रोटावेटर (Rotavator) से जुताई

आजकल खेती में नएनए यंत्र आ रहे हैं. रोटावेटर ट्रैक्टर से चलने वाला जुताई का एक खास यंत्र है, जो दूसरे यंत्रों की 4-5 जुताई के बराबर अपनी एक ही जुताई से खेत को भुरभरा बना कर खेती योग्य बना देता है.

रोटावेटर का फ्रेम लोहे के एंगल से बना होता है, जिस में इस के अन्य भाग जुड़े रहते हैं. यह एंगल संचालन के समय भागों को पकड़ कर रखता है और इस का दूसरा महत्त्वपूर्ण भाग रोटावेटर गैंग होता है.

रोटावेटर गैंग बहुत अच्छी गुणवत्ता वाले इस्पात के बने होते हैं, जो फ्रेम में जुड़े रहते हैं. इन का संचालन मूविंग मेकैनिज्म द्वारा होता है और यही मिट्टी को काट कर भुरभुरा बनाते हैं, जिन के द्वारा जुताई का काम अच्छी तरह पूरा होता है.

इस का तीसरा महत्त्वपूर्ण भाग होता है यूनिवर्सल ज्वाइंट. यह रोटावेटर के अगले भाग में लगा होता है. इस को ट्रैक्टर के पीटीओ शाफ्ट से जोड़ा जाता है, जो मूविंग मेकैनिज्म को घुमाता है और रोटावेटर जुताई करना शुरू कर देता है.

इस का चौथा भाग मूविंग मेकैनिज्म होता है, जो ट्रैक्टर द्वारा दिए गए चक्कर के द्वारा मूविंग मेकैनिज्म रोटावेटर गैंग को चलाता है. इस से मिट्टी कटती है और जुताई का काम पूरा होता है.

रोटावेटर (Rotavator)

ट्रैक्टर के थ्री प्वाइंट लिंकेज को इस के थ्री प्वाइंट लिंकेज से जोड़ दिया जाता है. इस के बाद रोटावेटर के यूनिवर्सल ज्वाइंट को ट्रैक्टर के पीटीओ शाफ्ट से जोड़ देते हैं. इस के बाद पीटीओ शाफ्ट और ट्रैक्टर को खेत में एकसाथ चलाना शुरू करते हैं, जिस से रोटावेटर गैंग मूविंग मेकैनिज्म के द्वारा घूमने लगता है और मिट्टी कटकट कर भुरभुरी होने लगती है, जिस से जुताई का काम पूरा होता है.

देखभाल

रोटावेटर धातु से बना हुआ यंत्र होता है, इसलिए इस की देखभाल भी अच्छी तरह करना जरूरी होता है. इस के लिए रोटावेटर से जुताई करने से पहले इस मशीन को तैयार कर लेना चाहिए. तैयार करने के लिए इस के मूविंग मेकैनिज्म और रोटावेटर गैंग के ध्रुवों के पास बालबेयरिंग में ग्रीसिंग व औयलिंग कर लेना जरूरी होता है और जुताई का काम पूरा होने के बाद यंत्र को रखने से पहले अच्छी तरह मिट्टी और खरपतवारों को साफ कर लेना चािहए और किसी छायादार जगह पर सुरक्षित रखना चाहिए.

फायदे

रोटावेटर से जुताई करने पर मिट्टी बहुत छोटेछोटे टुकड़ों में बंट जाती है और पूरा खेत बहुत अच्छी तरह भुरभुरा हो जाता है व खेत में उगे खरपतवार और फसल अवशेष छोटेछोटे टुकड़ों में बंट कर जमीन में दब जाते हैं, जो सड़ कर मिट्टी में जीवांश पदार्थ में बदल जाते हैं.

रोटावेटर से जुताई करने पर दूसरे यंत्रों की  5 जुताई इस के केवल एक ही बार की जुताई में पूरी हो जाती है. इसलिए डीजल की खपत कम होती है और समय की भी बचत होती है.

खेती में भरपूर काम फिर भी महिला किसान होने का नहीं सम्मान

सदियों से खेतीकिसानी के काम को पुरुषों का ही काम माना जाता रहा है, जबकि खेतों में काम करते हुए लोगों को अगर देखें, तो उस में सब से ज्यादा तादाद महिलाओं की ही होती है. खरीफ सीजन में खेतों में काम करने वाले किसानों की तादाद में और भी इजाफा हो जाता है, क्योंकि खरीफ सीजन में धान रोपाई से ले कर कटाई, हार्वेस्टिंग और भंडारण तक में महिलाएं ही भूमिका निभाती हैं. फिर भी घर की इन महिलाओं को किसान होने का दर्जा इसलिए नहीं मिल पाता है, क्योंकि जमीन का मालिकाना हक घर के पुरुष सदस्य के पास ही होता है.

हम किसानों के लिए संबोधन किए जाने वाले सरकारी या गैरसरकारी लैवल पर भाषाई स्तर पर नजर डालें, तो किसान के रूप में अन्नदाताओं के लिए सिर्फ ‘किसान भाई’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, जबकि खेती में अहम भूमिका निभाने वाली महिलाओं को आज तक ‘किसान बहनों’ के नाम से संबोधित करते नहीं देखा गया. महिला किसानों के लिए यह असमानता मीडिया लैवल पर भी दिखाई देता रहा है.

खेती के करती हैं सभी काम, फिर भी नहीं मिलता दाम

महिलाएं घरपरिवार की देखभाल के साथसाथ पशुपालन, दूध निकालना, रोपाई, निराई, गुड़ाई, हार्वेस्टिंग और भंडारण तक का काम संभालती हैं, लेकिन जब कृषि उपज को बेचने की बात आती है, तो उस का निर्णय किसान कहलाने वाला घर का पुरुष सदस्य लेता है और उपज को बेच कर की हुई कमाई को भी अपने पास ही रखता है.

महिला किसानों के हक पर काम करने वाली माधुरी का कहना है कि जब महिलाएं दिनभर धान के पानी से भरे खेत में खड़ी हो कर पुरुषों की तरह ही निंदाईगुड़ाई कर सकती हैं, तो फिर मंडी में उसी फसल को बेचने के लिए उन्हें जाने क्यों नहीं दिया जाता बीज खरीदने, फसल बेचने, उस फसल से प्राप्त रकम के उपयोग में उस की भूमिका कहां चली जाती है, जबकि वह घर में सब से पहले उठने और सब से बाद में सोने वाली इकाई होती है?

किसान आंदोलन में खेती का पूरा काम महिलाओं के हवाले

देश के किसान जब खेतीबारी के मसलों पर नीति बनाने को ले कर दिल्ली और दिल्ली से सटे बौर्डर पर आंदोलन कर रहे थे, तो खेती से जुड़े 100 फीसदी कामों की जिम्मेदारियों को घर की महिलाओं ने ही संभाला था, लेकिन इस आंदोलन में चर्चा केवल पुरुष किसानों की ही हुई, जबकि अगर घर की महिलाएं खेती से जुड़े काम न संभालतीं तो खेती तो बरबाद ही होती. साथ ही, धरने पर बैठने वाले किसानों को आंदोलन में जीत भी नहीं मिलती.

महिलाओं ने इस दौरान न केवल खेती के काम बखूबी संभाले, बल्कि घर के बड़ेबुजुर्गों की देखभाल से ले कर बच्चों को स्कूल जाने के लिए तैयार करना, खाना पकाने जैसे काम को भी अंजाम दिया. किसान आंदोलन के दौरान हजारों की तादाद में महिला किसान भी धरने पर नजर आईं.

महिला किसानों के हक पर काम करने वाली माधुरी का कहना है कि पुरुषों के नाम खेती की जमीन होने मात्र से हम किसान होने का मानक तय नहीं कर सकते हैं, बल्कि हमें खेती में 80 फीसदी तक योगदान देने वाली घर की महिलाओं को भी ‘महिला किसान’ के रूप में सम्मान देना सीखना होगा.

महिला किसानों ने बढ़ाया महिलाओं का हौसला

बिहार में ‘किसान चाची’ के नाम से जानी जाने वाली एक महिला किसान हम सभी के लिए बड़ा उदाहरण हैं. उन्होंने कई जिलों में मीलों दूर साइकिल चला कर किसानी के प्रति गांव की महिलाओं में अलख जगाई.

उन्होंने देखा कि किसानों के पास खेती के लिए कम जमीनें थीं. घरपरिवार का गुजारा मुश्किल से होता था, परिवार की स्थिति ठीक नहीं थी. ऐसे में किसान चाची ने पुरुषों को शहरों में जा कर नौकरी करने और महिलाओं को खेती करने का रामबाण नुसखा दिया.

महिलाओं ने उन ‘चाची’ की सलाह मानी. नतीजा यह निकला कि उन के घरों में महिलापुरुष दोनों कमाने के लिए सशक्त हुए. बिहार में किसान चाची के प्रयास से आज कई जिलों की महिलाएं खेती के काम करती हैं. महिलाओं में खेती के प्रति जगाए सशक्तीकरण को देखते हुए 2 साल पहले भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’ सम्मान से भी नवाजा.

महिला किसान (Woman Farmer)

ये सारे काम महिला किसानों के हवाले

हाल ही में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका द्वारा ‘फार्म एन फूड किसान सम्मान’ का आयोजन किया था, जिस में भारी तादाद में महिलाओं ने विभिन्न कैटीगिरियों में आवेदन किए थे. इस में खेतीकिसानी से जुड़े ऐसे काम भी रहे, जिस पर यह माना जाता है कि इन कामों को करने की कूवत केवल पुरुष किसानों में ही है. यह काम खेतीकिसानी से जुड़े बड़े कृषि यंत्रों के चलाने से जुड़ा है, जिसे महिला किसान बड़ी ही आसानी से संचालित कर रही हैं.

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के कोठडी बहलोलपुर गांव की रहने वाली बेहद कम उम्र की शुभावरी चौहान न सिर्फ एक सफल किसान हैं, बल्कि वे अपने पिता के साथ मिल कर ट्रैक्टर से खेतों की जुताई भी करती हैं और कालेज जाने के लिए मोटरसाइकिल का इस्तेमाल करती हैं.

