तीन दिन में सीखें ‘मशरूम उत्पादन तकनीक’

बस्ती : औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती द्वारा बेरोजगार नौजवानों, नवयुवतियों, किसानों और बागबानों को गांव स्तर पर स्वरोजगार सृजन के उद्देश्य से केंद्र के मशरूम अनुभाग द्वारा मशरूम उत्पादन प्रशिक्षण कार्यक्रम ‘मशरूम उत्पादन तकनीक’ विषय पर 3 दिवसीय प्रशिक्षण का आयोजन आगामी महीनों के विभिन्न तिथियों में किया जाना है, जिस में बस्ती, महराजगंज, सिद्धार्थनगर, संतकबीर नगर, देवरिया, कुशीनगर, गोंडा, बलरामपुर, श्रावस्ती, बहराइच, बाराबंकी, अयोध्या, सुल्तानपुर, रायबरेली, प्रयागराज, वाराणसी, मिर्जापुर, सोनभद्र, बलिया, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ, जौनपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, चंदौली, अंबेडकरनगर, गोरखपुर जिलों के लोग प्रतिभाग कर सकते हैं.

औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती के संयुक्त निदेशक, उद्यान, वीरेंद्र सिंह यादव ने बताया कि 3 दिवसीय प्रशिक्षण में भाग लेने के इच्छुक नौजवान, नवयुवती, किसान और बागबान अपने जिले के जिला उद्यान अधिकारी से संपर्क कर प्रशिक्षण के लिए अपना नाम केंद्र को भिजवा सकते हैं.

उन्होंने बताया कि औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती में स्थित मशरूम अनुभाग की मंशा है कि गांव स्तर पर मशरूम के जरीए रोजगार मुहैया कराए जाएं, जिस से कि उन के शहरों की ओर बढ़ रहे पलायन को रोका जा सके.

इसी उद्देश्य के तहत आम लोगों को मशरूम उत्पादन तकनीक का प्रशिक्षण औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती में स्थित मशरूम अनुभाग द्वारा आगामी महीनों की विभिन्न तिथियों में किया जाएगा, क्योंकि यह भूमिहीन व गरीब किसानों की आमदनी का जरीया है, इसे अपना कर वे खुद का रोजगार कर सकते हैं.

संयुक्त निदेशक, उद्यान, वीरेंद्र सिंह यादव ने बताया कि प्रशिक्षण के दौरान मशरूम की खेती से ले कर कंपोस्ट बनाने, प्रोसैसिंग और मशरूम के विभिन्न उत्पादों को बना कर आमदनी बढ़ाने के सभी पहलुओं पर जानकारी दी जाएगी.

मशरूम अनुभाग प्रभारी विवेक वर्मा ने जानकारी देते हुए बताया कि साल 2024-25 में केंद्र के मशरूम अनुभाग द्वारा मशरूम उत्पादन प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन 2024 में 19 नवंबर से 21 नवंबर, 17 दिसंबर से 19 दिसंबर प्रस्तावित है, जबकि 2025 में 7 जनवरी से 9 जनवरी व 20 फरवरी से 22 फरवरी में प्रस्तावित है.

उन्होंने यह भी बताया कि दूरदराज के प्रशिक्षणार्थियों के लिए कृषक छात्रावास में एकसाथ 50 किसानों के ठहरने की निःशुल्क व्यवस्था है, पर भोजन एवं जलपान की व्यवस्था प्रशिक्षणार्थियों को खुद ही करनी होती है. प्रत्येक प्रशिक्षण सत्र के लिए प्रति प्रशिक्षणार्थी 50 रुपए पंजीकरण शुल्क जमा करना होगा.

फसल अवशेष जलाया तो होगा जुर्माना

संत कबीर नगर : जिलाधिकारी महेंद्र सिंह तंवर के निर्देश के क्रम में अपर जिलाधिकारी जयप्रकाश की अध्यक्षता में पराली प्रबंधन/फसल अवशेष को खेतो में न जलाए जाने से संबंधित समीक्षा बैठक कलेक्ट्रेट सभागार में आयोजित हुई. इस अवसर पर मुख्य विकास अधिकारी जयकेश त्रिपाठी, अपर पुलिस अधीक्षक सुशील कुमार सिंह उपस्थित रहे.

उपनिदेशक, कृषि, डा. राकेश कुमार सिंह द्वारा बताया गया कि सर्वोच्च न्यायालय एवं राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा पराली एवं फसल अवशेष जलाए जाने पर रोक लगाई हुई है, जिस से कि प्रदूषण का रोकथाम की जा सके. जिले में धान की कटाई शुरू हो चुकी है, जिस में तहसील स्तरीय पर सचल दस्ते के द्वारा निगरानी की जाएगी एवं राजस्व व कृषि विभाग के क्षेत्रीय कार्मिकों के द्वारा पराली जलाए जाने की रोकथाम की जाएगी.

उन्होंने बताया कि यदि कोई किसान 2 एकड़ से कम भूमि पर पराली जलाता है, तो 2,500 रुपए, 2 से 5 एकड़ पर 5,000 एवं 5 एकड़ से अधिक भूमि पर 15,000 रुपए पर्यावरण क्षतिपूर्ति वसूल की जाएगी. इसी प्रकार यदि कोई कंबाइन हार्वेस्टर बिना एक्स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम एवं पराली संकलन यंत्र के चलते हुए पाया जाएगा, तो ऐक्ट के अंतर्गत उसे सीज किए जाने की कार्रवाई की जाएगी.

उपनिदेशक, कृषि, डा. राकेश कुमार सिंह ने बताया कि जनपद में अब तक अनुदान पर वितरित 125 फार्म मशीनरी बैंक व कस्टम हायरिंग सैंटर एवं 164 पराली प्रबंधन के यंत्र के माध्यम से धान की पराली का प्रबंध किया जाएगा, जिस में उन्हें बारीक टुकड़ों में काट कर खेत में मिलाने से ले कर खेत से पराली को इकट्ठा कर गौशाला व सीबीजी प्लांट तक पहुंच जाने के निर्देश दिए गए. गत वर्ष कुल 32 पराली जलाए जाने की घटनाओं की पुष्टि हुई थी, जिस में 80,000 रुपए जुर्माने के रूप में वसूले थे.

अपर जिलाधिकारी ने उपकृषि निदेशक सहित समस्त संबंधित अधिकारियों व कर्मचारियों को निर्देशित किया है कि खेतों में फसल अवशेष को न जलाने हेतु जागरूक करें और फसल अवशेष को खेतों में जलाने से होने वाली हानियों को भी बताएं और इस का प्रचारप्रसार कराते रहें.

बैठक में उपजिलाधिकारी सदर शैलेश कुमार दूबे, उपजिलाधिकारी धनघटा रमेश चंद्र, उपजिलाधिकारी मेंहदावल उत्कर्ष श्रीवास्तव, समस्त तहसीलदार, जिला कृषि अधिकारी डा. सर्वेश कुमार यादव सहित संबंधित अधिकारी आदि उपस्थित रहे.

पशुओं के लिए महामारी निधि (Pandemic Fund) परियोजना

नई दिल्ली : पशुपालन और डेयरी विभाग (डीएएचडी) की पशुधन पर अधिकार प्राप्त समिति (ईसीएएच) की 8वीं बैठक 28 अक्टूबर, 2024 को विज्ञान भवन में भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार प्रो. अजय कुमार सूद की अध्यक्षता और डीएएचडी की सचिव अलका उपाध्याय की उपाध्यक्षता में आयोजित की गई.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ), भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर), जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) आदि के प्रतिनिधि बैठक में भारत के पशुधन स्वास्थ्य क्षेत्र में प्रगति पर चर्चा करने के लिए सदस्य के रूप में उपस्थित थे.

