गठिया बेसन भुजिया चटपटी मसालेदार

बेसन से बनी गठिया गुजराती नमकीन है. जब इसे बेसन के सेव के साथ मिला दिया जाता है, तो यह बहुत स्वादिष्ठ हो जाती है.

कई जगहों पर गठिया नमकीन का इस्तेमाल चाट बनाने में भी किया जाता है. गठिया नमकीन पहले गुजरात में ही बनती थी. अब यह राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में भी बनने लगी है.

मध्य प्रदेश का इंदौर तरहतरह की नमकीनों के लिए मशहूर है. गठिया नमकीन यहां सब से ज्यादा तैयार होने वाली नमकीन है. गुजराती गठिया ज्यादा मसालेदार नहीं होती. यह खाने में मुलायम होती है. राजस्थान में तैयार होने वाली गठिया नमकीन तीखी और मसालेदार होती है.

बड़ी कंपनियों के अलावा अब नमकीन का छोटा कारोबार करने वाले भी गठिया नमकीन बनाने लगे हैं. गठिया नमकीन बनाने वालों का कहना है कि यह खराब नहीं होती. ऐसे में इसे बनाने और बेचने का काम सरल होता है. नमकीन का कारोबार करने वाले दिनेश कुमार कहते हैं, ‘गठिया और बेसन भुजिया को एकसाथ मिलाने से इन का जायका बढ़ जाता है.

गठिया भुजिया बनाने का तरीका

सामग्री : आधा किलो बेसन, 1 चम्मच अजवायन, आधा चम्मच लाल मिर्च पाउडर, आधा चम्मच बेकिंग सोडा, 100 ग्राम तेल, स्वादानुदार नमक, 2 कप तेल तलने के लिए.

विधि : सब से पहले बेसन को छान लें. उस में सोडा, अजवायन, लालमिर्च पाउडर और नमक डाल कर मिलाएं. फिर बेसन में थोड़ा तेल डाल कर दोनों हाथों से रगड़ कर मिलाएं. इस के बाद बेसन में थोड़ाथोड़ा पानी डाल कर गूंध लें. बेसन गूंधते वक्त खयाल रखें कि वह न ज्यादा सख्त रहे, न ही बहुत नरम हो. फिर हाथों में तेल लगा कर गुंधे हुए बेसन पर लगाएं और उसे कुछ देर के लिए ढक कर रख दें. अब गठिया तलने के लिए गैस पर कड़ाही में तेल गरम करें. बेसन को 2 हिस्सों में बांट कर लंबा कर लें. अब इसे नमकीन बनाने वाली मशीन में डाल कर बड़े छेद वाला सांचा इस्तेमाल करें. गैस की आंच को मध्यम करें और मशीन को दबाते हुए तेल में गठिया के लच्छे डाल कर तलें.

गठिया को सुनहरा होने तक तलें. अब प्लेट में टिश्यू पेपर लगाएं और उस पर तले हुए गठिया निकाल लें. इसी तरह बचे हुए बेसन से बाकी के गठिया बनाएं. तलने के बाद लच्छे छोटे टुकड़ों में तोड़ लें. इसी तरह से बेसन की भुजिया भी बनती है. गठिया और बेसन की भुजिया में यह अंतर होता है कि दोनों को बनाने के लिए अलगअलग आकार की छेद वाली जाली मशीन में लगानी होती है. गठिया के लिए बड़े छेद वाली जाली का इस्तेमाल होता है, जबकि भुजिया बनाने के लिए महीन छेद वाली जाली का इस्तेमाल किया जाता है. गठिया और बेसन की भुजिया को एकसाथ मिलाने से नमकीन की अलग किस्म तैयार हो जाती है.

गठिया चाट

इंदौर की खास नमकीन डिश है गठिया चाट. इसे खा कर मुंह का स्वाद सुधर जाता है. इस डिश को बनाने में बहुत कम समय लगता है.

विधि : गठिया चाट बनाने के लिए मोटे गठियों को एक बर्तन में डालें. अब इस में थोड़ी सी पिसी चीनी डालें और स्वाद के अनुसार कालानमक भी डाल दें. फिर इस में नीबू का रस डालें और इन सभी को अच्छी तरह मिलाएं. इस मिश्रण को सर्विंग प्लेट में रख कर उस पर लंबे कटे प्याज और टमाटर डालें. एक बार फिर से नीबू निचोड़ दें. इस पर चटपटा चाट मसाला डालें. अंत में धनिया बुरक कर चटपटी गठिया चाट पेश करें.

गाजर (Carrot) की खेती और बीज उत्पादन

गाजर का जड़ वाली सब्जियों में खास स्थान है. इसे देशभर में उगाया जाता है. उत्तर प्रदेश, असम, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब व हरियाणा प्रमुख गाजर उत्पादक राज्य हैं.

किस्में : गाजर की किस्मों को 2 भागों में बांटा है, एशियन व यूरोपीय. एशियन किस्म सालाना होती है. इस का आकार व रंग अलग होता है. इस का ऊपरी भाग चौड़ा होता है, जो नीचे की ओर पतला होता जाता है. यह लाल, पीले, नारंगी व बैंगनी रंग की होती है. यह उच्च तापमान को सहन करने वाली किस्म है. यूरोपीय किस्म आकार में छोटी, चिकनी और समान रूप से मोटी होती है. इस का रंग नारंगी होता है.

एशियन : इस किस्म से अधिक उपज मिलती है. इन से हलुआ, अचार, मुरब्बा, सब्जी, सलाद आदि बनाए जाते हैं. इन्हें सुखा कर बेमौसमी फलों का मजा लिया जाता है. खास एशियन किस्मों के खास लक्षणों की जानकारी नीचे दी गई है :

पूसा केसर : यह एक संकर किस्म है, जो 90 से 110 दिनों में तैयार होती है. इसे अगस्त से अक्तूबर के शुरू में बोया जाता है. इस की जड़ें गहरे लाल रंग की होती हैं. इस का मध्य भाग छोटा और हलके लाल रंग का होता है. प्रति हेक्टेयर यह 250-300 क्विंटल तक उपज देती है.

पूसा मेघाली : यह किस्म 110 से 120 दिनों बाद तैयार होती है. इस की जड़ें और गूदा नारंगी रंग का होता है. यह अगस्तसितंबर में बोने के लिए सही किस्म है. प्रति हेक्टेयर यह 250-300 क्विंटल उपज देती है.

सेलेक्शन 223 : यह किस्म महज 60 दिनों में तैयार हो जाती है और खेत में 90 दिनों तक अच्छी तरह रहती है. इस की जड़ें 15 से 18 सेंटीमीटर लंबी, नारंगी और खाने में स्वादिष्ठ होती हैं. इस प्रजाति की बोआई देर से की जा सकती है. इस की औसतन उपज 200 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है.

गाजर नंबर 29 : यह एक अगेती किस्म है. इस की जड़ें लाल और लंबी बढ़ने वाली होती हैं. इस का बीज मैदानी क्षेत्रों में आसानी से तैयार किया जाता है. इस प्रजाति की औसतन उपज 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

गाजर (Carrot)

यूरोपीय किस्में

पूसा यमदग्नि : यह अधिक उपज देने वाली किस्म है. यह किस्म 86 से 130 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें 15-20 सेंटीमीटर लंबी, हलकी, केसरिया रंग की आधी ठूंठ के आकार की होती हैं. यह किस्म तेजी से बढ़ती है. इस में कैरोटीन अधिक मात्रा में पाया जाता है. इस का गूदा केसरिया रंग का अच्छी खुशबू वाला कोमल और स्वादिष्ठ होता है. पूसा नयनज्योति भी एक अच्छी किस्म है.

नैनटिस : इस किस्म का ऊपरी भाग छोटा और हरी पत्तियों वाला होता है. इस की जड़ें 12 से 15 सेंटीमीटर लंबी, बेलनाकार और नारंगी रंग की होती हैं. फसल 90 से 110 दिनों में तैयार होती है. खाने में यह बेहद लजीज होती है और प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल तक उपज देती है. मध्य अक्तूबर से दिसंबर तक इस की बोआई की जाती है.

चैंटेन : यह किस्म 100 से 120 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें मोटी और गहरे लाल रंग की होती हैं. इस किस्म का बीज मैदानी क्षेत्रों में तैयार किया जाता है. प्रति हेक्टेयर यह 150 क्विंटल तक उपज देती है. इस किस्म को मध्य अक्तूबर से दिसंबर के शुरू तक बोया जा सकता है.

जैनो : यह किस्म 115 से 120 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें करीब 15 सेंटीमीटर लंबी होती हैं. तमिलनाडु का नीलगिरि क्षेत्र इस किस्म को उगाने के लिए सही है.

