केला फसल कीड़े व बीमारियां की रोकथाम

आज कुछ किसानों के लिए खेती जहां घाटे का सौदा साबित हो रही है, वहीं देश के कई किसानों ने केले की खेती की बारीकियों, नई तकनीकों और वैज्ञानिक पहलू से सफलता हासिल की है. केले की फसल से ज्यादा पैदावार लेने और उम्दा किस्म का केला हासिल करने के लिए जरूरी है कि केले की खेती के हर तकनीकी पहलू को सही तरीके से अपनाया जाए. दुनियाभर में केला एक महत्त्वपूर्ण फसल है.

देश में तकरीबन 4.9 लाख हेक्टेयर जमीन पर केले की खेती की जाती है. इस की खेती के लिए पानी सोखने वाली जमीन ज्यादा मुफीद रहती है.

कीड़े व बीमारियां

प्रकंद छेदक कीट : इस कीट का वैज्ञानिक नाम कास्मोपोलाइट्स साडिडस है. इस का असर पौध लगाने के 1-2 महीने बाद ही शुरू हो जाता है. शुरुआत में ये कीट तने में छेद कर के तने को खाते हैं, जो बाद में राइजोम की तरफ चले जाते हैं. इस के असर से पौधों की बढ़ोतरी धीमी पड़ जाती है, वे बीमार दिखने लगते हैं और पत्तियों पर पीली धारियां उभर आती हैं. इस कीट के ज्यादा असर से पत्तियों और धारियों का आकार छोटा हो जाता है.

रोकथाम

* हमेशा स्वस्थ सकर ही चुनें.

* लगातार एक ही खेत में केले की फसल न लें.

* सकर को रोपाई से पहले 0.1 फीसदी कीनालफास के घोल में डुबोएं.

* रोपाई के समय क्लोरोपायरीफास चूर्ण प्रति गड्ढे की दर से मिट्टी में मिलाएं.

* प्रभावित और सूखी पत्तियों को काट कर जला दें.

* कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधे पर इस्तेमाल से इस कीट की रोकथाम होती है.

केला फसल (banana crop)

तनाबेधक कीट : इस कीट का वैज्ञानिक नाम ओडोइपोरस लांगिकोल्लिस है. इस कीड़े के असर से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. बाद में तने पर छेद दिखाई देते हैं. उस के बाद तने से गोंद जैसा लिसलिसा पदार्थ निकलना शुरू हो जाता है. इस कीट के असर से पौधों पर फूल नहीं आते या फूलों की संख्या काफी कम रहती है. घार का आकार काफी छोटा रह जाता है और फल ठीक तरह से नहीं पनप पाते हैं.

रोकथाम

* रोग प्रभावित पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें.

* प्रकंदछेदक कीट की रोकथाम के उपाय करें.

माहू : इस कीट का वैज्ञानिक नाम पेंटालोनिया नाइग्रोनर्वोसा है. यह पौधों से रस चूस कर इस की बढ़ोतरी को प्रभावित करता है और शीर्ष गुच्छ रोग पैदा करने वाले विषाणुओं का फैलाव करता है.

रोकथाम

* प्रभावित पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें.

* प्रभावित इलाके में पेड़ी फसल न लें.

* डायमिथोएट 2 मिलीलीटर की दर से पानी में घोल कर छिड़काव करें.

सिगाटोका पत्ती धब्बा : यह रोग सरकोस्पोरा म्यूजीकोला नामक फफूंद से पनपता है. इस रोग की शुरुआत में पत्ते की बाहरी सतह पर पीले धब्बे बनने शुरू हो कर बाद में लंबी काली धारियों के रूप में बदल जाते हैं और बड़ेबड़े धब्बों का रूप ले लेते हैं. इस तरह के धब्बे पत्तियों के किनारे और अगले हिस्से में ज्यादा पाए जाते हैं.

खास किस्मों में 2-3 पत्तियों को छोड़ कर बाकी पत्तियां इस रोग से सूख जाती हैं. साथ ही, फलों का आकार भी छोटा रहता है और समय से पहले ही फल पक जाते हैं. वातावरण में नमी ज्यादा होने और औसत तापमान के कम होने से रोग का असर ज्यादा होता है.

पर्ण धब्बा : यह रोग ग्लोइयोस्पोरियम म्यूजी और टोट्रायकम ग्लोइयोस्पोरियोडियम नामक विषाणुओं से होता है. इस रोग में पत्तियों के सिरे पर हलके भूरे या काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जिस से बाद में पत्तियां सूख जाती हैं और पैदावार पर उलटा असर पड़ता है.

रोकथाम

कार्बेंडाजिम 1 ग्राम या कवच 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

उकठा रोग : यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम किस्म की यूबेंस नामक फफूंद से होता है. इस के लक्षण पौध लगाने के 5 से 8 महीने में दिखाई देते हैं.

पुरानी पत्तियों में पीलापन किनारे से शुरू हो कर मध्य की तरफ बढ़ता है और पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है.

पत्तियां तने के चारों ओर गोलाई में लटक जाती हैं. तने का निचला भाग लंबाई में फट जाता है. 1 से 2 महीने के भीतर पौधा मर जाता है.

रोकथाम

* कंदों को कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में डुबो कर रोपाई करें.

* रोपाई के 5 महीने बाद खेत में कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर 2 महीने में 1 बार टोआ दें.

टिप ओवर : यह रोग इर्विनया केरोटोवोरा नामक जीवाणु से होता है.

इस रोग में राइजोम में सड़न पैदा होने लगती है. इस से प्रभावित पौधा मुलायम हो जाता है और पत्तियां भी पीली पड़ने लग जाती हैं.

रोकथाम

* स्ट्रप्टोसाइक्लिन 750 पीपीएम कापरआक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

banana crop

सिगार गलन : यह रोग वर्टिसीलियम थियोब्रामी नामक फफूंद से होता है. यह बरसात में ज्यादा होता है. अधपके फलों के सिरे से सड़न शुरू हो कर धीरेधीरे आगे तक फैल जाती है.

रोकथाम

इस रोग की रोकथाम के लिए फल आने के दौरान थायोफेनेटमिथाइल या बिटरटेनाल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

शीर्ष विषाणु रोग : यह रोग विषाणु द्वारा होता है. इस रोग में पत्तियों के बीचोंबीच गहरी धारियां शुरुआती लक्षण के रूप में दिखाई देती हैं. इस से पत्तियों का आकार काफी छोटा हो जाता है. इस रोग से प्रभावित पौधों की बढ़ोतरी कम होती है और इन में फूल नहीं आते हैं. इस विषाणु का फैलाव माहू द्वारा होता है.

रोकथाम

* रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट करें.

* रोगवाहक कीट माहू की रोकथाम करें.

* माहू की रोकथाम के लिए डायमिथोएट 2 मिलीलिटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

केले का धारी विषाणु : यह रोग विषाणु से होता है. इस रोग में पत्तियों पर छोटेछोटे पीले धब्बे बनते हैं और पत्तियां सड़ने लगती हैं. इस रोग से केले की पैदावार में 30-40 फीसदी तक की कमी हो सकती है. यह रोग मिली बग से फैलता है.

रोकथाम

* रोगी सकर की रोपाई न करें.

* मिली बग कीट की रोकथाम करें.

banana crop

नेमाटोड : नेमाटोड से केले की पैदावार में करीब 20 फीसदी की कमी आती है. केला बुरोइंग नेमाटोड रेडोफोलस सिमिलिस, लीजन नेमाटोड, प्रैटिलेंकस काफफिर्ड, स्पाइरल नेमाटोड, हेलाकोटीलेप्चस मल्टीसिनकट्स और सिस्ट नेमाटोड, हेटेरोठोरा स्पी से प्रभावित होता है.

नेमाटोड के हमले से पौधों की बढ़वार धीमी पड़ जाती है, तना पतला रह जाता है, पत्तियों पर धब्बे बन जाते हैं और घार का आकार काफी छोटा रह जाता है. इन के लक्षण जड़ों और कंदों पर ज्यादा दिखाई देते हैं. इन से प्रभावित पौधे खेत में नमी होने पर हलकी तेज हवा से भी गिर जाते हैं.

रोकथाम

* प्रभावित इलाकों से रोपाई की सामग्री न लें.

* गन्ना या धान फसलचक्र अपनाएं.

* सनई, धनिया और गेंदा को अंत:फसल के रूप में उगाएं.

* नीम केक 400 ग्राम प्रति पौधा रोपाई के समय और उस के 4 महीने बाद ही इस्तेमाल करना चाहिए.

* रोपाई के समय और उस के बाद 3 महीने के अंतर पर कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधे की दर से इस्तेमाल करें.

तोड़ाई : फलों की तोड़ाई किस्म, बाजार और यातायात के साधन आदि पर निर्भर करती है. केले की बौनी किस्में 12 से 15 महीने बाद और ऊंची किस्में 15 से 18 महीने बाद तोड़ने लायक हो जाती हैं.

फलों की धारियों के पूरी तरह गोल होने पर गुच्छों की तोड़ाई तेज धारदार हंसिए से करनी चाहिए. बाजारों में भेजने के लिए जब केले एकतिहाई पक जाएं, तो उन्हें काट लेना चाहिए.

पकाना : केला एक क्लाईमैक्टेरिक फल है, जिसे पौधे से तोड़ने के बाद पकाया जाता है. केले को पकाने के लिए इथिलिन गैस का इस्तेमाल किया जाता है. इथिलिन गैस फल पकाने का एक हार्मोन है, जो फलों के भीतर सांस लेने की क्रिया को बढ़ा कर उन्हें पकाने में तेजी लाता है.

केले को बंद कमरे में इकट्ठा कर 15 से 18 डिगरी तापक्रम पर इथिलिन (1000 पीपीएम) से 24 घंटे तक उपचार कर के पकाया जाता है.

पैकिंग : केले को आकार के अनुसार श्रेणी में बांट कर अलगअलग गत्ते के 5 फीसदी छेदों वाले छोटेछोटे (12-13 किलोग्राम) डब्बों में भर कर बाजार में भेजना चाहिए.

रबी की सब्जियों में जैविक कीट प्रबंधन (Biological Pest Management)

रबी की सब्जियों में मुख्य रूप से गोभीवर्गीय में फूलगोभी, पत्तागोभी, गांठगोभी, सोलेनेसीवर्गीय में  टमाटर, बैगन, मिर्च, आलू, पत्तावर्गीय में धनिया, मेथी, सोया, पालक, जड़वर्गीय में मूली, गाजर, शलजम, चुकंदर एवं मसाला में लहसुन, प्याज आदि की खेती की जाती है.

इन सब्जियों में हानिकारक कीटों का प्रकोप फसल की ठीक से देखभाल न करने से होता है. आज सब्जी उत्पादक सब्जियों में अंधाधुंध कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं. किसीकिसी सब्जी की फसल पर 7-12 बार कीटनाशी का छिड़काव करते पाया गया है. सब्जी फसलों में कीटनाशक रसायनों का प्रयोग इन के कुल उपयोग का 13-14 फीसदी (तकरीबन 0.678 ग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर) है.

