सोयाबीन में जैविक तरीके से कीटों की रोकथाम

सवाल : सोयाबीन फसल में कीटों की रोकथाम कैसे करें? कृपया इस के जैविक तरीके बताएं. – विजय कुमार, रीवा, मध्य प्रदेश

डा. प्रेम शंकर, वैज्ञानिक, फसल सुरक्षा, कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती द्वारा जवाब.

जवाब : सोयाबीन में कीटों के जैविक नियंत्रण के लिए टी आकार की खूंटी 40-50 प्रति हेक्टेयर, फैरोमौन ट्रैप 12-15 प्रति हेक्टेयर, ब्यूवेरिया बेसियाना 1 लिटर प्रति हेक्टेयर, बैसिलस थुरिंजिनिसिस 1 किलोग्राम प्रति एचएनपीवी, 250 एलई प्रति एसएलएनपीवी, 250 एलई प्रति हेक्टेयर.

सोयाबीन व उड़द को पीला मोजेक रोग से बचाएं और रोग का प्रकोप दिखते ही ग्रसित पौधों को उखाड़ कर तुरंत नष्ट करें. सिंथेटिक पाइराइट्स कीटनाशक का उपयोग न करें.

शुरुआती अवस्था में ही थायोमेथोक्साम 25 डब्ल्यूजी या एसीटामिप्रिड 20 एसपी मात्रा 60 ग्राम प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें. नैनो यूरिया तरल (प्लस) फसलों में नैनो यूरिया की 4 मिली मात्रा प्रति लिटर पानी में घोल कर पहला छिड़काव 35-40 दिन पर, दूसरा अंकुरण से 55-60 दिन बाद व तीसरा फसल की जरूरत पर करें.

सोयाबीन फसल में कीट नियंत्रण के लिए अपनाएं यह उपाय

राजगढ़ : कृषि विज्ञान केंद्र, राजगढ़ व किसान कल्याण एवं कृषि विकास विभाग द्वारा ग्राम महू, पट्टी, धामंदा, गवाडा, उदनखेडी आदि गांवों के खेतों पर नैदानिक भ्रमण किया गया. किसानों को कृषि विज्ञान केंद्र के प्रधान वैज्ञानिक डा. आरपी शर्मा, डा. लाल सिंह, एसके उपाध्याय और राकेश परमार द्वारा किसानों को सलाह दी गई कि वर्षा के कारण कुछ क्षेत्रों में जलभराव की स्थिति होने के कारण कई प्रकार के कीट एवं व्याधियों का प्रकोप देखा जा रहा है.

अतः किसानों को सलाह दी जाती है कि नुकसान को कम करने के लिए शीघ्रता से जल निकासी की व्यवस्था करें. अधिक वर्षा के कारण कुछ सोयाबीन की फसल में फफूंदजनित एंथ्रेक्नोज रोग (इस रोग के कारण तनों और फलियों पर असमान्य छोटे काले धब्बे दिखाई देने लगते हैं) एरियल ब्लाइट बीमारी (इस बीमारी के कारण पत्तियों पर असामान्य छोटे काले धब्बे दिखाई देते हैं, जो कि बाद की अवस्था में भूरे या काले रंग में बदल जाते हैं एवं संपूर्ण पत्ती झुलसी एवं कुछ नमी की उपस्थिति में पत्तियां ऐसे प्रतीत होती हैं जैसे पानी में उबल गई हों) और जड़ सड़न रोग (राइजोक्टोनिया), जिस में पौधो की जड़ें काली पड़ कर सड़ने लगती हैं आदि बीमारियों का प्रकोप देखा जा रहा है. इन के नियंत्रण के लिए टेबूकोनाझोल (625 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर) अथवा टेबूकोनाझोलसल्फर (1 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) अथवा पायरोक्लोस्ट्रोबीन 20 डब्ल्यूजी (500 ग्राम प्रति हेक्टेयर) अथवा हेक्जाकोनाझोल 5 फीसदी ईसी (800 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर) से छिड़काव करें.

कुछ क्षेत्रों में सोयाबीन की फसल पर पीला मोजक वायरस बीमारी का प्रकोप देखा गया है. अतः इस के नियंत्रण के लिए प्रारंभिक अवस्था में ही अपने खेत में जगहजगह पर पीला चिपचिपा ट्रैप लगाएं, जिस से इस का संक्रमण फैलाने वाली सफेद मक्खी का नियंत्रण होने में सहायता मिले.

