फसल अवशेष : जलाए नहीं खाद बना कर बढ़ाएं जमीन की उर्वराशक्ति

हमेशा से देश में फसल के अवशेषों का सही निबटारा करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है. इन का अधिकतर भाग या तो दूसरे कामों में इस्तेमाल किया जाता है या फिर इन्हें नष्ट कर दिया जाता है, जैसे कि गेहूं, गन्ने, आलू व मूली वगैरह की पत्तियां पशुओं को खिलाने में इस्तेमाल की जाती हैं या फिर फेंक दी जाती हैं. कपास, सनई व अरहर आदि के तने, गन्ने की सूखी पत्तियां और धान का पुआल आदि जलाने में इस्तेमाल कर लिया जाता है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में अधिकतर गेहूं व धान की कटाई मशीनों द्वारा की जाती है. पिछले कुछ सालों से एक समस्या देखी जा रही है. जहां हार्वेस्टर द्वारा फसलों की कटाई की जाती है, उन क्षेत्रों में फसल के तनों के अधिकतर भाग खेत में खड़े रह जाते हैं. वहां के किसान खेत में फसल के अवशेषों को जला देते हैं. आमतौर पर रबी सीजन में गेहूं की कटाई के बाद फसल के अवशेषों को जला कर नष्ट कर दिया जाता है.

इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए प्रशासन द्वारा बहुत से जिलों में गेहूं की नरई जलाने पर रोक लगा दी गई है. किसानों को शासन, कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि विभाग व संबंधित संस्थाओं द्वारा यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि किसान अपने खेतों के अवशेषों को जीवांश पदार्थ बढ़ाने में इस्तेमाल करें.

इसी तरह गांवों में पशुओं के गोबर का अधिकतर भाग खाद बनाने के लिए इस्तेमाल न कर के उसे ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि इसी गोबर को यदि गोबर गैस प्लांट में इस्तेमाल किया जाए, तो इस से बहुमूल्य व पोषक तत्त्वों से भरपूर गोबर की स्लरी हासिल होगी, जिसे खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाने में इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही गोबर गैस को घर में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.

योजना को सफल बनाने के लिए सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जाता है, मगर फिर भी नतीजे संतोषजनक नहीं हैं. जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा लगातार कम होने से उत्पादकता या तो घट रही है या स्थिर हो गई है. लिहाजा समय रहते इस पर ध्यान दे कर जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने पर ही कृषि की उत्पादकता बढ़ा पाना मुमकिन हो सकता है. यह देश की बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए बहुत ही जरूरी है. ज्यादातर भारतीय किसान फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.

फसल अवशेषों को जलाने से होने वाले नुकसान

* जब खेत में आग लगाई जाती है, तो खेत की मिट्टी उसी तरह जलती  है जैसे ईंट भट्ठे की ईंट जलती है. खेत का तापमान बढ़ने से उस में पाए जाने वाले लाभकारी जीव जैसे जैविक फर्टिलाइजर राइजोबियम, अजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम, ब्लू ग्रीन एलगी और पीएसबी जीवाणु जल कर नष्ट हो जाते हैं. इस के अलावा लाभदायक जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा, जैविक कीटनाशी विबैरिया बैसियाना, वैसिलस थिरूनजनेसिस और किसानों के मित्र कहे जाने वाले केंचुए आग की लपटों से जल कर नष्ट हो जाते हैं.

* फसल अवशेष जलने से पैदा होने वाले कार्बन से वायु प्रदूषित होती है, जिस का इनसानों व पशुपक्षियों पर बुरा असर पड़ता है.

* कार्बन डाईआक्साइड ज्यादा निकलने से ओजोन परत भी प्रभावित होती है और धरती का तापमान बढ़ जाता है.

ऊपर दी गई तालिका को देख कर हम अंदाजा लगा सकते हैं कि फसल अवशेषों से कितनी ज्यादा मात्रा में हम मिट्टी के जरूरी पोषक तत्त्वों की पूर्ति कर सकते हैं. विदेशों में जहां अधिकतर मशीनों से खेती की जाती है, वहां पर फसल के अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिला दिया जाता है. वैसे मौजूदा दौर में भारत में भी इस काम के लिए रोटावेटर जैसी मशीन का इस्तेमाल शुरू हो चुका है, जिस से खेत को तैयार करते समय एक बार में ही फसल अवशेषों को बारीक टुकड़ों में काट कर मिट्टी में मिलाना काफी आसान हो गया है. जिन क्षेत्रों में नमी की कमी हो, वहां पर फसल अवशेषों की कंपोस्ट खाद तैयार कर के खेत में डालनी फायदेमंद होती है.

फसल अवशेषों का सही इस्तेमाल करने के लिए जरूरी है कि अवशेषों को खेत में जलाने की बजाय उन से कंपोस्ट तैयार कर के खेत में इस्तेमाल करें. उन क्षेत्रों में जहां चारे की कमी नहीं होती, वहां मक्के की कड़वी व धान के पुआल को खेत में ढेर बना कर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढों में कंपोस्ट बना कर इस्तेमाल करना चाहिए.

आलू व मूंगफली जैसी फसलों की खुदाई करने के बाद बचे अवशेषों को खेत में जोत कर मिला देना चाहिए. मूंग व उड़द की फसल में फलियां तोड़ कर अवशेषों को खेत में मिला देना चाहिए.

फसल अवशेष (Crop Remains)

खेतों के अंदर इस्तेमाल

फसल की कटाई के बाद खेत में बचे घासफूंस, पत्तियां व ठूंठों आदि को सड़ाने के लिए 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़क कर कल्टीवेटर या रोटावेटर से काट कर मिट्टी में मिला देना चाहिए. इस प्रकार अवशेष खेत में विघटित होना शुरू कर देंगे और तकरीबन 1 महीने में सड़ कर आगे बोई जाने वाली फसल को पोषक तत्त्व देंगे.

अगर फसल अवशेष खेत में ही पड़े रहे तो नई फसल के पौधे शुरुआत में ही पीले पड़ जाते  हैं, क्योंकि अवशेषों को सड़ाने के लिए जीवाणु जमीन की नाइट्रोजन का इस्तेमाल कर लेते हैं. लिहाजा अवशेषों का सही निबटारा करना बेहद जरूरी है, तभी हम अपनी जमीन में जीवांश पदार्थ की मात्रा में इजाफा कर के जमीन को खेती लायक रख सकते हैं और ज्यादा उपज हासिल कर सकते हैं.

गाजर (Carrots) में होने वाली बीमारियां

गाजर जड़ वाली फसल है और यह खरीफ मौसम में उगाई जाने वाली फसल है. गाजर से सब्जी, अचार व अनेक पकवान बनाए जाते है. यह सेहत के लिए काफी लाभकारी है. गाजर की फसल में भी कई तरह की बीमारियों का प्रकोप होता रहता?है, जिन की वजह से किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. यहां ऐसी ही बीमारियों की जानकारी दी जा रही है.

जड़ों की बीमारियां

जड़ों में दरारें पड़ना : गाजर की खेती वाले इलाकों में ये दरारें ज्यादा सिंचाई के बाद अधिक मात्रा में नाइट्रोजनयुक्त उर्वरकों का इस्तेमाल करने से पड़ती हैं, लिहाजा इन उर्वरकों का इस्तेमाल सोचसमझ कर करना चाहिए.

जड़ों में खाली निशान पड़ना : जड़ों में घाव की तरह आयताकार धंसे हुए धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जो धीरेधीरे बढ़ने लगते हैं. इसलिए जरूरत से ज्यादा सिंचाई नहीं करनी चाहिए.

अन्य बीमारियां

आर्द्र विगलन रोग : यह रोग पिथियम स्पीसीज नामक फफूंदी से होता है. इस रोग से बीज अंकुरित होते ही पौधे मुरझा जाते हैं. अकसर अंकुर बाहर नहीं निकलता और बीज सड़ जाता है.

तने का निचला हिस्सा जो जमीन की सतह से लगा होता है, सड़ जाता है. पौधे का अचानक सड़ना व गिरना आर्द्र विगलन का पहला लक्षण है. इस रोग की रोकथाम के लिए बीजों को बोने से पहले 3 ग्राम कार्बेंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए.