वर्तमान में शुभावरी चौहान अपने गांव से तकरीबन 45 किलोमीटर दूर सहारनपुर में ‘मुन्ना लाल गर्ल्स डिगरी कालेज’ में अपने बीए फाइनल ईयर की पढ़ाई कर रही हैं. उन का सालाना टर्नओवर 25 लाख रुपए है और वे 25-30 लोगों को रोजगार प्रदान करती हैं.

इसी तरह गांव कोटी अठूरवाला, जिला देहरादून, उत्तराखंड की रहने वाली पशुपालक पुष्पा नेगी पशुपालन के क्षेत्र में नवीनतम तकनीक अपना कर स्थानीय किसानों को भी जागरूक करती हैं.

पशुपालक पुष्पा नेगी के द्वारा साल 2016 से गोपालन किया जा रहा है. इस समय उन के पास लगभग 30 गाय हैं, जिन में होल्सटीन फ्रीजियन और साहीवाल दोनों नस्ल की गाय शामिल हैं.

पुष्पा नेगी गाय के दूध से घी, छाछ, मक्खन आदि बना कर बाजार में अच्छे दामों पर बेचती हैं और प्रकृति संरक्षण को ध्यान में रखते हुए उन के यहां गाय के गोबर से दीया, दीपक, मूर्ति, समरानी कप, गौ काष्ठ एवं वर्मी कंपोस्ट आदि चीजें तैयार की जाती हैं. इस काम में उन्होंने अनेक लोगों को जोड़ रखा है, जिस से उन्हें भी रोजगार मिल रहा है.

गोंडा जनपद की रहने वाली साधना सिंह साल 2012 से कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं. इस समय वे कृषि आधारित कई व्यवसाय भी कर रही हैं. उन्होंने 2 भैंसों के साथ पशुपालन का काम शुरू किया था और इस समय उन के पास 35 दुधारू भैंसें हैं. उन के दूध से पारंपरिक बिलोना विधि से भैंस का देशी घी तैयार किया जाता है, जो ‘अवध गोल्ड’ के नाम से बिकता है.

साधना सिंह के पास 2 पोल्ट्री फार्म हैं, जिस से उन्हें सालाना 7 से 8 लाख रुपए का मुनाफा होता है. इस के अलावा वे मछलीपालन व्यवसाय से भी जुड़ी हैं, जिस से उन्हें सालाना 10 लाख का लाभ प्राप्त होता है.

साधना सिंह का कहना है कि हम पंगास मछली का उत्पादन करते हैं. यह हाईडैंसिटी में उत्पादन होने वाली मछली है, जिस से ज्यादा मुनाफा होता है. मछलीपालन में फायदा होते देख कई महिला किसानों ने मछलीपालन शुरू किया है, जिस से गांव में अनेक महिला किसान मछलीपालन से फायदा उठा रही हैं. इस के अलावा वे 40 एकड़ में गन्ने की खेती और 20 एकड़ में धान की खेती करती हैं. 2 एकड़ में वे जैविक खेती से धान और गेहूं उत्पादन करती हैं.

बस्ती जिले के बिहराखास गांव की रहने वाली पुष्पा गौतम कृषि उत्पादों जैसे मल्टीग्रेन आटा, चावल, चना, अचारमुरब्बा आदि की प्रोसैसिंग कर बाजार से कई गुना अधिक मुनाफा कमाने के साथसाथ अनेक लोगों को ट्रेनिंग व रोजगार भी दे रही हैं.

महिला किसानों को मिलेगी सही पहचान

महिला किसान अधिकारों पर काम करने वाली और एक सफल किसान माधुरी का कहना है कि खेतीकिसानी से जुड़ी ट्रेनिंग और अन्य क्षमतावर्धन गतिविधियों में महिला किसानों को कम तवज्जुह दी जाती है. अगर सरकारी और गैरसरकारी लैवल पर आयोजित होने वाले इन कार्यक्रमों में महिला किसानों की भागीदारी बढ़ाई जाए, तो उन्हें असल पहचान मिल पाएगी.

वे कहती हैं कि परंपरागत रूप से महिलाओं को खेती में निराई, बोआई, रोपाई और कटाई जैसे काम सौंपे जाते थे. उत्पाद बेचना घर के पुरुष सदस्य का अधिकार होता था. वे पशुपालन जैसी सहायक गतिविधियों की देखभाल में भी शामिल थे. लेकिन अब यह सब बदल रहा है.

आज सरकार से इतर देश की कई गैरसरकारी संस्थाएं गांव की महिलाओं को कृषि व्यवसाय मौडल पर शिक्षित कर के उन की प्रबंधन क्षमताओं को निखार रही हैं और नई आजीविकाओं में प्रशिक्षित कर रही हैं, जिस में खेती के अलावा ग्रेडिंग, सौर्टिंग, तौल, भंडारण, लोडिंग, अनलोडिंग, चालान और समन्वय रसद को प्रसंस्करण मिलों तक उत्पाद भेजने पर महिलाओं की क्षमता बढ़ाई जा रही है.

माधुरी बताती हैं कि एक अनुमान के मुताबिक भारत में तकरीबन 10 करोड़ महिलाएं खेती से जुड़ी हैं. लेकिन इन्हें महिला किसान न मान कर खेतिहर मजदूर माना जाता है.

वे कहती हैं कि छोटे और मझोले किसान घरों की तकरीबन 75 फीसदी महिलाएं खेती के कामों से तो जुड़ी हैं, किंतु आमतौर पर उन्हें उन के कामों का श्रेय नहीं दिया जाता है, न ही उन के हाथों में सीधी मजदूरी पहुंचती है और कई बार वे खेती से जुड़ी निर्णय प्रक्रिया से बाहर रहती हैं. वे खेती और परिवार से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी एकसाथ निभाती हैं. लेकिन इन सब के बावजूद उन के योगदान का मूल्यांकन कहीं नहीं होता है.

बढ़ाया महिला किसानों के नाम खेती का रकबा

खेती की जमीन के मालिकाना हक के मामले में पुरुषों का दबदबा रहा है, लेकिन जब से ‘पीएम किसान सम्मान निधि’ योजना की शुरुआत हुई है, तब से घर के पुरुषों ने साल में मिलने वाले 6,000 रुपए के लालच में अपने घर की महिलाओं के नाम जमीन ट्रांसफर करना शुरू कर दिया.

अगर हम ‘पीएम किसान सम्मान निधि’ योजना के आंकड़ों पर गौर करें, तो 12.13 करोड़ पंजीकृत किसानों में 25 फीसदी हिस्सेदारी महिलाओं की है. पीएम किसान सम्मान निधि पोर्टल पर पंजीकृत महिला किसानों का यह आंकड़ा बहुत कम था, जो इस योजना के आने के बाद बढ़ा है.

इस के अलावा उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने जमीन नामांतरण प्रक्रिया में बड़ी सहूलियत दी है. इस के तहत उत्तर प्रदेश में अब कोई भी व्यक्ति 5,000 रुपए का स्टांप शुल्क दे कर अपने परिजनों के नाम जमीन का बैनामा कर सकता है. इस स्कीम के चलते उत्तर प्रदेश में महिलाओं के नाम खेती योग्य जमीन के रकबे में बढ़ोतरी दर्ज की गई है.

महिला किसान (Woman Farmer)खेतीबारी से जुड़े आंकड़ों में भी महिलाएं

‘पीएम किसान’ पोर्टल पर महिला किसानों के जो आंकड़े प्रदर्शित हैं, भारत की जनगणना 2011 से बेहद कम है, क्योंकि साल 2011 की जनगणना के हिसाब से देश में तकरीबन 6 करोड़ महिला किसान हैं, वहीं आवधिक श्रमबल सर्वे 2018-19 का डेटा बताता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 71.1 फीसदी महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम करती हैं.

माधुरी कहती हैं कि 73.2 फीसदी ग्रामीण महिला श्रमिक किसान हैं, लेकिन उन के पास 12.8 फीसदी जमीन स्वामित्व है. महाराष्ट्र में 88.46 फीसदी ग्रामीण महिलाएं कृषि में लगी हैं, जो देश में सब से ज्यादा है.

साल 2015 की कृषि जनगणना के अनुसार, पश्चिमी महाराष्ट्र के नासिक जिले में महिलाओं के पास केवल 15.6 फीसदी कृषि भूमि का स्वामित्व है यानी कुल खेती वाले क्षेत्र में 14 फीसदी की हिस्सेदारी है.

वे बताती हैं कि संयुक्त राष्ट्र की साल 2013 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जबरन बेदखली या गरीबी के खतरे को कम कर के, प्रत्यक्ष और सुरक्षित भूमि अधिकार महिलाओं की घर में सौदेबाजी की शक्ति को बढ़ाते हैं और उन की सार्वजनिक भागीदारी के स्तर में सुधार करते हैं.

माधुरी के अनुसार, महिलाओं को ‘महिला किसान’ के रूप में बनाई गई नीतियां नाकाफी हैं, इसलिए सरकार को इन नीतियों की समीक्षा कर उस में जरूरी सुधार कर के उस की सख्ती से पालन सुनिश्चित कराने की जरूरत है.

कचरे के पहाड़ों पर खेती : कमाई की तकनीक

वर्तमान में कचरा एक गंभीर वैश्विक समस्या बन कर उभरा है. भारत की बात करें, तो साल 2023 में पर्यावरण की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिदिन तकरीबन डेढ़ करोड़ टन ठोस कचरा पैदा हो रहा है, जिस में से केवल एकतिहाई से भी कम कचरे का ठीक से निष्पादन हो पाता है. बचे कचरे को खुली जगहों पर ढेर लगाते हैं, जिसे कचरे की लैंडफिलिंग कहते हैं.

हमारे देश में कचरे की लैंडफिलिंग कचरा निष्पादन का प्रमुख तरीका है, जो बिलकुल अवैज्ञानिक है. देश में हजारों लैंडफिल जगहें हैं, जहां हजारों टन ठोस कचरा जमा है, जिस में दिल्ली की गाजीपुर, ओखला, भलस्वा, मुंबई की मुलुंड, देवनार, नागपुर की भांडेवाड़ी, अहमदाबाद की पिराना और बैंगलुरु की मंदूर लैंडफिल साइट्स ऐसी डंपिंग साइट्स हैं, जहां कचरे के बड़ेबड़े पहाड़ बन चुके हैं.