इस की रोकथाम के लिए यह भी सलाह है कि फसल पर पीला मोजक रोग के लक्षण दिखते ही ग्रसित पौधों को अपने खेत से उखाड़ दें. ऐसे खेत में सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए अनुशंसित पूर्व मिश्रित संपर्क रसायन जैसे बीटासायफ्लूथ्रिन इमिडाक्लोप्रिड (350 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर) या पूर्व मिश्रित थायोमेथोक्सामलैम्बडा सायहलोथ्रिन (125 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर) का छिड़काव करें, जिस से सफेद मक्खी के साथसाथ पत्ती खाने वाले कीटों का भी एकसाथ नियंत्रण हो सकें.

यह भी देखने में आया है कि कुछ इलाकों में लगातार हो रही रिमझिम वर्षा की स्थिति में पत्ती खाने वाली इल्लियों द्वारा पत्तियों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है. ऐसी स्थिति में किसानों को सलाह है कि पत्तियां खाने वाली इल्लियों के नियंत्रण के लिए कीटनाशक जैसे इंडोक्साकार्ब 333 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर या लैम्बडासायहेलोथ्रिन 4.9 सीएस 300 मिलीमीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें.

यदि पत्ती खाने वाली इल्लियों के साथसाथ सफेद मक्खी का प्रकोप हो, तो किसानों को सलाह है कि इन के नियंत्रण के लिए बीटासायफ्लुथ्रिन इमिडाक्लोप्रिड 350 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर या थायोमेथोक्साम लैम्बड़ा सायहलोथ्रिन 125 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें.

सोयाबीन की फसल में तना मक्खी की गिडार (इल्ली) पत्ती के सिर से डंठल को अंदर से खाते हुए तने में प्रवेश करती है. तना मक्खी की पहचान मादा मक्खी आकार में 2 मिलीमीटर लंबी भूरी एवं चमकदार काले रंग की होती है. मक्खी अंडे पत्ती की निचली सतह पर देती है, जो कि हलके पीले रंग के होते हैं. शंखी भूरे रंग की होती है. गिडार (इल्ली) एवं शंखी हमेशा तने के अंदर पाई जाती है. प्रभावित पौधों के तने को चीर कर देखने पर लाल रंग की सुरंग दिखाई देती है. पत्तियां धीरेधीरे पीली पड़ने लगती हैं.

तना मक्खी के नियंत्रण के लिए अनुशंसित कीटनाशी दवा जैसे लैम्बडा सायहलोथ्रिन 4.9 सीएस (300 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर) अथवा पूर्व मिश्रित थायोमेथोक्सामलैम्बडा सायहलोथ्रिन (125 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर) का छिड़काव करें.

किसानों को सलाह दी जाती है कि अपने खेत में फसल निरीक्षण के उपरांत पाए गए कीट विशेष के नियंत्रण के लिए अनुशंसित कीटनाशक की मात्रा को 500 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से पानी के साथ फसल पर छिड़काव करें.

सोयाबीन की फसल में कीड़ों का प्रकोप व रोकथाम

सवाल : सोयाबीन की फसल में कीड़ों का प्रकोप दिखाई पड़ रहा है, कीड़ों की रोकथाम के लिए कौन सा उपाय अपनाएँ.  – राममूर्ति मिश्र (किसान)

डा. प्रेम शंकर, वैज्ञानिक फसल सुरक्षा द्वारा जवाब 

जवाब : फसल सोयाबीन में पत्ती काटने वाले कीट व चक्र भंग, मक्का में इल्ली का प्रकोप देखा जा रहा है. इस के लिए आप समन्वित कीट नियंत्रण के अंतर्गत प्रकाश प्रपंच, फैरोमौन ट्रैप, टी आकार की खूंटी, जैविक व अनुशंसित रासायनिक कीटनाशक का प्रयोग करें.

सोयाबीन में कीटों के नियंत्रण के लिए ब्लू बीटल कीट- 4 बीटल, हरी अर्द्धकुंडलक इल्ली- 4 लार्वा (फूल के समय), हरी अर्द्धकुंडलक इल्ली- 3 लार्वा (फली बनते समय), तंबाकू की इल्ली यानी (स्पोडोप्टेरा लिटुरा) – 10 लार्वा, चने की इल्ली- 10 लार्वा, सोयाबीन में प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें और ब्लू बीटल के लिए क्विनालफास 25 लेम्ब्डा ईसी 1 लिटर.

तना मक्खी के लिए थायोमेथोक्साम साइहलोथ्रिन 125 मिली. क्लोरेंट्रानिलीप्रोल+ लैम्ब्डा साइहलोथ्रिन 200 मिलीलिटर  लैम्ब्डासाइहलोथ्रिन 4.90 सीएस 300 मिलीलिटर.

