बाजरे की प्रोसेसिंग (Processing of Millets) – रोजगार का जरीया

एक मोटे अनाज के रूप में पहचान बनाने वाले बाजरे से आज अनेक खाद्य पदार्थ बनाए जा रहे हैं. खासकर बाजरे का दलिया बना कर आज अनेक कंपनियां खासी कमाई कर रही हैं. आजकल बाजरे के नमकीन सेब, लड्डू, बरफी, शकरपारा, ढोकला, केक, पास्ता, मट्ठी व बिस्कुट वगैरह भी काफी पसंद किए जा रहे हैं. बाजरे में काफी मात्रा में प्रोटीन, वसा, रेशा व खनिज लवण होते हैं, जो हमारे लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं.

बाजरे की प्रोसेसिंग कर के ये सब व्यंजन बड़ी आसानी से तैयार किए जा सकते हैं. लघु उद्योग के रूप में गांव वाले या शहरी लोग भी इसे कारोबार के रूप में अपना सकते हैं. काम शुरू करने के लिए इस की ट्रेनिंग लेना बहुत जरूरी है.

ट्रेनिंग के लिए चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार (हरियाणा) के खाद्य एवं पोषण विभाग से संपर्क किया जा सकता है. इस कृषि विश्वविद्यालय से जुड़े गृह विज्ञान महाविद्यालय में बाजरे के कई प्रकार के व्यंजनों को बनाना सिखाया जाता है. बाजरे की प्रोसेसिंग को ले कर इन का एक खास विभाग है ‘बाजरा उत्कृष्टता केंद्र’. इस के तहत इन के विशेषज्ञ समयसमय पर लोगों को ट्रेनिंग देते हैं, जो कि बहुत कम दिनों की होती है. इन के अनुभवी लोग तमाम जगहों पर जा कर भी ट्रेनिंग देते हैं.

प्रोसेसिंग तकनीक से बाजरा व अन्य अनाजों को उत्पाद के रूप में बदला जा सकता है. पुराने समय के लोग पारंपरिक तरीकों से इन अनाजों की प्रोसेसिंग करते थे जैसे बाजरे का आटा बनाने के लिए उसे हाथ से कूटना, हाथ की चक्की से पीसना, छिलका उतारना, दलिया बनाना वगैरह. लेकिन इन तरीकों से मेहनत और समय तो ज्यादा लगता था, पर उत्पादन कम होता था. साथ ही अनाज में छिलका आदि भी लगा रह जाता था, जिस से सही गुणवत्ता भी नहीं मिल पाती थी.

अब इन कामों के लिए प्रोसेसिंग की मशीनें आ गई हैं. इन मशीनों से ये काम बहुत आसानी से किए जा सकते हैं. मशीनों के इस्तेमाल से समय की बचत के साथसाथ मेहनत भी कम लगती है. मशीनों की जानकारी ले कर इस रोजगार की दिशा में काम किया जा सकता है.

बाजरे की प्रोसेसिंग के लिए कुछ खास मशीनें

डिस्टोनर, ग्रेडर व एस्पिरेटर : यह बाजरे की ग्रेडिंग करने की मशीन है. इस मशीन से बाजरे से रेत, कंकड़ व पत्थर वगैरह को अलग किया जाता है और बाजरे के दानों की ग्रेडिंग भी की जाती है.

छिलका उतारने की मशीन : इस मशीन से बाजरे की ऊपरी मोटी परत दानों से अलग की जाती है. छिलका उतारते समय दाने थोड़ी मात्रा में टूट भी जाते हैं, लेकिन छिलका उतरे अनाज से बाजरे के व्यंजन ज्यादा स्वादिष्ठ बनते हैं.

अनाज उबालने की मशीन (पारबौयलिंग मशीन) : यह मशीन 2 भागों में बनी होती है. इस मशीन में अनाज भिगोया व थोड़ी देर तक उबाला जाता है, जिस से बाजरे के अपोषक तत्त्व कम हो जाते हैं और बाजरे को ज्यादा समय तक रखा जा सकता है. साथ ही बाजरे की पौष्टिकता बढ़ जाती है, जिस से बने खाद्य पदार्थ ज्यादा पौष्टिक व स्वादिष्ठ होते हैं.

दलिया बनाने की मशीन (हैमर मिल/पुलवेरीजर) : आज बाजरे का दलिया काफी पसंद किया जाता है. इस मशीन से बढि़या क्वालिटी का दलिया निकाला जाता है. इस मशीन से छिलका उतारे गए बाजरे का दलिया बनाया जाता है और इसे मोटा आटा बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. दलिया बनने के बाद मोटे आटे व दलिया को छान कर अलग कर लिया जाता है. यह मशीन अलगअलग कूवत में मिलती है.

सोलर टनल ड्रायर : यह मशीन सोलर ऊर्जा द्वारा चलती है. इस मशीन से बाजरे व किसी भी खाद्य पदार्थ को सुखाया जाता है. इस मशीन से समय व ईंधन की बचत होती है.

इस का तापमान नियंत्रित होता है. चूंकि यह मशीन सौर ऊर्जा से चलती है, इसलिए इस की कार्य क्षमता आकार व मौसम पर निर्भर करती है.

अगर आप भी बाजरे के उत्पाद बना कर बेचना चाहते हैं यानी अपनी इकाई लगाना चाहते हैं, तो सब से पहले ट्रेनिंग लेना जरूरी है. संस्थान द्वारा कम समय के कोर्स भी चलाए जा रहे हैं, जिन्हें कर के आप अपना कारोबार शुरू कर सकते हैं.

ज्यादा जानकारी के लिए चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार (हरियाणा) के बाजरा उत्कृष्टता केंद्र, खाद्य एवं पोषक विभाग, गृह विज्ञान महाविद्यालय से संपर्क कर सकते हैं.

कच्ची उपज को टिकाऊ बनाएं प्रोसेसिंग (Processing) से लाभ कमाएं

भारत में बड़े पैमाने पर खेती की जाती है. जमीन उपजाऊ व किसान मेहनती हैं. पैदावार भी भरपूर होती है. बावजूद इस के ज्यादातर किसानों की माली हालत खराब है. दरअसल, जब मौसमी फसलें पक कर बाजार में आती हैं, तो आवक बढ़ने से उपज की कीमतें गिर जाती हैं. ऐसे में फायदा तो दूर, लागत भी मुश्किल से निकल पाती है. इस से नजात पाने के लिए खेती से कमाई के नए तरीके खोजने जरूरी हैं.

किसान नई तकनीक सीख कर फल, सब्जी, दलहन, तिलहन व अनाज की फसलों में से ज्यादातर की प्रोसेसिंग व डब्बाबंदी गांव में रह कर ही कर सकते हैं. कुछ किसान बजाय मंडी में अपनी उपज बेचने के सीधे बड़ी मिलों को बेच देते हैं, ताकि उन्हें ज्यादा कीमत मिले. बेशक यह तरीका कारगर है, लेकिन अब दाल, तेल व चावल आदि प्रोसेसिंग की मिनी मिलें आ गई हैं. किसान उन्हें लगा कर खुद भी आसानी से प्रोसेसिंग कर सकते हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, सीएसआईआर दिल्ली के रिसर्च सैंटरों से मिनी मिलों व मशीनों की जानकारी हासिल की जा सकती है. रही बात तैयार माल को बेचने की, तो जब किसान अपनी उपज को कच्चे माल की तरह बेच लेते हैं, तो तैयार माल को भी बेचा जा सकता है. जिला उद्योग केंद्र, ग्रामोद्योग बोर्ड व खादी आयोग आदि भी प्रचार, नुमाइश करने व माल बिकवाने में काफी मदद करते हैं, लिहाजा उन से तालमेल बनाने की जरूरत है.