बैठक के दौरान विभाग ने पशु औषधियों, टीकों, जैविक पदार्थों और फीड एडिटिव्स के क्षेत्र में निर्धारित प्रक्रिया से अब तक किए गए प्रयासों और उपलब्धियों पर प्रकाश डाला. विभाग ने पशुओं की बीमारियों जैसे खुरपकामुंहपका रोग (एफएमडी), ब्रुसेलोसिस, पेस्ट डेस पेटिट्स रूमिनेंट्स (पीपीआर) और क्लासिकल स्वाइन फीवर (सीएसएफ) के लिए चल रहे विभिन्न टीकाकरण कार्यक्रमों में हुई महत्वपूर्ण प्रगति की भी जानकारी दी.

इसे पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण कार्यक्रम (एलएचडीसीपी) के तहत 100 फीसदी केंद्रीय वित्त पोषण मिल रहा है. ये सभी टीके स्वदेशी रूप से विकसित और देश में बनाए गए हैं, जो पशुधन स्वास्थ्य में आत्मनिर्भरता और वैश्विक सहयोग के लिए भारत की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करते हैं. इस के अलावा प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार को राष्ट्रीय डिजिटल पशुधन मिशन (एनडीएलएम) पर हुई प्रगति के बारे में भी जानकारी दी गई, जिस का उद्देश्य देश में टीकाकरण, प्रजनन और उपचार सहित सभी पशुधन और पशुपालन गतिविधियों को डिजिटल रूप से पहचानना और पंजीकृत करना है. डिजिटल प्लेटफार्म पर वर्तमान में हर सेकंड 16 से अधिक लेनदेन हो रहे हैं, जो कार्यक्रम की व्यापक पहुंच और दक्षता को दर्शाता है.

‘वन हेल्थ मिशन’ के तहत विभाग जल्द ही रोग प्रबंधन के लिए परिचालन तत्परता में सुधार करने के लिए पशु रोग प्रतिक्रिया पर केंद्रित एक मौक ड्रिल आयोजित करेगा. प्रो. अजय कुमार सूद ने हाल ही में मानक पशु चिकित्सा उपचार दिशानिर्देश (एसवीटीजी) और पशु रोगों के लिए संकट प्रबंधन योजना (सीएमपी) के साथसाथ 25 डालर मिलियन जी-20 महामारी निधि परियोजना के शुभारंभ की भी सराहना की. महामारी निधि परियोजना का उद्देश्य प्रयोगशाला क्षमताओं को मजबूत करना, रोग निगरानी को बढ़ाना और देश में पशु स्वास्थ्य प्रणालियों में लचीलापन बढ़ाने के लिए मानव संसाधन को मजबूत करना है.

ईसीएएच ने हाल ही में जारी पोल्ट्री रोग कार्ययोजना पर भी विचारविमर्श किया, जिस में जैव सुरक्षा उपायों, निगरानी बढ़ाने और टीकाकरण प्रोटोकाल के माध्यम से सक्रिय रोग प्रबंधन पर जोर दिया गया है, जिस से भारत में पोल्ट्री क्षेत्र और जनस्वास्थ्य दोनों की सुरक्षा हो सके.

केरल में पिछले दिनों हाईपैथोजेनिक एवियन इन्फ्लूएंजा (एचपीएआई) के प्रकोप के मद्देनजर विभाग ने बीमारी को नियंत्रित करने के लिए एक व्यापक रणनीति विकसित की है, ताकि जनस्वास्थ्य खतरों को रोका जा सके. बैठक के दौरान बताया गया कि रोगग्रस्त मुरगेमुरगियों को चिकित्सा निर्देशों के अनुसार मारने के लिए मुआवजे की दरों को संशोधित किया गया है और सितंबर के महीने के दौरान विभाग द्वारा सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इस संबंध में जानकारी दे दी गई है.

बैठक में यह भी रेखांकित किया गया कि विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूओएएच) ने हाल ही में आईसीएआर-एनआईवीईडीआई, बैंगलुरू को पीपीआर और लेप्टोस्पायरोसिस के लिए भारत में डब्ल्यूओएएच संदर्भ प्रयोगशालाओं के रूप में मान्यता दी है. इस से पहले आईसीएआर-एनआईएसएडी, भोपाल (एवियन इन्फ्लूएंजा के लिए) और केवीएसएसयू, बैंगलुरू (रेबीज के लिए) को पहले ही यह मान्यता दी जा चुकी है, जो पशुधन स्वास्थ्य को बढ़ाने के लिए डीएएचडी की निरंतर प्रतिबद्धता को दर्शाता है.

पशु स्वास्थ्य पर अधिकार प्राप्त समिति
साल 2021 में स्थापित, ईसीएएच-डीएएचडी के थिंक टैंक के रूप में काम करता है, जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों, उभरते रोग खतरों, वन हेल्थ प्रयासों और पशु चिकित्सा टीकों, दवाओं और जैविक क्षेत्र के लिए नियामक ढांचे पर साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण और नीति संबंधी सिफारिशें प्रदान करता है.

किसान महिलाओं को मिलेंगे ड्रोन

नई दिल्ली : सरकार ने डीएवाई-एनआरएलएम के तहत महिला स्वयंसहायता समूहों (एसएचजी) को ड्रोन उपलब्ध कराने के लिए 1261 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ केंद्रीय क्षेत्र की योजना ‘नमो ड्रोन दीदी’ को मंजूरी दी है. इस योजना का लक्ष्य साल 2024-25 से 2025-26 की अवधि के दौरान 14,500 चयनित महिला एसएचजी को कृषि में तरल उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग जैसे उद्देश्यों के लिए ड्रोन उपलब्ध कराना है, जो किसानों को किराए पर ये सेवाएं प्रदान करेंगी.

कृषि एवं किसान कल्याण विभाग ने इस योजना के परिचालन संबंधी दिशानिर्देश जारी किए हैं और सभी हितधारकों से अनुरोध किया गया है कि वे ‘नमो ड्रोन दीदी’ योजना के शीघ्र क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए इन परिचालन दिशानिर्देशों का पालन करें.

यह हैं दिशानिर्देश
योजना, केंद्रीय स्तर पर कृषि एवं किसान कल्याण विभाग, ग्रामीण विकास विभाग, उर्वरक विभाग, नागरिक उड्डयन मंत्रालय और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सचिवों की अधिकार प्राप्त समिति के निर्देशों के तहत होगी.

ग्रामीण विकास विभाग के अपर सचिव की अध्यक्षता वाली कार्यान्वयन एवं निगरानी समिति, योजना की प्रभावी योजना, कार्यान्वयन एवं निगरानी करेगी और योजना के कार्यान्वयन से संबंधित सभी तकनीकी मामलों में समग्र सलाह एवं मार्गदर्शन प्रदान करेगी. इस में सभी हितधारकों का प्रतिनिधित्व होगा.

इस योजना के तहत ड्रोन व सहायक उपकरण और सहायक शुल्क की लागत का 80 फीसदी, केंद्रीय वित्तीय सहायता के रूप में अधिकतम 8 लाख रुपए तक की राशि महिला स्वयंसहायता समूहों को पैकेज के रूप में ड्रोन की खरीद के लिए प्रदान की जाएगी.

स्वयंसहायता समूहों और स्वयंसहायता समूहों के क्लस्टर स्तरीय संघ खरीद की कुल लागत में से सब्सिडी घटा कर तय राशि (सीएलएफ) राष्ट्रीय कृषि अवसंरचना वित्त पोषण सुविधा (एआईएफ) के अंतर्गत ऋण ले सकते हैं. सीएलएफ/एसएचजी को एआईएफ ऋण पर 3 फीसदी की दर से ब्याज सहायता प्रदान की जाएगी.

