सरकार ने बढ़ाई खरीद सीमा, किसानों को होगा जम कर मुनाफा

बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआईएस) पीएम आशा योजना का ही एक घटक है. बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआईएस) को राज्य/संघ राज्य क्षेत्र सरकार के अनुरोध पर अलगअलग तरह की जल्दी खराब होने वाली कृषि/बागबानी वस्तुओं जैसे टमाटर, प्याज और आलू आदि की खरीद के लिए लागू किया जाता है, जिन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) लागू नहीं होता है.

जब राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों में पिछले सामान्य मौसम की दरों की तुलना में बाजार में कीमतों में कम से कम 10 फीसदी  की कमी होती है, ऐसी स्थिति में किसानों को अपनी उपज को मजबूरी में कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर न होना पड़े, इसलिए बाजार हस्तक्षेप योजना लागू की जाती है, ताकि किसानों को उन की उपज का सही दाम मिले और वह घाटे में न रहे.

बाजार हस्तक्षेप योजना के कार्यान्वयन के लिए अधिक राज्यों को प्रोत्साहित करने के लिए, सरकार ने बाजार हस्तक्षेप योजना के दिशानिर्देशों के निम्नलिखित प्रावधानों में बदलाव किया है:

– बाजार हस्तक्षेप योजना को पीएम आशा की व्यापक योजना का एक घटक बनाया.

– पिछले सामान्य वर्ष की तुलना में प्रचलित बाजार मूल्य में न्यूनतम 10 फीसदी की कमी होने पर ही बाजार हस्तक्षेप योजना लागू की जाएगी.

– फसलों की उत्पादन मात्रा की खरीद/कवरेज सीमा को मौजूदा 20 फीसदी से बढ़ा कर 25 फीसदी कर दिया गया है.

– राज्य के पास भौतिक खरीद के स्थान पर सीधे किसानों के बैंक खाते में बाजार हस्तक्षेप मूल्य और बिक्री मूल्य के बीच के अंतर के भुगतान करने का विकल्प भी दिया गया है.

–  इस के अलावा जहां उत्पादन और उपभोक्ता राज्यों के बीच टौप फसलों (टमाटर, प्याज और आलू) की कीमत में अंतर है, वहां किसानों के हित में नाफेड ( NAFED) और एनसीसीएफ (NCCF) जैसी केंद्रीय नोडल एजंसियों द्वारा उत्पादक राज्य से अन्य उपभोक्ता राज्यों तक फसलों के भंडारण और परिवहन में होने वाली सभी परिचालन लागत की भरपाई की जाएगी. मध्य प्रदेश से दिल्ली तक 1,000 मीट्रिक टन तक खरीफ टमाटर के परिवहन के लिए परिवहन लागत की भरपाई के लिए एनसीसीएफ (NCCF)  को मंजूरी दे दी गई है.

बाजार हस्तक्षेप योजना के तहत शीर्ष फसलों की खरीद करने और कार्यान्वयन करने वाले राज्य के साथ समन्वय में उत्पादक राज्य और उपभोक्ता राज्य के बीच मूल्य अंतर की स्थिति में उत्पादक राज्य से उपभोक्ता राज्य तक भंडारण और परिवहन की व्यवस्था करने के लिए, NAFED और NCCF के अलावा किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ), किसान उत्पादक कंपनियों (एफपीसी), राज्य द्वारा नामित एजेंसियों और अन्य केंद्रीय नोडल एजेंसियों को शामिल करने का प्रस्ताव किया जा रहा है.

दलहन (Pulses) की सौ फीसदी खरीदी करेगी सरकार

भारत सरकार ने 15वें वित्त आयोग के तहत 2025-26 तक एकीकृत प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान (पीएम आशा) योजना को जारी रखने की मंजूरी दी है. इस योजना में मूल्य समर्थन योजना (पीएसएस), मूल्य कमी भुगतान योजना (पीडीपीएस), बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआईएस) और मूल्य स्थिरीकरण निधि (पीएसएफ) जैसे कई घटक शामिल हैं.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि पीएम आशा योजना का उद्देश्य किसानों को उन की उपज के लिए लाभकारी मूल्य देने के साथसाथ उपभोक्ताओं को सस्ती कीमतों पर आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना है.

उन्होंने साल 2024-25 के खरीफ सीजन के लिए छत्तीसगढ़, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और तेलंगाना में सोयाबीन की खरीद को भी मंजूरी दे दी है. 9 फरवरी, 2025 तक 19.99 लाख मिलियन टन सोयाबीन की खरीद की गई है, जिस से 8,46,251 किसान लाभान्वित हुए हैं.

उन्होंने किसानों को फायदा पहुंचाने के लिए महाराष्ट्र में खरीद की 90 दिनों की सामान्य अवधि को 24 दिनों के लिए और तेलंगाना में 15 दिनों के लिए और अधिक बढ़ा दिया है, ताकि किसानों को अधिक समय मिले.

इसी तरह सरकार ने खरीफ 2024-25 के लिए आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में मूल्य समर्थन योजना के तहत मूंगफली की खरीद को मंजूरी दी है. इस के अलावा कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राज्य के किसानों के लिए गुजरात में मूंगफली की 90 दिनों की सामान्य खरीद अवधि को 6 दिन और कर्नाटक में 25 दिन के लिए और बढ़ा दिया है.