जीवाणुज मृदु विगलन रोग : यह रोग इर्वीनिया कैरोटोवोरा नामक जीवाणु से फैलता है, इस रोग का असर खासकर गूदेदार जड़ों पर होता है. जिस से इस की जड़ें सड़ने लगती हैं. ऐसी जमीन जिस में जल निकासी की सही व्यवस्था नहीं होती या निचले क्षेत्र में बोई गई फसल पर यह रोग ज्यादा लगता है. इस रोग की रोकथाम के लिए खेत के पानी की निकासी की सही व्यवस्था करें. रोग के लक्षण दिखाई देने पर नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का छिड़काव न करें.

कैरेट यलोज : यह एक विषाणुजनित रोग है, जिस के कारण पत्तियों का बीच का हिस्सा चितकबरा हो जाता है और पुरानी पत्तियां पीली पड़ कर मुड़ जाती हैं. जड़ें आकार में छोटी रह जाती हैं और उन का स्वाद कड़वा हो जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए 0.02 फीसदी मैलाथियान का छिड़काव करना चाहिए, ताकि इस रोग को फैलाने वाले कीडे़ मर जाएं.

सर्कोस्पोरा पर्ण अंगमारी : इस रोग के लक्षण पत्तियों, तनों व फूल वाले भागों पर दिखाई पड़ते हैं. रोगी पत्तियां मुड़ जाती हैं. पत्तियों की सतह व तनों पर बने दागों का आकार अर्धगोलाकार और धूसर, भूरा या काला होता है.

फूल वाले हिस्से बीज बनने से पहले ही सिकुड़ कर बरबाद हो जाते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए बीज बोते समय थायरम कवकनाशी का उपचार करें. खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देते ही मैंकोजेब 25 किलोग्राम, कापर आक्सीक्लोराइड 3 किलोग्राम या क्लोरोथैलोनिल 2 किलोग्राम का 1000 लीटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें.

स्क्लेरोटीनिया विगलन : पत्तियों, तनों और डंठलों पर सूखे धब्बे होते हैं. रोगी पत्तियां पीली हो कर झड़ जाती हैं. कभीकभी पूरा पौधा ही सूख कर बरबाद हो जाता है. फलों पर रोग का लक्षण पहले सूखे दाग के रूप में दिखता है, फिर कवक गूदे में तेजी से बढ़ती है और फल को सड़ा देती है.

इस रोग की रोकथाम के लिए फसल लगाने से पहले ही खेत में थायरम 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाना चाहिए. कार्बेंडाजिम 50 डब्ल्यूपी कवकनाशी की 1 किलोग्राम मात्रा का 1000 लीटर पानी में घोल बनाएं और प्रति हेक्टेयर की दर से 15-20 दिनों के भीतर 3-4 बार छिड़काव करें.

चूर्ण रोग : पौधे के सभी हिस्सों पर सफेद हलके रंग का चूर्ण आ जाता है. चूर्ण के लक्षण आने से पहले ही कैराथेन 50 मिलीलीटर प्रति 100 लीटर पानी या वैटेबल सल्फर 200 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी का छिड़काव 10 से 25 दिनों के अंतर पर लक्षण दिखने से पहले करें.

सूत्रकृमि की रोकथाम : सूत्रकृमि सूक्ष्म कृमि के समान जीव है, जो पतले धागे की तरह होते हैं, जिन्हें सूक्ष्मदर्शी से देखा जा सकता है. इन का शरीर लंबा व बेलनाकार होता है. मादा सूत्रकृमि गोल व नर सांप की तरह होते हैं. इन की लंबाई 0.2 से 10 मिलीमीटर तक हो सकती है. ये खासतौर से मिट्टी या पौधे के ऊतकों में रहते हैं. इन का फसलों पर प्रभाव ज्यादा देखा गया है. ये पौधे की जड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं, जिस से जड़ों की गांठें फूल जाती हैं और उन की पानी व पोषक तत्त्व लेने की कूवत घट जाती है. इन के असर से पौधे आकार में बौने, पत्तियां पीली हो कर मुरझाने लगती हैं और फसल की पैदावार कम हो जाती है.

रोकथाम : रोकथाम की कई विधियों में से किसी एक विधि से सूत्रकृमियों की पूरी तरह रोकथाम नहीं की जा सकती. इसलिए 2 या 2 से ज्यादा विधियों से सूत्रकृमियों की रोकथाम की जाती है. ये विधियां?हैं :

* गरमियों में गहरी जुताई करनी चाहिए.

* नर्सरी लगाने में पहले बीजों को कार्बोफ्यूरान व फोरेट से उपचारित करना चाहिए.

* फसल लगाने से 20-25 दिनों पहले कार्बनिक खाद को मिट्टी में मिलाना चाहिए.

* रोग प्रतिरोधी जातियों का चयन करें.

* अंत में यदि इन सब से रोकथाम न हो, तब रसायनों का इस्तेमाल करें.

रासायनिक इलाज

कार्बोफ्यूरान व फोरेट 2 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर जमीन में मिलाएं या 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से जरूरत के मुताबिक करें. कुछ दानेदार रसायन जैसे एल्डीकार्ब (टेमिक) को 11 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलाना चाहिए.

खुदाई : गाजर की खुदाई का समय आमतौर पर उस की किस्म पर निर्भर करता है, वैसे जब गाजर की जड़ों के ऊपरी सिरे ढाई से साढे़ 3 सेंटीमीटर व्यास के हो जाएं, तब खुदाई कर लेनी चाहिए.

पैदावार : गाजर की पैदावार कई बातों पर निर्भर करती है, जिन में जमीन की उर्वराशक्ति, उगाई जाने वाली किस्म, बोने की विधि और फसल की देखभाल पर निर्भर करती है, लेकिन बीज उगाने के लिए गाजर के बीजों को घना बोते हैं, ताकि गाजर में 90 से 100 दिन बाद रोपाई के लिए जडें तैयार हो सकें.

तैयार जड़ों को हम खेत से निकाल लेते हैं और पौधों को बढ़ने के लिए छोड़ दिया जाता है, गाजर की उपज में कमी न आए, इस के लिए 30 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हलकी सिंचाई के बाद इस्तेमाल करना ठीक रहता है. आमतौर पर प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल तक औसतन उपज मिल जाती है.

गाजर घास (Carrot Grass) से फसल का बचाव

गाजर घास की 20 प्रजातियां पूरे विश्व में पाई जाती हैं. गाजर घास की उत्पत्ति का स्थान दक्षिण मध्य अमेरिका है. अमेरिका, मैक्सिको, वेस्टइंडीज, चीन, नेपाल, वियतनाम और आस्ट्रेलिया के विभिन्न भागों में फैला यह खरपतवार भारत में अमेरिका या कनाडा से आयात किए गए गेहूं के साथ आया.

हमारे देश में साल 1951 में सब से पहले पूना में नजर आने के बाद यह विदेशी खरपतवार करीब 35 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में फैल चुका है. यह खरपतवार जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड के विभिन्न भागों में फैला हुआ है.

गाजर घास को देश के विभिन्न भागों में अलगअलग नामों जैसे कांग्रेस घास, सफेद टोपी, चटक चांदनी व गंधी बूटी आदि नामों से जाना जाता है. कांग्रेस घास इस का सब से ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला नाम है. यह घास खाली जगहों, बेकार जमीनों, औद्योगिक क्षेत्रों, बगीचों, पार्कों, स्कूलों, सड़कों और रेलवे लाइनों के किनारों पर बहुतायत में पाई जाती है. पिछले कुछ सालों से इस का प्रकोप सभी तरह की खाद्यान्न फसलों, सब्जियों व फलों में बढ़ता जा रहा है.

वैसे तो गाजर घास पानी मिलने पर साल भर फलफूल सकती है, पर बारिश के मौसम में ज्यादा अंकुरण होने पर यह खतरनाक खरपतवार का रूप ले लेती है. गाजर घास का पौधा 3-4 महीने में अपना जीवनचक्र पूरा कर लेता है. 1 साल में इस की 3-4 पीढि़यां पूरी हो जाती हैं.

