लाभकारी है मचान खेती

मचान खेती किसानों के लिए लाभकारी साबित रही है. यही वजह है कि बड़ी संख्या में किसान इसे अपना रहे हैं. जरूरत इस बात की है कि किसान इसे सही तरह से करें, जिस से न केवल अच्छी फसल ले सकें बल्कि एकसाथ कई फसलें उगा सकते हैं.

लता वाली सब्जियों की फसलों को बांस या लकड़ी आदि के बने ढांचे पर चढ़ा कर खेती करने का रिवाज देश के हर हिस्से में है. उत्तरी और पूर्वी राज्यों में इसे मचान या मंडप कहते हैं.

जल विभाग ने इस तरीके में तकनीकी सुधार कर पूर्वी उत्तर प्रदेश में मचान को बढ़ावा दिया, जो किसानों के लिए काफी लाभदायक रहा. वहां अब काफी किसानों द्वारा इस विधि से सब्जियों की खेती की जा रही है. इस तरीके से साल भर किसी न किसी सब्जी का उत्पादन होता रहता है और किसानों को नियमित रूप से आमदनी होती रहती है. छोटे किसान जिन के पास बहुत कम जमीन है, उन के लिए यह विधि काफी लाभदायक है. इस से प्रतिवर्ग मीटर करीब 70-80 रुपए की आमदनी मिल जाती है.

किसान 10-12 डेसीमल (500 वर्गमीटर) जमीन से 1 साल में 38-40 हजार रुपए की आय ले लेते हैं. सब्जियों की मचान विधि से खेती करने से 34,80,000 लीटर प्रति एकड़ पानी की बचत के साथसाथ 64 लीटर डीजल प्रति एकड़ की भी बचत होती है. साल 2015-16 में 667 किसानों ने 81.42 एकड़ में मचान विधि से सब्जियों की खेती कर के 3065 टन सब्जी का उत्पादन कर के 2.57 करोड़ रुपए की शुद्ध आय हासिल की है.

मचान बनाने का तरीका

जिस खेत में मचान बनाना हो, पहले ठीक से उस की जुताई कर के मिट्टी को समतल करें और 10 फुट लंबी व 3 फुट चौड़ी क्यारी बनाएं. क्यारी बनाते समय सिंचाई और पानी की निकासी के लिए नालियां बनाएं. जहां गरमी में सिंचाई का साधन न हो, वहां ड्रिप किट द्वारा सिंचाई करें.

क्यारी बनाने के बाद खेत में 6×6 फुट की कतारों में बांस या लकड़ी के खंभों को 6×6 फुट की दूरी पर डेढ़ से 2 फुट गहरे गड्ढे बना कर मजबूती से गाड़ें. खंभों की ऊंचाई करीब 6 फुट रखें, ताकि हवा और धूप पौधों को मिलती रहे.

मचान के अंदर चलने और काम करने में कोई दिक्कत न हो. सभी खंभों के ऊपरी सिरों को एक से दूसरे खंभे को जोड़ते हुए मोटे तार से बांध कर मिला दें. इस तरह बना मचान 3 से 4 सालों तक लगातार सब्जियों की लता वाली फसलों को चढ़ाने के काम आएगा. बीचबीच में कुछ मरम्मत करते हुए इसे लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सकता है. कुछ किसान सीमेंट से बने खंभे भी इस्तेमाल करने लगे हैं.

10-12 डेसीमल (500 वर्गमीटर) मचान से 1 साल में 4 फसलों से करीब 58 क्विंटल सब्जी मिलती है, जिस से किसान को 38-40 हजार शुद्ध आय हासिल होती है. मचान के ज्यादातर किसान रासायनिक उर्वरकों और दवाओं का इस्तेमाल न कर के रसायनमुक्त सब्जियों का उत्पादन कर रहे हैं.

वे बीज बोने से पहले बीजों के शोधन व कीड़ों और रोगों से बचाव के लिए जैविक उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं जैसे कंपोस्ट/नाडेप, गोबर की खाद बीजामृत, धनजीवामृत, जीवामृत, नीम बीजों का घोल (एनएसकेई 5 फीसदी) आदि. इस तरह से खेती करने पर किसानों की लागत भी कम आती है और सब्जियों का मूल्य भी ज्यादा मिलता है.

मचान विधि से खेती करने के मुख्य आधार

फसलों को 2 स्तर पर एकसाथ उगाना यानी लता वाली एक फसल मचान पर चढ़ा कर और एक जमीन पर साथसाथ उगाना. जमीन के नीचे (गांठों या जड़ वाली) प्याज और जिमीकंद या छाया में भी हो जाने वाली अदरक या हलदी जैसी फसलें उगाना. एक फसल के काटने से पहले ही दूसरी फसल की बोआई या रोपाई करना. साल में कम से कम 2 जमीन पर और 2 मचान पर होने वाली (लता वाली) फसलें लेना.

पराली (Stubble) : प्रदूषण नहीं, संभावनाओं की नई सुबह

हर साल धान और गेहूं जैसी फसलों की कटाई के बाद लाखों टन पराली (फसल अवशेष) भारत में जला दी जाती है. इस से होने वाला धुआं वायु प्रदूषण और पर्यावरणीय संकट का एक बड़ा कारण बनता है. पराली जलाने से न केवल हमारी वायु गुणवत्ता पर असर पड़ता है, बल्कि मिट्टी की उर्वरता भी घटती है.

पिछले कई सालों से गेहूं की फसल आते ही पराली का मुद्दा गरमाने लगता है और सियासी दल भी इस गरम तवे पर अपनीअपनी रोटी सेंकने में लग जाते हैं. पराली को ले कर सरकार और किसान आमनेसामने होते हैं. सरकार कुछ किसानों को पराली जलाने को ले कर उन के खिलाफ जुर्माना लगाती है, उन्हें दंडित करती है, जिस से ये किसान आने वाले 2 सालों तक अपनी फसल को मंडियों में नहीं बेच पाते. पैनल्टी अलग से देनी होती है.

सरकार के ऐसे दमनकारी कदमों से यह समस्या सुलझने के बजाय और उलझ जाएगी. आज जरूरत है किसानों के साथ मिलबैठ कर इस समस्या की असली वजहों की जांचपड़ताल कर उन का समाधान ढूंढ़ने की.

सब से पहले नजरिया बदलें

सब से पहली बात यह है कि पराली को एक समस्या के बजाय समाधान के रूप में देखा जाए. नजरिया बदलते ही आप यह जान कर हैरान हो जाएंगे कि पराली के इतने सारे सकारात्मक उपयोग हैं, जो कि किसानों के लिए भी लाभकारी हैं और पर्यावरण को भी सुरक्षित रखते हैं. पराली के सकारात्मक उपयोग प्रदूषण की समस्या से निकाल कर संभावनाओं के नए दरवाजे खोलते हैं.

पराली जलाने के नकारात्मक प्रभाव

पराली जलाने से बड़े पैमाने पर कार्बनडाईऔक्साइड, नाइट्रस औक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं, जो जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा देते हैं. दिल्ली और उत्तर भारत के अन्य हिस्सों में पराली जलाने से वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) खतरनाक स्तर तक पहुंच जाता है, जिस से सांस संबंधी समस्याओं का खतरा बढ़ता है. साथ ही, इस से मिट्टी की उपजाऊ परत भी नष्ट हो जाती है और खेती की गुणवत्ता पर असर पड़ता है.

‘भूमिर्माता पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ (ऋग्वेद) अर्थात “पृथ्वी हमारी माता है और हम उस के पुत्र हैं,” हमें धरती की रक्षा करनी चाहिए और उस के संसाधनों का सदुपयोग करना चाहिए. पराली के सदुपयोग के कई तरीकों से हम इस दायित्व को निभा सकते हैं.

1. पराली के सकारात्मक उपयोग के सुझाव :

जैविक खाद (कंपोस्ट) के रूप में पराली का उपयोग
पराली को जैविक खाद (कंपोस्ट) में बदल कर मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाया जा सकता है. कंपोस्टिंग प्रक्रिया में पराली के पोषक तत्व मिट्टी में मिल जाते हैं, जिस से फसल की गुणवत्ता में सुधार होता है. कंपोस्टिंग से न केवल खेतों की उर्वरता बनी रहती है, बल्कि रासायनिक खादों की जरूरत भी कम होती है, जिस से पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

2. बायोगैस उत्पादन में पराली का उपयोग :

पराली से बायोगैस का उत्पादन कर के स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है. बायोगैस उत्पादन की प्रक्रिया में पराली को कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाता है, जिस से ऊर्जा की मांग पूरी की जा सकती है. अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के अनुसार, भारत में पराली का सही ढंग से उपयोग कर के 50 फीसदी तक ऊर्जा जरूरतें पूरी की जा सकती हैं.

3. मशरूम उत्पादन में पराली का उपयोग :

पराली का उपयोग मशरूम की खेती के लिए भी किया जा सकता है. इस में पाए जाने वाले पोषक तत्व मशरूम की वृद्धि के लिए उपयुक्त होते हैं. यह विधि न केवल किसानों के लिए एक अतिरिक्त आय का स्रोत बनती है, बल्कि पराली के उपयोग का एक व्यावसायिक तरीका भी प्रदान करती है.

4. पशु आहार के रूप में पराली :

पराली को पशुओं के लिए चारे के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. इसे खाद्य पदार्थों में मिला कर पशुओं के आहार के रूप में उपयोग किया जाता है. यह खासकर उन क्षेत्रों में फायदेमंद होता है, जहां पशुओं के लिए प्राकृतिक चारे की कमी होती है.

5. पराली से पेपर और पैकेजिंग सामग्री का निर्माण :

पराली से कागज और पैकेजिंग सामग्री बनाई जा सकती है. इस में मौजूद सैल्यूलोज का उपयोग कागज, कार्डबोर्ड और अन्य पैकेजिंग उत्पादों के बनाने में किया जाता है. इस से प्लास्टिक पर निर्भरता कम होती है और पर्यावरण के नजरिए से बेहतर विकल्प मिलता है.

