22 से 24 फरवरी तक लगेगा पूसा संस्थान, नई दिल्ली में कृषि मेला

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा आयोजित किया जाने वाला पूसा कृषि विज्ञान मेला इस वर्ष फरवरी 22-24, 2025 के दौरान संस्थान के मेला ग्राउंड में आयोजित किया जा रहा है. इस मेले का मुख्य विषय “उन्नत कृषि – विकसित भारत” है. इस में विभिन्न कृषि कंपनियां, सरकारी व गैरसरकारी संस्थान, उद्यमी और प्रगतिशील किसान अपना स्टाल लगाएंगे. इस मेले में हर साल देश के विभिन्न भागों से 1 लाख से अधिक किसान, उद्यमी, राज्यों के अधिकारी, छात्र एवं अन्य उपयोक्ता भाग लेते हैं.

इस मेले के प्रमुख आकर्षणों में फसलों का जीवंत प्रदर्शन, फूलों और सब्जियों की संरक्षित खेती, गमलों में खेती, ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) खेती, मिट्टी एवं पानी की मुफ्त जांच, कट फ्लावर, विदेशी सब्जियों एवं उन्नत किस्म के फलों की प्रदर्शनी और विभिन्न भागीदारों द्वारा उच्च उपजशील बीजों/पौधों, कृषि प्रकाशनों की बिक्री और वैज्ञानिकों व किसानों की परस्पर चर्चा शामिल हैं.

इस अवसर पर किसानों को नवोन्मेषी एवं अध्येता सम्मान से सम्मानित किया जाएगा, जिस के लिए उन से आवेदन मांगे गए हैं. किसान अधिक से अधिक संख्या में इस सम्मान के लिए अपना आवेदन अतिशीघ्र भेजें. संबंधित विवरण पूसा संस्थान की वैबसाइट पर उपलब्ध है :

https://iari.res.in/en/krishi-vigyan-mela-2025.php.

कुलपति डा. कर्नाटक नई दिल्ली में मानद फैलो 2024 पुरस्कार से सम्मानित

नई दिल्ली : भारतीय कीट विज्ञान सोसाइटी ने 7 जनवरी, 2025 को नई दिल्ली में कीट विज्ञान में स्थापना दिवस समारोह और फ्रंटियर्स इन एंटोमोलौजी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक को मानद फैलो 2024 पुरस्कार से सम्मानित किया.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक को पुरस्कार प्रदान करते हुए सोसाइटी के अध्यक्ष डा. वीवी राममूर्ति ने कीट विज्ञान शिक्षण, अनुसंधान व प्रसार में उन के आजीवन योगदान की सराहना की.

उल्लेखनीय है कि डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने 40 साल तक कृषि एवं कीट विज्ञान क्षेत्र में अपनी उत्कृष्ट सेवाएं दी हैं. इन्हें मधुमक्खीपालन, चावलगेहूं और गन्ना पारिस्थितिकी तंत्र के कीट प्रबंधन और मृदा जैव प्रबंधन में विशेषज्ञता प्राप्त है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने तराई क्षेत्र में मधुमक्खी की एपिस मेलिफेरा प्रजाति स्थापित की और इस के पालन के लिए प्रबंधन पद्धतियां विकसित कीं, जिस से शहद, मोम और दूसरे शहद उत्पादों के उत्पादन से किसानों की आय में वृद्धि हुई है और परपरागण वाली फसलों की उत्पादकता में भी वृद्धि हुई है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने उत्तराखंड सरकार के कृषि पोर्टल का मधुमक्खीपालन भाग विकसित किया. डा. कर्नाटक को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री द्वारा साल 2021 का सर्वश्रेष्ठ कुलपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

पिछले कुछ सालों में डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त किए हैं, जिन में सोसाइटी फौर कम्युनिटी मोबिलाइजेशन फौर सस्टेनेबल डवलपमेंट, नई दिल्ली द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड, प्लांटिका एसोसिएशन औफ प्लांट साइंस रिसर्चर्स, देहरादून द्वारा डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन शिक्षाविद सम्मान और सतत कृषि व संबद्ध विज्ञान के लिए वैश्विक अनुसंधान पहल पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान कीट विज्ञान अनुसंधान में उन के योगदान के लिए चौधरी हंसा सिंह पुरस्कार शामिल हैं.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली और राजस्थान के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के कार्यान्वयन के लिए कई महत्वपूर्ण समितियों में नामित भी किया गया है.

स्वास्थ्यवर्धक है चुकंदर

व्यस्तता के चलते आजकल लोग अपनी सेहत का ध्यान नहीं रख पाते, जिस से आएदिन शरीर की इम्यूनिटी कमजोर होने से वे कई बीमारियों के शिकार हो जाते हैं. लंबी आयु के लिए जरूरी है कि अपने खानपीन में फल व हरी सब्जियों के साथ चुकंदर भी शामिल किया जाए. जब खानपान पर सही ध्यान दिया जाएगा तो निश्चित रूप से शरीर की इम्यूनिटी अच्छी होगी और आएदिन होने वाली तकलीफों से बचा जा सकेगा.

चुकंदर खाने से शरीर कई बीमारियों से लड़ने में सक्षम हो जाता है. यह महिलाओं में होने वाली एनीमिया की बीमारी को दूर करने का सब से सही साधन है. इस के गुणों को देखते हुए भारत में इस की व्यापक खेती की जा रही है. यह कैंसर, हाईब्लड प्रेशर के साथ ही अल्जाइमर  की बीमारी को भी दूर करने में कारगर है. चुकंदर स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी खास है. इस में मौजूद तत्त्व जहां शरीर को ऊर्जावान बनाते हैं, वहीं विभिन्न रोगों से लड़ने की कूवत भी विकसित करते हैं. चुकंदर का नियमित सेवन स्वास्थ्य के लिए काफी लाभप्रद है. खासतौर से बढ़ती उम्र के बच्चों और महिलाओं के लिए यह सब से उत्तम आहार है.

चुकंदर सलाद के रूप में नियमित खाने से शरीर कई बीमारियों से लड़ने में सक्ष्म हो जाता है. गर्भवती महिलाओं को तो इस का सेवन जरूर करना चाहिए. गर्भावस्था के दौरान आमतौर पर खून की कमी हो जाती है, जिसे एनीमिया कहा जाता है. जो महिलाएं नियमित रूप से चुकंदर का सेवन करती हैं. उन्हें खून की कमी नहीं होती. कई बार बच्चे भी खून की कमी की वजह से बीमार रहने लगते हैं. ऐसे बच्चों को चुकंदर का जूस पिलाना लाभकारी रहता है. चुकंदर एक तरह की जड़ है. आमतौर पर यह लाल रंग का होता है. कुछ जगहों पर सफेद रंग का चुकंदर भी पाया जाता है. इस के पत्तों को शाक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

किसानों को चुकंदर का अच्छा दाम मिलता है. इस में मौजूद गुणों के कारण इसे अब मौसमी सब्जी के रूप में भी इस्तेमाल किया जाने लगा है. चुकंदर में सही मात्रा में लौह, विटामिन और खनिज होते हैं जो रक्तवर्धन और रक्तशोधन के काम में सहायक होते हैं. इस में मौजूद एंटीऔक्सीडेंट तत्त्व शरीर को रोगों से लड़ने की कूवत देते हैं. इस में सोडियम, पोटेशियम, फास्फोरस, क्लोरीन, आयोडीन और अन्य खास विटामिन पाए जाते हैं.

चुकंदर में गुर्दे और पित्ताशय को साफ करने के प्राकृतिक गुण पाए जाते हैं. इस में मौजूद पोटेशियम जहां शरीर को प्रतिदिन पोषण प्रदान करने में मदद करता है तो वहीं क्लोरीन गुर्दों के शोधन में सहायता करता है. यह पाचन संबंधी समस्याओं में भी लाभकारी है. चुकंदर का रस हाइपरटेंशन और हृदय संबंधी समस्याओं को दूर रखता है. महिलाओं के लिए तो यह काफी गुणकारी है. चुकंदर में बेटेन नामक तत्त्व पाया जाता है, जिस की आंत व पेट को साफ रखने के लिए हमारे शरीर को जरूरत रहती है, चुकंदर में मौजूद यह तत्त्व उस की आपूर्ति करता है.