एक अनुमान के मुताबिक, देशभर में मौजूद कचरे के पहाड़ों के नीचे तकरीबन 15,000 एकड़ जमीन दबी हुई है, जिस पर तकरीबन 16 करोड़ टन कचरा जमा है. देश में बढ़ते कचरे के पहाड़ पानी, हवा एवं मिट्टी को दूषित कर पर्यावरण एवं सेहत के लिए गंभीर खतरा बने हुए हैं.

कचरे के पहाड़ों को खत्म करने के लिए सरकार ने ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत 10 साल में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए, लेकिन आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के अनुसार महज 15 फीसदी ही कचरे के पहाड़ों को साफ एवं 35 फीसदी कचरे को निष्पादित किया जा सका है.

अगर इस गति और इतने खर्च से कचरे के पहाड़ों के निष्पादन का काम होगा, तो शायद ये कचरे के पहाड़ कभी भी खत्म नहीं हो पाएंगे. अगर कचरे के पहाड़ खत्म हो भी जाते हैं, तो उन को खत्म करने में जो खर्चा आएगा, वह शायद कचरे के पहाड़ों से होने वाले नुकसान से भी ज्यादा होगा, इसलिए मौजूदा कचरे के पहाड़ों को साफ करने की व्यवस्था के साथसाथ कचरे के पहाड़ों पर खेती करने की कार्ययोजना बनाई जाए, क्योंकि देश में मौजूद ज्यादातर कचरे के पहाड़ों में 50 फीसदी से अधिक जैव कचरा है, इसलिए कचरे के पहाड़ों पर खेती संभव हो सकती है.

कचरा खेती

कचरा खेती तकनीक पर्यावरण हितैषी, आर्थिक रूप से सस्ती और सामाजिक रूप से स्वीकार्य तकनीकी है. इस तकनीक में कचरे के पहाड़ों पर खेती करते हैं, जिस में सजावटी पौधों, फूलों, औषधीय पौधों और हरी खाद की खेती के साथसाथ बड़े पेड़पौधों और ?ाडि़यों को भी उगाते हैं.

कचरा खेती में अनाज, दलहन एवं तिलहन की फसलें, फल एवं सब्जियों की खेती नहीं करते हैं, क्योंकि कचरे के पहाड़ों में जहरीला कचरा भी मौजूद होता है जैसे भारी धातुएं और जैव रासायनिक प्रक्रिया से बहुत से जहरीले कैमिकल पैदा होते हैं, जो उगाए गए पौधों में चिपक जाते हैं.

यदि इन पौधों के किसी भी भाग का इस्तेमाल पशुओं या इनसानों द्वारा किया जाता है, तो ये जहरीले तत्त्व पौधों के माध्यम से इनसानों एवं पशुओं के शरीर में जा कर गंभीर सेहत संबंधी समस्याएं पैदा कर सकते हैं.

कचरे के पहाड़ों पर खेती करने के लिए सब से पहले कचरे के पहाड़ों को सीढ़ीनुमा खेत में बदलते हैं, जिस में सीढ़ी का ढाल अंदर की ओर रखते हैं. इस से कचरे के पहाड़ से निकलने वाला जहरीला तरल पदार्थ बह कर पहाड़ के बाहर न जाए.

इस के बाद सीढ़ीनुमा कचरे के खेत में न सड़ने वाला कचरा जैसे पौलीथिन, प्लास्टिक और धातु के कचरे को तकरीबन 30 सैंटीमीटर गहराई की परत से छांट कर निकाल देते हैं और बचे कचरे को महीन कर लेते हैं. इस के बाद खेत की उपजाऊ मिट्टी में जरूरत के मुताबिक गोबर या केंचुए या कंपोस्ट खाद और उर्वरकों को मिला कर सीढ़ीनुमा कचरे के खेत में अच्छी तरह मिला देते हैं.

यदि नमी न हो, तो पानी का छिड़काव कर कचरे को नम कर देते हैं. इस के बाद सीढ़ीनुमा खेत में नर्सरी में तैयार पौधों का रोपण करते हैं.

ध्यान रहे कि कचरा खेती में बीजों को सीधे खेत में नहीं बोते, क्योंकि कचरे में बीजों का जमाव ठीक से नहीं हो पाता है, इसलिए पौधों को नर्सरी में तैयार कर रोपण करते हैं. लेकिन जिन पौधों या फसलों की नर्सरी तैयार करना कठिन होता है, ऐसी फसलों के बीजों की बोआई करते हैं, जैसे हरी खाद की फसलें ढैंचा, सनई आदि.

कचरे के सीढ़ीनुमा खेतों में पेड़पौधों को लगाने के लिए चिह्नित जगहों पर एक मीटर लंबाई, चौड़ाई और गहराई के गड्ढे खोद कर उन का कचरा बाहर निकाल देते हैं और फिर उन में मिट्टी और सड़ी गोबर की खाद के तैयार मिश्रण को भर कर पौधों को रोप देते हैं.

पौधों का रोपण बारिश के मौसम में करते हैं, जिस से पौधों को पानी देने की जरूरत न पड़े और पौधों की बढ़वार भी अच्छी हो सके. पौधों की अच्छी बढ़वार एवं विकास के लिए जरूरत के मुताबिक ड्रोन, स्प्रिंकलर या ड्रिप विधि से सिंचाई करते हैं. साथ ही, कीट, रोग एवं खरपतवार प्रबंधन का भी काम करते रहते हैं.

Farming on mountainsकचरा खेती के लाभ

* कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से कचरे के दुर्गंध वाले पहाड़ों को बिना खत्म किए हरित क्षेत्र में बदला जा सकता है.

* गरमियों के दिनों में कचरे के पहाड़ों में आग लगने की समस्या का भी समाधान हो जाएगा.

* कचरे के पहाड़ों से निकलने वाली दुर्गंध फूलों की सुगंध में परिवर्तित हो कर आसपास के वातावरण को शुद्ध करेगी.

* कचरे के पहाड़ों से उड़ने वाली धूल पर भी नियंत्रण होगा.

* कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से आसपास का वातावरण स्वच्छ रहेगा, तो पहाड़ों के आसपास की बस्तियों के लोगों में बीमारियों का खतरा भी कम होगा.

* कचरा खेती से कचरे के पहाड़ों के आसपास के लोगों को रोजगार और आय सृजन के अवसर भी उपलब्ध होंगे.

* लंबे समय तक कचरे के पहाड़ों पर खेती करते रहने पर कचरे के पहाड़ धीरेधीरे अपघटित हो कर समतल खेत में बदल जाएंगे, क्योंकि कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से पेड़पौधों की जड़ों के माध्यम से वर्षा एवं सिंचाई का पानी पहाड़ के अंदर तक कचरे को गीला रखेगा, जिस से कचरे का अपघटन तेज होगा और पेड़पौधों की जड़ों में उपस्थित असंख्य सूक्ष्म जीव कचरे को सड़ाने में मददगार होंगे.

* पेड़पौधों की जड़ों से निकलने वाले विभिन्न प्रकार के अम्ल कचरे को गलाने एवं सड़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, इसलिए कचरे के पहाड़ धीरेधीरे विघटित एवं अपघटित हो कर जमींदोज हो जाएंगे.

मौजूद कचरे के पहाड़ों को खत्म करने के काम के साथसाथ स्थानीय स्तर पर ही कचरे के निष्पादन की कार्ययोजना पर काम  किया जाए, जिस से भविष्य में नए कचरे के पहाड़ वजूद में न आ सकें.

मसाला तथा औषधिय फसल मैथी (Fenugreek)

दुनिया में मसाला उत्पादन और मसाला निर्यात के हिसाब से भारत का प्रथम स्थान है, इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. मसाले हमारे खाद्य पदार्थों को स्वादिष्ठता तो प्रदान करते ही हैं, साथ ही हम इस से विदेशी पैसा भी कमाते हैं.

मसाले की एक प्रमुख फसल मेथी है. इस की हरी पत्तियों में प्रोटीन, विटामिन सी और भरपूर मात्रा में खनिज तत्त्व पाए जाते हैं. मेथी के बीज मसाले और दवा के रूप में काफी उपयोगी है.

भारत में मेथी की खेती व्यावसायिक स्तर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब राज्यों में की जाती है. भारत मेथी का मुख्य उत्पादक और निर्यातक देश है. इस का उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है.

भूमि और जलवायु

मेथी को अच्छे जल निकास एवं पर्याप्त जीवांश वाली सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है, परंतु दोमट मिट्टी इस के लिए उत्तम रहती है. यह ठंडे मौसम की फसल है. पाले व लवणीयता को भी यह कुछ स्तर तक सहन कर सकती है.

मेथी की प्रारंभिक वृद्धि के लिए मध्यम आर्द्र जलवायु और कम तापमान उपयुक्त है, परंतु पकने के समय गरम व शुष्क मौसम उपज के लिए लाभप्रद होता है. पुष्प व फल बनते समय अगर आकाश बादलों से घिरा हो, तो फसल पर कीड़ों व बीमारियों के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है.

उन्नत किस्में

आरएमटी 305 : यह एक बहुफलीय किस्म है. इस का औसत बीज भार और कटाई सूचकांक अधिक है. फलियां लंबी और अधिक दानों वाली होती हैं, जिस के दाने सुडौल, चमकीले पीले होते हैं. इस किस्म में छाछ्या रोग के प्रति अधिक प्रतिरोधकता है. इस किस्म के पकने की अवधि 120-130 दिन है. औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरएमटी 1 : समूचे राजस्थान के लिए यह उपयुक्त किस्म है. इस के पौधे अर्ध सीधे एवं मुख्य तना नीचे की ओर गुलाबीपन लिए होता है. बीमारियों एवं कीटों का प्रकोप कम होता है. पकने की अवधि 140-150 दिन है. इस की औसत उपज 14-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

हरी पत्तियों के लिए

पूसा कसूरी : यह छोटे दाने वाली मेथी होती है. इस की खेती हरी पत्तियों के लिए की जाती है. कुल 5-7 हरी पत्तियों की कटाई की जा सकती है. इस की औसत उपज 5-7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

खेत की तैयारी : भारी मिट्टी में खेत की 3-4 और हलकी मिट्टी में 2-3 जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए और खरपतवार को निकाल देना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक : प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन सड़ी गोबर की खाद खेत को तैयार करते समय डालें. इस के अलावा 40 किलोग्राम नाइट्रोजन एवं 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले खेत में ऊपर से दें.