करीब डेढ़ मीटर लंबे गाजर घास के पौधे का तना काफी रोएंदार और शाखाओं वाला होता है. इस की पत्तियां काफी हद तक गाजर की पत्तियों की तरह होती हैं. इस के फूलों का रंग सफेद होता है. हर पौधा 1000 से 50000 बेहद छोटे बीज पैदा करता है, जो जमीन पर गिरने के बाद नमी पा कर अंकुरित हो जाते हैं.

गाजर घास के पौधे हर प्रकार के वातावरण में तेजी से बढ़ते हैं. ये ज्यादा अम्लीयता व क्षारीयता वाली जमीन में भी उग सकते हैं. इस के बीज अपनी 2 स्पंजी गद्दियों की मदद से हवा व पानी के जरीए एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुंच जाते हैं.

गाजर घास से होने वाले नुकसान

* गाजर घास से इनसानों को एग्जिमा, एलर्जी, बुखार व दमा जैसी बीमारियां हो जाती हैं. इस का 1 परागकण भी इनसान को बीमार करने के लिए काफी है. इस के परागकण श्वसन तंत्र में घुस कर दमा व एलर्जी पैदा करते हैं. इस के  ज्यादा असर से इनसानों की मौत तक हो जाती है.

* गाजर घास की वजह से खाद्यान्नों की फसलों की पैदावार में 40 फीसदी तक की कमी आंकी गई है. इस से फसलों की उत्पादकता घट जाती है.

* इस पौधे से ऐलीलो रसायन जैसे पार्थेनिन, काउमेरिक एसिड, कैफिक ऐसिड वगैरह निकलते हैं, जो अपने आसपास

किसी अन्य पौधे को उगने नहीं देते हैं. इस से फसलों के अंकुरण और बढ़वार पर बुरा असर पड़ता है.

* गाजर घास के वन क्षेत्रों में तेजी से फैलने के कारण कई खास वनस्पतियां और जड़ीबूटियां खत्म होती जा रही हैं.

* दलहनी फसलों में यह खरपतवार जड़ ग्रंथियों के विकास को प्रभावित करता है और नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं की क्रियाशीलता को कम कर देता है.

* इस के परागकण बैगन, मिर्च व टमाटर वगैरह सब्जियों के पौधों पर जमा हो कर उन के परागण, अंकुरण व फल विन्यास को प्रभावित करते हैं और पत्तियों में क्लोरोफिल की कमी व पुष्प शीर्षों में असामान्यता पैदा कर देते हैं.

* पशुओं के चारे में इस खरपतवार के मिल जाने से दुधारू पशुओं के दूध में कड़वाहट आने लगती है. ज्यादा मात्रा में इसे चर लेने से पशुओं की मौत भी हो सकती है.

गाजर घास के इस्तेमाल

* गाजर घास से कई तरह के कीटनाशक, जीवाणुनाशक और  खरपतवारनाशक बनाए जा सकते हैं.

* इस की लुगदी से कई तरह के कागज तैयार किए जा सकते हैं.

* बायोगैस उत्पादन में भी इसे गोबर के साथ मिलाया जा सकता है.

ऐसे करें रोकथाम

* बारिश के मौसम में गाजर घास को फूल आने से पहले जड़ से उखाड़ कर कंपोस्ट व वर्मी कंपोस्ट बनाना चाहिए.

* घर के आसपास गेंदे के पौधे लगा कर गाजर घास के फैलाव को रोका जा सकता है.

* मैक्सिकन बीटल (जाइगोग्रामा बाइकोलाराटा) रामकीट को बारिश के मौसम में गाजर घास पर छोड़ना चाहिए.

* गाजर घास की रासायनिक विधि द्वारा रोकथाम करने के लिए खरपतवार वैज्ञानिक की सलाह लेनी चाहिए.

* नमक के 20 फीसदी घोल से गाजर घास की रोकथाम की जा सकती है, पर यह विधि छोटे क्षेत्र के लिए ही ठीक है.

* गैर कृषि क्षेत्रों में इस की रोकथाम के लिए शाकनाशी रसायन एट्राजिन का इस्तेमाल फूल आने से पहले 1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए. ऐसे क्षेत्रों में शाकनाशी रसायन जैसे ग्लाइफोसेट 1.5-2.0 फीसदी या मेट्रीब्यूजिन 0.3-0.5 फीसदी घोल का फूल आने से पहले छिड़काव करने से गाजर घास नष्ट हो जाती है.

* मक्का, ज्वार व बाजरा की फसलों में एट्राजिन 1-1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के तुरंत बाद (अंकुरण से पहले) इस्तेमाल करना चाहिए.

* जमीन को गाजर घास से बचाने के लिए सामुदायिक कोशिशें बहुत जरूरी हैं. गांवों, शहरी कालोनियों, स्कूलों, महाविद्यालयों में रहने या पढ़ने वाले लोगों को चाहिए कि वे अपने आसपास की जमीन को गाजर घास से मुक्त रखें. इसी तरह की कोशिशों से पंजाब राज्य के लुधियाना जिले का मनसूरा गांव पहला गाजर घास मुक्त क्षेत्र बन गया है.

* जगहजगह जा कर लोगों को गाजर घास के नुकसानों व रोकथाम के बारे में जानकारी दे कर उन्हें जागरूक करना चाहिए.

* हर साल अगस्तसितंबर में गाजर घास जागरूकता सप्ताह मनाया जाता है, क्योंकि अक्तूबरनवंबर में गाजर घास सब से ज्यादा होती है.

आलू (Potato) की खेती

आलू (Potato) दैनिक आहार का एक अभिन्न हिस्सा है. वर्षभर आलू (Potato) की उपलब्धता रहती है. आलू (Potato) से सब्जी, पकौड़े, समोसे, चिप्स बनाने के अलावा इस का व्रत में फलाहार के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. प्रति व्यक्ति आलू (Potato) की उपलब्धता 16 किलो प्रति वर्ष है, जो निश्चित रूप से कम है. आलू (Potato) की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए इस की तकनीकी को समझना होगा.

प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी, देवरिया के निदेशक का कहना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में धान काटने के बाद किसान दिसंबर तक आलू लगाते है, जिस से कीट बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है, उपज पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. यदि आलू 25 अक्तूबर तक लगा दिया जाए तो कीट और बीमारियों का प्रकोप कम होता है तथा उत्पादन भी अच्छा होता है.

आलू की प्रमुख किस्मों में कुफरी अशोका, कुफरी चंद्रमुखी, कुफरी सूर्या 70-80 दिनों में तैयार हो जाती हैं. इन की उत्पादन क्षमता 250 से 300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है. कुफरी बहार, कुफरी पुखराज, कुफरी लालिमा, कुफरी अरुण, कुफरी गिरीराज, कुफरी कंचन, कुफरी पुष्कर, कुफरी ज्योति 90-100 दिनों में तैयार हो जाती हैं. उत्पादन क्षमता 250-300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है.

कुफरी सतलुज,कुफरी आनंद, कुफरी सिंदूरी, कुफरी चिप्सोना-1, 2, 3 आदि 110-120 दिनों की किस्में हैं, जिस का उत्पादन प्रति हैक्टेयर 350 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आलू की खेती के लिए बलुई दोमट एवं दोमट मृदा सर्वोच्च होती है. प्रति हैक्टेयर में 30 से 35 क्विंटल कंद (35-40 या 40-50 ग्राम के कंद अथवा 3.5 से 4।सैंटीमीटर वाले कंद) प्रर्याप्त होते हैं. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सैंटीमीटर तथा कंद से कंद की दूरी बीज आलू के आकार के अनुसार 20-30 सैंटीमीटर पर रखी जाती है.

आलू बोआई से पहले 250 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला दें. उर्वरक का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए. 150:80:100 नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश का प्रयोग प्रति हेक्टेयर की दर से कर सकते हैं. इस की पूर्ति के लिए 260 किलो यूरिया, 176 किलो डाईअमोनियम फास्फेट और 170 किलो म्यूरेट औफ पोटाश का प्रयोग करें. बोआई के समय नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा का प्रयोग करें. नाइट्रोजन की शेष मात्रा का मिट्टी चढ़ाते समय 20-25 दिन बाद प्रयोग करना चाहिए. आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए. कीट और बीमारियों की निगरानी रखनी चाहिए. अगर आलू भंडारण करना है तो परिपक्व होने पर ही खुदाई करें.

