तीन दिन में सीखें ‘मशरूम उत्पादन तकनीक’

बस्ती : औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती द्वारा बेरोजगार नौजवानों, नवयुवतियों, किसानों और बागबानों को गांव स्तर पर स्वरोजगार सृजन के उद्देश्य से केंद्र के मशरूम अनुभाग द्वारा मशरूम उत्पादन प्रशिक्षण कार्यक्रम ‘मशरूम उत्पादन तकनीक’ विषय पर 3 दिवसीय प्रशिक्षण का आयोजन आगामी महीनों के विभिन्न तिथियों में किया जाना है, जिस में बस्ती, महराजगंज, सिद्धार्थनगर, संतकबीर नगर, देवरिया, कुशीनगर, गोंडा, बलरामपुर, श्रावस्ती, बहराइच, बाराबंकी, अयोध्या, सुल्तानपुर, रायबरेली, प्रयागराज, वाराणसी, मिर्जापुर, सोनभद्र, बलिया, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ, जौनपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, चंदौली, अंबेडकरनगर, गोरखपुर जिलों के लोग प्रतिभाग कर सकते हैं.

औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती के संयुक्त निदेशक, उद्यान, वीरेंद्र सिंह यादव ने बताया कि 3 दिवसीय प्रशिक्षण में भाग लेने के इच्छुक नौजवान, नवयुवती, किसान और बागबान अपने जिले के जिला उद्यान अधिकारी से संपर्क कर प्रशिक्षण के लिए अपना नाम केंद्र को भिजवा सकते हैं.

उन्होंने बताया कि औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती में स्थित मशरूम अनुभाग की मंशा है कि गांव स्तर पर मशरूम के जरीए रोजगार मुहैया कराए जाएं, जिस से कि उन के शहरों की ओर बढ़ रहे पलायन को रोका जा सके.

इसी उद्देश्य के तहत आम लोगों को मशरूम उत्पादन तकनीक का प्रशिक्षण औद्यानिक प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र, बस्ती में स्थित मशरूम अनुभाग द्वारा आगामी महीनों की विभिन्न तिथियों में किया जाएगा, क्योंकि यह भूमिहीन व गरीब किसानों की आमदनी का जरीया है, इसे अपना कर वे खुद का रोजगार कर सकते हैं.

संयुक्त निदेशक, उद्यान, वीरेंद्र सिंह यादव ने बताया कि प्रशिक्षण के दौरान मशरूम की खेती से ले कर कंपोस्ट बनाने, प्रोसैसिंग और मशरूम के विभिन्न उत्पादों को बना कर आमदनी बढ़ाने के सभी पहलुओं पर जानकारी दी जाएगी.

मशरूम अनुभाग प्रभारी विवेक वर्मा ने जानकारी देते हुए बताया कि साल 2024-25 में केंद्र के मशरूम अनुभाग द्वारा मशरूम उत्पादन प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन 2024 में 19 नवंबर से 21 नवंबर, 17 दिसंबर से 19 दिसंबर प्रस्तावित है, जबकि 2025 में 7 जनवरी से 9 जनवरी व 20 फरवरी से 22 फरवरी में प्रस्तावित है.

उन्होंने यह भी बताया कि दूरदराज के प्रशिक्षणार्थियों के लिए कृषक छात्रावास में एकसाथ 50 किसानों के ठहरने की निःशुल्क व्यवस्था है, पर भोजन एवं जलपान की व्यवस्था प्रशिक्षणार्थियों को खुद ही करनी होती है. प्रत्येक प्रशिक्षण सत्र के लिए प्रति प्रशिक्षणार्थी 50 रुपए पंजीकरण शुल्क जमा करना होगा.

फसल अवशेष जलाया तो होगा जुर्माना

संत कबीर नगर : जिलाधिकारी महेंद्र सिंह तंवर के निर्देश के क्रम में अपर जिलाधिकारी जयप्रकाश की अध्यक्षता में पराली प्रबंधन/फसल अवशेष को खेतो में न जलाए जाने से संबंधित समीक्षा बैठक कलेक्ट्रेट सभागार में आयोजित हुई. इस अवसर पर मुख्य विकास अधिकारी जयकेश त्रिपाठी, अपर पुलिस अधीक्षक सुशील कुमार सिंह उपस्थित रहे.

उपनिदेशक, कृषि, डा. राकेश कुमार सिंह द्वारा बताया गया कि सर्वोच्च न्यायालय एवं राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा पराली एवं फसल अवशेष जलाए जाने पर रोक लगाई हुई है, जिस से कि प्रदूषण का रोकथाम की जा सके. जिले में धान की कटाई शुरू हो चुकी है, जिस में तहसील स्तरीय पर सचल दस्ते के द्वारा निगरानी की जाएगी एवं राजस्व व कृषि विभाग के क्षेत्रीय कार्मिकों के द्वारा पराली जलाए जाने की रोकथाम की जाएगी.

उन्होंने बताया कि यदि कोई किसान 2 एकड़ से कम भूमि पर पराली जलाता है, तो 2,500 रुपए, 2 से 5 एकड़ पर 5,000 एवं 5 एकड़ से अधिक भूमि पर 15,000 रुपए पर्यावरण क्षतिपूर्ति वसूल की जाएगी. इसी प्रकार यदि कोई कंबाइन हार्वेस्टर बिना एक्स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम एवं पराली संकलन यंत्र के चलते हुए पाया जाएगा, तो ऐक्ट के अंतर्गत उसे सीज किए जाने की कार्रवाई की जाएगी.

उपनिदेशक, कृषि, डा. राकेश कुमार सिंह ने बताया कि जनपद में अब तक अनुदान पर वितरित 125 फार्म मशीनरी बैंक व कस्टम हायरिंग सैंटर एवं 164 पराली प्रबंधन के यंत्र के माध्यम से धान की पराली का प्रबंध किया जाएगा, जिस में उन्हें बारीक टुकड़ों में काट कर खेत में मिलाने से ले कर खेत से पराली को इकट्ठा कर गौशाला व सीबीजी प्लांट तक पहुंच जाने के निर्देश दिए गए. गत वर्ष कुल 32 पराली जलाए जाने की घटनाओं की पुष्टि हुई थी, जिस में 80,000 रुपए जुर्माने के रूप में वसूले थे.

अपर जिलाधिकारी ने उपकृषि निदेशक सहित समस्त संबंधित अधिकारियों व कर्मचारियों को निर्देशित किया है कि खेतों में फसल अवशेष को न जलाने हेतु जागरूक करें और फसल अवशेष को खेतों में जलाने से होने वाली हानियों को भी बताएं और इस का प्रचारप्रसार कराते रहें.

बैठक में उपजिलाधिकारी सदर शैलेश कुमार दूबे, उपजिलाधिकारी धनघटा रमेश चंद्र, उपजिलाधिकारी मेंहदावल उत्कर्ष श्रीवास्तव, समस्त तहसीलदार, जिला कृषि अधिकारी डा. सर्वेश कुमार यादव सहित संबंधित अधिकारी आदि उपस्थित रहे.

पशुओं के लिए महामारी निधि (Pandemic Fund) परियोजना

नई दिल्ली : पशुपालन और डेयरी विभाग (डीएएचडी) की पशुधन पर अधिकार प्राप्त समिति (ईसीएएच) की 8वीं बैठक 28 अक्टूबर, 2024 को विज्ञान भवन में भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार प्रो. अजय कुमार सूद की अध्यक्षता और डीएएचडी की सचिव अलका उपाध्याय की उपाध्यक्षता में आयोजित की गई.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ), भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर), जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) आदि के प्रतिनिधि बैठक में भारत के पशुधन स्वास्थ्य क्षेत्र में प्रगति पर चर्चा करने के लिए सदस्य के रूप में उपस्थित थे.

बैठक के दौरान विभाग ने पशु औषधियों, टीकों, जैविक पदार्थों और फीड एडिटिव्स के क्षेत्र में निर्धारित प्रक्रिया से अब तक किए गए प्रयासों और उपलब्धियों पर प्रकाश डाला. विभाग ने पशुओं की बीमारियों जैसे खुरपकामुंहपका रोग (एफएमडी), ब्रुसेलोसिस, पेस्ट डेस पेटिट्स रूमिनेंट्स (पीपीआर) और क्लासिकल स्वाइन फीवर (सीएसएफ) के लिए चल रहे विभिन्न टीकाकरण कार्यक्रमों में हुई महत्वपूर्ण प्रगति की भी जानकारी दी.

इसे पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण कार्यक्रम (एलएचडीसीपी) के तहत 100 फीसदी केंद्रीय वित्त पोषण मिल रहा है. ये सभी टीके स्वदेशी रूप से विकसित और देश में बनाए गए हैं, जो पशुधन स्वास्थ्य में आत्मनिर्भरता और वैश्विक सहयोग के लिए भारत की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करते हैं. इस के अलावा प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार को राष्ट्रीय डिजिटल पशुधन मिशन (एनडीएलएम) पर हुई प्रगति के बारे में भी जानकारी दी गई, जिस का उद्देश्य देश में टीकाकरण, प्रजनन और उपचार सहित सभी पशुधन और पशुपालन गतिविधियों को डिजिटल रूप से पहचानना और पंजीकृत करना है. डिजिटल प्लेटफार्म पर वर्तमान में हर सेकंड 16 से अधिक लेनदेन हो रहे हैं, जो कार्यक्रम की व्यापक पहुंच और दक्षता को दर्शाता है.

