क्यों रुलाता है प्याज

जब घर में रोटी खाने के लिए दाल या सब्जी न हो, तो गरीबों का खाना रोटी के साथ प्याज होता है. साल में कुछ दिनों के लिए प्याज सभी को खूब रुलाता है, बावजूद इस के सभी घरों के किचन में प्याज मौजूद रहता है.

प्याज भले ही कितना भी महंगा हो जाए, लेकिन बिना प्याज के सब्जी अच्छी नहीं लगती.

इस की सब से खास बात यह है कि इसे खाने या काटने वाले को प्याज रुलाता जरूर है. लेकिन क्या आप ने कभी सोचा है कि प्याज काटने पर आंसू क्यों आते हैं और आंखों में जलन क्यों होती है, जबकि कोई और सब्जी काटने पर ऐसा नहीं होता. यहां तक कि तीखी मिर्च काटने पर भी आंखों से आंसू नहीं आते. आखिर ऐसा क्यों होता है? आइए आप को बताते हैं इस की असली वजह.

दरअसल, प्याज में एक साइन प्रोपेंथियल एस आक्साइड नामक रसायन पाया जाता है, जो प्याज काटते समय हमारी आंखों की लेक्राइमल ग्लैंड को उत्तेजित करता है और इस वजह से आंखों में आंसू आ जाते हैं.

पहले वैज्ञानिकों को लगता था कि ऐसा प्याज में मौजूद एलीनेस नामक एंजाइम के कारण होता है, लेकिन शोध में पाया गया कि इसी में लेक्राइमेट्री फैक्टर सिंथेस नामक एंजाइम पाया जाता है, जो काटते समय इस से निकलता है और यह एंजाइम प्याज के अमीनो एसिड को सल्फेनिक एसिड में बदल देता है, साथ ही सल्फेनिक एसिड, साइन प्रोपेंथियल एस आक्साइड में बदल जाता  है. जब ये साइन प्रोपेंथियल एस आक्साइड हवा द्वारा हमारी आंखों के संपर्क में आता है, तो इस के कारण आंखों की लेक्राइमल ग्लैंड में परेशानी होती है और इस से आंखों में जलन होती है और आंसू आने लगते हैं.

प्याज के लाभ

* गरमी के मौसम में लू लगना आम बात है, लेकिन यदि आप इन दिनों कच्चा प्याज खाते हैं तो आप को लू नहीं लगेगी. लू लगने पर प्याज का रस पीने से भी फायदा होता है. आप ने बुजुर्गों को यह कहते सुना होगा कि प्याज साथ रखने से लू नहीं लगती है.

* यदि घर में किसी को गठिया या जोड़ों का दर्द हो, तो प्याज के रस की मालिश करने से आराम मिलेगा. प्याज का रस सरसों के तेल में मिला कर मालिश करने से काफी आराम मिलता है.

* प्याज के रस को सरसों के तेल में मिला कर 2 महीने तक लगातार मालिश करने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है.

* प्याज के रस में मिश्री मिला कर चाटने से कफ की समस्या से जल्द ही नजात मिलती है.

* गरमी के मौसम में ज्यादा गरमी की वजह से सिर में दर्द होने पर प्याज के सफेद कंद को तोड़ कर सूंघने से जल्द आराम मिलता है. मसूड़ों में सूजन और दांत में दर्द होने पर प्याज के रस और नमक का मिश्रण लगाने से दर्द से जल्द राहत मिलती है.

* बाल गिरने की समस्या से नजात पाने के लिए प्याज बहुत असरकारी है. बालों की जड़ों पर प्याज का रस रगड़ने से बाल गिरने बंद हो जाते हैं. इस के अलावा प्याज का लेप लगाने पर काले बाल उगने शुरू हो जाते हैं.

* यदि आप को पथरी की शिकायत है, तो प्याज आप के लिए काफी उपयोगी है. प्याज के रस को चीनी में मिला कर शरबत बना कर पीने से पथरी से नजात मिलती है. प्याज का रस सुबह खाली पेट पीने से पथरी अपनेआप कट कर मूत्र के साथ बाहर निकल जाती है.

* अगर पायरिया की समस्या है, तो प्याज के टुकड़ों को गरम कर दांतों के नीचे दबा कर मुंह बंद कर लें. ऐसा करने से आप के मुंह में लार इकट्ठा हो जाएगी. उसे कुछ देर मुंह में रखने के बाद बाहर निकाल दें. ऐसा दिन में 4-5 बार करने से पायरिया की समस्या से नजात मिल जाएगी.

* डायबिटीज के रोगियों को भोजन के साथ कच्चा प्याज खाना चाहिए. इस से शरीर में इंसुलिन का स्तर सामान्य हो जाता है.

* प्याज कैंसर सेल को बढ़ने से रोकता है. इस में सल्फर तत्त्व ज्यादा मात्रा में होते हैं. यह सल्फर पेट, कोलोन, बे्रस्ट, फेफड़े और प्रोस्टेट के कैंसर से बचाता है.

मूली (Radish): सेहत के लिए खास

खाने का जायका बढ़ाने वाली मूली काफी मुफीद चीज?है. दुनियाभर में मूली शौक से खाई जाती?है. आइए, जानते?हैं मूली के बेशुमार फायदे:

* रोजाना खाने में मूली का इस्तेमाल करने से डायबिटीज से जल्दी छुटकारा मिल सकता है.

* मूली खाने से जुकाम नहीं होता है, इसीलिए मूली सलाद में जरूर खानी चाहिए.

* रोज मूली के ऊपर काला नमक डाल कर खाने से भूख न लगने की समस्या दूर हो जाती?है.

* मूली खाने से हमें विटामिन ‘ए’ मिलता है, जिस से दांतों को मजबूती मिलती?है.

* मूली खाने से बाल झड़ने बंद हो जाते हैं.

* बवासीर में कच्ची मूली व उस के पत्तों की सब्जी बना कर खाना फायदेमंद रहता?है.

* यदि पेशाब का बनना बंद हो जाए तो मूली का रस पीने से पेशाब दोबारा बनने लगता है.

* कच्ची मूली रोज सुबह उठते ही खाने से पीलिया रोग में आराम मिलता है.

* नियमित मूली खाने से मधुमेह का खतरा कम हो जाता है.

* यदि आप को खट्टी डकारें आ रही?हैं, तो 1 कप मूली के रस में मिश्री मिला कर पीने से लाभ होता है.

* नियमित रूप से मूली खाने से मुंह, आंत और किडनी के कैंसर का खतरा कम रहता है.

* थकान मिटाने और नींद लाने में भी मूली सहायक है.

* मोटापा दूर करने के लिए मूली के रस में नीबू और नमक मिला कर इस्तेमाल करें.

* पायरिया से परेशान लोग मूली के रस से दिन में 2-3 बार कुल्ला करें और इस का रस पिएं.

* सुबहशाम मूली का रस पीने से पुराने कब्ज में भी लाभ होता है.

* मूली के रस में बराबर मात्रा में अनार का रस मिला कर पीने से हीमोग्लोबिन बढ़ता है.

उन्नत तकनीक से करें ब्रोकली (Broccoli) की खेती

भारत में तकरीबन 40-50 किस्मों की अलगअलग तरह की सब्जियों की खेती काफी पहले से की जाती है, लेकिन अब भी कुछ ऐसी सब्जियां हैं, जिन से काफी किसान अनजान हैं.

ऐसी ही एक सब्जी है ब्रोकली यानी हरे रंग की गोभी. गोभी वर्ग की यह खास सब्जी कभीकभी बैगनी या सफेद रंग की भी होती है. इस के खाने लायक शीर्ष भाग के अलावा मांसल पुष्पदंड का भी सलाद और सूप के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. देश में इस की खेती पिछले कुछ सालों से शुरू की गई है. ब्रोकली की सब्जी की मांग बड़ेबड़े होटलों और पर्यटन स्थलों पर काफी तेजी से बढ़ी है.

