लीक की खेती

हरा प्याज की एक किस्म लीक को कंदीय फसल भी कहा जाता है. लेकिन इस की जड़ या कंद छोटा होता है. इसे अलग कर के प्रयोग में नहीं लाते हैं इसलिए यह फसल गैरकंदीय और द्विवार्षिक  है.

यूरोपीय देशों की यह एक प्रमुख फसल है, लेकिन अब इसे भारत में गृहवाटिका, फार्महाउस और कुछ प्रगतिशील किसान अपने खेत में भी उगाने लगे हैं.

लीक प्याज समूह व प्रजाति की फसल में आती है जो शरदकालीन मौसम को ज्यादा पसंद करती है. इस की गांठें ज्यादा नहीं बनती हैं और पत्तियां लंबी लहसुन की तरह होती हैं. इस का तना सफेद व पत्ते चौडे़, सीधे व नुकीले होते हैं.

लीक का इस्तेमाल ज्यादातर बड़ेबडे़ होटलों, रैस्टोरैंट वगैरह में होता है. लेकिन आजकल विदेशों से भारत में घूमने आने वाले लोग भी इसे सूप, सलाद व सब्जी के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इस में विटामिन, कैल्शियम, लोहा औैर खनिज व लवण प्रचुर मात्रा में मिलते हैं.

भूमि व जलवायु

लीक की फसल या खेती के लिए दोमट या हलकी बलुई दोमट जीवांश वाली जमीन सब से बढि़या रहती है. इस का पीएच मान 6.0-7.0 के बीच का उत्तम होता है.

यह फसल ठंडी जलवायु को ज्यादा पसंद करती है. ज्यादा ठंड जो लंबे समय तक रहे, तो अधिक बढ़वार होती है. 20 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान सब से अच्छा माना गया है, लेकिन अंकुरण के लिए 35 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान उचित रहता है.

खेत की तैयारी

खेत की तैयारी के लिए मिट्टी पलटने वाले हल या ट्रैक्टर हैरो से 2-3 जुताई करें जिस से सभी तरह की घास सूख कर खत्म हो जाए और मिट्टी बारीक हो जाए. 1-2 जुताई और कर के खेत को अच्छी तरह भुरभुरा कर के तैयार कर लेना चाहिए. खेत में घास व ढेले नहीं रहने चाहिए.

Leekउन्नत किस्में

लीक की कुछ प्रमुख किस्में, जो इस प्रकार हैं :

* प्राइज टेकर मसूल वर्ण.

* अमेरिकन फ्लैग.

* लंदन फ्लैग.

* मैमथ-कोलोसल और दूसरी लोकल किस्में वगैरह.

बीज की मात्रा

लीक के बीज की मात्रा मौसम पर निर्भर करती है. वैसे, उचित समय बोने पर 5-6 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की जरूरत पड़ती है.

बोआई का समय और पौध तैयार करना

लीक के बीज की बोआई का उचित समय मध्य सितंबर से मध्य अक्तूबर माह तक रहता है. लेकिन इसे नवंबर माह तक लगाया जाता है. पहाड़ी इलाकों में मार्चअप्रैल माह में बोआई करना उचित रहता है.

लीक के बीजों द्वारा पौध तैयार करें. पौधशाला में बीज की बोआई कर के उचित खाद डाल कर क्यारियों में बोना चाहिए. बीज की पंक्तियों में 4-5 सैंटीमीटर और बीज से बीज की दूरी 1-2 मिलीमीटर रखनी चाहिए.

बीज बोने के बाद पंक्तियों में बारीक पत्ती की खाद डाल कर बीज को ढकें और नमी कम होने पर हलकी सिंचाई करते रहें. इस तरह से 10-12 दिन में बीज अंकुरित हो जाते हैं और पौधे 25-30 दिन बाद रोपाई के लायक हो जाते हैं.

खाद व उर्वरक की मात्रा

गोबर की सड़ी खाद 8-10 टन प्रति हेक्टेयर और नाइट्रोजन 100 किलोग्राम, फास्फोरस 80 किलोग्राम और पोटाश 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दें. गोबर की खाद की मात्रा को खेत की जुताई के समय मिलाएं और नाइट्रोजन, यूरिया या सीएएन, जिस की आधी मात्रा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा आखिरी जुताई के समय दें या फिर खेत में भलीभांति मिलाएं.

यूरिया या सीएएन की बाकी बची मात्रा को 2-3 बराबर हिस्सों में बांट कर रोपाई के 20-25 दिन के अंतराल पर तीनों मात्राओं को फसल में टौप ड्रैसिंग के रूप में दें और दूसरी सारी क्रियाएं भी अच्छी तरह पूरी करते रहें.

रोपाई की विधि और पौधों की दूरी

जब पौध 8-10 सैंटीमीटर ऊंची हो जाएं तो क्यारियों में रोपना चाहिए. क्यारियों में पौधों को पंक्ति में लगाएं. इन पंक्तियों की आपस की दूरी 30 सैंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 15 सैंटीमीटर  रखनी चाहिए. पौधों की रोपाई हलकी नाली बना कर भी कर सकते हैं. पौधों को शाम 3-4 बजे से रोपना शुरू करें और रोपने के बाद हलकी सिंचाई जरूर करें. पौधों की जड़ को 8-10 सैंटीमीटर गहरी जरूर दाबें, जिस से पौधे सिंचाई के पानी से न उखड़ पाएं.

सिंचाई

पहली सिंचाई पौध रोपने के बाद करें और दूसरी सिंचाई 10-12 दिन के अंतराल से करते रहें. इस तरह से 10-12 सिंचाई की जरूरत पड़ती है. जब जमीन की ऊपरी सतह सूखने लगे, तो सिंचाई करनी चाहिए.

निराईगुड़ाई

लीक की निराईगुड़ाई दूसरी फसलों की तरह की जाती है. दूसरी सिंचाई के बाद खेत में जंगली पौधे उग आते हैं. इन का निकालना बेहद जरूरी है. इन को निराईगुड़ाई द्वारा खत्म किया जा सकता है. इस तरह से 2-3 निराईगुड़ाई की पूरी फसल में जरूरत पड़ती है.

इसी प्रक्रिया को जिस में जंगली पौधे या खरपतवार नष्ट हो जाते हैं, उसे खरपतवार नियंत्रण कहते हैं. मुख्य फसल के अलावा दूसरे सभी खरपतवार को हटाया जाता है.

कीट व बीमारियां

इस फसल पर कीट व बीमारियां ज्यादा नहीं लगतीं लेकिन कुछ कीट एफिड वगैरह देरी की फसल में लगते हैं, जिन का नियंत्रण करने के लिए रोगोर, नूवान का 1 फीसदी घोल बना कर स्प्रे करते हैं. देरी वाली फसल में पाउडरी मिल्ड्यू बीमारी लगती है. जो फफूंदीनाशक बावस्टीन, डाइथेन एम 45 के 1 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर स्प्रे करने से नियंत्रित हो जाती है.

लीक की तुड़ाई

लीक के पौधे प्याज या लहसुन की तरह बढ़ कर तना मोटा 2-3 सैंटीमीटर व्यास का हो जाए तो उखाड़ लेना चाहिए और लंबी पत्तियों के कुछ भाग को काट कर अलग कर देते हैं और जड़ वाले भाग को हरे प्याज की तरह धो कर बंडल या गुच्छी, जिस में 1 दर्जन या 2 दर्जन लीक रखते हैं. इन्हीं गुच्छी को मंडी या मौडर्न सब्जी बाजार की दुकानों पर भेज देते हैं.

उपज

लीक की उपज हरे प्याज की भांति मिलती है. यह प्रति पौधा पत्तियों समेत 125-150 ग्राम उपज देता है, जो कि पूरे खेत में 400-500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल होता है.

चना की नई उन्नत किस्म से फायदा पाएं

दलहनी फसलों में चने की खेती अपना खास स्थान रखती है. भारत दुनिया का सब से ज्यादा चना पैदा करने वाला देश है. चने की तकरीबन 70-75 फीसदी पैदावार हमारे देश में होती है. उत्तर से मध्य व दक्षिण भारत के राज्यों में चना रबी फसल के रूप में उगाया जाता है. चना उत्पादन की नई उन्नत तकनीक व उन्नतशील किस्मों का इस्तेमाल कर किसान चने का उत्पादन और भी बढ़ा सकते हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, अखिल भारतीय समन्वित चना अनुसंधान परियोजना ने हाल ही में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, रांची (झारखंड) में आयोजित अपने 24वें वार्षिक बैठक में जीनोमिक्स की मदद से विकसित चना की 2 बेहतर किस्मों ‘पूसा चिकपी-10216’ और ‘सुपर एनेगरी 1’ को जारी किया है, जो चने की दूसरी किस्मों से कहीं बेहतर है.

पूसा चिकपी 10216

* चना की यह एक खास किस्म है. इसे डाक्टर भारद्वाज चेल्लापिला, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के नेतृत्व में चिकपी ब्रीडिंग ऐंड मोलेकुलर ब्रीडिंग टीम द्वारा डाक्टर वार्ष्णेय के. राजीव, इक्रिसैट के नेतृत्व वाली जीनोमिक्स टीम के सहयोग से विकसित किया गया है.

* इस किस्म को आणविक मार्करों की मदद से ‘पूसा 372’ की आनुवांशिक पृष्ठभूमि में आनुवांशिक ‘क्यूटीएल हौटस्पौट’ के बाद विकसित किया गया है.