‘वन हेल्थ मिशन’ के तहत विभाग जल्द ही रोग प्रबंधन के लिए परिचालन तत्परता में सुधार करने के लिए पशु रोग प्रतिक्रिया पर केंद्रित एक मौक ड्रिल आयोजित करेगा. प्रो. अजय कुमार सूद ने हाल ही में मानक पशु चिकित्सा उपचार दिशानिर्देश (एसवीटीजी) और पशु रोगों के लिए संकट प्रबंधन योजना (सीएमपी) के साथसाथ 25 डालर मिलियन जी-20 महामारी निधि परियोजना के शुभारंभ की भी सराहना की. महामारी निधि परियोजना का उद्देश्य प्रयोगशाला क्षमताओं को मजबूत करना, रोग निगरानी को बढ़ाना और देश में पशु स्वास्थ्य प्रणालियों में लचीलापन बढ़ाने के लिए मानव संसाधन को मजबूत करना है.

ईसीएएच ने हाल ही में जारी पोल्ट्री रोग कार्ययोजना पर भी विचारविमर्श किया, जिस में जैव सुरक्षा उपायों, निगरानी बढ़ाने और टीकाकरण प्रोटोकाल के माध्यम से सक्रिय रोग प्रबंधन पर जोर दिया गया है, जिस से भारत में पोल्ट्री क्षेत्र और जनस्वास्थ्य दोनों की सुरक्षा हो सके.

केरल में पिछले दिनों हाईपैथोजेनिक एवियन इन्फ्लूएंजा (एचपीएआई) के प्रकोप के मद्देनजर विभाग ने बीमारी को नियंत्रित करने के लिए एक व्यापक रणनीति विकसित की है, ताकि जनस्वास्थ्य खतरों को रोका जा सके. बैठक के दौरान बताया गया कि रोगग्रस्त मुरगेमुरगियों को चिकित्सा निर्देशों के अनुसार मारने के लिए मुआवजे की दरों को संशोधित किया गया है और सितंबर के महीने के दौरान विभाग द्वारा सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इस संबंध में जानकारी दे दी गई है.

बैठक में यह भी रेखांकित किया गया कि विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूओएएच) ने हाल ही में आईसीएआर-एनआईवीईडीआई, बैंगलुरू को पीपीआर और लेप्टोस्पायरोसिस के लिए भारत में डब्ल्यूओएएच संदर्भ प्रयोगशालाओं के रूप में मान्यता दी है. इस से पहले आईसीएआर-एनआईएसएडी, भोपाल (एवियन इन्फ्लूएंजा के लिए) और केवीएसएसयू, बैंगलुरू (रेबीज के लिए) को पहले ही यह मान्यता दी जा चुकी है, जो पशुधन स्वास्थ्य को बढ़ाने के लिए डीएएचडी की निरंतर प्रतिबद्धता को दर्शाता है.

पशु स्वास्थ्य पर अधिकार प्राप्त समिति
साल 2021 में स्थापित, ईसीएएच-डीएएचडी के थिंक टैंक के रूप में काम करता है, जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों, उभरते रोग खतरों, वन हेल्थ प्रयासों और पशु चिकित्सा टीकों, दवाओं और जैविक क्षेत्र के लिए नियामक ढांचे पर साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण और नीति संबंधी सिफारिशें प्रदान करता है.

किसान महिलाओं को मिलेंगे ड्रोन

नई दिल्ली : सरकार ने डीएवाई-एनआरएलएम के तहत महिला स्वयंसहायता समूहों (एसएचजी) को ड्रोन उपलब्ध कराने के लिए 1261 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ केंद्रीय क्षेत्र की योजना ‘नमो ड्रोन दीदी’ को मंजूरी दी है. इस योजना का लक्ष्य साल 2024-25 से 2025-26 की अवधि के दौरान 14,500 चयनित महिला एसएचजी को कृषि में तरल उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग जैसे उद्देश्यों के लिए ड्रोन उपलब्ध कराना है, जो किसानों को किराए पर ये सेवाएं प्रदान करेंगी.

कृषि एवं किसान कल्याण विभाग ने इस योजना के परिचालन संबंधी दिशानिर्देश जारी किए हैं और सभी हितधारकों से अनुरोध किया गया है कि वे ‘नमो ड्रोन दीदी’ योजना के शीघ्र क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए इन परिचालन दिशानिर्देशों का पालन करें.

यह हैं दिशानिर्देश
योजना, केंद्रीय स्तर पर कृषि एवं किसान कल्याण विभाग, ग्रामीण विकास विभाग, उर्वरक विभाग, नागरिक उड्डयन मंत्रालय और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सचिवों की अधिकार प्राप्त समिति के निर्देशों के तहत होगी.

ग्रामीण विकास विभाग के अपर सचिव की अध्यक्षता वाली कार्यान्वयन एवं निगरानी समिति, योजना की प्रभावी योजना, कार्यान्वयन एवं निगरानी करेगी और योजना के कार्यान्वयन से संबंधित सभी तकनीकी मामलों में समग्र सलाह एवं मार्गदर्शन प्रदान करेगी. इस में सभी हितधारकों का प्रतिनिधित्व होगा.

इस योजना के तहत ड्रोन व सहायक उपकरण और सहायक शुल्क की लागत का 80 फीसदी, केंद्रीय वित्तीय सहायता के रूप में अधिकतम 8 लाख रुपए तक की राशि महिला स्वयंसहायता समूहों को पैकेज के रूप में ड्रोन की खरीद के लिए प्रदान की जाएगी.

स्वयंसहायता समूहों और स्वयंसहायता समूहों के क्लस्टर स्तरीय संघ खरीद की कुल लागत में से सब्सिडी घटा कर तय राशि (सीएलएफ) राष्ट्रीय कृषि अवसंरचना वित्त पोषण सुविधा (एआईएफ) के अंतर्गत ऋण ले सकते हैं. सीएलएफ/एसएचजी को एआईएफ ऋण पर 3 फीसदी की दर से ब्याज सहायता प्रदान की जाएगी.

सीएलएफ/एसएचजी के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय के अन्य स्रोतों/कार्यक्रमों/योजनाओं से ऋण प्राप्त करने का विकल्प भी होगा.

इस योजना के तहत न केवल ड्रोन, बल्कि पैकेज के रूप में ड्रोन की आपूर्ति की जाएगी. पैकेज में तरल उर्वरकों और कीटनाशकों के छिड़काव के लिए स्प्रे तंत्र के साथ बेसिक ड्रोन, ड्रोन को रखने का डब्बा, मानक बैटरी सेट, नीचे की ओर फोकस कैमरा, दोहरे चैनल वाला फास्ट बैटरी चार्जर, बैटरी चार्जर हब, एनीमोमीटर, पीएच मीटर और सभी वस्तुओं पर एक साल की औनसाइट वारंटी शामिल होगी.

पैकेज में 4 अतिरिक्त बैटरी सेट, एक अतिरिक्त प्रोपेलर सेट (प्रत्येक सेट में 6 प्रोपेलर होते हैं), नोजल सेट, डुअल चैनल फास्ट बैटरी चार्जर, बैटरी चार्जर हब, ड्रोन पायलट और ड्रोन सहायक के लिए 15 दिन का प्रशिक्षण, एक साल का व्यापक बीमा, 2 साल का सालाना रखरखाव अनुबंध और लागू जीएसटी भी शामिल है. बैटरी के अतिरिक्त सेट से ड्रोन की निरंतर उड़ान सुनिश्चित होगी, एक दिन में ये ड्रोन आसानी से 20 एकड़ की दूरी तय कर सकता है.

महिला स्वयंसहायता समूहों के सदस्यों में से एक को 15 दिन के प्रशिक्षण के लिए चुना जाएगा. अनिवार्य ड्रोन पायलट प्रशिक्षण और पोषक तत्व व कीटनाशक अनुप्रयोग के कृषि उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त प्रशिक्षण शामिल है. बिजली के सामान की मरम्मत, फिटिंग और यांत्रिक कार्यों में रुचि रखने वाले स्वयंसहायता समूह के अन्य सदस्यों को ड्रोन सहायक के रूप में प्रशिक्षित किया जाएगा. ड्रोन निर्माता परिचालन दिशानिर्देशों में बताए गए प्रशिक्षण कार्यक्रम के अनुसार ड्रोन की आपूर्ति के साथसाथ ये प्रशिक्षण एक पैकेज के रूप में प्रदान करेंगे.

राज्यों के लिए जिम्मेदार प्रमुख उर्वरक कंपनियां (एलएफसी) राज्य स्तर पर योजना का कार्यान्वयन करेंगी और वे राज्य विभागों, ड्रोन निर्माताओं, स्वयंसहायता समूहों/स्वयंसहायता समूहों के क्लस्टर स्तरीय संघों और किसानों व लाभार्थियों के साथ आवश्यक समन्वय स्थापित करेंगी. एलएफसी द्वारा ड्रोन, निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से खरीदे जाएंगे और ड्रोन का स्वामित्व स्वयंसहायता समूहों या स्वयंसहायता समूहों के सीएलएफ के पास रखा जाएगा.