सफेद मक्खी के लिए बीटासायफ्लूबिन + इमिडाक्लोप्रिड 350 मिलीलिटर, एसीटामिप्रिड बाइफेनथ्रेन 250 ग्राम. सेमी लूपर/चने की इल्ली के लिए क्लोरेंट्रानिलीप्रोल 18.5 एससी 150 मिलीलिटर. टेट्रानिलीप्रोल 250-300 मिलीलिटर स्पाइनेटोरम 11.7 एससी 450 मिलीलिटर, फ्लूबेंडामाइड 39.35 एससी 150 मिलीलिटर, इमामेक्टिन बेंजोएट 1.90 ईसी 425 मिलीलिटर, प्रोफेनोफास + साइपरमेथ्रिन 1.25 लिटर कृषि वैज्ञानिको द्वारा अनुशंसित हैं, जिन में से किसी एक कीटनाशक का उपयोग करें.

मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म के नैचुरल ग्रीनहाउस को देख ‘कृभको’ के अधिकारी हुए मुरीद

पिछले दिनों ‘मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सैंटर’ पर नई दिल्ली से भारत सरकार की सहकारी खाद समिति ‘कृभको’ के उच्च अधिकारियों एवं विशेषज्ञों का एक उच्च स्तरीय दल ने दौरा किया. यह तीनदिवसीय भ्रमण निरीक्षण का कार्यक्रम डा. राजाराम त्रिपाठी द्वारा किए गए जैविक खेती के प्रयासों और टिकाऊ कृषि में नवाचारों को गहराई से जानने के लिए था.

‘मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सैंटर, कोडागांव, छत्तीसगढ़ के बारे में शंकर नाग ने बताया कि कृभको की इस उच्च स्तरीय टीम के सभी सदस्यों ने डा. राजाराम त्रिपाठी के जैविक फार्म पर हो रही खेती की जम कर प्रशंसा की और कहा, “पूरे भारत में कम लागत पर इतना ज्यादा फायदा खेती से लेने का ऐसा उदाहरण मिलना संभव नहीं है.” विशेष रूप से उन्होंने उस नैचुरल ग्रीनहाउस को सब से ज्यादा पसंद किया, जो डा. राजाराम त्रिपाठी ने केवल डेढ़ लाख रुपए में एक एकड़ में तैयार किया है, जबकि प्लास्टिक और लोहे से तैयार होने वाला परंपरागत ग्रीनहाउस का एक एकड़ की लागत लगभग 40 लाख रुपए आती है. उन्होंने यह भी जाना कि कैसे डा. राजाराम त्रिपाठी का ग्रीनहाउस न केवल बेहद टिकाऊ है, बल्कि परंपरागत ग्रीनहाउस की तुलना में बहुत अधिक लाभदायक भी है.

यह जान कर सभी सदस्य हैरान रह गए कि 40 लाख रुपए वाला ग्रीनहाउस 7-8 साल में नष्ट हो जाता है और उस की कोई कीमत नहीं रहती, जबकि डा. राजाराम त्रिपाठी का पेड़पौधों से तैयार नैचुरल ग्रीनहाउस हर साल अच्छी आमदनी देने के साथ ही 10 साल में लगभग 3 करोड़ की बहुमूल्य लकड़ी भी देता है. ये अपनेआप में एक अजूबा ही है.

कृभको की टीम ने कम खर्च में संपन्न होने वाली अनूठी जैविक खेती की पद्धतियों और नैचुरल ग्रीनहाउस मौडल का निरीक्षण और परीक्षण किया. उन्होंने वहां अपनाई जा रही विधियों को भी समझा और कैमरे में वहां के नजारे को भी कैद किया, ताकि वे प्रभावी तरीकों को अनेक कृषि से जुड़े लोगों तक पहुंचा सकें.

डा. राजाराम त्रिपाठी ने बताया कि इतने प्रतिष्ठित मेहमानों के साथ अपने अनुभव और नवाचार साझा करना हमारे लिए अविस्मरणीय रहा. उन के द्वारा मिली प्रशंसा और सुझावों ने हमें और अधिक प्रोत्साहित किया है कि हम अपने पर्यावरण मित्रता और टिकाऊ खेती के मिशन को आगे बढ़ाएं.

कृभको के इस दल का स्वागत डा. राजाराम त्रिपाठी ने खुद किया, तत्पश्चात अनुराग कुमार, जसमती नेताम, शंकर नाग, कृष्णा नेताम, रमेश पंडा एवं मां दंतेश्वरी हर्बल समूह के अन्य सदस्यों द्वारा अंगवस्त्र, बस्तर की उपजाई हुई पेड़ों पर पकी बेहतरीन गुणवत्ता की काली मिर्च और जनजातीय सरोकारों की मासिक पत्रिका ‘ककसाड़’ का नया अंक भेंट कर के किया गया.

