मुरगीपालन (Poultry Farming) व्यवसाय की सीखी बारीकियां

जयपुर: राष्ट्रीय कृषि विकास योजना एवं अखिल भारतीय कृषिरत महिला अनुसंधान परियोजना के संयुक्त तत्वावधान में झाड़ोल व फलासिया के स्वयं सहायता समूहों की 30 महिलाओं एवं गुडली के 40 किसान परिवारों के लिए मुरगीपालन (Poultry Farming) व्यवसाय का दोदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम राजस्थान कृषि महाविद्यालय में आयोजित किया गया.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजनांतर्गत 10 महिला समूहों के गठन के साथ ही उन्हें कृषि संबंधित विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षित करने का लक्ष्य है. इस के लिए झाड़ोल व फलासिया में 10 महिला स्वयं सहायता समूहों का गठन किया गया है.

Poultry Farming

परियोजना प्रभारी डा. विशाखा बंसल ने बताया कि इन 2 दिनों में महिलाओं को मुरगीपालन व्यवसाय की तमाम बारीकियां सिखाई गईं जैसे कि मुरगियों को दाना कब और कैसे देना, मुरगियों का बाड़ा तैयार करना, टीकाकरण, अंडे एकत्रित करना आदि.

प्रशिक्षण में डा. गजानंद, डा. सुभाष, डा. डीपीएस डूडी, देवीलाल मेघवाल, डा. केसराम, डा. मनोज आदि ने मुरगीपालन की विस्तृत जानकारी दी. प्रशिक्षण में स्वयं सहायता समूहों को आय संवर्धन से जोड़ कर स्वावलंबी बनाने पर विशेष जोर दिया गया. प्रशिक्षण कार्यक्रम में कार्तिक सालवी, डा. कुसुम शर्मा व अनुष्का तिवारी ने महिलाओं को पशुपालन इकाई का भ्रमण करवाया.

एलोवेरा (Aloe Vera) से आमदनी

Aloe Vera एलोवेरा एक अफ्रीकी वनस्पति है. इस का वैज्ञानिक नाम एलो वार्बाडेंसिस है. यह देश के अलगअलग हिस्सों में अलगअलग नामों से जाना जाता है. इसे घृतकुमारी, घीकुंवार, ग्वारपाठा, कुमारी और एलोय सहित कुछ अन्य नामों से भी जानते हैं. शुरुआत में लोग इसे अनउपयोगी जमीनों पर लगाते थे, मगर अब इस की व्यावसायिक खेती जोर पकड़ चुकी है. एलोवेरा (Aloe Vera) की व्यावसायिक खेती का दायरा

बढ़ने की खास वजह इस का औषधीय महत्त्व है. एलोवेरा (Aloe Vera) को किसानों से बहुराष्ट्रीय कंपनियां ऊंची कीमत पर खरीद रही हैं.

तमाम आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं में इसे मुख्य रूप से इस्तेमाल किया जाता है. इस का इस्तेमाल चेहरे को चमकदार बनाने के अलावा पेट के रोगों, आंखों के रोगों और त्वचा के रोगों को ठीक करने में किया जाता है. इसे सौंदर्य प्रसाधन सामग्रियां बनाने में भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है.

कैसा होता है एलोवेरा (Aloe Vera): एलोवेरा छोटे तने और मांसल पत्तियों वाला तकरीबन 1 मीटर तक का पौधा होता है. पत्तियों की नसों पर कांटे पाए जाते हैं. इस में लाल और पीले रंग के फूल आते हैं.

कैसी हो मिट्टी : अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 8.5 के बीच हो इस की खेती के लिए बेहतर होती है. वैसे इस की खेती चट्टानी, रेतीली, पथरीली समेत किसी भी तरह की जमीन में की जा सकती है.

कैसी हो आबोहवा : गरम और शुष्क जलवायु एलोवेरा (Aloe Vera) की खेती के लिए सही होती है. जहां पर कम बारिश होती है और अधिक तापमान बरकरार रहता है, वहां भी इस की खेती आसानी से की जा सकती है.

रोपाई का समय : जहां पर सिंचाई की सुविधा मौजूद हो, वहां बरसात खत्म होने के बाद दिसंबर जनवरी व मईजून छोड़ कर कभी भी इस की रोपाई कर सकते हैं.

खेत की तैयारी : सब से पहले खेत को समतल कर लें. फिर 2 बार जुताई करने के बाद पाटा लगा कर ऊपर उठी हुई क्यारियां बना कर रोपाई करें.

प्रजाति : अपने इलाके के मुताबिक प्रजाति का ही चयन करें. इस के लिए आप जिला उद्यान कार्यालय या कृषि विज्ञान केंद्र के उद्यान विशेषज्ञ से मिल सकते हैं. वैसे केंद्रीय औषधि और सगंध पौध संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने सिम सीतल नाम की उन्नत प्रजाति विकसित की है, जिसे लगा सकते हैं.

रोपाई : 50 सेंटीमीटर लाइन से लाइन और 40 सेंटीमीटर पौध से की दूरी रखते हुए रोपाई करें.

खाद और उर्वरक : अच्छी पैदावार के लिए 5-10 टन खूब सड़ी हुई गोबर की खाद, वर्मी कंपोस्ट या कंपोस्ट का प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना चाहिए. इस के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश का प्रति हेक्टेयर हर साल इस्तेमाल करना चाहिए. नाइट्रोजन की मात्रा को 3 बार में दिया जाना चाहिए.

सिंचाई: रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई करना बहुत जरूरी है. इस के बाद जरूरत के मुताबिक सिंचाई करनी चाहिए. वैसे बीचबीच सिंचाई करने से फसल की बढ़वार कई गुना बढ़ जाती है.

देखभाल : कुछ समस्याओं के अलावा एलोवेरा (Aloe Vera) में कीड़ों और बीमारियों का कोई खास प्रकोप नहीं होता है. कई बार देखने में आता है कि बरसात के मौसम में पत्तियों पर फफूंद जनित सड़न और धब्बे पड़ जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए मैंकोजेब की 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए. कई बार जमीन के अंदर तने और जड़ों को ग्रब कुतरकुतर कर नुकसान पहुंचाते रहते हैं. इस की रोकथाम के लिए 60-70 किलोग्राम नीम की खली प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए.

Aloe Vera

कटाई : तकरीबन 10-12 महीने बाद इस की पत्तियां कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं. बढ़त के मुताबिक नीचे की 2-3 पत्तियों की कटाई पहले करनी चाहिए. तकरीबन 2 महीने के बाद से परिपक्व हो चुकी 3-4 पत्तियों की कटाई करते रहना चाहिए.

उपज : एलोवेरा (Aloe Vera) की 50-60 टन ताजी पत्तियां प्रति हेक्टेयर हासिल हाती हैं, जिन से 35-40 फीसदी तक उपयोगी रस (बार्वेलोइन रहित) मिल जाता है. यदि इसे दूसरे साल के लिए भी छोड़ दिया जाए तो उत्पादन में 10-15 फीसदी की बढ़ोतरी पाई जाती है. वैसे असिंचित दशा में उत्पादन थोड़ा कम मिलता है.

भंडारण : ताजी पत्तियों को कम तापमान में 1-2 दिनों तक रखा जा सकता है.

मुनाफा : एलोवेरा (Aloe Vera) की खेती से होने वाली आय बाजार की समझ, मूल्य और खरीदार पर निर्भर होती है. फिर भी मोटे तौर पर इस से 1.5 लाख से 3 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर सालाना कमाए जा सकते हैं. इस की खेती करने से पहले मार्केटिंग के बारे में गहराई से जानकारी हासिल कर लेनी चाहिए, ताकि बिक्री के लिए भटकना न पड़े और वाजिब कीमत भी मिल सके.