इंप्रेटर : इस किस्म को संकरण से तैयार किया जाता है. यह मध्य से देर अवधि वाली किस्म है. इस का गूदा नारंगी रंग का होता है. यह अधिक उपज देने वाली किस्म है.

जलवायु : वैसे तो गाजर ठंडी जलवायु की फसल है, लेकिन इस की कुछ किस्में अधिक तापमान को भी सहन कर लेती हैं. जड़ों के रंग का विकास और उन की बढ़वार पर तापमान का प्रभाव पड़ता है.  10-15 डिगरी सेल्सियस तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है. लेकिन यूरोपीय किस्मों के लिए 4 से 6 हफ्ते तक 4.8 से 10 डिगरी सेल्सियस तापमान  होना चाहिए .

जमीन : गाजर के उत्पादन के लिए उचित जल निकास वाली गहरी, बलुई दोमट जमीन अच्छी मानी गई है. जमीन का पीएच मान साढे़ 6 होना चाहिए. अधिक क्षारीय या अधिक अम्लीय मिट्टी इस के सफल उत्पादन में बाधक मानी जाती है.

खेत की तैयारी : गाजर की अधिक उपज लेने के लिए खेत की तैयारी होना जरूरी है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. इस के बाद 2-3 बार कल्टीवेटर या हैरो से जुताई करें. जुताई के बाद पाटा चलाएं.

खाद व उर्वरक : गाजर को आमतौर पर कम उपजाऊ व हलकी मिट्टी में उगाया जाता है. लिहाजा, खाद और उर्वरकों के इस्तेमाल से इस पर अच्छा प्रभाव पड़ता है. मिट्टी की जांच के बाद इन का इस्तेमाल करना फायदेमंद होता है. फसल को 25-30 टन गोबर की खाद के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 45 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देनी चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की आखिरी जुताई के समय खेत में मिला कर  पाटा चलाएं. उस के बाद बोआई करें. नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा का बोआई के 40-45 दिनों बाद छिड़काव करें, जिस से पैदावार पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा.

बीजों की मात्रा : प्रति हेक्टेयर 5-6 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. फसल को फफूंदी जनित रोगों से बचाने के लिए बीजों को बोने से पहले कार्बेंडाजिम 3 ग्राम पाउडर प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर उस से उपचारित कर के बोना चाहिए. बीज को जल्दी अंकुरण के लिए 12 से 24 घंटे पानी में भिगो कर बोना चाहिए.

बोने का समय : गाजर की बोआई का समय इस बात पर निर्भर करता है कि उस की कौन सी किस्म उगानी है. उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में एशियाई किस्मों को अगस्त के आखिरी सप्ताह से अक्तूबर के पहले सप्ताह तक बोते हैं, जबकि यूरोपीय किस्मों की बोआई नवंबर में की जाती है. पर्वतीय इलाकों में बोआई मार्च से जून तक की जाती है. दक्षिण और मध्य भारत में बोआई जनवरीफरवरी, जूनजुलाई और अक्तूबरनवंबर में की जाती है.

बोने की विधि : गाजर की बोआई समतल क्यारियों व मेंड़ों पर की जाती है. इस की ज्यादाउपज लेने के लिए इसे मेंड़ों पर उगाना ठीक रहता है. लाइनों और पौधों की आपसी दूरी 45×7.5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज को 1.5 सेंटीमीटर से अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए. गाजर की लगातार फसल लेने के लिए 10-15 दिनों बाद बोआई करनी चाहिए. गाजर का अंकुरण धीमी गति से होता है. अकसर 10-20 दिनों बाद अंकुरण होता है.

सिंचाई और जल निकास : बोआई के बाद मेंड़ों को तब तक नम रखना जरूरी है, जब तक कि बीजों का अंकुरण न हो जाए. इस के बाद 8-10 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. कम नमी के कारण उपज कम मिलती है, जबकि अधिक नमी से उपज में भारी कमी हो सकती है. लिहाजा, गाजर की सिंचाई पत्तियों के मुरझाने से पहले करनी चाहिए.

जल प्रबंधन पर दें ध्यान

सिंचाई करते समय यह ध्यान रहे कि सिंचाई पौधे में की जा रही है, न कि जमीन में. इस में सिंचाई की आधुनिक विधियां इस्तेमाल करें. करीब 3 दशकों में सिंचाई की सूक्ष्म प्रणाली से फसल के उत्पादन में पाया गया है कि औसतन अन्य पारंपरिक सिंचाई विधियों की तुलना में इस के द्वारा 50 से 60 फीसदी जल बचाया जा सकता है.

खेत में खरपतवार भी कम आते हैं. जिस तरह ड्रिपरों से बूंदबूंद जल दिया जाता है, उसी प्रकार रासायनिक उर्वरकों को भी सिंचाई में फर्टिलाइजर इंजेक्टर की मदद से फसलों को दिया जा सकता है.

ऐसी व्यवस्था के तहत उर्वरकों को कम मात्रा में कम अंतराल रख कर जल्दीजल्दी सिंचाई के साथ दिया जा सकता है.

खरपतवार नियंत्रण : गाजर की फसल के साथ उगे खरपतवार उस की बढ़वार व उपज पर खराब असर डालते हैं. लिहाजा, उन की रोकथाम समय पर करना जरूरी है. इस के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई करें. इस दौरान घने पौधों को उखाड़ दें, ताकि पौधों का विकास व बढ़वार अच्छी तरह हो सके. खरपतवारों की रोकथाम के लिए पेंडामेथलीन नामक खरपतवारनाशी की 3.3 लीटर मात्रा 800 से 1,000 लीटर पानी में घोल कर अंकुरण से पहले छिड़काव करें.

गाजर (Carrot)

कीड़ों की रोकथाम

पत्ती फुदका : इस कीट के वयस्क और निम्फ  दोनों ही पौधों का रस चूसते हैं. इस वजह से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर खराब असर पड़ता है. इस कीड़े की रोकथाम के लिए 0.05 फीसदी मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करना चाहिए.

कट वर्म : यह कीट रात के समय पौधों को आधार से काट देता है. इस की रोकथाम के लिए 0.1 फीसदी क्लोरोपाइरीफास के घोल से जमीन को अच्छी तरह भिगो दें.

गाजर की सुरसुरी : इस कीट के सफेद टांगरहित शिशु गाजर के ऊपरी हिस्से में सुरंग बना कर नुकसान पहुंचाते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 1 मिलीलीटर या डाइमेथोएट 30 ईसी 2 मिलीलीटर का छिड़काव करें.

जंग मक्खी : इस कीट के शिशु पौधों की जड़ों में सुरंग बनाते हैं, जिस से पौधे मर भी सकते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए क्लोरोपायरीफास 20 ईसी का 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से हलकी सिंचाई के साथ इस्तेमाल करें.

कंपोस्ट खाद : वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

आज वर्मी कंपोस्ट खाद बहुत सस्ती, सरल व खेतों के लिए काफी उपयोगी है. गोबर की खाद के लिए जहां भरपूर गोबर उपलब्ध नहीं हो पाता, वहीं दूसरी ओर गड्ढे खोद कर खाद बनाने में भी 6 महीने का समय लगता है. कूड़ाकरकट से बनने वाली कंपोस्ट खाद भी 4 महीने से पहले नहीं बन पाती है, जबकि वर्मी कंपोस्ट खाद 40 से 45 दिन में बन कर तैयार हो जाती है.

खेती के लिए जैविक खाद का इस्तेमाल काफी खास है. फसल पैदावार की नजर से मिट्टी एक सचेत और जीवंत माध्यम है. भूमि की उत्पादकता कूवत को ध्यान में रखते हुए उस का पालनपोषण अत्यंत जरूरी माना जाता है. अगर हमें रासायनिक खेती को छोड़ कर वर्मी खाद आधारित खेती में बदलना है तो मिट्टी के उपयोग को समझना जरूरी  है. जमीन हमें अनेक तरह के खाद्यान्न मुहैया करा कर हमारी मुफ्त सेवा करती है.

अत: जमीन भी हम से कुछ सेवा की अपेक्षा रखती है. खेतों में प्रति बीघा 100 या 250 मिलीलीटर की शीशी खाली करना ही भूमि की सेवा नहीं है. प्रति बीघा 2 से 3 टन जैविक खाद बना कर खेतों में डालना भूमि की सच्ची सेवा है. ऐसी ही एक जैविक खाद केंचुओं द्वारा निर्मित खाद है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में वर्मी कंपोस्ट के नाम से भी जाना जाता है.

सलाह

एक अच्छे खेत के लिए साल में कम  कम 2 बार 8 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से वर्मी कंपोस्ट का समान मात्रा में इस्तेमाल करना चाहिए. 2 से 3 साल के बाद जमीन की उर्वरता व संरचना देख कर वर्मी कंपोस्ट की मात्रा धीरेधीरे कुछ कम की जा सकती है.

