टिकाऊ यानी जैविक खेती (Organic Farming)

आजादी से पहले जैविक खेती ही होती थी और तब देश कि खाद्यान्न में आत्मनिर्भर न होने के कारण विदेशों से अनाज मंगाया जाता था. देश की आजादी के बाद हरितक्रांति की शुरुआत हुई और तब  से लगातार रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से फसल की अच्छी पैदावार इस बात का सुबूत है कि 60 के दशक से पहले जैविक खेती से खाद्यान्न उत्पादन उतना नहीं होता था जितना कि आज रासायनिक खेती से हो रहा है. यदि यह तथ्य सही है तो किसान जैविक खेती क्यों करेगा?

आज खेती निश्चित तौर से किसान के आर्थिक पहलू से जुड़ी है, अत: किसान वही खेती करेगा जिस में उसे अच्छा लाभ मिलेगा. यदि जैविक खेती में रासायनिक खेती के मुकाबले कम खाद्यान्न उत्पादन होता हो और किसान को घाटे की भरपाई नहीं हो पा रही हो तो किसान के लिए जैविक खेती का कोई मतलब ही नहीं रह जाता. लेकिन दूसरी तरफ जमीन की उर्वरता का संरक्षण किए बगैर इसी तरह अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करते रहे तो एक दिन यह सब रेगिस्तान में बदल जाएगा.

अगर दोनों पक्ष अपनीअपनी जगह सही हैं तो किसान खेती का चुनाव कर ऊपर लिखे तथ्यों के आधार पर यह समझ लें कि जमीन के स्वास्थ्य की कीमत पर अधिक फसल का लालची प्रयास ज्यादा दिन नहीं टिक सकता है. रासायनिक उर्वरकों से नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की ही पूर्ति होती है. शेष 13 तरह के सूक्ष्म तत्त्वों की आवक नहीं होगी तो भूमि की उर्वरता व संरचना कब तक बनी रहेगी और ऐसी जमीन से पैदा होने वाला खोखला अनाज हमारे स्वास्थ्य पर क्या असर डालेगा?

जैविक खेती (Organic Farming)

पौधों को पोषक तत्त्व उपलब्ध कराने के लिए कृषि विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार उर्वरकों का उपयोग करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन गोबर की खाद का प्रयोग न करने और रासायनिक उर्वरकों पर ही पूरी तरह निर्भर रहने से जमीन की उर्वराशक्ति कमजोर हो जाती है.

दूसरी तरफ कीटनाशकों के जहरीले रसायनों के बुरे नतीजों से सारा विश्व चिंतित है. वैज्ञानिकों के अनुसार कीटनाशकों के इस्तेमाल से मित्र कीट लगातार मर रहे हैं और हानिकारक कीटों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है.

इन रसायनों के खराब नतीजों से साफ है कि रासायनिक खेती टिकाऊ विकल्प नहीं हो सकती. अत: 90 के दशक से ही दुनिया के अनेक देशों ने जैविक खेती की वकालत शुरू कर दी है.

जीवाणु खाद और उस से होने वाले लाभ के बारे में जानने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि गोबर या कंपोस्ट खाद का कोई चारा नहीं है. गोबर या कंपोस्ट खाद के उपयोग से मिट्टी की उर्वरता और संरचना कायम रखने के लिए समस्त पोषक तत्त्वों की आपूर्ति हो जाती है, जबकि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी में किसी न किसी रूप में पोषक तत्त्वों की कमी रहती ही है. यदि मिट्टी में जरूरी पोषक तत्त्व नहीं होंगे तो हाईब्रिड फसलों को कम उपज के लिए दोषी नहीं ठहरा सकते हैं. गोबर या कंपोस्ट का उपयोग करते रहने से रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता को काफी कम किया जा सकता है. खेतों में यदि पोषक तत्त्व उचित मात्रा में होंगे तो पौधे एकदम स्वस्थ होंगे तथा स्वस्थ पौधों पर बीमारी का असर भी कम होगा, क्योंकि सामान्यत: कमजोर पौधे ही ज्यादा रोग से पीडि़त होते हैं.

जैविक या कार्बनिक खाद में सभी तरह के पोषक तत्त्व अधिक या कम मात्रा में होते हैं, लेकिन पौधों को ये पोषक तत्त्व धीरेधीरे प्राप्त होते हैं. सामान्यत: खाद में पोषक तत्त्वों की कमी और कार्बनिक पदार्थों की अधिकता होती है. मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के बढ़ने से सूक्ष्म जीवियों की संख्या बढ़ जाती है और सूक्ष्मजीवी मिट्टी में मौजूद जहरीले पदार्थों को खत्म कर के उन्हें बेकार करते हैं और सड़ेगले कार्बनिक पदार्थों को ह्मूमस में बदल देते हैं.

खाद के इस्तेमाल से मिट्टी में हवा का आनाजाना और पानी सोखने की कूवत बढ़ जाती है. इस से मिट्टी में प्रत्यारोधन की कूवत का विकास होता है. खाद का ज्यादा इस्तेमाल करने पर भी मिट्टी या पेड़पौधों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है.

जैविक खेती (Organic Farming)

गोबर की खाद

पशुओं के भोजन का पूरा या आधाअधूरा पचा हुआ भाग, जो पशुओं द्वारा मल के रूप में निकाल दिया जाता है, गोबर कहलाता है. गोबर की खाद में भैंस, गाय, बैल, भेड़, मुरगी, घोड़ा आदि पशुओं के मल को भी शामिल किया जाता है.

गोबर की खाद में मौजूद पोषक तत्त्व पौधों के लिए धीरेधीरे अलग होते हैं, इस कारण खेतों में गोबर की खाद का प्रभाव लंबे समय तक बना रहता  है. यह खाद मिट्टी में विनिमेय कैल्शियम बढ़ाती है, जो उस की भौतिक दशा सुधारने के लिए काफी खास मानी जाती है. खेतों में गोबर की खाद का इस्तेमाल करने पर पानी धीरेधीरे छूटता है, जिस में पौधे लंबे समय तक फायदे में रहते हैं. गोबर की खाद से मिट्टी में सूक्ष्म जीवियों की सक्रियता बढ़ जाती है, जिस से उस में ह्मूमस की मात्रा बढ़ती है और ह्मूमस रेतीली मिट्टी में पानी सोखने की कूवत में सुधार होता है और चिकनी मिट्टी को स्पंजी बनाता है.

घर के कचरे से बनाएं केंचुआ खाद (Vermicompost)

घर के जैविक कचरे जैसे सब्जियों का कचरा, बगीचे की पत्तियों, घासफूस आदि सभी का व्यवस्थित रूप से नियोजन कर के जैविक खाद बनाई जा सकती है. घर के कचरे से बहुत अच्छी वर्मी कंपोस्ट बनती है. घर के कचरे से अच्छी जैविक खाद बनाने के लिए कुछ छोटेछोटे मौडल विकसित किए गए हैं.

