Aquaponics : खेती का भविष्य है ‘एक्वापौनिक्स’ तकनीक

Aquaponics : हमारे देश की 60 फीसदी आबादी का हिस्सा किसी न किसी रूप से खेती से जुड़ा है. यही वजह है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है. अगर हम इस क्षेत्र में दूर तक नजर दौड़ाएं तो खेती में नवाचार की खासी कमी है. आज भी अनेक किसान पारंपरिक तरीके से खेती कर रहे हैं. खेती में हमें आज बहुतकुछ नए प्रयोग करने की जरूरत है. इन्हें इस्तेमाल कर के अच्छी पैदावार ली जा सकती है.

ऐसी ही एक आधुनिक तकनीक है एक्वापौनिक्स (Aquaponics). इस तकनीक में मछलियां और पौधे आपस में एकदूसरे की मदद करते हैं यानी इस सिस्टम का इस्तेमाल कर मछलियों को सब्जियों के उत्पादन के एक्वाकल्चर और हाइड्रोपौनिक्स (पानी में पौधे उगाना) सिस्टम का एकसाथ इस्तेमाल किया जाता है. इस तकनीक को हम कम जगह में भी अपना सकते हैं. इस में मिट्टी या जमीन की जरूरत नहीं होती है.

Aquaponics

एक्वापौनिक्स (Aquaponics) की शुरुआत शायद एशिया से हुई. यहां के किसानों ने देखा कि ज्यादा बरसात या बाढ़ आने के बाद खेतों में पानी भर जाता है जिस में मछलियां भी होती हैं. उन खेतों में उगाई गई धान की फसलों से अच्छी पैदावार मिलती है. मछलियों से निकलने वाली गंदगी धान या दूसरी फसल के लिए पोषक तत्त्वों का काम करती है.

अगर आसान तरीके से बताया जाए तो जिस पानी का इस्तेमाल इस तकनीक में किया जाता है उस पानी में मछली छोड़ दी जाती हैं, जो उस पानी में रह कर अपना मल वगैरह छोड़ती हैं, वही पानी पौधों के लिए जैविक उर्वरक का काम करता है. इस के उलट हाइड्रोपौनिक्स सिस्टम में हमें पानी में जैविक उर्वरक के रूप में कुछ रसायन डालने होते हैं.

Aquaponics

इसी तकनीक को आज विकसित कर एक्वापौनिक्स (Aquaponics) सिस्टम का नाम दिया है. पारंपरिक खेती, एक्वाकल्चर या हाइड्रोपौनिक्स की तुलना में एक्वापौनिक्स (Aquaponics) तकनीक के कई फायदे हैं.

इस तकनीक में पौधे पानी से अमोनिया और नाइट्रोजन लेते हैं जिस से मछलियां शुद्ध और आक्सिजनयुक्त बेहतर माहौल में पलतीबढ़ती हैं.

माहिरों का मानना है कि जमीन में खेती करने की तुलना में एक्वापौनिक्स (Aquaponics) सिस्टम के तहत सलाद और सब्जियां, जिस में टमाटर, बैगन, शलगम वगैरह पैदा की जा सकती हैं. इस तरह के पौधों में पानी की बहुत ही कम जरूरत होती है. साथ ही, इस सिस्टम के लिए ऊर्जा भी कम लगती है.

Aquaponicsआने वाले समय में इस तकनीक को इस्तेमाल किया जाएगा तो इस से मछलियों के साथसाथ रसायनमुक्त सब्जियां भी मिलेंगी.

दुनियाभर में प्राकृतिक रूप से मछलियों का उत्पादन घटा है और अब माहिर भी मछली उत्पादन के लिए नए समाधान तलाश रहे हैं. फार्म में मछलीपालन करने वालों के लिए भी एक्वापौनिक्स (Aquaponics) सिस्टम बेहतर विकल्प साबित हो सकता है.

इस बारे में हमारी बात अनुभव दास से हुई. वे एक्वापौनिक्स (Aquaponics) के क्षेत्र में काम कर रही कंपनी ‘रैड ओटर फार्म्स’ के संस्थापक हैं. उन का कहना है कि पैदावार के मामले में हम दुनियाभर में कुछ उत्पादों में ऊंचाई पर हो सकते हैं, लेकिन हमारी फसल पैदावार प्रति हेक्टेयर के हिसाब से कम है. पिछले 5 सालों में हमारे कृषि उत्पादन की वृद्धि दर 0.2 फीसदी से 4.2 फीसदी के आसपास रही है.

टमाटर का उदाहरण लें. साल 2017 में भारत चीन के बाद दुनिया में सब से ज्यादा टमाटर पैदा करने वाला देश था. चीन ने तकरीबन 110,000 हेक्टेयर जमीन पर 56.8 मिलियन टन टमाटर का उत्पादन किया, वहीं भारत ने तकरीबन 10 फीसदी कम जमीन पर 18.7 मिलियन टन का उत्पादन किया. टमाटर की यह प्रति हेक्टेयर उत्पादकता अतुलनीय है.

उन्होंने आगे बताया कि आज बड़े पैमाने पर सरकार द्वारा खेती से जुड़े कामों के लिए मदद भी की जाती है. इस के बाद भी भारत का कृषि उत्पादन कमजोर है. तो क्या आने वाले कृषि उत्पादन बढ़ती आबादी की मांगों को पूरा करेगा  क्या हमारे खेत की पैदावार और उस की क्वालिटी बेहतर होगी जो स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है? क्या खेती कभी मौडर्न होगी? वगैरह.

इस पर अनुभव दास ने कहा कि आने वाले कल को बेहतर बना सकें, इस के लिए हमें कृषि क्षेत्र की मौडर्न तकनीकों की तरफ जाना होगा. बदलाव बहुत जरूरी है. एक बेहतर राष्ट्र के लिए खेती के विकास पर ध्यान देना ही होगा. दिनोंदिन हमारी खेत की जोत घट रही है जबकि आबादी बढ़ रही है. हमारे 65 फीसदी खेत फसल विकास के लिए मानूसन पर निर्भर हैं. इसलिए अगर हम प्रकृति के भरोसे रहे तो हम प्रगति की राह नहीं चल सकते. सामाजिक नवाचारकों के रूप में हम एक बदलाव लाना चाहते थे. हमें कृषि के क्षेत्र में एक अलग और नई सोच पैदा करने की जरूरत है. मानसून के भरोसे रह कर खेती नहीं की जा सकती. इस के अलावा हमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल को भी कम करने की जरूरत है.

Aquaponics

हमारा मानना है कि एक्वापौनिक्स (Aquaponics) हमें यह यह मौका देता है. इसे हमें अपनाना चाहिए. एक्वापौनिक्स चक्र पारंपरिक मिट्टी आधारित कृषि की तुलना में 90 फीसदी से ज्यादा बढ़ने वाली फसलों के लिए पानी की जरूरत को कम करता है.

एक्वापौनिक्स (Aquaponics) तकनीक खेती की जमीन पर निर्भर नहीं है. यह बिना मिट्टी के होने वाली इस तकनीक को दुर्गम इलाकों, यहां तक कि शहरी जगहों में ले जाया जा सकता है. इस से बड़ी मात्रा में पानी की बचत होती है और खेती की पैदावार रासायनिक मुक्त होती है. पारंपरिक खेती के मुकाबले पैदावार भी 10-12 गुना ज्यादा है और क्वालिटी बेहतर है. एक लाइन में अगर कहा जाए तो एक्वापौनिक्स जिम्मेदार और टिकाऊ कृषि प्रणाली है और आने वाले समय में यह खेती का भविष्य है.

इंटरनैशनल लैवल पर एक्वापौनिक्स (Aquaponics) ने खेती के विकल्प के रूप में अच्छा कदम बढ़ाया है. खासतौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका और आस्ट्रेलिया में. भारत में एक्वापौनिक्स (Aquaponics) अभी शुरुआती दौर में है. लेकिन अगर हम मिल कर कदम बढ़ाएंगे तो आने वाले समय में एक्वापौनिक्स (Aquaponics) एक प्रभावी तकनीक साबित होगी और अपनेआप में कृषि क्षेत्र में एक लीडर का काम करेगी.

Brinjal : बैगन की नई किस्में उगाइए

Brinjal : भारतीय बागबानी अनुसंधान संस्थान, बेंगलुरु के वैज्ञानिकों ने बैगन की 3 नई किस्में ईजाद की हैं, अर्का अवनाश, अर्का हर्षित और अर्का उन्नति.

अर्का अविनाश : इस किस्म के पौधे लंबे और फैलाव लिए होते हैं. इस की पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं. इस के फल हरे, कोमल और अधिक भंडारण क्षमता वाले होते हैं. पकने की क्वालिटी भी उत्तम पाई गई है. यह जीवाणु उकटा की प्रतिरोधी किस्म है. यह किस्म प्रति हेक्टेयर 30 टन तक उपज दे देती है.