बीज की बोआई एवं मात्रा : इस की बोआई अक्तूबर माह के अंतिम सप्ताह से नवंबर माह के पहले सप्ताह तक की जाती है. बोआई में देरी करने से फसल के पकने की अवस्था के समय तापमान अधिक हो जाता है. इस वजह से फसल शीघ्र पक जाती है और उपज में कमी आती है. पछेती फसल में कीट व बीमारियों का प्रकोप अधिक बढ़ जाता है.

इस के लिए 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है. बीजों को 30 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में 5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोएं. बीजों को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर बोने से फसल अच्छी मिलती है.

सिंचाई एवं निराईगुड़ाई : मेथी की खेती रबी में सिंचित फसल के रूप में की जाती है. सिंचाइयों की संख्या मिट्टी की संरचना और वर्षा पर निर्भर करती है. वैसे, रेतीली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज के लिए तकरीबन 8 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है. परंतु अच्छे जल धारण क्षमता वाली भूमि में 4-5 सिंचाइयां पर्याप्त हैं.

फली व बीजों के विकास के समय पानी की कमी नहीं रहे. बीज बोने के बाद हलकी सिंचाई करें. उस के बाद आवश्यकतानुसार 15 से 20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें.

बोआई के 30 दिन बाद निराईगुड़ाई कर पौधों की छंटाई कर देनी चाहिए व कतारों में बोई फसल में अनावश्यक पौधों को हटा कर पौधों के बीच की दूरी 10 सैंटीमीटर रखें.

अगर जरूरी हो, तो 50 दिन बाद दूसरी निराईगुड़ाई करें. पौधों की वृद्धि की प्राथमिक अवस्था में निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में पूरी तरह से हवा का संचार होता है और खरपतवार रोकने में मदद मिलती है.

खरपतवार नियंत्रण

मेथी को उगने के 25 व 50 दिन बाद 2 निराईगुड़ाई कर पूरी तरह से खरपतवार से मुक्त रखा जा सकता है. इस के अलावा मेथी की बोआई के पहले 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फ्लूक्लोरेलिन को 600 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें. उस के बाद मेथी की बोआई करें या फिर पेंडीमिथेलीन 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर  को 600 लिटर पानी में घोल कर मेथी की बोआई के बाद, मगर उगने से पहले छिड़काव कर के खरपतवारों से मुक्त किया जा सकता है.

यह ध्यान रखें कि फ्लूक्लोरेलिन के छिड़काव के बाद खेत को खुला न छोड़ें, अन्यथा इस का वाष्पीकरण हो जाता है और पेंडीमिथेलीन के छिड़काव के समय खेत में नमी होना आवश्यक है.

मैथी (Fenugreek)

प्रमुख कीट एवं उन का प्रबंधन

फसल पर नाशीकीटों का प्रकोप कम होता है, परंतु कभीकभी माहू, तेला, पत्ती भक्षक, सफेद मक्खी, थ्रिप्स, माइट्स, फली छेदक एवं दीमक आदि का आक्रमण पाया गया है. सब से ज्यादा नुकसान माहू कीट से होता है.

माहू का प्रकोप मौसम में अधिक नमी व आकाश में बादल के रहने पर अधिक होता है. यह कीट पौधों के कोमल भागों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता है. दाने कम व निम्न गुणवत्ता के बनते हैं.

इस की रोकथाम के लिए जैविक विधियों का अधिकाधिक प्रयोग करें. आक्रमण बढ़ता दिखने पर नीम आधारित रसायनों निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल आधारित 0.03 फीसदी का 1 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. कीटनाशी अवशेषों से उपज को बचाएं.

प्रमुख रोग और उन का प्रबंधन

छाछ्या : यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी’ नामक कवक से होता है. रोग के प्रकोप से पौधों की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देने लगता है और पूरे पौधे पर फैल जाता है. इस से काफी नुकसान होता है.

प्रबंधन : गंधक चूर्ण 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर भुरकाव करें या केराथेन एलसी 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 10 से 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार माधवी बोएं.

तुलासिता (डाउनी मिल्ड्यू) : यह रोग ‘पेरेनोस्पोरा स्पी. ’ नामक कवक से होता है. इस रोग से पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले घब्बे दिखाई देते हैं और नीचे की सतह पर फफूंद की वृद्धि दिखाई देती है. उग्र अवस्था में रोग से ग्रसित पत्तियां झड़ जाती हैं.

प्रबंधन : फसल में अधिक सिंचाई न करें. इस रोग के लगने की प्रारंभिक अवस्था में फसल पर मैंकोजेब 0.2 फीसदी या रिडोमिल 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार मुक्ता एचएम 346 बोएं.

जड़गलन : मेथी की फसल में जड़गलन रोग का प्रकोप भी बहुत होता है, जो बीजोपचार कर और फसलचक्र अपना कर, ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले भूमि में दे कर कम किया जा सकता है.

कटाई एवं उपज

जब पौधों की पत्तियां झड़ने लगें व पौधे पील रंग के हो जाएं, तो पौधों को उखाड़ कर या फिर दंताली से काट कर खेत में छोटीछोटी ढेरियोंं में रखें. सूखने के बाद कूट कर या थ्रैशर से दाने अलग कर लें. साफ दानों को पूरी तरह सुखाने के बाद बोरियों मे भरें. समुचित तरीके से खेती की क्रियाओं को अपनाने से 15 से 20 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार हो सकती है.

गेहूं की खेती (Wheat Cultivation) में कीटों व रोगों से बचाव

दीमक (ओडोंटोटर्मिस आबेसेस) : दीमक बिना सिंचाई वाली और हलकी जमीन का एक खास हानिकारक कीट है. दीमक जमीन में सुरंग बना कर रहती है और पौधों की जड़ें खाती है, जिस वजह से पौधे सूख जाते हैं. यह हलके भूरे रंग की होती है. इस का असर टुकड़ों में होता है, जिसे आसानी से पहचाना जाता है.

रोकथाम : 1 किलोग्राम बिवेरिया और 1 किलोग्राम मेटारिजयम को तकरीबन 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर प्रति एकड़ बोआई से पहले इस का इस्तेमाल करें. असर ज्यादा होने पर क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी की 3-4 लीटर मात्रा बालू में मिला कर प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करें. बीज बोआई से पहले इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस 0.1 फीसदी से उपचारित कर लेना चाहिए.

माहूं : गेहूं में 2 तरह के माहूं लगते हैं. पहला जड़ का माहूं रोग कारक रोपालोसाइफम रूफीअवडामिनौलिस नामक कीट है. दूसरा, पत्ती का माहूं है, यह सीटोबिनयन अनेनी, रोपालोसारफम पाडी और इस की विभिन्न जातियों से होता है. यह फसल की पत्तियों का रस चुस कर नुकसान पहुंचाता है. इन के मल से पत्तियों पर काले रंग की फफूंदी पैदा हो जाती है, जिस से फसल का रंग खराब हो जाता है.

रोकथाम : माहूं का असर होने पर पीले चिपचिपे ट्रेप का इस्तेमाल करें, जिस से माहूं ट्रेप पर चिपक कर मर जाए. परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50000 से 100000 अंडे या सूंडी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें. 5 फीसदी नीम का अर्क या 1.25 लीटर तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें. बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. इंडोपथोरा व वरर्टिसिलयम लेकानाई इंटोमोपथोजनिक फंजाई (रोग कारक कवक) का माहूं का असर होने पर छिड़काव करें. जरूरत होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17 एसएल डाइमेथोएट 30 ईसी या मेटासिसटाक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

कर्तन कीट (एग्राटिन एप्सिलाना) : इस की सूंडियां खेत में एकसाथ हमला कर के सारी पत्तियां खा जाती हैं. नर व मादा संभोग कर पत्तियों पर अंडे देते हैं. इन की जीवन चक्र क्रिया वातावरण के हिसाब से एकदो महीने में पूरी होती है. इस की सूंडी जमीन में गेहूं के पौधे के पास मिलती है और जमीन की सतह से पौधे को काट देता है.

रोकथाम : खेतों के बीचोंबीच शाम को घासफूस के छोटेछोटे ढेर लगाने चाहिए. रात को जब सूंडियां खाने को निकलती हैं तो बाद में इन्हीं में छिपती हैं. घास हटाने पर आसानी से इन्हें नष्ट किया जा सकता है. ज्यादा असर होने पर क्लोरपाइरीफास 20 ईसी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

 

सैनिक कीट (माइथिमना सपरेटा) : अंडे से निकली सूंडी हवा के झोंकों से एक पौधे से दूसरे पौधे तक पहुंचती है. नवजात सूंडी पौधे के बीच की मुलायम पत्तियों को खाती है. जैसेजैसे यह बढ़ती है, तो पुरानी पत्तियों को खाने लगती है और पूरा पौधा कंकाल हो जाता है. बड़ी सूंडियां बालियों के सींकुर भी खाती हैं, साथ ही बिना पके दानों को भी खाती हैं. इसे काली कर्तन कीट या बाली काटने वाला कीट भी कहा जाता है.

रोकथाम : कीटनाशी रसायन डायक्लोरवास 76 फीसदी 500 मिलीलीटर, क्विनालफास 25 ईसी 1 लीटर या कार्बारिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी की 3 किलोग्राम मात्रा को 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

तना मक्खी या प्ररोह मक्खी (एथरिगोना सोकटा) : मादा मक्खी तने के निचले भाग में या पत्तियों के नीचे अंडे देती है. अंडे से मैगट निकल कर तने में छेद कर के भीतर दाखिल हो जाती है और अंदर से तने को खाती रहती है. तने के अंदर सुरंग बना कर मृत केंद्र डेडहार्ट बनाती है. फलस्वरूप पौधा पीला पड़ जाता है और अंत में सूख जाता है.