ये मौडल औरंगाबाद की विवम एग्रोटेक संस्था द्वारा विकसित डिजाइन है. इस का आकार 2×2×1.5 है. यह तार की जालियों और लोहे के फ्रेम से बना मौडल है. यह भीतर से चारों तरफ से हरी शेड नेट से घिरा रहता है. इस में ढक्कन भी है, जिस से यह पूरी तरह ढका रहता है. इस का बाजार मूल्य केंचुए सहित 2,500 रुपए है.

इस मौडल में पहले 2-3 इंच मोटी कचरे व पुराने गोबर की परत डाल कर करीब 200 केंचुए छोड़ देते हैं. इस के बाद रोज 200 से 500 ग्राम घर की सब्जियों व फलों से निकलने वाला कचरा डाला जा सकता है. ज्यादा मात्रा में नीबू, टमाटर, प्याज, आदि न डालें. इस से अम्लता बढ़ने पर केंचुओं को नुकसान हो सकता है. रसोई घर के कचरे के साथ जूठन अधिक मात्रा में न डालें, इस में नमक होने से केंचुओं को नुकसान होता है. इस से चीटियां भी होती हैं, जो केंचुओं को नुकसान पहुंचाती हैं. किचन वैस्ट की परत के ऊपर 2 से 3 इंच मोटी घास अथवा सूखे कचरे की परत डालें.

किचन वैस्ट प्रतिदिन इकट्ठा होगा तो उस में मच्छर पनप सकते हैं, जो नुकसानदायक है. इसलिए उसे ढकना जरूरी है. इस तरह रोज करीब 2 माह तक घर का कचरा उस में डाला जा सकता है और उस पर हमेशा हलका पानी छिड़कें, ताकि नमी बनी रहे. 60-70 दिन के बाद ऊपर का ताजा किचन वैस्ट जो सड़ा नहीं है, वह थोड़ा हटा कर देखें, यदि नीचे खाद तैयार हो गई है तब पानी देना व अतिरिक्त कचरा डालना भी बंद कर दें. केंचुए एकदो दिन में नीचे की तरफ चले जाएंगे. ऊपर का आधा सड़ा कचरा धीरेधीरे हाथ से एक तरफ हटा कर नीचे की खाद निकाली जा सकती है.

इस मौडल को एक परिवार ने इस्तेमाल किया था. उन्होंने उपरोक्त विधि से इस का इस्तेमाल किया. उन्हें तकरीबन 3 महीने में रसोई के कचरे से साढ़े 7 किलोग्राम खाद हासिल हुई और केंचुओं की संख्या बढ़ कर 3,440 हो गई. ऐसे बहुमंजिले  घरों में जहां घर का आंगन यानी बगीचा नहीं है, वहां सिर्फ रसोई के कचरे से वर्मी कंपोस्ट बनाई जा सकती है, जो गमलों के लिए उपयोगी है. यदि कचरे के साथ बगीचे का कचरा भी हो तब 12 से 15 किलोग्राम खाद हर 3 महीने में हासिल की जा सकती है.

घर के कचरे का इस्तेमाल बागबानी में कर के हम बाग को तो सजाएंगे ही साथ ही पर्यावरण को भी दूषित होने से बचाएंगे, जिस का लाभ संसार के सभी जीवों को हासिल होगा.

नई शिक्षा नीति को लागू करने वाला देश का प्रथम कृषि विश्वविद्यालय

उदयपुर, 05 अक्टूबर: महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर नवीन शिक्षा नीति की अनुशंसाओं को लागू करने वाला देश का प्रथम विश्वविद्यालय बन गया है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली में उप महानिदेशक (कृषि शिक्षा) डॉ. राकेशचंद्र अग्रवाल की मौजूदगी में विश्वविद्यालय के नवप्रवेशित विद्यार्थियों को ’दीक्षा का आरंभ-2024’ कार्यक्रम में छठी डीन कमेटी की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की गई. यानी कृषि विषय में प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने वाली नई पीढ़ी अब नई शिक्षा नीति के मसौदे के आलोक में नए आयाम व पाठ्यक्रम के साथ अपनी शिक्षा पूर्ण करेंगे.

राजस्थान कृषि महाविद्यालय के नूतन सभागार में आयोजित भव्य ’दीक्षा का आरंभ- 2024’ कार्यक्रम में उदयपुर, डूगंरपुर एवं भीलवाड़ा जिलों के विभिन्न संकायों के प्रथम वर्ष के पांच सौ से ज्यादा छात्रछात्राओं ने भाग लिया। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने 2021 में कमेटी का गठन की नई शिक्षा नीति को लगभग चार वर्ष में अंजाम दिया. इसका मुख्य ध्येय कृषि में उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान कर भारत को ’ज्ञान समाज’ में बदलना जिसमें छात्रों को राष्ट्रीय एवं वैश्विक समस्याओं से सामना करने के लिए तैयार करना है.

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि उप महानिदेशक (कृषि शिक्षा) आई.सी.ए.आर. डॉ. आर.सी. अग्रवाल ने कहा कि छठी डीन कमेटी की सिफारिशों को 1340 पृष्ठों में समाहित किया गया है. ’दीक्षा का आरंभ’ भी इन्ही में से एक सिफारिश है.

उन्होंने कहा कि शिक्षार्थी को कभी भी तनाव में नहीं रहना चाहिए बल्कि आनंद और उल्लासित माहौल में शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए. राष्ट्रीय शिक्षा नीति कहती है शिक्षा ग्रहण करते समय तन और मन दोनों का स्वस्थ होना जरूरी है. यह जरूरी नहीं है कि आपने कितनी पढ़ाई या डिग्री हासिल की है बल्कि जरूरी है आपमें जुनून कितना है. डॉ. अग्रवाल का कहना था कि कई ऐसे लोग उदाहरण है जिन्होंने बहुत कम शिक्षा ग्रहण करने के बावजूद अपना नाम शीर्ष पर गिनाया है.

बिल गेट्स, स्टीव जाब्स, उड़ीसा के पद्मश्री कवि हलधर नाग के नाम गिनाते हुए उन्होंने कहा कि बहुत कम पढ़ाई के बावजूद दुनिया में इन लोगों ने कीर्तिमान स्थापित किया. क्योंकि उनमें विजन और जुनून था. आज भारत में 27 प्रतिशत युवा है. दुनिया के सर्वाधिक युवा भारत में होने से हम बहुत कुछ करने में सक्षम हैैं. डॉ. अग्रवाल ने कहा कि कृषि का आसमान असीम है. कई लोगों ने पढ़ाई कुछ और की लेकिन जैविक खेती, प्राकृतिक खेती में अनुकरणीय काम कर रहे हैैं.

विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. अजीत कुमार कर्नाटक ने अध्यक्षता करते हुए विश्वविद्यालय की उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि वर्ष 2024 में हमारे वैज्ञानिकों ने 25 पेटेंट हासिल किए. आगामी तीन माह में इनमें और भी वृद्धि होगी. प्राकृतिक, जैविक खेती में महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में विशेष पहचान बनाई है.

आरंभ में विभिन्न संकायों के डीन डायरेक्टर डॉ. आर.बी. दुबे, डॉ. धृति सोलंकी, डॉ. आर.ए. कौशिक, भीलवाड़ा के डॉ. एल.एन. पंवार, डूंगरपुर के डीन डॉ. आर.पी. मीणा आदि ने नई शिक्षा नीति की अनुशंसाओं में महाविद्यालयों में छात्र-छात्राओं के लिए छात्रावास निर्माण प्रावधान करने का आग्रह किया. विशिष्ट अतिथि विश्वविद्यालय के कुल सचिव श्री सुधांशु सिंह थे जबकि संचालन ओएडी डॉ. वीरेन्द्र नेपालिया ने किया. आरंभ में अतिथियों को मेवाड़ी साफा, उपरणा ओढ़ाकर सम्मानित किया गया.

एमपीयूएटी विश्वविद्यालय नवाचार और शोध पर कार्य कर रहा काम

उदयपुर : 23 सितंबर, 2024. क्षेत्रीय अनुसंधान एवं प्रसार सलाहकार समिति संभाग चतुर्थ-अ की बैठक अनुसंधान निदेशालय के सभागार में महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के कुलपति की अध्यक्षता में 23 सितंबर, 2024 को कृषि अनुसंधान केंद्र, अनुसंधान निदेशालय, उदयपुर में आयोजित की गई.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने गत वर्षों में विभिन्न प्रौद्योगिकी पर 54 पेटेंट प्राप्त किए, जिस में से 25 पेटेंट वर्ष 2024 में प्राप्त किए.

उन्होंने आगे कहा कि औषधीय एवं सुगंधी फसलों एवं जैविक खेती इकाई ने पिछले वर्ष राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई. विश्वविद्यालय अध्यापन, अनुसंधान, प्रसार एवं उद्यमिता पर काम कर रहा है. साथ ही, यह विश्वविद्यालय नवाचारयुक्त आधुनिक शोध पर काम कर रहा है. अपनी तकनीकियों का वाणिज्यकरण की दिशा में काम करते हुए मक्का की उन्नत किस्म प्रताप मक्का-6 का देश की 7 कंपनियों के साथ समझौता किया.

उन्होंने यह भी बताया कि मक्का की इस किस्म से इथेनोल तैयार हो सकता है, जो कि ग्रीनफ्यूल में उपयोग किया जाएगा. उन्होंने सभी वैज्ञानिकों को आह्वान किया कि सभी फसलों की जलवायु अनुकूलित नई किस्में विकसित की जाएं, ताकि किसानों को अधिक से अधिक लाभ मिल सके.

कुलपति अजीत कुमार कर्नाटक ने अपने संबोधन में कहा कि जैविक खेती के साथ प्राकृतिक खेती पर जोर देना चाहिए, जिस से गुणवत्तायुक्त उत्पाद कम लागत में तैयार हो सके, जिस से कि किसान की जीविका में बढ़ोतरी होगी.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि इस विश्वविद्यालय के 2 वैज्ञानिक देशभर के 2 फीसदी वैज्ञानिकों में शामिल हैं. इस विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने किसानों की जरूरतों के लिए छोटेछोटे कृषि उपकरण, बायोचार उपचार के लिए छोटी इकाई का निर्माण आदि किया.

पिछले वर्ष अफीम की चेतक किस्म, मक्का की पीएचएम-6 किस्म के साथ असालिया एवं मूंगफली की किस्में विकसित की. आज कृषि में स्थायित्व लाने के लिए कीट व बीमारी प्रबंधन एवं जल प्रबंधन पर काम करना होगा.

उन्होंने आगे कहा कि विश्वविद्यालय ने जैविक/प्राकृतिक खेती में राष्ट्रीय पहचान बनाई है. उन्होंने बताया कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक ने विश्वविद्यालय से कहा कि भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान के साथ मिल कर अपने भाषण के दौरान उन्होंने कृत्रिम बुद्धिमत्ता, डिजिटल इंजीनियरिंग एवं यंत्र अधिगम पर उत्कृष्टता केंद्र पर बल दिया. साथ ही, उन्होंने सभी वैज्ञानिकों से कहा कि विश्वविद्यालय की आय विभिन्न तकनीकियों द्वारा बढ़ाई जाए.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के निदेशक अनुसंधान डा. अरविंद वर्मा ने बैठक की शुरुआत में सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि क्षेत्रीय अनुसंधान एवं प्रसार सलाहकार समिति की बैठक विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई तकनीकों का कृषि विभाग के आधिकारियों के साथ मिल कर पैकेज औफ प्रैक्टिस में सम्मिलित की जाती है. विश्वविद्यालय में तकनीकी विकसित करने के लिए 27 अखिल भारतीय समन्वित परियोजना एवं 3 नैटवर्क परियोजनाएं चल रही हैं. साथ ही, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत 2 परियोजनाएं चल रही हैं.

उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय ने गत वर्ष विभिन्न फसलों की 4 किस्में विकसित की गईं. मक्का परियोजना द्वारा विकसित प्रताप संकर मक्का- 6 देश के 4 राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं गुजरात के लिए उपयुक्त है. यह किस्म जल्दी पकने वाली (82-85), फूल आने के बाद डंठल का सड़ना रोग मुक्त एवं 65-70 क्विंटल उपज देती है.

डा. आरबी दुबे, राजस्थान कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता ने बीज की समस्या पर कहा कि देश में 51 हजार टन बीज की आवश्यकता है, जिस में से 40 हजार टन बीज ही उपलब्ध है और इस में भी 80-90 फीसदी हिस्सा निजी संस्था उपलब्ध कराती है.

उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि कम उपयोग में आने वाली फसलों विशेषकर किकोडा, बालम काकडी, टिंडोरी आदि पर अनुसंधान की आवश्यकता है. विश्वविद्यालय द्वारा विकसित मक्का की किस्म प्रताप संकर मक्का-6 में एक टन से 380 लिटर इथेनोल प्राप्त किया जा सकता है, जिस की कीमत 55-65 लिटर होती है. प्रताप संकर मक्का चरी- 6 से 300-400 क्विंटल हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है. साथ ही, बेबीकार्न मक्का भी प्राप्त किया जा सकता है.