इस के साथ ही केंद्र सरकार ने दालों के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने में योगदान देने वाले किसानों को प्रोत्साहित करने और आयात पर निर्भरता कम करने के लिए खरीद साल 2024-25 के लिए राज्य के उत्पादन के सौ फीसदी के बराबर पीएसएस के तहत तुअर, उड़द और मसूर की खरीद की अनुमति दे दी है.

सरकार ने बजट 2025 में यह भी घोषणा की है कि देश में दालों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए केंद्रीय नोडल एजेंसियों के माध्यम से राज्य के उत्पादन के सौ फीसदी  तक तुअर, उड़द और मसूर की खरीद अगले 4 सालों तक जारी रहेगी, जिस से दालों के घरेलू उत्पादन में वृद्धि होगी, आयात पर निर्भरता कम होगी और भारत दालों में आत्मनिर्भर बनेगा.

किसान कृषि विज्ञान केंद्रों का लाभ लें, कृषि उत्पादों के व्यापार से जुड़ें

पिछले दिनों उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने चित्तौरगढ़ में अखिल मेवाड़ क्षेत्र जाट महासभा को संबोधित करते हुए कहा कि किसान दाता है और उसे किसी की मदद का मोहताज नहीं होना चाहिए.

उन्होंने आगे कहा कि किसान की आर्थिक व्यवस्था में जब उत्थान आता है, तो देश की व्यवस्था में उद्धार आता है. बाकी किसान दाता है, किसान को किसी की ओर नहीं देखना चाहिए,  क्योंकि किसान के सबल हाथों में राजनीतिक ताकत है, आर्थिक योग्यता है.

उन्होंने जोर दे कर कहा कि कुछ भी हो जाए, कितनी ही बाधाएं आएं, कोई भी रोड़ा बने, आज के दिन विकसित भारत की महायात्रा में किसान की भूमिका को कोई हताश नहीं कर सकता.

25 साल पहले हुए जाट आरक्षण आंदोलन के दिनों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि यहां मैं 25 साल बाद आया हूं. 25 साल पहले इसी जगह पर सामाजिक न्याय की लड़ाई की शुरुआत की थी, जाट और कुछ जातियों को आरक्षण मिले. यह शुरुआत 1999 की थी, समाज के प्रमुख लोग उपस्थित थे, मैं भी उन में से एक था. हम ने इस पवित्र भूमि, देवनगरी, मेवाड़ के हरिद्वार में संरचना की, कार्यसिद्धि मिली और आज उस के नतीजे देश और राज्य की प्रशासनिक सेवाओं में मिल रहे हैं.

उन्होंने कहा कि उसी आधार पर, उसी सामाजिक न्याय पर, उसी आरक्षण पर जिन को लाभ मिला है, आज वे सरकार में प्रमुख पदों पर हैं. उन से मेरा आग्रह है कि पीछे मुड़ कर जरूर देखें और कभी नहीं भूलें कि इस समाज के सहयोग की वजह से हमें सामाजिक न्याय मिला. जब भी कोई आंदोलन होता है, खासतौर से आरक्षण से जुड़ा हुआ, तो लोग आतंकित हो जाते हैं, हिंसक हो जाते हैं और कई दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं. लेकिन इस पावन भूमि पर मेरा सिर गौरव से ऊंचा है, छाती चौड़ी है कि हमारा आंदोलन सामाजिक न्याय का दुनिया के लिए सब से बड़ी मिसाल है. कहीं कोई अव्यवस्था नहीं हुई, कहीं कोई हिंसा नहीं हुई.

किसानों से कृषि विज्ञान केंद्रों का लाभ लेने का आग्रह करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने   कहा कि किसान को मदद करने के लिए 730 से ज्यादा कृषि विज्ञान केंद्र हैं. उन को अकेला मत छोड़िए, वहां पर जाइए और उन से कहिए कि आप हमारी क्या सेवा करेंगे? नई तकनीकों की जानकारी लीजिए, सरकारी नीतियों की जानकारी लीजिए. तब आप को पता लगेगा कि सरकार ने आप के लिए खजाना खोल रखा है, जिस की जानकारी आप को नहीं है. सहकारिता क्या कर सकती है, आप को जानकारी नहीं है.

उन्होंने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि अगर महीने में 1-2 बार भी आप जाएंगे, एक तो जो लोग काम कर रहे हैं, उन की नींद खुलेगी, वे सक्रिय होंगे, उन को पता लगेगा कि अन्नदाता जाग गया है, अन्नदाता की सेवा करनी पड़ेगी, अन्नदाता हमारा लेखाजोखा ले रहा है और जब आप लेखाजोखा लेंगे, तो गुणात्मक सुधार आएगा.

किसानों से कृषि उत्पादों के व्यापार और मूल्य संवर्धन में अपनी भागीदारी बढ़ाने पर जोर देते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि किसान अपने उत्पाद की मूल्य वृद्धि क्यों नहीं कर रहा? अनेक व्यापार किसान के उत्पाद पर चालू हैं. आटा मिल, तेल मिल, अनगिनत हैं. हम सब को मिल कर करना चाहिए. किसान को पशुधन की ओर ध्यान देना चाहिए.

