संतरा उत्पादक किसान योमदेव कालबांडे की सफलता की कहानी

पांढुरना : उद्यानिकी फसलों के उत्पादन में आधुनिक खेती पद्धतियों ने किसानों को लखपति बना दिया है. पांढुरना जिले के ग्राम हिवरा खंडेरवार के किसान योमदेव कालबांडे ने भी परंपरागत खेती को छोड़ कर आधुनिक तकनीक अपनाई, जिस से उन की आमदनी बढ़ गई.

उद्यानिकी विभाग की तकनीकी सलाहों के आधार पर उन्हें संतरे और मौसंबी की खेती से 15 लाख रुपए की शुद्ध आय प्राप्त हुई है. किसान के द्वारा उन्नत तकनीकी से उद्यानिकी खेती करने पर उन्हें एनआरसीसी नागपुर के द्वारा “उत्कृष्ट संतरा उत्पादक किसान” से सम्मानित किया गया है.

किसान योमदेव कालबांडे पहले 40 हेक्टेयर कृषि भूमि में सदियों से चली आ रही परंपरागत खेती करते थे, लेकिन उद्यानिकी विभाग के मार्गदर्शन में उन्हें नया प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया गया, जिस से उन्होंने 25 हेक्टेयर भूमि में उद्यानिकी विभाग के विशेषज्ञों की सलाह पर संतरे और मौसंबी के 7,900 पौधे लगाए. इन पौधों को लगाने और उन की देखभाल करने में उन्होंने आधुनिक तकनीकों का भरपूर उपयोग किया. इन पौधों को लगाने और अन्य खर्चे पर उन्होंने लगभग 5 लाख रुपए खर्च किए.

अब किसान योमदेव कालबांडे का बागान फल देने लगा है. उन के बागान में 500 से अधिक पौधे फल देने लगे हैं और इन से उन्हें लगभग 20 लाख रुपए की आय हुई है.

इस तरह उद्यानिकी विभाग की तकनीकी सलाह से खेती करने पर उन्हें लगभग 15 लाख रुपए  का खालिस मुनाफा हुआ है.

किसान योमदेव कालबांडे की इस सफलता को देख कर दूसरे किसान भी आधुनिक खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं. उन की मेहनत और लगन को देखते हुए और किसान द्वारा उन्नत तकनीकी से उद्यानिकी खेती करने पर एनआरसीसी, नागपुर ने उन्हें “उत्कृष्ट संतरा उत्पादक किसान” के सम्मान से सम्मानित किया है.

एक ऐसा गांव, जिस के हर घर में हैं दुधारू पशु

सागर : सागर जिले में स्थित विश्वविद्यालय की घाटी पर बसा ग्राम रैयतवारी भैंसपालन और दूध उत्पादन के लिए जाना जाता है. दूध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कलक्टर संदीप जीआर के मार्गदर्शन में संचालित मध्य प्रदेश राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के अंतर्गत गठित महिला समूहों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है.

इसी क्रम में इस गांव में पशुपालन के साथसाथ बकरीपालन को भी प्राथमिकता दी जा रही है. यहां के अधिकांश घरों में कम से कम 2 से 3 बकरियां पाली जाती हैं. बड़े पशुओं की तुलना में बकरीपालन पशुपालकों के लिए माली रूप से काफी फायदेमंद है. बकरीपालन मजदूर, सीमांत और लघु किसानों में भी काफी लोकप्रिय है.

साल 2019 से राखी स्वयं सहायता समूह से जुड़ी कांती यादव समूह से 50,000 रुपए और 80,000 रुपए का पशुपालन लोन ले चुकी हैं. इन के पास आज 25 से अधिक बकरियां पल रही हैं, यद्यपि उन के पास भैंस और गाय भी हैं.

इस के अलावा शांति यादव, पति किशोरी यादव साल 2018 से दीपक स्वसहायता समूह की सदस्य हैं. उन्होंने समूह से 35,000 रुपए का लोन लिया है, जिस से उन्होंने बकरीपालन की शुरुआत की.

इन दिनों उन के पास 15 बकरियां, 3 बकरे, 4 बकरी के बच्चे और दुधारू गाय हैं. वे बताती हैं कि बकरेबकरियों को पाल कर वे स्थानीय खरीदारों को बेच देती हैं. बड़े पशुओं के साथसाथ बिना अतिरिक्त मेहनत के बकरीपालन का काम आसानी से हो जाता है. इस से मिलने वाली खाद खेतों के लिए बहुपयोगी होती है. वयस्क नर के विक्रय के लिए बाजार आसानी से मिल जाता है. इस के अलावा कई बार कमजोर और अन्य उत्पादक बकरियां भी बेच दी जाती हैं. अब तक वे 48,000 रुपए की बकरियां बेच चुकी हैं .

इसी समूह की हरवो देवी यादव का परिवार पशुपालन पर ही पल रहा है. उन के परिवार में 3 बेटियां और 2 बेटे हैं. 2 बेटियों की शादी के बाद पूरा परिवार इसी काम में लगा है. उन्होंने समूह से पहले 25,000 रुपए और बाद में 50,000 रुपए का लोन लिया, जिस से गाय और बकरियां खरीदीं, कुछ पैसे खेती में भी लगाए. 35,000 रुपए में 3 बकरे बेचने के बाद इन के पास अब 8 दुधारू पशु हैं.

दुधारू गाय से रोज का 6 लिटर दूध भी बेचा जाता है, जिस से उन्हें दूध से अतिरिक्त आमदनी प्राप्त होती है. कम आय वर्ग और छोटी जोत वाले किसानों के लिए बकरीपालन एक आमदनी पाने का एक उत्तम और सरल उपाय है.