डा. आरए कौशिक, निदेशक, प्रसार शिक्षा निदेशालय ने अपने उद्बोधन में कहा कि अनुसंधान निदेशालय द्वारा विकसित तकनीकों को कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों द्वारा किसानों के खेतों पर पहुंचाया जाता है. विश्वविद्यालय द्वारा विकसित मूंगफली छीलने वाली मशीन एवं सौर ऊर्जा आधारित मक्का छीलने की मशीन किसानों के यहां बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं. उन्होंने जनजाति क्षेत्र में गुणवत्तायुक्त बीज एवं पौध के वितरण पर जोर दिया.

इस बैठक में अतिरिक्त निदेशक कृषि विभाग, भीलवाड़ा डा. राम अवतार शर्मा और संयुक्त निदेशक, उद्यान, भीलवाड़ा एवं संयुक्त निदेशक कृषि, भीलवाड़ा, संयुक्त निदेशक, कृषि, चित्तौडगढ़, राजसमंद एवं अन्य अधिकारी एवं एमपीयूएटी के वैज्ञानिकों ने भाग लिया.

बैठक के प्रारंभ में डा. राम अवतार शर्मा, अतिरिक्त निदेशक कृषि विभाग, भीलवाड़ा ने गत रबी में वर्षा का वितरण, बोई गई विभिन्न फसलों के क्षेत्र एवं उन की उत्पादकता के बारे में विस्तार से जानकारी दी. उन्होंने संभाग में विभिन्न फसलों में रबी 2023 के दौरान आई समस्याओं को बताया और अनुरोध किया कि वैज्ञानिक इन के समाधान के लिए उपाय सुझावें. साथ ही, किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए उन्नत बीज, वैज्ञानिक एवं प्रसार अधिकारियों द्वारा तकनीकियों का प्रसार, फसल विविधीकरण एवं मूल्य संवर्धित उत्पाद के बारे में बताया.

क्षेत्रीय अनुसंधान निदेशक डा. अमित त्रिवेदी ने सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए बैठक को संबोधित करते हुए विश्वविद्यालय में चल रही विभिन्न परियोजनाओं की जानकारी दी और कृषि संभाग चतुर्थ अ की कृषि जलवायु परिस्थितियों व नई अनुसंधान तकनीकों के बारे में प्रकाश डाला.

डा. अमित त्रिवेदी ने संभाग की विभिन्न फसलों में आ रही समस्याओं के निराकरण के लिए प्रतिवेदन प्रस्तुत किया.

बैठक में डा. मनोज कुमार महला, निदेशक, छात्र कल्याण अधिकारी, डा. बीएल बाहेती, निदेशक, आवासीय एवं निर्देशन एवं गोपाल लाल कुमावत, संयुक्त निदेशक कृषि, भीलवाड़ा, महेश चेजारा, संयुक्त निदेशक उद्यान, भीलवाड़ा, दिनेश कुमार जागा, संयुक्त निदेशक कृषि, चित्तौड़गढ, ग्राह्य अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र, चित्तौड़गढ़, डा. शंकर सिंह राठौड़, पीडी, आत्मा, भीलवाड़ा, रमेश आमेटा, संयुक्त निदेशक, शाहपुरा, रविंद्र वर्मा, संयुक्त निदेशक उद्यानिकी एवं डा. रविकांत शर्मा, उपनिदेशक, अनुसंधान निदेशालय, उदयपुर उपस्थित थे.

इस बैठक में विभिन्न वैज्ञानिकों व अधिकारियों द्वारा गत रबी में किए गए अनुसंधान एवं विस्तार कार्यों का प्रस्तुतीकरण किया गया और किसानों को अपनाने के लिए सिफारिशें जारी की गईं. कार्यक्रम के अंत में अनुसंधान निदेशालय के सहायक आचार्य डा. बृज गोपाल छीपा ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित किया.

वर्मी कंपोस्ट इकाई (Vermi Compost Unit) के लिए 50 हजार अनुदान

जयपुर : आधुनिक युग में खेती में रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग हो रहा है, जिस से मिट्टी की उर्वरता में कमी आ रही है. मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने के लिए मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा द्वारा वर्मी कंपोस्ट इकाई निर्माण की शुरुआत की गई है. इस से मिट्टी की जैविक व भौतिक स्थिति में सुधार लाया जा सकेगा. इस से मिट्टी की उर्वरता एवं पर्यावरण संतुलन बना रहेगा.

रासायनिक उर्वरकों से खेती की बढ़ती हुई लागत को कम करने और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए पारंपरिक खेती की ओर किसानों का रुझान बढ़ाने के लिए राज्य सरकार द्वारा जैविक खेती को प्रोत्साहन दिया जा रहा है, जिस से फसलों को उचित पोषण मिलने पर उन की वृद्धि होगी एवं किसानों की आय में बढ़ोतरी होगी.

कृषि आयुक्त कन्हैयालाल स्वामी ने बताया कि वर्मी कंपोस्ट इकाई लगाने के लिए किसानों को इकाई लागत का 50 फीसदी या अधिकतम 50 हजार रुपए का अनुदान दिया जा रहा है. उन्होंने बताया कि वित्तीय वर्ष 2024-25 में 5,000 वर्मी कंपोस्ट इकाई लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है.

उन्होंने आगे बताया कि वर्मी कंपोस्ट इकाई लगाने के लिए किसान के पास एक स्थान पर न्यूनतम कृषि योग्य 0.4 हेक्टेयर भूमि का होना आवश्यक है. कृषक ‘राज किसान साथी’ पोर्टल या नजदीकी ई-मित्र केंद्र पर जा कर जनाधार के माध्यम से औनलाइन आवेदन कर सकते हैं. इस के लिए किसान के पास न्यूनतम 6 माह पुरानी जमाबंदी होना आवश्यक है.

उल्लेखनीय है कि जैविक खेती कम खर्च में उत्पादन बढ़ाने का साधन है. जैविक खाद द्वारा मिट्टी के साथ मनुष्य की सेहत भी दुरुस्त रहती है. और्गेनिक फार्मिंग से मिट्टी की संरचना बेहतर रहती है और पर्यावरण को भी लाभ होता है. इस से मिट्टी में जीवाणुओं की संख्या और भूजल स्तर भी ठीक बना रहता है.

फसलों में कीटरोग नियंत्रण के लिए अपनाएं एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन तकनीक

शिवपुरी : भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के केंद्रीय एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन केंद्र, मुरैना द्वारा दोदिवसीय आईपीएम ओरिएंटेशन प्रशिक्षण कार्यक्रम पिछले दिनों कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी में आयोजित किया गया.