सीएलएफ/एसएचजी के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय के अन्य स्रोतों/कार्यक्रमों/योजनाओं से ऋण प्राप्त करने का विकल्प भी होगा.

इस योजना के तहत न केवल ड्रोन, बल्कि पैकेज के रूप में ड्रोन की आपूर्ति की जाएगी. पैकेज में तरल उर्वरकों और कीटनाशकों के छिड़काव के लिए स्प्रे तंत्र के साथ बेसिक ड्रोन, ड्रोन को रखने का डब्बा, मानक बैटरी सेट, नीचे की ओर फोकस कैमरा, दोहरे चैनल वाला फास्ट बैटरी चार्जर, बैटरी चार्जर हब, एनीमोमीटर, पीएच मीटर और सभी वस्तुओं पर एक साल की औनसाइट वारंटी शामिल होगी.

पैकेज में 4 अतिरिक्त बैटरी सेट, एक अतिरिक्त प्रोपेलर सेट (प्रत्येक सेट में 6 प्रोपेलर होते हैं), नोजल सेट, डुअल चैनल फास्ट बैटरी चार्जर, बैटरी चार्जर हब, ड्रोन पायलट और ड्रोन सहायक के लिए 15 दिन का प्रशिक्षण, एक साल का व्यापक बीमा, 2 साल का सालाना रखरखाव अनुबंध और लागू जीएसटी भी शामिल है. बैटरी के अतिरिक्त सेट से ड्रोन की निरंतर उड़ान सुनिश्चित होगी, एक दिन में ये ड्रोन आसानी से 20 एकड़ की दूरी तय कर सकता है.

महिला स्वयंसहायता समूहों के सदस्यों में से एक को 15 दिन के प्रशिक्षण के लिए चुना जाएगा. अनिवार्य ड्रोन पायलट प्रशिक्षण और पोषक तत्व व कीटनाशक अनुप्रयोग के कृषि उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त प्रशिक्षण शामिल है. बिजली के सामान की मरम्मत, फिटिंग और यांत्रिक कार्यों में रुचि रखने वाले स्वयंसहायता समूह के अन्य सदस्यों को ड्रोन सहायक के रूप में प्रशिक्षित किया जाएगा. ड्रोन निर्माता परिचालन दिशानिर्देशों में बताए गए प्रशिक्षण कार्यक्रम के अनुसार ड्रोन की आपूर्ति के साथसाथ ये प्रशिक्षण एक पैकेज के रूप में प्रदान करेंगे.

राज्यों के लिए जिम्मेदार प्रमुख उर्वरक कंपनियां (एलएफसी) राज्य स्तर पर योजना का कार्यान्वयन करेंगी और वे राज्य विभागों, ड्रोन निर्माताओं, स्वयंसहायता समूहों/स्वयंसहायता समूहों के क्लस्टर स्तरीय संघों और किसानों व लाभार्थियों के साथ आवश्यक समन्वय स्थापित करेंगी. एलएफसी द्वारा ड्रोन, निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से खरीदे जाएंगे और ड्रोन का स्वामित्व स्वयंसहायता समूहों या स्वयंसहायता समूहों के सीएलएफ के पास रखा जाएगा.

योजना की सफलता, कृषि सेवाएं प्रदान करने के लिए ड्रोन की मांग वाले क्षेत्र/क्लस्टर और एसएचजी समूह के उचित चयन पर निर्भर करता है. कृषि में ड्रोन का उपयोग अभी शुरुआती चरण में है, इसलिए राज्य इन गतिविधियों की बारीकी से निगरानी करेंगे और महिला एसएचजी को सहायता प्रदान करेंगे. साथ ही, उन्हें एक वर्ष में कम से कम 2000 से 2500 एकड़ क्षेत्र को कवर करने के लिए व्यवसाय शुरू करने में मदद करेंगे. कृषि के राज्य विभागों और डीएवाई-एनआरएलएम के राज्य मिशन निदेशकों के बीच मजबूत तालमेल होगा और वे राज्य स्तरीय समिति की मदद से जमीनी स्तर पर सफल कार्यान्वयन के लिए योजना चलाएंगे.

योजना की प्रभावी निगरानी आईटी आधारित प्रबंधन सूचना प्रणाली (एमआईएस) यानी ड्रोन पोर्टल के माध्यम से की जाएगी, जो सेवा वितरण और निगरानी, धन प्रवाह और धन के वितरण के लिए एंड-टू-एंड सौफ्टवेयर के रूप में काम करेगा. पोर्टल प्रत्येक ड्रोन के संचालन को भी ट्रैक करेगा और ड्रोन के उपयोग पर लाइव जानकारी प्रदान करेगा.

ऐसा माना जा रहा है कि इस योजना के तहत पहलों से स्वयंसहायता समूहों को स्थायी व्यवसाय और आजीविका मिलेगी और वे अपने लिए अतिरिक्त आय अर्जित करने में सक्षम होंगे. यह योजना किसानों के लाभ के लिए बेहतर दक्षता, फसल की बढ़ी पैदावार और कम संचालन लागत के लिए कृषि में उन्नत प्रौद्योगिकी को शामिल करने में मदद करेगी.

स्वदेशी ट्रांसपोंडर बने मछुआरों के जीवनरक्षक

पालघर : मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय (एमओएफएएच एंड डी) के अंतर्गत मत्स्यपालन विभाग, प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत पोत संचार और सहायक प्रणाली की सहायता से समुद्र में मछुआरों की सुरक्षा बढ़ाने में सक्षम रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 30 अगस्त, 2024 को महाराष्ट्र के पालघर में शुरू की गई इस परियोजना में 364 करोड़ रुपए का परिव्यय किया गया है. ये ट्रांसपोंडर सुविधा मछुआरों को नि:शुल्क दी जा रही है.

मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय की स्वदेशी ट्रांसपोंडर तकनीकयुक्त पोत संचार और सहायक प्रणाली पहल का चक्रवात दाना के दौरान मछुआरों को सुरक्षित रखने में उल्लेखनीय योगदान रहा. इस प्रणाली का उद्देश्य मछली पकड़ने के दौरान समुद्र में मछुआरों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है. इस से पहले मोबाइल कवरेज रेंज से बाहर उन के लिए दोतरफा संचार संभव नहीं था.

सरकार की सभी 13 तटीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एक लाख मछली पकड़ने की नौकाओं में स्वदेशी तकनीक से विकसित ट्रांसपोंडर लगाने की योजना है. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकसित इस तकनीक को अंतरिक्ष विभाग (डीओएस) के तहत इसरो की वाणिज्यिक शाखा न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड (एनएसआईएल) के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है.

ओडिशा इन ट्रांसपोंडरों को लगाने में सक्रिय रहा है और राज्य में 1000 से अधिक ट्रांसपोंडर लगाए गए हैं. ओडिशा के मछुआरों के लिए यह तकनीक जीवनरेखा सिद्ध हुई है और हाल ही में ओडिशा के तट और बंगाल की खाड़ी के आसपास के क्षेत्रों में आए चक्रवाती तूफान के दौरान यह उन के लिए काफी लाभदायक रहा.

चक्रवाती तूफान दाना जब ओडिशा के पास पहुंच रहा था, तब ओडिशा के राज्य राहत आयुक्त ने मौसम विभाग के दोपहर के बुलेटिन के आधार पर 20 अक्तूबर, 2024 को तूफान संबंधी चेतावनी जारी की. पोत संचार और सहायक प्रणाली की सहायता से वास्तविक समय के आधार पर मछुआरों को तूफान आने की चेतावनी और सलाह जारी की गई. इस से समुद्र में मछुआरों की जान बचाने में मदद के साथ ही उन के संसाधनों की क्षति रोकने में भी सहायता मिली.

