आलू के पापड़ (Potato Papad) बनाएं और बेचें

आलू देश की खास पैदावार है, लेकिन जिस दौरान आलू क फसल तैयार होती है, तब उस की कीमत काफी कम रहती है, जिस से किसानों को अकसर आलू की खेती में नुकसान उठाना पड़ता है.

ऐसे में यदि आलू के पापड़ बनाएं ता यह मुनाफे का सौदा होगा. पैदावार के समय ही आलू खरीद कर उन के पापड़ बनाए जा सकते हैं. इसे गृह उद्योग की तरह चलाया जा सकता है. ऐसे में आलू के पापड़ किसानों को अच्छा मुनाफा दे सकते हैं. पापड़ बनाने के लिए आजकल बड़ी मशीनें आने लगी हैं. शुरुआत में तो बड़ी मशीनों के बिना भी पापड़ तैयार हो सकते हैं. यह व्यवसाय ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार का साधन बन सकता है. सूखे पापड़ सही तरह से पैक कर के लंबे समय तक रखें जा सकते हैं.

देश में होली के मौके पर पापड़ों की अच्छी बिक्री होती है. पापड़ का इस्तेमाल चाय के साथ नमकीन के रूप में भी होता है. पापड़ बना कर बेचना किसानों के लिए रोजगार का अच्छा साधन है. इस से आलू किसानों को अपने आलू सड़क पर फेंकने पर मजबूर नहीं होना पड़ेगा.

पापड़ का सही रखरखाव और उसे बेचना ही सब से मुख्य काम है. कानपुर की नलिनी शर्मा कहती हैं, ‘आलू के पापड़ बनाना काफी सरल है. ये जल्दी खराब नहीं होते. इन्हें सफाई से सुखाना चाहिए. इस के बाद सब से अहम है इन की पैकिंग.

आलू के पापड़ बनाने की विधि

सामग्री : आलू बड़े 1 किलोग्राम, नमक स्वादानुसार, लालमिर्च आधा छोटा चम्मच, तेल 2 बड़े चम्मच.

विधि : पापड़ बनाने के लिए आलुओं को धो कर कुकर में डालें और 2 कप पानी डाल कर उबालने के लिए रखें. 1 सीटी आने के बाद धीमी आंच पर 3-4 मिनट उबलने दें. फिर कुकर को आंच से उतार लें. ठंउे होने पर आलुओं को छीलें और एकदम बारीक कद्दूकस कर लें. इस में नमक व लालमिर्च डालें और आटे की तरह गूंधें.

हाथ पर तेल लगा कर आलू की पिट्ठी का थोड़ा हिस्सा लें और एक ही आकार के गोले बनाएं. 1 किलोग्राम आलू से 20-22 गोले बन जाते हैं. आलू के पापउ़ बेलने और सुखाने के लिए बड़ी और थोड़ी सी मोटी पारदर्शक पौलीथिन शीट की जरूरत होती है. इस शीट को धूप में फर्श पर एक चादर बिछा कर उस के ऊपर बिछा दें. शीट को रोअी बनाने वाले चकले पर इस तरह रखें कि आधा भाग चकले पर हो और आधा चकले के बाहर.

पहली बार पौलीथिन शीट के ऊपर थोड़ा तेल लगा लें. आलू का एक गोला उठाएं. दोनों ओर थोड़ा सा तेल लगा दें. चकले के ऊपर रखी पौलीथिन शीट के ऊपर आलू के गोले को रखें और शीट के दूसरे हिस्से से ढक कर हथेली से पौलीथिन शीट को आलू के गोले के ऊपर से दबा कर चपटा कर दें. शीट को घुमाते हुए बेलन से आलू के गोले को बेलिए पापड़ को चपाती के जितना पतला बेलिए. ऊंगली से भी पापड़ को गोल आकार दिया जा सकता है.

तैयार पापड़ के ऊपर से पौलीथिन शीट हटाएं. पापड़ लगी पौलीथिन शीट का, पापड़ की तरफ से बड़ी पौलीथिन शीट पर रखें. पापड़ लगी पौलीथिन शीट को हाथ से हलका दबा कर पापड़ को और अच्छी तरह चिपका दें. पापड़ की दूसरी शीट हाथ से पकड़ कर खींच लें. पापड़ बड़ी पौलीथिन शीट पर चिपक जाता है. सारे पापड़ एकएक कर के इसी तरह बड़ी पौलीथिन शीट पर डाल दें और धूप में सुखाने के लिए रखें दें. 3-4 घंटे बाद जब पापड़ हलके से गीले रहें, तब उन्हें पलट दें. पापड़ पूरी तरह सूखने पर इकट्ठे कर लें.

बस्तर से निकला ‘ब्लैक गोल्ड’ : छत्तीसगढ़ को मिला खास तोहफा

देश के इतिहास में अब एक और नया अध्याय जुड़ गया है. नक्सली हिंसा के लिए कुख्यात बस्तर अब अपनी एक नई पहचान बना रहा है. छत्तीसगढ़ का यह इलाका अब “हर्बल और स्पाइस बास्केट” के रूप में दुनिया का ध्यान अपनी ओर खीँच रहा है. इस बदलाव के नायक हैं किसान वैज्ञानिक डा. राजाराम त्रिपाठी, जिन्होंने काली मिर्च की एक अद्भुत किस्म विकसित कर के पूरे देश को गौरवांवित किया है.

कोंडागांव के रहने वाले डा. राजाराम त्रिपाठी ने सालों की कड़ी मेहनत और शोध से काली मिर्च की ‘मां दंतेश्वरी काली मिर्च-16 (MDBP-16) उन्नत किस्म विकसित की है, जो कम बारिश वाले क्षेत्रों में भी औसत से 4 गुना अधिक उत्पादन देती है. इस प्रजाति को हाल ही में भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान (आईआईएसआर), कोझिकोड, केरल द्वारा मान्यता दी गई है.

इसे भारत सरकार के प्लांट वैरायटी रजिस्ट्रार द्वारा नई दिल्ली में भी पंजीकृत किया गया है. यह काली मिर्च की एकलौती उन्नत किस्म है, जिसे दक्षिणी राज्यों से अलग हट कर छत्तीसगढ़ के बस्तर में सफलतापूर्वक विकसित किया. साथ ही, इसे भारत सरकार ने नई किस्म के रूप में पंजीकरण कर मान्यता भी दे दी है. यह बस्तर और छत्तीसगढ़ के लिए एक बहुत बड़ी गौरवशाली उपलब्धि है.

सपने को सच कर दिया : 100 साल तक उत्पादन देने वाली काली मिर्च

डा. राजाराम त्रिपाठी की इस काली मिर्च को विकसित करने में 30 साल का समय लगा. यह लतावर्गीय पौधा है, जो सागौन, बरगद, पीपल, आम, महुआ और इमली जैसे पेड़ों पर चढ़ा कर उगाई जा सकती है. इन पेड़ों पर उगाई गई काली मिर्च न केवल 4 गुना अधिक उत्पादन देती है, बल्कि क्वालिटी में भी देश की दूसरी प्रजातियों से कहीं बेहतर है. इसलिए बाजार में भी इसे हाथोंहाथ लिया जा रहा है और दूसरी प्रजाति की काली मिर्च की तुलना में इस के दाम भी ज्यादा मिलते हैं.

उन्होंने आगे बताया कि इस किस्म ने सब से बेहतरीन परिणाम आस्ट्रेलियन टीक (सागौन) पर चढ़ कर दिए हैं. खास बात यह है कि यह प्रजाति कम सिंचाई और सूखे क्षेत्रों में भी बिना विशेष देखभाल के पनप सकती है.

मसालों की दुनिया में नई पहचान
कभी हिंसा और संघर्ष से प्रभावित बस्तर अब वैश्विक बाजार में मसालों का केंद्र बनने की ओर अग्रसर है. डा. राजाराम त्रिपाठी का यह भी कहना है कि आज उन की काली मिर्च की किस्म देश के 16 राज्यों और बस्तर के 20 गांवों में उगाई जा रही है. लेकिन सरकारी मान्यता मिलने के बाद इस खेती में और तेजी आने की उम्मीद है.

उन्होंने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि भारत अपने मसालों के लिए सदियों तक ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था. अगर सरकार और लोग मिल कर मसालों और जड़ीबूटियों पर ध्यान दें, तो भारत फिर से वह गौरव हासिल कर सकता है.