खुशी होती है कि जब डेयरी बढ़ती है, लेकिन इस में और ज्यादा उछाल आना चाहिए. हमें दूध तक नहीं सिमटा रहना है, दही, छाछ तक ही नहीं रहना है, बल्कि जितने उत्पाद दूध के बन सकते हैं, पनीर हो, चाहे आइसक्रीम हो या रसगुल्ला हो, किसान का योगदान उन सब में होना चाहिए.

युवाओं को कृषि व्यापार से जुड़ने पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि मेरा आग्रह किसान से है, किसान के बेटेबेटी से है. दुनिया का सब से बड़ा व्यापार, बेशकीमती व्यापार कृषि उत्पादन का है. किसान अपने उत्पाद के व्यापार से क्यों नहीं जुड़ा हुआ है? किसान उस में क्यों नहीं भागीदारी ले रहा है? हमारे नौजवान प्रतिभाशाली हैं. ज्यादा से ज्यादा किसानों को सहकारिता का फायदा लेते हुए, अन्य व्यवसायों में, कृषि उत्पादन के व्यवसायों में अपनेआप को लगन से काम करते रहना चाहिए. आप लिख कर ले लीजिए कि इस के दूरगामी आर्थिक सकारात्मक नतीजे होंगे.

रोजगार का जरीया बना मोमोज (Momos)

भारत के शहरों में मोमोज (Momos) बेचने के इतने ठेले हो गए हैं, जितने शायद ही किसी और देश में हों. भारत के नार्थईस्ट प्रदेशों में बिकने वाली यह डिश अब उत्तर भारत के हर छोटेबड़े शहरों में बिकने लगी है. ऐसे में मोमोज को बेचना एक अच्छा कारोबार हो गया है.

खास बात यह है कि इस को बनाना बेहद आसान है. ऐसे में कहीं भी भीड़भाड़ वाली जगह पर इस का बिजनैस किया जा सकता है.

मोमोज (Momos) एक लाजवाब रैसिपी है, जो स्टीम कर के बनाई जाती है और लाल मिर्च टमाटर की चटनी के साथ सर्व की जाती है. जिन लोगों को तीखा खाना पसंद है, वह इस को अपने ब्रेकफास्ट में शामिल कर सकते हैं. मोमोज (Momos) को बिना तेल डाले स्टीम से पकाया जाता है.

मोमोज (Momos) एक नेपाली, तिब्बती, भूटानी और भारतीय रैसिपी है, जिसे अब भारत में सब से ज्यादा पसंद और चाव के साथ खाया जाता है.

मोमोज (Momos) बनाने के लिए सब्जियों का इस्तेमाल अपनी पसंद के मुताबिक कर सकते हैं. मोमोज (Momos) बनाने के लिए आटे में हलका नमक होना चाहिए, क्योंकि मिक्सचर के अलावा चटनी में भी नमक डालते हैं और अगर आटे में नमक ज्यादा हो जाएगा तो मोमोज (Momos) खाने में अच्छा नहीं लगेगा. इसलिए मोमोज (Momos) बनाने के लिए आटे और मिक्सचर में नमक का प्रयोग अपने स्वाद के अनुसार ही करें.

मोमोज (Momos) बनाने के लिए सब्जियों को बारीक काटना है, ताकि यह मोमोज (Momos) में आसानी से भर जाए और स्टीम करते वक्त फटे नहीं. साथ ही, हलके हाथों से मोमोज (Momos) में चीजें भर कर हलके पानी लगे हाथों से बंद करना चाहिए.

मोमोज (Momos)  की एक प्लेट में 4 से 6 मोमोज होते हैं. इस की कीमत 20 रुपए से 120 रुपए प्रति प्लेट तक हो सकती है. मोमोज (Momos) को तैयार करने में सीजनल सब्जी का प्रयोग किया जाता है. जो सस्ती मिलती हैं. ऐसे में इस की लागत कम और बेचने वाले का मुनाफा बढ़ जाता है.

लौकी (Bottle Gourd) की खेती और फसल की सुरक्षा

लौकी बेल वाली फसल है और किसान इस की खेती कर के अच्छाखासा मुनाफा कमाते हैं. साथ ही यह सेहत के लिए भी काफी फायदेमंद मानी जाती है. यह कम समय में तैयार होने वाली फसल है.

खेत की तैयारी : लौकी की फसल वैसे तो हर तरह की जमीन में हो जाती है, लेकिन सही जल निकास वाली जीवांश से भरपूर दोमट मिट्टी इस की खेती के लिए फायदेमंद है. इस के लिए जमीन का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए.

खेत की तैयारी के लिए सब  पहले हरी खाद डालनी चाहिए. इस के लिए 1 एकड़ जमीन में 2 किलोग्राम सतई, 4 किलोग्राम मूंग या दलहन, 1 किलोग्राम तिलहन और 2 किलोग्राम ढेंचा बीज ले कर बोआई करें. जैसे ही यह फसल 45 दिन की हो जाए, तभी हैरो से जुताई कर 1000 लिटर बायोगैस स्लरी या संजीवक खाद डालें और एक हफ्ते बाद मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर इसे खुला छोड़ दें.