इन ट्रांसपोंडरों द्वारा अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र, अहमदाबाद के माध्यम से मछुआरों को 21 अक्तूबर से 26 अक्तूबर, 2024 तक समुद्र में न जाने की सलाह दी गई. समुद्र में मछली पकड़ रहे मछुआरों को भी तुरंत किनारे पर लौटने को कहा गया.

समय पर दी गई इस महत्वपूर्ण चेतावनी से मछुआरों को चक्रवाती तूफान से पहले ही इस का सामना करने के लिए आवश्यक सावधानी बरतने का मौका मिला. भेजे गए संदेशों में कहा गया कि समुद्र में मौजूद मछुआरों को तुरंत तट पर लौटने की सलाह दी जाती है और उन्हें 21 अक्तूबर से 26 अक्तूबर, 2024 के दौरान ओडिशा तट और उस से सटे उत्तरी बंगाल की खाड़ी के समुद्र में न जाने के लिए आगाह किया जाता है.

यह संदेश अंग्रेजी और ओडिया दोनों भाषाओँ में भेजे गए, ताकि सभी मछुआरे स्थिति की गंभीरता को समझ सकें.

अधिकारी नौकाओं और जहाजों से संपर्क करने के लिए परंपरागत तौर पर बहुत ही उच्च आवृत्ति वाले रेडियो और फोन का इस्तेमाल करते थे और यह मछुआरों पर निर्भर था कि वे अपनी नौकाओं की सटीक जानकारी दें.

इस प्रणाली की कई चुनौतियां थीं. दूर समुद्र में मशीन से चलने वाली नौकाओं का पता लगाना अकसर कठिन होता था. कुछ मछुआरे और नाविक नौकाओं और जहाजों की संख्या और स्थान के बारे में सटीक जानकारी देने में असमर्थ होते थे. सटीक जानकारी के अभाव में प्रभावी संचार बाधित होने से समुद्र में मछुआरों की सुरक्षा को गंभीर जोखिम रहता था.

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के उपग्रहों का इस्तेमाल कर पोत संचार और सहायक प्रणाली से अधिकारी 20 अक्तूबर, 2024 की शाम समुद्र में सभी नौकाओं और जहाजों को सामूहिक संदेश भेज सके. समय पर दी गई सूचना ही परिवर्तनकारी साबित हुई, जिस से त्वरित प्रतिक्रिया द्वारा नौकाओं और जहाजों को 21 अक्तूबर, 2024 की सुबह तक तट पर लौटाया जा सका. सामूहिक संदेश केवल सूचना भर नहीं था, बल्कि यह जीवनरेखा साबित हुई, जिस ने समुद्र में जाने वाले मछुआरों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सकी.

चक्रवाती तूफान दाना के दौरान ट्रांसपोंडर और नभमित्र एप्लिकेशन के उपयोग से नौकाओं और जहाजों की स्थिति की प्रभावी ट्रैकिंग और उन की गति पर निगरानी रख कर उन्हें सुरक्षित रखा जा सका. इस एप्लिकेशन से अधिकारियों को तट पर प्रत्येक जहाज के आने के समय का अनुमान लगाने में मदद मिली, जिस से चक्रवात से पहले ही मछुआरों की सुरक्षित वापसी हो सकी.

नभमित्र एप्लिकेशन ट्रैकिंग की व्यापक सुविधा प्रदान करता है, जिस में नौकाओं की संख्या और ट्रांसपोंडर आईडी इत्यादि की जरूरी जानकारी मिलती है. एप्लिकेशन द्वारा नौकाओं के स्थान, दिशा और गति की वास्तविक समय में जानकारी से अधिकारी प्रत्येक नौकाओं और जहाजों की गतिविधियों की सटीकता से निगरानी रख सकें.

इस के अतिरिक्त यह एप चक्रवात की जानकारी देने में सक्षमता से काम करता है और अक्षांश और देशांतर निर्देशांकों द्वारा चक्रवात के नाम, श्रेणी और विशिष्ट स्थान का विवरण प्रदान करता है. इन आंकड़ों में चक्रवात की तिथि और समय, सतह पर हवा की अधिकतम गति और जिस तिथि को यह जानकारी प्राप्त की गई थी, उस का विवरण था.

इस महत्वपूर्ण जानकारी की सुलभता से, मछुआरे बदलती परिस्थिति के अनुरूप मौसम का सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार हो सके. चक्रवात से संबंधित आंकड़ों के अलावा नभमित्र एप से समुद्र की स्थिति, हवा की गति और दिशा, और दृश्यता सहित महत्वपूर्ण मौसम अपडेट भी मिले.

समुद्री पर्यावरण की यह समग्र जानकारी मछुआरों के लिए काफी महत्वपूर्ण रही, जिस से वे अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक कदम उठा सके. इन उपायों से अधिकारी मछुआरों को चक्रवात से उत्पन्न खतरों के बारे में अलर्ट जारी कर समुद्र से उन की प्रभावी ढंग से वापसी करने में सक्षम रहे.

नौकाओं और जहाजों को वास्तविक समय में ट्रैक करने की क्षमता, संकट प्रबंधन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है. अधिकारी इन की मदद से पारादीप से लगभग 126 नौकाओं की निगरानी कर सके, जो उस समय समुद्र में थे. इस से चक्रवाती तूफान दाना के आने से पहले ही 22 अक्तूबर, 2024 तक सभी नौकाओं की तट पर सुरक्षित वापसी सुनिश्चित हो गई. बेहतर ट्रैकिंग क्षमता से अधिकारी नौकाओं और जहाजों की स्थिति के बारे में अवगत रहे, जिस से उन्हें किसी आपात स्थिति से निबटने में मदद मिली.

इस के अलावा वेसल कम्युनिकेशन एंड सपोर्ट सिस्टम की संचार क्षमताएं स्थानीय भाषाओं में आपातकालीन संदेशों को प्रसारित करने में सहायक रही. इस सुविधा ने स्पष्टता और तात्कालिकता सुनिश्चित की, जिस से मछुआरों को बिना देरी किए सुरक्षित लौटने के महत्व को समझने में मदद मिली.

बहुभाषी समर्थन ने सिस्टम की प्रभावशीलता को बढ़ाया, क्योंकि कई मछुआरे अंगरेजी या हिंदी में धाराप्रवाह नहीं हो सकते हैं. स्थानीय बोलियों का उपयोग कर के, अधिकारी आवश्यक जानकारी को अधिक प्रभावी ढंग से संप्रेषित कर सके, जिस से राहत उपाय समय रहते पूरे हो सके.

तूफान आपदा के दौरान समाधान समन्वय पोत संचार और सहायक प्रणाली के माध्यम से ही संभव था. इस प्रणाली से सक्रिय सहायता सक्षमता से दी जा सकी और इस से मत्स्य विभाग, तटरक्षक और स्थानीय अधिकारियों सहित विभिन्न हितधारकों के बीच सहयोग भी सुविधाजनक तरीके से हो सका. आपात स्थितियों के दौरान अंतरएजेंसी सहयोग का यह स्तर महत्वपूर्ण है और सुनिश्चित करता है कि संसाधनों का प्रभावी ढंग से प्रबंधन किया जाए तो राहत और सहायता तेजी से दी जा सकती है.

चक्रवाती तूफान दाना के दौरान पोत संचार और सहायक प्रणाली का सफल उपयोग संकट प्रबंधन और आपदा तैयारियों में उल्लेखनीय साबित हुआ है. यह दर्शाता है कि प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में तटीय समुदायों को अनुकूल स्थिति में ढालने के साथ ही आजीविका की रक्षा के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ कैसे उठाया जा सकता है. इस प्रणाली ने संकट प्रबंधन की स्थिति में प्रभावशाली सुधार को दर्शाते हुए पोत संचार और सहायता प्रणाली की परिवर्तनकारी क्षमता को प्रदर्शित किया है.