प्रधानमंत्री से मिलेंगे डा. राजाराम त्रिपाठी

अपनी सफलता से उत्साहित डा. राजाराम त्रिपाठी जल्दी ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल कर इस विषय पर मार्गदर्शन चाहते हैं. उन का सपना है कि छत्तीसगढ़ और बस्तर की इस नई पहचान को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती मिले.

नए साल की शुरुआत में बस्तर से आई यह खबर भारत के हर किसान और कृषि वैज्ञानिक के लिए प्रेरणा है. यह सिर्फ एक काली मिर्च की कहानी नहीं, बल्कि संघर्ष, नवाचार और आत्मनिर्भरता की मिसाल है. 2025 का यह नया अध्याय भारतीय कृषि क्षेत्र को एक नई दिशा देने का वादा करता है.

चंबल महका गुलाब (Roses) की खुशबू से

गुलाब की खेती से यहां के किसानों को अच्छी आमदनी हो रही है और उन की मेहनत बंजर जमीन से सोना उगल रही है. इस से उन्हें एक साल में लाखों की आमदनी हो रही है. गुलाब के फूलों की बात करें तो कुछ साल पहले यहां अच्छे काम के लिए दूसरे इलाकों से फूल मंगाए जाते थे, लेकिन अब मुरैना गुलाब के फूलों की मंडी बन रहा है.

यहां के किसान अब वैज्ञानिक तरीके से गुलाब की खेती कर रहे हैं. इस काम में कृषि विज्ञान केंद्र व कृषि विभाग की मदद ले कर तकरीबन 55 किसानों ने 50 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर अच्छी किस्म की गुलाब की खेती की है. किसानों की इस पहल से आमदनी के साथ कई लोगों को रोजगार भी मिला है.

बीहड़ ऐसा इलाका है जहां पानी की कमी रहती है जबकि गुलाब की खेती में पानी की जरूरत पड़ती है. यहां दूसरी फसलों को तो नीलगाय के साथ अन्य जानवर नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन गुलाब में कांटे होने की वजह से उसे वे बरबाद नहीं करते. इस के अलावा यहां का वातावरण भी गुलाब की खेती के लिए माकूल है. किसान सुशील राजौरिया बताते हैं कि एक बीघा में उगाए गए गुलाब के फूलों से तकरीबन 12 सौ लीटर गुलाबजल बनता है, जिस की कीमत 100 रुपए लीटर से कहीं ज्यादा है और यह आसानी से बिक जाता है.

गुलाब देखने में जितना खूबसूरत लगता है, उतनी ही उस की खुशबू भी लोगों को लुभाती है. गुलाब के फूल गुलाबजल के अलावा गुलाबरूह भी निकलता है. गुलाबजल जहां 1 बीघा में 12 सौ लीटर निकलता है, वहीं गुलाबरूह मुश्किल से 180 ग्राम निकलता है. गुलाबरूह की मांग लखनऊ के साथ ही इत्र के शहर कन्नौज में काफी है. जो 8 से 10 लाख रुपए प्रति किलोग्राम की कीमत से बिकता है. इसलिए वे अच्छे किस्म के पौधों की रोपाई करने लगे हैं. एक बार लगे पौधे 14 से 15 साल तक फूल देते हैं.

खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming) और सरकार की अनदेखी

जब कभी दाल, तेल, सब्जी, फल, मांस व अंडे आदि की कमी महसूस होती है, तो भारीभरकम आयात कर के उन की कमी पूरी की जाती है, जबकि हमारे किसान इन चीजों की कमी को पूरा कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें फसल की उत्पादन लागत से थोड़ा फायदा मिलने की उम्मीद हो.

देश में तेजी से नए शहरों का विकास हो रहा है, साथ ही ग्रामीण जनता भी शहरों की तरफ भाग रही है. देश की आजादी के समय ग्रामीण आबादी तकरीबन 85 फीसदी थी, जो कि घट कर आज 65 फीसदी तक रह गई है.

अब भोजन की थाली में पोषण का खयाल रखा जाने लगा है. आज भोजन पेट भरने के साथ ही शारीरिक तंदुरुस्ती का भी महत्त्वपूर्ण साधन है. तंदुरुस्त शरीर पाने के लिए दूध, फल, सब्जी, तेल, मांस व अंडे की मांग में काफी इजाफा हुआ है. आएदिन इन चीजों की पूर्ति में कमी के कारण इन के दामों में तेजी देखने को मिलती है. इन की कीमत में आई तेजी को रोकने के लिए सरकार आयात का सहारा लेती है.

खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming)

यदि सरकार इन चीजों को बेचने की बेहतर सुविधाएं मुहैया कराए, तो देश के किसान इन का भरपूर उत्पादन करेंगे.

अगर पिछले 20 साल के आंकड़े देखें तो मक्का, फल, दूध, मांस, अंडा, मछली व तेल आदि की मांग में चौगुनी वृद्धि देखने को मिली है, जबकि गेहूं व दाल आदि की मांग में मामूली बढ़ोतरी देखी गई है.

यदि कुछ चुनिंदा फसलों को देखें तो उन में से मक्का व सोयाबीन की मांग में साल दर साल तकरीबन 12 से 15 फीसदी का इजाफा हो रहा है, क्योंकि पोल्ट्री उद्योग के साथ ही कई सौफ्ट ड्रिंकों में भी इन दोनों फसलों का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. इसी तरह पोल्ट्री उद्योग की मांग में भी 12 से 15 फीसदी का साल दर साल जबरदस्त इजाफा देखने को मिल रहा है. आज देश में पोल्ट्री उद्योग और तकरीबन 1 करोड़ 60 लाख लोगों को रोजगार मुहैया करा रहा है.

जब बेमौसम बारिश या सूखे के कारण फसलों के उत्पादन पर असर पड़ता है, तो उन फसलों के दामों में अप्रत्याशित तेजी देखने को मिलती है, क्योंकि आज भी देश में भंडारण के लिए अच्छे गोदामों का अभाव है.

सरकारी स्तर पर यदि ढांचागत क्षेत्र में कुछ बदलाव किए जाएं, तो सफलता मिल सकती है.

गोदाम और कोल्ड चेन का निर्माण : देश में आज भी गोदामों की बहुत कमी है. गेहूं, चावल और चीनी के सही भंडारण के लिए ही गोदामों की कमी है, तो इस स्थिति में मक्का, बाजरा और सोयाबीन के लिए गोदामों की उपलब्धता दूर की बात है.

अगर सरकार सिर्फ गोदामों की व्यवस्था ही सही कर दे तो किसान इस बढ़ती मांग को पूरा कर सकते हैं, जिस में उन को भी भारी लाभ होगा.

खेतीकिसानी की दिक्कतें (Problems of Farming)जैसा कि बताया जा चुका है कि देश में गोदामों की काफी कमी है. कमोबेश वही स्थिति कोल्ड स्टोरेज की भी है. तकरीबन 40 फीसदी सब्जियां कोल्ड स्टोरेज के अभाव में खुले में ही सड़ जाती हैं.

प्रदेश सहकारी समिति के गोदामों का इस्तेमाल सिर्फ उर्वरकों के स्टोरेज के लिए ही किया जाता है, जबकि आधे से ज्यादा गोदामों की हालत जर्जर और दयनीय है, जबकि केंद्रीय भंडारण निगम व भारतीय खाद्य निगम सिर्फ सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गेहूं, चावल और चीनी का भंडारण करते हैं. किसानों के माल के भंडारण की जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश में पूरी तरह राज्य भंडारण निगम के पास है, जिस की कूवत जरूरत के मुकाबले सिर्फ एकचौथाई ही है. सरकार को किसानों व उपभोक्ताओं की भलाई के लिए प्राइवेट सेक्टर की मदद करनी चाहिए ताकि इस क्षेत्र में अधिक से अधिक लोग आकर्षित हो सकें.

अब सारा दारोमदार प्राइवेट सेक्टर के हाथ में है कि वह अधिक से अधिक भंडारण में निवेश करे, मगर सवाल यह उठता है कि वह अपना निवेश क्यों करे, जब तक उसे अपना निवेश सुरक्षित और कमाऊ न लगता हो.