* ‘पूसा 372’ देश के मध्य क्षेत्र, उत्तरपूर्व मैदानी इलाकों और उत्तरपश्चिम मैदानी इलाकों में उगाई जाने वाली चना की एक खास किस्म है. इस का इस्तेमाल लंबे समय यानी देर से बोई जाने वाली स्थितियों के लिए राष्ट्रीय परीक्षणों में मापक (नियंत्रण किस्म) के रूप में किया जाता रहा है. इस किस्म का विकास साल 1993 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा तैयार किया गया था. हालांकि इस का उत्पादन कम हो गया था.

* इस को प्रतिस्थापित करने के लिए साल 2014 में चना के ‘आईसीसी 4958’ किस्म में ‘सूखा सहिष्णुता’ के लिए पहचाने गए जीनयुक्त ‘क्यूटीएल हौटस्पौट’ को आणविक प्रजनन विधि से ‘पूसा 372’ के आनुवांशिक पृष्ठभूमि में डाल कर विकसित किया गया है.

* नई किस्म की औसत पैदावार 1447 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है. भारत के मध्य क्षेत्र में नमी कम होने की स्थिति में यह किस्म ‘पूसा 372’ से तकरीबन 11.9 फीसदी ज्यादा पैदावार देती है.

* इस किस्म के पकने की औसत अवधि 110 दिन है. दाने का रंग उत्कृष्ट होने के साथसाथ इस के 100 बीजों का वजन तकरीबन 22.2 ग्राम होता है.

* खास रोगों मसलन फुसैरियम विल्ट, सूखी जड़ सड़ांध और स्टंट के लिए यह किस्म मध्यम रूप से प्रतिरोधी है और इसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाकों में खेती के लिए चुना गया है.

डाक्टर भारद्वाज चेल्लापिला ने बताया है कि ‘पूसा चिकपी 10216’ भारत में चना की वाणिज्यिक खेती के लिए पहचानी जाने वाली खास सहिष्णुतायुक्त पहली आणविक प्रजनन किस्म बन गई है.

सुपर एनेगरी 1

* इस किस्म को कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, रायचूर (कर्नाटक) और इक्रिसैट के सहयोग से विकसित किया गया है.

* इस किस्म को चना के ‘डब्लूआर 315’ किस्म में फुसैरियम विल्ट रोग के लिए पहचाने गए प्रतिरोधी जीनों को आणविक प्रजनन विधि से कर्नाटक राज्य की प्रमुख चना किस्म एनेगरी 1 की आनुवांशिक पृष्ठभूमि में डाल कर विकसित किया गया है.

* इस किस्म की औसत पैदावार 1898 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है और यह एनेगरी किस्म से तकरीबन 7 फीसदी अधिक पैदावार देती है. साथ ही, दक्षिण भारत में उपज कम करने वाले कारक फुसैरियम विल्ट रोग के लिए बेहद प्रतिरोधी है.

* यह किस्म औसतन 95 से 110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस के 100 बीजों का वजन तकरीबन 18 से 20 ग्राम तक होता है.

* इस किस्म को आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में खेती के लिए चुना गया है.

उपयुक्त जलवायु

चने की खेती तकरीबन 78 फीसदी असिंचित इलाकों और 22 फीसदी सिंचित इलाकों में की जाती है. सर्दी में फसल होने के कारण चना की खेती कम बारिश वाले इलाकों और कम ठंडक वाले इलाकों में की जाती है. फूल आने की दशा में यदि बरसात हो जाए तो फूल झड़ने के कारण फसल को बहुत नुकसान होता है.

चने के अंकुरण के लिए कुछ अधिक तापमान की जरूरत होती है, जबकि पौधों की सही बढ़वार के लिए आमतौर पर ठंडे मौसम की जरूरत होती है.

उपयुक्त जमीन

चने की खेती बलुई से ले कर दोमट और मटियार मिट्टी में की जा सकती है. इस के अलावा चने की खेती के लिए भारी दोमट और मडुआ, पड़आ, कछारी जमीन, जहां पानी जमा न होता हो, वह भी ठीक मानी जाती है.

काबुली चने की खेती के लिए मटियार दोमट और काली मिट्टी, जिस में पानी की सही मात्रा धारण करने की कूवत होती है, उस में सफलतापूर्वक खेती की जाती है. लेकिन जरूरी यह है कि पानी के भरने की समस्या न हो. जल निकासी का सही प्रबंध होना चाहिए.

खेत की तैयारी

चने की खेती के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल या डिस्क हैरो से करनी चाहिए. इस के बाद एक क्रास जुताई हैरो से कर के पाटा लगा कर जमीन समतल कर लें.

फसल को दीमक व कटवर्म के प्रकोप से बचाने के लिए आखिरी जुताई के समय उस की रोकथाम का पुख्ता इंतजाम करना चाहिए. जमीन की पैदावार कूवत बनाए रखने और फसल से अधिक पैदावार लेने के लिए फसल चक्र अपनाना चाहिए.

बोआई का उचित समय

उत्तर भारत के असिंचित इलाकों में चना की बोआई अक्तूबर माह के दूसरे पखवारे में करें और सिंचित इलाकों में नवंबर माह के पहले पखवारे में करनी चाहिए.

पछेती बोआई दिसंबर माह के पहले हफ्ते कर लेनी चाहिए. देश के मध्य भाग में अक्तूबर का पहला और दक्षिण राज्य में सितंबर के आखिरी हफ्ते से अक्तूबर का पहला सप्ताह चने की बोआई के लिए उचित है.

बीजोपचार : चने की खेती में कई तरह के कीट और रोगों से बचाव के लिए बीज को उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए. बीज को उपचारित करते समय ध्यान रखें कि सब से पहले उसे फफूंदीनाशी, फिर कीटनाशी और आखिर में राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें.

जड़ गलन व उकटा रोग की रोकथाम के लिए बीज को कार्बंडाजिम या मैंकोजेब या थाइरम की 1.5 से 2 ग्राम मात्रा द्वारा प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित करें.

दीमक और दूसरे जमीनी कीटों की रोकथाम के लिए क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी या इंडोसल्फान 35 ईसी की 8 मिलीलिटर मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए.

बीजों को उपचारित कर के एक लिटर पानी में 250 ग्राम गुड़ को गरम कर के ठंडा होने पर उस में राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस घुलनशील जीवाणु को अच्छी तरह मिला कर उस में बीज उपचारित करना चाहिए. उपचारित बीज को छाया में सुखा कर शीघ्र बोआई कर देनी चाहिए.

उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी जांच के मुताबिक करें तो ज्यादा अच्छा होगा. वैसे, सामान्य तौर पर 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50-60 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि असिंचित अवस्था में 2 फीसदी यूरिया या डीएपी का फसल पर छिड़काव करने से अच्छी पैदावार मिलती है.

सिंचाई प्रबंधन : चने की खेती मुख्यत: असिंचित अवस्था में की जाती है, जहां पर सिंचाई के लिए सीमित पानी मुहैया हो, वहां फूल आने के पहले (बोआई के 50-60 दिन बाद) एक हलकी सिंचाई करें. सिंचित इलाकों में दूसरी सिंचाई फली बनते समय जरूर करें.

सिंचाई करते समय यह ध्यान दें कि खेत के किसी भी हिस्से में पानी जमा न होने दें, वरना फसल को नुकसान हो सकता है. फूल आने की स्थिति में सिंचाई नहीं करनी चाहिए.

खरपतवार पर नियंत्रण 

खरपतवार चने की खेती को 50 से 60 फीसदी तक नुकसान पहुंचाते हैं इसलिए खरपतवार नियंत्रण जरूरी है.

खरपतवार नियंत्रण के लिए पैंडीमिथेलिन 30 ईसी को 3 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लिटर पानी में घोल कर बोआई के 48 घंटे के अंदर छिड़काव यंत्र द्वारा छिड़काव करना चाहिए. फसल में कम से कम 2 बार निराईगुड़ाई करें. पहली गुड़ाई फसल बोने के 35-40 दिन बाद और दूसरी गुड़ाई 50-60 दिनों बाद कर देनी चाहिए.

कीट नियंत्रण : चने की खेती में मुख्य रूप से फली भेदक कीट का हमला ज्यादा होता है. देर से बोआई की जाने वाली फसलों में इस का प्रकोप अधिक होता है.

फली भेदक के नियंत्रण के लिए इंडोसकार्ब (2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) या स्पाइनोसैड (0.4 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) या इमामेक्टीन बेंजोएट (0.4 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) का छिड़काव करें. एनपीवी उपलब्ध होने पर इस का 250 लार्वा समतुल्य 400 से 500 लिटर पानी में घोल कर 2-3 बार छिड़काव कर सकते हैं. इसी तरह 5 फीसदी नीम की निबौली के सत का प्रयोग भी इस के नियंत्रण के लिए कारगर है.

रोग नियंत्रण : चने की खेती में मुख्य रूप से उकटा और शुष्क मूल विगलन रोग होता है. फसल को इन से बचाने के लिए बोआई से पहले बीज को फफूंदीनाशक जैसे 1.0 ग्राम बीटावेक्स और 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. जिन इलाकों में इन रोगों का अधिक प्रकोप हो, वहां पर उकटा और शुष्क मूल विगलन रोगरोधी किस्में बोएं.

इस के अलावा चने की फसल में कीट रोगों का भी प्रकोप होता है. इस का समयसमय पर खात्मा करना जरूरी है. चने की फसल में खासतौर से फली भेदक कीट का प्रकोप अधिक होता है जो शुरुआती दौर में पत्तियों को खाता है, बाद में फली बनने पर छेद बना कर उस में घुस जाता है और दानों को खोखला कर देता है.

इस के अलावा झुलसा रोग, उकटा रोग वगैरह फसल में आते हैं जिन की समय से रोकथाम जरूरी है और अपनी रोगग्रस्त फसल को कृषि विशेषज्ञ को दिखा कर कीट बीमारी पर काबू पाया जा सकता है.

