Farmers Problems :किसानों की समस्याएं और उन के समाधान

Farmers Problems : भारत में किसानों की समस्याएं मौजूदा दौर का बड़ा मुद्दा हैं. उन्हें राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है, ताकि राजनीतिक दल किसानों की सहानुभूति हासिल क सकें. एक बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि किसानों की ये समस्याएं आज की नहीं, बल्कि काफी पुरानी हैं. अब सवाल यह है कि इन समस्याओं से किसानों को कैसे निकाला जाए? इस के लिए निम्न बिंदुओं पर गौर करना जरूरी है:

छोटी जोत

देश में छोटे किसानों की संख्या 80 फीसदी से ज्यादा है और वे खेती से सिर्फ अपना गुजरबसर कर पा रहे हैं, इतनी छोटी जोत पर वे उन्नत बीज, खाद, दवा, उपकरण आदि का खर्च वहन नहीं कर सकते और अगर करते भी हैं, तो कर्ज ले कर. यह कर्ज चुकाने में वे असमर्थ हो जाते हैं, तब आत्महत्या के अलावा उन के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता.

अब किसान भी सोचते हैं कि उन के बच्चे भी अच्छे स्कूलों में शिक्षा पा सकें और उन की बेटियों की शादियां भी धूमधाम से हो सकें, पर यह सब खेती से संभव नहीं है. तब वे कर्ज ले कर बच्चों को पढ़ाते हैं व बेटियों की शादियां करते हैं और कर्ज में डूब जाते हैं.

समाधान

तो अब सवाल यह उठता है कि इस का समाधान क्या है या फिर किसानों को ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दिया जाए. हालात यह कहते हैं कि इन छोटी जोत वाले किसानों की करीब 20 फीसदी आबादी को खेती से दूसरे कामों में शिफ्ट कर दिया जाए. यह रातोंरात संभव नहीं, बल्कि दीर्घकालिक योजना के तहत किया जाए. मगर सवाल यह भी उठता है कि इतनी बड़ी आबादी को कौन सेक्टर समाहित करेगा, तो वह है सिर्फ और सिर्फ मैन्यूफैक्चरिंग उद्योग और यह काम सरकार को युद्ध स्तर पर करना होगा. जब हमारे किसानों को बेहतर अवसर मिलेंगे तो वे खेती छोड़ कर उन उद्योगों में बेहतर जिंदगी गुजार सकेंगे. बाकी बचे हुए किसान इन के खेतों को ले कर बड़ी जोत के साथ अच्छा लाभ हासिल कर सकेंगे.

सरकारी वजहें

उन्नत बीज : उन्नत बीजों को खरीदने के लिए सरकारी सब्सिडी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के तहत सीधे किसानों के खाते में दी जाए. अब यह योजना शुरू हो चुकी है. मतलब किसानों के खातों में सब्सिडी की रकम जा रही है. उन्नत किस्म के बीजों की उपलब्धता भी एक बुनियादी सवाल है, जिस की जिम्मेदारी नजदीकी शोध संस्थान जैसे कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि विश्वविद्यालय या दूसरे संस्थानों को देनी होगी. साथ ही साथ कोई निगरानी संस्था भी हो जो यह जांच करे कि उस क्षेत्र की जरूरत के मुताबिक संस्थान बीज मुहैया करा पा रहे हैं या नहीं या फिर गुणवत्ता कैसी है.

खाद/उर्वरक : जब हम सब्सिडी की बात करते हैं, तो वह सिर्फ उर्वरकों तक ही सीमित होती है, जिस ने खेती की सेहत पर उलटा असर डाला है. किसानों ने सस्ती यूरिया के चक्कर में जैविक खादों का इस्तेमाल तकरीबन शून्य कर दिया है. अगर उर्वरकों की तरह सरकार जैविक खादों पर सब्सिडी सीधे किसानों को दे तो इन का चलन जोर पकड़ेगा और उर्वरकों का इस्तेमाल कम होगा. अगर किसानों को गोबर की खाद पर सब्सिडी मिले तो वे इस का इस्तेमाल बढ़ाएंगे, साथ ही साथ पशुपालन पर भी ध्यान लगाएंगे.

आधुनिक मशीनें : मशीनों पर तो सरकार पहले से ही सब्सिडी दे रही है, इसे आगे और भी बढ़ा दे तो बेहतर रहेगा, क्योंकि मनरेगा जैसी योजनाओं के कारण खेती के लिए मजदूर मिलना मुकिश्ल हो गया है.

Farmers Problems

ढांचागत बदलाव : आज खेती के साथ ही साथ ढांचागत बदलाव की भारी जरूरत है. आज अपने देश में किसान अगर अनाज व सब्जियों की ज्यादा पैदावार कर देते हैं, तो उन्हें खरीदने वाला कोई नहीं होता. अकसर ही सरकारी एजेंसी किसानों के दबाव में आ कर अनाज ज्यादा खरीद लेती हैं, नतीजतन खुले में ही स्टोरेज करना पड़ता है, क्योंकि उन के पास सही गोदामों का अभाव है.

इसी तरह सब्जियों के मामले में 40 फीसदी सब्जियां सड़ जाती हैं, क्योंकि कोल्ड स्टोरेज का अभाव है. यह अभाव या तो सरकारी ढांचे में निवेश कर के या फिर कंपनियों को प्रोत्साहन दे कर दूर किया जा सकता है, जैसे बनने वाले गोदामों या फिर कोल्ड स्टोरेज की रकम पर कम से कम 5 सालों तक लगने वाले बैंक का ब्याज सरकार सब्सिडी के रूप में चुकाए और इन गोदामों व कोल्डस्टोरेजों की आमदनी कम से कम 5 सालों तक टैक्स फ्री हो. ऐसा करने पर सिर्फ 3 सालों के अंदर ही गोदामों व कोल्डस्टोरेजों की संख्या में काफी बढ़ोतरी होगी वह भी बिना सरकारी खर्च के. तब किसानों की आमदनी बढ़ने के साथ ही साथ इन ढांचों में लाखों की तादाद में रोजगार भी पैदा होंगे.

कानूनी/बाजारगत बदलाव : आज के दौर में किसानों की सब से बड़ी समस्या अगर कोई है, तो वह बाजार की ही है. किसान बहुत मेहनत के साथ अच्छी तकनीक उपना कर उत्पादन बढ़ा लेते हैं, तो बिचौलिए फसल को कौडि़यों के भाव खरीद लेते हैं और किसान मजबूर हो कर बेचने के लिए बाध्य हो जाते हैं.

महंगाई का आधार : महंगाई से लड़ाई या उसे कम करने के लिए हमेशा से किसानों की बलि दी जाती रही है. जब भी किसी सब्जी, दाल या अनाज के दाम बढ़ जाते हैं, तो पूरे देश में मीडिया के जरीए बड़ा रोना शुरू किया जाता है. ऐसा लगता है कि पूरा देश इन चीजों के बिना भूखा सो रहा है. जब इन्हीं चीजों के दाम 50 पैसे प्रति किलोग्राम हो जाते हैं, तो कोई भी किसानों से नहीं पूछता कि उन के घर में चूल्हा कैसे जल रहा होगा. अब वक्त आ गया है, जब दूसरे तबके भी इस महंगाई को कुछ ढोएं, सिर्फ किसान ही नहीं. जब उद्योग अपने माल के रेट बढ़ाते हैं, तो तर्क देते हैं कि उन की लागत बढ़ गई है, तो किसानों को भी लागत के मुताबिक रेट बढ़ाने के अधिकार मिलने ही चाहिए.

Medicinal Plant : खूबियों से भरपूर औषधीय पौधा सतावर (Asparagus)

Medicinal Plant: सतावर (Asparagus) लिलिएसी कुल का पौधा है, जिस का अंगरेजी नाम एस्परगस और वानस्पतिक नाम एस्परगस रेसीमोसम (वनीय) है. सतावर की खेती भारत के उष्ण कटिबंधी व उपोष्ण क्षेत्र में सफलतापूर्वक की जाती है.

सतावर (Asparagus) एक औषधीय पौधा (Medicinal Plant) है, जिस का इस्तेमाल होम्योपैथिक दवाओं में किया जाता है. भारत में तमाम दवाओं को बनाने के लिए हर साल 500 टन सतावर की जड़ों की जरूरत पड़ती है.

बोआई के लिए कैसी हो मिट्टी : इस फसल के लिए लैटेराइट, लाल दोमट मिट्टी जिस में सही जल निकासी सुविधा हो, मुफीद होती है.

20-30 सेंटीमीटर गहराई वाली मिट्टी में इसे आसानी से उगाया जा सकता है.

जलवायु : यह फसल विभिन्न कृषि मौसमों व हालात के तहत उग सकती है. इसे मामूली पर्वतीय क्षेत्रों और पश्चिमी घाट के मध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता है. यह सूखे के साथसाथ कम तापमान सह लेती है.

सतावर की प्रजातियां : सतावर की 2 ही किस्में होती हैं. पीली जड़ वाली सतावर और सफेद जड़ वाली सतावर.

सफेद जड़ वाली सतावर का उत्पादन ज्यादा होता है, मगर 1 किलोग्राम जड़ से महज 80 से 100 ग्राम चूर्ण हासिल होता है, जबकि पीली जड़ वाली सतावर का उत्पादन सफेद जड़ वाली सतावर से कम होता है, मगर 1 किलोग्राम जड़ से करीब 150 ग्राम चूर्ण हासिल होता है. सतावर की एक नामित विकसित की गई किस्म सिम शक्ति है, जिसे अधिक उत्पादन के लिए उगाया जा रहा है. इस की जड़ें हलकी पीले रंग की होती हैं.

खाद व उर्वरक : सतावर की फसल को प्रति हेक्टेयर 20 टन गोबर की सड़ी खाद की जरूरत होती है. 1 हेक्टेयर के लिए करीब 25000 पौधों की जरूरत होती है. मौजूदा समय में सतावर की फसल को ज्यादातर जैविक रूप में ही उगाया जा रहा है.

रोपाई : सतावर को जड़चूषकों या बीजों द्वारा ही लगाया जाता है. व्यावसायिक खेती के लिए बीजों की बजाय जड़चूषकों का ही इस्तेमाल किया जाता है.

सतावर लगाए जाने वाले खेत की मिट्टी को 15 सैंटीमीटर की गहराई तक अच्छी तरह खोदा जाता है और अपनी सुविधा के अनुसार खेत को क्यारियों में बांट दिया जाता है.

सतावर के अच्छी तरह विकसित जड़चूषकों को लाइनों में रोपा जाता है.

सिंचाई : पौधों की रोपाई के तुरंत बाद खेत की सिंचाई की जाती है. इसे 1 महीने तक नियमित रूप से 4-6 दिनों के अंतराल पर पानी दिया जाता है. इस के बाद 6 से 8 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की जाती है.

पौधों को सहारा देना : सतावर की फसल लता वाली होने के कारण इस की सही बढ़वार के लिए इसे सहारे की जरूरत होती है. इस के लिए 4 से 6 फुट लंबी लकड़ी की स्टिक का इस्तेमाल किया जाता है.

खरपतवारों की रोकथाम : सतावर के पौधों की बढ़वार के शुरुआती समय के दौरान नियमित रूप से खरपतवार निकालने चाहिए.

खरपतवार निकालते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बढ़ने वाले पौधे को किसी तरह का नुकसान न पहुंचे. फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने के लिए करीब 6 से 8 बार हाथ या हैंड हो से खरपतवार निकालने की जरूरत होती है.

Medicinal Plants

पौध सुरक्षा : सतावर की फसल में कोई भी गंभीर नाशीजीव और रोग देखने में नहीं आया है. यानी सतावर की फसल रोग व कीट मुक्त होती है.

कटाई, प्रसंस्करण व उपज : रोपाई के 12 से 14 महीने बाद इस की जड़ें परिपक्व होने लगती हैं यानी पूरी तरह तैयार हो जाती हैं. 1 पौधे से ताजी जड़ों की करीब 500 से 600 ग्राम पैदावार हासिल की जा सकती है. वैसे प्रति हेक्टेयर क्षेत्र से 12000 से 14000 किलोग्राम ताजी जड़ें हासिल की जा सकती हैं, जो सूखने के बाद करीब 1000 से 1200 किलोग्राम रह जाती हैं.

सतावर के औषधीय इस्तेमाल

* सतावर की जड़ों का इस्तेमाल मुख्य रूप से ग्लैक्टागोज के लिए किया जाता है, जो स्तनों के दूध के स्राव को उत्तेजित करता है.

* इस का इस्तेमाल शरीर के कम होते वजन में सुधार के लिए किया जाता है और इसे कामोत्तेजक के रूप में भी जाना जाता है.

* इस की जड़ों का इस्तेमाल दस्त, क्षय रोग व मधुमेह के इलाज में भी किया जाता है.