इसलिए जरूरत है कि सरकार कुछ खास उपाय करे जैसे कि निवेश की गई रकम पर कम से कम 5 साल का ब्याज सरकार सब्सिडी के तौर पर दे, साथ ही साथ पहले 3 साल तक गोदाम में 50 फीसदी सरकारी माल रखने की गारंटी दे, जिस से सिर्फ 2 साल के अंदर ही कम से कम 10 लाख टन के गोदाम बन कर तैयार हो जाएं. यदि सरकार गोदामों का इंतजाम पक्का कर दे तो किसानों की आर्थिक तरक्की में बहुत बदलाव परिवर्तन देखने को मिलेगा.

लिली (Lily) से बढ़ती आमदनी

आकर्षक नजर आने वाले लिली के फूल लाल, पीला, गुलाबी, हलका लाल, सफेद व संतरी रंग के होते हैं. इन का इस्तेमाल खास कर गुलदस्ते बनाने के लिए किया जाता है. लिली के कटे हुए फूलों को अन्य फूलों की तुलना में ज्यादा समय तक संभाल कर रखा जा सकता है. लिली के पौधे की ऊंचाई 3 से 4 फुट तक होती है और 4-5 फूल प्रति पौधा आ जाते हैं. ठंडी जलवायु वाले इलाकों में लिली ज्यादा आसानी से उगाई जा सकती है. वैसे गरम जलवायु वाले क्षेत्रों में भी इस का उत्पादन किया जाता है.

लिली के पौधों पर ज्यादा तेज धूप का गंभीर असर होता है, अत: गरमी के मौसम में तेज धूप से बचाव के लिए पौधों के ऊपर जाली का इस्तेमाल करना चाहिए और पौधों को कम दूरी पर लगाना चाहिए. लिली की खेती के लिए सही तापमान 10 से 25 डिगरी सेंटीग्रेड सही रहता है.

लिली के फूल की बाजार में अच्छी मांग है, जिस से उस की कीमत भी अच्छी मिलती है. इस की खेती की तकनीक इस तरह है :

जमीन : लिली की खेती सभी तरह की मिट्टी में आसानी से की जा सकती है. लेकिन जिस मृदा का पीएच मान 6.0 से 7.0 हो वह लिली के लिए अच्छी मानी जाती है.

जमीन की तैयारी : जमीन की 3-4 बार जुताई करनी चाहिए और उस के बाद गोबर की अच्छी तरह सड़ी खाद प्रति एकड़ समान रूप से खेत में फैलाएं. खाद फैलाने के बाद एक बार जुताई कर के खाद को मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें फिर खेत समतल कर दें. इस के बाद 1 मीटर चौड़ी और 8-10 मीटर लंबी क्यारी बनाएं. यदि मिट्टी ज्यादा सख्त हो तो जुताई करने से पहले सिंचाई कर लें.

किस्में : लिली के 2 वर्ग हैं :

एशियाटिक लिली : इस की प्रमुख किस्में कोर्डिलिया, बीट्रीक्स, पेरिस, जेनेवा, लंदन, इलीट, लोट्स, अलास्का, फैस्टिवल, मोना, माउंटेन, वैरियंट, र्स्टलिंग स्टार, सोरबर्ट, यैलो जायंट और यैलो पीजेंट आदि मुख्य हैं.

ओरिएंटल लिली : इस की 2 प्रमुख किस्में हैं :

स्टार गैजर (सफेद) और स्टार गैजर (गुलाबी).

पौध लगाना : लिली की पौध कंद द्वारा लगाई जाती है. कंद अलगअलग व्यास के होते हैं. 10-12 सेंटीमीटर व्यास वाला कंद अच्छा माना जाता है, लेकिन रोगग्रस्त कंदों को पौध लगाने के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

कंद लगाने का समय : कंदों को मैदानी क्षेत्रों में अक्तूबरनवंबर में लगाते हैं और पहाड़ी क्षेत्रों में इन्हें अप्रैलमई में लगाते हैं.

कंद लगाने के तरीके : सर्दी के मौसम में कंदों को 7-8 सेंटीमीटर गहराई पर और गरमी के मौसम में 8-10 सेंटीमीटर गहराई पर लगाना चाहिए. एक कंद की दूसरे कंद से दूरी 15-20 सेंटीमीटर और लाइन से लाइन की दूरी 25-30 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. कंद लगाते समय मिट्टी में सही नमी रखनी चाहिए.

सिंचाई : फसल को जरूरत के मुताबिक पानी देना चाहिए. वैसे सर्दी के मौसम में 10-12 दिन और गरमी के मौसम में 5-6 दिन के बीच सिंचाई करनी चाहिए.

सिंचाई के लिए अच्छी गुणवत्ता वाला पानी इस्तेमाल करना चाहिए.

लिली (Lily)

खाद और उर्वरक : अच्छे फूलों की पैदावार के लिए कंद लगाने के 20-22 दिन बाद 40 किलोग्राम सीएएन खाद प्रति एकड़ की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए. पौधे की अच्छी बढ़त के लिए कंद लगाने के 40-45 दिन बाद 40 किलोग्राम नाइट्रोजन उर्वरक प्रति एकड़ की दर से डालना चाहिए. खाद और उर्वरक डालने के बाद सिंचाई जरूर करें.

निराईगुड़ाई व खरपतवार की रोकथाम : लिली की फसल में खरपतवार भी काफी उगते हैं. इन को जड़ से उखाड़ने के लिए निराईगुड़ाई करनी चाहिए. निराईगुड़ाई से जमीन में वायु संचार बढ़ जाता है, जिस से पौधों की बढ़त अच्छी होती है.

पौधों को सहारा देना : जब पौधों की लंबाई ज्यादा हो जाए और वे झुकने लगें तो उन के पास सहारे के लिए एक बांस या लकड़ी लगा दें व पौधों को इन से बांध दें ताकि पौधे सीधे खड़े रह सकें.

छाया के लिए जाल : ज्यादा तेज धूप से लिली के पौधों पर गहरा असर पड़ता है. अत: इन्हें तेज धूप से बचाने के लिए 50 फीसदी छाया के लिए जाल लगाना चाहिए ताकि पौधों को प्रकाश और सही छाया मिल सके और पौधों की बढ़त भी अच्छी हो सके.

फूलों की डंडियों की कटाई : फूलों की डंडियां तब काटें जब कली खिलनी शुरू हो जाए. फूलों की डंडियों को जमीन की सतह से तकरीबन 6 इंच ऊपर से काटना चाहिए. साथ ही डंडी के निचले हिस्से की कुछ पत्तियां भी काट दें. उस के बाद पैकिंग कर बाजार में भेजना चाहिए.

कंद निकालना : फूल की डंडियों को काटने के बाद जब पौधा पीला पड़ कर सूख जाए तब इन के कंदों की खुदाई कर निकालना चाहिए. कंदों की खुदाई के दौरान सावधानी बरतें. कंदों को कोई नुकसान न पहुंचे. कंदों को निकालने के बाद छाया में रखना चाहिए.

लिली (Lily)

कंदों का भंडारण : लिली के कंदों को 26 फीसदी केप्टान रसायन से उपचारित करने के बाद शीत भंडारगृह में रखें. शीत भंडारगृह में 2.0 डिगरी सेंटीग्रेड से 3.0 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान और 70-75 फीसदी नमी रहनी चाहिए. कंदों के नीचे बालू डालना चाहिए. समयसमय पर कंदों को पलटते रहें अन्यथा नीचे के कंद खराब हो सकते हैं. इस दौरान देख लें कि कंद में कोई बीमारी तो नहीं लगी है. यदि कंद बीमारी से ग्रस्त हों तो उन्हें अलग कर भंडारगृह से बाहर फेंक दें. भंडारणगृह में कंद सूखने नहीं चाहिए.

आमदनी : 1 एकड़ खेत में लिली की खेती करने पर 2 से ढाई लाख रुपए तक की आमदनी हो सकती है.

विस्तृत जानकारी और वित्तीय सुविधा के लिए निम्न पते पर संपर्क करें:

* नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र.

* राज्य सरकार के उद्यान विभाग.

* पुष्प विज्ञान संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली-12

* राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड, प्लाट नंबर 85 इंस्टिट्यूशनल क्षेत्र, गुरुग्राम (हरियाणा) यहां से वित्तीय सुविधा अनुदान सहित मिलती है.