पाले से बचाव : पाले से भी फसल को बहुत अधिक नुकसान होता है. पाला पड़ने की संभावना दिसंबर माह से जनवरी माह में अधिक होती है. पाले के प्रभाव से फसल को बचाने के लिए फसल में गंधक के तेजाब की 0.1 फीसदी मात्रा यानी एक लिटर गंधक के तेजाब को 1,000 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. पाला पड़ने की संभावना होने पर खेत के चारों ओर धुआं करना भी लाभदायक रहता है.

फसल की कटाई और गहाई : चने की फसल की पत्तियां व फलियां पीली व भूरे रंग की हो जाएं और पत्तियां गिरने लगें और दाने सख्त हो जाएं तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए. काटी गई फसल जब अच्छी तरह सूख जाए, तो थ्रेशर द्वारा दाने को भूसे से अलग कर लेना चाहिए और पैदावार को सुखा कर भंडारित करना चाहिए.

Chanaविभिन्न राज्यों के लिए अन्य किस्में

मध्य प्रदेश : जेजी 74, जेजी 315, जेजी 322, पूसा 391, विश्वास (फुलेजी 5), विजय, विशाल, जेजी 16, जेजी 130, जेजीजी 1, जवाहर ग्राम काबुली 1, बीजीडी 128 (के), आईपीसीके 2002-29, आईपीसीके 2004-29 (के), पेकेवी काबुली 4 आदि खास हैं.

राजस्थान : हरियाणा चना 1, डीसीपी 92-3, पूसा 372, पूसा 329, पूसा 362, उदय, सम्राट, जीपीएफ 2, पूसा चमत्कार (बीजी 1053), आरएसजी 888, आलोक (केजीडी 1168), बीजीडी 28 (के), जीएनजी 1581, आरएसजी 963, राजास, आरएसजी 931, जीएनजी 143, पीबीजी 1, जीएनजी 663 वगैरह किस्में प्रमुख हैं.

हरियाणा : डीसीपी 92-3, हरियाणा चना 1, हरियाणा काबुली चना 1, पूसा 372, पूसा 362, पीबीजी 1, उदय, करनाल चना 1, सम्राट, वरदान, जीपीएफ 2,  चमत्कार, आरएसजी 888, हरियाणा काबुली चना 2, बीजीएम 547, फुलेजी 9425-9, जीएनजी 1581 आदि प्रमुख हैं.

पंजाब : पूसा 256, पीबीजी 5, हरियाणा चना 1, डीसीपी 92-3, पूसा 372, पूसा 329, पूसा 362, सम्राट, वरदान, जीपीएफ 2, पूसा चमत्कार (बीजी 1053), आरएसजी 888, बीजीएम 547, फुलेजी 9425-9, जीएनजी 15481, आलोक (केजीडी 1168), पीबीजी 3, आरएसजी 963, राजास और आरजी 931 वगैरह खास हैं.

उत्तर प्रदेश : डीसीपी 92-3, केडब्लूआर 108, पूसा 256, पूसा 372, वरदान, जेजी 315, आलोक (केजीडी 1168), विश्वास, पूसा 391, सम्राट, जीपीएफ 2, विजय, पूसा काबुली 1003, गुजरात ग्राम 4 आदि प्रमुख हैं.

बिहार : पूसा 372, पूसा 256, पूसा काबुली 1003, उदय, केडब्लूआर 108, गुजरात ग्राम 4 और आरएयू 52 वगैरह प्रमुख हैं.

छत्तीसगढ़ : जेजी 315, जेजी 16, विजय, वैभव, जवाहर ग्राम काबुली 1, बीजी 372, पूसा 391, बीजी 072 और आईसीसीवी 10 वगैरह खास हैं.

गुजरात : पूसा 372, पूसा 391, विश्वास, जेजी 16, विकास, विजय, विशाल, धारवाड़ प्रगति, गुजरात ग्राम 1, गुजरात ग्राम 2, जवाहर ग्राम काबुली 1, आईपीसीके 2009-29 और आईपीसीके 2004-29 वगैरह प्रमुख हैं.

महाराष्ट्र : पूसा 372, विजय, जेजी 16, विशाल, पूसा 391, विश्वास (फुलेजी 5) धारवाड़ प्रगति, विकास, फुलेजी 12, जवाहर ग्राम काबुली 1, विहार, केएके 2, बीजीडी 128, (के), आईपीसीके 2002-29, आईपीसीके 2004-29, फुलेजी-0517 (के) और पेकेवी काबुली 4 वगैरह खास हैं.

झारखंड : पूसा 372, पूसा 256, पूसा काबुली 1003, उदय, केडब्लूआर 108 और गुजरात ग्राम 4 वगैरह खास हैं.

उत्तराखंड : पंत जी 186, डीसीपी 92-3, सम्राट, केडब्लूआर 108, पूसा चमत्कार (बीजी 1053) बीजीएम 547 और फुलेजी 9425-9 वगैरह खास हैं.

हिमाचल प्रदेश : पीबीजी 1, डीसीपी 92-3, सम्राट, बीजीएम 549 और फुलेजी 9425-9 वगैरह खास हैं.

आंध्र प्रदेश : भारती (आईसीसीवी 10) जेजी 11, फुलेजी 95311 (के) और एमएनके 1 वगैरह प्रमुख हैं.

असम : जेजी 73, उदय (केपीजी 59), केडब्लूआर 108 और पूसा 372 वगैरह खास हैं.

जम्मू और कश्मीर : डीसीपी 92-3, सम्राट, पीबीजी 1, पूसा चमत्कार (बीजी 1053), बीजी एम 547 और फुलेजी 9425-9 वगैरह खास हैं.

कर्नाटक : जेजी 11, अन्नेगिरी 1, चाफा, भारती (आईसीसीवी 10), फुलेजी 9531, श्वेता (आईसीसीवी 2) एमएनके 1 वगैरह खास हैं.

मणिपुर : जेजी 74, पूसा 372, बीजी 253 वगैरह हैं.

मेघालय : जेजी 74, पूसा 372 और बीजी 256 वगैरह हैं.

ओडिशा : पूसा 391, जेजी 11, फुलेजी 95311, आईसीसीवी 10 वगैरह खास हैं.

तमिलनाडु : आईसीसीवी 10, पूसा 372 और बीजी 256 प्रमुख है.

पश्चिम बंगाल : जेजी 74, गुजरात ग्राम 4, केडब्लूआर  108, पूसा 256, महामाया 1 और महामाया 2 वगैरह खास हैं.

काबुली चना की नई किस्म एसआर 10

हाल ही में काबुली चना की नई किस्म एसआर 10 विकसित की गई है. इस किस्म से 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार मिल सकेगी. इस किस्म के 100 दानों का वजन तकरीबन 50 ग्राम से अधिक होगा. इस की बोआई नवंबर के पहले हफ्ते में कर सकते हैं. यह फसल मार्च तक पक कर तैयार हो जाती है.

राजस्थान में विकसित चना किस्म एसआर 10 का कृषक पौध अधिकार प्राधिकरण, नई दिल्ली द्वारा पंजीकृत किया गया है.

हरा चना की किस्म आरएसजी 991

किस्म आरएसजी 991 रोग प्रतिरोधी होने के साथ प्रसंस्करण के लिए भी बेहतर है. राजस्थान के झुंझुनूं, टोंक और राज्य के अन्य जिलों में इस किस्म को उगा कर किसान बाजार से अच्छी आमदनी ले रहे हैं.

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि किसान मटर की तरह इस के हरे दानों को बेच सकते हैं. यह हरे चने की एक किस्म है. इस की कटाई के बाद हरे दानों का वैज्ञानिक विधि से भंडारण भी कर सकते हैं. भंडारित उपज से समय के मुताबिक हरे छोले तैयार कर बाजार में बेच सकते हैं. हरे छोले तैयार करने के लिए इन्हें रातभर पानी में भिगोना होता है और उस के बाद सुबह पानी निकाल कर इन को बाजार में बेचा जा सकता है.

हरे चने की यह किस्म सिंचित और असिंचित दोनों ही इलाकों के लिए सही मानी गई है, जो 135 से 140 दिन में पक कर तैयार हो जाती है.

समुद्री नौकाओं को आधुनिक बनाने के लिए अनुदान

अहमदाबाद: भारत के मत्स्यपालन उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए उठाए गए एक महत्वपूर्ण कदम में, मत्स्यपालन, पशुपालन एवं डेरी राज्य मंत्री डा. एल. मुरुगन ने पिछले दिनों नीली क्रांति और प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (पीएमएमएसवाई) के माध्यम से पारंपरिक मछुआरों को गहरे समुद्र में मछली पकड़ने की तरफ परिवर्तन में समर्थन देने के लिए केंद्र सरकार की अटूट प्रतिबद्धता पर जोर दिया.

उन्होंने गुजरात साइंस सिटी, अहमदाबाद में आयोजित ग्लोबल फिशरीज कौंफ्रैंस इंडिया 2023 में ‘गहरे समुद्र में मछली पकड़ना: प्रौद्योगिकी, संसाधन और अर्थशास्त्र‘ विषय पर एक तकनीकी सत्र में यह बात कही.

डा. एल. मुरुगन ने कहा कि सरकार पारंपरिक मछुआरों को अपने जहाजों को गहरे समुद्र में मछली पकड़ने वाली नौकाओं में बदलने के लिए 60 फीसदी तक वित्तीय सहायता प्रदान कर रही है. इस के अतिरिक्त इस परिवर्तन को सुविधाजनक बनाने के लिए ऋण सुविधाएं भी उपलब्ध हैं.