* सामान्य तौर पर इसे स्वस्थ रहने और रोगों से बचाव के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

* इसे कमजोर शरीर प्रणाली में बेहतर शक्ति प्रदान करने वाला पाया गया है.

Kharif Crops : खरीफ की फसलों को कीड़ों से बचाएं

Kharif Crops : भारत में खासतौर से 2 प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं यानी रबी व खरीफ  की फसलें. रबी की फसलें सर्दी के मौसम में व खरीफ  की फसलें बारिश के मौसम में उगाई जाती हैं. सर्दी की वजह से रबी की फसलों पर कीड़ों का हमला कम होता है. लेकिन खरीफ की फसलें बारिश के मौसम में उगाई जाती हैं, लिहाजा उन में कीटों का प्रकोप अधिक होता है. करीब 20 से 50 फीसदी तक फसलों को कीटों से नुकसान का अनुमान लगाया गया है. यहां खरीफ  फसलों के खास कीटों की पहचान व रोकथाम के बारे में जानकारी दी गई है.

सफेद गिडार : यह कीट खरीफ के मौसम में उगाई जाने वाली सभी फसलों को नुकसान पहुंचाता है. यह कीट तमाम फसलों जैसे मूंगफली, गन्ना, ज्वार, बाजरा, लोबिया, अरहर, राजमा, मिर्च, बैगन व भिंडी आदि को नुकसान पहुंचाता है. इस कीट की सूंड़ी व वयस्क दोनों ही अवस्थाएं बहुभक्षी स्वभाव की होती हैं. इस कीट की सूंड़ी जमीन के अंदर रहती है और जीवित पौधों की जड़ों को खाती है. सूंड़ी द्वारा जड़ को काट देने से पूरा पौधा पीला पड़ कर सूखने लगता है.

मादा वयस्क कीट संभोग के 3-4 दिनों बाद गीली मिट्टी में 10 सेंटीमीटर गहराई में अंडे देना शुरू करती है. 1 मादा औसतन 10-20 अंडे देती है. अंडों से 7 से 13 दिनों के बाद छोटी सूंड़ी निकलती है, जिसे पहली  अवस्था सूंड़ी कहते हैं. सूंड़ी की पहली अवस्था करीब 2 हफ्ते तक रहती है. इस कीट की दूसरी व तीसरी अवस्थाएं पौधों की बड़ी जड़ों को काटती हैं. सूंड़ी का पूरा समयकाल करीब 12-15 हफ्ते का होता है. ये जुलाई से मध्य अक्तूबर तक पौधों की जड़ों को खाती हैं.

रोकथाम

* सफेद सूंड़ी से फसलों को बचाने के लिए वयस्क नियंत्रण सब से सस्ता व कारगर तरीका है. इस के लिए पौधों पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 1 मिलीलीटर प्रति लीटर या कार्बारिल 50 डब्ल्यूपी की 0.2 फीसदी या क्विनालफास 25 ईसी की 0.05 फीसदी मात्रा का छिड़काव करें.

* वयस्क कीट प्रकाश प्रपंच के ऊपर भारी संख्या में उड़ते देखे जा सकते हैं. इस के लिए मई के अंत में प्रकाश प्रपंच लगा देना चाहिए.

* जीवाणु, बैसिलस पोपिली द्वारा वयस्क कीट को नियंत्रित किया जा सकता है. बोआई से पहले ब्युवेरिया ब्रोंगनियार्टी की 1 किलोग्राम मात्रा व मेटारायजियम एनासोप्ली की भी 1 किलोग्राम मात्रा को प्रति एकड़ की दर से इस्तेमाल करें.

* सूत्रकृमि के पाउडर या घोल के फार्मुलेशन से बनाए गए घोल को 2.5-5×109 आईजे प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में इस्तेमाल करने से कीट पर काबू पाया जा सकता है.

* कीटनाशी रसायन क्लोरपायरीफास 10 ईसी, क्विनालफास 25 ईसी व इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल द्वारा बीजों को उपचारित कर के रोकथाम की जा सकती है.

* फसल को बोने से पहले दानेदार कीटनाशी रसायन फोरेट 10 जी की 25 किलोग्राम मात्रा से प्रति हेक्टेयर की दर से जमीन उपचारित कर के नियंत्रण किया जा सकता है.

दीमक : यह कीट खरीफ में उगाई जाने वाली सभी फसलों को नुकसान पहुंचाता है. इस कीट से तमाम फसलों जैसे मूंगफली, गन्ना, ज्वार, बाजरा, लोबिया, अरहर, राजमा, मिर्च, बैगन व भिंडी आदि को नुकसान पहुंचता है. जड़ वाली फसलों को दीमक ज्यादा नुकसान पहुंचाती है. यह छोटे व कोमल पौधों को जमीन की सतह के नीचे से काट कर बरबाद कर देती है. यह फसलों की जड़ों को बेहद नुकसान पहुंचाती है. इस के असर से पौधों की पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती हैं. इस की वजह से फसल के उत्पादन में भारी कमी आती है. इस का प्रकोप खेतों की सूखी दशा में ज्यादा होता है. दीमक का आक्रमण बारिश के बाद सितंबरअक्तूबर महीने में सब से ज्यादा होता है.

रोकथाम

* 1 किलोग्राम बिवेरिया व 1 किलोग्राम मेटारिजयम को करीब 25 किलोग्राम गोबर की सड़ी हुइ खाद में अच्छी तरह मिला कर छाया में 10 दिनों के लिए छोड़ दें, इस के बाद प्रभावित खेत में प्रति एकड़ की दर से बोआई से पहले इस्तेमाल करें.

* प्रकोप ज्यादा होने पर क्लेरोपाइरीफास 20 ईसी की 3-4 लीटर मात्रा को बालू रेत में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* बीजों को बोने से पहले इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यूएस 0.1 फीसदी से उपचारित कर लेना चाहिए.

तंबाकू की सूंड़ी: यह कीट तमाम फसलों जैसे मूंगफली, ज्वार, बाजरा, लोबिया, अरहर, सोयाबीन, कपास व मक्का वगैरह को नुकसान पहुंचाता है. इस के वयस्क पतंगों के पंख सुनहरेभूरे रंग के सफेद धारीदार होते हैं. हर मादा 1000-2000 अंडे गुच्छों में पत्तियों के नीचे देती है. इस के अंडों के गुच्छे बादामी रोओं से ढके रहते हैं. अंडे 3-5 दिनों बाद फूटते हैं. सूंड़ी मटमैले से काले रंग की होती है. उस के शरीर पर हरीनारंगी धारियां होती हैं. नीचे दोनों तरफ काले धब्बे होते हैं. इस की साल में 6-8 पीढि़यां पनपती हैं. सूंडि़यां झुंड में पत्तियों की निचली सतह पर हरा पदार्थ खा कर व चूस कर नुकसान पहुंचाना शुरू करती हैं. अंत में पत्तियों की शिराएं ही बचती हैं. पत्तियों के बाद ये फूलों की कलियों, डंठलों वगैरह को खाती हैं.

रोकथाम

* 5 किलोग्राम धान का भूसा और 1 किलोग्राम शीरा और 0.5 किलोग्राम कार्बारिल को मिला कर पतंगों को आकर्षित करें.

* एसएल-एनपीवी 250 एलई का प्रति हेक्टेयर की दर से 8-10 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

* 1 किलोग्राम बीटी का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* प्रकोप बढ़ने पर फिपरोनिल 5 एससी या क्वालीनोफास 25 ईसी 1.5-2.0 प्रति लीटर की दर से छिड़काव करें.

* फसल में जहर चारा 12.5 किलोग्राम राइसबीन, 1.25 किलोग्राम जगेरी, कार्बेरिल 50 फीसदी डब्ल्यूपी 1.25 किलोग्राम और 7.5 लीटर पानी के घोल का शाम के समय छिड़काव करें, जिस से जमीन से सूंड़ी निकल कर जहर चारा खा कर मर जाएगी.

अमेरिकन सूंड़ी : इस कीट द्वारा तमाम फसलों जैसे मूंगफली, ज्वार, बाजरा, लोबिया, अरहर, सोयाबीन, कपास, मक्का, दलहन व फली वाली फसलों को नुकसान पहुंचता है. मादा पतंगा पौधे के कोमल अंगों पर 1-1 कर के सफेद अंडे देती है. 1 मादा 500 से 700 तक अंडे देती है. ये अंडे 3-4 दिनों में फूटते हैं. 25-60 दिनों में इस का जीवनचक्र पूरा हो जाता है. इस का प्यूपा मिट्टी में बनता है. हर साल इस की 7-8 पीढि़यां बनती हैं. इस की सूंडि़यां हरे से पीले रंग की होती हैं. इस के शरीर पर उभरे निशान होते हैं.

रोकथाम

* कीट का आक्रमण होने या अंडे दिखाई पड़ते ही ट्राइकोग्रामा किलोनिस 1.5 लाख अंडे प्रति हेक्टेयर की दर से 1 हफ्ते के अंतराल पर 6-8 बार छोड़ें.

* पहली अवस्था की सूंड़ी दिखाई देते ही  एनपीवी की 250 एलई या  3 ग 1012 पीओबी प्रति हेक्टेयर की दर से 7-8 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

* 1 किलोग्राम बीटी का छिड़काव करें. इस के अलावा 5 फीसदी नीम की निबोली के सत का इस्तेमाल कर सकते हैं.

* ज्यादा प्रकोप होने पर कार्बेरिल 50 डब्ल्यूपी की 2.5 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर, पायराकलोफोस 50 ईसी की 1.5 लीटर मात्रा का प्रति हेक्टेयर या क्वालीनोफास 25 ईसी की 1-1.5 लीटर मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* स्पाइनोसैड 45 एससी, इंडोक्सकार्ब 14.5 एससी व थायोमेंक्जाम 70 डब्ल्यूएससी की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर की दर से इस्तेमाल करें.

बिहारी बालदार सूंड़ी : यह कीट खरीफ  मौसम में उगाई जाने वाली सभी फसलों को नुकसान पहुंचाता है. यह कीट तमाम फसलों जैसे मूंगफली, ज्वार, बाजरा, लोबिया, अरहर, कपास, मूंग व उड़द आदि को नुकसान पहुंचाता है. इस कीट के वयस्क सफेद पंख वाले होते हैं, जिन पर छोटेछोटे बिंदु होते हैं. मादा पत्तियों की निचली सतह पर समूह में पीलापन लिए हुए सफेद रंग के अंडे देती है.

1 मादा अपने जीवनकाल में 800-1000 अंडे देती है. अंडे 3-5 दिनों में फूट जाते हैं. अंडों से निकली छोटी सूंडि़यां शुरू में एक जगह पर झुंड में चिपकी रहती हैं, फिर 1-2 दिनों में अलगअलग बिखर जाती हैं. पूर्ण विकसित सूंड़ी गहरे नारंगी या काले रंग की होती है, जिस के शरीर पर चारों तरफ  घने बाल होते हैं. यह पौधे की पत्तियों की निचली सतह से क्लोरोफिल खा जाती है. नतीजतन पत्तियां जाल सी दिखाई देती हैं.

रोकथाम

* पहली अवस्था की सूंड़ी दिखाई देते ही एसओएनपीवी की 250 एलई या  3 ग 1012 पीओबी प्रति हेक्टेयर की दर से 7-8 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें.

* फसल में फालिडाल धूल 2 फीसदी का 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* स्पाइनोसैड 45 एससी, इंडोक्सकार्ब 14.5 एससी व थायोमेंक्जाम 70 डब्ल्यूएससी की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर की दर से इस्तेमाल करें.

धान का पीला तना बेधक : मादा गुच्छों में 100 से 200 तक अंडे देती है. सूंड़ी तने में छेद कर के अंदर घुस जाती है और अंदर ही अंदर खा कर नुकसान करती रहती है. अगर कीट का हमला फसल की बढ़वार की अवस्था पर होता है, तो पौधे का नया बढ़ने वाला भाग (बीच की पत्ती) सूख जाता है, जिसे मृत गोभ कहते हैं. इस गोभ को आसानी से बाहर खींचा जा सकता है. फसल की बाली अवस्था में हमला होने पर कुछ पौधों की बालियां अंदर ही अंदर सूख जाती हैं और बाहर नहीं निकलती हैं. जब पौधों में बालियां निकलने के बाद कीट का हमला होता है, तब बालियां सूख कर सफेद दिखाई देती हैं और उन में दाने नहीं पड़ते हैं. इन्हें सफेद बाली (व्हाइट ईयर हेड) कहते हैं.

रोकथाम

* खेत में 20 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगाएं ताकि तना छेदक के प्रौढ़ नर ट्रैप में इकट्ठे हो कर मरते रहें.

* रोपाई के 1 महीने बाद या तना छेदक के अंडे दिखाई देने पर ट्राईकोग्रामा जेपोनिकम के 1,00,000 अंडे प्रति हेक्टेयर की दर से ट्राईकोकार्ड लगाना चाहिए. इस प्रक्रिया को 5-6 बार 8-10 दिनों के अंतर पर दोहराना चाहिए.