रोकथाम : कीटनाशी रसायन इमिडाक्लोप्रिड 17 एसएल 1 मिलीलीटर या साइपरमेथ्रिन 25 फीसदी की 350 मिलीलीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. कार्बारिल 10 फीसदी डीपी 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकें.

कटाई और मंडाई : जब गेहूं का दाना पक जाए या दांत से तोड़ने पर कट की आवाज आए तो समझना चाहिए कि फसल कटाई के लिए तैयार हो गई है. फसल की कटाई मौजूदा साधनों के आधार पर हंसिया ट्रैक्टरचालित रीपर या कंबाइन से की जा सकती है. कटाई के एकदम बाद यानी कटाईमड़ाई के समय मौसम खराब हो जाता है.

उपज : यदि किसान सही समय पर अच्छी नस्ल व नए तरीके अपना कर अच्छी विधियों का इस्तेमाल करता है, तो वह पैदावार को ज्यादा उगा सकता है, जिस में तकरीबन 50 से 65 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज हासिल होती है.

दिसंबर (December) महीने के जरूरी काम

आमतौर पर किसान नवंबर महीने में ही गेहूं की बोआई का काम खत्म कर देते हैं, मगर किसी वजह से गेहूं की बोआई न हो पाई हो, तो उसे दिसंबर महीने के दूसरे हफ्ते तक जरूर निबटा दें.

* दिसंबर महीने में गेहूं की पछेती किस्मों की बोआई की जाती है. इस बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 125 किलोग्राम बीज का इस्तेमाल करें. बोआई के दौरान कूंड़ों के बीच 15 सैंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए.

* दिसंबर महीने का अहम काम गन्ने की फसल की कटाई का होता है. इस दौरान गन्ने की तमाम किस्में कटाई के लिए पूरी तरह तैयार हो जाती हैं. किसान जरूरत और सुविधा के मुताबिक गन्ने की कटाई का काम निबटा सकते हैं.

* शरदकालीन गन्ने के खेतों में अगर नमी कम महसूस हो, तो जरूरत के मुताबिक सिंचाई करना न भूलें.

* गन्ने के साथ अगर तोरिया या राई वगैरह फसलें भी लगी हों, तो जरूरत के मुताबिक उन की निराईगुड़ाई करें. इस से गन्ने की फसल को भी फायदा होगा.

* इस माह मटर की फसल में फूल आने का वक्त होता है, इसलिए फूल आने से पहले मटर के खेतों की सिंचाई कर दें. ऐसा करने से फूल व फलियां बेहतर तरीके से आती हैं.

* मटर की फसल में तनाछेदक और फलीछेदक कीटों के लगने का खतरा रहता है. लिहाजा, उन के प्रति जागरूक रहना जरूरी है.

December Work

* सरसों के खेत में अगर पौधे ज्यादा घने लगे हों, तो बीचबीच से फालतू पौधे उखाड़ कर अपने मवेशियों को चारे के तौर पर खिला दें. सरसों के फालतू पौधों के साथसाथ खेत से तमाम खरपतवार भी निकाल दें.

* मसूर की दाल की बोआई का काम भी नवंबर माह में पूरा कर लिया जाता है. फिर भी अगर अभी तक मसूर की बोआई न हो पाई हो, तो उसे फौरन करें.

* आलू के खेतों का ध्यान रखें. जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें और पौधों में बाकायदा मिट्टी चढ़ा दें. निराईगुड़ाई कर के खेत से खरपतवारों का सफाया करें.

* प्याज की नर्सरी का खयाल रखें और रोपाई का इंतजाम करें. तैयार पौधों की रोपाई इस महीने के आखिर तक कर दें.

* लहसुन के खेतों में अगर नमी कम नजर आए, तो हलकी सिंचाई कर दें. खेत की निराईगुड़ाई करें, ताकि खरपतवार न पनप सकें.

* दिसंबर महीने में अकसर लीची के छोटे पेड़ पाले की गिरफ्त में आ जाते हैं. बचाव के लिए इन पेड़ों को 3 तरफ से छप्पर से कवर कर दें, सिर्फ पूर्वीदक्षिणी सिरा देखभाल के लिए खुला रखें.

* लीची के फल वाले बड़े पेड़ों में 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद प्रति पेड़ की दर से डालें. सभी पेड़ों में 600 ग्राम फास्फोरस भी डालें. बीमार और खराब शाखाओं को पेड़ों से तोड़ कर बाग से दूर ले जा कर जमीन में दबा दें.

* यह आम का मौसम नहीं होता है, मगर आम के बागों की सफाई जरूर करें. आम के 10 साल या उस से पुराने पेड़ों में 1 किलोग्राम पोटाश और 750 ग्राम फास्फोरस प्रति पेड़ की दर से डालें. ये चीजें तनों से 1 मीटर का फासला छोड़ कर थालों में डालें.

* मिली बग कीटों से आम के पेड़ों को महफूज रखने के लिए तने के चारों ओर 2 फुट की ऊंचाई पर 400 गेज वाली 30 सैंटीमीटर पौलीथिन शीट की पट्टी बांधें. पट्टी के निचले किनारे पर अच्छी तरह ग्रीस लगा दें.

* नए बागों में लगे आम के छोटे पौधों को दिसंबर माह में पड़ने वाले पाले से बचाना लाजिमी है. इस के लिए फूस के छप्पर का इस्तेमाल करें. बीचबीच में सिंचाई करते रहें.

* अपने मुरगेमुरगियों को ठंड से बचाने का पूरा इंतजाम करें.

* अगर मुरगीपालन का ज्यादा तजरबा न हो, तो कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से सलाह ले कर मुरगेमुरगियों की हिफाजत का पुख्ता बंदोबस्त करें.

* इस महीने की सर्दी मवेशियों के लिए भी बेहद खतरनाक होती है. लिहाजा, सजग रहें. रात के वक्त गायभैंसों को बंद कमरों में रखें व लाइट लगातार जलने दें. रोशनी के लिए पीली लाइट इस्तेमाल करें, क्योंकि वह दूधिया लाइट के मुकाबले ज्यादा गरम होती है.

* अगर पशुओं को बरामदे में बांधते हैं, तो रात के वक्त मोटेमोटे परदे जरूर लगाएं. सुबहशाम कंडे की आंच जला कर पशुओं को गरमी दें. धुएं से मच्छर भी भाग जाते हैं.

* दिन के वक्त पशुओं को धूप में जरूर बांधें. यह सेहत के लिहाज से जरूरी है.

चने की खेती (Gram Cultivation) और उपज बढ़ाने के तरीके

भारत में बडे़ पैमाने पर चने की खेती होती है. चना दलहनी फसल है. यह फसल प्रोटीन, फाइबर और विभिन्न विटामिनों के साथसाथ मिनरलों का स्रोत होती है, जो इसे एक पौष्टिक आहार बनाती है.

चने की खेती भारतीय कृषि में एक प्रमुख स्थान रखती है. विशेष रूप से यह उत्तर और मध्य भारत के राज्यों में उगाई जाती है.

चना भारतीय भोजन का एक अभिन्न हिस्सा है, जो दाल, सब्जी और स्नैक्स जैसे विविध व्यंजनों में उपयोग किया जाता है. पारंपरिक चने की खेती में कई चुनौतियां होती हैं, जैसे कि कम उत्पादन, रोगों व कीटों से सुरक्षा में कमी और सीमित संसाधनों का उपयोग.

इन समस्याओं का समाधान करने के लिए उन्नत खेती की तकनीकें और विधियां अपनाई जा रही हैं. उन्नत खेती का मकसद न केवल उत्पादन को बढ़ाना है, बल्कि फसल की गुणवत्ता को सुधारना और खेती की लागत को कम करना भी है.

उन्नत खेती की तकनीकों में नई किस्मों का चयन, वैज्ञानिक तरीके से उर्वरक प्रबंधन, प्रभावशाली सिंचाई और रोग व कीट नियंत्रण के उपाय शामिल हैं. इन तकनीकों को अपनाने से किसानों को उच्च उत्पादन, बेहतर फसल गुणवत्ता और आर्थिक लाभ प्राप्त होता है.

चने की उन्नत खेती की विधियां, खेत की तैयारी और चयन

चने की खेती के लिए उपयुक्त भूमि का चयन करना बहुत ही जरूरी है. इस के लिए उपजाऊ मिट्टी का चयन करें, जिस में जीवांश और पोषक तत्त्वों की पर्याप्त मात्रा हो. मिट्टी का पीएच मान 6 से 8 के बीच होना चाहिए.

खेत की अच्छी तरह से जुताई करें और मिट्टी को भुरभुरा बनाएं. अगर मिट्टी में पोषक तत्त्वों की कमी है, तो उर्वरकों का प्रयोग करें.

बीज का चयन : उन्नत किस्मों के बीजों का चयन करें, जो उच्च उपज देने वाले हों और रोग प्रतिरोधी हों. बीजों की गुणवत्ता और शुद्धता की जांच करें. बीजों का चयन करते समय जलवायु और मिट्टी के अनुसार उपयुक्त बीजों की बोआई करें.

चने की खेती (Gram Cultivation)

चने की प्रमुख किस्में और उन की विशेषताएं

पूसा 372 : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 120-130 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.

काबुली चना 11 : यह किस्म जलवायु परिवर्तन के मुताबिक अनुकूल और उच्च उपज देने वाली है. इस की उपज 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 100-110 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.

हिमालयन 95 : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 22-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 110-120 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.

पूसा 112 : यह किस्म जलवायु परिवर्तन के मुताबिक अनुकूल और उच्च उपज देने वाली है. इस की उपज 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 120-130 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.

विजय : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 100-110 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.

काशी चना 1 : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 22-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 110-120 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.

पंत चना 234 : यह किस्म जलवायु परिवर्तन के मुताबिक अनुकूल और उच्च उपज देने वाली है. इस की उपज 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 120-130 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.