चक्रवाती तूफान के दौरान मछुआरों के जीवन की रक्षा करने और भविष्य की समुद्री चुनौतियों के लिए ट्रांसपोंडर प्रौद्योगिकी की क्षमताएं भी इस से सामने आई हैं. वास्तविक समय संचार और निगरानी को सक्षम कर, पोत संचार और सहायक प्रणाली ने समुद्री सुरक्षा में एक नया मानक स्थापित किया है. इस संकट के दौरान प्रणाली की प्रभावशीलता भविष्य के कार्यान्वयन के लिए एक आदर्श साबित हुआ है और बताता है कि सुरक्षा और तैयारियों को बढ़ाने के लिए अन्य क्षेत्रों और स्थितियों में समान तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है.

चक्रवाती तूफान दाना के बचाव प्रबंधन में सीखे गए सबक अमूल्य हैं. यह आवश्यक है कि आपदा प्रबंधन के लिए उन्नत तकनीकों को अपनाया जाए. पोत संचार और सहायक प्रणाली समुद्री सुरक्षा बुनियादी ढांचे में निवेश के महत्व को दर्शाती है. इस तूफान के दौरान समुद्र में मछुआरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में यह प्रणाली काफी महत्वपूर्ण उपाय सिद्ध हुआ है.

वास्तविक समय में ट्रैकिंग, प्रभावी संचार और समन्वित आपातकालीन राहत उपायों की सुविधा प्रदान कर इस प्रणाली से यह पता चला है कि कैसे तकनीक द्वारा प्राकृतिक आपदाओं में समुद्री सुरक्षा बढ़ाई जा सकती है. संकट में इस की सफलता ने आजीविका की सुरक्षा और भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयारी बढ़ाने में उन्नत तकनीकों को एकीकृत करने की प्रभावशीलता को भी प्रमाणित किया है.

भारत के समुद्री सुरक्षा ढांचे को मजबूत करने के क्रम में चक्रवाती तूफान दाना से सीखे गए सबक भविष्य में ऐसे पहल को आगे बढ़ाएंगे, जिस से अंततः मछली पकड़ने वाले समुदाय के लिए सुरक्षित वातावरण बनेगा. स्वदेशी तौर पर डिजाइन और विकसित किए गए पोत संचार और सहायक प्रणाली का प्रभावी उपयोग भविष्य में सुरक्षा की स्थिति के प्रति काफी हद तक आश्वस्त करता है. इस से यह सुनिश्चित हुआ है कि मछुआरों को आपदा की स्थिति की पूर्व जानकारी दी जा सके, जिस से वे अधिक आत्मविश्वास से प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर सकें.

सूरन की खेती और उस के व्यंजन

सूरन एक जड़ वाली फसल है. इस का उपयोग सब्जी के अलावा अनेक तरह के व्यंजन बनाने के लिए भी किया जाता है. सेहत के नजरिए से भी यह काफी लाभकारी है. इस में पर्याप्त मात्रा में कार्बोहाइडे्ट्स, प्रोटीन, फाइबर, विटामिन बी 1, विटामिन बी 6, फोलिक एसिड, बीटा कैरोटीन जैसे पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं. बवासीर के अलावा कई अन्य समस्याओं में भी सूरन का सेवन बहुत फायदेमंद है.

इतना ही नहीं, सूरन के सेवन से जोड़ों का दर्द कम होता है, क्योंकि इस में एंटीइंफ्लेमेशन और दर्द कम करने वाले गुण मौजूद होते हैं. वजन घटाने में सहायक होने के साथसाथ, कब्ज, तनाव को सूरन दूर करता है. इस में बीटा कैरोटीन, एंटीऔक्सीडेंट इम्यूनिटी को मजबूत करने वाले गुण पाए जाते हैं.

प्राकृतिक रूप से उपलब्ध सूरन के घनकंदों में कैल्शियम आक्जेलेट नामक रसायन पाया जाता है, जिस के कारण खाने से गले में खुजली होती है, लेकिन वैज्ञानिकों ने नवीन उन्नतिशील किस्मों को विकसित किया है, जिस में कैल्शियम आक्जेलेट की मात्रा कम पाया जाता है. उन्नत किस्मों में गजेंद्र, कोवुर, संतरागाछी, नरेंद्र अगात आदि प्रमुख हैं.

मार्च से अप्रैल माह रोपण का सही समय है. आधा किलोग्राम से कम वजन का कंद नहीं रोपें, पंक्ति से पंक्ति और पौधे से पौधे की दूरी आधाआधा मीटर रखें. घनकंदों को लगाते समय प्रत्येक गड्ढे में 2-3 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद,18 ग्राम यूरिया, 38 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट एवं 15 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश का प्रयोग करना चाहिए. 32 से 40 क्विंटल कंद की प्रति एकड़ में आवश्यकता होती है. पैदावार 320 से 400 क्विंटल तक प्रति एकड़ की दर से होती है, जो प्रजाति, दूरी एवं लगाने के समय पर निर्भर है. 7-8 माह में खुदाई के लिए फसल तैयार हो जाती है. अंतःफसल के रूप में लोबिया, भिंडी ले सकते हैं. बगीचे में भी इस की खेती कर सकते है.

इस से बनने वाले विभिन्न पौष्टिक खाध्य पदार्थो के बारे में प्रो. सुमन प्रसाद मौर्य, अध्यक्ष, मानव विकास एवं परिवार अध्ययन आचार्य नरेंद्र देव कृषि ए्वं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, अयोध्या ने बताया कि सूरन को छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर और उबाल कर सब्जी या चोखा/भरता बनाया जाता है.

उबले हुए सूरन को चाट मसाला ,नीबू का रस, प्याज और धनिया के साथ मिला कर एक ताजगी भरी चाट बनाई जा सकती है. इसे टिक्की के रूप में भी प्रयोग कर सकते हैं. सूरन को कद्दूकस कर के घी में भून कर दूध, चीनी के साथ मेवा आदि डाल कर स्वादिष्ठ हलवा बनाया जाता है.

सूरन को कद्दूकस कर के बराबर नाप से लहसुन, हरी मिर्च को कूट कर मिलाएं. नमक और खटाई मिला कर धूप में पानी सूखने तक रखें. फिर सरसों का तेल गरम कर कुनकुना होने पर अचार में मिला दें. एक सप्ताह में तैयार होने पर इसे खाने के साथ खाया जा सकता है.

सिंचाई एवं जल प्रबंधन परियोजना की बैठक

उदयपुर : 24 अक्तूबर, 2024. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय के सभागार में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् की अनुसंधान परियोजनाओं की मध्य एवं पश्चिमी क्षेत्र की दोदिवसीय समीक्षा दल बैठक का शुभारंभ हुआ. इस बैठक में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की सिंचाई जल प्रबंधन परियोजना की पांचवर्षीय कार्यों की समीक्षा की गई, जिस में देश के 7 विभिन्न विश्वविद्यालयों एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केंद्र के वैज्ञानिक अपने कार्यों की प्रगति की समीक्षा के लिए प्रतिवेदन प्रस्तुत किया.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक, कुलपति, मप्रकृप्रौविवि, उदयपुर ने अपना संदेश साझा करते हुए बताया कि पंचवर्षीय समीक्षा दल बैठक अनुसंधान कार्यों के मूल्यांकन एवं समीक्षा हेतु एक अतिमहत्वपूर्ण बैठक होती है. इस उच्चस्तरीय समीक्षा दल के सदस्य काफी अनुभवी, पूर्व कुलपति एवं पूर्व निदेशक व अधिष्ठाता स्तर के अधिकारी होते हैं. समीक्षा दल की बैठक में विगत 5 सालों के अनुसंधान कार्यों की समीक्षा की जाती है और आने वाले समय में अनुसंधान कार्य को दिशा प्रदान की जाती है.