6. बायोचार उत्पादन में पराली का उपयोग :

बायोचार एक चारकोल जैसा पदार्थ होता है, जिसे पराली से बनाया जाता है और इसे मिट्टी में मिलाने से उस की उर्वरता बढ़ती है. बायोचार मिट्टी की जल धारण क्षमता को बढ़ाता है और उस में स्थायी रूप से कार्बन को संरक्षित करता है, जो जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में सहायक है.

7. फाइबर और निर्माण सामग्री का उत्पादन :

पराली से फाइबर तैयार किया जा सकता है, जिस का उपयोग ईकोफ्रैंडली निर्माण सामग्री जैसे ईंट और ब्लौक्स के निर्माण में किया जाता है. यह तरीका पराली के अपशिष्ट को एक टिकाऊ उत्पाद में बदलने का बेहतर तरीका है.

8. बायोइथेनाल उत्पादन :

पराली से बायोइथेनाल का उत्पादन किया जा सकता है, जो एक स्वच्छ और नवीकरणीय ईंधन है. बायोइथेनाल के उपयोग से न केवल पारंपरिक ईंधन पर निर्भरता कम होगी, बल्कि यह पर्यावरण को भी स्वच्छ बनाए रखेगा. इस से किसानों के लिए नई आर्थिक संभावनाएं खुलती हैं.

9. जैव ऊर्जा उत्पादन :

बायोमास ऊर्जा उत्पादन में पराली का उपयोग कर के बिजली पैदा की जा सकती है. भारत में कई बायोमास पावर प्लांट्स में पराली का इस्तेमाल हो रहा है. इस से न केवल ऊर्जा की जरूरतें पूरी हो रही हैं, बल्कि पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण से भी बचा जा सकता है.

10. पराली से गत्ता (कार्डबोर्ड) का उत्पादन :

पराली से कार्डबोर्ड और गत्ता जैसे औद्योगिक उत्पाद भी बनाए जा सकते हैं. इस का उपयोग पैकेजिंग उद्योग में किया जाता है, जो प्लास्टिक की जगह एक ईकोफ्रैंडली विकल्प प्रदान करता है.

11. मृदा संरक्षण के लिए मल्चिंग में पराली का उपयोग :

मल्चिंग की विधि में पराली का उपयोग कर के फसल की जड़ों को ढंका जाता है, जिस से मिट्टी में नमी बनी रहती है और खरपतवारों की वृद्धि कम होती है. यह विधि विशेष रूप से पानी की कमी वाले क्षेत्रों में उपयोगी है, जिस से खेती की लागत घटती है और फसल की गुणवत्ता में सुधार होता है.

अब जरा आंकड़ों की भी सुन लें :

भारत में हर साल लगभग 500 मिलियन टन फसल अवशेष उत्पन्न होता है, जिस में से लगभग 100 मिलियन टन पराली जलाई जाती है. यदि इस का सही तरीके से उपयोग किया जाए, तो उत्पादन में 20-30 फीसदी तक वृद्धि हो सकती है और 50 फीसदी तक ऊर्जा की मांग भी पूरी की जा सकती है. यह सचमुच में गेम चेंजर है.

पर्यावरणविदों ने भी पराली के सकारात्मक उपयोगों पर जोर दिया है. प्रसिद्ध पर्यावरणविद अल गोर का मानना है, “फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन पर्यावरण को सुधारने और कृषि की उत्पादकता बढ़ाने में सहायक हो सकता है।”

वहीँ डा. वंदना शिवा का कहना है, “कृषि में फसल अवशेषों का उचित उपयोग हमारे जलवायु और मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है.”

हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी पर्यावरण और धरती की रक्षा पर जोर दिया गया है.

‘समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमंडले, विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्वमे।’

इस श्लोक में धरती माता से क्षमा मांगने की बात कही गई है, जब हम उसे पैरों से छू कर अपवित्र अथवा प्रदूषित करते हैं. इस का सीधा सा मतलब यही है कि हमें अपनी धरती का सदुपयोग करते हुए उस की रक्षा करनी चाहिए.

आखिर में किसानों को समझना होगा कि पराली जलाना समस्या का समाधान नहीं है. पराली के निराकरण का सही तरीका अपनाना होगा और इसे आज नहीं तो कल आप को बंद करना ही होगा. पराली जलाने की समस्या का समाधान उस के सकारात्मक उपयोगों में छिपा है.

यदि हम पराली को सही ढंग से प्रबंधित करें और उस के विभिन्न उपयोगों को अपनाएं, तो यह प्रदूषण की समस्या को दूर कर सकता है और खेती को अधिक लाभदायक बना सकता है. पराली न केवल ऊर्जा, खाद और फाइबर के रूप में उपयोगी हो सकती है, बल्कि यह पर्यावरण के लिए मददगार साबित हो सकती है.

पराली के सही उपयोग से हम एक स्थायी और हरित भविष्य की दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं.

उन्नत तकनीक से करें ब्रोकली (Broccoli) की खेती

भारत में तकरीबन 40-50 किस्मों की अलगअलग तरह की सब्जियों की खेती काफी पहले से की जाती है, लेकिन अब भी कुछ ऐसी सब्जियां हैं, जिन से काफी किसान अनजान हैं.

ऐसी ही एक सब्जी है ब्रोकली यानी हरे रंग की गोभी. गोभी वर्ग की यह खास सब्जी कभीकभी बैगनी या सफेद रंग की भी होती है. इस के खाने लायक शीर्ष भाग के अलावा मांसल पुष्पदंड का भी सलाद और सूप के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. देश में इस की खेती पिछले कुछ सालों से शुरू की गई है. ब्रोकली की सब्जी की मांग बड़ेबड़े होटलों और पर्यटन स्थलों पर काफी तेजी से बढ़ी है.

पोषक तत्त्व : ब्रोकली में फूलगोभी, पत्तागोभी, गांठगोभी के मुकाबले प्रोटीन, विटामिन और खनिज पदार्थ ज्यादा होते हैं. इस के अलावा थियोमिन, रोइबोफलेविन व नियासिन वगैरह तत्त्व भी इस में भरपूर मात्रा में मौजूद होते हैं. इस के अलावा इस सब्जी का और भी महत्त्व है, क्योंकि खोजों से पता चला है कि ब्रोकली में मौजूद आईसोथियोसिनेट्रस श्रेणी के रसायन फाइटोकैमिकल्स के रूप में मौजूद होते हैं, जो कैंसर रोगियों का कैंसर से बचाव करते हैं और स्वस्थ लोगों में कैंसर की आशंका काफी कम करते हैं. इस के इस्तेमाल से खून में सीरम कोलेस्ट्राल का स्तर कम होता है, जो हृदय रोगियों के लिए लाभयदायक है. ब्रोकली के सूखे अंकुर ट्यूमर के खतरे को भी कम करते हैं. ब्रोकली में तमाम पौष्टिक तत्त्व दूसरी गोभियों की तुलना में ज्यादा पाए जाते हैं.

जलवायु : ब्रोकली शीतोष्ण जलवायु की फसल है, लेकिन इसे अन्य इलाकों में भी आसानी से उगाया जा सकता है. अधिकतर भागों में इस की खेती रबी मौसम में की जाती है, जबकि ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में इस की खेती गरमी के मौसम में की जाती है. ब्रोकली की अच्छी पैदावार के लिए 20-25 डिगरी सेल्सियस और शीर्ष विकास के लिए 12-18 डिगरी सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है.

खेत की तैयारी : सब  पहले खेत की गहरी जुताई के बाद ढेलों को तोड़ कर जमीन को समतल और मुलायम किया जाता है. नीम की खली 100 किलोग्राम और ट्राइकोडर्मा 1 किलोग्राम का मिश्रण (200 ग्राम प्रतिवर्ग मीटर) डाल कर अच्छी तरह मिला लें. पौध लगाने से पहले प्रतिवर्ग मीटर में नाइट्रोजन 5 ग्राम, फास्फोरस 5 ग्राम और पोटाश 5 ग्राम डाली जाती है. 100 सेंटीमीटर चौड़ी और 15 सेंटीमीटर ऊंची क्यारियां बनाई जाती हैं और कतारों के बीच 50 सेंटीमीटर का फासला रखा जाता है. सड़ी गोबर की खाद 20 किलोग्राम प्रतिवर्ग मीटर में डाल कर मिट्टी में अच्छी तरह मिलाई जाती है.

किस्में : ब्रोकली की खेत के लिए बोआई के समय और उगाए जाने वाले क्षेत्र के मुताबिक उन्नत किस्मों का चयन करते हैं. ब्रोकली की 3 किस्में होती हैं, हरी, बैगनी और सफेद. हरे रंग की गढे़ हुए शीर्ष वाली किस्मों को लोग ज्यादा पसंद करते हैं. पकने के आधार पर इन किस्मों को 3 हिस्सों में बांटा जाता है.

अगेती किस्में : ये किस्में रोपाई के बाद 40-50 दिनों में तैयार हो जाती हैं. ये मध्यम ठंड में ही पकती है. इन में मुख्य हैं: ऐश्वर्य, डीसिम्को, ग्रीनबड और स्पार्टनअली.

मध्यावधि किस्में : ये किस्में 100 दिनों में तैयार हो जाती हैं. सकाटा, अर्या, ग्रीन स्प्राउटिंग अच्छी मध्यावधि किस्में हैं.

पछेती किस्में : ये किस्में तकरीबन 120 दिनों में तैयार होती हैं. इन में मुख्य हैं, पूसा ब्रोकली व केटी सलेक्शन 1, जो 90 से 105 दिनों में तैयार हो जाती है.

संकर किस्में : निजी बीज कंपनियों ने ब्रोकली की अच्छी संकर किस्में तैयार की हैं.

अगेती संकर किस्में : प्रीमियम क्राप, लेसर, कलियर.

मध्यावधि संकर किस्में : लौर सायर, कुइजर, ऐक्स कैलिबर.

पछेती संकर किस्में : स्टिफकायक, ग्रीन सर्फ आदि.