काफी पहले यूरोप में कैंसर के इलाज के लिए चुकंदर का काफी इस्तेमाल किया जाता था. चुकंदर और इस के पत्ते फोलेट का अच्छा जरीया हैं, जो उच्च रक्तचाप और अल्जाइमर की परेशानी को दूर करने में मदद करते हैं.

कैसे खाएं : चुकंदर कई तरीके से खाया जाता है. आमतौर पर इसे कच्चे सलाद के रूप में खाया जाता है. मूली, गाजर, प्याज, टमाटर आदि की तरह ही चुकंदर को भी सलाद में शामिल करें.

इस के अलावा इसे दक्षिण भारत में उबाल कर खाने का भी प्रचलन है. हालांकि उबालने से इस के कुछ तत्त्व खत्म हो जाते हैं. इसलिए इसे कच्चा खाना ही सब से लाभप्रद है. बुजुर्गों और बच्चों को चुकंदर का जूस देना चाहिए. इस के अलावा देश में चुकंदर की सब्जी बना कर खाने का भी चलन है.

Beetroot

चुकंदर के औषधीय गुण

एनीमिया दूर करे चुकंदर : एनीमिया रोग के लिए चुकंदर रामबाण माना जाता है. चुकंदर में उचित मात्रा में आयरन, विटामिंन और मिनिरल्स होते हैं, जो रक्त बढ़ाने और उस के शोधन का काम करते हैं. यही कारण है कि महिलाओं को इस के नियमित सेवन की सलाह दी जाती है.

गुर्दों के लिए लाभकारी : चुकंदर में गुर्दे को स्वस्थ और साफ रखने के गुण मौजूद हैं. किडनी रोगियों को चुकंदर का रस देना लाभकारी है. इस में मौजूद क्लोरीन लीवर और किडनी को साफ रखने में मदद करता है.

पित्ताशय के लिए गुणकारी : शोध में पाया गया है कि यह किडनी के साथ ही पित्ताशय के लिए भी कारगर है. इस में मौजूद पोटेशियम शरीर को रोजाना पोषण देने में मदद करता है, वहीं क्लोरीन लीवर और किडनी को साफ करने में मदद करता है.

पाचन में सहायक : बच्चों और युवाओं को चुकंदर चबाचबा कर खाना चाहिए. इस से दांत और मसूढे़ मजबूत होते हैं. यह पाचन संबंधी समस्याओं को दूर करने में भी लाभकारी है. इस का नियमित सेवन करने से अपाच्य की समस्या खत्म हो जाती है. बढ़ती उम्र के बच्चों को चुकंदर जरूर खिलाना चाहिए, इस से उन का शारीरिक सौष्ठव बेहतर होता है और बच्चों के चेहरे पर चमक दिखती है.

उल्टीदस्त : यदि उल्टीदस्त की शिकायत हो तो चुकंदर के रस में चुटकीभर नमक मिलाना फायदेमंद रहता है. इस से पेट में बनने वाली गैस खत्म हो जाती है. उल्टी बंद होने के साथ ही दस्त भी बंद हो जाते हैं.

पीलिया में लाभकारी : चुकंदर पीलिया के रोगियों के लिए भी फायदेमंद है. पीलिया के रोगियों को चुकंदर का रस दिन में 4 बार देना चाहिए. ध्यान रखें कि एक बार 1 कप से ज्यादा जूस न दें.

हाइपरटेंशन : चुकंदर का जूस हाइपरटेंशन और हृदय संबंधी समस्याओं को दूर करता है. इस के नियमित सेवन से चिड़चिड़ापन दूर हो जाता है. खास कर यह महिलाओं के लिए काफी लाभकारी है.

मासिक धर्म में लाभकारी : मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को कमर व पेडू दर्द और अन्य शारीरिक दुर्बलताओं जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. चुकंदर के नियमित इस्तेमाल से मासिक धर्म के दौरान होने ली तकलीफ नहीं होती है.

माहवारी, फोड़े, जलन और मुहासों के लिए भी यह काफी उपयोगी है. खसरा और बुखार में भी त्वचा साफ करने में इस का इस्तेमाल किया जा सकता है.

बालों की रूसी भगाए : चुकंदर के काढ़े में थोड़ा सा सिरका मिला कर सिर में लगाएं या सिर पर चुकंदर के पानी में अदरक के टुकउ़ों को भिगो कर रात में मसाज करें. सुबह बालों को धो लें.

चुकंदर खाएं ब्लडप्रेशर भगाएं : ब्लडप्रेशर के रोगियों को चुकंदर जरूर खिलाएं. चुकंदर और इस के पत्ते फोलेट का एक अच्छा जरीया है, जो उच्च रक्तचाप और अल्जाइमर की समस्या को दूर करने में मदद करते हैं. रोज चुकंदर में गाजर और सेब मिला कर उस का जूस पीने से हाईब्लड प्रेशर में कमी आती है. एक अध्ययन के मुताबिक रोजाना 2 कप चुकंदर का जूस पीने से ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहता है.

हालांकि इस का ज्यादा सेवन नहीं करना चाहिए. इस के ज्यादा सेवन करने से चक्कर आना या वोकल कार्ड पैरालिसिस का खतरा बढ़ जाता है.

चुकंदर की सब्जी भी लाभदायक : चुकंदर स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद सब्जी है. इस में कार्बोहाइड्रेट और कम मात्रा में प्रोटीन और वसा पाई जाती है. यह प्राकृतिक शुगर का सब से अच्छा स्रोत है. इस में सोडियम, पोटेशियम, फास्फोरस, कैल्शियम, सल्फर, क्लोरीन, आयोडीन, आयरन, विटामिन ‘बी1’, ‘बी2’ और ‘सी’ पाया जाता है. इस में कैलोरी काफी कम होती हैं.

पशुओं के स्वास्थ्य में भी कारगर : चुकंदर इतना गुणकारी है कि यह इंसान के साथसाथ पशुओं के लिए भी कारगर है. यही कारण है कि हरियाणा, पंजाब, गुजरात और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे सीजनल पशु आहार के रूप में खिलाया जाता है. विशेष रूप से दुधारू पशुओं को खिलाने से उन का स्वास्थ्य ठीक रहता है और दूध में भी इजाफा होता है.

इस में मौजूद तत्त्व पशुओं में होने वाले विभिन्न रोगों से उन का बचाव करते हैं. इसे खिलाने से पशुओं में आमतौर पर होने वाली बांझपन की समस्या खत्म हो जाती है.

दुधारू पशु 3 से 4 बार ब्याने के बाद कमजोर हो जाते हैं और कुछ में बांझपन के लक्षण भी आ जाते हैं, लेकिन जिन पशुपालकों ने नियमित रूप से उन के चारे में चुकंदर को शामिल किया है, उन्हें इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है.

स्टीविया की वैज्ञानिक खेती

स्टीविया को मीठी तुलसी, चीनी व मधुपत्र आदि नामों से भी जाना जाता है. स्टीविया लेमिएसी कुल का बहुवर्षीय, झाड़ीनुमा, शाकीय पौधा है.

भारत में अभी यह नया पौधा है. मौजूदा समय में इस की खेती खासकर कर्नाटक और महाराष्ट्र में ही होती है. औषधीय गुणों की वजह से इस के क्षेत्रफल और पैदावार में बढ़ोतरी की जरूरत है. स्टीविया एक छोटा पौधा है, जिस की लंबाई 60-70 सेंटीमीटर तक होती है. इस के फल छोटे, सफेद और कई आकार में लगते हैं.

स्टीविया का पौधा चीनी से तकरीबन 25-30 गुना ज्यादा मीठा होता है. इस की पत्तियों में मिठास के कई तत्त्व पाए जाते हैं, जिन में स्टीवियोसाइड, रीबाऊदिस, रीबाऊदिस साइड सी और डाल्कोसाइड खास हैं. इन के अलावा इस की पत्तियों में 6 अन्य तत्त्व भी पाए जाते हैं, जिन में इंसुलिन को संतुलित करने के खास गुण मौजूद होते हैं. स्टीविया की पत्तियों से निकाले जाने वाले स्टीवियोसाइड में चीनी से 250 गुना ज्यादा और सुक्रोज से 300 गुना ज्यादा मिठास पाई जाती है.

स्टीविया कैलोरी रहित होने के कारण मधुमेह रोगियों के लिए एक महत्त्वपूर्ण मीठा पदार्थ है. स्टीविया का सब से ज्यादा उपयोगी घटक स्टीवियोसाइड है.

