Buckwheat: कुट्टू उगाने की नई तकनीक

Buckwheat कुट्टू की खेती दुनियाभर में की जाती है. चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, यूरोप, कनाडा समेत अन्य देशों में भी इस की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है. वहीं भारत की बात करें, तो उत्तरपश्चिमी हिमालयी क्षेत्रों में इस की खेती अधिक की जाती है.

किसान इस की खेती परंपरागत तरीके से करते हैं, जिस के चलते बेकार गुणवत्ता वाली कम पैदावार मिलती है. अधिक पैदावार लेने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली नई तकनीक को अपना कर कुट्टू (Buckwheat) की खेती की जानी चाहिए.

भूमि का चयन

कुट्टू (Buckwheat) को विभिन्न प्रकार की कम उपजाऊ मिट्टी में उगाया जा सकता है. वैसे, उचित जल निकास वाली दोमद मिट्टी इस के सफल उत्पादन के लिए सर्वोत्तम मानी गई है, लेकिन अधिक अम्लीय और क्षारीय मिट्टी इस के उत्पादन के लिए अच्छी नहीं होती है.

खेत की तैयारी

कुट्टू (Buckwheat) की अधिक पैदावार लेने के लिए खेत की तैयारी अच्छी तरह करनी चाहिए. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. उस के बाद 2 जुताई कल्टीवेटर या हैरो से आरपार करनी चाहिए, फिर पाटा लगा कर भूमि को समतल कर लेना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक

कुट्टू (Buckwheat) उत्पादन के लिए खाद एवं उर्वरकों की कम मात्रा में जरूरत होती है. वैसे, मिट्टी जांच के बाद ही खाद एवं उर्वरक का उपयोग करना सही रहता है.

यदि किसी कारणवश मिट्टी की जांच न हो सके, तो यहां दी गई मात्रा के अनुसार खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए :

गोबर की खाद : 10 टन

नाइट्रोजन : 40 किलोग्राम

फास्फोरस : 20 किलोग्राम

पोटाश : 20 किलोग्राम

गोबर की खाद को खेत की तैयारी से पहले खेत में समान रूप से बिखेर कर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए. साथ ही, फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा को अंतिम जुताई से पहले खेत में डालें. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा को बोआई के 50-60 दिन बाद खड़ी फसल में टौप ड्रैसिंग के दौरान डालें.

प्रवर्धन

ध्यान रखें कि कुट्टू (Buckwheat) का विस्तारण बीज द्वारा किया जाता है.

बीज दर

कुट्टू (Buckwheat) के उत्पादन के लिए प्रति हेक्टेयर 60-80 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार

कुट्टू (Buckwheat) के बीज को खेत में बोने से पहले कैपरौन 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करना चाहिए. इस से फसल को फफूंदी से होने वाले रोगों से बचाया जा सकता है.

बीजों को उपचारित करने के 10-15 मिनट बाद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से दोबारा उपचारित करने के 15-20 मिनट बाद बीज की बोआई कर देनी चाहिए.

आपसी दूरी व उचित समय

कुट्टू (Buckwheat) के बीजों को हमेशा पंक्तियों में बोना चाहिए. पंक्तियों और पौधों की आपसी दूरी 20×10 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. इस के अंकुरण के लिए 35 सैंटीमीटर सही माना जाता है. पर्वतीय क्षेत्रों में इस की बोआई मईजून माह में करनी चाहिए.

सिंचाई एवं जल निकासी

आमतौर पर कुट्टू (Buckwheat) को वर्षा आधारित फसल के रूप में उगाया जाता है. इस के सफल उत्पादन के लिए इस की फसल अवधि में फूल आने व दाने बनने के समय सिंचाई करनी चाहिए.

फसल सुरक्षा

खरपतवार नियंत्रण

चूंकि कुट्टू (Buckwheat) की फसल को खरीफ मौसम में उगाया जाता है, जिस के कारण फसल के साथसाथ खरपतवार भी उग जाते हैं, जो फसल के विकास की बढ़ोतरी और उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं.

फसल की शुरुआती अवस्था में खेत को खरपतवारों से मुक्त रखना बहुत जरूरी है, इसलिए जरूरत के अनुसार निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

रोग नियंत्रण

पत्ती झुलसा: यह एक फफूंदीजनित रोग है. यह रोग फूल बनने या फसल की शुरुआती अवस्था में होता है. रोग की शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर छोटेछोटे धब्बे आ जाते हैं, फिर बाद में पत्तियां गिर जाती हैं. ये छोटे धब्बे बाद में बड़े हो जाते हैं. इस वजह से पौधे की भोजन बनाने की प्रक्रिया पर बुरा असर पड़ता है. बाद में पूरा पौधा सूख जाता है.

इस रोग की रोकथाम के लिए रोग का शुरूआती लक्षण दिखाई देने पर 0.2 फीसदी कौपरऔक्साइड के घोल का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए.

कीट नियंत्रण

आमतौर पर इस फसल पर कोई कीट नहीं पनपता है.

फसल की कटाई

बीज बोने के 40-50 दिन बाद फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है. जब फसल में फूल आने शुरू हो जाते हैं, तो यह कटाई की सर्वोत्तम अवस्था होती है.

कुट्टू (Buckwheat) की फसल की कटाई का सब से बढि़या समय सितंबरअक्तूबर माह का होता है यानी दानों के बनने से पहले इस की कटाई कर लेनी चाहिए.

यदि कटाई देरी से की जाती है, तो उस में रूटीन की मात्रा 6 फीसदी से घट कर 3.8 फीसदी रह जाती है. यह कटाई का समय औषधि उत्पादन के लिए सब से बेहतर है. जब कुट्टू (Buckwheat) को इस के दाने के लिए उगाया जाता है, तब दाने पूरी तरह से पक जाने के बाद ही फसल की कटाई करनी चाहिए.

मड़ाई

फसल को 2-3 दिन सुखा कर फिर उस की गहाई करनी चाहिए. फसल के दाने और भूसे को अलगअलग कर लेना चाहिए.

उपज

कुट्टू (Buckwheat) की उपज कई बातों पर निर्भर करती है, जिस में भूमि की उर्वराशक्ति, फसल उगाने की विधि और फसल की देखभाल प्रमुख है.

यदि बताई गई नई तकनीक से इस की खेती की जाए, तो तकरीबन 10-12 क्विंटल दाने की उपज मिल जाएगी.

Poultry Farming: मुरगीपालन से आमदनी में इजाफा

Poultry Farming| हमारे देश में अभी भी प्रति व्यक्ति अंडा सेवन व मांस सेवन अन्य विकासशील पश्चिमी देशों की तुलना में बहुत ही कम है, इसलिए भारत में मुरगीपालन (Poultry Farming) से रोजगार की अपार संभावनाएं हैं.

मुरगीपालन (Poultry Farming) से देश के तकरीबन 6-7 लाख लोगों को रोजगार मिल रहा है. मुरगीपालन (Poultry Farming) के बहुत से लाभ हैं. इस से परिवार को अतिरिक्त आमदनी, कम खर्च कर के ज्यादा मुनाफा लिया जा सकता है.

अंडे के उत्पादन के लिए ह्वाइट लैग हौर्न सब से अच्छी नस्ल है. इस नस्ल का शरीर हलका होता है और यह प्रजाति जल्दी ही अंडा देना शुरू कर देती है, वहीं मांस उत्पादन के लिए कार्निश व ह्वाइट प्लेमाउथ रौक नस्ल उपयुक्त हैं. ये कम उम्र में अधिक वजन प्राप्त कर लेती हैं. इस नस्ल में आहार को मांस में परिवर्तन करने की क्षमता होती है.

मुरगीपालन (Poultry Farming) के लिए और भी बहुत सी जरूरी बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रख कर व्यवसाय करना चाहिए, जैसे मुरगीपालन (Poultry Farming) के स्थान से निकट बाजार की स्थिति व मुरगी उत्पादन की मांग प्रमुख है. मुरगीपालन (Poultry Farming) के स्थान पर मांस व अंडे की खपत जहां ज्यादा होती हो, वह जगह पास हो तो ठीक रहती है.

मुरगीबाड़ा ऊंचाई पर व शुष्क जगह पर बनाना चाहिए. मुरगीबाड़ा में आवागमन की सुविधा होनी चाहिए. मुरगीशाला में स्वच्छ व साफ पानी के साथ बिजली का उचित प्रबंध होना चाहिए. मुरगीबाड़े में अधिक नमी नहीं होनी चाहिए. वहां का तापमान 27 डिगरी सैंटीग्रेड के आसपास ठीक रहता है.

मुरगीशाला पूर्वपश्चिम दिशा में मुख करते हुए बनाना चाहिए. मुरगीशाला में 2 प्रकार की विधि प्रचलित है. पहली, पिंजरा विधि और दूसरी, डीपलिटर विधि.

मुरगीपालन (Poultry Farming) के लिए महत्त्वपूर्ण अंग है मुरगियों की छंटनी नियमित रूप से करते रहना.

मुरगी के उत्पादन रिकौर्ड को देख कर और उस के बाहरी लक्षणों को ध्यान में रखते हुए खराब मुरगियों को हटाया जा सकता है.

मुरगी के आहार में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन व वसा के साथसाथ खनिज पदार्थ और विटामिन प्रमुख होते हैं. आहार सामग्री में जरूरी पदार्थ को उचित मात्रा में मिला कर प्रयोग में लाया जाता है.

मुरगियों में होने वाले घातक रोगों में आंतरिक व बाह्य परजीवी प्रमुख हैं, जिन का समय पर ध्यान रखना आवश्यक है, वहीं विषाणु रोग भी अत्यंत घातक हैं. जैसे रानीखेत, चेचक, लिम्फोसाइट, मेरेक्स व इन्फैक्शंस, कोराइजा और ईकोलाई वगैरह.

इन सभी रोगों के अलावा खूनी पेचिश, जो कोक्सीडियोसिस कहलाती है, भी घातक है, इसलिए मुरगीपालन (Poultry Farming) के लिए लगातार विशेषज्ञों से संपर्क में बने रहना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है.

रोगों के बारे में जानकारी व बचाव और इलाज की व्यवस्था करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. विषाणुजनित रोगों के लिए टीका लगवाएं.

पशुपालन विभाग की ओर से विभिन्न प्रकार के रोगों की रोकथाम के लिए और रोगों के निदान व जांच के लिए यह सुविधा उपलब्ध है.

वहीं दूसरी ओर मुरगी उत्पादन के विपणन के लिए कई सहकारी समितियां भी बनी हैं. उन समितियों के द्वारा भी विपणन किया जा सकता है. अंडों को बाजार में भेजते समय पैकिंग कर ट्रे में ठीक तरीके से भेजना चाहिए.

मुरगी के आवास में विभिन्न प्रकार के उपकरण काम में आते हैं. जैसे, ब्रूडर कृत्रिम प्रकार से गरमी पहुंचाने की पद्धति में लोहे के मोटे तार द्वारा बने हुए पिंजरों में दो या उस से ज्यादा मुरगियों को एकसाथ रखा जाता है.

वहीं डीपलिटर विधि में एक बड़े से मकान के कमरों में सब से पहले धान के छिलके, भूसा  या लकड़ी का बुरादा बिछा दिया जाता है और फिर दड़बा, को मुरगियों के अंडे देने के लिए बनाया जाता है. अन्य उपकरण, जैसे पर्च मुरगियों के बैठने के लिए विशेष लकड़ी या लोहे से बनाया जाता है. आहार व पानी के लिए बरतन आदि.

एक और महत्त्वपूर्ण उपकरण है ग्रीट बौक्स. यह आवश्यक रूप से अंडे देने वाली मुरगियों के लिए रखा जाता है. इस बक्से में संगमरमर के छोटेछोटे कंकड़ रखे जाते हैं.