मक्के का गुलाबी तना बेधक : इस कीट की सूंड़ी जमीन के पास तने में घुस कर पिथ खाती है, जिस से बीच की पत्ती कट जाती हैं. पत्ती पीली पड़ कर मृत केंद्र बनाती है और बाहर खींचने पर अलग हो कर निकल जाती है. जिस स्थान यह सूंड़ी घुसती है, वहां इस का मल इकट्ठा हो जाता है. इस का प्यूपा तने के अंदर बनता है. प्यूपा में बदल कर पहले सूंड़ी तने में छेद बनाती है. यह छेद वयस्क पतंगों के बाहर निकलने के लिए होता है. इस कीट का प्रकोप रबी व बसंत के मौसम में बोए जाने वाले मक्के में अधिक होता है.

रोकथाम

* बोआई के समय कार्बोफ्यूरान 3 जी को 33 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं.

* ट्राइकोकार्ड (ट्राइकोकार्ड कीलोनिस/जेपोनिकम ) अंड परजीवी के 75000-1,00,000 प्यूपे प्रति हेक्टेयर की दर से 10 दिनों के अंतराल में छोड़ने चाहिए.

* ज्यादा प्रकोप होने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर, क्विनालफास 25 ईसी की 2 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर, सायपरमेथ्रिन 10 ईसी को प्रति लीटर पानी की दर से मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से 20 दिनों के अंतराल पर 2-4 बार छिड़काव करें.

Kharif Crops

गन्ने का जड़ बेघक : इस की मादा रात में पत्तियों के निचले भाग पर व तनों पर हलके पीले रंग के चपटे अंडे देती है. सूंड़ी पौधे के जमीन के अंदर वाले भाग पर आक्रमण कर के घुसती है, यह पौधों को छोटी अवस्था में ही नुकसान पहुंचाती है, जिस से केंद्रीय पर्णचक्र सूख जाता है. मृत केंद्र को खींचा जाए तो नीचे से पूरा पौधा टूट जाता है. यही इस की पहचान है. बाहर से सूंड़ी के घुसने का निशान नहीं दिखता. तने पर लिपटी पत्ती पर अंदर की ओर खाए जाने का कोई निशान नहीं पाया जाता है. ग्रसित पौधों की सूखी मध्य कलिका आसानी से खींची नहीं जा सकती व उस से किसी तरह की बदबू भी नहीं आती. इस के द्वारा सर्वाधिक नुकसान मई से जुलाई के दौरान होता है.

गन्ने का अगोला चोटी बेधक  : इस कीट का पतंगा सफेद रंग का होता है. मादा पत्ती के नीचे की तरफ अंडे देती है. अंडा फूटने के बाद सूंड़ी पहले पत्ती में मोटे सिरे पर छेद कर के खाते हुए बढ़वार बिंदु तक पहुंच जाती है. फिर सूंड़ी अगोला झुंड के बीच आक्रमण करती है. अगोला के बीच मे ‘मृत गोभ’ (डेड हर्ट) बन जाता है. मृत गोभ को तोड़ा जाए तो उस से बदबू आती है. जुलाई में तीसरी पीढ़ी द्वारा आक्रमण होने पर बढ़वार रुक जाती है और बराबर से छोटीछोटी शाखएं निकलती हैं, जिन्हें ‘बंची टाप’ कहते हैं, बंची टाप तीसरीचौथी पीढ़ी में पाया जाता है. इस से पौधों की बढ़वार रुक जाती है और पैदावार कम मिलती है. इस कीट का हमला मार्च से शुरू हो कर नवंबर तक रहता है. इस की तीसरी पीढ़ी सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाती है.

गन्ने के बोरर कीटों की रोकथाम

* ट्राइकोकार्ड (ट्राइकोकार्ड कीलोनिस/जेपोनिकम ) अंड परजीवी के 75000-1,00,000 प्यूपे प्रति हेक्टयर की दर से 10 दिनों के अंतराल में छोड़ने चाहिए.

* जरूरत होने पर क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी की 4-5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टयर की दर से बोआई के 30-40 दिनों बाद सिंचाई से पहले इस्तेमाल करें.

* गन्ने में बोरर कीटों के लिए कोराजन की 0.5 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए.

* प्रकाश प्रपंच व फिरोमोन ट्रैप (5-6 फिरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से) का इस्तेमाल करें.

* नीम उत्पादित कीट रोग विष जैसे एनकेई या नीम गोल्ड की 5 फीसदी मात्रा का इस्तेमाल करें.

* ज्यादा हमला होने पर  फिपरोनिल 5 एससी (रिजंट) या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर, क्विनालफास 25 ईसी की 2 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से कीटनाशियों को मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से 20 दिनों के अंतराल पर 2-4 बार छिड़काव करें.

मूंगफली का पर्ण सुरंगक : यह छोटे आकार का करीब 1 सेंटीमीटर लंबा कीट होता है. यह पत्तियों में सुरंग बनाता है. विकसित सूंडि़यां रेशमी धागों द्वारा पत्तियों को आपस में जोड़ कर उन के अंदर प्यूपे में बदल जाती हैं. इस कीट की सूंड़ी अवस्था नुकसान पहुंचाती है. इस की सूंडि़यां पत्तियों में सुरंग बना कर पत्तियों को जालीनुमा बना देती हैं, जिस से पौधों का विकास रुक जाता है.

रोकथाम

* मेलाथियान धूल 5 फीसदी की 25-30 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टयर के हिसाब से बुरकाव करें.

* जरूरत होने पर थायोमिथाक्सोम 25 डब्लूपी 100जी या डाईमैथोएट 30 ईसी का 1.0-1.5 लीटर या इमिडाक्लोप्रिड 1.0 मिलीलीटर का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

गंधी बग : इस कीट के प्रौढ़ लगभग 15 मिलीमीटर लंबे पीलापन लिए हरे रंग के होते हैं. बच्चे हरे रंग के होते हैं. वयस्क कीट दानों से रस चूस लेते हैं, फलस्वरूप बाली दानों से खाली रह जाती है. इस कीट के हमले से दानों के टूटने की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है. इस कीट से एक खास तरह की गंध आती है, जिस से इस कीट को गंधी बग कहते हैं.

रोकथाम

* 1.5 किलोग्राम लहसुन को पीस कर रात भर पानी में भिगो दें. सुबह पानी को छान कर उस में 250 ग्राम गुड़ व 200 ग्राम कपड़े धोने का साबुन मिला दें. पानी की मात्रा को 150 लीटर कर के उस का छिड़काव फसल पर करें. ऐसा करने से गंधी बग कीट दानों से रस नहीं चूस पाएगा.

* नीम की निबोली की 5 किलोग्राम मात्रा कूटपीस कर रात भर 25 लीटर पानी में भिगोएं. निबोली का सफेद रस निकाल कर उसी पानी में डालें. पानी में 250 ग्राम कपड़े धोने का साबुन मिला कर पानी को छान लें व इस पानी की मात्रा को 100 लीटर कर के फसल पर छिड़काव करें.

* बिवेरिया बेसियाना की 2.5 किलोग्राम मात्रा को 500-600 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करें.

* अगर कीट आर्थिक क्षति स्तर पर पहुंच जाए तो मेलाथियान 5 फीसदी धूल का बुरवाव 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से शाम के समय करें.

माहूं : माहूं के अर्भक (निम्फ) छोटे व काले होते हैं और झुंड में पाए जाते हैं. इस के निम्फ  व वयस्क पत्ती, फूल व डंठल से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियां किनारों से मुड़ जाती हैं. ये चिपचिपा मधुरस पदार्थ अपने शरीर से बाहर निकालते हैं, जिस से पत्तियों के ऊपर काली पनपती फफूंद देखी जा सकती है. इस से पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया पर असर पड़ता है.

रोकथाम

* माहूं का प्रकोप होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, जिस से माहूं ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं.

* परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर 50,000-10,0000 अंडे या सूंडि़यां प्रति हेक्टयर की दर से छोड़ें.

* नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें.

* जरूरत होने पर डाईमैथोएट 30 ईसी की 1.0-1.5 लीटर मात्रा या इमिडाक्लोप्रिड की 1.0 लीटर मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

सफेद मक्खी : इस के निम्फ धुंधले सफेद होते हैं. इन के शरीर पर सफेद मोमीय पर्त पाई जाती है. निम्फ व वयस्क पत्तियों की निचली सतह पर झुंड में पाए जाते हैं, जो पत्तियों की कोशिकाओं से रस चूसते हैं. फलस्वरुप पत्तियां कमजोर हो कर गिर जाती हैं. ये मोजेक रोग फैलाती हैं.

रोकथाम

* पीले चिपचिपे 12 ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

* क्राइसोपरला कार्निया के 50,000 -10,0000 अंडे प्रति हेक्टयर की दर से छोड़ें.

* ग्रसित पौधों पर नीम का तेल 5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या मछली रोसिन सोप 25 मिलीग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

* कीटों की संख्या ऊपर जाते ही अगेती अवस्था में मिथाइल डिमेटान 25 ईसी का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* मध्य या बाद की दशा में थायोमिथाक्सोम 25 डब्लूपी 100 जी या एक्टमप्रिड 20 एसपी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

जैसिड्स : इन की मादा निचले किनारे पर पत्ती की शिराओं के अंदर पीले से अंडे देती है. ये अंडे 6-10 दिनों में फूटते हैं. बच्चे कीट 7 से 9 दिनों के बाद वयस्क बन जाते हैं. पंखदार वयस्क 2 से 3 हफ्ते तक जीवित रहते हैं. इस के बच्चे व वयस्क पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं, जिस से पत्तियों के किनारे मुड़ जाते हैं और लालभूरे हो जाते हैं. पत्तियां सूख कर गिर जाती हैं.

रोकथाम

* क्राइसोपरला कार्निया परभक्षी के 50,000 अंडे प्रति हेक्टयर की दर से छोड़ें.

* जरूरत पड़ने पर इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल का छिड़काव करें.

तेला थ्रिप्स : ये छोटे व काले रंग के कीट पत्तियों को कुरेद कर खाते हैं. वयस्क कीट भूरे रंग का कटे पंख वाला होता है. इस की इल्ली व वयस्क पत्तियों की सतह फाड़ कर रस चूसते हैं. इस से पत्तियां मुड़ जाती हैं और सूख कर नीचे गिर जाती हैं.

रोकथाम

* बीजों को इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्लूएस 7 ग्राम प्रति किलोग्राम से उपचारित करने से फसल 8 हफ्ते तक सुरक्षित रहती है.

* क्राइसोपरला कार्निया परभक्षी के 50,000-75,000 अंडे प्रति हेक्टयर की दर से छोड़ें.

* जरूरत पड़ने पर थायोमिथाक्सोम 25 डब्लूपी 100 जी या डाईमैथोएट 30 ईसी का 1.0-1.5 लीटर या मेटासिसटाक्स का 1.5-2.0 लीटर प्रति हेक्टयर की दर से छिड़काव करें.

Fodder Crop : चारा फसल पैरा घास (Para Grass) की वैज्ञानिक खेती

Para Grass : भारत की कुल खेती की जमीन का 8.3 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल जलभराव या बाढ़ से प्रभावित रहता है, जिस में फसल उत्पादन संभव नहीं हो पाता है. ऐसे क्षेत्रों में पशुओं को खिलाने के लिए चारे की कमी हो जाती है. ऐसे क्षेत्रों में पत्तेदार पैरा घास को उगा कर पशुओं के लिए सही मात्रा में पौष्टिक चारा हासिल किया जा सकता है.

पैरा घास या अंगोला (ब्रैकिएरिया म्यूटिका) एक बहुवर्षीय चारा है. इसे अंगोला घास, बफैलो पान घास, भैंस घास, कैलीफोर्निया घास, कारिग्रास, कोरी घास, डच घास, विशाल सोफे, मारीशस घास, न्यूमिडीयन घास,  पैनिकम घास, पैरा ग्रास, पैरा घास, पेनहलगा घास, स्काच ग्रास, जलयात्रा या वाटर ग्रास भी कहा जाता है. यह नमी वाले स्थानों पर अच्छी तरह उगती है.

पैरा घास चारे के लिए स्वादिष्ठ प्रजाति है, जिस का इस्तेमाल उच्च गुणवत्ता वाले चारे के लिए किया जाता है. इस के तने की लंबाई 1 से 2 मीटर होती है और पत्तियां 20 से 30 सेंटीमीटर लंबी और 16-20 मिलीमीटर चौड़ी होती हैं. इस के तने की हर गांठ पर सैकड़ों की संख्या में जड़ें पाई जाती हैं, जिन से इस की बढ़वार में सहायता मिलती है. इस का तना मुलायम और चिकना होता है, जिस की गांठों पर रोएं पाए जाते हैं. पैरा घास एक सीजन में 5 मीटर की लंबाई तक बढ़ सकती है. गांठों से आगे की ओर बढ़ने वाली तमाम शाखाएं भी निकलती हैं. पैरा घास काफी संख्या में फूलों के बावजूद बहुत कम बीज उत्पादक होती है. इस के बीजों में अंकुरण क्षमता कम होने के कारण उन्हें बोआई के काम में कम इस्तेमाल करते हैं.

