वकालत का पेशा छोड़ जैविक खेती से तरक्की करता किसान

हाल के सालों में किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग कर धरती का खूब दोहन किया है. जमीन से अत्यधिक उत्पादन लेने की होड़ के चलते खेतों की उत्पादन कूवत लगातार घट रही है, क्योंकि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग के चलते मिट्टी में कार्बांश की मात्र बेहद कम हो गई है, वहीं सेहत के नजरिए से भी रासायनिक उर्वरकों से पैदा किए जाने वाले अनाज और फलसब्जियां नुकसानदेह साबित हो रहे हैं.

कई देशों में कीटनाशकों से होने वाले नुकसान को देखते हुए उस पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई है, क्योंकि फसलों में प्रयोग किए जाने वाले कीटनाशकों के चलते कैंसर और कई तरह की जानलेवा बीमारियां भी सामने आई हैं. ऐसे में जरूरत है कि जमीन की उत्पादकता को बचाए रखने और सेहत को ध्यान में रख कर खेतों में जैव उर्वरकों का प्रयोग किया जाए.

इसी चीज को ध्यान में रख कर उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के रहने वाले 65 साल के किसान राममूर्ति मिश्र ने 30 साल पहले हाईकोर्ट की वकालत का पेशा छोड़ कर अपने पुरखों की जमीन पर जैविक खेती का फैसला किया. वे बस्ती जनपद के एकमात्र किसान हैं, जो फसल में अलगअलग सूक्ष्म पोषक तत्त्वों को ध्यान में रख कर खाद और उर्वरक बनाते हैं.

बस्ती शहर से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गौरा गांव के रहने वाले राममूर्ति मिश्र ने एलएलबी तक की पढ़ाई की है, लेकिन उन्होंने नौकरी न कर खेती में ही किस्मत आजमाने की ठानी.

इस के लिए सब से पहले उन्होंने मार्केट को सम?ा तो पाया कि हर व्यक्ति रासायनिक उत्पादों से पैदा किए अनाज और सब्जियां नहीं खाना चाहता है, लेकिन जैविक उत्पादों की अनुपलब्धता लोगों की मजबूरी बन चुकी है.

ऐसे में उन्होंने जैविक खेती से जुड़ी कई जगहों पर जा कर जानकरी प्राप्त की, कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भी शामिल हुए. ऐसे किसानों के यहां भी गए, जो जैविक खेती के जरीए लाभ प्राप्त कर रहे थे.

जब राममूर्ति मिश्र को लग गया कि जैविक खेती को अगर पूरी तैयारी के साथ किया जाए, तो घाटे की संभावना कम होगी.

उन्होंने 30 साल पहले जैविक खेती की शुरुआत कर दी थी. उन्होंने जैविक खेती एक बार शुरू की, तो इस से मिले लाभ ने इन का हौसला दोगुना कर दिया.

घर पर ही तैयार करते हैं खाद और उर्वरक

किसान राममूर्ति मिश्र जगहजगह जा कर सीखे गए जैव उर्वरकों और जैव कीटनाशकों को घर पर ही तैयार करते हैं. वे अलगअलग तरीकों से जैविक खाद तैयार करते हैं.

उन के द्वारा जो जैव उर्वरक तैयार किए गए हैं, उस से उन्हें तमाम तरह के सूक्ष्म पोषक तत्त्व प्राप्त होते हैं, जिस में राख से फास्फोरस, सेंधा नमक से जिंक, मैग्नीज व लोहा गंधक से सल्फर, नीला थोथा से कौपर, सुहागा से बोरोन, सीप और अंडा से कैल्शियम, त्रिफला से लोहा एवं मैग्नीशियम, त्रिकूट से सल्फर और धान की भूसी से सिलिकौन मिलता है.

पहले से तैयार किए गए इन सभी जैव उर्वरकों को वे अलगअलग बोरियों में एकसाथ 20 किलोग्राम की बराबर मात्रा में मिला कर रखते हैं. इस 20 किलोग्राम की मात्रा को प्रति एकड़ की दर से खेत में प्रयोग किया जाता है. इस का प्रयोग जुताई व बोआई से पहले किया जाता है. साथ ही, खड़ी फसल में घोल बना कर स्प्रे करते हैं. इस के लिए 200 लिटर पानी में पहले से एकसाथ मिला कर रखे गए सभी तरह के 4 किलोग्राम जैव उर्वरक को प्रति एकड़ की दर से छिड़का जाता है.

इन जैव उर्वरकों को बनाने के लिए सभी के लिए अलगअलग एक फुट की चौड़ाई, लंबाई और गहराई में गड्ढे खोद लेते हैं. एकदूसरे से गड्ढे की दूरी 6 इंच रखी जाती है. जैव उर्वरक बनाने के लिए पहले से ही सेंधा नमक, नीला थोथा, चूना, सुहागा, नारियल का छिलका, गंधक, रौक फास्फेट और पत्थर के चूर्ण की खरीदारी कर लेनी उपयुक्त होती है. गड्ढों में इन्हें भरने के पहले इन सब को अच्छी तरह से पीस कर चूर्ण बना लेते हैं, फिर इन सभी चीजों को गाय के गोबर में मिला कर अलगअलग गड्ढों में भर लेते हैं.

गड्ढे में भरने के पूर्व ही इन सभी सामग्रियों को अच्छे से तैयार किया जाता है. इस के लिए सुहागा को गरम कर पूरी तरह फुला लेते हैं, फिर उसे पीस कर गड्ढे में गोबर के साथ भरा जाता है. गंधक को भी पीस कर गोबर में मिलाते हैं. त्रिफला को भी पीस कर 20 किलोग्राम गोबर में मिला कर गड्ढे में भरते हैं.

नारियल के छिलके को जला कर उपयोग में लाया जाता है और उसे पीस कर अलग गड्ढे में डालते हैं. यह ‘चारकोल पाउडर’ कहलाता है. धान के 4 किलोग्राम भूसी को लोहे की कड़ाही में गरम कर पूरा काला कर लेते हैं. औक्सीजन की अनुपस्थिति में गरम करने पर इस से सिलिकौन प्राप्त होता है. इसे ‘सिलिकौन भस्म’ भी कहते हैं. अंडे के चूर्ण से कैल्शियम प्राप्त होता है. इसे ‘कैल्शियम भस्म’ कहते हैं. पत्थर के चूर्ण का भी उपयोग उसी गड्ढे में किया जाता है.

इन सभी को गड्ढों में भरने के बाद उस के ऊपर गाय के गोबर के उपले रख देते हैं और फिर उस के ऊपर मिट्टी से लीप देते हैं. ध्यान रखते हैं कि जो गड्ढे बनाए जा रहे हैं, छाया में हों.

इन गड्ढों में दबाए गए उर्वरक 45 दिनों के बाद ऊपर लोहे की छड़ से छेद कर देते हैं. जब इन को दबाए 90 दिन का समय बीत जाता है, तो गड्ढों से इस तैयार उर्वरक को बाहर निकाल लेते हैं, जिन्हें हम अपनी फसल के उपयोग में ला सकते हैं.

पराली नियंत्रण के लिए वेस्ट डीकंपोजर का उपयोग

जहां देशभर के किसान पराली को ले कर हलकान दिखते हैं, वहीं किसान राममूर्ति मिश्र वेस्ट डी कंपोजर के जरीए पराली को नियंत्रित करते हैं. यह मात्र 20 रुपए की एक सीसी आती है, जिस में गुड़बेसन को एकसाथ मिला कर 500 लिटर पानी का घोल बनाते हैं.

20 दिनों के बाद इस तैयार घोल को अगर पराली या फसल के अवशेष पर छिड़का जाए, तो वह अवशेष पूरी तरह समाप्त हो जाता है. उन के द्वारा तैयार इस वेस्ट डीकंपोजर घोल को आसपास के किसान भी इन के जरीए अपने खेतों में प्रयोग करते हैं.

जैविक खेती (Organic Farming)

खेतों में लहलहा रही है फसल

पिछले 3 सालों में राममूर्ति मिश्र ने जैविक खेती के जरीए कई तरह की व्यावसायिक खेती करने में सफलता पाई है. वे मौसम के अनुसार तमाम तरह की सब्जियों की खेती करते हैं. उन के खेतों में उस समय भी फसल लहलहा रही होती है, जब बाजार में कई तरह की सब्जियों की आवक बहुत कम होती है.

वे कई तरह की सब्जियों की खेती करते हैं, जिस में लौकी, नेनुआ, पालक, सरपुतिया, सोया, टमाटर, करेला, मटर, गाजर, मूली, सहित दर्जनों तरह की फसलें शामिल हैं.