स्टीविया की पत्तियों में स्टीवियोसाइड की मात्रा 3 से 20 फीसदी तक हो सकती है. स्टीविया की 9 फीसदी या इस से ज्यादा मात्रा वाली स्टीवियोसाइड प्रजातियों को अच्छा माना जाता है.

भारत में ज्यादातर लोग बिना मीठे के भोजन नहीं करते, इसलिए यहां स्टीविया के लिए बड़ा बाजार बन सकता है. चायकौफी में इस्तेमाल करने के साथसाथ इसे कई तरह की मिठाइयों और चाकलेट्स में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. स्टीविया मधुमेह के रोगियों के लिए काफी लाभदायक है.

खेती की तकनीक

जलवायु : स्टीविया का पौधा 11 से 41 डिगरी सेल्सियस तापमान पर ज्यादा बढ़ता है. 131-140 सेंटीमीटर सालाना बारिश वाले इलाकों में यह आसानी से उगाया जा सकता है.

जमीन : स्टीविया का पौधा ज्यादा पानी वाली मिट्टी में नहीं उगता है. इस के लिए सही जल निकास वाली रेतीली जमीन जिस का पीएच मान 6.5-7.5 हो, काफी अच्छी रहती है.

जमीन की तैयारी : स्टीविया बहुवर्षीय पौधा होने से 1 बार लगाने के बाद 4-5 सालों तक खेत में रहता है, इसलिए मिट्टी को अच्छी तरह तैयार करना चाहिए. खेत को 1 बार मिट्टी पलट हल से गहरा जोतने के बाद 4-6 जुताई हैरो और कल्टीवेटर या देशी हल से करनी चाहिए. आखिरी जुताई से पहले 20 टन गोबर की खाद, 6 से 8 टन कंपोस्ट खाद या 2-2.5 टन वर्मी कंपोस्ट डाल कर जुताई करनी चाहिए और हर जुताई के बाद पाटा लगा देना चाहिए ताकि खेत में ढेले न बनें और मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी हो जाए.

बोआई का तरीका और समय : इस की पौध बीज और कलम दोनों तरह से तैयार की जाती है. बीजों का अंकुरण कम होने से इसे ज्यादातर कलम से ही लगाया जाता है. इस की रोपाई मेंड़ों पर की जाती है. रोपाई के लिए तकरीबन 6 से 8 इंच ऊंची मेंडें़ बनाई जाती हैं. इन मेंड़ों पर पौधे से पौधे के बीच की दूरी 20 सेंटीमीटर रख कर कलमों की रोपाई की जाती है. रोपाई के तुरंत बाद हलकी सिंचाई करनी चाहिए.

इस की रोपाई का सब से अच्छा समय सितंबरनवंबर और फरवरीअप्रैल है. 15 सेंटीमीटर लंबी तने की कटिंग्स को 100 पीपीएम पैक्लान बूटेजाल से उपचारित कर के फरवरी में रोपाई करने से जड़ें ज्यादा और जल्दी निकलती हैं.

खाद और उर्वरक : स्टीविया की फसल को 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश की प्रति हेक्टेयर जरूरत पड़ती है. फसल के इन जरूरी तत्त्वों की पूर्ति केवल कार्बनिक खादों से ही करनी चाहिए. स्टीविया में किसी भी तरह के रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. बोरोन और मोलिब्डेनम का खड़ी फसल पर छिड़काव करने से पत्तियों में स्टीवियोसाइड की संख्या में बढ़ोतरी होती है.

सिंचाई : स्टीविया को सालभर पानी की जरूरत होती है. गरमी में 6 से 8 दिनों और सर्दियों में 12 से 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए. यदि मुमकिन हो तो स्टीविया की सिंचाई के लिए टपक सिंचाई विधि का ही इस्तेमाल करना चाहिए.

stevia

प्रजातियां : स्टीविया का मूल्य उस में पाए जाने वाले स्टीवियोसाइड की मात्रा पर निर्भर करता है. इसलिए स्टीविया की खेती के लिए ऐसी किस्में जिन में स्टीवियोसाइड की ज्यादा मात्रा पाई जाती है, को ही चुना जाना चाहिए. मौजूदा समय में स्टीविया की 3 किस्में ज्यादा प्रचलित हैं.

बीआरआई 28 : स्टीविया की यह किस्म खेती के लिए काफी सही मानी जाती है, क्योंकि इस में 21 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं. यह प्रजाति जितनी अच्छी भारत के दक्षिणी इलाकों के लिए है, उतनी ही उत्तरी इलाकों के लिए भी है. यह किस्म बायोवेद संस्थान, इलाहाबाद ने विकसित की है.

बीआरआई 123 : स्टीविया की यह किस्म भारत के दक्षिणी पठारी इलाकों के लिए अच्छी है. इस में 9.12 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं. यह किस्म साल में 5 कटाई देती है.

बीआरआई 512 : इस प्रजाति की साल में 4 बार कटाई होती है. यह किस्म उत्तर भारत के लिए ज्यादा सही है. इस में 9 से 12 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं.

खरपतवारों की रोकथाम : स्टीविया की फसल से हमेशा खरपतवारों को दूर रखना चाहिए. इस के लिए फसल की खुरपी आदि से निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए. स्टीविया के पौधों के बीच से खरपतवार हाथ से ही हटा देना चाहिए.

स्टीविया की फसल में किसी भी तरह के रासायनिक खरपतवारनाशी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

फसल सुरक्षा : ज्यादातर स्टीविया की फसल पर किसी तरह के रोग और कीट नहीं लगते, लेकिन कभीकभी जमीन में बोरोन की कमी की वजह से पत्ती धब्बा जैसी बीमारी हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए 6 फीसदी बोरेक्स का छिड़काव करना चाहिए.

स्टीविया को जमीन में पाए जाने वाले कीड़ों व दीमक वगैरह से बचाने के लिए 15-20 किलोग्राम बायोनीमा जैविक खाद का इस्तेमाल मिट्टी में करना चाहिए और गौमूत्र का भी समयसमय पर छिड़काव कर सकते हैं.

फूल तोड़ना : स्टीविया की पत्तियों में सब से ज्यादा स्टीवियोसाइड्स मौजूद होते हैं. इसलिए पत्तियों की ज्यादा बढ़त के लिए पौधों से फूलों को हटा देना चाहिए, क्योंकि फूल आने के बाद पौधे की वानस्पतिक बढ़त रुक जाती है. पौध रोपने के 30, 45, 60, 75 व 85 दिनों बाद और कटाई के समय फूल तोड़ देने चाहिए. पेड़ी फसल में पहली कटाई के 40 दिनों बाद फूल आने लगते हैं, लिहाजा 40 दिनों बाद कटाई के समय फूलों को तोड़ देना चाहिए.

कटाई : रोपाई के तकरीबन 110-120 दिनों बाद फसल कटाई लायक हो जाती है. फसल की कटाई फूल तोड़ने के बाद और दोबारा फूल आने से पहले कर लेनी चाहिए. फिर 3 से 4 कटाई 90-90 दिनों के बीच कर लेनी चाहिए.

उपज : बहुवर्षीय फसल होने से स्टीविया की उपज में हर कटाई के बाद लगातार बढ़त होती है. स्टीविया की सालभर में 4 कटाई में 10-12 टन प्रति हेक्टेयर सूखी पत्तियां हासिल हो जाती हैं.

फसल से ज्यादा उत्पादन के मूलमंत्र

आमतौर पर खेती का उत्पादन मौसम व खेती के तरीकों पर टिका होता है. वर्षा, तापमान, सूर्य का प्रकाश व हवा आदि हमारी पहुंच से बाहर हैं, लेकिन खेती के तरीके हमारी पहुंच में हैं. समय पर सही ध्यान दे कर फसलों की मौजूदा उत्पादकता में बढ़ोतरी की जा सकती है. ज्यादा उत्पादन के निम्न मूलमंत्र हैं, जिन पर गौर फरमा कर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है:

समय

फसल उत्पादन में समय एक महत्त्वपूर्ण पहलू है. फसल की बोआई से ले कर कटाई तक फसल संबंधी सभी क्रियाएं सही समय पर करनी चाहिए. कभीकभी जानकारी न होने से मजबूरी या लापरवाहीवश बोआई, खरपतवारों की रोकथाम, कीड़ों की रोकथाम और सिंचाई जैसे जरूरी कामों को किसान समय पर नहीं कर पाते हैं, जिस वजह से उत्पादन में भारी कमी आती है.