अर्का हर्षित : इस किस्म के पौधे लंबे और फैले हुए होते हैं. इस किस्म की पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं. यह किस्म प्रति हेक्टेयर 40 टन तक उपज दे देती है.

अर्का उन्नति : इस किस्म के पौधे लंबे व उठे हुए होते हैं. पत्तियां गहरी हरी और हरे कैलिक्स वाले फल होते हैं जो गुच्छों में लगते हैं. फल कोमल और उन की भंडारण क्षमता ज्यादा होती है.

यह किस्म जीवाणु उकटा की प्रतिरोधी है. इस किस्म की एक खूबी यह भी है कि इसे खरीफ और रबी दोनों मौसमों में उगाया जा सकता है. यह किस्म प्रति हेक्टेयर 40 टन तक उपज दे देती है.

जलवायु : बैगन उष्णकटिबंधीय जलवायु वाला पौधा है. इसे गरम मौसम की जरूरत होती है. पौधों की अच्छी बढ़वार और विकास के लिए 20-30 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान की जरूरत होती है.

अगर मौसम लंबी अवधि तक ठंडा रहे तो पौधों की बढ़वार पर बुरा असर पड़ता है. थोड़े पाले से भी इसे ज्यादा नुकसान हो जाता है.

भूमि : बैगन को वैसे तो तमाम तरह की जमीनों में उगाया जा सकता है, पर सही जल निकास वाली दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 5.5-6.0 हो, अच्छी मानी गई है.

जमीन की तैयारी : पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. उस के बाद 2-3 जुताइयां कल्टीवेटर या हैरो से आरपार कर के कुछ सप्ताह तक खूली धूप में छोड़ दें. रोपाई करने से पहले खेत में सिंचाई के लिए सुविधानुसार क्यारियां बना लें.

खाद और उर्वरक: बैगन की फसल लंबी अवधि वाली होती है. उच्च उर्वरता वाली जमीनों में यह ज्यादा उपज देने वाली फसल है. इस की उच्च गुणवत्ता वाली ज्यादा उपज लेने के लिए इस की मिट्टी जांच कराना बहुत जरूरी है. अगर किसी कारणवश मिट्टी जांच न हो सके तो उस स्थिति में प्रति हेक्टेयर निम्न मात्रा में खाद व उर्वरक जरूर डालें:

गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद 250-300 क्विंटल, नाइट्रोजन 100 किलोग्राम, फास्फोरस 60 किलोग्राम, पोटाश 40 किलोग्राम.

गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद को पहली जुताई से पहले खेत में समान रूप से बिखेर देना चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा का मिश्रण बना कर आखिरी जुताई के समय डालना चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा को 2 बराबर हिस्सों में बांट कर एक भाग रोपाई के 30 दिन बाद और दूसरा भाग रोपाई के 45 दिन बाद टौप ड्रैसिंग के दौरान देना चाहिए.

पौध रोपाई

बीज द्वारा पहले बैगन की पौध तैयार की जाती है, फिर पौध तैयार होने पर उसे खेत में रोपा जाता है. बैगन की बोआई के 3 प्रमुख मौसम हैं:

शरद शिशिर : इस मौसम में पौधशाला में बीज जून माह के अंत से जुलाई माह के मध्य तक बोए जाते हैं और रोपाई जुलाई माह में की जाती है.

वसंतग्रीष्म : इस के लिए पौधशाला में बीज अक्तूबरनवंबर माह में बोए जाते हैं और रोपाई जनवरीफरवरी माह में की जाती है.

बीज की मात्रा : एक हेक्टेयर के लिए 400-500 ग्राम बीज पर्याप्त हैं.

बीजों को पौधशाला में बोने से पहले 2.5 ग्राम थाइरम या सेरेसान जीएन प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए. ग्रीष्म व वर्षा ऋतु में पौधा महज 4 हफ्ते में रोपने लायक हो जाता है.

पौधों की रोपाई : पौधशाला से पौधा निकालने के 2-3 दिन पहले हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए ताकि पौधों को सुगमता से बिना जड़ों के नुकसान पहुंचाए उखाड़ा जा सके. लंबे बैगन की किस्मों को पंक्तियों व पौधों की दूरी क्रमश: 60 सैंटीमीटर × 60 सैंटीमीटर और गोल बैगन की किस्मों में क्रमश: 75 सैंटीमीटर × 60 सैंटीमीटर रखें. पौधों की रोपाई के तुरंत बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए ताकि पौधे सुगमता से जम सकें.

सिंचाई और जल निकास

बैगन में सिंचाई कई बातों पर निर्भर करती है. इन में जमीन, फसल उगाने का समय और वातावरण प्रमुख हैं. जांच से पता चला है कि बैगन की ज्यादा उपज लेने के लिए 100-110 सैंटीमीटर पानी की जरूरत होती है. बहुत ज्यादा या कम सिंचाई करने से बैगन की फसल खराब हो सकती है.

आमतौर पर गरमियों में प्रति सप्ताह और सर्दियों में 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करना सही रहता है, जबकि खरीफ फसल में सिंचाई की जरूरत नहीं होती है, पर काफी लंबी अवधि तक बारिश न हो तो जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

कभीकभी बारिश के मौसम में ज्यादा बारिश होने से पानी खेत में जमा हो जाता है. अगर ऐसी स्थिति पैदा हो जाए तो  फालतू पानी को तुरंत ही निकालने का बंदोबस्त करना चाहिए वरना पौधे पीले पड़ कर मर जाते हैं.

फसल सुरक्षा

खरपतवार नियंत्रण : बैगन के पौधों की बढ़वार धीमी गति से होती है इसलिए वे खरपतवारों के साथ होड़ नहीं कर पाते हैं इसलिए पौधों की शुरुआती बढ़वार के समय हलकी निराईगड़ाई करनी चाहिए. पूरी फसल में 3-4 निराईगुड़ाई करना काफी होता है.

खरपतवार की सही रोकथाम करने के लिए खरपतवारनाशकों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. फ्लोक्लोरलिन की 1.0-1.5 किलो सक्रिय अवयव प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. इस के बाद एक बार हाथ से निराईगुड़ाई करें, जब फसल 30 दिन की हो जाए.

कीट नियंत्रण

एपीलेकना बीटिल : यह कीट पौधशाला से नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता है. इस कीट का शिशु छोटा व लाल रंग का होता है. इस से पहले पीले रंग का होता है. यह कीट पत्तियों को खा कर छलनी जैसा बना देता है.

रोकथाम : हाथ से अंडों, सूंडि़यों व प्रौढों को इकट्ठा कर नष्ट कर देना चाहिए. कार्बोरिल या मैलाथियान के 0.1 फीसदी घोल का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए. कीटरोधक किस्में जैसे अर्का शिरीष, हिसार चयन 14, संकर विजय नामक किस्में उगानी चाहिए.

शाखा व फल छेदक : इस कीट की सूंड़ी चिकनी व गुलाबी रंग की होती है जो बालरहित होती है. इस की पीठ पर बैगनी रंग की धारियां होती हैं. इस की सूंडि़यां नई शाखाओं में घुस जाती हैं जिस की वजह से शाखाएं मुरझा जाती हैं. बाद में ये सूंडि़यां फल में छेद कर के घुस जाती हैं.

रोकथाम : कीट लगी शाखाओं और फलों को तोड़ कर नष्ट कर दें. मैटासिस्टौक्स 2 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. 4-5 साल का फसल चक्र अपनाएं.

तना छेदक : इस कीट की सूंड़ी तने में घुस कर फसल को नुकसान पहुंचाती है और तना नीचे की ओर झुक जाता है.

रोकथाम : कीट लगी शाखाओं और फलों को तोड़ कर नष्ट कर दें. मैटासिस्टौक्स 2 मिलीलिटर दवा प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. 4-5 साल का फसल चक्र अपनाएं.

इस के अलावा हरा तेला एक छोटा कीट होता है जो पत्तियों के निचले भाग में पाया जाता है. यह पत्तियों का रस चूसता है. इस के चलते पत्तियां मुड़ जाती हैं और आखिर में मुरझा जाती हैं और भूरे रंग की हो जाती हैं. इस की रोकथाम में कीट लगे पौधों को नष्ट करे दें.

आर्द्र विगलन : यह एक फफूंदीजनित रोग है. यह रोग पौधशाला में लगता है. जिन पौधों में यह रोग लगता है, वे भूस्तर से सड़ने लगते हैं. पौधशाला में पौधों का मुरझाना और सूख जाना इस रोग का प्रमुख लक्षण है.

रोकथाम : पौधशाला में बीज बोने से 10-15 दिन पहले कैप्टान या थाइरम की 2 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी में घोल कर पर्णीय छिड़काव करना चाहिए.