बोआई : मैदानी भागों में ब्रोकली की बोआई मध्य सितंबर से नवंबर के पहले हफ्ते के बीच की जाती है. पहाड़ी इलाकों में बोआई का समय सितंबरअक्तूबर होता है. मध्यावधि किस्मों की बोआई सितंबरअक्तूबर में पौधशाला में करनी चाहिए. पछेती किस्मों के बीजों की बोआई का सही समय अक्तूबर के आखिर से मध्य नवंबर तक है. काफी ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में मार्चअप्रैल में बोआई करते हैं.

नर्सरी तैयार करना : 98 छेदों वाली प्रोट्रे यानी प्लास्टिक की ट्रे का इस्तेमाल पौध तैयार करने के लिए किया जा सकता है. इस प्रोटे्र का आकार आमतौर पर 54 सेंटीमीटर लंबा और 27 सेंटीमीटर चौड़ा होता है. सड़ी गोबर की खाद और जैविक मिश्रण का रोगमुक्त पौध उगाने के लिए इस्तेमाल किया जाना जरूरी है.

नर्सरी में परंपरागत मिश्रण, मिट्टी, गोबर की खाद, कोकोपीट, वर्मीकुलाइट, बालू या परलाइट मिश्रण का इस्तेमाल किया जा सकता है. यह रोगमुक्त होने के साथसाथ एकदम भुरभुरा होता है, जिस से जड़ों का अच्छी तरह विकास होता है. प्रोट्रे के हर छेद में 1 बीज डाल कर वर्मीकुलाट से बीज को ढक देना चाहिए. इस के बाद हजारे की मदद से हलकी सिंचाई कर के प्रोट्रे को एकदूसरे के ऊपर जमा कर पौलीथिन शीट से ढक देना चाहिए. इस से बीज आसानी से अंकुरित हो जाता है. अंकुरण सामान्यत: 6 से 8 दिनों में हो जाता है. अंकुरण के बाद पौलीथिन शीट हटाने के बाद प्रोट्रे को एकएक कर के जमीन पर रख देना चाहिए. पौधे 4 से 6 हफ्ते के भीतर रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं.

रोपाई : उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में पौधों की रोपाई अक्तूबर के पहले हफ्ते से नवंबर के पहले हफ्ते और पहाड़ी इलाकों में मई में की जाती है. नर्सरी में जब पौधे 10-12 सेंटीमीटर या 4-5 हफ्ते के हो जाते , तब खेत में इन की रोपाई कर देनी चाहिए. रोपाई से पहले 1 लीटर पानी में 1 ग्राम फफूंदीनाशक दवा यानी कार्बेंडाजिम डाल कर इस मिश्रण से जड़ों का उपचार करना चाहिए.

पौधों को पौलीथिन शीट के छेदों के बीच में लगाया जाता है, जिस से पौधे कहीं भी पौलीथिन शीट को न छुएं. रोपाई के फौरन बाद हजारे से हलकी सिंचाई की जाती है. पौधों की रोजाना इसी तरह हलकी सिंचाई करनी चाहिए. इस की रोपाई लाइनों में की जाती है. इस की किस्मों के अनुसार लाइनों की दूरी 45-60 सेंटीमीटर तक रखते हैं. ध्यान रहे कि पौधे 3-4 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरे नहीं लगाने चाहिए.

पोषक तत्त्वों का मिश्रण : खाद और उर्वरक का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के आधार पर करें. आमतौर पर 150-200 क्विंटल गोबर की खाद, 120-125 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 से 80 किलोग्राम सुपरफास्फेट और 25 से 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर में डालनी चाहिए. गोबर की खाद, सुपरफास्फेट और पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई के समय और शेष आधी मात्रा को खड़ी फसल पर छिड़काव यानी टापड्रेसिंग विधि से दें.

टापड्रेसिंग के बाद सिंचाई जरूर करें. इस के अलावा इस फसल में कुछ सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की भी जरूरत होती है, जैसे बोरान मोलिब्डेनम. इन सूक्ष्म तत्त्वों की कमी दूर करने के लिए रोपाई से पहले खेत की तैयारी करते समय 10-15 किलोग्राम बोरेक्स और 500 ग्राम अमोनियम मोलिब्डेट प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करते हैं.

मल्चिंग : तैयार क्यारियों को 100 गेज यानी 25 माइक्रोन की काली पौलीथिन शीट से ढक देना चाहिए और दोनों तरफ किनारों को मिट्टी से दबा देना चाहिए.

सिंचाई : पहली हलकी सिंचाई रोपाई के एकदम बाद और दूसरी रोपाई के 6 से 7 दिनों बाद करें. इस के बाद फिर हलकी सिंचाई करें. इस तरह 5-6 बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है. पानी खेत में ज्यादा समय तक नहीं रुकना चाहिए. खास बात यह है कि फसल की शुरुआत में और बीज निकलते समय पानी की कमी नहीं होनी चाहिए.

खरपतवारों की रोकथाम : खरपतवारों की रोकथाम के लिए बेसालिन 2.0 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रोपाई से पहले खेत में छिड़काव कर के मिट्टी में मिला दें. इस के अलावा 15 दिनों के अंतर पर 2-3 बार निराईगुड़ाई करें.

तोड़ाई : अगेती किस्मों की फसल दिसंबर में तोड़ाई लायक हो जाती है. मध्यावधि प्रजातियां जनवरीफरवरी में और पछेती प्रजातियां फरवरी के बाद तोड़ाई लायक होती हैं.

उपज : यदि ब्रोकली की खेती बताई गई विधि से करते हैं, तो 100-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज हासिल की जा सकती है. इस का इस्तेमाल बड़ेबड़े होटलों में सब्जी और सलाद के रूप में किया जाता है.

गाजर (Carrot) के बीज तैयार करें

गाजर (Carrot) में बोआई के 90-100 दिनों बाद रोपाई के लिए जड़ें तैयार हो जाती हैं. बोई गई किस्म से मेलखाती जड़ों को जमीन से निकाल कर रंग, आकार व रूप के आधार पर छांट लेते हैं. छांटी गई जड़ों का नीचे से एक तिहाई भाग और पत्तियों को 5-8 सेंटीमीटर रख कर काट देते हैं. छांटी गई जड़ों की रोपाई करने से पहले उन्हें फफूंदीनाशक से उपचारित कर लें.

रोपाई से पहले हैरो या कल्टीवेटर द्वारा खेत को अच्छी तरह तैयार करें. जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं ताकि मिट्टी भुरभुरी हो जाए. खेत की तैयारी के समय 150-200 क्विंटल सड़ी हुई गोबर की खाद, 25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं.

इस के अलावा प्रति हेक्टेयर की दर से 25 किलोग्राम नाइट्रोजन रोपाई के 21 दिनों बाद शाखाओं के निकलते समय और 25 किलोग्राम नाइट्रोजन फूल आना शुरू होने से पहले छिड़काव द्वारा दिया जाना चाहिए. गाजर की छांटी गई जड़ों को 30 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाते हैं. गाजर की रोपाई का सही समय मध्य दिसंबर से मध्य जनवरी तक होता है. जड़ों की रोपाई करने के बाद खेत को सींचा जाता है. रोपाई के 15-20 दिनों बाद बढ़ते पौधों पर मिट्टी चढ़ाना जरूरी है.

Carrot seeds

बेकार पौधों को निकालना

फूलों के खिलने के समय जो पौधे बहुत जल्दी फलन की अवस्था में आते हैं और जो पौधे काफी बाद में फूल की अवस्था में आते हैं, उन को खेत से निकाल देना चाहिए. जिन पौद्यों में बीमारी (खासकर बीजों से पैदा होने वाली बीमारी जैसे ब्लैक लैग या ब्लैक रोट) के लक्षण दिखाई दें, उन्हें भी खेत से निकाल देना चाहिए. हर अवस्था में जो भी बेकार पौधे दिखाई दें उन्हें निकालते रहना चाहिए.

परपरागित फसल होने के कारण गाजर का शुद्ध बीज लेने के लिए यह जरूरी है कि 2 किस्मों के बीच कुछ दूरी जरूर रखी जाए. आमतौर पर आधार बीज उत्पादन के लिए गाजर में 1000 मीटर की दूरी रखते हैं, जबकि प्रमाणित बीज के लिए गाजर में 800 मीटर की दूरी रखते हैं.

परागण में मदद के लिए मधुमक्खियों का इस्तेमाल : गाजर में परपरागण होता है, जिस में मधुमक्खियां व अन्य कीड़े परागण में मदद करते हैं. इस से अच्छी क्वालिटी वाले बीजों की कुल पैदावार बढ़ जाती है. परागण के लिए खेत में फूल आना शुरू होने के समय मधुमक्खियों के 2-4 बक्से प्रति एकड़ की दर से रखना फायदेमंद होता है.

कीट व रोग

आमतौर पर इस फसल में कीटों व रोगों का प्रकोप कम होता है. कभीकभी माहू, चेपा व फुदका पत्तियों व तनों से रस चूसते हैं. इन से बचाव के लिए इमिडाक्लोप्रिड 0.25 मिलीलीटर या रोगार 2.0 मिलीलीटर दवा का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें. पत्ती कुतरने वाले कीट से बचाव के लिए कार्बेरिल 2.0 ग्राम या डाइमिथोएट 30ईसी या मैलाथियान 50ईसी या मिथाइल डेमेटोन 25ईसी दवा का 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें. बीज, पौध व जड़ सड़न रोग से बचाव के लिए ट्राइकोडर्मा विरिडी 4 ग्राम या कार्बंडाजिम 2 ग्राम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजों का उपचार करें. पत्ती धब्बा रोग से बचाव के लिए कार्बंडाजिम या डाइथेन एम 45 के 0.25 फीसदी के घोल का छिड़काव करें.

बीज फसल की कटाई

फलियों को समय से तोड़ कर उन से बीज निकालना ठीक रहता है. इस में लापरवाही बरतने पर बीज की उपज व गुणवत्ता में कमी आती है. बीज की फसल मार्चमई के दौरान तैयार हो जाती है. फसल को सुबह के समय काटना ठीक रहता है. खलिहान में पौधों को अच्छी तरह सुखा कर फलियों से बीजों को अलग कर के साफ किया जाता है.