पोषक तत्त्व : ब्रोकली में फूलगोभी, पत्तागोभी, गांठगोभी के मुकाबले प्रोटीन, विटामिन और खनिज पदार्थ ज्यादा होते हैं. इस के अलावा थियोमिन, रोइबोफलेविन व नियासिन वगैरह तत्त्व भी इस में भरपूर मात्रा में मौजूद होते हैं. इस के अलावा इस सब्जी का और भी महत्त्व है, क्योंकि खोजों से पता चला है कि ब्रोकली में मौजूद आईसोथियोसिनेट्रस श्रेणी के रसायन फाइटोकैमिकल्स के रूप में मौजूद होते हैं, जो कैंसर रोगियों का कैंसर से बचाव करते हैं और स्वस्थ लोगों में कैंसर की आशंका काफी कम करते हैं. इस के इस्तेमाल से खून में सीरम कोलेस्ट्राल का स्तर कम होता है, जो हृदय रोगियों के लिए लाभयदायक है. ब्रोकली के सूखे अंकुर ट्यूमर के खतरे को भी कम करते हैं. ब्रोकली में तमाम पौष्टिक तत्त्व दूसरी गोभियों की तुलना में ज्यादा पाए जाते हैं.

जलवायु : ब्रोकली शीतोष्ण जलवायु की फसल है, लेकिन इसे अन्य इलाकों में भी आसानी से उगाया जा सकता है. अधिकतर भागों में इस की खेती रबी मौसम में की जाती है, जबकि ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में इस की खेती गरमी के मौसम में की जाती है. ब्रोकली की अच्छी पैदावार के लिए 20-25 डिगरी सेल्सियस और शीर्ष विकास के लिए 12-18 डिगरी सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है.

खेत की तैयारी : सब  पहले खेत की गहरी जुताई के बाद ढेलों को तोड़ कर जमीन को समतल और मुलायम किया जाता है. नीम की खली 100 किलोग्राम और ट्राइकोडर्मा 1 किलोग्राम का मिश्रण (200 ग्राम प्रतिवर्ग मीटर) डाल कर अच्छी तरह मिला लें. पौध लगाने से पहले प्रतिवर्ग मीटर में नाइट्रोजन 5 ग्राम, फास्फोरस 5 ग्राम और पोटाश 5 ग्राम डाली जाती है. 100 सेंटीमीटर चौड़ी और 15 सेंटीमीटर ऊंची क्यारियां बनाई जाती हैं और कतारों के बीच 50 सेंटीमीटर का फासला रखा जाता है. सड़ी गोबर की खाद 20 किलोग्राम प्रतिवर्ग मीटर में डाल कर मिट्टी में अच्छी तरह मिलाई जाती है.

किस्में : ब्रोकली की खेत के लिए बोआई के समय और उगाए जाने वाले क्षेत्र के मुताबिक उन्नत किस्मों का चयन करते हैं. ब्रोकली की 3 किस्में होती हैं, हरी, बैगनी और सफेद. हरे रंग की गढे़ हुए शीर्ष वाली किस्मों को लोग ज्यादा पसंद करते हैं. पकने के आधार पर इन किस्मों को 3 हिस्सों में बांटा जाता है.

अगेती किस्में : ये किस्में रोपाई के बाद 40-50 दिनों में तैयार हो जाती हैं. ये मध्यम ठंड में ही पकती है. इन में मुख्य हैं: ऐश्वर्य, डीसिम्को, ग्रीनबड और स्पार्टनअली.

मध्यावधि किस्में : ये किस्में 100 दिनों में तैयार हो जाती हैं. सकाटा, अर्या, ग्रीन स्प्राउटिंग अच्छी मध्यावधि किस्में हैं.

पछेती किस्में : ये किस्में तकरीबन 120 दिनों में तैयार होती हैं. इन में मुख्य हैं, पूसा ब्रोकली व केटी सलेक्शन 1, जो 90 से 105 दिनों में तैयार हो जाती है.

संकर किस्में : निजी बीज कंपनियों ने ब्रोकली की अच्छी संकर किस्में तैयार की हैं.

अगेती संकर किस्में : प्रीमियम क्राप, लेसर, कलियर.

मध्यावधि संकर किस्में : लौर सायर, कुइजर, ऐक्स कैलिबर.

पछेती संकर किस्में : स्टिफकायक, ग्रीन सर्फ आदि.

बोआई : मैदानी भागों में ब्रोकली की बोआई मध्य सितंबर से नवंबर के पहले हफ्ते के बीच की जाती है. पहाड़ी इलाकों में बोआई का समय सितंबरअक्तूबर होता है. मध्यावधि किस्मों की बोआई सितंबरअक्तूबर में पौधशाला में करनी चाहिए. पछेती किस्मों के बीजों की बोआई का सही समय अक्तूबर के आखिर से मध्य नवंबर तक है. काफी ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में मार्चअप्रैल में बोआई करते हैं.

नर्सरी तैयार करना : 98 छेदों वाली प्रोट्रे यानी प्लास्टिक की ट्रे का इस्तेमाल पौध तैयार करने के लिए किया जा सकता है. इस प्रोटे्र का आकार आमतौर पर 54 सेंटीमीटर लंबा और 27 सेंटीमीटर चौड़ा होता है. सड़ी गोबर की खाद और जैविक मिश्रण का रोगमुक्त पौध उगाने के लिए इस्तेमाल किया जाना जरूरी है.

नर्सरी में परंपरागत मिश्रण, मिट्टी, गोबर की खाद, कोकोपीट, वर्मीकुलाइट, बालू या परलाइट मिश्रण का इस्तेमाल किया जा सकता है. यह रोगमुक्त होने के साथसाथ एकदम भुरभुरा होता है, जिस से जड़ों का अच्छी तरह विकास होता है. प्रोट्रे के हर छेद में 1 बीज डाल कर वर्मीकुलाट से बीज को ढक देना चाहिए. इस के बाद हजारे की मदद से हलकी सिंचाई कर के प्रोट्रे को एकदूसरे के ऊपर जमा कर पौलीथिन शीट से ढक देना चाहिए. इस से बीज आसानी से अंकुरित हो जाता है. अंकुरण सामान्यत: 6 से 8 दिनों में हो जाता है. अंकुरण के बाद पौलीथिन शीट हटाने के बाद प्रोट्रे को एकएक कर के जमीन पर रख देना चाहिए. पौधे 4 से 6 हफ्ते के भीतर रोपाई के लिए तैयार हो जाते हैं.

रोपाई : उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में पौधों की रोपाई अक्तूबर के पहले हफ्ते से नवंबर के पहले हफ्ते और पहाड़ी इलाकों में मई में की जाती है. नर्सरी में जब पौधे 10-12 सेंटीमीटर या 4-5 हफ्ते के हो जाते , तब खेत में इन की रोपाई कर देनी चाहिए. रोपाई से पहले 1 लीटर पानी में 1 ग्राम फफूंदीनाशक दवा यानी कार्बेंडाजिम डाल कर इस मिश्रण से जड़ों का उपचार करना चाहिए.

पौधों को पौलीथिन शीट के छेदों के बीच में लगाया जाता है, जिस से पौधे कहीं भी पौलीथिन शीट को न छुएं. रोपाई के फौरन बाद हजारे से हलकी सिंचाई की जाती है. पौधों की रोजाना इसी तरह हलकी सिंचाई करनी चाहिए. इस की रोपाई लाइनों में की जाती है. इस की किस्मों के अनुसार लाइनों की दूरी 45-60 सेंटीमीटर तक रखते हैं. ध्यान रहे कि पौधे 3-4 सेंटीमीटर से ज्यादा गहरे नहीं लगाने चाहिए.

पोषक तत्त्वों का मिश्रण : खाद और उर्वरक का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के आधार पर करें. आमतौर पर 150-200 क्विंटल गोबर की खाद, 120-125 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 से 80 किलोग्राम सुपरफास्फेट और 25 से 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर में डालनी चाहिए. गोबर की खाद, सुपरफास्फेट और पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई के समय और शेष आधी मात्रा को खड़ी फसल पर छिड़काव यानी टापड्रेसिंग विधि से दें.

टापड्रेसिंग के बाद सिंचाई जरूर करें. इस के अलावा इस फसल में कुछ सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की भी जरूरत होती है, जैसे बोरान मोलिब्डेनम. इन सूक्ष्म तत्त्वों की कमी दूर करने के लिए रोपाई से पहले खेत की तैयारी करते समय 10-15 किलोग्राम बोरेक्स और 500 ग्राम अमोनियम मोलिब्डेट प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करते हैं.

मल्चिंग : तैयार क्यारियों को 100 गेज यानी 25 माइक्रोन की काली पौलीथिन शीट से ढक देना चाहिए और दोनों तरफ किनारों को मिट्टी से दबा देना चाहिए.