उत्पाद अनेक

आटा, मैदा, सूजी, दलिया, खील, बिस्कुट, ब्रेड, तेल, अचार, चटनी, मुरब्बा, जैम, जैली, टौफी, जूस, शरबत, चिप्स, बडि़यां, पापड़, नमकीन, पिसे मसाले, क्रीम, दही, पनीर, खोया, घी, मक्खन, कैचप व सास, आदि तमाम पैकेटबंद चीजें हमारे देश में बन और बिक रही हैं. अपनी कूवत व काबलीयत के मुताबिक उत्पाद बनाए व बेचे जा सकते हैं. जो भी उपज ज्यादा हो और बाजार में उस की कीमत वाजिब न मिल रही हो, तो उसी की प्रोसेसिंग की जा सकती है.

कीमत बढ़ाएं

सदियों से खेती बोआई से कटाई तक की हद में रही है, लेकिन अब खेती की लगातार बढ़ती लागत व घटते मुनाफे ने किसानों को खेती के सहायक धंधे करने के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया है. साथ ही बेवजह के नुकसान घटाने की गरज से खेती के माहिर वैज्ञानिकों ने पोस्ट हारवेस्ट टैक्नोलौजी यानी कटाई के बाद की तकनीक अपनाने और वैल्यू एडीशन करने यानी उपज की कीमत बढ़ाने पर जोर दिया है.

उपज की कीमत बढ़ाने के लिए उसे बेहतर बनाया जाता है. उपज कोई भी हो कटाई के कुछ समय बाद ही वह नमी, फफूंदी, चूहे व कीड़ों आदि के कारण खराब होने लगती है. लिहाजा, धुआं दे कर या कीट व फफूंदनाशक दवाएं रख कर उसे महफूज किया जाता है. ठीक इसी तरह फूड प्रासेसिंग में भी होता है. खानेपीने की चीजों को लंबे समय तक महफूज बनाए रखने के लिए उन में प्रिजरविंग एजेंट यानी परिरक्षक डाले जाते हैं.

फलसब्जियों को सुखा कर या उन का अचार आदि डाल कर टिकाऊ बनाने का काम सदियों से घरों में औरतें बखूबी करती रही हैं. यह बात अलग है कि उन के तौरतरीके अलग होते थे. गौरतलब है कि पुराने जमाने में खानेपीने की चीजों को सड़ने से बचाने के लिए रासायनिक प्रिजर्वेटिव नहीं थे. लिहाजा मेवों, मसालों, फलों व सब्जियों को धूप, हवा या छाया में सुखा कर, जमा व बोतलबंदी कर टिकाऊ बनाया जाता था.

टिकाऊ बनाना

फलों व सब्जियों से बनी खानेपीने की चीजों को लंबे वक्त तक टिकाऊ बनाने के लिए कुदरती तरीकों का इस्तेमाल हमारे देश में सदियों से होता रहा है. पुराने जमाने में खानेपीने की चीजों को लंबे समय तक महफूज रखने के लिए नमक, शक्कर, शहद, लौंग, नीबू, अजवायन, दालचीनी व सिरका आदि का इस्तेमाल कुदरती प्रिजर्वेटिव्स के तौर पर किया जाता था, ताकि फफूंदी न लगे.

इन घरेलू नुसखों के इस्तेमाल से सामान व सेहत दोनों के खराब होने की आशंका नहीं होती. दादीनानी अपने घरेलू नुसखों के बलबूते ही अचार, चटनी, मुरब्बे, बड़ी व पापड़ आदि बहुत सी चीजों को टिकाऊ बना कर लंबे वक्त तक खाने लायक बनाए रखती थीं.

प्रोसेसिंग (Processing)

प्रिजर्वेटिव्स

फूड प्रोसेसिंग के काम में प्रिजर्वेटिव्स यानी टिकाऊ बनाए रखने वाले कैमिकल्स का इस्तेमाल बहुत अहम होता है. तुरंत व तेज असरकारी नए रासायनिक प्रिजर्वेटिव्स खानेपीने की चीजों को खराब होने से बचाने में कारगर हैं, लेकिन इन के इस्तेमाल में सावधानी बरतना बहुत जरूरी है.

यही वजह है कि दुनिया भर के मुल्कों में इन के इस्तेमाल के मानक तय किए गए हैं. जागरूक ग्राहक कैमिकल रहित खाद्य उत्पाद खरीदने को तरजीह देते हैं. लिहाजा, औरगैनिक फार्मिंग की तरह जल्द ही प्रिजर्वेटिव्स रहित खाद्य उत्पादों का बाजार भी बहुत तेजी से बढ़ेगा.

अब खानपान में जागरूकता बहुत तेजी से बढ़ रही है. ज्यादातर ग्राहक हैल्दी फूड्स की तलाश में रहते हैं. वे इस बात पर भी गौर करते हैं कि माल की क्वालिटी कैसी है? उस के अंदर क्याक्या चीजें शामिल हैं. बहुत सी नामी कंपनियां रंग व रसायन के बगैर टमाटर सास व फलों के जूस आदि उत्पाद बना कर ऊंची कीमतों पर बेच रही हैं. आगे ऐसे उत्पादों की मांग और बढ़ेगी, लिहाजा, किसान इस से फायदा उठा सकते हैं.

फूड प्रोसेसिंग के लिए प्रिजर्वेटिव्स यानी परिरक्षकों की पूरी जानकारी होना बेहद जरूरी है. प्रिजर्वेटिव्स खानेपीने की चीजों को टिकाऊ बना कर खराब होने से रोकते हैं. सोडियम बैंजोएट, बैंजोइक एसिड व लैक्टिक एसिड आदि कई तरह के प्रिजर्वेटिव्स अब आसानी से बाजार में मिलते हैं व धड़ल्ले से इस्तेमाल होते हैं.

तालीम

राज्यों के उद्यान एवं फल सरंक्षण विभाग, ग्रामोद्योग बोर्ड, खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग, कृषि विश्वविद्यालयों के प्रसार विभाग या फूड प्रोसेसिंग की किसी निजी इकाई में काम कर के खाद्य प्रसंस्करण का काम सीखा जा सकता है. सीखने के बाद गांव में ही अपनी इकाई लगाई जा सकती है.

फूड प्रोसेसिंग इकाई लगाने व चलाने से पहले लाइसैंस व छूट आदि की जानकारी जिला उद्योग केंद्र या ग्रामोद्योग के दफ्तर से हासिल कर सकते हैं. तैयार उत्पादों की क्वालिटी को हमेशा उम्दा और कीमतें वाजिब बनाए रखने का ध्यान जरूर रखें, ताकि बाजार में दिग्गजों के बीच ठहरा जा सके व ग्राहकों के दिलों में आसानी से जगह बनाई जा सके. पहले छोटे पैमाने पर काम शुरू कर के बाद में उसे बढ़ाया जा सकता है.