Carrot seeds

बीज की उपज व भंडारण

गाजर में प्रति हेक्टेयर 500-550 किलोग्राम बीज की औसत पैदावार हो जाती है. साफ किए गए बीजों को 7-8 फीसदी तक सुखा कर, नमीरोघी थैलों में भरा जाता है. भंडारण के दौरान बीजों को कीटों से बचाने के लिए इमिडाक्लोप्रिड चूर्ण 0.1 ग्राम या मेलाथियान चूर्ण 0.5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर बीजोपचार करें. फफूंदीजनक रोगों से बचाव के लिए थीरम या कार्बंडाजिम चूर्ण 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर बीजोपचार करें. बीजों का भंडारण सूखी व ठंडी जगह पर करें और समयसमय पर भंडारित बीजों की जांच करते रहें.

खरपतवार प्रबंधन (Weed Management) पर कार्यक्रम

उदयपुर. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय के अंतर्गत खरपतवार नियंत्रण पर विस्तार अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम का सफल आयोजन किया गया. इस प्रशिक्षण का नेतृत्व महाराणा प्रताप कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी), उदयपुर के अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा सहित प्रतिष्ठित वक्ताओं ने किया. उन के साथ सहायक कृषि निदेशक, बडगांव, श्याम लाल सालवी, डा. हरि सिंह, डा. रविकांत शर्मा और डा. श्रवण भी शामिल थे, जिन्होंने विभिन्न विषयों पर अपने विशेष ज्ञान को साझा किया.

अपने उद्घाटन भाषण में डा. अरविंद वर्मा ने फसल उत्पादकता और स्थायी कृषि पद्धतियों को सुनिश्चित करने में प्रभावी खरपतवार प्रबंधन की महत्वपूर्ण भूमिका पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि फसलों के उत्पादन में खरपतवार एक गंभीर समस्या है. खरपतवारों का प्रकोप अकसर मृदा प्रकार, वर्षा, मौसम, फसल प्रणाली, इत्यादि कारणों द्वारा प्रभावित होता है. खरपतवारों की तीव्रता की वजह से कभीकभी फसल पूर्णत नष्ट हो जाती है, इसलिए विभिन्न प्रकार की फसलों का अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए खरपतवारों का कुशल एवं समय पर प्रबंधन आवश्यक है. गुणवत्तापूर्ण फसलोत्पादन में खरपतवार मुख्य रूप से बाधक होते हैं, जो कीट एवं बीमारियों की अपेक्षाकृत फसल को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाते हैं. फसलों में खरपतवारों के प्रकोप से प्रत्येक वर्ष में अनुमानित 2,000 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है. अनुसंधानों एवं सर्वेक्षणों से ज्ञात है की फसल में खरपतवारों के प्रकोप द्वारा उपज में 37 प्रतिशत तक की गिरावट आती है.

खरपतवार वे अवांछित पौधे होते हैं जिन की निश्चित स्थान एवं समय पर आवश्यकता नहीं होती है और बिना बोए उग जाते हैं, जिस से लाभ की तुलना में हानि अधिक होती है, क्योंकि खरपतवार फसल के साथ पोषक तत्त्व, जल, स्थान, प्रकाश आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिससे फसलों के लिए पोषक तत्त्वों की उपलब्धता कम पड़ जाती है और फसलों से वंछित उत्पादन नहीं मिलता.

फसलों में खरपतवार प्रबंधन एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है. खरपतवारों के निवारण के लिए ऐसी प्रभावशाली पद्धति एवं तकनीक को उपयोग में लाना चाहिए जो वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित हो, जिस से किसानों को प्रति इकाई क्षेत्रफल से फसल उत्पादन वृद्धि के साथसाथ पर्यावरण भी सुरक्षित हो और आगामी कृषि भी प्रभावित न हो सके.

डा. हरि सिंह ने कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर इस के प्रभाव को रेखांकित करते हुए खरपतवार से आर्थिक नुकसान एवं उन की रोकथाम पर बोलते हुए कहा कि प्रशिक्षण में सामान्य और आक्रामक खरपतवार प्रजातियों की पहचान, मैनुअल और रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के सर्वोत्तम तरीकों और पर्यावरण के अनुकूल नवीनतम तकनीकों सहित कई विषयों को शामिल किया गया. कार्यशालाओं और व्यावहारिक प्रदर्शनों के माध्यम से, विस्तार अधिकारियों को वास्तविक परिस्थितियों में लागू करने योग्य व्यावहारिक ज्ञान प्रदान किया गया.

डा. रविकांत शर्मा ने देश के विभिन्न हिस्सों में लागू की गई फसल खरपतवार नियंत्रण रणनीतियों के अध्ययन प्रस्तुत किए.

श्यामलाल सालवी, सहायक कृषि निदेशक, बडगांव ने अपने क्षेत्रीय अनुभवों से व्यावहारिक चुनौतियों से निबटने के लिए उपयोगी सुझाव दिए. उन्होंने बताया कि आज के प्रशिक्षण कार्यक्रम में अधिकारियो ने व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया. इस ज्ञान को किसानों तक ले कर जाएंगे जिस से किसानों की आय व उत्पादकता में बढ़ोतरी होगी.

डा. श्रवण ने सत्र का समापन करते हुए खरपतवार विज्ञान में भविष्य के रुझानों और सतत कृषि विकास के लिए निरंतर शिक्षा के महत्त्व पर चर्चा की. इस प्रशिक्षण में खरीफ और रबी की फसलों में खरपतवार प्रबंधन के साथ जैविक खेती में खरपतवारों के नियंत्रण पर व्याख्यान दिए गए. वर्तमान कृषि के परिपेक्ष्य में ड्रोन आधारित खरपतवारों के प्रयोग एवं उन की अनुशंसाओं के बारे में प्रशिक्षण दिया गया.

प्रतिभागियों ने प्रशिक्षण के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि प्राप्त ज्ञान उन के क्षेत्र के लिए एक महत्त्वपूर्ण संसाधन साबित होगा. कार्यक्रम में बडगांव व गिर्वा तहसील के 35 से अधिक सहायक कृषि अधिकारियों व कृषि पर्यवेक्षकों ने भाग लिया.

अपनी अच्छी सेहत को  दें लिफ्ट वर्टिकल गार्डनिंग (Vertical Gardening) के साथ

कहते हैं कि स्वच्छ वातावरण, साफ हवा और खुश मन, ये तीनों ही जरूरी होते हैं एक स्वस्थ शरीर के लिए, लेकिन, आज बड़ेबड़े शहरों में छोटेछोटे फ्लैट्स में रहने का चलन तेजी से बढ़ता नजर आ रहा है. और शायद यही एक वजह है, जिस के चलते आज हम शुद्ध वातावरण और साफ हवा से कहीं दूर होते जा रहे हैं, जो सीधा हमारी सेहत पर असर डाल रहे हैं. ऐसे में वर्टिकल गार्डनिंग का चलन तेजी से देखा जा सकता है.

तो क्या है यह वर्टिकल गार्डनिंग का कौंसेप्ट, बता रहे हैं यहां :

क्या है वर्टिकल गार्डनिंग?

यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिस के द्वारा आप फ्लैट्स के अंदर कम जगह में ही अपनी सेहत के लिए जरूरी पौधों और फूलों को दीवार या जमीन पर एक सपोर्ट देते हुए पंक्तिबद्ध तरीके से लगवा सकती हैं.

इन पौधों और फूलों की सहायता से आप अपने घर के अंदर और आसपास के वातावरण में मौजूद कार्बनडाईऔक्साइड जैसे हानिकारक तत्त्वों को दूर कर खुद और अपने परिवार के सदस्यों को स्वच्छ हवा देने के साथसाथ अपने इंटीरियर को भी दे सकती हैं एक नया और स्टाइलिश लुक.

कैसे काम करता है वर्टिकल गार्डनिंग का ढांचा?

आप के फ्लैट्स के अनुसार वर्टिकल गार्डन के लिए मैटल के स्टैंडनुमा ढांचे बाजार में अब हर साइज और शेप में उपलब्ध हैं. इन के अंदर छोटेछोटे गमलों को एक कतार में उन की साइज और शेप के अनुसार उचित दूरी पर स्टैपल कर के रखा जाता है.

इस के बाद पौधों में आवश्यक मिट्टी और खाद इत्यादि मिलाने के बाद उन्हें पानी देने के लिए इस पूरे स्ट्रक्चर में पाइप का एक पैटर्न बनाया जाता है. इस में एक ही साइज के कई छेद होते हैं, जिन के द्वारा सभी पौधों या फूलों को सही और उपयुक्त मात्रा में पानी दिया जाता है.

घर में रहेगा खुशी का माहौल

स्वस्थ रहने के लिए खुश रहना जरूरी होता है. कहा भी गया है कि हरियाली है जहां, खुशहाली है वहां. पेड़पौधों में से निकलने वाली औक्सीजन आप के मूड को अच्छा रखने में काफी कारगर होती है. इस के

चलते सभी प्रकार की चिंताओं और समस्याओं को भूल कर मन अपनेआप ही खुश हो उठता है.

तो, क्यों ना आप भी वर्टिकल गार्डन के द्वारा अपने परिवार के सदस्यों को दें एक स्ट्रैस फ्री और हैल्दी वातावरण.

बोल उठेंगी पुरानी दीवारें

इस के द्वारा आप अपने घर की दीवारों को भी दे सकते हैं एक नया और स्टाइलिश लुक. यों तो अमूमन लोग अपने घर की दीवारों पर नया पेंट करवाते हैं, लेकिन आप अपने घर की पुरानी दीवारों पर वर्टिकल गार्डनिंग के कौंसेप्ट से नई जान डाल सकते हैं.

इस के लिए आप फर्न्स और मौस के पौधों को एक वुडन फ्रेम में लगा सकते हैं. इसे थोड़ा सा स्टाइलिश बनाने के लिए वुडन फ्रेम को डायनिंग या लिविंग रूम की दीवार पर एक पेंटिंग की तरह टांग सकते हैं. इस से आप की पुरानी दीवारों को एक नया और क्रिएटिव लुक मिल जाएगा.