मुरगीपालन (Poultry Farming) में नए चूजे लाने व उन की देखभाल के लिए कुछ आवश्यक बातों को ध्यान में रखना होता है :

* मुरगीघर को कीटाणुनाशक दवा डाल कर पानी से धोना चाहिए और आंगन पर साफसुथरा बिछावन बिछा कर मुरगीघर का तापमान हीटर से नियंत्रित करना चाहिए.

* चूजों के लिए साफ व ताजा पानी हर समय उपलब्ध रखना होगा.

* चूजों का स्टार्टर दाना रखना सब से महत्त्वपूर्ण है.

* चूजों को समयसमय पर टीके लगवाने चाहिए. पहले दिन ही मोरेक्स रोग का टीका लगवाना चाहिए. इस के साथ ही चेचक का टीका व रानीखेत का दूसरा टीका 6 से 8 सप्ताह में लगवाना होगा.

* कोई भी चूजा मरे, इस के लिए विशेषज्ञों को दिखा कर उचित राय लेनी चाहिए. 8 सप्ताह की उम्र के बाद ग्रोवर दाना देना आवश्यक है, वहीं 19वें सप्ताह से विशेष लकड़ी या लोहे का बना पर्च रखना चाहिए, ताकि मुरगी उस में जा कर अंडे दे सके.

मुरगीपालन (Poultry Farming)

मुरगियों (Poultry Farming) की गरमियों में देखभाल

गरमियों में मुरगी दाना कम खाती है और इस से प्राप्त ऊर्जा का बड़ा हिस्सा उन के शरीर की गरमी बरकरार रखने के लिए खर्च हो जाता है, इसलिए उन का अंडा उत्पादन कम हो जाता है. अंडों का आकार और वजन भी कम हो जाता है. अंडों का कवच यानी छिलका पतला हो जाता है. इन सब के कारण अंडों को बाजार में कम कीमत मिलती है.

सभी विपरीत प्रभाव गरमी के कारण होते हैं, इसलिए गरमी का असर कम करने के लिए ये उपाय करें :

* बाड़े में ज्यादा तादाद में मुरगियां न रखें. इतनी ही मुरगियां रखें, ताकि वहां ज्यादा भीड़ न हो.

* बाड़े के इर्दगिर्द घने, छायादार पेड़ लगाएं.

* मुरगीफार्म के चारों ओर बबूल या मेहंदी या पूरे साल ज्यादातर हरेभरे रहने वाली वनस्पति की बाड़ लगाएं. इस से गरम हवाओं के थपेड़ों की गति कम हो जाती है और मुरगीफार्म के आसपास का वातावरण ज्यादा गरम नहीं होता.

* अगर मुरगीफार्म के आसपास पेड़पौधे नहीं हैं, तो चारों ओर छत से सट कर कम से कम 10-12 फुट चौड़ा हरे रंग के जालीदार कपड़े का मंडप लगवाएं. इस से धूप की तीव्रता कुछ कम होगी और वहां का वातावरण ज्यादा गरम नहीं होगा.

* मुरगीघर की छत ज्यादा गरम नहीं होने वाली चीज से बनी हो, जैसे सीमेंट की चादर, घासफूस, बांस इत्यादि. अगर टिन की छत है, तो ऊपर की सतह पर सफेद रंग लगवाएं. इस से छत ज्यादा गरम नहीं होती और मुरगीघर के भीतरी तापमान में 4 डिगरी सैंटीग्रेड की कमी आती है.

* मुमकिन हो, तो छत के ऊपर टाट या बोरियां बिछा दें और उन को पानी की फुहार छोड़ कर गीला रखें. इस से छत का तापमान कम हो जाता है और मुरगीघर के भीतरी तापमान में 4 से 14 डिगरी सैंटीग्रेड तक कमी आ सकती है. इस का मतलब बाहरी वातावरण का तापमान अगर 44 डिगरी सैंटीग्रेड भी है, तो वह घट कर 30 डिगरी सैंटीग्रेड तक नीचे आ जाएगा.

आगे अगर मुरगीघर के भीतर पंखा या फौगर लगाया गया है, तो यह तापमान और भी 2 से 3 डिगरी सैंटीग्रेड कम किया जा सकता है. आखिर में 27 डिगरी सैंटीग्रेड तक तापमान आ गया, तो वह मुरगियों के लिए काफी हद तक बरदाश्त करने लायक हो जाएगा और मुरगियों को गरमी से तकलीफ नहीं होगी.

* बाड़े के इर्दगिर्द घास की क्यारियां लगवाएं और उन पर फुहार पद्धति से सिंचाई करें, तो आसपास के वातावरण का तापमान काफी कम होगा.

* बाड़े के बगलों पर टाट या बोरियों के परदे लगवाएं और छिद्रधारी पाइप द्वारा उन पर पानी की फुहार दिनभर पड़ती रहे, ऐसी व्यवस्था करें. इस के लिए छत के ऊपर एक पानी की टंकी लगवाएं और वह पाइप उस से जोड़ दें, तो गुरुत्वाकर्षण दबाव से पानी परदों पर गिरता रहेगा. इस से कूलर लगाने जैसा प्रभाव पड़ेगा और मुरगीघर का भीतरी तापमान काफी कम होगा, जो मुरगियों के लिए सुहावना होगा.

* अगर मुरगियां सघन बिछाली पद्धति में रखी हैं, तो भूसे को सुबहशाम उलटपुलट करें.

* मुरगियों को हमेशा ठंडा पानी ही पीने के लिए दें.

* पीने के पानी में इलैक्ट्रोलाइट पाउडर घोल कर दें.

* मुरगियों के दाने को मैश कर के पानी के हलके छींटे मार कर मामूली सा गीला करें. दाने में प्रोटीन की मात्रा बढ़ाएं, ताकि मुरगियों के शरीर भार में, पोषण स्तर में और अंडों का आकार, छिलका व वजन सामान्य रहें.

* मुरगियों को पीने के पानी में विटामिन सी मिला कर दें.

यदि इस प्रकार प्रबंधन करेंगे, तो मुरगियों को गरमी के प्रकोप से काफी हद तक बचाया जा सकता है और इस से अंडा उत्पादन व आकार और वजन में कमी नहीं होगी. अंडों का छिलका पतला नहीं होगा और वे अनायास नहीं टूटेंगे. साथ ही, नुकसान कम होगा और अंडा उत्पादन व्यवसाय भी किफायती होगा.

अधिक जानकारी के लिए अपने जनपद के कृषि विज्ञान केंद्र और पशुपालन विभाग से संपर्क करें.

Gobar Gas Plant: आधुनिक तकनीक से तैयार  गोबर गैस प्लांट

Gobar Gas Plant : आज के दौर में किसानों के सामने तमाम समस्याएं हैं. इन में खास समस्या है जमीन की उर्वरा शक्ति का कम होना और ईंधन की दिनबदिन होती कमी. इन दोनों खास समस्याओं का सरल और आसान समाधान है गोबर गैस प्लांट (Gobar Gas Plant).

गोबर में काफी मात्रा में ऊर्जा होती है, जिसे गोबर गैस प्लांट (Gobar Gas Plant)  की मदद से गोबर गैस बना कर निकाला जा सकता है. इस प्लांट से बनी हुई गैस से चूल्हा जलाया जा सकता है और इसे रोशनी के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

इस से कम हार्स पावर का इंजन भी चला सकते हैं. गोबर गैस प्लांट (Gobar Gas Plant) से निकला गोबर (सलरी) पूरी तरह सड़ा होता है. यह एक बढि़या खाद है. इस के इस्तेमाल से जमीन की उपजाऊ ताकत बढ़ती है, दीमक नहीं लगती है और खरपतवार के बीज भी नष्ट हो जाते हैं.

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार ने गोबर द्वारा चलने वाले जनता मौडल के बायोगैस प्लांट को सुधार कर ऐसा डिजाइन तैयार किया है, जो ताजे गोबर से चलता है. इस नए डिजाइन के प्लांट का गोबर डालने का पाइप 4 इंच की जगह 12 इंच चौड़ा है, ताकि इस में गोबर बिना पानी के सीधे ही डाला जा सके.

गोबर की निकासी की जगह काफी चौड़ी रखी गई है, जिस से गोबर गैस के दबाव से खुद बाहर आ सके. प्लांट से निकलने वाला गोबर काफी गाढ़ा होता है, जिसे कस्सी की सहायता से खेत में डाला जा सकता है. यह बेहतरीन खाद का काम करता है.

पहले गोबर गैस प्लांट (Gobar Gas Plant) बनाने के बाद उस में गोबर व पानी का घोल (1:1) डाल दिया जाता है. उस के बाद गैस की निकासी का पाइप बंद कर के 10-15 दिनों के लिए छोड़ दिया जाता है. जब गोबर की निकासी वाली जगह से गोबर आना शुरू हो जाता है, तो प्लांट में ताजा गोबर बिना पानी के प्लांट के आकार के मुताबिक सही मात्रा में हर रोज 1 बार डालना शुरू कर दिया जाता है और गैस को जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल किया जा सकता है. निकलने वाले गोबर को उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग, मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा बनाया गया यह गोबर गैस प्लांट अपनेआप में तमाम खासीयतों वाला है. यह पुरानी तकनीक से हट कर है.

ज्यादा जानकारी के लिए यूनिवर्सिटी के फोन नंबरों 01662-285292, 285499 पर संपर्क कर सकते हैं.

उपयोगिता

* इस प्लांट को लगाने से पैसे की लागत दूसरी डिजाइनों के प्लांटों के मुकाबले कम आती है. इसे घर के आंगन में भी लगा सकते हैं. इस के आसपास की जगह साफसुथरी रहती है और बदबू नहीं आती.

* गोबर गैस प्लांट को लैट्रीन से साथ जोड़ कर भी गैस की मात्रा व खाद की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है.

* सलरी में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा गोबर के मुकाबले ज्यादा होती है और इस का इस्तेमाल करने से जमीन की गुणवत्ता बढ़ती है. इस में नीम, आक या धतूरे के पत्ते मिला कर डालने से खेत में कीड़ों व बीमारियों का हमला नहीं होता.

* सर्दियों में मशरूम के बचे हुए अधस्तर को गोबर में मिला कर बायोगैस को बढ़ा सकते हैं.

Processing of Vegetables: गुणों की हिफाजत करे सब्जियों की प्रोसैसिंग

सब्जियों की प्रोसैसिंग (Processing of Vegetables) का खास मकसद उन का इस प्रकार रखरखाव करना है, ताकि उन्हें बाजार की मांग के हिसाब से कभी भी इस्तेमाल में लाया जा सके. ज्यादा हुई पैदावार की प्रोसैसिंग (Processing) कर के फसल के दौरान हुए नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है.

सेहत के प्रति लोगों की जागरूकता की वजह से सब्जियों की प्रोसैसिंग (Processing of Vegetables) में इजाफा हुआ है. लोगों के तेजी से शहरों में बसने व औरतों के घर से बाहर काम के लिए जाने की वजह से इतना समय नहीं होता कि सब्जियों को छील कर पकाया जा सके, इसलिए लोग प्रोसेस्ड सब्जियों को खरीदना पसंद करने लगे हैं. इस के अलावा सब्जियों की प्रोसैसिंग (Processing of Vegetables) किसानों की आमदनी बढ़ाने व गांवों में रोजगार देने में काफी मददगार साबित हो रही है.

खाने की चीजों को लंबे समय तक रखने के लिए तापमान का उपचार देना प्रोसैसिंग (Processing) कहलाता है. डब्बाबंदी उद्योग में डब्बों में गरम या ठंडा करने के उपचार देने को प्रसंस्करण कहते हैं. गरम या ठंडा करना जीवाणुओं को खत्म करने के लिए किया जाता है. ज्यादातर अम्लीय सब्जियों से भरे डब्बों को 110 डिगरी सैंटीग्रेड तापामन में उपचार कर प्रसंस्करित किया जाता है. अम्ल की वजह से जीवाणुओं का विकास रुक जाता है और उन के बीजाणु बनना भी बंद हो जाते हैं. डब्बों में इस्तेमाल की गई चीनी की चाशनी भी जीवाणुओं को रोकने में मददगार होती है.

प्रसंस्करण से सब्जियों का इस प्रकार रखरखाव किया जाता है, ताकि उन्हें बाजार की मांग के मुताबिक कभी भी इस्तेमाल में लाया जा सके. प्रसंस्करण द्वारा जरूरत से ज्यादा पैदावार व कटाई के बाद के नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है. प्रसंस्करण अपना कर हम सब्जियों के 100 फीसदी उत्पादन का इस्तेमाल कर सकते हैं. सब्जियों के प्रसंस्करण से निम्न फायदे हैं:

* कीमती उत्पाद बनाने के लिए उत्पादन का बिना खराब हुए पूरा इस्तेमाल किया जा सकता है.

* एक जगह से दूसरी जगह तक ले जाने और रखरखाव की लागत में काफी हद तक कमी की जा सकती है.

* बिना मौसम के और पूरे साल सब्जियों के संरक्षित उत्पादों द्वारा ताजी सब्जियों जैसा आनंद लिया जा सकता है.

* सब्जी उत्पादों में बेहतर गुणवत्ता नियंत्रण बनाए रखा जा सकता है.

सब्जी प्रसंस्करित उत्पादों को तैयार करने के लिए बहुत से तरीके हैं, जिन्हें अपना कर हम सब्जियों का पूरी तरह से फायदेमंद इस्तेमाल कर सकते हैं.

सब्जी गूदा और जूस : कुछ सब्जियों जैसे टमाटर को कई तरह के उत्पादों को तैयार करने के लिए उस और गूदे के रूप में परिरक्षित किया जा सकता है. सब्जी रस व गूदा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि उन्हें निकाले जाने के एकदम बाद सुरक्षित किया जाए.

टमाटर का इस्तेमाल पूरे साल सभी सब्जियों में व दूसरी खाने की चीजों में किया जाता है. बड़े कारोबारियों द्वारा टमाटर का परिरक्षण साबुत टमाटर या इस का रस निकाल कर और गाढ़े गूदे के रूप में किया जाता है. टमाटर का दूसरा खास उत्पाद चटनी या सास है. बाजार में टमाटर के ये पदार्थ काफी महंगे बिकते हैं, यही वजह है कि ये पदार्थ आम आदमी खरीद नहीं पाता है.

टमाटर का पकाया हुआ गाढ़ा गूदा (बीज और छिलके समेत) ताजे टमाटर जैसा ही काम करता है. इस गूदे को टमाटर क्रश या साबुत टमाटर का गूदा कहते हैं. पूरे साल में केवल कुछ हफ्ते ही टमाटर सस्ते और काफी मात्रा में मिलते हैं. ऐसे समय पर टमाटर का गूदा गाढ़ा कर के रखा जा सकता है. गाढ़े गूदे में ग्लेशियल ऐसेप्टिक एसिड डाल कर 5 मिनट तक आग पर पकाने के बाद रसायन डाल कर गूदे को परिरक्षित किया जा सकता है. यह रसायन फफूंदी और दूसरे जीवाणुओं को गूदे को खराब करने से रोकता है और उस के रंग, स्वाद व पौष्टिकता को ठीक बनाता है.

कम लागत वाले उपाय : रस और गूदे का परिरक्षण कम लागत वाला सब से बढि़या तरीका है, अगर उसे गरम या पाश्चुरीकृत कर के कार्क के ढक्कन वाली बोतलों में रखा जाए. इस के अलावा दूसरा उपाय यह है कि रस या गूदे के परिरक्षक के लिए उस में केएमएस के नाम से लोकप्रिय पोटैशियम मेटाबाइ सलफाइट जैसे रसायनिक परिरक्षण मिलाए जाएं.

उच्च तकनीक प्रसंस्करण : गूदा परिरक्षण के लिए मौजूद तकनीकों में त्वरित प्रशीतन (तेजी से ठंडा करने वाली) सब से अच्छी तकनीक है, क्योंकि इस से गूदे में कुदरती गुण बने रहते हैं. बरफ से ठंडी की जाने वाली सब्जियों की गुणवत्ता को बनाए रखने में प्रशीतन दर की खास भूमिका है. बेहतर गुणवत्ता हासिल करने के लिए त्वरित प्रशीतन की जरूरत होती है.

बल्क एसेप्टिक पैकेजिंग के उत्पादों को खास तरीके से पैकेज किया गया भोजन माना जाता है, जिस से कि गूदे को विसंक्रमित कर के उसे बिना दोबारा गरम किए विसंक्रमण के लिए एसेप्टिक वातावरण के तहत विसंक्रमित पैकेजिंग सामग्री में पैक कर दिया जाता है.  एसेप्टिक प्रसंस्करित भोजन में रस अलग नहीं होते जो कि आमतौर पर दोबारा गरम करने के दौरान हो जाते हैं, जिस से उन के स्वाद में इजाफा होता है और साथ ही ऊर्जा की खपत भी कम होती है. इस के अलावा इस से पैकेजिंग सामग्री और ढुलाई लागत में भी काफी बचत होती है. ज्यादातर सब्जी उत्पाद जैसे कि पेय, कैचअप, चटनी आदि गूदे या रस से तैयार किए जाते हैं. बल्कि एसेप्टिक पैक गूदे को इस्तेमाल करने का सब से बड़ा फायदा यह है कि इस से ऐसी सब्जियों जो जल्दी खराब होने वाली होती है, के रखरखाव से बचा जा सकता है. इस के अलावा छिलका व बीज के रूप में निकाली गई फालतू सामग्री को भी कई उत्पादों में इस्तेमाल किया जा सकता है.

टमाटर का गूदा बनाना

पके हुए लाल व सख्त टमाटरों को धो कर काला व हरा हिस्सा अलग करने के बाद छोटे टुकड़ों में काटें.

स्टील के भगोने में डाल कर कटे हुए टमाटरों को आग पर पकाएं और थोड़ा ठंडा होने पर मिक्सी में पीस कर गूदा बनाएं.

गूदे को तब तक उबालें जब तक कि उस का वजन एकतिहाई रह जाए और गाढ़ा पेस्ट बन जाए. उस के बाद 5 मिलीलीटर ग्लेशियल ऐसीटिक एसिड प्रति किलोग्राम गूदे के हिसाब से डाल कर 5 मिनट तक दोबारा पकाएं. 0.4 ग्राम पोटैशियम मेटाबाइसल्फाइट व 0.2 ग्राम सोडियम बेंजोइट प्रति किलोग्राम गूदे के हिसाब से थोड़े पानी में घोल कर गूदे में मिलाएं.

तैयार गूदे को सूखे कांच के जार में मुंह तक भर दें. जार को बंद करने के बाद सूखी व ठंडी जगह पर रखें.

सब्जी की प्रोसैसिंग (Processing of Vegetables)

सब्जियों को लवणीय जल या 3 फीसदी नमक, 0.8 फीसदी एसीटिक एसिड और 0.2 फीसदी पोटैशियम मेटाबाइसलफाइट के साधारण घोल में भिगो कर परिरक्षित किया जा सकता है. उस के बाद सब्जी के टुकड़ों को अचार या चटनी बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है.

सब्जियों के तरहतरह के रूप जैसे फांकें, क्यूब्स, कतरन आदि एल्यूमीनियम की ट्रे में रख कर डीहाइड्रेटर में रख कर सुखाए जा सकते हैं. सुखाने से पहले तैयार सब्जियों को पोटेशियम मेटाबाइसलफाइट के घोल में उपचारित कर दिया जाए तो अच्छा रहता है. ऐसा करने से कीड़े व फफूंदी आदि नहीं लगते और रंग भी चमकदार हो जाता है. सूखे पदार्थों को सील बंद कर के डब्बों में बंद कर के रखा जाता है, जिस से नमी की मात्रा सूखे पदार्थों को नुकसान नहीं पहुंचा पाती है.

किण्वन विधि से भी सब्जियों का प्रसंस्करण किया जाता है. इस विधि में न केवल सब्जियों को नष्ट होने से बचा सकते हैं, बल्कि इस से उन के पौष्टिक व खनिज तत्त्व भी कम नष्ट होते हैं. किण्वन के दौरान सब्जियों में लैक्टिक अम्ल बनाने वाले जीवाणुओं द्वारा सब्जियों की कुदरती शक्कर लैक्टिक अम्ल में बदल दी जाती है. यह लैक्टिक अम्ल सब्जियों को परिरक्षित करने में मददगार होता है.

खुंबी के प्रसंस्करण के लिए खुंबी को तोड़ कर साफ पानी से धोया जाता है. परिरक्षण से पहले 2-3 मिनट तक उबलते हुए पानी में डाला जाता है, ताकि भंडारण के समय इन का रंग अच्छा रहे. ताजे पानी में 2 फीसदी नमक, 2 फीसदी चीनी, 0.5 फीसदी साइट्रिक एसिड, 1 फीसदी ऐस्कोरबिक और 0.1 फीसदी पोटेशियम मेटाबाइसलफाइड मिला कर रासायनिक घोल तैयार किया जाता है. उपचारित खुंबी को शीशे के जार में भर देते हैं और तैयार किया गया घोल इतनी मात्रा में डालते हैं कि खुंबी उस में अच्छी तरह डूब जाए. जार को अच्छी तरह ढक्कन लगा कर बंद कर के ठंडी जगह पर रखा जाता है.

प्रसंस्करण और भंडारण में सब्जियों की गुणवत्ता को बनाए रखना बहुत जरूरी है. पहले छीलने और काटे जाने वाली सब्जियां आसानी से धोई जा सकने वाली होनी चाहिए ताकि उन की गुणवत्ता अच्छी बनी रहे. इसलिए अच्छी गुणवत्ता की तैयार सब्जियों के लिए प्रसंस्करण से पहले सब्जियों की सावधानी से छंटाई जरूरी है. गाजर, आलू, मूली और प्याज के लिए अच्छी किस्म का होना बहुत जरूरी है. उदाहरण के लिए गाजर और शलजम में रेशेदार भाग उत्पादों में इस्तेमाल नहीं किए जा सकते, क्योंकि ये उत्पाद की गुणवत्ता पर असर डालते हैं. प्रसंस्करण से पहले सब्जियों को क्लोरीन (25-50 पीपीएम) के घोल से धोना चाहिए और उस के बाद क्लोरीन की मात्रा कम करने के लिए उन को पेय जल में भिगो देना चाहिए. यदि छीलने की जरूरत हो तो चाकू से छीला जाना चाहिए. पहले से छीले हुए और फांकें किए गए सेबों और आलुओं का भूरा होना एक समस्या है, जिस से बचने के लिए उन्हें हलके सल्फाइट के घोल में डालना चाहिए.

जब सब्जियों की बहुतायत होती है, उस समय सब्जियों की वैज्ञानिक ढंग से प्रोसेसिंग कर के उन को उस वक्त इस्तेमाल किया जा सकता है, जब उन का मौसम नहीं होता है. इस प्रकार सब्जियों को इच्छानुसार कभी भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

प्रसंस्करण उत्पादों पर असर डालने वाली वजहें

*    सब्जियों की बाहरी और अंदरूनी गुणवत्ता (किस्म, बढ़वार के हालात, कटाई, नुकसान, आयु वगैरह.)

*    छीलने और काटने से पहले और बाद में सब्जियों की धुलाई.

*    छीलने व काटने का तरीका.

*    धुलाई के समय इस्तेमाल किए गए पानी की गुणवत्ता.

*    पैकिंग विधियां और सामग्री.

*    भंडारण का तापमान.

Sugarcane: गन्ने की वैज्ञानिक खेती

Sugarcane (गन्ना) भारत की पुरानी फसलों में से एक है. यह हमारे देश की प्रमुख नकदी फसलों में से एक है. चीनी उद्योग दूसरा सब से बड़ा कृषि आधारित उद्योग है, जो सिर्फ गन्ना (Sugarcane) उत्पादन पर निर्भर है. गन्ना (Sugarcane) सकल घरेलू उत्पाद के लिए 2 फीसदी योगदान कर के राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में खास भूमिका निभाता है.

उत्तर प्रदेश गन्ना (Sugarcane) उत्पादक राज्यों में देश भर में सब से आगे है. पूरे भारत के कुल गन्ने रकबे 36.61 लाख हेक्टयर का 53 फीसदी से भी अधिक रकबा अकेले उत्तर प्रदेश में है. वैसे प्रदेश की औसत गन्ना (Sugarcane) पैदावार करीब 61 टन प्रति हेक्टयर है, जो देश के अन्य राज्यों तमिलनाडु 106 टन, पश्चिमी बंगाल 74 टन, आंध्र प्रदेश व गुजराज 72 टन और कर्नाटक 67 टन प्रति हेक्टयर से काफी कम है.

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के एक अनुमान के मुताबिक संसार के कुल गन्ना (Sugarcane) उत्पादन का करीब 55 फीसदी हिस्सा तमाम कीड़ोंबीमारियों व खरपतवारों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है. गन्ने की वैज्ञानिक विधि से खेती करने से उत्पादन में इजाफा किया जा सकता है.

मिट्टी व खेत की तैयारी : गन्ने के लिए दोमट जमीन सब से अच्छी है. वैसे भारी दोमट मिट्टी में भी गन्ने की अच्छी फसल हो सकती है. गन्ने की खेती के लिए पानी निकलने का सही इंतजाम होना चाहिए.

जिस मिट्टी में पानी रुकता हो वह गन्ने के लिए ठीक नहीं है. क्षारीय या अम्लीय जमीन भी गन्ने के लायक नहीं समझी जाती है. खेत को तैयार करने के लिए 1 बार मिट्टी पलटने वाले हल से जोत कर 3 बार हैरो से जुताई करनी चाहिए. देशी हल की 5 से 6 जुताइयां काफी होती हैं. बोआई के समय खेत में नमी होना जरूरी है.

जमीन का शोधन : दीमक लगी जमीन में कूड़ों में बीजों के ऊपर क्लोरोपाइरीफास दवा का इस्तेमाल करें. यदि बाद में भी दीमक का असर दिखाई दे, तो खड़ी फसल में सिंचाई के पानी के साथ बूंदबूंद विधि द्वारा क्लोरोपाइरीफास कीटनाशक का ही इस्तेमाल करें. हेप्टाक्लोर 20 ईसी दवा की 6.25 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में मिला कर गन्नाबीज टुकड़ों पर कूड़ों में छिड़कने से दीमक व कंसुआ कीटों की रोकथाम होती है.

बीजोपचार : जमीन व बीजों में लगे रोगों से फसल को बचाने के लिए गन्ने के टुकड़ों को नम वायु उपचार विधि से उपचारित करने के बाद बोने से पहले फफूंदनाशक दवाओं जैसे एगलाल 1.23 किलोग्राम, एरीटान 625 ग्राम या बैंगलाल 625 ग्राम दवा के 250 लीटर पानी में बनाए घोल में डुबो कर उपचारित करें.

बोआई का समय :  जल्दी व असरदार आंख जमाव के लिए गरम, मगर नमी वाली जमीन जरूरी है. 25 से 30 डिगरी सेल्सियस तापमान में अक्तूबर में शरद कालीन गन्ना (Sugarcane) बोया जाता है. फरवरी से 15 मार्च तक बसंत कालीन गन्ना बोया जाता है.

उत्तर प्रदेश के बडे़ हिस्से जिस में पश्चिमी उत्तर प्रदेश खास है, गेहूं की कटाई के बाद गरमी कालीन गन्ना (Sugarcane) अप्रैल के आखिरी हफ्ते से जून के पहले हफ्ते तक बोया जाता है. ज्यादा तापमान (40 से 45 डिगरी सेल्सियस) और ज्यादा शर्करा युक्त बीज होने से जमाव बहुत कम हो जाता है.

बिजाई के नए तरीके मेंड़ें व नाली विधि से सूखे में

बिजाई : मेंड़ें व नालियां 90 सेंटीमीटर के फासले पर ट्रैक्टर चलित रेजर द्वारा बनाई जाती हैं. गन्ने की बिजाई हाथ द्वारा की जाती है. मेंड़ों को कस्सी द्वारा मिट्टी से ढकने के बाद हलकी सिंचाई कर दी जाती है. नमी पैदल चलने लायक होने पर एट्राजीन 2 किलोग्राम मात्रा 350 से 400 लीटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए. उस के बाद जरूरत के मुताबिक सिंचाई करते रहना चाहिए.

Sugarcane

ट्रेंच तरीके से 2 लाइनों मे बिजाई : ट्रैक्टर चालित ट्रैंच ओपनर द्वारा 150 सेंटीमीटर की दूरी पर 12 से 18 चौड़े ट्रैंच बना दिए जाते है. 2 बराबर लाइनों में 30:30-120 से 30:30 सेंटीमीटर या 30:30-90-30:30 सेंटीमीटर की दूरी पर बिजाई की जाती है. बीच की जगह पर अंत:फसल ली जानी चाहिए. मेंड़ व नाली विधि से ज्यादा उपज व मुनाफा होता है.

गड्ढा विधि : 60 सेंटीमीटर व्यास और 30 सेंटीमीटर गहराई वाले करीब 2700 गोल गड्ढे किसी ट्रैक्टर चलित गड्ढा मशीन द्वारा बनाए जाते हैं, जिन में आपस की दूरी 60 सेंटीमीटर होती है. बिजाई से पहले गड्ढों को हलकी मिट्टी और गोबर की खाद से 15 सेंटीमीटर तक भर दिया जाता है.

फिर 22 दो आंखों वाले बीजों के टुकडे़ उन में रख कर 5 सेंटीमीटर तक मिट्टी चढ़ा दी जाती है.

सिंचाई : गन्ने की फसल की पानी की जरूरत काफी ज्यादा है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में करीब 4 से 5 और पश्चिमी इलाकों में 6 से 8 सिंचाइयों की जरूरत पड़ती है. सिंचाई सुविधा यदि सीमित हो तो गन्ने के जमाव, कल्लों के निकलने और पकने की अवस्थाओं में सिंचाई जरूर करें. उत्तर प्रदेश के किसान ज्यादातर जलभराव विधि अपनाते हैं, जो सिंचाई के पानी की बरबादी के साथसाथ खरपतवारों और पोशक तत्त्वों की कमी को ही बढ़ावा देती है.

एकांतर नाली विधि में 1 लाइन छोड़ कर हर दूसरी लाइन के बीच खाली जमीन पर 45 सेंटीमीटर चौड़ी और 15 सेंटीमीटर गहरी नाली बना कर पानी दिया जाता है. इस से 36 फीसदी पानी की बचत के साथसाथ उपज भी सामान्य से ज्यादा मिलती है.

पोषक तत्त्वों का इंतजाम : गन्ने की खेती में पोषक तत्त्वों की अहमियत बहुत ज्यादा है. इन की सही मात्रा की जानकारी के लिए मिट्टी की जांच कराना बहुत जरूरी होता है. आमतौर पर 120 से 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 से 80 किलोग्राम फास्फोस्स व 60 किलोग्राम पोटाश सक्रिय तत्त्वों की सिफारिश की जाती है. स्थानीय हालात व मिट्टी के आधार पर दूसरे तत्त्वों का इस्तेमाल भी बहुत जरूरी है.

फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की एकतिहाई मात्रा बोआई के समय कूड़ों में गन्ने के बीजों के नीचे या बीज कूड़ के साथ खोले गए खाली कूंड़ में डालनी चाहिए. नाइट्रोजन की बची मात्रा 2 बार में सिंचाई सुविधा के मुताबिक बारिश शुरू होने से पहले डाल दें. जीवांश की कमी को दूर करने के लिए बोआई से पहले गोबर की खाद 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर (मौजूदगी के मुताबिक) डालें.

इस के अलावा हरी खाद फसलों को गन्ने के साथ अंत: फसली फसल के रूप में बो कर 45 से 60 दिनों की अवस्था में खेत में मिलाएं.  गन्ना पेडी में 25 से 30 फीसदी ज्यादा नाइट्रोजन व फास्फोरस और पोटाश की तय मात्रा जरूर डालें.

खरपतवारों की रोकथाम : गन्ने में मोथा, पत्थर चट्टा, वनचरी, कृष्णनील, बथुआ, जंगलगोभी, दूब घास, कांग्रेस घास व पारथेनियम घास जैसे तमाम खरपतवार उगते हैं. पिछले कुछ सालों से आइपोमिया प्रजाति की बेल का प्रकोप अधिकतर गन्ना (Sugarcane) इलाकों में फैला है. यह बेल गन्ने की मेंड़ों को पूरी तरह जकड़ कर गन्ने के फुटाब व बढ़वार पर बहुत खराब असर डालती है.

बोआई के ठीक बाद जमाव से पहले एट्राजीन या सोमाजिन दवा के 2 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व को 700 से 800 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करने और 30 से 40 दिनों बाद 2 से 4 डी नामक रसायन के 1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व को 800 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करने से करीबकरीब सभी खरपतवार खत्म हो जाते हैं. एट्राजीन के बाद 25 से 30 दिनों पर 1 बार जुताई व गुड़ाई कर देने से भी खरपतवार खत्म होते हैं.

दूसरे जरूरी काम

गन्ने की कटाई व सिंचाई के फौरन बाद ठूठों की छंटाई जरूर करें. यदि गन्ने के 2 थानों के बीच 45 सेंटीमीटर या इस से ज्यादा जगह खाली हो तो 25 से 30 दिनों की तैयार की भराई 15 अप्रैल तक जरूर कर दें. पौधों को गिरने से बचाने के लिए मिट्टी चढ़ाएं व बंधाई करें.

मिट्टी चढ़ाना व फसल की बंधाई करना : बरसात शुरू होने से पहले यदि मिट्टी चढ़ा देते हैं, तो बाद में उगे खरपतवारों की रोकथाम के साथसाथ बारिश के पानी का ज्यादा संरक्षण व फसल का गिरना कम होता है.

ज्यादा बढ़वार वाली गन्ने की फसल को गिरने से बचाने के लिए जरूरत के मुताबिक 1 से 3 बंधाई भी जरूर करें. फसल गिरने से उपज में भारी कमी आती है और गन्ने की शक्कर में कमी होती है और जलकल्लों का ज्यादा जमाव होता है.

कटाई : जैसे ही हैंड रिप्रफैक्टोमीटर दस्ती आवर्तन मापी का बिंदु 18 पर पहुंचे तो गन्ने की कटाई शुरू कर देनी चाहिए. यंत्र न होने पर गन्ने की मिठास से भी गन्ने के पकने का पता लगाया जा सकता है.

नवंबर से जनवरी तक तापमान कम होने के कारण काटे गए गन्ने में फुटाव कम होता है, नतीजतन उस की पेडी अच्छी नहीं होती है. लिहाजा पेडी से ज्यादा उत्पादन लेने के लिए गन्ने की कटाई मध्य जनवरी से मार्च तक करनी चाहिए.

गन्ने की कटाई की सही विधि : मेंड़ें समतल कर के गन्ने की कटाई तेज धार वाले हथियार से जमीन की सतह से करनी चाहिए. ऐसा न करने पर अंकुर पेड़ के ऊपर निकलने के कारण पैदावार कम होगी. अगर समय से गन्ने की कटाई कर रहे हों, तो जलकल्लों को काट देना चाहिए और देर से अप्रैलमई में कटाई करने पर जलकल्लों को छोड़ना फायदेमंद रहता है.

उपज : गन्ने की वैज्ञानिक विधि से खेती करने पर 60 से 75 टन प्रति हेक्टेयर उपज ली जा सकती है.

गन्ने के रोग और रोकथाम

Sugarcane

लाल सड़न (कोलेटाट्राइकम फालकेटम) : तने को लंबाई में चीरने पर अंदर का गूदा लाल रंग का दिखाई देता है. रोगी गन्ने के गूदे से सिरके जैसी बदबू आती है. बाद में गन्ना (Sugarcane) खोखला हो कर सूख जाता है और वजन बहुत कम हो जाता है. खोखली पोरियों में फफूंदी लगने से कभीकभी भूरेलाल रंग की फफूंदी भी दिखायी देती है. गन्ना (Sugarcane) गांठ से आसानी से टूट जाता है.

रोकथाम

गन्ने के टुकड़ों को बोने से पहले कार्बेंडाजिम फफूंदीनाशक के 0.1 फीसदी घोल में 10 मिनट के लिए डुबो लेना चाहिए. गन्ने की पोरियों को वायुरुद्व कक्ष मे 54 डिगरी सेंटीग्रेड पर 8 घंटे तक रखने पर लाल सड़न रोग का कवक बेकार हो जाता है. रोगरोधी किस्में जैसे को 100, को 1336, को 62399, कोएस 510, बीओ 91 व बीओ 70 आदि का इस्तेमाल बोआई के लिए करें.

उकठा (सिफैलोस्पोरियम सेकेराई) : पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं और मुरझा जाती हैं. रोगी गन्ने को लंबाई में चीर कर देखने पर मटियाला लाल दिखाई देता है. गन्ना (Sugarcane) सूख कर हलका और पिचक कर खोखला हो जाता है. रोगी पौधों से सड़ी हुई मछली जैसी गंध आती है. गन्ने के वजन व गुणवत्ता में कमी आ जाती है.

रोकथाम

फसलचक्र में 2 या 3 साल में कम से कम 1 बार हरी खाद के रुप में ढैंचा जरूर उगाएं. गन्ने के टुकड़ों को बोने से पहले एगालाल या ऐरीटान 0.25 फीसदी के घोल में 10 मिनट तक डुबोएं.

कुडुवा (अस्टीलगो सिटैमीनिया) : रोगी पौधों के सिरे से काले रंग के चाबुक के आकार का भाग का निकलता है. इसे एक चमकीली झिल्ली ढके रहती है, जिस में काले रंग का चूर्ण भरा होता है. यह चूर्ण फफूंद के बीजाणु होते हैं.

रोकथाम

रोगग्रस्त पौधों को उखाड़ कर खत्म कर दें. रोगी फसल की पेड़ी नहीं लेनी चाहिए.

रोगरोधी किस्में को 449, को 6806 आदि उगानी चाहिए.

मोजैक (विषाणु) : ग्रसित पौधों में पत्ती के हरे रंग के बीच में हरेपीले धब्बे पाए जाते हैं. शक्कर व गुड़ की मात्रा व गुणवत्ता पर इस का बुरा असर पड़ता है.

रोकथाम

माहूं इस रोग को फैलाता है. मेटासिस्टाक्स 30 ईसी या रोगोर 30 ईसी प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर इस्तेमाल करें.

पोक्हा बोइंग : रोग का लक्षण जूनजूलाई में दिखता है. रोगग्रस्त पौधों के गोब की ऊपरी पत्तियां आपस में उलझी हुई होती हैं, जो बाद की अवस्था में किनारे से कटती जाती हैं. गन्ने की गोब पतलीलंबी हो जाती है. छोटीछोटी 1-2 पत्तियां ही लगी होती हैं. अंत में गन्ने  की गोब की बढ़वार वाला  अगला भाग मर जाता है और सड़ने जैसी गंध आती है.

रोकथाम

इस की रोकथाम अवरोधी किस्मों की खेती द्वारा की जा सकती है. इस बीमारी के लक्षण दिखाई देने पर कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी या कापर आक्सीक्लोराइड 2 ग्राम प्रति लीटर पानी या मैंकोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से फसल पर छिड़काव कर के इस बीमारी के फैलाव को कम किया जा सकता है.

खास कीड़े और उन की रोकथाम

दीमक (ओडोंटोटर्मिस ओबेसेस) : ये कीड़े गन्ने की बोआई के बाद गन्ने के टुकड़ों के कटे सिरों व टुकड़ों पर मौजूद आंखों पर आक्रमण कर के हानि पहुंचाते हैं. ये जमीन के पास वाली पोरियों का गूदा खा जाते हैं.

रोकथाम

गन्ने के टुकड़ों को बोआई से पहले इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्लूएस से उपचारित कर लेना चाहिए. 1 किलोग्राम बिवेरिया व 1 किलोग्राम मेटारिजयम को प्रभावित खेत में प्रति एकड़ की दर से बोआई से पहले डालें. सिंचाई के समय इंजन से निकले हुए तेल की 2-3 लीटर मात्रा डालें. प्रकोप ज्यादा होने पर क्लेरोपाइरीफास 20 ईसी की 3-4 लीटर मात्रा को रेत में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

व्हाइट ग्रब ( होलोट्राईकिया कोनसेनजिनिया) : इस की सूंड़ी जमीन के अंदर रहती है और गन्ने के जीवित पौधों की जड़ों को खाती है, सूंड़ी द्वारा जड़ को काट देने से पूरा पौधा पीला पड़ कर सूखने लगता है.

रोकथाम

बोआई से पहले ब्यूवेरिया ब्रोंगनियार्टी की 1.0 किलोग्राम व मेटारायजियम एनासोप्ली की 1.0 किलोग्राम मात्रा प्रभावित खेत में प्रति एकड़ की दर से बोआई से पहले डालें. कीटनाशी रसायन क्लोरपायरीफास 10 ईसी, क्विनालफास 25 ईसी व इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल द्वारा गन्ने के बीज उपचारित करें. गन्ना (Sugarcane) बोने से पहले दानेदार कीटनाशी रसायन फोरेट 10 जी की 25 किलोग्राम मात्रा से प्रति हेक्टेयर की दर से जमीन उपचारित करें. इस प्रकार गन्ने की वैज्ञानिक तरीके से खेती कर के भरपूर उपज ली जा सकती है.

Urad: उड़द  की आधुनिक खेती

दलहनी फसलों में उड़द (Urad) की एक खास जगह है. शाकाहारी व्यक्तियों के लिए प्रोटीन की जरूरत पूरी करने में दलहनी फसलों का खास योगदान है.

दलहनी फसलों में प्रोटीन की मात्रा 15 से 34 फीसदी पाई जाती है. दलहनी फसलों की खेती से मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है.

इन फसलों की खेती में नाइट्रोजन वाले उर्वरक कम डालने की जरूरत पड़ती है, क्योंकि इन फसलों की जड़ों की गांठों में पाए जाने वाले जीवाणुओं द्वारा वायुमंडल से नाइट्रोजन ले कर इक्ट्ठा किया जाता है. लिहाजा दलहनी फसलों की खेती करने से किसानों को दोहरा मुनाफा मिलता है.

उड़द (Urad) की खेती आधुनिक विधि से करने में उपज ज्यादा होती है. यदि कोई किसान फसल पकने के समय खड़ी फसल से फलियों की तोड़ाई कर लेता है, तो खेत में बचे हुए खाली पौधों की खेत में ही जुताई कर देने से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ व जीवाणुओं की मात्रा में इजाफा होगा, जिस से कि अगले मौसम में उस खेत में दूसरी फसल को लाभ पहुंचता है.

जमीन का चुनाव : उड़द (Urad) की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी जिस में पानी की रुकावट न हो बढि़या मानी गई है. वैसे किसी भी तरह की मिट्टी में इस की खेती कामयाबी से की जा सकती है.

बोने का सही समय : उड़द (Urad) की बोआई के लिए मार्च का पहला हफ्ता मुनासिब माना जाता है. लेकिन इस की बोआई अपै्रल तक की जा सकती है. उड़द (Urad) की बोआई अरहर के साथ मिला कर मिलवां खेती के रूप में की जाती है. अच्छी उपज के लिए समय से बोआई करना मुनासिब रहता है.

बीज की मात्रा : 1 हेक्टेयर बोआई के लिए करीब 25 से 30 किलोग्राम बीज की जरूरत पड़ती है. जहां तक हो सके प्रमाणित बीज का ही इस्तेमाल करें, जो कि सरकारी बीज गोदामों या कृषि विश्वविद्यालयों पर मिलता रहता है. सरकारी बीज की दुकानों से भी बीज ले सकते हैं.

बोआई : उड़द (Urad) की खेती के लिए कूंड़ों में बोआई करना ठीक रहता है. इस में कूंड़ से कूंड़ की दूरी 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. उड़द (Urad) की बोआई बिखेर कर करनी चाहिए, क्योंकि पाटा लगाते समय यदि बीज इकट्ठा हो जाएंगे तो एक ही स्थान पर पौधों की संख्या ज्यादा हो जाएगी व फसल की बढ़वार नहीं होगी.

बीज उपचार :  बोआई से पहले बीजों का उपचार करना जरूरी होता है. यह काम कम लागत में किया जा सकता है. यह फसल की अच्छी पैदावार व बीमारियों की रोकथाम के लिए बेहतर होगा. 3 ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर बीजों को उपचारित करने के बाद बीजों को राईजोबियम कल्चर के 1 पैकेट से 10 किलोग्राम बीजों की दर से उपचारित करें, इस से फसल की पैदावार में बढ़ोत्तरी होगी.

खाद व उर्वरक : दलहनी फसलों की खेती में उर्वरकों का कम इस्तेमाल करना चाहिए. यदि कंपोस्ट व गोबर की सड़ी हुई खाद मौजूद हो, तो उसे खेत में जरूर डालें. इस से मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति बढ़ती है. उड़द (Urad) की खेती के लिए 15 से 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस और 20 से 30 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले इस्तेमाल करने से उपज में इजाफा होगा.

सिंचाई : जायद मौसम में उड़द (Urad) की खेती करने के लिए सिंचाई की जरूरत पड़ती है. हर हफ्ते जरूरत के मुताबिक सिंचाई करनी चाहिए. गरमी में पानी की ज्यादा जरूरत पड़ती है.

खरपतवारों की रोकथाम : बोआई के 20 से 25 दिनों बाद निराई व गुड़ाई कर के समय से खरपतवारों को निकाल देना चाहिए. चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिए खरपतवार नाशक दवा का भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इस के लिए फल्यूक्लोरीन 45 फीसदी दवा की 2 लीटर मात्रा 700 से 800 लीटर पानी में घोल कर बोआई से पहले छिड़काव कर के खेत में मिला देना चाहिए. यदि यह दवा न मिले तो दूसरी दवा लासों की 4 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 700 से 800 लीटर पानी में घोल कर बोआई के तुरंत बाद छिड़काव करें.

 

उड़द (Urad) के खास कीट

काला लाही (माहूं) : पौधे से फली निकलने की अवस्था में इस कीट के शिशु व वयस्क पौधों की पत्तियों पर पाए जाते हैं. ये बसंतकालीन फसल की कोमल टहनियों, फूलों व कम पकी फलियों से रस चूसते हैं, जिस से पौधे कमजोर हो जाते हैं. मानसून से पहले हलकी बारिश होने पर फलियां और दाने कमजोर होते हैं. पुरवा हवा बहने से गरमी की फसल पर इन की संख्या अचानक तेजी से बढ़ सकती है.

रोकथाम : माहूं का हमला होने पर पीले चिपचिपे ट्रैप का इस्तेमाल करें, जिस से माहूं ट्रैप पर चिपक कर मर जाएं. परभक्षी काक्सीनेलिड्स या सिरफिड या क्राइसोपरला कार्निया का संरक्षण कर के 50000-100000 अंडे़ या सूंडि़यां प्रति हेक्टयर की दर से छोड़ें. नीम का अर्क 5 फीसदी या 1.25 लीटर नीम का तेल 100 लीटर पानी में मिला कर छिड़कें. ज्यादा प्रकोप होने पर मेटासिस्टाक्स 25 ईसी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या डाइमेथोएट 30 ईसी का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का छिड़काव करें.

हरा फुदका (जैसिड) : फसल की शुरुआती अवस्था से ले कर इस के शिशु व वयस्क पौधों की पत्तियां व फलियां निकलने तक आक्रमण कर के रस चूसते हैं. इस से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और आखिर में सूख कर झड़ने लगती हैं.

रोकथाम : कीट की संख्या नुकसान के स्तर से ऊपर जाते ही मेटासिस्टाक्स 25 ईसी या डाइमेथोएट 30 ईसी या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल या थायोमेक्जाम 25 ईसी का 1 मिलीमीटर प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें.

सफेद मक्खी : ये कीट पौधों से रस चूस कर पत्तियों पर रस छोड़ते हैं. द्रव पर काला चूर्णी फफूंदी (शूटी मोल्ड) के पनपने और फैलने के कारण प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बाधित होती?है. पीला मोजैक के विषाणु के तेजी से फैलाव से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और फलियां कम लगती हैं और उन का आकार सामान्य से छोटा होता है. उन में दाने पूरी तरह विकसित नहीं हो पाते. फसल पूरी तरह से बरबाद हो जाती है.

रोकथाम : बोआई से 24 घंटे पहले डायमेथोएट 30 ईसी कीटनाशी रसायन से 8.0 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए. मिथाइल डेमीटान (मेटासिस्टाक्स) 25 ईसी का 625 मिलीलीटर या मैलाथियान 50 ईसी या डायमेथोएट 30 ईसी का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से जरूरत पर छिड़काव करना चाहिए.

थ्रिप्स : उड़द (Urad) की फसल पर फूल की दशा में गरमी की बोआई में थ्रिप्स का मुलायम कलियों पर हमला होता है. ये कीट फूलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं. बसंत व गरमी में फूल खिलने से पहले ही झड़ जाते हैं. दाने सही तरह से नहीं बन पाते. सभी रस चूसक कीटों में थ्रिप्स सब से ज्यादा नुकसानदायक है.

रोकथाम : जमीन में नमी की कमी होने पर 1 बार हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए ताकि थ्रिप्स के हमले को कम किया जा सके. थ्रिप्स की रोकथाम के लिए फूल खिलने से पहले ही डायमेथोएट 30 ईसी या मैलाथियान 50 ईसी का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर या मेटासिसटाक्स 25 ईसी का 700 मिलीलीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

Uradखास रोग

पीली चितेरी रोग (येलो मोजेक) : यह विषाणु द्वारा पैदा होने वाला सब से ज्यादा विनाशकारी रोग है. यह विषाणु बीज व छूने से नहीं फैलता. पीली चितेरी रोग सफेद मक्खी (बेमिसिया टैबेसाई) जो एक रस चूसक कीट है, के द्वारा फैलता है. इस रोग की उग्र दशा में 100 फीसदी तक उपज का नुकसान होता है. जो पौधे शुरुआत में ही रोग ग्रसित हो जाते है, वे बिना कोई उपज दिए ही खत्म हो जाते हैं.

रोकथाम : रोग रोधी प्रजातियां नरेंद्र उड़द 1, आईपीयू 94-1 (उत्तरा), आजाद उड़द 1, केयू 300, शेखर 2 आदि लगाएं. सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए फसल पर मेटासिस्टाक्स या डामेथोएट या मोनोक्रोटोफास (0.04 फीसदी) से छिड़काव करना चाहिए.

झुर्रीदार पत्ती रोग (लीफ क्रिंकल) : यह रोग उड़द (Urad) बीन लीफ क्रिंकल विषाणु द्वारा होता है. रोग का फैलाव पौधे के रस व बीज से होता है. यह खेत में लाही (माहूं) व अन्य कीटों द्वारा भी फैलता है. इस रोग के लक्षण फसल बोने के 3-4 हफ्ते बाद नजर आते हैं. रोगी पत्तियों की परत पर सिकुड़न (झुर्रियां) व मरोड़पन होता है. रोगी पौधों में फूल देर से आते?हैं और वे छोटे व गुच्छेदार हो जाते हैं. अधिकतर कलिकाएं व फूल पूरी तरह से बढ़वार होने से पहले ही गिर जाते हैं.

रोकथाम : यह रोग सफेद मक्खी या माहूं द्वारा फैलता है, इसलिए इस की रोकथाम करने के लिए फसल पर मेटासिस्टाक्स या मैलाथियान या डायमेथोएट या मोनोक्रोटोफास (0.04 फीसदी) से छिड़काव करना चाहिए.

सर्कोस्पोरा पत्र बुंदकी रोग (सर्कोस्पोरा लीफ स्पाट) : इस रोग के लक्षण पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं. धब्बों का बाहरी भाग भूरे रंग का होता है. ये धब्बे पौधे की शाखाओं व फलियों पर भी बन जाते हैं. सही वातावरण में ये धब्बे बड़े आकार के हो जाते हैं और फूल आने व फलियां बनने के समय रोगी पत्तियां गिर जाती हैं.

रोकथाम : बोआई से पहले बीजों को कवकनाशी कार्बाडेंजिम 2 ग्राम या थीरम 2-5 ग्राम से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करना चाहिए. फसल पर रोग के लक्षण दिखाई पड़ते ही कार्बेंडाजिम (0.1 फीसदी) या मैंकोजेब (0.2 फीसदी) कवकनाशी के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

चूर्णी फफूंदी रोग (पाउड्री मिल्ड्यू) : यह रोग इरीसिफी पोलीगोनाई नामक कवक द्वारा पैदा होता है. गरम और सूखे वातावरण में यह रोग तेजी से फैलता है. इस रोग में पौधों की पत्तियों, तनों व फलियों पर सफेद चूर्णी धब्बे दिखाई देते हैं. ये धब्बे बाद में मटमैले रंग के हो जाते हैं. रोग के बहुत ज्यादा प्रकोप से पत्तियां पूरी विकसित होने से पहले ही सूख जाती हैं.

रोकथाम : फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही कार्बेंडाजिम 1 ग्राम या सल्फेक्स 3 ग्राम का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

राइजोक्टोनिया जाल अंगमारी (वेब ब्लाइट) : यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनाई नामक कवक द्वारा पैदा होता है, जो माकूल वातावरण मिलने पर जल्दी ही फैल कर डंठल व तने तक पहुंच जाता है. इस रोग में पत्तियां पहले पीली और बाद में भूरे रंग की हो कर सूख जाती हैं. ज्यादा प्रकोप में धब्बे पकी फलियों पर भी दिखाई देते हैं.

रोकथाम : बोआई से पहले बीजों को कवकनाशी जैसे थीरम या वाइटावैक्स की 2.5 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए. खड़ी फसल में संक्रमण दिखाई देने पर कार्बाडेंजिम (बेनोमिल) का 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए.

कटाईगहाई

जब फसल 80 फीसदी तक पक जाती है, तो उसे जड़ से उखाड़ लेते हैं. उड़द (Urad) की फलियां गुच्छों में लगती हैं. पूरी फसल में फलियों को 2 से 3 बार में तोड़ लिया जाता है. आमतौर पर खरीफ की फसल में कुछ फलियां आखिर तक बनती रहती हैं. ऐसी दशा में पकी फलियों को तोड़ना फायदेमंद होगा. तकरीबन 80 फीसदी फलियां पकने पर फसल की कटाई कर सकते हैं. पकी फसल पर बारिश होने की हालत में फलियों के अंदर दाने जमने लगते हैं. इसलिए मौसम को ध्यान में रखते हुए फसल की कटाई व फलियों की तोड़ाई करना फायदेमंद रहता है.

उपज : उड़द (Urad) की औसत उपज 10 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. वैज्ञानिक विधि से खेती करने पर इस की पैदावार 25 क्विंटल प्रति हेक्टयर तक ली जा सकती है.

पूसा कृषि विज्ञान मेला (Pusa Agricultural Science Fair) 2025

नई दिल्ली : भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली का पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025 22 फरवरी से 24 फरवरी में आयोजित होने जा रहा है. मेले का विषय “उन्नत कृषि विकसित भारत” है.

इस उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान होंगे. रामनाथ ठाकुर, राज्य मंत्री, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय इस कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि होंगे. भागीरथ चौधरी, राज्य मंत्री, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय 24 फरवरी, 2025 को आयोजित समापन सत्र के मुख्य अतिथि होंगे. डा. हिमांशु पाठक, सचिव डेयर और महानिदेशक, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद उद्घाटन और समापन सत्र की अध्यक्षता करेंगे.

इस साल के पूसा कृषि विज्ञान मेले के मुख्य आकर्षण होंगे :

– भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित नई किस्मों और तकनीकों का लाइव  प्रदर्शन.

– भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद  के संस्थानों, कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विज्ञान केंद्रों, एफपीओ, उद्यमियों, स्टार्टअप्स, सार्वजनिक और निजी कंपनियों द्वारा नवीन तकनीकों, उत्पादों और सेवाओं की प्रदर्शनी.

– तकनीकी सत्र और किसानों वैज्ञानिकों के साथ संवाद, जो जलवायु अनुकूल कृषि, फसल विविधीकरण, डिजिटल कृषि, युवाओं और महिलाओं का उद्यमिता विकास, कृषि विपणन, किसान संगठन और स्टार्टअप्स, और किसानों के नवाचार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर आधारित होंगे.

– पूसा द्वारा विकसित फसलों की किस्मों की बिक्री.

– मेले के दौरान कृषि वैज्ञानिकों द्वारा कृषि सलाह.

जलवायु जोखिम और पोषण के बढ़ते महत्व को समझते हुए पूसा संस्थान में अनुसंधान जलवायु अनुकूल किस्मों और बायोफोर्टिफाइड किस्मों के विकास पर केंद्रित है, जो उच्च उत्पादकता के साथ बेहतर पोषण सुरक्षा प्रदान करता है.

साल 2024 के दौरान 10 विभिन्न फसलों में कुल 27 नई किस्में विकसित की गई हैं, जिन में 7 गेहूं की किस्में, 3 चावल, 8 संकर मक्का, 1 संकर बाजरा, 2 चने की किस्में, 1 अरहर संकर, 3 मूंग दाल की किस्में, 1 मसूर की किस्म, 2 डबल जीरो सरसों की किस्में और 1 सोयाबीन की किस्म शामिल हैं. इन में 16 किस्में और 11 संकर किस्में हैं.

बदलते जलवायु परिदृश्य के तहत पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए 10 जलवायु अनुकूल और बायोफोर्टिफाइड किस्मों का विकास किया गया है, जिस में 7 अनाज और मिलेट्स, 2 दालें और 1 चारा किस्म शामिल है.

संस्थान ने बासमती धान उत्पादन और व्यापार में श्रेष्ठ किस्मों के विकास के माध्यम से विशाल योगदान दिया है. पूसा बासमती धान की किस्मों में पूसा बासमती 1718, पूसा बासमती 1692, पूसा बासमती 1509 और उन्नत बासमती धान की किस्में, जिन में बैक्टीरियल ब्लाइट और ब्लास्ट रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता है, जैसे पीबी-1847, पीबी-1885 और पीबी-1886.

साल 2023-2024 में भारत से 5.2 मिलियन टन बासमती धान के निर्यात से 48,389 करोड़ रुपए की आय में लगभग 90 फीसदी योगदान करती है. अप्रैल, 2024 से नवंबर, 2024 तक पूसा के बासमती धान से निर्यात आय 31,488 करोड़ रुपए तक पहुंची है. 2 छोटी अवधि वाली धान की किस्में पूसा 1824 और पूसा 2090 विकसित की गई हैं, जो बाद में रबी फसल के खेतों की तैयारी के लिए पर्याप्त समय प्रदान कर सकती हैं.

पूसा आरएच 60 एक उच्च उपज वाली, छोटी अवधि वाली सुगंधित धान की संकर किस्म है, जिस में लंबे, पतले दाने होते हैं, जो बिहार और उत्तर प्रदेश के लिए सब से मुफीद है. पूसा नरेंद्र केएन-1 और पूसा सीआरडी केएन-2 उन्नत काला नमक धान की किस्में हैं, जिन में बेहतर प्रतिरोधक क्षमता और उच्च उपज है, जो उत्तर प्रदेश के लिए अनुशंसित हैं.

पूसा के अनुसंधान कार्यक्रम ने पोषण सुरक्षा पर भी ध्यान केंद्रित किया और 8 बायोफोर्टिफाइड किस्मों का विकास किया. एक गेहूं की किस्म (एचआई-1665) और एक ड्यूरम गेहूं की किस्म (एचआई-60 पीपीएम), प्रोविटामिन ए (6.22पीपीएम), उच्च लाइसीन (4.93 फीसदी) और ट्रिप्टोफैन (1.01 फीसदी) से समृद्ध किया गया है.

पूसा बायोफोर्टिफाइड मक्का संकर-4 को उच्च प्रोविटामिन A, लाइसीन, ट्रिप्टोफैन से बायोफोर्टिफाइड किया गया है. पूसा पौपकौर्न संकर-1 और संकर-2 उच्च पौपिंग फीसदी और बटरफ्लाई प्रकार के पौप किए गए फ्लैक्स प्रदान करते हैं, जो एनडब्ल्यूपीजेड और पीजेड क्षेत्रों के लिए अनुशंसित हैं. पूसा एचएम-4 मेल स्टीराइल बेबीकौर्न-2 एक मेल स्टीराइल आधारित संकर है, जिसे एनईपीजेडपीजेड और सीडब्ल्यूजेड क्षेत्रों के लिए विकसित किया गया है.

2 डबल जीरो सरसों की किस्में (पूसा सरसों-35 और पूसा सरसों-36), जिन में एरूसिक अम्ल और ग्लूकोसिनोलेट्स कम होते हैं. समय पर बोई गई सिंचित परिस्थितियों में यह उच्च उपज प्रदान करती हैं, जो क्षेत्र-III (मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान) के लिए उपयुक्त हैं. पूसा-1801 (एमएच 2417) बाजरा की एक द्विउद्देश्यीय किस्म (अनाज और चारा) है, जो उच्च लोहा (70 पीपीएम) और जिंक (57 पीपीएम) से युक्त बायोफोर्टिफाइड किस्म हैं. यह कई रोगों के प्रति प्रतिरोधक है और दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए सब से उपयुक्त है.

चने की किस्म पूसा चना विजय 10217 उच्च उपज वाली किस्म है, जो फ्यूजेरियम विल्ट के प्रति प्रतिरोधक है. उत्तर प्रदेश में यह सिंचित परिस्थितियों के लिए अनुशंसित है. चने की किस्म पूसा-3057 में उच्च प्रोटीन (24.3 फीसदी) है और कई रोगों, जैसे फ्यूजेरियम विल्ट (उकठा), कौलर रोट (तना गलन) और ड्राई रूट रोट (जड़ गलन) के प्रति प्रतिरोधक है.

यह पोड बोरर (फली बेधक सूँडी) के प्रति भी मध्यम प्रतिरोधक है और इस के बीज आकर्षक रंग और बड़े आकार के होते हैं.

अरहर की किस्म पूसा अरहर हाइब्रिड-5 उच्च उपज वाली किस्म है (औसतन 23.35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक, और संभावित उपज 25.46 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, जो एसएमडी, फाइटोफोथोरा स्टेम ब्लाइट, मैक्रोफोमिना ब्लाइट (अंगमारी) और अल्टरनेरिया लीफ स्पौट (पत्ती धब्बा रोग) के प्रति प्रतिरोधक है और यह दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा छोटे किसानों के लिए 1.0 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए एक एकीकृत कृषि प्रणाली मौडल विकसित किया गया है, जिस में फसलें, डेयरी, मछलीपालन, बतखपालन, बायोगैस संयंत्र, फलदार पेड़ और कृषि वनस्पति शामिल हैं. इस मौडल में प्रति हेक्टेयर हर साल 3 लाख, 79 हजार रुपए तक की शुद्ध आय प्राप्त करने की क्षमता है. इसी तरह, पूसा संस्थान द्वारा 0.4 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए एकीकृत कृषि प्रणाली मौडल विकसित किया गया है, जिस में पौलीहाउस, मशरूम की खेती के साथसाथ फसल और बागबानी आदि गतिविधियां भी शामिल हैं. इस मौडल से प्रति एकड़ हर साल एक लाख, 75 हजार 650 रुपए की शुद्ध आय पैदा करने की क्षमता है.

बागबानी आधारित फसल विविधीकरण किसानों के बीच लोकप्रिय रहा है. सब्जियों, फलों और फूलों की खेती लाभदायक रही है, जबकि फलों और सब्जियों की खेती पोषण सुरक्षा को बढ़ावा देने में भी उपयोगी है.

सब्जियों की खेती को बढ़ावा देने के लिए संस्थान ने  48 सब्जी फसलों में 268 सुधारित सब्जी किस्में विकसित की हैं, जिन में 41 संकर और 227 किस्में शामिल हैं. आईएआरआई ने गाजर (पूसा प्रतीक, पूसा रुधिरा, पूसा असिता), भिंडी (पूसा लाल भिंडी-1), भारतीय सेम (पूसा लाल सेम), ब्रोकोली (पूसा पर्पल ब्रोकोली-1) और विटामिन सी से भरपूर पालक की किस्म (पूसा विलायती पालक) जैसे पोषणयुक्त किस्में विकसित की हैं, ताकि कुपोषण की समस्या का समाधान किया जा सके.

यलो वेन मोजेक वायरस (वेयूएमवी) प्रतिरोधी और ए नैशन लीफ कर्ल वायरस (ईएलसीवी) सहिष्णु भिंडी की किस्में (पूसा भिंडी-5 और डीओएच-1) पैस्टिसाइड्स के उपयोग को कम करने और खेती की लागत में कमी लाने के लिए विकसित की गई हैं.

हाल के सालों में बैंगन की 6 किस्में और एक संकर, प्याज की 3 किस्में, खीरे की 2 किस्में और 1 संकर, भारतीय सेम की 3 किस्में, करेला की 3 संकर किस्में और खरबूजे की 2 किस्में और 1 संकर विकसित की गई हैं. 2 सौफ्टसीडेड अमरूद की किस्में, पूसा आरुषि (लाल गूदा) और पूसा प्रतीक्षा (सफेद गूदा), साथ ही, एक उभयलिंगी, सैमीड्वार्फ पपीता किस्म, पूसा पीत भी विकसित की गई है.

एक गेंदा किस्म, पूसा बहार को केंद्रीय किस्म विमोचन समिति द्वारा जोन IV, V, VI और VII में विमोचन के लिए अनुशंसा की गई है. साल 2018-19 में (239.861 टन) से ले कर साल 2023-24 में (975.478 टन) तक गुणवत्ता वाले बीजों का उत्पादन चौगुना से अधिक बढ़ा है.

जैव रसायन संभाग द्वारा विकसित पोषणयुक्त खाद्य उत्पादों में डिवाइन डो (बाजरे का आटा, जिस में गुणवत्ता वाली प्रोटीन, प्रतिरोधी स्टार्च, फाइबर और सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे Fe और Zn होते हैं) शामिल हैं. पर्लीलोफ एक ग्लूटनमुक्त ब्रेड प्री-मिक्स है, जो पूरी तरह से बाजरा से बनाया गया है, जो गेहूं आधारित ब्रेड का पोषणयुक्त विकल्प प्रदान करता है. इस का ग्लाइसैमिक इंडेक्स (पीजीई 68-69 फीसदी) कम है, जो रक्तशर्करा के प्रबंधन में मदद करता है, जबकि यह फाइबर, आवश्यक खनिजों और बायोएक्टिव यौगिकों से भरपूर होता है.

पूसा संस्थान द्वारा एक त्वरित रंगमापी परीक्षण किट ‘स्पीडीसीड व्यायबिलिटी किट’ विकसित की गई है, जो 1–4 घंटे के भीतर बीज के प्रकार के आधार पर जीवित और अव्यायी बीजों के बीच अंतर करने में सक्षम है. इस किट में एक सूचक घोल शामिल है, जो जीवित बीजों द्वारा छोड़े गए CO₂ को पकड़ने पर रंग बदलता है. पूसा एसटीएफआर मीटर, जिसे पूसा संस्थान द्वारा विकसित किया गया है, एक कम लागत, यूजर फ्रेंडली, डिजिटल एम्बेडेड सिस्टम और प्रोग्रामेबल उपकरण है, जो 14 महत्वपूर्ण मृदा मापदंडों का विश्लेषण करने के लिए है, जिस में गौण और सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे कि मृदा pH, EC, जैविक कार्बन, उपलब्ध N (जैविक कार्बन से व्युत्पन्न), P, K, S, B, Zn, Fe, Cu, Mn, साथ ही, चूना और जिप्सम की आवश्यकता का परीक्षण किया जा सकता है.

पूसा डीकंपोजर, जिसे भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित किया गया है, एक पर्यावरणीय रूप से सुरक्षित और आर्थिक रूप से प्रभावी सूक्ष्मजीव समाधान है, जो स्थल पर और स्थल के बाहर अवशेष प्रबंधन के लिए है.

पूसा डीकंपोजर को तैयार व उपयोग पाउडर रूप में भी किया गया है. यह पाउडर पूरी तरह से पानी में घुलने योग्य है और इसे आसानी से यांत्रिक स्प्रेयर के साथ उपयोग किया जा सकता है. खेत में धान के पुआल के विघटन के लिए प्रति एकड़ 500 ग्राम की सिफारिश की जाती है.

पूसा फार्म सन फ्रिज, जिसे संस्थान द्वारा विकसित किया गया है, एक औफ-ग्रिड, बैटरीरहित सौर संवर्धित और वाष्पन शीतलक संरचना है. इस प्रौद्योगिकी का उद्देश्य खेतों में एक सौर शीतलक भंडारण केंद्र स्थापित करना है. इस ठंडे भंडारण का उपयोग नाशवान वस्तुओं के भंडारण के लिए किया जाता है.

