कपास तेल (Cotton Oil) की खास प्रक्रिया गौसीपोल के लिए मिला पेटेंट

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय ने कपास बीज उत्पादों से गौसीपोल को हटाने के लिए एक रासायनिक प्रक्रिया में पेटेंट हासिल किया है. इस पेटेंट को भारत सरकार की ओर से प्रमाणपत्र मिल गया है.

भारत सरकार के पेटेंट नियंत्रक की ओर से जैव रसायन, कपास अनुभाग, आनुवांशिकी और पौध प्रजनन विभाग द्वारा विकसित इस तकनीक को पेटेंट संख्या 555667 दी गई है. पेटेंट कार्य में डा. शिवानी मानधनिया, डा. राजबीर सांगवान और डा. अरुण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

कुलपति प्रो बीआर कंबोज ने कहा कि विश्वविद्यालय के लिए यह गौरव की बात है कि कपास के तेल से हानिकारक गौसीपोल यौगिक को हटाने का पेटेंट विश्वविद्यालय को प्राप्त हुआ है. इस से यह तेल खाने के लिए उपयुक्त हो जाता है. ऐसा तेल खाने से सेहत बिगड़ जाती है. गौसीपोलयुक्त तेल के सेवन से सांस लेने में तकलीफ, शरीर के वजन में कमी और कमजोरी आदि के लक्षण दिखाई देते हैं. कपास के तेल से गौसीपोल के दोनों स्टीरियोइसोमर्स को हटाना इस के सेवन के लिए बहुत जरूरी है.

पेटेंटकर्ता वैज्ञानिक डा. शिवानी मानधनिया ने हटाने गौसीपोल की तकनीकी जानकारी साझा करते हुए बताया कि बिनौले के तेल को कार्बनिक विलायक के साथ मिलाया जाता है और कुछ रासायनिक यौगिकों की उपस्थिति में फिल्टर किया जाता है, जो कि एक सोखना और अवशोषित करने के रूप में काम करता है.

उन्होंने पेटेंट के विश्लेषणात्मक कामों में प्रयुक्त उपकरण की खरीद के लिए धनराशि उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई), हरियाणा सरकार का आभार व्यक्त किया.

पेटेंट की विशेषताएं:

– इस प्रक्रिया का विशेष गुण यह है कि इस में तेल को बिना उबाले गौसीपोल को हटाया जाता है, जिस से कपास के तेल के प्राकृतिक गुण बने रहते हैं.

– गौसीपोल के दोनों आइसोमर्स (+ और -) को हटाने के अलावा बिनौले के तेल से कुछ भारी धातुओं को भी हटाया गया है.

– इस प्रक्रिया को आम आदमी भी आसानी से न्यूनतम संसाधन की सहायता से गौसीपोल को हटा सकता है.

गैरपारंपरिक खाद्य तेलों में कपास के बीज का तेल अपने उच्च पोषक मूल्य, उच्च स्मोक पौइंट और विटामिन ई की उपस्थिति के कारण सब से अधिक उपयोग किया जाता है. वर्ष 2023 में तकरीबन 1.36 मिलियन मीट्रिक टन कपास के बीज के तेल का उपयोग किया गया. कपास के बीज के तेल का उपयोग आमतौर पर खाद्य उत्पादों, सलाद ड्रैसिंग और मार्जरीन के प्रकारों के उत्पादन के लिए किया जाता है.

कपास अनुभाग के प्रमुख डा. करमल सिंह ने बताया कि यह उपलब्धि वैज्ञानिकों को कपास में बेहतर शोध कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करेगी.

50 फीसदी से ज्यादा रोजगार (Employment) देता है कृषि क्षेत्र

करनाल : केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण व ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद – राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान करनाल, हरियाणा में वैज्ञानिकों, गन्ना किसानों एवं लखपति दीदियों के साथ संवाद कार्यक्रम में भाग लिया. उन्होंने कहा कि हम सब एक परिवार हैं. आप सब से मिल कर मैं प्रसन्न हूं. मैं ने भी फलों, फूलों, औषधि की खेती व डेयरी की है. कुछ हम आप से सीखेंगे और कुछ आप को सिखाएंगे.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने बचपन की बातें साझा करते हुए कहा कि मुझे लगा कि जब तक बेटियों को बोझ मानने की मानसिकता रहेगी, तब तक दुनिया बेटियों को पैदा नहीं होने देगी, इसलिए भेदभाव खत्म करना चाहिए.

महिलाओं के लिए योजनाएं

उन्होंने आगे बताया कि मुख्यमंत्री बनते ही महिलाओं के लिए लाड़ली लक्ष्मी योजना बनाई थी. 50 लाख से ज़्यादा लाड़ली लक्ष्मी बेटियां आज मध्य प्रदेश में हैं. महिलाओं का आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक सशक्तीकरण बहुत आवश्यक है. मध्य प्रदेश पहला राज्य था, जिस ने महिलाओं को स्थानीय निकाय के चुनावों में 50 फीसदी आरक्षण दिया था. उस के बाद कन्या विवाह योजना जैसी कई योजनाएं शुरू कीं.

उन्होंने आगे कहा कि महिला सशक्तीकरण मेरी जिंदगी का मिशन है और किसानों की आय के बिना देश आगे नहीं बढ़ सकता. कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. आज भी कृषि जीडीपी में महज 18 फीसदी का योगदान देती है और 50 फीसदी से ज्यादा लोगों को रोजगार देती है.

कृषि योजनाओं और कृषि विविधीकरण से बढ़ेगी किसानों की आय

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संकल्प किसानों की आय बढ़ाना है. कृषि के लिए हमारी 6 योजनाएं हैं.  हमें उत्पादन बढ़ाना है. इस के लिए अच्छे बीज का होना आवश्यक है. साल 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 109 बीजों की वैरायटी भी आईसीएआर के कैंपस में लोकार्पित की थी. साथ ही, हमें लागत घटाना है. उत्पादन का ठीक दाम देना है. उपज का नुकसान होने पर उस की भरपाई भी करनी है. साथ ही, कृषि का विविधीकरण भी करना है.

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खेती के सहयोगी काम से अतिरिक्त आमदनी

उन्होंने कहा कि आमदनी बढ़ाने के लिए हमें परंपरागत खेती ही नहीं, बल्कि फलों, फूलों, औषधि की खेती, कृषि वानिकी, पशुपालन, मधुमक्खीपालन और मछलीपालन आदि कई प्रकार की खेती करनी होगी. आमदनी बढ़ाने के लिए कई तरह के प्रयास करने पड़ेंगे. कृषि और डेयरी दोनों जुड़े हुए हैं. मुझे गर्व है कि इस क्षेत्र में एनडीआरआई ने उल्लेखनीय काम किया है.

कृषि में नए शोध और तकनीकी खेती से फायदा

मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि नई तकनीक का प्रयोग करते हुए हम कैसे अधिक दूध का उत्पादन कर सकते हैं, इस पर हमें ध्यान देना होगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जोर दे रहे हैं कि कैसे हम पशुओं को उन्नत नस्ल में बदल दें. वैज्ञानिकों को भी इस के लिए बधाई देता हूं.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था, वहीं अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘जय विज्ञान’ जोड़ा और नरेंद्र मोदी ने ‘जय अनुसंधान’ को जोड़ा,  जो कि अनुसंधान के लिए आवश्यक है. शोध और अनंसंधान पर खर्च होना चाहिए. तकनीक के इस्तेमाल के बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं. भारत को हमें ‘फूड बास्केट’ बनाना है और भारत को दूध का सब से बड़ा उत्पादक भी बनाना है. इस में संस्थान की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है.