इस के एक हफ्ते बाद 3 से 4 बार देशी हल से जुताई कर खेत में पाटा लगा कर समतल कर लें. उस के बाद 10-10 फुट पर 1 फुट गहरी और 2 फुट चौड़ी नालियां बना कर 3-3 फुट के अंतर पर थावले (थाले) बना कर हर थावले में 1 किलोग्राम वर्मी कंपोस्ट खाद या गोबर की सड़ी खाद और 200 ग्राम राख मिला कर थाला ढक दें. उस के बाद नालियों में सिंचाई के 5-6 दिन बाद लौकी के बीजों को बोएं. बोआई के दौरान हरेक थाले में 4 से 6 बीज बोएं.

खेती के लिए सही

समय : लौकी की खेती के लिए गरम और आर्द्र वातावरण काफी अच्छा रहता है, जबकि ज्यादा बारिश और बादलों से भरा आसमान इस की फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. बिना पाले वाली जलवायु में लौकी की पैदावार काफी अच्छी होती है. इसलिए लौकी की खेती के लिए उत्तरमध्य भारत में फरवरी से जून का समय काफी मुफीद रहता है.

लौकी की अच्छी किस्में

पूसा समर लौंग : यह किस्म गरमियों और बरसात दोनों ही मौसम में अच्छी उपज देती है. इस की बेल में फल ज्यादा लगते हैं और 40 से 50 सैंटीमीटर तक लंबे होते हैं. इस की उपज 70 से 75 क्विंटल प्रति एकड़ तक हो जाती है.

पंजाब लौंग : यह किस्म काफी उपयोगी और अच्छी उपज देती है. इस के फल लंबे, हरे और कोमल होते हैं. बरसात में इसे लगाना ज्यादा अच्छा रहता है. इस की उपज 80 से 85 क्विंटल प्रति एकड़ होती है.

पंजाब कोमल : लौकी की यह अगेती मध्यम आकार की लंबे फल वाली अंगूरी रंग की किस्म है. इस के फल काफी समय तक ताजा रहते हैं और इस की उपज 150 क्विंटल प्रति एकड़ तक होती है.

पूसा नवीन : यह वसंत के मौसम की सब से अच्छी किस्म है. इस के फल दूसरी किस्मों की तुलना में जल्दी तैयार होते हैं. इस के फल छोटे, लंबे, बेलनाकार और मध्यम मोटाई के हरे रंग के होते हैं. फल का वजन 800 ग्राम के आसपास होता है.

कोयंबटूर: दक्षिण भारत की यह सब से अच्छी किस्म है. क्षारीय मिट्टी में यह अच्छी उपज देती है. इस की उपज 70 क्विंटल प्रति एकड़ है.

आजाद नूतन : यह प्रजाति काफी लोकप्रिय है, क्योंकि यह बीज की बोआई के 60 दिन बाद फल देना शुरू कर देती है. इस के फल 1 किलोग्राम वजनी होते हैं और उपज 80 से 90 क्विंटल प्रति एकड़ मिलती है.

सिंचाई और निराईगुड़ाई : लौकी की खेती के लिए सिंचाई काफी खास है. इस में पानी पूरे खेत में न दे कर केवल थाले में ही दें, ताकि फंगस कम नुकसान पहुंचा सकें.

वैसे तो गरमी के मौसम में 4 से 5 दिन में सिंचाई करनी चाहिए. सिंचाई के एक दिन बाद 200 ग्राम राख में 5 ग्राम हींग खेत में डालने से पौधे की बेल स्वस्थ रहती है और फल भी समय से पहले नहीं टूटते.

लौकी की फसल गरमी और बरसात की होने से इस में खरपतवार ज्यादा उगते हैं. समयसमय पर इन्हें खेत से निकालना चाहिए. साथ ही, समय पर जरूरत के मुताबिक निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए.

कुदरती खाद का इस्तेमाल : लौकी की फसल में बीज बोने के 3 हफ्ते बाद जब पौध में 3-4 पत्ते निकलने लगते हैं, तब 2000 लिटर बायोगैस स्लरी या संजीवक खाद या फिर 10 किलोग्राम गोबर से बनी खाद प्रति एकड़ के हिसाब से इस्तेमाल करनी चाहिए. जब पौधों में फूल निकलने लगें तब दूसरी बार 1000 लिटर बायोगैस स्लरी या 1000 लिटर संजीवक खाद या फिर 20 किलोग्राम गोबर की खाद प्रति एकड़ की दर से डालें.

तीसरी बार इस खाद को पहली बार लौकी की तुड़ाई के बाद देने से अच्छी उपज हासिल होती है.

लौकी की खेती में कुदरती कीटरक्षक का समय पर छिड़काव करने से फसल पूरी तरह रोगमुक्त रहती है और अच्छी उपज हासिल होती है. लौकी की फसल पर लगने वाले कुछ खास रोगों का कुदरती निदान इस तरह करते हैं.

रैड बीटल : यह एक हानिकारक कीट है जो लौकी के पौधे की शुरुआती बढ़ोतरी के दौरान लगता है और पत्तियों को खाता है. इस वजह से पौधों की सही तरीके से बढ़वार नहीं हो पाती है. रैड बीटल की यह सूंड़ी काफी खतरनाक होती है. यह जमीन के भीतर पौधों की जड़ों को काट कर उन्हें नुकसान पहुंचाती है.