उन्होंने टूना जैसे गहरे समुद्र के संसाधनों के लिए अंतर्राष्ट्रीय गुणवत्ता मानकों को बनाए रखने के लिए अंतर्निर्मित प्रसंस्करण सुविधाओं से लैस आधुनिक मछली पकड़ने वाले जहाजों की आवश्यकता पर जोर दिया. यह स्वीकारते हुए कि पारंपरिक मछुआरों में वर्तमान में इन क्षमताओं की कमी है. सरकार इस अंतर को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध है.

डा. एल. मुरुगन ने आगे कहा कि टूना मछलियों की दुनियाभर में काफी मांग है और भारत में अपनी टूना मछली पकड़ने की क्षमता बढ़ाने की शक्ति है. उन्होंने अधिक स्टार्टअप को गहरे समुद्र में मछली पकड़ने के क्षेत्र में प्रवेश करने व ईंधन की लागत को कम करने और मछली पकड़ने वाली नौकाओं में हरित ईंधन के उपयोग की खोज पर ध्यान केंद्रित करने के लिए अनुसंधान का आह्वान किया. गहरे समुद्र में मछली पकड़ने की क्षमता का स्थायी तरीके से प्रभावी ढंग से उपयोग कर मछली पकड़ने वाले जहाजों को उन्नत करने के लिए अनुसंधान और डिजाइन की आवश्यकता है.

गहरे समुद्र के संसाधनों के उच्च मूल्य पर प्रकाश डालते हुए भारत सरकार के मत्स्यपालन के उपायुक्त डा. संजय पांडे ने कहा कि हिंद महासागर येलोफिन टूना का अंतिम मूल्य 4 बिलियन अमेरिकी डौलर से अधिक है.

विश्व बैंक के सलाहकार डा. आर्थर नीलैंड ने कहा कि भारत के ईईजेड में 1,79,000 टन की अनुमानित फसल के साथ येलोफिन और स्किपजैक टूना की आशाजनक क्षमता के बावजूद वास्तविक फसल केवल 25,259 टन है, जो केवल 12 फीसदी की उपयोग दर का संकेत देती है.

उन्होंने गहरे समुद्र में मछली पकड़ने में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र से निवेश की आवश्यकता पर जोर दिया, जिस से आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय लाभ हो सके.

डा. आर्थर नीलैंड ने आगे कहा, ‘‘विशेषज्ञ मत्स्यपालन विज्ञान और प्रबंधन, मछली प्रोसैसिंग और बुनियादी ढांचे के साथ भारत के मजबूत संस्थागत आधार का उपयोग गहरे समुद्र में मछली पकड़ने की विकास योजनाओं के लिए भी फायदेमंद होगा.‘‘

Fishermanउन्होंने जानकारी देते हुए आगे कहा कि हितधारकों की भागीदारी और निवेश, प्रौद्योगिकी और विशेषज्ञता एवं क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और साझेदारी को प्रोत्साहित करने के लिए एक माहौल बनाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है.

इस विषय पर आयोजित एक पैनल चर्चा में प्रस्ताव दिया गया कि गहरे समुद्र में मछली पकड़ने के विकास के लिए एक व्यवस्थित ढांचा विकसित करने के लिए सभी हितधारकों की चिंताओं को संबोधित करने वाले सामूहिक और समावेशी प्रयास आवश्यक हैं. गहरे समुद्र के सलाहकार, एनआईओटी, चेन्नई, डा. मानेल जखारियाय, वैज्ञानिक-जीएमओईएस, डा. प्रशांत कुमार श्रीवास्तव, आईसीएआर-केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान (सीएमएफआरआई) के वरिष्ठ वैज्ञानिक, डा. पी. शिनोजय और सीएमएलआरई के वैज्ञानिक डी, डा. हाशिम पैनलिस्ट थे.

गहरे समुद्र में मछली पकड़ने का काम प्रादेशिक जल की सीमा से परे किया जाता है, जो तट से 12 समुद्री मील की दूरी पर है, और तट से 200 समुद्री मील के विशेष आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) के भीतर है.

जलीय कृषि में नवाचारों के लिए ब्लू फाइनेंस को बढ़ाने का आह्वान

जलवायु परिवर्तन और खाद्य एवं पोषण सुरक्षा की बढ़ती मांग से उत्पन्न गंभीर खतरों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के वरिष्ठ मत्स्य अधिकारी साइमन फ्यूंजस्मिथ ने जलकृषि क्षेत्र में नवाचारों और विकास के लिए ब्लू फाइनेंस बढ़ाने का आह्वान किया.

उन के अनुसार, वैश्विक जलीय कृषि साल 2030 तक मानव उपभोग के लिए 59 फीसदी मछली प्रदान करेगी. साइमन फ्यूंजस्मिथ ने कहा कि एशिया 82 मिलियन टन के साथ वैश्विक जलीय कृषि उत्पादन का 89 फीसदी प्रदान करता है. एशिया में अधिकतर छोटे पैमाने के उद्यम कुल उत्पादन में 80 फीसदी से ज्यादा का योगदान दे रहे हैं. यह क्षेत्र प्राथमिक क्षेत्र में 20.5 मिलियन लोगों के लिए नौकरियां पैदा करता है. स्थायी मत्स्यपालन और जलीय कृषि को बढ़ावा देने का उल्लेख करते हुए उन्होंने छोटे पैमाने पर मत्स्यपालन और जल किसानों द्वारा स्थायी प्रथाओं का समर्थन करने का सुझाव दिया.

भेड़बकरी एवं खरगोशपालन पर प्रशिक्षण

अविकानगर: केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर में एग्री बिजनैस इनक्यूबेटर सैंटर एवं केड फाउंडेशन, उदयपुर के तत्वावधान में 10 राज्यों, राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश एवं दिल्ली के 45 किसानो (3 महिला एवं 42 पुरुष) का 5वें बैच को व्यावसायिक भेड़बकरी एवं खरगोशपालन पर प्रशिक्षण कार्यक्रम 16 से 22 नवंबर, 2023 तक केड फाउंडेशन द्वारा पांचदिवसीय प्रशिक्षण उदयपुर में और दोदिवसीय प्रशिक्षण अविकानगर में आयोजित किया गया.

संस्थान के निदेशक डा. अरुण कुमार तोमर ने सभी प्रशिक्षणार्थियों को संबोधित करते हुए बताया कि इस प्रशिक्षण का उद्देश्य आप के भेड़बकरीपालन की जानकारी से पहले से उपलब्ध जानकारी में कुछ नई जानकारी देनी है.

Sheep-Goat Husbandryवर्तमान समय में वैज्ञानिक तरीके से भेड़बकरीपालन व्यवसाय करते हुए आजीविका में बढ़ोतरी की जा सकती है. बढ़ते शहरीकरण के कारण खेती और पशुपालन उद्यमिता का रूप लेता जा रहा है, क्योकि शहरी लोगों की भोजन की हर आवश्यकता आप के द्वारा ही की जा सकती है.

इसलिए आप अपने भेड़बकरीपालन व्यवसाय को पशुपालन उद्यमिता के रूप में विकसित कर के भारत सरकार की मंशा आत्मनिर्भर भारत में अपने परिवार को माली रूप से सशक्त बना कर और लोगों को भी रोजगार दे कर कर सकते हैं.

निदेशक द्वारा किसान के हर तरह के भेड़बकरीपालन के सवाल का जवाब देते हुए भविष्य में भी संस्थान का पूरा सहयोग का आश्वासन दिया गया. अंत में सभी प्रशिक्षण लेने वाले प्रगतिशील किसानों को प्रमाणपत्र दिया गया.

Sheep-Goat Husbandryअविकानगर में प्रशिक्षण कार्यक्रम के समन्वयक डा. विनोद कदम, सहसमन्वयक डा. अजित सिंह महला व डा. अरविंद सोनी द्वारा किया गया. पशु पोषण विभाग के विभागाध्यक्ष डा. रणधीर सिंह भट्ट, केड फाउंडेशन, उदयपुर के निदेशक मुकेश सुथार, डा. अमर सिंह मीना, फिजियोलौजी एवं जैव रसायन विभाग के प्रभारी डा. सत्यवीर सिंह डांगी, डा. दुश्यंत कुमार शर्मा, नरेश बिश्नोई, अविकानगर संस्थान के मीडिया प्रभारी व वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. अमर सिंह मीना आदि द्वारा भी प्रशिक्षण कार्यक्रम को सफल बनाने में पूरा सहयोग दिया गया.

कमाल का है रैबिट हर्बल हेयर औयल

अविकानगर (राजस्थान): दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु, पुडुचेरी, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश एवं  तेलंगाना आदि में खरगोशपालन एक अच्छा रोजगार बन चुका है. इस के बढ़ते चाव को देखते हुए निदेशक, अविकानगर संस्थान डा. अरुण कुमार तोमर द्वारा सैंटर के आसपास के रैबिट इकाई का भ्रमण किया गया.

प्रगतिशील खरगोशपालक किसान एम. शर्मीला और करनाप्रकाश व मिसेस करनाप्रकाश जिला पोलाची द्वारा निदेशक एवं टीम को अवगत कराया कि रैबिट ब्लड मिक्स्ड हर्बल हेयर औयल, जिसे खरगोश के खून को मिला कर तैयार किया गया है, यह तेल सिर के बालों के लिए बहुत पसंद किया जा रहा है.

Rabbit Blood Oilरैबिट ब्लड मिक्स्ड हर्बल हेयर औयल के कई फायदों के बारे में किसानों ने बताया कि यह सिर के बालों के लिए बहुत फायदेमंद है. जैसे बालों की ग्रोथ न होना, बालों को काला करना व मजबूती देना और बालों के टूटने की समस्या को दूर करता है. इस तेल की पड़ोसी देशों मे भी खासी मांग है खासकर श्रीलंका, मलयेशिया, सिंगापुर आदि देशों में इस तेल की सप्लाई है.

