जिले के भोपालगढ़ क्षेत्र में पालड़ी राणावता गांव के प्रगतिशील किसान ओम गिरि के पास परिवार की 100 बीघे जमीन है, जिस में से 40 बीघे में उन्होंने कपास की खेती में नवाचारों से ज्यादा पैदावार कर के फायदा उठाया है.

ओम गिरी जैव तकनीक यानी बायोटैक्नोलौजी से विकसित राशि 134, अंकुर, कृषि धन, सरपास 700 फीसदी माहिको वगैरह कपास की बीटी किस्मों का इस्तेमाल करते हैं, जिस से कपास की फसल पर लट कीट का असर नहीं होता है. वे बीजों का बोआई से पहले उपचार करते हैं. वे पड़ोसी किसानों की मदद भी करते हैं. वे गोबर की खाद को सड़ा कर इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने खेत में कंपोस्ट के गड्ढे बना कर रखे हैं. कंपोस्ट के इस्तेमाल से दीमक भी नहीं लगती और जमीन की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती है.

वे कपास की बोआई के लिए जमीन की जांच के आधार पर उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं. वे खड़ी फसल में रस चूसक कीटों की रोकथाम ईटीएल के आधार पर करते हैं. इस के तहत वे पहला छिड़काव इमिडाक्लोप्रिड 17.8 (1 मिलीलीटर प्रति 3 लीटर पानी), दूसरा छिड़काव एसीफेट (1 ग्राम प्रति लीटर पानी) व तीसरा छिड़काव नीम आधारित दवा (एजाडिरेक्टीन) का करते हैं, जिस से रस चूसक कीट सफेदमक्खी, हरा तेला और थ्रिप्स की रोकथाम हो जाती है. फसल के लिए संतुलित उर्वरक एनपीके 18:18:18 के 1 फीसदी घोल का छिड़काव करते हैं. फूल गिरने की समस्या को रोकने के लिए प्लानोफिक्स 4 मिलीलीटर प्रति 15 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करते हैं. इस से फसल के सूखने की शिकायत नहीं रहती.

कपास (Cotton)

अच्छी क्वालिटी की खेती के लिए जरूरी है कि कपास की चुनाई 50 फीसदी डोडे खिलने पर शुरू करें. पूरी तरह खिले डोडे से ही चुनाई करें. चुनाई सुबह ओस सूखने के बाद शुरू करें. चुनाई करते वक्त सिर को कपड़े से ढक लें ताकि कपास में बाल न मिलें. चुनाई करते समय कपास में पत्तियां न मिलने दें. चुनाई नीचे के डोडे से शुरू करें. कपास की चुनाई प्लास्टिक के थैले की बजाय सूती कपड़े में करें. चुनी कपास में पानी न मिलाएं. जमीन पर गिरी कपास को अच्छी तरह चुनें. चुनाई करते वक्त बीड़ीसिगरेट न पीएं व खानापीना न खाएं. चुनी कपास को सूती कपड़े या तिरपाल पर ढक कर रखें. भंडारित कपास को आग व पानी से बचाएं. अंतिम चुनाई की कपास अलग से इकट्ठा करें.

गुणवत्ता वाली साफ कपास का बाजार में 100 से 200 रुपए प्रति क्विंटल ज्यादा मिलता है.

कपास में नवाचारों से ओम गिरी ने कपास का उत्पादन 7 क्विंटल प्रति बीघा यानी तकरीबन 44 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल किया है, जो रिकार्ड उत्पादन है. जोधपुर जिले में सब से ज्यादा यानी 44 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से कपास का उत्पादन लेने के कारण भारतीय वस्त्र उद्योग परिसंघ, कपास विकास और अनुसंधान संगठन ने हाल ही में विजयनगर में ओम गिरी को नकद राशि और प्रशस्तिपत्र दे कर सम्मानित किया है.

कपास (Cotton)

इस तरह ओम गिरी ने कपास में नवाचार जैव तकनीक से उन्नत किस्म का कपास हासिल कर के ज्यादा मुनाफा कमाया है और दूसरे किसानों को भी इस की जानकारी दी है.

बालूशाही (Balushahi) स्वादिष्ठ और खस्ता

जब भी मिठाई की बात होती है तब खोया और चीनी का स्वाद जबान पर आने लगता है. बालूशाही ऐसी मिठाई है जिस का स्वाद बिना खोया के भी दिनोंदिन याद रहता है.

बालूशाही जैसी खस्ता और स्वादिष्ठ मिठाई बहुत कम होती है. बालूशाही की एक खासीयत और है कि इस को बिना किसी दूसरी चीज की मदद के लंबे समय तक खराब होने से बचाया जा सकता है. मैदा, घी और चीनी से बनी होने के चलते इस की कीमत भी कम होती है.