राज चना 201 : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 100-110 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.

एचके 11 : यह किस्म उच्च उपज देने वाली और रोग प्रतिरोधी है. इस की उपज 22-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और अवधि 110-120 दिन है. यह फुसैरियम विल्ट और राइजोक्टोनिया रोग के प्रति प्रतिरोधी है.

बीजों का उपचार

चने की खेती में बीजों का उपचार एक महत्त्वपूर्ण चरण है, जो बीजों की गुणवत्ता और फसल की उत्पादकता को बढ़ाने में मदद करता है. बीजों के उपचार के मुख्य उद्देश्य हैं, बीजों की गुणवत्ता में सुधार करना, बीजों की अंकुरण दर बढ़ाना, फसल की उत्पादकता बढ़ाना और कीट व रोगों से बचाव करना.

बीजों के उपचार के लिए विभिन्न तरीके अपनाए जा सकते हैं. थीरम उपचार एक प्रभावी तरीका है, जिस में थीरम नामक फफूंदनाशक का उपयोग किया जाता है. इस के अलावा कार्बंडाजिम, टाइकोडर्मा, बाविस्टिन और पीएसबी कल्चर जैसे अन्य फफूंदनाशक का उपयोग किया जा सकता है. राइजोबियम नामक जैविक उर्वरक का उपयोग कर के बीजों को नाइट्रोजन दी जा सकती है.

बीजों के उपचार की विधि बहुत ही आसान है. सब से पहले बीजों को साफ किया जाता है. इस के बाद बीजों को उपचारित करने वाले कैमिकल के साथ मिलाया जाता है. बीजों को 10-15 मिनट तक उपचारित किया जाता है. इस के बाद बीजों को सुखाया जाता है और फिर बोया जाता है.

बोआई

सर्दियों की फसल के लिए अक्तूबरनवंबर माह में बोआई करें. बीजों को 3-4 सैंटीमीटर की गहराई और 10-15 सैंटीमीटर की दूरी पर बोएं. बोआई से पहले बीजों को जरूर उपचारित करें. बोआई के बाद खेत को अच्छी तरह पानी दें.

सिंचाई प्रबंधन

चने को मध्यम सिंचाई की जरूरत होती है. पहली सिंचाई बोआई के 20-25 दिन बाद करें. उस के बाद 15-20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें. सिंचाई के समय मिट्टी की नमी की जांच करें. सिंचाई की अधिक मात्रा से बचें, क्योंकि इस से फसल को नुकसान पहुंच सकता है.

निराईगुड़ाई

नियमित रूप से निराईगुड़ाई करें, ताकि खरपतवार न हों और मिट्टी में हवा और पानी का संचार होता रहे. निराईगुड़ाई से फसल की बढ़वार में मदद मिलती है. निराईगुड़ाई के समय फसल को नुकसान न पहुंचे. निराईगुड़ाई के लिए उचित समय और तरीके का चयन करें.

उर्वरक प्रबंधन

चने के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश  की जरूरत होती है. बोआई से पहले 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ की दर से डालें. उर्वरकों का उपयोग फसल की बढ़ोतरी में मदद करता है. उर्वरकों की अधिक मात्रा से बचें, क्योंकि इस से फसल को नुकसान पहुंच सकता है.

कीट व रोग प्रबंधन

चने में लगने वाले कीटों व रोगों से बचाव के लिए नियमित रूप से निरीक्षण करें. जरूरत के मुताबिक ही कीटनाशकों और फफूंदनाशकों का छिड़काव करें. जैविक कीटनाशकों का उपयोग करें. फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों व रोगों की पहचान करें और उन के नियंत्रण के लिए उचित तरीके अपनाएं.

चने में लगने वाले कीट

तेला  : यह कीट चने की फसल को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. इस के नियंत्रण के लिए  इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल की 20 मिलीलिटर प्रति एकड़ या क्लोरपायरीफास 20 ईसी की 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ की दर से छिड़कें.

हरा तेला : यह कीट चने की पत्तियों और फलियों को नुकसान पहुंचाता है. इस के नियंत्रण के लिए स्पिनोसैड 45 एससी की 20 मिलीलिटर प्रति एकड़ या बेसिलस थ्यूरिजिएंसिस 5 डब्ल्यूपी की 100 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.

माहू : यह कीट चने की पत्तियों और तनों पर हमला करता है. इस के नियंत्रण के लिए डिमेथोएट 30 ईसी की 200 मिलीलिटर प्रति एकड़, मैलाथियान 50 डब्ल्यूपी की 200 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.

चने में लगने वाले रोग

फुसैरियम विल्ट : यह रोग चने की फसल को सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. इस रोग के नियंत्रण के लिए कार्बंडाजिम 50 डब्ल्यूपी की 200 ग्राम प्रति एकड़, मैंकोजेब 75 डब्ल्यूपी की 400 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.

राइजोक्टोनिया : यह रोग चने की फसल की जड़ों को नुकसान पहुंचाता है. इस के नियंत्रण के लिए क्लोरोथैलोनिल 75 डब्ल्यूपी की 400 ग्राम प्रति एकड़, प्रोपिकोनाजोल 25 ईसी की 200 मिलीलिटर प्रति एकड़ का छिड़काव करें.

पाउडरी मिल्ड्यू : यह रोग चने की पत्तियों पर हमला करता है. इस के नियंत्रण के लिए ट्राइडेमोर्फ 25 डब्ल्यूपी की 200 ग्राम प्रति एकड़, डिनोकैप 25 की 200 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.

सुरक्षा उपाय

* कीटनाशकों और फफूंदनाशकोें का उपयोग करते समय सुरक्षा उपकरण पहनें.

* कीटनाशकों और फफूंदनाशकोें का उपयोग करने से पहले निर्देशों को पढ़ें.

* कीटनाशकों और फफूंदनाशकोें का उपयोग करने के बाद हाथ धो लें.

* कीटनाशकों और फफूंदनाशकोें का उपयोग करने से पहले फसल की स्थिति की जांच करें.

चने की खेती (Gram Cultivation)

फसल कटाई

चने की फसल कटाई का समय आमतौर पर 100 से 120 दिनों के बीच होता है. जब फसल पूरी तरह पक जाती है और दाने सूख जाते हैं.

फसल कटाई के तरीके

मैनुअल कटाई : छोटे खेतों में फसल को हाथ से काटा जाता है.

मेकैनाइज्ड कटाई : बडे़ खेतों में फसल को मशीन से काटा जाता है.

कंबाइन हार्वेस्टर : यह मशीन फसल को काटती है, दाने को अलग करती है और साफ करती है.

फसल कटाई के बाद की प्रक्रिया

* दाने की साफसफाई.

* दाने की गुड़ाई.

* दाने का भंडारण.

* दाने की पैकेजिंग और बिक्री.

उन्नत खेती के लाभ

उन्नत खेती की तकनीकों और विधियों को अपनाने से निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं :

उत्पादन में वृद्धि : उन्नत खेती की तकनीकें जैसे वैज्ञानिक उर्वरक प्रबंधन, नई किस्मों का चयन और आधुनिक सिंचाई विधियां उच्च उत्पादन सुनिश्चित करती हैं. इस से किसानों की आय बढ़ती है और खाद्य सुरक्षा में सुधार होता है.

खेती की लागत में कमी : उन्नत विधियां जैसे ड्रिप इरिगेशन और सूक्ष्म उर्वरक प्रबंधन संसाधनों के कुशल उपयोग की अनुमति  देती हैं, जिस से लागत कम होती है. इस से किसानों को अधिक लाभ प्राप्त होता है.

फसल की गुणवत्ता में सुधार : उन्नत तकनीकों का उपयोग फसल की गुणवत्ता को बेहतर बनाता है. नई किस्में और प्रभावी उर्वरक प्रबंधन से चने की फसल का स्वाद, पोषण और उपज गुणवत्ता में सुधार होता है.

पर्यावरणीय संरक्षण : उन्नत खेती तकनीकें पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने में सहायक होती हैं. उर्वरक का उचित प्रबंधन, पानी की निकासी कम, कीटनाशक का उपयोग और सतत कृषि विधियां पर्यावरण की रक्षा करती हैं और मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखती हैं.

रोग व कीट प्रबंधन : उन्नत खेती में रोगों और कीटों का प्रबंधन अधिक प्रभावी ढंग से किया जाता है. नई तकनीकें व उन्नत कीटनाशक और फफूंदीनाशक का उपयोग फसल को रोगों व कीटों से बचाता है.

डेयरी की खास चारा कटर मशीन

खेती के साथ ही किए जाने वाले कामों में पशुपालन भी एक खास काम है. पशुपालन में चारे का अहम रोल है खासकर डेयरी फार्मिंग में.  बहुत से किसान दुधारू पशुओ को  पाल कर डेयरी रोजगार से अच्छाखासा मुनाफा कमाते हैं.

किसानों के पास खेती की जमीन भी होती है, जिस में वह चारा फसल ज्वार, बाजरा, लोबिया, ग्वार, बरसीम, जई आदि फसलें उगा कर पशु के लिए चारे का इंतजाम करते हैं. हालांकि, 1-2 पशु रखने वाले किसान कुट्टी या चारा काटने के लिए हाथ से चलने वाली मशीन लगा कर रखते हैं, जिसे आम बोलचाल में टोका मशीन यानी गंड़ासा कहा जाता है.

इसी मशीन से किसान चारे की कटाई कर पशुओं को चारा खिलाते हैं. कुछ हरे चारे जैसे बरसीम, जई आदि तो इस मशीन से सरलता से कट जाते हैं, लेकिन जब ज्वार बाजरा, गन्ना (अंगोला), मक्का जैसी फसल से चारा बनाना हो, तो उन की कटाई में काफी मेहनत लगती है.

तब हमें जरूरत महसूस होती है किसी शक्ति चालित चारा कटाई मशीन की, जिस से कम मेहनत और कम समय में अधिक चारे की कटाई हो सके.

पशुपालकों और किसानों की इस समस्या का समाधान करती हैं पावर चालित एवं ट्रैक्टर चालित चारा काटने वाली मशीनें.