मेरठ में अचार, चटनी व मुरब्बे जैसे करीब 50 उत्पाद बना रहे गृहउद्योग तृप्ति फूड्स की शुरुआत में नीबू का सिर्फ 12 बोतल स्क्ैवश बना कर बेचा गया था. उस की क्वालिटी व वाजिब कीमत का असर यह हुआ कि खूब मांग बढ़ी व काम बहुत तेजी से बढ़ा. इस उद्यमी का मानना है कि इस काम में ईमानदारी ही तरक्की की बुनियाद है. मसलन, अनानास की चटनी में वे कभी भी कच्चे पपीते व एसेंस की मिलावट नहीं करते.

प्रोसेसिंग के काम में पैकेजिंग की भी बहुत अहमियत होती है. आजकल पैकिंग की दुनिया में बहुत तेजी से बदलाव हुए हैं. मसलन, टीन के डब्बों व कांच की बोतलों जैसी पुरानी पैकिंगों में माल तैयार करने वाले निर्माता अब बहुत कम रह गए हैं. अब पौलीपैक, पाउचपैक, अल्यूमिनियम पैक, प्लास्टिक पैक व टैट्रा पैक ज्यादा दिखाई देते हैं. प्रोसेसिंग का काम शुरू करने से पहले यह तय करना बेहद जरूरी है कि तैयार माल की पैकिंग कैसी होगी? अब हर तरह की पैकिंग की छोटीबड़ी, मैनुअल व आटोमैटिक मशीनें देश में असानी से मिलने लगी हैं. जरूरत हिचक छोड़ कर मन बनाने व आगे आ कर पहल करने की है.

टिकाऊ यानी जैविक खेती (Organic Farming)

आजादी से पहले जैविक खेती ही होती थी और तब देश कि खाद्यान्न में आत्मनिर्भर न होने के कारण विदेशों से अनाज मंगाया जाता था. देश की आजादी के बाद हरितक्रांति की शुरुआत हुई और तब  से लगातार रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से फसल की अच्छी पैदावार इस बात का सुबूत है कि 60 के दशक से पहले जैविक खेती से खाद्यान्न उत्पादन उतना नहीं होता था जितना कि आज रासायनिक खेती से हो रहा है. यदि यह तथ्य सही है तो किसान जैविक खेती क्यों करेगा?

आज खेती निश्चित तौर से किसान के आर्थिक पहलू से जुड़ी है, अत: किसान वही खेती करेगा जिस में उसे अच्छा लाभ मिलेगा. यदि जैविक खेती में रासायनिक खेती के मुकाबले कम खाद्यान्न उत्पादन होता हो और किसान को घाटे की भरपाई नहीं हो पा रही हो तो किसान के लिए जैविक खेती का कोई मतलब ही नहीं रह जाता. लेकिन दूसरी तरफ जमीन की उर्वरता का संरक्षण किए बगैर इसी तरह अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते रहे तो एक दिन यह सब रेगिस्तान में बदल जाएगा.

अगर दोनों पक्ष अपनीअपनी जगह सही हैं तो किसान खेती का चुनाव कर ऊपर लिखे तथ्यों के आधार पर यह समझ लें कि जमीन के स्वास्थ्य की कीमत पर अधिक फसल का लालची प्रयास ज्यादा दिन नहीं टिक सकता है. रासायनिक उर्वरकों से नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की ही पूर्ति होती है. शेष 13 तरह के सूक्ष्म तत्त्वों की आवक नहीं होगी तो भूमि की उर्वरता व संरचना कब तक बनी रहेगी और ऐसी जमीन से पैदा होने वाला खोखला अनाज हमारे स्वास्थ्य पर क्या असर डालेगा?

जैविक खेती (Organic Farming)

पौधों को पोषक तत्त्व उपलब्ध कराने के लिए कृषि विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार उर्वरकों का उपयोग करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन गोबर की खाद का प्रयोग न करने और रासायनिक उर्वरकों पर ही पूरी तरह निर्भर रहने से जमीन की उर्वराशक्ति कमजोर हो जाती है.

दूसरी तरफ कीटनाशकों के जहरीले रसायनों के बुरे नतीजों से सारा विश्व चिंतित है. वैज्ञानिकों के अनुसार कीटनाशकों के इस्तेमाल से मित्र कीट लगातार मर रहे हैं और हानिकारक कीटों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है.

इन रसायनों के खराब नतीजों से साफ है कि रासायनिक खेती टिकाऊ विकल्प नहीं हो सकती. अत: 90 के दशक से ही दुनिया के अनेक देशों ने जैविक खेती की वकालत शुरू कर दी है.

जीवाणु खाद और उस से होने वाले लाभ के बारे में जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि गोबर या कंपोस्ट खाद का कोई चारा नहीं है. गोबर या कंपोस्ट खाद के उपयोग से मिट्टी की उर्वरता और संरचना कायम रखने के लिए समस्त पोषक तत्त्वों की आपूर्ति हो जाती है, जबकि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी में किसी न किसी रूप में पोषक तत्त्वों की कमी रहती ही है. यदि मिट्टी में जरूरी पोषक तत्त्व नहीं होंगे तो हाईब्रिड फसलों को कम उपज के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते हैं. गोबर या कंपोस्ट का उपयोग करते रहने से रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता को काफी कम किया जा सकता है. खेतों में यदि पोषक तत्त्व उचित मात्रा में होंगे तो पौधे एकदम स्वस्थ होंगे तथा स्वस्थ पौधों पर बीमारी का असर भी कम होगा, क्योंकि सामान्यत: कमजोर पौधे ही ज्यादा रोग से पीडि़त होते हैं.

जैविक या कार्बनिक खाद में सभी तरह के पोषक तत्त्व अधिक या कम मात्रा में होते हैं, लेकिन पौधों को ये पोषक तत्त्व धीरेधीरे प्राप्त होते हैं. सामान्यत: खाद में पोषक तत्त्वों की कमी और कार्बनिक पदार्थों की अधिकता होती है. मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के बढ़ने से सूक्ष्म जीवियों की संख्या बढ़ जाती है और सूक्ष्मजीवी मिट्टी में मौजूद जहरीले पदार्थों को खत्म कर के उन्हें बेकार करते हैं और सड़ेगले कार्बनिक पदार्थों को ह्मूमस में बदल देते हैं.

खाद के इस्तेमाल से मिट्टी में हवा का आनाजाना और पानी सोखने की कूवत बढ़ जाती है. इस से मिट्टी में प्रत्यारोधन की कूवत का विकास होता है. खाद का ज्यादा इस्तेमाल करने पर भी मिट्टी या पेड़पौधों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है.

जैविक खेती (Organic Farming)

गोबर की खाद

पशुओं के भोजन का पूरा या आधाअधूरा पचा हुआ भाग, जो पशुओं द्वारा मल के रूप में निकाल दिया जाता है, गोबर कहलाता है. गोबर की खाद में भैंस, गाय, बैल, भेड़, मुरगी, घोड़ा आदि पशुओं के मल को भी शामिल किया जाता है.