पौधों के चयन का रखें खास खयाल

एक सही और अच्छे वर्टिकल गार्डन के लिए जगह के अनुसार पौधों का चयन बहुत महत्त्वपूर्ण होता है. इन पौधों के चयन में उस जगह के लोकल क्लाइमेट जैसे- न्यूनतम तापमान, सूरज की किरणों की दिशा और अवधि, हवा की रफ्तार और रुख इत्यादि एक अहम भूमिका निभाते हैं.

अपने वर्टिकल गार्डन के लिए पौधों का चयन करते समय निम्न बिंदुओं का खास खयाल रखें :

* एक परफैक्ट वर्टिकल गार्डन के लिए ज्यादातर लताओं वाले, ऊपर की ओर बढ़ने वाले और गूदेदार पौधों का ही चयन किया जाता है.

* चयनित पौधे सूखे, छाया और धूप तीनों ही अवस्था में खिलने वाले हों.

* अच्छी बढ़वार वाले पौधे या फूलों का चयन करें.

* पौधे कम लंबाई वाले हों.

कितनी डैंसिटी होनी चाहिए पौधों की?

ध्यान रखें कि पौधों की डैंसिटी 30 पौधे प्रति स्क्वायर मीटर होनी चाहिए. साथ ही, आप के इस वर्टिकल गार्डन के पौधों और फ्रेम इत्यादि को मिला कर कुल वजन 30 किलोग्राम/मीटर2 होना चाहिए.

घर के अंदर लगाए जाने वाले पौधे

अगर आप अपने घर के अंदर डायनिंग रूम या लिविंग रूम की दीवारों पर वर्टिकल गार्डन बनवाना चाहते हैं, तो आप फिलोडेन्ड्रान और एपीप्रेम्नम या गेस्नेरियाड्स के पौधे जैसे : एकाइनेन्थस, कालमिया और सेंटपौलिया के पौधों के अलावा पेपेरोमिया और बेगानिया या नेफ्रोलेपिस और टेरिस जैसे विभिन्न प्रकार के फर्न्स भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

साथ ही, क्लोरोफाइटम के पौधे घर के वातावरण में मौजूद नुकसानदेह कार्बनमोनोऔक्साइड, फार्माल्डीहाइड और जाइलिन जैसे हानिकारक प्रदूषित तत्त्वों को दूर कर के स्वच्छ हवा के साथसाथ सेहत के लिए जरूरी पोषक तत्त्व भी मुहैया कराते हैं.

लाइट और पानी का रखें खास खयाल

वर्टिकल गार्डन में लगने वाले पौधों और फूलों की अच्छी सेहत के लिए सही मात्रा में सूरज की किरणें और पानी आवश्यक होते हैं, इसीलिए यह सुनिश्चित करें कि उन्हें ऐसी जगह पर लगाएं, जहां सूरज की किरणें सही तरीके से आती हों. साथ ही, एक ही प्रकार के पौधों को एक ही स्थान पर लगाएं, ताकि उन्हें उपयुक्त मात्रा में पानी एकसाथ मिल जाए.

आटोमैटिक सिंचाई का विकल्प है बैस्ट

अपने वर्टिकल गार्डन में लगे पौधों को पानी देने के लिए हार्डवर्क न कर स्मार्टवर्क कर के लगा सकती हैं थोड़ा युनीक स्टाइल का तड़का. जहां एक ओर पौधों को पानी देने के लिए और लोग हाथ से चलाने वाले स्प्रेयर का इस्तेमाल करते हैं, वहीं आप आटोमैटिक आपरेटेड वर्टिकल गार्डनिंग का ढांचा लगवा सकती हैं.

आटोमैटिक ढांचे के अंदर पाइप के एक पैटर्न को पानी की टंकी के साथ जोड़ कर पूरे ढांचे में लगे पौधों और फूलों को एकसाथ बराबर और पर्याप्त मात्रा में पानी पहुंचाने की व्यवस्था की जाती है और वह भी कुछ ही मिनटों में.

इस तरह की व्यवस्था से आप पौधों और फूलों को कम समय में पानी देने के साथसाथ उन की अच्छी सेहत और लंबी आयु सुनिश्चित कर सकते हैं.

दे सकती हैं अपनी कलात्मक सोच को उड़ान

किसी भी वर्टिकल गार्डन के लिए यह जरूरी नहीं है कि आप पौधे या फूल सिर्फ गमलों में ही लगाएं. इस के लिए आप अपने घर में बेकार पड़े हुए पुराने प्लास्टिक के डब्बे, कौफी मग, जार, बोतल इत्यादि में भी पौधों और फूलों को लगा कर एक नया स्टाइलिश लुक दे सकते हैं.

पौधों की सेहत के लिए कुछ जरूरी बातें

* इंडोर प्लांट्स को ज्यादा एयरकंडीशनर वाले कमरे में रखने से बचाएं. ऐसे कमरों में पौधों को ज्यादा लंबे समय तक रखने से उन की नमी सूख जाती है. इस वजह से पौधों को सही तरह से बढ़ने में परेशानी होती है.

* खाद और सही मात्रा में कीटनाशक का इस्तेमाल जरूरी है. इस से पौधों में लगने वाले विभिन्न प्रकार के कीट और कीटाणुओं को नियंत्रण करने में मदद मिलेगी.

* पौधों की अच्छी सेहत के लिए गमलों में मिट्टी, कोकोपीट इत्यादि जैसी जरूरी चीजें डालें. इस से पौधों को उन की अच्छी सेहत के लिए आवश्यक पोषक तत्त्व मिल सकेंगे.

* नियमित रूप से पौधों की लंबाई को नियंत्रित करें. ऐसा करने से पौधों की लंबी उम्र को सुनिश्चित किया जा सकता है.

* पौधों और फूलों की किस्म के अनुसार उचित मिट्टी का चयन जरूरी है .

चने की उन्नत खेती

भारत में पैदा की जाने वाली दलहनी फसलों में चने की खेती का खास स्थान है. देश में चने की पैदावार दुनिया की कुल पैदावार की 70 फीसदी तक होती है. चने की खेती किसानों के लिए काफी फायदेमंद मानी जाती है.

चने का इस्तेमाल न केवल दाल के रूप में किया जाता है, बल्कि इस के बेसन से कई तरह के स्वादिष्ठ पकवान व मिठाइयां भी तैयार की जाती हैं. गरीब से ले कर अमीर परिवारों में कई लोगों के नाश्ते में अंकुरित चने की खास जगह है. ताकतवर खाद्य वस्तुओं में चने का खास स्थान है, क्योंकि इस में 21 फीसदी प्रोटीन, 61 फीसदी कार्बोहाइडे्रट व साढ़े 4 फीसदी वसा पाए जाते हैं.

सदियों से चना न केवल इनसानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, बल्कि पशुओं के चारे व दाने के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में बाजार में चने की मांग हमेशा बनी रहती है, जिस की वजह से किसानों को चने का सही बाजार मूल्य मिल जाता है. किसान अगर अच्छी कृषि तकनीकी व उन्नतशील प्रजातियों के बीजों का इस्तेमाल कर चने की खेती करें, तो उन्हें कम जोखिम व कम लागत में भरपूर फायदा मिल सकता है.

जमीन की तैयारी व बोआई का समय : चने की खेती के लिए दोमट व हलकी दोमट मिट्टी मुफीद रहती है. जमीन का चुनाव करते समय इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि खेत से पानी निकासी का सही इंतजाम हो और मिट्टी ज्यादा लवणीय न हो.

चने की बोआई के लिए सब से अच्छा समय अक्तूबर के दूसरे हफ्ते से ले कर 15 नवंबर तक होता है. चने की बोआई से पहले यह देख लें कि खेत की सतह सख्त न हो और अंकुरण के लिए सही मात्रा में नमी मौजूद हो. चने की बोआई से पहले एक गहरी जुताई कल्टीवेटर या हैरो से करें व पाटा लगा दें. इस के बाद सही नमी में जुताई कर के चने की बोआई करें.

उन्नतशील किस्मों का चयन : चने की कई उम्दा प्रजातियों का इस्तेमाल मौजूदा दौर में किया जा रहा है. लेकिन कुछ खास किस्में जिन में बीमारियां कम लगती हैं, का इस्तेमाल कर के किसान कम कीमत में अच्छी पैदावार कर सकते हैं. चने की उकठारोधी प्रजातियों में जेजी 16, के 850, डीसीपी 92, आधार आरएससी 936, डब्ल्यूसीजी 2 व केसीडी 1168 खास हैं. अन्य बीमारी अवरोधी प्रजातियों में पूसा 256, अवरोधी गुजरात चना, राधे, पूसा 372, डब्ल्यूसीजी 1 व डब्ल्यूसीजी 2 खास हैं. देरी से बोआई की जाने वाली प्रजातियों में 372, पंत जी 186 व उदय खास हैं. काबुली चने की प्रजातियों में एचके 94, शुभ्रा, उज्ज्वल, जेजीके 1, पूसा, शुभ्रा 8128 व फूले जी 0517 खास हैं. चने की इन किस्मों की बोआई के लिए 1 एकड़ खेत के लिए 35-40 किलोग्राम या 1 हेक्टेयर खेत के लिए 75-100 किलोग्राम बीज की जरूरत रहती है.

बीजोपचार या बीजशोधन : आमतौर पर सभी दलहनी फसलों का बीजोपचार करना जरूरी होता है. दलहनी फसलों में राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार किए जाने से पौधों की जड़ों में अधिक गाठें होती हैं.

नाइट्रोजन के स्थिरीकरण व फास्फोरस की मौजूदगी बढ़ाने के लिए अलगअलग राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल किया जाता है. चने की 10 किलोग्राम मात्रा पर 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल बीजोपचार के लिए किया जाता है. बीजोपचार के लिए चने की 10 किलोग्राम मात्रा को बाल्टी में ले कर उस में 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर को डाल कर अच्छी तरह से मिला लेते हैं. इस के बाद उपचारित बीजों को छाया में सुखाया जाता है. कभी भी उपचारित बीजों को धूप में न सुखाएं.