तमिलनाडु राज्य के संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डा. एएस राजेंद्रयन, जो कि लंबे समय तक दक्षिण सैंटर पर काम कर चुके हैं ने बताया कि रैबिट ब्लड मिक्स्ड हर्बल हेयर औयल मानव में सिर के बालों का रूसी कम करने, बालों का झड़ना कम करना, बालों के सफेद होने को रोकना, सिर के बालों की थिकनैस, लंबाई और ग्रोथ को बढ़ाता है. साथ ही, समय से पहले सिर के बालों के काला रंग को कमजोर होने की दर को रोकता है.

उन्होंने यह भी बताया कि यह औयल कंप्यूटर और डिजिटल स्क्रीन पर लंबे समय तक काम करने के चलते होनी वाली  आखों की तिलमिलापन को रोकने और कम करने में मदद करता है.

Rabbit Blood Oilइन्हीं खूबियों की वजह से खरगोशपालक द्वारा 100 एमएल रैबिट ब्लड मिक्स्ड हर्बल हेयर की कीमत कम से कम 200 से 300 रुपए तक बेची जा रही है. इस के चलते दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य के खरगोशपालक इस औयल के निर्माण से खरगोश के मांस से भी ज्यादा कमाते हैं. जो लोग रैबिट मीट खाने में हिचकिचाते हैं, वे उस के औयल को आसानी से बिना कोई दिक्कत के उपयोग कर रहे हैं.

डा. राजेंद्रयन ने बताया कि अभी इस के उपभोक्ता ही इस का प्रचारप्रसार अपने अनुभव और फायदे के आधार पर कर रहे हैं, जिस के करना तमिलनाडु में कई किसान 1,000 से 2,000 तक रैबिट इकाई संचालित कर रहे हैं. इस का वास्तविक वैज्ञानिक कारण अभी तक पता नहीं, जो भविष्य का अनुसंधान का विषय है, जबकि माना यह जाता है कि रैबिट ब्लड में सल्फरयुक्त अमीनो एसिड और बायोटिन विटामिन की बहुतायत रहती है. इन सब के अलावा भी बहुत से अमीनो एसिड और उन के विभिन्न  अवयव की मात्रा भी मिलती है.

उत्तरप्रदेश में हाईटैक नर्सरी बढ़ाएगी किसानों की आमदनी

लखनऊ : उत्तर प्रदेश में किसानों को विभिन्न प्रजातियों के उच्च क्वालिटी के पौधे उपलब्ध कराने के उद्देश्य से इजराइली तकनीक पर आधारित हाईटैक नर्सरी तैयार की जा रही है. यह काम मनरेगा अभिसरण के तहत उद्यान विभाग के सहयोग से कराया जा रहा है और राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत गठित स्वयं सहायता समूहों की दीदियां भी इस में हाथ बंटा रही हैं. इस से स्वयं सहायता समूहों को काम मिल रहा है.

उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने बताया कि इस योजना के क्रियान्वयन से कृषि और औद्यानिक फसलों को नई ऊंचाई मिलेगी. विशेष तकनीक का प्रयोग कर के ये नर्सरी तैयार की जा रही हैं. सरकार की मंशा है कि प्रदेश का हर किसान समृद्ध बने और बदलते समय के साथ किसान हाईटैक भी बने.

उन्होंने आगे बताया कि सरकार पौधरोपण को बढ़ावा देने के साथ ही बागबानी से जुड़े किसानों को भी माली रूप से मजबूत बनाने का काम कर रही है. मनरेगा योजना से 150 हाईटैक नर्सरी बनाने के लक्ष्य के साथ तेजी से काम किया जा रहा है.

उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के निर्देश व पहल पर ग्राम्य विकास विभाग ने इस को ले कर प्रस्ताव तैयार किया था, जिस को ले कर जमीनी स्तर पर युद्धस्तर पर काम हो रहा है. हाईटैक नर्सरी से किसानों की माली हालत भी मजबूत हो रही है.

प्रदेशभर में 150 हाईटैक नर्सरी बनाने का लक्ष्य रखा गया है. बुलंदशहर के दानापुर और जाहिदपुर में हाईटैक नर्सरी बन कर तैयार भी हो चुकी है. 32 जिलों की 40 साइटों पर ऐसी नर्सरी बनाने का काम किया जा रहा है.

कन्नौज के उमर्दा में स्थित सैंटर औफ एक्सीलेंस फौर वेजिटेबल की तर्ज पर प्रदेश के सभी जनपदों में 2-2 मिनी सैंटर स्थापित करने की कार्यवाही जारी है. किसानों को उन्नत किस्म के पौध के लिए भटकना नहीं पड़ेगा.

समूह के सदस्यों को रोजगार

नर्सरी की देखरेख करने के लिए स्वयं सहायता समूह को जिम्मेदारी दी गई है. समूह के सदस्य नर्सरी का काम देखते हैं, जो पौधों की सिंचाई, रोग, खादबीज आदि का जिम्मा संभालते हैं. इस के लिए स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को प्रशिक्षण भी दिया जा चुका है.

किसानों की आय में बढ़ोतरी के लिए सरकार उच्च क्वालिटी व उन्नत किस्म के पौधों की नर्सरी को बढ़ावा देने के लिए तेजी से काम कर रही है. प्रत्येक जनपद में पौधशालाएं बनाने का काम किया जा रहा है. इन में किसानों को फूल और फल के साथ सर्पगंधा, अश्वगंधा, ब्राह्मी, कालमेघ, कौंच, सतावरी, तुलसी, एलोवेरा जैसे औषधीय पौधों को रोपने के लिए जागरूक किया जा रहा है. किसानों को कम लागत से अधिक फायदा दिलाने के लिए पौधरोपण की नई तकनीक से जोड़ा जा रहा है.

अब तक 7 करोड़ रुपए से ज्यादा का भुगतान

उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने बताया कि हाईटैक नर्सरी के निर्माण में अब तक 7 करोड़ से ज्यादा की धनराशि खर्च की जा चुकी है. बुलंदशहर में 2, बरेली, बागपत, मुजफ्फरनगर, मेरठ, महोबा, बहराइच, वाराणसी, बलरामपुर समेत 9 जनपदों में हाईटैक नर्सरी की स्थापना के लिए अब तक 7 करोड़ रुपए की धनराशि का भुगतान किया जा चुका है.

ग्राम्य विकास आयुक्त जीएस प्रियदर्शी ने बताया कि प्रदेश में 150 हाईटैक नर्सरी के निर्माण की कार्यवाही मनरेगा कन्वर्जेंस के अंतर्गत की जा रही है, जिस के सापेक्ष 125 हाईटैक नर्सरी की स्वीकृति जनपद स्तर पर की जा चुकी है.

रसायनों का संतुलित प्रयोग कृषि में लाभकारी

हिसार: वर्तमान समय में कृषि में उपयोग किए जा रहे फफूंदनाशकों और कीटनाशकों के प्रति कीटों और खरपतवारों में प्रतिरोधकता का विकास कृषि उत्पादों की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बना हुआ है. इस स्थिति से निबटने के लिए नई जैव रासायनिक क्रिया को प्रदर्शित करने वाले नए उत्पादों के विकास की अत्यधिक आवश्यकता है.

यह विचार चैधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर काम्बोज ने व्यक्त किए. वे नोबल पुरस्कार विजेता फ्रांसीसी महिला वैज्ञानिक मैरी क्यूरी की याद में विश्वविद्यालय के मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग व कैंपस स्कूल के सयुक्ंत तत्वावधान में आयोजित रसायन पखवाड़ा के अंतिम दिन ‘किसानों के लिए रसायन विज्ञान’ कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे.

कुलपति प्रो. बीआर काम्बोज ने कहा कि लगभग आधी सदी से जैविक रसायन का उपयोग कृषि में खाद्य उत्पादन को बढ़ाने और फसल सुरक्षा के लिए हो रहा है. इन रसायनों का संतुलित प्रयोग कृषि में स्थिरता के लिए जरूरी है.

उन्होंने आगे कहा कि कृषि में कई ज्वलंत मुद्दे हैं, जिन का समाधान रसायन विज्ञान में नवाचार कर के किया जा सकता है.

इन मुद्दों में से एक कृषि में जहरीला धातु संदूषण है. आर्सेनिक, कैडमियम, सीसा और पारा जैसी धातुओं के उच्च स्तर के संपर्क में आने से मनुष्य में गंभीर सेहत संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं, जबकि दूसरी ओर लोहा, बोरान और तांबा पौधों के विकास के लिए आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व हैं. इसलिए ऐसी धातुओं का पता लगाने के लिए उन्नत विश्लेषणात्मक रसायन विज्ञान तकनीकों का उपयोग कर के समयसमय पर किसानों के खेतों से ऐसी जानकारी एकत्र करने की आवश्यकता है.

Fertilizersकुलपति बीआर काम्बोज ने रसायन वैज्ञानिकों से यह भी कहा कि उन के अनुसंधान किसानों के कल्याण के लिए केंद्रित होने चाहिए. जैसे, कम साइटोटौक्सिसिटी वाले नए रोगाणुरोधी और नेमाटीसाइडल का विकास, कृषि रसायन व्यवहार और खतरों की पहचान, कृषि अपशिष्ट के उपयोग के लिए प्रक्रियाओं का विकास, हरित रसायन अनुसंधान और नैनोकण विकास आदि.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि यह प्रशंसा की बात है कि हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग द्वारा इन विषयों को अपने अनुसंधान कार्यक्रमों में प्राथमिकता दी गई है.