कंपोस्ट खाद के इस्तेमाल से खेतों को सब से ज्यादा लाभ जैविक कार्बन से होता है. इस जैविक कार्बन को किसी भी औद्योगिक उत्पाद के रूप में तैयार नहीं किया जा सकता है. अत: गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट खाद के अलावा मिट्टी में इतनी ज्यादा मात्रा में जैविक कार्बन पहुंचाने का दूसरा कोई माध्यम नहीं है. जैसा कि हम जानते हैं कि मिट्टी में कार्बन से पौधों को ऊर्जा मिलती है.

पौधों की जड़ों व मिट्टी में उपस्थित अनेक प्रकार के जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण और न घुलने वाले फास्फोरस को घुलनशील फास्फोरस में बदल कर पौधों को मुहैया कराते हैं.

लेकिन कार्बन की कमी के कारण ये जीवाणु ठीक तरह से काम नहीं कर पाते. इसलिए जैविक कार्बन कृषि योग्य मिट्टी के लिए काफी खास तत्त्व माना जाता है. मिट्टी में कार्बन की कमी से सूक्ष्मजीवी सही तरह से सक्रिय नहीं हो पाते, जिस से मिट्टी में ह्मूमस का निर्माण नहीं हो पाता और उस की जलधारण कूवत कम हो जाती है.

मिट्टी में जैविक कार्बन का कितना महत्त्व है, इसे हम इस तरह समझ सकते हैं. यदि घर में 100 वाट का बल्ब लगाया जाए, लेकिन करंट 40 वाट जितना भी न हो तो 100 वाट की रोशनी हमें मिल ही नहीं सकती.

ठीक इसी तरह यदि मिट्टी में कई तरह के सूक्ष्म व पोषक तत्त्व मौजूद रहते हैं, लेकिन कार्बन यदि सही मात्रा में न हो तो पौधे इन तत्त्वों को सही तरह हासिल नहीं कर पाते और उन्हें इन पोषक व सूक्ष्म तत्त्वों की पूर्ति रासायनिक उत्पादों से करनी पड़ती है.

नतीजतन, सब से पहले तो फसल की लागत बढ़ जाती है, इस के बाद मिट्टी में मौजूद रासायनिक उत्पादों का कुछ हिस्सा ही पौधे ले पाते हैं और ज्यादा रासायनिक उत्पादों से  जमीन की संरचना व उर्वरता भी बिगड़ जाती है. मिट्टी में पौधों की संतुलित बढ़ोतरी के लिए 16 तरह के पोषक तत्त्व जरूरी बताए गए हैं, जिन में सब से पहला स्थान जैविक कार्बन का ही है. देश में मिट्टी को सोना बनाने की जो बात कही जाती  है वह मुख्य रूप से मिट्टी में जैविक कार्बन की उपस्थिति पर ही निर्भर करती है.

जमीन को भी खुराक की जरूरत होती है. उसे भूखा रख कर हम कब तक अन्न हासिल कर सकेंगे. रासायनिक उर्वरक जमीन का भोजन नहीं है, कार्बनिक पदार्थों व 16 तरह के पोषक तत्त्वों से युक्त गोबर या कंपोस्ट खाद ही जमीन का  भोजन है.

रासायनिक उर्वरक जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं. गोबर या कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल किए बिना जमीन में रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल करना हानिकारक होता है. अलगअलग फसलों में विभिन्न तरह की बीमारियों व कीटों के लिए कई तरह के रासायनिक उत्पाद बाजार में बिकते हैं. खड़ी फसल बचाने के लिए रासायनिक उत्पादों का इस्तेमाल कोई बुराई नहीं है, लेकिन रासायनिक उत्पादों के साथसाथ जैविक उत्पादों को भी ज्यादा से ज्यादा अहमियत देनी चाहिए.

देश में इतने सालों तक केवल रासायनिक खेती करने के बाद भी यदि हम जमीन से अनाज हासिल करते हैं तो इस का श्रेय हमारे पूर्वजों को जाता है, जिन्होंने युगों तक इस जमीन में जैविक खेती की वरना अमेरिका जैसा राष्ट्र केवल कुछ समय तक रासायनिक खेती कर के अपनी 12 करोड़ एकड़ कृषि लायक जमीन गंवा चुका है और अब अपने कृषि कार्यक्रम में रासायनिक उत्पादों के साथसाथ जैविक उत्पादों को भी काफी महत्त्व दे रहा है. वहीं दूसरी ओर जैविक खेती का जनक भारत केवल रासायनिक खेती के कुचक्र में दिनोदिन फंसता जा रहा है. यदि यही हालात रहे तो आने वाली पीढि़यों को कृषि योग्य जमीन के नाम पर रासायनिक झील व दलदल के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.

वर्तमान हालात में किसानों का रासायनिक उत्पादों का उपयोग किए बिना अधिकतम उपज लेना आसान नहीं है, लेकिन किसानों को कंपोस्ट खाद व अन्य जैविक उत्पादों का इस्तेमाल करने में किसी भी तरह की लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.

अपने कृषि कार्यक्रम में जैविक खेती अपनाने पर किसानों का आर्थिक पहलू किसी भी तरह से कमजोर नहीं होगा, क्योंकि स्वास्थ्यप्रद जैविक खाद्य सामग्री हमेशा दोगुने दामों पर बिकती है और जमीन, जल व हवा भी प्रदूषणमुक्त रहते हैं.

देश में करोड़ों रुपए का शुद्ध पानी मिनरल वाटर की बोतलों में बिक सकता  है, तो जैविक खेती से उत्पन्न स्वास्थ्यप्रद खाद्य सामग्री भी ऊंचे दामों पर आसानी से बाजार में बिक सकती है.

पौधों के पोषण के लिए किसानों ने खुद पहल की और गोबर व गौमूत्र आधारित खादें तैयार कर इस्तेमाल कीं, जैसे अमृपानी, मटा खाद, हरी पत्तियों की तरल खाद, बायोगैस संयंत्र की स्लेरी खाद, सींग खाद आदि तरल और त्वरित खाद ने भी कमाल का काम कर दिखाया. प्रयोगशील किसानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व कुछ कर्मठ देशप्रेमी वैज्ञानिकों ने इस जैविक खेती पद्धति को कृषि विज्ञान में बदलना शुरू किया और खुद इस्तेमाल कर अनुकूल परिणाम हासिल कर दिखाया कि यह एक चिरस्थायी पद्धति है.

गेहूं, चना, मक्का, ज्वार, अरहर, मूंग, तिल, मूंगफली, कपास, सोयाबीन, फल, सब्जी, चरीचारा, सभी फसलें जैविक पद्धति से उपजा कर दिखा दिया कि बिना बाजारू कृषि उत्पादों के भी अच्छी खेती की जा सकती है.

खेती में कीट और बीमारी भी कभीकभी आती है, लेकिन जैविक कृषि पद्धति अपनाएंगे तो यह भी कम हो जाती है. गोमूत्र, पुरानी छाछ, हींग, मिर्च, लहसुन का मिश्रण, नीम का तेल, नीम, करंज, शरीफा, आईपोमिया, गाजर घास आदि पानी में घोल कर 15-20 दिन के अंतर से छिड़काव करने से कीट और बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है.

सर्दी की गुलाबी फसल शलगम (Turnip)

शलगम जड़ वाली हरी फसल है. इसे ठंडे मौसम में हरी सब्जी के रूप उगाया व इस्तेमाल किया जाता है. शलगम का बड़ा साइज होने पर इस का अचार भी बनाया जाता है. ठंडे मौसम की फसल होने से कम तापमान पर भी ज्यादा स्वाद होता है. बोआई के 20-25 दिनों के बाद से ही शलगम को साग के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

शलगम की जड़ों व पत्तियों में ज्यादा पोषक तत्त्व पाए जाते हैं. इस से ज्यादा मात्रा में कैल्शियम और विटामिन ‘सी’ मिलता है. साथ ही इस में अन्य पोषक तत्त्व फास्फोरस, कार्बोहाइड्रेट्स वगैरह भी भरपूर मात्रा में मिलते हैं.

शलगम की फसल को सभी तरह की जमीन में उगाया जा सकता है. लेकिन अच्छी पैदावार के लिए हलकी चिकनी दोमट या बलुई दोमट मिट्टी वाली जमीन बेहतर होती है. जल निकासी भी ठीक होनी चाहिए, वरना पानी भरा रहने पर फसल खराब हो सकती है.

शलगम सर्दी की फसल होने के कारण ज्यादा ठंड को भी सहन कर लेती है. अच्छी बढ़वार के लिए ठंड व नमी वाली जलवायु सही रहती है. इसी कारण पहाड़ी इलाकों में शलगम की अच्छीखासी पैदावार मिलती है.

