रेशम उद्योग (Silk Industry) को पुनर्जीवित करेगा बिहार कृषि विश्वविद्यालय

भागलपुर: रेशम उद्योग को पुनर्जीवित करने के लिए बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर एवं इकोटसर सिल्क के साथ मिल कर काम करेंगे. इस के लिए कुलपति डा. डीआर सिंह, बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर की अध्यक्षता में प्रथम बैठक हुई.

इस बैठक में निदेशक अनुसंधान डा. अनिल कुमार सिंह, इकोटसर सिल्क प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक प्रबंधक क्षितिष पांडया के साथ प्राचार्य, डा. कलाम कृषि महाविद्यालय, किशनगंज डा. के. सत्यनारायणा एवं वैज्ञानिकों ने भाग लिया, जिस में विस्तारपूर्वक टसर सिल्क से ग्रामीण महिलाओं के रोजगार सृजन एवं आर्थिक सुदृढीकरण पर बात हुई. इस से ग्रामीण परिवेश की महिलाएं रेशम के कच्चे पदार्थ जैसे कोकुन एवं धागों को तैयार कर, उस से कपड़े तैयार करना जैसे रोजगार पा सकेंगी. ग्रामीण और आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं को अपनी माली स्थिति सुधारने में मदद मिलेगी. ग्रामीण महिलाओं को तकनीकी रूप से इस काम में निपुण किया जाएगा, जिस से कि गुणवत्तायुक्त कोकुन तैयार किया जा सके.

रेशम उद्योग (Silk Industry)

इस कार्यक्रम के तहत कृषि विज्ञान केंद्र, बांका में प्रत्यक्षीकरण कार्यक्रम किया जाएगा. कुलपति ने कहा कि हम आशा करते हैं कि यह कार्यक्रम हमारे भागलपुरी सिल्क के पुराने गौरव को लौटाने में भी सहायक होगा. रेशम उद्योग को बढ़ावा देने के लिए सबएग्रीस तीन स्कीम के तहत 4 से 25 लाख रुपए तक की अनुदान रेशम उद्यमियों को सहायता प्रदान की जाएगी. इस बैठक में ग्रामीण महिलाओं के रोजगार सृजन करने में अहम भूमिका निभाने की बात कही गई.

खुशबू ने बनाई मोटाइल कैटल फीडिंग ट्रौली (Cattle Feeding Trolley)

हिसार : चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार को मोटाइल कैटल फीडिंग ट्रौली नामक डिजाइन किए गए उत्पाद पर 10 साल का डिजाइन अधिकार मिला है. भारतीय पेटेंट कार्यालय की ओर से जारी डिजाइन प्रमाणपत्र में इस उत्पाद को 371981-001 पंजीकरण संख्या प्रदान की गई. मोटाइल कैटल फीडिंग ट्रौली का डिजाइन विश्वविद्यालय के मानव संसाधन प्रबंधन निदेशक डा. मंजु महता की देखरेख में शोधार्थी खुशबू ने किया. कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने इस उपलब्धि के लिए उन्हें बधाई व शुभकामनाएं दी.

इसलिए डिजाइन की गई मोटाइल कैटल फीडिंग ट्रौली

पशुपालन में महिलाओं को चारा डालने में सब से ज्यादा समस्या होती है. इसलिए ऐसे काम को करने के लिए उपयुक्त साधन की जरूरत होती है. इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए मोटाइल कैटल फीडिंग ट्रौली (पशु चारा ट्रौली) बनाई गई है. यह ट्रौली आयरन शीट और रबड़ से बनी हुई है. इस में एक पहिया, एक बेरो, पीछे 2 स्टैंड और 2 हैंडल हैं, ताकि उपयोगकर्ता पर लोड के वजन को कम किया जा सके. ट्रौली का इस्तेमाल हम चारा डालने के साथसाथ पशुओं को पानी पिलाने के लिए कर सकते हैं.

मोटाइल कैटल फीडिंग ट्रौली ऐसा साधन है, जिस में चारा आसानी से उठाया जा सकता है और एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से ले जाया जा सकता है. इस ट्रौली में चारा व पानी आसानी से जहां पशु बंधे होते हैं, वहां ले जाया जा सकता है, जिस से महिलाओं की कार्यक्षमता बढ़ेगी और उन के समय एवं ऊर्जा की बचत होगी. इस से मांसपेशियों एवं हड्डियों पर कम दबाव पड़ेगा.
इस अवसर पर ओएसडी डा. अतुल ढींगड़ा, सामुदायिक विज्ञान महाविद्यालय की अधिष्ठाता डा. बीना यादव, मीडिया एडवाइजर डा. संदीप आर्य एवं आइपीआर सैल के प्रभारी डा. योगेश जिंदल उपस्थित रहे.