यहां ट्रैक्टर से चलने वाली कुट्टी मशीन के बारे में जानकारी दी गई है. यह चारा कटाई मशीन किसी भी तरह के चारे को आसानी से काट सकती है. ट्रैक्टर या इंजन चालित और बिजली से चलने वाली इस मशीन को चाफ कटर भी कहा जाता है.

ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर चलाई जाने वाली यह मशीन कम समय में अधिक चारे की कटाई आसानी से करती है.

चाफ कटर मशीन

इस यंत्र की मदद से किसी भी तरह के चारे को छोटेछोटे साइज में कुट्टी करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. चारा काटने वाली मशीनों में इलैक्ट्रिक चाफ कटर और पोर्टेबल ट्रैक्टर से चलने वाली चारा काटने वाली मशीनें शामिल हैं, हम जिसे चाफ कटर मशीन कहते हैं.

fodder cutter machine

ट्रैक्टर से चलने वाली चारा कटाई मशीनें

ट्रैक्टर से चलने वाली कुट्टी मशीन को ट्रैक्टर के पीछे पीटीओ शाफ्ट से जोड़ कर चलाया जाता है. यह मशीन हर तरह के चारे को आसानी से काट सकती है. यह चाफ कटर मशीन एक आधुनिक हैवी ड्यूटी मशीन है. इस चाफ कटर मशीन का इस्तेमाल ज्यादातर डेयरी फार्मिंग करने वाले लोग भी करते हैं.

ट्रैक्टर से चलने वाली यह चारा कटर मशीन एक हैवी चेसिस फ्रेम के साथ जुड़ी रहती है, जिसे ट्रैक्टर में पीछे जोड़ कर एक जगह से दूसरी जगह आसानी से लाया और ले जाया जा सकता है. इस चाफ/चैफ कटर में एक बड़े ह्वील पर कई सारे हैवी ड्यूटी ब्लेड लगे होते हैं.

ट्रैक्टर से चलने वाली इस कुट्टी मशीन में 2, 3 और 4 ब्लेड लगे होते हैं. पशुपालक अपनी जरूरत के अनुसार ब्लेड की संख्या को कम या ज्यादा कर सकते हैं.

इस कटर मशीन में पीछे की ओर एक गियर भी होता है, जिस की मदद से आप चारे की मोटाई और बारीकी सैट कर सकते हैं. मशीन में गियर सिस्टम भी है. जरूरत पड़ने पर इसे रिवर्स भी घुमा सकते हैं. इस गियर से कटर की स्पीड भी एडजस्ट की जा सकती है.

चारा कटर मशीन से कटा हुआ चारा सीधे जमीन पर गिरता है. अगर आप चाहते हैं कि चारा जमीन पर न गिर कर एक जगह इकट्ठा हो, तो उस के लिए भी बंदोबस्त है. यह मशीन कटाई के बाद चारे को सीधे ही ट्रौली में भी गिरा सकती है.

यह चारा कटाई मशीन कई घंटों तक लगातार काम कर सकती है. इस के लिए किसी खास देखभाल की भी जरूरत नहीं है.

मिनी चारा कटर एग्रोमैक-1000 एम.

सम्यक एग्रो इंडस्ट्रीज के पास चारा काटने वाली मशीनों की कई सीरीज हैं, जिन की अपनी अलगअलग खूबियां हैं.

इस मिनी चारा कटर से ज्वार, बाजरा, गन्ना, बरसीम, सूखा व हरे अन्य चारे कड़वा आदि की कटाई की जाती है.

इस यंत्र में लगे ब्लेड एमएस स्टील के बने होते हैं. इलैक्ट्रिक मोटर के साथ वी वैल्ट पुली के साथ फिट की गई है.

मिनी चारा कटर एग्रोमैक 1000 एम. की खासीयतें

इस में 2 हौर्सपावर की मोटर लगी है और चारा कटाई के लिए 2 ब्लेड लगे हैं. चारे को आगे बढ़ाने के लिए 2 रोलर लगे हैं. इस मशीन के काम करने की कूवत 1000 किलोग्राम प्रति घंटा तक है. हरे व सूखे चारे में बदलाव हो सकता है.

कड़वा कुट्टी मशीन/रोका- एग्रोमैक-200 एचएम

बिजली व हाथ दोनों तरह से चारा काटने वाली इस मशीन को रोका मशीन भी कहते हैं. यह पुराने समय में इस्तेमाल होने वाली चारा मशीन का ही आधुनिकीकरण है. इस में काफी कम बिजली की खपत होती है. अगर बिजली नहीं है, तो काम चलाने लायक चारा हाथ से भी काटा जा सकता है.

यह पावर कम हैंड औपरेटिड चारा कटाई मशीन है, जो सस्ते दाम में बाजार में मिल जाती है. इस रोका (चारा कटाई) मशीन को खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में भी इस्तेमाल किया जाता है. यह मशीन ग्राहकों की जरूरत के अनुसार अनेक विशेषताओं में भी मिल जाती है.

डेयरी फार्म व वर्मी कंपोस्ट बनाने वाली इकाइयों में भी यह चारा कटाई मशीन काफी उपयोगी साबित हो रही है.

खासीयतें

इस मशीन को अगर हाथ से न चला कर पावर से चलाना है, तो इस के लिए 1.5 हौर्सपावर की मोटर या 2 हौर्सपावर का इंजन चाहिए.

इस में चारा काटने के लिए 2 ब्लेड लगे होते हैं. इस में चारा आधा इंच से ले कर पौना इंच तक के साइज में काटा जाता है और एक घंटे में लगभग 300 किलोग्राम चारा कट जाता है.

प्रकाश चारा कटर मशीन

यह ट्रैक्टर चालित चारा कटर मशीन है, जो 2, 3 और 4 ब्लेडों में उपलब्ध है. इस मशीन से हरा व सूखा चारा, जिस में ज्वार, बाजरा, मक्का का कड़वा भी काटा जाता है.

इस मशीन में मजबूत फ्रैक और हैवी ड्यूटी गियर होने के कारण मशीन लंबे समय तक काम करती है.

यह चारा कटर मशीन 2 टायरों वाले फ्रैम पर लगी होती है, इसलिए इसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से ले जाया जा सकता है.

अधिक जानकारी के लिए फोन नंबर 0562-4042153 या फिर मोबाइल नंबर 09897591803 पर बात कर सकते हैं.

इन कृषि यंत्रों की खरीद पर सरकार की ओर से सब्सिडी का भी लाभ मिलता है.

केंद्र सरकार भी राष्ट्रीय पशुधन मिशन के तहत चारा काटने वाली मशीनों पर पशुपालकों और किसानों को अच्छीखासी सब्सिडी देती है. प्रदेश सरकारें भी अपने नियमानुसार छूट देती हैं. यह सब्सिडी 50 फीसदीतक भी हो सकती है या इस से अधिक भी हो सकती है.

गेहूं में खरपतवार नियंत्रण के प्रभावी उपाय  

खरपतवार ऐसे पौधों को कहते हैं, जो बिना बोआई के ही खेतों में उग आते हैं और बोई गई फसलों को कई तरह से नुकसान पहुंचाते हैं. मुख्यत: खरपतवार फसलीय पौधों से पोषक तत्त्व, नमी, स्थान यानी जगह और रोशनी के लिए होड़ करते हैं. इस से फसल के उत्पादन में कमी होती है. इन सब के साथसाथ कुछ खरपतवार ऐसे भी होते हैं, जिन के पत्तों और जड़ों से मिट्टी में हानिकारक पदार्थ निकलते हैं. इस से पौधों की बढ़वार पर बुरा असर पड़ता है, जैसे गाजरघास (पार्थेनियम) एवं धतूरा आदि न केवल फार्म उत्पाद की गुणवत्ता को घटाते हैं, बल्कि इनसान और पशुओं की सेहत के प्रति भी नुकसानदायक हैं.

गेहूं की फसल भारत की खेती का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. इस के सफल उत्पादन के लिए खरपतवार नियंत्रण एक अनिवार्य प्रक्रिया है. खरपतवार न केवल फसल की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, बल्कि फसल की वृद्धि और उपज को भी बाधित करते हैं.

गेहूं की भरपूर और स्वस्थ उपज लेने के लिए सही समय पर खरपतवार का नियंत्रण करना बहुत ही जरूरी होता है. अकसर खरपतवार कई हानिकारक कीड़े और रोगों का भी घर बन जाता है. इस के साथसाथ ये फसलों के नुकसानदायक कीटों व रोगों को भी आश्रय दे कर फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं.

अगर सही समय पर खरपतवारों का नियंत्रण नहीं किया जाता है, तो फसल उत्पादन में 50 से 60 फीसदी तक की कमी हो सकती है और किसानों को माली नुकसान भी उठाना पड़ता है. पर इन का नियंत्रण भी एक कठिन समस्या है.

इन खरपतवारों को नियंत्रित करने से फसल की उत्पादकता और गुणवत्ता में सुधार हो सकता है. इन खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग किया जा सकता है, जैसे कि यांत्रिक विधियां, सस्य क्रियाएं, भूपरिष्करण क्रियाएं, कार्बनिक खादों का प्रयोग, जैव नियंत्रण उपाय और रासायनिक विधियां.

गेहूं की फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए विभिन्न तरीकों की विस्तृत जानकारी निम्नलिखित है :

weeds in wheat

यांत्रिक विधियां

* हाथों से खरपतवार निकालना : यह सब से पुरानी और प्रभावी विधि है, लेकिन इस में समय और मेहनत अधिक लगती है.

* खुरपी, हंसिया, कुदाल आदि से खरपतवार निकालना : इन उपकरणों का उपयोग कर के खरपतवार को निकाला जा सकता है.

* मशीन से खरपतवार निकालना : रोटरी वीडर, वीडर और हार्वेस्टर जैसी मशीनें खरपतवार निकालने में मदद करती हैं.

सस्य क्रियाएं

* फसलों का चुनाव : तेजी से वृद्धि करने वाली फसलें और जड़ें गहरी व फैलने वाली फसलें खरपतवारों को नियंत्रित करने में मदद करती हैं.

* फसल चक्र : विभिन्न फसलों को लगाने से खरपतवारों की वृद्धि रुक जाती है.