योजना की सफलता, कृषि सेवाएं प्रदान करने के लिए ड्रोन की मांग वाले क्षेत्र/क्लस्टर और एसएचजी समूह के उचित चयन पर निर्भर करता है. कृषि में ड्रोन का उपयोग अभी शुरुआती चरण में है, इसलिए राज्य इन गतिविधियों की बारीकी से निगरानी करेंगे और महिला एसएचजी को सहायता प्रदान करेंगे. साथ ही, उन्हें एक वर्ष में कम से कम 2000 से 2500 एकड़ क्षेत्र को कवर करने के लिए व्यवसाय शुरू करने में मदद करेंगे. कृषि के राज्य विभागों और डीएवाई-एनआरएलएम के राज्य मिशन निदेशकों के बीच मजबूत तालमेल होगा और वे राज्य स्तरीय समिति की मदद से जमीनी स्तर पर सफल कार्यान्वयन के लिए योजना चलाएंगे.

योजना की प्रभावी निगरानी आईटी आधारित प्रबंधन सूचना प्रणाली (एमआईएस) यानी ड्रोन पोर्टल के माध्यम से की जाएगी, जो सेवा वितरण और निगरानी, धन प्रवाह और धन के वितरण के लिए एंड-टू-एंड सौफ्टवेयर के रूप में काम करेगा. पोर्टल प्रत्येक ड्रोन के संचालन को भी ट्रैक करेगा और ड्रोन के उपयोग पर लाइव जानकारी प्रदान करेगा.

ऐसा माना जा रहा है कि इस योजना के तहत पहलों से स्वयंसहायता समूहों को स्थायी व्यवसाय और आजीविका मिलेगी और वे अपने लिए अतिरिक्त आय अर्जित करने में सक्षम होंगे. यह योजना किसानों के लाभ के लिए बेहतर दक्षता, फसल की बढ़ी पैदावार और कम संचालन लागत के लिए कृषि में उन्नत प्रौद्योगिकी को शामिल करने में मदद करेगी.

स्वदेशी ट्रांसपोंडर बने मछुआरों के जीवनरक्षक

पालघर : मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय (एमओएफएएच एंड डी) के अंतर्गत मत्स्यपालन विभाग, प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना के तहत पोत संचार और सहायक प्रणाली की सहायता से समुद्र में मछुआरों की सुरक्षा बढ़ाने में सक्षम रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 30 अगस्त, 2024 को महाराष्ट्र के पालघर में शुरू की गई इस परियोजना में 364 करोड़ रुपए का परिव्यय किया गया है. ये ट्रांसपोंडर सुविधा मछुआरों को नि:शुल्क दी जा रही है.

मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय की स्वदेशी ट्रांसपोंडर तकनीकयुक्त पोत संचार और सहायक प्रणाली पहल का चक्रवात दाना के दौरान मछुआरों को सुरक्षित रखने में उल्लेखनीय योगदान रहा. इस प्रणाली का उद्देश्य मछली पकड़ने के दौरान समुद्र में मछुआरों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है. इस से पहले मोबाइल कवरेज रेंज से बाहर उन के लिए दोतरफा संचार संभव नहीं था.

सरकार की सभी 13 तटीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एक लाख मछली पकड़ने की नौकाओं में स्वदेशी तकनीक से विकसित ट्रांसपोंडर लगाने की योजना है. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा विकसित इस तकनीक को अंतरिक्ष विभाग (डीओएस) के तहत इसरो की वाणिज्यिक शाखा न्यूस्पेस इंडिया लिमिटेड (एनएसआईएल) के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है.

ओडिशा इन ट्रांसपोंडरों को लगाने में सक्रिय रहा है और राज्य में 1000 से अधिक ट्रांसपोंडर लगाए गए हैं. ओडिशा के मछुआरों के लिए यह तकनीक जीवनरेखा सिद्ध हुई है और हाल ही में ओडिशा के तट और बंगाल की खाड़ी के आसपास के क्षेत्रों में आए चक्रवाती तूफान के दौरान यह उन के लिए काफी लाभदायक रहा.

चक्रवाती तूफान दाना जब ओडिशा के पास पहुंच रहा था, तब ओडिशा के राज्य राहत आयुक्त ने मौसम विभाग के दोपहर के बुलेटिन के आधार पर 20 अक्तूबर, 2024 को तूफान संबंधी चेतावनी जारी की. पोत संचार और सहायक प्रणाली की सहायता से वास्तविक समय के आधार पर मछुआरों को तूफान आने की चेतावनी और सलाह जारी की गई. इस से समुद्र में मछुआरों की जान बचाने में मदद के साथ ही उन के संसाधनों की क्षति रोकने में भी सहायता मिली.

इन ट्रांसपोंडरों द्वारा अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र, अहमदाबाद के माध्यम से मछुआरों को 21 अक्तूबर से 26 अक्तूबर, 2024 तक समुद्र में न जाने की सलाह दी गई. समुद्र में मछली पकड़ रहे मछुआरों को भी तुरंत किनारे पर लौटने को कहा गया.

समय पर दी गई इस महत्वपूर्ण चेतावनी से मछुआरों को चक्रवाती तूफान से पहले ही इस का सामना करने के लिए आवश्यक सावधानी बरतने का मौका मिला. भेजे गए संदेशों में कहा गया कि समुद्र में मौजूद मछुआरों को तुरंत तट पर लौटने की सलाह दी जाती है और उन्हें 21 अक्तूबर से 26 अक्तूबर, 2024 के दौरान ओडिशा तट और उस से सटे उत्तरी बंगाल की खाड़ी के समुद्र में न जाने के लिए आगाह किया जाता है.

यह संदेश अंग्रेजी और ओडिया दोनों भाषाओँ में भेजे गए, ताकि सभी मछुआरे स्थिति की गंभीरता को समझ सकें.

अधिकारी नौकाओं और जहाजों से संपर्क करने के लिए परंपरागत तौर पर बहुत ही उच्च आवृत्ति वाले रेडियो और फोन का इस्तेमाल करते थे और यह मछुआरों पर निर्भर था कि वे अपनी नौकाओं की सटीक जानकारी दें.

इस प्रणाली की कई चुनौतियां थीं. दूर समुद्र में मशीन से चलने वाली नौकाओं का पता लगाना अकसर कठिन होता था. कुछ मछुआरे और नाविक नौकाओं और जहाजों की संख्या और स्थान के बारे में सटीक जानकारी देने में असमर्थ होते थे. सटीक जानकारी के अभाव में प्रभावी संचार बाधित होने से समुद्र में मछुआरों की सुरक्षा को गंभीर जोखिम रहता था.

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के उपग्रहों का इस्तेमाल कर पोत संचार और सहायक प्रणाली से अधिकारी 20 अक्तूबर, 2024 की शाम समुद्र में सभी नौकाओं और जहाजों को सामूहिक संदेश भेज सके. समय पर दी गई सूचना ही परिवर्तनकारी साबित हुई, जिस से त्वरित प्रतिक्रिया द्वारा नौकाओं और जहाजों को 21 अक्तूबर, 2024 की सुबह तक तट पर लौटाया जा सका. सामूहिक संदेश केवल सूचना भर नहीं था, बल्कि यह जीवनरेखा साबित हुई, जिस ने समुद्र में जाने वाले मछुआरों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सकी.

चक्रवाती तूफान दाना के दौरान ट्रांसपोंडर और नभमित्र एप्लिकेशन के उपयोग से नौकाओं और जहाजों की स्थिति की प्रभावी ट्रैकिंग और उन की गति पर निगरानी रख कर उन्हें सुरक्षित रखा जा सका. इस एप्लिकेशन से अधिकारियों को तट पर प्रत्येक जहाज के आने के समय का अनुमान लगाने में मदद मिली, जिस से चक्रवात से पहले ही मछुआरों की सुरक्षित वापसी हो सकी.

नभमित्र एप्लिकेशन ट्रैकिंग की व्यापक सुविधा प्रदान करता है, जिस में नौकाओं की संख्या और ट्रांसपोंडर आईडी इत्यादि की जरूरी जानकारी मिलती है. एप्लिकेशन द्वारा नौकाओं के स्थान, दिशा और गति की वास्तविक समय में जानकारी से अधिकारी प्रत्येक नौकाओं और जहाजों की गतिविधियों की सटीकता से निगरानी रख सकें.

इस के अतिरिक्त यह एप चक्रवात की जानकारी देने में सक्षमता से काम करता है और अक्षांश और देशांतर निर्देशांकों द्वारा चक्रवात के नाम, श्रेणी और विशिष्ट स्थान का विवरण प्रदान करता है. इन आंकड़ों में चक्रवात की तिथि और समय, सतह पर हवा की अधिकतम गति और जिस तिथि को यह जानकारी प्राप्त की गई थी, उस का विवरण था.