कैलकुलेटर एप (Calculator App) के लिए मिला कौपीराइट

हिसार: लुवास कुलपति प्रो. (डा.) विनोद कुमार वर्मा के निर्देशानुसार, पशु चिकित्सा माइक्रोबायोलौजी विभाग के वैज्ञानिकों द्वारा डिजाइन किए गए एप  के लिए कौपीराइट अधिग्रहण (एसडब्ल्यू-18808/2024) प्राप्त हुआ है. इस एप की मदद से गाय, भैंस, भेड़बकरी और सूअरों में मुंहखुर की बीमारी (एफएमडी) के प्रकोप से होने वाले आर्थिक नुकसान का सटीक आकलन किया जा सकता है.

कुलपति डा. विनोद कुमार वर्मा ने पशु चिकित्सा माइक्रोबायोलौजी विभाग, लुवास, हिसार के वैज्ञानिकों के प्रयासों की सराहना की और बौद्धिक संपदा, कौपीराइट कार्यालय, भारत सरकार द्वारा जारी कौपीराइट प्रमाणपत्र सार्वजनिक किया. उन्होंने उम्मीद जताई कि यह एप मुंहखुर रोग जैसे उभरते खतरों के बीच पशु स्वास्थ्य की सुरक्षा और कृषि स्थिरता सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण सिद्ध होगी.

माइक्रोबायोलौजी विभाग, लुवास में हुए शोध के आधार पर हरियाणा ऐसा पहला राज्य बना है, जिसे पशुपालन और डेयरी विभाग, भारत सरकार ने मुंहखुर और गलघोंटू रोग के संयुक्त टीकाकरण की अनुमति दी है.

“लुवास एफएमडी ईलौस कैलकुलेटर” के बारे जानकरी देते हुए डा. नरेश कक्कड़ ने बताया कि यह एप मुंहखुर रोग के प्रकोप से होने वाले आर्थिक नुकसान का सटीक आकलन की सुविधा देता है और रोग नियंत्रण कार्यक्रम के कार्यान्वयन को बढ़ाता है. कुछ समय पहले राष्ट्रीय खुरपका एवं मुंहपका रोग संस्थान, भुवनेश्वर में देशभर के क्षेत्रीय खुरपकामुंहपका रोग केंद्रों और नेटवर्क इकाइयों की एक बैठक के दौरान, मुंहखुर रोग से होने वाले आर्थिक नुकसान के आकलन की सटीक पद्धति की जरूरत सामने आई थी.

इस का संज्ञान लेते हुए लुवास वैज्ञानिकों ने कुलपति प्रो. (डा.) विनोद कुमार वर्मा के निर्देशानुसार मुंहखुर रोग से होने वाले आर्थिक नुकसान को निर्धारित करने के लिए शोधकर्ता डा . स्वाति दहिया, डा. नीलम रानी और डा. नरेश. के. कक्कड़ ने एक एप पर काम करना शुरू किया था.

इस अवसर पर डा. स्वाति दहिया ने बताया कि एप को बनाने की प्रक्रिया में पहले से मौजूद बेसलाइन डेटा का उपयोग और कंप्यूटर प्रोग्रामिंग/सौफ्टवेयर के साथ इस के इंटरफेस पर काम किया गया है, जिस से पशुओं के आयु और लिंग के अनुसार होने वाले नुकसान को सही तरीके से कैलकुलेट किया जा सकता है. यह एप किसानों को मुंहखुर रोग टीकाकरण कार्यक्रम के लिए जागरूक करेगी और मुंहखुर से प्रभावित जानवरों यानी गाय, भैंस, भेड़, बकरी और सूअरों में होने वाले आर्थिक नुकसान जैसे दूध उत्पादन में कमी, मृत्यु दर इत्यादि की सटीक गणना की जा सकेगी.

वैज्ञानिकों के टीम ने इस अवसर पर कुलपति प्रो. (डा.) विनोद कुमार वर्मा, कुलसचिव डा. एसएस ढाका, अनुसंधान निदेशक डा. नरेश जिंदल, पशु विज्ञान महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. गुलशन नारंग, स्नातकोत्तर अधिष्ठाता डा. मनोज रोज, मानव संसाधन प्रबंधन निदेशक डा. राजेश खुराना, पशु चिकित्सा सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डा. राजेश छाबड़ा का विशेषकर आभार प्रकट किया, जिन के मार्गदर्शन में इस एप को बनाने और कौपीराइट प्राप्त करने में कामयाबी मिली है.