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तीसरी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बनेगा भारत

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि किसान भाई, आप मेरी चिंता न करें. मेरी यही कोशिश रहेगी कि किसान आगे बढ़े और हमारा अन्नदाता कैसे सुखी हो. उन्होंने बहनों को प्रेरित करते हुए कहा कि बहनों आप को भी लखपति बनना है. 1 करोड़, 15 लाख ‘लखपति दीदीयां’ हैं. कई दीदियों ने छोटेछोटे उद्योग शुरू कर दिए हैं. हमें एक वैभवशाली, गौरवशाली, संपन्न, समृद्ध और शक्तिशाली भारत बनाना है.

उन्होंने कहा कि भारत दुनिया की 5वीं सब से बड़ी अर्थव्यवस्था है और जल्दी ही दुनिया की तीसरी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाला है. उस में कृषि और पशुपालन का अहम रोल होगा और महिलाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान होगा.

उन्होंने कहा कि दीदीयां तकनीक का प्रयोग करते हुए आज ड्रोन उड़ा रही हैं. एनडीआरआई के दोस्तों और अन्य संस्थानों को अच्छे काम के लिए मैं बधाई देता हूं और जहां सुधार की गुंजाइश होगी वह किया जाएगा.

जल संसाधनों (Water Resources) के अधिक दोहन को रोकना जरूरी

हिसार : चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में ‘वाटर एफिशिएंट क्राप कल्टीवार’ विषय पर चौथी उच्चस्तरीय समिति की बैठक का आयोजन हुआ. इस बैठक में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो बीआर कंबोज ने बतौर मुख्य अतिथि शिरकत की, जबकि पंजाब विश्वविद्यालय लुधियाना के पूर्व कुलपति एवं समिति के चेयरमैन डा. बीएस ढिल्लो विशिष्ट अतिथि के तौर पर मौजूद रहे.

बैठक में पीडब्ल्यूआरडीए के तकनीकी सलाहकार व पंजाब के पूर्व कृषि निदेशक राजेश वशिष्ठ, कृषि महाविद्यालय पीएयू के पूर्व अधिष्ठाता डा. एसएस कुकल एवं भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान के पूर्व निदेशक डा. सीएल आचार्य भी उपस्थित रहे.

इस उच्चस्तरीय समिति का मुख्य उद्देश्य जल संसाधनों के अधिक दोहन को रोकना, खरीफ मौसम में कम पानी में उगाई जानी वाली किस्मों को प्रचलित करना व इन से संबंधित शोध की समीक्षा करना व अन्य संस्थानों के साथ शोध को बढावा देना है.

कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने अपने संबोधन में जल जैसे अमूल्य प्राकृतिक संसाधन के खेती में सदुपयोग करने व उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप कृषि योजना बना कर प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के महत्व के बारे में अपने विचार रखे.

उन्होंने खरीफ मौसम में कम पानी में उगाई जाने वाली व बेहतर उत्पादन देने वाली किस्मों को उगाने के लिए उन्नत सस्य क्रियाएं अपना कर जल संरक्षण करने पर जोर दिया. उन्होंने आगे यह भी कहा कि भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के लिए जल संसाधनों का संरक्षण बहुत जरूरी है. बायोसैंसर जैसी आधुनिक तकनीक का जल संसाधनों में बेहतर उपयोग किया जा सकता है. मक्का की फसल धान वाले खेतों में पानी बचाने के लिए एक बेहतर विकल्प साबित हो सकती है.

उन्होंने बताया कि मक्का का साइलेज 70-80 दिन में तैयार हो जाता है. साथ ही, चारे की कमी के दिनों में पशुओं के लिए यह बहुत उपयोगी होता है. इसी तरह गेहूं वाले क्षेत्रों में राया की फसल उगा कर पानी की बचत की जा सकती है. राया के बाद छोटी अवधि की फसल जैसे मूंग उगाई जा सकती है, जिस से मुनाफा बढ़ने के साथसाथ संसाधनों की बचत भी होगी.

डा. बीएस ढिल्लो ने बताया कि खरीफ के मौसम में धान की कम पानी में उगाई जाने वाली व धान की सीधी बिजाई के लिए उपयुक्त किस्मों के बारे में चर्चा की. साथ ही, खरीफ में उगाई जाने वाली दूसरी फसलें जैसे मूंग, अरहर, बाजरा व कपास की भी कम पानी में बेहतर पैदावार देने वाली किस्मों के बारे में जानकारी दी.

अनुसंधान निदेशक डा. राजबीर गर्ग ने बैठक में सभी का स्वागत करते हुए धानगेहूं फसल चक्र में पानी की बचत के लिए विभिन्न तकनीकों व पहलुओं पर अपने विचार रखे. उन्होंने कपास, धान, मक्का फसल की अधिक पैदावार व मुनाफा देने के साथसाथ कम पानी में उगाई जाने वाली किस्मों से संबंधित शोध को बढ़ावा देने संबंधी रणनीति के बारे में भी बताया.

डा. सीएल आचार्य ने बताया कि भूमिगत जल संसाधनों का अधिक दोहन हो रहा है, जिस के चलते पूरे देश में 151 जिले पानी की कमी से जूझ रहे हैं. साथ ही, भूमिगत पानी में पाए जाने वाले हानिकारक तत्व भी होते हैं. गत वर्ष हरियाणा, पंजाब व राजस्थान में क्रमश: 8.69, 16.98 व 11.25 बिलियन क्यूबिक मीटर भूमिगत पानी निकाला जा सकता था, जबकि 11.8, 27.8 व 16.74 बिलियन क्यूबिक मीटर भूमिगत पानी निकाला गया.

उन्होंने यह भी बताया कि आगे ऐसा समय भी आएगा, जब फ्लड सिंचाई बंद करनी होगी व अधिक दक्षता वाले सिंचाई के तरीके जैसे टपक व फव्वारा सिंचाई जैसी तकनीकों को अपनाना होगा. वहीं डा. एसएस कुकल ने बताया कि कम पानी में बेहतर पैदावार देने वाली नई किस्मों का परीक्षण अधिक से अधिक स्थानों पर करना जरूरी है, ताकि उन के नतीजे सत्यापित हो सकें. राजेश वशिष्ठ ने धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया. बैठक का संचालन डा. एसएस यादव ने किया.

बिहार कृषि विश्वविद्यालय (Agricultural University) को मिली नई जिम्मेदारी

सबौर : 19 दिसंबर, 2024. बिहार कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू), सबौर, को नीति आयोग द्वारा पूर्वोदय योजना के तहत पूर्वी भारत के समग्र विकास के लिए नोडल एजेंसी के रूप में नामित किया गया है. यह योजना बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और आंध्र प्रदेश सहित पूर्वी क्षेत्र के विकास के लिए तैयार की जा रही है.

यह पहल पूर्वी भारत में कृषि व ग्रामीण विकास से संबंधित क्षेत्रों में मौजूद अनूठी चुनौतियों और संभावनाओं का अध्ययन कर के एक व्यापक राज्य योजना बनाने का प्रयास करेगी. नीति आयोग ने बीएयू की शोध में उत्कृष्टता और विशिष्ट विशेषज्ञता को मान्यता देते हुए यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी है.

यह पहल क्षेत्र के महत्वपूर्ण मुद्दों का विश्लेषण करने, क्षेत्रीय योजनाओं और पिछले कार्यक्रमों के प्रदर्शन के आधार पर संभावित लक्ष्यों को निर्धारित करने और उन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक हस्तक्षेपों को सूचीबद्ध करने पर केंद्रित होगी.

बिहार कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति, डा. डीआर सिंह ने कहा, “यह नामांकन हमारे लिए गर्व और जिम्मेदारी का प्रतीक है. हम इस योजना को प्रभावी और टिकाऊ बनाने के लिए अपनी पूरी विशेषज्ञता और संसाधनों का उपयोग करेंगे.”

इस महत्वाकांक्षी योजना का उद्देश्य पूर्वोदय क्षेत्र को विकास का इंजन बनाना और “विकसित भारत” के लक्ष्य को प्राप्त करना है. यह पहल कृषि एवं ग्रामीण विकास में संरचनात्मक सुधार लाने और क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने में मदद करेगी.