चने की फसल को बीजजनित रोगों से बचाने के लिए 2 ग्राम थीरम या 3 ग्राम मैंकोजेब या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा या 2 ग्राम थीरम के साथ 1 ग्राम कारबेंडाजिल की मात्रा को प्रति किलोग्राम की दर से बीजों में मिला कर बीज प्रोसेसिंग करना चाहिए. इस से चने की फसल को उकठा व जड़ गलन की बीमारी से बचाया जा सकता है.

खाद व उर्वरक : वैसे तो चने की खेती के लिए ज्यादा खाद व उर्वरक की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन चने की अधिक पैदावार लेने के लिए सही व संतुलित मात्रा में पोषक तत्त्वों की आपूर्ति करना भी जरूरी हो जाता है. चने की सभी किस्मों के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम गंधक का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय लाइन में करना चाहिए. चने में प्रोटीन काफी होता है, इसलिए मिट्टी से नाइट्रोजन का हृस होता है, जिस की भरपाई चने के पौधों में स्थित राइजोवियम गांठों से हो जाती है.

सिंचाई : चने की पहली सिंचाई बोआई के 45 से 60 दिनों बाद यानी फसल में फूल आने से पहले करनी चाहिए, जबकि दूसरी सिंचाई फली में दाना बनने के समय करनी सही रहती है. चने की फसल में जब फूल लगते हैं उस दौरान सिंचाई नहीं करनी चाहिए, ऐसा करने से चने की फसल में आने वाली फलियां झड़ जाती हैं व खरपतवार की मात्रा में बढ़ोतरी होती है.

चने की सिंचाई करते समय ध्यान रखें कि फसल में ज्यादा पानी न लगने पाए, क्योंकि चने की जड़ों में मौजूद राइजोबियम जीवाणुओं की क्रियाशीलता आक्सीजन के अभाव में ढीली पड़ जाती है.

इस का असर पौधों पर साफ दिखता है, इस से पौधे पीले पड़ जाते हैं और उन में फलियां व दाने कम बनने से पैदावार खुद ही घट जाती है. चने की फसल में उकठा रोग गहरी सिंचाई से ही लगता है. इसलिए जल निकासी जरूरी है.

Gram Cultivation

खरपतपवार रोकथाम : कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया में जानकार राघवेंद्र विक्रम सिंह का मानना है कि चने की खेती में खरपतवार से न केवल पैदावार घटने की आशंका रहती है, बल्कि इस की विशेषता में भी कमी आ जाती है. चने की फसल में खरपतवार उगने से पैदावार में 50 से 60 फीसदी तक की कमी आती है. यदि समय रहते चने की फसल से खरपतवार को खत्म किया जाए तो पैदावार में 22 से 63 फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी. चने की बोआई के 3 दिन के अंदर एलाक्लोर 3 से 4 लीटर या पैंडामेथालीन ढाई से 3 लीटर या मेंटोलाक्लोर 1 से 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में छिड़कना चाहिए. इन रसायनों के इस्तेमाल से चौड़ी व सकरी पत्ती के खरपतवार खत्म हो जाते हैं.

बीमारियों की रोकथाम : चने की फसल में आमतौर पर उकठा, मूल विगलन, ग्रीवा गलन, तना गलन, एस्कोकाब्लाइट रोग अधिकतर देखा गया है. यदि बोआई से पहले बीज साफ किया गया है तो इन बीमारियों का असर पौधों पर नहीं होता है. अगर फसल में उकठा रोग दिखाई पड़े तो रोगी पौधों को अलग कर खत्म कर देना चाहिए, जिस से फसल में उकठा के फैलने की आशंका कम हो जाती है. फसल को उकठा रोग से बचाने के लिए उकठारोधी किस्मों का इस्तेमाल करना चाहिए. इस की रोकथाम के लिए कापर आक्सीक्लोराइड की ढाई ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बना कर 2 से 3 बार छिड़काव करना चाहिए.

Gram Cultivation

चने के खास कीट व उन की रोकथाम : चने में आमतौर पर कटुआ कीट का ज्यादा आक्रमण होता है, जो ढाई सेंटीमीटर लंबा मटमैले भूरे रंग का पतंगा जैसा होता है. यह कीट रात को पौधों को जड़ से काट कर जमीन पर गिरा देता है. इस के अलावा फलीबेधक कीट जिसे प्रौढ़ पतंगा भी कहते हैं, ये शुरू में मुलायम पत्तियों को खाते हैं और फिर फलियों में दानों में छेद कर उन्हें खा जाते हैं. फलीबेधक कीट की एक सूड़ी 30-40 फलियों को प्रभावित करती है.

कूबड़ कीड़ा : चने की फसल को कूबड़ कीड़े से भी ज्यादा नुकसान होता है. ये कीड़े फसल की पत्तियों, कलियों व फलों को खा कर नुकसान पहुंचाते हैं. इन की रोकथाम के लिए क्यूनालफास 25 ईसी का डेढ़ से 2 लीटर की मात्रा का छिड़काव करना चाहिए.

कटाई व भंडारण : चने की फसल की कटाई के बाद उस के भंडारण पर खास ध्यान देना चाहिए, क्योंकि दालों के भंडारण में ढोरा या घुन का हमला ज्यादा देखा गया है. इस के बचाव के लिए दालें धूप में सुखा कर नमी रहित कर देनी चाहिए. उस के बाद अल्यूमिनियम फास्फाइड की 2 गोलियां प्रति टन की दर से इस्तेमाल में लानी चाहिए. चने की अच्छी खेती की जानकारी के लिए

कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया, बस्ती के कृषि जानकार राघवेंद्र विक्रम सिंह के मोबाइल नंबर 9415670596 पर संपर्क किया जा सकता है.

गाजर (Carrot) की खेती और बीज उत्पादन

गाजर का जड़ वाली सब्जियों में खास स्थान है. इसे देशभर में उगाया जाता है. उत्तर प्रदेश, असम, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब व हरियाणा प्रमुख गाजर उत्पादक राज्य हैं.

किस्में : गाजर की किस्मों को 2 भागों में बांटा है, एशियन व यूरोपीय. एशियन किस्म सालाना होती है. इस का आकार व रंग अलग होता है. इस का ऊपरी भाग चौड़ा होता है, जो नीचे की ओर पतला होता जाता है. यह लाल, पीले, नारंगी व बैंगनी रंग की होती है. यह उच्च तापमान को सहन करने वाली किस्म है. यूरोपीय किस्म आकार में छोटी, चिकनी और समान रूप से मोटी होती है. इस का रंग नारंगी होता है.

एशियन : इस किस्म से अधिक उपज मिलती है. इन से हलुआ, अचार, मुरब्बा, सब्जी, सलाद आदि बनाए जाते हैं. इन्हें सुखा कर बेमौसमी फलों का मजा लिया जाता है. खास एशियन किस्मों के खास लक्षणों की जानकारी नीचे दी गई है :

पूसा केसर : यह एक संकर किस्म है, जो 90 से 110 दिनों में तैयार होती है. इसे अगस्त से अक्तूबर के शुरू में बोया जाता है. इस की जड़ें गहरे लाल रंग की होती हैं. इस का मध्य भाग छोटा और हलके लाल रंग का होता है. प्रति हेक्टेयर यह 250-300 क्विंटल तक उपज देती है.

पूसा मेघाली : यह किस्म 110 से 120 दिनों बाद तैयार होती है. इस की जड़ें और गूदा नारंगी रंग का होता है. यह अगस्तसितंबर में बोने के लिए सही किस्म है. प्रति हेक्टेयर यह 250-300 क्विंटल उपज देती है.

सेलेक्शन 223 : यह किस्म महज 60 दिनों में तैयार हो जाती है और खेत में 90 दिनों तक अच्छी तरह रहती है. इस की जड़ें 15 से 18 सेंटीमीटर लंबी, नारंगी और खाने में स्वादिष्ठ होती हैं. इस प्रजाति की बोआई देर से की जा सकती है. इस की औसतन उपज 200 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है.

गाजर नंबर 29 : यह एक अगेती किस्म है. इस की जड़ें लाल और लंबी बढ़ने वाली होती हैं. इस का बीज मैदानी क्षेत्रों में आसानी से तैयार किया जाता है. इस प्रजाति की औसतन उपज 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

गाजर (Carrot)

यूरोपीय किस्में

पूसा यमदग्नि : यह अधिक उपज देने वाली किस्म है. यह किस्म 86 से 130 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें 15-20 सेंटीमीटर लंबी, हलकी, केसरिया रंग की आधी ठूंठ के आकार की होती हैं. यह किस्म तेजी से बढ़ती है. इस में कैरोटीन अधिक मात्रा में पाया जाता है. इस का गूदा केसरिया रंग का अच्छी खुशबू वाला कोमल और स्वादिष्ठ होता है. पूसा नयनज्योति भी एक अच्छी किस्म है.

नैनटिस : इस किस्म का ऊपरी भाग छोटा और हरी पत्तियों वाला होता है. इस की जड़ें 12 से 15 सेंटीमीटर लंबी, बेलनाकार और नारंगी रंग की होती हैं. फसल 90 से 110 दिनों में तैयार होती है. खाने में यह बेहद लजीज होती है और प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल तक उपज देती है. मध्य अक्तूबर से दिसंबर तक इस की बोआई की जाती है.

चैंटेन : यह किस्म 100 से 120 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें मोटी और गहरे लाल रंग की होती हैं. इस किस्म का बीज मैदानी क्षेत्रों में तैयार किया जाता है. प्रति हेक्टेयर यह 150 क्विंटल तक उपज देती है. इस किस्म को मध्य अक्तूबर से दिसंबर के शुरू तक बोया जा सकता है.

जैनो : यह किस्म 115 से 120 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें करीब 15 सेंटीमीटर लंबी होती हैं. तमिलनाडु का नीलगिरि क्षेत्र इस किस्म को उगाने के लिए सही है.

इंप्रेटर : इस किस्म को संकरण से तैयार किया जाता है. यह मध्य से देर अवधि वाली किस्म है. इस का गूदा नारंगी रंग का होता है. यह अधिक उपज देने वाली किस्म है.