बीज बोने से पहले कैप्टान या थाइरम की 2 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी में घोल कर उपचारित करना चाहिए. बीज बोने से पहले 50 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान के गरम पानी से 30 मिनट तक उपचारित करना चाहिए.

रोगी पौधों पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही उन्हें उखाड़ देना चाहिए. 3-4 साल का फसल चक्र अपनाना चाहिए.

फोमोप्सिस झुलसा : यह एक फफूंदीजनित रोग है. रोगी पत्तियों पर छोटेछोटे गोल भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं. अनियमित आकार के धब्बे पत्तियों के किनारे दिखाई देते हैं. फलों के धब्बों में धूल के कणों के समान भूरी रचना साफ दिखाई देती है. इस रोग का प्रकोप पौधशाला के पौधों पर भी होता है, जिस के चलते पौधे झुलस जाते हैं.

रोकथाम : सेहतमंद बीज ही बोएं. बीज बोने से पहले कैप्टान या थाइरम से उपचारित कर लें. पौधशाला में कैप्टान के 0.2 फीसदी घोल का प्रति सप्ताह पर्णीय छिड़काव करें. रोपाई के बाद 0.2 फीसदी जिनेब या मैनेब का छिड़काव करें.

पत्तियों के धब्बे : यह रोग 4 प्रकार की फफूंदियों द्वारा फैलता है जैसे आल्टरनेरिया मेलांजनि, आल्टरनेरिया सोलेनाई, स्कोस्पोरा-सोलेनाई मेलांजनि और सरकोस्पोरा मेलांजनि.

आल्टरनेरिया की दोनों प्रजातियों के कारण पत्तियों पर अनियमित आकार के भूरे धब्बे बन जाते हैं. इस वजह से पत्तियां पीली पड़ कर मर जाती हैं और आखिर में गिर जाती हैं. इस के अलावा रोगी पत्तियां भी गिर जाती हैं और पौधों पर फल कम लगते हैं.

रोकथाम : रोगी पत्तियों को तोड़ कर जला देना चाहिए. खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए. ब्लाइटौक्स के 0.2 फीसदी घोल का 7-8 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.

फलों की तोड़ाई: जब फल पूरी तरह से पक जाएं, कोमल हों और उन में रंग आ जाए तब उन्हें तोड़ लेना चाहिए क्योंकि फलों को देरी से तोड़ने पर वे कठोर हो जाते हैं और उन में बीज पक जाते हैं व फलों का रंग फीका पड़ जाता है. इस वजह से फल सब्जी बनाने के लिए अनुपयुक्त हो जाते हैं. आमतौर पर फल लगने के तकरीबन 8-10 दिन बाद फल तोड़ने लायक हो जाते हैं.

उपज : बैगन की उपज कई बातों पर निर्भर करती है, जिन में जमीन की किस्म, उगाई जाने वाली किस्म, फसल की देखभाल प्रमुख हैं. अगर बैगन की किस्मों को सही तरीके से बोया जाए तो प्रति हेक्टेयर 40 टन तक उपज मिल जाती है.

Kitchen Garden : बेहतर सेहत के लिए लगाएं किचन गार्डन

Kitchen Garden : सब्जियों के उत्पादन में बेहिसाब रासायनिक खादों व कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल के कारण सब्जियां सेहत के लिए नुकसानदायक साबित हो रही हैं. लेकिन समस्या यह भी है कि बिना रासायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल वाली सब्जियां बाजार में या तो मिलती नहीं हैं या कई गुनी महंगी मिलती हैं. इस समस्या का एकमात्र हल यह है कि घर व आसपास की खाली जगह में किचन गार्डन (Kitchen Garden) लगा कर जैविक सब्जियां खुद उगाई जाएं.

अपने मकान के आसपास खाली पड़ी जमीन या खाली स्थानों पर गमले लगा कर उन में किचन गार्डन (Kitchen Garden) तैयार किया जा सकता है. किचन गार्डन (Kitchen Garden) तैयार करने के लिए बेल वाली सब्जियों की बोआई गमलों में की जा सकती है, जबकि पत्ती वाली व जड़युक्त सब्जियों की बोआई खाली जमीन पर कर सकते हैं.

किचन गार्डन (Kitchen Garden) बनाने के लिए खाली जमीन के एक किनारे पर खाद का गड्ढा बनाना होगा, जिस में घर का प्लास्टिकमुक्त कचरा व पौधों के अवशेष डालने होंगे. इस से बढि़या जैविक खाद बन जाएगी.

Kitchen Garden

किचन गार्डन (Kitchen Garden) के लिए तैयार की गई क्यारियों में खुदाई कर के मिट्टी को कई बार पलट देना चाहिए और उस के बाद उस में कंपोस्ट खाद डाल कर मिला देनी चाहिए. क्यारियों के बीच मिट्टी की चौड़ी मेंड़ बना दें ताकि पानी एक क्यारी से दूसरी क्यारी में न जा सके. इन क्यारियों में लगाने के लिए पहले सब्जियों के पौध तैयार करें और उन्हें 15 दिनों बाद इन क्यारियों में लगा दें. सिंचाई जहां तक हो सके स्प्रिंकलर से करें. इसी प्रकार गमलों में बेलदार सब्जियों के पौधों की बोआई करने से पहले उन में कंपोस्ट खाद मिट्टी में मिला कर भर दें.

यदि सब्जियों में कोई रोग या कीटजनक समस्या पैदा होती है, तो उस का जैविक इलाज करें. जो पौधे रोगग्रस्त हो गए हों, उन्हें किचन गार्डन (Kitchen Garden) से हटा दें. जहां तक हो सके समयसमय पर सिंचाई करें और पौधों के आसपास उगने वाले खरपतवार हटा दें. तय अंतराल के बाद निराईगुड़ाई करते रहें.

किचन गार्डन (Kitchen Garden) से खरीफ के मौसम में लोबिया, तुरई, भिंडी, अरवी, करेला, लौकी, ग्वार, मिर्च, टमाटर, कद्दू, बैगन व पालक वगैरह सब्जियां हासिल की जा सकती हैं. रबी के मौसम सितंबर से नवंबर तक किचन गार्डन में आलू, मेथी, मिर्च, टमाटर, बैगन, प्याज, लहसुन, धनिया, पालक, गोभी, गाजर व मटर जैसी सब्जियों का उत्पादन किया जा सकता है. इसी तरह जायद में फरवरी व मार्च में भिंडी व कद्दूवर्गीय सब्जियां हासिल की जा सकती हैं. यदि घर के आसपास खाली जगह ज्यादा हो तो उस में केला, पपीता, नीबू, अमरूद व करौंदा आदि के पौधे लगाए जा सकते हैं.

Kitchen Garden

किचन गार्डन (Kitchen Garden) से कीटनाशक व रासायनिक खादों से मुक्त सब्जियां परिवार को भरपूर मात्रा में हासिल होंगी, वहीं इन सब्जियों से भरपूर विटामिन, खनिज लवण व कार्बोहाइड्रेट भी मिलते रहेंगे. पोषण वैज्ञानिकों के अनुसार, एक व्यक्ति को संतुलित भोजन के रूप में रोजाना 85 ग्राम फल और 300 ग्राम सब्जियों की जरूरत होती है, जिस में 125 ग्राम हरी पत्तेदार सब्जियां और 100 ग्राम जड़ वाली सब्जियां व 75 ग्राम अन्य सब्जियां होना जरूरी है. लेकिन मौजूदा वक्त में इस मात्रा में लोगों को सब्जियां मिल नहीं पा रहीं, जिस से उन के शरीर में कुपोषण के कारण रोगों के आक्रमण की संभावना बनी रहती है. इस का हल किचन गार्डन से काफी हद तक किया जा सकता है.

Apple Farming : अब मैदानी इलाकों में भी मुमकिन सेब की खेती

Apple Farming : हमें सेब (Apple) का नाम लेते ही बर्फीली वादियों से घिरा हिमाचल प्रदेश का किन्नौर जिला याद आ जाता है जहां के किन्नौरी सेब दुनियाभर में मशहूर हैं. यह बात सही भी है कि सेब (Apple) के पेड़ उगाने के लिए ऐसी आबोहवा की जरूरत होती है जो पहाड़ी इलाकों में ही पाई जाती है. इस के बावजूद वैज्ञानिक ऐसी तकनीक विकसित करने में लगे रहते हैं जिस से सेब (Apple) को किसी तरह मैदानी इलाकों में भी उगाया जा सके.

कुछ प्रगतिशील किसान भी कोशिश कर रहे हैं कि वे सेब (Apple) को मैदानी इलाकों का भी सिरमौर बना दें. इसी कड़ी में हम उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के एक कर्मठ किसान अरविंद कुमार का जिक्र कर सकते हैं. उन्हीं की कोशिशों से अब उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश से आने वाला ‘अन्ना’ प्रजाति का हरा सेब अब गोरखपुर की बंजर जमीन पर पैदा होने जा रहा है.