लखपति बनाए लाख (Lac)

इस समय किसानों की रोजीरोटी खतरे में है. जंगल उजाड़ कर कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं. इस से एक ओर जहां पर्यावरण बिगड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर हमारी सेहत भी संकट में है. ऐसे में जरूरी है कि खेती इस तरह से की जाए, जिस से न सिर्फ पर्यावरण सुरक्षित रहे, बल्कि सेहत और आमदनी भी सही रहे. ऐसा लाख की खेती से हो सकता है. तो आइए जानते हैं कि क्या है लाख, कैसे होगी इस की खेती और कैसे मिलेगी इस से भरपूर आमदनी.

क्या है लाख : यह एक कुदरती राल होता है, जो कैरिका लैक्का नाम के मादा कीट द्वारा खासतौर पर प्रजनन के बाद स्राव के फलस्वरूप बनता है. इस कीट को कुछ खास पेड़ों की टहनियों पर पालते हैं. दरअसल, लाख का कीट अपने शरीर की हिफाजत करने के लिए एक प्रकार का तरल पदार्थ छोड़ता है, जो सूख कर कवच बना लेता है और उसी के भीतर कीट जीवित रहता है. इसी कवच को लाख कहा जाता है.

 

इसे दवा उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, सौंदर्य प्रसाधन उद्योग, विद्युत उद्योग, चमड़ा उद्योग, सूक्ष्म रसायन उद्योग व दूसरे कई उद्योगों में इस्तेमाल किया जाता है. झारखंड में इस की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है. वैसे अब इस का दायरा कई राज्यों में बढ़ता जा रहा है.

कितनी तरह का होता है लाख : लाख के कीट 2 तरह के होते हैं, जिन्हें रंगीनी और कुसुमी कहते हैं. रंगीनी लाख की फसल ज्यादातर पलाश व बेर पर लेते हैं. इस के साथ ही रंगीनी लाख की फसल को संदन व पीपल पर भी लेते हैं. कुसुमी लाख की फसल को ज्यादातर कुसुम व बेर पर लेते हैं. बेर, आकाशमनी, गलगांव, भलिया, पुतरी व खैर जैसे पौधों पर दोनों में से कोई भी एक कीट लगा सकते हैं.

कैसे होगी इस की खेती : लाख कीट पालन के कुल 6 चरण होते हैं, पहला पेड़ों की काटछांट, दूसरा कीटों का उन पर फैलाव, तीसरा फुंकी उतारना (कीटों के फैलाव के 15 दिनों बाद बची हुई लाख की डंडी फुंकी कहलाती है), चौथा दवा का छिड़काव, पांचवां फसल की कटाई और छठवां लाख की छिलाई.

लाख की फसल पेड़ों के 2 खंड बना कर करते हैं. पहली फसल पहले खंड में और अगली फसल दूसरे खंड में लेते हैं. इस से पेड़ तंदुरुस्त रहता है व उसे आराम करने का मौका भी मिल जाता है. पेड़ों की कांटछांट सूखी व टूटीफूटी टहनियों को हटाने के लिए करते हैं. तकरीबन 2 से 2.5 सेंटीमीटर व्यास की टहनियों को तकरीबन 1-1.5 फुट की ऊंचाई से लंबे हत्थेदार प्रूनर से फरवरी या जुलाई में काटते हैं. कीटों के फैलाव के लिए लाख के बीजों के बंडल बना कर पेड़ों की कई डालियों पर बांध दिए जाते हैं.

LACक्या है बीहन यानी बीज : बीहन लाख में मौजूद कीट जिंदा होने चाहिए. इस की पहचान है कि लाख के ऊपर कीट द्वारा निकाले गए सफेद मोम जैसे धागे साफ दिखाई देने चाहिए. पपड़ी के भीतर लाख कीट खून की तरह लाल होना चाहिए. लाख की पपड़ी मोटी होनी चाहिए. लाख की पपड़ी में शत्रु कीट नहीं होने चाहिए. यदि डंडियों पर कुछ जाल जैसा फैला हो, गुंबद के आकार का उठा हो या फिर कई जगहों पर छेद दिखाई दें तो समझें कि बीहन लाख दुश्मन कीटों से प्रभावित है.

जुलाई में बीहन लेते समय देखना चाहिए कि उस में से शिशु कीट बाहर नहीं आए हों. अगर आए भी हों, तो बहुत कम हों, लेकिन अक्तूबर और फरवरी में बीहन खरीदते समय शिशु कीट बाहर चलते दिखाई पड़ें तो अच्छा रहेगा.

कहां मिलेंगे बीहन (बीज) : बीजों के लिए आप रांची स्थित ‘इंडियन इंस्टीट्यूट आफ नेचुरल रेजिन एंड गम्स’ जिसे पहले ‘भारतीय लाख अनुसंधान संस्थान’ के नाम से जानते थे, से संपर्क कर सकते हैं. वैसे बीहन के लिए झारखंड के ऐसे क्षेत्रों में भी संपर्क किया जा सकता है, जहां पर इस की खेती बड़े पैमाने पर की जाती हो. इस के अलावा आप इलाहाबाद के बायोवेद कृषि एवं प्रोद्योगिकी शोध संस्थान 103/42 मोतीलाल नेहरू रोड, निकट प्रयाग स्टेशन से भी संपर्क कर सकते हैं.

कैसे होगा रोगों और कीटों से बचाव : लाख कीट के प्रमुख शत्रु कीट सफेद पिल्लू व काले पिल्लू हैं, जो लाख की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. ये पिल्लू बाद में तितली बन कर नई लाखयुक्त टहनियों पर अंडे देते हैं. इन के अलावा कुछ और कीट जैसे यूरीटोमा व ब्रेकीमेरिया आदि भी भारी नुकसान पहुंचाते हैं.

दुश्मन कीट होने पर किसी कीटनाशी जैसे डाइक्लोरोवास 76 ईसी का इस्तेमाल करना चाहिए. कभीकभी कुछ फफूंदी लाख फसल में दिखाई पड़ती है, जिस की रोकथाम के लिए किसी कवकनाशी जैसे कार्बंडाजिम का छिड़काव करना चाहिए.

रंगीनी बैशाखी फसल में शत्रु कीट से बचाव के लिए कीटनाशी का इस्तेमाल नवंबर के दूसरे या तीसरे हफ्ते और फरवरी के पहले हफ्ते में करते हैं, जबकि रंगीनी कतकी फसल में अगस्त के पहले हफ्ते में करते हैं. कुसुमी जेठवी फसल में फुंकी उतारने के बाद फरवरी के आखिरी हफ्ते या मार्च के पहले हफ्ते में किसी हलके कीटनाशी और फफूंदनाशी का साथ में छिड़काव करना चाहिए.

दुश्मन कीटों की मौजूदगी का अंदाजा हम लाख पपड़ी में छेद, गुंबदनुमा बनावट या खोखली पपडि़यों से लगा सकते हैं. दुश्मन कीटों का पता लगाने के लिए करीब 1 फुट लंबी कीट युक्त टहनी कांच के गिलास में रख कर कपड़े से ढक कर रबर बैंड लगा दें. 2-3 दिनों के बाद इस में यदि छोटेछोटे कीट उड़ते दिखाई दें, तो समझें कि इस में दुश्मन कीटों का हमला हो चुका है.

दीमक की समस्या : जिन पेड़ों पर दीमक की समस्या हो, उन में कांटछांट कर दें और पेड़ों की छाल से दीमक की पपडि़यों को अलग कर के उस में क्लोरोपायरीफास नामक दवा का छिड़काव 20 से 25 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार करें.

दुश्मन कीटों का हमला न होने देना बेहतर : हमारी पूरी कोशिश यह होनी चाहिए कि लाख की फसल में दुश्मन कीटों का प्रकोप न होने पाए. इस के लिए हमें शुरू में ही नाइलान की जाली का इस्तेमाल करना चाहिए.