पैरा घास को ज्यादातर वानस्पतिक भागों द्वारा लगाया जाता है. इस के तनों की गांठों से जड़ें निकल कर स्थापित हो जाती हैं, जिस से नएनए पौधे बनते रहते हैं. पैरा घास का इस्तेमाल पशुओं को चरा कर किया जा सकता है या फिर सायलेज बनाया जा सकता है. पानी का इंतजाम होने पर यह ऊसर जमीन में भी सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है. इस के चारे में 7 फीसदी प्रोटीन, 0.76 फीसदी कैल्शियम, 0.49 फीसदी फास्फोरस और 33.3 फीसदी रेशा होता है.

जलवायु व जमीन : इस घास को गरम व नम वातावरण में उगाया जाता है. यह खाड़ी, नदियों, बाढ़ के मैदानों, झीलों और जल निकासी चैनलों, सड़कों और बांधों के आसपास, सड़क के किनारों और अन्य नम जगहों पर उगाई जा सकती है. अच्छी बारिश वाले इलाकों में इसे आसानी से उगाया जा सकता है. पाले से इस घास को नुकसान होता है. उत्तर भारत में जाड़े के दिनों में तापमान कम होने पर इस की वृद्धि नहीं होती है, पर मार्चअप्रैल में तापमान बढ़ने पर वृद्धि होने लगती है.

पैरा घास को सभी तरह की मिट्टी में विभिन्न जलमग्न क्षेत्रों में आसानी से पैदा किया जा सकता है. इस के लिए ज्यादा जलधारण कूवत वाली दोमट व मटियार दोमट मिट्टी सब से अच्छी होती है. पैरा घास अम्लीय मिट्टी (पीएच 4,5) में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है. नदीनालों, तालाबों व गड्ढों के किनारे की नम जमीन व निचली जमीन में जहां पानी भरा रहता है, यह घास आसानी से उगती है.

खेत की तैयारी : ज्यादा उपज के लिए खेत की तैयारी अच्छी तरह से करनी चाहिए. खेत की तैयारी के लिए 2-3 जुताइयां देशी या मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए. नदीनालों व तालाबों के किनारे की नम जमीन या निचली जमीन में जहां जुताईगुड़ाई करना संभव न हो, वहां पर खरपतवारों व झाडि़यों को जड़ सहित निकाल कर इस घास को लगाना चाहिए.

रोपाई : सिंचित क्षेत्रों में भारत के दक्षिणी, पूर्वी व दक्षिणीपश्चिमी प्रदेशों में दिसंबरजनवरी को छोड़ कर पूरे साल इस की रोपाई की जा सकती है. उत्तर भारत के सिंचित क्षेत्रों में रोपाई का सही समय मार्च से अगस्त और असिंचित क्षेत्रों में बारिश का मौसम है. इसे बीज व वानस्पतिक भागों द्वारा लगाया जाता है. बीज की पैदावार बहुत कम होने से इसे ज्यादातर वानस्पतिक भागों जैसे जड़दार कल्लों या तने के टुकड़ों द्वारा ही लगाया जाता है. बीजों से पैरा घास बोई जा सकती है, पर बीजों से इसे लगाना मुकिश्ल है. वे महंगे होते हैं और उन की अंकुरण कूवत कम होती है.

पैरा घास को वानस्पतिक फैलाव की सहायता से भी बोया जा सकता है. वानस्पतिक फैलाव (कायिक जनन) के लिए 3-4 गांठों के साथ 25-30 सेंटीमीटर की लंबाई के पौधे की गांठ काट कर हाथ से लगाई जाती है. रोपाई के लिए तनों के टुकड़ों में 2 या 3 गांठें होनी चाहिए. इन टुकड़ों की 1 या 2 गांठें मिट्टी के अंदर दबा देनी चाहिए और 1 गांठ जमीन के ऊपर होनी चाहिए. रोपाई के लिए लाइन से लाइन व पौधे से पौधे की दूरी 50 सेंटीमीटर होनी चाहिए. अंत: फसल लेने पर लाइन से लाइन की दूरी 1 से 2 मीटर रखी जाती है. 50×50 सेंटीमीटर की दूरी पर रोपाई करने के लिए प्रति हेक्टेयर 40000 टुकड़ों की जरूरत होती है.

खाद व उर्वरक : घास की अच्छी उपज के लिए पोषक तत्त्वों की जरूरत होती है, खासकर नाइट्रोजन के इस्तेमाल से पौधों की बढ़वार अच्छी होती है और पत्तियों के आकार व संख्या में बढ़ोतरी होती है. बोआई से पहले व हर साल बारिश होने पर 5-10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद, 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन व 30 किलोग्राम फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. इस के अलावा चारे की कटाई के तुरंत बाद 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. जल भराव वाले इलाकों में नाइट्रोजन का इस्तेमाल बेहद सावधानीपूर्वक करना चाहिए. नाइट्रोजन की पूरी मात्रा को 1 बार में न दे कर इसे रोपाई के समय और विभिन्न कटाइयों के तुरंत बाद देना चाहिए. फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा घास की रोपाई के समय खेत में डाल देनी चाहिए.

सिंचाई: घास की रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई की जरूरत होती है. सर्दी व गरमी के मौसम में 10-15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. यह घास जलमग्न और जलभराव वाले इलाकों में उगाई जाती है, इसलिए आमतौर पर बरसात के मौसम में सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. यह ऐसे क्षेत्रों में ज्यादा उपज देती है, जहां ज्यादातर पानी भरा रहता है. सूखे के हालात में इस की पैदावार कम हो जाती है.

निराईगुड़ाई : भरपूर मात्रा में पौष्टिक चारा प्राप्त करने के लिए खेत को हमेशा खरपतवार रहित रखना चाहिए. घास लगाने के 2 महीने तक कतारों के बीच निराईगुड़ाई कर के खरतपवारों को काबू में रखना चाहिए. दूसरे साल से हर साल बारिश के बाद घास की कतारों के बीच खेत की गुड़ाई कर देनी चाहिए. इस से जमीन में हवा का संचार अच्छी तरह होता है और चारे की पैदावार में बढ़ोतरी होती है.

कटाई व उपज : इस घास की पहली कटाई बोआई के करीब 70-75 दिनों बाद करनी चाहिए. इस के बाद बरसात के मौसम में 30-35 दिनों और गरमी में 40-45 दिनों के अंतर पर कटाई करनी चाहिए. इस की ऊंचाई 60 से 75 सेंटीमीटर होने पर कटाई में देरी होने पर इस की पौष्टिकता में कमी आ जाती है. कटाइयों की संख्या भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलगअलग होती है. ठंडे क्षेत्रों में इस की

बढ़ोतरी दिसंबरजनवरी में रुक जाती है. उत्तर भारत में इस की 5-6 कटाइयां और दक्षिण भारत में 8-9 कटाइयां की जा सकती हैं. इस घास से उत्तर भारत में करीब 600-800 क्विंटल और दक्षिण भारत में 1000-1200 क्विंटल हरा चारा प्रति हेक्टेयर हासिल किया जा सकता है.

हरा चारा और सायलेज : पैरा घास कछार क्षेत्रों में एक उम्दा हरा चारा है. वहां यह नम जगहों पर बढ़ता रहता है. पशुओं को गीले चारागाह में नहीं जाने देना चाहिए, क्योंकि इसे खींचने से नए कल्ले नष्ट हो जाते हैं.

पैरा घास पत्तेदार व रसीली होने की वजह से इस का सायलेज बनाया जा सकता है.

चारागाह प्रबंधन : पैरा घास मुख्य रूप से गीले और बाढ़ वाले इलाकों में चराई के लिए बोई जाती है. यह दूसरी अर्द्धजलीय घासों जैसे कि जर्मन घास (इचिनोक्लोआ पालीस्टाच्य) और दाल घास (हायमेनचने एंपलेक्सिकालिस) के साथ उगाई जा सकती है. वैसे इसे आमतौर पर अकेले ही बोया जाना बेहतर माना जाता है. पैरा घास एक मौसम में 5 मीटर तक फैल सकती है. जमीन से 30-70 सेंटीमीटर तक पहुंचने से पहले इसे नहीं चराया जाना चाहिए और 20 सेंटीमीटर से नीचे कटाई नहीं करनी चाहिए ताकि बढ़ते कल्ले नष्ट न हों.

Poultry Farming : मुरगीपालन को बनाया आमदनी का जरीया

Poultry Farming : लगन से किया गया काम कभी बेकार नहीं जाता, बल्कि इनसान की आमदनी का जरीया बन जाता है. ऐसा ही कर दिखाया है कुम्हेर पंचायत समिति क्षेत्र के पैंगोर गांव के नगला गधेड़ा निवासी पूर्व सैनिक सतवीर सिंह ने. उन्होंने करीब 6 लाख रुपए खर्च कर के मुरगीपालन का काम वैज्ञानिक तरीके से शुरू किया. आज वे हर महीने करीब 80000 रुपए कमा रहे हैं.

सीमा सुरक्षा बल के जवान सतवीर सिंह  ने 24 साल काम करने के बाद मरजी से नौकरी छोड़ दी और गांव आ कर रोजगार की तलाश शुरू की. उन के मन में ऐसा काम करने की इच्छा थी, जो उन्हें ज्यादा मुनाफा दे सके. स्वयंसेवी संस्था लुपिन फाउंडेशन ने उन्हें मुरगीपालन करने की सलाह दी, क्योंकि दिल्ली, गुड़गांव, मथुरा, आगरा, ग्वालियर जैसे बड़े शहरों में मुरगियों की काफी मांग है. सब से पहले उन्हें घरेलू मुरगीपालन (बैकयार्ड) शुरू करने के लिए कहा गया. उन्होंने लुपिन फाउंडेशन से बैकयार्ड के लिए चूजे ले कर काम शुरू किया.

बैकयार्ड मुरगीपालन के दौरान सतवीर सिंह को इस बात का अच्छी तरह से पता चल गया कि मुरगियों में ज्यादातर कौनकौन सी बीमारियां फैलती हैं और उन की रोकथाम के क्या तरीके हैं. उन्होंने अपनी 4 बीघे जमीन में करीब 15000 चूजों का पालन करने के लिए वैज्ञानिक तरीके से शेडों को बनवाया. तापमान नियंत्रण के लिए शेडों की छतों पर फव्वारे और अंदर हीटर लगवाए. हर शेड में सेंसर भी लगाए गए, जिस से तापमान बढ़ते ही फव्वारे खुद चालू हो जाते हैं और तापमान में गिरावट आते ही हीटर काम करना शुरू कर देते हैं. बिजली की व्यवस्था के लिए सोलर पैनल लगाए गए ताकि रोशनी व अन्य कामों के लिए बिजली पर होने वाले खर्च की बचत हो सके. इस के अलावा जनरेटर भी खरीदा गया, जो सप्लाई बंद होने पर खुल चालू हो जाता है.

मुरगीपालन के लिए शेड बनवाने के बाद वे हरियाणा के जींद कसबे से करीब 11000 हाईब्रिड ब्रायलर चूजे ले आए. आसपास के क्षेत्रों में चूजे सप्लाई की व्यवस्था नहीं होने के कारण उन्हें 1 चूजा करीब 50 रुपए का मिला. इन चूजों के भोजन के लिए वे मुरगियों के इस्तेमाल में आने वाला फीड भी ले आए.

सतवीर सिंह ने पूरे वैज्ञानिक तरीके से मुरगीपालन का काम शुरू किया. कोई समस्या होती तो वे फाउंडेशन के मुरगीपालन विशेषज्ञ से सलाह ले लेते.

मुरगीपालक सतवीर सिंह के पास एकसाथ करीब 11000 मुरगियां होने की वजह से खरीदार उन के गांव ही पहुंच जाते. वे मंडी का भाव देख कर उन की सप्लाई करते. वे अपने चूजों को आगरा, मथुरा व अलीगढ़ सहित विभिन्न शहरों के लिए सप्लाई करते. बदलते मौसम व त्योहारों के दिनों में जब मुरगियों की खपत घट जाती है, तो वे चूजों की संख्या में भी कमी कर देते हैं.

Poultry Farming

सतवीर सिंह रोजाना शेड में जा कर देखते हैं कि कोई चूजा बीमार तो नहीं है या उस ने खानापीना बंद कर रखा है. चूजों के इलाज के लिए वे विशेषज्ञों द्वारा दी गई सलाह के आधार पर दवाएं लाते हैं.