फसल विविधिकरण (Crop Diversification) है लाभकारी

बीजोलिया, भीलवाड़ा में महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय के अंतर्गत फसल विविधीकरण परियोजना के तहत दो दिवसीय विस्तार अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम का शुभारंभ किया गया. यह कार्यक्रम ‘दक्षिणी राजस्थान में फसल विविधिकरण के माध्यम से कृषि स्थिरता और लाभप्रदता बढ़ाना’ शीर्षक के तहत पायलट प्रोजैक्ट के रूप में आयोजित किया जा रहा है.

इस कार्यक्रम का उद्देश्य अधिकारियों को फसल विविधिकरण के नवीनतम तरीकों और तकनीकों से अवगत कराना है, ताकि वे किसानों को बेहतर कृषि स्थिरता और आर्थिक लाभ प्राप्त करने में सहायता कर सकें. कार्यक्रम में उपस्थित विशेषज्ञों ने फसल विविधिकरण के विभिन्न पहलुओं पर व्याख्यान दिए और बताया कि किस प्रकार यह रणनीति दक्षिणी राजस्थान के किसानों को बेहतर लाभप्रदता और दीर्घकालिक कृषि स्थिरता प्राप्त करने में मदद कर सकती है.

परियोजना प्रभारी डा. हरि सिंह ने फसल विविधिकरण को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निबटने और मिट्टी की सेहत सुधारने के लिए आवश्यक बताया. उन्होंने सफल मामलों के अध्ययन प्रस्तुत किए और जमीनी स्तर पर इन रणनीतियों को लागू करने के व्यावहारिक सुझाव दिए.

उदय लाल कोली, कृषि अधिकारी ने फसल विविधिकरण के आर्थिक लाभों पर जोर दिया. उन्होंने बताया कि किस प्रकार किसान संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग कर सकते हैं और एकल फसल प्रणाली से जुड़े जोखिमों को कम कर सकते हैं. उन्होंने विस्तार अधिकारियों को किसानों को एक अधिक विविधीकृत फसल प्रणाली अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया, जिस से उन की आय और बाजार के उतारचढ़ाव के खिलाफ स्थिरता बढ़ सके.

कृषि अधिकारी सोनिया सिलवाटिया ने बताया कि कृषि वैज्ञानिकों, विस्तार अधिकारियों और किसानों के बीच सहयोग किस प्रकार फसल विविधिकरण के लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त करने में मदद कर सकता है.

लक्ष्मी लाल ब्रह्मभट्ट ने फसल विविधिकरण के कार्यान्वयन के लिए एक विस्तृत योजना प्रस्तुत की. उन्होंने किसानों की मदद के लिए उपलब्ध सरकारी योजनाओं पर जानकारी प्रदान दी.

फसल विविधिकरण (Crop Diversification)

यह कार्यक्रम अत्यंत जानकारीपूर्ण रहा और प्रतिभागियों ने अपनेअपने क्षेत्रों में इस ज्ञान को लागू करने की उत्सुकता व्यक्त की, ताकि फसल विविधिकरण के माध्यम से कृषि स्थिरता और लाभप्रदता में सकारात्मक बदलाव लाया जा सके.

ईसबगोल (Isabgol) की जैविक खेती

ईसबगोल एक महत्त्वपूर्ण नकदी व औषधीय फसल है. ईसबगोल को स्थानीय भाषा में घोड़ा जीरा भी कहते हैं. विश्व की कुल पैदावार की 80 फीसदी ईसबगोल की पैदावार भारत में होती है. इस की खेती मुख्य रूप से राजस्थान व गुजरात में की जाती है. ईसबगोल को मुख्यतया दानों के लिए उगाया जाता है, पर इस का कीमती भाग इस के दानों पर पाई जाने वाली भूसी है, जिस की मात्रा बीज के भार की 27-30 फीसदी तक होती है.

इस के भूसी रहित बीजों का इस्तेमाल पशुओं व मुरगियों के लिए आहार बनाने में किया जाता है. ईसबगोल का इस्तेमाल आयुर्वेदिक, यूनानी व एलोपैथिक इलाजों में किया जाता है. इस के अलावा इस का इस्तेमाल रंगाईछपाई, आईस्क्रीम, ब्रेड, चाकलेट, गोंद और सौंदर्य प्रसाधन उद्योगों में भी होता है.

उन्नत किस्में

आरआई 89 : यह किस्म राजस्थान की पहली उन्नत किस्म है. इस के पौधों की ऊंचाई 30-40 सेंटीमीटर होती है. यह 110-115 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरआई 1 : सूखे व कम सूखे इलाकों के लिए मुनासिब इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 29-47 सेंटीमीटर होती है. यह 115-120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 12-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

जलवायु व जमीन

ईसबगोल के लिए ठंडी व शुष्क जलवायु अच्छी मानी जाती है. बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए 20-25 डिगरी सेल्सियस के बीच का तापमान अच्छा माना जाता है. इस के पकने की अवस्था पर साफ, सूखा व धूप वाला मौसम बहुत अच्छा रहता है.पकाव के समय बारिश होने पर इस के बीज सड़ने लगते हैं और बीजों का छिलका फूल जाता है. इस से इस की पैदावार व गुणवत्ता में कमी आ जाती है. इस की खेती के लिए दोमट, बलुई मिट्टी जिस में जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो, अच्छी रहती है.

खेत की तैयारी

खरीफ फसल की कटाई के बाद खेत की 2-3 बार जुताई कर के मिट्टी को भुरभुरी बनाएं और फसल से ज्यादा पैदावार लेने के लिए 5-6 टन अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद या 3 टन सड़ी देशी खाद व फसल के अवशेष 3 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाएं. जैव उर्वरकों के रूप में 5 किलोग्राम पीएसबी व 5 किलोग्राम एजोटोबेक्टर प्रति हेक्टेयर की दर से 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद में मिला कर खेत में डालें.

बीज दर व बोआई

ईसबगोल का बीज बहुत छोटा होता है. इसे क्यारियों में छिटक कर मिट्टी में मिलाना चाहिए. इस के फौरन बाद सिंचाई कर देनी चाहिए. इस प्रकार छिटक कर बोआई करने के लिए 4-5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार : ईसबगोल की जैविक खेती के तहत फसल को तुलासिया रोग से बचाने के लिए बीजों में नीम, धतूरा व आक की सूखी मिश्रित पत्तियों (1:1:1) से बना पाउडर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से मिलाएं.

ईसबगोल (Isabgol)

खरपतवारों की रोकथाम

ईसबगोल में 2 निराइयों की जरूरत होती है. पहली निराई बोआई के करीब 20 दिनों बाद व दूसरी निराई 40-45 दिनों बाद कर के फसल को खरपतवारों से बचाएं. इस से तुलासिया रोग का हमला भी कम होता है.

सिंचाई

ईसबगोल में बोआई के समय, उस के 8 दिनों, 30 दिनों व 65 दिनों बाद सिंचाई करने से अच्छी उपज हासिल होती है. ईसबगोल की फसल में क्यारी विधि की बजाय फव्वारा विधि द्वारा 6 सिंचाइयां (बोआई के समय और 8, 20, 40, 55 व 70 दिनों बाद) करने से अच्छी उपज मिलती है.

कीट व रोग

रोगग्रस्त फसल के अवशेषों को खेत से बाहर कर के नष्ट कर देना चाहिए. गरमी में गहरी जुताई कर के खेत खाली छोड़ें. फसलचक्र अपनाएं यानी बारबार एक ही खेत में ईसबगोल की खेती न करें. स्वस्थ, प्रमाणित व रोगरोधी किस्मों का चयन करें. खेत में इस्तेमाल की जाने वाली गोबर की खाद अच्छी तरह से सड़ी हुई होनी चाहिए. खेत में ट्राइकोडर्मा कल्चर 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिलाएं. ईसबगोल की जैविक खेती में नीम, धतूरा, आक की सूखी पत्तियों के पाउडर को 1:1:1 अनुपात में मिला कर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें. फसल को रोगों व मोयले से बचाने के लिए 12 पीले चिपचिपे पाश प्रति हेक्टेयर लगाएं. दीमक से बचाव के लिए जमीन में बेवेरिया बेसियाना या मोटाराइजियम (मित्र फफूंद) 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाएं. पर्णीय छिड़काव के रूप में नीम की पत्तियों का अर्क, धतूरा (10 फीसदी) व गौमूत्र (10 फीसदी) का इस्तेमाल मृदरोमिल आसिता और मोयले की रोकथाम के लिए करें. जरूरत के मुताबिक दोबारा छिड़काव करें.