कार्यक्रम के अंत में आभार व्यक्त करते हुए डा. राजाराम त्रिपाठी ने कहा, “मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सैंटर पिछले 30 वर्षों से इस क्षेत्र के आदिवासियों के उत्थान के लिए निरंतर प्रयासरत है. हमारे फार्म पर अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुरूप शतप्रतिशत जैविक खेती, जड़ीबूटी व मसाले उगाने और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने के साथसाथ आदिवासी समुदायों के लिए शिक्षा और रोजगार के अवसर भी प्रदान किए जाते हैं. हम अपने अनुसंधान और नवाचार के माध्यम से पर्यावरण संवेदनशील और जनजातीय समुदायों को माली रूप से लाभकारी समाधान प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

किसान महिलाओं को मिली सिलाई की ट्रेनिंग (Sewing Training)

उदयपुर : महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय अनुसंधान निदेशालय, उदयपुर के अंतर्गत केंद्रीय कृषिरत महिला संस्थान भुवनेश्वर एवं अखिल भारतीय समन्वित कृषिरत महिला अनुसंधान परियोजना द्वारा संचालित कृषिरत महिलाओं के लिए 10 दिवसीय कौशल विकास प्रशिक्षण सुरक्षात्मक कपड़ों का डिजाइन और विकास का आयोजन बड़गांव पंचायत के मदार गांव में किया गया.

प्रशिक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत महिलाओं को खेती के काम के दौरान पहनने वाले सुरक्षात्मक कपड़ों को बनाने के साथ कई अन्य कपड़ों की ड्राफ्टिंग सिलाई की ट्रेनिंग दी गई. कपड़ों की सिलाई में कई कपड़ों को बनाने का तरीका जैसे मैक्सी, कुरती, लेडीज पेंट, पजामा, टीशर्ट, ब्लाउज, सलवार के बारे में बताया गया.

मदार गांव में इसी वर्ष जनवरी, 2024 में 10 महिलाओं का समूह बना कर कस्टम हायरिंग सैंटर का शुभारंभ किया गया, जिस में 10 सिलाई मशीनें महिलाओं को दी गई थीं.

इन्हीं महिलाओं की क्षमता एवं कौशल विकास कार्यक्रम के अंतर्गत इस प्रशिक्षण का आयोजन 22 जुलाई, 2024 से 31 जुलाई, 2024 तक किया गया.

प्रशिक्षण संयोजिका डा. सुधा बाबेल ने यह प्रशिक्षण केंद्रीय कृषिरत महिला संस्थान, भुवनेश्वर की कार्ययोजना के अंतर्गत 100 दिन में 100 महिलाओं को उद्यम एवं कौशल उन्नयन हेतु प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से प्रारंभ किया.

कोटड़ा में मशरूम (Mushroom) प्रशिक्षण

उदयपुर : अखिल भारतीय समन्वित मशरूम अनुसंधान परियोजना, अनुसंधान निदेशालय, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के तत्वावधान में अनुसूचित जनजाति उपयोजना (टीएसपी) एवं अनुसूचित जाति उपयोजना (एससीएसपी) के अंतर्गत पंचायत समिति कोटड़ा के 10-15 गांवों के कुल 60 से 80 किसानों एवं महिलाओं ने एकदिवसीय, 2 मशरूम (Mushroom) प्रशिक्षणों में भाग लिया.

राजस्थान सरकार के कैबिनेट मंत्री बाबूलाल जी खराड़ी ने भी मशरूम प्रशिक्षण का अवलोकन किया और बताया कि  व्यक्तियों की सेहत एवं अतिरिक्त आमदनी बढ़ाने के लिए मशरूम की खेती को बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक मशरूम प्रशिक्षणो को संपन्न करने पर जोर दिया.

प्रशिक्षण में परियोजना प्रभारी डा. नारायण लाल मीना ने किसानों, महिलाओं एवं बच्चों के अच्छे स्वास्थ्य एवं किसानों की आय को दोगुना करने के लिए खेती के साथसाथ फसल के सहउत्पादों का उपयोग कर के अतिरिक्त आमदनी बढ़ाने के लिए मशरूम के पोषणीय, औषधीय महत्व, ढींगरी और दूधछाता मशरूम की खेती के बारे में विस्तार से जानकारी दी, जिस में किसानों एवं महिलाओं ने पहली बार मशरूम के प्रदर्शन देख कर मशरूम को उगा कर खाने की जिज्ञासा जाहिर की.