कृषि विज्ञान केंद्रों और कृषि विभाग द्वारा चलाए जा रहे कई प्रशिक्षणों द्वारा किसान भाई खेती की नवीनतम तकनीक का ज्ञान हासिल कर सकते हैं. किसानों को कभीकभी कृषि की कई जरूरी चीजें जैसे उन्नत बीज, उर्वरक, फफूंदनाशक, कीटनाशक, खरपतवारनाशक वगैरह समय पर नहीं मिल पाते हैं, जिस से वे सही समय पर खेती के सभी काम नहीं कर पाते हैं. ऐसे हालात में फसल के उत्पादन में कमी आती है. इसलिए ऐसी हालत से बचने के लिए जरूरी सामान का प्रबंध सही समय पर करें.

production from crops

उम्दा बीज

बीजों की गुणवत्ता का उत्पादन पर 20 से 30 फीसदी असर पड़ता है. इसलिए किसान भाइयों को स्थानीय और परंपरागत बीजों के बजाय अच्छे प्रमाणिक बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि ऐसे बीज ज्यादा उत्पादन और गुणवत्ता वाले होते हैं. इसलिए जहां तक हो सके विभिन्न फसलों के अच्छे और प्रमाणिक बीजों का ही इस्तेमाल करें. विभिन्न फसलों की संकर किस्मों के बीजों को दोबारा बोआई के काम में न लें, क्योंकि उन की उत्पादन कूवत कम हो जाती है. इसलिए हर साल प्रमाणिक बीज ही खरीद कर बोएं.

बीजों को बोने से पहले घरेलू तकनीक से उन की अंकुरण कूवत परख लें और पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही बीज बोएं ताकि अंकुरण संबंधी किसी भी समस्या का हल बोआई से पहले ही हो जाए.

यदि किसान अपना पैदा किया बीज इस्तेमाल में लेते हैं तो बीज की बोआई से पहले ग्रेडिंग जरूर करें. बोआई से पहले बीज का उपचार भी फायदेमंद रहता है.

पोषक तत्त्व प्रबंधन

उर्वरक और खाद खेती के महत्त्वपूर्ण, हिस्से हैं. ये पौधों की बढ़त के साथसाथ पौधों द्वारा पानी सोखने की कूवत में भी वृद्धि करते हैं. विभिन्न फसलों में ज्यादातर किसान बिना मिट्टी की जांच के अपनी इच्छा से अंधाधुंध उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं, जिस से धीरेधीरे मिट्टी की उर्वरता में कमी आ जाती है. लिहाजा किसानों को कम से कम 2 से 3 साल में खेतों की मिट्टी की जांच जरूर करानी चाहिए, जिस से खेतों में मौजूद पोषक तत्त्वों के सही स्तर का पता चल सके.

मिट्टी की जांच के मुताबिक ही फसलों में उर्वरकों का इस्तेमाल करें. इस से उस की लवणीयता और क्षारीयता का भी पता चलता है और ऐसी मिट्टी को सही तरीके से सुधारने में मदद मिलती है.

उर्वरकों को फसल की सही अवस्थाओं में सही तरीके से देना चाहिए, जिस से मिट्टी की कूवत बढ़ती है. उर्वरकों को बीज के साथ कभी न मिलाएं और हमेशा बीज से 2 इंच नीचे दबाएं.

लगातार उर्वरकों के ज्यादा इस्तेमाल से फसलों की पैदावार में कमी आने लगी है, क्योंकि उर्वरकों के इस्तेमाल से मिट्टी के भौतिक गुणों पर उलटा असर पड़ने लगा है. लिहाजा ज्यादा उत्पादन और टिकाऊ खेती के लिए उर्वरकों के साथसाथ कार्बनिक खादों पर समुचित ध्यान देना जरूरी है.

इस के लिए कम से कम 3 सालों में 1 बार गोबर की सड़ी या कंपोस्ट खाद का जरूर इस्तेमाल करें या फिर सनई, ग्वार या ढैंचा को वर्षाऋतु में उगा कर फूल आने पर खेत में दबा कर हरी खाद के रूप में काम में लें.

खाद और उर्वरक के अलावा विभिन्न फसलों में निर्धारित जीवाणु खादों जैसे राइजोबियम जीवाणु, एजेटोबैक्टर या एजोस्पाइरिलम, फोस्फोबैक्टेरियम जीवाणु, नील हरित शैवाल, एजोला, फर्न, माइकोराइजा आदि का भी इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि इन के इस्तेमाल से विभिन्न पोषक तत्त्वों की मौजूदगी बढ़ती है. जीवाणु खाद न केवल किफायती है, बल्कि यह पर्यावरण को भी सुरक्षित रखती है. जीवाणु खाद वायु से नाइट्रोजन ले कर पौधों को मुहैया कराती है.

खरपतवार प्रबंधन

फसल में मौजूद खरपतवार पौधों से हवा, पानी, सूर्य की रोशनी और पोषक तत्त्वों के लिए मुकाबला कर के उन की बढ़वार पर असर डाल कर उत्पादकता कम कर देते हैं और कभीकभी फसल को भी नष्ट कर देते हैं. इसलिए ज्यादा उत्पादन के लिए फसलों को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए. खरपतवार नियंत्रण के लिए कुदाली, कुल्फा और खरपतवारनाशी रसायनों का प्रयोग कर सकते हैं. इस के अलावा गरमी में गहरी जुताई कर के भी खरपतवार की रोकथाम कर सकते हैं.

सिंचाई प्रबंधन

सिंचाई प्रबंधन सब से महत्त्वपूर्ण होता है. प्रकृति के सीमित साधनों का रखरखाव कर किफायत से पानी इस्तेमाल करना चाहिए. इस के लिए खेतों को पूरी तरह समतल कर के चारों तरफ मजबूत मेंड़बंदी करनी चाहिए ताकि खेत का पानी खेत में ही रुक सके.

पानी का सही इस्तेमाल करने के लिए फसलों की क्रांतिक अवस्थाओं में सिंचाई करनी चाहिए. फसल में जरूरत से ज्यादा पानी न दें और सिंचाई के नए तरीकों जैसे फव्वारा, ड्रिप और पाइपों का इस्तेमाल करें.

फसल संरक्षण

बीजजनित कीटों और रोगों की कारगर रोकथाम के लिए बीज उपचार एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है.

सभी फसलों के बीजों को बोआई से पहले खास रसायनों से उपचारित करने के बाद बोआई करें. बीजों को पहले फफूंदनाशी, फिर कीटनाशी और आखिर में जीवाणु कल्चर से उपचारित कर बोआई करें.

इस क्रम में किसी प्रकार का बदलाव न करें. कीटों और रोगों की रोकथाम के लिए 3 साल में एक बार गरमी में गहरी जुताई कर के खेत तपने के लिए कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें.

किसी भी तरह का कीटनाशक अपनी इच्छा या विक्रेता के कहने पर इस्तेमाल में नहीं लेना चाहिए. विभिन्न फसलों में संबंधित जानकारों की सलाह से ही रसायनों का इस्तेमाल करें.

रसायनों को खरीदते समय दवा का असर खत्म होने की तारीख जरूर देखें और बिल जरूर लें. मित्र कीटों का रखरखाव करें. प्रकाशपाश व फेरामोनट्रेप को काम में लें. इस से रसायनों का इस्तेमाल कम होगा और बिना रसायनों के कीड़ों की रोकथाम होगी, जिस से लागत में कमी आएगी.

production from crops

फसल बीमा

किसानों की फसल कुदरती आपदाओं जैसे सूखा, बाढ़ आदि से बरबाद हो जाती है, जिस से किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है. कुदरती कारणों से होने वाले नुकसान की भरपाई का सीधा तरीका है फसल बीमा.

फसल बीमा होने से किसान फसल की नई किस्मों और नई तकनीकों को इस्तेमाल में ले सकते हैं, क्योंकि यह जोखिम बीमा द्वारा रक्षित होता है. भारत सरकार ने देशभर में विभिन्न योजनाओं की शुरुआत की है.

इन में व्यापक फसल बीमा योजना, प्रायोगिक फसल बीमा, कृषि आय बीमा योजना, राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना आदि शामिल हैं.