इस के अलावा वे अनाज वाली फसलों में भी खुद के द्वारा तैयार किए गए जैविक उत्पादों का ही प्रयोग करते हैं. इस के जरीए वे कालानमक, अलसी, गेहूं जैसी तमाम फसलें भी उगा रहे हैं.

खेतों से सीधे होती है मार्केटिंग

किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा उगाई गई जैविक फसलों की मार्केटिंग की अगर बात की जाए, तो आढ़ती इन के खेतों से ही मंडी मूल्य से ज्यादा रेट पर खरीद कर ले जाते हैं, जिस के चलते उन्हें मार्केटिंग के लिए किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता है.

‘हजार और्गैनिक फार्म’ के नाम से पौपुलर

किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा शुरू की गई जैविक खेती को उन्होंने ‘हजार और्गैनिक फार्म’ का ब्रांड नाम दे रखा है. ‘हजार’ शब्द में उन के पुरखों का नाम छिपा है. इस मसले पर उन का कहना है कि जिन पुरखों की जमीन ने मुझे रोजगार दिया है, उन को सम्मान देने का इस से बढि़या तरीका और कुछ हो ही नहीं सकता है.

किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा की जा रही जैविक खेती से मिली सफलता के मुद्दे पर कृषि विशेषज्ञ डा. प्रेम शंकर का कहना है कि जैविक खेती से भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि हो जाती है, साथ ही साथ सिंचाई के अंतराल में भी वृद्धि होती है.

उन का यह भी कहना है कि जैविक उर्वरकों के उपयोग से रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से लागत में कमी आती है और फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है.

जैविक खेती से मिट्टी को होने वाले लाभ के सवाल पर किसान राममूर्ति मिश्र का कहना है कि अगर मिट्टी की दृष्टि से देखें, तो जैविक खाद के उपयोग से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है और भूमि की जलधारण की क्षमता बढती है. भूमि से पानी का वाष्पीकरण भी कम होता है.

जैविक खेती की विधि रासायनिक खेती की विधि की तुलना में बराबर या अधिक उत्पादन देती है अर्थात जैविक खेती मिट्टी की उर्वरता एवं किसानों की उत्पादकता बढ़ाने में पूरी तरह सहायक है.

जैविक विधि द्वारा खेती करने से उत्पादन की लागत तो कम होती ही है, साथ ही किसानों को अधिक आय प्राप्त होती है और अंतर्राष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं. नतीजतन, सामान्य उत्पादन की अपेक्षा किसान अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं.

रोटावेटर (Rotavator) से जुताई

आजकल खेती में नएनए यंत्र आ रहे हैं. रोटावेटर ट्रैक्टर से चलने वाला जुताई का एक खास यंत्र है, जो दूसरे यंत्रों की 4-5 जुताई के बराबर अपनी एक ही जुताई से खेत को भुरभरा बना कर खेती योग्य बना देता है.

रोटावेटर का फ्रेम लोहे के एंगल से बना होता है, जिस में इस के अन्य भाग जुड़े रहते हैं. यह एंगल संचालन के समय भागों को पकड़ कर रखता है और इस का दूसरा महत्त्वपूर्ण भाग रोटावेटर गैंग होता है.

रोटावेटर गैंग बहुत अच्छी गुणवत्ता वाले इस्पात के बने होते हैं, जो फ्रेम में जुड़े रहते हैं. इन का संचालन मूविंग मेकैनिज्म द्वारा होता है और यही मिट्टी को काट कर भुरभुरा बनाते हैं, जिन के द्वारा जुताई का काम अच्छी तरह पूरा होता है.

इस का तीसरा महत्त्वपूर्ण भाग होता है यूनिवर्सल ज्वाइंट. यह रोटावेटर के अगले भाग में लगा होता है. इस को ट्रैक्टर के पीटीओ शाफ्ट से जोड़ा जाता है, जो मूविंग मेकैनिज्म को घुमाता है और रोटावेटर जुताई करना शुरू कर देता है.

इस का चौथा भाग मूविंग मेकैनिज्म होता है, जो ट्रैक्टर द्वारा दिए गए चक्कर के द्वारा मूविंग मेकैनिज्म रोटावेटर गैंग को चलाता है. इस से मिट्टी कटती है और जुताई का काम पूरा होता है.

रोटावेटर (Rotavator)

ट्रैक्टर के थ्री प्वाइंट लिंकेज को इस के थ्री प्वाइंट लिंकेज से जोड़ दिया जाता है. इस के बाद रोटावेटर के यूनिवर्सल ज्वाइंट को ट्रैक्टर के पीटीओ शाफ्ट से जोड़ देते हैं. इस के बाद पीटीओ शाफ्ट और ट्रैक्टर को खेत में एकसाथ चलाना शुरू करते हैं, जिस से रोटावेटर गैंग मूविंग मेकैनिज्म के द्वारा घूमने लगता है और मिट्टी कटकट कर भुरभुरी होने लगती है, जिस से जुताई का काम पूरा होता है.

देखभाल

रोटावेटर धातु से बना हुआ यंत्र होता है, इसलिए इस की देखभाल भी अच्छी तरह करना जरूरी होता है. इस के लिए रोटावेटर से जुताई करने से पहले इस मशीन को तैयार कर लेना चाहिए. तैयार करने के लिए इस के मूविंग मेकैनिज्म और रोटावेटर गैंग के ध्रुवों के पास बालबेयरिंग में ग्रीसिंग व औयलिंग कर लेना जरूरी होता है और जुताई का काम पूरा होने के बाद यंत्र को रखने से पहले अच्छी तरह मिट्टी और खरपतवारों को साफ कर लेना चािहए और किसी छायादार जगह पर सुरक्षित रखना चाहिए.

फायदे

रोटावेटर से जुताई करने पर मिट्टी बहुत छोटेछोटे टुकड़ों में बंट जाती है और पूरा खेत बहुत अच्छी तरह भुरभुरा हो जाता है व खेत में उगे खरपतवार और फसल अवशेष छोटेछोटे टुकड़ों में बंट कर जमीन में दब जाते हैं, जो सड़ कर मिट्टी में जीवांश पदार्थ में बदल जाते हैं.

रोटावेटर से जुताई करने पर दूसरे यंत्रों की  5 जुताई इस के केवल एक ही बार की जुताई में पूरी हो जाती है. इसलिए डीजल की खपत कम होती है और समय की भी बचत होती है.

खेती में भरपूर काम फिर भी महिला किसान होने का नहीं सम्मान

सदियों से खेतीकिसानी के काम को पुरुषों का ही काम माना जाता रहा है, जबकि खेतों में काम करते हुए लोगों को अगर देखें, तो उस में सब से ज्यादा तादाद महिलाओं की ही होती है. खरीफ सीजन में खेतों में काम करने वाले किसानों की तादाद में और भी इजाफा हो जाता है, क्योंकि खरीफ सीजन में धान रोपाई से ले कर कटाई, हार्वेस्टिंग और भंडारण तक में महिलाएं ही भूमिका निभाती हैं. फिर भी घर की इन महिलाओं को किसान होने का दर्जा इसलिए नहीं मिल पाता है, क्योंकि जमीन का मालिकाना हक घर के पुरुष सदस्य के पास ही होता है.

हम किसानों के लिए संबोधन किए जाने वाले सरकारी या गैरसरकारी लैवल पर भाषाई स्तर पर नजर डालें, तो किसान के रूप में अन्नदाताओं के लिए सिर्फ ‘किसान भाई’ शब्द का इस्तेमाल किया जाता है, जबकि खेती में अहम भूमिका निभाने वाली महिलाओं को आज तक ‘किसान बहनों’ के नाम से संबोधित करते नहीं देखा गया. महिला किसानों के लिए यह असमानता मीडिया लैवल पर भी दिखाई देता रहा है.

खेती के करती हैं सभी काम, फिर भी नहीं मिलता दाम

महिलाएं घरपरिवार की देखभाल के साथसाथ पशुपालन, दूध निकालना, रोपाई, निराई, गुड़ाई, हार्वेस्टिंग और भंडारण तक का काम संभालती हैं, लेकिन जब कृषि उपज को बेचने की बात आती है, तो उस का निर्णय किसान कहलाने वाला घर का पुरुष सदस्य लेता है और उपज को बेच कर की हुई कमाई को भी अपने पास ही रखता है.