रोकथाम : रैड बीटल से लौकी की फसल को बचाने के लिए पतंजलि निंबादि कीटरक्षक काफी असरकारक है. 5 लिटर कीटरक्षक को 40 लिटर पानी में मिला कर हफ्ते में 2 बार छिड़काव करें. छिड़काव के बाद नीम की लकड़ी की राख छिड़कने से अच्छी पैदावार हासिल होती है.

फ्रूट फ्लाई : यह मक्खी लौकी की फसल में घुस कर अंडे देती है. इन अंडों से सूंड़ी निकलती है, जो फलों को नुकसान पहुंचाती है. इस से किसानों को अच्छी कीमत नहीं मिल पाती है.

रोकथाम : फ्रूट फ्लाई से फसल को बचाव के लिए जब लौकी की फसल पर फूल निकलने शुरू होते हैं, उस समय पतंजलि बायो रिसर्च इंस्टीट्यूट के ‘अभिमन्यु’ 100 मिलीलिटर को 3 लिटर खट्टी छाछ में 150 ग्राम कौपर सल्फेट पाउडर के साथ 40 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. यह छिड़काव हर हफ्ते करना जरूरी है.

पाउडरी मिल्ड्यू : यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसिएरम नामक कवक के चलते होता है. इस फंगस की वजह से लौकी की बेल और पत्तियों पर सफेद गोलाकार जाल जैसा फैल जाता है, जो बाद में कत्थई रंग में तबदील हो जाता है. इस में पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती हैं.

रोकथाम : इस रोग से बचाव के लिए 5 लिटर खट्टी छाछ में 2 लिटर गोमूत्र और 30 लिटर पानी मिला कर 4 दिन के अंतर पर छिड़काव करें. इस रोग से होने वाले नुकसान से फसल बच जाती है.

लौकी का एंथ्रेक्नोज : लौकी की फसल में एंथ्रेक्नोज रोग क्लेटोटाइकम नामक फंगस के कवक के कारण होता है. इस रोग की वजह से पत्तियों पर लालकाले धब्बे बन जाते हैं. इस की वजह से पौधा सेहतमंद नहीं रह पाता है.

रोकथाम : 5 लिटर गोमूत्र में 2 किलोग्राम अमरूद या आड़ू के पत्ते उबाल कर ठंडा कर छानें, उस में 30 लिटर पानी मिला कर 3-3 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.

लौकी की तोड़ाई: लौकी के फलों की तोड़ाई कोमल अवस्था में ही करनी चाहिए. कठोर फलों से सब्जी अच्छी नहीं बनती और बाजार में इस की कीमत भी सही नहीं मिलती.

तिलहन फसलों की उन्नत तकनीकी पर एकदिवसीय कृषक प्रशिक्षण कार्यक्रम

उदयपुर : 29 जनवरी, 2025. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय के अंतर्गत अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के तिलहन पर फ्रंटलाइन डेमोंस्ट्रेशन के तहत एकदिवसीय कृषक प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन हुआ. इस कार्यक्रम का उद्देश्य फसल विविधीकरण में तिलहन फसलों को शामिल करने को प्रोत्साहित करते हुए किसानों की आय और कृषि स्थिरता को बढ़ाना था.

कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र में परियोजना प्रभारी डा. हरि सिंह ने तिलहन फसलों के महत्व, कृषि प्रणाली में विविधता लाने और किसानों की आय बढ़ाने के तरीकों पर जोर दिया.

डा. जगदीश चौधरी, आर्चाय (कृषि विज्ञान) ने तिलहन आधारित खेती प्रणालियों के माध्यम से स्थायी कृषि विषय पर व्याख्यान दिया. उन्होंने तिलहन आधारित फसल प्रणाली अपनाने के लाभों पर चर्चा की, जिस में मृदा स्वास्थ्य सुधार, संसाधनों का कुशल उपयोग और आर्थिक संवर्धन शामिल हैं.

डा. एचएल बैरवा, आर्चाय (उद्यानिकी) ने पर्यावरण अनुकूल और लाभकारी विविधीकृत उद्यानिकी में तिलहन विषय पर चर्चा की. उन्होंने किसानों को तिलहन फसलों को उद्यानिकी फसलों के साथ एकीकृत करने के आर्थिक और पारिस्थितिक लाभों के बारे में बताया. वहीं डा. बीजी छिप्पा, सहआर्चाय (उद्यानिकी) ने तिलहन और उद्यानिकी फसलों के संयोजन से होने वाले लाभों और तकनीकी पहलुओं पर गहराई से चर्चा की.

सहायक आर्चाय डा. दीपक ने तिलहन फसलों में सूत्रकृमि (नेमाटोड) प्रबंधन पर व्याख्यान दिया. उन्होंने किसानों को तिलहन फसलों में होने वाले सूत्रकृमियों की पहचान, उन के प्रभाव और प्रभावी प्रबंधन तकनीकों पर विस्तृत जानकारी दी.

अंत में डा. हरि सिंह ने धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया और सभी वक्ताओं, प्रतिभागियों और आयोजन टीम को कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए धन्यवाद दिया. उन्होने कहा कि यह प्रशिक्षण कार्यक्रम किसानों को तिलहन आधारित खेती प्रणालियों को अपनाने की दिशा में प्रेरित करने और उन की आय बढ़ाने के लिए तकनीकी जानकारी प्रदान करने में सफल रहा.