जमीन और फसल की उत्पादकता बढ़ाने और उत्पादन लागत कम करने के लिए निम्न बातों पर गौर करना चाहिए:

* ज्यादा उत्पादन पाने के लिए समय पर बोआई करें.

* प्रमाणित उन्नत बीज ही बोएं, इस से उपज में बढ़ोतरी होती है.

* कम खर्च में निरोग व स्वस्थ फसल पाने के लिए बीजोपचार जरूर करें.

* बारिश का पानी ज्यादा से ज्यादा जमीन के अंदर संरक्षित करने के लिए जुताई व बोआई ढलान के विपरीत करें.

* पौधों की सही संख्या व सही दूरी से अच्छी बढ़वार व उपज पाने के लिए अच्छी बीज दर रखें.

* कतार में बोआई करें और लाइनों की दूरी बराबर रखें.

* फसलें बदलबदल कर बोएं जिस से कीट व रोग में कमी आएगी.

* दलहनी और तिलहनी फसलों में जिप्सम का इस्तेमाल करें.

* मिट्टी की जांच की सिफारिश के अनुसार उर्वरक का इस्तेमाल करें जिस से उर्वरक पर खर्च में कमी आएगी.

* जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ाने के लिए गोबर की खाद, कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट आदि का इस्तेमाल करें.

* रासायनिक उर्वरकों से होने वाले नुकसानों से बचने के लिए जैविक खेती अपनाएं.

* कम पानी की स्थिति में फसल की समयसमय पर सिंचाई करें.

* सिंचित क्षेत्र बढ़ाने के लिए फव्वारा, ड्रिप व पाइपलाइन का इस्तेमाल करें, जिस से पानी की बचत हो.

* मित्र कीटों का रखरखाव करें. प्रकाशपाश व फेरामोनट्रेप काम में लें. इस से रसायनों का इस्तेमाल कम होगा और बिना रसायनों के कीड़ों की रोकथाम होगी, जिस से लागत में कमी आएगी.

* खरपतवार, रोग व कीट के असर में कमी लाने के लिए गरमी में गहरी जुताई जरूर करें.

* धोखाधड़ी से बचने के लिए खाद, बीज व दवा खरीदते समय बिल जरूर लें. इस से अनाज की गुणवत्ता भी पक्की होगी.

* उपज सुखा कर और अच्छी तरह साफ कर के बाजार में ले जानी चाहिए, जिस से उपज का ज्यादा मूल्य मिल सके.

* फसल बीमा जरूर करवाएं. इस से फसल जोखिम कम होता है.

* समय, मेहनत और पैसा बचाने के लिए उन्नत कृषि यंत्रों का इस्तेमाल करें.

* कृषि विज्ञान केंद्रों और कृषि विभाग द्वारा संचालित विभिन्न कृषि प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भागीदारी बढ़ाएं, नवीनतम जानकारी लें और समस्या का समाधान पाएं व उन्नत तकनीक का इस्तेमाल कर के उत्पादन बढ़ाएं.

शकरकंद (Sweet Potatoes) सर्दियों से बचाए

सर्दियां शुरू होते ही बाजार में तरहतरह की सब्जियां, फल और कंदमूल आने लगते हैं. सर्दियों से बचाव के लिए लोग कई तरह के उपाय करते हैं, इन में गरम कपड़ों से ले कर खानेपीने की चीजें भी हैं. अमीर तो जो चाहे वह खरीद कर खा सकते हैं, लेकिन गरीबों को अपने बजट के हिसाब से खर्च करना पड़ता है. हम आप को बता रहे हैं, ऐसी ही एक चीज जिसे आसानी से खरीद कर खा सकते हैं और सर्दियों में अपने शरीर को गरम रख सकते हैं.

हम बात कर रहे हैं शकरकंद की, जिसे स्वीट पोटैटो भी कहा जाता है. यह ऊर्जा का खजाना है. अकसर लोग इसे आलू से जोड़ कर देखते हैं, लेकिन पोषक तत्त्वों और सेहत के लिहाज से इस के कई फायदे हैं. शकरकंद खाने में मजेदार तो होता ही है, साथ ही काफी फायदेमंद भी है.

शकरकंद का इस्तेमाल सर्दियों में बहुत मुफीद होता है. सर्दियों में कंदमूल ज्यादा फायदेमंद रहते हैं, क्योंकि ये शरीर को गरम रखते हैं. इसलिए सर्दी के मौसम में शकरकंद खाना सेहत के लिए फायदेमंद है.

* शकरकंद विटामिन ‘डी’ का एक अच्छा सोर्स है. यह दांतों, हड्डियों, त्वचा और नसों की बढ़ोतरी और मजबूती के लिए जरूरी है. शकरकंद विटामिन ‘ए’ का भी काफी अच्छा माध्यम है. इस के इस्तेमाल से शरीर की 90 फीसदी तक विटामिन ‘ए’ की पूर्ति होती है.

*             शकरकंद में भरपूर आयरन होता है. आयरन की कमी से हमारे शरीर में ऐनर्जी नहीं रहती, रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित होती है और ब्लड सेल्स का निर्माण भी ठीक से नहीं होता. शकरकंद आयरन की कमी को दूर करने में मददगार रहता है.

*             शकरकंद पोटैशियम का अच्छा स्रोत है. यह नर्वस सिस्टम की सक्रियता को सही बनाए रखने के लिए जरूरी है. साथ ही किडनी को भी स्वस्थ रखने में यह खास योगदान देता है.

*             शकरकंद में आयरन, फोलेट, कौपर, मैगनीशियम, विटामिन्स आदि होते हैं. इसे खाने से त्वचा में चमक आती है और चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पड़तीं. इस में मौजूद विटामिन ‘सी’ त्वचा में कोलाजिन का निर्माण करता है जिस से आप हमेशा जवान और खूबसूरत दिखते हैं.

*             शकरकंद डायट्री फाइबर और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर है. शकरकंद खाने में मीठा होता है. इस के इस्तेमाल से खून बढ़ता है, शरीर मोटा होता है साथ ही यह कामशक्ति को भी बढ़ाता है. नारंगी रंग के शकरकंद में विटामिन ‘ए’ सही मात्रा में होता है. शकरकंद में कैरोटीनौयड नामक तत्त्व पाया जाता है जो ब्लड शुगर को कंट्रोल करता है.

*             अगर आप का ब्लड शुगर लैवल कुछ भी खाने से तुरंत बढ़ जाता है तो शकरकंद खाना ज्यादा अच्छा है. इसे खाने से ब्लड शुगर हमेशा कंट्रोल रहता है और इंसुलिन बढ़ने नहीं देता.

*             शकरकंद में कैलोरी और स्टार्च की सामान्य मात्रा होती है. वहीं, सैचुरेटेड फैट और कोलेस्ट्रौल की मात्रा इस में न के बराबर रहती है. इस में फाइबर, एंटीऔक्सीडेंट्स, विटामिन और लवण भरपूर होते हैं.

*             शकरकंद में भरपूर मात्रा में विटामिन ‘बी6’ पाया जाता है, जो शरीर में होमोसिस्टीन नाम के अमीनो एसिड के स्तर को कम करने में सहायक होता है. इस अमीनो एसिड की मात्रा बढ़ने पर बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है.

जनवरी में किए जाने वाले खेती के खास काम

जनवरी के महीने में अनेक इलाकों में कड़ाके की सर्दी होती है. ऐसे में खेतीकिसानी के काम करना थोड़ा मुश्किल भरे जरूर होते है, लेकिन खेती के लिए फायदेमंद रहते है. गेहूं फसल में अच्छे फुटाव के लिए अधिक ठंड का होना फायदेमंद है तो पाला पड़ना फसल को नुकसान देते है. ऐसे में अगर कहीं प्राकृतिक आपदा के चलते ओलावृष्टि हो जाए तो फसल को काफी नुकसान भी होता है. कुछ ऐसी जरूरी बातें हैं जिन को ध्यान में रख कर हम खेतीकिसानी के काम करे तो वह हमारे लिए फायदेमंद साबित होते है.

आइए डालते हैं एक नजर जनवरी के दौरान किए जाने वाले खेती के कामों पर :

* जनवरी में गेहूं के खेतों पर खास ध्यान देने की जरूरत होती है. इस दौरान करीब 3 हफ्ते के अंतराल पर गेहूं के खेतों की सिंचाई करते रहें.

* गेहूं के खेतों में अगर खरपतवार या अन्य फालतू पौधे पनपते नजर आएं, तो उन्हें फौरन उखाड़ दें. चौड़े पत्ते वाले खरपतवार ज्यादा हों, तो 2-4 डी सोडियम साल्ट दवा का इस्तेमाल करें. यह दवा काफी कारगर होती है.

* अगर गेहूं की बालियों में अनावृत कंडुआ रोग का असर नजर आए, तो उन पौधों को देखते ही उखाड़ कर नष्ट कर दें.

इस के अलावा अगर खेत में काली गेरुई रोग का प्रकोप दिखाई दे, तो मैंकोजेब दवा की ढाई किलोग्राम मात्रा को करीब 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* यदि चने के खेतों में फलीछेदक कीड़े का का हमला दिखाई पड़े, तो फलियां बनना शुरू होते ही इंडोसल्फान 35 ईसी दवा की 2 लीटर मात्रा को करीब 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* यदि चने के खेतों में फलीछेदक कीड़े का हमला दिखाई पड़े, तो फलियां बनना शुरू होते ही इंडोसल्फान 35 ईसी दवा की 2 लीटर मात्रा को करीब 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. छिड़काव के असर से फलियां बेहतरीन होंगी.

* मटर व मसूर के खेतों में उगे खरपतवारों को खरपतवारनाशी दवा का इस्तेमाल कर के नष्ट करें.

* चना, मटर व मसूर के खेतों में इस दौरान निराईगुड़ाई जरूर करें. इस से पौधों को खुराक ढंग से मिल सकेगी और खरपतवार भी नहीं पनपेंगे.

* चने और मटर के खेतों में फूल आने से पहले सिंचाई करें, मगर फूल बनने के दौरान सिंचाई न करें. फूल बनने के बाद फिर सिंचाई करें.

* मटर व चने की फसलों में अगर रतुआ बीमारी का प्रकोप नजर आए, तो रोकथाम के लिए जिंक मैंगनीज कार्बानेट दवा की ढाई किलोग्राम मात्रा करीब 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* नए साल का यह पहला महीना ताजे गुड़ व गन्ने के लिए खास माना जाता है. इस दौरान गन्ने की पेड़ी फसल की कटाई का काम करें. कटाई का काम फसल की हालत व हालात के मुताबिक करें.

* कटाई के दौरान निकली गन्ने की पत्तियों को हरगिज नहीं जलाएं, क्योंकि फसल अवशेष जलाना न सिर्फ गुनाह है, बल्कि पर्यावरण के लिए भी घातक है. गन्ने की सूखी पत्तियों को जमा कर के कंपोस्ट खाद बनाने में इस्तेमाल करें.

* गन्ने की सूखी पत्तियों को मवेशियों के बेड के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है, इन पत्तियों को अगली पेड़ी फसल में पलवार के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं, इस से खेत में काफी समय तक नमी बनी रहती है. ऐसा करने से खरपतवार भी कम निकलते हैं.

* जौर की फसल को बोए हुए अगर 4-5 हफ्ते हो रहे हों तो खेत की सिंचाई करें. सिंचाई के बाद हलकी निराईगुड़ाई भी करें ताकि खरपतवार न पनप सकें.

* अगर राई व सरसों की फसलों में फूल व फलियां निकल रही हों, तो खेत की सिंचाई करें. सिंचाई के बाद निराईगुड़ाई कर के खरपतवार निकालें.

* अगर सरसों में तनासड़न बीमारी का प्रकोप दिखाई दे, तो रोकथाम के लिए बिनोमाइल दवा की आधा किलोग्राम मात्रा या थाइरम की डेढ़ किलोग्राम मात्रा करीब 1000 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* अगर सरसों या राई की फसल पर बालदार सूंडी़ का हमला नजर आए, तो बचाव के लिए इंडोसल्फान 35 ईसी दवा की 1.25 लीटर मात्रा करीब 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* तोरिया के खेतों का मुआयना करें. अगर करीब 75 फीसदी फलियां गोल्डन रंग की हो चुकी हों, तो फसल की कटाई करें. कटाई के बाद फसल को अच्छी तरह सुखा कर मड़ाई करें.

* नए साल के पहले महीने यानी जनवरी में सोंधे व स्वादिष्ठ लगने वाले नए आलू का इंतजार सभी को होता है. आलू की अगेती फसल जनवरी में खुदाई लायक हो जाती है, लिहाजा यह काम निबटाएं. खुदाई के लिए आलू खोदने वाली मशीन का इस्तेमाल भी कर सकते हैं. मशीन से आलू की खुदाई तेजी से होती है और आलू नष्ट भी नहीं होते.

* अगर आलू की मध्यम व पछेती फसलों पर झुलसा बीमारी के लक्षण नजर आएं, तो रोकथाम के लिए मैंकोजेब दवा का इस्तेमाल करें.

* प्याज की रोपाई का काम भी जनवरी में ही निबटा देना चाहिए. प्याज की रोपाई करने से पहले खेत में नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश जरूर डालें और रोपाई के बाद हलकी सिंचाई करें.

* जनवरी में तरबूज, खरबूजा, खीरा, ककड़ी, करेला और भिंडी आदि की बोआई के लिए ढंग से जुताई कर के खेत तैयार करें. खेत में अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खद भरपूर मात्रा में डालें.

Farming Work

* जनवरी के ठंडे महीने में पाले का खतरा बहुत ज्यादा रहता है, लिहाजा पाले से बचाव के लिए छोटे फलों वाले पौधों व सब्जियों की नर्सरियों को टाट या घासफूस के छप्परों से अच्छी तरह ढक दें.

* पाला गिरने वाली रात में बाग या खेत की सिंचाई करना न भूलें. इस से पाले का असर घट जाता है.

* जनवरी महीने के दौरान अकसर आंवले में फलीविगलन रोग लग जाता है. ऐसी हालत में बचाव के लिए ब्लाइटाक्स 58 दवा का इस्तेमाल करें.

* माल्टा, किन्नू, संतरा व नीबू आदि के पेड़ों में गमोसिस बीमारी से बचाव के लिए पेड़ों के रोगग्रस्त भागों को काट कर जला दें, पेड़ों के काटे गए हिस्सों पर रिटोमिल व अलसी के तेल का पेस्ट तैयार कर के लगाएं. यह पेस्ट तैयार करने के लिए 1 लीटर अलसी के तेल में 20 ग्राम रिडोमिल दवा अच्छी तरह मिलाएं.

* इस महीने आड़ू, नीबू, संतरा, किन्नू और माल्टा आदि पेड़ों की छंटाई का काम भी करें. इन पेड़ों में कृषि वैज्ञानिक से सलाह ले कर जरूरी खादें भी डालें.

* इसी तरह अंगूर की बेलों की काटछांट का काम भी महीने के अंत तक जरूर निबटा लें. इसी दौरान नई बेलें भी लगाई जा सकती हैं. अगर नई बेले लगाएं, तो लगाने के फौरन बाद सिंचाई जरूर करें.

* आमतौर पर आम के पेड़ों की देखभाल की याद आम के मौसम में ज्यादा आती है, मगर यह अच्छी बात नहीं है. इन पेड़ों की नियमित देखभाल करना जरूरी है. अमूमन दिसंबर में आम के पेड़ों के तनों पर अल्काथीन शीट लगाई जाती है. जनवरी में इस शीट की कायदे से सफाई करें, क्योंकि बगैर सफाई के शीट का पूरा फायदा नहीं मिलता.

* आम के पेड़ों में भुनगा व मित्र कीड़ों के बचाव के लिए मोनोक्रोटोफास 50 ईसी दवा की डेढ़ मिलीलीटर मात्रा 1 लीटर पानी में घोल कर पेड़ों में बौर आने के तुरंत बाद छिड़कें. अगर जरूरी लगे तो 2-3 हफ्ते बाद दोबारा छिड़काव करें.

* अपने महंगे मवेशियों यानी गायभैंसों वगैरह को जनवरी की कड़ाके की ठंड से बचाने के पूरे इंतजाम करें, क्योंकि थोड़ी सी लापरवाही से लाखें रुपए के मवेशी ठंड के शिकार हो सकते हैं.

* पशुओं को दिन के दौरान धूप में बांधें और रात के वक्त आग जला कर गरमी का बंदोबस्त करें. गौशाला के दरवाजे बंद रखें या टाट के मोटे परदे लगाएं. रोशनी का भी पूरा इंतजाम करें.

* जनवरी की सर्दी मुरगेमुरगियों के लिए भी खतरनाक साबित होती है, लिहाजा उन के बचाव का भी पूरा खयाल रखें. जब मुरगियां स्वस्थ होंगी तभी महंगे अंडों का उत्पादन होगा.

* जब घना कोहरा पड़ रहा हो, उस दौरान गौशाला की चौकसी बढ़ा दें, क्योंकि कोहरे का फायदा उठा कर चोरउचक्के अपना कारनामा दिखा देते हैं.

* अपने इलाके के पशुचिकित्सकों के मोबाइल नंबर डायरी में लिखने के साथसाथ अपने मोबाइल में भी दर्ज कर के रखें ताकि आड़े वक्त पर यानी पशुओं के बीमार होने पर उन से फौरन बात की जा सके.

अरहर की फसल में कीड़ों की रोकथाम

दालों को प्रोटीन का सब से अच्छा जरीया माना जाता है. इसीलिए रोजाना खाने में दालों का सब से ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. भारत दलहनी फसलों के उत्पादन के मामले में दुनिया में पहले स्थान पर होने के बावजूद प्रति हेक्टेयर उत्पादन के लिहाज से पिछड़ा हुआ है, जिस के चलते दलहन का उत्पादन देश में लगातार घट रहा है.

देश में दलहनी फसलों की खेती करीब 2 करोड़ 38 लाख हेक्टेयर रकबे में की जाती है, जिस से करीब 6.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर का औसत उत्पादन ही हासिल होता है, जो बेहद कम माना जा सकता है. दलहनी फसलों के कम उत्पादन के कारणों में उन्नत कृषि तकनीकी की कमी, उन्नतशील बीजों व उर्वरकों की कमी और फसल पर कीड़ों व रोगों का प्रकोप खास है. दलहनी फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों में छेदक, फली मक्खी, पत्ती लपेटक वीटल वगैरह खास हैं.

कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया (बस्ती) में विशेषज्ञ राघवेंद्र विक्रम सिंह बताते हैं कि दलहनी फसलों में अरहर की खेती देश के कई राज्यों में प्रमुख स्थान रखती है. वर्तमान में अरहर का औसत उत्पादन 8.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, जो बेहद कम है. इस की सब से खास वजह कीड़ों व रोगों का प्रकोप है. ऐसे में अगर समय रहते कीड़ों व रोगों को काबू कर लिया जाए तो उत्पादन 2 गुना किया जा सकता है.

राघवेंद्र विक्रम सिंह के मुताबिक दिसंबर से फरवरी तक का समय अगेती व पछेती फसलों में फली बनने व फूल आने का होता है. इस अवस्था में अरहर की फसल पर कीड़ों का सब से ज्यादा प्रकोप पाया जाता है, जिस के चलते कभीकभी अरहर की पूरी फसल खराब हो जाती है. ऐसी हालत में हमें अरहर में लगने वाले कीड़ों की पहचान कर के उन की रोकथाम के तरीके अपनाने चाहिए.

Arhar

खास कीड़े फली छेदक कीट : कृषि विशेषज्ञ

डा. प्रेम शंकर के मुताबिक जहां पर भी दलहनी फसलों की खेती की जाती है, वहां इस कीट का हमला ज्यादा होता है. यह कीट मध्यम आकार व सलेटीभूरे रंग का होता है. इस कीट की लार्वा अवस्था ही ज्यादा खतरनाक होती है. कीट की वयस्क मादा मिट्टी के ऊपर वाले पौधों के किसी भी भाग में अंडे देती है. अंडे से निकल कर लार्वा फली के ऊपर जालीनुमा आवरण बनाता है, जिस के नीचे से फलियों में घुस कर अंदर ही अंदर दानों को खाता रहता है. इस कीड़े की रोकथाम से पहले इस का सर्वेक्षण करना जरूरी हो जाता है. इस के लिए 5-6 और रोकथाम के लिए 15-20 फेरोमेन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने चाहिए.

फली मक्खी : इस मक्खी की मादा फली में छेद कर के अंडे देती है. 1 हफ्ते के भीतर अंडे फूटने पर इस का शिशु कीट बाहर आ जाता है, जो खुद को रेशमी धागों से चिपका लेता है और उसे ही खुरचखुरच कर खाता है. यही मैगट यानी शिशु पत्तियों और फलियों में सुरंग बना कर उन्हें खाना शुरू कर देता है और फिर उस सुरंग में मल भर देता है. बाद में यही कीट फली के अंदर घुस कर बीजों को खाना शुरू कर देता है. जब यह कीट पूरी विकसित अवस्था में पहुंच जाता है, तो बीज से बाहर निकल कर फली में एक छेद के पास ही प्यूपा में बदल जाता है, जो तने में छेद कर के उसे भी नुकसान पहुंचाता है.

पत्ती लपेटक कीट : इस कीट को युकोस्मा क्रिटिका के नाम से जाना जाता है. इस की मादा पत्तियों की निचली सतह में अंडे देती है और 1 हफ्ते बाद जब अंडे फूट जाते हैं, तो उन से निकली सूंडि़यां पौधों की ऊपरी पत्तियों को लपेट कर सफेद जाला बुनती हैं और फिर उसी में छिप कर पत्तियों को खाती हैं. पत्तियों को खाने के बाद ये सूंडि़यां फूलों और फलियों को नुकसान पहुंचाती हैं.

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पलग मौथ : इस की मादा अरहर की फसल के कोमल भागों जैसे छोटी पत्तियों, छोटी फलियों व कलियों पर 1-1 कर के अंडे देती है. इन अंडों से 5-7 दिनों में शिशु निकलते हैं, जिन का रंग हराभूरा होता है. शिशु शुरू में पत्तियों को खाता है और बाद में फली को छेद कर बीजों को खा जाता है. पूरी तरह विकसित कीट फली से बाहर निकल कर प्यूपा में बदल जाता है. यह प्यूपा फली की सतह पर पाया जाता है.

बीटल : यह कीट अरहर की कलियों, फूलों व फलियों को खा कर नष्ट कर देता है, जिस से फसल उत्पादन तेजी से गिर जाता है.

डा. प्रेम शंकर का कहना है कि इन कीटों का हमला जैसे ही दिखाई पड़े, किसानों को शुरुआती अवस्था में ही सचेत हो जाना चाहिए और समय रहते इन कीटों की रोकथाम के उपाय करने चाहिए. इन कीटों की रोकथाम जैविक और रासायनिक दोनों विधियों से की जा सकती है. दोनों विधियों में 2 या 3 छिड़काव करने से इन कीड़ों के प्रकोप से अरहर की फसल को बचाया जा सकता है. पहला छिड़काव फसल में 50 फीसदी फूल निकलने पर और दूसरा छिड़काव 15 दिनों के बाद करना चाहिए. जरूरत होने पर तीसरा छिड़काव 15 दिनों के बाद करना लाभदायक होता है.

जैविक विधि: डा. प्रेम शंकर के मुताबिक अरहर में लगने वाले कीटों की अगर जैविक विधि से रोकथाम की जाए तो इस से फसल को कीटों के असर से पूरी तरह से बचाया जा सकता है और इस का सेहत पर भी कोई खराब असर नहीं पड़ता है. जैविक कीटनाशी के रूप में एनपीवी 250-300 एलई की 1 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोल कर 1 हेक्टेयर फसल में शाम के समय छिड़काव करना चाहिए. यह एक प्रकार का वायरस न्यूक्लियर होता है, जो फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को बीमार कर के नष्ट कर देता है.

इस के अलावा इन कीटों को नष्ट करने के लिए बैक्टीरियल जीवाणुओं का छिड़काव भी किया जा सकता है. इस के लिए बेसिलस थियुरेजेंसिस की 1 लीटर मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. ये बैक्टीरियल जीवाणु फसल में लगे कीटों पर हमला कर के उन्हें नष्ट कर देते हैं.

नीमतेल (नीमारीन) : अरहर की फसल में लगने वाले कीड़ों की रोकथाम के लिए नीम का तेल भी बेहद कारगर रहता है. इस के लिए नीम के तेल की 5 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर 10-10 दिनों के अंतर पर फलियां बनते ही छिड़काव करना चाहिए.

रासायनिक विधि : डा. प्रेम शंकर के मुताबिक फली मक्खी की रोकथाम के लिए कार्बोसल्फान की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में मिला कर 1 हेक्टेयर खेत के लिए 800 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

Arhar

इस के अलावा इंडोक्साकार्ब कीटनाशी की आधा मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर छिड़काव करें. 1 हेक्टेयर फसल के लिए इंडोक्साकार्ब कीटनाशी दवा की 325 मिलीलीटर मात्रा की जरूरत पड़ती है, जिसे 700-800 लीटर पानी में घोल कर 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना जरूरी होता है.

फली मक्खी का प्रकोप दिखाई पड़ने पर पहला छिड़काव एसीटामिप्रिड 20 फीसदी की एसपी का करें. इसे धानप्रीत कीटनाशी के नाम से जाना जाता है.

इस की 250 ग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 800-1000 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. दूसरा छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करना जरूरी होता है.

किसानों को अरहर की फसल से भरपूर पैदावार लेने के लिए कीड़ों के प्रकोप से बचाव के लिए सजग रहना चाहिए. जैसे ही अरहर की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों का प्रकोप दिखाई पड़े, तो जितनी जल्दी हो सके उन की रोकथाम के उपायों का इस्तेमाल करना चाहिए.

आलू के पापड़ (Potato Papad) बनाएं और बेचें

आलू देश की खास पैदावार है, लेकिन जिस दौरान आलू क फसल तैयार होती है, तब उस की कीमत काफी कम रहती है, जिस से किसानों को अकसर आलू की खेती में नुकसान उठाना पड़ता है.

ऐसे में यदि आलू के पापड़ बनाएं ता यह मुनाफे का सौदा होगा. पैदावार के समय ही आलू खरीद कर उन के पापड़ बनाए जा सकते हैं. इसे गृह उद्योग की तरह चलाया जा सकता है. ऐसे में आलू के पापड़ किसानों को अच्छा मुनाफा दे सकते हैं. पापड़ बनाने के लिए आजकल बड़ी मशीनें आने लगी हैं. शुरुआत में तो बड़ी मशीनों के बिना भी पापड़ तैयार हो सकते हैं. यह व्यवसाय ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार का साधन बन सकता है. सूखे पापड़ सही तरह से पैक कर के लंबे समय तक रखें जा सकते हैं.

देश में होली के मौके पर पापड़ों की अच्छी बिक्री होती है. पापड़ का इस्तेमाल चाय के साथ नमकीन के रूप में भी होता है. पापड़ बना कर बेचना किसानों के लिए रोजगार का अच्छा साधन है. इस से आलू किसानों को अपने आलू सड़क पर फेंकने पर मजबूर नहीं होना पड़ेगा.

पापड़ का सही रखरखाव और उसे बेचना ही सब से मुख्य काम है. कानपुर की नलिनी शर्मा कहती हैं, ‘आलू के पापड़ बनाना काफी सरल है. ये जल्दी खराब नहीं होते. इन्हें सफाई से सुखाना चाहिए. इस के बाद सब से अहम है इन की पैकिंग.

आलू के पापड़ बनाने की विधि

सामग्री : आलू बड़े 1 किलोग्राम, नमक स्वादानुसार, लालमिर्च आधा छोटा चम्मच, तेल 2 बड़े चम्मच.

विधि : पापड़ बनाने के लिए आलुओं को धो कर कुकर में डालें और 2 कप पानी डाल कर उबालने के लिए रखें. 1 सीटी आने के बाद धीमी आंच पर 3-4 मिनट उबलने दें. फिर कुकर को आंच से उतार लें. ठंउे होने पर आलुओं को छीलें और एकदम बारीक कद्दूकस कर लें. इस में नमक व लालमिर्च डालें और आटे की तरह गूंधें.

हाथ पर तेल लगा कर आलू की पिट्ठी का थोड़ा हिस्सा लें और एक ही आकार के गोले बनाएं. 1 किलोग्राम आलू से 20-22 गोले बन जाते हैं. आलू के पापउ़ बेलने और सुखाने के लिए बड़ी और थोड़ी सी मोटी पारदर्शक पौलीथिन शीट की जरूरत होती है. इस शीट को धूप में फर्श पर एक चादर बिछा कर उस के ऊपर बिछा दें. शीट को रोअी बनाने वाले चकले पर इस तरह रखें कि आधा भाग चकले पर हो और आधा चकले के बाहर.

पहली बार पौलीथिन शीट के ऊपर थोड़ा तेल लगा लें. आलू का एक गोला उठाएं. दोनों ओर थोड़ा सा तेल लगा दें. चकले के ऊपर रखी पौलीथिन शीट के ऊपर आलू के गोले को रखें और शीट के दूसरे हिस्से से ढक कर हथेली से पौलीथिन शीट को आलू के गोले के ऊपर से दबा कर चपटा कर दें. शीट को घुमाते हुए बेलन से आलू के गोले को बेलिए पापड़ को चपाती के जितना पतला बेलिए. ऊंगली से भी पापड़ को गोल आकार दिया जा सकता है.

तैयार पापड़ के ऊपर से पौलीथिन शीट हटाएं. पापड़ लगी पौलीथिन शीट का, पापड़ की तरफ से बड़ी पौलीथिन शीट पर रखें. पापड़ लगी पौलीथिन शीट को हाथ से हलका दबा कर पापड़ को और अच्छी तरह चिपका दें. पापड़ की दूसरी शीट हाथ से पकड़ कर खींच लें. पापड़ बड़ी पौलीथिन शीट पर चिपक जाता है. सारे पापड़ एकएक कर के इसी तरह बड़ी पौलीथिन शीट पर डाल दें और धूप में सुखाने के लिए रखें दें. 3-4 घंटे बाद जब पापड़ हलके से गीले रहें, तब उन्हें पलट दें. पापड़ पूरी तरह सूखने पर इकट्ठे कर लें.

चंबल महका गुलाब (Roses) की खुशबू से

गुलाब की खेती से यहां के किसानों को अच्छी आमदनी हो रही है और उन की मेहनत बंजर जमीन से सोना उगल रही है. इस से उन्हें एक साल में लाखों की आमदनी हो रही है. गुलाब के फूलों की बात करें तो कुछ साल पहले यहां अच्छे काम के लिए दूसरे इलाकों से फूल मंगाए जाते थे, लेकिन अब मुरैना गुलाब के फूलों की मंडी बन रहा है.

यहां के किसान अब वैज्ञानिक तरीके से गुलाब की खेती कर रहे हैं. इस काम में कृषि विज्ञान केंद्र व कृषि विभाग की मदद ले कर तकरीबन 55 किसानों ने 50 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर अच्छी किस्म की गुलाब की खेती की है. किसानों की इस पहल से आमदनी के साथ कई लोगों को रोजगार भी मिला है.

बीहड़ ऐसा इलाका है जहां पानी की कमी रहती है जबकि गुलाब की खेती में पानी की जरूरत पड़ती है. यहां दूसरी फसलों को तो नीलगाय के साथ अन्य जानवर नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन गुलाब में कांटे होने की वजह से उसे वे बरबाद नहीं करते. इस के अलावा यहां का वातावरण भी गुलाब की खेती के लिए माकूल है. किसान सुशील राजौरिया बताते हैं कि एक बीघा में उगाए गए गुलाब के फूलों से तकरीबन 12 सौ लीटर गुलाबजल बनता है, जिस की कीमत 100 रुपए लीटर से कहीं ज्यादा है और यह आसानी से बिक जाता है.

गुलाब देखने में जितना खूबसूरत लगता है, उतनी ही उस की खुशबू भी लोगों को लुभाती है. गुलाब के फूल गुलाबजल के अलावा गुलाबरूह भी निकलता है. गुलाबजल जहां 1 बीघा में 12 सौ लीटर निकलता है, वहीं गुलाबरूह मुश्किल से 180 ग्राम निकलता है. गुलाबरूह की मांग लखनऊ के साथ ही इत्र के शहर कन्नौज में काफी है. जो 8 से 10 लाख रुपए प्रति किलोग्राम की कीमत से बिकता है. इसलिए वे अच्छे किस्म के पौधों की रोपाई करने लगे हैं. एक बार लगे पौधे 14 से 15 साल तक फूल देते हैं.