Agricultural Science Fair: दिल्ली में तीनदिवसीय पूसा कृषि विज्ञान मेला

22 फरवरी, 2025 को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई), नई दिल्ली द्वारा आयोजित तीनदिवसीय “पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025” का उद्घाटन केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किया. इस अवसर पर उन्होंने केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण राज्य मंत्री रामनाथ ठाकुर, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के महानिदेशक डा. हिमांशु पाठक, आईएआरआई के निदेशक डा. सीएच श्रीनिवास राव, उपमहानिदेशक डा. डीके यादव सहित अन्य अधिकारी, कर्मचारी और बड़ी संख्या में किसान भाईबहन, कृषि वैज्ञानिक, कृषि उद्यमी, स्टार्टअप के प्रतिनिधि, खाद्य प्रसंस्करणकर्ता आदि उपस्थित रहे.

उद्घाटन भाषण में केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संकल्प पूरा करने के लिए लगातार कृषि के क्षेत्र में हम काम कर रहे हैं. मैं भी किसान हूं, मेरे खेत में कद्दू लगा है, शिमला मिर्च भी है और टमाटर भी है. जब क्रौप बंपर आती है, तो कीमतें कई बार गिरती हैं. मैं फूलों की खेती भी करता हूं, गेहूं और धान की खेती भी करता हूं. मैं ऐसा किसान नहीं हूं कि मंत्री हूं तो साहब बन गया हूं, मैं महीने में 2 बार अपने खेत में पहुंचने की कोशिश करता हूं.

मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आईसीएआर (ICAR) को बधाई देते हुए कहा कि आज जो किस्में दिखाई हैं, वे अपनेआप में बड़ी उपलब्धि हैं. वैज्ञानिक दिनरात मेहनत कर रहे हैं.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि हमारी 6 सूत्रीय रणनीति है. नंबर एक है उत्पादन बढ़ाना. उत्पादन बढ़ाने के लिए सब से प्रमुख चीज है अच्छे बीज. अच्छे बीज की वैरायटी बनाने का काम आईसीएआर (ICAR) कर रही है. हम कोशिश कर रहे हैं कि कैसे अच्छे बीज किसानों तक पहुंचें. ब्रीडर सीड, फाउंडेशन सीड के लिए हम तरीका निकालें कि कैसे वे किसान तक पहुंचें. बीज पहुंचाने के लिए विज्ञान और किसान को जोड़ना पड़ेगा. लैब टू लैंड, यह हम ने एक प्रयोग शुरू किया है आधुनिक कृषि चौपाल.

उन्होंने आईसीएआर (ICAR) को निर्देशित किया कि इस काम को अपने हाथ में ले ले. अगले महीने से आधुनिक कृषि चौपाल आईसीएआर (ICAR) करेगा.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह ने बताया कि दूसरा प्रमुख काम है, उत्पादन लागत घटाना. उत्पादन बढ़ने से लागत घटती है. इस संबंध में कई योजनाएं भी हैं.

उन्होंने बताया कि 24 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भागलपुर में किसान सम्मान निधि के तहत किसानों के खाते में राशि भेजेंगे.

केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह ने बताया कि मैं बिहार में मखाना उत्पादकों के बीच जाऊंगा, मखाना कैसे बोते हैं, वे देखेंगे. इस के पहले मैं सुपारी उत्पादकों के बीच गया था. अभी मैं ने पूसा में इंटीग्रेटेड फार्म देखा. एक हेक्टेयर में मछलीपालन, मुरगीपालन, तालाब था.

मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बताया कि हमें किसानों की लागत का इंतजाम भी करना है. किसान क्रेडिट कार्ड की सीमा 3 लाख से बढ़ा कर 5 लाख रुपए कर दी गई है. इस से फलसब्जी के किसान को फायदा मिलेगा.

उन्होंने बताया कि तीसरा कार्य है, उत्पादन का ठीक दाम देना. इस के लिए लगातार एमएसपी (MSP) पर बढ़ोतरी की गई है. किसान का गेहूं, चावल तो सरकार खरीदेगी ही, मसूर, उड़द, तुअर भी पूरी खरीदी जाएगी. इन चीजों का उत्पादन तब बढ़ेगा, जब उन को अच्छे दाम मिले. किसान जहां बेचता है, वहां सस्ता बिकता है और दिल्लीमुंबई में आ जाए तो महंगा हो जाता है. अभी टमाटर के रेट कम हो गए. हम ने योजना बनाई है कि नेफेड के माध्यम से ट्रांसपोर्टेशन का खर्च केंद्र सरकार चुकाएगी, जिस से किसान को ठीक दाम मिलें.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि सोयाबीन के रेट घटे, तो बाहर से आने वाले तेल पर इंपोर्ट ड्यूटी 27.5 फीसदी कर दी. चावल के निर्यात पर प्रतिबंध था, हम ने उसे हटाया और एक्सपोर्ट ड्यूटी कम की. बीच का मुनाफा जो है, वह घटना चाहिए, इस को ले कर हम वर्कआउट कर रहे हैं.

मंत्री शिवराज सिंह ने कहा कि मैं किसान संगठनों से नियमित मिलता हूं, मैं आज कुरुक्षेत्र जाऊंगा, चंडीगढ़ भी जाऊंगा. मुझे किसानों से सुझाव मिलते हैं.

शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि उन्हें आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बताया कि लाल मिर्ची की कीमत कम हो गई है. हम ने तय किया कि लाल मिर्ची को हम एमआईएस (MIS) योजना के तहत खरीदने की अनुमति देंगे.

उन्होंने कहा कि इसी तरह चौथा प्रमुख कार्य है कि जब प्राकृतिक आपदा में फसल खराब होती है, उस के लिए हम प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के माध्यम से मदद करते हैं. किसानों को जो लोन मिलता है, वह 7 लाख करोड़ से बढ़ कर 25 लाख करोड़ रुपए हो गया है.

शिवराज सिंह ने किसान भाइयों को आमंत्रित किया कि जो सुझाव हो, दीजिए, उसे हम वर्कआउट करेंगे.

उन्होंने कहा कि विकसित भारत तभी बनेगा, जब कृषि उन्नत होगी. आज जो नई किस्म का प्रदर्शन हुआ है, कोशिश होगी कि जल्दी से जल्दी वह किसान तक पहुंचें.

उन्होंने बताया कि मैं ने मध्य प्रदेश में किसान के लिए योजना बनाई, तो किसान के बीच बैठ कर बनाई. मैं कल मखाने के पोखर में उतरूंगा और देखूंगा कि कैसे मखाने की खेती होती है. इसलिए अब वैज्ञानिक भी खेत में उतरेंगे.

केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि एक समय था, जब भारत को अमेरिका से पीएल 480 गेहूं मंगवा कर खाना पड़ता था, जबकि आज भारत कई देशों का पेट भर रहा है. ये हमारे किसानों की मेहनत से हुआ है. ऐसे कई प्रयत्न हमें करने हैं.

शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि एक बात और है कि अपने देश में कोई चीज हो न हो, 5 साल, 12 महीने चुनाव की तैयारी चलती रहती है. सालभर नहीं हुआ, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के चुनाव हुए, फिर लोकसभा चुनाव, फिर महाराष्ट्र, झारखंड, जम्मूकश्मीर, हरियाणा के चुनाव और उस के बाद दिल्ली का दंगल. इस चुनाव की तैयारी में सारे काम ठप हो जाते हैं, प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री, अधिकारी सब चुनाव में लग जाते हैं. लांग टर्म की प्लानिंग नहीं हो पाती. अगर संशोधन कर के ये तय कर दिया जाए कि सभी चुनाव एक बार में होंगे, तो कैसा रहेगा? आओ, इस किसान मेले में संकल्प लें कि 5 साल में एक बार लोकसभा और विधानसभा चुनाव होना चाहिए, ताकि सभी लोग जनता की सेवा में लग सकें.

केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह ने “नवोन्मेषी कृषक” और “अध्येता कृषक” पुरस्कारों से किसानों को सम्मानित किया, जिन्होंने अपनी खेती में नई तकनीकों को अपना कर अनुकरणीय कार्य किए हैं.

मेले के दौरान किसानों को नवाचारों और वैज्ञानिक तकनीकों को अपनाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है. मेले में किसानों के लिए उन्नत बीज, जैविक खाद, जलवायु अनुकूल तकनीक, ड्रोन स्प्रे तकनीक, स्मार्ट सिंचाई तकनीक और बाजार लिंकेज जैसी महत्वपूर्ण जानकारी 300 से अधिक स्टाल के माध्यम से उपलब्ध कराई गई है. इस आयोजन से किसानों को नई तकनीकों को अपनाने, वैज्ञानिकों से सीधे बात करने और अपनी खेती को लाभदायक बनाने के लिए आवश्यक जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिला है.

Pests of Mango: आम के खास कीट

फरवरी और मार्च आम के लिए खास महत्त्व वाले महीने होते हैं. इन्हीं महीनों में आम में बौर आने का समय होता है या बौर लग चुका होता है. बौर लगने से ले कर तोड़ाई तक आम के तमाम दुश्मन कीट (Pests of Mango) होते हैं, जो जरा सी सावधनी हटने पर बड़ा नुकसान कर देते हैं. आइए जानते हैं आम की फसल में लगने वाले खास कीटों और उन की रोकथाम के बारे में.

मैंगो हापर : इसे कुटकी, भुनगा या लस्सी कीट के नाम से भी जाना जाता है. इस कीट का प्रकोप बौर निकलते ही जनवरीफरवरी में शुरू हो जाता है. यह एक छोटा, तिकोने शरीर वाला भूरे रंग का आम का सब से खतरनाक कीट है. ये कीट आम की नई पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. प्रभावित भाग पर इन के द्वारा छोड़े गए स्राव से सूटी मोल्ड (काली फफूंदी) उग जाती है. इस से पत्तियों का भोजन बनने का काम रुक जाता है.

इस की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 40 ईसी 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या डाईमेथोएट 30 ईसी 1.5-2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या 50 फीसदी घुलनशील कार्बोरिल 3 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए. ध्यान रहे कि कीटनाशक का पहला छिड़काव बौर की 2-3 इंच अवस्था पर, दूसरा छिड़काव उस के 15-20 दिनों बाद और तीसरा छिड़काव जब फल सरसों के दाने के आकार के हो जाएं तब किया जाना चाहिए.

मैंगो मिली बग : इसे चेंपा के नाम से भी जानते हैं. यह कोमल शाखाओं व फूलों के डंठलों पर फरवरी से मई तक चिपका हुआ पाया जाता है. यह कोमल भागों का रस चूस कर एक लसलसा पदार्थ छोड़ता है, जो कि फफूंदी रोगों को बढ़ावा देता है. इस से ग्रसित फूल बिन फल बनाए ही गिर जाते हैं.

इस की रोकथाम के लिए यदि कीट पौधों पर चढ़ गए हों, तो डाईमेथोएट (रोगोर) नामक दवा 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिला कर 15 दिनों के अंदर 2 बार छिड़काव करना चाहिए या कार्बोसल्फान 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. वैसे इस कीट से बेहतर बचाव के लिए दिसंबर महीने के पहले पखवारे में आम के तने के चारों ओर गहरी जुताई कर देनी चाहिए. तने पर 400 गेज की पालीथिन की 25 सेंटीमीटर चौड़ी पट्टी लपेट देनी चाहिए. पट्टी के ऊपरी व निचले किनारों को सुतली से बांध देना चाहिए. निचले सिरे पर ग्रीस लगा कर सील कर के जनवरी महीने में ही 250 ग्राम प्रति पेड़ की दर से क्लोरपाइरीफास चूर्ण का तने के चारों ओर बुरकाव कर देना चाहिए.

तना बेधक : इस का प्रौढ़ की करीब 5-8 सेंटीमीटर लंबा, मटमैला या राख के रंग का होता है. इस कीट की सूंडि़यां तने में नीचे से ऊपर की ओर छेद करती हैं, जिस से तने से बुरादा निकलता नजर आता है, नतीजतन तना व मोटी शाखाएं सूख जाती हैं.

इस की रोकथाम के लिए साइकिल की तीली या दूसरी किसी मजबूत तीली से सूंडि़यों को निकाल कर रुई को मिट्टी के तेल या पेट्रोल या 1 फीसदी की दर से मोनोक्रोटोफास के घोल में भिगो कर तने में किए छेदों में डाल कर छेदों को गीली मिट्टी से बंद कर देना चाहिए.

शूट बोरर : इसे शाखा बेधक या प्ररोह छिद्रक कीट के नाम से भी जानते हैं. इस की सूंड़ी नई शाखाओं और प्ररोहों में ऊपर से नीचे की ओर छेद कर के उन्हें खोखला कर देती है.

इस की रोकथाम के लिए प्रभावित भाग को काट कर जला देना चाहिए और नई बढ़वार के समय 4 ग्राम प्रति लीटर कार्बेरिल या 2 मिलीलीटर प्रति लीटर क्वीनालफास का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए.

गाल मिज : इसे पुष्पगुच्छ कीट भी कहते हैं. ये बहुत ही छोटे और हलके गुलाबी रंग के होते हैं. इन कीटों से प्रभावित बौर टेढ़े हो जाते हैं और वहां पर काले धब्बे दिखाई देते हैं. इन की रोकथाम के लिए डायमेथोएट 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से कलियां निकलने के समय पहली बार छिड़काव करना चाहिए और दूसरा छिड़काव जरूरत के हिसाब से 15 दिनों के बाद करना चाहिए.

फ्रूट फ्लाई : इसे फल मक्खी के नाम से भी जानते हैं. यह पीलेभूरे रंग की मक्खी होती है, जो पके या अधपके फलों की त्वचा के नीचे अंडे देती है. इन अंडों से सूंडि़यां निकल कर फलों के अंदर का गूदा खाती रहती हैं. इस से फल सड़ कर गिर जाते हैं. इस कीट का हमला पतली त्वचा वाली और देर से पकने वाली प्रजातियों पर ज्यादा होता है.

इस की रोकथाम के लिए फलों को पकने से पहले ही पेड़ से तोड़ लेना चाहिए और प्रभावित फलों को जमा कर के जमीन के अंदर करीब 1 मीटर गहराई तक दबा देना चाहिए. फल मक्खी को खत्म करने के लिए उसे जमीन के अंदर तकरीबन 1 मीटर गहराई पर दबाना चाहिए. फल मक्खी को मारने के लिए पेड़ों पर जहरीली गोलियां लटका देनी चाहिए. इस के लिए कार्बोरिल 4 ग्राम प्रति लीटर पानी या मिथाइल यूजीनाल के घोल को 1 फीसदी की दर से डब्बों में डाल कर बागों में अप्रैल से अक्तूबर तक लटकाने से नर कीट कीटनाशक की तरफ खिंच कर मर जाते हैं.

स्टोन वीविल: यह कीट आम बनने की शुरुआती दशा में हमला करता है. जब फल मटर के आकार के होते हैं, तो विविल फल की सतह पर अंडे देती है और अंडों से ग्रब निकल कर गुठली में छेद कर के घुस जाते हैं. ये अपना पूरा जीवनचक्र यहीं पूरा करते हैं व अपने मल पदार्थ से फल के गूदे को खराब कर देते हैं. इन की रोकथाम के लिए बगीचों की खूब अच्छी तरह से सफाई करनी चाहिए.

Diarrhea in Calf: बछड़े को डायरिया से ऐसे बचाएं

गाय के बछड़े बचपन से ही स्वस्थ हों, तो भविष्य में उन का दूध उत्पादन बेहतर होता है. लेकिन उन के जीवन के पहले 3 हफ्ते में दस्त (डायरिया) एक सामान्य और गंभीर समस्या बन कर सामने आ सकती है.