इस कार्यक्रम में झाड़ोल और फलासिया से कुल 30 किसानों ने भाग लिया और प्रशिक्षण को अत्यंत लाभप्रद बताया. प्रतिभागियों ने इस ज्ञान को अपने खेतों में लागू करने का संकल्प लिया, ताकि फसल विविधीकरण के माध्यम से उन की कृषि आय और स्थिरता में सुधार हो सके.

कार्यक्रम में परियोजना से जुड़े प्रमुख अधिकारियों में रामजी लाल,  एकलिंग सिह, मदन लाल, एनएस झाला, गोपाल नाई और नरेंद्र यादव उपस्थित थे.

एनएबीएल मान्यता पर एकदिवसीय जागरूकता कार्यशाला संपन्न

उदयपुर : 29 जनवरी, 2025. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के संघटक राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर के आईपीएम थिएटर में प्रयोगशालाओं की एनएबीएल मान्यता पर एकदिवसीय जागरूकता कार्यशाला हुई.

इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता डा. भूमि राजगुरू द्वारा एनएबीएल संस्थान द्वारा आयोजित विभिन्न कार्ययोजनाओं की रूपरेखा एवं एनएबीएल द्वारा प्रदत्त प्रयोगशालाओं की मान्यता प्राप्त करने के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया और संस्थान द्वारा दी जाने वाली मान्यता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए खाद्य एवं कृषि रसायनों के मान्यताप्राप्त प्रयोगशालाओं के परीक्षण, प्रमाणपत्र का राष्ट्रीय एवं वैश्विक स्तर उपयोगिता पर विस्तृत चर्चा की. डा. राजगुरू ने विकसित भारत 2047 हेतु गुणवत्तायुक्त उत्पादन उपलब्ध कराए जाने पर जोर दिया.

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि अभियंता कुलदीप सिंह राजपूत ने प्रयोगशालाओं की गुणवत्ता के मापदंडों की जानकारी देते हुए वर्तमान युग में एनएबीएल संस्थान द्वारा किए जा रहे कामों की सराहना की.

कार्यक्रम संयोजक डा. एसएस लखावत, प्राध्यापक, उद्यान विज्ञान एवं सहायक अधिष्ठाता छात्र कल्याण ने बताया कि विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों के प्रतिभागियों, विभागाध्यक्षों, संकाय सदस्यों एवं स्नातक, स्नातकोत्तर एवं विद्या वाचस्पति विद्याथियों को इस कार्यशाला के माध्यम से एनएबीएल द्वारा प्रयोगशालाओं की मान्यता हेतु आयोजित जागरूकता कार्यक्रम के तहत 200 प्रतिभागियों ने अपना पंजीयन करवाते हुए कार्यक्रम में भाग लिया.

कार्यक्रम के अंत में कृषि रसायन एवं मृदा विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डा. केके यादव द्वारा मिट्टी की गुणवत्ता एवं स्वास्थ्य सुधार पर प्रकाश डालते हुए विश्वविद्यालय के निर्देशन में आयोजित एनएबीएल कार्यशाला हेतु कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक व महाविद्यालय के अधिष्ठाता डा. आरबी दुबे का आभार व्यक्त किया.

कार्यक्रम का संचालन डा. अमित दाधिच, सहप्राध्यापक एवं प्लेसमेंट अधिकारी, पादप प्रजनन एवं अनुवांशिकी विभाग द्वारा समस्त सहभागियों का आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया.

बीजरहित नीबू (Seedless Lemon) की खेती

गरमियों में नींबू की शिकंजी की मांग खूब रहती है. नींबू एक ऐसा फल है, जो काफी खट्टा होता है, लेकिन आप की सेहत के लिए फायदेमंद भी होता है. अभी तक आप बाजार से जो नीबू खरीदते हैं, उन में बीज जरूर रहते होंगे. आज हम आप को ऐसे नींबू के बारे में बताने जा रहे हैं, जो बीजरहित होता है.

सुन कर आप को ताज्जुब जरूर हुआ होगा, लेकिन यह बात वाकई सच है. बीजरहित नींबू को फारसी में ‘ताहिती नीबू’ के नाम से भी जाना जाता है. इस का वानस्पतिक नाम साइट्रस लैटिफोलिया है, जो कि रुटेसी परिवार से संबंध रखता है.

बीजरहित नीबू संकर मूल का होता है. इस जाति के पौधे मध्यम आकार के होते हैं, जिन में कांटे नाममात्र के ही रहते हैं. यह पौधा काफी फैला हुआ होता है. इस की शाखाएं झालरदार होती हैं, जिस वजह से यह एकदम घना दिखता है.

‘ताहिती नीबू’ के पौधे ज्यादा बड़े नहीं होते हैं. इन के फूल हलके बैगनी रंग के साथ सफेद रंग लिए होते हैं. फल अंडाकार या आयताकार होते हैं, जो 1.5 से 2.5 इंच चौड़े और 2 से 3 इंच लंबे होते हैं. आमतौर पर इस किस्म के फलों में बहुत कम बीज होता है या बिलकुल भी नहीं रहता है, इसीलिए इसे बीजरहित नीबू का नाम दिया गया है.