कृषि ज्ञान वाहन (Agricultural Knowledge Vehicle) पहुंचा गांवगांव

भागलपुर : कुलपति डा. डीआर सिंह द्वारा कृषि ज्ञान वाहन को हरी झंडी दिखा कर भेजा गया. कृषि एवं पशुपालन के चहुंमुखी उत्थान के उद्देश्य से बिहार सरकार द्वारा प्रदत्त इस ज्ञान वाहन से मिट्टी जांच की सुविधा, किसानों को फसल विशेष के लिए उर्वरक व्यवहार की मात्रा, पशुओं की समस्याओं का त्वरित निदान, कीटबीमारी सहित खरपतवार की पहचान एवं उस के प्रबंधन की जानकारी प्राप्त होगी.

कृषि ज्ञान वाहन द्वारा गोरडीह पंचायत के पिपरा गांव में किसानों को कृषि की नवीनतम जानकारी उपलब्ध कराने के साथ उन्हें जागरूक करने का कार्यक्रम किया गया. इस अवसर पर विश्वविद्यालय के सभी अधिष्ठाता, निदेशक और वैज्ञानिकों के साथ ही भागलपुर के सहनिदेशक, कृषि, मौजूद रहे.

इस अवसर पर कुलपति डा.  डीआर सिंह ने कहा, “कृषि ज्ञान वाहन द्वारा हम किसानों के द्वार पर पहुंच रहे हैँ. इस के माध्यम से पशुपालन, बागबानी या खेती में आने वाली समस्याओं का निदान किया जाएगा. अब किसानों को अपनी समस्या को ले कर इधरउधर भटकने की जरूरत नहीं है, बल्कि उस का निदान उन के द्वार पर ही हो जाएगा.”

कृषि ज्ञान वाहन (Agricultural Knowledge Vehicle)

क्या खास है कृषि ज्ञान वाहन में

किसानों के ज्ञान संवर्धन के लिए तकनीकी फिल्मों का प्रदर्शन के लिए 2 बड़ीबड़ी एलईडी स्क्रीनें लगाई गई हैं. इस के माध्यम से मिट्टी जांच नमूनों का संग्रह किया जाएगा, जिस की रिपोर्ट किसानों तक भेजी जाएगी. कृषि से जुड़ी समस्याओं को किसानों के द्वार पर निराकरण करने की सुविधा इस वाहन में मौजूद है. इस के माध्यम से कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों से जुड़ी व्यवहारिक समस्याओं का निदान संभव हो पाएगा. खाद्यान्न/बागबानी/अन्य फसलों के कीटबीमारी के साथसाथ पशु एवं पक्षी की सेहत संबंधी समस्याओं का समाधान किया गया. इस के माध्यम से कृषि उपादानों जैसे बीज, जैविक खाद, तरल बायोफर्टिलाइजर सहित मशरूम स्पान आदि उपलब्ध कराया जाएगा.

पिपरा गांव पहुंचा कृषि ज्ञान वाहन

परिचालन के पहले दिन कृषि ज्ञान वाहन गोरडीह पंचायत के पिपरा गांव पहुंचा, जहां कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों द्वारा किसानों को आम, लीची, ग्रीष्मकालीन सब्जी की खेती, मिट्टी जांच के साथसाथ पशुपालन पर भी जानकारी दी गई.

ग्रामीणों के सामने कृषि ज्ञान वाहन मे लगे एलईडी स्क्रीन पर समसामायिक विषयों पर फिल्मों का प्रदर्शन किया गया. ग्रामीणों ने अपने खेतोँ से मिट्टी का नमूना जांच संबंधित वैज्ञानिक को सौंपा.

इस अवसर पर बिहार कृषि विश्वविद्यालय के प्रसार शिक्षा निदेशक डा. आरके सोहाने, कृषि विज्ञान केंद्र के वरीय वैज्ञानिक और प्रधान डा. राजेश कुमार, भागलपुर के जिला कृषि पदाधिकारी श्रीराम अनिल कुमार के साथसाथ केवीके के सभी वैज्ञानिक और कर्मचारी मौजूद रहे. प्रसार शिक्षा निदेशक डा. आरके सोहने ने पिपरा गांव के किसानों कों कृषि ज्ञान वाहन का भरपूर फायदा उठाने का आग्रह किया.