आम लोगों से ले कर खास लोगों तक को बालूशाही बहुत पसंद आती है. गांव और कसबों में शादीब्याह और दूसरे खास मौकों पर लोग बालूशाही जरूर बनवाते हैं. इस को लेनेदेने में भी बहुत इस्तेमाल किया जाता है. गांव में शादीब्याह के मौके पर आने वाले मेहमानों की तादाद ज्यादा होती है. कम खर्च में सब को मिठाई खिलाने के लिए बालूशाही जैसी सस्ती मिठाई काम आती है.

भारत के अलावा पाकिस्तान और दूसरे अरब देशों में भी बालूशाही बहुत चलन में है.

बालूशाही को बनाना आसान होता है. इस को कोई भी कारीगर बना सकता है. इसलिए बालूशाही सभी जगह मिल जाती है. कई दिन तक खराब न होने के चलते सफर में जाने वाले लोग इस को साथ ले कर जाते हैं. बालूशाही का स्वाद ही ऐसा होता है जो खाने वालों को अपना दीवाना बना देता है. कुछ बड़ी मिठाई की दुकानें देशी घी वाली बालूशाही बनाती हैं.

अच्छी बालूशाही वह होती है जो ठंडी होने के बाद भी खाने में स्वादिष्ठ और खस्ता लगे. बालूशाही के अंदर खाने पर कड़ापन नहीं लगना चाहिए. खाते समय ऐसा लगे कि अभी की बनी है तभी सही बालूशाही मानी जा सकती है.

ऐसी बालूशाही बनाने के लिए जरूरी है कि मैदा, बेकिंग पाउडर, दही और घी को सही तरह से मिलाया जाए. इस के मिलाने और फिर बालूशाही को घी में तलते सावधान रहने की जरूरत होती है.

अगर इस में कहीं कोई परेशानी हुई तो बालूशाही खस्ता नहीं बनेगी और उस के खाने में स्वाद भी नहीं आएगा.

बालूशाही बनाने की विधि

सब से पहले मैदा में बेकिंग पाउडर, दही और घी डाल कर मिलाया जाता है. कुनकुने पानी की मदद से इस को नरमनरम आटे की तरह गूंध लिया जाता है. आटा ज्यादा मलने की जरूरत नहीं होती है. सैट होने के लिए तैयार आटा को रख दें. 20-25 मिनट में यह सैट हो जाता है.

बालूशाही बनाने के पहले आटा एक बार फिर गूंध लें. इस आटे से नीबू के आकार की लोई बना लें. इसे अपने दोनों हाथों की मदद से गोलगोल तैयार कर लें. इस के बाद पेडे़ की तरह इस को दाब कर बीच में गड्ढा सा बना दें. सारे आटे की इसी तरह बालूशाही बना लें. इन को सूती कपड़े से ढक कर एक जगह रख लें.

बालूशाही को तलने के लिए कड़ाही में जरूरत के हिसाब से तेल डाल कर गरम करें. जब तेल अच्छी तरह गरम हो जाए तो बालूशाही को कड़ाही में डालें. धीमी और मीडियम आंच पर बालूशाही को ब्राउन होने तक तल लें. जब बालूशाही सही तरह से पक जाए तो उसे छलनी की मदद से थाली या प्लेट में निकाल लें.

अब 600 ग्राम चीनी में 300 मिलीलिटर पानी मिला कर गरम करते हुए एक तार की चाशनी बना लें. हलकी गरम इस चाशनी में बालूशाही डाल दें. 5-7 मिनट तक बालूशाही को चाशनी में पड़ा रहने दें. चिमटे की मदद से एकएक बालूशाही को बाहर निकाल कर प्लेट में ठंडा होने के लिए रख दें. कुछ समय बाद बालूशाही पर पड़ी चाशनी की परत ठंडी हो कर सूख जाएगी. बालूशाही को सजाने के लिए कतरे हुए बादाम, खरबूजे के बीज और चांदी के वर्क का इस्तेमाल किया जाता है. इस को 2 से 5 दिनों तक रखा जा सकता है.

बालूशाही बनाने की सामग्री

500 ग्राम मैदा से बालूशाही बनाने के लिए उस में 150 ग्राम घी मिलाने की जरूरत होती है. आधा चम्मच बेकिंग सोडा, आधा कप दही, 600 ग्राम चीनी के अलावा बालूशाही को तलने के लिए जरूरत के मुताबिक घी चाहिए होता है.