Apple Farming‘शबला सेवा संस्थान’ के संस्थापक अविनाश कुमार ने 3 पहले सेब (Apple) का पौधा लगाया था और अब इस पेड़ में पहली बार फल आने लगे हैं. अविनाश कुमार को उम्मीद है कि इस बार भले ही 15 से 20 किलोग्राम सेब (Apple) ही बच पाएं, लेकिन आने वाले समय में इस इलाके की बंजर जमीन पर सेब (Apple) के बगीचे नजर आएंगे.

उत्तर प्रदेश पुलिस की सरकारी नौकरी छोड़ कर खेतीकिसानी में रम चुके अविनाश कुमार पादरी बाजार, गोरखपुर में रहते हैं. उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में किसानों को औषधीय खेती के लिए प्रेरित कर उन की जिंदगी बदलने वाले अविनाश कुमार ने पूर्वांचल ही नहीं, बल्कि मैदानी इलाकों में भी सेब (Apple) की पैदावार बढ़ाने का बीड़ा उठाया है. अपने खेत (Apple) में लगाने के साथ ही उन्होंने इस की पौधशाला भी तैयार की है. 3 साल पहले लगाए गए पेड़ पर इस बार न केवल फूल आए हैं बल्कि वे फल भी बन गए हैं. फलों की क्वालिटी को देख कर अविनाश कुमार अब सेब (Apple) का बाग लगाने की तैयारी में हैं.

Apple Farming

अविनाश कुमार बताते हैं कि 3 साल पहले वे उत्तराखंड से सेब का पौधा लाए थे. उन का मानना है कि अगर वहां की पथरीली जमीन पर सेब के पेड़ फल देते हैं तो गोरखपुर समेत मैदानी क्षेत्र के कई इलाकों में बंजर पड़ी सैकड़ों एकड़ जमीन पर सेब का बाग लहलहा सकता है. प्रयोग के लिए उन्होंने अपनी पौधशाला में सेब का पेड़ लगाया जो इस बार फल देने को तैयार है.

अविनाश कुमार कहते हैं कि अगर इस इलाके में सेब की पैदावार होने लगे तो उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश से सेब मंगाने की जरूरत नहीं होगी. आम लोगों को जहां सस्ते में यह पौष्टिक फल मिल सकेगा, वहीं किसान अपनी बेकार पड़ी बंजर जमीन से भी हर साल अच्छी कमाई कर सकेंगे. इतना ही नहीं, अगर पौलीहाउस के जरीए तापमान को कंट्रोल करने का इंतजाम कर लिया जाए तो सेब का रंग लाल भी हो सकता है.

Apple Farming

अरविंद कुमार के मुताबिक, कोई भी किसान एक एकड़ जमीन में 50,000 रुपए खर्च के सेब की खेती शुरू कर सकता है. पहली फसल में उसे तकरीबन ढाई लाख रुपए की कमाई हो सकती है. एक एकड़ जमीन में सेब की 227 पौध लगाई जा सकती हैं. इन पौधों पर अगर समयसमय पर आर्गेनिक खाद का छिड़काव किया जाए तो पेड़ अच्छे से फलताफूलता है.

उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में किसानों को तुलसी, ब्रह्मी जैसे औषधीय पौधों की खेती के लिए प्रोत्साहित करने के साथ उन की फसल खरीद कर जीवनशैली बदलने वाले अविनाश कुमार ने अगले साल गोरखपुर और मैदानी क्षेत्रों में बंजर जमीन पर सेब (Apple) के बाग लगाने के लिए दूसरे किसानों से संपर्क करना शुरू कर दिया है.

‘शबला सेवा संस्थान’ के अध्यक्ष किरण यादव का कहना है कि हरे सेब (Apple) की व्यावसायिक खेती कर के किसान अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं.

देश के 700 से ज्यादा जिलों में जल्द शुरू होगा विकसित कृषि संकल्प अभियान

नई दिल्ली: केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर) द्वारा देशभर में विकसित कृषि संकल्प अभियान चलाया जाएगा. केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बताया कि यह अभियान 700 से ज्यादा जिलों में 29 मई से शुरू हो कर 12 जून तक चलेगा.

इस दौरान हमारे कृषि वैज्ञानिक एवं मंत्रालय के अधिकारी व कर्मचारी, स्थानीय कृषिकर्मियों के साथ टीम बना कर हर एक दिन अलगअलग गांवों में पहुंच कर किसानों से सीधे बातचीत करेंगे और उन्हें खेतीकिसानी के संबंध में अपने स्तर पर और जागरूक करेंगे और सलाह देंगे. उन्होंने कहा कि यह सारी पहल “लैब टू लैंड” के मंत्र को साकार करने के लिए की जा रही है. आधुनिक व आदर्श खेती के साथ ही, यह “एक देश, एक कृषि, एक टीम” की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है.

इसी अभियान के संदर्भ में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले दिनों एक उच्चस्तरीय बैठक भी दिल्ली में आयोजित की, जिस में देशभर के 731 कृषि विज्ञान केंद्रों के साथ ही देशभर में फैले आईसीएआर के 100 से अधिक संस्थानों और कृषि विज्ञान से जुड़े अन्य संस्थानों के साथ ही केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी हाईब्रिड मोड में शामिल हुए. इस बैठक में केंद्रीय कृषि सचिव देवेश चतुर्वेदी और आईसीएआर के महानिदेशक डा. एमएल जाट भी उपस्थित थे.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि इस रचनात्मक व महत्वपूर्ण अभियान के पीछे मकसद यहीं है कि हमारी खेती उन्नत रूप से विकसित हो और हमारे किसानों को इस का सीधा फायदा मिलें. पूरे अभियान के दौरान उन्नत तकनीकों, नई किस्मों व सरकारी योजनाओं के बारे में किसानों के बीच जागरूकता का प्रसार किया जाएगा, साथ ही प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना भी इस का उद्देश्य है. इस अभियान में चारचार वैज्ञानिकों की टीमें, किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड में सुझाई गई विभिन्न फसलों में संतुलित खादों के प्रयोग के लिए जागरूक व शिक्षित करेगी.

इस के अलावा केवीके, आईसीएआर के संस्थानों व इफको आदि द्वारा कृषि में ड्रोन प्रौद्योगिकी के उपयोग का प्रदर्शन भी किया जाएगा एवं किसानों के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए आई.सी.टी. (इनफौर्मेशन, कम्युनिकेशन और तकनीकी) का बड़े स्तर पर उपयोग होगा.

इस अभियान में धान की सीधी बुवाई, फसल विविधीकरण, सोयाबीन की फसल में मशीनीकरण जैसी उन्नत तकनीकों का प्रसार भी केवीके के विशेषज्ञ करेंगे. टीमों में राज्य कृषि, बागबानी, पशुपालन, मत्स्यपालन विभागों, आत्मा के अधिकारी, राष्ट्रीय कीट निगरानी प्रणाली से जुड़े पौध संरक्षण अधिकारियों के साथ प्रगतिशील किसान, कृषि उद्यमी, एफपीओ, एफआईजी,स्वयं सहायता समूहों के सदस्य भी शामिल होंगे.

इस बैठक में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि विकसित भारत के लिए हमारा संकल्प है, विकसित खेती और समृद्ध किसान. अगर किसानों को हमें समृद्ध बनाना है तो एक तरीका है कि वे ठीक ढंग से खेती करें. हम जो विकसित कृषि संकल्प अभियान शुरू कर रहे हैं, ये कर्मकांड नहीं है. ये ऐसा कार्यक्रम भी नहीं है कि हम आज शुरू कर रहे हैं और 10-20 साल बाद इस का नतीजा आएगा, बल्कि ये एक ऐसा अभिनव कार्यक्रम है कि हम आज शुरू करेंगे व तीन महीने बाद खरीफ सीजन में ही इस के सकारात्मक परिणाम दिखने की पूरी उम्मीद है.

केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि मेरा मानना है कि कृषि में जो रिसर्च हो रही है, वो किसानों के पास खेतों तक पहुंचनी चाहिए. इस अभियान के जरिए किसानों में जिज्ञासा व रूचि पैदा होगी व वैज्ञानिक भी उत्साहित होंगे. उन्होंने वैज्ञानिकों से कहा कि ये कार्य वे मन से करेंगे तो देश के किसानों को इस का बहुत फायदा होगा.

इस संबंध में केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र भी भेजे हैं, साथ ही केंद्रीय कृषि सचिव देवेश चतुर्वेदी व आर्ईसीएआर के महानिदेशक डा. एमएल जाट ने भी अपनेअपने स्तर पर राज्यों के उच्चाधिकारियों से बातचीत की है और अभियान की सफलता के लिए इस की विस्तृत कार्ययोजना बनाई गई है.