महिला किसानों के हक पर काम करने वाली माधुरी का कहना है कि जब महिलाएं दिनभर धान के पानी से भरे खेत में खड़ी हो कर पुरुषों की तरह ही निंदाईगुड़ाई कर सकती हैं, तो फिर मंडी में उसी फसल को बेचने के लिए उन्हें जाने क्यों नहीं दिया जाता बीज खरीदने, फसल बेचने, उस फसल से प्राप्त रकम के उपयोग में उस की भूमिका कहां चली जाती है, जबकि वह घर में सब से पहले उठने और सब से बाद में सोने वाली इकाई होती है?

किसान आंदोलन में खेती का पूरा काम महिलाओं के हवाले

देश के किसान जब खेतीबारी के मसलों पर नीति बनाने को ले कर दिल्ली और दिल्ली से सटे बौर्डर पर आंदोलन कर रहे थे, तो खेती से जुड़े 100 फीसदी कामों की जिम्मेदारियों को घर की महिलाओं ने ही संभाला था, लेकिन इस आंदोलन में चर्चा केवल पुरुष किसानों की ही हुई, जबकि अगर घर की महिलाएं खेती से जुड़े काम न संभालतीं तो खेती तो बरबाद ही होती. साथ ही, धरने पर बैठने वाले किसानों को आंदोलन में जीत भी नहीं मिलती.

महिलाओं ने इस दौरान न केवल खेती के काम बखूबी संभाले, बल्कि घर के बड़ेबुजुर्गों की देखभाल से ले कर बच्चों को स्कूल जाने के लिए तैयार करना, खाना पकाने जैसे काम को भी अंजाम दिया. किसान आंदोलन के दौरान हजारों की तादाद में महिला किसान भी धरने पर नजर आईं.

महिला किसानों के हक पर काम करने वाली माधुरी का कहना है कि पुरुषों के नाम खेती की जमीन होने मात्र से हम किसान होने का मानक तय नहीं कर सकते हैं, बल्कि हमें खेती में 80 फीसदी तक योगदान देने वाली घर की महिलाओं को भी ‘महिला किसान’ के रूप में सम्मान देना सीखना होगा.

महिला किसानों ने बढ़ाया महिलाओं का हौसला

बिहार में ‘किसान चाची’ के नाम से जानी जाने वाली एक महिला किसान हम सभी के लिए बड़ा उदाहरण हैं. उन्होंने कई जिलों में मीलों दूर साइकिल चला कर किसानी के प्रति गांव की महिलाओं में अलख जगाई.

उन्होंने देखा कि किसानों के पास खेती के लिए कम जमीनें थीं. घरपरिवार का गुजारा मुश्किल से होता था, परिवार की स्थिति ठीक नहीं थी. ऐसे में किसान चाची ने पुरुषों को शहरों में जा कर नौकरी करने और महिलाओं को खेती करने का रामबाण नुसखा दिया.

महिलाओं ने उन ‘चाची’ की सलाह मानी. नतीजा यह निकला कि उन के घरों में महिलापुरुष दोनों कमाने के लिए सशक्त हुए. बिहार में किसान चाची के प्रयास से आज कई जिलों की महिलाएं खेती के काम करती हैं. महिलाओं में खेती के प्रति जगाए सशक्तीकरण को देखते हुए 2 साल पहले भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’ सम्मान से भी नवाजा.

महिला किसान (Woman Farmer)

ये सारे काम महिला किसानों के हवाले

हाल ही में ‘फार्म एन फूड’ पत्रिका द्वारा ‘फार्म एन फूड किसान सम्मान’ का आयोजन किया था, जिस में भारी तादाद में महिलाओं ने विभिन्न कैटीगिरियों में आवेदन किए थे. इस में खेतीकिसानी से जुड़े ऐसे काम भी रहे, जिस पर यह माना जाता है कि इन कामों को करने की कूवत केवल पुरुष किसानों में ही है. यह काम खेतीकिसानी से जुड़े बड़े कृषि यंत्रों के चलाने से जुड़ा है, जिसे महिला किसान बड़ी ही आसानी से संचालित कर रही हैं.

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के कोठडी बहलोलपुर गांव की रहने वाली बेहद कम उम्र की शुभावरी चौहान न सिर्फ एक सफल किसान हैं, बल्कि वे अपने पिता के साथ मिल कर ट्रैक्टर से खेतों की जुताई भी करती हैं और कालेज जाने के लिए मोटरसाइकिल का इस्तेमाल करती हैं.

वर्तमान में शुभावरी चौहान अपने गांव से तकरीबन 45 किलोमीटर दूर सहारनपुर में ‘मुन्ना लाल गर्ल्स डिगरी कालेज’ में अपने बीए फाइनल ईयर की पढ़ाई कर रही हैं. उन का सालाना टर्नओवर 25 लाख रुपए है और वे 25-30 लोगों को रोजगार प्रदान करती हैं.

इसी तरह गांव कोटी अठूरवाला, जिला देहरादून, उत्तराखंड की रहने वाली पशुपालक पुष्पा नेगी पशुपालन के क्षेत्र में नवीनतम तकनीक अपना कर स्थानीय किसानों को भी जागरूक करती हैं.

पशुपालक पुष्पा नेगी के द्वारा साल 2016 से गोपालन किया जा रहा है. इस समय उन के पास लगभग 30 गाय हैं, जिन में होल्सटीन फ्रीजियन और साहीवाल दोनों नस्ल की गाय शामिल हैं.

पुष्पा नेगी गाय के दूध से घी, छाछ, मक्खन आदि बना कर बाजार में अच्छे दामों पर बेचती हैं और प्रकृति संरक्षण को ध्यान में रखते हुए उन के यहां गाय के गोबर से दीया, दीपक, मूर्ति, समरानी कप, गौ काष्ठ एवं वर्मी कंपोस्ट आदि चीजें तैयार की जाती हैं. इस काम में उन्होंने अनेक लोगों को जोड़ रखा है, जिस से उन्हें भी रोजगार मिल रहा है.

गोंडा जनपद की रहने वाली साधना सिंह साल 2012 से कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं. इस समय वे कृषि आधारित कई व्यवसाय भी कर रही हैं. उन्होंने 2 भैंसों के साथ पशुपालन का काम शुरू किया था और इस समय उन के पास 35 दुधारू भैंसें हैं. उन के दूध से पारंपरिक बिलोना विधि से भैंस का देशी घी तैयार किया जाता है, जो ‘अवध गोल्ड’ के नाम से बिकता है.

साधना सिंह के पास 2 पोल्ट्री फार्म हैं, जिस से उन्हें सालाना 7 से 8 लाख रुपए का मुनाफा होता है. इस के अलावा वे मछलीपालन व्यवसाय से भी जुड़ी हैं, जिस से उन्हें सालाना 10 लाख का लाभ प्राप्त होता है.

साधना सिंह का कहना है कि हम पंगास मछली का उत्पादन करते हैं. यह हाईडैंसिटी में उत्पादन होने वाली मछली है, जिस से ज्यादा मुनाफा होता है. मछलीपालन में फायदा होते देख कई महिला किसानों ने मछलीपालन शुरू किया है, जिस से गांव में अनेक महिला किसान मछलीपालन से फायदा उठा रही हैं. इस के अलावा वे 40 एकड़ में गन्ने की खेती और 20 एकड़ में धान की खेती करती हैं. 2 एकड़ में वे जैविक खेती से धान और गेहूं उत्पादन करती हैं.

बस्ती जिले के बिहराखास गांव की रहने वाली पुष्पा गौतम कृषि उत्पादों जैसे मल्टीग्रेन आटा, चावल, चना, अचारमुरब्बा आदि की प्रोसैसिंग कर बाजार से कई गुना अधिक मुनाफा कमाने के साथसाथ अनेक लोगों को ट्रेनिंग व रोजगार भी दे रही हैं.

महिला किसानों को मिलेगी सही पहचान

महिला किसान अधिकारों पर काम करने वाली और एक सफल किसान माधुरी का कहना है कि खेतीकिसानी से जुड़ी ट्रेनिंग और अन्य क्षमतावर्धन गतिविधियों में महिला किसानों को कम तवज्जुह दी जाती है. अगर सरकारी और गैरसरकारी लैवल पर आयोजित होने वाले इन कार्यक्रमों में महिला किसानों की भागीदारी बढ़ाई जाए, तो उन्हें असल पहचान मिल पाएगी.

वे कहती हैं कि परंपरागत रूप से महिलाओं को खेती में निराई, बोआई, रोपाई और कटाई जैसे काम सौंपे जाते थे. उत्पाद बेचना घर के पुरुष सदस्य का अधिकार होता था. वे पशुपालन जैसी सहायक गतिविधियों की देखभाल में भी शामिल थे. लेकिन अब यह सब बदल रहा है.