काला टमाटर (Black Tomato) बाजार में मचाएगा धूम

यदि कोई आप से पूछे कि क्या आप ने काले रंग का टमाटर खाया है तो यह सुन कर आप सोचेंगे कि यह कैसा भद्दा मजाक है. आप खाने की बात कर रहे हैं और हम ने तो अभी तक इस रंग का टमाटर देखा भी नहीं है. काला टमाटर खाने में लाल टमाटर की तरह जायकेदार होने के साथ ही कई तरह की बीमारियों को भी दूर करता है. इस टमाटर की खासीयत यह है कि इस को शुगर और दिल के मरीज भी बिना हिचक खा सकते हैं.

आने वाले दिनों में बाजार में काला टमाटर आम हो जाएगा, जैसे अभी तक लाल टमाटर है. काला टमाटर अभी तक देश में पैदा नहीं होता था, लेकिन कुछ लोग विदेश से इस के बीज मंगवा कर टमाटर की खेती प्रायोगिक तौर पर कर रहे हैं, जिस के नतीजे काफी अच्छे हैं. काला टमाटर खरीदारों को खूब लुभा रहा है, जिस के चलते लोग इसे कफी पसंद कर रहे हैं. अब इस के बीज भारत में भी मौजूद हैं. अंगरेजी में इसे इंडिगो रोज टोमेटो कहा जाता है.

इस टमाटर की खासीयत यह है कि यह टमाटर के फल के रूप में शुरू होता है, लेकिन धीरेधीरे यह काले रंग में बदल जाता है.

सब से पहले इंडिगो रोज रेड और बैगनी टमाटर के बीजों को आपस में मिला कर एक नया बीज तैयार किया गया, जिस से ये हाईब्रिड टमाटर पैदा हुआ. यूरोपीय मार्केट में इसे सुपरफूड कहा जाता है. इस के बीज औनलाइन भी मौजूद हैं और भारत में बागबानी के शौकीनों ने इस काले टमाटर को अपने घर की बगिया में जगह दी है.

हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में एकदो बीज विक्रेताओं के पास काले टमाटर के बीज मिल रहे हैं. इन्होंने काले टमाटर के बीज आस्टे्रलिया से मंगवाए हैं. इस की खेती करने के लिए किसानों को अलग से कोई मेहनत नहीं करनी पड़ेगी, क्योंकि इस की खेती भी लाल टमाटर की तरह ही होती है.

बीज विक्रेताओं ने बताया कि अभी तक भारत में काले टमाटर की खेती नहीं होती थी, लेकिन अब इस की खेती की जाएगी.

ऐसा पहली बार हुआ है जब कोई टमाटर स्किन के लिए अच्छा माना जा रहा है. एक वैज्ञानिक अध्ययन में पाया गया है कि यह कई बीमारियों से लड़ने में भी कारगर है.

इस टमाटर की फसल तैयार होने में लाल टमाटर से ज्यादा समय लगता है. इस की बोआई जनवरी में की जाती है. इस के लिए किसी तरह की खास मिट्टी या मौसम की जरूरत नहीं होती. जिस तरह के लाल टमाटर की खेती किसान करते हैं, ठीक वैसे ही इस की भी खेती कर सकते हैं.

इस को पकने में 4 महीने का समय लगता है, जबकि लाल टमाटर 3 महीने में ही पक कर तैयार हो जाता है. काले टमाटर की खेती में किसानों को एक महीने का समय ज्यादा लगेगा, लेकिन मुनाफा परंपरागत टमाटर से ज्यादा होगा.

लाल मूली (Red Radish) की अच्छी खेती कैसे करें

लाल मूली सब्जी बाजार की बड़ी दुकानों और बड़ेबड़े होटलों पर ज्यादा परोसी जाती है. इस का इस्तेमाल सलाद, परांठे और कच्ची सब्जी के रूप में ज्यादा किया जाता है. इस में गोलाकार और लंबे आकार की 2 किस्में होती हैं.

इस सब्जी को ज्यादातर कच्चा ही खाया जाता है. इस में तीखापन नहीं होता और यह स्वादिष्ठ होती है. इस में पोषक तत्त्वों की भरपूर मात्रा होती है. भोजन के साथ खाने से यह जल्दी पच जाती है व खून साफ करती है. छिलके के साथ इस का इस्तेमाल करना चाहिए.

सही जमीन व वातावरण : सफेद मूली की तरह ही लाल मूली भी हलकी बलुई दोमट मिट्टी में पैदा होती है. इसे हमेशा मेंड़ों पर ही लगाना चाहिए. लेकिन इस के लिए मिट्टी में भरपूर जीवांश पदार्थ मौजूद होने जरूरी हैं. इस के लिए जमीन का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए.

लाल मूली की खेती के लिए ठंडी जलवायु की जरूरत होती है, क्योंकि यह भी शरद ऋतु की फसल है. 30 से 32 डिगरी सैल्सियस तापमान इस की खेती के लिए जरूरी है. लेकिन 20 से 25 डिगरी सैल्सियस तापमान पर इस की अच्छी पैदावार होती है.