शिमला मिर्च की फसल से हो रहा लाखों रुपए का मुनाफा

एकीकृत बागबानी विकास मिशन (एमआईडीएच) बागबानी क्षेत्र के समग्र विकास के लिए केंद्र सरकार की एक प्रायोजित योजना है. इस योजना के तहत फलसब्जियां, जड़कंद वाली फसलें, मशरूम, मसाले, फूल, सुगंधित पौधे, नारियल, काजू, कोको और बांस जैसी बागबानी फसलों को बढ़ावा दिया जाता है.

इस योजना के अंतर्गत ड्रिप इरीगेशन सहप्लास्टिक मल्चिंग का उपयोग कर के सागर जिले के ग्राम खिरियाताज के रहने वाले करन पटेल ने शिमला मिर्च की खेती कर के लाखों रुपए का मुनाफा कमाया और खेती को लाभ का धंधा बना लिया है.

करन पटेल बताते हैं कि पहले हम गेहूं की खेती किया करते थे जिस से हमारी रोजीरोटी का ही गुजरबसर हो पाता था. न तो भविष्य के लिए कोई पैसा जमा कर पाते थे और न ही परिवार को कोई सुखसुविधा दे पाते थे. मेहनत के बराबर मुनाफा भी नहीं हो पाता था.

तब उद्यानिकी विभाग के लोगों ने मुझे ड्रिप इरीगेशन सहप्लास्टिक मल्चिंग खेती करने की सलाह दी और एकीकृत बागबानी विकास मिशन में मिलने वाले फायदों की जानकारी दी. तब मैं ने मल्चिंग और ड्रिप सिस्टम का इस्तेमाल कर शिमला मिर्च की खेती करना शुरू किया, जिस से मुझे मेहनत के मुकाबले खेती से लाखों रुपए का मुनाफा हुआ.

सागर जिले के प्रगतिशील किसान करन पटेल ग्राम खिरियाताज के रहने वाले हैं. उन्होंने बताया  कि उद्यानिकी की उच्च तकनीकी ड्रिप एवं मल्चिंग का उपयोग करते हुए उन के द्वारा शिमला मिर्च, पीकाडोर, टमाटर, आलू, मिर्च की खेती की जा रही है. इस वर्ष उन को टमाटर और शिमला मिर्च का दाम अधिक होने से प्रति एकड़ आय में अधिक मुनाफा हुआ है.

हाइड्रोपोनिक खेती को दें बढ़ावा

सागर जिला कलक्टर संदीप जीआर ने उद्यानिकी विभाग के अंतर्गत उद्यानिकी विभाग के अधिकारियों को हाइड्रोपोनिक खेती व माइक्रोग्रीन्स की खेती को बढावा देने के लिए निर्देशित किया, जहां हाइड्रोपोनिक खेती में पौधों को मिट्टी के बजाय पानी आधारित पोषक घोल में उगाया जाता है, वहीं माइक्रोग्रीन्स छोटे पौधों की पत्तियां या तने होते हैं, जिन्हें 1 से 3 सप्ताह के बीच में काटा जाता है. ये पौधे विटामिन, मिनरल और एंटीऔक्सीडेंट से भरपूर होते हैं और इन्हें सलाद, सैंडविच, स्मूदी और अन्य व्यंजनों में उपयोग किया जा सकता है.

उपसंचालक, उद्यानिकी, पीएस बडोले ने कलक्टर संदीप जीआर को अवगत कराया कि किसान  करन पटेल को पीडीएमसी योजना के अंतर्गत ड्रिप और अटल भूजल योजना के अंतर्गत सब्जी क्षेत्र विस्तार, वर्मी बेड एवं शेडनेट हाउस का लाभ दिया गया है.

पाले से फसल को कैसे बचाएं

आने वाले दिनों में सर्दी का प्रकोप बढ़ने से फसल में पाला गिरने की पूरी संभावना होती है, जिस से फसल को खासा नुकसान होने का अंदेशा रहता है. इसलिए जरूरी है कि किसानों को पाले से फसल सुरक्षा के उपाय जरूर करने चाहिए.

अनेक कृषि विज्ञान केंद्रों द्वारा समयसमय पर पाले से फसल बचाव को ले कर एडवाइजरी जारी होती है. उन के अनुसार, किसानों को काम करना चाहिए. अभी हाल ही में किसान कल्याण एवं कृषि विभाग, पन्ना द्वारा जिले के किसानों को पाले की स्थिति में फसल के बचाव के संबंध में आवश्यक सलाह जारी की गई है.

मौसम विभाग द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार, प्रदेश के कई जिलों में तापमान तेजी से कम होने की संभावना है. तापमान में होने वाली इस गिरावट का असर फसलों पर पाले के रूप में होने की आशंका रहती है.

पाले की स्थिति के कारण फसलों को नुकसान होने की संभावना के दृष्टिगत विभाग द्वारा सलाह जारी की गई है. किसानों को सुझाव दिए गए हैं कि रात में खेत की मेंडों पर कचरा और खरपतवार आदि जला कर विशेष रूप से उत्तरपश्चिमी छोर से धुआं करें, जिस से धुएं की परत फसलों के ऊपर आच्छादित हो जाए.

फसलों में खरपतवार नियंत्रण करना भी आवश्यक है, क्योंकि खेतों में उगने वाले अनावश्यक और जंगली पौधे सूरज की गरमी जमीन तक पहुंचने में रुकावट पैदा करते हैं. इस तरह से तापमान के असर को कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है.