कटाई और छिलाई : फसल की कटाई 2 प्रकार से की जाती है यानी अपरिपक्व दशा में और परिपक्व दशा में. अपरिपक्व लाख को अरी लाख कहते हैं. इस की कटाई पलाश या बेर के पेड़ पर अप्रैल के आखिरी हफ्ते में करते हैं. ऐसा करने से फसल को ज्यादा गरमी और दुश्मन कीटों से बचाया जा सकता है. परिपक्व फसल की कटाई गरमी के मौसम में पीला धब्बा देख कर करते हैं. शीतकाल में अगहनीकतकी फसल की कटाई शिशु कीट निकलने पर सिकेटियर के जरीए करते हैं. कुल फसल का 80 फीसदी हिस्सा स्क्रैपर की सहायता से छील कर जमा कर लेते हैं. इस के बाद इसे बेच देते हैं. बचे हुए 20 फीसदी हिस्से को बीहन लाख के लिए दूसरे भाग में तैयार पेड़ों पर फैलाते हैं.

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ध्यान रखने वाली बातें

* लाख की खेती शुरू करने के लिए लाख पोशक पेड़ और बीहन लाख जरूर होना चाहिए. इस के अलावा इस की खेती में इस्तेमाल होने वाले यंत्र जैसे सिकेटियर, छोटी व बड़ी दांवली, कुल्हाड़ी, प्लास्टिक की सुतली व नाइलान की जाली वगैरह भी होना चाहिए.

* ठंड के दिनों में कभीकभी कुहासा पड़ता है, तब लाख कीट मीठा रस छोड़ता है, जिस के कारण उस में फफूंद लग जाता है. कुहासा पड़ने पर यह मीठा रस सूखता नहीं और फफूंद का प्रकोप बढ़ जाता है, जो लाख कीट के सांस लेने वाले छेद को बंद कर देता है. नतीजतन, उस की मौत हो जाती है. लिहाजा, इस की रोकथाम के लिए किसी फफूंदीनाशी का छिड़काव जरूर कर देना चाहिए. इस से बचाव के लिए लाख के पेड़ों के नीचे सूखी पत्तियां आदि इकट्ठा कर के जलाएं. ध्यान रखें कि सिर्फ धुआं निकले, आग की लपटें न निकलें. इस से कुहासे का असर काफी कम हो जाता है.

* गरमी में फसल को धूप से बचाने के लिए फरवरीमार्च में लाख लगी टहनी के बगल वाली पुरानी टहनियों को काट देते हैं, जिस से अप्रैलमई में बगल की टहनी पर हरे पत्ते निकलने लगेंगे, जो लाख की फसल पर छतरी जैसा काम करेंगे.

क्या कहते हैं माहिर

लाख की खेती में छिपी संभावनाओं के बारे में  इलाहाबाद स्थित बायोवेद कृषि प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान शोध संस्थान के निदेशक डा. बीके द्विवेदी कहते हैं, ‘लाख की खेती से ग्रामीण क्षेत्रों में जहां एक ओर आत्मनिर्भरता बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर लाख के कुटीर उद्योगों की संभावनाएं पैदा हुई हैं. इस से इन क्षेत्रों में रहने वाले बेरोजगार लोगों को घर बैठे रोजगार के साधन मुहैया होंगे. लाख के तमाम इस्तेमाल हैं, इस की कोटिंग यदि किसी वस्तु पर कर देते हैं, तो उस पर दीमक आदि का हमला नहीं होता है. लाख से रोजाना इस्तेमाल के तमाम घरेलू सामान भी बनाए जा सकते हैं, जो देखने में अच्छे होने के साथसाथ टिकाऊ भी होते हैं.

पान (Betel Leaf) की वैज्ञानिक खेती

हमारे प्रमुख कृषि  उद्योगों में पान की खेती का खासा महत्त्व है. कुछ इलाकों में इस का उतना ही महत्त्व है, जितना कि दूसरी खाद्य या नकदी फसलों का है. भारत में पान की खेती अलगअलग क्षेत्रों में कई तरीके से की जाती है, जैसे दक्षिण और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में जहां बारिश ज्यादा होती है और नमी ज्यादा रहती है, वहां पान की खेती कुदरती रूप से की जाती है.

उत्तर भारत में जहां भीषण गरमी और कड़ाके की सर्दी पड़ती है, वहां पान की खेती संरक्षित खेती के तौर पर की जाती है. पान की खेती के लिए अच्छी जलवायु बेहद महत्त्वपूर्ण है. पान की खेती मुंबई का बसीन क्षेत्र, असम, मेघालय, त्रिपुरा के पहाड़ी क्षेत्र, केरल के तटवर्ती इलाकों के साथसाथ उत्तर भारत के गरम व शुष्क इलाकों, कम बारिश वाले कडप्पा, चित्तुर, अनंतपुर, पुणे, सतारा, अहमदनगर उत्तर प्रदेश के बांदा, ललितपुर, महोबा व छतरपुर (मध्य प्रदेश) आदि इलाकों में सफलतापूर्वक की जाती है.

किसानों और व्यापारियों के मुताबिक भारत में पान की 100 से ज्यादा किस्में पाई जाती हैं. इस की किस्मों में बढ़ोतरी इसलिए हुई है, क्योंकि एक ही किस्म को भिन्नभिन्न इलाकों में अलगअलग नामों से जाना जाता है.

उत्तर प्रदेश का पान की पैदावार में खास स्थान है, जिस में महोबा का पान की खेती में पहला स्थान है. महोबा में पान की खेती की शुरुआत 9वीं शताब्दी में चंदेल शासकों ने की थी. पहले यहां तकरीबन 500-600 एकड़ क्षेत्रफल में पान की खेती होती थी, लेकिन गुटखा खाने के बढ़ते प्रचलन, सिंचाई की समस्या, कच्चे माल की कमी और घटती मांग के कारण मौजूदा समय में इस का क्षेत्रफल सिमट गया है. महोबा पान की अच्छी मंडी है. चित्रकूट धाम मंडल में महोबा व बांदा और झांसी मंडल में ललितपुर पान की खेती के लिए जाने जाते हैं.

पान की खेती पर शोध और किसानों को प्रशिक्षण देने के लिए महोबा में 1980-81 में पान प्रयोग और प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की गई.

पान बरेजे (पान की बाड़ी) की तैयारी और पान की खेती

जलवायु : पान एक ऊष्ण कटिबंधीय पौधा है. इस की बढ़वार नम, ठंडे व छायादार वातावरण में अच्छी होती है.

बरेजे के लिए सही जमीन : भारत में पान की बेल हर तरह की जमीन में उगाई जाती है, लेकिन अच्छी पैदावार के लिए लाल मिट्टी मिली पडुवा मिट्टी बढि़या रहती है. ध्यान देने वाली बात यह है कि जिस इलाके में पान की खेती करनी हो, वहां कम से कम 15 सेंटीमीटर मोटी परत वाली तालाब की काली मिट्टी डालनी चाहिए. जिस जमीन पर बरेजा बनाया जाए उस का ढाल सही होना चाहिए ताकि बरसात का पानी आसानी से निकल सके. यदि पानी का भराव या रुकाव होगा तो बरेजे में रोग लगने का खतरा रहता है.

जमीन की तैयारी : बरेजा बनाने से पहले खेत की पहली जुताई मईजून में किसी भी मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए, ताकि तेज धूप में मिट्टी में मौजूद हानिकारक कीड़ेमकोड़े व खरपतवार खत्म हो जाएं. इस के बाद अगस्त में देशी हल से जुताई कर के खेत खुला छोड़ दें. बरेजा बनाने से 25 दिनों पहले फावड़े से गुड़ाई कर के देशी हल से आखिरी जुताई द्वारा मिट्टी भुरभुरी करनी चाहिए.