जीवों के लिए टैंकर से पानी, रूमा देवी फाउंडेशन की मुहिम

बाड़मेर: तपती गरमी के मौसम में एक ओर जहां आम जनजीवन पर असर होता है, वहीं दूसरी तरफ पशुधन का गरमी से बचाव करना भी  जरूरी  हो जाता है. अनेक इलाकों में गरमी के समय पशुचारे के साथसाथ पानी की भी समस्या  हो जाती है खासकर गरमी में तप रहे राजस्थान के रेगिस्तान में इनसानों के साथसाथ पशुपक्षी भी पीने की पानी की समस्या से त्रस्त दिखाई दे रहे हैं.

कई इलाकों में पेयजल की गंभीर समस्या बनी हुई है, जिसे देखते हुए सामाजिक कार्यकर्ता व फैशन डिजाइनर डा. रूमा देवी ने ऐसे जरूरतमंद गांवों में मीठे पानी के टैंकर भिजवाने के साथ ही राहत का काम शुरू कर दिया है.

रूमा देवी फाउंडेशन (Ruma Devi Foundation)

रूमा देवी ने बताया कि सूखे पड़े सार्वजनिक टांके, होदी, कुंड आदि की जानकारी प्राप्त कर उन की सफाई कर के वहीं के नजदीकी पेयजल स्त्रोत से ट्रैक्टर में पानी ला कर इन टांकों व कुंड में भरा जा रहा है. ग्रामीण इलाकों में मानसून के आने तक अगले एक महीने तक यह मुहिम जारी रहेगी.

पश्चिम राजस्थान के बाड़मेर व बालोतरा जिले में लगभग 2,000 टैंकर इस फाउंडेशन व जनसहयोग से उपलब्ध करवाने का काम जारी रहने वाला है. फाउंडेशन की जलसेवा मुहिम से प्रसन्न हो कर मुंबई के संत दुलाराम कुलरिया ट्रस्ट, प्रकाश फाउंडेशन और सुरत की टेक्सटाइल एशोसिएशन भी उन के साथ इस काम में उन की मदद कर रही हैं.

धान की सीधी बिजाई के लिए पूसा बासमती 1979 और पूसा बासमती 1985   

पूसा, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली में बासमती की रोबीनोवीड किस्में, पूसा बासमती 1979 और पूसा बासमती 1985 की बिक्री शुरू हो गई है. यह किस्में धान की सीधी बिजाई के लिए संस्थान द्वारा जारी की गई हैं.

इस अवसर पर पूसा संस्थान के निदेशक डा. अशोक कुमार सिंह ने कहा कि उत्तर पश्चिमी भारत में धान की खेती में मुख्य समस्याएं गिरता जलस्तर, धान की रोपाई में लगने वाले श्रमिकों की कमी और जलभराव के साथ रोपाई विधि के दौरान होने वाले ग्रीनहाउस गैस मीथेन का उत्सर्जन है. धान की सीधी बिजाई में इन सभी समस्याओं का हल है.

उन्होंने आगे कहा कि धान की सीधी बिजाई विधि में धान की पारंपरिक जलभराव विधि की तुलना में पानी के उपयोग में काफी कमी आती है, क्योंकि सीधी बोआई विधि में लगातार धान खेत में जलभराव की आवश्यकता नहीं होती. इस में केवल जरूरत के अनुसार ही कम पानी का इस्तेमाल होता है.

रिसर्च के मुताबिक, सीधी बिजाई विधि से लगभग 33 फीसदी पानी की बचत हो सकती है. इसलिए यह विधि खासकर पानी की कमी वाले क्षेत्रों के लिए अच्छा विकल्प है.

धान की सीधी बिजाई विधि में मुख्य समस्या खरपतवारों की है, जिसे हल करना जरूरी है, ताकि सीधी बिजाई विधि सफल हो सके. इस दिशा में भाकृअनुप-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने बासमती धान की 2 रोबिनोवीड किस्में पूसा बासमती 1979 और पूसा बासमती 1985 विकसित की हैं. खरपतवार भी इन किस्मों को नुकसान नहीं पहुंचा सकती. ये इमेजथापायर 10 फीसदी एसएल के प्रति सहिष्णु हैं और भारत में व्यावसायिक खेती के लिए विमोचित की गई हैं.