कटाई, मड़ाई व ओसाई

ईसबगोल में 25 से 125 तक कल्ले निकलते हैं. पौधों में 60 दिनों बाद बालियां निकलना शुरू होती हैं. करीब 115-130 दिनों में फसल पक कर तैयार हो जाती है. फसल पकने पर सुनहरी पीली बालियां गुलाबीभूरी हो जाती हैं और बालियों को दबाने पर दाने बाहर आ जाते हैं. फसल के पूरी तरह पकने के 1-2 दिनों पहले ही फसल को काट लेना चाहिए. कटाई सुबह के समय करें, जिस से बीजों के बिखरने का डर न रहे. कटी हुई फसल को 2-3 दिनों खलिहान में सुखा कर जीरे की तरह झड़का लें व निकले हुए बीजों की सफाई कर के व सुखा कर बोरियों में भर कर सूखी व ठंडी जगह पर भंडारण करें.

उपज व उपयोगी भाग

ईसबगोल की औसत उपज 9-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस की भूसी की मात्रा बीज के भार की 30 फीसदी होती है, जो सब से कीमती व उपयोगी भाग है. बाकी 65 फीसदी गोली, 3 फीसदी खली और 2 फीसदी खारी होती है. भूसी के अलावा सभी भाग जानवरों को खिलाने के काम आते हैं.

सरसों (Mustard) में रोग प्रबंधन कर मिले ज्यादा पैदावार

सरसों को मुख्य रूप से खाद्य तेल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. सरसों की खेती उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, बिहार, ओडिशा वगैरह राज्यों में खासी मात्रा में की जाती है. छत्तीसगढ़ में भी सरसों की खेती की अपार संभावनाएं हैं.

सरसों की खेती मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ के पहाड़ी क्षेत्र बस्तर और सरगुजा व मैदानी भाग में दुर्ग, राजनांदगांव, बिलासपुर व कवर्धा जिलों में सफलतापूर्वक की जा सकती है. सरसों की खेती में रोग प्रबंधन का सही तरीका अपना कर ज्यादा उत्पादन ले सकते हैं.

सरसों के खास रोग

श्वेत गेरुआ या ह्वाइट रस्ट रोग : यह क्रुसीफेरी का प्रमुख रोग है. इस रोग के कारण सरसों की खेती में पैदावार में कमी आ जाती है.

लक्षण : यह रोग बोआई के 30 से 40 दिनों के बाद सब से पहले पत्तियों पर दिखाई देता है. इस रोग के लक्षण सब से पहले पत्तियों पर हलके हरे से चकत्तों के रूप में शुरू होते हैं और कुछ ही समय में ये चकत्ते दूध के समान सफेद फुंसियों जैसे बन जाते हैं, जिन का आकार 1-2 एमएम होता है जो बाद में आपस में मिल कर बड़े चकत्ते का रूप ले लेते हैं.

फुंसियां पत्तियों की निचली सतह पर बिखरी हुई होती हैं. ऊपरी सतह पर फुंसियों के ठीक विपरीत उसी आकार के पीले धब्बे बनते हैं, जिस के कारण रोग आसानी से पहचाना जा सकता है.

जब रोग का संक्रमण तने के सहारे पूर्ण अवस्था में होता है तब यह दैहिक होता है और इस के कारण तना मोटा और फूल जाता है. संक्रमित फूल गुच्छे के रूप में बदल जाता है. इस रोग के कारण 60 फीसदी तक नुकसान हो जाता है.

रोकथाम : बोआई के लिए स्वस्थ बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए.

सरसों की बोआई समय से पहले करनी चाहिए. 2-3 साल का फसल चक्र अपनाना चाहिए.

बीजों को मैटालैक्सिल एमजैड (रिडोमिल एमजैड 72 डब्ल्यूपी 2 ग्राम प्रति किलो बीज) से उपचारित करना चाहिए.

इस रोग की रोकथाम के लिए कौपर औक्सिक्लोराइड 3 ग्राम या रिडोमिल 2 ग्राम प्रति 600-700 लिटर की दर से पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें.

सरसों, तोरिया पौधों का पट्टी धब्बा रोग : सरसों और इस कुल के पौधों पर अंगमारी या झुलसा का प्रकोप बहुत देखा जा रहा है. इस से 25 फीसदी तक उपज में कमी आ जाती है.

लक्षण : इस रोग के लक्षण 20 से 25 दिनों के बाद दिखाई देने लगते हैं. शुरू में पत्तियों पर भूरे रंग के छोटेछोटे धब्बे बनते हैं जो कुछ समय में गोलाकार हो जाते हैं और मौसम के अनुकूल होने पर ये धब्बे अधिक मात्रा में बनते हैं और आपस में मिल जाते हैं. पत्तियां बुरी तरह से झुलसी हुई दिखाई देती हैं. उग्र रूप धारण करने पर वे गिर जाती हैं.

रोकथाम : खड़ी फसल में रोग की रोकथाम के लिए एक छिड़काव घुलनशील गंधक या गंधक चूर्ण का भुरकाव करना चाहिए. जब फसल 50-52 दिनों की हो जाए, डाइथेन एम 45 0.2 फीसदी का छिड़काव भी सही पाया गया है.

पूर्ण झुलसन (अल्टरनेरिया ब्लाइट) रोग : इस रोग के लक्षण पत्तियों, तनों और फलियों पर दिखाई देते हैं. रोग का हमला फसल पर फूल आने की अवस्था में शुरू होता है. इस रोग का अधिकतर प्रकोप पत्तियों पर होता है.

सब से पहले पुरानी पत्तियों पर भूराकाला निशान होता है जो बाद में बड़ा हो कर साफ धब्बा बन जाता है. ये धब्बे पूरी पत्ती में फैल जाते हैं और पूरी पत्ती धब्बों से भरी दिखाई देती है.

ये धब्बे मध्य व ऊपर की पत्तियों पर दिखाई देते हैं. इस रोग के कारण 10-70 फीसदी तक नुकसान होता है.

रोकथाम : इस रोग से बचने के लिए सब से पहले बीजोपचार कर के बीजों की बोआई करना चाहिए. खड़ी फसल में डाइथेन एम 45 (0.3 फीसदी) का 2-3 बार छिड़काव 8-10 दिनों के अंतर पर करना चाहिए.

भभूतिया रोग (पाउडरी मिल्ड्यू) : इस रोग का संक्रमण शुरुआती अवस्था में ही हो जाता है. रोग की शुरुआती अवस्था में पत्तियों, तनों और फलियों पर गोलाकार अनियमित छोटेछोटे सफेद चकत्ते पाए जाते हैं जो सही वातावरण मिलने पर आपस में मिल कर पूरी पत्तियों और तनों को ढक लेते हैं, जिस से पौधे की बढ़वार व उपज कम हो जाती है.

रोकथाम : इस रोग की रोकथाम के लिए केरथेन/केलीक्सीन (1 मिलीलिटर प्रति लिटर) कार्बंडाजिम या सल्फेक्स 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल कर फसल पर 600-700 लिटर का छिड़काव करें.

मृदुरोमिल रोग (डाउनी मिल्ड्यू) : इस रोग का प्रकोप पत्तियों और बनने वाले फूलों पर ज्यादा पाया जाता है. रोग का हमला ज्यादा होने पर पत्तियां सूख जाती हैं और सरसों के फूल मोटे हो जाते हैं. साथ ही, फूल के सभी भाग हरे और मोटे हो जाते हैं. पुष्पक्रम पर फलियां नहीं लगती हैं.

रोकथाम : इस रोग से बचाव के लिए बीजों को 3 ग्राम थाइरम या कैप्टान या रिडोमिल एसडी नामक फफूंदनाशक दवा 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए.