अच्छी पैदावार के लिए खेत की जुताई अच्छी तरह करनी चाहिए, जिस से जमीन भुरभुरी हो जाए. साथ ही घास व ठूंठ वगैरह को बाहर निकाल कर नष्ट कर दें और छोटीछोटी क्यारियां बना लें, ताकि इन की देखभाल अच्छी तरह से हो सके.

उपज से फायदा : शलगम जब छोटेछोटे साइज की हों, तभी उन्हें मंडी में साग के रूप में बेचा जाता है और बाद में जब शलजम बड़ी हो जाती है, तो उसे लोग अचार व सब्जी वगैरह में भी इस्तेमाल करते हैं.

यह कम समय में तैयार होने वाली सामान्य फसल है. इस की खास देखभाल की भी जरूरत नहीं होती और किसान को मुनाफा भी ज्यादा मिलता है.

शलगम की कुछ खास प्रजातियां

लाल 4 : यह किस्म जल्दी तैयार होने वाली है. लाल किस्म को ज्यादातर सर्दी के मौसम में लगाते हैं. इस की जड़ें गोल, लाल और मध्यम आकार की होती हैं. फसल 60 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

सफेद 4 : इस किस्म को ज्यादातर बरसात के मौसम में लगाते हैं. यह जल्दी तैयार होती है और इस की जड़ों का रंग बर्फ जैसा सफेद होता है. गूदा चरपराहट वाला होता है. ये 50-55 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

परपल टोप : इस किस्म की जड़ें बड़े आकार की होती हैं. ऊपरी भाग बैगनी, गूदा सफेद और कुरकुरा होता है. यह ज्यादा उपज देती है. इस का गूदा ठोस और ऊपर का भाग चिकना होता है.

पूसा स्वर्णिमा : इस किस्म की जड़ें गोल, मध्यम आकार वाली, चिकनी और हलके पीले रंग की होती हैं. गूदा भी पीलापन लिए होता है. यह 65-70 दिनों में तैयार हो जाती है. सब्जी के लिए यह अच्छी किस्म है.

पूसा चंद्रिमा : यह किस्म 55-60 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की जड़ें गोलाई लिए हुए होती हैं. यह ज्यादा उपज देती है.

पूसा कंचन : इस किस्म का छिलका ऊपर से लाल, गूदा पीले रंग का होता है. यह अगेती किस्म है, जो शीघ्र तैयार होती है. इस की जड़ें मीठी व खुशबूदार होती  हैं.

पूसा स्वेती : यह किस्म भी अगेती है. बोआई अगस्तसितंबर में की जाती है. जड़ें काफी समय तक खेत में छोड़ सकते हैं. जड़ें चमकदार व सफेद होती हैं.

स्नोवाल : यह भी अगेती किस्मों में शामिल है. इस की जड़ें मध्यम आकार की, चिकनी, सफेद और गोलाकार होती हैं. गूदा नरम व मीठा होता है.

बाजरे की प्रोसेसिंग (Processing of Millets) – रोजगार का जरीया

एक मोटे अनाज के रूप में पहचान बनाने वाले बाजरे से आज अनेक खाद्य पदार्थ बनाए जा रहे हैं. खासकर बाजरे का दलिया बना कर आज अनेक कंपनियां खासी कमाई कर रही हैं. आजकल बाजरे के नमकीन सेब, लड्डू, बरफी, शकरपारा, ढोकला, केक, पास्ता, मट्ठी व बिस्कुट वगैरह भी काफी पसंद किए जा रहे हैं. बाजरे में काफी मात्रा में प्रोटीन, वसा, रेशा व खनिज लवण होते हैं, जो हमारे लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं.

बाजरे की प्रोसेसिंग कर के ये सब व्यंजन बड़ी आसानी से तैयार किए जा सकते हैं. लघु उद्योग के रूप में गांव वाले या शहरी लोग भी इसे कारोबार के रूप में अपना सकते हैं. काम शुरू करने के लिए इस की ट्रेनिंग लेना बहुत जरूरी है.

ट्रेनिंग के लिए चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार (हरियाणा) के खाद्य एवं पोषण विभाग से संपर्क किया जा सकता है. इस कृषि विश्वविद्यालय से जुड़े गृह विज्ञान महाविद्यालय में बाजरे के कई प्रकार के व्यंजनों को बनाना सिखाया जाता है. बाजरे की प्रोसेसिंग को ले कर इन का एक खास विभाग है ‘बाजरा उत्कृष्टता केंद्र’. इस के तहत इन के विशेषज्ञ समयसमय पर लोगों को ट्रेनिंग देते हैं, जो कि बहुत कम दिनों की होती है. इन के अनुभवी लोग तमाम जगहों पर जा कर भी ट्रेनिंग देते हैं.

प्रोसेसिंग तकनीक से बाजरा व अन्य अनाजों को उत्पाद के रूप में बदला जा सकता है. पुराने समय के लोग पारंपरिक तरीकों से इन अनाजों की प्रोसेसिंग करते थे जैसे बाजरे का आटा बनाने के लिए उसे हाथ से कूटना, हाथ की चक्की से पीसना, छिलका उतारना, दलिया बनाना वगैरह. लेकिन इन तरीकों से मेहनत और समय तो ज्यादा लगता था, पर उत्पादन कम होता था. साथ ही अनाज में छिलका आदि भी लगा रह जाता था, जिस से सही गुणवत्ता भी नहीं मिल पाती थी.

अब इन कामों के लिए प्रोसेसिंग की मशीनें आ गई हैं. इन मशीनों से ये काम बहुत आसानी से किए जा सकते हैं. मशीनों के इस्तेमाल से समय की बचत के साथसाथ मेहनत भी कम लगती है. मशीनों की जानकारी ले कर इस रोजगार की दिशा में काम किया जा सकता है.

बाजरे की प्रोसेसिंग के लिए कुछ खास मशीनें

डिस्टोनर, ग्रेडर व एस्पिरेटर : यह बाजरे की ग्रेडिंग करने की मशीन है. इस मशीन से बाजरे से रेत, कंकड़ व पत्थर वगैरह को अलग किया जाता है और बाजरे के दानों की ग्रेडिंग भी की जाती है.

छिलका उतारने की मशीन : इस मशीन से बाजरे की ऊपरी मोटी परत दानों से अलग की जाती है. छिलका उतारते समय दाने थोड़ी मात्रा में टूट भी जाते हैं, लेकिन छिलका उतरे अनाज से बाजरे के व्यंजन ज्यादा स्वादिष्ठ बनते हैं.

अनाज उबालने की मशीन (पारबौयलिंग मशीन) : यह मशीन 2 भागों में बनी होती है. इस मशीन में अनाज भिगोया व थोड़ी देर तक उबाला जाता है, जिस से बाजरे के अपोषक तत्त्व कम हो जाते हैं और बाजरे को ज्यादा समय तक रखा जा सकता है. साथ ही बाजरे की पौष्टिकता बढ़ जाती है, जिस से बने खाद्य पदार्थ ज्यादा पौष्टिक व स्वादिष्ठ होते हैं.

दलिया बनाने की मशीन (हैमर मिल/पुलवेरीजर) : आज बाजरे का दलिया काफी पसंद किया जाता है. इस मशीन से बढि़या क्वालिटी का दलिया निकाला जाता है. इस मशीन से छिलका उतारे गए बाजरे का दलिया बनाया जाता है और इसे मोटा आटा बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. दलिया बनने के बाद मोटे आटे व दलिया को छान कर अलग कर लिया जाता है. यह मशीन अलगअलग कूवत में मिलती है.

सोलर टनल ड्रायर : यह मशीन सोलर ऊर्जा द्वारा चलती है. इस मशीन से बाजरे व किसी भी खाद्य पदार्थ को सुखाया जाता है. इस मशीन से समय व ईंधन की बचत होती है.

इस का तापमान नियंत्रित होता है. चूंकि यह मशीन सौर ऊर्जा से चलती है, इसलिए इस की कार्य क्षमता आकार व मौसम पर निर्भर करती है.

अगर आप भी बाजरे के उत्पाद बना कर बेचना चाहते हैं यानी अपनी इकाई लगाना चाहते हैं, तो सब से पहले ट्रेनिंग लेना जरूरी है. संस्थान द्वारा कम समय के कोर्स भी चलाए जा रहे हैं, जिन्हें कर के आप अपना कारोबार शुरू कर सकते हैं.

ज्यादा जानकारी के लिए चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार (हरियाणा) के बाजरा उत्कृष्टता केंद्र, खाद्य एवं पोषक विभाग, गृह विज्ञान महाविद्यालय से संपर्क कर सकते हैं.