इसी तरह शुष्क भूमि में पाला पड़ने का जोखिम अधिक होता है, इसलिए फसलों में स्प्रिंकलर के माध्यम से हलकी सिंचाई करनी चाहिए. थायोयूरिया की 500 ग्राम मात्रा का 1,000 लिटर पानी में घोल बना कर 15-15 दिन के अंतर से छिड़काव भी पाले से बचाव के लिए उपयोगी उपाय है.

इस के अलावा 8 से 10 किलोग्राम सल्फर डस्ट प्रति एकड़ का भुरकाव अथवा बेटेवल या घुलनशील सल्फर 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करने से भी पाले के असर को नियंत्रित किया जा सकता है.

ड्रैगन फ्रूट परियोजना : चार प्रजातियों का पौधरोपण

भागलपुर : सबौर कृषि विश्वविद्यालय बिहार के उद्यान में ड्रैगन फ्रूट परियोजना के अंतर्गत 4 प्रजातियों का पौधरोपण किया गया. ये प्रजातियां अपने रंग एवं पोषक तत्वों के आधार पर अपनी अलग पहचान बनाती हैं.

प्रमुख रूप से लाल छिलका, सफेद गूदा, जो कि राष्ट्रीय अजैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान, बारामती, महाराष्ट्र से लाया गया है. गुलाबी छिलके, बैगनी गूदे वाली प्रजाति को केंद्रीय द्वितीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अंडमान व निकोबार से लाया गया है. इस के अतिरिक्त पीला छिलका और सफेद गूदे वाली प्रजाति को कांधल एग्रो फार्म लुधियाना से लाया गया है.

परियोजना के अंतर्गत इन चारों प्रजातियों का मूल्यांकन कृषि जलवायु क्षेत्र जोन 3-। के अंतर्गत किया जाना है. वर्तमान समय में बढ़ती हुई कुपोषण की समस्या को देखते हुए ड्रैगन फ्रूट अपने विशिष्ट पोषक तत्वों जैसे प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, लोहा एवं फास्फोरस के समावेश होने से एक उत्तम फल है, जो कुपोषण की समस्या को कम करने में लाभकारी सिद्ध होगा.

मौजूदा दौर में खेतीकिसानी की हालत

कहा जाता है कि किसान किसी भी देश की रीढ़ होते हैं और उन की दशा ही देश की दिशा सुनिश्चित करती है. जिस देश में किसानों की बदहाली होती है, वह देश कभी विकसित हो ही नहीं सकता. आज यही स्थिति देश के विभिन्न राज्यों में देखने को मिल रही है.

किसानों को बैंकों से लिया कर्ज चुकाने और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के लिए नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं. इसी के चलते कई किसान अपनी जान की ही बाजी लगा दे रहे हैं. उन के पास इस के अलावा कोई दूसरा तरीका ही नहीं है.

किसान बैंकों से बीज, ट्रैक्टर व ट्यूबवेल वगैरह खरीदने के लिए कर्ज लेते हैं, लेकिन फसल चौपट होने पर वे कर्ज का भुगतान नहीं कर पाते हैं. ऐसे में वे मजबूरन आत्महत्या तक कर लेते हैं. कंगाली और बदहाली के कारण बैंक का कर्ज चुकाना तो दूर वे अपने परिवार का भरणपोषण भी नहीं कर पाते.

यदि किसानों के हालात ऐसे ही बदतर होते रहे तो एक दिन वे खेती करना ही बंद कर देंगे, तब देश में एक भयावह स्थिति पैदा हो जाएगी. इस हालत में दोषी किसान भी  हैं, क्योंकि उन में एकजुटता का अभाव अकसर देखने को मिलता है. इसी का फायदा सरकार उठाती है और वह उन के हितों की अनदेखी कर के उन की मांगों को दरकिनार कर देती है. इन्हीं सब कारणों से किसान तंगहाली से जूझ रहे हैं.

जरूरत है कि किसानों को सही मात्रा में कर्ज व सहायता मुहैया कराई जाए ताकि वे खेतीबारी की दशा सुधार कर के सही तरह से खाद्यान्न उत्पादन कर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकें.

लेकिन ये योजनाएं अधिकारियों और बिचौलियों की कमाई का जरीया बन जाती हैं.

आज के दौर में खेती का अर्थशास्त्र किसानों के खिलाफ है. मजदूरों और छोटे किसानों की बात तो दूर रही, मझोले और बड़े किसानों के सामने भी यह सवाल खड़ा है कि वे किस तरह बैंक का कर्ज चुकाएं और कैसे अपनी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करें.

हर राज्य में किसानों की हालत एक जैसी है. सरकारें उन्हें झूठा दिलासा दे कर चुप करा देती हैं. आज खेती घाटे का सौदा साबित हो रहा है, इसीलिए छोटेबड़े सभी किसान परेशान हैं कि किस तरह अपनी आजीविका चलाएं. दुनिया में सब से ज्यादा विकास वाला देश होने के बावजूद लगातार हमारी विकास दर में गिरावट आ रही है. साल 1990 में कृषि की जो विकास दर 2-8 फीसदी थी, वह साल 2000-2010 के बीच घट कर 2.4 फीसदी रह गई और वर्तमान दशक में तो यह मात्र 2.1 फीसदी ही है.

खराब फसलों की वजह से किसानों की हालत काफी दयनीय रहती है. यदि सूखे की वजह से खेती खराब हो गई तो उन की जो लागत लगी है, उस के चलते घाटा होना तय है. सरकार अपने वादे के मुताबिक सही समर्थन मूल्य किसानों को नहीं दे पाती, जिस के कारण उनहें अपनी उपज को औनेपौने दामों पर बेचना पड़ता है. अकसर ज्यादा उत्पादन होने पर भंडारण का सही इंतजाम न होने से अनाज पड़ापड़ा सड़ जाता है.