गोबर की खाद में मौजूद पोषक तत्त्व पौधों के लिए धीरेधीरे अलग होते हैं, इस कारण खेतों में गोबर की खाद का प्रभाव लंबे समय तक बना रहता  है. यह खाद मिट्टी में विनिमेय कैल्शियम बढ़ाती है, जो उस की भौतिक दशा सुधारने के लिए काफी खास मानी जाती है. खेतों में गोबर की खाद का इस्तेमाल करने पर पानी धीरेधीरे छूटता है, जिस में पौधे लंबे समय तक फायदे में रहते हैं. गोबर की खाद से मिट्टी में सूक्ष्म जीवियों की सक्रियता बढ़ जाती है, जिस से उस में ह्मूमस की मात्रा बढ़ती है और ह्मूमस रेतीली मिट्टी में पानी सोखने की कूवत में सुधार होता है और चिकनी मिट्टी को स्पंजी बनाता है.

फसल अवशेष : जलाए नहीं खाद बना कर बढ़ाएं जमीन की उर्वराशक्ति

हमेशा से देश में फसल के अवशेषों का सही निबटारा करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है. इन का अधिकतर भाग या तो दूसरे कामों में इस्तेमाल किया जाता है या फिर इन्हें नष्ट कर दिया जाता है, जैसे कि गेहूं, गन्ने, आलू व मूली वगैरह की पत्तियां पशुओं को खिलाने में इस्तेमाल की जाती हैं या फिर फेंक दी जाती हैं. कपास, सनई व अरहर आदि के तने, गन्ने की सूखी पत्तियां और धान का पुआल आदि जलाने में इस्तेमाल कर लिया जाता है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में अधिकतर गेहूं व धान की कटाई मशीनों द्वारा की जाती है. पिछले कुछ सालों से एक समस्या देखी जा रही है. जहां हार्वेस्टर द्वारा फसलों की कटाई की जाती है, उन क्षेत्रों में फसल के तनों के अधिकतर भाग खेत में खड़े रह जाते हैं. वहां के किसान खेत में फसल के अवशेषों को जला देते हैं. आमतौर पर रबी सीजन में गेहूं की कटाई के बाद फसल के अवशेषों को जला कर नष्ट कर दिया जाता है.

इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए प्रशासन द्वारा बहुत से जिलों में गेहूं की नरई जलाने पर रोक लगा दी गई है. किसानों को शासन, कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि विभाग व संबंधित संस्थाओं द्वारा यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि किसान अपने खेतों के अवशेषों को जीवांश पदार्थ बढ़ाने में इस्तेमाल करें.

इसी तरह गांवों में पशुओं के गोबर का अधिकतर भाग खाद बनाने के लिए इस्तेमाल न कर के उसे ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि इसी गोबर को यदि गोबर गैस प्लांट में इस्तेमाल किया जाए, तो इस से बहुमूल्य व पोषक तत्त्वों से भरपूर गोबर की स्लरी हासिल होगी, जिसे खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाने में इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही गोबर गैस को घर में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.

योजना को सफल बनाने के लिए सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जाता है, मगर फिर भी नतीजे संतोषजनक नहीं हैं. जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा लगातार कम होने से उत्पादकता या तो घट रही है या स्थिर हो गई है. लिहाजा समय रहते इस पर ध्यान दे कर जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने पर ही कृषि की उत्पादकता बढ़ा पाना मुमकिन हो सकता है. यह देश की बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए बहुत ही जरूरी है. ज्यादातर भारतीय किसान फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.

फसल अवशेषों को जलाने से होने वाले नुकसान

* जब खेत में आग लगाई जाती है, तो खेत की मिट्टी उसी तरह जलती  है जैसे ईंट भट्ठे की ईंट जलती है. खेत का तापमान बढ़ने से उस में पाए जाने वाले लाभकारी जीव जैसे जैविक फर्टिलाइजर राइजोबियम, अजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम, ब्लू ग्रीन एलगी और पीएसबी जीवाणु जल कर नष्ट हो जाते हैं. इस के अलावा लाभदायक जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा, जैविक कीटनाशी विबैरिया बैसियाना, वैसिलस थिरूनजनेसिस और किसानों के मित्र कहे जाने वाले केंचुए आग की लपटों से जल कर नष्ट हो जाते हैं.

* फसल अवशेष जलने से पैदा होने वाले कार्बन से वायु प्रदूषित होती है, जिस का इनसानों व पशुपक्षियों पर बुरा असर पड़ता है.

* कार्बन डाईआक्साइड ज्यादा निकलने से ओजोन परत भी प्रभावित होती है और धरती का तापमान बढ़ जाता है.

ऊपर दी गई तालिका को देख कर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि फसल अवशेषों से कितनी ज्यादा मात्रा में हम मिट्टी के जरूरी पोषक तत्त्वों की पूर्ति कर सकते हैं. विदेशों में जहां अधिकतर मशीनों से खेती की जाती है, वहां पर फसल के अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिला दिया जाता है. वैसे मौजूदा दौर में भारत में भी इस काम के लिए रोटावेटर जैसी मशीन का इस्तेमाल शुरू हो चुका है, जिस से खेत को तैयार करते समय एक बार में ही फसल अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिलाना काफी आसान हो गया है. जिन क्षेत्रों में नमी की कमी हो, वहां पर फसल अवशेषों की कंपोस्ट खाद तैयार कर के खेत में डालनी फायदेमंद होती है.

फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल करने के लिए जरूरी है कि अवशेषों को खेत में जलाने की बजाय उन से कंपोस्ट तैयार कर के खेत में इस्तेमाल करें. उन क्षेत्रों में जहां चारे की कमी नहीं होती, वहां मक्के की कड़वी व धान के पुआल को खेत में ढेर बना कर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढों में कंपोस्ट बना कर इस्तेमाल करना चाहिए.

आलू व मूंगफली जैसी फसलों की खुदाई करने के बाद बचे अवशेषों को खेत में जोत कर मिला देना चाहिए. मूंग व उड़द की फसल में फलियां तोड़ कर अवशेषों को खेत में मिला देना चाहिए.

फसल अवशेष (Crop Remains)

खेतों के अंदर इस्तेमाल

फसल की कटाई के बाद खेत में बचे घासफूंस, पत्तियां व ठूंठों आदि को सड़ाने के लिए 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़क कर कल्टीवेटर या रोटावेटर से काट कर मिट्टी में मिला देना चाहिए. इस प्रकार अवशेष खेत में विघटित होना शुरू कर देंगे और तकरीबन 1 महीने में सड़ कर आगे बोई जाने वाली फसल को पोषक तत्त्व देंगे.

अगर फसल अवशेष खेत में ही पड़े रहे तो नई फसल के पौधे शुरुआत में ही पीले पड़ जाते  हैं, क्योंकि अवशेषों को सड़ाने के लिए जीवाणु जमीन की नाइट्रोजन का इस्तेमाल कर लेते हैं. लिहाजा अवशेषों का सही निबटारा करना बेहद जरूरी है, तभी हम अपनी जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा में इजाफा कर के जमीन को खेती लायक रख सकते हैं और ज्यादा उपज हासिल कर सकते हैं.

गाजर (Carrots) में होने वाली बीमारियां

गाजर जड़ वाली फसल है और यह खरीफ मौसम में उगाई जाने वाली फसल है. गाजर से सब्जी, अचार व अनेक पकवान बनाए जाते है. यह सेहत के लिए काफी लाभकारी है. गाजर की फसल में भी कई तरह की बीमारियों का प्रकोप होता रहता?है, जिन की वजह से किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. यहां ऐसी ही बीमारियों की जानकारी दी जा रही है.