ऐसे में जरूरत से अधिक रसायनों का प्रयोग सेहत के लिए हानिकारक साबित हो रहा है. बिना कीटनाशकों के भी कृषि क्रियाएं ए्वं जैविक विधि से कीटों का प्रबंधन किया जा सकता है. इस के लिए कीटों के प्रकोप की पहचान, प्रबंधन की समुचित विधियों की जानकारी होना आवश्यक है.

गोभीवर्गीय सब्जियों में कीट एवं प्रबंधन

जैविक कीट प्रबंधन (Biological Pest Management)माहू

ये कीट गोभी के पत्तों पर हजारों की तादाद में चिपके रहते हैं. ये हलके पीले रंग के होते हैं. प्रौढ़ कीट पंखदार एवं पंखरहित दोनों प्रकार के पाए जाते हैं. ये हमेशा चूर्णी मोम से ढके रहते हैं, जो इन के हरे रंग को छिपाए रखती है.

इस कीट के शिशु व प्रौढ़ दोनों ही रस चूस कर पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. माहू अपने शरीर से स्राव करते हैं, जिस से फफूंद का संक्रमण होता है. इस वजह से गोभी खाने व बिकने योग्य नहीं रहती है. इस कीट का प्रवेश नवंबर से अप्रैल माह तक सक्रिय रहता है.

प्रबंधन

* नीम की गिरी 40 ग्राम महीन कर के प्रति लिटर पानी में घोल कर चिपकने वाले पदार्थ के साथ मिला कर छिड़काव करें.

* लेडी बर्ड भृंग परभक्षी कीट के 30 भृंग प्रति वर्गमीटर के प्रयोग से इस कीट का नियंत्रण सफलतापूर्वक किया जा सकता है.

* पीला स्टिकी ट्रैप प्रति एकड़ में 10 लगाएं.

हीरक पृष्ठ

इस कीट का रंग धूसर होता है. जब यह बैठता है, तो इस की पीठ पर 3 हीरे की तरह चमकीले चिह्न दिखाई देते हैं, इसलिए इस को हीरकपृष्ठ कीट के नाम से जाना जाता है. सुंडी का रंग पीलापन लिए होता है.

इस कीट का प्रकोप सब से ज्यादा पत्तागोभी की फसल पर होता है. सुंडिया पत्तियों की निचली सतह को खाती हैं और छोटेछोटे छेद बना देती हैं. ज्यादा प्रकोप की दशा में पत्तियां बिलकुल खत्म हो जाती हैं.

प्रबंधन

* जहां पर इस कीट के प्रकोप की संभावना ज्यादा होती है, वहां अगेती व पछेती रोपण से बचना चाहिए.

* हर 20-25 लाइन के बाद गोभी के दोनों तरफ 2 लाइनें सरसों की बोआई करनी चाहिए. इस में पहली लाइन गोभी की रोपाई के 15 दिन पहले और दूसरी लाइन रोपाई के 15 दिन बाद करें, जिस से इस का मादा कीट आकर्षित हो कर सरसों पर अंडा देती हैं और नीम गिरी का निचोड़ 40 ग्राम प्रति लिटर में घोल कर छिड़काव करने से इस कीट का प्रकोप कम हो जाता है.

* जैव कीटनाशी बीटी यानी बैसिलस थुरिंजिएंसिस 500 ग्राम प्रति 500 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. आवश्यकता होने पर 10 दिन के अंतराल पर दोबारा छिड़काव करें.

तंबाकू की सुंडी

व्यस्क मादा कीट पत्तियों की निचली सतह पर अंडे देती हैं. 4 से 5 दिनों के बाद अंडों से सुंडी निकलती है और पत्तियों को खाती है. सितंबर से नवंबर माह तक इस का प्रकोप अधिक होता है.

प्रबंधन

* पत्तियों के निचले हिस्से को  दिए गए अंडों को पत्तियों सहित तोड़ कर नष्ट कर दें.

* फैरोमोल ट्रैप 30 प्रति हेक्टेयर की दर से 30-30 मीटर की दूरी पर लगाएं.

* एसएनपीवी 250 एलई, गुड़ 1 किलोग्राम, टीपोल 800 ग्राम, 500 लिटर में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से सायंकाल छिड़काव करें.

बैगन के कीट व प्रबंधन तनाबेधक

जैविक कीट प्रबंधन (Biological Pest Management)

इस कीट की सुंडियां कोमल तने में छेद कर डैड हार्ट के लक्षण पैदा कर इन्हें सुखा देती हैं. इस कीट का प्रकोप पुष्पावस्था से ले कर फलों में अधिक होता है. क्षतिग्रस्त फल खाने योग्य नहीं रहते हैं.

प्रबंधन

* जरूरत से अधिक नाइट्रोजन व फास्फोरस न दें.

* बैगन के अवशेषों को नष्ट कर दें.

* सदैव कीटग्रसित तना एवं फलों को तोड़ कर नष्ट कर दें.

* नीम गिरी का प्रयोग करें.

*  फैरोमोल ट्रैप 100 प्रति 10 मीटर की दूरी पर प्रति हेक्टेयर में लगाएं.

हरा फुदका

इस के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही बैगन की पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं, साथ ही साथ अपनी जहरीली लार उस में छोड़ते हैं, जिस से प्रभावित भाग पीला हो जाता है और पत्तियां के किनारे से अंदर की ओर मुड़ने लगती हैं. इस से पत्तियां कप के आकार की हो जाती हैं. धीरेधीरे पूरी पत्तियां ही पीले धब्बों से भर जाती हैं और सूख कर गिर जाती हैं.

प्रबंधन

* नीम गिरी का छिड़काव करें.

टमाटर के कीट सफेद मक्खी

जैविक कीट प्रबंधन (Biological Pest Management)

यह कीट टमाटर के साथसाथ बैगन, भिंडी, लोबिया, मिर्च, कद्दू आदि फसलों को नुकसान पहुंचाता है. यह कीट सफेद एवं छोटे आकार का होता है. शरीर मोम से ढका रहता है, इसलिए इसे ‘सफेद मक्खी’ के नाम से जाना जाता है. मादा सफेद मक्खी पत्तियों की सतह पर 125 से 150 तक अंडे देती है. इस के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही पौधों की पत्तियों से रस चूसते हैं और विषाणुजनित रोग फैलाते हैं, जिस से पत्तियां सिकुड़ने लगती हैं. इस के बाद पौधों में फूल व फल नहीं लगते हैं.

प्रबंधन

* पौधों को नायलौन जाली 40 मेश साइज के अंदर तैयार करना चाहिए, जिस से सफेद मक्खी उस के अंदर न जा सके.

* खेत के चारों तरफ मक्का, ज्वार और बाजरा लगाना चाहिए, जिस से सफेद मक्खी का प्रकोप फसल में न हो सके.

* नीम का तेल 2-3 मिलीलिटर के साथ स्टिकर आधा मिलीलिटर प्रति लिटर पानी में मिला कर सायंकाल में छिड़काव करना चाहिए.

फल बेधक

यह कीट टमाटर, पत्तागोभी, फूलगोभी, भिंडी, लोबिया, मटर एवं सेम को नुकसान पहुंचाता है. इस कीट का प्रकोप फसल की पुष्पन एवं फली अवस्था में दिखाई देता है. इस कीट से क्षतिग्रस्त फलों में सुंडीयों का सिर फल के अंदर धंसा एवं बाकी भाग बाहर होता है.

क्षतिग्रस्त फलों में सूक्ष्म जीवों के संक्रमण के कारण फल सड़ने लगता है, जो खाने योग्य नहीं रहता है. सूंड़ी कच्चे टमाटर के फल में छेद कर के खाती है. सुंडी हरे रंग की होती है. इस के शरीर पर 3 धारियां पाई जाती हैं.

प्रबंधन

* गरमी में खेत की गहरी जुताई करें.

* टमाटर की 25 दिनों वाली पौध की रोपाई के 16 लाइन के बाद एक लाइन गेंदे की, जो 45 दिन वाली पौध हो लगाएं. दोनों में फूल करीबकरीब एक ही समय में आते हैं.

गेंदे का फूल मादा व्यस्क कीट को अंडा देने के लिए ज्यादा आकर्षित करता है.

* गेंदे की पत्तियां पत्ती सुरंगक एवं प्राकृतिक शत्रुओं को भी आकर्षित करती हैं.

* फेरोमोन ट्रैप 15 प्रति हेक्टेयर की दर से पौध से 6 इंच की ऊंचाई पर लगा कर निगरानी करें.

* ट्राईकोग्रामा अंडा परजीवी 50,000 अंडा प्रति हेक्टेयर की दर से फसल में छोड़ दें.

* फूल लगते समय एचएनपीवी 300 एलई 1 किलोग्राम गुड़़ 100 मिलीलिटर इंडोट्रान चिपकने वाले पदार्थ को 500 लिटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से सायंकाल में छिड़काव करें. जरूरत समझे, तो 10 दिन बाद दोबारा छिड़काव करें.

मिर्च के कीट

थ्रिप्स : इस का प्रौढ़ कीट लगभग एक मिलीमीटर लंबा एवं हलके पीले भूरे रंग का होता है. इस का पंख कटाफटा होता है. इस कीट के शिशु व प्रौढ़ दोनों ही कोमल पत्तियों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से पत्तियां सिकुड़ कर ऊपर की ओर मुड़ जाती हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती है.

प्रबंधन

* पीला स्टिकी ट्रैप 30 प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगाएं.

पीली माइट

यह अष्टपदी माइट है. इस के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही मिर्च की पत्ती की निचली सतह से रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं, जिस में पत्तियां नीचे की ओर मुड़ कर नाव का आकार बना लेती हैं. पौधे का विकास रुक जाता है और फलने व फूलने की क्षमता प्राय: समाप्त हो जाती है.

प्रबंधन

डिकोफोल 18.5 ईसी 3 मिलीलिटर या सल्फर 80 डब्ल्यूपी 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

प्याज व लहसुन के कीट

जैविक कीट प्रबंधन (Biological Pest Management)

थ्रिप्स : यह कीट प्याज एवं लहसुन की पत्तियों के बीच रह कर रस चूसते हैं, जिस के कारण पत्तियों पर सफेद या सिल्वर धब्बे बन जाते हैं और पत्तियां सूखने लगती हैं. यह कीट गरम मौसम में ज्यादा सक्रिय रहता है.

प्रबंधन

* जेट नोजल से पानी की बौछार करने से थ्रिप्स तेजी से नहीं बढ़ते हैं.

* नीम बिनौला का छिड़काव करें.

* पीला स्टिकी ट्रैप 30 की संख्या में प्रति हेक्टेयर में प्रयोग करें.