जमीन की सफाई : बरेजा बनने के बाद उस के भीतर से कूड़ाकरकट अच्छी तरह साफ करना चाहिए. कुदाल से गहरी गुड़ाई कर के वहां थोड़ी कलई यानी चूना डस्ट बुरक दें और अच्छी तराई करें. कुदाल से दोबारा मिट्टी ऊपर उठाएं और मिट्टी में से कूड़ाकरकट निकालें. तैयारी के बाद 0.25 फीसदी बोर्डों मिश्रण डालें. इस के साथ ही 30-40 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद में 1 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा विरडी पाउडर ठीक से मिला कर छायादार स्थान पर रखें, इस में नमी बनाएं रखें, 1 हफ्ते बाद जैविक खाद तैयार हो जाएगी. इस को आखिरी जुताई के बाद पान बेल की बोआई से पहले खेत में मिला दें. ऐसा करने से जमीन में पैदा होने वाले रोगों से बचाव हो जाता है और जमीन अच्छी तरह से साफ हो जाती है.

पान की मुख्य किस्में : वैज्ञानिकों के मुताबिक पान की खास किस्में हैं, बनारसी, सौंफिया, बंगला, देशावरी, कपूरी, मीठा व सांची आदि. पान में नरमादा पौधे अलगअलग होते हैं, लेकिन देश में नर पौधों को ही उगाया जाता है. मादा पौधे कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल के वोनगांव इलाके से प्राप्त हुए हैं. फूलों के न होने से इस में प्रजनन से नई किस्में विकसित करने में काफी रुकावट है. देश में मुख्य रूप से पान की देशी, देशावरी, कलकतिया, कपूरी, बांग्ला, सौंफिया, रामटेक, मघई व बनारसी आदि प्रजातियों का इस्तेमाल किया जाता है.

बोआई के लिए बेल का चुनाव : पान के बरेजे में बेल का भी काफी महत्त्व है. इस के लिए गांठ की कतरन बनाई जाती है. पान की सालभर पुरानी बेल की कतरन ही चुननी चाहिए. किनारे से 2-3 पान छोड़ कर नीचे जमीन से 90 सेंटीमीटर ऊपर यानी बीचोंबीच से ही कतरन बनानी चाहिए. इन कटिंग्स की अंकुरण कूवत भी ज्यादा होती है. बेल करे ब्लेड या पनकटे से ही काटें. बेल की कतरन को 200 के बंडल बना कर इकट्ठा करें. पान की बेल रोगी पान बरेजे से कभी न लें. इस से आगामी फसल में रोग का खतरा रहता है.

बेल की सफाई : बोने से 1 दिन पहले बेल को 0.25 फीसदी बोर्डों मिश्रण या ब्लाइटाक्स या 500 पीपीएम के घोल में 15-20 मिनट तक डुबोएं.

पान की बेल की रोपाई : पान की रोपाई सुबह 11 बजे तक और शाम को 3 बजे के बाद करनी चाहिए. 1 गांठ और 1 पत्ती वाली बेल एक जगह पर 10 से 15 सेंटीमीटर की दूरी पर 4-5 सेंटीमीटर गहराई में लगा कर अच्छी तरह दबा दें. कूड़ों की आपसी दूरी 50 से 55 सेंटीमीटर रखते हैं, जिस से निराईगुड़ाई व सिंचाई आदि काम आसानी से हो सकें. पान की बेलों की 2 लाइनों की बोआई उलटी दिशा में करते हैं ताकि सिंचाई आसानी से की जा सके.

सिंचाई : पान की खेती में सिंचाई का खास महत्त्व है. बोआई के एकदम बाद ओहर यानी मल्चिंग डाल कर हजारा, लुटिया या स्प्रिंकलर से हलकी सिंचाई करनी चाहिए. मौसम के मुताबिक 3-4 दिनों में ढाई घंटे के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. बरसात में सिंचाई की कोई खास जरूरत नहीं होती है, फिर भी जरूरी हो तो हलकी सिंचाई करें. सर्दी के मौसम में 7-8 दिनों बाद सिंचाई करनी चाहिए.

पान की बेल बांधना : पान की बेलों को सहारा देने के लिए बांस की पतली फट्टी का इस्तेमाल करते हैं. पौधे 15 सेंटीमीटर के हो जाएं तो उन्हें रस्सी से बांधें. इस से पान की पैदावार में बढ़ोतरी होती है.

निराईगुड़ाई : जब भी खरपतवार दिखाई दे, निराईगुड़ाई करते रहें.

खाद और उर्वरक : जैविक खाद के तौर पर पान की खेती के लिए नीम, सरसों व तिल आदि की खली का इस्तेमाल करते हैं. इस के अलावा जौ, उड़द, दूध, दही व मट्ठे का भी इस्तेमाल करते हैं. तिल की खली 50-60 क्विंटल और नीम की खली 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. नाइट्रोजन 150 किलोग्राम, फास्फोरस 100 किलोग्राम और पोटाश 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

पान (Betel Leaf)

कीड़े व उन की रोकथाम

सफेद मक्खी : यह बरसात में पत्तियों की निचली सतह पर पाई जाती है और इन्हीं सतहों पर अपने अंडों का कवच बना लेती है, जिस से पत्तियां काफी प्रभावित होती हैं. यह मक्खी पत्तियों का रस चूसती है, जिस से बेल की बढ़ोतरी रुक जाती है.

इस की रोकथाम के लिए 0.5 फीसदी डायमेथोएट और 5 फीसदी नीम औयल तेल का छिड़काव इस के प्रभाव के तुरंत बाद करना अच्छा रहता है. 0.5 मिलीलीटर डायमेथोएट या 5 मिलीलीटर नीम के तेल का प्रति लीटर की दर से स्वस्थ फसल में 2 महीने में एक बार छिड़काव करना चाहिए.

सूक्ष्म लाल मकड़ी : इस का प्रभाव पत्तियों की निचली सतह पर होता है, जिस की वजह से पत्तियों का रंग नीचे से लाल धब्बे की तरह दिखाई देता है. कीटों के ज्यादा प्रभाव से पान का रंग लाल हो जाता है. इस की रोकथाम के लिए 30-40 ग्राम सल्फेक्स दवा 10 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

शल्क कीट : इस का प्रभाव पान की पत्तियों व डंठलों पर होता है. मादा कीट का पिछला सिरा थोड़ा सा चौड़ा होता है. इन की मात्रा ज्यादा होने पर पत्ते सिकुड़ जाते हैं.

इन कीटों की रोकथाम के लिए 0.5 फीसदी डायमेथोएट का छिड़काव 15 दिनों पर करना चाहिए.

पान के खास रोग

पदगलन यानी फुट राट : यह रोग बीज और जमीन में फफूंद लगने से होता है. यह जमीन की सतह पर बेलों के तनों को प्रभावित करता है, जिस से बेल सड़नी शुरू हो जाती है और मुरझा कर खत्म हो जाती है. पत्तियां भी हलके पीले रंग की हो कर गिरने लगती हैं. यह रोग सर्दियों में ज्यादा असर करता है. इस की रोकथाम के लिए पानी का निकास बहुत अच्छा होना चाहिए. जमीन पर गिरी पान की बेलों को जमीन से हटा देना चाहिए. इस रोग से बचने के लिए 1 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर 30-40 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर 1 हफ्ते बाद जमीन की तैयारी करते वक्त खेत में मिलाना चाहिए.

पान की सूखी जड़ सड़न रोग : इस की वजह राइजोप्टोनिया नामक फफूंद है. यह जमीन से पैदा होने वाला रोग है. यदि जमीन को स्वस्थ और साफसुथरा रखा जाए तो इस रोग का खतरा बहुत कम होता है. इस रोग से बचाव के लिए खड़ी फसल में कार्बेंडाजिम 0.3 फीसदी या मैंकोजेब 0.2 फीसदी का महीने में 1 बार छिड़काव करें.