जड़ों की बीमारियां

जड़ों में दरारें पड़ना : गाजर की खेती वाले इलाकों में ये दरारें ज्यादा सिंचाई के बाद अधिक मात्रा में नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का इस्तेमाल करने से पड़ती हैं, लिहाजा इन उर्वरकों का इस्तेमाल सोचसमझ कर करना चाहिए.

जड़ों में खाली निशान पड़ना : जड़ों में घाव की तरह आयताकार धंसे हुए धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जो धीरेधीरे बढ़ने लगते हैं. इसलिए जरूरत से ज्यादा सिंचाई नहीं करनी चाहिए.

अन्य बीमारियां

आर्द्र विगलन रोग : यह रोग पिथियम स्पीसीज नामक फफूंदी से होता है. इस रोग से बीज अंकुरित होते ही पौधे मुरझा जाते हैं. अकसर अंकुर बाहर नहीं निकलता और बीज सड़ जाता है.

तने का निचला हिस्सा जो जमीन की सतह से लगा होता है, सड़ जाता है. पौधे का अचानक सड़ना व गिरना आर्द्र विगलन का पहला लक्षण है. इस रोग की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पहले 3 ग्राम कार्बेंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.

जीवाणुज मृदु विगलन रोग : यह रोग इर्वीनिया कैरोटोवोरा नामक जीवाणु से फैलता है, इस रोग का असर खासकर गूदेदार जड़ों पर होता है. जिस से इस की जड़ें सड़ने लगती हैं. ऐसी जमीन जिस में जल निकासी की सही व्यवस्था नहीं होती या निचले क्षेत्र में बोई गई फसल पर यह रोग ज्यादा लगता है. इस रोग की रोकथाम के लिए खेत के पानी की निकासी की सही व्यवस्था करें. रोग के लक्षण दिखाई देने पर नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का छिड़काव न करें.

कैरेट यलोज : यह एक विषाणुजनित रोग है, जिस के कारण पत्तियों का बीच का हिस्सा चितकबरा हो जाता है और पुरानी पत्तियां पीली पड़ कर मुड़ जाती हैं. जड़ें आकार में छोटी रह जाती हैं और उन का स्वाद कड़वा हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए 0.02 फीसदी मैलाथियान का छिड़काव करना चाहिए, ताकि इस रोग को फैलाने वाले कीडे़ मर जाएं.

सर्कोस्पोरा पर्ण अंगमारी : इस रोग के लक्षण पत्तियों, तनों व फूल वाले भागों पर दिखाई पड़ते हैं. रोगी पत्तियां मुड़ जाती हैं. पत्तियों की सतह व तनों पर बने दागों का आकार अर्धगोलाकार और धूसर, भूरा या काला होता है.

फूल वाले हिस्से बीज बनने से पहले ही सिकुड़ कर बरबाद हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए बीज बोते समय थायरम कवकनाशी का उपचार करें. खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब 25 किलोग्राम, कापर आक्सीक्लोराइड 3 किलोग्राम या क्लोरोथैलोनिल 2 किलोग्राम का 1000 लीटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें.

स्क्लेरोटीनिया विगलन : पत्तियों, तनों और डंठलों पर सूखे धब्बे होते हैं. रोगी पत्तियां पीली हो कर झड़ जाती हैं. कभीकभी पूरा पौधा ही सूख कर बरबाद हो जाता है. फलों पर रोग का लक्षण पहले सूखे दाग के रूप में दिखता है, फिर कवक गूदे में तेजी से बढ़ती है और फल को सड़ा देती है.

इस रोग की रोकथाम के लिए फसल लगाने से पहले ही खेत में थायरम 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाना चाहिए. कार्बेंडाजिम 50 डब्ल्यूपी कवकनाशी की 1 किलोग्राम मात्रा का 1000 लीटर पानी में घोल बनाएं और प्रति हेक्टेयर की दर से 15-20 दिनों के भीतर 3-4 बार छिड़काव करें.

चूर्ण रोग : पौधे के सभी हिस्सों पर सफेद हलके रंग का चूर्ण आ जाता है. चूर्ण के लक्षण आने से पहले ही कैराथेन 50 मिलीलीटर प्रति 100 लीटर पानी या वैटेबल सल्फर 200 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी का छिड़काव 10 से 25 दिनों के अंतर पर लक्षण दिखने से पहले करें.

सूत्रकृमि की रोकथाम : सूत्रकृमि सूक्ष्म कृमि के समान जीव है, जो पतले धागे की तरह होते हैं, जिन्हें सूक्ष्मदर्शी से देखा जा सकता है. इन का शरीर लंबा व बेलनाकार होता है. मादा सूत्रकृमि गोल व नर सांप की तरह होते हैं. इन की लंबाई 0.2 से 10 मिलीमीटर तक हो सकती है. ये खासतौर से मिट्टी या पौधे के ऊतकों में रहते हैं. इन का फसलों पर प्रभाव ज्यादा देखा गया है. ये पौधे की जड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से जड़ों की गांठें फूल जाती हैं और उन की पानी व पोषक तत्त्व लेने की कूवत घट जाती है. इन के असर से पौधे आकार में बौने, पत्तियां पीली हो कर मुरझाने लगती हैं और फसल की पैदावार कम हो जाती है.

रोकथाम : रोकथाम की कई विधियों में से किसी एक विधि से सूत्रकृमियों की पूरी तरह रोकथाम नहीं की जा सकती. इसलिए 2 या 2 से ज्यादा विधियों से सूत्रकृमियों की रोकथाम की जाती है. ये विधियां?हैं :

* गरमियों में गहरी जुताई करनी चाहिए.

* नर्सरी लगाने में पहले बीजों को कार्बोफ्यूरान व फोरेट से उपचारित करना चाहिए.

* फसल लगाने से 20-25 दिनों पहले कार्बनिक खाद को मिट्टी में मिलाना चाहिए.

* रोग प्रतिरोधी जातियों का चयन करें.

* अंत में यदि इन सब से रोकथाम न हो, तब रसायनों का इस्तेमाल करें.

रासायनिक इलाज

कार्बोफ्यूरान व फोरेट 2 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर जमीन में मिलाएं या 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से जरूरत के मुताबिक करें. कुछ दानेदार रसायन जैसे एल्डीकार्ब (टेमिक) को 11 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलाना चाहिए.

खुदाई : गाजर की खुदाई का समय आमतौर पर उस की किस्म पर निर्भर करता है, वैसे जब गाजर की जड़ों के ऊपरी सिरे ढाई से साढे़ 3 सेंटीमीटर व्यास के हो जाएं, तब खुदाई कर लेनी चाहिए.

पैदावार : गाजर की पैदावार कई बातों पर निर्भर करती है, जिन में जमीन की उर्वराशक्ति, उगाई जाने वाली किस्म, बोने की विधि और फसल की देखभाल पर निर्भर करती है, लेकिन बीज उगाने के लिए गाजर के बीजों को घना बोते हैं, ताकि गाजर में 90 से 100 दिन बाद रोपाई के लिए जडें तैयार हो सकें.

तैयार जड़ों को हम खेत से निकाल लेते हैं और पौधों को बढ़ने के लिए छोड़ दिया जाता है, गाजर की उपज में कमी न आए, इस के लिए 30 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हलकी सिंचाई के बाद इस्तेमाल करना ठीक रहता है. आमतौर पर प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल तक औसतन उपज मिल जाती है.