खेत की तैयारी : अच्छी फसल के लिए 4 से 5 जुताई जरूरी हैं. जड़ वाली फसल होने की वजह से इसे भुरभुरी मिट्टी की जरूरत पड़ती है. इसलिए इस की 1 से 2 जुताई मिट्टी पलटने वाले हल देशी हल से करें या फिर ट्रैक्टर ट्रिलर से करनी चाहिए. खेत को ढेलारहित और सूखी घासरहित होना जरूरी है.

ढेले न रहें, इस के लए हर जुताई के बाद पाटा चलाना जरूरी है. मिट्टी बारीक रहने से इस की जड़ें ज्यादा तेजी से बढ़ती हैं.

अच्छी किस्में : लाल मूली की 2 किस्में होती हैं. यह लंबी और गोल होती है. आमतौर पर इन्हीं किस्मों को ज्यादा उगाया जाता है. साथ ही, इन से ज्यादा उपज मिलती है.

* रैपिड रैड वाइट ट्रिटड (लंबी जड़ वाली)

* स्कारलेट ग्लोब (गोल जड़ वाली)

खाद और उर्वरक : सड़ी गोबर की खाद 8-10 टन प्रति हेक्टेयर और नाइट्रोजन 80 किलोग्राम, फास्फोरस 60 किलोग्राम और पोटाश 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए. फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई से पहले खेत में देनी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी आधी मात्रा बोआई के 15 से 20 दिन बाद देनी चाहिए.

बीज की मात्रा : लाल मूली के बीज की बोआई लाइन में करने पर 8-10 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है लेकिन छिड़काव विधि से बोने पर 12 से 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत होती है.

बोआई का समय और तरीका : बोआई का सही समय मध्य सितंबर से अक्तूबर तक है, क्योंकि अगेती फसल की ज्यादा मांग होती है.

बोआई का तरीका लाइनों में मेंड़ बना कर करें तो ज्यादा अच्छा है. 10 से 12 सैंटीमीटर की दूरी पर बीज को 2 से 3 मिलीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए ताकि बीज पूरी तरह से अंकुरित हो सकें. गहरा बीज कम अंकुरित होता है. मेंड़ से मेंड़ की दूरी 45 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 8 से 12 सैंटीमीटर रखनी चाहिए.

सिंचाई: जब बीज अंकुरित हो कर 10 से 12 दिन हो जाएं, तब पहली सिंचाई करनी चाहिए. उस के बाद दूसरी सिंचाई के 10 से 12 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए. इस तरह 8 से 10 सिंचाई काफी होती हैं. खेत में पानी कम देना चाहिए जिस से मेंड़ें डूब न पाएं.

निराईगुड़ाई: मूली की फसल में निराईगुड़ाई की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है, क्योंकि 40 दिन में इस की फसल पूरी तरह से तैयार हो जाती है. जंगली घास या पौधों को हाथ से उखाड़ देना चाहिए. इस तरह जरूरत पड़ने पर जंगली घास निकालने के लिए 1-2 निराईगुड़ाई की जरूरत पड़ती है.

मिट्टी चढ़ाना : मूली बोने के लिए ऊंची मेंड़ें बनाना जरूरी हैं, क्योंकि यह जड़ वाली फसल है. ऐसा करने से इस की अच्छी उपज मिलती है.

मूली उखाड़ना : तैयार मूली को खेत से निकालते रहना चाहिए. इस तरह मूली की जड़ों को साफ कर के पत्तियों सहित मूली को बाजार या सब्जी की दुकानों पर बेचने के लिए भेजते हैं ताकि जड़ व पत्तियां मुरझा न पाएं और ताजी बनी रहें.

उपज : अच्छी देखभाल होने पर 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिल जाती है. जड़ों को ज्यादा दिन तक न रखें क्योंकि ये जल्दी खराब हो जाती हैं. समयसमय पर खुदाई भी करते रहना चाहिए.

बीमारियां और कीट रोकथाम : ज्यादातर पत्तियों पर धब्बे लगने वाली बीमारी लगती है. इस की रोकथाम के लिए फफूंदीनाशक दवा बाविस्टिन से बीज उपचारित कर के बोएं और 0.2 फीसदी के घोल का छिड़काव करें.

लाल मूली में ज्यादातर ऐफिड्स और सूंड़ी का असर होता है. उन कीटों की रोकथाम के लिए रोगोर, मेलाथियान का 1 फीसदी का घोल बना कर छिड़कें.