आज सरकार से इतर देश की कई गैरसरकारी संस्थाएं गांव की महिलाओं को कृषि व्यवसाय मौडल पर शिक्षित कर के उन की प्रबंधन क्षमताओं को निखार रही हैं और नई आजीविकाओं में प्रशिक्षित कर रही हैं, जिस में खेती के अलावा ग्रेडिंग, सौर्टिंग, तौल, भंडारण, लोडिंग, अनलोडिंग, चालान और समन्वय रसद को प्रसंस्करण मिलों तक उत्पाद भेजने पर महिलाओं की क्षमता बढ़ाई जा रही है.

माधुरी बताती हैं कि एक अनुमान के मुताबिक भारत में तकरीबन 10 करोड़ महिलाएं खेती से जुड़ी हैं. लेकिन इन्हें महिला किसान न मान कर खेतिहर मजदूर माना जाता है.

वे कहती हैं कि छोटे और मझोले किसान घरों की तकरीबन 75 फीसदी महिलाएं खेती के कामों से तो जुड़ी हैं, किंतु आमतौर पर उन्हें उन के कामों का श्रेय नहीं दिया जाता है, न ही उन के हाथों में सीधी मजदूरी पहुंचती है और कई बार वे खेती से जुड़ी निर्णय प्रक्रिया से बाहर रहती हैं. वे खेती और परिवार से जुड़ी अपनी जिम्मेदारी एकसाथ निभाती हैं. लेकिन इन सब के बावजूद उन के योगदान का मूल्यांकन कहीं नहीं होता है.

बढ़ाया महिला किसानों के नाम खेती का रकबा

खेती की जमीन के मालिकाना हक के मामले में पुरुषों का दबदबा रहा है, लेकिन जब से ‘पीएम किसान सम्मान निधि’ योजना की शुरुआत हुई है, तब से घर के पुरुषों ने साल में मिलने वाले 6,000 रुपए के लालच में अपने घर की महिलाओं के नाम जमीन ट्रांसफर करना शुरू कर दिया.

अगर हम ‘पीएम किसान सम्मान निधि’ योजना के आंकड़ों पर गौर करें, तो 12.13 करोड़ पंजीकृत किसानों में 25 फीसदी हिस्सेदारी महिलाओं की है. पीएम किसान सम्मान निधि पोर्टल पर पंजीकृत महिला किसानों का यह आंकड़ा बहुत कम था, जो इस योजना के आने के बाद बढ़ा है.

इस के अलावा उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने जमीन नामांतरण प्रक्रिया में बड़ी सहूलियत दी है. इस के तहत उत्तर प्रदेश में अब कोई भी व्यक्ति 5,000 रुपए का स्टांप शुल्क दे कर अपने परिजनों के नाम जमीन का बैनामा कर सकता है. इस स्कीम के चलते उत्तर प्रदेश में महिलाओं के नाम खेती योग्य जमीन के रकबे में बढ़ोतरी दर्ज की गई है.

महिला किसान (Woman Farmer)खेतीबारी से जुड़े आंकड़ों में भी महिलाएं

‘पीएम किसान’ पोर्टल पर महिला किसानों के जो आंकड़े प्रदर्शित हैं, भारत की जनगणना 2011 से बेहद कम है, क्योंकि साल 2011 की जनगणना के हिसाब से देश में तकरीबन 6 करोड़ महिला किसान हैं, वहीं आवधिक श्रमबल सर्वे 2018-19 का डेटा बताता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 71.1 फीसदी महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम करती हैं.

माधुरी कहती हैं कि 73.2 फीसदी ग्रामीण महिला श्रमिक किसान हैं, लेकिन उन के पास 12.8 फीसदी जमीन स्वामित्व है. महाराष्ट्र में 88.46 फीसदी ग्रामीण महिलाएं कृषि में लगी हैं, जो देश में सब से ज्यादा है.

साल 2015 की कृषि जनगणना के अनुसार, पश्चिमी महाराष्ट्र के नासिक जिले में महिलाओं के पास केवल 15.6 फीसदी कृषि भूमि का स्वामित्व है यानी कुल खेती वाले क्षेत्र में 14 फीसदी की हिस्सेदारी है.

वे बताती हैं कि संयुक्त राष्ट्र की साल 2013 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जबरन बेदखली या गरीबी के खतरे को कम कर के, प्रत्यक्ष और सुरक्षित भूमि अधिकार महिलाओं की घर में सौदेबाजी की शक्ति को बढ़ाते हैं और उन की सार्वजनिक भागीदारी के स्तर में सुधार करते हैं.

माधुरी के अनुसार, महिलाओं को ‘महिला किसान’ के रूप में बनाई गई नीतियां नाकाफी हैं, इसलिए सरकार को इन नीतियों की समीक्षा कर उस में जरूरी सुधार कर के उस की सख्ती से पालन सुनिश्चित कराने की जरूरत है.

कचरे के पहाड़ों पर खेती : कमाई की तकनीक

वर्तमान में कचरा एक गंभीर वैश्विक समस्या बन कर उभरा है. भारत की बात करें, तो साल 2023 में पर्यावरण की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिदिन तकरीबन डेढ़ करोड़ टन ठोस कचरा पैदा हो रहा है, जिस में से केवल एकतिहाई से भी कम कचरे का ठीक से निष्पादन हो पाता है. बचे कचरे को खुली जगहों पर ढेर लगाते हैं, जिसे कचरे की लैंडफिलिंग कहते हैं.

हमारे देश में कचरे की लैंडफिलिंग कचरा निष्पादन का प्रमुख तरीका है, जो बिलकुल अवैज्ञानिक है. देश में हजारों लैंडफिल जगहें हैं, जहां हजारों टन ठोस कचरा जमा है, जिस में दिल्ली की गाजीपुर, ओखला, भलस्वा, मुंबई की मुलुंड, देवनार, नागपुर की भांडेवाड़ी, अहमदाबाद की पिराना और बैंगलुरु की मंदूर लैंडफिल साइट्स ऐसी डंपिंग साइट्स हैं, जहां कचरे के बड़ेबड़े पहाड़ बन चुके हैं.

एक अनुमान के मुताबिक, देशभर में मौजूद कचरे के पहाड़ों के नीचे तकरीबन 15,000 एकड़ जमीन दबी हुई है, जिस पर तकरीबन 16 करोड़ टन कचरा जमा है. देश में बढ़ते कचरे के पहाड़ पानी, हवा एवं मिट्टी को दूषित कर पर्यावरण एवं सेहत के लिए गंभीर खतरा बने हुए हैं.

कचरे के पहाड़ों को खत्म करने के लिए सरकार ने ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत 10 साल में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए, लेकिन आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के अनुसार महज 15 फीसदी ही कचरे के पहाड़ों को साफ एवं 35 फीसदी कचरे को निष्पादित किया जा सका है.

अगर इस गति और इतने खर्च से कचरे के पहाड़ों के निष्पादन का काम होगा, तो शायद ये कचरे के पहाड़ कभी भी खत्म नहीं हो पाएंगे. अगर कचरे के पहाड़ खत्म हो भी जाते हैं, तो उन को खत्म करने में जो खर्चा आएगा, वह शायद कचरे के पहाड़ों से होने वाले नुकसान से भी ज्यादा होगा, इसलिए मौजूदा कचरे के पहाड़ों को साफ करने की व्यवस्था के साथसाथ कचरे के पहाड़ों पर खेती करने की कार्ययोजना बनाई जाए, क्योंकि देश में मौजूद ज्यादातर कचरे के पहाड़ों में 50 फीसदी से अधिक जैव कचरा है, इसलिए कचरे के पहाड़ों पर खेती संभव हो सकती है.

कचरा खेती

कचरा खेती तकनीक पर्यावरण हितैषी, आर्थिक रूप से सस्ती और सामाजिक रूप से स्वीकार्य तकनीकी है. इस तकनीक में कचरे के पहाड़ों पर खेती करते हैं, जिस में सजावटी पौधों, फूलों, औषधीय पौधों और हरी खाद की खेती के साथसाथ बड़े पेड़पौधों और ?ाडि़यों को भी उगाते हैं.

कचरा खेती में अनाज, दलहन एवं तिलहन की फसलें, फल एवं सब्जियों की खेती नहीं करते हैं, क्योंकि कचरे के पहाड़ों में जहरीला कचरा भी मौजूद होता है जैसे भारी धातुएं और जैव रासायनिक प्रक्रिया से बहुत से जहरीले कैमिकल पैदा होते हैं, जो उगाए गए पौधों में चिपक जाते हैं.