उन्होंने कहा कि मेवाड़ की ख्याति महाराणा प्रताप के साथसाथ उच्च कोटि के जल संचयन, संरक्षण एवं प्रबंधन तकनीक से है, जिस का उल्लेख मेवाड़ ऐतिहासिक लेखक चक्रपाणी मिश्रा ने अपने ग्रंथ विश्व वल्लभ में किया है.

कार्यक्रम एवं समीक्षा दल के अध्यक्ष डा. वीएन शारदा, पूर्व निदेशक, भारतीय जल प्रबंधन संस्थान, भुवनेश्वर एवं भूतपूर्व सदस्य एएसआरबी ने सिंचाई जल की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए विभिन्न नदी, नहर एवं जलाशयों के संयुक्त अनुसंधान की महती जरूरत के बारे में बताया. उन्होंने आईडब्ल्यूएम पर एआईसीआरपी के उद्देश्यों को फिर से तैयार करने और कृषि पारिस्थितिकीय क्षेत्रों के आधार पर काम को सिंक्रनाइज करने का सुझाव दिया. सिंचाई जल प्रबंधन के सभी एआईसीआरपी केंद्रों को अपने कृषि पारिस्थितिकीय क्षेत्रों में समस्याओं की पहचान करनी चाहिए और फिर विषयों के आधार पर प्रयोग की योजना बनानी चाहिए. प्रयोगों या परियोजनाओं की योजना बनाते या तैयार करते समय कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्र के संबंधित केंद्र की सिंचाई और जल संसाधनों के दशकवार आधारभूत डेटा की आवश्यकता होगी.

उन्होंने यह भी बताया कि प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता कम हो रही है, इसलिए उपलब्ध पानी का विवेकपूर्ण उपयोग और विभिन्न क्षेत्रों के बीच पानी का वितरण बहुत महत्वपूर्ण है.

डा. अरविन्द वर्मा, अनुसंधान निदेशक ने समीक्षा दल के सदस्यों एवं विभिन्न अनुसंधान केंद्रों से पधारे हुए परियोजना प्रभारियों एवं वैज्ञानिकों का स्वागत करते हुए कहा कि कृषि के लिए जल एक महत्वपूर्ण इनपुट है. इस के राजस्थान के परिपेक्ष में विवेकपूर्ण उपयोग के बारे में विस्तार से बताया. सिंचाई जल प्रबंधन (आईडब्ल्यूएम) परियोजना द्वारा तैयार किया गया वाटर बजट राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया.

अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा ने राजस्थान के परिपेक्ष में परियोजना की उपलब्धता को साझा किया एवं जल प्रबंधन पर किसान उपयोगी सिफारिशों की उपयोगिता एवं फसल जल उपलब्धता पर बताया. साथ ही उन्होंने बताया कि परियोजना के प्रभारी डा. पीके सिंह ने अनुसंधान आलेख को आस्ट्रेलिया में पढ़ा और डा. केके यादव ने आस्ट्रेलिया एवं वियतनाम में अनुसंधान आलेखों को पढ़ा.

परियोजना के वैज्ञानिक डा. मनजीत सिंह को परियोजना के अंतर्गत छाली गांव में एनिकट निर्माण के लिए उपराष्ट्रपति से सेगी अवार्ड प्राप्त हुआ.

डा. एसएन पांडा, सदस्य, क्यूआरटी ने अपने परिचयात्मक भाषण में कहा कि पानी की गुणवत्ता में गिरावट के साथ प्राकृतिक संसाधन तेजी से घट रहे हैं, जो आजकल एक गंभीर चिंता का विषय है. उन्होंने सुझाव दिया कि सतही जल और भूजल संसाधनों से संबंधित समस्याओं को अलगथलग करने के बजाय समग्रता में निबटाया जाना चाहिए.

उन्होंने जल संसाधन प्रबंधन में कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मशीन लर्निंग और सैंसर के अनुप्रयोग पर भी जोर दिया. उन्होंने जोन और क्षेत्र के अनुसार समस्याओं की पहचान करने का भी सुझाव दिया.

डा. पीके सिंह, पूर्व अधिष्ठाता एवं परियोजना प्रभारी, सिंचाई जल प्रबंधन ने बताया कि यहां से विकसित प्लास्टिक लाइनिंग पौंड की अनुशंसा राष्ट्रपति द्वारा की गई और इस को देश के सभी कृषि विज्ञान केंद्रों पर लागू करने की सिफारिश की गई.

इस अवसर पर मध्य एवं पश्चिमी क्षेत्र में संचालित परियोजनाओं के परियोजना समन्वयकों ने अपनी अनुसंधान परियोजनाओं का संक्षिप्त प्रतिवेदन प्रस्तुत किया. कार्यक्रम के दौरान अतिथियों द्वारा भूमि जल एटलस एवं दो तकनीकी बुलैटिन का विमोचन किया गया. डा. केके यादव, विभागाध्यक्ष एवं परियोजना प्रभारी ने पधारे हुए अधिकारियों एवं वैज्ञानिकों का धन्यवाद प्रेषित किया. कार्यक्रम का संचालन डा. एससी मीणा, आचार्य, मृदा विज्ञान विभाग ने किया.

‘एक पेड़ मां के नाम’ वृक्षारोपण : छात्रों ने लिया संकल्प

उदयपुर: 21 अक्तूबर, 2024. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के संघटक राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर के सस्य विज्ञान फार्म एवं महाविद्यालय खेल प्रांगण पर वृक्षारोपण कार्यक्रम ‘एक पेड़ मां के नाम’ की निरंतरता में 200 अशोक के पौधों का रोपण किया गया, जिस में महाविद्यालय के नवआगंतुक बीएससी (कृषि) स्नातक प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों द्वारा यह संकल्प लिया गया कि इस पौधे की अध्यापन अवधि के दौरान पूरे 4 वर्ष तक पौधे के पूरे रखरखाव की जिम्मेदारी निभाएंगे.

इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक द्वारा शुभारंभ करते हुए वृक्षों के महत्व व उपयोगिता पर विस्तृत जानकारी देते हुए पर्यावरण की शुद्धता बनाए रखने में सहयोग पर बल दिया. कार्यक्रम में महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. आरबी दुबे द्वारा विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि इन पौधों के रोपण के साथ ही समयसमय पर निरंतर रखरखाव का पूरा ध्यान रखने की बात दोहराई एवं विद्यार्थियों को बताया कि यह पौधा संबंधित विद्यार्थी की स्नातक डिगरी के लिए अनिवार्य होगा.

कार्यक्रम के समन्यक एवं सहायक निदेशक शारीरिक शिक्षा डा. कपिल देव आमेटा ने बताया कि ये लगाए गए अशोक के पौधे महाविद्यालय प्रांगण की सुंदरता के साक्षी होंगे.

इस अवसर पर ग्रीन पीपल सोसायटी के यासीन पठान, शिवजी गौड़, महाविद्यालय के विभागाध्यक्षों, संकाय सदस्यों, कर्मचारियों एवं वरिष्ठ विद्यार्थियों की उपस्थिति रही. वृक्षारोपण कार्यक्रम के अंत में महाविद्यालय के सहायक अधिष्ठाता छात्र कल्याण डा. एसएस लखावत एवं प्रशासनिक अधिकारी डा. रमेश बाबू द्वारा समस्त सहभागियों का आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया.

one tree in the name of mother

एकवर्षीय कृषि आदान विक्रेता पाठ्यक्रम के 5वें बैच का प्रमाणपत्र वितरित

इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने अपने उद्बोधन में कहा कि यदि कृषि आदान विक्रेता मुख्य बिंदुओं को ध्यान में रख कर काम करें, तो भारत की कृषि नए आयामों को स्थापित करने में अपना अमूल्य योगदान प्रस्तुत करेगी. कृषि आदान विक्रेता को अच्छा प्रेक्षणकर्ता, मार्गदर्शक, प्रतिनिधि, सलाहकार, समन्वयक, दूरदर्शी, प्रशासक एवं योजक होना चाहिए, ताकि वह देश के विकास में अपना अह्म योगदान दे सके.