सतवीर सिंह इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि मुरगियों में फैलने वाली बर्डफ्लू नाम की बीमारी तो नहीं है, इस के लिए वे पशुपालन विभाग की टीम को मुरगियों के खून के नमूने मुहैया कराते हैं.

सतवीर सिंह द्वारा शुरू किए गए मुरगीपालन के काम में हो रही आमदनी को देख कर गांव व आसपास के क्षेत्रों के करीब आधा दर्जन लोगों ने भी मुरगीपालन का काम शुरू कर दिया है.

वैसे लुपिन फाउंडेशन ने भरतपुर जिले में करीब 200 मुरगीपालन की यूनिटें शुरू कराई हैं. मुरगीपालकों को फाउंडेशन न्यूनतम दरों पर चूजे मुहैया कराने के अलावा मुरगियों में फैलने वाले खास रोगों की रोकथाम की व्यवस्था भी कर रहा है. इस के अलावा गरीब तबके के लोगों के लिए संस्था ने घरेलू मुरगीपालन (बैकयार्ड पोल्ट्री) भी शुरू कराया है. करीब 600 लोग इस काम से जुड़े हुए हैं. गरीब लोगों के लिए बैकयार्ड पोल्ट्री अतिरिक्त आमदनी का जरीया बनी हुई है.

Grain Storage : वैज्ञानिक विधि से अनाज का भंडारण व कीटों की रोकथाम

Grain Storage: उत्पादन के मुकाबले अनाज का सुरक्षित भंडारण (Storage) करना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भंडारण के दौरान अनेक भौतिक व जैविक शत्रुओं जैसे नमी, कीटों, फफूंद, जीवाणु, चूहों व चिडि़यों आदि के द्वारा 10 से 12 फीसदी अनाज बरबाद कर दिया जाता है.

इस बरबादी को रोकने में किसान तभी सक्षम होंगे, जब उन को भंडारण की सही जानकारी होगी.

विभिन्न प्रकार के भंडारघर

अनाज भंडारण का सब से अच्छा तरीका यह है, जिस में किसी कमरे के अंदर एक ऊंचा फर्श बना कर नमी से बचाने के लिए बांस की चटाई या लकड़ी के तख्ते या पौलीथीन शीट पर बोरे की छल्ली लगाई जाती है. यह छल्ली दीवारों से 2.5 फुट दूर रखें, ताकि दीवारों से सीलन अनाज के बोरों में न आ सके, साथ ही आनेजाने का रास्ता भी खुला रहे. छल्लियों की आपसी दूरी भी इस तरह रखनी चाहिए कि गोदाम के अंदर अनाज की देखरेख आसानी से की जा सके. यह कम खर्च पर ज्यादा अनाज रखने का अच्छा तरीका है.

पक्की कोठी : मध्यमवर्गीय किसान अपने अनाज का भंडारण करने के लिए इस विधि का इस्तेमाल करते हैं. 1.6 घनमीटर की पक्की कोठी में 2 मीट्रिक टन अनाज भरा जा सकता है. कमरे के एक कोने में यह पक्की बखारी ईंट, सीमेंट, बालू, मौरंग आदि से बना कर दीवारों व नीचे की सतह पर पौलीथीन शीट लगा कर इसे नमी अवरोधक बना दिया जाता है. अनाज भरने और निकालने के लिए स्टील के बने इनलेट और आउटलेट बनाए जाते हैं.

धातुटीन की बखारी : आधे टन या 1 टन की कूवत वाली बखारी जरूरत के मुताबिक बनाई जाती है, जो छोटे किसानों या घरेलू इस्तेमाल के लिए मुनासिब होती है. इसे आसानी से इधरउधर हटा भी सकते हैं. इस में नमी नहीं जा सकती है. चूहे भी इसे काट नहीं सकते हैं.

भंडारण में इन सावधानियों का ध्यान रखें:

* अनाज सुखाने व छानने के अलावा भंडारघर की सफाई व पुताई का भी खयाल रखें. कीटों से बचाव के लिए मैलाथियान 50 ईसी, 5 फीसदी घोल का 3 लीटर प्रति 100 वर्गमीटर की दर से छिड़काव करें.

* जहां तक मुमकिन हो नए बोरे इस्तेमाल करें. पुराने बोरों को मैलाथियान 50 ईसी, 5 फीसदी घोल में भिगो कर उन का शोधन कर लें.

* धूनीकरण का काम कम से कम 2 बार करना चाहिए. पहले अनाज भरते समय और दोबारा 1 महीने बाद.

* रोशनदान, दरवाजे व खिड़की आदि को धूनीकरण करने के बाद बंद कर के गीली मिट्टी से दरारें बंद कर देनी चाहिए, जिस से अंदर की जहरीली गैस बाहर न आ सके.

देशी विधि से अन्न का भंडारण करना : नीम की सूखी पत्तियों, निबौली का पाउडर, सूखी हलदी, सूखी प्याज व लहसुन से भी अन्न का भंडारण कर सकते हैं. 1 क्विंटल अन्न भंडारण के लिए 1 किलोग्राम नीम की सूखी पत्तियां, 250 ग्राम निबौली का पाउडर, आधा किलोग्राम सूखी हलदी, 1 किलोग्राम सूखी प्याज व 1 किलोग्राम लहसुन रख कर भंडारण किया जा सकता है.

भंडारित अनाजों के कीट

अनाज का पतंगा : यह कीट धान, ज्वार व मक्का में ज्यादा लगता है, पर कभीकभी जौ और गेहूं को भी नुकसान पहुंचाता है. इस की लंबाई 6 से 9 मिलीमीटर व पंखों का फैलाव करीब 16 मिलीमीटर होता है. ऊपरी पंख का रंग पीलाभूरा होता है. पंख की निचली तरफ शल्कीय बाल होते हैं, जो पिछले पंख में ज्यादा बड़े होते हैं. पिछले पंख नुकीले होते हैं, जो छोर पर कुछ मुड़े होते हैं. इस कीट का लारवा (इल्ली) 4 से 7 मिलीमीटर लंबा, सफेद रंग का होता है. इस का सिर पीले रंग का होता है. लारवा बीज के अंदर ही रहता है. इस कीट का लारवा ही नुकसान पहुंचाता है. कीड़ा लगे बीज में केवल 1 छेद होता है, जो वयस्क के निकलने का रास्ता बनता है. यह कीट खेत व भंडारघर दोनों जगह आक्रमण करता है.

गेहूं का खपड़ा : यह कीट ज्यादातर गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा व मक्का आदि में पाया जाता है. यह कीट ढेर में ऊपर ही करीब 1 फुट की गहराई तक नुकसान पहुंचाता है. यह ढेर के अंदर ज्यादा गहराई तक घुस कर नहीं खा सकता, क्योंकि इस के विकास के लिए आक्सीजन की काफी जरूरत पड़ती है. इस कीट के ग्रब ही ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. इस कीट से जुलाई से अक्तूबर के दौरान ज्यादा नुकसान होता है. यह दानों के भ्रूण वाले भागों को खाना पसंद करता है, जिस से बीज के उगने की कूवत नष्ट हो जाती है और उस की पौष्टिकता में भी कमी आ जाती है.

दालों का घुन : यह कीट ज्यादातर अरहर, उड़द, मटर, चना, मसूर, मोेठ, लोबिया व सेम वगैरह दलहन फसलों को नुकसान पहुंचाता है. इस कीट का हमला खेत व भंडारघरों दोनों जगह पर होता है. यह भंडारघरों में ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. इस के ग्रब व प्रौढ़ दोनों ही नुकसान पहुंचाते हैं, पर ज्यादा नुकसान ग्रब के द्वारा ही होता है. खेतों में इस कीट का हमला फरवरी के महीने से ही (जिस समय पौधों में हरी फलियां लगती हैं शुरू हो जाता है. यह दानों को खाता है. दाने के अंदर ग्रब जिस जगह से घुसता है, वह जगह बंद हो जाती है और दाने के अंदर ही कीट भंडाररघरों में पहुंच जाता है. यह भंडारघरों में रखी दालों पर प्रजनन कर के दालों को नुकसान पहुंचाता है.

चावल का घुन : यह कीट भंडारित अनाजों का खास शत्रु है. यह सभी अनाजों को नुकसान पहुंचाता है. इस के प्रौढ़ व ग्रब (सूंड़ी) दोनों ही नुकसान पहुंचाते हैं. मादा कीट दाने में छोटा सा छेद बना कर घुस जाती है और अंदर के पूरे हिस्से को खा लेती है. इस प्रकार दाने खोखले हो जाते हैं और खाने व बोने के लायक नहीं रहते हैं. इस कीट से ज्यादा नुकसान जुलाई से नवंबर तक होता है.

लालसुरी (सुरसाली) : यह कीट आटा, मैदा, सूजी, मूंगफली, कपास, सेम के बीज व अन्य रखे अनाजों व मेवों को नुकसान पहुंचाता है. यह केवल कटे दानों या अन्य कीटों के द्वारा प्रभावित दानों को ही हानि पहुंचाता है. इस कीट के द्वारा आटा, मैदा, सूजी आदि को नुकसान होता है. इस की संख्या ज्यादा हो जाने के कारण आटा पीला पड़ जाता है और उस में कवक विकसित हो जाती है और खास किस्म की बदबू आने लगती है. इस कीट के ग्रब व प्रौढ़ नुकसान पहुंचाते हैं. इस के द्वारा ज्यादा नुकसान बरसात के दिनों में होता है.

आटे का कीट : यह कीट टूटे बीजों व अनाज को हानि पहुंचाता है. गेहूं, जौ व चावल के अलावा यह तिलहन, मसाले वाली फसलों व सब्जियों के बीजों को भी भंडारघर में नुकसान पहुंचाता है. यह आटा व उस से बने उत्पादों को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. इस का लारवा व वयस्क दोनों की हानिकारक होते हैं.

दालों का ढोरा : इस कीट का आकार गोलाकार होता है. यह 4 से 5 मिलीमीटर लंबा होता है. यह कीट भूरेधूसर रंग का होता है. इस का लारवा या ग्रब मोटा, टेढ़ा, बिना पैर का और पीलेसफेद रंग का होता है, जिस का सिर काले रंग का होता है. यह मूंग, लोबिया, मटर व चना वगैरह को नुकसान पहुंचाता है. इस कीट के वयस्क हानि नहीं पहुंचाते, केवल लारवा ही हानिकारक होता है. इस की मादा बीज के ऊपर 1-1 कर के कई अंडे देती है, उन में से केवल 1 लारवा ही बीज के अंदर विकसित होता है, जो उसे अंदर से पूरा खोखला कर के एक बड़े छेद के द्वारा बाहर निकलता है.

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भंडारण व कीटों की रोकथाम

भौतिक निरीक्षण : भौतिक तरीके जैसे तापमान, नमी व आक्सीजन में बदलाव कर के भंडारित कीटों की रोकथाम की जा सकती है. भंडारण करते समय खाद्यान्नों की नमी 8-10 फीसदी रखनी चाहिए. नाइट्रोजन या कार्बन डाईआक्साइड को कृत्रिम रूप से बढ़ा कर गोदाम का गैसीय वातावरण इस तरह बदल दिया जाता है कि सभी कीट मर जाते हैं. 9-9.5 फीसदी कार्बन डाईआक्साइड कीटों के लिए घातक होती है. कुछ किसान मिट्टी या बालू मिला कर अनाज रखते हैं. इस से कीटों को अनाज में आनेजाने में दिक्कत होती है और उन का शरीर घायल हो जाता है. लिहाजा उन का हमला कम होता है. दालों को कीटों से सुरक्षित रखने के लिए नारियल, मूंगफली या सरसों के तेल का इस्तेमाल करना लाभकारी रहता है. दालों को यदि दल कर रखा जाए तो दली हुई दालों पर कीट कम आक्रमण करते हैं.

यांत्रिक तरीके : अनाज की छंटाई जरूर करें. टूटे, कटे, चटके अनाज संक्रमण को बढ़ावा देते हैं. कीटों से संक्रमित अनाज की छनाई नियमित रूप से करें और छनाई के बाद बचे अवशेष को नष्ट कर दें, वरना कीड़े रेंग कर दोबारा भंडारघर तक पहुंच जाएंगे. इस काम को भंडारघर से दूर ही करें.

खाद्यान्नों की छनाई : कीट नियंत्रण के यांत्रिक उपायों में छनाई का स्थान खास है. भंडारित खाद्यान्नों की छनाई करना बहुत प्रभावकारी व व्यावहारिक होता है. छनाई से कीटग्रस्त खद्यान्नों को अलग किया जाना चाहिए. आमतौर पर छनाई का काम भंडारघर से दूर किया जाना चाहिए.