पूसा बासमती 1979 :

बासमती धान की यह किस्म पीबी 1121 की नजदीक वंश वाली है, जिस में इमेजथापायर 10 फीसदी एसएल के प्रति सहिष्णुता को संचालित करने वाले सभी उत्परिवर्तित एएचएएस एलील मौजूद होते हैं. इस की बीज से बीज तक परिपक्वता अवधि 130-133 दिन और औसत उपज 45.77 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

पूसा बासमती 1985 :

बासमती की यह किस्म पीबी 1509 की खरपतवारनाशी सहिष्णु आइसोजेनिक निकट वंशक्रम है, जिस में इमेजथापायर 10 फीसदी एसएल के प्रति सहिष्णुता को संचालित करने वाले सभी उत्परिवर्तित एएचएएस एलील मौजूद होते हैं. इस की बीज से बीज तक परिपक्वता अवधि 115-120 दिन और औसत उपज 52 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

इन किस्मों में धान की खेती में अच्छे बदलाव लाने की क्षमता है, जो धान की खेती की लागत को भी कम करेगी. साथ ही, यह किस्में न केवल निराईगुड़ाई से जुड़ी हुई मेहनत को घटाती हैं, बल्कि धान खेती की पारंपरिक विधियों के पर्यावरणीय प्रभावों को भी कम करती हैं.

डा. पीके सिंह, कृषि आयुक्त, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार ने इन किस्मों के लिए पूसा संस्थान के योगदान की सराहना की और कहा कि यह संस्थान अनेक उन्नत किस्मों के विकास का काम कर रहा है.

डा. डीके यादव, सहायक महानिदेशक (बीज), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने बताया कि बासमती धान की ये दोनों किस्में इस बासमती भौगोलिक सूचक क्षेत्र के किसानों के लिए खास साबित होंगी.

ध्यान देने वाली बात यह है कि देश के कुल बासमती धान निर्यात में पूसा संस्थान की बासमती किस्मों का हिस्सा 95 फीसदी है, जो 51,000 करोड़ रुपए बनता है.

डा. डीके यादव ने किसानों से आग्रह किया कि वे देश की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए इन उन्नत किस्मों का प्रचारप्रसार करें. इस दिशा में सार्थक कदम उठाते हुए इन किस्मों के बीजों का सशुल्क वितरण मंच पर हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और उत्तर प्रदेश के 4 किसानों को किया गया. अन्य इच्छुक किसानों को यह बीज संस्थान की बीज उत्पादन इकाई में दिया गया.

हरियाणा के किसान प्रीतम सिंह ने धान की सीधी बिजाई (डीएसआर) विधि के साथ अपने साल 2009 से अब तक के अनुभव के बारे में विस्तार से बताया. वे 40-50 एकड़ में इस की खेती करते हुए 27 क्विंटल प्रति एकड़ की शानदार पैदावार हासिल कर रहे हैं. इन की सफलता की कहानी इस बात की गवाही देती है कि धान की सीधी बिजाई खेती की एक सक्षम विधि है, विशेषकर तब, जब उसे उचित प्रबंधन पद्धतियों और किस्मों के साथ अपनाया जाता है.

डा. टीके दास, जो सस्य विज्ञान में विशेषज्ञ प्रधान वैज्ञानिक हैं, उन्होंने धान की सीधी बिजाई विधि में इस्तेमाल होने वाले खरपतवारनाशियों की विस्तृत श्रंखलाएं के बारे में चर्चा की.

डा. सी. विश्वनाथन (संयुक्त निदेशक, अनुसंधान), डा. आरएन पड़ारिया (संयुक्त निदेशक, प्रसार), डा. गोपाल कृष्णन (अध्यक्ष, आनुवंशिकी संभाग), डा. ज्ञानेंद्र सिंह (प्रभारी, बीज उत्पादन इकाई), पूसा संस्थान के संभागाध्यक्ष और वैज्ञानिक, किसान, बीज कंपनियां और मीडिया भी इस अवसर पर मौजूद रहे.

अरहर कुदरत 3 और मूंग जनकल्याणी की मिश्रित खेती (Mixed farming) : अधिक मुनाफा

दलहनी फसल अरहर व मूंग दोनों फसल को तैयार होने का समय अलगअलग है. अरहर लंबे समय में तैयार होती है, जबकि मूंग की उपज जल्दी मिल जाती है. इन दोनों की खेती को लाभकारी बनाने के लिए इन की मिश्रित खेती करना फायदेमंद है खासकर जब उन्नत किस्मों को लगाया जाए तो मुनाफे की संभावना कहीं अधिक बढ़ जाती है.