इस महत्वपूर्ण जानकारी की सुलभता से, मछुआरे बदलती परिस्थिति के अनुरूप मौसम का सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार हो सके. चक्रवात से संबंधित आंकड़ों के अलावा नभमित्र एप से समुद्र की स्थिति, हवा की गति और दिशा, और दृश्यता सहित महत्वपूर्ण मौसम अपडेट भी मिले.

समुद्री पर्यावरण की यह समग्र जानकारी मछुआरों के लिए काफी महत्वपूर्ण रही, जिस से वे अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक कदम उठा सके. इन उपायों से अधिकारी मछुआरों को चक्रवात से उत्पन्न खतरों के बारे में अलर्ट जारी कर समुद्र से उन की प्रभावी ढंग से वापसी करने में सक्षम रहे.

नौकाओं और जहाजों को वास्तविक समय में ट्रैक करने की क्षमता, संकट प्रबंधन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है. अधिकारी इन की मदद से पारादीप से लगभग 126 नौकाओं की निगरानी कर सके, जो उस समय समुद्र में थे. इस से चक्रवाती तूफान दाना के आने से पहले ही 22 अक्तूबर, 2024 तक सभी नौकाओं की तट पर सुरक्षित वापसी सुनिश्चित हो गई. बेहतर ट्रैकिंग क्षमता से अधिकारी नौकाओं और जहाजों की स्थिति के बारे में अवगत रहे, जिस से उन्हें किसी आपात स्थिति से निबटने में मदद मिली.

इस के अलावा वेसल कम्युनिकेशन एंड सपोर्ट सिस्टम की संचार क्षमताएं स्थानीय भाषाओं में आपातकालीन संदेशों को प्रसारित करने में सहायक रही. इस सुविधा ने स्पष्टता और तात्कालिकता सुनिश्चित की, जिस से मछुआरों को बिना देरी किए सुरक्षित लौटने के महत्व को समझने में मदद मिली.

बहुभाषी समर्थन ने सिस्टम की प्रभावशीलता को बढ़ाया, क्योंकि कई मछुआरे अंगरेजी या हिंदी में धाराप्रवाह नहीं हो सकते हैं. स्थानीय बोलियों का उपयोग कर के, अधिकारी आवश्यक जानकारी को अधिक प्रभावी ढंग से संप्रेषित कर सके, जिस से राहत उपाय समय रहते पूरे हो सके.

तूफान आपदा के दौरान समाधान समन्वय पोत संचार और सहायक प्रणाली के माध्यम से ही संभव था. इस प्रणाली से सक्रिय सहायता सक्षमता से दी जा सकी और इस से मत्स्य विभाग, तटरक्षक और स्थानीय अधिकारियों सहित विभिन्न हितधारकों के बीच सहयोग भी सुविधाजनक तरीके से हो सका. आपात स्थितियों के दौरान अंतरएजेंसी सहयोग का यह स्तर महत्वपूर्ण है और सुनिश्चित करता है कि संसाधनों का प्रभावी ढंग से प्रबंधन किया जाए तो राहत और सहायता तेजी से दी जा सकती है.

चक्रवाती तूफान दाना के दौरान पोत संचार और सहायक प्रणाली का सफल उपयोग संकट प्रबंधन और आपदा तैयारियों में उल्लेखनीय साबित हुआ है. यह दर्शाता है कि प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में तटीय समुदायों को अनुकूल स्थिति में ढालने के साथ ही आजीविका की रक्षा के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ कैसे उठाया जा सकता है. इस प्रणाली ने संकट प्रबंधन की स्थिति में प्रभावशाली सुधार को दर्शाते हुए पोत संचार और सहायता प्रणाली की परिवर्तनकारी क्षमता को प्रदर्शित किया है.

चक्रवाती तूफान के दौरान मछुआरों के जीवन की रक्षा करने और भविष्य की समुद्री चुनौतियों के लिए ट्रांसपोंडर प्रौद्योगिकी की क्षमताएं भी इस से सामने आई हैं. वास्तविक समय संचार और निगरानी को सक्षम कर, पोत संचार और सहायक प्रणाली ने समुद्री सुरक्षा में एक नया मानक स्थापित किया है. इस संकट के दौरान प्रणाली की प्रभावशीलता भविष्य के कार्यान्वयन के लिए एक आदर्श साबित हुआ है और बताता है कि सुरक्षा और तैयारियों को बढ़ाने के लिए अन्य क्षेत्रों और स्थितियों में समान तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है.

चक्रवाती तूफान दाना के बचाव प्रबंधन में सीखे गए सबक अमूल्य हैं. यह आवश्यक है कि आपदा प्रबंधन के लिए उन्नत तकनीकों को अपनाया जाए. पोत संचार और सहायक प्रणाली समुद्री सुरक्षा बुनियादी ढांचे में निवेश के महत्व को दर्शाती है. इस तूफान के दौरान समुद्र में मछुआरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में यह प्रणाली काफी महत्वपूर्ण उपाय सिद्ध हुआ है.

वास्तविक समय में ट्रैकिंग, प्रभावी संचार और समन्वित आपातकालीन राहत उपायों की सुविधा प्रदान कर इस प्रणाली से यह पता चला है कि कैसे तकनीक द्वारा प्राकृतिक आपदाओं में समुद्री सुरक्षा बढ़ाई जा सकती है. संकट में इस की सफलता ने आजीविका की सुरक्षा और भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयारी बढ़ाने में उन्नत तकनीकों को एकीकृत करने की प्रभावशीलता को भी प्रमाणित किया है.

भारत के समुद्री सुरक्षा ढांचे को मजबूत करने के क्रम में चक्रवाती तूफान दाना से सीखे गए सबक भविष्य में ऐसे पहल को आगे बढ़ाएंगे, जिस से अंततः मछली पकड़ने वाले समुदाय के लिए सुरक्षित वातावरण बनेगा. स्वदेशी तौर पर डिजाइन और विकसित किए गए पोत संचार और सहायक प्रणाली का प्रभावी उपयोग भविष्य में सुरक्षा की स्थिति के प्रति काफी हद तक आश्वस्त करता है. इस से यह सुनिश्चित हुआ है कि मछुआरों को आपदा की स्थिति की पूर्व जानकारी दी जा सके, जिस से वे अधिक आत्मविश्वास से प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर सकें.

समय प्रबंधन से बदल सकती है गन्ना किसानों की हालत

परंपरागत खेती में किसान जहां गन्ना-पेड़ी-गेहूं, गन्ना-पेड़ी-गेहूं फसलचक्र अपना रहे हैं, उस में फौरन बदलाव की जरूरत है. इस फसलचक्र को अपनाने से किसान भाइयों को काफी नुकसान हो रहा है. गेहूं काट कर देरी से गन्ने की बोआई होती है, तो गन्ने की उपज बहुत कम (औसतन 375-400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) हासिल होती है. साथ ही देरी से (जनवरी के अंत में) बोआई करने पर गेहूं की पैदावार औसतन 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल होती है, जो काफी कम है.

वहीं दूसरी ओर ज्यादा पैदावार लेने के प्रयास में किसान भाई ज्यादा मात्रा में खादबीज का इस्तेमाल कर के उत्पादन लागत बढ़ा रहे हैं. इस से किसानों को दोहरी हानि का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे हालात में यह जरूरी है कि हम नए अंदाज में खेती करना शुरू करें, जिस के लिए जरूरी है कि हम सब से पहले अपने फसलचक्र में बदलाव करें.

जिस खेत में गन्ना बोना है, उस में रबी की फसल काटने के बाद किसान ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई कर के खेत का सौरीकरण करें. फिर उस में हरी खाद लेने के लिए ढैंचे की बोआई करें. अगस्त में ढैंचे को खेत में पलट कर रोटावेटर से अच्छी तरह मिला लें. इस के बाद सितंबर के पहले व दूसरे हफ्ते में गन्ने की बोआई करें (बरसात को देखते हुए गन्ने की बोआई करें). इस समय बोए गए गन्ने का जमाव अच्छा होता है और बढ़वार तेज गति से होती है. अच्छी तरह देखभाल किए गए गन्ने की अगले साल पेराई सत्र में औसतन 1,000-1,200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उपज आसानी से हासिल की जा सकती है. यहां किसानों के मन में यह सवाल आना लाजिम है कि उन की खरीफ व रबी की 2 फसलों (धान व गेहूं) का नुकसान हो रहा है, लेकिन सचाई कुछ और है.

अब किसानों के मन में सवाल आता है कि उन्हें अपने घरेलू इस्तेमाल के लिए भी धान व गेहूं चाहिए. इस के लिए सुझाव है कि वे अपने खेत को इस तरह बांटें कि जरूरत के मुताबिक उन्हें धान, गेहूं व दूसरी फसलें भी मिल जाएं, उत्पादन लागत भी घटे और प्रति इकाई क्षेत्रफल से ज्यादा पैदावार भी मिले. तभी हम खेती को लाभकारी बना सकते हैं, वरना आप समझ गए होंगे कि ज्यादा उत्पादन लागत लगा कर भी हमें शुद्ध लाभ के रूप में मात्र 95,000 रुपए की आमदनी होती है, जबकि कम लागत से 1,80,000 रुपए की आमदनी हो सकती है.