धूमन : भंडारघर में कीटनाशी रसायनों को गैस के रूप में इस्तेमाल करने की क्रिया को धूमन कहा जाता है. धूमन करने में बहुत सावधानी व तकनीकी जानकारी की जरूरत होती है. लिहाजा विशेषज्ञों की मौजूदगी में ही धूमन किया जाना चाहिए.

धूमन के लिए बहुत से कीटनाशी बाजार में मौजूद हैं. इथलीन डाईब्रोमाइट एंपुल, एथलीन डाईक्लोराइड और कार्बन टेट्रा क्लोराइड मिक्सचर व इथलीन डाईब्रोमाइड फार्म स्तर पर काम में लिया जा सकता है. एल्यूमिनियम फास्फाइड का इस्तेमाल वेयर हाउस व गोदामों में किया जा सकता है. ईडीबी एंपुल की दर 3 मिलीलीटर प्रति क्विंटल व एल्यूमिनियम फास्फाइड की दर 1 गोली प्रति 1 टन की रहती है. भंडारघर को 7 दिनों तक बंद रखना चाहिए.

अन्य तरीके

अनाज को सुखाना : अनाज में यदि नमी की मात्रा 10 फीसदी से कम होती है, तो उस में कीटों की बढ़ोतरी नहीं हो पाती है या वे मर जाते हैं. लिहाजा हलकी पर्त में अनाज को फैला कर धूप में सुखाते हैं, किंतु यह बात विशेष ध्यान देने की है कि अनाज को कभी जरूरत से ज्यादा नहीं सुखाना चाहिए, वरना ज्यादा गरमी से बीज नष्ट हो जाते हैं या उन में झुर्रियां पड़ सकती हैं.

ऊपर बताए तमाम तरीकों को अपनाते हुए अनाज को भंडारघरों में रखने की वैज्ञानिक विधि अपनानी चाहिए. अनाज जब वायु अवरुद्ध (एयर टाइट) गोदामों में रखा जाता है, तो गोदामों की आक्सीजन अनाजों द्वारा सोख ली जाती है और बदले में कार्बन डाईआक्साइड बाहर निकाली जाती है. इस से वातावरण जहरीला हो जाता है. 9-9.5 फीसदी कार्बन डाईआक्साइड की मौजूदगी में कीट मर जाते हैं.

भंडारघर में अपनाएं ये सुरक्षात्मक तरीके :

* खलिहान गांव व भंडारघर से दूर होने चाहिए, क्योंकि भंडारघरों से कीट खेतों व खलिहानों में पहुंच कर आगामी फसल की बालयों पर अपना ठिकाना बनाते हैं.

* कटाई की मशीनों को अच्छी तरह साफ कर लें वरना थ्रेशर आदि में पहले से इन कीटों की किसी न किसी रूप में मौजूदगी बनी रहती है, जो अनाज को संक्रमित कर देती है.

* अनाज की ढुलाई के साधनों ट्रैक्टर या बैलगाड़ी आदि को कीटरहित कर लें.

* भंडारण से पहले गोदामों को साफ करें. दरारों की विशेष सफाई करें. मिट्टी से बने भंडारघरों में पहले से बने छेदों को मिट्टी या सीमेंट से बंद कर दें. जाले आदि की सफाई कर दें.

* चूहों के बिलों को शीशे के बारीक टुकड़े मिट्टी के घोल में मिला कर बंद कर दें.

* भंडारघरों की चूने से पुताई कराएं.

* मैलाथियान 50 फीसदी 3 लीटर मात्रा प्रति 100 वर्गमीटर की दर से ले कर भंडारघरों में छिड़काव करें. अनाज भरने के बोरों का भी कीटनाशकों से उपचार करें.

* ऐसे बीज जिन की बोआई अगली फसल में करनी हो, उन को कीटनाशी जैसे 6 मिलीलीटर मैलाथियान या 4 मिलीलीटर डेल्टामेथ्रिन को 500 मिलीलीटर पानी में घोल कर 1 क्विंटल बीज की दर से उपचारित करें व छाया में सुखा कर भंडारण करें.

* कीटनाशी द्वारा उपचारित इस प्रकार के बीजों को किसी रंग द्वारा रंग कर भंडार पात्र के ऊपर उपचारित लिख देते हैं. इस तरह का उपचार कम से कम 6 महीने तक प्रभावी होता है. पर ऐसा उपचार खाने वाले अनाजों में नहीं करना चाहिए.

* बीज भरी बोरियों या थैलों को लकड़ी की चौकियों, फट्टों या 1000 गेज की पौलीथीन चादर या बांस की चटाई पर रखना चाहिए ताकि उन में नमी का असर न हो सके.

पारद की टिकड़ी द्वारा अन्न का भंडारण : 1 क्विंटल अनाज के लिए 5-6 टेबलेट काफी होती हैं. यह एक आयुर्वेदिक दवा है. इस दवा से भंडारित अनाज किसी भी तरह स्वास्थ्य के प्रति नुकसानदायक नहीं होता है. इस टिकड़ी से कोई भी अन्न भंडारित किया जा सकता है.

अनाज भंडारण के लिए रसायनों का इस्तेमाल

एल्युमिनियम फास्फाइड : घुन व चूहे वगैरह को मारने के लिए इस रसायन का इस्तेमाल किया जाता है. बड़ेबड़े भंडारघर जो घरों से दूर होते हैं या व्यापारिक भंडारघरों में इस रसायन का इस्तेमाल 1 या 2 टिकिया प्रति मीट्रिक टन के हिसाब से किया जाता है. जैसे ही इस की टिकिया खोल कर हवा में बाहर निकाली जाती है, तो हवा के संपर्क में आते ही इस में से फास्फीन गैस तैयार होने लगती है, जो बेहद जहरीली होती है.

थोड़ी सी असावधानी से यह गैस जानलेवा हो सकती है. इसी कारण घरों में इस का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. इन टिकियों को अनाज की मात्रा के हिसाब से गोदाम में बिखेर दिया जाता है. दवा डालने के बाद वायु अवरोधी गोदाम बंद कर देना चाहिए.

जिंक फास्फाइड : घर से दूर बने गोदामों में चूहे से सुरक्षा के लिए जिंक फास्फाइड को 1:39 के अनुपात में भुने दानों या आटे के साथ मिला कर चारा तैयार कर लेना चाहिए. इस में थोड़ा सा मीठा तेल अच्छी गंध के लिए मिला देना चाहिए. इस तरह बने चारे को 15 ग्राम की पुडि़या बना कर गोदामों में इधरउधर चूहों के चलनेफिरने के रास्ते में रख देना चाहिए और बिलों में भी पुडि़या रख कर बिल गीली मिट्टी से बंद कर देने चाहिए.

वारफैरिन, क्यूमैरिन : यह एक धीमा जहर है. इसे खा कर चूहे कई दिनों बाद मरते हैं, लिहाजा चूहों का पूरा परिवार धीरेधीरे इस के प्रभाव में आ जाता है. यह इनसानों और पालतू पशुओं के लिए काफी सुरक्षित है. इस दवा को भी 1:39 के अनुपात में दानों या आटे के साथ मिला कर थोड़ी चीनी भी मिलाते हैं. इस में थोड़ा मीठा तेल भी मिलाया जाता है.

Grain Storageभंडारण के खास निर्देश

अनाज के दानों को अच्छी तरह से सुखा दें, ताकि भंडारण करने के बाद अनाज खराब न हो. वैज्ञानिकों ने अनाज के भंडारण से पहले भंडारघर की सफाई पर भी जोर दिया है. सफाई के बाद ही अनाज का भंडारण करें. लोग घरों में अनाज का भंडारण तो करते हैं, लेकिन उन्हें भंडारण की विधि की ठीक जानकारी नहीं होती. ऐसे में अनाज ज्यादा दिनों तक ठीक नहीं रह पाता है, इसलिए जरूरी है कि भंडारघर में अनाज रखने से पहले  उस की अच्छी तरह से सफाई कर लें. सब से पहले बीज भंडारण के लिए इस्तेमाल होने वाले कमरे, गोदाम या पात्र जैसे कुठला आदि के छेदों व दरारों को गीली मिट्टी या सीमेंट से भर दें.

यदि भंडारण कमरे या गोदाम में करना है, तो उसे अच्छी तरह साफ करने के बाद 4 लीटर मैलाथियान या डीडीवीपी को 100 लीटर पानी में (40 मिलीलिटर कीटनाशी 1 लीटर पानी में) घोल कर हर जगह छिड़काव करें. बीज रखने के लिए नई बोरियों का इस्तेमाल करें. यदि बोरियां पुरानी हैं, तो उन्हें गरम पानी में 50 सेंटीग्रेड पर 15 मिनट तक भिगोएं या फिर उन्हें 40 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ईसी या 40 ग्राम डेल्टामेथ्रिन 2.5 डब्ल्यूपी (डेल्टामेथ्रिन 2.8 ईसी की 38.0 मिलीलीटर मात्रा) प्रति लीटर पानी के घोल में 10 से 15 मिनट तक भिगो कर छाया में सुखा लें. इस के बाद उन में बीज या अनाज भरें.

यदि मटके में भंडारण करना है, तो पात्र में जरूरत के हिसाब से उपले डालें और उस के ऊपर 500 ग्राम सूखी नीम की पत्तियां डाल कर धुआं करें व ऊपर से बंद कर के वायु अवरोधी कर दें. उस पात्र को 4 से 5 घंटे बाद खोल कर ठंडा करने के बाद साफ कर के बीज या अनाज का भंडारण करें. यदि मटका अंदर व बाहर से एक्रीलिक (एनेमल) पेंट से पुता हो तो 20 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ईसी को 1 लीटर पानी में मिला कर बाहर छिड़काव करें व छाया में सुखा कर इस्तेमाल करें.

बीज या अनाज भरने के बाद पात्र का मुंह बंद कर के उसे वायु अवरोधी कर दें. किसी भी जगह या पात्र में बीज रखने से पहले बीजों को अच्छी तरह सुखा लेना चाहिए, जिस से नमी की मात्रा 10 फीसदी या उस से कम रह जाए. कम नमी वाले बीजों को ज्यादातर कीट नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं.

यदि भंडारण गोदाम में कर रहे हैं, तो कभी भी पुराने बीज या अनाज के साथ नए बीज या अनाज को नहीं रखना चाहिए. भंडारण करने से पहले यह जांच कर लेनी चाहिए कि बीज में कीड़े लगे हैं या नहीं. यदि लगे हों, तो भंडारघर में रखने से पहले उन्हें एल्युमिनियम फास्फाइड द्वारा शोधित कर लेना चाहिए.

भंडारघर को 15 दिनों में 1 बार जरूर देखना चाहिए. बीजों में कीटों की मौजूदगी और फर्श व दीवारों पर जीवित कीट दिखाई देने पर जरूरत के मुताबिक कीटनाशी का छिड़काव करना चाहिए. यदि कीटों का प्रकोप शुरुआती है, तो 40 मिलीलीटर डीडीवीपी प्रति लीटर पानी के हिसाब से मिला कर बोरियों के ऊपर व हर जगह छिड़काव करें.

कीट नियंत्रण हो जाने के बाद हर 15 दिनों बाद कीटनाशकों को अदलबदल कर छिड़काव करते रहना चाहिए. भंडारघर के कचरे को जला दें या दबा कर नष्ट कर दें. भंडारघर की छत, दीवार व फर्श पर 1 भाग मैलाथियान 50 ईसी को 100 भाग पानी में मिला कर छिड़काव करें. यदि पुरानी बोरियों का इस्तेमाल करना पड़े, तो उन्हें 1 भाग मैलाथियान व 100 भाग पानी के घोल में 10 मिनट तक भिगो कर छाया में सुखा लें. उस के बाद अनाज का भंडारण करें. इस से अनाज ज्यादा दिनों तक ठीक रहता है.

बाजरे (Millet) की खेती

Millet : अगर कहा जाए कि सूखे मौसम या कम सिंचाई वाले खेतों के लिए बाजरा (Millet) बहुत ही उम्दा फसल है, तो यह बिलकुल सही बात होगी. बाजरा (Millet) फसल है, जो सूखा सहन करने वाली सभी तरह के अनाज वाली फसलों में सब से आगे है. यही वजह है कि बाजरे (Millet) की खेती राजस्थान के साथसाथ उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा व पश्चिम बंगाल के सूखाग्रस्त इलाकों में भी बड़े पैमाने पर की जाती है.

सूखा सहनशील फसल होने के कारण ही बाजरे की खेती बहुत आसानी से गरमियों के मौसम में भी कर सकते हैं. बाजरा मोटे अनाजों की श्रेणी में आता है. यह कई रोगों को दूर करने के साथ ही साथ शरीर को फिट रखने में भी कारगर है. यही वजह है कि शहरों में लोग इस की ऊंची कीमत भी अदा करने को तैयार रहते हैं.

मिट्टी : बाजरे की खेती के लिए अच्छी जल निकास वाली हलकी दोमट या बलुई दोमट मिट्टी अच्छी होती है.