जलवायु : वैसे तो गाजर ठंडी जलवायु की फसल है, लेकिन इस की कुछ किस्में अधिक तापमान को भी सहन कर लेती हैं. जड़ों के रंग का विकास और उन की बढ़वार पर तापमान का प्रभाव पड़ता है.  10-15 डिगरी सेल्सियस तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है. लेकिन यूरोपीय किस्मों के लिए 4 से 6 हफ्ते तक 4.8 से 10 डिगरी सेल्सियस तापमान  होना चाहिए .

जमीन : गाजर के उत्पादन के लिए उचित जल निकास वाली गहरी, बलुई दोमट जमीन अच्छी मानी गई है. जमीन का पीएच मान साढे़ 6 होना चाहिए. अधिक क्षारीय या अधिक अम्लीय मिट्टी इस के सफल उत्पादन में बाधक मानी जाती है.

खेत की तैयारी : गाजर की अधिक उपज लेने के लिए खेत की तैयारी होना जरूरी है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. इस के बाद 2-3 बार कल्टीवेटर या हैरो से जुताई करें. जुताई के बाद पाटा चलाएं.

खाद व उर्वरक : गाजर को आमतौर पर कम उपजाऊ व हलकी मिट्टी में उगाया जाता है. लिहाजा, खाद और उर्वरकों के इस्तेमाल से इस पर अच्छा प्रभाव पड़ता है. मिट्टी की जांच के बाद इन का इस्तेमाल करना फायदेमंद होता है. फसल को 25-30 टन गोबर की खाद के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 45 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देनी चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की आखिरी जुताई के समय खेत में मिला कर  पाटा चलाएं. उस के बाद बोआई करें. नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा का बोआई के 40-45 दिनों बाद छिड़काव करें, जिस से पैदावार पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा.

बीजों की मात्रा : प्रति हेक्टेयर 5-6 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. फसल को फफूंदी जनित रोगों से बचाने के लिए बीजों को बोने से पहले कार्बेंडाजिम 3 ग्राम पाउडर प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर उस से उपचारित कर के बोना चाहिए. बीज को जल्दी अंकुरण के लिए 12 से 24 घंटे पानी में भिगो कर बोना चाहिए.

बोने का समय : गाजर की बोआई का समय इस बात पर निर्भर करता है कि उस की कौन सी किस्म उगानी है. उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में एशियाई किस्मों को अगस्त के आखिरी सप्ताह से अक्तूबर के पहले सप्ताह तक बोते हैं, जबकि यूरोपीय किस्मों की बोआई नवंबर में की जाती है. पर्वतीय इलाकों में बोआई मार्च से जून तक की जाती है. दक्षिण और मध्य भारत में बोआई जनवरीफरवरी, जूनजुलाई और अक्तूबरनवंबर में की जाती है.

बोने की विधि : गाजर की बोआई समतल क्यारियों व मेंड़ों पर की जाती है. इस की ज्यादाउपज लेने के लिए इसे मेंड़ों पर उगाना ठीक रहता है. लाइनों और पौधों की आपसी दूरी 45×7.5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज को 1.5 सेंटीमीटर से अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए. गाजर की लगातार फसल लेने के लिए 10-15 दिनों बाद बोआई करनी चाहिए. गाजर का अंकुरण धीमी गति से होता है. अकसर 10-20 दिनों बाद अंकुरण होता है.

सिंचाई और जल निकास : बोआई के बाद मेंड़ों को तब तक नम रखना जरूरी है, जब तक कि बीजों का अंकुरण न हो जाए. इस के बाद 8-10 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. कम नमी के कारण उपज कम मिलती है, जबकि अधिक नमी से उपज में भारी कमी हो सकती है. लिहाजा, गाजर की सिंचाई पत्तियों के मुरझाने से पहले करनी चाहिए.

जल प्रबंधन पर दें ध्यान

सिंचाई करते समय यह ध्यान रहे कि सिंचाई पौधे में की जा रही है, न कि जमीन में. इस में सिंचाई की आधुनिक विधियां इस्तेमाल करें. करीब 3 दशकों में सिंचाई की सूक्ष्म प्रणाली से फसल के उत्पादन में पाया गया है कि औसतन अन्य पारंपरिक सिंचाई विधियों की तुलना में इस के द्वारा 50 से 60 फीसदी जल बचाया जा सकता है.

खेत में खरपतवार भी कम आते हैं. जिस तरह ड्रिपरों से बूंदबूंद जल दिया जाता है, उसी प्रकार रासायनिक उर्वरकों को भी सिंचाई में फर्टिलाइजर इंजेक्टर की मदद से फसलों को दिया जा सकता है.

ऐसी व्यवस्था के तहत उर्वरकों को कम मात्रा में कम अंतराल रख कर जल्दीजल्दी सिंचाई के साथ दिया जा सकता है.

खरपतवार नियंत्रण : गाजर की फसल के साथ उगे खरपतवार उस की बढ़वार व उपज पर खराब असर डालते हैं. लिहाजा, उन की रोकथाम समय पर करना जरूरी है. इस के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई करें. इस दौरान घने पौधों को उखाड़ दें, ताकि पौधों का विकास व बढ़वार अच्छी तरह हो सके. खरपतवारों की रोकथाम के लिए पेंडामेथलीन नामक खरपतवारनाशी की 3.3 लीटर मात्रा 800 से 1,000 लीटर पानी में घोल कर अंकुरण से पहले छिड़काव करें.

गाजर (Carrot)

कीड़ों की रोकथाम

पत्ती फुदका : इस कीट के वयस्क और निम्फ  दोनों ही पौधों का रस चूसते हैं. इस वजह से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर खराब असर पड़ता है. इस कीड़े की रोकथाम के लिए 0.05 फीसदी मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करना चाहिए.

कट वर्म : यह कीट रात के समय पौधों को आधार से काट देता है. इस की रोकथाम के लिए 0.1 फीसदी क्लोरोपाइरीफास के घोल से जमीन को अच्छी तरह भिगो दें.

गाजर की सुरसुरी : इस कीट के सफेद टांगरहित शिशु गाजर के ऊपरी हिस्से में सुरंग बना कर नुकसान पहुंचाते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 1 मिलीलीटर या डाइमेथोएट 30 ईसी 2 मिलीलीटर का छिड़काव करें.

जंग मक्खी : इस कीट के शिशु पौधों की जड़ों में सुरंग बनाते हैं, जिस से पौधे मर भी सकते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए क्लोरोपायरीफास 20 ईसी का 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से हलकी सिंचाई के साथ इस्तेमाल करें.

कंपोस्ट खाद : वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

आज वर्मी कंपोस्ट खाद बहुत सस्ती, सरल व खेतों के लिए काफी उपयोगी है. गोबर की खाद के लिए जहां भरपूर गोबर उपलब्ध नहीं हो पाता, वहीं दूसरी ओर गड्ढे खोद कर खाद बनाने में भी 6 महीने का समय लगता है. कूड़ाकरकट से बनने वाली कंपोस्ट खाद भी 4 महीने से पहले नहीं बन पाती है, जबकि वर्मी कंपोस्ट खाद 40 से 45 दिन में बन कर तैयार हो जाती है.

खेती के लिए जैविक खाद का इस्तेमाल काफी खास है. फसल पैदावार की नजर से मिट्टी एक सचेत और जीवंत माध्यम है. भूमि की उत्पादकता कूवत को ध्यान में रखते हुए उस का पालनपोषण अत्यंत जरूरी माना जाता है. अगर हमें रासायनिक खेती को छोड़ कर वर्मी खाद आधारित खेती में बदलना है तो मिट्टी के उपयोग को समझना जरूरी  है. जमीन हमें अनेक तरह के खाद्यान्न मुहैया करा कर हमारी मुफ्त सेवा करती है.

अत: जमीन भी हम से कुछ सेवा की अपेक्षा रखती है. खेतों में प्रति बीघा 100 या 250 मिलीलीटर की शीशी खाली करना ही भूमि की सेवा नहीं है. प्रति बीघा 2 से 3 टन जैविक खाद बना कर खेतों में डालना भूमि की सच्ची सेवा है. ऐसी ही एक जैविक खाद केंचुओं द्वारा निर्मित खाद है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में वर्मी कंपोस्ट के नाम से भी जाना जाता है.

सलाह

एक अच्छे खेत के लिए साल में कम  कम 2 बार 8 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से वर्मी कंपोस्ट का समान मात्रा में इस्तेमाल करना चाहिए. 2 से 3 साल के बाद जमीन की उर्वरता व संरचना देख कर वर्मी कंपोस्ट की मात्रा धीरेधीरे कुछ कम की जा सकती है.

कंपोस्ट खाद के इस्तेमाल से खेतों को सब से ज्यादा लाभ जैविक कार्बन से होता है. इस जैविक कार्बन को किसी भी औद्योगिक उत्पाद के रूप में तैयार नहीं किया जा सकता है. अत: गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट खाद के अलावा मिट्टी में इतनी ज्यादा मात्रा में जैविक कार्बन पहुंचाने का दूसरा कोई माध्यम नहीं है. जैसा कि हम जानते हैं कि मिट्टी में कार्बन से पौधों को ऊर्जा मिलती है.

पौधों की जड़ों व मिट्टी में उपस्थित अनेक प्रकार के जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण और न घुलने वाले फास्फोरस को घुलनशील फास्फोरस में बदल कर पौधों को मुहैया कराते हैं.

लेकिन कार्बन की कमी के कारण ये जीवाणु ठीक तरह से काम नहीं कर पाते. इसलिए जैविक कार्बन कृषि योग्य मिट्टी के लिए काफी खास तत्त्व माना जाता है. मिट्टी में कार्बन की कमी से सूक्ष्मजीवी सही तरह से सक्रिय नहीं हो पाते, जिस से मिट्टी में ह्मूमस का निर्माण नहीं हो पाता और उस की जलधारण कूवत कम हो जाती है.

मिट्टी में जैविक कार्बन का कितना महत्त्व है, इसे हम इस तरह समझ सकते हैं. यदि घर में 100 वाट का बल्ब लगाया जाए, लेकिन करंट 40 वाट जितना भी न हो तो 100 वाट की रोशनी हमें मिल ही नहीं सकती.