केंद्र और राज्य सरकारों की कर्जमाफी योजना किसानों के लिए कारगर नहीं है, बल्कि यह तो खतरनाक साबित हो सकती है. यह योजना किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है. इस से उन किसानों के लिए मुश्किल हो सकती है, जिन्हें कर्जमाफी नहीं मिली. इस से तमाम किसानों की दिमागी हालत खराब हो सकती है और वे डिप्रेशन की हालात में आ सकते हैं.

खेतीकिसानी के प्रति युवाओं में जज्बा पैदा करने के लिए कृषि को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना जरूरी है. कृषि को आधुनिक और परंपरागत तरीकों से भी जोड़ने की जरूरत है. साथ ही समयसमय पर इस में प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना भी जरूरी है.

मूली (Radish): सेहत के लिए खास

खाने का जायका बढ़ाने वाली मूली काफी मुफीद चीज?है. दुनियाभर में मूली शौक से खाई जाती?है. आइए, जानते?हैं मूली के बेशुमार फायदे:

* रोजाना खाने में मूली का इस्तेमाल करने से डायबिटीज से जल्दी छुटकारा मिल सकता है.

* मूली खाने से जुकाम नहीं होता है, इसीलिए मूली सलाद में जरूर खानी चाहिए.

* रोज मूली के ऊपर काला नमक डाल कर खाने से भूख न लगने की समस्या दूर हो जाती?है.

* मूली खाने से हमें विटामिन ‘ए’ मिलता है, जिस से दांतों को मजबूती मिलती?है.

* मूली खाने से बाल झड़ने बंद हो जाते हैं.

* बवासीर में कच्ची मूली व उस के पत्तों की सब्जी बना कर खाना फायदेमंद रहता?है.

* यदि पेशाब का बनना बंद हो जाए तो मूली का रस पीने से पेशाब दोबारा बनने लगता है.

* कच्ची मूली रोज सुबह उठते ही खाने से पीलिया रोग में आराम मिलता है.

* नियमित मूली खाने से मधुमेह का खतरा कम हो जाता है.

* यदि आप को खट्टी डकारें आ रही?हैं, तो 1 कप मूली के रस में मिश्री मिला कर पीने से लाभ होता है.

* नियमित रूप से मूली खाने से मुंह, आंत और किडनी के कैंसर का खतरा कम रहता है.

* थकान मिटाने और नींद लाने में भी मूली सहायक है.

* मोटापा दूर करने के लिए मूली के रस में नीबू और नमक मिला कर इस्तेमाल करें.

* पायरिया से परेशान लोग मूली के रस से दिन में 2-3 बार कुल्ला करें और इस का रस पिएं.

* सुबहशाम मूली का रस पीने से पुराने कब्ज में भी लाभ होता है.

* मूली के रस में बराबर मात्रा में अनार का रस मिला कर पीने से हीमोग्लोबिन बढ़ता है.

लाभकारी है मचान खेती

मचान खेती किसानों के लिए लाभकारी साबित रही है. यही वजह है कि बड़ी संख्या में किसान इसे अपना रहे हैं. जरूरत इस बात की है कि किसान इसे सही तरह से करें, जिस से न केवल अच्छी फसल ले सकें बल्कि एकसाथ कई फसलें उगा सकते हैं.

लता वाली सब्जियों की फसलों को बांस या लकड़ी आदि के बने ढांचे पर चढ़ा कर खेती करने का रिवाज देश के हर हिस्से में है. उत्तरी और पूर्वी राज्यों में इसे मचान या मंडप कहते हैं.

जल विभाग ने इस तरीके में तकनीकी सुधार कर पूर्वी उत्तर प्रदेश में मचान को बढ़ावा दिया, जो किसानों के लिए काफी लाभदायक रहा. वहां अब काफी किसानों द्वारा इस विधि से सब्जियों की खेती की जा रही है. इस तरीके से साल भर किसी न किसी सब्जी का उत्पादन होता रहता है और किसानों को नियमित रूप से आमदनी होती रहती है. छोटे किसान जिन के पास बहुत कम जमीन है, उन के लिए यह विधि काफी लाभदायक है. इस से प्रतिवर्ग मीटर करीब 70-80 रुपए की आमदनी मिल जाती है.

किसान 10-12 डेसीमल (500 वर्गमीटर) जमीन से 1 साल में 38-40 हजार रुपए की आय ले लेते हैं. सब्जियों की मचान विधि से खेती करने से 34,80,000 लीटर प्रति एकड़ पानी की बचत के साथसाथ 64 लीटर डीजल प्रति एकड़ की भी बचत होती है. साल 2015-16 में 667 किसानों ने 81.42 एकड़ में मचान विधि से सब्जियों की खेती कर के 3065 टन सब्जी का उत्पादन कर के 2.57 करोड़ रुपए की शुद्ध आय हासिल की है.

मचान बनाने का तरीका

जिस खेत में मचान बनाना हो, पहले ठीक से उस की जुताई कर के मिट्टी को समतल करें और 10 फुट लंबी व 3 फुट चौड़ी क्यारी बनाएं. क्यारी बनाते समय सिंचाई और पानी की निकासी के लिए नालियां बनाएं. जहां गरमी में सिंचाई का साधन न हो, वहां ड्रिप किट द्वारा सिंचाई करें.