* फसल की सघनता : अधिक सघनता से खरपतवारों को वृद्धि करने का अवसर नहीं मिलता.

कार्बनिक खादों का प्रयोग

* कार्बनिक खाद सड़ने और गलने के बाद कार्बनिक अम्ल का निस्तारण करते हैं, जो खरपतवारों की वृद्धि को कम कर देता है.

* जैविक खादों का उपयोग कर के मिट्टी की उर्वरता बढ़ाई जा सकती है और खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है.

जैव नियंत्रण के उपाय

* जैविक नियंत्रण एजेंट जैसे नेमाटोड, बैक्टीरिया और फंजाई खरपतवारों को नियंत्रित करने में मदद करते हैं.

weeds in wheat

रासायनिक विधियां

रासायनिक विधियों के जरीए खरपतवार नियंत्रण करना एक प्रभावी तरीका है, लेकिन इस के उपयोग से पहले कुछ सावधानियां बरतें.

शाकनाशी रसायन के प्रकार

संपर्क शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन पत्तियों पर लगाया जाता है और खरपतवार को मारता है. उदाहरण : ग्लाईफोसेट, 2,4-डी.

सिस्टैमिक शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन खरपतवार के पौधे में अवशोषित होता है और उस की वृद्धि को रोकता है. उदाहरण : डाइक्लोफेनाक, मैटोलाक्लोर.

पहले उगाया गया शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन मिट्टी में लगाया जाता है और खरपतवार की वृद्धि को रोकता है. उदाहरण : ट्राईफ्लुरेलिन.

बाद में उगाया गया शाकनाशी : यह शाकनाशी रसायन खरपतवार के उगने के बाद लगाया जाता है और उस की वृद्धि को रोकता है. उदाहरण : ग्लाइफोसेट, 2,4-डी.

शाकनाशी रसायन के उपयोग के तरीके

फसल के पहले : शाकनाशी रसायन को फसल के पहले लगाया जाता है, ताकि खरपतवार की वृद्धि को रोका जा सके.

फसल के साथ : शाकनाशी रसायन को फसल के साथ लगाया जाता है, ताकि खरपतवार की वृद्धि को रोका जा सके.

खरपतवार के ऊपर : शाकनाशी रसायन को खरपतवार के ऊपर लगाया जाता है, ताकि उस की वृद्धि को रोका जा सके.

शाकनाशी रसायन के फायदे

यह शाकनाशी रसायन खरपतवार की वृद्धि को रोकता है और फसल की उत्पादकता को बढ़ाता है.

फसल की सुरक्षा : शाकनाशी रसायन फसल को खरपतवार से बचाता है और उस की सुरक्षा करता है.

समय और मेहनत की बचत : शाकनाशी रसायन का उपयोग करने से समय और मेहनत की बचत होती है.

शाकनाशी रसायन के नुकसान

पर्यावरण पर प्रभाव : शाकनाशी रसायन पर्यावरण पर बुरा प्रभाव डाल सकता है और जीवजंतुओं को नुकसान पहुंचा सकता है.

फसल को नुकसान : शाकनाशी रसायन फसल को नुकसान पहुंचा सकता है, अगर उस का उपयोग सही तरीके से नहीं किया जाए.

मिट्टी का प्रदूषण : शाकनाशी रसायन मिट्टी का प्रदूषण कर सकता है और उस की उर्वरता को कम कर सकता है.

इन विधियों को अपना कर गेहूं की फसल में खरपतवार को नियंत्रित किया जा सकता है.

किसानों को इन विभिन्न उपायों को अपना कर अपनी फसल की गुणवत्ता और उत्पादकता को बनाए रखना चाहिए.

वर्तमान में उपलब्ध नई तकनीकें और उन्नत विधियां खरपतवार नियंत्रण को अधिक प्रभावी और स्थायी बनाने में मददगार साबित हो रही हैं, जो कृषि की चुनौतियों का सामना करने में मददगार हैं.

गेहूं में खरपतवार नियंत्रण के प्रभावी उपाय

कंडाली : कंडाली एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-60 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं.

सरसों : सरसों एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-90 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल पीले रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

खूबकला : खूबकला एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 20-50 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल पीले रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

मटर के परिवार की खरपतवार

मटरी : मटरी एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-60 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल बैगनी रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

फूली मटर : फूली मटर एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 20-40 सैंटीमीटर तक होती है.

काली मटर : पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल बैगनी रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं. यह एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-60 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं. इन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल बैगनी रंग के होते हैं, जो अप्रैलमई माह में खिलते हैं.

गंदेरी परिवार की खरपतवार

गंदेरी : गंदेरी एक बहुवर्षीय खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं. इस की जड़ें गहरी होती हैं और मिट्टी में पानी को सोख लेती हैं.

बांस घास : बांस घास एक बहुवर्षीय खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 100-200 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

weeds in wheat

खरपतवार की पहचान

खरपतवार की पहचान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि विभिन्न प्रकार के खरपतवारों की विशेषताएं और नियंत्रण की विधियां भिन्न होती हैं. गेहूं की फसल में सामान्य रूप से उगने वाले खरपतवार निम्नलिखित हैं :

मकोय : मकोय एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. मकोय गेहूं की फसल में तेजी से वृद्धि करता है और फसल की उत्पादकता को कम कर देता है.

हिरनखुरी : हिरनखुरी एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल पीले रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

ककमाची : ककमाची एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल सफेद रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

बथुआ : बथुआ एक वार्षिक खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं. बथुआ गेहूं की फसल में तेजी से वृद्धि करता है और फसल की उत्पादकता को कम कर देता है.

चौलाई : इस की पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल हरे रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

जंगली गाजर : जंगली गाजर एक द्विवर्षीय खरपतवार है, जिस की ऊंचाई 30-100 सैंटीमीटर तक होती है. पत्तियां आकार में लंबी और चौड़ी होती हैं, जिन के किनारे दांतेदार होते हैं. फूल सफेद रंग के होते हैं, जो जूनजुलाई माह में खिलते हैं.

आलू खुदाई करने वाला खालसा पोटैटो डिगर (Potato Digger)

खालसा डिगर आवश्यक जनशक्ति और समय बचाता है. इस डिगर को जड़ वाली फसलों की खुदाई के लिए डिजाइन किया गया है. इस का गियर बौक्स में गुणवत्तापूर्ण पुरजों का इस्तेमाल किया गया है, जो लंबे समय तक साथ देने का वादा करते हैं.

कृषि यंत्र पर आप के द्वारा किया गया खर्चा आप को रिटर्न देने की गारंटी के साथ हार्वेस्टर वाली सभी जरूरतें पूरी करता है. इस पोटैटो डिगर से एक दिन में तकरीबन 6-8 एकड़ क्षेत्रफल की आलू खुदाई की जा सकती है.

यह भारत सरकार द्वारा परीक्षण किया गया आलू खुदाई यंत्र है.

खालसा सिंगल कन्वेयर पोटैटो डिगर

यह सिंगल कन्वेयर 2 लाइनों में आलू खुदाई करने वाला यंत्र है. भारी मिट्टी वाले खेत में भी यह आसानी से काम करता है. इस यंत्र में लगा ङ्क आकार का नोज ब्लेड आलू को खराब होने से बचाता है और सिंगल कन्वेयर आलू से मिट्टी अलग कर उसे साफसुथरा करता है.

इस यंत्र में लगा बैक रोलर खेत की मिट्टी को समतल कर उचित सतह बनाता है, जिस से खुदाई के बाद सभी आलू ऊपरी सतह पर आ जाते हैं. इस वजह से आलू चुनने में दिक्कत नहीं होती.

सभी तरह की मिट्टी के लिए खास पोटैटो डिगर

खालसा ब्रांड का 2 लाइनों में आलू खोदने वाला यह यंत्र चलाने में बहुत आसान है. यह आसानी से ट्रैक्टर से जुड़ सकता है. यह यंत्र सभी प्रकार की मिट्टी, जैसे रेतीली, चिकनी और कठोर सभी के लिए उपयुक्त है. कम समय में भी अधिक रकबे को यह कवर करता है और आलू को नुकसान पहुंचाए बिना उस की बेहतर खुदाई करता है.

फ्रंट कन्वेयर और यंत्र में लगी यूनिट के साथ यह आलू का 100 फीसदी ऐक्सपोजर सुनिश्चित करता है अर्थात आलू मिट्टी के ऊपर आ कर दिखता है, जिस से आलू को खेत से उठाने में भी आसानी होती है.

खालसा विंड्रो पोटैटो डिगर

विंड्रो सिस्टम के साथ लगे 2 पंक्ति वाले डिगर एलिवेटर कटाई की नवीनतम तकनीक प्रदान करते हैं. यह पूरी तरह से एडजस्टेबल है और 20 इंच की डिगर हाई कार्बन स्टील डिस्क में गहराई बनाए रखने के लिए पीछे की तरफ 2 पहिए लगे हैं.

इस यंत्र से आलू खुदाई का समय अन्य डिगर के मुकाबले एकतिहाई ही लगता है, जिस से मेहनत, समय और पैसे की काफी अधिक बचत होती है.

2 पंक्ति वाला पोटैटो हार्वेस्टर

खालसा का ट्रैक्टरचालित 2 पंक्ति आलू कंबाइन हार्वेस्टर वी-नोज खुदाई फ्रंट ब्लेड के साथ आता है. यह भारत का पहला स्वचालित आलू हार्वेस्टर है.

कन्वेयर बेल्ट की मदद से आलू बिना मिट्टी के साफसुथरा निकलता है, जो यंत्र में लगे आलू टैंकर में इकट्ठा किया जाता है. उस के बाद आलू को अपनी सुविधानुसार  ट्रौली/बालटियों में ले जाया जा सकता है. ये सभी काम स्वचालित तरीके से होते हैं. इस में किसी मानवशक्ति की जरूरत नहीं होती.

अधिक जानकारी के लिए आप फोन नंबर 0121-2511627, 6541627 पर बात कर सकते हैं या वैबसाइट पर जानकारी ले सकते हैं.