Cowpea Cultivation – लोबिया की खेती

Cowpea Cultivation : दलहनी खेती के तहत लोबिया की फसल  आती है. यह प्रोटीन, शर्करा, वसा, विटामिन व खनिज से भरपूर होती है.

इस की 2 तरह की किस्में होती हैं. पहली झाड़ीयुक्त बौनी प्रजाति व दूसरी लतायुक्त यानी फैल कर फली देने वाली प्रजाति. लतायुक्त प्रजाति की खेती मचान विधि से ही की जाती है.

उन्नतशील प्रजातियां

काशी कंचन : सब्जी के लिहाज से यह प्रजाति ज्यादा मशहूर है. बोआई के 40-45 दिनों बाद इस की फलियां तोड़ने के लिए तैयार हो जाती हैं. इस की फलियों की लंबाई 30 सैंटीमीटर तक होती है. यह रोग प्रतिरोधी प्रजाति है. इस की औसत उपज 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

काशी श्यामल : इस प्रजाति की बोआई के 50 दिन बाद फलियां तोड़ने लायक हो जाती हैं, जिन की औसत लंबाई 25-30 सैंटीमीटर होती है. इस की उपज तकरीबन 75-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

काशी गौरी : इस प्रजाति की बोआई के 45-50 दिन बाद फलियां तोड़ने लायक हो जाती हैं, जिन की औसत लंबाई 25 सैंटीमीटर होती है. इस की उपज 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

टा. 5269 : यह प्रजाति कम उत्पादन वाली है, जो बोआई के 50-60 दिन बाद फलियां देने लगती है. इस की औसत उपज 50-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा कोमल : इस की खेती खरीफ के लिए ज्यादा सही होती है. इस की फलियों की लंबाई 15-20 सैंटीमीटर होती है. इस की औसत उपज 70 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

काशी उन्नति : बोआई के 40-45 दिन बाद इस की फलियां तोड़ने लायक हो जाती हैं. इस की औसत उपज 125-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आईआईएमआर 16 : लोबिया की अगेती प्रजातियों में यह खास मानी जाती है.

इस की फलियों की लंबाई 15-18 सैंटीमीटर और औसत उपज 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

लोबिया : इस की खेती गरमी व बारिश दोनों मौसमों में की जाती है. इस की फलियां तकरीबन 20 सैंटीमीटर तक लंबी होती हैं. इस की उपज 120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

अर्का गरिमा :  यह एक फैलने वाली प्रजाति है. इस की फलियों की लंबाई 25 सैंटीमीटर तक होती है. यह विषाणु रोग प्रतिरोधी किस्म है. हरी फलियों की उपज 80-85 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

मिट्टी का चयन व खेत की तैयारी : लोबिया की खेती के लिए दोमट या बलुई दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी जाती है. बोआई से पहले खेत की जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी कर लेते हैं.

बोआई का सही समय : बारिश के मौसम वाली फसल के लिए बोआई का सही समय जून से अगस्त तक होता है. गरमी के मौसम की फसल के लिए बोआई का सही समय फरवरी से मार्च तक होता है.

बीज की मात्रा : लोबिया की बौनी किस्म के लिए प्रति हेक्टेयर 20  किलोग्राम व लता वाली किस्म के लिए प्रति हेक्टेयर 15 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

लोबिया की बोआई हमेशा मेंड़ों पर करनी चाहिए. बोआई में लाइन से लाइन की दूरी 60 सैंटीमीटर व बीज से बीज की दूरी 10 सैंटीमीटर रखें.

खाद व उर्वरक : दलहनी फसल  होने के कारण इस में खाद की बहुत कम जरूरत होती है. अच्छी उपज के लिए बोआई से 15 दिन पहले 8-10 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देनी चाहिए.

इस के अलावा 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 60 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले मिट्टी में मिला देनी चाहिए.

लोबिया की फसल जब एक महीने की हो जाए तो फसल की निराईगुड़ाई कर के तमाम खरपतवार निकाल देने चाहिए और पौधों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.

सिंचाई : लोबिया के बीजों को बोते वक्त खेत में ठीकठाक नमी होना जरूरी है. बारिश के मौसम में फसल की सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. गरमी में 5-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए.

Lobiya

कीट व बीमारियों का इलाज : कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया (बस्ती) के डाक्टर प्रेमशंकर का कहना है कि लोबिया में माहू कीट का प्रकोप ज्यादा होता है. यह कीट पत्तियों व शाखाओं का रस चूसता है, जिस से फसल की बढ़वार रुक जाती है. इस से बचाव के लिए डाईमिथोएट 30 ईसी या मिथाइल डेमेटान का छिड़काव करना चाहिए.

फलीछेदक : यह कीट लोबिया की फलियों में छेद कर बीजों को खा जाता है. इस से बचाव के लिए इंडोसल्फान या थायोडान का छिड़काव करना चाहिए. इस में नीम गिरी का अर्क भी असरकारक होता है.

हरा फुदका या लीफ माइनर : हरा फुदका पत्तियों की निचली सतह का रस चूस लेता है, जिस से पौधे की बढ़वार रुक जाती है. इस की रोकथाम के लिए मैलाथियान के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

लीफ माइनर कीट पत्तियों के बीच सुरंग बनाता है, जिस से फसल की बढ़वार व पैदावार दोनों पर बुरा असर पड़ता है. इस की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान या नीम गोल्ड का छिड़काव करना चाहिए.

प्रमुख रोग : लोबिया में स्वर्णपीत रोग का प्रकोप देखा गया है, जो माहू द्वारा विषाणु से फैलाया जाता है. इस रोग के असर से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और कलियों की बढ़वार रुक जाती है. इस रोग से बचाव के लिए रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए. अगर रोग का असर दिखाई दे तो रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जमीन में दबा देना चाहिए.

लोबिया की तोड़ाई व लाभ : कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया के माहिर राघवेंद्र सिंह का कहना है कि लोबिया की अगेती किस्मों की फलियां 40-45 दिनों में तोड़ाई लायक हो जाती हैं.

उपज : लोबिया की अच्छी प्रजातियों से तकरीबन 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है, जबकि प्रति हेक्टेयर 50,000 से 60,000 रुपए लागत आती है. इस प्रकार किसान लोबिया की खेती से 3-4 महीने में ही अच्छी आमदनी हासिल कर सकते हैं.

Carrot Grass : जब खेतों में हो गाजरघास कैसे पाएं नजात

Carrot Grass : तमाम तरह के खरपतवार हमेशा किसानों के लिए परेशानी का सबब बनते रहे हैं. खेती की जमीन के आसपास उगी गाजरघास नाम की खरपतवार फसलों के साथसाथ किसानों और उन के पालतू पशुओं को भी नुकसान पहुंचाती है.

बरसात में गाजर की पत्तियों की तरह दिखने वाली यह घास बहुत तेजी से बढ़ती है. इसे चटक चांदनी, गंधी बूटी और पंधारी फूल के नाम से भी जाना जाता है. गाजरघास की वजह से फसलों की पैदावार में कमी आती है, इसलिए इस की रोकथाम करना जरूरी हो जाता है.

कृषि मंत्रालय और भारतीय वन संरक्षण संस्थान के वैज्ञानिक बताते हैं कि भारत में गाजरघास का वजूद पहले नहीं था. ऐसा माना जाता है कि इस के बीज साल 1950 से 1955 के बीच अमेरिका और कनाडा से आने वाले गेहूं पीएल 480 के साथ भारत में आए थे. आज यह गाजर घास मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे उन्नत कृषि उत्पादक राज्यों में हजारों एकड़ खेतों में फेल चुकी है. गाजरघास में पाए जाने वाला जहरीलापन फसलों की पैदावार पर बुरा असर डालता है.

तेजी से फैलती घास

बरसात के मौसम के अलावा भी गाजरघास के पौधे कभी भी उग आते हैं और बहुत जल्दी इन पौधों की बढ़वार होती है. 3 से 4 फुट तक लंबी इस घास का तना मजबूत होता है. इस घास पर छोटेछोटे सफेद फूल 4 से 6 महीने तक रहते हैं. कम पानी और कैसी भी जमीन हो, उस पर उगने वाली इस घास के बीजों का फैलाव भी बड़ी तेजी से होता है.

गाजरघास के एक पौधे में औसतन 650 अंकुरण योग्य बीज होते हैं. जब यह एक जगह पर जड़ें जमा लेती है तो दूसरे किसी पौधे को जमने नहीं देती. यही वजह है कि यह घास खेत, मैदान या चारागाह को जल्दी ही अपना निशाना बना लेती है.