कमलेश चरपोटा, कृषि पर्येवेक्षक ने राजस्थान सरकार की अनुसूचित जाति एवं जनजाति की कृषि से संबंधित जनकल्याणकारी योजनाओं के बारे में जानकारी दी. अविनाश कुमार नागदा एवं किशन सिंह राजपूत ने प्रशिक्षण में भाग लेने वाले प्रशिक्षणार्थियों को मशरूम की प्रायोगिक जानकारी दी. प्रशिक्षण के अंत में अनुसूचित जनजाति एवं अनुसूचित जाति के कुल 60 प्रशिक्षणार्थियों को मशरूम की खेती से संबंधित सामग्री वितरित की गई.

वर्षा सिंचित कृषि (Rainfed Agriculture) पर राष्ट्रीय कार्यशाला

नई दिल्ली: पिछले दिनों कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण (एनआरएए), नई दिल्ली में ‘जलवायु अनुकूल वर्षा सिंचित कृषि (सीआरआरए)’ पर राष्ट्रीय कार्यशाला आयोजित की गई. कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के अपर सचिव और सीईओ (एनआरएए) फैज अहमद किदवई ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के उपमहानिदेशक (एनआरएम) डा. एसके चौधरी, कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के संयुक्त सचिव (वर्षा आधारित कृषि प्रणाली) फ्रैंकलिन एल. खोबंग और राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण के तकनीकी विशेषज्ञ (जल प्रबंधन) बी. रथ की उपस्थिति में इस कार्यक्रम का उद्घाटन किया.

फैज अहमद किदवई ने ऐसे नीतिगत सुधारों का आह्वान किया, जो वर्षा सिंचित क्षेत्रों में भूमिहीन, छोटे और सीमांत किसानों के विकास को प्राथमिकता देते हैं. वर्षा सिंचित क्षेत्र चरम जलवायु घटनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, इसलिए उन्होंने वर्षा सिंचित कृषि में जलवायु लचीलापन बनाने के लिए कुछ नवाचारी और प्रौद्योगिकी संचालित कृषि पद्धतियों पर बल दिया.

उन्होंने आरएडी योजना की क्षमता पर भी प्रकाश डाला, जिसे जलवायु अनुकूल वर्षा सिंचित कृषि (सीआरआरए) की ओर संक्रमण के लिए ‘राष्ट्रीय कृषि विकास योजना’ (आरकेवीवाई) के एकीकृत दृष्टिकोण के तहत एक घटक के रूप में लागू किया जा रहा है.

इस के अलावा उन्होंने अधिकतम संसाधन उपयोग सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न विकास कार्यक्रमों के साथ आरएडी योजना के प्रभावी अभिसरण का आह्वान किया. कार्यशाला ने राज्य और केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों, कृषि विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं को जलवायु लचीलापन दृष्टिकोण अपना कर वर्षा सिंचित क्षेत्रों में फसल उत्पादन बढ़ाने के लिए नवाचारी रणनीतियों और प्रौद्योगिकियों पर चर्चा करने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान किया.

डा. एसके चौधरी ने कृषि और संबद्ध क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को रेखांकित किया. उन्होंने एकीकृत दृष्टिकोण के माध्यम से विभिन्न कृषि इकोसिस्‍टम में वितरित वर्षा सिंचित क्षेत्रों के समावेशी विकास के महत्व पर प्रकाश डाला. उन्होंने आईसीएआर-एनआईसीआरए योजना के अनुभव को भी साझा किया, जिसे अनुसंधान, शिक्षा और विस्तार के स्तंभों पर जलवायु परिवर्तन के सभी आयामों के लिए देश में लागू किया जा रहा है. उन्होंने ब्लौक स्तरीय जोखिम मूल्यांकन एटलस और सीआरआरए पर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को व्यावहारिक प्रशिक्षण देने पर भी बल दिया.

कार्यशाला के तकनीकी सत्रों में वर्षा सिंचित क्षेत्रों में एकीकृत कृषि प्रणाली (आईएफएस) और पशुधन व प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन की जटिलताओं पर फोकस किया गया. जलवायु अनुकूल वर्षा सिंचित कृषि के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई, जिस में परिदृश्‍य आधारित एकीकृत कृषि प्रणाली, वाटरशेड विकास, डिजिटल पूर्वानुमान तकनीक, चरागाह मार्गों का पुनरुद्धार और देश में स्थायी कृषि को बढ़ाने के लिए आर्थिक साक्ष्य तैयार करना शामिल है.

कार्यशाला में आरएडी योजना के लिए अद्यतन परिचालन दिशानिर्देशों और प्रमुख कार्यान्वयन चुनौतियों पर भी गंभीरता से चर्चा की गई. इस का समापन वर्षा सिंचित क्षेत्रों में जलवायु के अनुकूल और स्थिरता बढ़ाने के लिए दूरदर्शी दृष्टिकोणों के साथ हुआ. प्रतिभागियों ने कृषि क्षेत्र में क्रांति लाने और देशभर के किसानों के लिए आजीविका सुरक्षा में सुधार के लिए प्रस्तावित रणनीतियों की क्षमता के बारे में आशा व्यक्त की.