सिंचाई : पहली हलकी सिंचाई रोपाई के एकदम बाद और दूसरी रोपाई के 6 से 7 दिनों बाद करें. इस के बाद फिर हलकी सिंचाई करें. इस तरह 5-6 बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है. पानी खेत में ज्यादा समय तक नहीं रुकना चाहिए. खास बात यह है कि फसल की शुरुआत में और बीज निकलते समय पानी की कमी नहीं होनी चाहिए.

खरपतवारों की रोकथाम : खरपतवारों की रोकथाम के लिए बेसालिन 2.0 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रोपाई से पहले खेत में छिड़काव कर के मिट्टी में मिला दें. इस के अलावा 15 दिनों के अंतर पर 2-3 बार निराईगुड़ाई करें.

तोड़ाई : अगेती किस्मों की फसल दिसंबर में तोड़ाई लायक हो जाती है. मध्यावधि प्रजातियां जनवरीफरवरी में और पछेती प्रजातियां फरवरी के बाद तोड़ाई लायक होती हैं.

उपज : यदि ब्रोकली की खेती बताई गई विधि से करते हैं, तो 100-150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज हासिल की जा सकती है. इस का इस्तेमाल बड़ेबड़े होटलों में सब्जी और सलाद के रूप में किया जाता है.

सहजन (Drumstick) उगाने की वैज्ञानिक विधि

सहजन का वानस्पतिक नाम मोरिंगाऔलीफेरा है, इसे अंगरेजी में ड्रम स्टिक कहते हैं. यह उत्तर भारत के हिमालय क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से उगता है. इसे कोमल पत्तियों, फूलों व फलियों के लिए उगाया जाता है. भारत में इसे कई नामों से पुकारा जाता है, जैसे मोरिंगा, मोरिगाई, मुनगा व हार्स रेडिस वगैरह.

यह एक बहुवर्षीय पेड़ है, जिस की पत्तियों, फूलों व फलों को सब्जी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व झारखंड में यह काफी मशहूर है. इस की व्यावसायिक खेती कुछ इलाकों में ही की जाती है. ज्यादातर जगहों में यह घरों के बगीचों में ही उगाया जाता है.

सहजन की फलियों को सब्जी, अचार या सांभर बनाने में इस्तेमाल किया जाता है. इस के फूलों और पत्तियों से सब्जी बनाई जाती है. इस की सब्जी पौष्टिक और औषधीय गुणों से भरपूर होती है. आयुर्वेद के मुताबिक सहजन इनसानों में होने वाले तकरीबन 300 रोगों के इलाज में लाभदायक है.

राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद के अनुसार इस में काफी मात्रा में विटामिन, खनिज तत्त्व, वसा व प्रोटीन पाए जाते हैं. सहजन की पत्तियों व फलियों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, कैल्शियम, कैरोटीन व विटामिन ‘सी’ पाए जाते हैं. इस में गाजर के मुकाबले 4 गुना ज्यादा विटामिन, संतरे के मुकाबले में 7 गुना ज्यादा विटामिन ‘सी’, दूध के मुकाबले में 4 गुना ज्यादा कैल्शियम, केले से 3 गुना ज्यादा पोटाश और दही से दोगुना ज्यादा प्रोटीन होता है.

मलेशिया में सहजन के बीजों को मूंगफली की तरह खाया जाता है. इस के बीजों से तेल निकाला जाता है, जिस का इस्तेमाल दवाओं में किया जाता है. आधुनिक खोजों से पता चला है कि सहजन से भूमिगत पानी साफ होता है. सहजन के इस्तेमाल व बाजार की मांग के लिहाज से इस की खेती काफी फायदे वाली साबित होती है.

सहजन जल्दी बढ़ने वाला पेड़ होता है. इस का पेड़ तकरीबन 5 मीटर ऊंचा होता है. इस में खुशबूदार फूल फरवरीमार्च में खिलते हैं. इस की फलियां करीब 25 सेंटीमीटर लंबी होती हैं.

पौधे तैयार करना : आमतौर पर सहजन के पौधे इस की टहनियों को काट कर लगा देने से तैयार हो जाते हैं. वैसे बीज से भी पौधे तैयार किए जाते हैं.

जलवायु : सहजन के सही विकास के लिए तकरीबन 25 डिगरी सेल्सियस तापमान सब से अच्छा रहता है. 40 डिगरी से ज्यादा तापमान इस पर खराब असर डालता है. फूल निकलने के दौरान बहुत कम या बहुत ज्यादा तापमान होने पर फूल गिर जाते हैं.

मिट्टी : सहजन को सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है. सही जल निकास वाली रेतीली दोमट, लाल व काली मिट्टी जिस का पीएच मान 6 से 7.5 के बीच हो सहजन की खेती के लिए सही मानी जाती है.

किस्में : जाफना, कुलानुर, धनराज, पाल मुरीगाई, ऐजहपानामा मुरिंगा, चाबक बेरी मुरीगाई, केम मुरीगाई व केट्टू मुरीगाई वगैरह इस की खास किस्में हैं. इस की उम्दा संकर किस्में हैं पीकेएम 1 व पीकेएम 2.

पौधे लगाना : सहजन की बहुवर्षीय किस्मों के पौधे कलम द्वारा तैयार किए जाते हैं. इस के लिए ढाईढाई मीटर की दूरी पर 45×45×45 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे बना कर उन में तकरीबन 15 किलोग्राम कंपोस्ट खाद मिट्टी में मिला कर भरें. चुनी हुई कलमों या पौधों को जून से अक्तूबर के बीच गड्ढों में रोप देते हैं.

इस की 1 वर्षीय किस्मों के 625 ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से नवंबरदिसंबर या जूनजुलाई के दौरान नर्सरी में बोए जाते हैं. पौधे 1 महीने में रोपाई लायक हो जाते हैं. हर गड्ढे में 2 बीज सीधे बो दिए जाते हैं. 1 हफ्ते में बीजों का अंकुरण हो जाता है.

खाद और उर्वरक : रोपाई के 3 महीने बाद हर पौधे को तकरीबन 40 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 50 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश देनी चाहिए. रोपाई के 6 महीने बाद हर पौधे को तकरीबन 250 ग्राम यूरिया व 30 किलोग्राम कंपोस्ट खाद देनी चाहिए.

काटछांट : समयसमय पर सहजन के पेड़ों की कांटछांट जरूरी है. तकरीबन 75 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर मुख्य तने को काट देना चाहिए ताकि पेड़ की ऊंचाई सीमित रहे. फलों की तोड़ाई के बाद कांटछांट करनी चाहिए. छंटाई के 6 महीने बाद पेड़ दोबारा फल देना शुरू कर देते हैं.

खरपतवारों की रोकथाम : रोपाई के पहले 2 महीनों के दौरान खेत में खरपतवार नहीं रहने चाहिए. रोपाई के बाद पहले 3 सालों तक सहजन के पेड़ों के बीच मिर्च, शिमला मिर्च, बैगन, टमाटर, चना, मटर, कपास व दूसरी सब्जियां उगानी चाहिए, ताकि अलग से आमदनी होती रहे. उस के बाद अदरक व जिमीकंद वगैरह की खेती करनी चाहिए. इस से खेत में मिट्टी, नमी, पोषक तत्त्व, व खरपतवारों का प्रबंधन भी हो जाता है.

सिंचाई : रोपाई या बोआई के बाद 1 महीने तक सिंचाई का खास खयाल रखना चाहिए. फिर मौसम के मुताबिक सिंचाई करते रहना चाहिए.

कीड़ों की रोकथाम : सहजन में पत्ती खाने वाले पिल्लू व फल मक्खी का हमला होता है. इन का प्रकोप बरसात के मौसम में होता है.

इन की रोकथाम के लिए 0.2 फीसदी मैलाथियान का छिड़काव करना चाहिए. यदि मैलाथियान न हो, तो 0.15 फीसदी मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करना चाहिए. फलों की तोड़ाई से 1 हफ्ते पहले कोई छिड़काव नहीं करना चाहिए.

रोग नियंत्रण

उकटा रोग : सहजन के पौधों पर इस रोग का हमला अकसर होता है. इस की रोकथाम के लिए रोपाई के बाद 0.2 फीसदी कार्बंडाजिम के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

उपज : 1 वर्षीय किस्मों की छठी गांठ से ही फल बनने शुरू हो जाते हैं. इस की अनुमानित उपज 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है.