रेन गन से सिंचाई

हमारे यहां खेतीकिसानी करना कोई आसान काम नहीं है. इस के लिए दिनरात खेतों में मेहनत करनी पड़ती है. कैसा भी मौसम हो, किसान के कामों में रुकावट नहीं आ सकती, क्योंकि हर मौसम में खेतों में खाद, पानी, कीटनाशक और खरपतवारों की निराईगुड़ाई करनी पड़ती है.

सर्दियों में कड़ाके की ठंड में दिन हो या रात, किसान सिंचाई के लिए खेतों में जाते हैं. कभीकभी तो किसानों की सर्दी लगने से मौत भी हो जाती है,क्योंकि सिंचाई करने के लिए उन्हें खेतों में घुसना पड़ता है और वे ठंड की चपेट में आ जाते हैं.

रेन गन तरीके से सिंचाई करने में कम पानी लगता है और किसानों की मेहनत कम लगती है. साथ ही, उन की आमदनी में भी इजाफा होता है.

नई तकनीक के जमाने में किसानों की राह आसान करते हुए माहिरों ने रेन गन ईजाद की है. इस से किसानों को यह फायदा होगा कि वे खेतों में घुसे बिना बाहर से ही रेन गन के जरीए सिंचाई कर देंगे, जबकि अभी तक उन को अपनी जान जोखिम में डाल कर सिंचाई करनी पड़ती थी.

एक फायदा और होगा कि खेतों में बहुत ज्यादा पानी भरने की जरूरत नहीं होगी, बल्कि कम पानी में ही खेतों की सिंचाई हो जाएगी.

नई तकनीक से किसानों को खेतों में सिंचाई करना पहले के मुकाबले में अब आसान हो गया है. उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले में फसलों की सिंचाई के लिए किसानों ने रेन गन का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है.

सरकार किसानों की माली हालत देखते हुए इस में सब्सिडी भी दे रही है. जिले के कई किसानों को इस का फायदा दिया जा चुका है. संबंधित महकमे का टारगेट ज्यादा से ज्यादा किसानों तक इस तकनीक को पहुंचाना है, ताकि सुविधा के साथ ही पानी की भी बचत की जा सके.

देश के किसानों की समस्या यह है कि उन्हें जो भी स्कीम सरकार की तरफ से मिलती है, उस का ज्यादातर फायदा बड़े किसान ही उठाते हैं. छोटे किसानों को सरकार को दिखाने के लिए नाममात्र का फायदा दिया जाता है.

किसानों को रेन गन प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के तहत दी जा रही है. इस स्कीम में किसानों को 3 इंच मोटे 20 फुट के 25 पाइप, 5 फुट का स्टैंड और रेन गन दी जाती है. इस की लागत 46,880 रुपए है.

किसानों को सब्सिडी में महज 11 हजार रुपए ही दिए जा रहे हैं. किसानों को यह फायदा डीबीटी योजना के तहत मिलता है.

rain gun irrigation

कृषि माहिरों का कहना है कि रेन गन से 25-30 मीटर तक सिंचाई की जा सकती है. यह चारों तरफ सिंचाई करती है. यदि किसान सिर्फ एक तरफ ही सिंचाई करना चाहें तो एक तरफ ही रेन गन लगाई जा सकती है.

उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में पानी का जमीनी लैवल काफी नीचे जा चुका है और कलक्ट्रेट ने ऐसे इलाकों में सबमर्सिबल बोर करवाने में रोक लगा रखी है.

इस फैसले से किसानों को नुकसान उठाना पड़ा था, लेकिन इस नए तरीके से उन के नुकसान की भरपाई की जा सकती है.

मक्का और गन्ने के लिए ज्यादा फायदेमंद : रेन गन मक्का और गन्ने की फसल के लिए काफी अच्छी है. इस का इस्तेमाल शुरुआती दौर में बागबानी में भी किया जा सकता है, खासकर पौधे जब छोटे हों.

5 फुट के पाइप को बीच में लगा कर चारों ओर बारिश कराई जा सकती है. इस तरीके से तकरीबन 1 एकड़ क्षेत्रफल में फायदा होगा.

मक्का और गन्ने की फसल के लिए रेन गन काफी कारगर साबित हो रही है. वजह यह है कि मक्का हो या गन्ना, इस के पौधे काफी बड़े और ऊंचे होते हैं. इस वजह से खेतों के अंदर जा कर सिंचाई करने में काफी परेशानी होती है. लेकिन इस के इस्तेमाल से बाहर से ही बड़े क्षेत्रफल में पानी की बारिश की जा सकती है.