केला उत्पादन से आमदनी बढ़ाएं

हमारे देश में केला एक लोकप्रिय फल है. यह लाभदायक होता है और आसानी से ज्यादा पैदावार होने से किसानों में काफी लोकप्रिय है. देश में केले की सभी किस्मों में गुच्छे के निचले हिस्से के फलों का कमजोर होना सब से बड़ी समस्या है, पर इस का अभी तक कोई इलाज नहीं है. कार्बनिक, जैविक, रासायनिक खादों और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के छिड़काव के बावजूद इस समस्या से नजात नहीं मिल पाई है. दक्षिणपूर्वी देशों में गुच्छे के निचले आधे भाग को गुच्छा बनने के तुरंत बाद काट देते हैं, लेकिन भारत की जलवायु की वजह से यह संभव नहीं है.

भारत में (2013-14 के अनुसार) केले की खेती 802.6 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है. क्षेत्रफल के हिसाब से आम व नीबू के बाद केले का तीसरा स्थान है, जबकि 29724.6 हजार मीट्रिक टन (2013-14 के अनुसार) उत्पादन के साथ यह पहले स्थान पर है.

मिट्टी : केला सभी तरह की मिट्टी में उग जाता है, लेकिन व्यावसायिक रूप से खेती करने के लिए अच्छे जल निकास वाली गहरी दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच हो, फायदेमंद रहती है. ज्यादा रेतीली मिट्टी जो देर तक पोषक तत्त्वों को रोकने में असमर्थ रहती है और ज्यादा चिकनी मिट्टी जिस में पानी की कमी से दरारें पड़ जाती हैं, केले की खेती के लिए अच्छी नहीं होती हैं.

जलवायु : केला उष्ण जलवायु का पौधा है. गरम और नमी वाली जलवायु में इस की अच्छी पैदावार होती है. केले की खेती के लिए 20 से 35 डिगरी सेल्सियस तापमान अच्छा रहता है. 500 से 2000 मिलीमीटर वर्षा वाले इलाकों में इस की खेती की जा सकती है. केले को पाला और शुष्क तेज हवाओं से नुकसान होता है.

किस्में

ड्वार्फ कैवेंडिस (एएए) : यह सब से ज्यादा उगाई जाने वाली एक व्यावसायिक प्रजाति है. पौधे लगाने के 250-260 दिनों बाद इस में फूल आने शुरू हो जाते हैं. फूल आने के 110-115 दिनों बाद घार (फलों का गुच्छा) काटने लायक हो जाती है. इस तरह पौधे लगाने के 12-13 महीने बाद घार तैयार हो जाती है. फल 15 से 20 सेंटीमीटर लंबे और 3.0-3.5 सेंटीमीटर मोटे पीले व हरे रंग के होते हैं. घार का वजन 20 से 27 किलोग्राम तक होता है, जिस में औसतन 130 फल होते हैं.

यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है, लेकिन शीर्ष गुच्छा रोग के प्रति संवेदनशील होती है.

रोवस्टा (एएए) : इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. फल 12-13 महीने में पक कर तैयार हो जाते हैं. फल आकार में 20 से 25 सेंटीमीटर लंबे और 3-4 सेंटीमीटर मोटे होते हैं. घार का भार औसतन 25 से 30 किलोग्राम तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है और सिगाटोका रोग के प्रति संवेदनशील होती है.

रसथली (एएबी) : इस किस्म के फल आकार में बड़े तथा पकने पर सुनहरेपीले रंग के होते हैं. घार का भार 15 से 18 किलोग्राम तक होता है. फसल 13 से 15 महीने में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म में फल फटने की समस्या आती है.

पूवन (एएबी) : यह दक्षिण और उत्तरपूर्वी राज्यों में उगाई जाने वाली एक लोकप्रिय प्रजाति है. इस के पौधों की लंबाई ज्यादा होने से उन्हें सहारे की जरूरत नहीं होती है. पौधा लगाने के 12 से 14 महीने बाद घार काटने लायक हो जाती है. घार में मध्यम लंबाई वाले फल ऊपर की तरफ लगते हैं.

फल पकने के बाद पीले और स्वाद में हलका सा खट्टापन लिए मीठे होते हैं. फलों की भंडारण कूवत अच्छी है, इसलिए फल एक जगह से दूसरी जगह आसानी से भेजे जा सकते हैं. घार का औसत वजन 20 से 24 किलोग्राम तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है और स्ट्रीक विषाणु रोग से प्रभावित होती है.

नेंद्रेन (एएबी) : इस किस्म का इस्तेमाल मुख्य रूप से चिप्स और पाउडर बनाने के लिए किया जाता है. इसे सब्जी केला भी कहा जाता है. इस के फल लंबे, मोटी छाल वाले थोड़े मुड़े हुए होते हैं. फल पकने पर पीले हो जाते हैं. घार का भार 8 से 12 किलोग्राम तक होता है. हर घार में 30-35 फल होते हैं. इस की खेती केरल और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में की जाती है.

मांथन (एएबी) : इस किस्म के पौधे ऊंचे और मजबूत होते हैं. घार का भार 18 से 20 किलोग्राम होता है. प्रति घार औसतन 60-70 फल होते हैं. यह किस्म पनामा उकटा रोग से प्रभावित होती है, लेकिन पत्ती धब्बा और सूत्रकृमि रोगों की प्रतिरोधी होती है.

गें्रड नाइन (एएए) : इस किस्म के पौधों की ऊंचाई मध्यम और उत्पादकता ज्यादा होती है. फसल की अवधि 11-12 महीने की होती है. घार का भार 25 से 30 किलोग्राम होता है. सारे फल समान लंबाई के होते हैं.

कपूराबलि (एबीबी) : इस किस्म के पौधों की बढ़ोतरी काफी अच्छी होती है. घार का भार 25 से 35 किलोग्राम होता है. प्रति घार करीब 200 फल लगते हैं. फलों में मिठास और पेक्टिन की मात्रा दूसरी किस्मों के मुकाबले ज्यादा पाई जाती है. फलों की भंडारण क्षमता काफी अच्छी होती है. यह किस्म पनामा मिल्ट रोग और तना छेदक कीट के प्रति संवेदनशील और पत्ती धब्बा रोग की प्रतिरोधी होती है. यह तमिलनाडु और केरल की एक महत्त्वपूर्ण किस्म है.

संकर किस्में

एच 1 : इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं. घार का भार 14 से 16 किलोग्राम होता है. फल लंबे और पकने पर सुनहरेपीले होते हैं. इस किस्म से 3 साल के फसलचक्र में 4 बार फसलें ली जा सकती हैं.

एच 2 : इस के पौधे मध्यम ऊंचाई (2.13 मीटर से 2.44 मीटर) के होते हैं. फल छोटे, गसे हुए और गहरे हरे रंग के थोड़ा खट्टापन लिए हुए मीठी खुशबू वाले होते हैं.

को 1 : इस के फल में खास अम्लीय महक होती है. यह किस्म ज्यादा ऊंचाई वाले क्षेत्रों के लिए ज्यादा कारगर होती है.

एफएचआर 1 (गोल्ड फिंगर) : इस किस्म की घार का वजन 18 से 20 किलोग्राम होता है. यह किस्म सिगाटोका और फ्यूजेरियम बिल्ट के प्रति अवरोधी होती है.

केले की खेती मुख्य रूप से अंत: भूस्तारी से की जाती है. केले की जड़ों से 2 तरह के सकर निकलते हैं यानी तलवार सकर और जलीय सकर. व्यावसायिक नजरिए से तलवार सकर खेती के लिए सब से सही हैं. इन की पत्तियां तलवार की तरह पतली और ऊपर की तरफ उठी रहती हैं. 0.5 से 1 मीटर ऊंचे और 3-4 महीने पुराने तलवार सकर रोपाई के लिए सही होते हैं. सकर ऐसे पौधों से लेने चाहिए, जो अच्छे और पूरी तरह विकसित हों और किसी रोग से पीडि़त न हों.

वर्तमान दौर में केले की खेती शूट टोप कल्चर, इन विट्रो, ऊतक प्रवर्धन विधि से भी की जाती है. इस विधि से तैयार पौधे विषाणु रोग से बचे रहते हैं.

banana production

रोपाई का समय

रोपाई का सही समय जलवायु, प्रजाति के चयन और बाजार की मांग आदि पर निर्भर करता है. तमिलनाडु में ड्वार्फ कैवेंडिश और नेंद्रेन किस्मों को फरवरी से अप्रैल, जबकि पूवन और कपूरावली किस्मों को नवंबरदिसंबर में रोपा जाता है. महाराष्ट्र में साल में 2 बार यानी जूनजुलाई और सितंबरअक्तूबर में रोपाई की जाती है.