औषधीय इस्तेमाल

पाचनशक्ति : सहजन की जड़ के 10 मिलीलीटर रस में 2 ग्राम सोंठ डाल कर सुबहशाम पीने से पाचनशक्ति बेहतर होती है.

उदर शूल: सहजन की 100 ग्राम छाल में 5 ग्राम हींग डाल कर उस में 20 ग्राम सोंठ मिला कर जल के साथ पीस कर 1-1 ग्राम की गोलियां बना लें. इन में से 1-1 गोली दिन में 2-3 बार खाने से उदर शूल, अफारा व गैस की तकलीफ ठीक हो जाती है.

मंदाग्नि : सहजन की ताजी जड़, सरसों और अदरक को बराबर मात्रा में पीस कर 1-1 ग्राम की गोलियां  बना कर रख लें. दिन में 2-2 गोलियां सुबहशाम खाने से मंदाग्नि और तिल्ली में लाभ होता है.

दिमागी बुखार : सहजन की छाल को पानी में घिस कर इस की 2 बूंदें नाक में डालने से दिमागी बुखार ठीक हो जाता है.

सांस के रोग : सहजन की जड़ का रस और अदरक का रस मिला कर उस की 10-15 मिलीलीटर मात्रा रोजाना सुबहशाम पीने से सांस के रोग ठीक हो जाते हैं.

गठिया : सहजन की जड़ को अदरक व सरसों के साथ पीस कर लेप करने से गठिया ठीक हो जाता है. सहजन के गोंद का लेप करने से भी गठिया की सूजन ठीक हो जाती है.

चोट और मोच के दर्द : सहजन की पत्तियों को सरसों के तेल के साथ पीस कर चोट व मोच पर लेप कर के धूप में बैठने से उन के दर्द ठीक हो जाते हैं.

कान के नीचे की सूजन : सहजन की छाल और राई को पीस कर लेप करने से कान के नीचे की सूजन ठीक हो जाती है.

घुटनों का पुराना दर्द : सहजन के पत्तों में बराबर मात्रा में सरसों का तेल मिला कर उसे पीस कर कुनकुना कर के लेप करने से घुटनों का पुराना दर्द ठीक हो जाता है.

वात की तकलीफ : सहजन के पत्तों को पानी के साथ पीस कर कुनकुना कर के लेप करने से वात की तकलीफ ठीक हो जाती है.

यकृत कैंसर : सहजन की 20 ग्राम छाल का काढ़ा बना कर, आरोग्य वर्धिनी 2 गोलियों के साथ दिन में 3 बार इस्तेमाल करने से यकृत कैंसर में फायदा होता है.

दाद : सहजन की जड़ की छाल पानी में घिस कर लेप करने से दाद ठीक हो जाता है.

बुखार : सहजन की 20 ग्राम ताजी जड़ को 100 मिलीलीटर पानी में उबाल कर पीने से बुखार ठीक हो जाता है.

स्नायु (नाड़ी) रोग : सहजन की जड़ की छाल को पीस कर लेप करने से स्नायु रोग ठीक हो जाता है.

सिर दर्द : सहजन की जड़ के रस में बराबर मात्रा में गुड़ मिला कर 1-1 बूंद नाक में डालने से सिर दर्द ठीक हो जाता है.

आंखों के रोग : सहजन के पत्तों के रस में बराबर मात्रा में शहद मिला कर उस की 2-2 बूंदें आंखों में डालने से आंखों के रोगों में लाभ होता है.

दांतों का सड़ना : सहजन की पत्तियों को मुंह में रखने से दांतों का सड़ना रुक जाता है.

कुष्ठ रोग : सहजन की फलियों की सब्जी खाने से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता है.

कुत्ते के काटने पर : सहजन की पत्तियों, लहसुन, हलदी, नमक और कालीमिर्च को बराबर मात्रा में ले कर पीसें. फिर उसे कुत्ते के काटने वाली जगह पर लगाएं. इस से काफी फायदा होता है.

वीर्य में इजाफा : सहजन के फूलों को दूध में उबाल कर पीने से वीर्य में इजाफा होता है.

सर्पगंधा (Sarpagandha) एक कारगर पौधा

सर्पगंधा का औषधीय रूप में कई शताब्दियों से इस्तेमाल हो रहा है. इसे वानस्पतिक भाषा में ‘राऊवाल्फिआ सर्पेंटिना’ कहते हैं. यह ‘एपोसाइनेरी’ कुल का पौधा है.

सर्पगंधा का पौधा 1 से 3 फुट लंबा होता है. इस पर सफेद व गुलाबी फूल  अप्रैल से नवंबर तक आते हैं. इस के फल जूनजुलाई तक पक जाते हैं.

औषधीय इस्तेमाल : आयुर्वेदिक दवा के रूप में सर्पगंधा की जड़ का इस्तेमाल ब्लड प्रेशर कम करने व मानसिक रोग ठीक करने के अलावा दूसरे कई रोगों के इलाज में किया जाता है.

मौजूदा दौर में भी सर्पगंधा की जड़ों से कई दवाएं हासिल की जाती हैं. इस का इस्तेमाल पागलपन के इलाज में भी किया जाता है. इस की जड़ में औषधीय महत्त्व के अन्य ऐल्केलोइड्स डिजिरपिडीन, रेसिंलेमाइन, रिसिरपिनाइन, सर्पेंटाइन व अजामेलिन भी पाए जाते हैं.

सर्पगंधा (Sarpagandha)

खेती : इस की व्यापारिक मांग को देखते हुए इस की खेती फायदेमंद साबित होती है. इस के लिए रेतीली व गहरी जमीन सही होती है. इस के बीजों को मई में बो कर जुलाई में रोपाई की जा सकती है. 2 साल की रोपाई से करीब 2000 किलोग्राम जड़ें (सूखी) और 3 साल की रोपाई से करीब 4000 किलोग्राम जड़ें प्रति हेक्टेयर की दर से हासिल की जा सकती हैं.

अहमियत : एक अंदाजे के मुताबिक देश में इस की मांग करीब 300 टन सालाना है, जो जंगलों से मिलना मुमकिन नहीं है. लिहाजा इस की औद्योगिक स्तर पर रोपाई करना जरूरी हो गया है. विदेशों में इस की मांग को देखते हुए इस की ज्यादा रोपाई कर के भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा हासिल की जा सकती है. इस के तनों व पत्तियों की भी काफी मांग है, जिन से भरपूर आमदनी हासिल की जा सकती है.

औषधीय फसल नीबूघास (Lemongrass) की उन्नत खेती

बहुत से भारतीय घरों में नीबूघास या लेमनग्रास उगाई जाती है. इसे औषधीय पौधा माना जाता है. इसे लेमनग्रास, चायना ग्रास, भारतीय नीबूघास, मालाबारघास और कोचीनघास भी कहते हैं. इस की पत्तियां चाय में डालने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं.

इस की पत्तियों में एक खास महक होती है. इन्हें चाय में उबाल कर पीने से ताजगी आती है और सर्दी आदि से राहत मिलती है.

इस की खेती के लिए डूंगरपुर, बांसवाड़ा व प्रतापगढ़ के कुछ हिस्से खास हैं, जहां यह कुदरती तौर पर पैदा होती है. नीबूघास की एक बार बोआई करने के बाद 5 सालों तक इस से उत्पादन मिलता है. केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आसाम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश व राजस्थान राज्यों में बड़े पैमाने पर इस की खेती की जाती है.

नीबूघास से लेमनग्रास तेल हासिल किया जा सकता है. यह इस के पत्तों व तने से हासिल किया जा सकता है.

अहमियत

इसे चाय के साथ लेना चाहिए, क्योंकि यह बुखार, कफ और सर्दी में फायदा करती है. इस में विटामिन सी काफी मात्रा में होता है, इसलिए यह शरीर के कुछ तत्त्वों को संतुलित करती है. ताजी या सूखी दोनों तरह की लेमनग्रास का इस्तेमाल किया जा सकता है. इस का तना पत्तेदार प्याज की तरह होता है. जब इसे टुकड़ों में काटा जाता है, तब इस की खट्टी महक फैल जाती है. इस का फ्लेवर नीबू की तरह होता है. इस की छाल का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, पर इस की सुगंध उतनी उम्दा नहीं होती.