इस अवसर पर राजस्थान कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. आरबी दुबे ने अपने उद्बोधन में प्रजनक बीज के बारे में बताया और डा. आरएल सोनी, निदेशक प्रसार शिक्षा ने नवीनतम् कृषि प्रौद्योगिकी द्वारा कृषि नवाचार आदि के बारे में अभ्यर्थियों को जानकारी दी.

कार्यक्रम में डा. एमके महला, आचार्य कीट विज्ञान एवं पाठ्यक्रम सह समन्वयक ने बताया कि वर्तमान में एकवर्षीय कृषि आदान विक्रेता पाठ्यक्रम में राजस्थान के 40 अभ्यर्थी भाग ले रहे हैं और अब तक 280 अभ्यर्थी इस पाठ्यक्रम का लाभ ले कर अपना व्यापार सुचारू रूप से चलाते हुए  अपना जीवनयापन कर रहे हैं.

पाठ्यक्रम के समन्वयक एवं विभागाध्यक्ष डा. रमेश बाबू ने पाठ्यक्रम में उपस्थित अभ्यर्थियों को उचित कीटनाशकों के उपयोग के बारे में बताया और उपस्थित संकाय सदस्यों व प्रतिभागियों का आभार व्यक्त किया. कार्यक्रम का संचालन उद्यान विज्ञान विभाग के सहप्राध्यापक एवं सहायक निदेशक शारीरिक शिक्षा डा. कपिल देव आमेटा ने किया.

पराली समस्या ( Stubble Problem) का समाधान सरकार को किसानों के साथ मिल कर करना होगा

हरियाणा सरकार द्वारा किसानों पर पराली जलाने के लिए की जा रही कड़ी कार्रवाई ने देशभर के किसानों में गहरी नाराजगी और चिंता पैदा कर दी है. हाल ही में 13 किसानों की गिरफ्तारी, ‘रैड एंट्री’ जैसे कदम और किसानों की फसल मंडियों में न बेचने देने के आदेशों ने किसानों में आक्रोश भर दिया है.

किसानों की गिरफ्तारी और उन के माल को मंडी में न बेचने देना एक ऐसा कदम है, जो केवल उन की समस्याओं को बढ़ाएगा. हरियाणा सरकार ने पराली जलाने के 653 मामलों में अब तक 368 किसानों की ‘रैड एंट्री’ कर दी है, जिस से ये किसान अगले 2 साल तक अपनी फसल मंडियों में नहीं बेच पाएंगे. इस से न केवल उन की माली हालत कमजोर होगी, बल्कि उन का गुस्सा भी बढ़ेगा. इस तरह की दमनकारी नीतियां केवल किसानों और सरकार के बीच की खाई को बढ़ाने का काम करती हैं.

किसान पहले ही पूर्व की हरियाणा सरकार से नाराज चल रहे थे. राज्य में किसानों की इन‌ गिरफ्तारियों और फसल मंडियों में न बिकने देने जैसे तुगलकी मध्यकालीन फरमान ने इस मुद्दे को और गरमा दिया है. लगता है कि सरकार की नीतिनिर्माताओं ने अपना दिमाग खूंटी पर टांग दिया है, वरना इतनी आसान सी बात ही समझ में नहीं आती कि इस समस्या का समाधान केवल दंडात्मक उपायों से कभी भी नहीं हो सकता. किसानों के सामने कई जमीनी व्यावहारिक समस्याएं हैं, जिन्हें समझे बिना ऐसे कबीलाई न्याय और कठोर नीतियां लागू करना उन के साथ घोर अन्याय है और व्यापक देशहित के भी खिलाफ है.

इस बात से किसी को भी इनकार नहीं है कि पराली जलाना एक गंभीर पर्यावरणीय मुद्दा है, लेकिन इसे केवल किसानों की गलती मानना उचित नहीं है, यह सिक्के का केवल एक पहलू है. इस संवेदनशील मामले में किसानों की मजबूरी को समझना अत्यंत आवश्यक है.

पराली का निबटान एक महंगी और समयसाध्य प्रक्रिया है, जिस में किसान को काफी माली नुकसान उठाना पड़ता है. ट्रैक्टरों और पानी के इस्तेमाल से पराली को मिट्टी में मिलाने का खर्च प्रति एकड़ 5,000 रुपए से अधिक होता है, जो छोटे और मझोले किसानों के लिए एक भारी बोझ है. इस के अलावा फसल के सीजन के बीच में समय की कमी भी उन्हें पराली जलाने के लिए मजबूर कर देती है.

किसानों के सम्मुख चुनौतियां

किसान फसल कटाई के तुरंत बाद अगली फसल के लिए खेत तैयार करने की जल्दी में होते हैं. यदि पराली को सड़ने के लिए खेत में छोड़ा जाता है, तो इस में काफी समय लगता है, और इस देरी से उन्हें दूसरी फसल का नुकसान होता है. “समय से चूका किसान, डाल से चूका बंदर की तरह होता है, जो धरती पर मुंह के बल गिरा नजर आता है.” इस स्थिति में किसानों के पास न तो इतना समय होता है और न ही इतनी आर्थिक क्षमता कि वे पराली के प्रबंधन के लिए जरूरी संसाधनों में निवेश कर सकें.

दुनिया के प्रसिद्ध पर्यावरणविदों और शोधकर्ताओं ने भी इस समस्या की जड़ को समझा है. नार्वे के जलवायु विशेषज्ञ एरिक सोल्हेम का कहना है, “सस्टेनेबल खेती का विकास तभी संभव है, जब किसानों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पर्यावरणीय नीतियां बनाई जाएं. किसान पर्यावरण का दुश्मन नहीं है, वह इस का साथी है.” यह विचार स्पष्ट करता है कि किसानों को दोषी ठहराने के बजाय उन्हें टिकाऊ समाधान प्रदान करना आवश्यक है.

विकल्पों की खोज

यह सही है कि पराली जलाने से पर्यावरण को नुकसान होता है और वायु प्रदूषण बढ़ता है, लेकिन समाधान का रास्ता किसानों को दंडित करने में नहीं है. समस्या के समाधान के लिए सरकार को किसानों के साथ मिल कर विचारविमर्श करना चाहिए. सरकार का यह दायित्व है कि वह किसानों के लिए ऐसे विकल्प तैयार करे, जो व्यवहारिक हो और किसानों के हित में हो. किसानों को तकनीकी सहायता, संसाधन और आर्थिक सहायता प्रदान की जानी चाहिए, ताकि वे पराली जलाने के विकल्पों को अपना सकें.

पंजाब और हरियाणा में पहले से ही कई पायलट प्रोजैक्ट्स चल रहे हैं, जहां पराली से जैविक खाद बनाई जा रही है या उसे ऊर्जा के उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. लेकिन यह समाधान तब तक सफल नहीं होंगे, जब तक किसानों को इस का उपयोग करने के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता और तकनीकी मार्गदर्शन नहीं मिलेगा.

हमारा मानना है कि सरकार को दंडात्मक कार्रवाई से पहले किसानों की समस्याओं को समझ कर उन के लिए व्यवहारिक समाधान निकालने चाहिए. पराली जलाने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना और किसानों को सजा देना उन्हें और अधिक संकट में डाल देगा. देशभर के किसानों में यह संदेश जा रहा है कि सरकार के खिलाफ आंदोलन करने के कारण सरकार किसानों से बदला ले रही है.