पत्ती का धब्बेदार और तने का एंथ्रेक्नोज रोग : यह रोग कोलेरोट्राइकेन केपसीसी नामक फफूंद से होता है. पत्तियों पर इस से धंसे हुए अनियमित टेढ़ेमेढे़ गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. पत्तियों के किनारे से ही इस रोग की शुरुआत होती है और आखिर में पत्ती का ज्यादातर हिस्सा काला पड़ने लगता है. यह रोग बरसात में ज्यादा होता है. इस की रोकथाम के लिए मैंकोजेब 0.3 फीसदी का छिड़काव बरसात में 10-15 दिनों पर करना चाहिए.

तना कैंसर : लंबाई में यह भूरे रंग के धब्बे के रूप में तने पर दिखाई देता है. इस के प्रभाव से तना फट जाता है. इस की रोकथाम के लिए 150 ग्राम प्लांटो बाइसिन व 150 ग्राम कापर सल्फेट का घोल 600 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए.

जड़ों में गांठें बनना : यह रोग मलोयडोगायनी नामक सूत्रकृमि द्वारा फैलता है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में इस का प्रभाव ज्यादा देखा गया है. इस रोग से बेलें कम बढ़ती हैं और धीरेधीरे पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं. बेलों के सिरे मुरझा जाते हैं. ऐसी बेलों पर छोटीछोटी गांठें बनती हैं, जिस वजह से पौधों को पोषक तत्त्व कम मिलते हैं और पौधे छोटे ही रह जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए नीम की खली की 15-20 किलोग्राम मात्रा प्रति 100 मीटर की दर से 1 साल तक इस्तेमाल करें.

Farming: जंगल जलेबी: एक खास पेड़

जगल जलेबी (Jungle Jalebi) या गोरस इमली मध्यम आकार का तेजी से बढ़ने वाला और हमेशा हरा रहने वाला कांटेदार पेड़ है. इसे वैज्ञानिक भाषा में पीथेसेलोवीयम ड्यूक्स या पिथेसेलोवियम डलसी या मायमोसा ड्यूल्सीस भी कहते हैं. इस के अंगरेजी नाम मद्रास थोर्न व मनीला हेमेरिंड हैं.

यह करीब 18-20 मीटर तक ऊंचा होता है. इस की छाया में घास नहीं उग पाती है. इस की छाल सलेटी रंग की होती है, जिस पर भूरी या पीली आड़ी धारियां होती हैं. इस की पत्ती के अंत में एक जोड़े कांटे होते हैं. ये पेड़ मैक्सिको व मध्य अमेरिका में कुदरती रूप से पाए जाते हैं.

भारत में जंगल जलेबी के पेड़ गुजरात, राजस्थान, पंजाब व हरियाणा के अलावा दक्षिण भारत में भी लगाए गए हैं. ये हर किस्म की जमीन में उग सकते हैं. हलकी चूने वाली रेतीली जमीन, बंजर जमीन और समुद्र तट के खारे पानी वाली जमीन में भी ये उग सकते हैं. जंगल जलेबी के पेड़ 450 से 1650 मिलीमीटर बारिश वाले क्षेत्रों में आसानी से उग सकते हैं. ये पेड़ सूखा या गरमी सहन कर सकते हैं, पर पाले के प्रति संवेदनशील होते हैं.

जंगल जलेबी के पेड़ पर जनवरीफरवरी में सफेद फूल आते हैं. इस के फल मार्च से मई के बीच में लगते हैं. इस की फली अर्द्धचंद्राकार और बीजों के बीच में सिकुड़ी हुई होती है. हर फली में 6 से 10 बीज होते हैं. बीजों को 2-3 दिन धूप में सुखा कर और किसी कीटनाशक में मिला कर रखने से उन्हें 6 महीने तक रखा जा सकता है.

खेती का तरीका : जंगल जलेबी को बीजों द्वारा उगाया जा सकता है. इस में ठूंठ से दोबारा पनपने की कूवत भी होती है. इस के पेड़ को काटने पर ठूंठ से नई शाखाएं निकलती हैं. इस के बीजों को किसी तरह के उपचार की जरूरत नहीं होती है. बोआई के 2-3 दिनों बाद बीज उग जाते हैं. बारिश के मौसम में पौधों को 3 मीटर × 2 मीटर के अंतर पर रोपा जाता है. 1 हेक्टेयर में 1666 पौधे लगाए जा सकते हैं.

इस्तेमाल : इस पेड़ को ऊसर जमीन के सुधार के लिए लगाया जाता है. इस के अलावा इसे खेत की मेंड़ पर बाड़ के लिए और हवा की गति रोकने वाले पेड़ के रूप में भी लगाया जाता है.

Jungle Jalebi

इस की जड़ें हवा की नाइट्रोजन को योगीकरण द्वारा नाइट्रोजन के यौगिक नाइट्रेट में बदल देती हैं. इस की लकड़ी साधारण इमारती काम और खंभे बनाने के काम में इस्तेमाल की जाती है. इस की लकड़ी जलाने पर बहुत धुंआ देती है, लिहाजा ईंटों को पकाने के काम में इस्तेमाल की जाती है.

जंगल जलेबी की पत्तियां चारे के काम में आती हैं. इस में 29 फीसदी प्रोटीन होता है. इस की टहनियां भी जानवरों को खिलाई जा सकती हैं. इस की फलियों को मीठे गूदे के कारण बच्चे चाव से खाते हैं. इस की फलियां पशुओं को भी खिलाई जाती हैं. इस के बीजों में 17 फीसदी तेल होता है, जिसे शुद्ध करने के बाद खाने के काम में इस्तेमाल किया जा सकता है. इसे साबुन बनाने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इस की खली का इस्तेमाल पशुओं को खिलाने में किया जाता है.

कुल मिला कर जंगल जलेबी का पेड़ कई तरह के कामों में इस्तेमाल किया जाता है, लिहाजा इस की खेती कर के किसान काफी कमाई कर सकते हैं.

Farming Challenges: खेती की मौजूदा चुनौतयों के हल

आज युवा खेतीकिसानी से दूर भाग रहे हैं. कुछ तो शहरों की चमकदमक ने उन्हें अपनी तरफ खींचा है और दूसरा वे कड़ी मेहनत नहीं करना चाहते. यही नहीं हकीकत यह भी है कि खेतीकिसानी में किसान जितना पैसा लगाता है, कई बार प्राकृतिक आपदाओं के कारण उपज खराब होने से उस की लागत तक नहीं निकल पाती या फिर बंपर पैदावार होने से दाम इतने कम मिलते हैं कि उस का परता ही नहीं खाता.

सरकार की योजनाएं भी किसानों तक नहीं पहुंच पातीं. न तो वह उपज को समय पर सही समर्थन मूल्य दे कर किसानों से खरीदती है और न ही किसानों को अनाज के सही भंडारण की सुविधा मुहैया कराती है. ऐसे में बिचौलिए औनेपौने दाम में उपज खरीद कर उसे मनमाने दामों पर मंडी में बेचते हैं. यह किसान के साथ छलावा है. इन्हीं सब कारणों से युवावर्ग खेती की तरफ रुख नहीं कर रहा है. ऐसे में हमें समस्याओं का हल ढूंढ़ना होगा.

 युवावर्ग का खेती से दूर भागना

हल : युवावर्ग में खेती के प्रति दिलचस्पी पैदा करने के लिए सरकार को सही लाभ की व्यवस्था करनी होगी, साथ ही सरकार को अनाज का समर्थन मूल्य पैदावार की लागत के हिसाब से तय करना चाहिए और उपज बिक्री का सही इंतजाम करना होगा. साथ ही क्षेत्र विशेष की स्थानीय जरूरतों के मुताबिक बिक्री की व्यवस्था करनी होगी और आधुनिक छोटेछोटे कृषि यंत्र स्थानीय स्तर पर उन्हें मुहैया कराने होंगे.