यदि इस समस्या पर समय रहते ध्यान न दिया जाए, तो यही उन के मरने का कारण बन सकता है. साल 2007 में यूएस डेयरी की एक रिपोर्ट में पाया गया है कि 57 फीसदी वीनिंग गोवत्सों की मृत्यु दस्त के कारण हुई, जिन में अधिकांश बछड़े 1 माह से छोटे थे.

दस्त लगने की कई वजहें हो सकती हैं. सही समय पर दूध न पिलाना, दूध का अत्यधिक ठंडा होना या ज्यादा मात्रा में देना, रहने की जगह का साफसुथरा न होना या फिर फफूंद लगा चारा खिलाना आदि. इस के अलावा बछड़ों में दस्त अकसर एंटरोपैथोजेनिक ई कोलाई नामक जीवाणु के कारण होता है. यह जीवाणु आंत से चिपक कर घाव पैदा करता है, जिस से आंत के एंजाइम की गतिविधि घट जाती है. इस वजह से भोजन का पाचन प्रभावित होता है और खनिज पदार्थ अवशोषित होने के बजाय मल के माध्यम से बाहर निकल जाते हैं.

कुछ ई कोलाई वेरोटौक्सिन का उत्पादन करते हैं, जिस से अधिक गंभीर स्थिति जैसे खूनी दस्त हो सकते हैं.आमतौर पर 2 सप्ताह से 12 सप्ताह के बछड़ों में साल्मोनेला प्रजाति के जीवाणुओं के कारण दस्त के लक्षण देखे जाते हैं. इस के अलावा कोरोना वायरस, रोटा वायरस जैसे वायरस और जियार्डिया, क्रिप्टोस्पोरिडियम पार्वम जैसे प्रोटोजोआ भी दस्त के सामान्य कारण हैं.

दस्त के लक्षणों को पहचानना बहुत महत्त्वपूर्ण है. बछड़े की धंसी हुई आंखें, तरल पदार्थों का सेवन कम होना, लेटना, हलका बुखार, ठंडी त्वचा और सुस्ती इस समस्या के संकेत हैं.

यदि बछड़ा बारबार लेट रहा हो, खुद से खड़ा नहीं हो पा रहा हो और खींचने पर आंखों के पास की त्वचा वापस आने में 6 सेकंड से अधिक समय ले रही हो, तो तुरंत पशु डाक्टर से सलाह लें.

दस्त से बचाव के लिए गर्भावस्था के अंतिम 3 महीनों में गाय के पोषण का विशेष ध्यान रखना चाहिए, ताकि बछड़ा स्वस्थ हो और मजबूत रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ जन्म ले.

बछड़े को जन्म के 2 घंटे से ले कर 6 घंटे के भीतर खीस पिलाना आवश्यक है. यदि बछड़ा डिस्टोकिया (कठिन प्रसव) से पैदा हुआ हो, तो उस के सिर और जीभ पर सूजन के कारण खीस को वह ठीक से नहीं पी पाएगा. ऐसे में बछड़े की विशेष देखभाल करनी चाहिए.

इस के अलावा बछड़े को बाहरी तनाव जैसे अधिक ठंड, बारिश, नमी, गरमी और प्रदूषण से बचाना चाहिए. साथ ही सही समय पर टीका भी लगवाना आवश्यक है, ताकि बछड़ा स्वस्थ रह सके.

यदि बछड़े को दस्त हो जाए, तो सब से पहले शरीर में पानी और इलैक्ट्रोलाइट्स की कमी को पूरा करना जरूरी है. इस के लिए हर दिन 2-4 लिटर इलैक्ट्रोलाइट घोल पिलाएं. घर पर ही इलैक्ट्रोलाइट घोल बनाने के लिए :

1 लिटर गरम पानी में 5 चम्मच ग्लूकोज, 1 चम्मच सोडा बाईकार्बोनेट और 1 चम्मच नमक मिलाएं यानी एक चम्मच = 5 ग्राम लगभग.

नेबलोन आयुर्वेदिक पाउडर (10-20 ग्राम) को सादा पानी या चावल के मांड में मिला कर दिन में 2-3 बार पिलाएं. यदि स्थिति गंभीर हो, तो हर 6 घंटे पर यह घोल दें. दस्त करने वाले आंतरिक परजीवियों से बचाव के लिए एल्बेंडाजोल, औक्सीक्लोजानाइड और लेवामिसोल जैसे डीवार्मर्स समयसमय पर देने चाहिए. यदि आवश्यक हो, तो पशु डाक्टर की सलाह से एंटीबायोटिक्स का उपयोग करें.

बछड़ों में दस्त की समस्या को सही समय पर पहचान कर उचित देखभाल और उपचार से नियंत्रित किया जा सकता है.

Cowpea: पशुओं के लिए पौष्टिकता से भरपूर लोबिया

पशुओं के लिए लोबिया (Cowpea)  दलहन चारा है. अधिक पौष्टिक व पाचकता से भरपूर होने के कारण इसे घास के साथ मिला कर बोने से इस की पोषकता बढ़ जाती है.

इस की फसल उगाने से किसानों को कई फायदे होते हैं. पहला तो यह कि इस से पशुओं के लिए हरा चारा मिलता है, वहीं दूसरी ओर खेत के खरपतवार को खत्म कर के मिट्टी की उर्वरताशक्ति भी बढ़ाने का काम करती है.

लोबिया (Cowpea) की फसल को किसान खरीफ और जायद मौसम में उगा सकते हैं.

भूमि और खेत की तैयारी

लोबिया (Cowpea)  की खेती आमतौर पर अच्छे जल निकास वाली सभी तरह की जमीनों में की जा सकती है, लेकिन दोमट मिट्टी पैदावार के हिसाब से अच्छी मानी गई है. अच्छे उत्पादन के लिए खेत को हैरो या कल्टीवेटर से 2-3 जुताई करनी चाहिए, इस से बीज में अंकुरण जल्दी होता है और फसल अच्छी होती है.

बोआई का समय

लोबिया (Cowpea)  की फसल साल में 2 बार की जाती है. गरमियों की फसल के लिए बोआई का सही समय मार्च होता है, खरीफ मौसम में लोबिया (Cowpea) की बोआई बारिश शुरू होने के बाद जुलाई महीने में करनी चाहिए.

उन्नत किस्में

किसी भी फसल के ज्यादा उत्पादन के लिए कई कारक जिम्मेदार होते हैं, उन में से एक उन्नत किस्म का बीज भी है. अगर आप अच्छे किस्म का बीज बोएंगे तो अधिक पैदावार मिलेगी. इसलिए जब भी बोआई करें, अच्छे बीज ही इस्तेमाल करें. आप की जानकारी के लिए कुछ उन्नत बीजों के नाम इस प्रकार हैं:

कोहिनूर, बुंदेल लोबिया-2, बुंदेल लोबिया-3, यूपीसी-5287, आईएफसी-8503, ईसी- 4216, यूपीसी- 5286, 618 वगैरह.

बीज की मात्रा व बोआई

किसान पशुओं के चारे के लिए एक ही खेत में कई तरह के बीज मिला कर बोआई करते हैं. ऐसे में अगर सिर्फ लोबिया (Cowpea)  की फसल लेनी है, तब 40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही होता है. अगर ज्वार या मक्का आदि के साथ बोना है तो 15 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर ठीक होता है.

सिंचाई

गरमियों के मौसम में 8-10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. पूरे सीजन में लगभग 6-7 सिंचाई करनी पड़ती है, जबकि खरीफ मौसम में आमतौर पर सिंचाई की जरूरत नहीं होती है, लेकिन लंबे समय तक बारिश न होने पर 10-12 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण

गरमी में ज्यादा खरपतवार की दिक्कत नहीं होती, लेकिन 20-25 दिनों में खुरपी या फावड़े से गुड़ाई कर के खरपतवार पर काबू पाया जा सकता है. बीज बोने से पहले ट्रीफ्लूरानिन (0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) का छिड़काव करने से खरपतवार की बढ़वार कम होती है.