किसानों के मददगार हो सकते हैं  फिश फार्म (Fish Farms )

भारत का मौसम मछलीपालन के लिए बहुत अच्छा है. भारत में सब से अधिक मछली उत्पादन वाले राज्यों में आंध्र प्रदेश, गुजरात, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब शामिल हैं. पूरे देश में करीब डेढ़ करोड़ लोग मछलीपालन से रोजगार हासिल कर रहे हैं.

केंद्र सरकार का कृषि मंत्रालय राज्यों में मछलीपालन विभाग खोल कर इस का प्रचारप्रसार करता है. इस के साथ ही साथ नेशनल फिशरीज डेवलपमेंट बोर्ड भी मछलीपालन को बढ़ावा देता है. ये दोनों ही विभाग किसानों को मछलीपालन से जुड़ी जानकारी देते हैं. सब से पहले किसानों को इन विभागों से संपर्क कर के मछलीपालन उद्योग के बारे में पता करना चाहिए. इन विभागों से किसानों को मछलीपालन की केवल जानकारी ही नहीं मिलती, बल्कि बैंक से लोन पाने के साथ ही साथ तकनीकी मदद भी मिल जाती है. किसान अपने तालाब बना कर उन को ‘फिश फार्म’ की तरह से बना सकते हैं. वे तालाब की मेंड़ पर कई तरह के पेड़ लगा सकते हैं. सरकारी मदद से मछली के अच्छी प्रजाति के बीज भी मिल जाते हैं.

मछलीपालन के लिए  तालाब के लिए जमीन का चुनाव करते समय यह देखें कि जमीन बहुत उबड़खाबड़ न हो.  जलभराव वाला क्षेत्र नहीं होना चाहिए. जलभराव की दशा में बरसात के दिनों में ऐसा पानी वहां जम जाता है, जो मछलियों को नुकसान पहुंचा सकता है. तालाब के आसपास खेत नहींहोने चाहिए. खेत में पैदावार के लिए कई तरह के कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है, जो मछलियों को नुकसान पहुंचा सकते हैं. तालाब का चुनाव मछली की प्रजाति के मुताबिक होना चाहिए. कुछ मछलियां कम पानी में रहती हैं और कुछ गहरे पानी में रहती हैं. बंजर जमीन और खाली पड़ी जमीन में तालाब बनाने का काम किया जा सकता है.

तालाब में मछलियों की सुरक्षा का खास खयाल रखना चाहिए. पहली बार जब मछलीपालन शुरू करें, तो तालाब में बीज डालने के लिए उन का साइज 50 से 100 ग्राम होना चाहिए. तालाब को रोगमुक्त रखने के लिए जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. पहली बार तालाब में पानी भर कर 15 दिनों के लिए छोड़ देना चाहिए. तालाब के पानी और मिट्टी के पीएच को समयसमय पर देखना चाहिए. मछली की प्रजाति अपने लोकल बाजार के हिसाब से लेनी चाहिए. मछलियों को बीमारियों से दूर रखने के लिए तालाब को साफसुथरा और रोगमुक्त रखना चाहिए. मछलियों को खली और दूसरी खाने की चीजें देनी चाहिए. खाद्य पदार्थ को तालाब के कोने में डाल देना चाहिए. इस के अलावा तालाब का पानी समयसमय पर बदलते रहना चाहिए.

करीब 1 साल के बाद मछलियों की बिक्री शुरू होनी चाहिए. तब तक मछलियां 800 ग्राम से डेढ़ किलोग्राम के करीब हो जाती हैं. अगर किसानों में लगन और सही जानकारी है, तो वे अपने तालाब में ही मछली के छोटे बच्चे भी पाल कर उन को बीज की तरह से प्रयोग कर सकते हैं. शुरुआत में किसानों को छोटे स्तर पर इसे शुरू करना चाहिए. फिर धीरेधीरे इसे आगे बढ़ाना चाहिए. तालाब को ‘फिश फार्म’ की तरह से विकसित करना चाहिए. तालाब के पास सब्जियों और पपीते की खेती की जा सकती है. कुछ लकड़ी वाले पेड़ भी लगाए जा सकते हैं. ‘फिश फार्म’ बनाने से किसानों का रिस्क कम हो जाता है और उन की कमाई बढ़ जाती है. मछली खाने वालों की तादाद में लगातार इजाफा होने से यह बिजनेस बढ़ रहा है. खाने के रूप में मछली बहुत फायदेमंद होती है. यह प्रोटीन का सब से अच्छा जरीया होती है. मछली में कोलेस्ट्राल सब से कम होता है. इस के अलावा मछली में मिनरल व विटामिन भी ज्यादा होते हैं. इसे एक हेल्दी फूड माना जाता है.

घर के कचरे से बनाएं केंचुआ खाद (Vermicompost)

घर के जैविक कचरे जैसे सब्जियों का कचरा, बगीचे की पत्तियों, घासफूस आदि सभी का व्यवस्थित रूप से नियोजन कर के जैविक खाद बनाई जा सकती है. घर के कचरे से बहुत अच्छी वर्मी कंपोस्ट बनती है. घर के कचरे से अच्छी जैविक खाद बनाने के लिए कुछ छोटेछोटे मौडल विकसित किए गए हैं.

ये मौडल औरंगाबाद की विवम एग्रोटेक संस्था द्वारा विकसित डिजाइन है. इस का आकार 2×2×1.5 है. यह तार की जालियों और लोहे के फ्रेम से बना मौडल है. यह भीतर से चारों तरफ से हरी शेड नेट से घिरा रहता है. इस में ढक्कन भी है, जिस से यह पूरी तरह ढका रहता है. इस का बाजार मूल्य केंचुए सहित 2,500 रुपए है.

इस मौडल में पहले 2-3 इंच मोटी कचरे व पुराने गोबर की परत डाल कर करीब 200 केंचुए छोड़ देते हैं. इस के बाद रोज 200 से 500 ग्राम घर की सब्जियों व फलों से निकलने वाला कचरा डाला जा सकता है. ज्यादा मात्रा में नीबू, टमाटर, प्याज, आदि न डालें. इस से अम्लता बढ़ने पर केंचुओं को नुकसान हो सकता है. रसोई घर के कचरे के साथ जूठन अधिक मात्रा में न डालें, इस में नमक होने से केंचुओं को नुकसान होता है. इस से चीटियां भी होती हैं, जो केंचुओं को नुकसान पहुंचाती हैं. किचन वैस्ट की परत के ऊपर 2 से 3 इंच मोटी घास अथवा सूखे कचरे की परत डालें.

किचन वैस्ट प्रतिदिन इकट्ठा होगा तो उस में मच्छर पनप सकते हैं, जो नुकसानदायक है. इसलिए उसे ढकना जरूरी है. इस तरह रोज करीब 2 माह तक घर का कचरा उस में डाला जा सकता है और उस पर हमेशा हलका पानी छिड़कें, ताकि नमी बनी रहे. 60-70 दिन के बाद ऊपर का ताजा किचन वैस्ट जो सड़ा नहीं है, वह थोड़ा हटा कर देखें, यदि नीचे खाद तैयार हो गई है तब पानी देना व अतिरिक्त कचरा डालना भी बंद कर दें. केंचुए एकदो दिन में नीचे की तरफ चले जाएंगे. ऊपर का आधा सड़ा कचरा धीरेधीरे हाथ से एक तरफ हटा कर नीचे की खाद निकाली जा सकती है.