कार्यक्रम का उद्घाटन वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी के डा. पुनीत कुमार, अतिथि के रूप में उपसंचालक, कृषि, यूएस तोमर और केंद्र के प्रभारी अधिकारी सुनीत कुमार कटियार द्वारा किया गया.

केंद्र के प्रभारी अधिकारी सुनीत कटियार द्वारा आईपीएम की विभिन्न तकनीक जैसे सस्य, यांत्रिक, जैविक और रासायनिक विधियों का क्रमिक उपयोग और महत्ता के बारे में बताया. आईपीएम के महत्व, आईपीएम के सिद्धांत एवं उस के विभिन्न आयामों सस्य, यांत्रिक जैसे येलो स्टिकी, ब्लू स्टिकी, फैरोमौन ट्रैप, फलमक्खी जाल, विशिष्ट ट्रैप, ट्राइकोडर्मा से बीजोपचार के उपयोग के बारे में और जैविक विधि, नीम आधारित एवं अन्य वानस्पतिक कीटनाशक और रासायनिक आयामों के इस्तेमाल के विषय में विस्तार से बताया गया.

उन्होंने आगे कहा कि किसान फसलों में रासायनिक कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग कर रहे हैं, जिस से मनुष्यों में तमाम तरह की बीमारियां जैसे कैंसर इत्यादि बहुत तेजी से बढ़ी है. इसलिए हमें किसानों को जागरूक करना है कि रासायनिक कीटनाशकों को अनुशंसित मात्रा में ही उपयोग करें.

वनस्पति संरक्षण अधिकारी प्रवीण कुमार यदहल्ली द्वारा जिले में चूहे का प्रकोप एवं नियंत्रण और फौलआर्मी वर्म के प्रबंधन, मित्र एवं शत्रु कीटों की पहचान के बारे में बताया गया.

सहायक वनस्पति संरक्षण अधिकारी अभिषेक सिंह बादल द्वारा जिले की प्रमुख फसलों के रोग और कीट व प्रबंधन, मनुष्य पर होने वाले कीटनाशकों का दुष्प्रभाव और कीटनाशकों का सुरक्षित और विवेकपूर्ण उपयोग, साथ ही साथ केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड और पंजीकरण समिति द्वारा अनुमोदित रसायन का कीटनाशकों के लेवल एवं कलर कोड पर आधारित उचित मात्रा में ही प्रयोग करने का सुझाव दिया. साथ ही, भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के एनपीएसएस (नेशनल पेस्ट सर्विजिलेंस सिस्टम) एप के उपयोग एवं महत्व की जानकारी दी गई.

कार्यक्रम के दौरान केंद्र के अधिकारियों द्वारा आईपीएम प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया. जागरूकता के लिए किसानों को फैरोमौन ट्रैप, ल्यूर, जैविक कीटरोग नियंत्रण के लिए उपयोगी सामग्री जैसे ब्यूवेरिया बेसियाना, माइकोराइजा, ट्राइकोडरमा, फल छेदक कीट नियंत्रण के लिए विशेष फैरोमौन ट्रैप इत्यादि भी सैंपल के रूप में दिए गए.

प्रशिक्षण समन्वयक डा. एमके भार्गव, वरिष्ठ वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान) द्वारा समन्वित कीटरोग नियंत्रण के आयामों के साथसाथ प्राकृतिक खेती की ओर भी जागरूकता के बारे में बतलाया गया. वैज्ञानिक (पौध संरक्षण) जेसी गुप्ता द्वारा भी प्राकृतिक खेती में फसल सुरक्षा घटकों की जानकारी दी गई, जिस में आईपीएम के विभिन्न आयामों का प्रदर्शन किया गया.

कार्यक्रम के दूसरे दिन किसानों को खेत भ्रमण करा कर कृषि पारिस्थितिकी तंत्र विश्लेषण के बारे में बताया गया. कार्यक्रम में 70 से अधिक प्रगतिशील किसानों और राज्य कृषि कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया गया.

29 अगस्त को ‘एक पेड़ मां के नाम’ अभियान में कृषि विज्ञान केंद्र, शिवपुरी पर वृक्षारोपण भी किया गया, जिस में आंवला, नीम एवं बकाइन के पौधे रोपित किए गए.

मिलेट्स मिशन के तहत मोटे अनाजों को बढ़ावा

बालाघाट: कलक्‍टर मृणाल मीना ने पिछले दिनों खरीफ 2024-25 की प्रगति एवं जिला स्‍तरीय कृषि उत्‍पादन समीक्षा बैठक की. समीक्षा बैठक में कलक्‍टर मृणाल मीना ने विभाग में संचालित समस्‍त योजनाओं की प्रगति की समीक्षा करते हुए खरीफ 2024 में बोई गई फसलवार व विकासखंडवार रकबे की जानकारी ली. साथ ही, जिले की 09 विकासखंडों में नवनिर्मित मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला में लैब चालू करने के लिए समिति का गठन करने के निर्देश दिए गए.

फसल विविधीकरण को बढ़ावा दिए जाने के संबंध में विभागीय अधिकारियों को निर्देशित करते हुए राज्‍य मिलेट्स मिशन के अंतर्गत कोदो, कुटकी, रागी एवं मोटे अनाज वाली फसलों का अधिक उत्‍पादन लिए जाने के लिए कार्ययोजना तैयार करने व किसानों को जागरूक करने के लिए निर्देशित किया गया.

उपसंचालक, कृषि, राजेश खोबरागढ़े ने बताया कि वर्तमान खरीफ सीजन में नवाचार के अंतर्गत सोलर लाइट ट्रैप एवं रागी बीज वितरण कार्यक्रम लिया गया है. जिले में नवाचार के अंतर्गत रागी फसल के उत्‍पादन के लिए 1500 हेक्‍टेयर का लक्ष्‍य रखा गया है.

30 अगस्‍त को ग्राम नेवरगांव कला विकासखंड किरनापुर में आयोजित कार्यशाला में ग्रामीण किसानों को लगभग 50 सोलर लाइट ट्रैप वितरण किए गए, जिस में कृषि वैज्ञानिकों द्वारा बताया गया कि वर्तमान में खरीफ सीजन में धान की फसलों में तनाछेदक, चने की इल्‍ली, माहू, जैसिड, माइट, बीटल, ग्रासहौपर, ब्राउन हायर, मांथकीट आदि बहुतायत मात्रा में इन का प्रकोप होता है, जिस में उन के द्वारा धान की फसल व अन्‍य फसलों के कीटों के नियत्रंण के लिए सौर ऊर्जा पर आधारित नियत्रंण तकनीक सोलर लाइट ट्रैप का उपयोग लाभकारी सिद्ध हो रहा है. जिले में कृषि विभाग की नई पहल राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत समन्वित कीट प्रबधंन घटक के तहत सोलर लाइट ट्रैप का उपयोग किसानों के द्वारा कराया जा रहा है.