चने की उन्नत खेती

भारत में पैदा की जाने वाली दलहनी फसलों में चने की खेती का खास स्थान है. देश में चने की पैदावार दुनिया की कुल पैदावार की 70 फीसदी तक होती है. चने की खेती किसानों के लिए काफी फायदेमंद मानी जाती है.

चने का इस्तेमाल न केवल दाल के रूप में किया जाता है, बल्कि इस के बेसन से कई तरह के स्वादिष्ठ पकवान व मिठाइयां भी तैयार की जाती हैं. गरीब से ले कर अमीर परिवारों में कई लोगों के नाश्ते में अंकुरित चने की खास जगह है. ताकतवर खाद्य वस्तुओं में चने का खास स्थान है, क्योंकि इस में 21 फीसदी प्रोटीन, 61 फीसदी कार्बोहाइडे्रट व साढ़े 4 फीसदी वसा पाए जाते हैं.

सदियों से चना न केवल इनसानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, बल्कि पशुओं के चारे व दाने के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में बाजार में चने की मांग हमेशा बनी रहती है, जिस की वजह से किसानों को चने का सही बाजार मूल्य मिल जाता है. किसान अगर अच्छी कृषि तकनीकी व उन्नतशील प्रजातियों के बीजों का इस्तेमाल कर चने की खेती करें, तो उन्हें कम जोखिम व कम लागत में भरपूर फायदा मिल सकता है.

जमीन की तैयारी व बोआई का समय : चने की खेती के लिए दोमट व हलकी दोमट मिट्टी मुफीद रहती है. जमीन का चुनाव करते समय इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि खेत से पानी निकासी का सही इंतजाम हो और मिट्टी ज्यादा लवणीय न हो.

चने की बोआई के लिए सब से अच्छा समय अक्तूबर के दूसरे हफ्ते से ले कर 15 नवंबर तक होता है. चने की बोआई से पहले यह देख लें कि खेत की सतह सख्त न हो और अंकुरण के लिए सही मात्रा में नमी मौजूद हो. चने की बोआई से पहले एक गहरी जुताई कल्टीवेटर या हैरो से करें व पाटा लगा दें. इस के बाद सही नमी में जुताई कर के चने की बोआई करें.

उन्नतशील किस्मों का चयन : चने की कई उम्दा प्रजातियों का इस्तेमाल मौजूदा दौर में किया जा रहा है. लेकिन कुछ खास किस्में जिन में बीमारियां कम लगती हैं, का इस्तेमाल कर के किसान कम कीमत में अच्छी पैदावार कर सकते हैं. चने की उकठारोधी प्रजातियों में जेजी 16, के 850, डीसीपी 92, आधार आरएससी 936, डब्ल्यूसीजी 2 व केसीडी 1168 खास हैं. अन्य बीमारी अवरोधी प्रजातियों में पूसा 256, अवरोधी गुजरात चना, राधे, पूसा 372, डब्ल्यूसीजी 1 व डब्ल्यूसीजी 2 खास हैं. देरी से बोआई की जाने वाली प्रजातियों में 372, पंत जी 186 व उदय खास हैं. काबुली चने की प्रजातियों में एचके 94, शुभ्रा, उज्ज्वल, जेजीके 1, पूसा, शुभ्रा 8128 व फूले जी 0517 खास हैं. चने की इन किस्मों की बोआई के लिए 1 एकड़ खेत के लिए 35-40 किलोग्राम या 1 हेक्टेयर खेत के लिए 75-100 किलोग्राम बीज की जरूरत रहती है.

बीजोपचार या बीजशोधन : आमतौर पर सभी दलहनी फसलों का बीजोपचार करना जरूरी होता है. दलहनी फसलों में राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार किए जाने से पौधों की जड़ों में अधिक गाठें होती हैं.

नाइट्रोजन के स्थिरीकरण व फास्फोरस की मौजूदगी बढ़ाने के लिए अलगअलग राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल किया जाता है. चने की 10 किलोग्राम मात्रा पर 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल बीजोपचार के लिए किया जाता है. बीजोपचार के लिए चने की 10 किलोग्राम मात्रा को बाल्टी में ले कर उस में 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर को डाल कर अच्छी तरह से मिला लेते हैं. इस के बाद उपचारित बीजों को छाया में सुखाया जाता है. कभी भी उपचारित बीजों को धूप में न सुखाएं.

चने की फसल को बीजजनित रोगों से बचाने के लिए 2 ग्राम थीरम या 3 ग्राम मैंकोजेब या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा या 2 ग्राम थीरम के साथ 1 ग्राम कारबेंडाजिल की मात्रा को प्रति किलोग्राम की दर से बीजों में मिला कर बीज प्रोसेसिंग करना चाहिए. इस से चने की फसल को उकठा व जड़ गलन की बीमारी से बचाया जा सकता है.

खाद व उर्वरक : वैसे तो चने की खेती के लिए ज्यादा खाद व उर्वरक की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन चने की अधिक पैदावार लेने के लिए सही व संतुलित मात्रा में पोषक तत्त्वों की आपूर्ति करना भी जरूरी हो जाता है. चने की सभी किस्मों के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम गंधक का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय लाइन में करना चाहिए. चने में प्रोटीन काफी होता है, इसलिए मिट्टी से नाइट्रोजन का हृस होता है, जिस की भरपाई चने के पौधों में स्थित राइजोवियम गांठों से हो जाती है.

सिंचाई : चने की पहली सिंचाई बोआई के 45 से 60 दिनों बाद यानी फसल में फूल आने से पहले करनी चाहिए, जबकि दूसरी सिंचाई फली में दाना बनने के समय करनी सही रहती है. चने की फसल में जब फूल लगते हैं उस दौरान सिंचाई नहीं करनी चाहिए, ऐसा करने से चने की फसल में आने वाली फलियां झड़ जाती हैं व खरपतवार की मात्रा में बढ़ोतरी होती है.

चने की सिंचाई करते समय ध्यान रखें कि फसल में ज्यादा पानी न लगने पाए, क्योंकि चने की जड़ों में मौजूद राइजोबियम जीवाणुओं की क्रियाशीलता आक्सीजन के अभाव में ढीली पड़ जाती है.

इस का असर पौधों पर साफ दिखता है, इस से पौधे पीले पड़ जाते हैं और उन में फलियां व दाने कम बनने से पैदावार खुद ही घट जाती है. चने की फसल में उकठा रोग गहरी सिंचाई से ही लगता है. इसलिए जल निकासी जरूरी है.

Gram Cultivation

खरपतपवार रोकथाम : कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया में जानकार राघवेंद्र विक्रम सिंह का मानना है कि चने की खेती में खरपतवार से न केवल पैदावार घटने की आशंका रहती है, बल्कि इस की विशेषता में भी कमी आ जाती है. चने की फसल में खरपतवार उगने से पैदावार में 50 से 60 फीसदी तक की कमी आती है. यदि समय रहते चने की फसल से खरपतवार को खत्म किया जाए तो पैदावार में 22 से 63 फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी. चने की बोआई के 3 दिन के अंदर एलाक्लोर 3 से 4 लीटर या पैंडामेथालीन ढाई से 3 लीटर या मेंटोलाक्लोर 1 से 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में छिड़कना चाहिए. इन रसायनों के इस्तेमाल से चौड़ी व सकरी पत्ती के खरपतवार खत्म हो जाते हैं.

बीमारियों की रोकथाम : चने की फसल में आमतौर पर उकठा, मूल विगलन, ग्रीवा गलन, तना गलन, एस्कोकाब्लाइट रोग अधिकतर देखा गया है. यदि बोआई से पहले बीज साफ किया गया है तो इन बीमारियों का असर पौधों पर नहीं होता है. अगर फसल में उकठा रोग दिखाई पड़े तो रोगी पौधों को अलग कर खत्म कर देना चाहिए, जिस से फसल में उकठा के फैलने की आशंका कम हो जाती है. फसल को उकठा रोग से बचाने के लिए उकठारोधी किस्मों का इस्तेमाल करना चाहिए. इस की रोकथाम के लिए कापर आक्सीक्लोराइड की ढाई ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बना कर 2 से 3 बार छिड़काव करना चाहिए.

Gram Cultivation

चने के खास कीट व उन की रोकथाम : चने में आमतौर पर कटुआ कीट का ज्यादा आक्रमण होता है, जो ढाई सेंटीमीटर लंबा मटमैले भूरे रंग का पतंगा जैसा होता है. यह कीट रात को पौधों को जड़ से काट कर जमीन पर गिरा देता है. इस के अलावा फलीबेधक कीट जिसे प्रौढ़ पतंगा भी कहते हैं, ये शुरू में मुलायम पत्तियों को खाते हैं और फिर फलियों में दानों में छेद कर उन्हें खा जाते हैं. फलीबेधक कीट की एक सूड़ी 30-40 फलियों को प्रभावित करती है.

कूबड़ कीड़ा : चने की फसल को कूबड़ कीड़े से भी ज्यादा नुकसान होता है. ये कीड़े फसल की पत्तियों, कलियों व फलों को खा कर नुकसान पहुंचाते हैं. इन की रोकथाम के लिए क्यूनालफास 25 ईसी का डेढ़ से 2 लीटर की मात्रा का छिड़काव करना चाहिए.