इसे करी व सूप वगैरह में इस्तेमाल किया जा सकता है. चिकन और समुद्री खाद्य पदार्थों में इस का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. इस के नीचे का हिस्सा ही खाने लायक होता है. इसे महीन और पतला काटना चाहिए. फ्लवेर लाने के लिए इस के पूरे तने को जगहजगह से काट कर करी या सूप वगैरह में डाल देना चाहिए और परोसने से पहले इसे निकाल देना चाहिए. पाउडर  के रूप में भी इस का इस्तेमाल हो सकता है. यदि करी या सूप में इस का इस्तेमाल लहसुन, धनिया व मिर्च के साथ किया जाए, तो बहुत अचछा स्वाद आता है.

जिस परफ्यूम, साबुन या क्रीम में लेमनग्रास तेल का इस्तेमाल होता है, उस के फ्लेवर से चुस्ती आ जाती है. चीन के लोग लेमनग्रास का इस्तेमाल कई तरह की बीमारियों (जैसे सिरदर्द व पेटदर्द आदि) के इलाज के लिए करते हैं. इस में कुछ ऐसे गुण भी होते हैं, जो मुंहासे ठीक करने में कारगर होते हैं. यह ब्लड प्रेशर भी कम करती है.

इस्तेमाल

नीबूघास के तेल का इस्तेमाल खासतौर पर साबुन, बालों के तेल व इत्र बनाने में किया जाता है. इस में जीवाणु प्रतिरोधी खासीयत भी मौजूद होती है. इस तेल का इस्तेमाल कुछ मछलियों के स्वाद में सुधार के लिए भी किया जाता है. इस का इस्तेमाल सिरदर्द और दांतदर्द से राहत पाने के लिए भी किया जाता है.

मिट्टी

नीबूघास कई किस्म की मिट्टियों में लगाई जा सकती है. रेतीली दोमट लाल मिट्टी में इसे लगाने के लिए अच्छी खाद की जरूरत होती है. केलकरियस और जलमग्न मिट्टी इस की खेती के लिए सही नहीं हैं.

जलवायु

इस के लिए गरम आर्द्र मौसम जिस में काफी धूप निकलती है, मुफीद रहता है. उन क्षेत्रों में जहां बारिश कम होती है, वहां सिंचाई से इसे उगाया जा सकता है. यह पहाड़ी और भारी वर्षा वाले स्थानों में जल्दी बढ़ती है और ज्यादा बार काटी जा सकती है.

नीबूघास (Lemongrass)

किस्में

सुगंधी, प्रगति, प्रमाण, पीआरएल 16, सीकेपी 25, ओडी 408, आरआरएल 39, कावेरी व कृष्णा वगैरह इस की खास किस्में हैं. नीबूघास की कृष्णा व सिम शिखर प्रजातियों से दूसरी प्रजातियों की तुलना में 20 से 30 फीसदी ज्यादा तेल निकलता है और प्रति हेक्टेयर 20 से 25 फीसदी लागत भी कम आती है.

नर्सरी तैयार करना

इस के बीज हाथों से अच्छी तरह से तैयार की गई नर्सरी में बोए जाते हैं. 10 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल किए जाते हैं. बीज 5-6 दिनों में अंकुरित हो जाते हैं. जब पौधे 60 दिन पुराने हो जाते हैं, तब उन की रोपाई की जाती है.

रोपाई

इस की रोपाई मई के अंत में या जून के पहले हफ्ते में की जाती है. वैसे सिंचित हालात में रोपाई का काम अक्तूबरनवंबर महीनों को छोड़ कर कभी भी किया जा सकता है. रोपाई से पहले खेत को अच्छी तरह तैयार किया जाता है और 6×6 मीटर आकार की क्यारियां बनाई जाती हैं. 1 एकड़ में 2000 पौधे लगाए जा सकते हैं.

उर्वरक

नीबूघास की खेती में प्रति हेक्टेयर 450 किलोग्राम नाइट्रोजन, 100 किलोग्राम फास्फोरस व 125 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल किया जाता है. रोपाई से पहले मिट्टी में फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा मिला दी जाती है. नाइट्रोजन का इस्तेमाल उसे 6 बराबर हिस्सों में बांट कर किया जाता है. पहला हिस्सा रोपाई के समय और दूसरा हिस्सा 1 महीने बाद दिया जाता है. इस के बाद हर कटाई के बाद नाइट्रोजन के बचे हिस्से बारीबारी से दिए जाते हैं. गोबर की खाद का इस्तेमाल भी इस के लिए फायदेमंद होता है.

सिंचाई व निराईगुड़ाई

भरपूर बारिश होने पर सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. अगर रोपाई के बाद बारिश नहीं होती है, तो करीब 1 महीने तक खेत की नियमित रूप से 1 दिन छोड़ कर सिंचाई करनी चाहिए. इस के बाद हफ्ते में 1 बार सिंचाई की जाती है.

नीबूघास की खेती में निराईगुड़ाई की बहुत अहमियत होती है. इस से उपज और मिट्टी की गुणवत्ता प्रभावित होती है. आमतौर पर 1 साल में 2 से 3 बार निराईगुड़ाई करना जरूरी है. खेत को तब तक खरपतवारों से बचा कर रखना चाहिए, जब तक कि पूरी फसल हासिल न हो जाए.

नीबूघास (Lemongrass)पौध सुरक्षा

इस फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े और रोग अभी तक देखने में नहीं आए हैं, पर कहींकहीं पर चिलोवेए कीट का संक्रमण पाया गया है. यह कीट सफेद रंग का होता है और उस के शरीर पर काले धब्बे होते हैं. यह कीट लेमनग्रास के तने में शूट पर हमला करता है. हमले से पत्तियां सूख जाती हैं और शूट मर जाता है, नतीजतन उपज में कमी हो जाती है.

रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा गौमूत्र के साथ मिला कर छिड़काव करना चाहिए.

कटाई, प्रसंस्करण व उपज

जमीन की सतह से 10 सेंटीमीटर ऊपर की घास को काटा जाता है. पहली कटाई रोपाई के करीब 90 दिनों बाद की जाती है. इस के बाद 50-60 दिनों के अंतराल पर कटाई की जाती है. तोड़ी गई पत्तियों को छत के नीचे 3 दिनों के लिए रखा जा सकता है. इस से पैदावार या तेल की गुणवत्ता पर कोई खराब असर नहीं पड़ता है. आसवान से पहले पत्तियों को छोटेछोटे टुकड़ों में काटा जाता है.

1 एकड़ में नीबूघास की खेती से हर साल 80 किलोग्राम तेल निकलता है. नीबूघास के तेल की कीमत करीब 750 रुपए प्रति किलोग्राम होती है.

केंद्रीय औषधीय एवं सगंध संस्थान (सीमैप) नीबूघास की खेती के लिए किसानों की मदद करता है और उन्हें पौध भी मुहैया कराता है. नीबूघास की फसल ऊसर जमीन में भी तैयार हो जाती है. इसे 1 बार लगाने के बाद 4-5 सालों तक कटाई की जा सकती है.

ईसबगोल (Isabgol) की जैविक खेती

ईसबगोल एक महत्त्वपूर्ण नकदी व औषधीय फसल है. ईसबगोल को स्थानीय भाषा में घोड़ा जीरा भी कहते हैं. विश्व की कुल पैदावार की 80 फीसदी ईसबगोल की पैदावार भारत में होती है. इस की खेती मुख्य रूप से राजस्थान व गुजरात में की जाती है. ईसबगोल को मुख्यतया दानों के लिए उगाया जाता है, पर इस का कीमती भाग इस के दानों पर पाई जाने वाली भूसी है, जिस की मात्रा बीज के भार की 27-30 फीसदी तक होती है.

इस के भूसी रहित बीजों का इस्तेमाल पशुओं व मुरगियों के लिए आहार बनाने में किया जाता है. ईसबगोल का इस्तेमाल आयुर्वेदिक, यूनानी व एलोपैथिक इलाजों में किया जाता है. इस के अलावा इस का इस्तेमाल रंगाईछपाई, आईस्क्रीम, ब्रेड, चाकलेट, गोंद और सौंदर्य प्रसाधन उद्योगों में भी होता है.