ठीक इसी तरह यदि मिट्टी में कई तरह के सूक्ष्म व पोषक तत्त्व मौजूद रहते हैं, लेकिन कार्बन यदि सही मात्रा में न हो तो पौधे इन तत्त्वों को सही तरह हासिल नहीं कर पाते और उन्हें इन पोषक व सूक्ष्म तत्त्वों की पूर्ति रासायनिक उत्पादों से करनी पड़ती है.

नतीजतन, सब से पहले तो फसल की लागत बढ़ जाती है, इस के बाद मिट्टी में मौजूद रासायनिक उत्पादों का कुछ हिस्सा ही पौधे ले पाते हैं और ज्यादा रासायनिक उत्पादों से  जमीन की संरचना व उर्वरता भी बिगड़ जाती है. मिट्टी में पौधों की संतुलित बढ़ोतरी के लिए 16 तरह के पोषक तत्त्व जरूरी बताए गए हैं, जिन में सब से पहला स्थान जैविक कार्बन का ही है. देश में मिट्टी को सोना बनाने की जो बात कही जाती  है वह मुख्य रूप से मिट्टी में जैविक कार्बन की उपस्थिति पर ही निर्भर करती है.

जमीन को भी खुराक की जरूरत होती है. उसे भूखा रख कर हम कब तक अन्न हासिल कर सकेंगे. रासायनिक उर्वरक जमीन का भोजन नहीं है, कार्बनिक पदार्थों व 16 तरह के पोषक तत्त्वों से युक्त गोबर या कंपोस्ट खाद ही जमीन का  भोजन है.

रासायनिक उर्वरक जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं. गोबर या कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल किए बिना जमीन में रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल करना हानिकारक होता है. अलगअलग फसलों में विभिन्न तरह की बीमारियों व कीटों के लिए कई तरह के रासायनिक उत्पाद बाजार में बिकते हैं. खड़ी फसल बचाने के लिए रासायनिक उत्पादों का इस्तेमाल कोई बुराई नहीं है, लेकिन रासायनिक उत्पादों के साथसाथ जैविक उत्पादों को भी ज्यादा से ज्यादा अहमियत देनी चाहिए.

देश में इतने सालों तक केवल रासायनिक खेती करने के बाद भी यदि हम जमीन से अनाज हासिल करते हैं तो इस का श्रेय हमारे पूर्वजों को जाता है, जिन्होंने युगों तक इस जमीन में जैविक खेती की वरना अमेरिका जैसा राष्ट्र केवल कुछ समय तक रासायनिक खेती कर के अपनी 12 करोड़ एकड़ कृषि लायक जमीन गंवा चुका है और अब अपने कृषि कार्यक्रम में रासायनिक उत्पादों के साथसाथ जैविक उत्पादों को भी काफी महत्त्व दे रहा है. वहीं दूसरी ओर जैविक खेती का जनक भारत केवल रासायनिक खेती के कुचक्र में दिनोदिन फंसता जा रहा है. यदि यही हालात रहे तो आने वाली पीढि़यों को कृषि योग्य जमीन के नाम पर रासायनिक झील व दलदल के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.

वर्तमान हालात में किसानों का रासायनिक उत्पादों का उपयोग किए बिना अधिकतम उपज लेना आसान नहीं है, लेकिन किसानों को कंपोस्ट खाद व अन्य जैविक उत्पादों का इस्तेमाल करने में किसी भी तरह की लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.

अपने कृषि कार्यक्रम में जैविक खेती अपनाने पर किसानों का आर्थिक पहलू किसी भी तरह से कमजोर नहीं होगा, क्योंकि स्वास्थ्यप्रद जैविक खाद्य सामग्री हमेशा दोगुने दामों पर बिकती है और जमीन, जल व हवा भी प्रदूषणमुक्त रहते हैं.

देश में करोड़ों रुपए का शुद्ध पानी मिनरल वाटर की बोतलों में बिक सकता  है, तो जैविक खेती से उत्पन्न स्वास्थ्यप्रद खाद्य सामग्री भी ऊंचे दामों पर आसानी से बाजार में बिक सकती है.

पौधों के पोषण के लिए किसानों ने खुद पहल की और गोबर व गौमूत्र आधारित खादें तैयार कर इस्तेमाल कीं, जैसे अमृपानी, मटा खाद, हरी पत्तियों की तरल खाद, बायोगैस संयंत्र की स्लेरी खाद, सींग खाद आदि तरल और त्वरित खाद ने भी कमाल का काम कर दिखाया. प्रयोगशील किसानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व कुछ कर्मठ देशप्रेमी वैज्ञानिकों ने इस जैविक खेती पद्धति को कृषि विज्ञान में बदलना शुरू किया और खुद इस्तेमाल कर अनुकूल परिणाम हासिल कर दिखाया कि यह एक चिरस्थायी पद्धति है.

गेहूं, चना, मक्का, ज्वार, अरहर, मूंग, तिल, मूंगफली, कपास, सोयाबीन, फल, सब्जी, चरीचारा, सभी फसलें जैविक पद्धति से उपजा कर दिखा दिया कि बिना बाजारू कृषि उत्पादों के भी अच्छी खेती की जा सकती है.

खेती में कीट और बीमारी भी कभीकभी आती है, लेकिन जैविक कृषि पद्धति अपनाएंगे तो यह भी कम हो जाती है. गोमूत्र, पुरानी छाछ, हींग, मिर्च, लहसुन का मिश्रण, नीम का तेल, नीम, करंज, शरीफा, आईपोमिया, गाजर घास आदि पानी में घोल कर 15-20 दिन के अंतर से छिड़काव करने से कीट और बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है.

सर्दी की गुलाबी फसल शलगम (Turnip)

शलगम जड़ वाली हरी फसल है. इसे ठंडे मौसम में हरी सब्जी के रूप उगाया व इस्तेमाल किया जाता है. शलगम का बड़ा साइज होने पर इस का अचार भी बनाया जाता है. ठंडे मौसम की फसल होने से कम तापमान पर भी ज्यादा स्वाद होता है. बोआई के 20-25 दिनों के बाद से ही शलगम को साग के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

शलगम की जड़ों व पत्तियों में ज्यादा पोषक तत्त्व पाए जाते हैं. इस से ज्यादा मात्रा में कैल्शियम और विटामिन ‘सी’ मिलता है. साथ ही इस में अन्य पोषक तत्त्व फास्फोरस, कार्बोहाइड्रेट्स वगैरह भी भरपूर मात्रा में मिलते हैं.

शलगम की फसल को सभी तरह की जमीन में उगाया जा सकता है. लेकिन अच्छी पैदावार के लिए हलकी चिकनी दोमट या बलुई दोमट मिट्टी वाली जमीन बेहतर होती है. जल निकासी भी ठीक होनी चाहिए, वरना पानी भरा रहने पर फसल खराब हो सकती है.

शलगम सर्दी की फसल होने के कारण ज्यादा ठंड को भी सहन कर लेती है. अच्छी बढ़वार के लिए ठंड व नमी वाली जलवायु सही रहती है. इसी कारण पहाड़ी इलाकों में शलगम की अच्छीखासी पैदावार मिलती है.

अच्छी पैदावार के लिए खेत की जुताई अच्छी तरह करनी चाहिए, जिस से जमीन भुरभुरी हो जाए. साथ ही घास व ठूंठ वगैरह को बाहर निकाल कर नष्ट कर दें और छोटीछोटी क्यारियां बना लें, ताकि इन की देखभाल अच्छी तरह से हो सके.

उपज से फायदा : शलगम जब छोटेछोटे साइज की हों, तभी उन्हें मंडी में साग के रूप में बेचा जाता है और बाद में जब शलजम बड़ी हो जाती है, तो उसे लोग अचार व सब्जी वगैरह में भी इस्तेमाल करते हैं.

यह कम समय में तैयार होने वाली सामान्य फसल है. इस की खास देखभाल की भी जरूरत नहीं होती और किसान को मुनाफा भी ज्यादा मिलता है.

शलगम की कुछ खास प्रजातियां

लाल 4 : यह किस्म जल्दी तैयार होने वाली है. लाल किस्म को ज्यादातर सर्दी के मौसम में लगाते हैं. इस की जड़ें गोल, लाल और मध्यम आकार की होती हैं. फसल 60 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

सफेद 4 : इस किस्म को ज्यादातर बरसात के मौसम में लगाते हैं. यह जल्दी तैयार होती है और इस की जड़ों का रंग बर्फ जैसा सफेद होता है. गूदा चरपराहट वाला होता है. ये 50-55 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

परपल टोप : इस किस्म की जड़ें बड़े आकार की होती हैं. ऊपरी भाग बैगनी, गूदा सफेद और कुरकुरा होता है. यह ज्यादा उपज देती है. इस का गूदा ठोस और ऊपर का भाग चिकना होता है.

पूसा स्वर्णिमा : इस किस्म की जड़ें गोल, मध्यम आकार वाली, चिकनी और हलके पीले रंग की होती हैं. गूदा भी पीलापन लिए होता है. यह 65-70 दिनों में तैयार हो जाती है. सब्जी के लिए यह अच्छी किस्म है.

पूसा चंद्रिमा : यह किस्म 55-60 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की जड़ें गोलाई लिए हुए होती हैं. यह ज्यादा उपज देती है.

पूसा कंचन : इस किस्म का छिलका ऊपर से लाल, गूदा पीले रंग का होता है. यह अगेती किस्म है, जो शीघ्र तैयार होती है. इस की जड़ें मीठी व खुशबूदार होती  हैं.

पूसा स्वेती : यह किस्म भी अगेती है. बोआई अगस्तसितंबर में की जाती है. जड़ें काफी समय तक खेत में छोड़ सकते हैं. जड़ें चमकदार व सफेद होती हैं.

स्नोवाल : यह भी अगेती किस्मों में शामिल है. इस की जड़ें मध्यम आकार की, चिकनी, सफेद और गोलाकार होती हैं. गूदा नरम व मीठा होता है.