कच्ची उपज को टिकाऊ बनाएं प्रोसेसिंग (Processing) से लाभ कमाएं

भारत में बड़े पैमाने पर खेती की जाती है. जमीन उपजाऊ व किसान मेहनती हैं. पैदावार भी भरपूर होती है. बावजूद इस के ज्यादातर किसानों की माली हालत खराब है. दरअसल, जब मौसमी फसलें पक कर बाजार में आती हैं, तो आवक बढ़ने से उपज की कीमतें गिर जाती हैं. ऐसे में फायदा तो दूर, लागत भी मुश्किल से निकल पाती है. इस से नजात पाने के लिए खेती से कमाई के नए तरीके खोजने जरूरी हैं.

किसान नई तकनीक सीख कर फल, सब्जी, दलहन, तिलहन व अनाज की फसलों में से ज्यादातर की प्रोसेसिंग व डब्बाबंदी गांव में रह कर ही कर सकते हैं. कुछ किसान बजाय मंडी में अपनी उपज बेचने के सीधे बड़ी मिलों को बेच देते हैं, ताकि उन्हें ज्यादा कीमत मिले. बेशक यह तरीका कारगर है, लेकिन अब दाल, तेल व चावल आदि प्रोसेसिंग की मिनी मिलें आ गई हैं. किसान उन्हें लगा कर खुद भी आसानी से प्रोसेसिंग कर सकते हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, सीएसआईआर दिल्ली के रिसर्च सैंटरों से मिनी मिलों व मशीनों की जानकारी हासिल की जा सकती है. रही बात तैयार माल को बेचने की, तो जब किसान अपनी उपज को कच्चे माल की तरह बेच लेते हैं, तो तैयार माल को भी बेचा जा सकता है. जिला उद्योग केंद्र, ग्रामोद्योग बोर्ड व खादी आयोग आदि भी प्रचार, नुमाइश करने व माल बिकवाने में काफी मदद करते हैं, लिहाजा उन से तालमेल बनाने की जरूरत है.

उत्पाद अनेक

आटा, मैदा, सूजी, दलिया, खील, बिस्कुट, ब्रेड, तेल, अचार, चटनी, मुरब्बा, जैम, जैली, टौफी, जूस, शरबत, चिप्स, बडि़यां, पापड़, नमकीन, पिसे मसाले, क्रीम, दही, पनीर, खोया, घी, मक्खन, कैचप व सास, आदि तमाम पैकेटबंद चीजें हमारे देश में बन और बिक रही हैं. अपनी कूवत व काबलीयत के मुताबिक उत्पाद बनाए व बेचे जा सकते हैं. जो भी उपज ज्यादा हो और बाजार में उस की कीमत वाजिब न मिल रही हो, तो उसी की प्रोसेसिंग की जा सकती है.

कीमत बढ़ाएं

सदियों से खेती बोआई से कटाई तक की हद में रही है, लेकिन अब खेती की लगातार बढ़ती लागत व घटते मुनाफे ने किसानों को खेती के सहायक धंधे करने के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया है. साथ ही बेवजह के नुकसान घटाने की गरज से खेती के माहिर वैज्ञानिकों ने पोस्ट हारवेस्ट टैक्नोलौजी यानी कटाई के बाद की तकनीक अपनाने और वैल्यू एडीशन करने यानी उपज की कीमत बढ़ाने पर जोर दिया है.

उपज की कीमत बढ़ाने के लिए उसे बेहतर बनाया जाता है. उपज कोई भी हो कटाई के कुछ समय बाद ही वह नमी, फफूंदी, चूहे व कीड़ों आदि के कारण खराब होने लगती है. लिहाजा, धुआं दे कर या कीट व फफूंदनाशक दवाएं रख कर उसे महफूज किया जाता है. ठीक इसी तरह फूड प्रासेसिंग में भी होता है. खानेपीने की चीजों को लंबे समय तक महफूज बनाए रखने के लिए उन में प्रिजरविंग एजेंट यानी परिरक्षक डाले जाते हैं.

फलसब्जियों को सुखा कर या उन का अचार आदि डाल कर टिकाऊ बनाने का काम सदियों से घरों में औरतें बखूबी करती रही हैं. यह बात अलग है कि उन के तौरतरीके अलग होते थे. गौरतलब है कि पुराने जमाने में खानेपीने की चीजों को सड़ने से बचाने के लिए रासायनिक प्रिजर्वेटिव नहीं थे. लिहाजा मेवों, मसालों, फलों व सब्जियों को धूप, हवा या छाया में सुखा कर, जमा व बोतलबंदी कर टिकाऊ बनाया जाता था.

टिकाऊ बनाना

फलों व सब्जियों से बनी खानेपीने की चीजों को लंबे वक्त तक टिकाऊ बनाने के लिए कुदरती तरीकों का इस्तेमाल हमारे देश में सदियों से होता रहा है. पुराने जमाने में खानेपीने की चीजों को लंबे समय तक महफूज रखने के लिए नमक, शक्कर, शहद, लौंग, नीबू, अजवायन, दालचीनी व सिरका आदि का इस्तेमाल कुदरती प्रिजर्वेटिव्स के तौर पर किया जाता था, ताकि फफूंदी न लगे.

इन घरेलू नुसखों के इस्तेमाल से सामान व सेहत दोनों के खराब होने की आशंका नहीं होती. दादीनानी अपने घरेलू नुसखों के बलबूते ही अचार, चटनी, मुरब्बे, बड़ी व पापड़ आदि बहुत सी चीजों को टिकाऊ बना कर लंबे वक्त तक खाने लायक बनाए रखती थीं.

प्रोसेसिंग (Processing)

प्रिजर्वेटिव्स

फूड प्रोसेसिंग के काम में प्रिजर्वेटिव्स यानी टिकाऊ बनाए रखने वाले कैमिकल्स का इस्तेमाल बहुत अहम होता है. तुरंत व तेज असरकारी नए रासायनिक प्रिजर्वेटिव्स खानेपीने की चीजों को खराब होने से बचाने में कारगर हैं, लेकिन इन के इस्तेमाल में सावधानी बरतना बहुत जरूरी है.

यही वजह है कि दुनिया भर के मुल्कों में इन के इस्तेमाल के मानक तय किए गए हैं. जागरूक ग्राहक कैमिकल रहित खाद्य उत्पाद खरीदने को तरजीह देते हैं. लिहाजा, औरगैनिक फार्मिंग की तरह जल्द ही प्रिजर्वेटिव्स रहित खाद्य उत्पादों का बाजार भी बहुत तेजी से बढ़ेगा.

अब खानपान में जागरूकता बहुत तेजी से बढ़ रही है. ज्यादातर ग्राहक हैल्दी फूड्स की तलाश में रहते हैं. वे इस बात पर भी गौर करते हैं कि माल की क्वालिटी कैसी है? उस के अंदर क्याक्या चीजें शामिल हैं. बहुत सी नामी कंपनियां रंग व रसायन के बगैर टमाटर सास व फलों के जूस आदि उत्पाद बना कर ऊंची कीमतों पर बेच रही हैं. आगे ऐसे उत्पादों की मांग और बढ़ेगी, लिहाजा, किसान इस से फायदा उठा सकते हैं.

फूड प्रोसेसिंग के लिए प्रिजर्वेटिव्स यानी परिरक्षकों की पूरी जानकारी होना बेहद जरूरी है. प्रिजर्वेटिव्स खानेपीने की चीजों को टिकाऊ बना कर खराब होने से रोकते हैं. सोडियम बैंजोएट, बैंजोइक एसिड व लैक्टिक एसिड आदि कई तरह के प्रिजर्वेटिव्स अब आसानी से बाजार में मिलते हैं व धड़ल्ले से इस्तेमाल होते हैं.

तालीम

राज्यों के उद्यान एवं फल सरंक्षण विभाग, ग्रामोद्योग बोर्ड, खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग, कृषि विश्वविद्यालयों के प्रसार विभाग या फूड प्रोसेसिंग की किसी निजी इकाई में काम कर के खाद्य प्रसंस्करण का काम सीखा जा सकता है. सीखने के बाद गांव में ही अपनी इकाई लगाई जा सकती है.

फूड प्रोसेसिंग इकाई लगाने व चलाने से पहले लाइसैंस व छूट आदि की जानकारी जिला उद्योग केंद्र या ग्रामोद्योग के दफ्तर से हासिल कर सकते हैं. तैयार उत्पादों की क्वालिटी को हमेशा उम्दा और कीमतें वाजिब बनाए रखने का ध्यान जरूर रखें, ताकि बाजार में दिग्गजों के बीच ठहरा जा सके व ग्राहकों के दिलों में आसानी से जगह बनाई जा सके. पहले छोटे पैमाने पर काम शुरू कर के बाद में उसे बढ़ाया जा सकता है.