रोपाई की विधि : खेत को 2-3 बार कल्टीवेटर चला कर समतल कर लें. रोपाई के लिए 60×60×60 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे खोदें. हर गड्ढे में मिट्टी, रेत और गोबर की खाद 1:1:1 के अनुपात में भरें. सकर को गड्ढे के बीच में रोप कर उस के चारों तरफ मिट्टी को अच्छी तरह से दबाएं. पौधों की दूरी, किस्म, जमीन की उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है. सामान्य रूप से केले के पौधों की दूरी किस्मों के अनुसार सारणी में दिखाई गई है.

घनी रोपाई : घनी रोपाई विधि आर्थिक नजरीए से खास है. इस विधि में खरपतवारों की बढ़ोतरी कम होती है और तेज हवाओं से नुकसान कम होता है.

बौनी या मध्यम ऊंचाई वाली किस्मों जैसे कैवेंडिश, बसराई और रोबस्टा आदि घनी रोपाई के लिए सही होती हैं. रोबस्टा और ग्रेंड नाइन को 1.2×1.2 मीटर की दूरी पर रोप कर क्रमश: 68.98 और 94.07 टन प्रति हेक्टेयर की उपज हासिल होती है.

खाद व उर्वरक : केला अधिक पोषक तत्त्व लेने वाली फसल है. खाद और उर्वरक की मात्रा मिट्टी की उर्वराशक्ति, किस्म, उर्वरक देने की विधि और जलवायु पर टिकी रहती है. सामान्य वृद्धि और विकास के लिए 100 से 250 ग्राम नाइट्रोजन, 20 से 50 ग्राम स्फुर और 200-300 ग्राम पोटाश प्रति पौधा जरूरी है. नाइट्रोजन और पोटाश को 4-5 भागों में बांट कर देना चाहिए और स्फुर की पूरी मात्रा को रोपण के समय ही देनी चाहिए.

सिंचाई : केले की रोपाई से ले कर तोड़ाई के समय तक 1800 से 2200 मिलीमीटर पानी की जरूरत होती है. केले में खासकर कूंड़, थाला और टपक सिंचाई विधि से सिंचाई की जाती है. केले को गरमियों में 3-4 दिनों और सर्दियों में 8-10 दिनों के भीतर सिंचाई की जरूरत पड़ती है. ड्रिप विधि से सिंचाई किसानों के बीच लोकप्रिय हो रही है. इस विधि से सिंचाई करने पर 40-50 फीसदी पानी की बचत के साथ ही उत्पादन भी ज्यादा हासिल होता है.

मल्च का इस्तेमाल : मल्च के इस्तेमाल से जमीन में नमी बनी रहती है. साथ ही खरपतवारों की बढ़ोतरी भी रुकती है. गुजरात कृषि विश्वविद्यालय, नवसारी में ड्रिप सिंचाई विधि से गन्ने की खोई या सूखी पत्तियों द्वारा 15 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मल्चिंग करने से केले के उत्पादन में 49 फीसदी तक बढ़ोतरी दर्ज की गई है और इस के साथ ही 30 फीसदी पानी की बचत भी होती है. इस के अलावा पौलीथीन शीट द्वारा मल्चिंग से भी अच्छे नतीजे हासिल हुए हैं.

देखभाल

मिट्टी चढ़ाना : पौधों पर मिट्टी चढ़ाना जरूरी होता है, क्योंकि इस की जड़ें उथली होती हैं. कभीकभी कंद जमीन से बाहर आ जाते हैं, जिस की वजह से उन की बढ़ोतरी रुक जाती हैं.

बेकार सकर हटाना : केले के पौधों में पुष्प गुच्छ निकलने से पहले तक बेकार सकर्स को हटाते रहना चाहिए. जब 3/4 पौधों में फूल आ जाएं तब 1 सकर को छोड़ कर अन्य को काटते रहें.

सहारा देना : केले के फलों का गुच्छा भारी होने से पौधे नीचे झुक जाते हैं. पौधों को गिरने से बचाने के लिए बांस की बल्ली या 2 बांस आपस में बांध कर कैंची की तरह बना कर फलों के गुच्छों को सहारा दें.

गुच्छों को ढकना : गुच्छों को सूरज की सीधी रोशनी से बचाने और फलों का आकर्षक रंग हासिल करने के लिए गुच्छों को छेद वाले पौलिथीन बैगों या सूखी पत्तियों से ढकना चाहिए.

एग्री बिजनेस (Agri Business) में किया कमाल

बिहार के एक किसान के बेटे ने ऐसा ही एक काम शुरू किया, जिस से आज हजारों फलसब्जी उत्पादक उस से फायदा उठा रहे हैं. अकेले इनसान के लिए यह करिश्मा करना आसान नहीं था, लेकिन एक ग्रामीण नौजवान ने अपनी सूझबूझ से यह मुमकिन कर दिया.

मिसाल

बिहार के नालंदा जिले के मौहम्मदपुर गांव के एक किसान ने अपने बेटे कौशलेंद्र को एग्रीकल्चर से इंजीनियरिंग करवाई. उस ने आईआईएम, अहमदाबाद से टौप किया. उसे कई नामी कंपनियों से मोटे वेतन पर नौकरी के औफर आए, लेकिन उस ने उन्हें ठुकरा दिया. कौशलेंद्र जानता था कि किसानों को उन की उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती, जिस वजह से परेशान किसान गांव छोड़ कर शहरों का रुख कर रहे हैं. इसलिए उस ने ऐसे रोजगार का फैसला किया जो खेती से जुड़ा हो और उस से किसानों का भी भला हो.

किसी भी काम को शुरू करने के लिए सब से पहले पूंजी की जरूरत होती?है, लेकिन उस के पास निवेश के लिए ज्यादा पैसा नहीं था बल्कि सिर्फ  एक नया विचार व सपना था. इसलिए उस ने कम पैसों में आसानी से शुरू होने वाला काम चुना. यह काम था आसपास के गांवों के छोटे किसानों और बागबानों से फल और सब्जियां खरीद कर उन्हें पटना शहर में बेचना.

इस काम में शुरुआत में कई दिक्कतें आईं. लोगों ने उसे बुराभला कहा और जलील किया कि इतना पढ़लिख कर तुम सब्जी बेचोगे. शुरू में तो ज्यादातर किसान कौशलेंद्र पर भरोसा करने व उसे अपनी उपज देने के लिए राजी नहीं थे, लेकिन इस नौजवान ने हिम्मत नहीं हारी. वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ता रहा.

जीरो से हीरो

पहले दिन मात्र 22 रुपए की सब्जी बेचने वाले इस नौजवान की कंपनी का सालाना कारोबार अब करोड़ों रुपए में है. हालांकि सब्जी का काम काफी जोखिम वाला होता है, क्योंकि सब्जियां बहुत जल्दी खराब हो जाती हैं. उन्हें तरोताजा रखने के लिए काफी मुश्किल होती है. इसलिए किसान बिक्री के दौरान ही सब्जियां तोड़ते हैं, फिर उन्हें एक जगह पर इकट्ठा किया जाता है. यह सब काम तयशुदा तरीके से बिना देरी के होता है.

इस सब्जी चेन की कई खासियत हैं. मसलन, ग्राहकों की सहूलियत के लिए उन्हें प्रीपेड कार्ड मुहैया कराए गए हैं, जिन के जरीए सब्जी खरीदने के बाद वे चाहें तो नकदी की जगह आसानी से डिजीटल भुगतान भी कर सकते हैं. जल्दी ही इस काम को बढ़ा कर अब कौशलेंद्र बिहार के दूसरे इलाकों व राज्य से बाहर देशभर में फैलाना चाहता है.

एग्री बिजनेस से बेहतर बदलाव लाने के लिए कौशलेंद्र ने छोटे किसानों व उद्यमियों को खुशहाली से जोड़ा. इस के लिए उस का नाम देश के चुनिंदा उद्यमियों में गिना जाता है. राष्ट्रीय बागबानी मिशन ने सभी राज्य सरकारों को कौशलेंद्र का समृद्धि माडल अपनाने की सलाह दी है.

किसानों को सीख

यह तो सिर्फ एक नमूना है. यदि किसान चाहें तो अपनी सूझबूझ से अकेले ऐसा कोई भी कामधंधा कर सकते हैं. किसान छोटेबड़े उत्पादक संघ बना कर सरकार की मदद से खेती के सहयोगी कारोबार कर सकते हैं. अब फलसब्जी ताजा रखने के लिए कम कीमत वाले जीरो ऐनर्जी, पानी, वाष्प व सोलर ऐनर्जी आदि से चलने वाले कूल चैंबर्स की बहुत सी तकनीक मौजूद हैं. इस बारे में ज्यादा जानकारी भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान व भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, पूसा, नई दिल्ली से ली जा सकती है.