देवरी गांव के किसान माधव गूजर खेत में घास की समस्या से खासा परेशान हैं. उन का कहना है कि खेत में उग आई गाजर घास की वजह से पहले तुअर और अब गेहूं की पैदावार में कमी आई है. इस घास की एक खूबी यह भी है कि यह अपने आसपास किसी दूसरे पौधे को पनपने नहीं देती. यदि खेत में गाजरघास ज्यादा हो तो यह फसल पैदावार पर सीधा असर डालती है.

सेहत के लिए नुकसानदेह

फसलों के अलावा गाजरघास पालतू जानवरों और किसानों के लिए नुकसानदायक है. पालतू जानवर इस की हरियाली के प्रति आकर्षित होते हैं, पर इसे सूंघ कर निराश हो कर लौट आते हैं. कभीकभी घास और चारे की कमी में कुछ दुधारू पशु इसे खा लेते हैं, जिस से उन का दूध कड़वा और मात्रा में कम हो जाता है. इसे खाने से पशुओं में कई तरह के रोग हो जाते हैं. अगर गाय या भैंस इसे खा लेती हैं तो उन के थनों में सूजन भी आ जाती है.

आमगांव के किसान गणेश वर्मा अपने खेत में ही मकान बना कर रहते हैं. मकान के आसपास उगी गाजरघास के पौधों की वजह से वे त्वचा की एलर्जी से पीडि़त हैं. गाजर घास के पौधे छूने पर त्वचा में खुजली होने लगती है.

गाजरघास फसलों और पशुओं के अलावा इनसानों के लिए भी काफी गंभीर समस्या है. गाजरघास की पत्तियों के काले छोटेछोटे रोमों में ‘पार्थीनम’ नाम का कैमिकल पदार्थ पाया जाता है, जो दमा, एग्जिमा, बुखार, सर्दीखांसी, एलर्जी जैसे रोगों को पैदा करता है. किसान गाजर घास को उखाड़ते हैं तो गाजरघास के पराग कण सांस की नली से शरीर के अंदर जा कर विभिन्न प्रकार के त्वचा रोगों का कारण बन जाते हैं. गाजरघास की जड़ों से निकलने वाला तरल पदार्थ ‘एक्यूडेर’ जमीन की मिट्टी को खराब करता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता को कम करता है.

Carrot Grass

रोकथाम जरूरी

अनुविभागीय कृषि अधिकारी केएस रघुवंशी ने इस बारे में बताया कि गाजरघास अगर जमीन में बहुतायत में उग आई है तो इस की रोकथाम का प्रभावी तरीका यही है कि इसे फूल आने से पहले जड़ समेत उखाड़ कर एक जगह पर ढेर लगा दें और 2-3 दिन बाद सूखने पर आग लगा दें. इस से गाजर घास के बीज नष्ट हो जाते हैं. इस के अलावा गाजर घास के ऊपर 100 लिटर पानी में 20 किलो साधारण नमक का घोल बना कर छिड़काव करने से भी इस के पौधे, फूल और बीज सभी नष्ट हो जाते हैं.

उन्होंने आगे कहा कि गाजरघास को उखाड़ते समय हाथों में रबड़ के दस्ताने पहनें, सुरक्षात्मक कपड़ों का उपयोग जरूर करें, जिस से त्वचा पर किसी भी तरह के संक्रमण का खतरा न हो.

गोविंद वल्लभपंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्विविद्यालय, पंतनगर से जुड़े सचिन दुबे के मुताबिक, गाजरघास की रोकथाम के लिए विभिन्न फसलों में कैमिकलों का इस्तेमाल किया जा सकता है.

शुरुआती अवस्था में जब गाजरघास के पौधे 2-3 पत्तियों के हों, इस खरपतवार को विभिन्न शाकनाशियों जैसे 2, 4-डी 0.5 किलो या मेट्रीब्यूजीन 0.35-0.4 किलो या खरपतवारनाशक दवा ग्लाइफोसेट 1-1.25 किलो सक्रिय अवयव को 600-800 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव कर के इस को खत्म किया जा सकता है. छिड़काव करते समय पौधों को घोल में अच्छी तरह भिगोना जरूरी होता है.

वरिष्ठ कृषि विस्तार अधिकारी अशोक त्रिपाठी बताते हैं कि गाजरघास को फूल आने से पहले जड़ समेत उखाड़ कर गड्ढे में डाल कर मिट्टी से ढक दें. गाजरघास जहां भी हो, उस जगह की गरमी में गहरी जुताई करें ताकि बाकी बची जड़ें भी नष्ट हो जाएं, उस के बाद बरसात में खरपतवारों के निकलने पर भी निगरानी रखें. खेत व मेंड़ पर यदाकदा गाजरघास दिखे तो उसे नष्ट करते रहें.

गैरकृषि भूमि में इस की रोकथाम के लिए सामुदायिक रूप से कोशिश करनी होगी. इस में यांत्रिक विधि, जैविक विधि और कैमिकलों का इस्तेमाल किया जा सकता है. इस के अलावा प्रतिस्पर्धात्मक पौधों द्वारा इस की बढ़वार और विकास को रोका जा सकता है. घर के आसपास और संरक्षित इलाकों में गेंदे के पौधे लगाने चाहिए.

खेतों में जल्दी बढ़ने वाली फसलें जैसे ढैंचा, ज्वार, बाजरा वगैरह की फसलें ले कर इस खरपतवार को काफी हद तक काबू में किया जा सकता है.

चूहों (Rats) की ऐसे करें रोकथाम

घरआंगन हो या खेतखलिहान, हर जगह चूहों (Rats) का आतंक है. हर कोई इन के तांडव से परेशान जरूर होता है. ऐसे में चूहों (Rats) का प्रभावी नियंत्रण हम सभी को जरूर करना चाहिए.

घरआंगन के अलावा चूहे (Rats) खेतखलिहानों में सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. इस के अलावा भारी मात्रा में मल त्याग करने व काटने, कुतरने की आदत के चलते बहुत सी बीमारियों के वाहक भी बनते हैं.

एक अनुमान के मुताबिक, देश में पैदा होने वाले कुल खाद्यान्न का तकरीबन 10 फीसदी सिर्फ चूहे ही हजम कर जाते हैं. इन की आबादी भी काफी तेजी से बढ़ती है. चूहे मात्र 5 हफ्ते में ही मैथुन के योग्य हो जाते हैं. एक मादा चूहा सालभर में 6-10 बार बच्चा देती है व एक बार में 6-12 बच्चे दे सकती है.

एक जोड़ी चूहे को अगर नियंत्रित न किया जा सके तो सालभर में ये 1,000-1,200 तक तादाद बढ़ा सकते हैं.

चूहे प्रमुखत: 4 प्रकार के पाए जाते हैं. पहला, घरेलू चूहा, जो सिर्फ घरों में ही पाया जाता है. दूसरा, खेत में चूहे, जो खेत और खलिहान दोनों में पाए जाते हैं. तीसरा, खेत और घर दोनों जगह के चूहे और चौथा, जंगली चूहे, जो जंगलों व रेगिस्तानों में रह कर घासफूल, फलफूल वगैरह खा कर अपना पेट भरते हैं.

चूहे भले ही अलगअलग प्रकार के हैं, मगर इन सब का नियंत्रण इन तरीकों से होता है:

गैररसायनिक तरीका

प्राकृतिक शत्रुओं द्वारा : गैररसायनिक तरीके में चूहों के प्राकृतिक शत्रुओं जैसे बिल्ली, सियार, कुत्ता, उल्लू, चमगादड़, लोमड़ी, चील जैसे जीवों को रख कर नियंत्रित कर सकते हैं. ये सभी जीव चूहों को खा जाते हैं.

चूहेदानी द्वारा : चूहेदानी में चूहों की पसंद की चीजें जैसे रोटी, डबलरोटी, बिसकुट, अमरूद वगैरह रख कर फंसा लिया जाता है. बाद में उन्हें बाहर छोड़ दिया जाता है या मार दिया जाता है.

चूहा अवरोधी भंडारण द्वारा : भंडारण पक्के कंक्रीट के फर्श पर या धातुओं जैसे जस्ता, लोहा, तांबा, वगैरह से बने पात्र में करना चाहिए.

साफसफाई द्वारा : चूहों का स्थायी घर झाडि़यों, कूंड़ों, मेंड़ों वगैरह में होता है, जिस की बेहतर ढंग से साफसफाई कर के चूहों की आबादी घटाई जा सकती है.

रासायनिक तरीका

5 दिवसीय योजना बना कर : चूहे बड़े चालाक होते हैं. मुमकिन है कि अचानक से कोई दवा रखने पर उसे न खाएं और चूहों का खात्मा रासायनिक दवा देने पर भी न हो सके, इसलिए एक 5 दिवसीय योजना बनानी चाहिए.