मेरठ में अचार, चटनी व मुरब्बे जैसे करीब 50 उत्पाद बना रहे गृहउद्योग तृप्ति फूड्स की शुरुआत में नीबू का सिर्फ 12 बोतल स्क्ैवश बना कर बेचा गया था. उस की क्वालिटी व वाजिब कीमत का असर यह हुआ कि खूब मांग बढ़ी व काम बहुत तेजी से बढ़ा. इस उद्यमी का मानना है कि इस काम में ईमानदारी ही तरक्की की बुनियाद है. मसलन, अनानास की चटनी में वे कभी भी कच्चे पपीते व एसेंस की मिलावट नहीं करते.

प्रोसेसिंग के काम में पैकेजिंग की भी बहुत अहमियत होती है. आजकल पैकिंग की दुनिया में बहुत तेजी से बदलाव हुए हैं. मसलन, टीन के डब्बों व कांच की बोतलों जैसी पुरानी पैकिंगों में माल तैयार करने वाले निर्माता अब बहुत कम रह गए हैं. अब पौलीपैक, पाउचपैक, अल्यूमिनियम पैक, प्लास्टिक पैक व टैट्रा पैक ज्यादा दिखाई देते हैं. प्रोसेसिंग का काम शुरू करने से पहले यह तय करना बेहद जरूरी है कि तैयार माल की पैकिंग कैसी होगी? अब हर तरह की पैकिंग की छोटीबड़ी, मैनुअल व आटोमैटिक मशीनें देश में असानी से मिलने लगी हैं. जरूरत हिचक छोड़ कर मन बनाने व आगे आ कर पहल करने की है.

टिकाऊ यानी जैविक खेती (Organic Farming)

आजादी से पहले जैविक खेती ही होती थी और तब देश कि खाद्यान्न में आत्मनिर्भर न होने के कारण विदेशों से अनाज मंगाया जाता था. देश की आजादी के बाद हरितक्रांति की शुरुआत हुई और तब  से लगातार रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से फसल की अच्छी पैदावार इस बात का सुबूत है कि 60 के दशक से पहले जैविक खेती से खाद्यान्न उत्पादन उतना नहीं होता था जितना कि आज रासायनिक खेती से हो रहा है. यदि यह तथ्य सही है तो किसान जैविक खेती क्यों करेगा?

आज खेती निश्चित तौर से किसान के आर्थिक पहलू से जुड़ी है, अत: किसान वही खेती करेगा जिस में उसे अच्छा लाभ मिलेगा. यदि जैविक खेती में रासायनिक खेती के मुकाबले कम खाद्यान्न उत्पादन होता हो और किसान को घाटे की भरपाई नहीं हो पा रही हो तो किसान के लिए जैविक खेती का कोई मतलब ही नहीं रह जाता. लेकिन दूसरी तरफ जमीन की उर्वरता का संरक्षण किए बगैर इसी तरह अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते रहे तो एक दिन यह सब रेगिस्तान में बदल जाएगा.

अगर दोनों पक्ष अपनीअपनी जगह सही हैं तो किसान खेती का चुनाव कर ऊपर लिखे तथ्यों के आधार पर यह समझ लें कि जमीन के स्वास्थ्य की कीमत पर अधिक फसल का लालची प्रयास ज्यादा दिन नहीं टिक सकता है. रासायनिक उर्वरकों से नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की ही पूर्ति होती है. शेष 13 तरह के सूक्ष्म तत्त्वों की आवक नहीं होगी तो भूमि की उर्वरता व संरचना कब तक बनी रहेगी और ऐसी जमीन से पैदा होने वाला खोखला अनाज हमारे स्वास्थ्य पर क्या असर डालेगा?

जैविक खेती (Organic Farming)

पौधों को पोषक तत्त्व उपलब्ध कराने के लिए कृषि विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार उर्वरकों का उपयोग करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन गोबर की खाद का प्रयोग न करने और रासायनिक उर्वरकों पर ही पूरी तरह निर्भर रहने से जमीन की उर्वराशक्ति कमजोर हो जाती है.

दूसरी तरफ कीटनाशकों के जहरीले रसायनों के बुरे नतीजों से सारा विश्व चिंतित है. वैज्ञानिकों के अनुसार कीटनाशकों के इस्तेमाल से मित्र कीट लगातार मर रहे हैं और हानिकारक कीटों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है.

इन रसायनों के खराब नतीजों से साफ है कि रासायनिक खेती टिकाऊ विकल्प नहीं हो सकती. अत: 90 के दशक से ही दुनिया के अनेक देशों ने जैविक खेती की वकालत शुरू कर दी है.

जीवाणु खाद और उस से होने वाले लाभ के बारे में जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि गोबर या कंपोस्ट खाद का कोई चारा नहीं है. गोबर या कंपोस्ट खाद के उपयोग से मिट्टी की उर्वरता और संरचना कायम रखने के लिए समस्त पोषक तत्त्वों की आपूर्ति हो जाती है, जबकि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी में किसी न किसी रूप में पोषक तत्त्वों की कमी रहती ही है. यदि मिट्टी में जरूरी पोषक तत्त्व नहीं होंगे तो हाईब्रिड फसलों को कम उपज के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते हैं. गोबर या कंपोस्ट का उपयोग करते रहने से रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता को काफी कम किया जा सकता है. खेतों में यदि पोषक तत्त्व उचित मात्रा में होंगे तो पौधे एकदम स्वस्थ होंगे तथा स्वस्थ पौधों पर बीमारी का असर भी कम होगा, क्योंकि सामान्यत: कमजोर पौधे ही ज्यादा रोग से पीडि़त होते हैं.

जैविक या कार्बनिक खाद में सभी तरह के पोषक तत्त्व अधिक या कम मात्रा में होते हैं, लेकिन पौधों को ये पोषक तत्त्व धीरेधीरे प्राप्त होते हैं. सामान्यत: खाद में पोषक तत्त्वों की कमी और कार्बनिक पदार्थों की अधिकता होती है. मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के बढ़ने से सूक्ष्म जीवियों की संख्या बढ़ जाती है और सूक्ष्मजीवी मिट्टी में मौजूद जहरीले पदार्थों को खत्म कर के उन्हें बेकार करते हैं और सड़ेगले कार्बनिक पदार्थों को ह्मूमस में बदल देते हैं.

खाद के इस्तेमाल से मिट्टी में हवा का आनाजाना और पानी सोखने की कूवत बढ़ जाती है. इस से मिट्टी में प्रत्यारोधन की कूवत का विकास होता है. खाद का ज्यादा इस्तेमाल करने पर भी मिट्टी या पेड़पौधों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है.

जैविक खेती (Organic Farming)

गोबर की खाद

पशुओं के भोजन का पूरा या आधाअधूरा पचा हुआ भाग, जो पशुओं द्वारा मल के रूप में निकाल दिया जाता है, गोबर कहलाता है. गोबर की खाद में भैंस, गाय, बैल, भेड़, मुरगी, घोड़ा आदि पशुओं के मल को भी शामिल किया जाता है.

गोबर की खाद में मौजूद पोषक तत्त्व पौधों के लिए धीरेधीरे अलग होते हैं, इस कारण खेतों में गोबर की खाद का प्रभाव लंबे समय तक बना रहता  है. यह खाद मिट्टी में विनिमेय कैल्शियम बढ़ाती है, जो उस की भौतिक दशा सुधारने के लिए काफी खास मानी जाती है. खेतों में गोबर की खाद का इस्तेमाल करने पर पानी धीरेधीरे छूटता है, जिस में पौधे लंबे समय तक फायदे में रहते हैं. गोबर की खाद से मिट्टी में सूक्ष्म जीवियों की सक्रियता बढ़ जाती है, जिस से उस में ह्मूमस की मात्रा बढ़ती है और ह्मूमस रेतीली मिट्टी में पानी सोखने की कूवत में सुधार होता है और चिकनी मिट्टी को स्पंजी बनाता है.

फसल अवशेष : जलाए नहीं खाद बना कर बढ़ाएं जमीन की उर्वराशक्ति

हमेशा से देश में फसल के अवशेषों का सही निबटारा करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है. इन का अधिकतर भाग या तो दूसरे कामों में इस्तेमाल किया जाता है या फिर इन्हें नष्ट कर दिया जाता है, जैसे कि गेहूं, गन्ने, आलू व मूली वगैरह की पत्तियां पशुओं को खिलाने में इस्तेमाल की जाती हैं या फिर फेंक दी जाती हैं. कपास, सनई व अरहर आदि के तने, गन्ने की सूखी पत्तियां और धान का पुआल आदि जलाने में इस्तेमाल कर लिया जाता है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में अधिकतर गेहूं व धान की कटाई मशीनों द्वारा की जाती है. पिछले कुछ सालों से एक समस्या देखी जा रही है. जहां हार्वेस्टर द्वारा फसलों की कटाई की जाती है, उन क्षेत्रों में फसल के तनों के अधिकतर भाग खेत में खड़े रह जाते हैं. वहां के किसान खेत में फसल के अवशेषों को जला देते हैं. आमतौर पर रबी सीजन में गेहूं की कटाई के बाद फसल के अवशेषों को जला कर नष्ट कर दिया जाता है.

इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए प्रशासन द्वारा बहुत से जिलों में गेहूं की नरई जलाने पर रोक लगा दी गई है. किसानों को शासन, कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि विभाग व संबंधित संस्थाओं द्वारा यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि किसान अपने खेतों के अवशेषों को जीवांश पदार्थ बढ़ाने में इस्तेमाल करें.

इसी तरह गांवों में पशुओं के गोबर का अधिकतर भाग खाद बनाने के लिए इस्तेमाल न कर के उसे ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि इसी गोबर को यदि गोबर गैस प्लांट में इस्तेमाल किया जाए, तो इस से बहुमूल्य व पोषक तत्त्वों से भरपूर गोबर की स्लरी हासिल होगी, जिसे खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाने में इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही गोबर गैस को घर में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.

योजना को सफल बनाने के लिए सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जाता है, मगर फिर भी नतीजे संतोषजनक नहीं हैं. जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा लगातार कम होने से उत्पादकता या तो घट रही है या स्थिर हो गई है. लिहाजा समय रहते इस पर ध्यान दे कर जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने पर ही कृषि की उत्पादकता बढ़ा पाना मुमकिन हो सकता है. यह देश की बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए बहुत ही जरूरी है. ज्यादातर भारतीय किसान फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.

फसल अवशेषों को जलाने से होने वाले नुकसान

* जब खेत में आग लगाई जाती है, तो खेत की मिट्टी उसी तरह जलती  है जैसे ईंट भट्ठे की ईंट जलती है. खेत का तापमान बढ़ने से उस में पाए जाने वाले लाभकारी जीव जैसे जैविक फर्टिलाइजर राइजोबियम, अजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम, ब्लू ग्रीन एलगी और पीएसबी जीवाणु जल कर नष्ट हो जाते हैं. इस के अलावा लाभदायक जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा, जैविक कीटनाशी विबैरिया बैसियाना, वैसिलस थिरूनजनेसिस और किसानों के मित्र कहे जाने वाले केंचुए आग की लपटों से जल कर नष्ट हो जाते हैं.

* फसल अवशेष जलने से पैदा होने वाले कार्बन से वायु प्रदूषित होती है, जिस का इनसानों व पशुपक्षियों पर बुरा असर पड़ता है.

* कार्बन डाईआक्साइड ज्यादा निकलने से ओजोन परत भी प्रभावित होती है और धरती का तापमान बढ़ जाता है.

ऊपर दी गई तालिका को देख कर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि फसल अवशेषों से कितनी ज्यादा मात्रा में हम मिट्टी के जरूरी पोषक तत्त्वों की पूर्ति कर सकते हैं. विदेशों में जहां अधिकतर मशीनों से खेती की जाती है, वहां पर फसल के अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिला दिया जाता है. वैसे मौजूदा दौर में भारत में भी इस काम के लिए रोटावेटर जैसी मशीन का इस्तेमाल शुरू हो चुका है, जिस से खेत को तैयार करते समय एक बार में ही फसल अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिलाना काफी आसान हो गया है. जिन क्षेत्रों में नमी की कमी हो, वहां पर फसल अवशेषों की कंपोस्ट खाद तैयार कर के खेत में डालनी फायदेमंद होती है.

फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल करने के लिए जरूरी है कि अवशेषों को खेत में जलाने की बजाय उन से कंपोस्ट तैयार कर के खेत में इस्तेमाल करें. उन क्षेत्रों में जहां चारे की कमी नहीं होती, वहां मक्के की कड़वी व धान के पुआल को खेत में ढेर बना कर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढों में कंपोस्ट बना कर इस्तेमाल करना चाहिए.

आलू व मूंगफली जैसी फसलों की खुदाई करने के बाद बचे अवशेषों को खेत में जोत कर मिला देना चाहिए. मूंग व उड़द की फसल में फलियां तोड़ कर अवशेषों को खेत में मिला देना चाहिए.

फसल अवशेष (Crop Remains)

खेतों के अंदर इस्तेमाल

फसल की कटाई के बाद खेत में बचे घासफूंस, पत्तियां व ठूंठों आदि को सड़ाने के लिए 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़क कर कल्टीवेटर या रोटावेटर से काट कर मिट्टी में मिला देना चाहिए. इस प्रकार अवशेष खेत में विघटित होना शुरू कर देंगे और तकरीबन 1 महीने में सड़ कर आगे बोई जाने वाली फसल को पोषक तत्त्व देंगे.

अगर फसल अवशेष खेत में ही पड़े रहे तो नई फसल के पौधे शुरुआत में ही पीले पड़ जाते  हैं, क्योंकि अवशेषों को सड़ाने के लिए जीवाणु जमीन की नाइट्रोजन का इस्तेमाल कर लेते हैं. लिहाजा अवशेषों का सही निबटारा करना बेहद जरूरी है, तभी हम अपनी जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा में इजाफा कर के जमीन को खेती लायक रख सकते हैं और ज्यादा उपज हासिल कर सकते हैं.

गाजर (Carrots) में होने वाली बीमारियां

गाजर जड़ वाली फसल है और यह खरीफ मौसम में उगाई जाने वाली फसल है. गाजर से सब्जी, अचार व अनेक पकवान बनाए जाते है. यह सेहत के लिए काफी लाभकारी है. गाजर की फसल में भी कई तरह की बीमारियों का प्रकोप होता रहता?है, जिन की वजह से किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. यहां ऐसी ही बीमारियों की जानकारी दी जा रही है.

जड़ों की बीमारियां

जड़ों में दरारें पड़ना : गाजर की खेती वाले इलाकों में ये दरारें ज्यादा सिंचाई के बाद अधिक मात्रा में नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का इस्तेमाल करने से पड़ती हैं, लिहाजा इन उर्वरकों का इस्तेमाल सोचसमझ कर करना चाहिए.

जड़ों में खाली निशान पड़ना : जड़ों में घाव की तरह आयताकार धंसे हुए धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जो धीरेधीरे बढ़ने लगते हैं. इसलिए जरूरत से ज्यादा सिंचाई नहीं करनी चाहिए.

अन्य बीमारियां

आर्द्र विगलन रोग : यह रोग पिथियम स्पीसीज नामक फफूंदी से होता है. इस रोग से बीज अंकुरित होते ही पौधे मुरझा जाते हैं. अकसर अंकुर बाहर नहीं निकलता और बीज सड़ जाता है.

तने का निचला हिस्सा जो जमीन की सतह से लगा होता है, सड़ जाता है. पौधे का अचानक सड़ना व गिरना आर्द्र विगलन का पहला लक्षण है. इस रोग की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पहले 3 ग्राम कार्बेंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.

जीवाणुज मृदु विगलन रोग : यह रोग इर्वीनिया कैरोटोवोरा नामक जीवाणु से फैलता है, इस रोग का असर खासकर गूदेदार जड़ों पर होता है. जिस से इस की जड़ें सड़ने लगती हैं. ऐसी जमीन जिस में जल निकासी की सही व्यवस्था नहीं होती या निचले क्षेत्र में बोई गई फसल पर यह रोग ज्यादा लगता है. इस रोग की रोकथाम के लिए खेत के पानी की निकासी की सही व्यवस्था करें. रोग के लक्षण दिखाई देने पर नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का छिड़काव न करें.

कैरेट यलोज : यह एक विषाणुजनित रोग है, जिस के कारण पत्तियों का बीच का हिस्सा चितकबरा हो जाता है और पुरानी पत्तियां पीली पड़ कर मुड़ जाती हैं. जड़ें आकार में छोटी रह जाती हैं और उन का स्वाद कड़वा हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए 0.02 फीसदी मैलाथियान का छिड़काव करना चाहिए, ताकि इस रोग को फैलाने वाले कीडे़ मर जाएं.

सर्कोस्पोरा पर्ण अंगमारी : इस रोग के लक्षण पत्तियों, तनों व फूल वाले भागों पर दिखाई पड़ते हैं. रोगी पत्तियां मुड़ जाती हैं. पत्तियों की सतह व तनों पर बने दागों का आकार अर्धगोलाकार और धूसर, भूरा या काला होता है.

फूल वाले हिस्से बीज बनने से पहले ही सिकुड़ कर बरबाद हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए बीज बोते समय थायरम कवकनाशी का उपचार करें. खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब 25 किलोग्राम, कापर आक्सीक्लोराइड 3 किलोग्राम या क्लोरोथैलोनिल 2 किलोग्राम का 1000 लीटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें.