आमतौर पर इस किस्म के नीबू को तभी तोड़ कर बेचा जाता है, जब हरा रहता है. लेकिन जब फल पूरी तरह से पक जाते हैं, तब वह पीलापन लिए हुए हरा या फिर बिलकुल पीले रंग के हो जाते हैं. इस के फल का गूदा रसदार होने के साथ ही साथ मनभावन खुशबू लिए रहते हैं. फलों की खुशबू मसालेदार और इस का जायका तीखा होता है. यही वजह है कि इस किस्म का नीबू लोगों को काफी पसंद आता है.

बीजरहित नीबू की सब से बड़ी खूबी यह है कि किसानों को इस की खेती से दूसरे किस्म के नीबू की खेती से ज्यादा लाभ होता है, क्योंकि दूसरे नीबू की तुलना में कई तरह के फायदे हैं, जैसे बड़ा आकार, कम बीज या बीजरहित, प्रतिकूल वातावरण में रहने की कूवत, झाडि़यों पर कांटों का न होना और लंबे समय तक फलों को स्टोर करना. कुल मिला कर ये सारी खूबियां बीजरहित नीबू के पौधों को खेती करने के लिए किसानों को अपनी तरफ लुभाती है.

बीजरहित नींबू को पहली बार दक्षिणी इराक और ईरान में कारोबार करने के लए उगाया गया था. इराक और ईरान से इस का सफर शुरू हो कर कई मुल्कों में अपना सिक्का जमा चुका है. इस की पैदावार मैक्सिको में काफी होती है, जहां से अमेरिकन बाजार, यूरोपीय बाजार और एशियाई बाजारों में बीजरहित नीबू भेजा जाता है. मैक्सिको इस का प्राथमिक उत्पादक और निर्यातक देश बना हुआ है.

सेहत के लिहाज से अहम

यह रूसी का इलाज करने के लिए काफी अच्छी तरह से जाना जाता है, जो विटामिन सी की कमी के चलते अकसर लोगों में हो जाती है. इस के अलावा रूखी त्वचा का सफाया कर के चमकदार बनाता है और इसे संक्रमण से बचाता है. इस के अंदर मौजूद अम्ल त्वचा की मृत कोशिकाओं को साफ करते हैं. रूसी, चकत्ते और घावों का इलाज करते हैं.

इस की एक अनूठी सुगंध है जो खाना पचाने में सहायक होती है. घुलनशील फाइबर होने की वजह से यह खाना पचाने में मददगार है. इस से शुगर कंट्रोल करने में मदद मिलती है. यह दिल के मरीजों के लिए भी मुफीद रहता है.

जलवायु की जानकारी

इस की फसल के लिए गहरी और उचित जलनिकास वाली बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी गई है. बीजरहित नीबू की खेती तीनों ही मौसम में आसानी से की जा सकती है. खेती के लिए अधिकतम तापमान 25-30 डिगरी सैल्सियस होना बेहतर रहता है.

अगर मौसम का तापमान 13 डिगरी सैल्सियस से नीचे या 38 डिगरी सैल्सियस से ऊपर है, तब पौधों की बढ़वार रुक जाती है, जिस से उत्पादन पर नकारात्मक असर पड़ता है.

बीजरहित नीबू को ऐसे रोपें

पेड़ों को 16 इंच यानी तकरीबन 40.5 सैंटीमीटर गहरे कटे हुए खाइयों के चौराहे पर या पिसा चूना पत्थर और मिट्टी के ढेर पर लगाया जाता है. पेड़ लगाते समय नमी वाली जगहों से बचें. बाढ़ या पानी जहां जमा होता है, उस जगह से बचें, क्योंकि पेड़ जड़सड़न बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं.

पेड़ों के बीच का अंतराल 20 फुट यानी 6 मीटर की अलगअलग पंक्तियों में 10 या 15 यानी तकरीबन फुट 3 से 4.5 मीटर के करीब हो सकती है, जिस से प्रति एकड़ में 150-200 पेड़ आसानी से लगाए जा सकें. पेड़ों के बीच ज्यादा दूरी भी ठीक नहीं रहती, क्योंकि इस से उत्पादन पर असर पड़ता है.

कटाईछंटाई का हो प्रबंधन

जब पेड़ ज्यादा बड़े हो जाते हैं तो उन्हें मशीन या आरी की मदद से बड़ी शाखाओं को काटना जरूरी हो जाता है. अगर ऐसा नहीं किया गया तो पौधे ज्यादा बड़े हो जाते हैं. इस वजह से उन में लगने वाले रोगों की देखभाल करने में किसानों को परेशानी उठानी पड़ती है. इस के लिए किसानों को चाहिए कि वह 2-3 साल के अंतराल पर कटाई और छंटाई करें. पेड़ों को 20 फुट यानी 6 मीटर की दूरी पर लगाने से अधिक पैदावार मिल सकती है.

समयसमय पर करें सिंचाई

रोपते समय नए पेड़ों में पानी देना चाहिए और पहले हफ्ते में हर दूसरेतीसरे दिन और फिर पहले कुछ महीनों बाद सप्ताह में 1 या 2 बार सिंचाई करनी चाहिए.