पहले दिन बिलों का निरीक्षण कर उन्हें मिट्टी से बंद कर देना चाहिए. दूसरे दिन खुले हुए बिल के पास सादा चारा रखना चाहिए. तीसरे दिन दोबारा बिलों के पास सादा चारा रखना चाहिए और चौथे दिन जहरीला चारा बना कर रखना चाहिए. इस के लिए 48 भाग चारा जैसे गुड़, चना, चावल, डबलरोटी वगैरह में 1 भाग जिंक फास्फाइड नामक दवा और एक भाग सरसों का तेल मिला कर देना चाहिए. 5वें दिन बिलों में धूम्रण के लिए 1-2 टैबलेट सल्फास एल्यूमिनियम फास्फाइड 15 फीसदी की गोली रख कर बिल को बंद कर दें.

बांझ करने वाले रसायनों द्वारा : चूहों के नियंत्रण का एक बेहतर उपाय यह भी है कि उन की आबादी बढ़ने ही न पाए, इस के लिए बाजार में अनेक तरह के रसायन आते हैं. चूहे इन्हें खा कर नपुंसक बन जाते हैं.

प्रमुख रसायनों में फुराडेंटीन नाम की दवा की एक गोली (0.2 ग्राम प्रति चूहा) व कोल्चीसीन की एक टैबलेट का 5वां हिस्सा खाने की चीजों में मिला कर चूहों को खिलाने से नपुंसक हो जाते हैं.

धूम्रण के द्वारा : साइमेग या साइनो गैस पाउडर, एल्यूमिनियम फास्फाइड वगैरह दवाओं की 3-4 ग्राम मात्रा हर एक बिल में डाल कर बिल बंद कर देने से चूहे मर जाते हैं.

जिंक फास्फाइड द्वारा : चूहों को खत्म करने के लिए यह सब से असरकारक रसायन है. इस के लिए जहरीला आहार बनाना पड़ता है.

आहार बनाने के लिए 48 भाग चारा जैसे गुड़, चना, चावल, डबलरोटी वगैरह में एक भाग जिंक फास्फाइड नाम की दवा व एक भाग सरसों का तेल लकड़ी के टुकड़े की मदद से मिला कर 10-15 ग्राम हरेक बिल में रखने से चूहे इन को खा कर मर जाते हैं.

वारफेरिन द्वारा : यह रसायन स्टारफेरिन या रेटाफेरिन नाम से आता है. इस की 25 ग्राम मात्रा और 450 ग्राम टूटा हुआ अनाज व 15 ग्राम चीनी और 10 ग्राम खाने वाला तेल इन सब को अच्छी तरह लकड़ी से मिला कर मिट्टी के बरतन में चूहों के बिल के पास रखने से चूहे खा कर बाद में मर जाते हैं.

घरेलू उपाय : गुड़ की चाशनी बना लीजिए. कौटन यानी रुई के छोटेछोटे टुकड़ों को चाशनी में इस तरह डुबोएं कि पूरी तरह से रुई में गुड़ सोख जाए. हवा के सहारे चाशनी में डूबी हुई रुई को सुखा लीजिए. सूखने के बाद जहांजहां चूहों से प्रभावित जगह हों, वहांवहां इन टुकड़ों को रख दीजिए. चूहे इसे खाएंगे, गुड़ तो पच जाएगा, मगर रुई नहीं पचा पाएगा. इस से चूहों को बारबार प्यास लगेगी और पानी न मिलने पर चूहे दम तोड़ देंगे.

हालांकि इस का असर बहुत धीरेधीरे होता है, मगर लंबे समय तक सब्र रख कर इस को किया जाए तो फायदा जरूर मिलता है.

Quinoa : भविष्य की फसल किनोआ

Quinoa : अपने नए शोध कामों के लिए स्वामी केशवानंद कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर, राजस्थान देशभर में जाना जाता है. पिछले दिनों यहां कृषि अनुसंधान केंद्र के एक बड़े भूभाग में खड़ी रंगबिरंगी फसल ने बरबस ही ध्यान खींच लिया. जिज्ञासावश हम ने यहां के रिसर्च डायरैक्टर पीएस शेखावत से बात की. पेश हैं उसी बातचीत के खास अंश:

ये इतनी खूबसूरत रंगबिरंगी कोई नई फसल है क्या?

जी हां, इसे किनोआ (Quinoa) कहते हैं. यह बथुआ प्रजाति का पौधा है. यह एक ओर्नामैंटल प्लांट है. जब यह कच्चा होता है तो ग्रीन, कुछ पकने पर लाल और कटाई के समय यह पूरी तरह से सफेद हो जाता है, जो देखने में बहुत ही सुंदर लगता है. कुछकुछ हमारे देशी प्रोडक्ट बाजरा एमएच 17 प्रजाति की तरह. इसे दक्षिणी अमेरिका में उगाया जाता है. हमारे देश में इसे हम भविष्य की फसल भी कह सकते हैं. इस के बीजों को पीस कर अनाज की तरह से इस्तेमाल किया जाता है.

क्या आप को लगता है कि यह विदेशी पौधा हमारे यहां की आबोहवा में पनप सकेगा?

बिलकुल पनप सकेगा. यह बहुत हार्डी पौधा है यानी किसी भी तरह की प्रतिकूल आबोहवा में यह अपनेआप को जिंदा रखने की क्षमता वाला पौधा है. यह रबी की फसल है. इसे बोने का सही समय नवंबर माह है और कटाई अप्रैल माह में होती है. इसे समय से पहले काश्त भी किया जा सकता है. इस की बोआई दोमट मिट्टी में होती है. इस पर सर्दी या पाले का कोई असर नहीं होता. इसे ज्यादा पानी की भी जरूरत नहीं होती. यह एक तरह से खरपतवार है. कहने का मतलब यह है कि इस पौधे के लिए यहां की आबोहवा पूरी तरह से माकूल है.

इस पर शोध की कोई खास वजह?

इस पौधे की खूबी ही इस पर शोध की वजह है. यह अनाज वाली फसल है. यह लगने, पकने और सिंचाई में तकरीबन गेहूं जैसा ही है लेकिन इस की बढ़वार गेहूं से कई गुना बेहतर है. इसे मेंटेनैंस फ्री फसल भी कहा जा सकता है यानी वे किसान जिन के पास मैन पावर कम हो, वे भी इसे काश्त कर सकते हैं. इसे खाने में अकेला या दूसरे अनाज के साथ मिला कर भी उपयोग में लाया जा सकता है.

क्या यह सचमुच किसानों के लिए फायदे का सौदा हो सकता है?

देखिए, हम पिछले 3 सालों से इस पर शोध का काम कर रहे हैं और यह बात सामने आई है कि इस की खेती से किसानों को बहुत फायदा हो सकता है. हमारे रिसर्च सैंटर में हम ने 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर इस की पैदावार ली है, लेकिन हमारे प्रोत्साहन से यहां पास ही में रायसर गांव में एक खेत में लगी फसल से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार भी ली गई है.

हमारे देश में फिलहाल इस का ज्यादा प्रचारप्रसार नहीं हुआ है लेकिन विदेशों में इस की कीमत 500-1,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक है. वैसे, हम ने अपने यहां उगाए गए किनोआ को 60 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचा है.

Quinoa

क्या आप को यह लगता है कि इतना महंगा अनाज आम आदमी की पहुंच में हो सकता है?

यह आमतौर पर मैडिसिनल प्लांट है इसलिए औषधि के रूप में ज्यादा कारगर साबित हो सकता है. इसे वैल्यू एडेड प्रोडक्ट यानी दूसरे अनाजों के साथ मिला कर इस्तेमाल में लाया जाता है. इस में मैगनीज होता है जो दिल को मजबूती देता है. इस में एंटीऔक्सिडेंट है जो रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है.

इस के अलावा इस में चावल की तरह कार्बोहाइड्रेट भी होता है लेकिन इस में फाइबर की मात्रा ज्यादा होने से यह डायबिटीज के मरीजों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद है.

अभी आप ने बताया कि किनोआ का प्रचारप्रसार ज्यादा नहीं हुआ है तो आप इस के लिए क्या कोशिश कर रहे हैं?

आप जैसे लोग ही हमारी बात दूर तक पहुंचाएंगे. हम किसानों के लिए पैकेज तैयार कर रहे हैं. पैकेज यानी एक तरह की बुकलैट. इस बुकलैट में किनोआ से संबंधित जानकारी होगी, जैसे कितना बीज, कैसी मिट्टी, मिट्टी का कितना पीएच मान, कितना फर्टिलाइजर, कितनी सिंचाई, क्या बीमारी और उस का उपचार वगैरह. हम इच्छुक किसानों को अपने यहां विजिट करवा कर उन की जिज्ञासा का समाधान भी करते हैं.

आप ने इसे भविष्य की फसल क्यों कहा?