उपज का सही मूल्य न मिलना

हल : देश की आबादी की जरूरत के मुताबिक यह जानना जरूरी है कि देश को किसकिस अनाज की कितनी जरूरत है. देश में जरूरी अनाज कितनी मात्रा में मौजूद हैं और जरूरत के मुताबिक हमें कितनी और पैदावार चाहिए. साथ ही पैदा किए गए अनाज को क्षेत्रीय जरूरत के हिसाब से स्थानीय मंडियों में मुहैया कराने की जरूरत है, जमाखोरों पर सख्ती से लगाम लगाई जाए, तभी ग्राहकों और कारोबारियों के हितों की सुरक्षा की जा सकती है, क्योंकि कारोबारी और ग्राहक हमेशा मुश्किलों का सामना करते हैं और दलाल लाभ कमाते हैं. कारोबारियों को लागत के अनुसार सही कीमत न मिलने की शिकायत हमेशा रहती है.

इस के लिए सरकार को उपज का समर्थन मूल्य लागत को ध्यान में रखते हुए फसल बोआई से पहले तय करना चाहिए. साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि उपज बाजार में आने के बाद समर्थन मूल्य से ज्यादा कीमत पर न बिके. ऐसा करने से किसानों को यह फैसला लेने में आसानी होगी कि उन्हें कौन सी फसल बोनी है और उस से उन्हें कितना लाभ मिल सकता है.

आज देश की गंभीर समस्या यह है कि किसान फसलों की पैदावार तो करते हैं, लेकिन उस का उन्हें सही मूल्य न मिलने से काफी दिक्कत होती है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद में किसान अच्छे तरीके अपना कर 1,500 से 2,000 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गन्ना सफलतापूर्वक उगा रहे हैं और लाभहानि का भी पहले ही अनुमान लगा लेते हैं.

आज के दौर में प्रति किसान कृषि भूमि घटने से हर किसान को खेती के लिए साधन जैसे ट्रैक्टर, ट्राली, हैरो, रोटावेटर, स्प्रेयर वगैरह की जरूरत पड़ती है, जिन से पहले उन का परिवार बड़ी जोत पर खेती करता था. लेकिन इस का बुरा नतीजा यह निकला कि अब हर किसान की अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा ताउम्र इन साधनों को जुटाने में लग जाता है, साथ ही इन साधनों का सही इस्तेमाल भी नहीं होता और किसानों की हालत जस की तस बनी रहती है.

हल : लगातार छोटी होती जोत के हल के लिए कांट्रेक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जा सकता है या सस्ते दामों पर किराए पर खेती के यंत्रों को मुहैया कराने के लिए कस्टम हायरिंग सेंटर किसानों की संख्या के हिसाब से बनाए जाएं.

मिट्टी में जीवाश्म और पोषक तत्त्वों का स्तर लगातार गिरना और हानिकारक कीड़े व बीमारियों का हमला बढ़ना.

हल : मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए कार्बनिक खादों जैसे गोबर की खाद, कंपोस्ट खाद, वर्मी कंपोस्ट व हरी खाद वगैरह के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाए. खेत में हल चला कर कुछ दिनों के लिए खाली छोड़ दें, ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई और सही फसलचक्र को बढ़ावा देना चाहिए.

खेती में रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से किसान की सेहत पर असर पड़ता है.

हल : रसायनों का इस्तेमाल कम करने के लिए जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाए. किसानों को अपने फार्म पर ही जैविक खेती के लिए अच्छी ट्रेनिंग दी जाए.

पैदावार लागत बढ़ना और शुद्ध मुनाफा घटना.

हल : खेती में पैदावार लागत कम करने और मुनाफा बढ़ाने के लिए बाजार पर निर्भरता कम की जाए, खेती निवेशों का सही इस्तेमाल किया जाए और जैविक उपज फार्म पर ही तैयार करने का सही इंतजाम किया जाए.

सभी फसलों में बीज की बेकार व्यवस्था.

हल : किसानों को अपनी जरूरत के मुताबिक बीजों का सही इंजजाम करना चाहिए, क्योंकि सही इंतजाम के अभाव में पैदावार लागत बढ़ती है.

बीमारियों, कीटों और खरपतवारों की रोकथाम की जानकारी की कमी.

हल : रसायनों के इस्तेमाल का तरीका, इस्तेमाल का समय, रसायन की मात्रा और जरूरत के मुताबिक सही रसायन के चयन के बारे में किसानों को ट्रेनिंग देने की जरूरत है, क्योंकि इन के ज्यादा अैर गलत इस्तेमाल से पैदावार लागत में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, आमतौर पर किसानों की निर्भरता विक्रेताओं पर रहती है.

लगातार जमीनी जल का स्तर  गिरना.

हल : ड्रिप, बौछारी और रेनगन सिंचाई पद्धतियों को बढ़ावा दिया जाए.

चल कृत्रिम गर्भाधान प्रयोगशाला (अवि मेल) : भारत में भेड़ प्रजनन के क्षेत्र में एक गेमचेंजर

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केंद्रीय भेड़ और ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर ने भेड़ प्रजनन के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व नवाचार शुरू किया है. भेड़ों के लिए चल कृत्रिम गर्भाधान प्रयोगशाला, जिसे अवि मेल नाम दिया गया है. पहली बार डिज़ाइन की गई इस अत्याधुनिक सुविधा का उद्देश्य मद समाकलन और कृत्रिम गर्भाधान सेवाओं को सीधे किसानों के दरवाजे पर पहुंचा कर भेड़ प्रजनन के क्षेत्र में क्रांति लाना है.

कई चुनौतियों के चलते भेड़ों में कृत्रिम गर्भाधान लोकप्रिय नहीं रहा है और इस का कम उपयोग किया गया है. भेड़ की सर्विक्स (बच्चेदानी का मुंह) की जटिल शारीरिक रचना के कारण कृत्रिम गर्भाधान के लिए भेड़ यानी मेढ़े के क्रायोप्रिजर्व्ड  सीमेन को, जिसे कई सालों तक महफूज  रखा जा सकता है, उस का सफलतापूर्वक उपयोग नहीं किया जा सकता.

तरल शीतित सीमेन के साथ कृत्रिम गर्भाधान काफी सफल होता है और 50 से 60 फीसदी गर्भधारण दर प्राप्त होती है. हालांकि, उसे बहुत कम समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है और इसे संग्रह के बाद 8 से 10 घंटे में उपयोग करने पर ही वांछित सफलता मिलती है.

इस वजह से कृत्रिम गर्भाधान तकनीक सीमेन स्टेशन के 25 से 30 किलोमीटर के दायरे में किसानों के लिए पहुंच पाती है और देश में भेड़ों के लिए स्थापित सीमेन लैबोरेट्रीज की संख्या न के बराबर है.

इन चुनौतियों को पहचानते हुए भेड़ों में नस्ल सुधार कार्यक्रमों के लिए कृत्रिम गर्भाधान के सफल कार्यान्वयन को सक्षम बनाने के लिए इस प्रौद्योगिकी और किसानों के बीच की खाई को पाटने के लिए ‘अवि मेल’ की अवधारणा लाई गई थी.

भारत सरकार के पशुपालन एवं डेयरी विभाग के राष्ट्रीय पशुधन मिशन द्वारा वित्तीय रूप से समर्थित अवि  मेल, पहियों पर पूरी तरह से सुसज्जित मोबाइल सीमेन प्रयोगशाला है, जिसे दूरदराज के क्षेत्रों में भी फील्ड स्थितियों में संचालित करने के लिए डिजाइन किया गया है.

यह एक रोगाणुहीन वातावरण में उच्चतम मेंड़ों से  स्वच्छ सीमेन संग्रह, मूल्यांकन और प्रसंस्करण की सुविधाएं प्रदान करता है, जिसे भेड़ों के अलावा बकरियों, सूअरों और घोड़ों सहित अन्य पशुओं की प्रजातियों में भी उपयोग किया जा सकता है.