क्यारी बनाने के बाद खेत में 6×6 फुट की कतारों में बांस या लकड़ी के खंभों को 6×6 फुट की दूरी पर डेढ़ से 2 फुट गहरे गड्ढे बना कर मजबूती से गाड़ें. खंभों की ऊंचाई करीब 6 फुट रखें, ताकि हवा और धूप पौधों को मिलती रहे.

मचान के अंदर चलने और काम करने में कोई दिक्कत न हो. सभी खंभों के ऊपरी सिरों को एक से दूसरे खंभे को जोड़ते हुए मोटे तार से बांध कर मिला दें. इस तरह बना मचान 3 से 4 सालों तक लगातार सब्जियों की लता वाली फसलों को चढ़ाने के काम आएगा. बीचबीच में कुछ मरम्मत करते हुए इसे लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सकता है. कुछ किसान सीमेंट से बने खंभे भी इस्तेमाल करने लगे हैं.

10-12 डेसीमल (500 वर्गमीटर) मचान से 1 साल में 4 फसलों से करीब 58 क्विंटल सब्जी मिलती है, जिस से किसान को 38-40 हजार शुद्ध आय हासिल होती है. मचान के ज्यादातर किसान रासायनिक उर्वरकों और दवाओं का इस्तेमाल न कर के रसायनमुक्त सब्जियों का उत्पादन कर रहे हैं.

वे बीज बोने से पहले बीजों के शोधन व कीड़ों और रोगों से बचाव के लिए जैविक उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं जैसे कंपोस्ट/नाडेप, गोबर की खाद बीजामृत, धनजीवामृत, जीवामृत, नीम बीजों का घोल (एनएसकेई 5 फीसदी) आदि. इस तरह से खेती करने पर किसानों की लागत भी कम आती है और सब्जियों का मूल्य भी ज्यादा मिलता है.

मचान विधि से खेती करने के मुख्य आधार

फसलों को 2 स्तर पर एकसाथ उगाना यानी लता वाली एक फसल मचान पर चढ़ा कर और एक जमीन पर साथसाथ उगाना. जमीन के नीचे (गांठों या जड़ वाली) प्याज और जिमीकंद या छाया में भी हो जाने वाली अदरक या हलदी जैसी फसलें उगाना. एक फसल के काटने से पहले ही दूसरी फसल की बोआई या रोपाई करना. साल में कम से कम 2 जमीन पर और 2 मचान पर होने वाली (लता वाली) फसलें लेना.

जीरे (Cumin) की उन्नत खेती

भारत में जीरे की खेती खासकर गुजरात और राजस्थान में की जाती है. राजस्थान में खासकर बाड़मेर, जालौर, जोधपुर, जैसलमेर, नागौर, पाली, अजमेर, सिरोही और टोंक जिलों में जीरे की खेती की जाती है. जीरे के बीजों से उस की किस्म व जगह के मुताबिक 2.5 से 4.5 फीसदी वाष्पशील तेल हासिल होता है. जीरे से हासिल होने वाले ओलियोरेजिन की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काफी मांग है. इस की खेती कर के कम लागत व कम समय में ज्यादा लाभ कमाया जा सकता है.

जीरा सर्दी के मौसम की फसल है, इस के लिए सूखा और हलका ठंडा मौसम अच्छा रहता है. जिन इलाकों में फूल व बीज बनते समय वायुमंडलीय नमी ज्यादा रहती है, वहां जीरे की खेती अच्छी नहीं होती है. वायुमंडल में ज्यादा नमी से रोग व कीड़े ज्यादा पनपते हैं. जीरे की फसल पाला सहन नहीं कर पाती. पकते समय हलका गरम मौसम इस की फसल के लिए मुफीद रहता है. वातावरण का तापमान 30 डिगरी सेंटीग्रेड से ज्यादा व 10 डिगरी सेंटीग्रेड से कम होने पर जीरे के अंकुरण पर बुरा असर पड़ता है.

जमीन की तैयारी : जीरे की खेती वैसे तो हर तरह की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन रेतीली, चिकनी बलुई या दोमट मिट्टी जिस में कार्बनिक पदार्थों की अधिकता हो, इस की खेती के लिए काफी अच्छी रहती है. खेत में ज्यादा वक्त तक पानी रुकने से उकठा रोग हो सकता है. साधारण किस्म की भारी और लवणीय मिट्टी भी जीरे की फसल के लिए अच्छी रहती है. बोआई से पहले खेत की मिट्टी भुरभुरी बनाने के लिए खेत की ठीक तरह से जुताई करें और खेत से कंकड़पत्थर, पुरानी फसल के अवशेष, खरपतवार आदि निकाल कर खेत को साफ कर दें.

जीरे की उन्नत किस्में

गुजरात जीरा 4 (जीसी 4) : यह प्रजाति गुजरात कृषि विश्वविद्यालय के मसाला अनुसंधान केंद्र, जगूदान ने तैयार की है. इस के पौधे बौने व झाड़ीनुमा होते हैं और शाखाएं ज्यादा होती हैं. यह किस्म 110 से 120 दिनों में पक कर 7 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस के बीजों में 4 फीसदी तक तेल की मात्रा होती है.

जीसी 4 के अलावा आरजेड 223, आरजेड 209 और आरजेड 19 भी उम्दा किस्में हैं.

खाद और उर्वरक : जीरे की ज्यादा पैदावार के लिए 10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सड़ी हुई गोबर की खाद जुताई से पहले अच्छी तरह खेत में बिखेर कर मिलानी चाहिए. ढाई टन सरसों का अवशेष प्रति हेक्टेयर के हिसाब से अप्रैलमई में खेत में डाल कर तवी चला कर अच्छी तरह मिट्टी में मिलाने से उकठा रोग की रोकथाम होने के साथसाथ मिट्टी में जीवांश की मात्रा भी बढ़ती है.

उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के हिसाब से करना चाहिए. औसत उर्वरता वाली जमीन में प्रति हेक्टेयर 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस और 15 किलोग्राम पोटाश की जरूरत पड़ती है. फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई से पहले आखिरी जुताई के समय जमीन में मिलाएं. नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा बोआई के 30 से 35 दिनों बाद खड़ी फसल में सिंचाई के साथ दें. इस के अलावा बेहतर पैदावार के लिए बोआई के समय 40 किलोग्राम गंधक जिप्सम के माध्यम से प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में डालें.

बीजों की मात्रा और उपचार : उन्नत किस्म के 12 से 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही रहते हैं. बोआई से पहले बीजों को मित्र फफूंद यानी ट्राइकोडर्मा की 4 किलोग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. उस के बाद एजेटोबेक्टर जैव उर्वरक के 200 ग्राम के 3 पैकेटों से प्रति हेक्टेयर बोए जाने वाले बीजों को उपचारित कर के बोआई करें.

बोआई का समय व विधि : जीरे की बोआई 15 नवंबर के आसपास करनी चाहिए. आमतौर पर जीरे की बोआई छिटकवां तरीके से की जाती है.

पहले से तैयार खेत में एक जैसी क्यारियां बना कर उन में बीज एकसाथ छिटक कर लोहे की दंताली (दांतों वाला खास फावड़ा) इस तरह फिराएं कि बीजों के ऊपर मिट्टी की हलकी परत चढ़ जाए ध्यान रहे कि बीज ज्यादा गहराई में न जाएं.

निराईगुड़ाई और अन्य शस्य क्रियाओं व छिड़काव की सुविधा के लिहाज से छिटकवां तरीके के बजाय कतारों में बोआई करना ज्यादा मुफीद रहता है. कतारों में बोआई के लिए सीडड्रिल से भी 30 सेंटीमीटर की दूरी पर बोआई की जा सकती है. बोआई के दौरान इस बात का ध्यान रखें कि बीज मिट्टी से एकसार ढक जाएं और मिट्टी की परत 1 सेंटीमीटर से ज्यादा मोटी न हो.

सिंचाई : बोआई के एकदम बाद सिंचाई करें और दूसरी हलकी सिंचाई पहली सिंचाई के 8-10 दिनों बाद अंकुरण के समय करें. यदि दूसरी सिंचाई के बाद पूरी तरह अंकुरण न हो या जमीन पर पपड़ी जम गई हो तो फिर एक हलकी सिंचाई करना फायदेमंद रहता है. इस के बाद मिट्टी और मौसम के अनुसार 15 से 25 दिनों के बीच सिंचाई करें. जीरे में दाने आते समय भी सिंचाई करनी चाहिए, लेकिन पकने के दौरान फसल में सिंचाई न करें. जीरे में फव्वारा विधि से सिंचाई करना मुफीद रहता है.

निराईगुड़ाई : जीरे की शुरुआती बढ़वार काफी धीमी होती है और इस का पौधा भी काफी छोटा होता है. खरपतवारों से इस का काफी बचाव करना पड़ता है. जीरे की फसल में खरपतवारों की रोकथाम और जमीन में सही वायु संचार के लिए 2 बार निराईगुड़ाई करना जरूरी है. पहली निराईगुड़ाई बोआई के 30-35 दिनों बाद व दूसरी 55-60 दिनों बाद करनी चाहिए. पहली निराईगुड़ाई के दौरान फालतू पौधों को उखाड़ कर हटा दें, जिस से पौधों के बीच की दूरी 5 सेंटीमीटर रहे.

जीरा (Cumin)जीरे के रोग और कीट

उकठा : यह रोग फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम क्यूमीनाई नामक फफूंद से पौधों की जड़ों में लगता है और मिट्टी व बीज जनित है. जीरे में यह रोग किसी भी अवस्था में बोआई से कटाई तक हो सकता है. इस के पहले लक्षण में पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और पौधा धीरेधीरे मुरझा कर सूखने लगता है. यदि रोग का संक्रमण फूल या बीज बनने के समय होता है, तो जीरे का बीज पतला, छोटा व सिकुड़ा हुआ होता है. यदि रोगग्रसित जड़ों को चीर कर देखें तो तने तक लंबी काले रंग की एक धारी दिखाई देती है. इस का प्रभाव उन खेतों में ज्यादा दिखता है, जहां लगातार जीरे की खेती की जाती है.

रोकथाम

* खेत की सफाई पर ध्यान दें. रोगी पौधों के अवशेषों को नष्ट कर दें.

* गरमी में खेत खाली छोड़ कर गहरी जुताई करें.

* फसल चक्र अपनाएं.

* जब सरसों की फसल कट जाए तो उस का कचरा उसी खेत में दबा कर गरमी के मौसम में एक बार सिंचाई करें. इस कचरे के सड़ने से फफूंदनाशक गैस पैदा होती  है, जो उकठा रोग की फफूंद को मार देती है.

* स्वस्थ व रोगरोधी किस्मों की ही बोआई करें.

* बीजों को ट्राइकोडर्मा की 4 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.

* रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट करें और ढाई किलोग्राम ट्राइकोडर्मा 100 किलोग्राम अच्छी तरह सड़ी नमीयुक्त गोबर की खाद के साथ जमीन में दें. ट्राइकोडर्मा बोआई से पहले खेत में देना ज्यादा फायदेमंद होता है.