इस मौडल को एक परिवार ने इस्तेमाल किया था. उन्होंने उपरोक्त विधि से इस का इस्तेमाल किया. उन्हें तकरीबन 3 महीने में रसोई के कचरे से साढ़े 7 किलोग्राम खाद हासिल हुई और केंचुओं की संख्या बढ़ कर 3,440 हो गई. ऐसे बहुमंजिले  घरों में जहां घर का आंगन यानी बगीचा नहीं है, वहां सिर्फ रसोई के कचरे से वर्मी कंपोस्ट बनाई जा सकती है, जो गमलों के लिए उपयोगी है. यदि कचरे के साथ बगीचे का कचरा भी हो तब 12 से 15 किलोग्राम खाद हर 3 महीने में हासिल की जा सकती है.

घर के कचरे का इस्तेमाल बागबानी में कर के हम बाग को तो सजाएंगे ही साथ ही पर्यावरण को भी दूषित होने से बचाएंगे, जिस का लाभ संसार के सभी जीवों को हासिल होगा.

गाजर घास (Carrot Grass) से फसल का बचाव

गाजर घास की 20 प्रजातियां पूरे विश्व में पाई जाती हैं. गाजर घास की उत्पत्ति का स्थान दक्षिण मध्य अमेरिका है. अमेरिका, मैक्सिको, वेस्टइंडीज, चीन, नेपाल, वियतनाम और आस्ट्रेलिया के विभिन्न भागों में फैला यह खरपतवार भारत में अमेरिका या कनाडा से आयात किए गए गेहूं के साथ आया.

हमारे देश में साल 1951 में सब से पहले पूना में नजर आने के बाद यह विदेशी खरपतवार करीब 35 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में फैल चुका है. यह खरपतवार जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड के विभिन्न भागों में फैला हुआ है.

गाजर घास को देश के विभिन्न भागों में अलगअलग नामों जैसे कांग्रेस घास, सफेद टोपी, चटक चांदनी व गंधी बूटी आदि नामों से जाना जाता है. कांग्रेस घास इस का सब से ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला नाम है. यह घास खाली जगहों, बेकार जमीनों, औद्योगिक क्षेत्रों, बगीचों, पार्कों, स्कूलों, सड़कों और रेलवे लाइनों के किनारों पर बहुतायत में पाई जाती है. पिछले कुछ सालों से इस का प्रकोप सभी तरह की खाद्यान्न फसलों, सब्जियों व फलों में बढ़ता जा रहा है.

वैसे तो गाजर घास पानी मिलने पर साल भर फलफूल सकती है, पर बारिश के मौसम में ज्यादा अंकुरण होने पर यह खतरनाक खरपतवार का रूप ले लेती है. गाजर घास का पौधा 3-4 महीने में अपना जीवनचक्र पूरा कर लेता है. 1 साल में इस की 3-4 पीढि़यां पूरी हो जाती हैं.

करीब डेढ़ मीटर लंबे गाजर घास के पौधे का तना काफी रोएंदार और शाखाओं वाला होता है. इस की पत्तियां काफी हद तक गाजर की पत्तियों की तरह होती हैं. इस के फूलों का रंग सफेद होता है. हर पौधा 1000 से 50000 बेहद छोटे बीज पैदा करता है, जो जमीन पर गिरने के बाद नमी पा कर अंकुरित हो जाते हैं.

गाजर घास के पौधे हर प्रकार के वातावरण में तेजी से बढ़ते हैं. ये ज्यादा अम्लीयता व क्षारीयता वाली जमीन में भी उग सकते हैं. इस के बीज अपनी 2 स्पंजी गद्दियों की मदद से हवा व पानी के जरीए एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुंच जाते हैं.

गाजर घास से होने वाले नुकसान

* गाजर घास से इनसानों को एग्जिमा, एलर्जी, बुखार व दमा जैसी बीमारियां हो जाती हैं. इस का 1 परागकण भी इनसान को बीमार करने के लिए काफी है. इस के परागकण श्वसन तंत्र में घुस कर दमा व एलर्जी पैदा करते हैं. इस के  ज्यादा असर से इनसानों की मौत तक हो जाती है.

* गाजर घास की वजह से खाद्यान्नों की फसलों की पैदावार में 40 फीसदी तक की कमी आंकी गई है. इस से फसलों की उत्पादकता घट जाती है.

* इस पौधे से ऐलीलो रसायन जैसे पार्थेनिन, काउमेरिक एसिड, कैफिक ऐसिड वगैरह निकलते हैं, जो अपने आसपास

किसी अन्य पौधे को उगने नहीं देते हैं. इस से फसलों के अंकुरण और बढ़वार पर बुरा असर पड़ता है.

* गाजर घास के वन क्षेत्रों में तेजी से फैलने के कारण कई खास वनस्पतियां और जड़ीबूटियां खत्म होती जा रही हैं.

* दलहनी फसलों में यह खरपतवार जड़ ग्रंथियों के विकास को प्रभावित करता है और नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं की क्रियाशीलता को कम कर देता है.

* इस के परागकण बैगन, मिर्च व टमाटर वगैरह सब्जियों के पौधों पर जमा हो कर उन के परागण, अंकुरण व फल विन्यास को प्रभावित करते हैं और पत्तियों में क्लोरोफिल की कमी व पुष्प शीर्षों में असामान्यता पैदा कर देते हैं.

* पशुओं के चारे में इस खरपतवार के मिल जाने से दुधारू पशुओं के दूध में कड़वाहट आने लगती है. ज्यादा मात्रा में इसे चर लेने से पशुओं की मौत भी हो सकती है.

गाजर घास के इस्तेमाल

* गाजर घास से कई तरह के कीटनाशक, जीवाणुनाशक और  खरपतवारनाशक बनाए जा सकते हैं.

* इस की लुगदी से कई तरह के कागज तैयार किए जा सकते हैं.

* बायोगैस उत्पादन में भी इसे गोबर के साथ मिलाया जा सकता है.

ऐसे करें रोकथाम

* बारिश के मौसम में गाजर घास को फूल आने से पहले जड़ से उखाड़ कर कंपोस्ट व वर्मी कंपोस्ट बनाना चाहिए.

* घर के आसपास गेंदे के पौधे लगा कर गाजर घास के फैलाव को रोका जा सकता है.

* मैक्सिकन बीटल (जाइगोग्रामा बाइकोलाराटा) रामकीट को बारिश के मौसम में गाजर घास पर छोड़ना चाहिए.

* गाजर घास की रासायनिक विधि द्वारा रोकथाम करने के लिए खरपतवार वैज्ञानिक की सलाह लेनी चाहिए.

* नमक के 20 फीसदी घोल से गाजर घास की रोकथाम की जा सकती है, पर यह विधि छोटे क्षेत्र के लिए ही ठीक है.

* गैर कृषि क्षेत्रों में इस की रोकथाम के लिए शाकनाशी रसायन एट्राजिन का इस्तेमाल फूल आने से पहले 1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए. ऐसे क्षेत्रों में शाकनाशी रसायन जैसे ग्लाइफोसेट 1.5-2.0 फीसदी या मेट्रीब्यूजिन 0.3-0.5 फीसदी घोल का फूल आने से पहले छिड़काव करने से गाजर घास नष्ट हो जाती है.