वहीं किसानों का यह मानना है कि पराली के पर्यावरणीय मुद्दे पर किसानों को जेल में डालने जैसी कठोर दमनात्मक कार्यवाही करने के पहले महानगरों में दौड़ रहे जहर उगलते करोड़ों वाहन मालिकों और वायुमंडल में विशाक्त धुआं उगलते कारखानों के मालिकों के खिलाफ कार्यवाही कर उन्हें जेल में डालने की हिम्मत दिखाए. देश में कितने ही कारखाने पर्यावरण के नियमों, ग्रीन ट्रिब्यूनल को छकाते हुए धज्जियां उड़ाते हुए नदियों में गंदगी उड़ेल रहे हैं और वायुमंडल में लगातार 24 घंटे जहरीला धुआं भर रहे हैं. आज तक सरकार ने किसी एक भी उद्योगपति को पर्यावरण के मुद्दे पर जेल में नहीं डाला है. चूंकि किसान अकेला है, गरीब है, बेसहारा है, इन में एकजुटता की कमी है और चौधरी चरण सिंह जैसा उस का कोई सक्षम राजनीतिक आका नहीं है, इसीलिए सरकार जब चाहे किसान की गरदन दबोच लेती है और उस पर लट्ठ बजा देती है.

यही सरकारें जीत के आते ही हफ्तेभर के भीतर ही अपने खिलाफ सारे मामलों को राजनीतिक मामले कह कर वापस ले लेती हैं और किसान आंदोलनों में जेल गए किसान साथी आज भी जेलों में सड़ रहे हैं, उन की सुध लेने वाला भी कोई नहीं है. पर इन सारे घटनाक्रमों से किसानों में धीरेधीरे सरकार के ख़िलाफ नफरत और गुस्सा बढ़ता जा रहा है. आगे चल कर यह स्थिति विस्फोटक हो सकती है.

सरकार इस तरह से किसानों को जेल में डालने के पहले ध्यान रखें कि सरकार की जेलों में न तो इतनी जगह है और न ही सरकार के खजाने में इतना पैसा, और न ही सरकार के गोदाम में इतना अनाज है कि वह देश के 16 करोड़ किसान परिवारों, एक परिवार में यदि 5 सदस्य भी हैं तो लगभग 80 करोड़ लोगों को जेल में डाल कर उन्हें बिठा कर खाना खिला सके.

मिलजुल कर होगा समाधान

पराली जलाने की समस्या के समाधान के लिए एक सामूहिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है. पर्यावरण की सुरक्षा और किसानों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए एक संतुलित नीति बनाई जानी चाहिए. सरकार को किसानों के साथ मिल कर एक समाधान ढूंढना चाहिए, जिस में किसानों की आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जाए. अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ भी मानते हैं कि किसी भी पर्यावरणीय नीति की सफलता तभी संभव है, जब उसे सामाजिक और आर्थिक रूप से उचित ढंग से लागू किया जाए.

किसान संगठनों का मानना है कि किसानों के खिलाफ कठोर नीतियां अपनाने के बजाय सरकार को उन के साथ संवाद कर समाधान निकालना चाहिए. किसानों की आर्थिक स्थिति और पर्यावरण की रक्षा दोनों को ध्यान में रखते हुए एक सुदृढ़ और व्यवहारिक नीति बनाई जानी चाहिए. पराली जलाने के विकल्प किसानों को तभी अपनाने चाहिए, जब उन्हें इस के लिए आवश्यक संसाधन और सहायता मिल सके.

सरकार को अपने कठोर रवैए पर पुनर्विचार कर किसान संगठनों और विशेषज्ञों के साथ मिल कर इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए. अगर सरकार पहल करे, तो अखिल भारतीय किसान महासंघ इस मुद्दे पर किसानों और किसान संगठनों से बात कर बीच का रास्ता निकालने की कोशिश कर सकती है. किसानों की समस्याओं को नजरअंदाज करना एक दीर्घकालिक समाधान नहीं है, बल्कि उन के साथ मिल कर काम करने से ही हम एक टिकाऊ और सफल कृषि प्रणाली की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.

‘मशरूम उत्पादन तकनीक’ पर ट्रेनिंग के अवसर का लाभ उठाएं

बस्ती : औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती द्वारा बेरोजगार नौजवानों, युवतियों, किसानों और बागबानों को गांव स्तर पर स्वरोजगार सृजन के उद्देश्य से केंद्र के मशरूम अनुभाग द्वारा मशरूम उत्पादन प्रशिक्षण कार्यक्रम ‘‘मशरूम उत्पादन तकनीक’’ विषय पर 3 दिवसीय प्रशिक्षण का आयोजन आगामी महीनों की विभिन्न तारीखों में किया जाना है, जिस में बस्ती, महराजगंज, सिद्धार्थनगर, संतकबीरनगर, देवरिया, कुशीनगर, गोंडा, बलरामपुर, श्रावस्ती, बहराइच, बाराबंकी, अयोध्या, सुल्तानपुर, रायबरेली, प्रयागराज, वाराणसी, मिर्जापुर, सोनभद्र, बलिया, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ, जौनपुर, प्रतापगढ, कौशांबी, चंदौली, अंबेडकरनगर, गोरखपुर जिलों के लोग प्रतिभाग कर सकते हैं.

औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती के संयुक्त निदेशक, उद्यान, वीरेंद्र सिंह यादव ने बताया कि 3 दिवसीय प्रशिक्षण में भाग लेने के इच्छुक नौजवान, युवती, किसान और बागबान अपने जिले के जिला उद्यान अधिकारी से संपर्क कर प्रशिक्षण के लिए अपना नाम केंद्र को भिजवा सकते हैं.

उन्होंने बताया कि औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती में स्थित मशरूम अनुभाग की मंशा है कि गांव स्तर पर मशरूम के जरीए रोजगार उपलब्ध कराए जाएं, जिस से कि उन के शहरों की ओर बढ रहे पलायन को रोका जा सके.

इसी उद्देश्य के तहत आम लोगों को मशरूम उत्पादन तकनीक का प्रशिक्षण औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती में स्थित मशरूम अनुभाग द्वारा आगामी महीनों के विभिन्न तिथियों में किया जा रहा है, क्योंकि यह भूमिहीन व गरीब किसानों की आमदनी का जरीया है, इसे अपना कर वे स्वरोजगार सृजन कर सकते हैं.

संयुक्त निदेशक, उद्यान, वीरेंद्र सिंह यादव ने बताया कि प्रशिक्षण के दौरान मशरूम की खेती से ले कर कंपोस्ट बनाने, प्रोसैसिंग और मशरूम के विभिन्न उत्पादों का निर्माण कर आमदनी बढ़ाने के सभी पहलुओं पर जानकारी दी जाएगी.

मशरूम अनुभाग प्रभारी विवेक वर्मा ने बताया कि साल 2024-25 में केंद्र के मशरूम अनुभाग द्वारा मशरूम उत्पादन प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन साल 2024 में 19 नवंबर से 21 नवंबर, 17 दिसंबर से 19 दिसंबर प्रस्तावित है, जबकि साल 2025 में 7 जनवरी से 9 जनवरी व 20 फरवरी से 22 फरवरी में प्रस्तावित है.

उन्होंने आगे बताया कि दूरदराज के प्रशिक्षणार्थियों के लिए कृषक छात्रावास में एकसाथ 50 किसानों के ठहरने की निःशुल्क व्यवस्था है, परंतु भोजन/बोर्डिंग एवं जलपान की व्यवस्था प्रशिक्षणार्थियों को स्वयं करनी होती है. प्रत्येक प्रशिक्षण सत्र के लिए प्रति प्रशिक्षणार्थी 50 रुपए पंजीकरण शुल्क जमा करना होगा.