फसल कटाई

खरीफ मौसम की फसल 50-60 दिनों में और गरमियों की फसल 70-75 दिनों में कटाई (50 प्रतिशत फूल आने पर) के लिए तैयार हो जाती है. लोबिया (Cowpea)  की फसल की कटाई तब भी शुरू की जा सकती है, जब पौधे बड़े हो जाएं और चारे के लिए इस्तेमाल किए जाने लगें.

Khoya Chocolate Barfi : गजब का स्वाद चाकलेट का अंदाज

Khoya Chocolate Barfi| तमाम तरह की मिठाइयां मूल रूप से खोए, अनाजों, मेवों और चीनी से ही मिल कर बनती हैं. मिठाइयां बनाने के शौकीन लोग तरहतरह के प्रयोग कर के खाने वालों को अलगअलग स्वाद का एहसास कराने की कोशिश करते रहते हैं. खोया चाकलेट बरफी (Khoya Chocolate Barfi) भी इसी कोशिश का नतीजा है.

यह 2 तरह बनती है. पहली खोया चाकलेट परतदार बरफी होती है, जो खोए और चाकलेट के दोहरे स्वाद का एहसास कराती है. यह परतदार बरफी खाने में जितनी स्वादिष्ठ होती है, उतनी ही दिखने में भी अलग होती है. दूसरी किस्म की बरफी खोया चाकलेट की साधारण बरफी होती है, जिस में खोए के स्वाद में चाकलेट का अंदाज दिखता है. दोनों ही तरह की बरफियों में खोए के साथ मेवों का इस्तेमाल किया जाता है. दोनों में फर्क यह होता है कि परतदार बरफी में चाकलेट और खोया अलगअलग परतों में दिखते हैं और दूसरी किस्म में केवल एक ही तरह की बरफी दिखाई पड़ती है.

खोया चाकलेट परतदार बरफी बनाने के लिए पहले खोए की परत तैयार की जाती है, फिर चाकलेट की परत तैयार होती है. दोनों को एकदूसरे के ऊपर रख कर जमा दिया जाता है. खोया चाकलेट की साधारण बरफी तैयार करने के लिए खोए में चाकलेट पाउडर और मेवे मिला कर एक जैसी ही बरफी तैयार की जाती है.

कुछ लोग परतदार बरफी पसंद करते हैं, तो कुछ लोग दूसरी बरफी पसंद करते हैं. चाकलेट खोया बरफी देखने में चाकलेट पीस की तरह लगती है. इसे और अच्छा बनाने के लिए चांदी के वर्क से सजा दिया जाता है. खाने वाले को क्रंची स्वाद का एहसास हो इस के लिए बरफी में अलगअलग तरह के मेवे मिलाए जा सकते हैं.

मिठाइयों की माहिर प्रिया अवस्थी कहती हैं, ‘मुझे तो चाकलेट खोया की साधारण बरफी ज्यादा अच्छी लगती है. परतदार बरफी देखने में बरफी जैसी ही लगती है, मगर साधारण चाकलेट खोया बरफी चाकलेट जैसी नजर आती है.’

जरूरी सामग्री : खोया 300 ग्राम, चीनी पाउडर, 100 ग्राम, 5-6 छोटी इलायचियों का पाउडर. चाकलेट बरफी परत के लिए : खोया 200 ग्राम, चीनी पाउडर 70 ग्राम, कोको पाउडर 2 टेबल स्पून, घी 2 टेबल स्पून.

विधि : खोया बरफी बनाने के लिए खोए को कद्दूकस कीजिए. फिर कढ़ाई में 1 छोटा चम्मच घी डाल कर गरम कर लीजिए. गैस एकदम धीमी रखिए. घी पिघलने के बाद कद्दूकस किया हुआ खोया और चीनी पाउडर डाल दीजिए.

लगातार चलाते हुए खोए चीनी के आपस में ठीक से मिलने तक भूनिए. सही तरह से मिलने के बाद मिश्रण को धीमी गैस पर 5-6 मिनट तक लगातार चलाते हुए पका लीजिए. फिर इस में इलायची पाउडर मिला दीजिए. प्लेट में घी लगा कर चिकना कीजिए और मिश्रण को जमने के लिए प्लेट में डालिए और घी लगे चम्मच से एक जैसा फैला कर 1 घंटे तक ठंडा होने दीजिए.

चाकलेट बरफी की परत तैयार करने के लिए कढ़ाई में एक छोटा चम्मच घी, कद्दूकस किया खोया, चीनी पाउडर और कोको पाउडर डालें. मिश्रण को धीमी आंच पर लगातार चलाते हुए खोया चीनी के मिलने तक भूनें. खोया व चीनी अच्छी तरह मिलने के बाद मिश्रण को धीमी आंच पर 4-5 मिनट तक लगातार चलाते हुए भूनें.

चाकलेट का मिश्रण बरफी जमाने के लिए तैयार है. चाकलेट वाले तैयार मिश्रण को ठंडे किए हुए बर्फी के मिश्रण के ऊपर डालिए और घी लगे चम्मच से फैला कर एक जैसा कर दीजिए. बरफी को जमने के लिए ठंडी जगह पर 2-4 घंटे के लिए रख दीजिए. इस के बाद बरफी तैयार हो जाएगी, जमी तैयार बरफी को अपने मनपसंद टुकड़ों में काट लीजिए.

Guava Garden: पथरीली जमीन पर उगाया अमरूद का बगीचा

Guava Garden| मध्य प्रदेश के सतना जिले से तकरीबन 40 किलोमीटर दूर उत्तरपूर्व में बसे खुटहा गांव के किसान कृष्ण किशोर त्रिपाठी ने अपनी दूरदृष्टि, मेहनत और मजबूत इरादे से आज वह कर दिखाया है, जो कई किसानों के लिए प्रेरणा बन गया है. पथरीली जमीन पर खेती करना हमेशा से चुनौती भरा होता है, लेकिन आज कृष्ण किशोर ने इस जमीन को उपजाऊ बना दिया है. उन्होंने 30 साल से बंजर पड़ी इस जमीन पर अमरूद का बगीचा (Guava Garden) लगाया है और अब वे हर साल लाखों रुपए की आमदनी कर रहे हैं.

पहली बार लगाए 75,000

कृष्ण किशोर त्रिपाठी ने साल 2022 में अपने एक एकड़ खेत में अमरूद के 400 पौधे लगाए थे. इस के लिए उन्होंने रतलाम से सुनहरा (गोल्डन) अमरूद की किस्म के पौधे 85 रुपए प्रति पौध की दर से खरीदे थे. पौधों को लगाने के लिए गड्ढे खोदने, खाद डालने और मजदूरी का खर्च मिला कर प्रति पौधा 150 रुपए का खर्च आया था. इस के अलावा ड्रिप इरिगेशन (टपक सिंचाई) प्रणाली लगाने पर तकरीबन 12,000 रुपए का खर्च आया. इस प्रकार पहले साल उन्हें कुल 75,000 रुपए खर्च करने पड़े थे. उन के बगीचे में अब 3 फुट ऊंचे पेड़ों पर

12 किलोग्राम तक के फल लग चुके हैं.

किसान कृष्ण किशोर झुके हुए अमरूद के पेड़ को संभालते हुए बताते हैं कि जमीन तो पथरीली थी, लेकिन मैं ने ठान लिया था कि इसे उपजाऊ बनाना है. अमरूद के पौधे लगाते वक्त हर पौधे के लिए गड्ढे खोदने, खाद डालने और पानी की व्यवस्था में काफी मेहनत लगी. ड्रिप इरिगेशन सिस्टम लगा कर पानी की समस्या को भी हल किया. पहले साल में 75,000 रुपए का खर्च हुआ, लेकिन यह मेरी मेहनत का आधार था. अब हर पेड़ पर 12 किलोग्राम के फल आ रहे हैं, जो मेरी उम्मीद से भी ज्यादा हैं.