खेत की तैयारी : पहली बार की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और उस के बाद 2-3 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई कर के खेत को तैयार करें.

बोआई का समय और विधि: बोआई का सही समय मध्य जुलाई से ले कर मध्य अगस्त तक का है. ध्यान रहे कि इस की बोआई लाइन से करने पर ज्यादा फायदा होता है. लाइन से लाइन की दूरी 45 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सेंटीमीटर रखें. बीज बोने की गहराई तकरीबन 4 सेंटीमीटर तक ठीक रहती है.

बीज दर और उपचार : इस की बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 4-5 किलोग्राम बीजों की जरूरत होती है. बीजों को 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधित कर लेना चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण : अच्छा होगा कि खरपतवारों को निराईगुड़ाई कर के निकाल दें. इस से एक ओर जहां मिट्टी में हवा और नमी पहुंच जाती है, वहीं दूसरी ओर खरपतवार भी नहीं पनप पाते हैं. खरपतवारों की रासायनिक दवाओं से रोकथाम करने के लिए एट्राजीन 50 फीसदी नामक रसायन की 1.5-2 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से ले कर 700-800 लीटर पानी में मिला कर बोआई के बाद व जमाव से पहले एक समान रूप से छिड़काव कर देना चाहिए.

Millet

खाद और उर्वरक : खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल खेत की मिट्टी की जांच के आधार पर मिली सलाह के मुताबिक करना चाहिए. हालांकि मोटे तौर पर संकर प्रजातियों (हाईब्रिड) के लिए 80-100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश व देशी प्रजातियों के लिए 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 25 किलोग्राम फास्फोरस व 25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई से पहले इस्तेमाल करें. नाइट्रोजन की बची हुई आधी मात्रा टापड्रेसिंग के रूप में जब पौधे 25-30 दिनों के हो जाएं तो छिटक कर दें.

सिंचाई : ज्यादातर देखने में आता है कि बरसात का पानी ही इस के लिए सही होता है. यदि बरसात का पानी न मिल सके, तो 1-2 बार फूल आने पर जरूरत के मुताबिक सिंचाई करनी चाहिए.

रोग प्रबंधन : बाजरे में खासतौर पर कंडुआ, अरगट और बाजरे का हरित बाल (डाउनी मिल्ड्यू) रोग लगते हैं, जिन के बारे में विस्तार से जानकारी निम्न प्रकार है:

अरगट : यह रोग भुट्टों या बालियों के कुछ दानों पर ही दिखाई देता है. इस में दाने के स्थान पर भूरे काले रंग की सींग के आकार की गांठे बन जाती हैं, जिन्हें स्कलेरोशिया कहते हैं. प्रभावित दाने इनसानों और जानवरों के लिए नुकसानदायक होते हैं, क्योंकि उन में विषैला पदार्थ होता है. इस रोग की वजह से फूलों में से हलके गुलाबी रंग का गाढ़ा और चिपचिपा पदार्थ निकलता है, जो सूखने पर कड़ा हो जाता है.

इस की रोकथाम के लिए बोने से पहले 20 फीसदी नमक के घोल में बीजों को डुबो कर स्कलेरोशिया अलग किए जा सकते हैं. खड़ी फसल में इस की रोकथाम के लिए फूल आते ही घुलनशील मैंकोजेब चूर्ण को 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 5-7 दिनों के अंतराल पर छिड़कना करना चाहिए.

कंडुआ : इस रोग में दाने आकार में बड़े, गोल, अंडाकार व हरे रंग के हो जाते हैं, जिन में काला चूर्ण भरा होता है. मंड़ाई के समय ये दाने फूट जाते हैं, जिस से उन में से काला चूर्ण निकल कर, स्वस्थ दानों पर चिपक जाता है.

इस की रोकथाम के लिए किसी पारायुक्त रसायन से बीज शोधित कर के बोने चाहिए. सावधानी के लिए एक ही खेत में हर साल बाजरे की खेती नहीं करनी चाहिए.

हरित बाली रोग : इसे अंगरेजी में डाउनी मिल्ड्यू नाम से जाना जाता है. यह एक फफूंद जनक रोग है. इस रोग में बाजरे की बालियों के स्थान पर टेढ़ीमेढ़ी हरी पत्तियां सी बन जाती हैं, जिस से पूरी की पूरी बाली झाड़ू के समान नजर आती है और पौधे बौने रह जाते हैं.

इस रोग से बचाव के लिए अरगट रोग की तरह रासायनिक दवा का छिड़काव करें और बोआई से पहले बीजों का शोधन करें. रोगग्रसित पौधों को काट कर जला दें.

कीट प्रबंधन : बाजरे में दीमक, तना मक्खी, तना छेदक और मिज कीट का प्रकोप कभीकभी देखने को मिलता है. इन कीटों की रोकथाम के लिए किसी स्थानीय विशेषज्ञ से मिली सलाह के मुताबिक किसी असरकारक रासायनिक दवा का छिड़काव करना चाहिए.

Millet

कुछ और ध्यान रखने वाली बातें

* इलाके की अनुकूलता के हिसाब से बताई गई प्रजातियों के बीज प्रयोग करें.

* यदि बरसात नहीं हो पा रही है, तो सिंचाई जरूर करें. ध्यान रहे कि फूल आने पर सिंचाई ज्यादा जरूरी होती है.

* बोआई के 15 दिनों बाद कमजोर पौधों को खेत से उखाड़ कर पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सेंटीमीटर कर देनी चाहिए. इस के अलावा ज्यादा नजदीक जमे पौधों को उखाड़ कर खाली जगहों पर लगा देना चाहिए.

Nursery : प्रो ट्रे में सब्जियों की नर्सरी उत्पादन की नई तकनीक

Nursery: नए जमाने के किसानों ने सब्जी उत्पादन बढ़ाने के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल किया है, जिस से उन की माली हालत में सुधार हुआ है. इन नई तकनीकों में प्रो ट्रे में सब्जियों की पौध उगाना खास है.

उच्च तकनीक से सब्जियों की पौध तैयार करने से पौधों को वानस्पतिक तरीकों से संरक्षित वातावरण में विकसित किया जा सकता है, जिस से रोगरहित उच्च गुणवता वाली पौध तैयार की जा सकती है.

उच्च तकनीकी नर्सरी लगाने के लाभ

* बीज अंकुरण अच्छा होता है.

* ट्रे में पौधों के लिए काफी जगह होने से सभी पौधों का एकसमान विकास होता है.

* महंगे व हाइब्रीड बीजों का अच्छा इस्तेमाल.

* नर्सरी में कीट, बीमारी व खरपतवार की समस्या कम रहती है.

* पौली हाउस में सही वातावरण होने की वजह से बीज का जमाव व पौधों का विकास बहुत अच्छा होता है.

* प्रो ट्रे में पौधों को रोपाई के लिए आसानी से कैविटी से निकाल कर मिट्टी में लगा देते हैं. पौधों की जड़ें आसानी से मिट्टी में लग जाती हैं.

* प्रो ट्रे विधि से तैयार पौधे लगाने से फसल की बढ़वार समान होती है.

Nursery

प्रो ट्रे में नर्सरी तैयार करना

मिट्टी रहित नर्सरी तैयार करने के लिए निम्नलिखित चीजों की जरूरत होती है:

प्रो ट्रे  : पौलीप्रोपेलीन से बनी हुई विभिन्न कैविटी वाली ट्रे बाजार में मिलती हैं, पर आमतौर पर सब्जी की नर्सरी लगाने के लिए 98 कैविटी युक्त ट्रे का इस्तेमाल किया जाता है. 1 प्रो ट्रे को 4-5 बार इस्तेमाल किया जा सकता है.

कोकोपीट : यह पूर्ण विघटित धुला हुआ निर्जीमिक्रत कोयर इंडस्ट्री का बाई प्रोडक्ट है.

परलाइट : यह हलकी एल्यूमिनियम सिलिकेट चट्टानों का ज्यादा तापमान पर गरम किया हुआ पौपकार्न की तरह फूला हुआ पदार्थ है. इस का इस्तेमाल वायु संचार व जलधारण कूवत को बढ़ाता है.

वेर्मीकुलाइट : यह एक माइका है, इस में कैल्शियम व मैग्नीशियम तत्त्व भी पाए जाते हैं.

नर्सरी उगाने की विधि

* कोकोपीट नर्सरी लगाने से करीब 12 घंटे पहले पानी में भिगो लेना चाहिए और फालतू पानी को निकलने देना चाहिए.

* आयतन के हिसाब से 3:1:1 के अनुपात में कोकोपीट, परलाइट, वेर्मीकुलाइट को ले कर अच्छी तरह मिला देना चाहिए. इन चीजों को कभी ग्राम या किलोग्राम में न लें. इन्हें केवल आयतन (जैसे 3 बाल्टी कोकोपीट, 1 बाल्टी परलाइट व 1 बाल्टी वर्मीकुलाइट) के मुताबिक लें.

* मिश्रण को अच्छी तरह प्रो ट्रे की कैविटी में भर देना चाहिए.

* मिश्रण से भरी ट्रे को फुहारे से थोड़ा सा सींचना चाहिए.

* इस के बाद हर एक कैविटी में बीज के आकार के आधार पर गड्ढे बना कर उपचारित बीजों की बोआई करनी चाहिए.

* 1 कैविटी में 1 ही बीज लगाया जाता है. बड़े क्षेत्र में व्यावसायिक पौध तैयार करने के लिए कई तरह की आटोमैटिक बोआई मशीनें मौजूद हैं.

* बोआई के तुरंत बाद कैविटी की ऊपरी परत (जिस में बीज बोया गया है) को वर्मीकुलाइट की परत से (करीब आधा सेंटीमीटर) ढक देना चाहिए. इस से हरी शैवाल की बढ़वार नहीं होती है व वायु संचार भी अच्छी तरह होता है.

* फिर एक के ऊपर एक ट्रे को रख कर उन्हें पौलीथीन की शीट से ढक देना चाहिए ताकि प्रो ट्रे में 100 फीसदी नमी बनी रहे, जिस से कि बीजों का जमाव अच्छा हो.

* बीजों का अंकुरण होने पर ट्रे को अलगअलग कर देना चाहिए.

* करीब 4-7 दिनों में बीजों का जमाव हो जाता है. बीज के जमाव में लगने वाला समय फसल के प्रकार पर निर्भर करता है.

* अंकुरण होने पर प्रो ट्रे को अलगअलग कर के 15 सेंटीमीटर ऊंची क्यारियों पर 50 फीसदी छायाघर में या वातावरण नियंत्रित पौलीहाउस में रख देना चाहिए.

* जड़ सड़न व उकटा के प्रकोप से बचने के लिए फफूंदनाशी दवा (कापर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लीटर या कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर) का इस्तेमाल करें.

* नर्सरी का एक चरण पूरा होने के बाद जब प्रो ट्रे खाली हो जाती हैं, तब उन को अच्छी तरह से साफ पानी से धो देना चाहिए. फिर प्रो ट्रे को रोगाणु रहित करने के लिए कपास के छोटे से टुकड़े को फोर्मेलीन घोल में डुबो कर हर कैविटी को अच्छी तरह साफ करना चाहिए. अच्छी तरह सूखने के बाद इन्हें एक के ऊपर एक रख कर पौलीथीन शीट से अच्छी तरह पैक कर के अगली बोआई के लिए रख देना चाहिए.

प्रो ट्रे नर्सरी के लिए उर्वरक

जब पौधों  में 2 पत्तियां आ जाएं तब 5 ग्राम एनपीके 19:19:19 उर्वरक प्रति 10 लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर रोजाना सिंचाई के साथ देना चाहिए. सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की खुराक के लिए भिन्नभिन्न प्रकार के मल्टी सूक्ष्म पोषक तत्त्व मिश्रण मिलते हैं, जैसे मैक्स व टेकनोवा 2 वगैरह. इन का 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बना कर हफ्ते में 2 बार छिड़काव करना चाहिए. इस से पौधों को अच्छा पोषण मिलता है व पौधों का विकास अच्छा होता है, जिस से ज्यादा पैदावार होती है.

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सिंचाई

सर्दी के मौसम में दिन में 2 बार व गरमी में 3 बार सिंचाई करनी चाहिए. सिंचाई के पानी की गुणवत्ता जानने के लिए निम्नलिखित 3 मापक हैं:

पीएच : सिंचाई के पानी का पीएच 6.4-7 तक होना चाहिए. पीएच का सुधार नाइट्रिक एसिड, फास्फोरिक एसिड या एचसीएल जैसे रसायनों से सिंचाई के पानी को उपचारित कर के किया जाता है.

टीडीएस : टीडीएस पानी में पाए जाने वाले घुलनशील पदार्थों का मापक होता है.

नमक की मात्रा : नमक की मात्रा 1-2 डेसी साइमन होनी चाहिए. साफ पानी से सिंचाई करने से पौधों का विकास अच्छा होता है और अधिक पैदावार हासिल होती है.