परंपरागत कृषि, मिट्टी नमूना परिणाम, जैविक खेती, कृषि यंत्रों पर अनुदान, भूमि उपयोग स्थिति, फसल क्षेत्राच्‍छादन कार्यक्रम, खरीफ फसलवार क्षेत्रफल की प्रगति, उर्वरकवार लक्ष्‍य उपलब्‍धता, उर्वरक व्‍यवस्‍था, राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन योजना, बीज ग्राम योजना, राज्‍य मिलेट मिशन, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्‍यम से संचालित गतिविधियों एवं लक्ष्‍य पूर्ति की जानकारी की कलक्‍टर मृणाल मीना के द्वारा समीक्षा की गई.

कृषि विभाग के माध्‍यम से जिले के किसानों को अधिक से अधिक संख्‍या में विभिन्‍न योजनांतर्गत लाभांवित करने के संबंध में कलक्‍टर मृणाल मीना द्वारा आवश्‍यक सुझाव दिए गए.

बैठक में परियोजना संचालक आत्‍मा अर्चना डोंगरे व समिति, अधिष्‍ठाता कृषि महाविद्यालय वारासिवनी बिसेन, वरिष्‍ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख कृषि विज्ञान केंद्र के आरएल राउत, प्राचार्य कृषि विस्‍तार एवं प्रशिक्षण केंद्र वारासिवनी, सचिव कृषि उपज मंडी बालाघाट, सहायक कृषि अभियांत्रिकी, सहायक मिट्टी परीक्षण अधिकारी, सहायक भूमि संरक्षण अधिकारी, अनुविभागीय कृषि अधिकारी, वरिष्‍ठ कृषि विकास अधिकारी, प्रक्षेत्र अधीक्षक शासकीय कृषि प्रक्षेत्र पिपरझरी, गढ़ी, किन्‍ही, एमपी एग्रो. बालाघाट एवं बीज निगम बालाघाट के साथसाथ कृषि विभाग के अन्‍य अधिकारी व कर्मचारी उपस्थित रहे.

मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म के नैचुरल ग्रीनहाउस को देख ‘कृभको’ के अधिकारी हुए मुरीद

पिछले दिनों ‘मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सैंटर’ पर नई दिल्ली से भारत सरकार की सहकारी खाद समिति ‘कृभको’ के उच्च अधिकारियों एवं विशेषज्ञों का एक उच्च स्तरीय दल ने दौरा किया. यह तीनदिवसीय भ्रमण निरीक्षण का कार्यक्रम डा. राजाराम त्रिपाठी द्वारा किए गए जैविक खेती के प्रयासों और टिकाऊ कृषि में नवाचारों को गहराई से जानने के लिए था.

‘मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सैंटर, कोडागांव, छत्तीसगढ़ के बारे में शंकर नाग ने बताया कि कृभको की इस उच्च स्तरीय टीम के सभी सदस्यों ने डा. राजाराम त्रिपाठी के जैविक फार्म पर हो रही खेती की जम कर प्रशंसा की और कहा, “पूरे भारत में कम लागत पर इतना ज्यादा फायदा खेती से लेने का ऐसा उदाहरण मिलना संभव नहीं है.” विशेष रूप से उन्होंने उस नैचुरल ग्रीनहाउस को सब से ज्यादा पसंद किया, जो डा. राजाराम त्रिपाठी ने केवल डेढ़ लाख रुपए में एक एकड़ में तैयार किया है, जबकि प्लास्टिक और लोहे से तैयार होने वाला परंपरागत ग्रीनहाउस का एक एकड़ की लागत लगभग 40 लाख रुपए आती है. उन्होंने यह भी जाना कि कैसे डा. राजाराम त्रिपाठी का ग्रीनहाउस न केवल बेहद टिकाऊ है, बल्कि परंपरागत ग्रीनहाउस की तुलना में बहुत अधिक लाभदायक भी है.

यह जान कर सभी सदस्य हैरान रह गए कि 40 लाख रुपए वाला ग्रीनहाउस 7-8 साल में नष्ट हो जाता है और उस की कोई कीमत नहीं रहती, जबकि डा. राजाराम त्रिपाठी का पेड़पौधों से तैयार नैचुरल ग्रीनहाउस हर साल अच्छी आमदनी देने के साथ ही 10 साल में लगभग 3 करोड़ की बहुमूल्य लकड़ी भी देता है. ये अपनेआप में एक अजूबा ही है.

कृभको की टीम ने कम खर्च में संपन्न होने वाली अनूठी जैविक खेती की पद्धतियों और नैचुरल ग्रीनहाउस मौडल का निरीक्षण और परीक्षण किया. उन्होंने वहां अपनाई जा रही विधियों को भी समझा और कैमरे में वहां के नजारे को भी कैद किया, ताकि वे प्रभावी तरीकों को अनेक कृषि से जुड़े लोगों तक पहुंचा सकें.

डा. राजाराम त्रिपाठी ने बताया कि इतने प्रतिष्ठित मेहमानों के साथ अपने अनुभव और नवाचार साझा करना हमारे लिए अविस्मरणीय रहा. उन के द्वारा मिली प्रशंसा और सुझावों ने हमें और अधिक प्रोत्साहित किया है कि हम अपने पर्यावरण मित्रता और टिकाऊ खेती के मिशन को आगे बढ़ाएं.

कृभको के इस दल का स्वागत डा. राजाराम त्रिपाठी ने खुद किया, तत्पश्चात अनुराग कुमार, जसमती नेताम, शंकर नाग, कृष्णा नेताम, रमेश पंडा एवं मां दंतेश्वरी हर्बल समूह के अन्य सदस्यों द्वारा अंगवस्त्र, बस्तर की उपजाई हुई पेड़ों पर पकी बेहतरीन गुणवत्ता की काली मिर्च और जनजातीय सरोकारों की मासिक पत्रिका ‘ककसाड़’ का नया अंक भेंट कर के किया गया.