उन्नत किस्में

आरआई 89 : यह किस्म राजस्थान की पहली उन्नत किस्म है. इस के पौधों की ऊंचाई 30-40 सेंटीमीटर होती है. यह 110-115 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरआई 1 : सूखे व कम सूखे इलाकों के लिए मुनासिब इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 29-47 सेंटीमीटर होती है. यह 115-120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 12-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

जलवायु व जमीन

ईसबगोल के लिए ठंडी व शुष्क जलवायु अच्छी मानी जाती है. बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए 20-25 डिगरी सेल्सियस के बीच का तापमान अच्छा माना जाता है. इस के पकने की अवस्था पर साफ, सूखा व धूप वाला मौसम बहुत अच्छा रहता है.पकाव के समय बारिश होने पर इस के बीज सड़ने लगते हैं और बीजों का छिलका फूल जाता है. इस से इस की पैदावार व गुणवत्ता में कमी आ जाती है. इस की खेती के लिए दोमट, बलुई मिट्टी जिस में जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो, अच्छी रहती है.

खेत की तैयारी

खरीफ फसल की कटाई के बाद खेत की 2-3 बार जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी बनाएं और फसल से ज्यादा पैदावार लेने के लिए 5-6 टन अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद या 3 टन सड़ी देशी खाद व फसल के अवशेष 3 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं. जैव उर्वरकों के रूप में 5 किलोग्राम पीएसबी व 5 किलोग्राम एजोटोबेक्टर प्रति हेक्टेयर की दर से 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद में मिला कर खेत में डालें.

बीज दर व बोआई

ईसबगोल का बीज बहुत छोटा होता है. इसे क्यारियों में छिटक कर मिट्टी में मिलाना चाहिए. इस के फौरन बाद सिंचाई कर देनी चाहिए. इस प्रकार छिटक कर बोआई करने के लिए 4-5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार : ईसबगोल की जैविक खेती के तहत फसल को तुलासिया रोग से बचाने के लिए बीजों में नीम, धतूरा व आक की सूखी मिश्रित पत्तियों (1:1:1) से बना पाउडर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से मिलाएं.

ईसबगोल (Isabgol)

खरपतवारों की रोकथाम

ईसबगोल में 2 निराइयों की जरूरत होती है. पहली निराई बोआई के करीब 20 दिनों बाद व दूसरी निराई 40-45 दिनों बाद कर के फसल को खरपतवारों से बचाएं. इस से तुलासिया रोग का हमला भी कम होता है.

सिंचाई

ईसबगोल में बोआई के समय, उस के 8 दिनों, 30 दिनों व 65 दिनों बाद सिंचाई करने से अच्छी उपज हासिल होती है. ईसबगोल की फसल में क्यारी विधि की बजाय फव्वारा विधि द्वारा 6 सिंचाइयां (बोआई के समय और 8, 20, 40, 55 व 70 दिनों बाद) करने से अच्छी उपज मिलती है.

कीट व रोग

रोगग्रस्त फसल के अवशेषों को खेत से बाहर कर के नष्ट कर देना चाहिए. गरमी में गहरी जुताई कर के खेत खाली छोड़ें. फसलचक्र अपनाएं यानी बारबार एक ही खेत में ईसबगोल की खेती न करें. स्वस्थ, प्रमाणित व रोगरोधी किस्मों का चयन करें. खेत में इस्तेमाल की जाने वाली गोबर की खाद अच्छी तरह से सड़ी हुई होनी चाहिए. खेत में ट्राइकोडर्मा कल्चर 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिलाएं. ईसबगोल की जैविक खेती में नीम, धतूरा, आक की सूखी पत्तियों के पाउडर को 1:1:1 अनुपात में मिला कर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें. फसल को रोगों व मोयले से बचाने के लिए 12 पीले चिपचिपे पाश प्रति हेक्टेयर लगाएं. दीमक से बचाव के लिए जमीन में बेवेरिया बेसियाना या मोटाराइजियम (मित्र फफूंद) 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाएं. पर्णीय छिड़काव के रूप में नीम की पत्तियों का अर्क, धतूरा (10 फीसदी) व गौमूत्र (10 फीसदी) का इस्तेमाल मृदरोमिल आसिता और मोयले की रोकथाम के लिए करें. जरूरत के मुताबिक दोबारा छिड़काव करें.

कटाई, मड़ाई व ओसाई

ईसबगोल में 25 से 125 तक कल्ले निकलते हैं. पौधों में 60 दिनों बाद बालियां निकलना शुरू होती हैं. करीब 115-130 दिनों में फसल पक कर तैयार हो जाती है. फसल पकने पर सुनहरी पीली बालियां गुलाबीभूरी हो जाती हैं और बालियों को दबाने पर दाने बाहर आ जाते हैं. फसल के पूरी तरह पकने के 1-2 दिनों पहले ही फसल को काट लेना चाहिए. कटाई सुबह के समय करें, जिस से बीजों के बिखरने का डर न रहे. कटी हुई फसल को 2-3 दिनों खलिहान में सुखा कर जीरे की तरह झड़का लें व निकले हुए बीजों की सफाई कर के व सुखा कर बोरियों में भर कर सूखी व ठंडी जगह पर भंडारण करें.

उपज व उपयोगी भाग

ईसबगोल की औसत उपज 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस की भूसी की मात्रा बीज के भार की 30 फीसदी होती है, जो सब से कीमती व उपयोगी भाग है. बाकी 65 फीसदी गोली, 3 फीसदी खली और 2 फीसदी खारी होती है. भूसी के अलावा सभी भाग जानवरों को खिलाने के काम आते हैं.

बड़े काम का पौधा जोजोबा (Jojoba)

पानी का दिनोंदिन गिरता लैवल और घटती क्वालिटी किसानों के लिए परेशानी का सब से बड़ा सबब है. ऐसे में एक प्रगतिशील किसान राकेश रमन कुक्कड़ ने पश्चिमी राजस्थान के बीकानेर जिले में जोजोबा की खेती कर के किसानों के लिए नई राह खोली है.

राकेश रमन कुक्कड़ को उन के प्रयासों के लिए जिला प्रशासन, बीकानेर द्वारा साल 2017 में सम्मानित भी किया गया. पानी की कमी से जूझता राजस्थान का उत्तर पूर्वी और उत्तर पश्चिमी इलाका जोजोबा की खेती के सभी मापदंडों पर खरा उतरता है.

जोजोबा एक ऐसा पौधा है जिस के बीजों से तेल निकाला जाता है जो सौंदर्य प्रसाधन में इस्तेमाल होता है. जोजोबा के पौधों के बारे में राकेश रमन कुक्कड़ से हुई बातचीत के कुछ खास अंश:

आप को जोजोबा की खेती करने का खयाल कैसे आया?

साल 1992 में भारत में जोजोबा की खेती को बढ़ावा देने के लिए राजस्थान सरकार ने काजरी यानी सैंट्रल एरिड जोन रिसर्च इंस्टीट्यूट के सहयोग से जोधपुर में एक कार्यशाला आयोजित की थी. वहां मैं ने भी हिस्सा लिया था. लेकिन तब मैं ने इस के प्रति ज्यादा रुचि नहीं ली थी. उस के बाद एजोर्प यानी एसोसिएशन औफ दी राजस्थान जोजोबा प्लांटेशन ऐंड रिसर्च प्रोजैक्ट के मार्गदर्शन और तकनीकी सहयोग से मैं ने साल 2006 में बीकानेर के नजदीक स्थित झझू गांव में अपने फार्महाउस पर इस की उन्नत खेती की शुरुआत की. यह पूरी तरह से ड्रिप इरिगेशन यानी बूंदबूंद सिंचाई तकनीक पर आधारित थी.

Jojoba

इस के पौधे के बारे में कुछ बताइए?

जोजोबा या होहोबा एक झाड़ीनुमा शुष्क जलवायु का पौधा है. यह रेतीली मिट्टी में उगाया जा सकता है लेकिन इसे कंकरीली या पथरीली मिट्टी में भी उगाया जा सकता है. इस की उम्र 150 साल होती है.

यह पौधा 3 डिगरी से ले कर 54 डिगरी सैल्शियस तक का तापमान सहने की क्षमता रखता है. मिट्टी का पीएच मान 6 से 8 इस की खेती के लिए सही है.