पौधों में तनाव देना

प्रो ट्रे  नर्सरी उत्पादन में कृत्रिम रूप से तनाव देना बहुत खास काम है. पौधों की खेत में रोपाई से पहले उन्हें तनाव देने से पौधे खेत में आसानी से पनपते हैं. तनाव के लिए पौधों की 3-4 दिनों तक थोड़ाथोड़ा मुरझाने पर रोकरोक कर सिंचाई की जाती है, जिस से पौधे मजबूत हो जाते हैं.

Goat Farming : बकरीपालन के लिए नई मशीनें

Goat Farming : बकरी फार्म की सफलता इस बात पर बहुत ज्यादा निर्भर करती है कि फार्म में बकरी के बच्चों द्वारा मां का दूध छोड़ने से पहले बकरी के बच्चों की मृत्यु दर कितनी है. ऐसा देखा गया है कि दूध छुड़वाने की उम्र से पहले मृत्यु दर करीब 7 से 51 फीसदी तक होती है. इसलिए यह माना जा सकता है कि फार्म में जितनी कम मृत्यु दर हो, उतना अच्छा और लाभकारी फार्म होगा. यह भी पाया गया है कि सब से ज्यादा बकरी के बच्चों की मृत्यु उन के जन्म के पहले व दूसरे दिन होती है.

निम्न वजहों से बकरी अपने बच्चों को छोड़ सकती है:

* कभीकभी ऐसा होता है कि बकरी अपने नवजात बच्चे को जन्म के 24 घंटे के भीतर ही छोड़ देती है. ऐसा इस कारण से भी हो सकता है कि बकरी ने पहली बार बच्चा दिया हो और उसे बच्चों को दूध पिलाने का कोई तजरबा न हो.

* कभीकभी बकरी बच्चों को इसलिए भी दूध पिलाना छोड़ देती है, क्योंकि दूध पिलाते समय उसे गुदगुदी होती है.

* कभी ऐसा भी होता है कि बकरी के थन में किसी प्रकार की चोट होती है, जिस के कारण वह दूध नहीं पिलाना चाहती है.

* एक कारण यह भी हो सकता है कि बकरी के थनों में दूध का उत्पादन ही नहीं हो रहा हो.

* यह भी पाया गया है कि जब बकरी में दूध के उत्पादन की ताकत कम हो और वह 2 या ज्यादा बच्चों को जन्म दे, तो वह कुछ बच्चों को दूध पिलाना छोड़ देती है.

* कभीकभी बच्चे बहुत कमजोर पैदा होते हैं और उन का जन्म के समय वजन 1 किलोग्राम से भी कम होता है, लिहाजा उन की मौत हो जाती है.

* यही नहीं वे बच्चे भी मर जाते हैं, जिन की मां की मौत किसी वजह से हो गई हो.

* थनों की बीमारी जिसे मेस्टाइटिस या थनैला रोग कहते हैं की वजह से भी बकरी के दूध का उत्पादन कम हो सकता है. ऐसे में बच्चों को दूध नहीं मिल पाता है.

अब कारण कोई भी हो, यदि बच्चों को उन की मां का दूध नहीं मिलता है, तो वे लाचार हो जाते हैं. इन बच्चों के लिए यह बहुत जरूरी है कि उन को कृत्रिम रूप से दूध पिलाया जाए ताकि उन के जीवन की रक्षा की जा सके. यदि 1 या 2 ही ऐसे लाचार बकरी के ही बच्चे हों, तो उन को दूध पिलाने के लिए इनसानी बच्चों की दूध की बोतल इस्तेमाल की जा सकती है.

व्यावसायिक रूप से चलने वाले बकरी के फार्म में ऐसे बच्चों की संख्या ज्यादा हो सकती है, जिन को उन की मां दूध नहीं पिला पाती. ऐसे बच्चों के लिए दूध पिलाने वाली मशीन का इस्तेमाल किया जा सकता है.

Goat Farming

इस मशीन की मदद से एकसाथ 6 बच्चों को दूध पिला सकते हैं. इस मशीन के बीच में एक घेरा बना हुआ होता है, जो 6 अलगअलग खानों से जुड़ा होता है. जब हम दूध की एक तय मात्रा को मशीन के केंद्र पर स्थित खाने में उड़ेलते हैं, तो वह दूध स्वतंत्र रूप से 6 बराबर हिस्सों में बंट जाता है. इन 6 खानों से निप्पलें जुड़ी होती हैं और जब बकरी का बच्चा उन को चूसता है, तो उस खाने में पहुंचा हुआ दूध उस के हिस्से में आ जाता है. इस तरह बहुत ही कम समय में 6 बच्चों के ग्रुप को दूध पिलाया जा सकता है.

बकरी के बच्चों को शुरुआत में इस मशीन के पास ले जाना पड़ता है, जिस के बाद उन की ट्रेनिंग हो जाती है और वे खुद ही दूध पीने के लिए मशीन के पास चले आते हैं.

यह एक बहुत ही साधारण मशीन है, जिस का इस्तेमाल बकरी फार्म में करना बहुत ही आसान है. इस की मदद से बहुत ही कम मेहनत से बकरी के बच्चों को दूध पिलाया जा सकता है और उन की जान को बचाया जा सकता है. इस्तेमाल के बाद मशीन व निप्पलों की सफाई का खयाल रखना जरूरी है.

इस के अलावा बकरियों को चारा खिलाने की एक बेलनाकार मशीन भी होती है. इस में हरे चारे को या भूसे को आसानी से भरा जा सकता है. इस की बनावट ऐसी है कि जो भी चारा बकरियों द्वारा खा लिया जाता है, उस की जगह ऊपरी भाग में मौजूद चारा ले लेता है.

बकरियों का समूह जिस में छोटी या बड़ी सभी प्रकार की बकरियां हो सकती हैं, बेहद आसानी से मशीन के चारों ओर खड़ी हो कर चारे को खा सकती हैं. इस मशीन का खास फायदा यह है कि बहुत कम जगह पर ज्यादा बकरियों को आसानी से चारा या दाना खिलाया जा सकता है. पूरा चारा इस मशीन के अंदर ही भरा होता है, बकरियों या उन के बच्चों के पैरों के नीचे दब कर चारा बर्बाद नहीं हो पाता है. इस प्रकार कीमती चारे को खराब होने से बचाया जा सकता है.

Goat Farming

बकरियां चारे को नोचनोच कर खाना पसंद करती हैं. यह इस मशीन की बनावट के कारण आराम से मुमकिन है. जब बकरियां चारा मशीन के ऊपरी भाग से चारा खींचती हैं, तो उस में से नीचे गिरने वाला चारे का हिस्सा मशीन के निचले भाग में बनी हुई गोलाकार ट्रे में ही गिर जाता है. वहां से छोटी बकरियां आसानी से उसे उठा लेती हैं. इस प्रकार अच्छाखासा चारा बरबाद होने से बच जाता है. इस गोलाकार ट्रे में हम बकरियों का दाना भी डाल सकते हैं, जिसे बकरियां आसानी से खा सकती हैं.

अगर इन मशीनों को बकरियों के पालन में इस्तेमाल किया जाए तो एक तरफ बकरियों के बच्चों की मृत्यु दर को घटाया जा सकता है और दूसरी ओर कम जगह में ज्यादा बकरियों का आसानी से पालन किया जा सकता है.

Vermicompost : घर में बनाएं वर्मी कंपोस्ट

वर्मी कंपोस्ट (Vermicompost) को टैंक, क्यारी और ढेर विधि से तैयार किया जा सकता है. कचरों के ढेर को काटपीट कर 10 फुट लंबे, 3 फुट चौड़े और ढाई फुट गहरे टैंक या गड्ढे में डाल दिया जाता है. इस से केंचुओं को कचरों को खाने और पचाने में आसानी हो जाती है.

टैंक में कचरा बिछाने के बाद उस पर पानी मिला गोबर डाल दिया जाता है. हर टैंक में 5000 या 5 किलोग्राम केंचुओं को डाल दिया जाता है.

कचरे में सही नमी बनाए रखने के लिए गरमी के मौसम में रोज 2 बार और ठंड के मौसम में रोज 1 बार पानी का छिड़काव किया जाना जरूरी है, ताकि 30 फीसदी नमी बनी रहे. वर्मी कंपोस्ट बनाने वाली जगह को ऊपर से जूट के भीगे बोरे से ढक देने पर नमी और अंधेरे में केंचुए ज्यादा तेजी से काम करते हैं.

केंचुए ऊपर से खाना शुरू करते हैं और धीरेधीरे नीचे जाते हैं, इस से ऊपर का कचरा पहले वर्मी कंपोस्ट में बदलता है. 35-40 दिनों के बाद से कचरे की ऊपरी सतह पर केंचुओं द्वारा छोड़ा गया मल दिखने लगता है. करीब 70 से 75 दिनों में वर्मी कंपोस्ट तैयार हो जाता है.

वर्मी कंपोस्ट बनाने वाले मोकामा के किसान रामअवतार बताते हैं कि तैयार होने पर वर्मी कंपोस्ट बगैर बदबू का बारीक, दानेदार और गहरा लाल रंग लिए चाय की पत्ती की तरह दिखता है. वर्मी कंपोस्ट को इकट्ठा कर के 2 एमएम की छलनी से छान कर पैकेटों में भरना चाहिए.

कृषि वैज्ञानिक बजेंद्र मणि बताते हैं कि वर्मी कंपोस्ट मिट्टी को उपजाऊ बनाने के अलावा उस की जलधारण कूवत को भी बढ़ाता है. इस का पीएच 7 से 7.5 के बीच होता है. इस से मिट्टी में ज्यादा समय तक नमी बनी रहती है, लिहाजा सिंचाई का खर्च कम हो जाता है. इस में नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटाश के साथसाथ सभी पोषक और सूक्ष्म तत्त्व मौजूद रहते हैं.

खेत की तैयारी के समय प्रति हेक्टेयर 25-30 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करना चाहिए. पौधे लगाने के 15 दिनों बाद प्रति हेक्टेयर 12 से 15 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट डालना होता है. खाद्यान्न फसलों में प्रति हेक्टेयर 50 से 60 क्विंटल और सब्जियों में प्रति हेक्टेयर 100 से 120 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट डालना चाहिए. फलदार पेड़ों में प्रति पेड़ 1 से 5 किलोग्राम, सजावटी पौधों में प्रति गमला 100 ग्राम वर्मी कंपोस्ट डालने की जरूरत होती है.

कैमिकल खादों की जगह वर्मी कंपोस्ट यानी केंचुआ खाद का इस्तेमाल कर के मिट्टी और फसलों को बचाया जा सकता है. फसलों के कचरों, घासफूस, कूड़ा, गोबर, सड़ेगले फल और सब्जियों को केंचुए वर्मी कंपोस्ट में बदल देते हैं. अमूमन, हर केंचुआ 1 ग्राम का होता है और वह 24 घंटे में 1 ग्राम बीट निकालता है. 1 वर्गमीटर में बनी क्यारी में करीब 1000 केंचुए डालने पर रोज 1 किलोग्राम वर्मी कंपोस्ट तैयार हो जाता है.

Vermicompostइपीजीइक केंचुए मेन्योर वर्म या कंपोस्ट वर्म के नाम से जाने जाते हैं. ये कूड़ाकरकट के ढेर या जमीन की सतह पर सड़ते हुए किसी भी जैविक पदार्थ की परत तक सीमित रहते हैं. ये सड़ती हुई कार्बनिक चीजों को हजम कर जाते हैं. ये काफी कम समय तक जीवित रहेते हैं, पर इन की प्रजनन दर काफी ज्यादा होती है. एंडोजीइक केंचुए जमीन की निचली खनिजयुक्त परतों में रहते हैं और कार्बनिक चीजों के बजाय मिट्टी खाने में इन की ज्यादा दिलचस्पी होती है. एनेसिक केंचुआ बहुत जटिल और गहरी सुरंग बना कर रहते हैं. ये पत्ते ज्यादा खाते हैं.

वर्मी कंपोस्ट बनाने में बरती जाने वाली सावधानियां

* विधिवत ट्रेनिंग ले कर ही वर्मी कंपोस्ट बनाना शुरू करें.

* गोबर और कूड़ा कम से कम 20 दिन पुराना जरूर हो, क्योंकि ताजा गोबर में केंचुए मर जाते हैं.

* केंचुओं को सूरज की रोशनी, ज्यादा पानी, ज्यादा गरमी, चीटियों, मेंढकों, सांपों और चिडि़यों से बचाने के उपाय करना जरूरी है.

* नमी बनाए रखने के लिए जरूरत के मुताबिक पानी का छिड़काव करते रहें.

* वर्मी कंपोस्ट बनाने से ले कर पैकिंग करने तक का काम छायादार जगह पर ही करें.