सर्दियों के मौसम में आलू की फसल में हलकी सिंचाई की जरूरत पड़ती है. अभी तक किसानों की मुश्किल यह थी कि सिंचाई के नाम पर खेतों में खूब पानी भर दिया जाता था. इस से पानी की खपत भी ज्यादा होती थी और किसानों का खर्च भी ज्यादा होता था. आलू के खेतों में रेन गन से बारिश कराई जा सकती है और जो नमी बचती है, उसी में जुताई भी की जा सकती है. इस से पानी की तकरीबन 60 फीसदी बचत होती है और किसानों का खर्च भी कम होता है.

कुछ फसलें खेत में ज्यादा पानी भरने से खराब हो जाती हैं और पौधे कभीकभी सड़ भी जाते हैं, लेकिन रेन गन जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल की जा सकती है. इस में कम पानी की जरूरत होती है और फसल भी खराब नहीं होती.

इस नई तकनीक से किसानों को काफी फायदा हो सकता है. इसे एक किसान खरीद कर दूसरे किसान को किराए पर भी दे कर अपनी लागत निकाल सकता है. साथ ही, दूसरे किसान भी कम किराया अदा कर ज्यादा फायदा कमा सकते हैं.

मूंग की खेती (Moong Cultivation) जायद में भी

मूंग से कई तरह के मजेदार पकवान अकसर सभी घरों में बनते हैं. इन में मूंग का हलवा सब से खास है. मूंग की दाल से दही बड़ा, लड्डू, खिचड़ी, नमकीन, कचौड़ी, पकौड़े, सलाद, चाट, खीर, सूप और सैंडविच वगैरह बनाए जाते हैं. मूंग सेहत के लिए काफी फायदेमंद है, क्योंकि खाने के बाद यह जल्दी हजम हो जाती है. मूंग की खेती किसानों के लिए काफी लाभदायक है.

मूंग की खेती खासकर भारत में की जाती है. मूंग को अकसर छिलके या बिना छिलके के साथ अंकुरित या उबाल कर खाया जाता है. मूंग का इस्तेमाल सलाद, सूप, सब्जी और दूसरे स्वादिष्ठ पकवान बनाने के लिए किया जाता है.

मूंग से मिले स्टार्च को निकाल कर इस से जैली और नूडल्स बनाए जाते हैं. इन तमाम खूबियों की वजह से मूंग सभी को काफी पसंद आती है.

दलहनी फसलों में मूंग दूसरी दालों से ज्यादा उपयोगी है. यदि पेट में दर्द या दस्त हो रहे हों तो डाक्टर मरीज को मूंग की खिचड़ी खाने की सलाह देता है. इस में प्रोटीन भरपूर पाया जाता है, जोकि सेहत के लिए काफी खास है.

मूंग में 25 फीसदी प्रोटीन, 60 फीसदी कार्बोहाइड्रेट, 13 फीसदी वसा और कुछ मात्रा में विटामिन ‘सी’ पाया जाता है. मूंग की खासीयत यह है कि इस में वसा काफी कम है, लेकिन विटामिन ‘बी’ कौंप्लैक्स, कैल्शियम और पोटैशियम भरपूर होता है.

वातावरण और जमीन

मूंग की खेती खरीफ और जायद दोनों ही मौसमों में आसानी से की जा सकती है. इस की फसल को पकते समय शुष्क जलवायु की जरूरत पड़ती है.

मूंग की खेती के लिए अच्छी जलनिकासी की व्यवस्था होना काफी जरूरी है, साथ ही दोमट और बलुई दोमट जमीन इस की पैदावार के लिए काफी अच्छी मानी जाती है, जिस का पीएच मान 7-8 हो.

जिन खेतों में दीमक का अंदेशा हो, उन की सुरक्षा के लिए एल्ड्रिन 5 फीसदी चूर्ण 8 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से आखिरी जुताई से पहले खेत में बिखेर दें और उस के बाद जुताई कर उसे मिट्टी में मिला दें. मूंग की फसल में सिंचाई की जरूरत कम पड़ती है, लेकिन जायद की फसल में ज्यादा सिंचाई की जरूरत पड़ती है.

खेत की पहली जुताई हैरो या मिट्टी पलटने वाले रिजर हल से करनी चाहिए. इस के बाद 2 से 3 जुताई कल्टीवेटर से कर के खेत की मिट्टी को अच्छी तरह भुरभुरा बना लें. जब आखिरी जुताई करनी हो तब लेवलर लगाना काफी जरूरी होता है, ताकि खेत में नमी ज्यादा समय तक बरकरार रह सके.

पहले किसान परंपरागत तरीके से खेतों की जुताई करते थे, लेकिन अब आधुनिक तकनीक आने से ट्रैक्टर, पावर टिलर और रोटावेटर जैसे यंत्रों से खेतों की तैयारी काफी जल्द हो जाती है.