सब्जियों में कीटों के जैविक प्रबंधन के लिए जैविक कीटनाशक बनाने की सरल विधि निम्नानुसार है :

नीम की गिरी के 4 फीसदी घोल बनाने का तरीका : नीम की निंबौली को अच्छी प्रकार से सुखाने के बाद उस के छिलके को बाहर निकालें और गिरी को दोबारा सुखा लें. सूखी हुई गिरी को पीसने में सुविधा होती है. 40 ग्राम नीम गिरी को बारीक पीस कर 200 मिलीलिटर पानी में 24 घंटे भिगो दें. उस के बाद महीन कपडे़ से छान कर उस में 800 मिलीलिटर और पानी मिला कर सब्जियों की फसल पर छिड़काव करने से फल बेधक, पत्ती लपेटक, सेमीलुपर, रस चूसने वाले कीट एवं माइट से बचाव किया जा सकता है.

तंबाकू का अर्क बनाने की विधि : एक किलोग्राम तंबाकू के पाउडर को 10 लिटर पानी में आधे घंटे तक उबालें. इस समय घोल का रंग लाल कौफी की तरह हो जाता है. इस उबले हुए घोल में अतिरिक्त 10 लिटर पानी डाल कर ठंडा होने के बाद महीन कपडे़ से अच्छी तरह छान लें.

छने हुए अर्क में अतिरिक्त पानी 80-100 लिटर डाल कर इस में साबुन 200 ग्राम मिला कर छिड़काव करें.

तंबाकू का यह घोल पौधे से रस चूसने वाले कीट जैसे सफेद मक्खी, फुदका, माहू इत्यादि के लिए प्रभावशाली होता है. इस अर्क का छिड़काव एक बार से ज्यादा नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह मित्र कीटों को नुकसान पहुंचाता है.

गाय के गोबर व मूत्र का अर्क बनाने की विधि : 5 किलोग्राम गोबर, 5 लिटर गोमूत्र को 5 लिटर पानी में अच्छी प्रकार मिश्रण बना कर 25 लिटर क्षमता वाले ड्रम में भर कर 4 दिनों तक रख दें. 4 दिनों के बाद इस मिश्रण को छान कर 100 ग्राम चूना मिला दें और इस में 100 लिटर अतिरिक्त पानी मिला कर एक एकड़ में छिड़काव कर सकते हैं.

यह अर्क टमाटर, बैगन के फल छेदक के अलावा तंबाकू की सुंडी इत्यादि प्रौढ़ कीटों को अंडा देने से रोकता है. इस के अलावा यह अर्क कुछ बीमारियों के विरुद्ध काम करता है. पौधे स्वस्थ्य व हरेभरे रहते हैं. सब्जियों की फसल की सदैव निगरानी एवं निरीक्षण करते रहें, खेतों में साफसफाई का ध्यान रखें और कृषि क्रियाएं समयसमय पर करते रहें, तो कीटों का प्रकोप कम होगा.

जब जरूरत पड़े, तभी जैविक कीटनाशकों का छिड़काव करें. छिड़काव से पहले तैयार सब्जियों की तुड़ाई कर लेनी चाहिए. छिड़काव के 4-5 दिन बाद ही सब्जियों का उपयोग करना चाहिए.

ओडिशा में बढ़ेगा दूध उत्पादन

मयूरभंज : राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने बीते 13 जनवरी, 2025 को ओडिशा के मयूरभंज जिले में डेयरी और पशुधन क्षेत्र में महत्वपूर्ण पहलों की एक श्रृंखला का वर्चुअल माध्यम से उद्घाटन किया.

मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के तहत पशुपालन और डेयरी विभाग की अगुआई में इन कार्यक्रमों का उद्देश्य ग्रामीण स्तर पर आजीविका को बढ़ाना, पशुधन उत्पादकता में सुधार करना और क्षेत्र में महत्वपूर्ण पोषण संबंधी चुनौतियों का समाधान करना है.

इस कार्यक्रम में मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय और पंचायती राज मंत्री राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह, केंद्रीय  शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी और पंचायती राज राज्य मंत्री प्रो. एसपी सिंह बघेल, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी और अल्पसंख्यक मामलों के राज्य मंत्री  जौर्ज कुरियन  और ओडिशा के मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी सहित कई व्यक्ति उपस्थित थे.

कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने ‘राष्ट्रीय गोकुल मिशन’ के तहत मयूरभंज में ‘मवेशी प्रेरण’ कार्यक्रम का उद्घाटन किया. इस पहल में ओडिशा के मयूरभंज जिले में चुने गए लाभार्थियों को 3,000 उच्च आनुवंशिक गुणवत्ता वाले मवेशियों का वितरण किया गया. पशुपालन और डेयरी विभाग की ‘राष्ट्रीय गोकुल मिशन’ योजना के तहत राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड द्वारा मयूरभंज में 5 सालों में 37.45 करोड़ रुपए के आवंटन के साथ उत्पादकता वृद्धि परियोजना कार्यान्वित की जा रही है.

इस कार्यक्रम का उद्देश्य दूध उत्पादन को बढ़ाना, ग्रामीण आय को मजबूत करना और टिकाऊ पशुधन विधियों को बढ़ावा देना है. कार्यक्रम के हिस्से के रूप में गिफ्ट मिल्क प्रोग्राम भी शुरू किया गया. साथ ही, कुपोषण से निबटने और बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार के लिए डिजाइन किए गए  इस कार्यक्रम में मयूरभंज जिले के लगभग 1,200 स्कूली बच्चों को विटामिन ए और डी से भरपूर 200 मिलीलिटर फ्लेवर्ड दूध प्रदान किया जाएगा.

इस पहल का वर्चुअल उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने पोषण और शिक्षा पर ऐसे कार्यक्रमों के सकारात्मक प्रभाव पर भी ध्‍यान दिया और उम्मीद जताई कि इस तरह के प्रयास देशभर में इसी तरह के कार्यक्रमों के लिए एक मौडल के रूप में काम करेंगे. इस के अलावा, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने ओडिशा राज्य में दूध खरीद, प्रसंस्करण और विपणन को मजबूत करने के लिए एक बाजार सहायता कार्यक्रम शुरू किया.

इस पहल का उद्देश्य राज्य में दूध खरीद क्षमता को 5 लाख लिटर प्रतिदिन से बढ़ा कर 10 लाख लिटर प्रतिदिन करना है. यह कार्यक्रम किसानों के लिए बेहतर लाभ सुनिश्चित करने के लिए ब्रांडिंग और वितरण नैटवर्क बनाने पर केंद्रित है.

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने डेयरी क्षेत्र में दूरदर्शी नीतियों और अभिनव कार्यक्रमों के  माध्यम से बदलाव लाने में पशुपालन और डेयरी विभाग के प्रयासों की भी सराहना की. उन्होंने दूध उत्पादन में भारत के प्रयासों पर प्रकाश डाला, जो पिछले दशक में वैश्विक रुझानों को पार करते हुए 6 फीसदी सालाना दर से बढ़ा है.

राष्ट्रपति ने पशुधन उत्पादकता बढ़ाने और डेयरी फार्मिंग में लाभ को बढ़ाने के लिए कृत्रिम गर्भाधान और उच्‍च गुणवत्तायुक्‍त वीर्य संवर्धन जैसी उन्नत तकनीकों को अपनाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने भी ‘राष्ट्रीय गोकुल मिशन’ की सफलता पर जोर दिया, जिस ने देशी गोजातीय नस्लों की नस्ल सुधार और उत्पादकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. उन्होंने ग्रामीण आर्थिक विकास को गति देने और किसानों के लिए बाजार संपर्क में सुधार करते हुए महत्‍वपूर्ण डेयरी पहलों के लिए निरंतर समर्थन प्रदान करने के लिए पशुपालन व डेयरी विभाग और राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) के प्रयासों की भी सराहना की.

ओडिशा के मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी ने कहा कि स्थायी ग्रामीण आजीविका को बढ़ावा देने में पशुधन की महत्वपूर्ण भूमिका है. उन्होंने नवोन्मेषी और किसान केंद्रित कार्यक्रमों के माध्यम से डेयरी और पशुधन क्षेत्रों को आगे बढ़ाने के लिए राज्य की प्रतिबद्धता पर जोर दिया.

इस कार्यक्रम में ओडिशा के वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री  गणेश राम सिंह खुंटिया, ओडिशा के पशु संसाधन विकास, मत्स्यपालन और एमएसएमई मंत्री  गोकुलानंद मल्लिक, पशुपालन और डेयरी विभाग की सचिव अलका उपाध्याय, पशुपालन और डेयरी विभाग की अतिरिक्त सचिव  वर्षा जोशी, राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के अध्यक्ष मीनेश शाह, ओडिशा के मत्स्यपालन और पशु संसाधन विकास विभाग के प्रधान सचिव सुरेश कुमार वशिष्ठ और अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी उपस्थित थे.

पशुओं के लिए बरसीम एक पौष्टिक दलहनी चारा (Pulse Fodder)

बरसीम हरे चारे की एक आदर्श फसल है. यह खेत को अधिक उपजाऊ बनाती है. इसे भूसे के साथ मिला कर खिलाने से पशु के निर्वाहक एवं उत्पादन दोनों प्रकार के आहारों में प्रयोग किया जा सकता है.

बरसीम शीतोष्ण जलवायु वाले भागों में उगाई जाने वाली फसल है. अधिक ठंड व पाले से इस के उत्पादन में कमी हो जाती है. बोआई के समय तापमान 25-30 डिगरी सैंटीग्रेड और वानस्पतिक बढ़ोतरी के लिए 15-25 डिगरी सैंटीग्रेड सही रहता है.

भूमि

बरसीम एक दलहनी फसल है, इसलिए इस की जड़ों में सूक्ष्म जीवाणु पाए जाते हैं. हर एक अवस्था में इन जड़ग्रंथियों में रह रहे जीवाणुओं का जिंदा रहना फसल की बढ़वार के लिए बेहद जरूरी है, इसलिए बरसीम की खेती के लिए भूमि में उचित जल निकासी और अच्छा मृदा वायु का संचार होना चाहिए.

इस की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन भारी दोमद मिट्टी, जिस में पानी सोखने की क्षमता अधिक होती है, इस फसल के लिए अधिक लाभदायक है. बरसीम की खेती सामान्य मिट्टी से ले कर क्षारीय मिट्टी तक में अच्छी तरह से उगाई जा सकती है, लेकिन अम्लीय मिट्टी इस की खेती के लिए अच्छी नहीं होती है.

उन्नतशील प्रजातियां

बरसीम में गुणसूत्र के आधार पर 2 तरह की प्रजातियां द्विगुणित और चतुर्गुणित पाई जाती हैं. द्विगुणित प्रजातियां मिसकावी, वरदान, बरसीम लुधियाना-1 हैं, वहीं चतुर्गुणित प्रजातियों में पूसा जौइंट, टाइप-526, 678, 780 हैं.