कूल चेन बनाने व कूल चैंबर खरीदने के लिए खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय व बागबानी मिशन अपनी स्कीमों के तहत किसानों व उद्यमियों की मदद करते हैं. इस की जानकारी संबंधित विभागों की वैबसाइट्स या जिले के बागबानी दफ्तर से ली जा सकती है.

मशीनें

फलसब्जियों को पकाने व देर तक तरोताजा रखने वाले कूल चैंबर अब देश में ही आसानी से मिल जाते हैं. इसलिए इन्हें खरीदते समय पूरी तसल्ली व जानकारी के बाद ही अच्छी साख वाली नामी कंपनी से खरीदें. इच्छुक किसान व उद्यमी मै. पीजी ओमेगा इंटरप्राइजेज, एसएस नगर, चेन्नई, तमिलनाडु, फोन : 08046034054 से जानकारी कर सकते हैं.

उपज की खरीदारी, ढुलाई, भंडारण व बिक्री तक का पूरा ढांचा खड़ा करने के लिए सब से बड़ी जरूरत पूंजी की होती है. किसान खुद आगे आ कर पहल करें. इच्छुक किसान कंपनी बनाने, बाजार तलाशने, पूंजी जुटाने व छूट आदि सरकारी सहूलियतें हासिल करने के लिए इस पते पर संपर्क कर सकते हैं:

प्रबंध निदेशक,

लघु कृषक कृषि व्यापार संघ,

एनसीयूआई आडिटोरियम भवन,

अगस्त क्रांति मार्ग, नई दिल्ली. फोन : 011-26966077, 26966037

नई तकनीक से चारा उत्पादन

भारत में किसानों की आमदनी का मुख्य जरीया खेती के अलावा दूध उत्पादन भी है. भारत दूध के उत्पादन में दुनिया में पहले स्थान पर है. किसान दूध पैदा करने के लिए गाय, भैंस और बकरियां पालते हैं. इन से उन्हें भरपूर लाभ होता है.

पशुपालन के लिए सरकार किसानों को प्रोत्साहित कर रही है. इतना सब होने के बावजूद देश में पशुओं के लिए पौष्टिक चारा मुहैया नहीं हो पा रहा है, जिस से उन की दूध देने की कूवत पर असर पड़ रहा है. जनसंख्या के मुकाबले खेतों का दायरा कम होता जा रहा है, जिस की वजह से पशुओं के लिए हरा चारा मिलना काफी कठिन हो गया है.

किसानों के पास इतनी जमीन नहीं है कि वे खेतों में पशुओं के लिए चारा उगा सकें. इस समस्या से किसान परेशान हैं. कुछ ऐसी ही कहानी मध्य प्रदेश के होशंगाबाद रोड स्थित दीपड़ी गांव के आकाश पाटीदार की है, जिन का डेरी का कारोबार  है.

आकाश कहते हैं कि उन्हें पशुओं को हरा चारा खिलाना काफी महंगा पड़ रहा था, इसलिए वे परेशान रहते थे. लेकिन एक दिन उन्होंने यूट्यूब पर एक वीडियो देखा, जिस में कम लागत से हरा चारा उगाने की जानकारी थी. इस तकनीक का नाम हाइड्रोपोनिक्स ग्रास ट्रे है.

क्या है हाइड्रोपोनिक्स तकनीक : पानी, बालू या कंकड़ों के बीच बिना मिट्टी के चारा उगाए जाने की तकनीक को हाइड्रोपोनिक तकनीक कहते हैं.

इस विधि से चारे वाली फसल को 15 से 30 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान पर करीब 80 से 85 फीसदी नमी में उगाया जाता है और 8 से 10 दिनों में चारा तैयार हो जाता है. यह तकनीक काफी सस्ती भी पड़ती है. इस तकनीक से किसान चारे की समस्या पर काबू पा सकते हैं.

घर में कैसे तैयार करें हाइड्रोपोनिक्स चारा : हाइड्रोपोनिक्स ट्रे बनाने के लिए 8×2 फुट की टीन की चादर या प्लास्टिक ट्रे का इस्तेमाल किया जा सकता है. हाइड्रोपोनिक्स चारा 10 दिनों में पशुओं को खिलाने लायक हो जाता है, इसलिए आप को कम से कम 10 ट्रे की जरूरत होगी.

इस से आप को रोजाना हरा चारा हासिल होगा. एक ट्रे में करीब 10 किलोग्राम चारा हो जाता है.

बीज : हाइड्रोपोनिक्स ग्रास ट्रे के लिए करीब 1किलोग्राम मक्के के बीज लें. उन बीजों को 10 से 12 घंटे तक किसी बालटी में भीगने के लिए रख दें. अब इन भीगे हुए बीजों को 24 घंटे के लिए जूट के बोरे में लपेट कर रख दें. अगले दिन बीज अंकुरित हो जाएंगे, फिर इन अंकुरित बीजों को किसी ट्रे में रख दें.

पशुओं को रोजाना ताजा हरा चारा मिले, इस के लिए रोजाना बीजों को 12 घंटे के लिए भिगाएं और फिर उन्हें अगले 24 घंटे तक जूट के बोरे में लपेट कर रखें, जिस से बीजों में अंकुर आ जाएं. इस बात पर खास ध्यान दें कि हर दिन इसी तरह काम करना होगा. आप मक्के के बीजों के अलावा ज्वार, बाजरा और बरसीम के बीजों से भी पशुओं के लिए हरा चारा उगा सकते हैं.

मिट्टीपानी की जरूरत नहीं : हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से चारा उगाने के लिए पानी और मिट्टी की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन गरमियों में 10 दिनों में 1 या 2 बार पानी का हलका सा छिड़काव किया जा सकता है, क्योंकि अंकुरित बीजों में पहले से ही नमी रहती है.

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से लाभ : इस तकनीक का सब से बड़ा लाभ यह है कि इस से काफी कम जगह में पोषणयुक्त हरा चारा आसानी से मुहैया हो जाता है.

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से आम किसान सालभर दुधारू पशुओं के लिए कम जगह में हरा चारा उगा सकते हैं, जिन्हें आमतौर पर कई एकड़ में चारा उगाना पड़ता है. इस विधि से लागत भी काफी कम आती है और मिट्टी के उपजाऊ न होने का फर्क भी नहीं पड़ता.

* रिसर्च में पाया गया कि परंपरागत हरे चारे में क्रूड प्रोटीन 10.7 फीसदी होता है, जबकि मक्के से तैयार हाइड्रोपोनिक्स चारे में कू्रड प्रोटीन 13.6 फीसदी होता है, परंपरागत हरे चारे में कू्रड फाइबर भी कम होता है. हाइड्रोपोनिक्स चारे में अधिक ऊर्जा और विटामिन होते हैं. इस से पशुओं में दूध का उत्पादन अधिक होने लगता है.

* हाइड्रोपोनिक्स तकनीक में मिट्टी की जरा भी जरूरत नहीं होती और पानी भी बहुत कम देना पड़ता है.

इस वजह से पौधों के साथ न तो अनावश्यक खरपतवार उगते हैं और न ही इन पर कीड़ेमकोड़े लगने का डर रहता है. इसलिए कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं होता और न ही खाद का. इस तकनीक से हरा चारा उगाने में मौसम का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता. इसे किसी भी मौसम में उगाया जा सकता है.

* हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से हरा चारा 8 से 10 दिनों में पशुओं को खिलाने के लायक हो जाता है. परंपरागत तकनीक में चारा तैयार होने में 40 से 45 दिन लगते हैं. 100 पशुओं के लिए परंपरागत विधि से चारा उगाने के लिए करीब 15 एकड़ जमीन की जरूरत पड़ती है, लेकिन हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से 1000 वर्गफुट में 15 एकड़ के बराबर चारा आसानी से कम लागत में उगाया जा सकता है.

इस चारे को मशीन से काट कर खिलाया जाता है और चारे की जड़ को भी पशुओं को खिलाया जाता है, क्योंकि उस में मिट्टी नहीं होती है.