खड़ी फसल प्रकोप में रिडोमिल एमजैड 72 डब्ल्यूपी दवा का 0.2 ग्राम प्रति लिटर पानी मिला कर 10-15 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार छिड़काव करें.

पर्णचित्ती या पर्ण दाग (लीफ स्पौट) : सरसों की फसलों पर आक्रमण करने वाला यह रोग विश्वव्यापी है जिस से उपज में काफी नुकसान होता है. इस रोग का हमला पौधों के तकरीबन सभी भागों पर होता है. सब से पहले बीज पत्तों पर छोटेछोटे हलके भूरे रंग के विक्षत या धब्बे बनते हैं जो जल्द ही बीजाणुओं के समूह बन जाने के कारण काले रंग के हो जाते हैं. निचली पत्तियों पर गहरे हरे या भूरे काले बिखरे हुए छोटे धब्बे बनते हैं जो आकार में बढ़ जाते हैं.

रोकथाम : रोगग्रस्त फसल अवशेषों को जला देना चाहिए. बीजों को थाइरम 3 ग्राम/ कार्बंडाजिम (वाविस्टिन 1 ग्राम) फफूंदनाशक दवाओं से प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोआई करनी चाहिए.

पत्ती छिड़काव के लिए क्लोरोथैलोनिल (कवच) या आइप्रोडीयोन (रोवराल) 2 ग्राम प्रति लिटर पानी, मेंकोजेब 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में किसी एक दवा का इस्तेमाल करना चाहिए.

चने (gram) की उन्नत खेती

चना भारत की सब से अहम दलहनी फसल है. चने को दालों का राजा भी कहा जाता है. पोषक मान के नजरिए से चने के प्रति 100 ग्राम दानों में औसतन 11 ग्राम पानी, 21.1 ग्राम प्रोटीन, 4.5 ग्राम वसा, 61.5 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 149 मिलीग्राम कैल्शियम, 7.2 मिलीग्राम नियासिन पाया जाता है.

दलहनी फसल होने के चलते यह जड़ों में वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिर करती है, जिस से खेत की उर्वराशक्ति बढ़ती है. भारत में चने की खेती में 7.62 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के औसत मान से 5.75 मिलियन टन उपज हासिल होती है.

जमीन का चुनाव : चने को उन क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता है जहां रबी के सीजन में सर्दी कम रहती है और बारिश की संभावना कम होती है. ओले या पाला पड़ने की संभावना बिलकुल नहीं होती है.

सामान्यतौर पर चने की खेती हलकी से भारी जमीनों पर की जाती है, पर ज्यादा जल धारण की कूवत व सही जल निकास वाली जमीनें इस की खेती के लिए अच्छी रहती हैं. मिट्टी का पीएचमान 6-7.5 अच्छा माना जाता है. ऊसर व क्षारीय जमीन इस की खेती के लिए बिलकुल सही नहीं होती है. छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में पाई जाने वाली डोरसा व कन्हारी जमीन चने की खेती के लिए सब से सही मानी जाती है.

जमीन की तैयारी : चने की खेती के लिए मिट्टी का बारीक होना जरूरी नहीं है, बल्कि ढेलेदार खेत ही चने की फसल के लिए अच्छा माना जाता है. खरीफ फसल कटने के बाद नमी की सही मात्रा होने पर एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से व 2 जुताई देशी हल या ट्रैक्टर से करनी चाहिए. दीमक प्रभावित क्षेत्रों में क्लोरपायरीफास 1.5 फीसदी चूर्ण 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आखिरी जुताई के समय मिट्टी में मिलाना चाहिए. इस से कटुआ कीटों पर भी नियंत्रण होता है.

पोषक तत्त्व प्रबंधन

चने की फसल के लिए जरूरी पोषक तत्त्व प्रबंधन सही होता है. चूंकि चना दलहनी फसल होने के कारण वायुमंडलीय नाइट्रोजन को अपनी जड़ों की गांठों में जमा कर सकता है, इसलिए चने की फसल को ज्यादा नाइट्रोजन की जरूरत नहीं होती है. नाइट्रोजन की पूरी मात्रा बेसल डोज के?रूप में करनी चाहिए.

अच्छी उपज के लिए चने के बीज को 5 ग्राम राइजोबियम, 5 ग्राम पीएसबी कल्चर से प्रति एकत्र बीज की मात्रा को उपचारित करना चाहिए. साथ ही, जुताई के पहले खेत में 20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद डालनी चाहिए. उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी जांच के आधार पर ही करना चाहिए.

अगर मिट्टी जांच संभव हो तो चने की सिंचित फसल से अच्छी उपज लेने के लिए 17.75 किलोग्राम यूरिया, 102 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 13.59 किलोग्राम पोटाश व 100 किलोग्राम जिप्सम प्रति एकड़ के हिसाब से देना सही होता है.

जेनेटिकली मोडिफाईड फसलों के बारे में जानकारी जरूरी

दुनियाभर में फसलों का जेनेटिक मोडिफिकेशन पर 50 सालों से ज्यादा समय से रिसर्च हो रही है. जो बदलाव कुदरती तौर पर सदियों से हो रहे हैं, वे इस टैक्नोलौजी द्वारा वैज्ञानिक तरीके से लाए जा रहे हैं. हर फसल के पौधे मे कोशिकाओं, क्रोमोसोम और जींस के सैट होते हैं. अगर कोई फायदेमंद जीन किसी दूसरे पौधे या बैक्टीरिया से ले कर फसल के जीनोम में डाल दिया जाता है, तो इसे जैनेटिक मोडिफिकेशन कहते हैं. इस विधि द्वारा फसल के पौधे में नई विशेषताएं पैदा की जाती हैं. उदाहरण के लिए समुद्री तटों पर उगने वाले पौधों में नमक वाली हवा और कम पानी की मिट्टी को सहने की ताकत होती है. उन की यह विशेषता उन में एक खास जीन की वजह से पैदा होती है, जो उन में पाया जाता है. अगर इस जीन को इन पौधों में से निकाल कर दूसरी फसलों में डाल दिया जाए, तो वे फसलें भी सैलाइन मिट्टी में उग सकेंगी. भारत में 2 करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा जमीन सैलाइन है और किसान उन में फसल न उगा पाने के चलते बहुत नुकसान झेलते हैं. यह टैक्नौलोजी उन के लिए काफी फायदेमंद हो सकती है.

इस टैक्नौलोजी द्वारा फसल के पौधों को मजबूत बना कर उन्हें कीटों के हमलों, सूखे के हालात से सुरक्षा और वे कम उर्वरकों के साथ भी विकसित हो सकेंगे. कैमिकल कीटनाशकों और उर्वरकों के इस्तेमाल में कटौती भी कर सकेंगे. किसानों की लागत कम हो जाएगी. फसलों की पैदावार में बढ़ोतरी होगी. खाद्य तेलों में फैटी एसिड प्रोफाईल को मोडिफाई कर के उन्हें सेहतमंद बनाया जा सकेगा, चावल में विटामिन ए की मात्रा बढ़ाई जा सकेगी और ऐसे ही कई फायदेमंद उपयोग किए जा सकेंगे, जिस से ग्राहकों को फायदा होगा.

इस स्टडी की शुरुआत अमेरिका में हुई और अब यह पूरी दुनिया में अपना ली गई है. 28 देशों में उगाई जाने वाली 30 जीएम फसलों में ज्यादातर कौर्न, सोयाबीन और कपास हैं. दूसरी फसलों में कैनोला, चावल, गन्ना वगैरह भी हैं. बंगलादेश जीएम बैगन उगाता है. पूरी दुनिया में 2 करोड़ किसान 18 करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर जीएम फसल उगाते हैं और उस से फायदा कमाते हैं. यूरोप के भी 5 देशों में ये फसलें उगाई जाती हैं. दूसरे देशों जैसे आस्ट्रेलिया, वियतनाम, इंडोनेशिया, ब्राजील, अर्जेंटीना में जीएम फसलें बड़े लैवल पर उगाई जाती हैं.