बजट 2024 (Budget 2024): किसानों के साथ एक बार फिर ‘छलावा’

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का बजट-2024 दो मायनों में अभूतपूर्व रहा. पहला तो यह कि देश के इतिहास में पहली बार किसी वित्त मंत्री ने 7 वीं बार बजट पेश किया है. हालांकि इस रिकौर्ड के बनने से देश का क्या भला होने वाला है पर इकोनौमी पर क्या प्रभाव पड़ना है, यह अभी भी शोधकर्ताओं के शोध का विषय है. दूसरा यह कि कृषि की वर्तमान आवश्यकता के मद्देनजर इस बजट में देश की खेती और किसानों के लिए ऐतिहासिक रूप से अपर्याप्त न्यूनतम राशि प्रावधानित की गई है.

यह गजब विडंबना है कि इस सब के बावजूद 2024-25 के बजट में विकसित भारत की 9 प्राथमिकताओं में कृषि को सर्वप्रथम स्थान पर रखने का दावा करने का ढोंग किया जा रहा है. इस बजट में घोषित योजनाएं और आवंटन न केवल अपर्याप्त हैं, बल्कि वे कृषि क्षेत्र में कोई भी वास्तविक सकारात्मक परिवर्तन लाने में पूरी तरह से असमर्थ हैं.

कृषि बजट : निराशा का कोहरा हुआ और भी घना

“हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,” बजट 2024 के संदर्भ में देश के किसानों के ऊपर यह लाइन बेहद सटीक बैठती है. कृषि व कृषि संबंध क्षेत्रों के लिए फरवरी, 2024 के अंतरिम बजट में 1.47 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था और वर्तमान बजट 1.52 लाख करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है, जो बहुत ही मामूली बढ़ोतरी है. यह राशि देश के कृषि क्षेत्र की विशाल जरूरतों के मुकाबले ऊंट के मुंह में जीरा है.
किसानों को बड़ी घोषणाओं और दीर्घकालिक सुधार योजनाओं की उम्मीद थी, लेकिन यह बजट उन की उम्मीदों पर पानी फेरता दिखाई देता है. प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि और किसान पेंशन योजनाओं का दायरा व राशि कम होती जा रही है. पुरानी योजना व नई योजनाओं के लिए कोई बड़ा आवंटन नहीं है.

किसानों का प्रीमियम हड़प कर निजी बीमा कंपनियों की बैलेंसशीट समृद्ध हो रही है, जबकि देश में प्रतिदिन बड़ी तादाद में मजबूर किसान आत्महत्या कर रहे हैं. इस से यह साफ है कि सरकार कृषि क्षेत्र के जरूरी कायाकल्प के प्रति बिलकुल ही गंभीर नहीं है.

कृषि शोध : आधेअधूरे वादे, खतरनाक इरादे

बजट में कृषि शोध की समीक्षा और जलवायु अनुकूल किस्मों के विकास का वादा किया गया है, लेकिन इस के लिए कोई ठोस फंडिंग नहीं दी गई है. कृषि शिक्षा और शोध विभाग के लिए मात्र 9941.09 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है, जो पिछले साल की तुलना में बेहद मामूली वृद्धि है. इस राशि से कृषि अनुसंधान में व्यापक सुधार की उम्मीद करना बेमानी है.

भारतीय प्रशासनिक सेवा बनाम भारतीय कृषि सेवा : विशेषज्ञता के बिना जहाज का डूबना तय है

कृषि छात्रों और कृषि वैज्ञानिकों के साथ उन फैकल्टी की तुलना में सदैव पक्षपात होता रहा है. भारतीय कृषि सेवा की लंबे समय से मांग की जाती रही है. देश की कृषि योजनाओं का निर्माण व शीर्ष स्तरीय कार्यान्वयन कृषि विशेषज्ञों के बजाय आईएएस व अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा निष्पादित किया जाता है.

हमारा मकसद यहां प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की कार्यक्षमता पर सवाल उठाना नहीं है. किंतु यह भी समझना होगा कि हवाईजहाज उड़ने वाले पायलट से अगर पानी का जहाज चलवाएंगे, तो जहाज के डूबने की पर्याप्त संभावना है.