यह एकलिंगीय पौधा है यानी इस में नर और मादा के फूल अलगअलग पौधों पर आते हैं. मादा फूल दिसंबर से जनवरी में खिलते हैं और मई के आखिरी हफ्ते से जून के पहले हफ्ते तक बीज तैयार हो जाते हैं.

क्या जोजोबा के पौधों को इन की शुरुआती अवस्था या बाद में भी किसी खास देखभाल की जरूरत होती है?

यों तो इसे ज्यादा देखभाल की जरूरत नहीं होती क्योंकि इस के पौधों में किसी भी तरह की कोई बीमारी नहीं लगती और न ही कीटपतंगे लगते हैं.

लेकिन ध्यान रहे कि खेत में खरपतवार न हों क्योंकि इस से सूंड़ी और दीमक का प्रकोप हो सकता है. इस के लिए खरपतवार और पौधों पर फेनवलरेट 20 मिलीलिटर प्रति 16 लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए या फेनवैल डस्ट 0.4 या क्विनालफास डस्ट 1.5 फीसदी का छिड़काव 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डस्टर से करना चाहिए.

क्या इस की खेती को बढ़ावा देने के लिए किसी सरकारी अनुदान की भी व्यवस्था है?

जी हां. पहले जोजोबा पौधारोपण पर उद्यान विभाग द्वारा केवल 4 हेक्टेयर पर अनुदान दिया जा रहा था, लेकिन साल 2014-15 से कृषि (विस्तार) विभाग, राजस्थान द्वारा वृक्षजनित तिलहन पौधारोपण योजना के तहत जोजोबा पौधारोपण पर असीमित इलाके के लिए अनुदान दिया जा रहा है.

अगर पेड़ों की तादाद 1,513 प्रति हेक्टेयर है तो अनुदान की राशि 35,000 रुपए प्रति हेक्टेयर है. इस के अलावा ड्रिप सिस्टम पर निर्धारित मापदंडों के मुताबिक अलग से सहायता भी देय होगी.

आप ने कितनी जमीन पर इस की काश्त शुरू की?

बीकानेर जिले में झझू और किलचू में हमारे 2 फार्महाउस हैं. यहां 25 हेक्टेयर जमीन पर हम ने जोजोबा की खेती की है. किलचू स्थित फार्महाउस पर हम ने अति उन्नत किस्म की पौध तैयार करने के लिए नर्सरी भी बनाई है. किसान भाई यहां से इस के पौधे हासिल कर सकते हैं. यहीं हम ने जोजोबा के बीजों से तेल निकालने का प्लांट भी लगाया है.

आप एक संपन्न किसान हैं. क्या एक मध्यम या औसत दर्जे का किसान भी जोजोबा की खेती से फायदा उठा सकता है?

जी हां. बिलकुल फायदा उठा सकता है. अगर किसी किसान के पास 2 बीघा जमीन भी है तो उसे सभी सरकारी अनुदानों का फायदा मिलेगा. इन के बीजों को वह हमजैसे किसानों को बेच सकता है.

क्या आप जोजोबा की खेती से होने वाले अनुमानित फायदे की गणना हमारे किसान भाइयों के साथ साझा करेंगे?

जोजोबा के बीजों से तेल निकाला जाता है. इस का इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली कंपनियां करती हैं. किसान जोजोबा के बीज उन्हें सीधे या फिर संगठन के जरीए भी बेच सकते हैं.

किसान चाहें तो खुद भी तेल का उत्पादन कर बेच सकते हैं लेकिन यह अपेक्षाकृत थोड़ा महंगा होता है.

अगर प्रति बीघा 5,896 पौधे लगाए जाएं तो चौथे साल से तकरीबन 6,637 रुपए प्रति बीघा आमदनी शुरू होती है जो 10वें साल तक आतेआते 1,65,825 रुपए प्रति बीघा तक पहुंच जाती है.

यह गणना एजोर्प द्वारा पिछले 5 सालों में घोषित बीजों के समर्थन मूल्य और बीज के बाजार भाव के औसत मूल्य को आधार मान कर की गई है.

यह पौधा 4 साल बाद फलना शुरू होता है. क्या इस बीच किसान को कोई दूसरी आमदनी हासिल नहीं होगी?

इस समय में और इस के बाद भी कतारों के बीच बारिश से होने वाली फसलों में ग्वार, मोंठ और तारामीरा वगैरह और सिंचाई से होने वाली फसलों में चना, मूंगफली व सब्जियों की पैदावार ली जा सकती है.

इस दौरान बाजरा और सरसों की फसल नहीं करनी चाहिए. अंतरकाश्त फसलों की सिंचाई भी स्प्रिंकलर या ड्रिप तकनीक से की जानी चाहिए.

आप अपने उत्पादों यानी बीजों और तेल वगैरह को कहां सप्लाई करते हैं?

राजस्थान के अलावा हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, ओडिशा, आंध्र प्रदेश वगैरह राज्यों में भी जोजोबा की खेती की जाती है. हम अपनी नर्सरी में तैयार पौधे इन राज्यों के किसानों को मुहैया कराते हैं. इस के बीज और तेल विभिन्न सौंदर्य उत्पाद बनाने वाली कंपनियों जैसे लोरियल, डाबर, इमामी, आईटीसी वगैरह को सप्लाई करते हैं. विदेशों में यूरोप और अमेरिका में भी निर्यात करते हैं.

ज्यादा जानकारी के लिए आप राकेश रमन कुक्कड़ से उन के मोबाइल फोन नंबर 9414139811 पर संपर्क कर सकते हैं.

लैमन ग्रास (Lemon Grass) की खेती से बढ़ाएं आमदनी

लैमन मारे देश में लैमन ग्रास की खेती अपनेआप में कई तरह की खूबियों को समेटे हुए है. इस की खेती की सब से बड़ी खूबी यह है कि यह ऐसी जगहों पर भी उगाई जा सकती है, जहां सूखा पड़ता है.

दुनिया की एक बड़ी आबादी लैमन टी पीने लगी है, लेकिन लैमन ग्रास औयल का सब से ज्यादा इस्तेमाल परफ्यूम और कौस्मैटिक उद्योग में होता है. एंटीऔक्सीडैंट का सब से बेहतर जरीया लैमन ग्रास में विटामिन सी की भारी मात्रा में होता है.

लैमन ग्रास की वर्तमान समय में तेजी से मांग बढ़ती जा रही है, क्योंकि लैमन ग्रास का सब से ज्यादा इस्तेमाल परफ्यूम में होता है. इस के अलावा तेल, डिटर्जैंट, वाशिंग पाउडर, हेयर औयल, मच्छर लोशन, कास्मैटिक, सिरदर्द की दवा समेत कई प्रोडक्ट में इस का इस्तेमाल किया जा रहा है.

जैसेजैसे ये इंडस्ट्री बढ़ रही है, लैमन ग्रास की भी मांग बढ़ी है इसलिए किसानों के लिए यह फायदे की खेती बनती जा रही है. किसानों की आमदनी बढ़ाने की कवायद में जुटी सरकार पूरे देश में ‘एरोमा मिशन’ के तहत इस की खेती को बढ़ावा भी दे रही है.

लैमन ग्रास की खूबी यह भी है कि इसे सूखा प्रभावित इलाकों में भी लगाया जा सकता है. लैमन ग्रास को नीबू घास, मालाबार या कोचिन घास भी कहते हैं.

लैमन ग्रास की पेराई

देश में तकरीबन 700 टन सालाना लैमन ग्रास के तेल का उत्पादन किया जा रहा है. इस के उत्पादन का एक बड़ा भाग बाहर के देशों में भी भेज दिया जाता है.

भारत से निर्यात होने वाले लैमन ग्रास तेल की विशेषता यह है कि किट्रल की उच्च गुणवत्ता के चलते इस की मांग हमेशा बनी रहती है. इस का सीधा सा मतलब है कि किसानों को दूसरी फसलों के मुकाबले ज्यादा आमदनी हो रही है.

केंद्र सरकार पहले ही किसानों की आमदनी को साल 2022 तक दोगुना करने का वादा कर चुकी है, अब इसी कवायद में भारत सरकार ‘एरोमा मिशन’ के तहत जिन औषधीय पौधों की खेती का रकबा बढ़ा रही है, उस में से एक लैमन ग्रास भी है.