कार्यक्रम के अंत में आभार व्यक्त करते हुए डा. राजाराम त्रिपाठी ने कहा, “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सैंटर पिछले 30 वर्षों से इस क्षेत्र के आदिवासियों के उत्थान के लिए निरंतर प्रयासरत है. हमारे फार्म पर अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुरूप शतप्रतिशत जैविक खेती, जड़ीबूटी व मसाले उगाने और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने के साथसाथ आदिवासी समुदायों के लिए शिक्षा और रोजगार के अवसर भी प्रदान किए जाते हैं. हम अपने अनुसंधान और नवाचार के माध्यम से पर्यावरण संवेदनशील और जनजातीय समुदायों को माली रूप से लाभकारी समाधान प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

घर की छत पर उगाएं सब्जियां

छत पर खेती करने की बात सुनने में जरूर अजीब लगती है लेकिन आजकल अनेक लोग इस तरह की खेती कर रहे हैं. इस के लिए कुछ जरूरी एहतियात बरतना जरूरी होता है. इस तरह की खेती में मिट्टी की जरूरत नहीं होती और पानी भी कम लगता है.

छत पर खेती करने के लिए ऐसी क्यारी बनाई जाती है जो वाटर प्रूफ होती है और उस से पानी का छत पर टपकने का खतरा नहीं रहता है.

इन क्यारियों में भिंडी, टमाटर, बैगन, मेथी, पालक, चौलाई, पोई, मिर्च वगैरह उगाई जाती है. इस में नारियल का खोल (सूखा छिलका) मुख्य रूप से डाला जाता है.

छत पर ज्यादा वजन न पड़े और पानी रिसने की समस्या न हो, इस के लिए मिट्टी का इस्तेमाल नहीं होता है. इस बस्ते में नारियल के खोल के अलावा कुछ जैविक खाद भी मिलाई जाती है, जिस से उन पौधों से बेहतर गुणवत्ता वाली पैदावार मिलती है.

आने वाले समय में इस तरह की खेती की मांग बढ़ेगी क्योंकि अब खेती की जमीन भी कम होती जा रही है और लोग बाहर की चीजों पर भरोसा भी कम करते हैं. घर पर पैदा की गई सब्जी पूरी तरह सुरक्षित व सेहतमंद भी होगी. 4×4 फुट की 4 क्यारियां लगाने पर एक परिवार अपने महीनेभर की जरूरत की सब्जी उगा सकता है. इन क्यारियों में एक घंटा समय लगाने से मनपसंद सब्जियां उगाई जा सकती हैं.

एक तरीका ऐसा भी है

खेतों के घटने और आर्गेनिक फूड प्रोडक्ट की मांग बढ़ने से अब खेती में नई और कारगर तकनीकों का चलन बढ़ता जा रहा है. मांग पूरी करने के लिए कारोबारी और शहरी किसान छतों पर, पार्किंग में या फिर कहीं भी मौजूद कम जगह का इस्तेमाल अपनी पैदावार के लिए कर रहे हैं.

Rooftop Garden

हाइड्रोपौनिक तकनीक से सब्जियां : इस तकनीक की खास बात यह है कि इस में मिट्टी का इस्तेमाल जरा भी नहीं होता. इस में लकड़ी का बुरादा वगैरह डाला जाता है. इस के अलावा इस में बालू, बजरी भी डाली जाती है जिस से पौधों को सहारा मिलता है. इस तकनीक से पौधों को जरूरी पोषक तत्त्व पानी के जरीए सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाता है.

पौधों को उगाने का यह बिलकुल ही नया तरीका है और इसे किसान या कारोबारी अलगअलग तरह से इस्तेमाल में ला सकते हैं. वहीं इस क्षेत्र में काम कर रही कई कंपनियां भी आप को शौकिया गार्डन से ले कर कमर्शियल फार्म तक बनाने में मदद कर सकती हैं.

आजकल कई कंपनियां हाइड्रोपौनिक्स किट औनलाइन बेच रही हैं. इस में सागसब्जी उगाई जा सकती हैं. 2 मीटर ऊंचे टावर में 40 पौधे लगाने की जगह होती है और तकरीबन 400 पौधे वाले 10 टावर की लागत तकरीबन 1 लाख रुपए के करीब होती है. इस कीमत में टावर, सिस्टम और जरूरी पोषक तत्त्व शामिल होते हैं.

युवा किसान (Young Farmer) की पहल : औषधीय खेती, आमदनी बढ़ाने में मददगार

आजकल देश के किसान जिन हालात से दोचार हो रहे हैं, ऐसे में अब हर कोई नौकरियों की तरफ भागने लगा है. इस की वजह सरकार की खेती को ले कर ढुलमुल नीतियां, कृषि उत्पादों के सही दाम न मिलना और बाजार की समस्या खास है. यही वजह है कि किसान सरकार के ऊपर खुल कर अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं.

यही वजह है कि किसान खेतों से निकल कर सड़कों पर उतर खेती को उद्योग की तरह सहूलियतें देने की मांग भी करने लगे हैं, क्योंकि किसान के लिए खेत में अनाज, सब्जियां, फल, फूल, औषधियां उगाना आसान है लेकिन उस की कीमत तय होने से ले कर मार्केटिंग तक के लिए सरकार और बिचौलियों के भरोसे पर निर्भर रहना पड़ता है. यही वजह है कि किसान अकसर खेती में घाटा सहने के लिए मजबूर हो जाते हैं.

किसानों की इन्हीं समस्याओं को देख कर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर के पादरी बाजार के रहने वाले अविनाश कुमार ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महकमे की नौकरी छोड़ कर औषधीय खेती की राह पकड़ी तो फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. इस के चलते उन्होंने उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड के हजारों किसानों की आमदनी में इजाफा करने में भी कामयाबी पाई है.

ऐसे बढ़ा रुझान 

अविनाश कुमार ने पुलिस की नौकरी के दौरान कई बार गांवों में जाने पर यह देखा कि किसान पारंपरिक खेती के चलते और उत्पाद का सही दाम न मिलने के चलते गरीबी, तंगहाली से अकसर जूझते रहते हैं. ऐसे में खेती में घाटे और कर्ज के दबाव के चलते वे खुदकुशी करने जैसा कदम उठाने से भी नहीं हिचकते हैं.

इसी बात ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया और उन्होंने पुलिस महकमे की नौकरी से इस्तीफा दे कर किसानों की माली हालत सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. इस दौरान उन्होंने किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए जानकारियां इकट्ठा की तो पता चला कि बदहाली की खास वजह उन की फसल का वाजिब दाम न मिलना और बिचौलयों का दबदबा है.

इस के बाद अविनाश कुमार ने पारंपरिक खेती से हट कर औषधीय पौधों की जैविक व प्राकृतिक विधि से खेती सीखने के लिए देश के विभिन्न राज्यों के कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विज्ञान केंद्रों और दूसरी संस्थाओं का दौरा किया और विश्वविद्यालयों द्वारा आयोजित विभिन्न कार्यशालाओं में भाग लिया जहां उन्हें न केवल औषधीय खेती से जुड़ी तकनीकी जानकारी हासिल हुई, बल्कि वहीं से उन्होंने अनुबंधित खेती के बारे में जाना और तमाम जानकारियां जुटाई.