Fodder production

हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से दूध उत्पादन में बढ़ोतरी : इस तकनीक से उगाया गया चारा अंकुरित होने के कारण अधिक प्रोटीन और मिनरल से भरपूर होता है. इस से दूध में फैट की मात्रा बढ़ जाती है.

दूध देने वाले पशुओं को अतिरिक्त प्रोटीन व मिनिरल्स की जरूरत होती है, जिसे पूरा करने के लिए बाजार से अधिक कीमत में खरीद कर तरल प्रोटीन दिया जाता है.

बाजार से खरीदा गया प्रोटीन काफी मंहगा पड़ता है. इस की पूर्ति के लिए डेरी वाले ग्राहकों से ज्यादा कीमत वसूलते हैं.

प्रति पशु 40 रुपए की बचत : आकाश पाटीदार बताते हैं कि यूट्यूब पर सीखी गई इस तकनीक ने उन की हरे चारे की दिक्कत दूर कर दी है. आकाश बताते हैं कि उन्होंने पहले एक रैक में चारा उगाया और फिर इस की सफलता के बाद 1000 वर्गफुट में 100 पशुओं के लिए प्रोटीनयुक्त हरा चारा उगा रहे हैं.

पहले 1 पशु को दोनों समय मिला कर 8 किलोग्राम पशुआहार देना होता था, जिस के लिए बाजार से 20 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से पशुआहार खरीदना पड़ता था. वे अब सिर्फ 6 किलोग्राम चारा दे रहे हैं. हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से प्रति पशु 40 रुपए की बचत होने लगी.

डाक्टर एसआर नागर कहते हैं कि मिट्टी जनित चारे के मुकाबले अंकुरित चारा हर लिहाज से बेहतर है.

इस में विटामिन ‘ए’ समेत भरपूर मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है. इस से दूध का उत्पादन बढ़ेगा, साथ में उस की गुणवत्ता भी बेहतर होगी.

वकालत का पेशा छोड़ जैविक खेती से तरक्की करता किसान

हाल के सालों में किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग कर धरती का खूब दोहन किया है. जमीन से अत्यधिक उत्पादन लेने की होड़ के चलते खेतों की उत्पादन कूवत लगातार घट रही है, क्योंकि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग के चलते मिट्टी में कार्बांश की मात्र बेहद कम हो गई है, वहीं सेहत के नजरिए से भी रासायनिक उर्वरकों से पैदा किए जाने वाले अनाज और फलसब्जियां नुकसानदेह साबित हो रहे हैं.

कई देशों में कीटनाशकों से होने वाले नुकसान को देखते हुए उस पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई है, क्योंकि फसलों में प्रयोग किए जाने वाले कीटनाशकों के चलते कैंसर और कई तरह की जानलेवा बीमारियां भी सामने आई हैं. ऐसे में जरूरत है कि जमीन की उत्पादकता को बचाए रखने और सेहत को ध्यान में रख कर खेतों में जैव उर्वरकों का प्रयोग किया जाए.

इसी चीज को ध्यान में रख कर उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के रहने वाले 65 साल के किसान राममूर्ति मिश्र ने 30 साल पहले हाईकोर्ट की वकालत का पेशा छोड़ कर अपने पुरखों की जमीन पर जैविक खेती का फैसला किया. वे बस्ती जनपद के एकमात्र किसान हैं, जो फसल में अलगअलग सूक्ष्म पोषक तत्त्वों को ध्यान में रख कर खाद और उर्वरक बनाते हैं.

बस्ती शहर से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गौरा गांव के रहने वाले राममूर्ति मिश्र ने एलएलबी तक की पढ़ाई की है, लेकिन उन्होंने नौकरी न कर खेती में ही किस्मत आजमाने की ठानी.

इस के लिए सब से पहले उन्होंने मार्केट को सम?ा तो पाया कि हर व्यक्ति रासायनिक उत्पादों से पैदा किए अनाज और सब्जियां नहीं खाना चाहता है, लेकिन जैविक उत्पादों की अनुपलब्धता लोगों की मजबूरी बन चुकी है.

ऐसे में उन्होंने जैविक खेती से जुड़ी कई जगहों पर जा कर जानकरी प्राप्त की, कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भी शामिल हुए. ऐसे किसानों के यहां भी गए, जो जैविक खेती के जरीए लाभ प्राप्त कर रहे थे.

जब राममूर्ति मिश्र को लग गया कि जैविक खेती को अगर पूरी तैयारी के साथ किया जाए, तो घाटे की संभावना कम होगी.

उन्होंने 30 साल पहले जैविक खेती की शुरुआत कर दी थी. उन्होंने जैविक खेती एक बार शुरू की, तो इस से मिले लाभ ने इन का हौसला दोगुना कर दिया.

घर पर ही तैयार करते हैं खाद और उर्वरक

किसान राममूर्ति मिश्र जगहजगह जा कर सीखे गए जैव उर्वरकों और जैव कीटनाशकों को घर पर ही तैयार करते हैं. वे अलगअलग तरीकों से जैविक खाद तैयार करते हैं.

उन के द्वारा जो जैव उर्वरक तैयार किए गए हैं, उस से उन्हें तमाम तरह के सूक्ष्म पोषक तत्त्व प्राप्त होते हैं, जिस में राख से फास्फोरस, सेंधा नमक से जिंक, मैग्नीज व लोहा गंधक से सल्फर, नीला थोथा से कौपर, सुहागा से बोरोन, सीप और अंडा से कैल्शियम, त्रिफला से लोहा एवं मैग्नीशियम, त्रिकूट से सल्फर और धान की भूसी से सिलिकौन मिलता है.

पहले से तैयार किए गए इन सभी जैव उर्वरकों को वे अलगअलग बोरियों में एकसाथ 20 किलोग्राम की बराबर मात्रा में मिला कर रखते हैं. इस 20 किलोग्राम की मात्रा को प्रति एकड़ की दर से खेत में प्रयोग किया जाता है. इस का प्रयोग जुताई व बोआई से पहले किया जाता है. साथ ही, खड़ी फसल में घोल बना कर स्प्रे करते हैं. इस के लिए 200 लिटर पानी में पहले से एकसाथ मिला कर रखे गए सभी तरह के 4 किलोग्राम जैव उर्वरक को प्रति एकड़ की दर से छिड़का जाता है.

इन जैव उर्वरकों को बनाने के लिए सभी के लिए अलगअलग एक फुट की चौड़ाई, लंबाई और गहराई में गड्ढे खोद लेते हैं. एकदूसरे से गड्ढे की दूरी 6 इंच रखी जाती है. जैव उर्वरक बनाने के लिए पहले से ही सेंधा नमक, नीला थोथा, चूना, सुहागा, नारियल का छिलका, गंधक, रौक फास्फेट और पत्थर के चूर्ण की खरीदारी कर लेनी उपयुक्त होती है. गड्ढों में इन्हें भरने के पहले इन सब को अच्छी तरह से पीस कर चूर्ण बना लेते हैं, फिर इन सभी चीजों को गाय के गोबर में मिला कर अलगअलग गड्ढों में भर लेते हैं.

गड्ढे में भरने के पूर्व ही इन सभी सामग्रियों को अच्छे से तैयार किया जाता है. इस के लिए सुहागा को गरम कर पूरी तरह फुला लेते हैं, फिर उसे पीस कर गड्ढे में गोबर के साथ भरा जाता है. गंधक को भी पीस कर गोबर में मिलाते हैं. त्रिफला को भी पीस कर 20 किलोग्राम गोबर में मिला कर गड्ढे में भरते हैं.

नारियल के छिलके को जला कर उपयोग में लाया जाता है और उसे पीस कर अलग गड्ढे में डालते हैं. यह ‘चारकोल पाउडर’ कहलाता है. धान के 4 किलोग्राम भूसी को लोहे की कड़ाही में गरम कर पूरा काला कर लेते हैं. औक्सीजन की अनुपस्थिति में गरम करने पर इस से सिलिकौन प्राप्त होता है. इसे ‘सिलिकौन भस्म’ भी कहते हैं. अंडे के चूर्ण से कैल्शियम प्राप्त होता है. इसे ‘कैल्शियम भस्म’ कहते हैं. पत्थर के चूर्ण का भी उपयोग उसी गड्ढे में किया जाता है.

इन सभी को गड्ढों में भरने के बाद उस के ऊपर गाय के गोबर के उपले रख देते हैं और फिर उस के ऊपर मिट्टी से लीप देते हैं. ध्यान रखते हैं कि जो गड्ढे बनाए जा रहे हैं, छाया में हों.