* मक्का, ज्वार व बाजरा की फसलों में एट्राजिन 1-1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के तुरंत बाद (अंकुरण से पहले) इस्तेमाल करना चाहिए.

* जमीन को गाजर घास से बचाने के लिए सामुदायिक कोशिशें बहुत जरूरी हैं. गांवों, शहरी कालोनियों, स्कूलों, महाविद्यालयों में रहने या पढ़ने वाले लोगों को चाहिए कि वे अपने आसपास की जमीन को गाजर घास से मुक्त रखें. इसी तरह की कोशिशों से पंजाब राज्य के लुधियाना जिले का मनसूरा गांव पहला गाजर घास मुक्त क्षेत्र बन गया है.

* जगहजगह जा कर लोगों को गाजर घास के नुकसानों व रोकथाम के बारे में जानकारी दे कर उन्हें जागरूक करना चाहिए.

* हर साल अगस्तसितंबर में गाजर घास जागरूकता सप्ताह मनाया जाता है, क्योंकि अक्तूबरनवंबर में गाजर घास सब से ज्यादा होती है.

आलू (Potato) की खेती

आलू (Potato) दैनिक आहार का एक अभिन्न हिस्सा है. वर्षभर आलू (Potato) की उपलब्धता रहती है. आलू (Potato) से सब्जी, पकौड़े, समोसे, चिप्स बनाने के अलावा इस का व्रत में फलाहार के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. प्रति व्यक्ति आलू (Potato) की उपलब्धता 16 किलो प्रति वर्ष है, जो निश्चित रूप से कम है. आलू (Potato) की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए इस की तकनीकी को समझना होगा.

प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी, देवरिया के निदेशक का कहना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में धान काटने के बाद किसान दिसंबर तक आलू लगाते है, जिस से कीट बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है, उपज पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. यदि आलू 25 अक्तूबर तक लगा दिया जाए तो कीट और बीमारियों का प्रकोप कम होता है तथा उत्पादन भी अच्छा होता है.

आलू की प्रमुख किस्मों में कुफरी अशोका, कुफरी चंद्रमुखी, कुफरी सूर्या 70-80 दिनों में तैयार हो जाती हैं. इन की उत्पादन क्षमता 250 से 300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है. कुफरी बहार, कुफरी पुखराज, कुफरी लालिमा, कुफरी अरुण, कुफरी गिरीराज, कुफरी कंचन, कुफरी पुष्कर, कुफरी ज्योति 90-100 दिनों में तैयार हो जाती हैं. उत्पादन क्षमता 250-300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है.

कुफरी सतलुज,कुफरी आनंद, कुफरी सिंदूरी, कुफरी चिप्सोना-1, 2, 3 आदि 110-120 दिनों की किस्में हैं, जिस का उत्पादन प्रति हैक्टेयर 350 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आलू की खेती के लिए बलुई दोमट एवं दोमट मृदा सर्वोच्च होती है. प्रति हैक्टेयर में 30 से 35 क्विंटल कंद (35-40 या 40-50 ग्राम के कंद अथवा 3.5 से 4।सैंटीमीटर वाले कंद) प्रर्याप्त होते हैं. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सैंटीमीटर तथा कंद से कंद की दूरी बीज आलू के आकार के अनुसार 20-30 सैंटीमीटर पर रखी जाती है.

आलू बोआई से पहले 250 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला दें. उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए. 150:80:100 नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश का प्रयोग प्रति हेक्टेयर की दर से कर सकते हैं. इस की पूर्ति के लिए 260 किलो यूरिया, 176 किलो डाईअमोनियम फास्फेट और 170 किलो म्यूरेट औफ पोटाश का प्रयोग करें. बोआई के समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा का प्रयोग करें. नाइट्रोजन की शेष मात्रा का मिट्टी चढ़ाते समय 20-25 दिन बाद प्रयोग करना चाहिए. आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए. कीट और बीमारियों की निगरानी रखनी चाहिए. अगर आलू भंडारण करना है तो परिपक्व होने पर ही खुदाई करें.

ज्वार (sorghum) की नई किस्म : प्रताप ज्वार 2510

उदयपुर : महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के वैज्ञानिकों ने किसानों, पशुपालकों के लिए ज्वार की नई किस्म प्रताप ज्वार 2510 विकसित की है. इस किस्म का विकास अखिल भारतीय ज्वार अनुसंधान परियोजना, उदयपुर में कार्यरत वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है.

डा. अरविंद वर्मा, निदेशक अनुसंधान, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर ने बताया कि राजस्थान के दक्षिणीपूर्वी क्षेत्र में ज्वार एक प्रमुख मिलेट फसल है, जो वर्षा आधारित क्षेत्रों में अनाज और पशु चारे के लिए उगाई जाती है. पशु चारे के लिए ज्वार का प्रदेश में प्रमुख योगदान है. उन्होंने बताया कि राजस्थान में ज्वार की खेती लगभग 6.4 लाख हैक्टेयर में की जा रही है एवं मुख्य रूप से अजमेर, नागौर, पाली, टोंक, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, राजसमंद एवं भीलवाड़ा जिलों में इस की खेती होती है.

अनुसंधान निदेशक ने बताया कि अखिल भारतीय ज्वार अनुसंधान परियोजना सन 1970 में प्रारंभ हुई थी तथा इस परियोजना के अंतर्गत अभी तक कुल 11 किस्में क्रमशः एसपीवी 96, एसपीवी 245, राजचरी-1, राजचरी-2, सीएसवी 10, एसपीएच 837, सीएसवी 17, प्रताप ज्वार 1430, सीएसवी 23, प्रताप चरी 1080 एवं प्रताप राज ज्वार-1 अनुमोदित हो चुकी हैं.

ज्वार की नई किस्म प्रताप ज्वार 2510 को पत्र संख्या 40271 के अंतर्गत 9 अक्तूबर, 2024 को जारी भारत सरकार के राजपत्र में राजस्थान राज्य के लिए अधिसूचित किया गया.

परियोजना प्रभारी डा. हेमलता शर्मा ने बताया कि यह मध्यम अवधि (105-110 दिन) में पकने वाली किस्म है, जिस से 40-45 क्विंटल प्रति हैक्टेयर दाने की एवं 130-135 क्विंटल प्रति हैक्टेयर सूखे चारे की उपज प्राप्त होती है तथा यह किस्म एंथ्रेकनोज, जोनेट, मोल्ड रोगों एवं तना मक्खी तथा तना छेदक कीटों के लिए सामान्य प्रतिरोधी है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक, कुलपति, महाराणा प्रताप कृषि प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर ने बताया कि राजस्थान में ज्वार मुख्य रूप से चारे के लिए उगाई जाती है किंतु विगत वर्ष 2023 ‘अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष’ के रूप में मनाया गया, जिस से ज्वार के दानों में पोषक गुणों के बारे में आमजन में जागृति आई है. ज्वार एक ग्लुटेन मुक्त अनाज होता है, अतः इस का उपयोग दलिया, ब्रैड, केक आदि बनाने में किया जाता है. ज्वार के दाने का उपयोग खाद्य तेल, स्टार्च, डेक्सट्रोज आदि के लिए भी किया जाता है.

उन्होंने आगे बताया कि वैज्ञानिक तरीके से ज्वार की खेती करने से राजस्थान के किसान इस से अधिक उत्पादन एवं आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं.