फसलों को शीत लहर और पाले से बचाएं

सर्दी के मौसम में शीत लहर और पाले से मानव, पशु, पक्षी, फसल आदि सभी प्रभावित होते हैं. सावधान न रहने पर बहुत नुकसान हो सकता है. ये सभी इस से बचने के लिए उपाय कर लेते हैं, लेकिन फसलों को बचाने लिए किसानों को सावधानी रखनी होगी.

इस विषय पर आचार्य नरेंद्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या के सेवानिवृत्त वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष  प्रो. रवि प्रकाश मौर्य ने बताया कि पाले से  टमाटर, मिर्च, बैगन आदि सब्जियों, पपीता, केले के पौधों एवं मटर, चना, अलसी, सरसों, जीरा, धनिया, सौंफ आदि में 50 फीसदी से ज्यादा नुकसान हो सकता है.

अरहर में 70 फीसदी, गन्ने में 50 फीसदी एवं गेहूं व जौ में 10 से 20 फीसदी तक नुकसान हो सकता है. पाले के प्रभाव से पौधों की पत्तियां एवं फूल झुलसे हुए दिखाई देते हैं. यहां तक कि अधपके फल सिकुड़ जाते हैं. उन में झुर्रियां पड़ जाती हैं और कई फल गिर जाते हैं. फलियों एवं बालियों में दाने नहीं बनते हैं और कभीकभी बन रहे दाने सिकुड़ जाते हैं.

प्रो. रवि प्रकाश मौर्य ने बताया कि रबी फसलों में फूल आने एवं बालियां/फलियां आने और बनते समय पाला पड़ने की सर्वाधिक संभावना रहती है. अत: इस समय किसानों को  चौकन्ना  रह कर फसलों की पाले से सुरक्षा के उपाय अपनाने चाहिए. जब तापमान 0 डिगरी सैल्सियस से नीचे गिर जाता है और हवा रुक जाती है, तो रात को पाला पड़ने की संभावना अधिक रहती है.

पाला पड़ने वाला है या नहीं, इस बात को किसान कैसे जान सकते हैं, इस पर उन्होंने जानकारी दी कि  वैसे तो आमतौर पर पाले का अनुमान दिन के बाद के वातावरण से लगाया जा सकता है. सर्दी के दिनों में जिस दिन दोपहर से पहले ठंडी हवा चलती रहे और हवा का तापमान जमाव बिंदु से नीचे गिर जाए. दोपहर के बाद अचानक हवा चलना बंद हो जाए और आसमान साफ रहे या उस दिन आधी रात के बाद से ही हवा रुक जाए, तो पाला पड़ने की संभावना अधिक रहती है.

रात को विशेषकर तीसरे व चौथे पहर में पाला पड़ने की संभावनाएं रहती हैं. साधारणतया तापमान चाहे कितना ही नीचे चला जाए, यदि शीत लहर हवा के रूप में चलती रहे तो नुकसान नहीं होता है, परंतु यदि इसी बीच हवा का चलना रुक जाए और आसमान साफ हो तो पाला पड़ता है, जो फसलों के लिए नुकसानदायक है.

पाले से फसल सुरक्षा के लिए क्या कोई उपाय भी है, अगर है तो किसान क्या करें? इस पर उन्होंने बताया कि जिस रात पाला पड़ने की संभावना हो, उस रात 12 बजे से 2 बजे के आसपास खेत की उत्तरीपश्चिमी दिशा से आने वाली ठंडी हवा की दिशा में खेतों के किनारे पर बोई हुई फसल के आसपास, मेंड़ों पर रात में कूड़ाकचरा या अन्य व्यर्थ घासफूस जला कर धुआं करना चाहिए, ताकि खेत में धुआं हो जाए और वातावरण में गरमी आ जाए.

सुविधा के लिए मेंड़ पर 10 से 20 फुट के अंतराल पर कूड़ेकरकट के ढेर लगा कर धुआं करें. इस विधि से 4 डिगरी सैल्सियस तक तापमान आसानी से बढ़ाया जा सकता है.

पौधशाला के पौधों एवं छोटे पौधे वाले उद्यानों/नकदी सब्जी वाली फसलों को टाट, पौलीथिन अथवा भूसे से ढक देना चाहिए. वायुरोधी टाटियां हवा आने वाली दिशा की तरफ यानी उत्तरपश्चिम की तरफ बांध कर क्यारियों को किनारों पर लगाएं और दिन में दोबारा हटाएं.

पाला पड़ने की संभावना हो, तब खेत में सिंचाई करनी चाहिए. नमीयुक्त जमीन में काफी देर तक गरमी रहती है और भूमि का तापमान कम नहीं होता है.

उन्होंने यह भी बताया कि दीर्घकालीन उपाय के रूप में फसलों को बचाने के लिए खेत की उत्तरीपश्चिमी मेंड़ों पर और बीचबीच में उचित स्थानों पर वायु अवरोधक पेड़ जैसे शहतूत, शीशम, बबूल एवं अरंडी आदि लगा दिए जाएं, तो पाले और ठंडी हवा के झोंकों से फसल का बचाव हो सकता है.

बढ़ रहा अंडे और ब्रायलर का उत्पादन

नई दिल्लीः पशुपालन एवं डेयरी विभाग की सचिव अलका उपाध्याय की अध्यक्षता में दिल्ली में एक गोलमेज बैठक आयोजित की गई. यह बैठक भारतीय पोल्ट्री तंत्र को मजबूती देने के लिए की गई. इस बैठक में देश की प्रमुख पोल्ट्री कंपनियां, राज्य सरकारें और उद्योग संघ एक मंच पर साथ नजर आए.

बैठक में सचिव अलका उपाध्याय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारतीय पोल्ट्री क्षेत्र, जो अब कृषि का एक अभिन्न अंग है, ने प्रोटीन और पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. जहां फसलों का उत्पादन हर साल 1.5 से 2 फीसदी दर से बढ़ रहा है, वहीं अंडे और ब्रायलर का उत्पादन 8 से 10 फीसदी की दर से हर साल बढ़ रहा है.

पिछले 2 दशकों में भारतीय पोल्ट्री क्षेत्र एक विशाल उद्योग के रूप में विकसित हुआ है, जिस ने भारत को अंडे और ब्रायलर मांस के प्रमुख वैश्विक उत्पादक के रूप में स्थापित किया है.

सचिव अलका उपाध्याय ने बताया कि पशुपालन एवं डेयरी विभाग निर्यात को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न पहलें कर रहा है. विभाग ने हाल ही में उच्च रोगजनकता वाले एवियन इन्फ्लुएंजा से मुक्ति की स्वघोषणा प्रस्तुत की.

निर्यात को बढ़ावा देने के लिए विभाग ने 33 पोल्ट्री कंपार्टमेंटों को एवियन इन्फ्लुएंजा से नजात माना है. विभाग ने वैधता के आधार पर विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन को 26 विभाग अधिसूचित किए हैं. 13 अक्तूबर, 2023 को स्वघोषणा को विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुमोदित किया गया था. इस के अलावा विभाग ने पिछले वर्षों में चारे की कमी की समस्या को हल करने के लिए कदम उठाए हैं. साथ ही, विभाग ने पोल्ट्री उत्पादों की खपत के खिलाफ कोविड काल के दौरान देशभर में फैली भ्रामक सूचनाओं का मुकाबला करने के लिए भी कदम उठाए.

अलका उपाध्याय ने पोल्ट्री निर्यात को बढ़ावा देने, भारतीय पोल्ट्री क्षेत्र को मजबूत करने, व्यापार करने में सुधार करने, पोल्ट्री उत्पाद निर्यात में चुनौतियों का समाधान करने और अनौपचारिक क्षेत्र में इकाइयों के एकीकरण की रणनीति बनाने और विश्व मंच पर पोल्ट्री क्षेत्रों की स्थिति को और मजबूत करने पर बल दिया.

उन्होंने पोल्ट्री और उस से संबंधित उत्पादों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को सुविधाजनक बनाने के लिए पोल्ट्री कंपार्टमेंटलाइजेशन की अवधारणा को अपना कर एचपीएआई से जुड़े जोखिमों को कम करने के लिए विभाग के सक्रिय दृष्टिकोण पर अंतर्दृष्टि भी साझा की.

वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत ने वैश्विक बाजार में महत्वपूर्ण प्रगति की. उल्लेखनीय 664,753.46 मीट्रिक टन पोल्ट्री उत्पादों का 57 से अधिक देशों को निर्यात किया, जिस का कुल मूल्य 1,081.62 करोड़ रुपए (134.04 मिलियन अमरीकी डालर).

एक हालिया बाजार अध्ययन के अनुसार, भारतीय पोल्ट्री बाजार ने वर्ष 2024-2032 तक 8.1 फीसदी की सीएजीआर के साथ वर्ष 2023 में 30.46 बिलियन अमेरिकी डालर का उल्लेखनीय मूल्यांकन हासिल किया.

इस गोलमेज बैठक ने गतिशील विचारविमर्श के लिए एक मंच के रूप में काम किया, जिस ने वर्तमान चुनौतियों का समाधान करने और भारतीय पोल्ट्री क्षेत्र के सतत विकास के लिए मजबूत रणनीति तैयार करने के लिए सहयोगात्मक प्रयासों को प्रोत्साहित किया. बैठक में पोल्ट्री क्षेत्र के प्रतिनिधियों, निर्यातकों ने पोल्ट्री निर्यात से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की.

वन्यजीव स्वास्थ्य प्रबंधन पर कार्यशाला

नई दिल्लीः केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण ने नई दिल्ली में दूसरी राष्ट्रस्तरीय हितधारक कार्यशाला का सफलतापूर्वक आयोजन किया. कार्यशाला की अध्यक्षता केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री (एमओईएफ और सीसी) अश्विनी चैबे ने की और एमओईएफ और सीसी सचिव लीना नंदन, एमओएफएएचडी सचिव अलका उपाध्याय, डीजीएफ और एसएसएमओईएफ और सीसी सीपी गोयल, वन्यजीव एडीजी बिवास रंजन ने सहायता प्रदान की, जिन का उद्देश्य नेशनल रेफरल सैंटर फौर वाइल्डलाइफ (एनआरसी-डब्ल्यू) के विकास को आगे बढ़ाना और वन हेल्थ पहल के लिए सहयोग को बढ़ावा देना है.

इस कार्यक्रम में मानव स्वास्थ्य, पशुधन स्वास्थ्य, वन्यजीव अनुसंधान संस्थानों, राष्ट्रीय उद्यान प्रबंधकों, चिड़ियाघर निदेशकों आदि के विभिन्न संगठनों के विशेषज्ञों का जमावड़ा देखा गया. सीसीएमबी, आईसीएआर-निवेदी, डब्ल्यूआईआई, एनटीसीए, आईवीआरआई जैसे संस्थानों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई.

मंत्री अश्विनी कुमार चैबे ने समृद्ध वन्यजीव और जैव विविधता के संबंध में भारत की अद्वितीय स्थिति और हाथियों की श्रेणी में नंबर वन और एशियाई शेर के विशेष घर के रूप में हमारे देश की अद्वितीय स्थिति पर प्रकाश डाला और वन्यजीव स्वास्थ्य और रोग प्रबंधन के लिए समग्र दृष्टिकोण के महत्व पर जोर दिया.

Forestउन्होंने यह भी उल्लेख किया कि मंत्रालय हमेशा इस तरह की पहल का समर्थन करता रहेगा. इसी तरह प्रधानमंत्री विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार सलाहकार परिषद (पीएम-एसटीआईएसी) के तहत विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पहल का सक्रिय रूप से समर्थन कर के वन हेल्थ मिशन के लिए समर्थन भी जारी रहेगा. साथ ही, उन्होंने मनुष्यों, पशुधन और वन्यजीवों को शामिल करते हुए एकीकृत निगरानी की आवश्यकता को रेखांकित किया.

इस के अलावा आकर्षक सत्रों में एनआरसी-डब्ल्यू का विकास, वन्यजीव क्षेत्र में रोग एवं निगरानी की आवश्यकताएं, मानव और पशुधन कार्यक्रमों के साथ जुड़ाव, वन्यजीव क्षेत्र के लिए अनुसंधान एवं विकास की आवश्यकताएं और एक प्रभावी क्षमता निर्माण ढांचे की आवश्यकता जैसे विषयों को शामिल किया गया.

कार्यशाला एनआरसी-डब्ल्यू के विकास को मजबूत करने के उद्देश्य से हितधारकों के बीच समृद्ध चर्चाओं और सहयोगात्मक रणनीतियों के साथ संपन्न हुई. हितधारकों ने एनआरसी-डब्ल्यू की प्रभावी स्थापना के लिए महत्वपूर्ण नवीन रूपरेखाओं, तकनीकी हस्तक्षेपों और संसाधन जुटाने पर विचारविमर्श किया.

कार्यशाला के मुख्य आकर्षण में प्रभावी वन्यजीव स्वास्थ्य प्रबंधन के लिए मनुष्यों, पशुधन और वन्यजीवों को एकीकृत करने वाले समग्र दृष्टिकोण पर जोर देना शामिल है. हितधारक संगठनों के विभिन्न विशेषज्ञों द्वारा एनआरसी-डब्ल्यू के विकास, वन्यजीव क्षेत्र में रोग व निगरानी आवश्यकताओं और मानव और पशुधन कार्यक्रमों के साथ जुड़ाव, वन्यजीव क्षेत्र के लिए अनुसंधान एवं विकास आवश्यकताओं और एक प्रभावी क्षमता निर्माण ढांचे की आवश्यकता जैसे विभिन्न विषयों को शामिल करते हुए आकर्षक सत्र आयोजित किए गए.

हितधारकों ने अपनी प्रतिबद्धता में एकजुट हो कर एनआरसी-डब्ल्यू की प्रभावी स्थापना के लिए महत्वपूर्ण नवीन रूपरेखाओं, तकनीकी हस्तक्षेपों और संसाधन जुटाने पर विचारविमर्श किया.

कार्यशाला का समापन एक साझा दृष्टिकोण के साथ प्रतिध्वनित हुआ, जिस ने हितधारकों को जैव विविधता और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लाभ के लिए इस महत्वपूर्ण पहल को आगे बढ़ाने में अपने ठोस प्रयासों को जारी रखने के लिए प्रेरित किया.

Forestकार्यशाला में वन्यजीवों के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय रेफरल केंद्र के लिए विचारविमर्श किए गए फोकस क्षेत्रों पर जानकारी प्रदान की गई, जिस में शामिल हैं –

– उभरते संक्रामक रोगों के परिप्रेक्ष्य से रोग व प्रजाति आधारित अनुसंधान
– राष्ट्रीय वन्यजीव रोग निगरानी कार्यक्रम
– आपातकालीन स्थितियों में वन्यजीव रोगों की रोकथाम और प्रबंधन
– कौशल आधारित प्रशिक्षण और वन्यजीव पेशेवरों का निरंतर क्षमता निर्माण
– कमांड कंट्रोल डेटा एवं सूचना प्रबंधन (एनालिटिक्स)
– वन्यजीव स्वास्थ्य नीति को आकार देना

इस के अलावा कार्यशाला ने पशुधन रोग निगरानी प्रणाली का एक सिंहावलोकन भी प्रदान किया, जिससे क्षेत्रों के बीच मजबूत सहयोग और सूचना के आदान-प्रदान का मार्ग प्रशस्त हुआ.

कई गुना लाभ देती आर्टीमिसिया यानी क्वीन घास की खेती

आर्टीमिसिया (क्वीन घास) के बारे में लोगों को कम ही जानकारी होगी. बता दें कि मच्छरों से होने वाली बीमारी मलेरिया से बचाव के लिए जिन दवाओं का प्रयोग किया जाता है, वह आर्टीमिसिया (क्वीन घास) नाम के औषधीय पौधें की सूखी पत्तियों से तैयार की जाती है. इसी वजह से दवा बनाने वाली कंपनियों में आर्टीमिसिया की सूखी पत्तियों की भारी मांग बनी रहती है. भारी मांग के चलते आर्टीमिसिया की खेती बेहद फायदे का सौदा साबित हो रही है.

आर्टीमिसिया की खेती भारत के ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़ देश की सभी जगहों की जलवायु के लिए उपयुक्त है. आर्टीमिसिया (क्वीन घास) के पौधे की लंबाई औसतन 3-5 फुट तक होती है. इस की पत्तियां गाजर की पत्तियों की तरह होती है और पत्तियों से तीव्र सुगंध निकलती है.

आर्टीमिसिया की खेती के लिए सब से पहले नर्सरी तैयार की जाती है, जो नवंबर से दिसंबर माह तक डाली जाती है. नर्सरी में बीज डालने से पहले गोबर की सड़ी खाद की परत बिछा दें. उपयुक्त नमी बनाने के लिए नर्सरी के लिए दोमट मिट्टी सब से उपयुक्त होती है.

आर्टीमिसिया को खेत में रोपित करने से पहले खेत की हैरो द्वारा जुताई कर 3 ट्रौली सड़ी गोबर की खाद प्रति एकड़ की दर से बिछा देनी चाहिए. उस के बाद कल्टीवेटर से 2 जुताई कर के पाटा लगा दें. फिर 15 जनवरी से 15 फरवरी तक आर्टीमिसिया के पौधों को खेत में 60ग्30 सैंटीमीटर की दूरी पर रोपित करें और उसी दिन खेत की सामान्य सिंचाई कर दें. पौधों को रोपित करने के 15वें दिन दूसरी सिंचाई कर के 60 किलोग्राम यूरिया व 65 किलोग्राम डीएपी प्रति एकड की दर से बोआई करें.

अगर इस की फसल में वर्मी कंपोस्ट, नाडेप खाद या अन्य जैविक खाद को खेतों में डाला जाता है, तो आर्टीमिसिया का औसत से अधिक उत्पादन किया जा सकता है. आर्टीमिसिया की फसल महज 110 दिनों में तैयार हो जाती है, जिस में आमतौर पर 5-6 सिंचाई की जरूरत पड़ती है.

आर्टीमिसिया की फसल की कटाई अप्रैल के अंतिम सप्ताह से मई माह तक कर देनी चाहिए. इस के बाद इस के पौधों को 24 घंटे धूप में सुखाना पड़ता है. फिर साफ जगह पर डंडे द्वारा या पटक कर इस की सूखी पत्तियों को छुड़ा लेना चाहिए.

आर्टीमिसिया की खेती से आमतौर पर प्रति एकड़ 12-18 क्विंटल या 4-5 क्विंटल  प्रति बीघे की सूखी पत्तियों का उत्पादन मिलता है.

आर्टीमिसिया की खेती से लाभ

आर्टीमिसिया न्यूनतम लागत वाली व अधिक लाभ देने वाली फसल है, क्योंकि इस में कीट व बीमारियों का प्रकोप बहुत कम होता है. इस को किसी जानवर द्वारा नुकसान भी नहीं पहुंचाया जाता है. आर्टीमिसिया की फसल से गेहूं  की तुलना में डेढ़ से दोगुना ज्यादा आमदनी मिल रही है. इस की सूखी पत्तियां 3,200 रुपए प्रति क्विंटल की दर से बिक रही हैं.

औषधीय पौधों को बढ़ावा देने के लिए देश में तमाम सरकारी और गैरसरकारी संस्थान कार्यरत हैं, जो तमाम तरह के औषधीय पौधों की नर्सरी तैयार कर लोगो को औषधीय पौधों की खेती के प्रति प्रेरित कर रही हैं. इन संस्थाओं में औषधीय पौधों को लगाने की जानकारी, पौधों की उपलब्धता, भंडारण व क्रयविक्रय संबंधित सेवाएं भी प्रदान की जाती हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि औषधीय पौधों की खेती किसानों को अन्य पारंपरिक फसलों की तुलना में 7-8 गुना अधिक लाभ दे रही है. आर्टीमिसिया की खेती के सवाल पर विशेषज्ञों का कहना है कि आप जनवरी में खाली होने वाली गन्ने की पेड़ी, लाही, अगेती गोभी व आलू के खेत में आर्टीमिसिया की खेती कर अतिरिक्त लाभ कमा सकते हैं.

लार्ड बुद्धा ज्ञानविज्ञान संस्थान द्वारा किसानों  को आर्टीमिसिया के बीज व नर्सरी को निःशुल्क उपलब्ध कराया जा रहा है. साथ ही, फसलों के भंडारण हेतु खाली बोरे को भी निःशुल्क दिया जाता है. संस्थान के विशेषज्ञ वैज्ञानिकों द्वारा समयसमय पर खेत का निरीक्षण कर जो संस्थाएं औषधीय खेती से जुड़ी हैं, उन के द्वारा किसानों को उपयुक्त सलाह भी निःशुल्क प्रदान की जाती है. ये संस्थाए किसानों द्वारा लगाए गए आर्टीमिसिया के सूखे पत्तों को अधिक मुनाफे पर सीधे तौर बिकवाया जा रहा है. जहां से किसान अपने उत्पाद का अधिकतम मूल्य कमा रहे हैं.

बहुपयोगी कैक्टस पर कार्यशाला

नई दिल्ली: ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री गिरिराज सिंह ने वीडियो कौंफ्रेंस के माध्यम से नई दिल्ली में ‘‘वाटरशेड परियोजनाओं में हरित अर्थव्यवस्था के लिए कैक्टस‘‘ विषय पर एकदिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला को संबोधित किया.

केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने सभी प्रतिनिधियों से कैक्टस पौधा रोपने और इस के आर्थिक उपयोग पर आधारित इकोसिस्टम को वजूद में लाने के लिए इस अवसर का उपयोग करने की अपील की.

भूमि संसाधन विभाग (डीओएलआर) के सचिव, अजय तिर्की ने किसानों की आय बढ़ाने और इकोलोजिकल मुद्दों के समाधान के लिए इस तरह के एक अभिनव विचार की अवधारणा के लिए केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का आभार माना. उन्होंने राष्ट्रीय कार्यशाला के सफल आयोजन के लिए वाटरशेड डिवीजन के प्रयासों की भी सराहना की. उन्होंने राज्यों को समयबद्ध तरीके से सभी हितधारकों को शामिल करते हुए राज्य स्तर पर एकसमान कार्यशाला आयोजित करने का सुझाव दिया.

कार्यशाला ने कैक्टस की खेती और इस के आर्थिक उपयोग को प्रोत्साहन देने के लिए बैकवर्ड और फौरवर्ड लिंकेज की सुविधा प्रदान करने के लिए विशेषज्ञों, उद्यमियों, नवप्रवर्तकों, थिंकटैंक के प्रतिनिधियों और सरकार के विभिन्न विचारों को एकसाथ लाने में सहायता की.

भूमि संसाधन विभाग (डीओएलआर) एक केंद्र प्रायोजित योजना है अर्थात प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (डब्ल्यूडीसी-पीएमकेएसवाई) के वाटरशेड विकास घटक को कार्यान्वित कर रहा है. योजना का मुख्य उद्देश्य देश में वर्षा आधारित व ऊबड़खाबड़ भूमि का सतत विकास करना है. डब्ल्यूडीसी-पीएमकेएसवाई का दायरा विभिन्न प्रकार के उपयुक्त पौधा रोपण की अनुमति देता है, जो वर्षा आधारित व ऊबड़खाबड़ भूमि की बहाली में सहायता करता है. कैक्टस सब से कठोर पौधों की प्रजाति है, जिस के विकास और अस्तित्व के लिए बहुत ही कम वर्षा की आवश्यकता होती है. इस के अनुसार, भूमि संसाधन विभाग (डीओएलआर) देश के व्यापक लाभ और किसानों की आय बढ़ाने के लिए ईंधन, उर्वरक, चारा, चमड़ा, भोजन आदि उद्देश्यों के लिए लाभ प्राप्त करने के लिए वर्षा आधारित व निम्नीकृत भूमि पर कैक्टस की खेती करने के लिए विभिन्न विकल्पों की खोज कर रहा है.

इस अवसर पर, भूमि संसाधन विभाग (डीओएलआर) ने डब्ल्यूडीसी-पीएमकेएसवाई 2.0 के अंतर्गत स्पाइनलेस कैक्टस की खेती और इस के आर्थिक उपयोग को प्रोत्साहन देने में सहयोग पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), शुष्क क्षेत्रों में कृषि अनुसंधान के लिए अंतर्राष्ट्रीय केंद्र (आईसीएआरडीए) और राजस्थान राज्य सरकार के साथ एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए.

वर्तमान में, देश में कैक्टस की खेती चारे के उद्देश्य तक ही सीमित है. कैक्टस के विभिन्न अन्य आर्थिक और इकोलौजिकल उपयोगों के लिए जागरूकता, प्रचार और गुणवत्तापूर्ण पौध रोपण सामग्री की उपलब्धता, आदर्श इकोसिस्टम और विपणन मार्गों पर प्रथाओं के पैकेज की सुविधा के माध्यम से इस के प्रचार की आवश्यकता है. कार्यशाला ने विभिन्न हितधारकों के बीच जागरूकता लाने और उन्हें एकदूसरे से जोड़ने में काफी सहायता की है.

भूमि संसाधन विभाग (डीओएलआर) ने पहले ही ‘डब्ल्यूडीसी-पीएमकेएसवाई के अंतर्गत वाटरशेड परियोजनाओं में स्पाइनलेस कैक्टस की खेती व पौध रोपण को बढ़ावा देने‘ के लिए दिशानिर्देश जारी कर दिए हैं और बायोगैस के उत्पादन और अन्य उपयोग के लिए कैक्टस की खेती के लिए आवश्यक कदम उठाने के लिए सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेश जम्मूकश्मीर और लद्दाख को प्रसारित कर दिया है.

कार्यशाला में भाग लेने वाले सभी प्रतिनिधियों को दिशानिर्देशों की एक प्रति भी प्रदान की गई.

राष्ट्रीय अंतःविषय विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईआईएसटी), तिरुवनंतपुरम, केरल ने कार्यशाला स्थल पर प्रतिनिधियों के लाभ के लिए कैक्टस चमड़े से तैयार विभिन्न वस्तुओं जैसे जूते, बैग, जैकेट, चप्पल आदि का प्रदर्शन किया. सभी प्रतिनिधियों के लिए कैक्टस फल से तैयार जूस और कैक्टस सलाद भी परोसा गया.

कार्यशाला का उद्देश्य केंद्र सरकार, राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों, उद्योगों, विशेषज्ञों जैसे सभी हितधारकों को एकसाथ लाना और इस के विभिन्न आर्थिक उपयोगों का लाभ लेने के लिए शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों और कैक्टस आधारित उद्योगों में कैक्टस की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए सहयोग करना और एक रूपरेखा तैयार करना है.

कैक्टस आधारित सीबीजी पौधों को व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य बनाने के लिए एमओपीएनजी की एसएटीएटी, सीबीओ योजनाओं का उपयोग करने के लिए एकसाथ लाने के दृष्टिकोण पर भी बल दिया गया. प्राकृतिक गैस में सीबीजी के अनिवार्य मिश्रण के बारे में 25 नवंबर, 2023 को घोषित भारत सरकार की नीति से देश में सीबीजी के उत्पादन और खपत को भी प्रोत्साहन मिलेगा.

राज्य सरकारों ने इस बात पर भी बल दिया कि बड़े पैमाने पर कैक्टस के वृक्षारोपण के लिए एमजीएनआरईजीएस योजना निधि को प्रभावी ढंग से एकत्रित किया जा सकता है.

15 राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों के लगभग 200 प्रतिनिधि, पैट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय (एमओपीएनजी), एमओए-एफडबल्यू, नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई), पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ-सीसी), डीओआरडी, खाद्य प्रसंस्करण जैसे केंद्रीय मंत्रालयों व विभागों के वरिष्ठ अधिकारी, संबंधित उद्योग प्रतिनिधि और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), आईजीएफआरए, आईसीएआरडीए जैसे अन्य प्रतिष्ठित अनुसंधान संगठन व संस्थान, सीएजेडआरआई, एनआरएए ने कार्यशाला में भाग लिया. कार्यशाला में भूमि संसाधन विभाग के सचिव, संयुक्त सचिव (वाटरशेड प्रबंधन) और वाटरशेड प्रभाग के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों ने भाग लिया.

प्रतिनिधियों ने प्रस्तुतियां दीं और कैक्टस की खेती और इस के आर्थिक और पारिस्थितिक उपयोग जैसे संपीड़ित बायोगैस, जैव उर्वरक, जैव चमड़ा, चारा, भोजन, फार्मास्युटिकल लाभ, कार्बन क्रेडिट आदि के उत्पादन के विभिन्न मुद्दों पर विचारविमर्श किया.

प्रतिभागी राज्यों ने भी अपनेअपने राज्यों में कैक्टस की खेती के बारे में अपनी प्रारंभिक तैयारी प्रस्तुत की. कार्यशाला के दौरान उपस्थित उद्योग प्रतिनिधियों ने भूमि संसाधन विभाग (डीओएलआर) के प्रयासों की सराहना की और कैक्टस की खेती और कैक्टस आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने में गहरी रुचि दिखाई.

बांस की खेती दे रोटी, कपड़ा और मकान

बांस एक बहुपयोगी घास है, जो हमारे जीवन में अहम जगह रखता है. इस को ‘गरीब आदमी का काष्ठ’, ‘लोगों का साथी’ और ‘हरा सोना’ आदि नामों से जाना जाता है. बांस के कोमल प्ररोह सब्जी व अचार बनाने और इस के लंबे तंतु रेऔन पल्प बनाने में प्रयोग किए जाते हैं, जिस से कपड़ा बनता है.

आवास (झोंपड़ी) व हलके फर्नीचर बनाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में बांस प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है. इस प्रकार यह आदमी की 3 प्रमुख जरूरतों जैसे रोटी, कपड़ा और मकान को पूरा करता है.

भारत बांस संसाधन से संपन्न है, क्योंकि यह देश के अधिकतर क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. देश में इस समय बांस की लगभग 125 देशी व विदेशी प्रजातियां उपलब्ध हैं. पूरे देश के 89.6 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में बांस वाला वन क्षेत्र है, जो पूरे वन क्षेत्रफल का तकरीबन 12.8 फीसदी है.

आमतौर पर गांव में लोग अपने घर के आसपास ही काफी अधिक मात्रा में बांस उगाते हैं, ताकि उस से वे अपने रोजाना की जरूरतें पूरी कर सकें.

जलवायु और मिट्टी

बहुत ठंडे क्षेत्रों को छोड़ कर लगभग हर प्रकार के क्षेत्रों में बांस का रोपण किया जा सकता है. इस के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है. बांस जलोढ़, पथरीली व लाल मिट्टी में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है.

प्रमुख प्रजातियां

वर्तमान में देश में बांस के 23 वंश (जेनरा) और 125 जातियां (स्पीसीज) पाई जाती हैं. क्षेत्र व जलवायु के हिसाब से बांस की अलगअलग प्रजातियां उपयुक्त होती हैं. उत्तरपूर्वी भारत (पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ आदि) में रोपण के लिए उपयुक्त जातियां (स्पीसीज ) हैं.

* बैंबूसा बाल्कोवा

* बैंबूसा टुल्डा

* डैंड्रोकेलेमस स्ट्रिक्टस

प्रारंभ की 2 जातियों में बांस की कटाई ज्यादा आसान रहती है.

प्रवर्धन तकनीकी

पौधशाला में तैयार पौधे श्रेष्ठ माने जाते हैं, क्योंकि इस तरह के पौधे स्वस्थ व तेज वृद्धि करने वाले होते हैं. बांस का प्रवर्धन पौधशाला में सीधे बीज की बोआई, प्रकंद रोपण, प्रशाखा (औफसैट), रोपण व नाल (कलम) रोपण द्वारा किया जाता है. प्रमुख विधियों की संक्षिप्त तकनीकी इस तरह है :

* बीज द्वारा सीधी बोआई : यह सब से सरल विधि है. इस में बांस के ताजा बीज को पौधशाला की क्यारियों में बोआई करते हैं. जब पौधे 8 से 10 सैंटीमीटर के हो जाते हैं, तब इन पौधो को पौलीथिन की थैलियों में दोबारा रोपित किया जाता है.

पर, अधिकतर बांस की जातियों (स्पीसीज) में पुष्पन व बीजीकरण सामूहिक (ग्रिगेरियस) रूप में औसतन 40 से 50 साल के बाद होता है, जिस के कारण बांस का बीज उपलब्ध नहीं हो पाता है और बीजजनित पौधे धीमी वृद्धि करते हैं. इस वजह से आमतौर पर बांस का प्रवर्धन बीज से नहीं किया जाता है.

* प्रकंद रोपण : इस विधि में जीवित प्रकंद का 1-2 आंखों वाला तकरीबन 30 सैंटीमीटर लंबा भाग 45 घन  सैंटीमीटर आकार के गड्ढे में रोपित किया जाता है.

गड्ढे में गोबर की खाद व मिट्टी का मिश्रण रोपण से पहले भर लिया जाता है.

* प्रशाखा (औफसैट) रोपण : यह एक प्रचलित विधि है. इस में प्रशाखा को रोपित किया जाता है. इस विधि में इस बात का ध्यान रखना जरूरी रहता है कि प्रशाखा में प्रकंद भाग के साथ एकवर्षीय कोमल नाल (कंड) का भी लगभग 70 से 80 सैंटीमीटर लंबा भाग जुड़ा हो.

प्रशाखा को तैयार करने के लिए सब से पहले बांस की कोठी से एकवर्षीय नाल को 70-80 सैंटीमीटर लंबाई पर तिर्यक रूप से काट कर इस को प्रकंद व जड़ सहित खोद लेते हैं. खोदते समय यह ध्यान रखें कि प्रकंद में कम से कम एक आंख जरूर हो.

इस तरह से तैयार प्रशाखा (औफसैट) को वर्षा ऋतु की शुरुआत में पर्याप्त आकार व गहराई के गड्ढे में इस प्रकार रोपित करते हैं कि 2-3 अंतर्गांठें (इंटरनोड) मिट्टी में दब जाएं व आंख को कोई क्षति न पहुंचे.

* बांसुरी विधि या नाल रोपण : अन्य विधियों जैसे प्रकंद, बीज आदि की तुलना में बांसुरी विधि बांस प्रर्वधन की एक उत्तम विधि है, जिस के द्वारा नर्सरी में कम समय में गुणवत्ता वाले व तेज वृद्धि करने वाले बांस के पौधे तैयार किए जा सकते हैं.

शुआट्स, इलाहाबाद द्वारा विकसित इस विधि से पौधे तैयार करने के लिए अप्रैल माह में 18-24 माह पुराने, खोखले व पके बांस (गांठ पर कलीयुक्त) का चयन कर इस के 2-2 गांठ वाले टुकड़े काट लें और 2 गांठों के बीच 1 वर्ग इंच का छेद बना लें.

इस के बाद इन टुकड़ों को क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी के 2.5 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी के घोल में डुबो कर नर्सरी बैड में 8-10 सैंटीमीटर की गहराई तक मिट्टी में दबा दें. छेद को किसी साफ प्लास्टिक शीट से ढक दें, ताकि छेद में मिट्टी न जा सके.

तने के छेद के अंदर 100 पीपीएम नैप्थलिन एसिटिक एसिड (एनएए) घोल डालें और शुरू के 2-3 माह तक हर हफ्ते प्लास्टिक शीट हटा कर निरीक्षण करते रहें व बांस के टुकड़ों के अंदर पानी कम होने पर जरूरत के मुताबिक पानी डालते रहें.

इस विधि द्वारा रोपित कलम/नाल से 10-12 दिनों में नए कल्ले व 45-60 दिनों में जड़ें आ जाती हैं. 6 से 9 माह के बाद इन कलमों को जमीन से जड़ सहित खोद कर आरी से गांठों को काट लें. इन गांठों को बड़ी पौलीथिन की थैली में दोबारा रोपित कर दें. 1-2 माह बाद पौध रोपण के लिए तैयार हो जाती है.

रोपण तकनीकी

रोपण की दूरी : बांस को खेत में 2 प्रकार से लगाया जा सकता है. पहले तरीके में मेंड़ पर 7-8 मीटर की दूरी पर और दूसरे तरीके में पंक्ति से पंक्ति एवं लाइन से लाइन 9-10 मीटर की दूरी पर पूरे खेत में सघन रोपण किया जा सकता है. प्रारंभ के कुछ वर्षों में बांस की कतारों के बीच उपयुक्त फसलें उगाई जा सकती हैं. डैंड्रोकेलेमस प्रजाति के रोपण के लिए रोपण की दूरी कम की जा सकती है.

रोपण की विधि : मार्चअप्रैल माह में उपरोक्त रोपण की दूरी पर 45 घन सैंटीमीटर आकार का गड्ढा खोद लें व खुदी हुई मिट्टी को गड्ढे के पास ऋतुक्षरण के लिए छोड़ दें, जिस से कड़ी धूप की वजह से गड्ढा कीट व रोगाणुओं से मुक्त हो सकें.

वर्षा ऋतु प्रारंभ होने के 10 से 15 दिन पहले उक्त गड्ढों में गड्ढे की ऊपरी सतह की मिट्टी के साथ सड़ी गोबर की खाद (4:1 के अनुपात में), 50 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 50 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश और 25 ग्राम क्लोरोपाइरीफास धूल मिला कर भर दें. गड्ढों में भरी मिट्टी भूमितल से कुछ ऊंची होनी चाहिए. वर्षा ऋतु (जुलाईअगस्त माह) के समय उक्त गड्ढों में विभिन्न विधियों से तैयार पौधों, प्रकंद, कलम आदि का रोपण करना चाहिए.

बांस की फसल का प्रबंधन

खाद और उर्वरक : पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए रोपण के लगभग 45-50 दिन बाद व 7-8 माह के बाद प्रति पौध 50 ग्राम यूरिया रोपित पौधे के चारों तरफ मिला दें.

बाद के वर्षों में बांस के लिए किसी विशेष खाद और उर्वरकों की जरूरत नहीं पड़ती है. फिर भी अच्छी वृद्धि के लिए प्रति वर्ष अगस्तसितंबर माह में 50 ग्राम यूरिया व 50 ग्राम डीएपी और सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति पुंज देनी चाहिए. हर एक पुंज को पुवाल या पत्ती के पलवार (मल्च) से ढकने पर नए बांस के कल्ले आने में आसानी रहती है.

पुंज की टैंडिंग व शाखा कर्तन क्रिया  : मरे हुए पौधों व पुंज में बीमारी एवं कीड़ों द्वारा प्रभावित कलम को काट कर निकाल देें व पुंज से सभी प्रकार की झाडि़यों व लताओं को भी समयसमय पर निकालते रहें. जब (खासकर जुलाईसितंबर माह में) नई कोंपलें निकल रही हों, तब उस समय पुंज में किसी भी प्रकार की क्रिया नहीं करनी चाहिए. इस समय साफसफाई आदि कामों के प्रभाव से नई कोंपलें प्रभावित हो सकती हैं.

बांस के रोपण के 15-16 महीने बाद नीचे की शाखाओं को काटा जा सकता है, पर 4-5 वर्ष पुराने बांस पुंज में यह क्रिया करनी ज्यादा लाभप्रद रहती है. शाखा कर्तन क्रिया हमेशा अक्तूबर से फरवरी माह के बीच करनी चाहिए. इस क्रिया के फलस्वरूप बांस निकालना आसान हो जाता है व पशुओं के लिए बांस की पत्तियों के रूप में चारा प्राप्त हो जाता है.

कीट व रोग प्रबंधन : बांस की पौधशाला में मुख्यत: डंपिंग औफ (आर्द्रगलन रोग) लगता है, जो एक फफूंदजनित रोग है. इस के नियंत्रण के लिए व्यापारिक ग्रेड की फार्मालीन को (15-20 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी के साथ) क्यारी की मिट्टी में डालना (ड्रैंचिंग) चाहिए.

इस के अतिरिक्त कार्बंडाजिम (2 ग्राम प्रति लिटर पानी) से भी क्यारियों का उपचार किया जा सकता है. रोपण से पहले भी पौधों को उक्त फफूंदनाशी से उपचारित करना बेहतर रहता है. प्रकंदों के रोपण के समय भी प्रकंद को कार्बंडाजिम के घोल में 3 से 5 मिनट डुबोने पर फफूंदजनित रोगों से बचाव में सहायता मिलती है.

बांस में झाड़ू रोग, राइजोम राट, बेसल कलम राट आदि बीमारियां लगती हैं, जिन्हें उचित फफूंदनाशी जैसे कार्बंडाजिम (3 ग्राम प्रति लिटर पानी), डाइथेन एम. 45 (3 ग्राम प्रति लिटर पानी), मैनकोजेब (2 ग्राम प्रति लिटर पानी) द्वारा रोग लगने की शुरुआती अवस्था में उपचार करने से रोका जा सकता है. यदि कोई बांस का पुंज फफूंद से पूरी तरह संक्रमित है, तो इस को पूरी तरह जला देना ज्यादा उचित रहता है.

बांस को 50 से अधिक प्रकार के कीट हानि पहुंचाते हैं, जिन में से सफेद ग्रब, दीमक, कटवर्म और तना छेदक कीट प्रमुख हैं. पौधशाला व रोपण में सफेद ग्रब व कटवर्म से बचाव के लिए फ्यूरोडौन 3 जी दवा (500 ग्राम प्रति 10 वर्गमीटर क्यारी या 100-150 ग्राम प्रति पुंज) का प्रयोग करना चाहिए.

दीमक के नियंत्रण के लिए क्लोरोपाइरीफास (2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) घोल का छिड़काव करें. लीफ रोलर कीट बांस की पत्तियों को मोड़ कर बीड़ी की तरह बना देता है, जिस के नियंत्रण के लिए कारटौप हाईड्रोक्लोराइड (1 ग्राम प्रति लिटर पानी) के घोल का छिड़काव करें.

नए कल्लों एवं बांस प्ररोह को तना छेदक भी बहुत नुकसान पहुंचाता है, जिस के नियंत्रण के लिए हरे बांस एवं कल्लों की सब से नीचे की अंतर्गांठ (इंटरनोड) के ऊपरी भाग पर बारीक छेद कर लें, फिर उस छेद में डाईक्लोरोवाश कीटनाशी (2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी) का घोल किसी इंजैक्शन या पिचकारी की सहायता से डाल दें, जिस से तना छेदक कीट नष्ट हो जाएगा.

कटाई, उपज और आमदनी

बांस की कटाई रोपण के 4-5 वर्षों के बाद प्रारंभ की जा सकती है. कटाई हमेशा सर्दी (नवंबरफरवरी माह) में ही करना उचित रहता है. 4-5 वर्षों के बाद प्रति बांस पुंज लगभग 6-10 बांस हर साल प्राप्त किया जा सकता है.

इस प्रकार 10×10 मीटर पर रोपित बांस के 1 हेक्टेयर रोपण (रोप वन) से लगभग 600 से 1,000 बांस हर साल प्राप्त किया जा सकता है. यदि एक बांस का औसत मूल्य 100 रुपए रखा जाए, तो 1 हेक्टेयर खेत से लगभग 60,000-1,00,000 रुपए कुल आय हर साल प्राप्त की जा सकती है.

बांस के रोपण और प्रारंभ के 2-3 वर्षों तक ही लागत लगती है, जो 22,000 से 25,000 रुपए प्रति हेक्टेयर है. इस प्रकार 4-5 वर्षों के बाद बिना किसी विशेष लागत के बांस के 1 हेक्टेयर रोपण से औसतन 60,000 से 1,00,000 रुपए हर साल आसानी से प्राप्त किया जा सकता है.

बांस को कागज मिल और शहर की बांस मंडियों में बेचा जा सकता है. शहरों व गांवों में घर बनाने के दौरान बांस की अच्छी मांग रहती है.

सरसों फसल की नाशीजीवों से करेंं सुरक्षा

इस समय तापमान में उतारचढ़ाव, छाई हुई बदली एवं बूंदाबांदी होने के कारण सरसों की फसल पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. इस फसल की खेती करने वाले किसान ध्यान दें कि इन दिनों सरसों में माहू यानी चेपा कीट के मुख्य रूप से लगने का ज्यादा डर है. इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ पीलापन लिए हुए हरे रंग के होते हैं, जो झुंड के रूप में पौधों की पत्तियों, फूलों, डंठलों, फलियों में रहते हैं.

यह कीट छोटा, कोमल शरीर वाला और हरे मटमैले भूरे रंग का होता है. बादल घिरे रहने पर इस कीट का प्रकोप तेजी से होता है. इस की रोकथाम के लिए कीटग्रस्त पत्तियों को प्रकोप की शुरुआती अवस्था में ही तोड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.

सरसों के नाशीजीवों के प्राकृतिक शत्रुओं जैसे इंद्रगोप भृंग, क्राईसोपा, सिरफिड फ्लाई का फसल वातावरण में संरक्षण करें. पीला स्टिकी ट्रेप 30 प्रति हेक्टेयर की दर से लगाएं. इस पर माहू कीट आकर्षित हो कर चिपक जाते हैं. एजाडिरेक्टीन (नीम तेल) 0.15 फीसदी 2.5 लिटर या इमिडाक्लोप्रिड 200 मिलीलिटर को 600-700 लिटर पानी मे घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से फसल को कीटों से सुरक्षित रखा जा सकता है.

Sarson Rogसरसों में झुलसा रोग का प्रकोप ज्यादा हो सकता है. इस रोग में पत्तियों और फलियों पर गहरे कत्थई रंग के धब्बे बन जाते हैं, जिन में गोल छल्ले केवल पत्तियों पर स्पष्ट दिखाई देते हैं, जिस से पूरी पत्ती झुलस जाती है.

इस रोग पर नियंत्रण करने के लिए 2 किलोग्राम मैंकोजेब 75 फीसदी डब्ल्यूपी या 2 किलोग्राम जीरम 80 फीसदी डब्ल्यूपी या 2 किलोग्राम जिनेब 75 फीसदी डब्ल्यूपी या 3 किलोग्राम कौपर औक्सीक्लोराइड 50 फीसदी डब्ल्यूपी को 600-700 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

पहला छिड़काव रोग का लक्षण दिखाई देने पर और दूसरा छिड़काव पहले छिड़काव के 15 से 20 दिनों के अंतराल पर करें. अधिकतम 4 से 5 बार छिड़काव करने से फसल को सुरक्षित रखा जा सकता है.

आदिवासियों का उत्थान जरूरी

नई दिल्ली: 21 दिसंबर 2023. केंद्रीय जनजातीय कार्य और कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा ने राष्ट्रीय जनजातीय अनुसंधान संस्थान द्वारा आयोजित “आदि- व्याख्यान” सीरीज-2 के दोदिवसीय कार्यक्रम का आज दिल्ली में शुभारंभ किया. यह जनजातीय पहचान व हमारे देश की सांस्कृतिक विविधता में जनजातीय योगदान का पता लगाने की एक पहल है.

कार्यक्रम का उद्देश्य आदिवासी परंपरा व संस्कृति की जटिलताओं को गहराई से समझना और उन के अस्तित्व की चुनौतियों का पता लगाना है.

शुभारंभ सत्र में केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने आदिवासी पहचान, उन के संवर्धन, संरक्षण पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि आदिवासी पहचान को बनाए रखने के लिए आदिवासी भाषा और साहित्य महत्वपूर्ण हैं. आदिवासी लोगों के उत्थान के लिए उन्होंने विशेष रूप से पीवीटीजी हेतु अत्यधिक महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री जनजाति आदिवासी न्याय महाअभियान (पीएम जनमन) पहल के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मार्गदर्शन में केंद्र सरकार द्वारा किए गए प्रयासों पर प्रकाश डाला.

उन्होंने वन अधिकार अधिनियम (1986), पीईएसए (1996), एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम (1989) पर चर्चा को आगे बढ़ाने व आदिवासियों के बीच जागरूकता फैलाने के लिए “राष्ट्रीय जनजातीय अनुसंधान संस्थान” जैसे अनुसंधान संस्थानों की आवश्यकता के लिए “आदि-व्याख्यान” कार्यक्रम की सराहना की.

उन्होंने जनजातीय लोगों को संविधान में निहित संवैधानिक सुरक्षाओं से अवगत कराने की आवश्यकता पर बल दिया और आदिवासी समुदाय के कल्याण के लिए अतीत, वर्तमान व भविष्य पर पुनर्विचार की आवश्यकता को स्वीकार किया.

प्रो. नूपुर तिवारी, निदेशक, एनटीआरआई, नई दिल्ली ने ओरिएंटेशन कार्यक्रम की रूपरेखा पेश करते हुए कहा कि आदि मंथन भारत में आदिवासी समुदायों के साथ चर्चा को प्रोत्साहित करने के लिए एक महत्वपूर्ण पहल है.

इटवा मुंडा, अध्यक्ष, भारत मुंडा समाज ने देश की विभिन्न जनजातियों के बीच सहयोग व समझ की आवश्यकता पर प्रकाश डाला एवं आदिवासी संस्कृति व विरासत के संरक्षण की जरूरत पर जोर दिया.

उन्होंने कहा कि इस तरह के कार्यक्रमों से आदिवासियों की भाषा और संस्कृति को संरक्षित करने में मदद मिलेगी और उन्हें भावी पीढ़ियों का मार्गदर्शन करने में मदद मिलेगी.

रूप लक्ष्मी मुंडा, उपाध्यक्ष, भारत मुंडा समाज ने आदिवासी महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए विचार रखे.

उन्होंने आदिवासी समाज में महिलाओं की प्रगति और उन की चुनौतियों पर प्रकाश डाला. उन के लिए आदि मंथन चर्चा आदिवासी महिलाओं की मुक्ति के लिए एक मंच के रूप में मदद कर सकती है.

ओरिएंटेशन कार्यक्रम जनजातीय कार्य मंत्रालय के तहत जनजातीय विकास में सर्वोत्तम प्रथाओं का प्रदर्शन करेगा.

इस के अलावा राष्ट्रीय जनजातीय अनुसंधान संस्थान के नेतृत्व में कला निधि और जनजातीय संग्रहालय का दौरा भी होगा, जो हमारी जनजातीय विरासत की सांस्कृतिक समृद्धि की एक ठोस झलक पेश करेगा. उद्घाटन कार्यक्रम में 5 राज्यों (छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम) के मुंडा समुदायों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया.

आयुष्मान भारत योजना : जिला स्तर पर काम

नई दिल्ली : 20 दिसंबर, 2023. केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री और जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा ने पिछले दिनों नई दिल्ली में प्रेस वार्ता में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार की जनहितकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की जानकारी देते हुए बताया कि समग्र स्वास्थ्य सेवा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूरदर्शी व कुशल नेतृत्व में सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शुमार है.

उन्होंने बताया कि देश में एम्स की संख्या बढ़ कर 23 हो गई है, जो कि मोदी सरकार के पूर्व सिर्फ 6 ही थी, वहीं आरोग्य मंदिर (स्वास्थ्य एवं कल्याण केंद्रों) की संख्या में भी काफी इजाफा हुआ है, जो अब करीब 1.63 लाख हो चुके हैं.

प्रेस वार्ता में केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा के साथ केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और खाद्य प्रसंस्करण राज्य मंत्री शोभा करंदलाजे और सांसद प्रवेश साहिब सिंह वर्मा व इंदुबाला गोस्वामी भी उपस्थित थीं.

अर्जुन मुंडा ने पीएम मोदी के ‘सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज-किसी को पीछे न छोड़ने’ के दृष्टिकोण के साथ ही प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना से जनसामान्य को हो रहे स्वास्थ्य लाभों के बारे में बताया कि 23 सितंबर 2018 को रांची (झारखंड) से प्रारंभ यह लगभग 55 करोड़ लाभार्थियों को लक्षित करने वाला दुनिया का सब से बड़ा सरकारी वित्त पोषित स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम है. आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में पात्र लोगों को प्रति वर्ष 5 लाख रुपए का बीमा कवर प्रदान करने का प्रावधान है.

केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन कार्यक्रम के शुभारंभ के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हुए कहा कि विशेष रूप से आदिवासी आबादी के बीच सिकल सेल रोग से उत्पन्न महत्वपूर्ण स्वास्थ्य चुनौतियों का इस के माध्यम से निदान संभव होगा.

उन्होंने आगे कहा कि देश में स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र ने पिछले 70 वर्षों की तुलना में पिछले साढ़े 9 वर्षों में अत्यधिक उपलब्धियां हासिल की हैं. हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर मिशन के तहत आयुष्मान भारत योजना, जिला स्तर पर आधुनिक स्वास्थ्य सुविधाएं तैयार कर रही है, क्योंकि सरकार की मंशानुरूप नए भारत को फिट भारत बनाने के लिए एक स्वस्थ व्यक्ति, एक स्वस्थ परिवार और एक स्वस्थ समाज आवश्यक है. मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव की क्रांति देखी गई है, जिसका कारण सरकार की इच्छाशक्ति है. देश में पहली बार स्वास्थ्य को डेवलपमेंट के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है और आज देश में एक ऐसा माहौल बना है, जब हम “हेल्दी नेशन, वेल्दी नेशन” की बात को स्वीकार कर रहे हैं.

केंद्र के स्वास्थ्य बजट को देखें या फिर केंद्र द्वारा राज्यों को स्वास्थ्य सेवा के लिए दिए जा रहे बजट की आवंटित राशि को देखें, तो निश्चित ही काफी बदलाव दिखाई देगा. अब इतिहास का सब से बड़ा हेल्थ बजट आवंटित हो रहा है व साल दर साल यह बजट राशि अधिकाधिक बढ़ाई जा रही है.

मंत्री अर्जुन मुंडा ने बताया कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा शुरू की गई विकसित भारत संकल्प यात्रा के माध्यम से भी स्वास्थ्य सेवाओं की योजनाओं से जनसामान्य को जोड़ कर लाभ पहुंचाया जा रहा है. प्रधानमंत्र मोदी की भारत को संपूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने की जो संकल्पना है, उसी दिशा में सरकार ने हेल्थ के सभी पहलुओं पर काम किया है. प्रत्येक जिले में एक मेडिकल कालेज के लक्ष्य के साथ पिछले 9 वर्षों में इन की संख्या 350 से बढ़ा कर 700 से ज्यादा की गई है. पिछले 9 वर्षों में एमबीबीएस सीटों की संख्या 52 हजार से बढ़ा कर 1 लाख, 8 हजार से अधिक की गई है. साथ ही, पीजी की सीटों की संख्या 32 हजार से बढ़ा कर 70 हजार से अधिक की गई है. देश में पिछले 9 वर्षों में 10 हजार से ज्यादा जन औषधि स्टोर खोले गए और अब इन की संख्या को 10,000 से बढ़ा कर 25,000 से अधिक किया जा रहा है.

मंत्री अर्जुन मुंडा ने बताया कि प्रधानमंत्री मोदी ने उन गरीबों तक दवाई पहुंचाई है, जो एक समय में दवाओं की पहुंच से बाहर थे. जन औषधि योजना के माध्यम से गरीबों को अभी तक 25,000 करोड़ से अधिक रुपए की बचत हो गई है. उन्होंने कहा कि पीएम के प्रयासों से देश में “स्वस्थ राष्ट्र, धनवान राष्ट्र” की व्यापक भावना बन चुकी है.

केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने आदिवासी क्षेत्रों में 360 डिगरी विकास लाने के लिए सरकार की एक विशाल पहल, प्रधानमंत्री जनजाति आदिवासी न्याय महाभियान (पीएम जनमन) के बारे में भी जानकारी दी. पीएम जनमन मिशन का लक्ष्य विभिन्न मंत्रालयों/विभागों की योजनाओं के माध्यम से विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) के विकास का है.

उन्होंने बताया कि इस मिशन का वित्तीय परिव्यय लगभग 24,000 करोड़ रुपए और 9 प्रमुख मंत्रालयों से संबंधित 11 महत्वपूर्ण हस्तक्षेपों पर केंद्रित है. जनजातीय स्वास्थ्य, पीएम जनमन के तहत प्रमुख फोकस क्षेत्रों में से एक है.

‘स्प्रे एप्लीकेशन एवं प्रिसीजन एग्रीकल्चर’ विषय पर प्रशिक्षण

हिसार : चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के सस्य विज्ञान विभाग में राष्ट्रीय कृषि उच्चतर शिक्षा परियोजना एनएएचईपी-आईडीपी के तहत ‘स्प्रे एप्लीकेशन एवं प्रिसीजन एग्रीकल्चर’ विषय पर ब्राजील के वैज्ञानिक डा. फ्रांसिस्को फग्गिओ के सहयोग से 7 दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया गया.

युवा पीढ़ी को कृषि से जोड़े रखने के लिए उपयुक्त मशीनें उपलब्ध करवाना जरूरी

मुख्य वक्ता डा. फ्रांसिस्को फग्गिओ ने बताया कि ब्राजील में बड़ी जोत होने के कारण कृषि कार्य पूरी तरह मशीनों पर आधारित है व बिजाई से ले कर कटाई और प्रसंस्करण के हर आपरेशन के लिए मशीनें उपलब्ध हैं. साथ ही, उन्होंने कहा कि यदि कृषि से जुड़े कामों को सरल व सुगमता से करने के लिए उपयुक्त मशीनें उपलब्ध होंगी, तो युवा पीढ़ी को भी कृषि व्यवसाय से जोड़े रखना व कृषि को मुनाफे का व्यवसाय बनाना संभव है.

कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. एसके पाहुजा ने उपस्थित प्रतिभागियों को संबोधित करते हुए कहा कि छोटी जोत वाले किसानों को भी सस्ती व उपयोगी मशीनें कृषि कार्यों के लिए उपलब्ध हों, तो कृषि के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है और किसानों के अधिक मानवीय श्रम के तनाव को भी कम किया जा सकता है.

सस्य विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डा. एसके ठकराल ने बताया कि इस प्रशिक्षण में प्रतिभागी विद्यार्थियों को स्प्रे तकनीक के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारियां दी गईं व मशीनों के रखरखाव व बरतने के बारे में प्रैक्टिकल करवाए गए. सस्य विज्ञान विभाग में आयोजित इस ट्रेनिंग से विद्यार्थियों को लाभ होगा. इस अवसर पर प्रशिक्षण के संयोजक डा. सतपाल के अलावा विभाग के अन्य वैज्ञानिक मौजूद रहे.