स्क्लेरोटीनिया विगलन : पत्तियों, तनों और डंठलों पर सूखे धब्बे होते हैं. रोगी पत्तियां पीली हो कर झड़ जाती हैं. कभीकभी पूरा पौधा ही सूख कर बरबाद हो जाता है. फलों पर रोग का लक्षण पहले सूखे दाग के रूप में दिखता है, फिर कवक गूदे में तेजी से बढ़ती है और फल को सड़ा देती है.

इस रोग की रोकथाम के लिए फसल लगाने से पहले ही खेत में थायरम 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाना चाहिए. कार्बेंडाजिम 50 डब्ल्यूपी कवकनाशी की 1 किलोग्राम मात्रा का 1000 लीटर पानी में घोल बनाएं और प्रति हेक्टेयर की दर से 15-20 दिनों के भीतर 3-4 बार छिड़काव करें.

चूर्ण रोग : पौधे के सभी हिस्सों पर सफेद हलके रंग का चूर्ण आ जाता है. चूर्ण के लक्षण आने से पहले ही कैराथेन 50 मिलीलीटर प्रति 100 लीटर पानी या वैटेबल सल्फर 200 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी का छिड़काव 10 से 25 दिनों के अंतर पर लक्षण दिखने से पहले करें.

सूत्रकृमि की रोकथाम : सूत्रकृमि सूक्ष्म कृमि के समान जीव है, जो पतले धागे की तरह होते हैं, जिन्हें सूक्ष्मदर्शी से देखा जा सकता है. इन का शरीर लंबा व बेलनाकार होता है. मादा सूत्रकृमि गोल व नर सांप की तरह होते हैं. इन की लंबाई 0.2 से 10 मिलीमीटर तक हो सकती है. ये खासतौर से मिट्टी या पौधे के ऊतकों में रहते हैं. इन का फसलों पर प्रभाव ज्यादा देखा गया है. ये पौधे की जड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से जड़ों की गांठें फूल जाती हैं और उन की पानी व पोषक तत्त्व लेने की कूवत घट जाती है. इन के असर से पौधे आकार में बौने, पत्तियां पीली हो कर मुरझाने लगती हैं और फसल की पैदावार कम हो जाती है.

रोकथाम : रोकथाम की कई विधियों में से किसी एक विधि से सूत्रकृमियों की पूरी तरह रोकथाम नहीं की जा सकती. इसलिए 2 या 2 से ज्यादा विधियों से सूत्रकृमियों की रोकथाम की जाती है. ये विधियां?हैं :

* गरमियों में गहरी जुताई करनी चाहिए.

* नर्सरी लगाने में पहले बीजों को कार्बोफ्यूरान व फोरेट से उपचारित करना चाहिए.

* फसल लगाने से 20-25 दिनों पहले कार्बनिक खाद को मिट्टी में मिलाना चाहिए.

* रोग प्रतिरोधी जातियों का चयन करें.

* अंत में यदि इन सब से रोकथाम न हो, तब रसायनों का इस्तेमाल करें.

रासायनिक इलाज

कार्बोफ्यूरान व फोरेट 2 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर जमीन में मिलाएं या 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से जरूरत के मुताबिक करें. कुछ दानेदार रसायन जैसे एल्डीकार्ब (टेमिक) को 11 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलाना चाहिए.

खुदाई : गाजर की खुदाई का समय आमतौर पर उस की किस्म पर निर्भर करता है, वैसे जब गाजर की जड़ों के ऊपरी सिरे ढाई से साढे़ 3 सेंटीमीटर व्यास के हो जाएं, तब खुदाई कर लेनी चाहिए.

पैदावार : गाजर की पैदावार कई बातों पर निर्भर करती है, जिन में जमीन की उर्वराशक्ति, उगाई जाने वाली किस्म, बोने की विधि और फसल की देखभाल पर निर्भर करती है, लेकिन बीज उगाने के लिए गाजर के बीजों को घना बोते हैं, ताकि गाजर में 90 से 100 दिन बाद रोपाई के लिए जडें तैयार हो सकें.

तैयार जड़ों को हम खेत से निकाल लेते हैं और पौधों को बढ़ने के लिए छोड़ दिया जाता है, गाजर की उपज में कमी न आए, इस के लिए 30 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हलकी सिंचाई के बाद इस्तेमाल करना ठीक रहता है. आमतौर पर प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल तक औसतन उपज मिल जाती है.

किसानों के मददगार हो सकते हैं  फिश फार्म (Fish Farms )

भारत का मौसम मछलीपालन के लिए बहुत अच्छा है. भारत में सब से अधिक मछली उत्पादन वाले राज्यों में आंध्र प्रदेश, गुजरात, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब शामिल हैं. पूरे देश में करीब डेढ़ करोड़ लोग मछलीपालन से रोजगार हासिल कर रहे हैं.

केंद्र सरकार का कृषि मंत्रालय राज्यों में मछलीपालन विभाग खोल कर इस का प्रचारप्रसार करता है. इस के साथ ही साथ नेशनल फिशरीज डेवलपमेंट बोर्ड भी मछलीपालन को बढ़ावा देता है. ये दोनों ही विभाग किसानों को मछलीपालन से जुड़ी जानकारी देते हैं. सब से पहले किसानों को इन विभागों से संपर्क कर के मछलीपालन उद्योग के बारे में पता करना चाहिए. इन विभागों से किसानों को मछलीपालन की केवल जानकारी ही नहीं मिलती, बल्कि बैंक से लोन पाने के साथ ही साथ तकनीकी मदद भी मिल जाती है. किसान अपने तालाब बना कर उन को ‘फिश फार्म’ की तरह से बना सकते हैं. वे तालाब की मेंड़ पर कई तरह के पेड़ लगा सकते हैं. सरकारी मदद से मछली के अच्छी प्रजाति के बीज भी मिल जाते हैं.

मछलीपालन के लिए  तालाब के लिए जमीन का चुनाव करते समय यह देखें कि जमीन बहुत उबड़खाबड़ न हो.  जलभराव वाला क्षेत्र नहीं होना चाहिए. जलभराव की दशा में बरसात के दिनों में ऐसा पानी वहां जम जाता है, जो मछलियों को नुकसान पहुंचा सकता है. तालाब के आसपास खेत नहींहोने चाहिए. खेत में पैदावार के लिए कई तरह के कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है, जो मछलियों को नुकसान पहुंचा सकते हैं. तालाब का चुनाव मछली की प्रजाति के मुताबिक होना चाहिए. कुछ मछलियां कम पानी में रहती हैं और कुछ गहरे पानी में रहती हैं. बंजर जमीन और खाली पड़ी जमीन में तालाब बनाने का काम किया जा सकता है.

तालाब में मछलियों की सुरक्षा का खास खयाल रखना चाहिए. पहली बार जब मछलीपालन शुरू करें, तो तालाब में बीज डालने के लिए उन का साइज 50 से 100 ग्राम होना चाहिए. तालाब को रोगमुक्त रखने के लिए जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. पहली बार तालाब में पानी भर कर 15 दिनों के लिए छोड़ देना चाहिए. तालाब के पानी और मिट्टी के पीएच को समयसमय पर देखना चाहिए. मछली की प्रजाति अपने लोकल बाजार के हिसाब से लेनी चाहिए. मछलियों को बीमारियों से दूर रखने के लिए तालाब को साफसुथरा और रोगमुक्त रखना चाहिए. मछलियों को खली और दूसरी खाने की चीजें देनी चाहिए. खाद्य पदार्थ को तालाब के कोने में डाल देना चाहिए. इस के अलावा तालाब का पानी समयसमय पर बदलते रहना चाहिए.

करीब 1 साल के बाद मछलियों की बिक्री शुरू होनी चाहिए. तब तक मछलियां 800 ग्राम से डेढ़ किलोग्राम के करीब हो जाती हैं. अगर किसानों में लगन और सही जानकारी है, तो वे अपने तालाब में ही मछली के छोटे बच्चे भी पाल कर उन को बीज की तरह से प्रयोग कर सकते हैं. शुरुआत में किसानों को छोटे स्तर पर इसे शुरू करना चाहिए. फिर धीरेधीरे इसे आगे बढ़ाना चाहिए. तालाब को ‘फिश फार्म’ की तरह से विकसित करना चाहिए. तालाब के पास सब्जियों और पपीते की खेती की जा सकती है. कुछ लकड़ी वाले पेड़ भी लगाए जा सकते हैं. ‘फिश फार्म’ बनाने से किसानों का रिस्क कम हो जाता है और उन की कमाई बढ़ जाती है. मछली खाने वालों की तादाद में लगातार इजाफा होने से यह बिजनेस बढ़ रहा है. खाने के रूप में मछली बहुत फायदेमंद होती है. यह प्रोटीन का सब से अच्छा जरीया होती है. मछली में कोलेस्ट्राल सब से कम होता है. इस के अलावा मछली में मिनरल व विटामिन भी ज्यादा होते हैं. इसे एक हेल्दी फूड माना जाता है.