खेत की तैयारी

एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद 4-5 बार हैरो या देशी हल लगा कर पाटा से खेत को समतल कर लेना चाहिए. साथ ही, जरूरत के मुताबिक समान सिंचाई के लिए क्यारियां भी बना लेनी चाहिए.

बोआई की विधि

आमतौर पर बरसीम की बोआई की 2 प्रमुख विधियां हैं :

पानी भरे खेत में बोआई : पानी भरे खेत में पटेला चला कर पानी गंदला करने के बाद छिटकवां विधि से बोआई की जाती है. इस विधि में खेत की तैयारी धान में पौध रोपण करने की तरह से ही की जाती है.

गंदले पानी में बोआई करने से मिट्टी की एक हलकी परत बीजों के ऊपर चढ़ जाती है, जिस से वे ढंक जाते हैं और उन्हें चिडि़या या दूसरे पक्षी नहीं खा पाते और पर्याप्त नमी होने के कारण बीज का अंकुरण भी बहुत अच्छा होता है.

सूखे खेत में बोआई : इस विधि में अच्छी प्रकार की भुरभुरी मिट्टी तैयार कर समतल किए गए खेत में पहले ही सिंचाई के लिए क्यारियां बना कर बोआई छिटकवां विधि द्वारा या लाइन में देशी हल की सहायता से की जाती है.

लाइन में बोआई करने पर लाइन से लाइन की दूरी 15-20 सैंटीमीटर रखनी चाहिए और बीज की गहराई 15-20 सैंटीमीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. साथ ही, अंकुरण के लिए पर्याप्त नमी बनाए रखने के लिए बोआई के तुरंत बाद खेत में पानी लगा दिया जाना चाहिए.

बीज दर

द्विगुणित किस्मों के बीजों की दर 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और चतुर्गुणित किस्मों के बीजों का आकार में बड़ा होने के कारण 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है.

बीजोपचार

बरसीम के बीज में आमतौर पर कासनी का बीज मिला रहता है. बीज को 5 फीसदी नमक के घोल में डुबो कर इसे अलग कर लें (कासनी का बीज पानी के ऊपर आ जाता है). बीज का उपचार दलहनी फसल होने के कारण राइजोबियम कल्चर से होना बहुत जरूरी है.

बरसीम में राइजोबियम ट्राईफोली नामक बैक्टीरिया का कल्चर में इस्तेमाल किया जाता है. इस के प्रयोग से पौधों में अच्छी प्रकार से जड़गांठों में मौजूद बैक्टीरिया हवा से नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं.

कल्चर प्रयोग के लिए सब से पहले 100 ग्राम गुड़ को 1 लिटर पानी में उबाल कर ठंडा कर लें. उस के बाद इस में राइजोबियम कल्चर को घोल कर फिर बीज के बराबर मात्रा में भुरभुरी मिट्टी ले कर धीरेधीरे छिड़क कर इस प्रकार मिलाएं कि मिट्टी के ढेले न बनें.

इस संवर्धित घोल से तैयार की गई कल्चरयुक्त मिट्टी को 24 घंटे भिगोए गए बीज के साथ मिला कर बोआई के लिए प्रयोग कर सकते हैं.

ध्यान रखने वाली बात यह है कि कल्चर बीज को 24 घंटे से अधिक नहीं रखना चाहिए, क्योंकि फिर बैक्टीरिया नष्ट होने लगते हैं.

उर्वरक

बरसीम दलहनी फसल होने के कारण इस की जड़ों में राइजोबियम बैक्टीरिया होते हैं, जो खुद हवा से नाइट्रोजन लेते हैं, इसलिए फसल को बाहर से कम नाइट्रोजन देने की जरूरत पड़ती है.

उन्नत फसल के उत्पादन के लिए 25-30 किलोग्राम नाइट्रोजन और 50-60 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है. अधिक उपज लेने के लिए हर एक कटाई के बाद पानी लगा कर 5-6 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया का छिड़काव करना चाहिए. साथ ही, लक्षण दिखाई पड़ने पर सूक्ष्म तत्त्वों का प्रयोग करना लाभकारी होता है.

सिंचाई

बरसीम ठंडे मौसम में (मार्च माह तक) 15-20 दिन के अंतर पर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. हर एक कटाई के बाद हलका पानी लगा देने से उत्पादन में बढ़ोतरी होती है.

फसल चक्र

खरीफ की फसल के बाद रबी के मौसम में बरसीम की खेती आसानी से की जा सकती है. बरसीम की खेती से अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए निम्न प्रकार से फसल चक्र अपनाने पर मिट्टी की गुणवत्ता में बढ़ोतरी के साथसाथ अधिक आय भी प्राप्त की जा सकती है.

फसल सुरक्षा

चारे की फसल होने के कारण चूंकि बारबार कटाई की जाती है, इसलिए रोग और कीड़ों का प्रकोप आमतौर पर दिखाई नहीं पड़ता है. इसलिए फसल सुरक्षा के उपायों की जरूरत पड़ती है.

परंतु रोग प्रतिरोधी किस्म की प्रजातियां बोने से जड़ गलन और गेरुई जैसे रोगों की संभावना नहीं रहती है, इसलिए बोआई के लिए उन्नतशील रोगरोधी प्रजातियों को बोएं.

कटाई

पहली कटाई बोआई के 50-60 दिन बाद करनी चाहिए. इस के बाद 30-35 दिन के अंतराल पर 5-6 कटाई की जाती है. कटाई हमेशा जमीन से 6-10 सैंटीमीटर की ऊंचाई से काटी जानी चाहिए, जिस से पौधे की दोबारा वृद्धि में भाग लेने वाली कलिकाओं को नुकसान न पहुंचे.

उपज

बरसीम से चारे की कुल उपज 1,000-1,200 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिलती है. वहीं दूसरी ओर पशुपालकों को यह सलाह दी जाती है कि बरसीम अधिक खिलाने से पशुओं में अफरा रोग हो जाता है, इसलिए इसे सूखे चारे के साथ मिला कर खिलाएं.

बरसीम सर्दी के मौसम में पौष्टिक चारे का एक उत्तम स्रोत है. इस में रेशे की मात्रा कम और प्रोटीन की औसत मात्रा 20 से 22 फीसदी होती है. चारे की पाचनशीलता 70-75 फीसदी होती है.

इस के अलावा इस में कैल्शियम और फास्फोरस भी काफी मात्रा में पाए जाते हैं, जिस के कारण दुधारू पशुओं को अलग से खली या दाना आदि देने की जरूरत कम पड़ती है.

बरसीम पशुओं के लिए बहुत ही लोकप्रिय चारा है, क्योंकि यह बेहद पौष्टिक एवं स्वादिष्ठ होता है.

दुधारू पशुओं की प्रमुख बीमारियां और उन का उपचार

दुधारू पशुओं में अनेक कारणों से बहुत सी बीमारियां होती हैं. सूक्ष्म विषाणु, जीवाणु, फफूंदी, अंत: व बाह्य परजीवी, प्रोटोजोआ, कुपोषण और शरीर के अंदर की चयापचय (मैटाबोलिज्म) क्रिया में विकार आदि. इन बीमारियों में बहुत सी जानलेवा हैं और कई बीमारियां तो पशु के दूध देने की क्षमता पर बुरा असर डालती “हैं.

कुछ बीमारियां तो एक पशु से दूसरे पशु को लग जाती हैं, इसलिए सावधान रहने की जरूरत है जैसे मुंहपका व खुरपका की बीमारी, गलघोंटू आदि को ‘छूतदार बीमारी’ कहते हैं.

यहां तक कि कुछ बीमारियां पशुओं से इनसानों में भी आ जाती हैं जैसे रेबीज, क्षय यानी टीबी की बीमारी. इन्हें ‘जुनोटिक बीमारी’ कहते हैं.

ऐसे में पशुपालकों को इन प्रमुख बीमारियों के बारे में जानना बेहद जरूरी है, ताकि उचित समय पर सही कदम उठा कर अपना माली नुकसान होने से बचा जा सके और इनसान की सेहत को ठीक बनाए रखने में भी सहयोग कर सके.

विषाणुजनित बीमारी खुरपका व मुंहपका

यह सूक्ष्म विषाणु यानी वायरस से पैदा होने वाली बीमारी को विभिन्न जगहों पर विभिन्न स्थानीय नामों से जाना जाता है, जैसे खरेडू, मुंहपका, खुरपका, चपका, खुरपा वगैरह. यह बहुत तेजी से फैलने वाली ‘छूतदार बीमारी’ है, जो कि गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊंट, सूअर आदि पशुओं में होती है.

विदेशी और संकर नस्ल की गायों में यह बीमारी अधिक गंभीर रूप से पाई जाती है. हमारे देश में यह बीमारी हर जगह होती है. इस बीमारी से ग्रसित पशु ठीक हो कर बहुत ही कमजोर हो जाते हैं. इस वजह से दुधारू पशुओं में दूध का उत्पादन बहुत ही कम हो जाता है. यहां तक कि बैल भी काफी समय तक काम करने योग्य नहीं रहते. पशु शरीर पर बालों का कवर खुरदरा और खुर कुरूप हो जाते हैं.

वजह

मुंहपका व खुरपका बीमारी एक अत्यंत सूक्ष्ण विषाणु, जिस के अनेक प्रकार और उपप्रकार हैं, से होती है. इन की प्रमुख किस्मों में ओ, ए, सी, एशिया-1, एशिया-2, एशिया-3, सैट-1, सैट-3 और इन की 14 उपकिस्में शामिल हैं.

हमारे देश में यह बीमारी मुख्यत: ओ, ए, सी और एशिया-1 प्रकार के विषाणुओं द्वारा होती है. नम वातावरण, पशु की अंदरूनी कमजोरी, पशुओं और लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर आनाजाना और नजदीकी क्षेत्र में बीमारी का प्रकोप ही इस बीमारी को फैलाने में सहायक कारक हैं.

संक्रमण से फैलती है बीमारी

यह बीमारी बीमार पशु के सीधे संपर्क में आने, पानी, घास, दाना, बरतन, दूध निकालने वाले व्यक्ति के हाथों से, हवा से और लोगों के आनेजाने से फैलती है.

इस के विषाणु बीमार पशु की लार, मुंह, खुर व थनों में पड़े फफोलों में बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं. ये खुले में घास, चारा व फर्श पर 4 महीनों तक जीवित रह सकते हैं, लेकिन गरमी के मौसम में ये बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं.

ये विषाणु जीभ, मुंह, आंत, खुरों के बीच की जगह, थनों व घाव आदि के द्वारा स्वस्थ पशु के खून में पहुंचते हैं और तकरीबन 5 दिनों के अंदर उस में बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं.