क्योंकि इस फसल को हम आने वाले समय में एक विकल्प के तौर पर इस्तेमाल करेंगे. अभी मैं ने बताया था कि यह डायबिटीज और दिल के मरीजों के लिए ज्यादा फायदेमंद है. हम देख रहे हैं कि इन मरीजों की तादाद में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है. ऐसे में हम इसे दूसरे विकल्प के तौर पर अनाज की तरह इस्तेमाल करेंगे.

दूसरी बात यह भी है कि अब आबोहवा में बदलाव हो रहा है. इस वजह से आने वाले समय में हमारी कुछ फसलें ज्यादा पैदावार देंगी तो कुछ का उत्पादन बहुत कम हो जाएगा.

अब सोचिए कि किसी एक ऐसे समय में जब हमारी क्रौप डाउन हो गई और हमारे पास सीरियल के रूप में कुछ न हो, तब यह फसल किनोआ अनाज के रूप में उभरेगी.

राजस्थान के अलावा इसे देश के किस भूभाग में लगाया जा सकता है?

जैसा कि मैं ने बताया था कि यह एक हार्डी पौधा है और यह किसी भी हालात में उग सकता है. इसे पानी और बेहतर मिट्टी व माकूल आबोहवा के मुताबिक कहीं भी लगाया जा सकता है.

किनोआ विदेशी फसल है. आप हमारे यहां इस का क्या भविष्य देखते हैं?

मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यह आने वाले समय में अनाज के एक बेहतरीन विकल्प के रूप में सामने आएगा. जैसेजैसे लोगों में इस के बारे में जागरूकता बढ़ेगी, वैसेवैसे लोग इस की मांग करेंगे और किसानों में इसे उगाने के प्रति रुझान बढ़ेगा.

अब आप बताइए कि कुछ साल पहले तक ओट्स के बारे में कितने लोग जानते थे, लेकिन आज उस के प्रचारप्रसार के चलते यह लोगों की जबान पर चढ़ा हुआ है. है तो वह भी एक फोडर क्रौप ही न. उसी तरह से सही प्रचारप्रसार से किनोआ भी जल्दी ही आम लोगों की जिंदगी में शामिल हो जाएगा क्योंकि यह कम मात्रा में अधिक पोषण देने वाला अनाज है.

मेरा दावा है कि यह किसानों के लिए किसी भी तरह से घाटे का सौदा नहीं है क्योंकि किसी मेंटेनैंस फ्री फसल का 60 रुपए प्रति किलोग्राम भी हो तो नुकसान नहीं है.

यदि किसान इसे उगाएं तो इस का मार्केट क्या है?

किनोआ लगाने की किसानों में काफी दिलचस्पी है लेकिन फिलहाल परेशानी मार्केट की है क्योंकि लोगों को इस के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. अभी तो इसे हमारे विभाग ने ही बीज के तौर पर खरीदा है लेकिन इस के पक्ष में मार्केट बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा. इस पर होने वाले शोध के काम और सैमिनार जैसेजैसे आम लोगों के बीच आएंगे, इस का भी अच्छाखासा मार्केट बन जाएगा.

क्या इसे प्रोसैस कर अनाज की तरह दूसरे उत्पाद भी बनाए जा सकते हैं?

सीधे खाने पर इस का स्वाद हलका सा कसैला होता है लेकिन कड़वा होने पर करेला भी तो खाया जाता है न. वैसे, किसी भी दूसरे सीरियल की तरह से इस से भी खीर, बिसकुट, दलिया, सूप वगैरह बनाए जा सकते हैं.

Depot Darpan : डिपो दर्पण से मिलेगा खाद्यान्न का लेखाजोखा

Depot Darpan : डीएफपीडी अब डिपो दर्पण (Depot Darpan) पोर्टल और मोबाइल एप्लीकेशन की कल्पना कर रहा है, जिस का उद्देश्य है कि खाद्य भंडारण डिपो उच्चतम गुणवत्ता और प्रदर्शन मानकों को पूरा करते हैं. यह डिपो प्रबंधकों को लगभग वास्तविक समय के आधार पर बुनियादी ढांचे, परिचालन और वित्तीय प्रदर्शन का मूल्यांकन करने में सक्षम बनाता है.

डिपो प्रबंधक अपने डिपो में उपलब्ध बुनियादी ढांचे के जियो टैग किए गए इनपुट अपलोड करते हैं, जिस से समय पर सुधार के लिए स्वचालित रेटिंग और एक्शन पाइंट तैयार होते हैं. यह प्रणाली निगरानी रखने वाले अधिकारियों और तीसरे पक्ष औडिट द्वारा सौ फीसदी सत्यापन की गारंटी देती है.

गोदामों का मूल्यांकन 2 मुख्य श्रेणियों के आधार पर किया जाता है:

पहला, अवसंरचना संबंधी पहलू, जिन में सुरक्षा मानक, भंडारण की स्थिति, पर्यावरण, प्रौद्योगिकी अपनाना और वैधानिक मापदंड शामिल हैं.

दूसरा परिचालन दक्षता पहलू, जिस में स्टाक टर्नओवर, घाटा, स्थान उपयोग, जनशक्ति व्यय और लाभप्रदता शामिल हैं.

प्रत्येक श्रेणी का मूल्यांकन स्वतंत्र रूप से किया जाता है. गोदाम को दोनों मापदंडों के समग्र स्कोरिंग के आधार पर स्टार रेटिंग मिलती है.

डिपो दर्पण को स्मार्ट वेयरहाउसिंग प्रौद्योगिकियों के साथ मुख्य रूप से जोड़ा गया है, जिस से एक बेरोक डिजिटल निगरानी पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण हुआ है, जिस में शामिल हैं: सीसीटीवी निगरानी और आईओटी सैंसर, जो सीओ2 और फौस्फीन के स्तर, आग के खतरों, आर्द्रता, अवैध प्रवेश और तापमान जैसे प्रमुख मापदंडों की वास्तविक समय में निगरानी करते हैं, जिस से खाद्यान्न भंडारण में सुरक्षा और दक्षता पूरी तरह से हो सके.

आईओटी सक्षम निगरानी में शामिल हैं:

परिवेश सैंसर – अनाज की नमी और तापमान की निगरानी के लिए तापमान और सापेक्ष आर्द्रता

कार्बन डाईऔक्साइड (सीओ2) – संभावित अनाज संक्रमण की निगरानी और संकेत करने के लिए फौस्फीन गैस सैंसर जहरीली गैस के स्तर के संपर्क को रोकने के लिए पूर्व चेतावनी के माध्यम से श्रमिकों के लिए व्यावसायिक सुरक्षा सुनिश्चित करता है, धुएं के रिसाव का पता लगाता है, जिस से उपचार की प्रभावशीलता बढ़ जाती है.

गेट शटर सैंसर – अवैध दरवाजे के प्रवेश का पता लगाना. निर्धारित घंटों के बाहर अवैध दरवाजे के खुलने पर अलर्ट. धुएं जैसी घटनाओं के दौरान दरवाजे की स्थिति पर नजर रखता है. आवश्यकतानुसार दरवाजे के खुलने पर नजर रख कर उचित वेंटिलेशन भी सुनिश्चित करता है.

आग/धुआं सैंसर – आग से संबंधित नुकसान को रोकने और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए पूर्व चेतावनी प्रदान करता है.

इस के अलावा, बैग गिनने के लिए एआई आधारित तकनीक, वाहन की पहचान और ट्रैकिंग के लिए एएनपीआर (स्वचालित नंबर प्लेट पहचान) और प्रवेश नियंत्रण और सुरक्षा के लिए फेस रिकौग्निशन तकनीक (एफआरएस) को भी पायलट आधार पर गोदामों में तैनात किया गया है.

एफसीआई और सीडब्ल्यूसी के स्वामित्व वाले और राज्य एजेंसियों/निजी से किराए पर लिए गए गोदामों सहित कुल लगभग 2,278 गोदाम इस डिजिटल पहल में शामिल किए जाएंगे.

डिपो दर्पण मोबाइल एप जांच करने वाले अधिकारियों को किसी भी समय, कहीं भी भंडार के प्रदर्शन को ट्रैक करने की अनुमति देता है, जिस से बेहतर निर्णय लेने में सहायता मिलती है. स्वचालित रिपोर्ट का उपयोग नियमित समीक्षाओं में किया जाता है, जिस से बुनियादी ढांचे और दक्षता में निरंतर और बिना रुकावट के सुधार होता है.

डिपो दर्पण भंडारण उत्कृष्टता का दर्पण है, जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली में बेहतर भंडारण और अधिक परिचालन दक्षता सुनिश्चित करता है और वैज्ञानिक रूप से भंडारित प्रत्येक अनाज के साथ राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा के प्रति जिम्मेदारी को और अधिक मजबूत करता है.

केंद्रीय उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण और नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री डिपो दर्पण पोर्टल और मोबाइल एप्लीकेशन का 20 मई, 2025 को औपचारिक उद्घाटन करेंगे.