कुदरत कृषि शोध संस्था के प्रकाश सिंह रघुवंशी ने बताया कि उन्होंने अरहर कुदरत 3 की नई किस्म ईजाद की है. एक पौध में तकरीबन 1500 से 2000 फलियां लगती हैं. यह किस्म 210 दिन में पक जाती है. बोआई के लिए अरहर बीज की मात्रा 2 किलोग्राम प्रति एकड़ है. एक फली में 4 से 5 दाने होते हैं. दाना मोटा, बड़ा, वजनदार औरेंज कलर का होता है और उत्पादन क्षमता 12 से 14 क्विंटल प्रति एकड़ है.

विशेष गुण : इस की खासियत है कि इस किस्म के पौधे में उकठा रोग नहीं लगता है. साथ ही, पौधे में अधिक शाखाएं व फलफूल, फलियां लगती हैं. पोषक तत्वों से भरपूर यह दाल खाने में काफी स्वादिष्ठ भी होती है.

बोने की विधि : लाइन से लाइन की दूरी 4 फुट और बीज से बीज की दूरी 3 फुट पर इस किस्म के पौधे लगाएं, तो बेहतर उपज मिलती है.

मिश्रित खेती (Mixed farming)

कम समय में तैयार होती मूंग : मूंग जनकल्याणी महज 55 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. फलियां गुच्छों में लगती हैं. एक फल में तकरीबन 10-12 दाने होते हैं. फली लंबी व दाना मोटा होता है. दाना बड़ा और गहरा हरा रंग लिए होता है. इस प्रजाति में पीला रोग नहीं लगता.

मूंग की उत्पादन क्षमता : इस की पैदावार क्षमता 6-7 क्विंटल प्रति एकड़ मिलती है और बोआई के लिए बीज की मात्रा 6 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से लगती है. अरहर कुदरत 3 और जनकल्याणी मूंग एकसाथ लगा कर मिश्रित खेती कर के अधिक लाभ ले सकते हैं.

अधिक जानकारी के लिए आप किसान प्रकाश सिंह रघुवंशी के मोबाइल नंबर 9839253974, 9939253974 पर बात कर सकते हैं.

एमपीयूएटी को प्रौद्योगिकी (Technology) पर 32 पेटेंट

उदयपुर : क्षेत्रीय अनुसंधान एवं प्रसार सलाहकार समिति संभाग चतुर्थ-अ की बैठक 2 मई, 2024 को कृषि अनुसंधान केंद्र, उदयपुर में आयोजित की गई. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय ने गत वर्षों में विभिन्न प्रौद्योगिकी पर 32 पेटेंट प्राप्त किए. साथ ही, राष्ट्रीय स्तर पर बकरी की 3 नस्लें एवं भैंस की एक नस्ल को रजिस्टर्ड कराया. गत वर्ष को विश्वविद्यालय ने मिलेट वर्ष के रूप में मनाया एवं एक पिक्टोरियल गाईड भी जारी की.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि पिछले वर्ष अफीम की चेतक किस्म, मक्का की पीएचएम-6 किस्म के साथ असालिया एवं मूंगफली की किस्में विकसित की. उन्होंने सभी वैज्ञानिकों से आग्रह किया कि सभी फसलों की नई किस्में विकसित की जाएं, ताकि किसानों को अधिक से अधिक लाभ मिल सके.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि आज कृषि में स्थायित्व लाने के लिए कीट, बीमारी प्रबंधन एवं जल प्रबंधन पर काम करना होगा. उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि विश्वविद्यालय ने जैविक/प्राकृतिक खेती में राष्ट्रीय पहचान बनाई है.

उन्होंने बताया कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक ने विश्वविद्यालय से कहा कि भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान के साथ मिल कर प्राकृतिक खेती की रूपरेखा तैयार की जाए.

अपने भाषण के दौरान उन्होंने कृत्रिम बुद्धिमत्ता व डिजिटल इंजीनियरिंग पर उत्कृष्टता केंद्र पर बल दिया. साथ ही, उन्होंने सभी वैज्ञानिकों को आह्वान किया कि विश्वविद्यालय की आय विभिन्न तकनीकियों द्वारा बढ़ाई जाए.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के निदेशक अनुसंधान डा. अरविंद वर्मा ने बैठक में अपने संबोधन में विश्वविद्यालय के द्वारा विभिन्न फसलों पर किए गए अनुसंधान द्वारा विकसित तकनीकियों के बारे में बताया. साथ ही, उन्होंने जैविक खेती पर विकसित पैकेज औफ प्रैक्टिस की जानकारी सदन को दी.