प्राकृतिक खेती : घटता बजट, खोखले दावे

गजब विडंबना है कि संसद में बजट प्रस्तुत करने के साथ अगले 2 साल में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने की योजना का जिक्र है, लेकिन इस काम के लिए मात्र 365 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जबकि पिछले साल इस काम के लिए 459 करोड़ रुपए का प्रावधान था यानी पिछले साल की तुलना में इस साल के बजट में 94 करोड़ रुपए अर्थात 20 फीसदी की कटौती की गई है. इस से भी ज्यादा आश्चर्यजनक व सत्य तथ्य यह है कि पिछले साल इस मद में सरकार ने केवल 100 करोड़ रुपए ही खर्च किए थे.

ऐसा प्रतीत होता है कि इस सरकार में एक हाथ क्या कर रहा है दूसरे हाथ को पता ही नहीं है, अन्यथा जिस मुद्दे पर प्रधानमंत्री स्वयं संसद में खड़े हो कर छाती ठोंक कर एक करोड़ किसानों को जैविक खेती से जोड़ने की बात कर रहे हों, उसी मद में 20 फीसदी की कटौती हो जाए, तो इस का मतलब यही है कि या तो प्रधानमंत्री को वस्तुस्थिति का पता नहीं है अथवा यह तथ्य जानबूझ कर उन से छुपाए गया है.

जाहिर है कि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के सरकार के प्रयास नाकाफी हैं और सरकार झूठे आंकड़ों से खुद को और जनता दोनों को बहला रही है.

हाईटैक डिजिटल एग्रीकल्चर : वास्तविकता व व्यवहार्यता से कोसों दूर

ड्रोन के फायदे गिनाते सरकार थकती नहीं है. पिछले बजट में एक मोटी राशि भी इस पर खर्च कर दी गई, पर इस अत्यंत महंगे खिलौने ने ज्यादातर फायदा इस के निर्माण और विपणन से जुड़ी कंपनियों को ही पहुंचाया है, बहुसंख्य किसानों तक इस का फायदा कैसे पहुंचेगा, इस का कोई प्रभावी रोडमैप दिखाई नहीं देता.

डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर के उपयोग से कृषि में डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने की घोषणा की गई है. लेकिन सवाल उठता है कि इस प्रक्रिया का असल मकसद क्या है? किसानों को हर सीजन में और अलगअलग फसलों के लिए औनलाइन पंजीकरण की प्रक्रिया में उलझा दिया जाता है. डिजिटल डिवाइड और डेटा दुरुपयोग की चिंताओं को नजरअंदाज कर दिया गया है.

खाद्य तेल और दालों में आत्मनिर्भरता : एक दूर की कौड़ी

खाद्य तेलों और दालों में आत्मनिर्भरता के लिए मिशन शुरू करने की घोषणा की गई है, लेकिन पिछले अनुभव बताते हैं कि ऐसे कदमों का वास्तविक लाभ नहीं मिला है. जब किसानों का दलहन बाजार में आता है, उस समय उन्हें न तो सही दाम मिलता है, और न ही पर्याप्त खरीदी होती है. कालांतर में तेल आयात कर व्यापारी और कंपनियां मोटा मुनाफा कमाती हैं. सरकार की नाक के नीचे किसान लुट रहा है और व्यापारी चांदी काट रहे हैं. एमएसपी में बढ़ोतरी और बफर स्टाक बनाने जैसे प्रयास नाकाम रहे हैं. आयात पर निर्भरता और कीमतों में उतारचढ़ाव की समस्या जस की तस बनी हुई है.

फलसब्जियों की कीमतों में ठहराव : ठोस समाधान का अभाव

फलसब्जियों की कीमतों में उतारचढ़ाव के चलते महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है. टौपअप जैसी स्कीम की असफलता इस बात का सुबूत है. फलसब्जियों के बेहतर उत्पादन, मार्केटिंग और भंडारण के लिए इस बार भी कोई ठोस वित्तीय प्रावधान नहीं किया गया है, जिस से किसानों को राहत मिल सके.

डेयरी और फिशरीज : आधे मन से आधीअधूरी घोषणाएं

डेयरी और फिशरीज के क्षेत्र में केवल झींगा उत्पादन और निर्यात को बढ़ावा देने की बात कही गई है. देश में दूध का उत्पादन कुल खाद्यान्न से अधिक हो गया है. यह क्षेत्र पर्याप्त संभावनाओं का क्षेत्र है, लेकिन इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के लिए भी कोई नई योजना या बड़ा आवंटन नहीं किया गया है.