1.44 लाख रुपए की कमाई

कृष्ण किशोर त्रिपाठी ने इस समय 400 अमरूद के पेड़ों से प्रति पेड़ 12 किलोग्राम फल निकाले हैं. कुलमिला कर 4.8 टन फल का उत्पादन हुआ, जो थोक बाजार में 30 रुपए प्रति किलोग्राम के भाव से 1.44 लाख रुपए में बिका. आने वाले 2 सालों में जब पेड़ 5 फुट से अधिक ऊंचे हो जाएंगे, तब प्रति पेड़

20 किलोग्राम फल मिलने की उम्मीद है. ऐसे में कुल उत्पादन 8 टन होगा और तकरीबन 2.4 लाख रुपए की कमाई होगी.

कृष्ण किशोर ने कहा कि अमरूद की खेती ने हमें एक नई दिशा दी है. पहली फसल में ही 1.44 लाख रुपए की कमाई ने हमारी मेहनत पर भरोसा बढ़ाया है. आने वाले 2 सालों में उत्पादन और आय दोनों में बढ़ोतरी की उम्मीद है. इस से हमें कृषि के क्षेत्र में और भी नए प्रयोग करने की प्रेरणा मिल रही है.

सतना जिले के अमरूद उत्पादन का डाटा शेयर करते हुए उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग के उद्यानिकी अधिकारी नरेंद्र सिंह बताते हैं कि साल 2022-23 के अंतिम अनुमान में 971 हेक्टेयर में 11,364 मीट्रिक टन अमरूद का उत्पादन दर्ज किया गया है, जबकि मध्य प्रदेश राज्य देश में अमरूद उत्पादन के मामले में दूसरे स्थान पर है. पहले स्थान पर उत्तर प्रदेश है. राष्ट्रीय उद्यानिकी बोर्ड द्वारा जारी 2021-22 के पहले अतिरिक्त अनुमान के मुताबिक मध्य प्रदेश में 776.75 लाख मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ.

मेहनत से हासिल की सफलता

खुटहा गांव के किसान कृष्ण किशोर त्रिपाठी की जमीन के नीचे केवल 2 फुट खेती लायक ही मिट्टी थी. इस के नीचे पत्थर ही पत्थर थे. इस जमीन पर खेती करना लगभग नामुमकिन था. किसान कृष्ण किशोर के परदादा ने तकरीबन 50 साल पहले इस जमीन को उपयोगी बनाने के लिए 3 फुट मिट्टी डलवाई थी, जिस में कोदोकुटकी जैसी मोटे अनाज की फसलें उगाई जाती थीं, लेकिन बाद में यह जमीन बंजर हो गई.

इस के बाद कृष्ण किशोर ने 30 साल बाद इस जमीन को फिर से खेती लायक बनाने का फैसला किया. वे बताते हैं कि जमीन पर पड़ी मिट्टी को उन्होंने दोबारा उपयोगी बनाया. अब इस में अमरूद का बगीचा लगा कर वे हर साल लाखों रुपए की आमदनी ले रहे हैं.

कृष्ण किशोर त्रिपाठी ने बताया कि यह विचार उन के मन में तब आया था, जब उन की बेटी की तबीयत खराब थी और वे फल खरीदने बाजार गए थे. उस समय सेब का दाम 280 रुपए प्रति किलोग्राम था. उन्होंने तभी तय किया कि वे फलों की खेती करेंगे.

जल संकट से निबटने के लिए ड्रिप योजना खुटहा गांव में पानी की कमी हमेशा से एक बड़ी समस्या रही है. किसान कृष्ण किशोर त्रिपाठी को भी इस का सामना करना पड़ा. उन्होंने 3 बार बोरिंग कराई. पहले 2 बार वे असफल रहे, लेकिन तीसरी बार 150 फुट की गहराई पर पानी मिला. इस के बाद उन्होंने इसे 300 फुट गहराई तक कराया. बोरिंग पर कुल 2.4 लाख रुपए का खर्च आया.

पानी की कमी के कारण किसान कृष्ण किशोर ने टपक सिंचाई प्रणाली का सहारा लिया. यह विधि पानी की बचत में सहायक है और इस से पेड़ों को जरूरत के अनुसार पानी मिलता है. वे बताते हैं कि पानी की कमी हमारे इलाके की सचाई है, लेकिन तकनीक और मेहनत से इस का समाधान संभव है.

सागौन और सेब के पौधे भी लगाए

किसान कृष्ण किशोर ने 2,000 सागौन के पौधे लगाए, जो अब बड़े हो चुके हैं. इस के अलावा उन्होंने सेब के पौधे भी लगाए हैं. सेब के पौधों पर फिलहाल फूल नहीं आए हैं, लेकिन अगले 2 सालों में फल मिलने की संभावना है.

वे बताते हैं कि सागौन के पौधे बड़े हो गए हैं. खेती से जुड़ कर मन को शांति मिलती है.

Buckwheat: कुट्टू उगाने की नई तकनीक

Buckwheat कुट्टू की खेती दुनियाभर में की जाती है. चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, यूरोप, कनाडा समेत अन्य देशों में भी इस की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है. वहीं भारत की बात करें, तो उत्तरपश्चिमी हिमालयी क्षेत्रों में इस की खेती अधिक की जाती है.

किसान इस की खेती परंपरागत तरीके से करते हैं, जिस के चलते बेकार गुणवत्ता वाली कम पैदावार मिलती है. अधिक पैदावार लेने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली नई तकनीक को अपना कर कुट्टू (Buckwheat) की खेती की जानी चाहिए.

भूमि का चयन

कुट्टू (Buckwheat) को विभिन्न प्रकार की कम उपजाऊ मिट्टी में उगाया जा सकता है. वैसे, उचित जल निकास वाली दोमद मिट्टी इस के सफल उत्पादन के लिए सर्वोत्तम मानी गई है, लेकिन अधिक अम्लीय और क्षारीय मिट्टी इस के उत्पादन के लिए अच्छी नहीं होती है.

खेत की तैयारी

कुट्टू (Buckwheat) की अधिक पैदावार लेने के लिए खेत की तैयारी अच्छी तरह करनी चाहिए. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. उस के बाद 2 जुताई कल्टीवेटर या हैरो से आरपार करनी चाहिए, फिर पाटा लगा कर भूमि को समतल कर लेना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक

कुट्टू (Buckwheat) उत्पादन के लिए खाद एवं उर्वरकों की कम मात्रा में जरूरत होती है. वैसे, मिट्टी जांच के बाद ही खाद एवं उर्वरक का उपयोग करना सही रहता है.

यदि किसी कारणवश मिट्टी की जांच न हो सके, तो यहां दी गई मात्रा के अनुसार खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए :

गोबर की खाद : 10 टन

नाइट्रोजन : 40 किलोग्राम

फास्फोरस : 20 किलोग्राम

पोटाश : 20 किलोग्राम

गोबर की खाद को खेत की तैयारी से पहले खेत में समान रूप से बिखेर कर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए. साथ ही, फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा को अंतिम जुताई से पहले खेत में डालें. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा को बोआई के 50-60 दिन बाद खड़ी फसल में टौप ड्रैसिंग के दौरान डालें.

प्रवर्धन

ध्यान रखें कि कुट्टू (Buckwheat) का विस्तारण बीज द्वारा किया जाता है.

बीज दर

कुट्टू (Buckwheat) के उत्पादन के लिए प्रति हेक्टेयर 60-80 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार

कुट्टू (Buckwheat) के बीज को खेत में बोने से पहले कैपरौन 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करना चाहिए. इस से फसल को फफूंदी से होने वाले रोगों से बचाया जा सकता है.