उन्होंने कहा कि गत वर्ष औषधीय एवं सुंगधित परियोजना को उत्कृष्ट कार्य के लिए प्रथम स्थान मिला. विश्वविद्यालय ने गत वर्ष विभिन्न फसलों की 4 किस्में विकसित की.

डा. अरविंद वर्मा ने बताया कि हरित क्रांति के बाद कृषि तकनीकों के क्षेत्र में खासतौर पर बीज, मशीन और रिमोट संचालित तकनीकों में व्यापक बदलाव आया है. पिछले दशक में तकनीकी हस्तांतरण अंतराल ज्यादा था, लेकिन अब किसान ज्यादा जागरूक होने से तकनीकी हस्तांतरण ज्यादा गति से हो रहा है.

डा. पीके सिंह, अधिष्ठाता, अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी महाविद्यालय ने अपने उद्बोधन में सरकार द्वारा संचालित योजनाओं पर प्रकाश डाला. उन्होंने जल ग्रहण प्रबंधन की आवश्यकता पर बल दिया. उन्होंने अपने उद्बोधन में राजस्थान प्रतिवेदन में जल बजटिंग एवं विभिन्न फसलों में जल उपयोग क्षमता बढ़ाने के लिए सेंसर आधारित सिंचाई प्रणाली पर जोर दिया.

डा. लोकेश गुप्ता, राजस्थान कृषि महाविद्यालय के अधिष्ठाता ने दूध की गुणवत्ता एवं उत्पादकता बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया एवं उन्होंने पशुधन उत्पादकता बढ़ाने की तकनीकियों पर प्रकाश डाला.

बैठक के प्रारंभ में डा. राम अवतार शर्मा, अतिरिक्त निदेशक कृषि विभाग, भीलवाड़ा ने गत खरीफ में वर्षा का वितरण, बोई गई विभिन्न फसलों के क्षेत्र एवं उन की उत्पादकता के बारे में विस्तार से जानकारी दी.

कृषि मशीनरी (Agricultural Machinery) को बढ़ावा देने के लिए प्रशिक्षण 

उदयपुर : 2 मई, 2024. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के प्रसार शिक्षा निदेशालय द्वारा लघु एवं सीमांत किसान परिवारों में कृषि मशीनरी को बढ़ावा देने व कृषि में श्रम साध्य साधनों के उपयोग पर एकदिवसीय प्रशिक्षण का आयोजन कृषि विज्ञान केंद्र, चित्तौड़गढ़ पर किया गया. यह प्रशिक्षण विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित परियोजना के अंतर्गत आयोजित किया गया.

प्रशिक्षण के आरंभ में निदेशक प्रसार शिक्षा एवं प्रोजैक्ट इंचार्ज डा. आरए कौशिक ने किसान महिलाओं को संबोधित करते हुए कहा कि बढ़ती हुई आबादी को देखते हुए किसानों को जरूरत है सघन एवं सूक्ष्म अवधि वाली खेती की. इस के लिए उन्नत बीज, खाद एवं समय पर खेती के कामों को पूरा करने के लिए आधुनिक कृषि यंत्रों का उपयोग करना जरूरी हो गया है. इन के खेती में उपयोग से मानव श्रम काफी कम हो जाता है.

अनुसंधानों के आधार पर कहा जा सकता है कि कृषि यंत्रों के उपयोग से खेइत के कामों में लगने वाले श्रम व समय को 20-30 फीसदी तक कम हो जाता है. इस के अतिरिक्त उर्वरकों, बीजों व रसायनों पर होने वाले खर्च में भी तकरीबन 15-20 फीसदी की कमी आ जाती है.

प्रशिक्षण की मुख्य वक्ता डा. हेमु राठौड़, वैज्ञानिक एक्रिप ने किसान महिलाओं के श्रम व साध्य साधनों के उपयोग पर प्रकाश डाला. साथ ही, उन्नत दरांती, मक्का छीलक यंत्र, मूंगफली छीलक यंत्र, ट्रांसप्लांटर, वेजीटेबल पिकिंग बैग, सोलर हेट, उंगली में पहने जाने वाली सब्जी कटर आदि पर प्रशिक्षण दिया. साथ ही, महिलाओं द्वारा उन के सुरक्षित उपयोग को भी सुनिश्चित किया गया.

प्रशिक्षण में डा. लतिका व्यास ने खेती में महिलाओं के योगदान पर चर्चा की और बताया कि कृषि में खेती की तैयारी से भंडारण तक की 90 फीसदी क्रियाएं महिलाओं द्वारा की जाती हैं. इसी दिशा में कृषि को और भी समृद्ध बनाने के लिए किसान महिलाओं के लिए प्रशिक्षण आयोजित किए जा रहे हैं.