यदि इन पौधों के किसी भी भाग का इस्तेमाल पशुओं या इनसानों द्वारा किया जाता है, तो ये जहरीले तत्त्व पौधों के माध्यम से इनसानों एवं पशुओं के शरीर में जा कर गंभीर सेहत संबंधी समस्याएं पैदा कर सकते हैं.

कचरे के पहाड़ों पर खेती करने के लिए सब से पहले कचरे के पहाड़ों को सीढ़ीनुमा खेत में बदलते हैं, जिस में सीढ़ी का ढाल अंदर की ओर रखते हैं. इस से कचरे के पहाड़ से निकलने वाला जहरीला तरल पदार्थ बह कर पहाड़ के बाहर न जाए.

इस के बाद सीढ़ीनुमा कचरे के खेत में न सड़ने वाला कचरा जैसे पौलीथिन, प्लास्टिक और धातु के कचरे को तकरीबन 30 सैंटीमीटर गहराई की परत से छांट कर निकाल देते हैं और बचे कचरे को महीन कर लेते हैं. इस के बाद खेत की उपजाऊ मिट्टी में जरूरत के मुताबिक गोबर या केंचुए या कंपोस्ट खाद और उर्वरकों को मिला कर सीढ़ीनुमा कचरे के खेत में अच्छी तरह मिला देते हैं.

यदि नमी न हो, तो पानी का छिड़काव कर कचरे को नम कर देते हैं. इस के बाद सीढ़ीनुमा खेत में नर्सरी में तैयार पौधों का रोपण करते हैं.

ध्यान रहे कि कचरा खेती में बीजों को सीधे खेत में नहीं बोते, क्योंकि कचरे में बीजों का जमाव ठीक से नहीं हो पाता है, इसलिए पौधों को नर्सरी में तैयार कर रोपण करते हैं. लेकिन जिन पौधों या फसलों की नर्सरी तैयार करना कठिन होता है, ऐसी फसलों के बीजों की बोआई करते हैं, जैसे हरी खाद की फसलें ढैंचा, सनई आदि.

कचरे के सीढ़ीनुमा खेतों में पेड़पौधों को लगाने के लिए चिह्नित जगहों पर एक मीटर लंबाई, चौड़ाई और गहराई के गड्ढे खोद कर उन का कचरा बाहर निकाल देते हैं और फिर उन में मिट्टी और सड़ी गोबर की खाद के तैयार मिश्रण को भर कर पौधों को रोप देते हैं.

पौधों का रोपण बारिश के मौसम में करते हैं, जिस से पौधों को पानी देने की जरूरत न पड़े और पौधों की बढ़वार भी अच्छी हो सके. पौधों की अच्छी बढ़वार एवं विकास के लिए जरूरत के मुताबिक ड्रोन, स्प्रिंकलर या ड्रिप विधि से सिंचाई करते हैं. साथ ही, कीट, रोग एवं खरपतवार प्रबंधन का भी काम करते रहते हैं.

Farming on mountainsकचरा खेती के लाभ

* कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से कचरे के दुर्गंध वाले पहाड़ों को बिना खत्म किए हरित क्षेत्र में बदला जा सकता है.

* गरमियों के दिनों में कचरे के पहाड़ों में आग लगने की समस्या का भी समाधान हो जाएगा.

* कचरे के पहाड़ों से निकलने वाली दुर्गंध फूलों की सुगंध में परिवर्तित हो कर आसपास के वातावरण को शुद्ध करेगी.

* कचरे के पहाड़ों से उड़ने वाली धूल पर भी नियंत्रण होगा.

* कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से आसपास का वातावरण स्वच्छ रहेगा, तो पहाड़ों के आसपास की बस्तियों के लोगों में बीमारियों का खतरा भी कम होगा.

* कचरा खेती से कचरे के पहाड़ों के आसपास के लोगों को रोजगार और आय सृजन के अवसर भी उपलब्ध होंगे.

* लंबे समय तक कचरे के पहाड़ों पर खेती करते रहने पर कचरे के पहाड़ धीरेधीरे अपघटित हो कर समतल खेत में बदल जाएंगे, क्योंकि कचरे के पहाड़ों पर खेती करने से पेड़पौधों की जड़ों के माध्यम से वर्षा एवं सिंचाई का पानी पहाड़ के अंदर तक कचरे को गीला रखेगा, जिस से कचरे का अपघटन तेज होगा और पेड़पौधों की जड़ों में उपस्थित असंख्य सूक्ष्म जीव कचरे को सड़ाने में मददगार होंगे.

* पेड़पौधों की जड़ों से निकलने वाले विभिन्न प्रकार के अम्ल कचरे को गलाने एवं सड़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, इसलिए कचरे के पहाड़ धीरेधीरे विघटित एवं अपघटित हो कर जमींदोज हो जाएंगे.

मौजूद कचरे के पहाड़ों को खत्म करने के काम के साथसाथ स्थानीय स्तर पर ही कचरे के निष्पादन की कार्ययोजना पर काम  किया जाए, जिस से भविष्य में नए कचरे के पहाड़ वजूद में न आ सकें.

मसाला तथा औषधिय फसल मैथी (Fenugreek)

दुनिया में मसाला उत्पादन और मसाला निर्यात के हिसाब से भारत का प्रथम स्थान है, इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. मसाले हमारे खाद्य पदार्थों को स्वादिष्ठता तो प्रदान करते ही हैं, साथ ही हम इस से विदेशी पैसा भी कमाते हैं.

मसाले की एक प्रमुख फसल मेथी है. इस की हरी पत्तियों में प्रोटीन, विटामिन सी और भरपूर मात्रा में खनिज तत्त्व पाए जाते हैं. मेथी के बीज मसाले और दवा के रूप में काफी उपयोगी है.

भारत में मेथी की खेती व्यावसायिक स्तर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब राज्यों में की जाती है. भारत मेथी का मुख्य उत्पादक और निर्यातक देश है. इस का उपयोग औषधि के रूप में भी किया जाता है.

भूमि और जलवायु

मेथी को अच्छे जल निकास एवं पर्याप्त जीवांश वाली सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है, परंतु दोमट मिट्टी इस के लिए उत्तम रहती है. यह ठंडे मौसम की फसल है. पाले व लवणीयता को भी यह कुछ स्तर तक सहन कर सकती है.

मेथी की प्रारंभिक वृद्धि के लिए मध्यम आर्द्र जलवायु और कम तापमान उपयुक्त है, परंतु पकने के समय गरम व शुष्क मौसम उपज के लिए लाभप्रद होता है. पुष्प व फल बनते समय अगर आकाश बादलों से घिरा हो, तो फसल पर कीड़ों व बीमारियों के प्रकोप की संभावना बढ़ जाती है.

उन्नत किस्में

आरएमटी 305 : यह एक बहुफलीय किस्म है. इस का औसत बीज भार और कटाई सूचकांक अधिक है. फलियां लंबी और अधिक दानों वाली होती हैं, जिस के दाने सुडौल, चमकीले पीले होते हैं. इस किस्म में छाछ्या रोग के प्रति अधिक प्रतिरोधकता है. इस किस्म के पकने की अवधि 120-130 दिन है. औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरएमटी 1 : समूचे राजस्थान के लिए यह उपयुक्त किस्म है. इस के पौधे अर्ध सीधे एवं मुख्य तना नीचे की ओर गुलाबीपन लिए होता है. बीमारियों एवं कीटों का प्रकोप कम होता है. पकने की अवधि 140-150 दिन है. इस की औसत उपज 14-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

हरी पत्तियों के लिए

पूसा कसूरी : यह छोटे दाने वाली मेथी होती है. इस की खेती हरी पत्तियों के लिए की जाती है. कुल 5-7 हरी पत्तियों की कटाई की जा सकती है. इस की औसत उपज 5-7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

खेत की तैयारी : भारी मिट्टी में खेत की 3-4 और हलकी मिट्टी में 2-3 जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए और खरपतवार को निकाल देना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक : प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन सड़ी गोबर की खाद खेत को तैयार करते समय डालें. इस के अलावा 40 किलोग्राम नाइट्रोजन एवं 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले खेत में ऊपर से दें.

बीज की बोआई एवं मात्रा : इस की बोआई अक्तूबर माह के अंतिम सप्ताह से नवंबर माह के पहले सप्ताह तक की जाती है. बोआई में देरी करने से फसल के पकने की अवस्था के समय तापमान अधिक हो जाता है. इस वजह से फसल शीघ्र पक जाती है और उपज में कमी आती है. पछेती फसल में कीट व बीमारियों का प्रकोप अधिक बढ़ जाता है.

इस के लिए 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है. बीजों को 30 सैंटीमीटर की दूरी पर कतारों में 5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोएं. बीजों को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर बोने से फसल अच्छी मिलती है.

सिंचाई एवं निराईगुड़ाई : मेथी की खेती रबी में सिंचित फसल के रूप में की जाती है. सिंचाइयों की संख्या मिट्टी की संरचना और वर्षा पर निर्भर करती है. वैसे, रेतीली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज के लिए तकरीबन 8 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है. परंतु अच्छे जल धारण क्षमता वाली भूमि में 4-5 सिंचाइयां पर्याप्त हैं.

फली व बीजों के विकास के समय पानी की कमी नहीं रहे. बीज बोने के बाद हलकी सिंचाई करें. उस के बाद आवश्यकतानुसार 15 से 20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें.

बोआई के 30 दिन बाद निराईगुड़ाई कर पौधों की छंटाई कर देनी चाहिए व कतारों में बोई फसल में अनावश्यक पौधों को हटा कर पौधों के बीच की दूरी 10 सैंटीमीटर रखें.

अगर जरूरी हो, तो 50 दिन बाद दूसरी निराईगुड़ाई करें. पौधों की वृद्धि की प्राथमिक अवस्था में निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में पूरी तरह से हवा का संचार होता है और खरपतवार रोकने में मदद मिलती है.

खरपतवार नियंत्रण

मेथी को उगने के 25 व 50 दिन बाद 2 निराईगुड़ाई कर पूरी तरह से खरपतवार से मुक्त रखा जा सकता है. इस के अलावा मेथी की बोआई के पहले 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फ्लूक्लोरेलिन को 600 लिटर पानी में मिला कर छिड़कें. उस के बाद मेथी की बोआई करें या फिर पेंडीमिथेलीन 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर  को 600 लिटर पानी में घोल कर मेथी की बोआई के बाद, मगर उगने से पहले छिड़काव कर के खरपतवारों से मुक्त किया जा सकता है.

यह ध्यान रखें कि फ्लूक्लोरेलिन के छिड़काव के बाद खेत को खुला न छोड़ें, अन्यथा इस का वाष्पीकरण हो जाता है और पेंडीमिथेलीन के छिड़काव के समय खेत में नमी होना आवश्यक है.

मैथी (Fenugreek)

प्रमुख कीट एवं उन का प्रबंधन

फसल पर नाशीकीटों का प्रकोप कम होता है, परंतु कभीकभी माहू, तेला, पत्ती भक्षक, सफेद मक्खी, थ्रिप्स, माइट्स, फली छेदक एवं दीमक आदि का आक्रमण पाया गया है. सब से ज्यादा नुकसान माहू कीट से होता है.

माहू का प्रकोप मौसम में अधिक नमी व आकाश में बादल के रहने पर अधिक होता है. यह कीट पौधों के कोमल भागों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता है. दाने कम व निम्न गुणवत्ता के बनते हैं.

इस की रोकथाम के लिए जैविक विधियों का अधिकाधिक प्रयोग करें. आक्रमण बढ़ता दिखने पर नीम आधारित रसायनों निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल आधारित 0.03 फीसदी का 1 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. कीटनाशी अवशेषों से उपज को बचाएं.

प्रमुख रोग और उन का प्रबंधन

छाछ्या : यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी’ नामक कवक से होता है. रोग के प्रकोप से पौधों की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देने लगता है और पूरे पौधे पर फैल जाता है. इस से काफी नुकसान होता है.

प्रबंधन : गंधक चूर्ण 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर भुरकाव करें या केराथेन एलसी 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 10 से 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार माधवी बोएं.

तुलासिता (डाउनी मिल्ड्यू) : यह रोग ‘पेरेनोस्पोरा स्पी. ’ नामक कवक से होता है. इस रोग से पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले घब्बे दिखाई देते हैं और नीचे की सतह पर फफूंद की वृद्धि दिखाई देती है. उग्र अवस्था में रोग से ग्रसित पत्तियां झड़ जाती हैं.

प्रबंधन : फसल में अधिक सिंचाई न करें. इस रोग के लगने की प्रारंभिक अवस्था में फसल पर मैंकोजेब 0.2 फीसदी या रिडोमिल 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के अनुसार 15 दिन बाद पुन: दोहराएं. रोग रोधी मेथी हिसार मुक्ता एचएम 346 बोएं.

जड़गलन : मेथी की फसल में जड़गलन रोग का प्रकोप भी बहुत होता है, जो बीजोपचार कर और फसलचक्र अपना कर, ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले भूमि में दे कर कम किया जा सकता है.

कटाई एवं उपज

जब पौधों की पत्तियां झड़ने लगें व पौधे पील रंग के हो जाएं, तो पौधों को उखाड़ कर या फिर दंताली से काट कर खेत में छोटीछोटी ढेरियोंं में रखें. सूखने के बाद कूट कर या थ्रैशर से दाने अलग कर लें. साफ दानों को पूरी तरह सुखाने के बाद बोरियों मे भरें. समुचित तरीके से खेती की क्रियाओं को अपनाने से 15 से 20 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार हो सकती है.

पूसा संस्थान में तैयार हो रही अनेक फसलों की उन्नत किस्में

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई), नई दिल्ली में उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने संस्थान के कृषि फार्म का अवलोकन किया और वहां चल रहे अनुसंधान एवं नवीनतम कृषि तकनीकों को देखा.

संस्थान के निदेशक डा. सीएच श्रीनिवासराव ने कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही का स्वागत करते हुए संस्थान के प्रमुख अनुसंधान कार्यों और उन की उपलब्धियों पर जानकारी दी.

संयुक्त निदेशक (अनुसंधान) डा. सी. विश्वनाथन ने चल रही उन्नत अनुसंधान परियोजनाओं और नई किस्मों के विकास के बारे में कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही को विस्तार से बताया.

डा. बीएस तोमर, अध्यक्ष, शाकीय विज्ञान संभाग ने कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही को संस्थान में की जा रही पूसा लाल गोभी संकर-1, पूसा गोभी संकर-81, गोल्डन एकड़, पूसा स्नोबौल एच-1, गांठ गोभी, पूसा साग-1 और पूसा भारती जैसी उन्नत किस्मों के बारे में जानकारी दी. साथ ही, उन्होंने उन्हें एक जीवंत फसल प्रदर्शनी भी दिखाई.

varieties of crops

कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने फल एवं बागबानी प्रौद्योगिकी का भी निरीक्षण किया. फल एवं बागबानी प्रौद्योगिकी संभाग के प्राध्यापक डा. आरएम शर्मा ने उन्नत नीबूवर्गीय फलों जैसे पूसा शरद और पूसा राउंड की जानकारी दी.

इस के अलावा किन्नू, संतरा, और मौसंबी के बागों का भी कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने अवलोकन किया.
उत्तर प्रदेश में चने की खेती को और अधिक विकसित किया जा सके, इस के लिए उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने चने की उन्नत खेती के लिए पूसा मानव और पूसा पार्वती जैसी नई किस्मों की भी जानकारी ली.

मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने संस्थान के अनुसंधान कार्यों को देखा और उन की सराहना की. साथ ही, वहां उपस्थिति किसानों के लिए खेती को और अधिक लाभदायक बनाने के लिए कुछ सुझाव भी दिए.

कृषि उत्पादन वृद्धि (Agricultural Production) के लिए भरतपुर में कार्यशाला

भरतपुर : देश के विभिन्न क्षेत्रों में कृषि उत्पादन की वृद्धि के लिए अपनाई जा रही तकनीक व कृषि क्रियाओं पर काम कर रही विभिन्न संस्थानों के अनुभवों को साझा कर समावेशी जिला विकास मौडल बनाने की दृष्टि से भरतपुर में ‘समृद्ध भारत अभियान’ संस्था की पहल पर दोदिवसीय कार्यशाला का आयोजन हुआ.

इस आयोजन में विषय विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, चिंतक व विचारकों ने भाग लिया. कार्यशाला में विभिन्न संस्थाओं के कार्यों एवं कृषि उत्पादन वृद्धि और रसायनमुक्त खेती के संबंध में आए सुझावों को नीति आयोग को भेजा जाएगा, ताकि नीति आयोग ग्रामीण विकास अथवा आकांक्षी जिला कार्यक्रम में इन सुझावों को शामिल कर सके, ताकि किसानों की आमदनी बढ़ सके.

‘समृद्ध भारत अभियान’ के निदेशक सीताराम गुप्ता ने बताया कि कार्यशाला में ‘राष्ट्रीय रबड़ बोर्ड’ के चेयरमैन डा. सांवर धनानिया, भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी नरेंद्र सिंह परमार, वेद प्रकाश, ग्वालियर के संत स्वामी ऋषभ देवानंद, कनेरी मठ (महाराष्ट्र) के कृषि विशेषज्ञ डा. रविंद्र सिंह, ‘सर्वोदय फाउंडेशन’ की अंशु गुप्ता, ‘जीवजंतु कल्याण बोर्ड’ के सदस्य जब्बर सिंह, नोएडा, उत्तर प्रदेश के सत्येंद्र सिंह, विमल पटेल, पना (भरतपुर) के कमल सिंह, इंदौर की रीना भारतीय, जालौर (राजस्थान) के ईश्वर सिंह, ग्वालियर के डा. अंकित अग्रवाल, संजीव गोयल, आगरा के मो. हबीब, इंदौर की ध्वनि रामा, कांकरोली (राजसमंद) के विनीत सनाढ्य आदि ने कृषि एवं गोपालन के क्षेत्र में किए जा रहे अनुभवों की जानकारी दी.

कार्यशाला में सभी वक्ताओं ने सुझाव दिया कि रसायनमुक्त एवं कीटनाशकमुक्त खेती करने के लिए हमें प्राचीन परंपरागत खेती अर्थात प्राकृतिक व जैविक खेती शुरू करनी होगी. साथ ही, खेती के साथ गोपालन के काम को भी प्रोत्साहित करना होगा.

कृषि उत्पादन वृद्धि (Agricultural Production)

सभी वक्ताओं ने बताया कि रसायन एवं कीटनाशक दवाओं के उपयोग के चलते कृषि उत्पाद इतने जहरीले हो गए हैं कि इन से आज कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी सामने आ रही है. सभी वक्ताओं ने एक मत से सुझाव दिया कि केंद्र सरकार को प्राकृतिक खेती अथवा जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सभी ग्राम पंचायत मुख्यालयों पर प्रशिक्षण शिविर व प्रदर्शन आयोजित किए जाएं.

सभी विशेषज्ञों का कहना था कि जैविक खेती की शुरुआत में कृषि उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, किंतु मानव शरीर पर रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों के कारण पैदा होने वाली बीमारियों से जरूर नजात मिल जाएगी.

सभी वक्ताओं ने कहा कि केंद्र व राज्य सरकारों को जैविक उत्पादों के प्रमाणीकरण की जटिल प्रक्रिया को आसान बनाना होगा और प्राकृतिक अथवा जैविक खेती को प्रोत्साहन देने के लिए विशेष अनुदानित योजना लागू करनी होगी.

गेहूं की खेती (Wheat Cultivation) में कीटों व रोगों से बचाव

दीमक (ओडोंटोटर्मिस आबेसेस) : दीमक बिना सिंचाई वाली और हलकी जमीन का एक खास हानिकारक कीट है. दीमक जमीन में सुरंग बना कर रहती है और पौधों की जड़ें खाती है, जिस वजह से पौधे सूख जाते हैं. यह हलके भूरे रंग की होती है. इस का असर टुकड़ों में होता है, जिसे आसानी से पहचाना जाता है.

रोकथाम : 1 किलोग्राम बिवेरिया और 1 किलोग्राम मेटारिजयम को तकरीबन 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर प्रति एकड़ बोआई से पहले इस का इस्तेमाल करें. असर ज्यादा होने पर क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी की 3-4 लीटर मात्रा बालू में मिला कर प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करें. बीज बोआई से पहले इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस 0.1 फीसदी से उपचारित कर लेना चाहिए.

माहूं : गेहूं में 2 तरह के माहूं लगते हैं. पहला जड़ का माहूं रोग कारक रोपालोसाइफम रूफीअवडामिनौलिस नामक कीट है. दूसरा, पत्ती का माहूं है, यह सीटोबिनयन अनेनी, रोपालोसारफम पाडी और इस की विभिन्न जातियों से होता है. यह फसल की पत्तियों का रस चुस कर नुकसान पहुंचाता है. इन के मल से पत्तियों पर काले रंग की फफूंदी पैदा हो जाती है, जिस से फसल का रंग खराब हो जाता है.

रोकथाम : माहूं का असर होने पर पीले चिपचिपे ट्रेप का इस्तेमाल करें, जिस से माहूं ट्रेप पर चिपक कर मर जाए. परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50000 से 100000 अंडे या सूंडी प्रति हेक्टेयर की दर से छोड़ें. 5 फीसदी नीम का अर्क या 1.25 लीटर तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें. बीटी का 1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. इंडोपथोरा व वरर्टिसिलयम लेकानाई इंटोमोपथोजनिक फंजाई (रोग कारक कवक) का माहूं का असर होने पर छिड़काव करें. जरूरत होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17 एसएल डाइमेथोएट 30 ईसी या मेटासिसटाक्स 25 ईसी 1.25-2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

कर्तन कीट (एग्राटिन एप्सिलाना) : इस की सूंडियां खेत में एकसाथ हमला कर के सारी पत्तियां खा जाती हैं. नर व मादा संभोग कर पत्तियों पर अंडे देते हैं. इन की जीवन चक्र क्रिया वातावरण के हिसाब से एकदो महीने में पूरी होती है. इस की सूंडी जमीन में गेहूं के पौधे के पास मिलती है और जमीन की सतह से पौधे को काट देता है.

रोकथाम : खेतों के बीचोंबीच शाम को घासफूस के छोटेछोटे ढेर लगाने चाहिए. रात को जब सूंडियां खाने को निकलती हैं तो बाद में इन्हीं में छिपती हैं. घास हटाने पर आसानी से इन्हें नष्ट किया जा सकता है. ज्यादा असर होने पर क्लोरपाइरीफास 20 ईसी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या नीम का तेल 3 फीसदी की दर से छिड़काव करें.

 

सैनिक कीट (माइथिमना सपरेटा) : अंडे से निकली सूंडी हवा के झोंकों से एक पौधे से दूसरे पौधे तक पहुंचती है. नवजात सूंडी पौधे के बीच की मुलायम पत्तियों को खाती है. जैसेजैसे यह बढ़ती है, तो पुरानी पत्तियों को खाने लगती है और पूरा पौधा कंकाल हो जाता है. बड़ी सूंडियां बालियों के सींकुर भी खाती हैं, साथ ही बिना पके दानों को भी खाती हैं. इसे काली कर्तन कीट या बाली काटने वाला कीट भी कहा जाता है.

रोकथाम : कीटनाशी रसायन डायक्लोरवास 76 फीसदी 500 मिलीलीटर, क्विनालफास 25 ईसी 1 लीटर या कार्बारिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी की 3 किलोग्राम मात्रा को 700 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

तना मक्खी या प्ररोह मक्खी (एथरिगोना सोकटा) : मादा मक्खी तने के निचले भाग में या पत्तियों के नीचे अंडे देती है. अंडे से मैगट निकल कर तने में छेद कर के भीतर दाखिल हो जाती है और अंदर से तने को खाती रहती है. तने के अंदर सुरंग बना कर मृत केंद्र डेडहार्ट बनाती है. फलस्वरूप पौधा पीला पड़ जाता है और अंत में सूख जाता है.

रोकथाम : कीटनाशी रसायन इमिडाक्लोप्रिड 17 एसएल 1 मिलीलीटर या साइपरमेथ्रिन 25 फीसदी की 350 मिलीलीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें. कार्बारिल 10 फीसदी डीपी 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकें.

कटाई और मंडाई : जब गेहूं का दाना पक जाए या दांत से तोड़ने पर कट की आवाज आए तो समझना चाहिए कि फसल कटाई के लिए तैयार हो गई है. फसल की कटाई मौजूदा साधनों के आधार पर हंसिया ट्रैक्टरचालित रीपर या कंबाइन से की जा सकती है. कटाई के एकदम बाद यानी कटाईमड़ाई के समय मौसम खराब हो जाता है.

उपज : यदि किसान सही समय पर अच्छी नस्ल व नए तरीके अपना कर अच्छी विधियों का इस्तेमाल करता है, तो वह पैदावार को ज्यादा उगा सकता है, जिस में तकरीबन 50 से 65 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज हासिल होती है.

गाजर (Carrots) के फायदे

गाजर का नाम सुनते ही मन में खयाल आता है कि काश, कहीं से गाजर का हलवा खाने को मिल जाए. क्या गाजर का इस्तेमाल सिर्फ हलवा बनाने के लिए किया जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है, गाजर जायकेदार होने के साथ ही कई गुणों से भरपूर है. आयुर्वेद के मुताबिक गाजर स्वाद में मीठी, गुणों में तीक्ष्ण और कफ व रक्तपित्त को नष्ट करने वाली होती है.

गाजर का रंग कैरोटीन नामक तत्त्व से लाल होता है. कैरोटीन के कारण ही गाजर विटामिन ‘ए’ से भरपूर होती है. यह तत्त्व हमारे शरीर में विटामिन ‘ए’ बनाता है. अधिकतर हकीम और डाक्टर आंख के मरीजों को सलाह देते हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा गाजर का इस्तेमाल करें.

गाजर को आप कच्ची, सलाद के साथ, जूस निकाल कर, अचार या हलवा बना कर खा सकते हैं.

गाजर के औषधीय गुण

* यदि किसी की त्वचा आग से झुलस गई हो तो कच्ची गाजर पीस कर जले हुए स्थान पर लगाने से तुरंत लाभ मिलता है और जले हुए स्थान पर ठंडक महसूस होती है.

*  गाजर का मुरब्बा काफी लाभकारी होता है. यह दिमाग के लिए काफी फायदेमंद होता है, रोज सुबह इस का सेवन करना चाहिए.

*  लो ब्लड प्रेशर के रोगियों को गाजर के रस में शहद मिला कर खाना चाहिए. इस से रक्तचाप सामान्य होने लगेगा.

*  गाजर, टमाटर, संतरे और चुकंदर का रस तकरीबन 25 ग्राम की मात्रा में रोजाना 2 महीने तक लेने से चेहरे के मुंहासे, दाग व झाइयां आदि मिटने लगते हैं. पथरी की शिकायत में गाजर, चुकंदर और ककड़ी का रस समान मात्रा में लें.

*  गाजर पीस कर व आग पर सेंक कर इस की पुल्टिस बना कर बांधने से फोड़े ठीक हो जाते हैं.

*  गाजर का अचार तिल्ली रोग को ठीक करता है.

*  अनिद्रा रोग में रोज सुबहशाम 1 कप गाजर का रस लें.

*  गाजर का सेवन उदर रोग, पित्त, कफ और कब्ज दूर करता है. यह आंतों में जमा मल को तीव्रता से साफ करता है.

*  गाजर उबाल कर रस निकाल लें. इसे ठंडा कर के 1 कप रस में, 1 चम्मच शहद मिला कर पीने से सीने में उठने वाला दर्द मिट जाता है.

*  बच्चों को कच्ची गाजर खिलाने से पेट के कीड़े निकल जाते हैं.

*  गाजर का रोज इस्तमाल करने से खून की कमी दूर होती है.

*  इस प्रकार गाजर को यदि रोजाना इस्तेमाल में लाया जाए तो कई रोगों से नजात पाई जा सकती है.

दिसंबर (December) महीने के जरूरी काम

आमतौर पर किसान नवंबर महीने में ही गेहूं की बोआई का काम खत्म कर देते हैं, मगर किसी वजह से गेहूं की बोआई न हो पाई हो, तो उसे दिसंबर महीने के दूसरे हफ्ते तक जरूर निबटा दें.

* दिसंबर महीने में गेहूं की पछेती किस्मों की बोआई की जाती है. इस बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 125 किलोग्राम बीज का इस्तेमाल करें. बोआई के दौरान कूंड़ों के बीच 15 सैंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए.

* दिसंबर महीने का अहम काम गन्ने की फसल की कटाई का होता है. इस दौरान गन्ने की तमाम किस्में कटाई के लिए पूरी तरह तैयार हो जाती हैं. किसान जरूरत और सुविधा के मुताबिक गन्ने की कटाई का काम निबटा सकते हैं.

* शरदकालीन गन्ने के खेतों में अगर नमी कम महसूस हो, तो जरूरत के मुताबिक सिंचाई करना न भूलें.

* गन्ने के साथ अगर तोरिया या राई वगैरह फसलें भी लगी हों, तो जरूरत के मुताबिक उन की निराईगुड़ाई करें. इस से गन्ने की फसल को भी फायदा होगा.

* इस माह मटर की फसल में फूल आने का वक्त होता है, इसलिए फूल आने से पहले मटर के खेतों की सिंचाई कर दें. ऐसा करने से फूल व फलियां बेहतर तरीके से आती हैं.

* मटर की फसल में तनाछेदक और फलीछेदक कीटों के लगने का खतरा रहता है. लिहाजा, उन के प्रति जागरूक रहना जरूरी है.

December Work

* सरसों के खेत में अगर पौधे ज्यादा घने लगे हों, तो बीचबीच से फालतू पौधे उखाड़ कर अपने मवेशियों को चारे के तौर पर खिला दें. सरसों के फालतू पौधों के साथसाथ खेत से तमाम खरपतवार भी निकाल दें.

* मसूर की दाल की बोआई का काम भी नवंबर माह में पूरा कर लिया जाता है. फिर भी अगर अभी तक मसूर की बोआई न हो पाई हो, तो उसे फौरन करें.

* आलू के खेतों का ध्यान रखें. जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें और पौधों में बाकायदा मिट्टी चढ़ा दें. निराईगुड़ाई कर के खेत से खरपतवारों का सफाया करें.

* प्याज की नर्सरी का खयाल रखें और रोपाई का इंतजाम करें. तैयार पौधों की रोपाई इस महीने के आखिर तक कर दें.

* लहसुन के खेतों में अगर नमी कम नजर आए, तो हलकी सिंचाई कर दें. खेत की निराईगुड़ाई करें, ताकि खरपतवार न पनप सकें.

* दिसंबर महीने में अकसर लीची के छोटे पेड़ पाले की गिरफ्त में आ जाते हैं. बचाव के लिए इन पेड़ों को 3 तरफ से छप्पर से कवर कर दें, सिर्फ पूर्वीदक्षिणी सिरा देखभाल के लिए खुला रखें.

* लीची के फल वाले बड़े पेड़ों में 50 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद प्रति पेड़ की दर से डालें. सभी पेड़ों में 600 ग्राम फास्फोरस भी डालें. बीमार और खराब शाखाओं को पेड़ों से तोड़ कर बाग से दूर ले जा कर जमीन में दबा दें.

* यह आम का मौसम नहीं होता है, मगर आम के बागों की सफाई जरूर करें. आम के 10 साल या उस से पुराने पेड़ों में 1 किलोग्राम पोटाश और 750 ग्राम फास्फोरस प्रति पेड़ की दर से डालें. ये चीजें तनों से 1 मीटर का फासला छोड़ कर थालों में डालें.

* मिली बग कीटों से आम के पेड़ों को महफूज रखने के लिए तने के चारों ओर 2 फुट की ऊंचाई पर 400 गेज वाली 30 सैंटीमीटर पौलीथिन शीट की पट्टी बांधें. पट्टी के निचले किनारे पर अच्छी तरह ग्रीस लगा दें.

* नए बागों में लगे आम के छोटे पौधों को दिसंबर माह में पड़ने वाले पाले से बचाना लाजिमी है. इस के लिए फूस के छप्पर का इस्तेमाल करें. बीचबीच में सिंचाई करते रहें.

* अपने मुरगेमुरगियों को ठंड से बचाने का पूरा इंतजाम करें.

* अगर मुरगीपालन का ज्यादा तजरबा न हो, तो कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से सलाह ले कर मुरगेमुरगियों की हिफाजत का पुख्ता बंदोबस्त करें.

* इस महीने की सर्दी मवेशियों के लिए भी बेहद खतरनाक होती है. लिहाजा, सजग रहें. रात के वक्त गायभैंसों को बंद कमरों में रखें व लाइट लगातार जलने दें. रोशनी के लिए पीली लाइट इस्तेमाल करें, क्योंकि वह दूधिया लाइट के मुकाबले ज्यादा गरम होती है.

* अगर पशुओं को बरामदे में बांधते हैं, तो रात के वक्त मोटेमोटे परदे जरूर लगाएं. सुबहशाम कंडे की आंच जला कर पशुओं को गरमी दें. धुएं से मच्छर भी भाग जाते हैं.

* दिन के वक्त पशुओं को धूप में जरूर बांधें. यह सेहत के लिहाज से जरूरी है.