कृषि सहकारिता: सहकारिता की फसल, चर गए नेता

सहकारिता आंदोलन के तुच्छ राजनीतीकरण के कारण पटरी से नीचे उतर गया है. असल किसानों को सहकारिता के फायदे के दायरे में लाने के लिए नई नीति लाने की घोषणा की गई है. लेकिन इस के सुधार का कोई नवीन रोडमैप आज भी अस्पष्ट है. इस के लिए पूर्व में गठित की गई समितियों के सुझावों पर ही निर्भर रहना पड़ेगा. आमूलचूल परिवर्तन लाने वाली नवीन नीति के आने तक किसानों को कोई ठोस लाभ मिलता दिखाई नहीं देता. सहकारिता के नवीन अवतार वर्तमान ‘एफपीओ’ भी कमोबेश नई बोतल में पुरानी शराब वाली कहावत चरितार्थ कर रहे हैं.

अंततः बहुत कठिन है डगर पनघट की, आगे की राह आसान नहीं

कृषि और सहयोगी क्षेत्रों के लिए बजट 2024-25 में कोई बड़े बदलाव या घोषणाएं नहीं हैं. सरकार की प्राथमिकताओं में कृषि को पहले स्थान पर रखना एक दिखावा है. सच तो यह है कि किसानों को बड़े सुधारों और दीर्घकालिक योजनाओं एवं समग्र बजट के 15 से 20 फीसदी राशि की आवश्यकता है. जबकि सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो, देश की आबादी का 70 फीसदी जोकि खेती और कृषि संबद्ध उद्योग से जुड़ा हुआ है, के लिए को बजट का मात्र 3 से 4 फीसदी 3 से 4 फीसदी राशि ही आवंटित की  जाती रही है.

वर्तमान बजट में भी नया कहने को कुछ भी नहीं है, पिछली परंपराओं को ही दोहराया गया है. कृषि के लिए बजट राशि में पहले से भी ज्यादा कटौती की गई है. किसान आंदोलन के दरमियान भाजपा नेताओं और उन के प्रवक्ताओं ने जिस तरह से देश के किसानों को तरहतरह के विशेषणों से नवाजा, गालियां दी, आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया, इस सब से देशभर के किसानों में एक कड़वाहट और नाराजगी बैठ गई है. किसानों की बहुप्रतीक्षित मांगों को पूरा करते हुए एक सकारात्मक बजट ला कर इस नाराजगी को कम किया जा सकता था, किंतु सरकार ने एक और अच्छा अवसर गवा दिया.

लुवास व कैरस लैबोरेटरीज के बीच हुआ समझौता, पशु चिकित्सा छात्रों को पुरस्कार

हिसार : लाला लाजपत राय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, हिसार के कुलपति डा. विनोद कुमार वर्मा के मार्गदर्शन में कुलपति सचिवालय लुवास, हिसार में 16 जुलाई, 2024 को लुवास विश्वविद्यालय व कैरस लैबोरेटरीज प्राइवेट लिमिटेड, करनाल के मध्य समझौता हस्ताक्षर समारोह का आयोजन किया गया.

इस अवसर पर लुवास की ओर से डा. राजेश खुराना, निदेशक मानव संसाधन एवं प्रबंधन और कारस लैब्स की ओर से प्रबंध निदेशक डा. अरुण पिलानी ने समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए. लुवास की ओर से पशु चिकित्सा महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. गुलशन नारंग और दूसरे पक्ष की ओर से डा. दीपक कुमार, जीएम- सेल्स एंड मार्केटिंग ने इस अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई.

इस समझौता ज्ञापन का उद्देश्य बीवीएससी एंड एएच के अंतिम वर्ष के छात्रों को छात्रवृत्ति/पुरस्कार आवंटित करना है. नैदानिक विषयों यानी मैडिसिन, सर्जरी, स्त्री रोग और क्लिनिक में उन की समग्र योग्यता (ओजीपीए) के आधार पर उन की कड़ी मेहनत और ज्ञान वृद्धि के लिए मनोबल बढ़ाने के लिए पुरस्कार दिया जाएगा.

सहयोग के अनुसार टौपर को 51,000/- रुपए, प्रथम रनरअप को 31,000/- रुपए और दूसरे रनरअप को 21,000/- रुपए के 3 पुरस्कार होंगे और यह पशु चिकित्सा शिक्षा और जागरूकता को बढ़ाने और प्रोत्साहित करने के लिए कैरस प्रयोगशालाओं की सीएसआर नीति के अनुसार सीएसआर गतिविधि का हिस्सा होगा. कैरस या उस के कार्यकारी पास होने वाले छात्रों के शपथ ग्रहण समारोह में इन पुरस्कारों का आवंटन करेंगे.

लुवास के पशु चिकित्सा स्नातक छात्रों को साल 2018 बैच से पुरस्कार दिए जाएंगे. पुरस्कार 2018 बैच के पास होने से शुरू हो कर साल 2023 में न्यूनतम 10 सालों की अवधि के लिए जारी रहेंगे.