इन गड्ढों में दबाए गए उर्वरक 45 दिनों के बाद ऊपर लोहे की छड़ से छेद कर देते हैं. जब इन को दबाए 90 दिन का समय बीत जाता है, तो गड्ढों से इस तैयार उर्वरक को बाहर निकाल लेते हैं, जिन्हें हम अपनी फसल के उपयोग में ला सकते हैं.

पराली नियंत्रण के लिए वेस्ट डीकंपोजर का उपयोग

जहां देशभर के किसान पराली को ले कर हलकान दिखते हैं, वहीं किसान राममूर्ति मिश्र वेस्ट डी कंपोजर के जरीए पराली को नियंत्रित करते हैं. यह मात्र 20 रुपए की एक सीसी आती है, जिस में गुड़बेसन को एकसाथ मिला कर 500 लिटर पानी का घोल बनाते हैं.

20 दिनों के बाद इस तैयार घोल को अगर पराली या फसल के अवशेष पर छिड़का जाए, तो वह अवशेष पूरी तरह समाप्त हो जाता है. उन के द्वारा तैयार इस वेस्ट डीकंपोजर घोल को आसपास के किसान भी इन के जरीए अपने खेतों में प्रयोग करते हैं.

जैविक खेती (Organic Farming)

खेतों में लहलहा रही है फसल

पिछले 3 सालों में राममूर्ति मिश्र ने जैविक खेती के जरीए कई तरह की व्यावसायिक खेती करने में सफलता पाई है. वे मौसम के अनुसार तमाम तरह की सब्जियों की खेती करते हैं. उन के खेतों में उस समय भी फसल लहलहा रही होती है, जब बाजार में कई तरह की सब्जियों की आवक बहुत कम होती है.

वे कई तरह की सब्जियों की खेती करते हैं, जिस में लौकी, नेनुआ, पालक, सरपुतिया, सोया, टमाटर, करेला, मटर, गाजर, मूली, सहित दर्जनों तरह की फसलें शामिल हैं.

इस के अलावा वे अनाज वाली फसलों में भी खुद के द्वारा तैयार किए गए जैविक उत्पादों का ही प्रयोग करते हैं. इस के जरीए वे कालानमक, अलसी, गेहूं जैसी तमाम फसलें भी उगा रहे हैं.

खेतों से सीधे होती है मार्केटिंग

किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा उगाई गई जैविक फसलों की मार्केटिंग की अगर बात की जाए, तो आढ़ती इन के खेतों से ही मंडी मूल्य से ज्यादा रेट पर खरीद कर ले जाते हैं, जिस के चलते उन्हें मार्केटिंग के लिए किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता है.

‘हजार और्गैनिक फार्म’ के नाम से पौपुलर

किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा शुरू की गई जैविक खेती को उन्होंने ‘हजार और्गैनिक फार्म’ का ब्रांड नाम दे रखा है. ‘हजार’ शब्द में उन के पुरखों का नाम छिपा है. इस मसले पर उन का कहना है कि जिन पुरखों की जमीन ने मुझे रोजगार दिया है, उन को सम्मान देने का इस से बढि़या तरीका और कुछ हो ही नहीं सकता है.

किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा की जा रही जैविक खेती से मिली सफलता के मुद्दे पर कृषि विशेषज्ञ डा. प्रेम शंकर का कहना है कि जैविक खेती से भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि हो जाती है, साथ ही साथ सिंचाई के अंतराल में भी वृद्धि होती है.

उन का यह भी कहना है कि जैविक उर्वरकों के उपयोग से रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से लागत में कमी आती है और फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है.

जैविक खेती से मिट्टी को होने वाले लाभ के सवाल पर किसान राममूर्ति मिश्र का कहना है कि अगर मिट्टी की दृष्टि से देखें, तो जैविक खाद के उपयोग से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है और भूमि की जलधारण की क्षमता बढती है. भूमि से पानी का वाष्पीकरण भी कम होता है.

जैविक खेती की विधि रासायनिक खेती की विधि की तुलना में बराबर या अधिक उत्पादन देती है अर्थात जैविक खेती मिट्टी की उर्वरता एवं किसानों की उत्पादकता बढ़ाने में पूरी तरह सहायक है.

जैविक विधि द्वारा खेती करने से उत्पादन की लागत तो कम होती ही है, साथ ही किसानों को अधिक आय प्राप्त होती है और अंतर्राष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं. नतीजतन, सामान्य उत्पादन की अपेक्षा किसान अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं.

रोटावेटर (Rotavator) से जुताई

आजकल खेती में नएनए यंत्र आ रहे हैं. रोटावेटर ट्रैक्टर से चलने वाला जुताई का एक खास यंत्र है, जो दूसरे यंत्रों की 4-5 जुताई के बराबर अपनी एक ही जुताई से खेत को भुरभरा बना कर खेती योग्य बना देता है.

रोटावेटर का फ्रेम लोहे के एंगल से बना होता है, जिस में इस के अन्य भाग जुड़े रहते हैं. यह एंगल संचालन के समय भागों को पकड़ कर रखता है और इस का दूसरा महत्त्वपूर्ण भाग रोटावेटर गैंग होता है.

रोटावेटर गैंग बहुत अच्छी गुणवत्ता वाले इस्पात के बने होते हैं, जो फ्रेम में जुड़े रहते हैं. इन का संचालन मूविंग मेकैनिज्म द्वारा होता है और यही मिट्टी को काट कर भुरभुरा बनाते हैं, जिन के द्वारा जुताई का काम अच्छी तरह पूरा होता है.

इस का तीसरा महत्त्वपूर्ण भाग होता है यूनिवर्सल ज्वाइंट. यह रोटावेटर के अगले भाग में लगा होता है. इस को ट्रैक्टर के पीटीओ शाफ्ट से जोड़ा जाता है, जो मूविंग मेकैनिज्म को घुमाता है और रोटावेटर जुताई करना शुरू कर देता है.

इस का चौथा भाग मूविंग मेकैनिज्म होता है, जो ट्रैक्टर द्वारा दिए गए चक्कर के द्वारा मूविंग मेकैनिज्म रोटावेटर गैंग को चलाता है. इस से मिट्टी कटती है और जुताई का काम पूरा होता है.

रोटावेटर (Rotavator)

ट्रैक्टर के थ्री प्वाइंट लिंकेज को इस के थ्री प्वाइंट लिंकेज से जोड़ दिया जाता है. इस के बाद रोटावेटर के यूनिवर्सल ज्वाइंट को ट्रैक्टर के पीटीओ शाफ्ट से जोड़ देते हैं. इस के बाद पीटीओ शाफ्ट और ट्रैक्टर को खेत में एकसाथ चलाना शुरू करते हैं, जिस से रोटावेटर गैंग मूविंग मेकैनिज्म के द्वारा घूमने लगता है और मिट्टी कटकट कर भुरभुरी होने लगती है, जिस से जुताई का काम पूरा होता है.

देखभाल

रोटावेटर धातु से बना हुआ यंत्र होता है, इसलिए इस की देखभाल भी अच्छी तरह करना जरूरी होता है. इस के लिए रोटावेटर से जुताई करने से पहले इस मशीन को तैयार कर लेना चाहिए. तैयार करने के लिए इस के मूविंग मेकैनिज्म और रोटावेटर गैंग के ध्रुवों के पास बालबेयरिंग में ग्रीसिंग व औयलिंग कर लेना जरूरी होता है और जुताई का काम पूरा होने के बाद यंत्र को रखने से पहले अच्छी तरह मिट्टी और खरपतवारों को साफ कर लेना चािहए और किसी छायादार जगह पर सुरक्षित रखना चाहिए.

फायदे

रोटावेटर से जुताई करने पर मिट्टी बहुत छोटेछोटे टुकड़ों में बंट जाती है और पूरा खेत बहुत अच्छी तरह भुरभुरा हो जाता है व खेत में उगे खरपतवार और फसल अवशेष छोटेछोटे टुकड़ों में बंट कर जमीन में दब जाते हैं, जो सड़ कर मिट्टी में जीवांश पदार्थ में बदल जाते हैं.

रोटावेटर से जुताई करने पर दूसरे यंत्रों की  5 जुताई इस के केवल एक ही बार की जुताई में पूरी हो जाती है. इसलिए डीजल की खपत कम होती है और समय की भी बचत होती है.