झुलसा : यह रोग अल्टरनेरिया बर्नसाई नामक फफूंद से पैदा होता है, जो रोगी पौधों के अवशेषों पर जमीन में रहता है. यह रोग फसल पर फूल आने के दौरान दिखाई देता है और हवा से रोगी पौधों से स्वस्थ पौधों पर फैलता है. पत्तियों पर छोटेछोटे धब्बों के रूप में इस रोग की शुरुआत होती है. रोग के संक्रमण के बाद नमी बनी रहे या छुटपुट बारिश हो जाए तो यह रोग बढ़ जाता है और तने को भी अपनी चपेट में ले लेता है. शुरू में रोग के धब्बे बैगनी और बाद में गहरे भूरे रंग से काले रंग के हो जाते हैं. रोग ग्रसित पौधों में बीज बिल्कुल भी नहीं बनते और यदि बनते हैं तो छोटे और सिकुड़े होते हैं. यह रोग इतनी तेजी से फैलता है कि फसल को नुकसान से बचाना मुश्किल हो जाता है.

रोकथाम

* खेत के आसपास पिछले साल का रोगग्रस्त कचरा न छोड़ें.

* गरमी के मौसम में गहरी जुताई कर के खेत को खुला छोड़ें.

* स्वस्थ बीज बोएं.

* खेत में रोग के लक्षण दिखाई देते ही कापरआक्सीक्लोराइड 0.3 फीसदी 3 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर 15 दिनों बाद छिड़काव दोहराएं.

* ज्यादा सिंचाई न करें और ज्यादा सिंचाई वाली फसलों जैसे गेहूं व अरंडी के पास बिल्कुल भी जीरा न लगाएं.

* पौधों को सही दूरी पर रखें.

छाछ्या रोग : यह रोग ऐरीसाइफी पोलीगोनी नामक फफूंद से पैदा होता है और जड़ों को छोड़ कर पौधे के सभी भागों को नुकसान पहुंचाता है. फूल आने से बीज बनने के दौरान यह रोग ज्यादा नुकसान करता है.

रोग की शुरुआत पत्तियों पर छोटेछोटे सफेद धब्बों के रूप में रोग होती है और धीरेधीरे पत्तियों की पूरी सतह व पौधों पर रोग फैल जाता है. गरम व नमी वाले मौसम में यह रोग तेजी से फैलता है. इस रोग का फैलाव हवा, पानी व कीटों से होता है. इस रोग की वजह से बीज सिकुड़े व वजन में हलके बनते  हैं और उपज घट जाती है.

रोकथाम

* रोगी पौधों के अवशेषों को इकट्ठा कर के नष्ट कर दें.

* खेत में रोग के लक्षण दिखाई देते ही 25 किलोग्राम गंधक चूर्ण या 2 से 5 किलोग्राम घुलनशील गंधक का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

मोयला : इस कीट से फसल को काफी नुकसान होता है. यह हरेपीले रंग का छोटा व कोमल कीट होता है. इसे माहू, चैंपा या कालिया जीवड़ा भी कहते हैं. यह पौधे के मुलायम हिस्से से रस चूस कर उसे नुकसान पहुंचाता है. इस का असर फसल में फूल आने के दौरान शुरू होता है और दाना पकने तक रहता है.

रोकथाम

* 12 पीले चिपचिपे ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं.

* पहला छिड़काव 2 फीसदी लहसुन के अर्क का, दूसरा छिड़काव गौमूत्र (100 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का व तीसरा छिड़काव एजीडीराक्टीन 3000 पीपीएम (3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी) का करें.

कटाई : जीरे की फसल 110 से 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. फसल को हंसिया से काट कर ठीक तरह से सुखा लें. खेत में सूखते ढेर पर रेत न डालें. उड़ने का डर हो तो अखबार से ढक कर ऊपर से पत्थर रख दें. जहां तक संभव हो पक्के फर्श या त्रिपाल पर दानों को थ्रेसर से अलग कर लें. दानों से धूल व कचरा आदि ओसाई कर के दूर कर लें और उन्हें अच्छी तरह सुखा कर साफ बोरियों में भरें.

भंडारण : भंडारण करते समय दानों में नमी साढ़े 8 या 9 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. बोरियों को दीवार से 50-60 सेंटीमीटर की दूरी पर लकड़ी की पट्टियों पर रखें और चूहों व अन्य कीटों से बचाएं.

मत्स्यपालन और पशुधन की योजनाओं से किसान उठाएं लाभ

नई दिल्ली : मत्स्यपालन विभाग, भारत सरकार वित्तीय वर्ष 2020-21 से 5 सालों के लिए मात्स्यिकी क्षेत्र में 20050 करोड़ रुपए के निवेश के साथ एक प्रमुख योजना “प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना यानी पीएमएमएसवाई)” को कार्यान्वित कर रही है. पीएमएमएसवाई योजना का मुख्य उद्देश्य सतत(सस्टेनेबल), जिम्मेदार, समावेशी (इन्क्लूसिव) और उचित तरीके से मात्स्यिकी क्षमता का उपयोग करना है और मत्स्य उत्पादन विधियों को बढ़ावा देना है. यह योजना कर्नाटक सहित सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में लागू की जा रही है.

पीएमएमएसवाई के तहत बीते 4 सालों और वर्तमान वित्त वर्ष के दौरान, मत्स्यपालन विभाग, भारत सरकार ने कुल 1056.34 करोड़ रुपए की लागत से कर्नाटक सरकार के मात्स्यिकी विकास प्रस्ताव को स्वीकृति दी है.