हरियाणा राज्य उच्च शिक्षा परिषद के सदस्य प्रो. ओम प्रकाश अरोड़ा ने इस कार्यक्रम के विषय को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि हरित क्रांति से पहले भारत को अमेरिका से अनाज मंगाना पड़ता था, लेकिन कृषि वैज्ञानिकों के योगदान से अब हम दूसरे देशों को भी अनाज भेज रहे हैं. उस समय पैदावार बढ़ाने के लिए रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग किया जाता था, जो कि समय की जरूरत थी. लेकिन अब हम जैविक व प्राकृतिक खेती को अपना कर गुणवत्ता से परिपूर्ण अनाज की पैदावार की तरफ भी ध्यान दे रहे हैं.

उन्होंने कहा कि रसायन विज्ञान का फसलों की उपज बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है. बच्चों को किताबी जानकारी के साथसाथ व्याहवारिक जानकारी हासिल करने के लिए उन्होंने प्रेरित किया. उन्होंने हमारे देश के महापुरुषों पर भी प्रकाश डाला.

इस से पूर्व मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. नीरज कुमार ने स्वागत भाषण देते हुए कहा कि विश्वविद्यालय के कैंपस स्कूल के सहयोग से आयोजित किए गए रसायन विज्ञान पखवाड़ा के दौरान भाषण प्रतियोगिता, प्रश्नोत्तरी और वर्किंग मौडल प्रदर्शनी जैसे कार्यक्रम आयोजित किए गए, जिन में स्कूलों और कालेज के विद्यार्थियों ने उत्साहपूर्वक हिस्सा लिया.

कार्यक्रम को रसायन विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डा. रजनीकांत शर्मा ने भी संबोधित किया. कार्यक्रम के अंत में कैंपस स्कूल की निदेशक संतोष कुमारी ने धन्यवाद प्रस्ताव प्रस्तुत किया. मंच का संचालन पीएचडी छात्रा सुचेता छाबड़ा ने किया. इस अवसर पर विश्वविद्यालय के सभी महाविद्यालयों के अधिष्ठाता, निदेशक, विभागाध्यक्ष, वैज्ञानिक, विद्यार्थी व कर्मचारी मौजूद रहे.

ये रहे प्रतियोगिताओं के नतीजे

इस कार्यक्रम के तहत आयोजित की गई प्रतियोगिताओं के नतीजे इस प्रकार रहे: भाषण प्रतियोगिता: प्रथम पुरस्कार रिद्धी ने प्राप्त किया, जबकि द्वितीय पुरस्कार रितु और तृतीय पुरस्कार हिमांशी ने जीता. एप्रिसिएशन पुरस्कार प्रिया व अलांशा को मिला. इंटर कालेज प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता में गवर्नमेंट पीजी कालेज, हिसार की रेणुका भारद्वाज, मुस्कान व पंकज प्रथम, जबकि इंदिरा चक्रवर्ती सामुदायिक विज्ञान महाविद्यालय की गुंजन, रेणु व प्रतिभा को द्वितीय पुरस्कार मिला, वहीं हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि महाविद्यालय से नमन, अर्पित कंबोज व प्रिया यादव तीसरे स्थान पर रहे.

इंटर कालेज वर्किंग मौडल प्रदर्शनी में कृषि महाविद्यालय के अंकित गावड़ी व कल्पना यादव प्रथम, ओडीएम महिला कालेज, मुकलान की मुस्कान व दीप्ति द्वितीय और मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय की खुशबू व पुजा देवी तृतीय स्थान पर रहीं.

अंतरविद्यालय प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता में सेंट एंथोनी स्कूल के लक्ष्य, देव मलिक व दिव्यांशी प्रथम, सिद्धार्थ इंटरनेशनल स्कूल के रचित मेहरा, राघव व कनिष्का द्वितीय और दि आर्यन स्कूल के प्रणव, अर्नव गांधी व सात्विकी रेहपड़े तृतीय स्थान पर रहे.

इंटर स्कूल वर्किंग मौडल प्रदर्शनी में: ओपी जिंदल मौडर्न स्कूल के नमन व गुन्मय को ‘प्रकृति से भविष्य तक’ विषय पर प्रथम पुरस्कार मिला, वहीं दि आर्यन स्कूल के आदित्य व दीपिका को ‘वेस्ट मैनेजमेंट’ विषय पर द्वितीय, जबकि डीएवी पुलिस पब्लिक स्कूल, हिसार की इशिका व अनु को तृतीय पुरस्कार मिला.

इसी प्रकार दि श्रीराम यूनिवर्सल स्कूल की समृद्धि व अनिंदया, सेंट मैरी स्कूल, हिसार की मनु सुनंदन व नंदिता और दिल्ली पब्लिक स्कूल, हिसार के अभय व शिवम को एप्रिसिएशन पुरस्कार मिला.

जंगल की आग – पलाश

पलाश को हिंदी में ढाक, बंगाली में पलाश, मराठी में पलस, गुजराती में खाखरो, तेलुगु में मोंदुगा, तमिल में परस, कन्नड़ में मुलुगा, मलयालम में पलास औैर वैज्ञानिक भाषा में ब्यूटिया मोनोस्पर्मा कहते हैं. मार्च माह में पूरा पेड़ सिंदूरी यानी लाल रंग के फूलों से लद जाता है और मीलों दूर से यह अपनी मौजूदगी की सूचना देता है. इसी वजह से इसे फ्लेम औफ फौरेस्ट यानी जंगल की आग भी कहते हैं.

भारत में लाख के कीड़े के परपोषी पेड़ के रूप में पलाश का स्थान कुसुम के बाद है. पलाश पर पैदा लाख अच्छी किस्म की नहीं होती, पर मात्रा दूसरी किसी परपोषी जाति पर पैदा लाख से ज्यादा होती है.

पलाश के पेड़ से हासिल लाख के कीडे़ के भू्रण से बेर और दूसरे लाख पोषियों को निवेशित भी किया जाता है, पर कुसुम पर निवेशित नहीं किया जाता है. इसे जड़ चूषकों यानी रूट सकर्स द्वारा पुनर्जीवित यानी फिर से जिंदा किया जा सकता है. इस के विभिन्न भाग भिन्नभिन्न रूपों में उपयोगी हैं :

पत्तियां : पलाश की पत्तियां फरवरी माह में झड़ जाती हैं और नई पत्तियां फूल खिलने के बाद मार्चअप्रैल माह में निकलती हैं. इस की पत्ती में 20-30 सैंटीमीटर वृत्ताकार माप के 3 पत्रक पाए जाते हैं. पत्तियां शीतल, रुक्ष, ग्राही और कफरात शामक होने से प्राचीन काल से ही रेशभर में दोनापत्तल बनाने के काम आती हैं.

ऐसा माना जाता है कि इन में भोजन करने से भूख बढ़ती हैं और पाचन क्रिया ठीक रहती है. आंखों और दिमाग को भी इस से ऊर्जा मिलती है. इन का उपयोग करने के बाद आसानी से अलग कर नष्ट कर सकते हैं.

पूरी तरह से विकसित एक पेड़ से तकरीबन 2,500 से 4,000 तक पत्तियां हासिल होती हैं जो 350 से 400 पत्तलें बनाने के लिए पर्याप्त है. पत्तियों का उपयोग फोड़ाफुंसी, मुहांसे, गिलटी, हीमोराइड्स वगैरह के उपचार में इस्तेमाल किया जाता है. इस की पत्तियों में मौजूद ग्लूकोसाइड के चलते ये पौष्टिक चारे के रूप में भी इस्तेमाल होती हैं.

बीज : पलाश की फली मई माह में पक कर तैयार हो जाती है. फली की नोक पर पाया जाने वाला बीज लालकथई रंग का, अंडाकार या गुरदाकार होता है. इस के बीजों में 8-10 फीसदी काइनो तेल, 18 फीसदी एल्युमिनाइड व कुछ फीसदी शर्करा पाई जाती है. बीज और तेल में कृमिनाशक गुणों के चलते इन का इस्तेमाल बुखार, मलेरिया, फीताकृमि व गोलकृमि के इलाज में किया जाता है. तेल व इस की खली में पाया जाने वाला लिपिडरहित पदार्थ कीटनाशक होता है. इसे तेल और खली से अलग कर कीटनाशक के रूप में उपयोगी बनाने के लिए अनुसंधान जारी है. पलाश के बीजों का इस्तेमाल तेल, साबुन उद्योग में भी किया जाता है, जबकि इस की खली प्रोटीन से भरपूर होती है.

फूल : इस के फूल बाहर से मखमली भूरे पीले व भीतर की ओर सिंदूरी लाल रंग के होते हैं और मार्च माह में पूरे वनों में अपनी मौजूदगी दिखाते हैं. इस वजह से ही इन्हें फ्लेम औफ फौरेस्ट कहते हैं. इस के फूलों में सुगंध न होने के चलते लुभावने रंग, पौष्टिक परागण और रस के कारण अनेक कीटों को लुभाते हैं.

Palashअर्क के रूप में पलाश के सूखे फूलों से पीला रंग हासिल होता है जिस में फिटकरी, चूना मिला कर गहरा सिंदूरी या नारंगी रंग हासिल करते हैं जो सिल्क, दूसरे कपड़े यानी फैब्रिक, लकड़ी या खाद्य पदार्थों को रंगने के काम आता है. इस रंग से रंगे हुए कपड़े पांडुरोगी को पहनाने से इस रोग की बढ़वार पर रोक लगती है और चर्म रोग व चेचक के प्रकोप से भी बचाव होता है. फूल सूजन, प्रदाह या जलन को कम करते हैं. होली पर आज भी पलाश के फूलों से रंग बनाया जाता है.

जड़ : पलाश की नई जड़ों से रेशा निकलता है, जो मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में रस्सियां वगैरह बनाने के काम आता है. इस की जड़ की छाल ब्लडप्रैशर के इलाज में फायदेमंद है.

लकड़ी : इस की लकड़ी आमतौर पर गांवदेहात में ईंधन के रूप में इस्तेमाल होती है. इस की छाल से हासिल अर्क का इस्तेमाल नजला और खांसी के इलाज में किया जाता है.

गोंद : इस की छाल की दरारों और कृत्रिम चीरों से लाल रस निकलता है जो सूख कर लाल गोंद बन जाता है. इसे ढाक का गोंद या बंगाल कीनो कहते हैं. इस में कार्नटिक अम्ल और गौलिक अम्ल 50 फीसदी पिच्छल द्रव्य व 2 फीसदी क्षार पाए जाते हैं. इस गोंद को पुनिया गोंद या कमरकस कहते हैं. यह त्वचा की बीमारियों, मुंह से संबंधित बीमारी, अतिसार, पेचिस, पेट संबंधी बीमारी और दूसरी बीमारियों में बेहद उपयोगी है.

लाख : लाख एक रेजिन स्राव है, जो लेसिफर लेक्का नामक कीट द्वारा स्रावित किया जाता है. यह कीट पलाश के पेड़ परजीवी के रूप में रहता है. एक साल में 2 बार यह हासिल किया जा सकता है.

अप्रैलमई माह में लाख का उत्पादन कम होता है, लेकिन सुनहरे रंग के कारण इस की कीमत ज्यादा होती है, जबकि अगस्तसितंबर माह में हासिल होने वाला लाख गहरे रंग का होने के चलते अपेक्षाकृत कम कीमत में बिकता है.

लाख का उपयोग खोखले गहनों के अंदर भरने, लाख के गहने, खिलौने व ग्रामोफोन रिकौर्ड बनाने में किया जाता है.

इस तरह पलाश दोना, पत्तल कारोबार व लाख उत्पादन के चलते किसानों के लिए कृषि वानिकी के तहत उपयुक्त होता है और प्रयोगों द्वारा इस से खेती की पैदावार पर भी कोई हानिकारक प्रभाव नहीं होने की पुष्टि हो चुकी है. यह लवणीय मिट्टी के सुधार के लिए भी काफी उपयोगी है.

गेहूं की उन्नत खेती कैसे करें

धान्य फसलों में गेहूं की फसल काफी महत्त्वपूर्ण है. भारत में इस का भूसा पशुओं को खिलाते हैं. गेहूं के आटे में खमीर पैदा कर के इस का इस्तेमाल डबलरोटी, बिसकुट वगैरह तैयार करने के लिए किया जाता है. गेहूं प्रोटीन का मुख्य स्रोत है, जिस में औसतन 14.7 फीसदी प्रोटीन पाया जाता है.

भारत में गेहूं का ज्यादातर क्षेत्रफल उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, मध्य प्रदेश वगैरह राज्यों में है. उत्तर प्रदेश देश का सर्वाधिक क्षेत्र 82.19 लाख हेक्टेयर में गेहूं पैदा करने वाला राज्य है. उत्तर प्रदेश गेहूं का सालाना उत्पादन 152.85 लाख टन करता है.

फसल की पूरी अवधि के लिए 10-15 सैंटीमीटर बारिश (पानी) और 25-26 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान सही है.

गेहूं को बलुई दोमट, बलुई, भारी दोमट या चिकनी मिट्टी वगैरह में उगा सकते हैं, लेकिन इन सभी मिट्टी में दोमट मिट्टी सब से अच्छी मानी जाती है. जमीन का पीएच मान 5.0 से 7.5 तक मुफीद होता है.

खेत की तैयारी

* बोआई के समय जमीन में 16 फीसदी नमी हो.

* खेत खरपतवाररहित हो.

* 21-22 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान हो, इस से कम या ज्यादा तापमान बीजों के अंकुरण के लिए सही नहीं होता है. खेत की अच्छी तैयारी के लिए खेत को एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए और 3-4 जुताई देशी हल, हैरो या कल्टीवेटर से करनी चाहिए.

* जमीन में नमी बनाए रखने के लिए हर जुताई के बाद पाटा चलाना चाहिए. गेहूं के लिए खेत तब तैयार मानना चाहिए, जब खेत में गीली मिट्टी का लड्डू बना कर ऊपर से छोड़ा जाए तो वह टूटे नहीं.

* छत्तीसगढ़ राज्य के लिए गेहूं की संस्तुति किस्में सुजाता, संगम, राजकंचन डब्लूएच 147, सी 306 वगैरह हैं.

बोआई का सही समय

गेहूं की बोआई का सही समय 15-30 नवंबर है, लेकिन इस के बाद बोआई की जाए तो उपज में भारी कमी आने लगती है. बोआई में देरी होने पर सामान्य अरहर और गेहूं फसल चक्र अपनाना सही होता है.

बीज दर : यह बोने की विधि और समय पर निर्भर है. आमतौर पर 100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही होता है.

बीजोपचार : बीजों को 2.5 ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर लेना चाहिए. इस से फसलों को बीजजनित रोगों से बचाया जा सकता है.

बोआई की गहराई : गेहूं के बीज की बोआई के लिए 5 सैंटीमीटर गहराई सही मानी जाती है. इस से ज्यादा गहराई में बीजों का अंकुरण ठीक से नहीं हो पाता है.

सीड ड्रिल से अच्छी बोआई

 

Seed Drill

गेहूं की बोआई आमतौर पर छिटकवां विधि से, हल के पीछे कूंड़ में, सीड ड्रिल द्वारा या हल के पीछे नाई बांध कर डिब्बर विधियों द्वारा की जाती है. इन सभी विधियों में सीड ड्रिल द्वारा बोआई सब से अच्छी विधि मानी जाती है.

 

खाद और उर्वरक : मिट्टी जांच के बाद ही खाद की जरूरत का निर्धारण किया जाना चाहिए.

गेहूं की फसल में आमतौर पर 100-200 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40-50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर दिया जाना चाहिए. पोषक तत्त्वों को निम्न ढंग से दिया जाना चाहिए:

* आधा नाइट्रोजन और पूरी फास्फोरस व पोटाश बोआई के समय छिड़काव के रूप में.

* एकचौथाई भाग नाइट्रोजन पहली सिंचाई के बाद (25-30 दिन की अवस्था पर) टौप ड्रैसिंग के दौरान.

* बाकी एकचौथाई भाग नाइट्रोजन पर्णीय छिड़काव के समय.

जल प्रबंधन : साधारण गेहूं की फसल में 5-6 बार सिंचाई की जरूरत होती है.

* क्राउन रूट इनिटिएशन पर -बोआई के 20-25 दिन बाद.

* कल्ले फूटने पर – बोआई के 40-50 दिन बाद.

* गांठ बनने की अवस्था पर – बोआई के 60-65 दिन बाद.

* फूल आने के समय – बोआई के 90-95 दिन बाद.

* दानों में दूध पड़ने पर – 110-115 दिन बाद.

* दाना कड़ा होने पर – बोआई के 120-125 दिन बाद.

फसल सुरक्षा

Wheatखरपतवार पर नियंत्रण : गेहूं की खरपतवार मुख्य रूप से पोआ घास, जंगली जई, कृष्णनील, हिरनखुटी, गेहूं का मामा (गुल्लीडंडा, बंदराबंदरी) वगैरह पाए जाते हैं. इन की रोकथाम खुरपी से की जा सकती है, इन खरपतवारों को रासायनिक विधि से खत्म करने के लिए भी खरपतवानाशी का उपयोग किया जाता है. कम चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों जैसे गेहूं का मामा व जंगली जई के लिए आइसोप्रोट्यूरौन की 0.75 से 1.0 किलोग्राम दवा को 800-1000 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से अंकुरण से पहले या बाद में 30-35 दिन की अवस्था में करना सही होता है.

रोग नियंत्रण:गेहूं में मुख्य रूप से गेरूई और कंडुआ रोग का प्रकोप अधिक होता है.

गेरूई : इसे रतुआ रोग भी कहते हैं. इस रोग में पत्तियों पर जंग लगा हुआ जैसा लवण दिखाई देता है, इस की रोधक किस्में हैं:

* एचडी 2009 (अर्जुन), यूपी 262, सोनालिका.

* इस की रोकथाम डाइथेन एम 45 या डाइथेन जैड 78 की दवा को 0.2 फीसदी के हिसाब से पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

कंडुआ रोग : इस रोग में बालियों पर काला चूर्ण बन जाता है, जिस से पूरी बाली खराब हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए केवल प्रमाणित बीज ही बोएं.

बीजोपचार के लिए 0.25 फीसदी की दर से थीरम या बीटावैक्स का इस्तेमाल करना चाहिए.

कीट नियंत्रण

गेहूं का एफिड : यह कीट पौधों में दाना पड़ने की अवस्था में लगता है, जो बालियों में पड़े दानों का रस चूसता है. इस की रोकथाम बीएचसी या 0.2 फीसदी फौलीडौल के छिड़काव से की जाती है.

दीमक : इस कीट की रोकथाम के लिए एल्ड्रिन की 5 फीसदी धूल 20-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से करनी चाहिए.

कटाई : फसल पकने पर पत्तियां व बालियां सूख जाती हैं और बालियां मुड़ कर झुक जाती हैं. ऐसी अवस्था में फसल की कटाई की जानी चाहिए.

उपज : बौनी किस्मों में 40-50 क्विंटल दाना प्रति हेक्टेयर और 60-65 क्विंटल भूसा हासिल किया जा सकता है. देशी किस्मों से 25-30 क्विंटल दाना ही मिल पाता है.

हाइड्रोजैल : जल प्रबंधन और अधिक उपज

बढ़ती आबादी के साथसाथ कृषि, उद्योग और शहरी आबादी के बीच पानी की कमी होना अब चिता की बात है. इस समस्या से कैसे निबटा जाए, इस के लिए हर रोज नए प्रयोग भी हो रहे हैं.

जल प्रबंधन की अनेक तरकीबें जैसे ड्रिप व फव्वारा सिंचाई, छोटे पैमाने पर जल संचयन यानी पानी जमा करना मल्चिंग, शून्य या कम से कम जुताई जैसे तरीकों को अपनाया जा रहा है.

खेती में कम से कम पानी की जरूरत हो, इसी संदर्भ में विशेषज्ञों ने ऐसा पदार्थ ईजाद किया जिन्हें हाइड्रोजैल कहा जाता है. यह जल संरक्षण के लिए बेहद उपयोगी तकनीक है.

पूसा हाइड्रोजैल : कृषि की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पूसा कृषि अनुसंधान संस्थान के कृषि रसायन संभाग के वैज्ञानिकों ने हाइड्रोजैल तैयार किया है जिसे पूसा हाइड्रोजैल का नाम दिया गया है.

यह कृषि रसायन प्राकृतिक पौलीमर सैल्यूलोस पर आधारित है. यह अपने शुष्क वजन के मुकाबले 350-500 गुना अधिक पानी ग्रहण कर फूल जाता है और पौधे की जरूरत के मुताबिक धीरेधीरे जड़ क्षेत्र में अपना प्रभाव छोड़ता है, जिस से पौधे की जड़ में नमी बनी रहती है. यह उत्पाद उच्च तापमान (40 से 50 डिगरी सैल्सियस) पर भी प्रभावी रहता है, इसलिए यह हमारे देश के गरम इलाकों के लिए भी बेहद लाभदायक है.

पूसा हाइड्रोजैल के लाभ : पौधों की जड़ों के आसपास की मिट्टी में नमी बनी रहती है. बारानी क्षेत्रों व सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों में किसानों के लिए पानी की बचत होती है. मिट्टी में पूसा हाइड्रोजैल डालने से सभी तरह की फसलों, जिन में खाद्यान्न व बागबानी फसलें शामिल हैं, में कम सिंचाई करनी पड़ती है. इस प्रकार यह तकनीक सिंचाई, पैसा और समय की लागत को कम करती है.

गेहूं की फसल में इस के असर को जानने लिए पूसा संस्थान व देश के अन्य कई संस्थानों द्वारा परीक्षण किए गए. इन परीक्षणों के नतीजों में पाया गया कि सामान्य तौर पर गेहूं के लिए 5-6 सिंचाइयों की जरूरत रहती है, जबकि पूसा हाइड्रोजैल का इस्तेमाल कर के उपज में नुकसान के बिना आसानी से 2 सिंचाई बचाई जा सकती हैं. इसी तरह मूंगफली, आलू, सोयाबीन, फूलों, शाकीय व अन्य फसलों में भी इस के अच्छे नतीजे देखे गए हैं.

नर्सरी व पौध रोपाई के अच्छे नतीजे : नर्सरी लगाते समय व पौध रोपण के समय पूसा हाइड्रोजैल का प्रयोग अंकुरण व जड़ फुटाव को बढ़ावा देता है. संस्थान के संरक्षित कृषि व प्रौद्योगिकी केंद्र के पौलीहाउस व खेतों में किए गए परीक्षणों में देखा गया है कि गुलदाउदी में पूसा हाइड्रोजैल के इस्तेमाल से अच्छी गुणवत्ता की नर्सरी मात्र 18-20 दिन में तैयार हो जाती है जबकि आमतौर पर नर्सरी तैयार होने में 28-30 दिन का समय लगता है.

मिट्टी में नमी बनाए रखने के लिए पूसा हाइड्रोजैल न केवल बीज के फुटाव, फसल विकास में भी सहायक है, बल्कि  यह पौधे को स्थायी रूप से मुरझाने की स्थिति में लंबे समय तक बचाता है.

कैसे काम करता है पूसा हाइड्रोजैल : मिट्टी में डालने पर पूसा हाइड्रोजैल इसी का एक हिस्सा बन जाता है. इस हाइड्रोजैल के चीनी के दानों जैसे छोटेछोटे कण जड़ के आसपास में सिंचाई या बारिश के बाद अतिरिक्त पानी, जो कि पौधों को नहीं मिल पाता है, को पा कर फूल जाते हैं और पौधों के विकास के दौरान पानी की कमी से पैदा होली वाली स्थिति में जड़ें इन फूले हुए कणों से जरूरत के मुताबिक पानी व पोषक तत्त्व लेती हैं.

कहां और किस कीमत पर : अनेक परिस्थितियों में उगाई जाने वाली अधिकांश फसलों के लिए पूसा हाइड्रोजैल 2.5 से 5.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना सही माना गया है. बाजार में यह उत्पाद निम्नलिखित कंपनियों द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा है:

# कार्बोरंडम यूनिवर्सल प्रा. लि. बैंगलुरु, ब्रांड का नाम कावेरी, मोबाइल नंबर 9449081339.

# अर्थ इंटरनैशनल प्रा. लि., नई दिल्ली, ब्रांड का नाम वारिधर, जी 1, मोबाइल नंबर 9868259735.

इस के अलावा 2 और कंपनियां, हंटिन आर्गेनिक्स प्राइवेट लि., फरीदाबाद व नागार्जुन फर्टिलाइजर्स प्रा. लि., हैदराबाद भी इस उत्पाद को जल्दी ही बाजार में उपलब्ध कराएंगी.

पूसा हाइड्रोजैल की शुरुआती कीमत 1,200 रुपए प्रति किलोग्राम से ले कर 1,400 रुपए प्रति किलोग्राम रखी गई है. कंपनियों से मिली जानकारी के आधार पर मांगानुसार कीमत के कम या ज्यादा होने की संभावनाएं हैं.

हाइड्रोजैल का इस्तेमाल : पूसा हाइड्रोजैल का इस्तेमाल तय किए गए तौरतरीकों के अनुसार ही करें. जरूरत के मुताबिक तय की जाने वाली प्रत्येक विधि में यह ध्यान रखना जरूरी है कि हाइड्रोजैल के कण बीज या पौध के एकदम नीचे या आसपास ही डालें, जिस से पौधें को पूरी नमी मिले.

खास तरीका:

गेहूं, मक्का, दालों, तिलहन वगैरह जैसी फसलों के लिए:

* खेती की तैयारी, पूर्व बोआई व सिंचाई, उर्वरक आदि का प्रयोग सामान्य रूप

से करें.

* हाइड्रोजैल का प्रयोग बोआई के समय सब से ज्यादा लाभदायक है.

* खेत से 20-25 किलोग्राम सूखी मिट्टी लें व उसे एकसमान कर लें. इस में जरूरत के मुताबिक 2.5-5.0 किलोग्राम हाइड्रोजैल व बीज मिलाएं.

* यदि आप डीएपी का प्रयोग कर रहे हैं तो इसे भी खेत में डालने की अपेक्षा मिट्टी जैल के मिश्रण में मिलाना फायदेमंद रहता है.

* तैयार किए गए मिश्रण को सीड ड्रिल या हल द्वारा लाइनों में डालें, बाद में फसल की अवस्था व मिट्टी में नमी के आधार पर सिंचाई करें.

Hydrogelपौध तैयार करने के लिए

कुछ फसलों के लिए पौध भी तैयार करनी होती है जिस के लिए सही वातावरण व पोषण तत्त्वों की तय मात्रा बेहद जरूरी है. पूसा हाइड्रोजैल इस संदर्भ में बहुत उपयोगी है. बोआई से पहले मिट्टी की तैयारी के समय भी इस के इस्तेमाल की सिफारिश की जाती है.

ट्रे में पौध तैयार करने के लिए हाइड्रोजैल (2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है) को सूखे मिट्टी रहित माध्यम में अच्छी तरह मिलाएं. ट्रे को इस मिश्रण से भर लें और ट्रे में बीज बो दें और सामान्य रूप से प्रथम सिंचाई या फर्टीगेशन करें. बाद की सिंचाइयां बीज अंकुरण व समयसमय पर नमी की स्थिति को देखते हुए करनी चाहिए. खेत में पौध तैयार करने के लिए हाइड्रोजैल (2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) और बीज जरूरत के मुताबिक उतनी सूखी मिट्टी में मिलाएं जिसे आसानी से नर्सरी क्षेत्र में समान रूप से फैलाया जा सके.

पौध की खेत में रोपाई के समय

हाइड्रोजैल को सूखी मिट्टी में मिलाएं. तैयार मिश्रण को खेत में बनाई गई कुंड पंक्तियों में समान रूप से डालें. बाद में पौध रोपाई इस तरीके से करें कि डाला गया जैल जड़ के आसपास ही रहे.

डिबलिंग विधि द्वारा फसल (आलू, गन्ना) की रोपाई के समय जैल मिट्टी मिश्रण बीज कलम लगाने के लिए बनाए गए गड्ढों या कुंडों में समान रूप से बांट कर के डालें. बाद में बीज कलम रोप कर कुंड या गड्ढे को ढक दें.

सावधानियां

* पैकेट को अच्छी तरह से बंद कर के रखें, ताकि इस पर नमी का असर न हो.

* बोआई या पौध रोपण के समय हाइड्रोजैल मिट्टी मिश्रण को पूर्ण रूप से नमी रहित सूखी मिट्टी में तैयार करें.

* बीज व मिट्टी के साथ जैल का सभाग मिश्रण करना जरूरी है.

* जैल मृदा मिश्रण का खेत में समान रूप से प्रयोग सुनिश्चित करें.

* नमी रहित स्थान पर ही इस का भंडारण करें.