कटाई व भंडारण : चने की फसल की कटाई के बाद उस के भंडारण पर खास ध्यान देना चाहिए, क्योंकि दालों के भंडारण में ढोरा या घुन का हमला ज्यादा देखा गया है. इस के बचाव के लिए दालें धूप में सुखा कर नमी रहित कर देनी चाहिए. उस के बाद अल्यूमिनियम फास्फाइड की 2 गोलियां प्रति टन की दर से इस्तेमाल में लानी चाहिए. चने की अच्छी खेती की जानकारी के लिए

कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया, बस्ती के कृषि जानकार राघवेंद्र विक्रम सिंह के मोबाइल नंबर 9415670596 पर संपर्क किया जा सकता है.

सहजन (Drumstick) उगाने की वैज्ञानिक विधि

सहजन का वानस्पतिक नाम मोरिंगाऔलीफेरा है, इसे अंगरेजी में ड्रम स्टिक कहते हैं. यह उत्तर भारत के हिमालय क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से उगता है. इसे कोमल पत्तियों, फूलों व फलियों के लिए उगाया जाता है. भारत में इसे कई नामों से पुकारा जाता है, जैसे मोरिंगा, मोरिगाई, मुनगा व हार्स रेडिस वगैरह.

यह एक बहुवर्षीय पेड़ है, जिस की पत्तियों, फूलों व फलों को सब्जी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व झारखंड में यह काफी मशहूर है. इस की व्यावसायिक खेती कुछ इलाकों में ही की जाती है. ज्यादातर जगहों में यह घरों के बगीचों में ही उगाया जाता है.

सहजन की फलियों को सब्जी, अचार या सांभर बनाने में इस्तेमाल किया जाता है. इस के फूलों और पत्तियों से सब्जी बनाई जाती है. इस की सब्जी पौष्टिक और औषधीय गुणों से भरपूर होती है. आयुर्वेद के मुताबिक सहजन इनसानों में होने वाले तकरीबन 300 रोगों के इलाज में लाभदायक है.

राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद के अनुसार इस में काफी मात्रा में विटामिन, खनिज तत्त्व, वसा व प्रोटीन पाए जाते हैं. सहजन की पत्तियों व फलियों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, कैल्शियम, कैरोटीन व विटामिन ‘सी’ पाए जाते हैं. इस में गाजर के मुकाबले 4 गुना ज्यादा विटामिन, संतरे के मुकाबले में 7 गुना ज्यादा विटामिन ‘सी’, दूध के मुकाबले में 4 गुना ज्यादा कैल्शियम, केले से 3 गुना ज्यादा पोटाश और दही से दोगुना ज्यादा प्रोटीन होता है.

मलेशिया में सहजन के बीजों को मूंगफली की तरह खाया जाता है. इस के बीजों से तेल निकाला जाता है, जिस का इस्तेमाल दवाओं में किया जाता है. आधुनिक खोजों से पता चला है कि सहजन से भूमिगत पानी साफ होता है. सहजन के इस्तेमाल व बाजार की मांग के लिहाज से इस की खेती काफी फायदे वाली साबित होती है.

सहजन जल्दी बढ़ने वाला पेड़ होता है. इस का पेड़ तकरीबन 5 मीटर ऊंचा होता है. इस में खुशबूदार फूल फरवरीमार्च में खिलते हैं. इस की फलियां करीब 25 सेंटीमीटर लंबी होती हैं.

पौधे तैयार करना : आमतौर पर सहजन के पौधे इस की टहनियों को काट कर लगा देने से तैयार हो जाते हैं. वैसे बीज से भी पौधे तैयार किए जाते हैं.

जलवायु : सहजन के सही विकास के लिए तकरीबन 25 डिगरी सेल्सियस तापमान सब से अच्छा रहता है. 40 डिगरी से ज्यादा तापमान इस पर खराब असर डालता है. फूल निकलने के दौरान बहुत कम या बहुत ज्यादा तापमान होने पर फूल गिर जाते हैं.

मिट्टी : सहजन को सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है. सही जल निकास वाली रेतीली दोमट, लाल व काली मिट्टी जिस का पीएच मान 6 से 7.5 के बीच हो सहजन की खेती के लिए सही मानी जाती है.

किस्में : जाफना, कुलानुर, धनराज, पाल मुरीगाई, ऐजहपानामा मुरिंगा, चाबक बेरी मुरीगाई, केम मुरीगाई व केट्टू मुरीगाई वगैरह इस की खास किस्में हैं. इस की उम्दा संकर किस्में हैं पीकेएम 1 व पीकेएम 2.

पौधे लगाना : सहजन की बहुवर्षीय किस्मों के पौधे कलम द्वारा तैयार किए जाते हैं. इस के लिए ढाईढाई मीटर की दूरी पर 45×45×45 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे बना कर उन में तकरीबन 15 किलोग्राम कंपोस्ट खाद मिट्टी में मिला कर भरें. चुनी हुई कलमों या पौधों को जून से अक्तूबर के बीच गड्ढों में रोप देते हैं.

इस की 1 वर्षीय किस्मों के 625 ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से नवंबरदिसंबर या जूनजुलाई के दौरान नर्सरी में बोए जाते हैं. पौधे 1 महीने में रोपाई लायक हो जाते हैं. हर गड्ढे में 2 बीज सीधे बो दिए जाते हैं. 1 हफ्ते में बीजों का अंकुरण हो जाता है.

खाद और उर्वरक : रोपाई के 3 महीने बाद हर पौधे को तकरीबन 40 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 50 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश देनी चाहिए. रोपाई के 6 महीने बाद हर पौधे को तकरीबन 250 ग्राम यूरिया व 30 किलोग्राम कंपोस्ट खाद देनी चाहिए.

काटछांट : समयसमय पर सहजन के पेड़ों की कांटछांट जरूरी है. तकरीबन 75 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर मुख्य तने को काट देना चाहिए ताकि पेड़ की ऊंचाई सीमित रहे. फलों की तोड़ाई के बाद कांटछांट करनी चाहिए. छंटाई के 6 महीने बाद पेड़ दोबारा फल देना शुरू कर देते हैं.

खरपतवारों की रोकथाम : रोपाई के पहले 2 महीनों के दौरान खेत में खरपतवार नहीं रहने चाहिए. रोपाई के बाद पहले 3 सालों तक सहजन के पेड़ों के बीच मिर्च, शिमला मिर्च, बैगन, टमाटर, चना, मटर, कपास व दूसरी सब्जियां उगानी चाहिए, ताकि अलग से आमदनी होती रहे. उस के बाद अदरक व जिमीकंद वगैरह की खेती करनी चाहिए. इस से खेत में मिट्टी, नमी, पोषक तत्त्व, व खरपतवारों का प्रबंधन भी हो जाता है.

सिंचाई : रोपाई या बोआई के बाद 1 महीने तक सिंचाई का खास खयाल रखना चाहिए. फिर मौसम के मुताबिक सिंचाई करते रहना चाहिए.

कीड़ों की रोकथाम : सहजन में पत्ती खाने वाले पिल्लू व फल मक्खी का हमला होता है. इन का प्रकोप बरसात के मौसम में होता है.

इन की रोकथाम के लिए 0.2 फीसदी मैलाथियान का छिड़काव करना चाहिए. यदि मैलाथियान न हो, तो 0.15 फीसदी मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करना चाहिए. फलों की तोड़ाई से 1 हफ्ते पहले कोई छिड़काव नहीं करना चाहिए.

रोग नियंत्रण

उकटा रोग : सहजन के पौधों पर इस रोग का हमला अकसर होता है. इस की रोकथाम के लिए रोपाई के बाद 0.2 फीसदी कार्बंडाजिम के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

उपज : 1 वर्षीय किस्मों की छठी गांठ से ही फल बनने शुरू हो जाते हैं. इस की अनुमानित उपज 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है.

औषधीय इस्तेमाल

पाचनशक्ति : सहजन की जड़ के 10 मिलीलीटर रस में 2 ग्राम सोंठ डाल कर सुबहशाम पीने से पाचनशक्ति बेहतर होती है.

उदर शूल: सहजन की 100 ग्राम छाल में 5 ग्राम हींग डाल कर उस में 20 ग्राम सोंठ मिला कर जल के साथ पीस कर 1-1 ग्राम की गोलियां बना लें. इन में से 1-1 गोली दिन में 2-3 बार खाने से उदर शूल, अफारा व गैस की तकलीफ ठीक हो जाती है.

मंदाग्नि : सहजन की ताजी जड़, सरसों और अदरक को बराबर मात्रा में पीस कर 1-1 ग्राम की गोलियां  बना कर रख लें. दिन में 2-2 गोलियां सुबहशाम खाने से मंदाग्नि और तिल्ली में लाभ होता है.

दिमागी बुखार : सहजन की छाल को पानी में घिस कर इस की 2 बूंदें नाक में डालने से दिमागी बुखार ठीक हो जाता है.