लैमन ग्रास की खेती सूखा प्रभावित इलाकों जैसे मराठवाड़ा, विदर्भ और बुंदेलखंड तक में की जा रही है. गरीब किसानों को इस की खेती करने में थोड़ी परेशानी जरूर आएगी, क्योंकि लैमन ग्रास की फसल करने में खर्चा काफी आता है. इसे हर किसान बरदाश्त नहीं कर सकता. अगर फायदे की बात करें तो दूसरी फसलों की अपेक्षा यह काफी फायदेमंद है.

सीमैप के गुणाभाग और शोध के मुताबिक, 1 हेक्टेयर खेत में लैमन ग्रास की खेती करने पर शुरू में तकरीबन 30,000 से 40,000 रुपए की लागत आती है. एक बार फसल लगने के बाद साल में 3 से 4 कटाई ली जा सकती हैं, जिस से तकरीबन 100-150 लिटर तेल निकलता है.

इस तरह से 1 लाख से डेढ़ लाख रुपए तक आमदनी हो सकती है. खर्चा निकालने के बाद 1 हेक्टेयर खेत में किसान को हर साल 70,000 से 1 लाख रुपए तक का खालिस मुनाफा हो सकता है. लैमन ग्रास की मैंथा और खस की तरह पेराई की जाती है. इस का पेराई संयंत्र यानी फ्लोर भी तकरीबन एकजैसा ही होता है.

नर्सरी और रोपाई

अगर नर्सरी तैयार कर के खेतों में लगाएं, तब इस में खर्च कम आता है. लैमन ग्रास की जड़ लगाई जाती हैं. इस के लिए पहले नर्सरी तैयार की जाती है. अप्रैल से मई तक इस की नर्सरी तैयार की जाती है.

1 हेक्टेयर खेत की नर्सरी के लिए तकरीबन 10 किलोग्राम बीज की जरूरत होगी. 55-60 दिन में नर्सरी रोपाई के लिए तैयार हो जाती है. जुलाईअगस्त में तैयार नर्सरी (जड़ समेत एक पत्ती) को कतार में 2-2 फुट की दूरी पर लगाना चाहिए.

निराईगुड़ाई

लैमन ग्रास हर तरह की मिट्टी में उगाई जा सकती है. किसानों को चाहिए कि वे इस में कैमिकल खाद के बजाय गोबर की सड़ी हुई खाद और लकड़ी की राख डालें. इस से फायदा ज्यादा होगा.

आमतौर पर यह माना जाता है कि फसल तैयार करने में निराईगुड़ाई काफी करनी पड़ती है, जिस से किसानों का बजट गड़बड़ा जाता है. लेकिन लैमन ग्रास में ज्यादा निराईगुड़ाई की जरूरत नहीं होती. इस में सिर्फ साल में 2 से 3 निराईगुड़ाई सही होती हैं. कुछ ज्यादा ही सूखा इलाका हो तब पूरे साल में 8 से 10 सिंचाई की जरूरत होगी, वरना कम ही सिंचाई की जरूरत पड़ती है.

लैमन ग्रास (Lemon Grass)

कई चीजों में इस्तेमाल

लैमन ग्रास का तेल परफ्यूम या क्रीम वगैरह में इस्तेमाल होता है. इस्तेमाल करने वाले को उस के इस्तेमाल से ताजगी का एहसास होता है. इसे सिरदर्द, पेटदर्द में इस्तेमाल किया जाता है. यह तेल मुंहासे ठीक करने में काम आता है.

भारत में सर्दीजुकाम के दौरान काफी लोग इस का काढ़ा बना कर पीते हैं. किसानों के लिए राहत की बात यह है कि इस फसल में कीटपतंगे नहीं लगते हैं, लेकिन अगर किसी रोग के लक्षण दिखें तो नीम की पत्तियों को गोमूत्र में मिला कर छिड़काव कर के बचाव किया जा सकता है.

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक समेत कई राज्यों में इस की बड़े पैमाने पर खेती हो रही है.

लैमन ग्रास का तेल

लैमन ग्रास तेल का सब से ज्यादा इस्तेमाल परफ्यूम उद्योग में किया जाता है. इस के साथ ही इस का तेल डिटर्जैंट, वाशिंग पाउडर, हेयर औयल, मच्छर लोशन, कौस्मैटिक, सिरदर्द व पेटदर्द की दवा समेत कई प्रोडक्ट में इस्तेमाल हो रहा है. इस की खेती से किसानों को काफी फायदा मिल रहा है. यही वजह है कि जो किसान इस की खेती कर रहे हैं, वे साल में लाखों रुपए आसानी से कमा लेते हैं.

मसाला की मिश्रित खेती (Mixed farming of spices) : फायदे का सौदा

आज खेती के मौडर्न तरीकों से जहां किसान बढ़ती लागत और कुदरती प्रकोप के चलते खेती को फायदे का सौदा नहीं बना पा रहे हैं, वहीं कुछ किसान ऐसे भी हैं, जो अपने नवाचारों से सीमित जमीन पर मसाला जिंसों की मिश्रित खेती कर के सालाना अच्छी आमदनी ले रहे हैं.

नरसिंहपुर जिले की करेली तहसील में गांव रांकई पिपरिया के एक किसान जोगेंद्र किशोर द्विवेदी अदरक, धनिया, मिर्च, हलदी वगैरह की उन्नत खेती कर के क्षेत्र में किसानों के लिए एक जीतीजागती मिसाल बन गए हैं.

काफी पढ़ेलिखे जोगेंद्र किशोर द्विवेदी गांव के प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं, पर खेतीकिसानी की पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते स्कूल के बाद का समय वे खेतीकिसानी में लगाते हैं.

परंपरागत खेती से हट कर उन्होंने गन्ने के साथ सोयाबीन और राजमा की मिश्रित फसल का इस्तेमाल किया है. वहीं अदरक का रिकौर्ड उत्पादन कर गांव वालों को एक नई राह दिखाने के साथ अपनी आमदनी भी बढ़ाई है.

कैसे करें अदरक की खेती

अपने खेत से निकले अदरक को 1-1 इंच के छोटेछोटे टुकड़ों में इस तरह काटते हैं कि प्रत्येक टुकड़े में 2-3 आंखें हों. इन्हीं आंखों में से अदरक का अंकुरण होता है. अदरक के टुकड़ों को धूप में सुखा कर रखते हैं.

खेत को अच्छी तरह तैयार कर मिट्टी में नीम के पाउडर का इस्तेमाल करते हैं, इस से अदरक की गठानों में कीट रोग का हमला नहीं हो पाता.

अदरक के सूखे हुए टुकड़ों को अच्छी तरह से तैयार खेत में अप्रैल के आखिर या मई के शुरू में बो दिया जाता है. अदरक बोने के लिए बनाई गई क्यारी में 25 सैंटीमीटर के अंतर से इन्हें बोया जाता है. क्यारी से क्यारी की दूरी 75 सैंटीमीटर रखें.

अदरक बोने के तुरंत बाद ही सिंचाई कर दी जाती है, जिस से अदरक के साथ मिट्टी अच्छी तरह से सेट हो जाए. प्रत्येक 5 से 7 दिन के अंतर पर अदरक की क्यारियों में सिंचाई की जाती है.

उन का कहना है कि गेहूं, चना या दूसरी फसल के स्थान पर मसाला जिंसों की खेती से ज्यादा फायदा मिल जाता है.

प्रगतिशील किसान जोगेंद्र किशोर द्विवेदी अपने खेत पर केंचुआ खाद, वर्मी कंपोस्ट, वर्मी वाश तैयार कर के उन का इस्तेमाल अपने खेतों में लगी इन्हीं मसाला फसलों पर करते हैं. साथ ही, खेती की नईनई तकनीक जानने के लिए यूट्यूब, गूगल के अलावा तमाम खेतीकिसानी से संबंधित कृषि पत्रिकाएं पढ़ते हैं.

उन का कहना है कि आने वाले समय में वे हलदी, मिर्च और धनिया के साथ अदरक की प्रोसैसिंग कर खुद का ब्रांड बाजार में लाना चाहते हैं. इस के लिए शुरुआती तैयारी चल रही है. मसाला जिंसों की प्रोसैसिंग कर के वे लोगों की रसोई में ही सीधे मसाले पहुंचाने का काम करने जा रहे हैं.