बीज की मात्रा और बीजोपचार : खरीफ के मौसम में मूंग का बीज जायद की फसल के मुकाबले काफी कम लगता है. इस मौसम में 6 से 8 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज की जरूरत पड़ती है जबकि जायद की फसल में बीज की मात्रा 10-12 किलोग्राम प्रति एकड़ होनी चाहिए. 1 ग्राम कार्बंडाजिम, 2 से 3 ग्राम थायरम, फफूंदनाशक दवा से प्रति किलोग्राम बीज में मिला कर बोआई करने से बीज और जमीन की बीमारियों से फसल की सुरक्षा होती है. इस के बाद बीज को रायजोबियम कल्चर से उपचारित करें,

5 ग्राम रायजोबियम कल्चर प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें और बीज को छाया में सुखा कर जल्दी बोआई करनी चाहिए. इस के उपचार से राइजोबियम की गांठें ज्यादा बनती हैं और अच्छी फसल होती है.

बोने का समय और तरीका

खरीफ और जायद दोनों फसलों में अलगअलग बोआई की जाती है. खरीफ के मौसम में जुलाई के आखिरी हफ्ते से अगस्त के तीसरे हफ्ते तक बोआई करनी चाहिए. कूंड़ से कूंड़ की दूरी 30 से 35 सैंटीमीटर रखनी चाहिए और जायद में 10 मार्च से 10 अप्रैल तक बोआई करनी चाहिए. कूंड़ से कूंड़ की दूरी 25 से 30 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज की बोआई कूंड़ में 4 से 5 सैंटीमीटर की गहराई में करनी चाहिए, ताकि गरमी में जमाव अच्छा हो सके. जायद में या गरमी की फसल में बोआई के बाद लेवलर से खेत बराबर करना काफी जरूरी है, जिस से कि खेत की नमी न रहे.

खाद डालने का तरीका

किसानों की मुख्य समस्या यह है कि वह बिना मिट्टी जांच के अपने खेतों में ज्यादा पैदावार के लिए काफी ज्यादा उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं, जिस से उन की लागत बढ़ जाती है और खेतों की पैदावार आने वाले साल में घटने लगती है.

अनुमान के मुताबिक, 10 से 15 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर में इस्तेमाल करना चाहिए.

यदि किसान फसल की पैदावार ज्यादा लेना चाहते हैं तो इन्हें बोआई के समय कूंड़ों में बीज से 2 से 3 सैंटीमीटर नीचे देना चाहिए, जिस से अच्छी पैदावार हो.

मूंग की खेती (Moong Cultivation)

मूंग की प्रजातियां

मूंग में खासतौर पर 2 तरह की उन्नतशील प्रजातियां पाई जाती हैं. खरीफ की फसल में बोआई के लिए टाइप 44, पंत मूंग 1, पंत मूंग 2, पंत मूंग 3, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय ज्योति, मालवीय जनचेतना, मालवीय जनप्रिया, सम्राट, मालवीय जाग्रति, मेहा, आशा और मालवीय जनकल्याणी ये सभी किस्में खरीफ की फसल के लिए हैं.

इसी तरह जायद की फसल के लिए पंत मूंग 2, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय जाग्रति, सम्राट मूंग, जनप्रिया, मेहा, मालवीय ज्योति प्रजातियां काफी लाभकारी हैं.

कुछ प्रजातियां ऐसी हैं जो खरीफ और जायद दोनों में बोई जाती हैं और उन की पैदावार भी अच्छी होती है, जैसे कि पंत मूंग 2, नरेंद्र मूंग 1, मालवीय ज्योति, सम्राट, मेहा, मालवीय जाग्रति.

किसानों को इस बात का खासा ध्यान रखना चाहिए कि मूंग की खेती करते समय वह अपने राज्यों के हिसाब से मूंग की प्रजाति का चुनाव करें, जिस से ज्यादा उत्पादन हो सके.

सिंचाई : खरीफ की फसल में सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन जब फूल आ जाएं और सूखने लगें, ऐसी हालत में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोतरी होती है. खरीफ की फसल में बारिश कम होने पर फलियां बनते समय सिंचाई की जरूरत पड़ती है और जायद की फसल में पहली सिंचाई बोआई के 30 से 35 दिन बाद और बाद में हर 10 से 15 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए, जिस से अच्छी पैदावार मिल सके.

निराईगुड़ाई : पहली सिंचाई के 30 से 35 दिन बाद निराईगुड़ाई करनी चाहिए. इस से खरपतवार नष्ट होने के साथसाथ हवा भी बहती है, जिस से फसल की बढ़ोतरी तेजी से होती है.