अवि मेल को कृषि एवं पशुपालन क्षेत्रों के प्रमुख व्यक्तियों और विशेषज्ञों से काफी तारीफ मिली है. विभिन्न दौरों के दौरान इस नवाचार की कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्री राजीव रंजन सिंह उर्फ लल्लन सिंह, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के राज्य मंत्री प्रो. एसपीएस बघेल, डेयर सचिव और आईसीएआर के महानिदेशक डा. हिमांशु पाठक, कृषि वैज्ञानिक भरती बोर्ड के अध्यक्ष डा. संजय कुमार, एग्रीनोवेट के सीईओ डा. प्रवीण मलिक, डीएएचडी के पूर्व संयुक्त सचिव (एनएलएम) डा. ओपी चौधरी के साथसाथ अन्य मंत्री, वरिष्ठ अधिकारी और विभिन्न राज्यों के अनुसंधान संस्थानों, विश्वविद्यालयों और पशुपालन विभागों के विशेषज्ञों ने प्रशंसा की और इसे बड़े स्तर पर प्रयोग करने की अनुशंसा की.

एक प्रायोगिक परीक्षण में राजस्थान के टोंक और जयपुर जिलों के 5 गांवों के 10 किसानों की 450 भेड़ों में कृत्रिम गर्भाधान के लिए अवि मेल का इस्तेमाल किया गया, जिस से 58 फीसदी भेड़ों में एक समय पर उन्नत नस्ल के मेमने प्राप्त हुए.

यह सफलता भेड़ उत्पादकता में सुधार लाने और छोटे किसानों के माली उत्थान में योगदान देने के लिए अवि  मेल की क्षमता को उजागर करती है.

garbhadhan prayogshala

केंद्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर के निदेशक डा. अरुण तोमर ने ‘अवि  मेल’ की परिवर्तनकारी क्षमता पर जोर देते हुए कहा, “यह नवाचार उन्नत प्रजनन तकनीकों को किसानों के लिए सुलभ बनाने में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, खासकर दूरदराज के क्षेत्रों में और प्रवासी भ्रमणकारी भेड़पालकों के लिए. अवि मेल में कुशल नस्ल सुधार कार्यक्रमों को सक्षम बनाने की क्षमता है, जिस से पशुधन क्षेत्र में भेड़ उत्पादकता और आर्थिक विकास में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है.”

अवि  मेल को संस्थान के निदेशक डा. अरुण तोमर के मार्गदर्शन में एनएलएम द्वारा वित्तपोषित परियोजना के प्रधान अन्वेषक डा. अजीत सिंह महला और उन की टीम द्वारा बनाया गया है.

डा. अरुण महला ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारत में दुनिया की दूसरी सब से बड़ी भेड़ आबादी होने और पशुओं में कृत्रिम गर्भाधान के 7 दशकों के सफल प्रयोग के बावजूद देश अभी तक भेड़ों में एक वांछनीय कृत्रिम गर्भाधान कवरेज हासिल नहीं कर पाया है. यहां तक कि देशभर में कुल गर्भाधानों की संख्या 4 अंकों तक पहुंचाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है.

उन्होंने बताया कि नीति बनाने वाले इस तकनीक का बड़े स्तर पर प्रयोग सुनिश्चित करने के लिए देशभर में भेड़, बकरी और सूअर जैसी प्रजातियों के लिए वीर्य स्टेशनों या कृत्रिम गर्भाधान प्रयोगशालाओं के लिए बुनियादी ढांचे को बढ़ाने की सिफारिश करते हैं.

संस्थान द्वारा विकसित की गई यह चल कृत्रिम गर्भाधान प्रयोगशाला कम लागत में बुनियादी ढांचे को मजबूत कर प्रजनन तकनीकों को भेड़पालकों तक पहुंचा कर भेड़ प्रजनन के क्षेत्र में  क्रांति लाने की संभावनाएं रखती है.

अवि मेल को राज्य पशुपालन विभागों, शोध संस्थानों, नस्ल सुधार कार्यक्रमों में लगे गैरसरकारी संगठनों और उद्यमियों द्वारा अपनाया जा सकता है. हाल ही में एनएलएम सब्सिडी योजना की शुरूआत ने देशभर में व्यावसायिक भेड़पालन में उल्लेखनीय वृद्धि की है, जिस से इस क्षेत्र का असंगठित से संगठित सैक्टर में परिवर्तन हो रहा है.

इस बदलाव के साथ भेड़ों में कृत्रिम गर्भाधान की खासकर प्रगतिशील किसानों और उद्यमियों के बीच बढ़ती मांग देखी गई है. इस के अलावा अविकानगर जैसी शोध संस्थाओं द्वारा विकसित उच्च मांग वाली भेड़ की नस्लों, जिन की मांग और उपलब्धता में उल्लेखनीय अंतर है , जैसे अविशान जो 2 से 4 मेमने देने के लिए जानी जाती है और अविदुम्बा जो असाधारण वजन और वृद्धि के लिए जानी जाती है, के बेहतर जर्म प्लाज्म के प्रसार के लिए कृत्रिम गर्भाधान  का उपयोग कर भारतीय भेड़ों की उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है.

अविकानगर संस्थान ‘अवि मेल’ जैसी तकनीकों के सफल विकास के साथ नवीन तकनीकों के माध्यम से पशुधन उत्पादकता को आगे बढ़ाने में अपनी अहम भूमिका निभा रहा है  और आधुनिक प्रजनन पद्धतियों को पशुपालकों के दरवाजे तक ला कर संस्थान भारत के भेड़ उद्योग के लिए अधिक टिकाऊ और समृद्ध भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर रहा है.

31 दिसंबर तक करा सकेंगे रबी फसलों का बीमा

कटनी : प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत रबी फसलों के लिए बीमा पंजीयन की शुरुआत हो गई है. रबी 2024-25 में फसलों का बीमा कराने के लिए किसानों के लिए अपनी पटवारी हलके में अधिसूचित फसल के लिए बीमा कराने की अंतिम तिथि 31 दिसंबर, 2024 निर्धारित की गई है.

उपसंचालक, किसान कल्याण एवं कृषि ने बताया कि इच्छुक किसान उक्त तिथि के पूर्व अपनी अधिसूचित फसलों का बीमा करा सकते हैं. रबी मौसम में सभी अनाज दलहन, तिलहन फसलों के लिए बीमित राशि का अधिकतम 1.5 फीसदी मात्र प्रीमियम किसान द्वारा देय है.

ऋणी किसानों ने जिस बैंक से फसल ऋण लिया है, वह उस बैंक में अपना बीमा करवाएं. अऋणी किसानों 31 दिसंबर, 2024 तक किसान क्रेडिट कार्ड पर फसल ऋण प्रदायकर्ता बैंकों सहकारी समितियों और अऋणी किसान बैंक, जनसेवा केंद्र (सीएससी), ग्राम पंचायत स्तर पर जनसेवा केंद्र के माध्यम से अपनी फसलों का बीमा करा सकते हैं.

बीमा कराने के लिए किसानों को घोषणापत्र, आधारकार्ड, जमीन सिकमी होने पर इस का शपथपत्र, ऋणपुस्तिका, बैंक खाते का विवरण, बोआई प्रमाणपत्र ले कर जाना होगा. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना रबी वर्ष 2024-25 में अधिसूचित फसलों के अंतर्गत गेहूं सिंचित की बीमित राशि 36,000 रुपए और प्रीमियम राशि 1.5 फीसदी के हिसाब से 540 रुपए प्रति हेक्टेयर निर्धारित है.

इसी प्रकार चना के लिए बीमित राशि 37, 300 और प्रीमियम राशि 560 रुपए के अलावा मसूर के लिए 26,400 रुपए बीमित राशि एवं प्रीमियम राशि 393 रुपए के अलावा राई व सरसों के लिए बीमित राशि 20,000 रुपए एवं प्रीमियम राशि 300 रुपए प्रति हेक्टेयर निर्धारित है.

उपसंचालक, कृषि ने किसानों से अपनी अधिसूचित फसल का बीमा कराने का आग्रह किया है, ताकि असामान्य परिस्थितियों में होने वाले नुकसान की प्रतिपूर्ति हो सके.