एकड़ जमीन के मामले में भारत दुनिया में 5वें नंबर पर है. भारत सरकार ने अभी तक केवल एक जीएम फसल उगाने की इजाजत दी है और वह कपास है. दूसरी फसलों जैसे सरसों, चावल, बैगन, कौर्न पर काम पूरा हो चुका है, लेकिन उन्हें अभी तक इजाजत नहीं दी गई है.

जीएम फसलों के लिए इजाजत लेने का तरीका बहुत कठोर है. चाहे निजी कंपनी हो या सरकारी संस्थान, हर किसी को इसी तरीके से गुजरना होता है. पूरी दुनिया में यह एकसमान है. यह इजाजत हासिल करने के लिए कई प्रयोग करने पड़ते हैं और उन के नतीजों के आधार पर साबित करना होता है कि जीएम फसल व जीएम फूड इनसानों, जानवरों, मिट्टी, आबोहवा के लिए महफूज है और कीटों एवं माइक्रो आर्गेनिज्म वगैरह के लिए फायदेमंद है. अगर यह सुरक्षा साबित नहीं हो पाती है, तो इन फसलों को इजाजत नहीं मिलती है. इन अर्जियों का मूल्यांकन 2 महत्त्वपूर्ण समितियां करती हैं, जो विज्ञान और टैक्नौलोजी मंत्रालय व पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के बीच बनाई जाती है. इन समितियों में वैज्ञानिक विशेषज्ञों का नामाकन कृषि एवं स्वास्थ्य मंत्रालय भी करता है. जब तक इस अर्जी का मूल्यांकन उन सभी के द्वारा नहीं कर लिया जाता है और जब तक विभिन्न तकनीकी ट्रायल व प्रयोगों के नतीजों से उन्हें संतुष्टि नहीं मिल जाती, तब तक इसे इजाजत नहीं दी जाती है.

दुनिया में व्यापार किए जाने वाले सभी जीएम फूड इन्हीं इजाजत मिली जीएम फसलों द्वारा बनाए जाते हैं. विभिन्न वैज्ञानिकों और सरकारों ने रिजल्ट दिया है कि ये खाने में सुरक्षित हैं व नौन जीएम फसलों की तरह ही हैं, इसलिए हम वे सभी जीएम फूड बिना डर के खा सकते हैं, जो इजाजत मिली जीएम फसलों से बनाए जाते हैं. पूरी दुनिया पिछले 22 सालों से जीएम फूड खा रही है. यूरोप ऐसे जीएम फूड मंगा कर खा रहा है. भारत में भी हम जीएम कैनोला एडिबल औयल मंगा कर खाते हैं. हम बीटी कौटन से निकलने वाला 13 लाख टन औयल पिछले 15 सालों से इस्तेमाल कर रहे हैं. बीटी कौटन बीजों से तेल निकलने के बाद बचा हुआ 12 लाख टन चारा हमारे जानवरों को खिलाया जा रहा है. पिछले 22 सालों में जीएम फसलों से बना 1000 करोड़ से ज्यादा आहार इस्तेमाल में लिया जा चुका है. इनसानों और जानवरों की सेहत पर अभी तक इन के किसी भी उलटे असर की खबर किसी भी सरकार को नहीं मिली है.

जब हम विदेशों में जाते हैं, तब हम जीएम फूड ही खाते हैं. अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया व दूसरे देशों में रहने वाले हमारे बच्चे प्रतिदिन जीएम फूड खा रहे हैं. क्या आप ने यह खाना खाने की वजह से सेहत की किसी भी समस्या के बारे में आज तक सुना है?

कई राष्ट्रीय संगठन व अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, जैसे डब्ल्यूएचओ व एफएओ ने प्रमाणित किया है कि जीएम फसलें व उन से मिलने वाला खाना सुरक्षित है और सेहत को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है. अनेक संस्थानों द्वारा 3000 से ज्यादा अध्ययन किए गए और उन के नतीजों ने साबित कर दिया कि जीएम फूड महफूज हैं. ‘ए डिकेड औफ यूरोप फंडेड जीएमओ रिसर्च’ नामक रिपोर्ट के द्वारा यूरोपियन यूनियन ने सैकड़ों अध्ययनों के नतीजों का आंकलन किया और यह रिजल्ट निकाला कि जीएम फूड महफूज हैं. अमेरिका में ‘नैशनल एकेडेमीज औफ साइंस’ इंजीनियरिंग, मेडिसिन’ ने पूरी स्टडी की और रिजल्ट निकाला कि जीएम फूड महफूज है. भारत में कई सरकारी संस्थानों ने जीएम फूड की सुरक्षा को अपनी मंजूरी दे दी है.

भारत में बीटी कौटन की शुरुआत के बाद हमारे देश में कौटन का उत्पादन 130 लाख बैल्स से बढ़ कर 370 लाख बैल्स हो गया. कौटन के निर्यातकों ने 50000 करोड़ रुपए कमा लिए. कौटन पर कीटनाशकों के इस्तेमाल में कमी आई. किसानों की आमदनी बढ़ गई. कौटन चुनने वाली श्रमिकों की आमदनी 3 गुना हो गई. एक जीन के इतने सारे फायदे हुए हैं.

जीएम फसलों और जीएम फूड की सही समझ होना जरूरी है. साल 2050 तक हमारे देश की आबादी 170 करोड़ हो जाएगी और इस आबादी को भोजन देने की चिंता, पानी की हो रही कमी, जलवायु में बदलाव वगैरह के चलते यह टैक्नौलोजी समाधान का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन जाएगी. हमें इस टैक्नौलोजी की जरूरत होगी. क्या हमारे लिए यह सही है कि हम किसी चीज को बिना जानेसमझे उसे केवल इसलिए नकार दें क्योंकि ऐसा करने के लिए हम से किसी और ने कहा है? अगर आप को कोई यह कहे कि जीएम फसल से कैंसर होता है या यह आप की सेहत को प्रभावित करती है, तो उस का विश्वास न करें. इस तकनीक के विज्ञान व दूसरे पहलुओं को समझने की कोशिश करें. विज्ञान पर भरोसा रखें. अफवाहों पर नहीं. विज्ञान के बिना कोई तरक्की मुमकिन नहीं है.

गरमी में मूंग की खेती (Moong Cultivation) में नई तकनीक

भारत की लोकप्रिय दलहन फसल मूंग है. चना और अरहर के बाद मूंग का तीसरा स्थान है. भारत में 3109 मिलियन हेक्टेयर जमीन में इस की खेती की जाती है, जिस से 0.946 मिलियन टन उपज हासिल होती है.

मूंग कम समय में तैयार होने वाली फसल है. इसे दाल, हरी खाद और चारे के रूप में उगाया जाता है. इस की जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु पाए जाते हैं, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन को जमीन में इकट्ठा करने की कूवत रखते हैं. इस से जमीन की उर्वराशक्ति में बढ़ोतरी हो जाती है.

भारत में मूंग की खेती विशेष रूप से राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में की जाती है.

मूंग की खेती वैसे तो खरीफ मौसम में की जाती है, पर अब प्रकाश और तापमान असहिष्णु किस्मों के चलते विकास और सुनिश्चित सिंचाई साधनों के होने की वजह से इस की खेती उत्तरी भारत में संभव है, वहीं गरमी और सर्दी दोनों ही मौसमों में दक्षिण भारत में भी इस की खेती संभव है.

गरमी में मूंग की फसल पीला मोजेक और चितकबरा रोग अवरोधी किस्म बोएं. इस से दाल के उत्पादन में और जमीन की उर्वराशक्ति में तेजी से इजाफा होता है.

जलवायु : मूंग की फसल के लिए गरम जलवायु की जरूरत होती है. इस के लिए ज्यादा बारिश हानिकारक है, पर 100 सैंटीमीटर सालाना बारिश वाले इलाकों में मूंग की खेती आसानी से की जा सकती है.

फसल बोने के बाद बढ़वार के समय अधिक तापमान की जरूरत होती है. पौधों पर फलियां आते समय या उन की जरूरत के समय शुष्क मौसम और उच्च तापमान की जरूरत होती है.

जमीन और उस की तैयारी : मूंग की बढि़या उपज हासिल करने के लिए सही जल निकास वाली रेतीली दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 6-7 हो, जीवांश पदार्थ प्रचुर मात्रा में हो, अच्छी मानी गई है. ज्यादा अम्लीय या ज्यादा क्षारीय मिट्टी इस के लिए ठीक नहीं है.