सांस के रोग : सहजन की जड़ का रस और अदरक का रस मिला कर उस की 10-15 मिलीलीटर मात्रा रोजाना सुबहशाम पीने से सांस के रोग ठीक हो जाते हैं.

गठिया : सहजन की जड़ को अदरक व सरसों के साथ पीस कर लेप करने से गठिया ठीक हो जाता है. सहजन के गोंद का लेप करने से भी गठिया की सूजन ठीक हो जाती है.

चोट और मोच के दर्द : सहजन की पत्तियों को सरसों के तेल के साथ पीस कर चोट व मोच पर लेप कर के धूप में बैठने से उन के दर्द ठीक हो जाते हैं.

कान के नीचे की सूजन : सहजन की छाल और राई को पीस कर लेप करने से कान के नीचे की सूजन ठीक हो जाती है.

घुटनों का पुराना दर्द : सहजन के पत्तों में बराबर मात्रा में सरसों का तेल मिला कर उसे पीस कर कुनकुना कर के लेप करने से घुटनों का पुराना दर्द ठीक हो जाता है.

वात की तकलीफ : सहजन के पत्तों को पानी के साथ पीस कर कुनकुना कर के लेप करने से वात की तकलीफ ठीक हो जाती है.

यकृत कैंसर : सहजन की 20 ग्राम छाल का काढ़ा बना कर, आरोग्य वर्धिनी 2 गोलियों के साथ दिन में 3 बार इस्तेमाल करने से यकृत कैंसर में फायदा होता है.

दाद : सहजन की जड़ की छाल पानी में घिस कर लेप करने से दाद ठीक हो जाता है.

बुखार : सहजन की 20 ग्राम ताजी जड़ को 100 मिलीलीटर पानी में उबाल कर पीने से बुखार ठीक हो जाता है.

स्नायु (नाड़ी) रोग : सहजन की जड़ की छाल को पीस कर लेप करने से स्नायु रोग ठीक हो जाता है.

सिर दर्द : सहजन की जड़ के रस में बराबर मात्रा में गुड़ मिला कर 1-1 बूंद नाक में डालने से सिर दर्द ठीक हो जाता है.

आंखों के रोग : सहजन के पत्तों के रस में बराबर मात्रा में शहद मिला कर उस की 2-2 बूंदें आंखों में डालने से आंखों के रोगों में लाभ होता है.

दांतों का सड़ना : सहजन की पत्तियों को मुंह में रखने से दांतों का सड़ना रुक जाता है.

कुष्ठ रोग : सहजन की फलियों की सब्जी खाने से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता है.

कुत्ते के काटने पर : सहजन की पत्तियों, लहसुन, हलदी, नमक और कालीमिर्च को बराबर मात्रा में ले कर पीसें. फिर उसे कुत्ते के काटने वाली जगह पर लगाएं. इस से काफी फायदा होता है.

वीर्य में इजाफा : सहजन के फूलों को दूध में उबाल कर पीने से वीर्य में इजाफा होता है.

गठिया बेसन भुजिया चटपटी मसालेदार

बेसन से बनी गठिया गुजराती नमकीन है. जब इसे बेसन के सेव के साथ मिला दिया जाता है, तो यह बहुत स्वादिष्ठ हो जाती है.

कई जगहों पर गठिया नमकीन का इस्तेमाल चाट बनाने में भी किया जाता है. गठिया नमकीन पहले गुजरात में ही बनती थी. अब यह राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में भी बनने लगी है.

मध्य प्रदेश का इंदौर तरहतरह की नमकीनों के लिए मशहूर है. गठिया नमकीन यहां सब से ज्यादा तैयार होने वाली नमकीन है. गुजराती गठिया ज्यादा मसालेदार नहीं होती. यह खाने में मुलायम होती है. राजस्थान में तैयार होने वाली गठिया नमकीन तीखी और मसालेदार होती है.

बड़ी कंपनियों के अलावा अब नमकीन का छोटा कारोबार करने वाले भी गठिया नमकीन बनाने लगे हैं. गठिया नमकीन बनाने वालों का कहना है कि यह खराब नहीं होती. ऐसे में इसे बनाने और बेचने का काम सरल होता है. नमकीन का कारोबार करने वाले दिनेश कुमार कहते हैं, ‘गठिया और बेसन भुजिया को एकसाथ मिलाने से इन का जायका बढ़ जाता है.

गठिया भुजिया बनाने का तरीका

सामग्री : आधा किलो बेसन, 1 चम्मच अजवायन, आधा चम्मच लाल मिर्च पाउडर, आधा चम्मच बेकिंग सोडा, 100 ग्राम तेल, स्वादानुदार नमक, 2 कप तेल तलने के लिए.

विधि : सब से पहले बेसन को छान लें. उस में सोडा, अजवायन, लालमिर्च पाउडर और नमक डाल कर मिलाएं. फिर बेसन में थोड़ा तेल डाल कर दोनों हाथों से रगड़ कर मिलाएं. इस के बाद बेसन में थोड़ाथोड़ा पानी डाल कर गूंध लें. बेसन गूंधते वक्त खयाल रखें कि वह न ज्यादा सख्त रहे, न ही बहुत नरम हो. फिर हाथों में तेल लगा कर गुंधे हुए बेसन पर लगाएं और उसे कुछ देर के लिए ढक कर रख दें. अब गठिया तलने के लिए गैस पर कड़ाही में तेल गरम करें. बेसन को 2 हिस्सों में बांट कर लंबा कर लें. अब इसे नमकीन बनाने वाली मशीन में डाल कर बड़े छेद वाला सांचा इस्तेमाल करें. गैस की आंच को मध्यम करें और मशीन को दबाते हुए तेल में गठिया के लच्छे डाल कर तलें.

गठिया को सुनहरा होने तक तलें. अब प्लेट में टिश्यू पेपर लगाएं और उस पर तले हुए गठिया निकाल लें. इसी तरह बचे हुए बेसन से बाकी के गठिया बनाएं. तलने के बाद लच्छे छोटे टुकड़ों में तोड़ लें. इसी तरह से बेसन की भुजिया भी बनती है. गठिया और बेसन की भुजिया में यह अंतर होता है कि दोनों को बनाने के लिए अलगअलग आकार की छेद वाली जाली मशीन में लगानी होती है. गठिया के लिए बड़े छेद वाली जाली का इस्तेमाल होता है, जबकि भुजिया बनाने के लिए महीन छेद वाली जाली का इस्तेमाल किया जाता है. गठिया और बेसन की भुजिया को एकसाथ मिलाने से नमकीन की अलग किस्म तैयार हो जाती है.

गठिया चाट

इंदौर की खास नमकीन डिश है गठिया चाट. इसे खा कर मुंह का स्वाद सुधर जाता है. इस डिश को बनाने में बहुत कम समय लगता है.

विधि : गठिया चाट बनाने के लिए मोटे गठियों को एक बर्तन में डालें. अब इस में थोड़ी सी पिसी चीनी डालें और स्वाद के अनुसार कालानमक भी डाल दें. फिर इस में नीबू का रस डालें और इन सभी को अच्छी तरह मिलाएं. इस मिश्रण को सर्विंग प्लेट में रख कर उस पर लंबे कटे प्याज और टमाटर डालें. एक बार फिर से नीबू निचोड़ दें. इस पर चटपटा चाट मसाला डालें. अंत में धनिया बुरक कर चटपटी गठिया चाट पेश करें.

गाजर (Carrot) की खेती और बीज उत्पादन

गाजर का जड़ वाली सब्जियों में खास स्थान है. इसे देशभर में उगाया जाता है. उत्तर प्रदेश, असम, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब व हरियाणा प्रमुख गाजर उत्पादक राज्य हैं.

किस्में : गाजर की किस्मों को 2 भागों में बांटा है, एशियन व यूरोपीय. एशियन किस्म सालाना होती है. इस का आकार व रंग अलग होता है. इस का ऊपरी भाग चौड़ा होता है, जो नीचे की ओर पतला होता जाता है. यह लाल, पीले, नारंगी व बैंगनी रंग की होती है. यह उच्च तापमान को सहन करने वाली किस्म है. यूरोपीय किस्म आकार में छोटी, चिकनी और समान रूप से मोटी होती है. इस का रंग नारंगी होता है.

एशियन : इस किस्म से अधिक उपज मिलती है. इन से हलुआ, अचार, मुरब्बा, सब्जी, सलाद आदि बनाए जाते हैं. इन्हें सुखा कर बेमौसमी फलों का मजा लिया जाता है. खास एशियन किस्मों के खास लक्षणों की जानकारी नीचे दी गई है :

पूसा केसर : यह एक संकर किस्म है, जो 90 से 110 दिनों में तैयार होती है. इसे अगस्त से अक्तूबर के शुरू में बोया जाता है. इस की जड़ें गहरे लाल रंग की होती हैं. इस का मध्य भाग छोटा और हलके लाल रंग का होता है. प्रति हेक्टेयर यह 250-300 क्विंटल तक उपज देती है.

पूसा मेघाली : यह किस्म 110 से 120 दिनों बाद तैयार होती है. इस की जड़ें और गूदा नारंगी रंग का होता है. यह अगस्तसितंबर में बोने के लिए सही किस्म है. प्रति हेक्टेयर यह 250-300 क्विंटल उपज देती है.