डा. आरएल सोलंकी, वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष, कृषि विज्ञान केंद्र, चित्तौड़गढ़ ने किसान महिलाओं को भूमि एवं मिट्टी की उर्वरकता बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रकार के तरीकों पर तकनीकी जानकारी दी.

प्रशिक्षण के दौरान आदर्श शर्मा, प्रोग्राम अफसर, डा. कुसुम शर्मा, डा. दीपा इंदौरिया, अभिलाषा, मदन गिरी व राजेश विश्नोई आदि ने भी विचार व्यक्त किए.

फसल अवशेष ( Crop Residue) जलाने पर होगी कार्यवाही

बस्ती : गेहूं फसल अवशेष जलने की घटना का स्थलीय सत्यापन एवं घटनाओं के नियंत्रण के लिए क्षेत्रीय कर्मचारियों के माध्यम से किसानों को जागरूक करने के साथ ही शासन एवं कृषि विभाग द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन कराने के लिए संयुक्त निदेशक, कृषि, अविनाश चंद्र तिवारी ने मंडल के तीनों उपनिदेशक कृषि एवं जिला कृषि अधिकारियों को निर्देशित किया है.

अधिकारियों को लिखे पत्र में संयुक्त निदेशक, कृषि, अविनाश चंद्र तिवारी ने कहा है कि जनपद स्तर पर एक सेल का गठन करते हुए प्रत्येक दिन की घटनाओं का अनुश्रवण किए जाने एवं प्रत्येक गांव के ग्राम प्रधान एवं क्षेत्रीय लेखपाल को प्रत्येक दशा में अपने से संबंधित क्षेत्र में पराली/कृषि अपशिष्ट जलाने की घटना को रोके जाने के लिए निर्देशित करें.

उन्होंने कहा कि प्रत्येक राजस्व ग्राम अथवा राजस्व ग्राम क्लस्टर के लिए एक राजकीय कर्मचारी को नोडल अधिकारी नामित करें, जो कि सभी के बीच प्रचारप्रसार करते हुए फसल अवशेष आदि को न जलने के लिए प्रेरित करे. लेखपाल की जिम्मेदारी होगी कि अपने क्षेत्र में फसल अवशेष जलने की घटनाएं बिलकुल न होने दें, अन्यथा शिकायत मिलने पर उन के विरुद्ध भी कार्यवाही की जाएगी. जनपद स्तर पर अपर जिलाधिकारी वित्त एवं राजस्व की अध्यक्षता में एक सेल स्थापित करने के निर्देश पूर्व में दिए जा चुके हैं.

उपजिलाधिकारी के अंतर्गत गठित सचल दस्ते का दायित्व होगा कि फसल अवशेष आदि जलने की घटना की सूचना मिलते ही तत्काल मौके पर पहुंच कर संबंधित के विरुद्ध विधिक कार्यवाही सुनिश्चित करेंगे.

उन्होंने बताया कि 2 एकड़ से कम जोत वाले किसानों के लिए फसल अवशेष जलाने पर 2,500 रुपए प्रति घटना और 2 एकड़ से अधिक जोत वाले किसानों से 5,000 रुपए प्रति घटना तहसीलदार के स्तर से आर्थिक दंड लगाया जाएगा.

उन्होंने आगे बताया कि फसल कटाई के दौरान प्रयोग की जाने वाली कंबाइन हार्वेस्टर के साथ सुपर स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम अथवा स्ट्रा रीपर अथवा स्ट्रा रेक एवं बेलर अथवा अन्य कोई फसल अवशेष प्रबंधन यंत्र का उपयोग किया जाना अनिवार्य होगा.

यह भी सुनिश्चित किया जाए कि उक्त व्यवस्था बगैर आप के जनपद में कोई कंबाइन हार्वेस्टर से कटाई न करने पाए. प्रत्येक कंबाइन हार्वेस्टर के साथ कृषि विभाग/ग्राम्य विकास का एक कर्मचारी नामित रहे, जो कि अपनी देखरेख में कटाई काम कराएं. फसल अवशेष प्रबंधन यंत्रों के बगैर चलते हुए पाए जाए, तो उस को तत्काल सीज कर लिया जाए और कंबाइन मालिक के स्वयं के खर्चे पर सुपर स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम लगवा कर ही छोड़ा जाए.