खरपतवार की रोकथाम के लिए किसान पेंडीमेथिलीन 30 ईसी की 3.3 लिटर या एलाकोलोर 50 ईसी 3 लिटर को 600 से 700 लिटर पानी में घोल कर बोआई 2 से 3 दिन के भीतर जमाव से पहले प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. ऐसा करने से खेतों में खरपतवार का जमाव नहीं होता.

पौध का रखरखाव : हर फसल में कोई न कोई बीमारी जरूर लगती है, चाहे खरीफ की फसल हो या फिर रबी और जायद की. कीटों के प्रकोप से बचने के लिए किसान समयसमय पर कई तरह की कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल करते हैं, जिस से फसल की सुरक्षा की जा सके.

मूंग में पीला चित्रवर्ण मोजैक रोग लगता है. इस के विषाणु सफेद मक्खी के जरीए फैलते हैं. इस की रोकथाम के लिए समय पर बोआई करना काफी जरूरी है, दूसरा मोजेक अवरोधी प्रजातियों का इस्तेमाल बोआई में करना चाहिए. तीसरा, मोजेक रोग वाले पौधे को सावधानी से उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

मूंग की फसल में थ्रिप्स हरे फुदके वाला कीट और फलीछेदक कीट लगता है. इन से बचने के लिए किसानों को क्विनालफास 25 ईसी 1.25 लिटर मात्रा 600 से 800 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए, जिस से कीटों का असर न हो और फसल बरबाद न हो.

फसल की शुरुआती अवस्था में तनामक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफेद मक्खी, माहू, जैसिड, थ्रिप्स आदि का हमला होता है. इन की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी 400 से 500 मिलीलिटर क्विनालफास 25 ईसी 600 मिलीलिटर प्रति एकड़ या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी, 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें. यदि दोबारा जरूरत पड़े तो 15 दिन बाद फिर छिड़काव करें.

जब पौधों में फूल लगने लगते हैं तो फलीछेदक, नीली तितली का ज्यादा असर होता है. क्विनालफास 25 ईसी का 600 मिलीलिटर या मिथाइल डिमेटान 25 ईसी का 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ के हिसाब से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करने से इन की रोकथाम हो सकती है.

कई क्षेत्रों में कंबल कीड़े का ज्यादा असर होता है. इस की रोकथाम के लिए पेराथियान चूर्ण 2 फीसदी, 10 किलोग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

फसल की कटाईमड़ाई : जब फसल की फलियां पक कर सही तरीके से सूख जाएं, तब खेतों से फसल की कटाई करनी चाहिए. मूंग की फलियां पकने पर काली पड़ने लगती हैं. यदि थोड़ीबहुत नमी रहे तो फसल को खेतों में एकदो दिन के लिए छोड़ दें, ताकि सही तरह से सूख जाए. कटाई करने के बाद खलिहान में अच्छी तरह सुखा कर ही मड़ाई करें. इस के बाद ओसाई कर के बीज और भूसा अलगअलग कर लेना चाहिए.

उपज : यदि मूंग की फसल आधुनिक तकनीक से की जाए और सही वक्त पर फसल की सिंचाई और कीटनाशक दवा का छिड़काव किया जाए तो पैदावार ज्यादा होती है.

चूंकि मूंग की फसल साल में 2 मौसम में की जाती है, तो दोनों की पैदावार में भी थोड़ाबहुत फर्क रहता है. खरीफ की फसल में 4-5 क्विंटल प्रति एकड़ तक पैदावार होती है और जायद की फसल में तकरीबन 4 क्विंटल प्रति एकड़ तक की पैदावार हो जाती है.

भंडारण : किसी भी फसल का भंडारण करने से पहले कुछ सावधानियां बरतनी जरूरी हैं, तभी ज्यादा समय तक बीज सुरक्षित रहेगा, वरना उस में कीड़े पड़ जाते हैं. बीज भंडारण से पहले सही तरीके से सुखा लेना चाहिए. बीज में 8 से 10 फीसदी से ज्यादा नमी नहीं रहनी चाहिए.

मूंग के भंडारण में सूखी नीम की पत्ती का इस्तेमाल करने से कीड़ों से बचाव किया जा सकता है. कुछ किसान कीड़ों से अनाज बचाने के लिए सल्फास का इस्तेमाल करते हैं जो काफी नुकसानदायक है.

सल्फास काफी जहरीला होता है, इस के इस्तेमाल से सेहत पर बुरा असर पड़ता है. इसलिए किसानों को चाहिए कि वह अनाज की सुरक्षा के लिए परंपरागत तरीके अपनाएं, इस में सब से ज्यादा लाभदायक नीम की पत्तियां होती हैं, जिन से सालभर बीज सुरक्षित रहता है और सेहत के लिए किसी तरह का नुकसान भी नहीं होता.