बीजों को उपचारित करने के 10-15 मिनट बाद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से दोबारा उपचारित करने के 15-20 मिनट बाद बीज की बोआई कर देनी चाहिए.

आपसी दूरी व उचित समय

कुट्टू (Buckwheat) के बीजों को हमेशा पंक्तियों में बोना चाहिए. पंक्तियों और पौधों की आपसी दूरी 20×10 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. इस के अंकुरण के लिए 35 सैंटीमीटर सही माना जाता है. पर्वतीय क्षेत्रों में इस की बोआई मईजून माह में करनी चाहिए.

सिंचाई एवं जल निकासी

आमतौर पर कुट्टू (Buckwheat) को वर्षा आधारित फसल के रूप में उगाया जाता है. इस के सफल उत्पादन के लिए इस की फसल अवधि में फूल आने व दाने बनने के समय सिंचाई करनी चाहिए.

फसल सुरक्षा

खरपतवार नियंत्रण

चूंकि कुट्टू (Buckwheat) की फसल को खरीफ मौसम में उगाया जाता है, जिस के कारण फसल के साथसाथ खरपतवार भी उग जाते हैं, जो फसल के विकास की बढ़ोतरी और उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं.

फसल की शुरुआती अवस्था में खेत को खरपतवारों से मुक्त रखना बहुत जरूरी है, इसलिए जरूरत के अनुसार निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

रोग नियंत्रण

पत्ती झुलसा: यह एक फफूंदीजनित रोग है. यह रोग फूल बनने या फसल की शुरुआती अवस्था में होता है. रोग की शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर छोटेछोटे धब्बे आ जाते हैं, फिर बाद में पत्तियां गिर जाती हैं. ये छोटे धब्बे बाद में बड़े हो जाते हैं. इस वजह से पौधे की भोजन बनाने की प्रक्रिया पर बुरा असर पड़ता है. बाद में पूरा पौधा सूख जाता है.

इस रोग की रोकथाम के लिए रोग का शुरूआती लक्षण दिखाई देने पर 0.2 फीसदी कौपरऔक्साइड के घोल का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए.

कीट नियंत्रण

आमतौर पर इस फसल पर कोई कीट नहीं पनपता है.

फसल की कटाई

बीज बोने के 40-50 दिन बाद फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है. जब फसल में फूल आने शुरू हो जाते हैं, तो यह कटाई की सर्वोत्तम अवस्था होती है.

कुट्टू (Buckwheat) की फसल की कटाई का सब से बढि़या समय सितंबरअक्तूबर माह का होता है यानी दानों के बनने से पहले इस की कटाई कर लेनी चाहिए.

यदि कटाई देरी से की जाती है, तो उस में रूटीन की मात्रा 6 फीसदी से घट कर 3.8 फीसदी रह जाती है. यह कटाई का समय औषधि उत्पादन के लिए सब से बेहतर है. जब कुट्टू (Buckwheat) को इस के दाने के लिए उगाया जाता है, तब दाने पूरी तरह से पक जाने के बाद ही फसल की कटाई करनी चाहिए.

मड़ाई

फसल को 2-3 दिन सुखा कर फिर उस की गहाई करनी चाहिए. फसल के दाने और भूसे को अलगअलग कर लेना चाहिए.

उपज

कुट्टू (Buckwheat) की उपज कई बातों पर निर्भर करती है, जिस में भूमि की उर्वराशक्ति, फसल उगाने की विधि और फसल की देखभाल प्रमुख है.

यदि बताई गई नई तकनीक से इस की खेती की जाए, तो तकरीबन 10-12 क्विंटल दाने की उपज मिल जाएगी.

Poultry Farming: मुरगीपालन से आमदनी में इजाफा

Poultry Farming| हमारे देश में अभी भी प्रति व्यक्ति अंडा सेवन व मांस सेवन अन्य विकासशील पश्चिमी देशों की तुलना में बहुत ही कम है, इसलिए भारत में मुरगीपालन (Poultry Farming) से रोजगार की अपार संभावनाएं हैं.

मुरगीपालन (Poultry Farming) से देश के तकरीबन 6-7 लाख लोगों को रोजगार मिल रहा है. मुरगीपालन (Poultry Farming) के बहुत से लाभ हैं. इस से परिवार को अतिरिक्त आमदनी, कम खर्च कर के ज्यादा मुनाफा लिया जा सकता है.

अंडे के उत्पादन के लिए ह्वाइट लैग हौर्न सब से अच्छी नस्ल है. इस नस्ल का शरीर हलका होता है और यह प्रजाति जल्दी ही अंडा देना शुरू कर देती है, वहीं मांस उत्पादन के लिए कार्निश व ह्वाइट प्लेमाउथ रौक नस्ल उपयुक्त हैं. ये कम उम्र में अधिक वजन प्राप्त कर लेती हैं. इस नस्ल में आहार को मांस में परिवर्तन करने की क्षमता होती है.

मुरगीपालन (Poultry Farming) के लिए और भी बहुत सी जरूरी बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रख कर व्यवसाय करना चाहिए, जैसे मुरगीपालन (Poultry Farming) के स्थान से निकट बाजार की स्थिति व मुरगी उत्पादन की मांग प्रमुख है. मुरगीपालन (Poultry Farming) के स्थान पर मांस व अंडे की खपत जहां ज्यादा होती हो, वह जगह पास हो तो ठीक रहती है.

मुरगीबाड़ा ऊंचाई पर व शुष्क जगह पर बनाना चाहिए. मुरगीबाड़ा में आवागमन की सुविधा होनी चाहिए. मुरगीशाला में स्वच्छ व साफ पानी के साथ बिजली का उचित प्रबंध होना चाहिए. मुरगीबाड़े में अधिक नमी नहीं होनी चाहिए. वहां का तापमान 27 डिगरी सैंटीग्रेड के आसपास ठीक रहता है.

मुरगीशाला पूर्वपश्चिम दिशा में मुख करते हुए बनाना चाहिए. मुरगीशाला में 2 प्रकार की विधि प्रचलित है. पहली, पिंजरा विधि और दूसरी, डीपलिटर विधि.

मुरगीपालन (Poultry Farming) के लिए महत्त्वपूर्ण अंग है मुरगियों की छंटनी नियमित रूप से करते रहना.

मुरगी के उत्पादन रिकौर्ड को देख कर और उस के बाहरी लक्षणों को ध्यान में रखते हुए खराब मुरगियों को हटाया जा सकता है.

मुरगी के आहार में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन व वसा के साथसाथ खनिज पदार्थ और विटामिन प्रमुख होते हैं. आहार सामग्री में जरूरी पदार्थ को उचित मात्रा में मिला कर प्रयोग में लाया जाता है.

मुरगियों में होने वाले घातक रोगों में आंतरिक व बाह्य परजीवी प्रमुख हैं, जिन का समय पर ध्यान रखना आवश्यक है, वहीं विषाणु रोग भी अत्यंत घातक हैं. जैसे रानीखेत, चेचक, लिम्फोसाइट, मेरेक्स व इन्फैक्शंस, कोराइजा और ईकोलाई वगैरह.

इन सभी रोगों के अलावा खूनी पेचिश, जो कोक्सीडियोसिस कहलाती है, भी घातक है, इसलिए मुरगीपालन (Poultry Farming) के लिए लगातार विशेषज्ञों से संपर्क में बने रहना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है.

रोगों के बारे में जानकारी व बचाव और इलाज की व्यवस्था करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. विषाणुजनित रोगों के लिए टीका लगवाएं.

पशुपालन विभाग की ओर से विभिन्न प्रकार के रोगों की रोकथाम के लिए और रोगों के निदान व जांच के लिए यह सुविधा उपलब्ध है.