मत्स्यपालन में उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के लिए मंजूर गतिविधियों में गुणवत्तापूर्ण बीज आपूर्ति के लिए फिश हैचरी, मीठे पानी और खारे पानी के एक्वाकल्चर में क्षेत्र विस्तार, प्रौद्योगिकी संचारित कल्चर प्रथाएं जैसे रीसर्कुलेटरी एक्वाकल्चर सिस्टम, बायोफ्लोक इकाइयां, केज कल्चर, सीवीड फार्मिंग, ओर्नामेंटल ब्रीडिंग और रियरंग यूनिट शामिल हैं.

तटीय समुद्री क्षेत्रों में पीएमएमएसवाई के तहत फिश स्टाक की बहाली के लिए कर्नाटक सहित सभी तटीय राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में आर्टिफिशियल रीफ की स्थापना के लिए भी मंजूरी दी गई है. मत्स्यपालन विभाग, भारत सरकार भारतीय विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र/इंडियन ऐक्सक्लूसिव इकौनोमिक जोन (ईईजेड) में मानसून/मत्स्य प्रजनन अवधि के दौरान एकसमान मत्स्यन पर प्रतिबंध (यूनिफौम फिशिंग बैन) भी लागू कर रहा है और संरक्षण व समुद्री सुरक्षा कारणों से कर्नाटक सहित तटीय राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा प्रादेशिक जल (टेरिटोरियल वाटर) के भीतर इस तरह के फिशिंग बैन को लागू किया गया है.

इस के अलावा वित्तीय वर्ष 2023-24 से 2026-27 तक 4 सालों के लिए मत्स्यपालन विभाग, भारत सरकार ने प्रधानमंत्री मत्स्य किसान समृद्धि योजना (पीएम-एमकेएसवाई) नामक एक उपयोजना के कार्यान्वयन के लिए स्वीकृति दे दी है. इस योजना का उद्देश्य मात्स्यिकी क्षेत्र की मूल्यश्रृंखला दक्षता में सुधार के लिए निष्पादन अनुदान के माध्यम से मात्स्यिकी और एक्वाकल्चर सूक्ष्म उद्यमों को बढ़ावा देना है.

पीएमएमएसवाई के तहत राष्ट्रीय मात्स्यिकी विकास बोर्ड (एनएफडीबी) के माध्यम से जल कृषि के अन्य क्षेत्रों में विभिन्न कृषि पद्धतियों में विभिन्न क्षमता निर्माण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, जिस में गहन (इंटेंसिव) मीठे पानी की जल कृषि, खारे पानी में जल कृषि, शीत जल मात्स्यिकी, सजावटी मत्स्यपालन, मत्स्य प्रसंस्करण और विपणन, प्रजाति विशिष्ट हैचरी और प्रजाति विशिष्ट कल्चर (कृषि) प्रैक्टिस शामिल हैं.

एनएफडीबी ने बताया कि पीएमएमएसवाई के तहत अब तक कर्नाटक में 141 प्रशिक्षण और आउटरीच गतिविधियों को वित्त प्रदान किया गया है, जिस में 10,150 प्रतिभागी शामिल हैं और 121.15 लाख रुपए की धनराशि मंजूर की गई है.

पशुपालन एवं डेयरी विभाग, भारत सरकार ने डेयरी सहकारी समितियों सहित डेयरी क्षेत्र को मजबूती प्रदान करने के लिए कई पहल की हैं. यह सूचित किया गया है कि साल 2014 में राष्ट्रीय डेयरी विकास कार्यक्रम (एनडीडीपी) योजना की शुरुआत के बाद से कर्नाटक में 16 परियोजनाओं को मंजूरी दी गई, जिन की कुल परियोजना लागत 408.39 करोड़ रुपए है. स्वीकृत परियोजनाओं का कार्यान्वयन कर्नाटक सहकारी दुग्ध विपणन संघ लिमिटेड द्वारा किया जा रहा है.

इस के अलावा साल 2021-22 से 2025-26 तक, पशुपालन एवं डेयरी विभाग, भारत सरकार 500 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ अंब्रेला योजना “इंफ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट फंड” के एक हिस्से के रूप में डेयरी गतिविधियों में लगे डेयरी सहकारी समितियों और किसान उत्पादक संगठनों (एसडीसीएफपीओ) को सहायता देने की योजना भी लागू कर रही है.

इस योजना को राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) के माध्यम से लागू किया जा रहा है, जिस का मुख्य उद्देश्य गंभीर रूप से प्रतिकूल बाजार स्थितियों या प्राकृतिक आपदाओं के कारण संकट से निबटने के लिए सौफ्ट वर्किंग कैपिटल लोन (आसान कार्यशील पूंजी ऋण) दे कर के डेयरी गतिविधियों में लगे सहकारी समितियों और किसान उत्पादक संगठनों की सहायता करना है. यह योजना कर्नाटक में भी लागू की जा रही है.

इस के अलावा फरवरी, 2024 से डेयरी प्रोसैसिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट फंडा (डीआईडीएफ) का पुनर्गठन किया गया है और इसे एनिमल हसबंडरी इंफ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट फंड (एएचआईडीएफ) में एकीकृत किया गया है. इस संशोधित योजना के तहत सहकारी समितियां और प्राइवेट डेयरी प्लांट्स दोनों ही 3 फीसदी हर साल की दर से ब्याज सहायता प्राप्त करने के पात्र हैं. साथ ही, निजी संस्थाओं की तरह सहकारी समितियां भी अब इस योजना के अंतर्गत अर्हता प्राप्त किसी भी ऋण देने वाली संस्था से ऋण प्राप्त कर सकती हैं.