लक्षण

इस बीमारी से ग्रसित पशु को 104-106 डिगरी फारेनहाइट तक बुखार हो जाता है. वह खानापीना व जुगाली करना बंद कर देता है. इस वजह से पशुओं का दूध देना कम हो जाता है, मुंह से लार गिरने लगती है और मुंह हिलाने पर चपचप की आवाज आती है. इसी कारण इसे ‘चपका बीमारी’ भी कहते हैं.

बुखार के बाद पशु के मुंह के अंदर, गालों, जीभ, होंठ, तालू व मसूड़ों के अंदर, खुरों के बीच और कभीकभी थनों पर छाले पड़ जाते हैं. ये छाले फटने के बाद घाव का रूप ले लेते हैं, जिस से पशु को बहुत दर्द होने लगता है. मुंह में घाव व दर्द के कारण पशु खापी नहीं पाता है. इस के चलते वह बहुत कमजोर हो जाता है. खुरों में दर्द के कारण पशु लंगड़ा कर चलने लगता है. गर्भवती मादा में कई बार गर्भपात भी हो जाता है.

नवजात बछड़े व बछिया बिना किसी प्रकार के लक्षण दिखाए मर जाते हैं. कई बार लापरवाही बरतने पर पशु के खुरों में कीड़े पड़ जाते हैं और कई बार खुरों के कवच भी निकल जाते हैं.

हालांकि व्यस्क पशु में मृत्युदर कम (तकरीबन 10 फीसदी) है, लेकिन इस बीमारी से पशुपालक को माली नुकसान बहुत ज्यादा उठाना पड़ता है. दूध देने वाले पशु बीमारी में कम दूध देते हैं. ठीक हुए पशुओं का शरीर खुरदरा और उन में कभीकभी हांफना शुरू हो जाता है. बैलों में भी भारी काम करने की क्षमता खत्म हो जाती है.

उपचार

इस बीमारी का कोई निश्चित उपचार नहीं है, लेकिन बीमारी की गंभीरता को कम करने के लिए लक्षणों के आधार पर पशु का उपचार किया जाता है.

बीमार पशु में सैकंडरी संक्रमण को रोकने के लिए उसे पशु चिकित्सक की सलाह पर एंटीबायोटिक के टीके लगाए जाते हैं. मुंह व खुरों के घावों को फिटकरी या पोटाश के पानी से धोते हैं. मुंह में बोरोग्लिसरीन व खुरों में किसी एंटीसैप्टिक लोशन या क्रीम का प्रयोग किया जा सकता है.

बीमारी से बचाव

* बचाव के लिए पशुओं को पौलीवेलेंट वैक्सीन के साल में 2 बार टीके अवश्य लगवाने चाहिए. बछड़े व बछिया में पहला टीका 1 माह की उम्र में, दूसरा टीका तीसरे माह की उम्र में और तीसरा 6 माह की उम्र में और उस के बाद नियमित सारिणी के अनुसार टीका लगाया जाना चाहिए.

* बीमार होने पर पशु को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए.

* बीमार पशु की देखभाल करने वाले व्यक्ति को भी स्वस्थ पशुओं के बाड़े से दूर रहना चाहिए.

* बीमार पशु के आनेजाने पर रोक लगा देनी चाहिए.

* बीमारी से प्रभावित क्षेत्र से पशु नहीं खरीदना चाहिए.

* पशुशाला को बहुत ही साफसुथरा रखना चाहिए.

* इस बीमारी से मरे पशु को खुला न छोड़ें और उसे जमीन में गाड़ देना चाहिए.

पशु प्लेग (रिंडरपेस्ट)

यह बीमारी भी एक विषाणु से पैदा होने वाली छूतदार बीमारी है, जो कि जुगाली करने वाले तकरीबन सभी पशुओं को होती है. इन में पशु को दस्त अथवा पेचिश लग जाती है.

यह बीमारी स्वस्थ पशु को बीमार पशु के सीधे संपर्क में आने से फैलती है. इस के अलावा बरतनों और देखभाल करने वाले व्यक्ति द्वारा भी यह बीमारी फैल सकती है.

इस में पशु को तेज बुखार हो जाता है और वह बेचैन हो जाता है. उस की आंखें सुर्ख लाल हो जाती हैं. पशु दूध देना कम कर देता है.

2-3 दिन बाद पशु के मुंह, होंठ, मसूड़े व जीभ के नीचे दाने निकल आते हैं, जो बाद में घाव का रूप ले लेते हैं. पशु के मुंह से लार निकलने लगती है और उसे पतले व बदबूदार दस्त लग जाते हैं, जिन में खून भी आने लगता है.

इस बीमारी में पशु के शरीर में पानी की बेहद कमी हो जाती है. इस वजह से वह बहुत कमजोर हो जाता है. यहां तक कि अगर समय रहते इलाज न मिले, तो पशु की 3-9 दिनों में मौत हो जाती है.

इस बीमारी के प्रकोप से दुनियाभर में लाखों की तादाद में पशु मरते हैं, लेकिन अब विश्वस्तर पर इस बीमारी के उन्मूलन की योजना के तहत भारत सरकार द्वारा लागू की गई रिंडरपेस्ट इरेडिकेशन परियोजना के तहत रोग निरोधक टीकों के लगातार प्रयोग से यह बीमारी प्रदेश और देश में तकरीबन खत्म सी हो चुकी है.

दुधारू पशु (dairy animal)पशुओं में पागलपन (रेबीज)

इस बीमारी को पैदा करने वाले सूक्ष्म विषाणु कुत्ते, बिल्ली, बंदर, गीदड़, लोमड़ी या नेवले के काटने से स्वस्थ पशु के शरीर में प्रवेश करते हैं और नाडि़यों के द्वारा दिमाग में पहुंच कर उस में बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं.

बीमारी से ग्रसित पशु की लार में यह विषाणु बहुतायत में होते हैं. बीमार पशु द्वारा दूसरे पशु को काट लेने अथवा शरीर में पहले से मौजूद किसी घाव के ऊपर रोगी की लार लग जाने से यह बीमारी फैल सकती है.

यह बीमारी रोगग्रस्त पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकती है, इसलिए इस बीमारी के प्रति सावधान रहने की जरूरत है. एक बार पशु अथवा मनुष्य में इस बीमारी के लक्षण पैदा होने के बाद उस का फिर कोई इलाज नहीं है और उस की मृत्यु निश्चित है.

विषाणु के शरीर में घाव आदि के माध्यम से प्रवेश करने के बाद 10 दिन से 210 दिनों तक की अवधि में यह बीमारी हो सकती है. मस्तिष्क के जितना अधिक नजदीक घाव होता है, उतनी ही जल्दी बीमारी के लक्षण पशु में पैदा हो जाते हैं. जैसे सिर अथवा चेहरे पर काटे गए पशु में एक हफ्ते के बाद यह बीमारी पैदा हो सकती है.

लक्षण

रेबीज आमतौर पर 2 रूपों में देखी जाती है. पहला, जिस में बीमारी से ग्रसित पशु काफी भयानक हो जाता है और दूसरा, जिस में वह बिलकुल शांत रहता है. पहले अथवा उग्र रूप में पशु में बीमारी के सभी लक्षण स्पष्ट दिखाई देते हैं, लेकिन शांत रूप में बीमारी के लक्षण बहुत कम अथवा नहीं के बराबर होते हैं.

कुत्तों में इस बीमारी की शुरुआती अवस्था में व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है और उस की आंखें अधिक तेज नजर आती हैं. कभीकभी शरीर का तापमान भी बढ़ जाता है. 2-3 दिन के बाद उस की बेचैनी बढ़ जाती है और उस में बहुत ज्यादा चिड़चिड़ापन आ जाता है. वह काल्पनिक वस्तुओं की ओर अथवा बिना किसी प्रयोजन के इधरउधर काफी तेजी से दौड़ने लगता है और रास्ते में जो भी मिलता है, उसे काट लेता है.

अंतिम अवस्था में पशु के गले में लकवा हो जाने के कारण उस की आवाज बदल जाती है, शरीर में कंपकंपी, चाल में लड़खड़ाहट आ जाती है और वह लकवाग्रस्त हो कर अचेतन अवस्था में पड़ा रहता है. इसी अवस्था में उस की मौत हो जाती है.

गाय व भैंसों में इस बीमारी के गंभीर लक्षण दिखते हैं. पशु काफी उत्तेजित अवस्था में दिखता है और वह बहुत तेजी से भागने की कोशिश करता है. वह जोरजोर से रंभाने लगता है और बीचबीच में जम्हाइयां लेता हुआ दिखाई देता है. वह अपने सिर को किसी पेड़ अथवा दीवार के साथ टकराता है. कई पशुओं में पागलपन के लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं. बीमारी से ग्रसित पशु दुर्बल हो जाता है और उस की मौत हो जाती है.

मनुष्य में इस बीमारी के प्रमुख लक्षणों में उत्तेजित होना, पानी अथवा कोई खाने की चीज को निगलने में काफी तकलीफ महसूस करना और आखिर में लकवा होना आदि है.

उपचार व रोकथाम

एक बार लक्षण पैदा हो जाने के बाद इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है. जैसे ही किसी स्वस्थ पशु को इस बीमारी से ग्रसित पशु काट लेता है, उसे तुरंत नजदीकी पशु चिकित्सालय में ले जा कर इस बीमारी से बचाव का टीका लगवाएं. इस काम में लापरवाही बिलकुल नहीं बरतनी चाहिए, क्योंकि ये टीके तब तक ही प्रभावकारी हो सकते हैं, जब तक कि पशु में बीमारी के लक्षण पैदा नहीं होते.

पालतू कुत्तों को इस बीमारी से बचाने के लिए नियमित रूप से टीके लगवाने चाहिए. साथ ही, आवारा कुत्तों को समाप्त कर देना चाहिए. पालतू कुत्तों का पंजीकरण स्थानीय संस्थाओं द्वारा करवाना चाहिए और उन के नियमित टीकाकरण की जिम्मेदारी पशु मालिक को निभानी चाहिए.

जीवाणुजनित बीमारी गलघोंटू

गायभैंसों में होने वाली एक बहुत ही घातक और छूतदार बीमारी है, जो कि अधिकतर बरसात के मौसम में होती है. यह गायों की अपेक्षा भैंसों में अधिक पाई जाती है.

यह बीमारी तेजी से फैल कर बड़ी तादाद मे पशुओं को अपनी चपेट में ले कर उन की मौत का कारण बन जाती है. इस से पशुपालकों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है.

इस बीमारी के प्रमुख लक्षणों में तेज बुखार, गले में सूजन, सांस लेने में तकलीफ,  सांस लेते समय तेज आवाज होना आदि शामिल हैं. कई बार बिना किसी स्पष्ट लक्षणों के ही पशु की अचानक मौत हो जाती है.

उपचार व रोकथाम

इस बीमारी से ग्रसित हुए पशु को तुरंत ही पशु चिकित्सक को दिखाना चाहिए, अन्यथा पशु की मौत हो जाती है. सही समय पर उपचार दिए जाने पर इस बीमारी से ग्रसित पशु को बचाया जा सकता है.

इस बीमारी की रोकथाम करने के लिए रोगनिरोधक टीके लगाए जाते हैं. पहला टीका 3 माह की उम्र में, दूसरा टीका 9 माह की उम्र में और इस के बाद हर साल यह टीका लगाया जाता है. ये टीके पशु चिकित्सा संस्थानों में मुफ्त में लगाए जाते हैं.

लंगड़ा बुखार

जीवाणुओं से फैलने वाली यह बीमारी गायभैंसों दोनों को होती है, लेकिन गायों में यह बीमारी अधिक देखी जाती है. इस से अच्छे व स्वस्थ पशु ही ज्यादातर प्रभावित होते हैं.

इस बीमारी में पिछली अथवा अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है, जिस से पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठ जाता है. पशु को तेज बुखार हो जाता है और सूजन वाली जगह को दबाने पर कड़कड़ की आवाज आती है.

उपचार व रोकथाम

बीमारी से ग्रसित पशु के उपचार के लिए तुरंत नजदीकी पशु चिकित्सालय में संपर्क करना चाहिए, ताकि पशु को शीघ्र उचित उपचार मिल सके. देर करने से पशु का बचना लगभग असंभव हो जाता है, क्योंकि जीवाणुओं द्वारा पैदा हुआ जहर शरीर में पूरी तरह से फैल जाता है और पशु मर जाता है.

उपचार के लिए पशु को ऊंची डोज में प्रोकेन पेनिसिलीन के टीके लगाए जाते हैं और सूजन वाली जगह पर भी इसी दवा को सूई द्वारा मांस में डाला जाता है.

इस बीमारी से बचाव के लिए पशु चिकित्सक संस्थाओं में रोग निरोधक टीके मुफ्त में लगाए जाते हैं, इसलिए पशुपालकों को इस सुविधा का अवश्य लाभ उठाना चाहिए.

दुधारू पशु (dairy animal)

पशुओं का छूतदार गर्भपात

जीवाणुजनित इस बीमारी में गायभैंसों में गर्भावस्था के अंतिम 3 माह में गर्भपात हो जाता है. यह बीमारी पशुओं से मनुष्यों में भी आ सकती है. मनुष्यों में यह उतारचढ़ाव वाला बुखार ‘एजोलेंट फीवर’ नामक बीमारी पैदा करता है.

पशुओं में गर्भपात से पहले अंग से अपारदर्शी पदार्थ निकलता है और गर्भपात के बाद पशु की जेर रुक जाती है. इस के अलावा यह जोड़ों में सूजन यानी अर्थराइटिस पैदा कर सकता है.

उपचार व रोकथाम

अब तक इस बीमारी का कोई प्रभावी इलाज नहीं है. अगर इलाके में इस बीमारी के 5 फीसदी से अधिक पौजीटिव केस हों, तो बीमारी की रोकथाम करने के लिए बछियों में 3-6 माह की उम्र में ब्रूसेल्ला एबोर्ट्स स्ट्रेन-19 के टीके लगाए जा सकते हैं. पशुओं में प्रजनन की कृत्रिम गर्भाधान पद्धति अपना कर भी इस बीमारी से बचा जा सकता है.

पशुओं के पेशाब में खून आना

यह बीमारी पशुओं में एक कोशिकीय जीव, जिसे प्रोटोजोआ कहते हैं, से होती है. बबेसिया प्रजाति के प्रोटोजोआ पशुओं के रक्त में चिचडि़यों के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं और वे रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं में जा कर अपनी संख्या बढ़ाने लगते हैं, जिस के फलस्वरूप लाल रक्त कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं.

लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन पेशाब के द्वारा शरीर से बाहर निकलने लगता है, जिस से पेशाब का रंग कौफी के रंग जैसा हो जाता है. कभीकभी उसे खून वाले दस्त भी लग जाते हैं. इस में पशु खून की कमी हो जाने से बहुत कमजोर हो जाता है. पशु में पीलिया के लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं और समय पर इलाज न कराया जाए, तो पशु की मौत हो जाती है.

उपचार व रोकथाम

यदि समय पर पशु का इलाज कराया जाए, तो पशु को इस बीमारी से बचाया जा सकता है. इस में बिरेनिल के टीके पशु के भार के अनुसार मांस में दिए जाते हैं और खून बढ़ाने वाली दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है.

इस बीमारी से पशुओं को बचाने के लिए उन्हें चिचडि़यों के प्रकोप से बचाना जरूरी है, क्योंकि यह बीमारी चिचडि़यों के द्वारा ही पशुओं में फैलती है.

पशुओं के शरीर पर जुएं,चिचड़ी व पिस्सू का प्रकोप

पशुओं के शरीर पर बाह्म परजीवी जैसे कि जुएं, पिस्सू या चिचड़ी आदि का प्रकोप होने पर वे पशुओं का खून चूसते हैं, जिस से पशु में खून की कमी हो जाती है और वे कमजोर हो जाते हैं. साथ ही, इन पशुओं की दूध देने की क्षमता भी घट जाती है और वे दूसरी बहुत सी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं.

बहुत से परजीवी जैसे कि चिचडि़यों आदि पशुओं में कुछ अन्य बीमारी भी कर देते हैं. पशुओं में बाह्म परजीवी के प्रकोप को रोकने के लिए अनेक दवाएं हैं, जिन्हें पशु चिकित्सक की सलाह के अनुसार प्रयोग कर इन से बचा जा सकता है.

पशुओं में अंत:परजीवी प्रकोप

पशुओं की पाचन नली में भी अनेक प्रकार के परजीवी पाए जाते हैं, जिन्हें अंत:परजीवी कहते हैं. ये पशु के पेट, आंत, लिवर, उस के खून व खुराक पर निर्वाह करते हैं, जिस से पशु कमजोर हो जाता है और वह दूसरी बहुत सी बीमारियों का शिकार हो जाता है. इस से पशु की उत्पादन क्षमता में भी कमी आ जाती है.

पशुओं को उचित आहार देने के बावजूद अगर वे कमजोर दिखाई दें, तो इस के गोबर के नमूनों का पशु चिकित्सालय में परीक्षण करना चाहिए. परजीवी के अंडे गोबर के नमूनों में देख कर पशु को उचित दवा दी जाती है, जिस से परजीवी नष्ट हो जाते हैं.

कीटरक्षक फसलों (Insect Repellent Crops) को लगाने का तरीका

फसल कीटरक्षक वे फसलें होती हैं, जो खेत में एक खास अवधि के दौरान मुख्य फसल को कीटों से बचाती हैं. इस तकनीक में मुख्य फसल के साथसाथ कोई दूसरी फसल साथ में लगाई जाती है, जो मुख्य फसल में नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं.

इस के लिए हानिकारक कीटों के बारे में जानकारी होनी चाहिए. उस के लिए किस तरह के पौधों को लगाते हैं या उस के बीचबीच में कौन सी दूसरी फसल लगानी चाहिए, यह भी जानकारी होनी चाहिए.

खासकर निमेटोड जैसी बीमारी के लिए यह तकनीक बहुत अच्छी है. फसल को कीटों से बचाने का यह एक प्राकृतिक तरीका है, जिस में किसी भी तरह के कृषि रसायन का इस्तेमाल नहीं होता.

इसी के बारे में कुछ खास जानकारी यहां दी गई है :

* गोभी में हीरकपृष्ठ शलभ की रोकथाम के लिए बोल्ड सरसों को गोभी के प्रत्येक 25 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना.

* कपास की इल्ली/छेदक की रोकथाम के लिए लोबिया को कपास के प्रत्येक 5 कतारों के बाद 1 कतार में लगाना. कपास की इल्ली/छेदक की रोकथाम के लिए तंबाकू को कपास के प्रत्येक 20 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना.

* टमाटर में फल छेदक/निमेटोड की रोकथाम के लिए अफ्रीकन गेंदे को टमाटर के प्रत्येक 14 कतारों के बाद 2 कतारों में लगाना.

* बैगन में तना छेदक व फल छेदक की रोकथाम के लिए धनिया/मेथी को बैगन के प्रत्येक 2 कतारों के बाद 1 कतार में लगाना.

* चने में इल्ली की रोकथाम के लिए धनिया/गेंदा को चना के प्रत्येक 4 कतारों के बाद 1 कतार में लगाना.

* अरहर में चना की इल्ली की रोकथाम के लिए गेंदा को अरहर के चारों तरफ बौर्डर में लगाना.

* मक्का में तना छेदक की रोकथाम के लिए नेपियर/सूडान घास को मक्के के चारों तरफ बौर्डर में लगाना.

* सोयाबीन में तंबाकू की इल्ली की रोकथाम के लिए सूरजमुखी या अरंडी को सोयाबीन के चारों तरफ 1 कतार में लगाना. रक्षक फसलों की सफलता के कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय

* सब से पहले एक फार्म प्लान बनाना चाहिए, जो यह दर्शाए कि कब व कहां कीटरक्षक फसलों को उगाएं.

* फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों की पहचान व जानकारी होना बहुत ही जरूरी है.

* कीट रक्षक फसलों के रूप में ऐसी फसलों का चुनाव करें, जो कीटों को अधिक आकर्षित कर के मुख्य फसलों की रक्षा करे. इस के लिए कृषि वैज्ञानिकों से सलाह लेनी चाहिए.

* फसलों की नियमित रूप से देखरेख होनी चाहिए.

* इन फसलों पर अगर कीट अधिक आकर्षित होते हैं एवं इन की संख्या बहुत अधिक हो जाती है या मुख्य फसल में कीट प्रकोप बढ़ने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं, तो रक्षक फसलों को समयसमय पर काटछांट करते रहना चाहिए.

* अगर बहुत ही जरूरी हो, तो कीटनाशी/जैविक कीटनाशकों का भी छिड़काव करना चाहिए या इन्हें उखाड़ने या नष्ट करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए, ताकि समय पर रोकथाम की जा सके.

कृषि विविधीकरण (Agricultural diversification): आमदनी का मजबूत जरीया

लगातार बढ़ रही कृषि उत्पादन लागत एवं जलवायु परिवर्तन को देखते हुए किसानों को चाहिए कि वे कृषि में विविधीकरण अपनाएं, जिस से कि वे टिकाऊ खेती, औद्यानिकीकरण, पशुपालन, दुग्ध व्यवसाय, मधुमक्खीपालन, मुरगीपालन सहित अन्य लाभदायी उद्यम को करते हुए अपने परिवार की आय को बढ़ाने के साथसाथ स्वरोजगार भी कर सकें.

कृषि विविधीकरण का उद्देश्य

कृषि विविधीकरण का उद्देश्य कृषि के साथसाथ वे सभी कामों के करने से है, जिन से पर्यावरण सुरक्षित रहे और किसानों को लाभ  हो. हवा, जमीन, जानवर, जंगल, जो कि हमारी प्राकृतिक संपदाएं हैं, उन में गुणवत्ता बनी रहे और किसान इन से लगातार अच्छा उत्पादन लेते रहें. जैसे कि मिट्टी की सेहत को बनाए रखने के लिए मिट्टी जांच की संस्तुतियों के अनुसार जैविक विधियों से ज्यादा से ज्यादा आवश्यक पोषक तत्त्वों का भूमि में प्रयोग करें, जिस से कि मिट्टी में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ सके.

उचित फसल चक्र अपनाएं, कम दिनों की फसलें एवं उन की प्रजातियां उगाएं, आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में बौछारी एवं टपक विधि से फसलों की सिंचाई करें. बाजारोन्मुखी औद्यानिक फसलों एवं पौध को पौलीहाउस या शैडनैटहाउस द्वारा समय की मांग के अनुसार उत्पादन करें. साथ ही, उत्पादन में मूल्य संवर्धन कर के बेच कर अधिक लाभ लें.

वर्तमान समय की मांग को देखते हुए शीतकालीन गन्ने के साथसाथ मसूर, चना, दाल वाली मटर, सब्जी की मटर जैसी दलहनी और तिलहन में पीली सरसों का उत्पादन भी करें.

वसंतकालीन गन्ने में अंत:फसली के रूप में लोबिया, उड़द, मूंग भी ले सकते हैं. गन्ने से गुड़, शीरा, सिरका बना कर बेचने से निश्चित रूप से लाभ होता है.

कृषि विविधीकरण (Agricultural diversification)

प्रत्येक किसान के पास गृहवाटिका अवश्य होनी चाहिए, जिस से मौसम के अनुसार लहसुन, प्याज, धनिया, मेथी, मूली, भिंडी, कद्दू, लौकी, पालक, मिर्च, शिमला मिर्च, अदरक, बैगन, टमाटर, सब्जी मटर इत्यादि पैदा करें. फलस्वरूप, गुणवत्तायुक्त ताजी सब्जियों को खाएं, जिस से उन का स्वास्थ्य अच्छा रहे और पैसे की भी बचत हो. केले में धनिया, मेथी, बरसीम की अंत:फसल ले कर प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.

कृषि से संबंधित अन्य व्यवसाय

शहरीकरण के चलते पशुपालन को बढ़ावा देने की जरूरत है, क्योंकि समय की मांग है कि किसान दूध बेचने के बजाय उस का घी, मक्खन, दही, पनीर, छाछ इत्यादि बना कर बेचें, जिस से कि उन को अधिक लाभ हो व उन्नत नस्ल की भैंस मुर्रा, भदावरी, गाय हरियाणा, साहीवाल, थारपारकर, बकरियों में जमुनापारी एवं बरबरी को पालें.

मछलीपालन के लिए रोहू, कतला, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प और कौमन कार्प का प्रयोग करें. औद्योगिक फसलों में बटन मशरूम का उत्पादन करें, क्योंकि इस का बाजार उपलब्ध है.

आवागमन के अच्छे साधन होने की वजह से गेंदा, गुलाब, जरबेरा, ग्लैडिओलस, रजनीगंधा इत्यादि फूलों की खेती करें एवं इत्र के लिए पामारोजा, लैमनग्रास, गुलाब, खस जैसे सगंधीय पौधों की खेती भी कर सकते हैं.

बैकयार्ड मुरगीपालन भी एक कम लागत का लाभदायी घरेलू उद्यम है. वनराजा, कैरीप्रिया, ग्रामप्रिया, कड़कनाथ की उत्पादन क्षमता अधिक है. इन से तकरीबन 200 अंडे हर साल लिए जा सकते हैं. इन के ब्रायलर 40 दिन पर एक से डेढ़ किलो तक के हो जाते हैं.

मधुमक्खीपालन भी कम लागत का एक अच्छा उद्यम है. 50 बक्सों के साथ यह व्यवसाय शुरू किया जा सकता है, जिस से 5 क्विंटल तक शहद हर साल लिया जा सकता है.

इस के अतिरिक्त बटेरपालन भी एक अच्छा व्यवसाय है. किसान संबंधित विभागों से नियमित संपर्क करते रहें, जिस से कि योजनाओं की समय पर जानकारी ले कर उस का उपयोग कर सकें.

मटर की वैज्ञानिक खेती

मटर की खेती हरी फली, साबुत मटर व दाल के लिए की जाती है. मटर की हरी फलियां सब्जी के लिए और सूखे दानों का इस्तेमाल दाल और दूसरी खाने की चीजों को तैयार करने में किया जाता है. हरी मटर के दानों को सुखा कर या डब्बाबंद कर महफूज रखने के बाद भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

फलियां निकालने के बाद हरे व सूखे पौधों का इस्तेमाल पशुओं के चारे में इस्तेमाल किया जाता है. दलहनी फसल होने के चलते इस की खेती से उर्वराशक्ति बढ़ती है.

सब्जी वाली मटर की खेती हमारे देश के मैदानी इलाकों में सर्दियों में और पहाड़ी इलाकों में गरमियों में की जाती है. मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब व हरियाणा में बड़े पैमाने पर इस की खेती की जाती है.

खेत की तैयारी : मटर की खेती के लिए खेत में पाटा लगा कर पहले खेत को भुरभुरा व समतल कर लेना चाहिए. इस के बाद राइजोबियम कल्चर   (5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से उपचारित करने से फायदा होता है.

बोआई का समय : मटर की अच्छी उपज के लिए मध्य अक्तूबर से मध्य नवंबर तक इस की बोआई कर देनी चाहिए. सिंचित अवस्था में 30 नवंबर तक बोआई की जा सकती है.

बोने की विधि : मटर की बोआई अधिकतर हल के पीछे कूंड़ों में की जाती है. अगेती किस्मों को 30 सैंटीमीटर और देर से पकने वाली किस्मों को 45 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में बोना चाहिए और बोआई में ’सीड ड्रिल’ का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

पौधे से पौधे की दूरी 8-10 सैंटीमीटर और बीज की बोआई 4-5 सैंटीमीटर की गहराई तक करनी चाहिए.

खाद एवं उर्वरक: मिट्टी जांच के आधार पर ही खाद और उर्वरक का इस्तेमाल फायदेमंद रहता है. अगर मिट्टी की जांच नहीं हुई है, तो निम्न मात्रा में खाद व उर्वरक का इस्तेमाल करना चाहिए :

गोबर की खाद या कंपोस्ट 10-15 टन प्रति हेक्टेयर खेत की तैयारी के समय दें. नाइट्रोजन 20-25 किलोग्राम दें, क्योंकि फसल दलहनी है, इसलिए इस की जड़ नाइट्रोजन स्थिरीकरण का काम करती है.

फसल को कम नाइट्रोजन देने की जरूरत होती है. फास्फोरस 40-50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और पोटाश 46-50 किलोग्राम बीज बोने के समय कतारों में दी जानी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण : बोने के समय खरपतवार का रासायनिक विधि द्वारा नियंत्रण करना चाहिए. इस के लिए पेंडीमिथेलीन 30 ईसी की 3.3 लिटर मात्रा को 600-800 लिटर पानी में घोल कर बोने के 2 दिन बाद प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

बोआई के 25-30 दिनों बाद निराईगुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथसाथ जड़ों को हवा भी मिल जाती है.

सिंचाई : पहली सिंचाई फूल आते समय करें. अगर बरसात आ जाए तो न करें. दूसरी सिंचाई फलियां बनते समय करें. सूखे इलाकों में बौछारी सिंचाई बेहतर होती है.

खास रोग व बचाव

चूर्णी आसिता : यह एक बीजजनित रोग है. यह रोग तना, पत्तियों व फलियों को प्रभावित करता है. इस रोग में पत्तियों पर हलके निशान बन जाते हैं, जो सफेद पाउडर (चूर्ण) से पत्तियों को ढक देते हैं और पत्तियां गिर जाती हैं.

इस रोग की उचित रोकथाम के लिए 2.3 किलोग्राम गंधक का चूर्ण 600-800 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

उकठा : यह फफूंद से होने वाला रोग है. इस से पौधों की पत्तियां नीचे से ऊपर की ओर पीली पड़ जाती हैं और अंत में पूरा पौधा सूख जाता है.

यह रोग गरमी ज्यादा पड़ने पर बढ़ने लगता है. इस की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पहले 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें.

रस्ट : यह रोग फफूंद द्वारा फैलता है. यह नम जगह पर ज्यादा फैलता है. इस रोग के बचाव के लिए रोगी वाले पौधों को मिट्टी में दबा देना चाहिए. उस के बाद हेक्साकोनाजोल की 1 मिलीलिटर मात्रा को 3 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

एंथ्रेक्नोज : यह भी बीजजनित रोग है. इस रोग के बचाव के लिए रोगरोधी किस्मों को बोएं और बीज को बोने से पहले 2.5 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें.

बैक्टीरियल ब्लाइट : यह रोग भी बीजजनित है, जो नमी वाली जगहों पर ज्यादा फैलता है. इस रोग में डंठल के नीचे की पत्तियों व तनों पर पीला धब्बा बन जाता है.

इस के बचाव के लिए रोगरहित बीज का इस्तेमाल करें. फसल प्रभावित होने पर स्ट्रेप्टोसाइक्लीन दवा का छिड़काव करें.

कीट पर नियंत्रण

माहू : इस कीड़े का प्रकोप जनवरी माह में ज्यादा होता है. इस के बचाव के लिए मैलाथियान 50 ईसी की 1.5 मिलीलिटर मात्रा को 1 लिटर पानी में घोल कर 10-10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

लीफ माइनर (पत्ती में सुरंग बनाने वाला कीट) : यह कीट पौधे की पत्तियों से सफेद धागे की तरह बारीक सुरंग बनाता है. इस के प्रकोप से पत्तियां सूख जाती हैं.

बचाव के लिए सुरंग बनाने वाले कीड़ों से प्रभावित पत्तियों को सूंड़ी सहित तोड़ कर जमीन से कहीं दूर गाड़ देना चाहिए.

फली छेदक : यह कीट फलियों में छेद कर दानों को खाता है. इस के बचाव के लिए थायोडीन नामक दवा की 2 मिलीलिटर मात्रा को 1 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें.

तुड़ाई : ज्यादा आमदनी लेने के लिए समय से मटर फसल की तुड़ाई करना जरूरी होता है. फलियां भरी हुईं व मुलायम ही तोड़नी चाहिए. तुड़ाई सुबह या शाम को 10 दिनों अंतर पर 3-4 बार करनी चाहिए.

भंडारण : बीज भंडारण के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए:

* बीज में नमी की मात्रा 9 फीसदी से कम होनी चाहिए, ताकि कीट इतनी कम नमी में प्रजनन नहीं कर पाते.

* नए बीजों को रखने से पहले अच्छी तरह साफ कर के कीटनाशी द्वारा कीटरहित कर लेना चाहिए.

* बीज भंडारण के लिए नए बैग का इस्तेमाल करना चाहिए.

मटर की किस्मों को 2 वर्गों में बांटा गया है, जिस से एक फील्ड मटर व दूसरा गार्डन मटर या सब्जी मटर है.

फील्ड मटर:  इस वर्ग की किस्मों का इस्तेमाल साबुत मटर दाल के अलावा दाने व चारे के लिए किया जाता है. इन किस्मों में रचना स्वर्णरेखा, अपर्णा हंस, जेपी 885, पारस वगैरह खास हैं.

गार्डन मटर:  इस वर्ग की किस्मों को सब्जियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इस की प्रमुख उन्नत किस्में इस प्रकार हैं:

अगेती किस्में (जल्दी तैयार होने वाली) : ये किस्में बोने के तकरीबन 64-65 दिनों बाद पहली तुड़ाई लायक हो जाती हैं. जैसे आर्केल, अलास्का, लिकोलन, काशी नंदिनी, पंजाब 88, अगेती मटर 3, हरभजन, पंत सब्जी मटर 3.5, पूसा प्रगति, उदय वगैरह.

मध्यम किस्में : ये किस्में बोने के तकरीबन 85-90 दिनों बाद पहली तुड़ाई लायक हो जाती हैं, जैसे बोनविले, काशी शक्ति, जवाहर मटर 1,4, जवाहर मटर 83, पंत उपहार, विवेक आजाद 1,4 वगैरह.

पछेती किस्में (देर से तैयार होने वाली) : ये किस्में बोने के तकरीबन 100-110 दिनों बाद पहली तुड़ाई लायक हो जाती हैं. जैसे आजाद मटर, जवाहर मटर 2 वगैरह.

बीज की मात्रा व बीजोपचार : अगेती किस्मों के लिए 100 किलोग्राम और मध्यम पछेती किस्मों के लिए 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज लगता है.

बीजों को बोने से पहले कार्बंडाजिम या बाविस्टिन (3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से उपचारित कर लेना चाहिए, ताकि बीज व मृदाजनित रोगों से बचाव हो सके.

फसल बीमा योजना और नुकसान की भरपाई के लिए क्या है पैमाना

वर्तमान में केंद्र सरकार द्वारा उपज गारंटी योजना के रूप में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों के लिए चलाई जा रही है, जिस के अंतर्गत प्रतिकूल मौसमीय स्थितियों के कारण फसल की बोआई न कर पाने/असफल बोआई, फसल की बोआई से कटाई की अवधि में प्राकृतिक आपदाओं, रोगों व कीटों से फसल नष्ट होने की स्थिति एवं फसल कटाई के बाद खेत में कटी हुई फसलों को बेमौसम/चक्रवाती वर्षा, चक्रवात से फसल नुकसान की स्थिति में फसल पैदा करने वाले किसानों, जिन के द्वारा फसल का बीमा कराया गया है, को बीमा कवर के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है.

चयनित जनपदों में पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना को लागू किया गया है, जिस में प्रतिकूल मौसमीय स्थितियों कम व अधिक तापमान, कम व अधिक वर्षा आदि से फसल नष्ट होने की संभावना के आधार पर फसल के उत्पादक किसानों, जिन के द्वारा फसल का बीमा कराया गया है, को बीमा कवर के रूप में वित्तीय सहायता दी जाती है.

प्राकृतिक आपदा से बरबाद फसल की भरपाई के लिए क्या पैमाना है?

अधिसूचित फसलों पर मौसम के अंत में संपादित फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर फसल की क्षति का आकलन किया जाता है और संबंधित किसानों को उपज में कमी के अनुरूप क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है.

योजना के नियमों के अनुरूप क्षतिपूर्ति देय होने पर बीमा कंपनी द्वारा किसानों के बैंक खाते में क्षतिपूर्ति की धनराशि जमा करा दी जाती है, इसलिए क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए किसानों को व्यक्तिगत दावा प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं है.

ग्राम पंचायत में अधिसूचित फसल के अधिकांश किसानों द्वारा फसल की बोआई न कर पाने/असफल बोआई की स्थिति में क्षति का आकलन ग्राम पंचायत स्तर पर करते हुए प्राथमिकता पर क्षतिपूर्ति देय होती है.

crop insurance scheme

योजना में स्थानिक आपदाओं, ओला, भूस्खलन व जलभराव और फसल की कटाई के उपरांत आगामी 14 दिन की अवधि तक फसल नष्ट होने की स्थिति में फसल की क्षति का आकलन व्यक्तिगत बीमित किसान के स्तर पर करते हुए किसानों को प्राथमिकता पर आंशिक क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है, जिस को मौसम के अंत में फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर देय कुल क्षतिपूर्ति की धनराशि में समायोजित किया जाता है.

इसी प्रकार फसल की मध्य अवस्था तक ग्राम पंचायत में फसल की संभावित उपज सामान्य उपज से 50 फीसदी कम होने की स्थिति में भी किसानों को आपदा की स्थिति तक उत्पादन लागत में व्यय के अनुरूप तात्कालिक सहायता प्रदान की जाती है, जिसे मौसम के अंत में फसल कटाई प्रयोगों से प्राप्त उपज के आधार पर देय कुल क्षतिपूर्ति की धनराशि में समायोजित किया जाता है.

पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना में फसल की क्षति का आकलन ब्लौक में स्थापित स्वचालित मौसम केेंद्र स्तर पर मौसम के प्रतिदिन के आंकड़ों के आधार पर किया जाता है.

फसल की बोआई से कटाई के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण चरणों में फसल की आवश्यकतानुसार निर्धारित मौसमीय स्थितियों एवं मौसम की वास्तविक स्थिति में अंतर के अनुरूप फसल की संभावित क्षति को दृष्टिगत रखते हुए किसानों को क्षतिपूर्ति प्रदान की जाती है.

पशुओं में गर्भाधान

गोवंशीय पशुओं का बारबार गरमी में आना और स्वस्थ व प्रजनन योग्य नर पशु से गर्भाधान या फिर कृत्रिम गर्भाधान सही समय पर कराने पर भी मादा पशु द्वारा गर्भधारण न करने की अवस्था को ‘रिपीट ब्रीडिंग’ कहते हैं.

ऐसे पशुओं का आमतौर पर नियमित मदचक्र 18-22 दिन होता है और अंग से कोई मवाद या गंदा स्राव आदि नहीं आता है, फिर भी पशु को 3 या इस से अधिक बार गर्भाधान कराने पर भी बच्चा नहीं ठहरता है.

पशुओं में ब्रीडिंग की दर 10-20 फीसदी है, जो कि खराब प्रबंधन व कुपोषण की स्थिति में और ज्यादा हो सकती है. अगर भू्रण की मृत्यु पुश के गाभिन होने के 8-16 दिनों के भीतर होती है, तो पशु के मदचक्र पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है, परंतु उस के बाद भ्रूण की मृत्यु होने की दशा में गरमी में आने का अंतराल बढ़ जाता है.

कारण

* निषेचन प्रक्रिया का न होना.

* अंडोत्सर्ग न होना या अंडोत्सर्ग के बिना गरमी में आना.

* अंडोत्सर्ग में देरी.

* अंडवाहिका मार्ग में अवरोध या फिर संक्रमण का होना.

* शुक्राणुओं और अंडाणुओं की बनावट व वंशानुगत/प्राप्त त्रुटियां या उन की अधिक उम्र.

* जननांगों में जन्मजात संरचनात्मक संबंधी त्रुटियां.

* भ्रूण की मृत्यु हो जाना.

* भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था में मृत्यु.

* निषेचित अंडों के प्रत्यारोपण या फिर निषेचन में बाधा.

* विभिन्न प्रकार के हार्मोंस में कमी  जैसे प्रोजैस्ट्रोन में कमी व एस्ट्रोजन की अधिकता इत्यादि.

* अत्यधिक वातावरणीय ताप और आर्द्रता होना.

* गर्भाशय में संक्रमण, भू्रूणीय विसंगतियां और विभिन्न जननांगों का संक्रमण.

* प्रतिरक्षा संबंधित बीमारियां.

समाधान

* रिपीट ब्रीडिंग (बारबार गरमी में आना) वाले पशुओं को उचित मात्रा में संतुलित आहार और पर्याप्त हरा चारा यानी चारा मिश्रण अवश्य दें.

* विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं और विषाणुजनित बीमारियों के विरुद्ध टीकाकरण और परजीवी रोगों की रोकथाम के लिए प्रबंधन करना चाहिए.

* उचित आवास व्यवस्था का प्रबंध और नियमित साफसफाई रखनी चाहिए.

* स्वच्छ व पारदर्शी योनि स्राव होने पर गर्भाधान कराना चाहिए.

* पशु को सही समय से गाभिन करवाने की सफलता की दर अधिकतम रहती है.

* ध्यान देने वाली बात यह है कि अगर पशु शाम को गरमी में आए, तो अगले दिन सुबह और यदि गरमी के लक्षण सुबह दिखाई पड़ें, तो उसी दिन शाम तक गाभिन कराने के लिए अवश्य ले जाना चाहिए.

* पशुओं में गरमी के लक्षण दिन में 2 बार (सुबह या शाम) अवश्य देखने चाहिए, जिस से गर्भाधान के उचित समय की जानकारी हासिल की जा सके.

* गर्भाधान से पहले वीर्य की जांच अवश्य करनी चाहिए. साथ ही, यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन में प्रयुक्त सांड़ में कोई संक्रमण न हो या वीर्य में अग्र दिशा में गतिशील शुक्राणुओं की उचित संख्या (5-10 मिलियन) होनी चाहिए. इस के अलावा हिमीकृत वीर्य का तरलीकरण प्रबंधन बहुत ही सावधानी से करना चाहिए.

* यह काम कृत्रिम गर्भाधान विशेषज्ञों द्वारा ही किया जाना चाहिए और वीर्य को गर्भाशय ग्रीवा से गर्भाधान की स्थिति में सांड़ों को समयसमय पर बदलते रहना चाहिए.

* समयसमय पर ऐसे पशुओं के अंगों की जांच पशु विशेषज्ञों द्वारा कराई जानी चाहिए.

* जननांगों की संक्रमित अवस्था में गर्भाधान नहीं कराना चाहिए.

* ब्याने के तुरंत बाद जननांगों का संक्रमण रोकने के लिए उचित उपचार व रोकथाम करनी चाहिए. साथ ही, माहिर पशु चिकित्सक की सलाह से उन की देखरेख में काम करना चाहिए.

अधिक जानकारी के लिए पशुपालक अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिकों से संपर्क करें.