सेलेक्शन 223 : यह किस्म महज 60 दिनों में तैयार हो जाती है और खेत में 90 दिनों तक अच्छी तरह रहती है. इस की जड़ें 15 से 18 सेंटीमीटर लंबी, नारंगी और खाने में स्वादिष्ठ होती हैं. इस प्रजाति की बोआई देर से की जा सकती है. इस की औसतन उपज 200 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है.

गाजर नंबर 29 : यह एक अगेती किस्म है. इस की जड़ें लाल और लंबी बढ़ने वाली होती हैं. इस का बीज मैदानी क्षेत्रों में आसानी से तैयार किया जाता है. इस प्रजाति की औसतन उपज 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

गाजर (Carrot)

यूरोपीय किस्में

पूसा यमदग्नि : यह अधिक उपज देने वाली किस्म है. यह किस्म 86 से 130 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें 15-20 सेंटीमीटर लंबी, हलकी, केसरिया रंग की आधी ठूंठ के आकार की होती हैं. यह किस्म तेजी से बढ़ती है. इस में कैरोटीन अधिक मात्रा में पाया जाता है. इस का गूदा केसरिया रंग का अच्छी खुशबू वाला कोमल और स्वादिष्ठ होता है. पूसा नयनज्योति भी एक अच्छी किस्म है.

नैनटिस : इस किस्म का ऊपरी भाग छोटा और हरी पत्तियों वाला होता है. इस की जड़ें 12 से 15 सेंटीमीटर लंबी, बेलनाकार और नारंगी रंग की होती हैं. फसल 90 से 110 दिनों में तैयार होती है. खाने में यह बेहद लजीज होती है और प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल तक उपज देती है. मध्य अक्तूबर से दिसंबर तक इस की बोआई की जाती है.

चैंटेन : यह किस्म 100 से 120 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें मोटी और गहरे लाल रंग की होती हैं. इस किस्म का बीज मैदानी क्षेत्रों में तैयार किया जाता है. प्रति हेक्टेयर यह 150 क्विंटल तक उपज देती है. इस किस्म को मध्य अक्तूबर से दिसंबर के शुरू तक बोया जा सकता है.

जैनो : यह किस्म 115 से 120 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें करीब 15 सेंटीमीटर लंबी होती हैं. तमिलनाडु का नीलगिरि क्षेत्र इस किस्म को उगाने के लिए सही है.

इंप्रेटर : इस किस्म को संकरण से तैयार किया जाता है. यह मध्य से देर अवधि वाली किस्म है. इस का गूदा नारंगी रंग का होता है. यह अधिक उपज देने वाली किस्म है.

जलवायु : वैसे तो गाजर ठंडी जलवायु की फसल है, लेकिन इस की कुछ किस्में अधिक तापमान को भी सहन कर लेती हैं. जड़ों के रंग का विकास और उन की बढ़वार पर तापमान का प्रभाव पड़ता है.  10-15 डिगरी सेल्सियस तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है. लेकिन यूरोपीय किस्मों के लिए 4 से 6 हफ्ते तक 4.8 से 10 डिगरी सेल्सियस तापमान  होना चाहिए .

जमीन : गाजर के उत्पादन के लिए उचित जल निकास वाली गहरी, बलुई दोमट जमीन अच्छी मानी गई है. जमीन का पीएच मान साढे़ 6 होना चाहिए. अधिक क्षारीय या अधिक अम्लीय मिट्टी इस के सफल उत्पादन में बाधक मानी जाती है.

खेत की तैयारी : गाजर की अधिक उपज लेने के लिए खेत की तैयारी होना जरूरी है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. इस के बाद 2-3 बार कल्टीवेटर या हैरो से जुताई करें. जुताई के बाद पाटा चलाएं.

खाद व उर्वरक : गाजर को आमतौर पर कम उपजाऊ व हलकी मिट्टी में उगाया जाता है. लिहाजा, खाद और उर्वरकों के इस्तेमाल से इस पर अच्छा प्रभाव पड़ता है. मिट्टी की जांच के बाद इन का इस्तेमाल करना फायदेमंद होता है. फसल को 25-30 टन गोबर की खाद के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 45 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देनी चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की आखिरी जुताई के समय खेत में मिला कर  पाटा चलाएं. उस के बाद बोआई करें. नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा का बोआई के 40-45 दिनों बाद छिड़काव करें, जिस से पैदावार पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा.

बीजों की मात्रा : प्रति हेक्टेयर 5-6 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. फसल को फफूंदी जनित रोगों से बचाने के लिए बीजों को बोने से पहले कार्बेंडाजिम 3 ग्राम पाउडर प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर उस से उपचारित कर के बोना चाहिए. बीज को जल्दी अंकुरण के लिए 12 से 24 घंटे पानी में भिगो कर बोना चाहिए.

बोने का समय : गाजर की बोआई का समय इस बात पर निर्भर करता है कि उस की कौन सी किस्म उगानी है. उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में एशियाई किस्मों को अगस्त के आखिरी सप्ताह से अक्तूबर के पहले सप्ताह तक बोते हैं, जबकि यूरोपीय किस्मों की बोआई नवंबर में की जाती है. पर्वतीय इलाकों में बोआई मार्च से जून तक की जाती है. दक्षिण और मध्य भारत में बोआई जनवरीफरवरी, जूनजुलाई और अक्तूबरनवंबर में की जाती है.

बोने की विधि : गाजर की बोआई समतल क्यारियों व मेंड़ों पर की जाती है. इस की ज्यादाउपज लेने के लिए इसे मेंड़ों पर उगाना ठीक रहता है. लाइनों और पौधों की आपसी दूरी 45×7.5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज को 1.5 सेंटीमीटर से अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए. गाजर की लगातार फसल लेने के लिए 10-15 दिनों बाद बोआई करनी चाहिए. गाजर का अंकुरण धीमी गति से होता है. अकसर 10-20 दिनों बाद अंकुरण होता है.

सिंचाई और जल निकास : बोआई के बाद मेंड़ों को तब तक नम रखना जरूरी है, जब तक कि बीजों का अंकुरण न हो जाए. इस के बाद 8-10 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. कम नमी के कारण उपज कम मिलती है, जबकि अधिक नमी से उपज में भारी कमी हो सकती है. लिहाजा, गाजर की सिंचाई पत्तियों के मुरझाने से पहले करनी चाहिए.

जल प्रबंधन पर दें ध्यान

सिंचाई करते समय यह ध्यान रहे कि सिंचाई पौधे में की जा रही है, न कि जमीन में. इस में सिंचाई की आधुनिक विधियां इस्तेमाल करें. करीब 3 दशकों में सिंचाई की सूक्ष्म प्रणाली से फसल के उत्पादन में पाया गया है कि औसतन अन्य पारंपरिक सिंचाई विधियों की तुलना में इस के द्वारा 50 से 60 फीसदी जल बचाया जा सकता है.

खेत में खरपतवार भी कम आते हैं. जिस तरह ड्रिपरों से बूंदबूंद जल दिया जाता है, उसी प्रकार रासायनिक उर्वरकों को भी सिंचाई में फर्टिलाइजर इंजेक्टर की मदद से फसलों को दिया जा सकता है.

ऐसी व्यवस्था के तहत उर्वरकों को कम मात्रा में कम अंतराल रख कर जल्दीजल्दी सिंचाई के साथ दिया जा सकता है.

खरपतवार नियंत्रण : गाजर की फसल के साथ उगे खरपतवार उस की बढ़वार व उपज पर खराब असर डालते हैं. लिहाजा, उन की रोकथाम समय पर करना जरूरी है. इस के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई करें. इस दौरान घने पौधों को उखाड़ दें, ताकि पौधों का विकास व बढ़वार अच्छी तरह हो सके. खरपतवारों की रोकथाम के लिए पेंडामेथलीन नामक खरपतवारनाशी की 3.3 लीटर मात्रा 800 से 1,000 लीटर पानी में घोल कर अंकुरण से पहले छिड़काव करें.

गाजर (Carrot)

कीड़ों की रोकथाम

पत्ती फुदका : इस कीट के वयस्क और निम्फ  दोनों ही पौधों का रस चूसते हैं. इस वजह से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर खराब असर पड़ता है. इस कीड़े की रोकथाम के लिए 0.05 फीसदी मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करना चाहिए.

कट वर्म : यह कीट रात के समय पौधों को आधार से काट देता है. इस की रोकथाम के लिए 0.1 फीसदी क्लोरोपाइरीफास के घोल से जमीन को अच्छी तरह भिगो दें.

गाजर की सुरसुरी : इस कीट के सफेद टांगरहित शिशु गाजर के ऊपरी हिस्से में सुरंग बना कर नुकसान पहुंचाते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 1 मिलीलीटर या डाइमेथोएट 30 ईसी 2 मिलीलीटर का छिड़काव करें.

जंग मक्खी : इस कीट के शिशु पौधों की जड़ों में सुरंग बनाते हैं, जिस से पौधे मर भी सकते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए क्लोरोपायरीफास 20 ईसी का 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से हलकी सिंचाई के साथ इस्तेमाल करें.