“पूसा मीफ्लाई किट” और “पूसा क्यूफ्लाई किट” तैयार व उपयोग किट हैं, जो क्रमशः फलमक्खी की समस्या को विभिन्न प्रकार के फल और ककड़ी सब्जियों में प्रबंधित करने के लिए हैं. यह एक विशिष्ट और प्रभावी तरीका अपनाती है, जो बैक्ट्रोसेरा प्रजाति के नर फलमक्खियों को आकर्षित करने और नष्ट करने के लिए पैराफेरोमोन इन्प्रेग्नेशन का उपयोग करती है. यह पूरे मौसम के लिए पर्याप्त होती है. विभिन्न किटों को रोग प्रबंधन के लिए विकसित किया गया है.

चिली लीफ कर्ल वायरस और मूंगफली पीले मोजेक वायरस का त्वरित निदान करने के लिए प्वाइंट औफ केयर डायग्नोस्टिक किट और ईजी पीसीआर डिटेक्शन किट विकसित की गई हैं. पूसा धान बकानी परीक्षण किट को बीज और मृदा में बकानी रोग का कारण बनने वाले पैथोजन (रोग कारक) की पहचान करने के लिए विकसित किया गया है.

Agricultural Equipment : सैकड़ों परिवारों को मिले अनेक कृषि उपकरण

Agricultural Equipment  : उदयपुर  स्थित महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अखिल भारतीय समन्वित कृषिरत महिला अनुसंधान परियोजना के अंतर्गत ग्राम पंचायत झाडोलफलासिया के तुरगढ़ गांव में केंद्रीय कृषिरत महिला संस्थान भुवनेश्वर द्वारा अनुसूचित जाति के उपपरियोजना के अंतर्गत तीनदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम 5 से 7 फरवरी, 2025 तक आयोजित किया गया.

प्रशिक्षण कार्यक्रम में अनुसूचित जाति के सौ परिवारों में अन्न भंडारण के लिए एल्युमिनियम की 100 कोठियां वितरित की गई. प्रशिक्षण कार्यक्रम में डा. विशाखा बंसल, प्रोफैसर व इकाई समन्वयक, प्रसार शिक्षा एवं संचार प्रबंधन ने अनाज भंडारण के लिए प्राकृतिक तरीकों के बारे में महिलाओं को जानकारी दी.

प्रशिक्षण कार्यक्रम के दूसरे दिन आदिवासी जाति के परिवारों को कृषि वैज्ञानिक डा. सुभाष चंद्र मीणा ने खेतीबारी की उन्नत तकनीक एवं मृदा स्वास्थ्य के बारे में बताया और पशुपालन के विभिन्न गुर सिखाए. साथ ही, कार्तिक सालवी ने भी मृदा संरक्षण और मृदा के अपरदन के बारे में व मिट्टी के अनुसार फसल के उत्पादन के बारे में जानकारी दी.

प्रशिक्षण के 3 दिनों में कृषि से संबंधित विभिन्न प्रकार के उपकरणों (Agricultural Equipment) को अनुसूचित जाति के 571 परिवार में वितरित किया गया. जिस में कुल मिला कर 17 उपकरण (Agricultural Equipment) जैसे सिंचाई के लिए पाइप, मिल्क कैन, सिलाई मशीन, अजोला बेड, मेटल बकेट, खुरपी, दरांती, गार्डन रेक और स्प्रेयर आदि थे.

कार्यक्रम में सहायक कृषि अधिकारी शिव दयाल मीणा ने आदानों के वितरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कार्यक्रम का संचालन डा. विशाखा बंसल, इकाई समन्वयक, कृषिरत महिला अनुसंधान परियोजना द्वारा किया गया. इस कार्यक्रम में डा. कुसुम शर्मा, अनुष्का तिवारी, यंग प्रोफैशनल एवं कार्तिक सालवी द्वारा सहयोग दिया गया.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत प्रशिक्षण (Training)

उदयपुर : महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के सामुदायिक एवं व्यावहारिक विज्ञान महाविद्यालय में संचालित राष्ट्रीय कृषि विकास योजना की परियोजना “मेवाड़ क्षेत्र की परंपरागत फसलों के प्रसंस्करणों का उत्कृष्टता केंद्र” के तहत कृषि विज्ञान केंद्र, प्रतापगढ़ के देवगढ़ गांव में दोदिवसीय कौशल विकास प्रशिक्षण (Training) कार्यक्रम आयोजित किया गया.

इस कार्यक्रम का मुख्य विषय ‘मिलेट प्रसंस्करण एवं मूल्य संवर्धन’ व ‘हलदी एवं अदरक प्रसंस्करण एवं मूल्य संवर्धन’ रहा, जिस का उद्देश्य किसानों और महिलाओं को प्रसंस्करण तकनीकों से परिचित करा कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना था. कार्यक्रम में कुल 65 ग्रामीण महिलाओं ने भाग लिया.

विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा ने इस प्रशिक्षण को किसानों और महिलाओं के लिए रोजगार के नए अवसर को उत्पन्न करने वाला बताया. परियोजना की प्रमुख अन्वेषक डा. कमला महाजनी ने बताया कि मिलेट, अदरक और हलदी प्रसंस्करण की दी गई जानकारी से महिलाओं में स्वयं का रोजगार शुरू करने की प्रेरणा मिलेगी, जिस से वे अपने लघु उद्योग स्थापित कर सकेंगी.

प्रशिक्षण के पहले दिन यंत्र चालक चित्राक्षी कछवाहा ने मिलेट और मसाला प्रसंस्करण मशीनों के उपयोग और सरकारी योजनाओं की जानकारी दी. साथ ही, डा. पायल तलेसरा और योगिता पालीवाल ने रागी और बाजरा से चौकलेट बनाने की तकनीकों को बना कर सिखाया.

दूसरे दिन योगिता पालीवाल ने अदरक कैंडी, मुरब्बा, सांवे के गाठीया बनाने का प्रशिक्षण दिया, वहीं डा. पायल तलेसरा ने विपणन, पैकेजिंग और लेबलिंग पर प्रकाश डाला.

कार्यक्रम के दौरान मिलेट आधारित उत्पादों की प्रदर्शनी भी लगाई गई, जिस से प्रतिभागियों को इन के संभावित व्यावसायिक अवसरों की जानकारी मिली. प्रशिक्षण का समापन प्रतिभागियों को प्रसंस्करण क्षेत्र में नवाचार अपनाने और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करते हुए किया गया.

किसान और बीज उत्पादकों के लिए बढ़ाई सब्सिडी (Subsidy)

नई दिल्ली : केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले दिनों  वीडियो कौंफ्रेंसिंग से एक महत्वपूर्ण बैठक की थी, जिस में समीक्षा करते हुए देश के किसानों के हित में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एवं पोषण मिशन के दिशानिर्देशों में बड़े बदलाव करने की मंजूरी  दी गई.

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के घटकों में किसानों के हित में परिवर्तन किए गए हैं. इस मिशन के दिशानिर्देशों में संशोधन करते हुए किसानों और बीज उत्पादकों के लिए सब्सिडी बढ़ाई गई है, वहीं केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अधिकारियों से साफ कहा कि योजना का लाभ सिर्फ किसानों को मिले, यह पक्का किया जाना चाहिए. ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसानों के नाम पर दूसरा कोई इस का फायदा उठा ले.

इस मिशन के तहत पारंपरिक देशी बीज किस्मों का उत्पादन बढ़ाने का प्रावधान किया गया है, वहीं पंचायत लेवल पर बीज प्रसंस्करण व भंडारण इकाई स्थापित करने की भी कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंजूरी दी है. उन्होंने आला अफसरों को निर्देश दिए कि पूरी प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए, ताकि किसानों का भला हो.

इस के साथ ही पहले “बीज और रोपण सामग्री” उपमिशन सहित “राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा और पोषण मिशन” अब कृषि संवर्धन योजना का एक घटक होगा. इस मिशन के उद्देश्य हैं- देश के चिन्हित जिलों में सतत तरीके से क्षेत्र विस्तार और उत्पादकता वृद्धि के माध्यम से चावल, गेहूं, दलहन, मोटे अनाज (मक्का व जौ) व पोषक अनाज (श्री अन्न) का उत्पादन बढ़ाना, व्यक्तिगत खेत लेवल पर मिट्टी की उर्वरता व उत्पादकता बढ़ाना, किसानों में विश्वास बहाल करने के लिए  कृषि लाभ को बढ़ाना और कुशल बाजार संपर्कों के माध्यम से किसानों को बेहतर मूल्य प्राप्ति के लिए खेत पर फसलोपरांत मूल्य संवर्धन को बढ़ाना और बीज प्रतिस्थापन दर और किस्म प्रतिस्थापन दर को बढ़ाना एवं देश के बीज क्षेत्र के लिए इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर ढांचे में सुधार करना आदि.

इस बैठक में केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नई प्रजातियों के प्रदर्शन, प्रमाणित बीज उत्पादन एवं प्रमाणित बीज वितरण के घटकों में किसानों के लिए सब्सिडी बढ़ाने की मंजूरी दी है. साथ ही, जलवायु अनुकूल, बायोफोर्टिफाइड और उच्च उपज देने वाली किस्मों के उत्पादन को प्राथमिकता दी जाएगी. साथ ही, इस मिशन के सभी प्रावधानों पर डिजिटली मानीटरिंग की जाएगी. कृषि मैपर और साथी पोर्टल की सहायता भी इस में ली जाएगी.

केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान  ने कहा कि स्कीम का फायदा किसानों को पूरी तरह से मिलना सुनिश्चित किया जाए व स्कीम के केंद्र में किसान ही हो.

इसी तरह पारंपरिक किस्मों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंजूरी दी है, क्योंकि ये पारंपरिक किस्में फसल विकास, स्थानीय अनुकूलन, पोषण मूल्य व अन्य महत्वपूर्ण विशेषताओं में रणनीतिक महत्व रखती हैं. इस प्रकार पहचान, सूचीकरण, उन के उत्पादन के मुख्य क्षेत्रों की पहचान, जियो टैगिंग, उन के उत्पादन में वृद्धि, उन के उत्पादों को लोकप्रिय बनाने और उन की विपणन क्षमता बढ़ाने जैसे समग्र दृष्टिकोण के साथ पारंपरिक किस्मों को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है. इसलिए, इस घटक में उन के बीज वितरण, उत्पादन, विभिन्न पहलुओं में क्षमता निर्माण व पीपीवीएफआरए व राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण द्वारा पंजीकृत ऐसी किस्मों के बीज बैंक के निर्माण व विकास पर सहायता भी दी जाएगी.

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन में संशोधित दिशानिर्देशों में ग्राम पंचायत स्तर पर बीज प्रसंस्करण एवं भंडारण इकाई का प्रावधान भी किया गया है. इस के तहत बीज और रोपण सामग्री के ग्राम पंचायत लेवल पर बीज प्रसंस्करण एवं भंडारण इकाई को पुनर्जीवित करने की मंजूरी भी केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा दी गई है, ताकि देशभर के किसानों के आसपास के क्षेत्र में स्थानीय स्तर पर बीज प्रसंस्करण, सफाई, ग्रेडिंग, पैकेजिंग व भंडारण के काम किया जा सकें.

साथ ही, गैरपारंपरिक तरीके से आलू बीज उत्पादन के लिए नए घटक के निर्देशों को भी कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंजूरी प्रदान की है, वहीं बीज उत्पादन, विधायन, प्रमाणीकरण एवं टेस्टिंग से जुड़ी विभिन्न सरकारी एजेंसियों को दी जाने वाली सहायता में भी बढ़ोतरी की गई है, ताकि वे सशक्त हो कर और बेहतर काम कर सकें.