बोआई से पहले खेत में सही नमी का होना जरूरी है, इसलिए इसे बोने से पहले पलेवा कर लेना चाहिए. जब जमीन जुताई योग्य हो जाए, तब 3-4 बार हैरो या कल्टीवेटर से जुताई करनी चाहिए, फिर पाटा लगा कर जमीन को समतल कर लेना चाहिए.

खाद और उर्वरक : मूंग की फसल से ज्यादा पैदावार लेने के लिए जमीन में संतुलित मात्रा में खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल करना जरूरी है, इसलिए मिट्टी जांच के बाद ही खाद और उर्वरक डालें. किसी कारणवश मिट्टी की जांच न हो सके, तो उस हालत में ये उपाय अपनाने चाहिए:

गोबर की खाद 5-10 टन.

नाइट्रोजन 20 किलोग्राम.

फास्फोरस 20 किलोग्राम.

पोटाश 25 किलोग्राम.

जिप्सम 25 किलोग्राम.

लेकिन ऐसे क्षेत्रों में जहां पर आलू या मटर के बाद मूंग उगानी हो, तो वहां पर केवल 40-60 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से डालें. क्योंकि ऐसे खेत में नाइट्रोजन और पोटाश सही मात्रा में होता है.

बोआई का समय : समय पर बोआई करें. गुजरात में मार्च के पहले हफ्ते में बोआई करने से सब से अधिक उपज मिलती है, जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस की बोआई मार्च के आखिरी हफ्ते में करना ठीक रहता है.

हिसार, हरियाणा में इस की बोआई का सब से अच्छा समय अप्रैल के दूसरे पखवारे में है. इस के बाद बोआई करने से उपज पर उलटा असर पड़ता है.

बीज की मात्रा : गरमी में मूंग के लिए 30-37.5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही होता है, जबकि खरीफ में मूंग के लिए मात्र 15-20 किलोग्राम बीज सही होता है.

मूंग की खेती (Moong Cultivation)

बीजोपचार : बीजों को उपचारित करने के लिए अनेक राइजोबियम कल्चरों का इस्तेमाल किया जा सकता है, जिन में जीएमबीएस 1, एम 10, केएम 1, एमओ 5, एमओआर 1 खास हैं. इन में से किसी एक से बीजों को बोने से पहले उपचारित करना चाहिए.

विधि : 10 ग्राम गुड़ या चीनी को 1 लिटर पानी में डाल कर हलका गरम करें और घोल को ठंडा कर लें. 200-250 ग्राम का पैकेट मूंग का विशिष्ट राइजोबियम कल्चर डाल कर भलीभांति मिला लें.

अब इस घोल को 10 किलोग्राम बीजों के ऊपर डाल कर हलके हाथों से इस तरह मिलाएं कि उन पर कल्चर की हलकी परत जम जाए, फिर बीज को छाया में सुखा लें.

बीजों की बोआई शाम या सुबह करें, क्योंकि तेज धूप में कल्चर के जीवाणुओं के मरने का डर रहता है.

पीएसबी कल्चर से बीजोपचार : जमीन में जरूरत के मुताबिक फास्फोरस का उपयोग करें. इस दशा में बदलाव के लिए पीएसबी कल्चर मददगार होता है. इसलिए राइजोबियम कल्चर के साथ फास्फेट की मौजूदगी बढ़ाने के लिए पीएसबी कल्चर का भी इस्तेमाल करना चाहिए. इस के इस्तेमाल की विधि और मात्रा राइजोबियम कल्चर के समान ही है.

बोने की दूरी : मूंग की बोआई कितनी दूरी पर की जाए, यह किस्म, मौसम और बोआई प्रणाली पर निर्भर करता है. ज्यादातर छोटी अवधि वाली किस्मों को कम दूरी पर बोएं और लंबी अवधि वाली किस्मों को ज्यादा दूरी पर बोया जाता है.

गरमी में बोई गई मूंग में कम शाखाएं निकलती हैं और इस की वानस्पतिक बढ़वार ज्यादा तापमान की वजह से कम होती है, इसलिए इस के लिए कम दूरी पर बोआई की जाती है.

आमतौर पर मूंग की आपसी दूरी 25-30 सैंटीमीटर लंबी, 5 सैंटीमीटर चौड़ी रखी जाती है, जबकि हरियाणा में 20 सैंटीमीटर लंबी और 10 सैंटीमीटर चौड़ी दूरी रखी जाती है. 3.33-4.00 लाख पौधों की तादाद प्रति हेक्टेयर अच्छी मानी गई है. वर्गाकार बोआई की तुलना में आयताकार बोआई सही मानी गई है.

सिंचाई : गरमी के मौसम में मूंग की सिंचाई मिट्टी की किस्म और तापमान पर निर्भर करती है. पंतनगर, उत्तराखंड में सिल्ट चिकनी दोमट मिट्टी में 5 सिंचाई की जरूरत होती है. प्रत्येक सिंचाई में 6 सैंटीमीटर गहरी सिंचाई करनी पड़ती है. कुल सिंचाई में 30 सैंटीमीटर सिंचाई की जरूरत होती है. दूसरे इलाकों में 3-4 सिंचाई की जरूरत होती है.

पहली सिंचाई बोने के 20-25 दिन बाद करें और बाकी सिंचाई 10-15 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए. फूल आने से पहले और दाना बनते समय नमी की कमी में सिंचाई जरूर करें.

फसल सुरक्षा

खरपतवार : गरमी के मौसम में मूंग की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो फसल के साथ नमी, पोषक तत्त्वों के साथसाथ जगह, धूप, हवा वगैरह के लिए होड़ करते हैं. उन के नियंत्रण के लिए 2 बार निराईगुड़ाई करनी चाहिए. पहली निराईगुड़ाई फसल बोने के 10 दिन बाद और दूसरी 40 दिन बाद करनी चाहिए.

इन खरपतवारों की रोकथाम के लिए खरपतवारनाशकों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. अंकुरण से पहले पैंडीमिथेलिन 1.0 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व को प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. बोने के 20-30 दिन बाद एक बार निराईगुड़ाई भी करनी चाहिए.

कीट नियंत्रण

थ्रिप्स : ये कीट पौधे की कोशिकाओं के अंदर घुस जाते हैं और उन्हें खा कर नुकसान पहुंचाते हैं. प्रभावित कोशिकाएं बेरंग हो जाती हैं और फिर भूरी हो कर मुरझा जाती हैं. प्रभावित फूल अकसर बदरंग हो जाते हैं और पकने से पहले ही गिर जाते हैं.

चैंपा : इस कीट के निम्फ और प्रौढ़ दोनों ही पौधों का रस चूस कर नुकसान पहुंचाते हैं. इस से फलियां भी प्रभावित होती हैं.

सफेद मक्खी : यह मक्खी पौधों का रस चूस कर पौधे को नुकसान पहुंचाती है.

यह मक्खी विषाणु रोग भी फैलाती है. इन कीटों की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास को 0.04 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

रोग नियंत्रण

पीला मोजेक : फसल में यह रोग सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाता है. यह रोग सफेद मक्खी द्वारा फैलता है. पौधा छोटा रह जाता है, फूल गिर जाते हैं और पत्तियां पीली पड़ कर मुरझा जाती हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए कुछ उपाय करने चाहिए:

* रोग प्रतिरोधी किस्में ही उगाएं.

* रोग फैलाने वाले कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल करें.

* बोआई से पहले प्रति किलोग्राम बीज को 1 ग्राम क्रूजर इमिडाक्लोप्रिड से उपचारित करना चाहिए.

कटाई: मूंग की कटाई भी समय पर करना जरूरी है, क्योंकि इस की फलियों के चटकने और बीजों के झड़ने का डर रहता है.

मूंग की सभी फलियां एकसाथ नहीं पकती हैं, इसलिए समयसमय पर इस की फलियों की तुड़ाई करनी चाहिए.

इस के बाद पूरी फसल को काट लिया जाता है. कटी फसल को खलिहान में भलीभांति सुखा कर बैलों की दाय चला कर बीजों को अलग कर लिया जाता है.