उन्होंने तमाम आयुर्वेदिक उत्पाद बनाने वाली कंपनियों से बात कर किसानों की औषधीय फसलों को खरीदे जाने का अनुबंध किया और साल 2016 में सब से पहले अपने 2 एकड़ खेत से ब्रह्मी और कौंच के औषधीय पौधों की जैविक विधि से खेती की शुरुआत की. इस की फसल तैयार होने के बाद उन्होंने कंपनियों से अनुबंध करने के चलते फसल को अच्छे दामों पर बेचा. यहीं से उन्होंने किसानों से अनुबंधित औषधीय खेती किए जाने के लिए संपर्क करना शुरू किया.

अविनाश कुमार से जो भी किसान जुड़े, उन्हें औषधीय खेती से अच्छी आमदनी होनी शुरू हो गई, जिस का नतीजा यह रहा कि आज पूरे देश से इन के साथ तकरीबन 2,000 से ज्यादा किसान जुड़ कर 800 एकड़ खेत में औषधीय फसल ले रहे हैं और उस का सीधा फायदा पा रहे हैं.

जमीनों को बनाया उपजाऊ 

अविनाश कुमार ने औषधीय खेती के जरीए न केवल किसानों की माली हालत सुधारी, बल्कि उन्होंने बंजर, ऊसर और बेकार पड़ी जमीनों को भी खेती लायक बना कर उस पर औषधीय खेती की शुरुआत कराई. इस के लिए उन्होंने जैव उर्वरकों, जैविक खादों व जैविक कीटनाशकों का सहारा लिया.

औषधीय पौधों की खेती 

अविनाश कुमार से जुड़ कर किसान कम लागत में ज्यादा मुनाफे की विधि पर खेती करते हैं. जिन औषधीय पौधों की खेती वे कराते हैं, वे बारिश पर आधारित होती हैं और पारंपरिक फसलों की तुलना में कम सिंचाई और कम लागत वाली होती हैं. वे ऐसे औषधीय फसलों को बढ़ावा देते हैं जिन से पारंपरिक फसलों की तुलना में ज्यादा मुनाफा होता है.

आज इस विधि से अविनाश कुमार की संस्था के साथ बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ के तकरीबन 2,000 किसान प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ कर औषधीय पौधों की जैविक विधि से खेती कर रहे हैं.

जिन औषधीय फसलों को किसान ले रहे हैं उन में ब्रह्मी, मंडूकपर्णी, वच, तुलसी, कालमेघ, कौंच, भुई आंवला, कुठ, कुठकी, कपूर, कचरी, चियां, अर्जुन जैसी फसलें शामिल हैं.

किसानों की करते हैं मदद

अविनाश कुमार किसानों की माली हालत सुधारने के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं. इस से किसानों को गुणवत्ता वाली औषधीय फसलों का ज्यादा उत्पादन मिल सके.

इस के लिए किसानों को मुफ्त बीज के साथ ही जरूरी तकनीकी और व्यावहारिक ट्रेनिंग देने का काम करते हैं. वे किसानों को नर्सरी तैयार करने से ले कर, खेत की तैयारी, उन्नतशील बीजों का चयन, सिंचाई, मड़ाई, भंडारण वगैरह की जानकारी भी मुहैया करा रहे हैं.

तैयार फसल बेचने के लिए किसान को भटकना नहीं पड़ता है क्योंकि अनुबंधित खेती के चलते अविनाश कुमार की संस्था ‘सबला सेवा संस्थान’ किसानों के औषधीय फसल की सुनिश्चित खरीदारी भी करती है.

बिचौलियों का दबदबा खत्म

किसानों की बदहाली की अहम वजह है उन की खेती का लागत के मुताबिक दाम न मिल पाना. सरकार द्वारा किसानों के फसल का जो न्यूनतम मूल्य तय भी किया जाता है, उस में बिचौलियों और अधिकारियों के गठजोड़ के चलते उन की फसल मंडियों और सरकार के खरीद केंद्रों पर बिक नहीं पाती है. ऐसे किसान अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए औनेपौने दाम पर अपनी फसल बेचने को मजबूर हो जाता है.

अविनाश कुमार ने किसानों को ऐसे हालात से उबारने के लिए किसानों और कंपनियों के साथ अनुबंधित खेती की शुरुआत की है, जिस से किसान सीधे अपनी औषधीय फसल को आयुर्वेदिक दवाओं को बनाने वाली कंपनियों को बेच पाते हैं. इस वजह से किसान को अपनी फसल को बेचने के लिए परेशान होना पड़ता है. बिचौलियों का दबदबा खत्म होने से फसल के वाजिब दाम भी किसानों को मिलने लगा है, जिस से किसानों की आमदनी में इजाफा भी हुआ है.

जैविक विधि से होती खेती

औषधीय फसलों में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से न केवल उस की गुणवत्ता प्रभावित होती है, बल्कि उस के औषधीय गुणों में कमी आ जाती है, इसलिए औषधियों को बनाने वाली कंपनियां ऐसे औषधीय फसलों की खरीदारी नहीं करतीं तभी तो अविनाश कुमार किसानों के साथ अनुबंधित खेती करा रहे हैं.

अनुबंधित किसानों द्वारा की जाने वाली औषधीय खेती में जैविक खादों और जैविक कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं जिस से औषधीय कंपनियां किसानों की फसल की अच्छी कीमत देती हैं.

अविनाश कुमार ने झारखंड के खूंटी इलाके में आदिवासियों के साथ अनुबंधित खेती कर के उन की माली और सामाजिक हालत में सुधार करने में भी कामयाबी पाई है.

उन्होंने बताया कि आने वाले साल में वे किसानों द्वारा औषधीय फसल की प्रौसैसिंग पर भी काम करने वाले हैं. उत्पादित फसल को विदेशों में निर्यात किए जाने पर भी वे काम कर रहे हैं, ताकि उन के साथ जुड़ कर खेती करने वाले किसानों को और ज्यादा फायदा मिल सकेगा.

अविनाश कुमार ने बताया कि अनुबंधित खेती के जरीए किसान लागत के मुकाबले 80 फीसदी ज्यादा मुनाफा ले रहे हैं. उन का कहना है कि अगर खेती से दूरी बना चुके नौजवान पारंपरिक खेती की जगह उन के नक्शेकदम पर खेती करें तो उन्हें नौकरियों से ज्यादा पैसे की कमाई हो पाएगी.

अविनाश कुमार से जुड़ कर कोई भी किसान औषधीय फसलों की अनुबंधित खेती करना चाहता है तो उन के मोबाइल फोन नंबर 9430502802 पर संपर्क कर सकता है.