वहीं दूसरी ओर मुरगी उत्पादन के विपणन के लिए कई सहकारी समितियां भी बनी हैं. उन समितियों के द्वारा भी विपणन किया जा सकता है. अंडों को बाजार में भेजते समय पैकिंग कर ट्रे में ठीक तरीके से भेजना चाहिए.

मुरगी के आवास में विभिन्न प्रकार के उपकरण काम में आते हैं. जैसे, ब्रूडर कृत्रिम प्रकार से गरमी पहुंचाने की पद्धति में लोहे के मोटे तार द्वारा बने हुए पिंजरों में दो या उस से ज्यादा मुरगियों को एकसाथ रखा जाता है.

वहीं डीपलिटर विधि में एक बड़े से मकान के कमरों में सब से पहले धान के छिलके, भूसा  या लकड़ी का बुरादा बिछा दिया जाता है और फिर दड़बा, को मुरगियों के अंडे देने के लिए बनाया जाता है. अन्य उपकरण, जैसे पर्च मुरगियों के बैठने के लिए विशेष लकड़ी या लोहे से बनाया जाता है. आहार व पानी के लिए बरतन आदि.

एक और महत्त्वपूर्ण उपकरण है ग्रीट बौक्स. यह आवश्यक रूप से अंडे देने वाली मुरगियों के लिए रखा जाता है. इस बक्से में संगमरमर के छोटेछोटे कंकड़ रखे जाते हैं.

मुरगीपालन (Poultry Farming) में नए चूजे लाने व उन की देखभाल के लिए कुछ आवश्यक बातों को ध्यान में रखना होता है :

* मुरगीघर को कीटाणुनाशक दवा डाल कर पानी से धोना चाहिए और आंगन पर साफसुथरा बिछावन बिछा कर मुरगीघर का तापमान हीटर से नियंत्रित करना चाहिए.

* चूजों के लिए साफ व ताजा पानी हर समय उपलब्ध रखना होगा.

* चूजों का स्टार्टर दाना रखना सब से महत्त्वपूर्ण है.

* चूजों को समयसमय पर टीके लगवाने चाहिए. पहले दिन ही मोरेक्स रोग का टीका लगवाना चाहिए. इस के साथ ही चेचक का टीका व रानीखेत का दूसरा टीका 6 से 8 सप्ताह में लगवाना होगा.

* कोई भी चूजा मरे, इस के लिए विशेषज्ञों को दिखा कर उचित राय लेनी चाहिए. 8 सप्ताह की उम्र के बाद ग्रोवर दाना देना आवश्यक है, वहीं 19वें सप्ताह से विशेष लकड़ी या लोहे का बना पर्च रखना चाहिए, ताकि मुरगी उस में जा कर अंडे दे सके.

मुरगीपालन (Poultry Farming)

मुरगियों (Poultry Farming) की गरमियों में देखभाल

गरमियों में मुरगी दाना कम खाती है और इस से प्राप्त ऊर्जा का बड़ा हिस्सा उन के शरीर की गरमी बरकरार रखने के लिए खर्च हो जाता है, इसलिए उन का अंडा उत्पादन कम हो जाता है. अंडों का आकार और वजन भी कम हो जाता है. अंडों का कवच यानी छिलका पतला हो जाता है. इन सब के कारण अंडों को बाजार में कम कीमत मिलती है.

सभी विपरीत प्रभाव गरमी के कारण होते हैं, इसलिए गरमी का असर कम करने के लिए ये उपाय करें :

* बाड़े में ज्यादा तादाद में मुरगियां न रखें. इतनी ही मुरगियां रखें, ताकि वहां ज्यादा भीड़ न हो.

* बाड़े के इर्दगिर्द घने, छायादार पेड़ लगाएं.

* मुरगीफार्म के चारों ओर बबूल या मेहंदी या पूरे साल ज्यादातर हरेभरे रहने वाली वनस्पति की बाड़ लगाएं. इस से गरम हवाओं के थपेड़ों की गति कम हो जाती है और मुरगीफार्म के आसपास का वातावरण ज्यादा गरम नहीं होता.

* अगर मुरगीफार्म के आसपास पेड़पौधे नहीं हैं, तो चारों ओर छत से सट कर कम से कम 10-12 फुट चौड़ा हरे रंग के जालीदार कपड़े का मंडप लगवाएं. इस से धूप की तीव्रता कुछ कम होगी और वहां का वातावरण ज्यादा गरम नहीं होगा.

* मुरगीघर की छत ज्यादा गरम नहीं होने वाली चीज से बनी हो, जैसे सीमेंट की चादर, घासफूस, बांस इत्यादि. अगर टिन की छत है, तो ऊपर की सतह पर सफेद रंग लगवाएं. इस से छत ज्यादा गरम नहीं होती और मुरगीघर के भीतरी तापमान में 4 डिगरी सैंटीग्रेड की कमी आती है.

* मुमकिन हो, तो छत के ऊपर टाट या बोरियां बिछा दें और उन को पानी की फुहार छोड़ कर गीला रखें. इस से छत का तापमान कम हो जाता है और मुरगीघर के भीतरी तापमान में 4 से 14 डिगरी सैंटीग्रेड तक कमी आ सकती है. इस का मतलब बाहरी वातावरण का तापमान अगर 44 डिगरी सैंटीग्रेड भी है, तो वह घट कर 30 डिगरी सैंटीग्रेड तक नीचे आ जाएगा.

आगे अगर मुरगीघर के भीतर पंखा या फौगर लगाया गया है, तो यह तापमान और भी 2 से 3 डिगरी सैंटीग्रेड कम किया जा सकता है. आखिर में 27 डिगरी सैंटीग्रेड तक तापमान आ गया, तो वह मुरगियों के लिए काफी हद तक बरदाश्त करने लायक हो जाएगा और मुरगियों को गरमी से तकलीफ नहीं होगी.

* बाड़े के इर्दगिर्द घास की क्यारियां लगवाएं और उन पर फुहार पद्धति से सिंचाई करें, तो आसपास के वातावरण का तापमान काफी कम होगा.

* बाड़े के बगलों पर टाट या बोरियों के परदे लगवाएं और छिद्रधारी पाइप द्वारा उन पर पानी की फुहार दिनभर पड़ती रहे, ऐसी व्यवस्था करें. इस के लिए छत के ऊपर एक पानी की टंकी लगवाएं और वह पाइप उस से जोड़ दें, तो गुरुत्वाकर्षण दबाव से पानी परदों पर गिरता रहेगा. इस से कूलर लगाने जैसा प्रभाव पड़ेगा और मुरगीघर का भीतरी तापमान काफी कम होगा, जो मुरगियों के लिए सुहावना होगा.

* अगर मुरगियां सघन बिछाली पद्धति में रखी हैं, तो भूसे को सुबहशाम उलटपुलट करें.

* मुरगियों को हमेशा ठंडा पानी ही पीने के लिए दें.

* पीने के पानी में इलैक्ट्रोलाइट पाउडर घोल कर दें.

* मुरगियों के दाने को मैश कर के पानी के हलके छींटे मार कर मामूली सा गीला करें. दाने में प्रोटीन की मात्रा बढ़ाएं, ताकि मुरगियों के शरीर भार में, पोषण स्तर में और अंडों का आकार, छिलका व वजन सामान्य रहें.

* मुरगियों को पीने के पानी में विटामिन सी मिला कर दें.

यदि इस प्रकार प्रबंधन करेंगे, तो मुरगियों को गरमी के प्रकोप से काफी हद तक बचाया जा सकता है और इस से अंडा उत्पादन व आकार और वजन में कमी नहीं होगी. अंडों का छिलका पतला नहीं होगा और वे अनायास नहीं टूटेंगे. साथ ही, नुकसान कम होगा और अंडा उत्पादन व्यवसाय भी किफायती होगा.

अधिक जानकारी के लिए अपने जनपद के कृषि विज्ञान केंद्र और पशुपालन विभाग से संपर्क करें.