शुरुआत में सिंचाई का खास ध्यान रखना चाहिए, वरना पौधों की बढ़वार रुक जाती है. नए लगाए गए पेड़ों में पहले 3 साल तक हफ्ते में 2 बार अच्छी तरह से सिंचाई करनी चाहिए. बागों में जमीन के ऊपर छिड़काव कर के सिंचाई की जाती है. इस विधि से सिंचाई करने में ज्यादा खर्च नहीं आता और बाग में नमी भी बनी रहती है.

उर्वरक का इस्तेमाल

पहले साल के दौरान हर 2 से 3 महीनों के अंतराल पर में नए पेड़ों में उर्वरक का इस्तेमाल करना चाहिए. 114 ग्राम उर्वरक के साथ शुरुआत कर के प्रति पौधा 455 ग्राम तक बढ़ाना चाहिए. इस के बाद पौधों के बढ़ते आकार के अनुपात में हर साल वर्ष 3 या 4 बार उर्वरक के इस्तेमाल करने में बढ़ोतरी सही होती है, लेकिन हर साल प्रति पौधा उर्वरक 5.4 किलोगाम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

उर्वरक मिश्रण में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा 6-10 फीसदी और मैग्नीशियम 4-6 फीसदी रहने से युवा पेड़ों में अच्छे नतीजे मिलते हैं. जिन पेड़ों में फल लगे हों, उन के लए पोटाश को 9-15 फीसदी तक बढ़ाया जाना चाहिए और फास्फोरस को 2-4 फीसदी तक कम किया जाना चाहिए.

घासपात से ढकना

यह प्रक्रिया मिट्टी की नमी को बरकरार रखने में मदद करती है. पेड़ के नीचे जंगली घास की समस्याओं को कम करने देता है और सतह के पास मिट्टी में सुधार में मदद करता है. छाल या लकड़ी के टुकड़े की 2-6 इंच यानी 5-15 सैंटीमीटर परत के साथ पेड़ों की सतह को ढका जा सकता है. इस आवरण को पेड़ के तने से 8-12 इंच यानी 20-30 सैंटीमीटर दूर प्रयोग करना चाहिए, वरना पेड़ का तना सड़ सकता है.

फलों का उत्पादन

इस के पेड़ में फूल फरवरी से अप्रैल माह तक बहुत गरम इलाकों में, कभीकभी सालभर में 5 से 10 फूलों के समूहों में खिलते हैं और फल उत्पादन 90-120 दिन की अवधि के भीतर होते हैं.

फल लगते समय गिबेलिलिक एसिड (10 पीपीएम) के छिड़काव से फलों के आकार अच्छे होते हैं और गूदेदार भी रहते हैं. नए पौधे, जो पहले साल के होते हैं, उन में रोपण के बाद पहले साल 3.6-4.5 किलोग्राम और दूसरे साल 4.5-9.1 किलोग्राम का फल उत्पादन कर सकते हैं.

अच्छी तरह से देखभाल किया गया पेड़ सालाना 9.1-13.6 किलोग्राम तक फल 3 साल में दे सकता है, जो कि 4 साल में 27.2-40.8 किलोग्राम, 5 साल में 49-81.6 किलोग्राम और 6 साल में 90.6-113.4 किलोग्राम दे सकता है.

नीबू के कीट और रोग

नीबू फसल में भी कई तरह के रोग लगते हैं, जिन की देखभाल जरूरी है, वरना फसल खराब हो सकती है और उत्पादन में कमी आ जाती है.

बीजरहित नीबू (Seedless Lemon)

बीजरहित नीबू में निम्न प्रकार के रोग लगते हैं:

डायफोरिना साइट्री

यह पत्तियों और युवा तने पर हमला करता है और पेड़ को गंभीर रूप से कमजोर कर देता है. यह जीवाणु रोग को फैलाता है, जिसे पीला तना रोग के नाम से जाना जाता है. नीबू के पेड़ों के लिए घातक है.

फाइलोकनिस्टिस साइट्रला

इस कीड़े के बच्चे आमतौर पर पत्ती की ऊपरी सतह पर हमला करते हैं. इस वजह से संक्रमित पत्तियां खराब होने लगती हैं और पौधों की बढ़वार रुक जाती है. उत्पादन भी कम होता है.

घुन का हमला

आमतौर पर साइट्रस लाल घुन पत्ती की ऊपरी सतह पर हमला करता है, नतीजतन, वहां पर भूरा, परिगलित क्षेत्र बन जाते हैं. अधिक हमला होने पर पत्ते गिरना शुरू हो जाते हैं. जंग घुन और चौड़ा घुन पत्तियों, फल और तने पर हमला कर सकते हैं. इन कीड़ों से फल का छिलका भूरे रंग का हो जाता है. अधिक प्रकोप की दशा में पत्ते पर सल्फर के छिड़काव से कीड़ों को नियंत्रण किया जा सकता है.

लाल शैवाल कीट से बचें

यह कीड़ा छाल विभाजन और शाखाओं के मरने का कारण बनता है. यह सेफालेउरास विरेसेंस के कारण होता है. मध्य गरमी से बाद की गरमियों तक 1-2 तांबा आधारित कैमिकल का छिड़काव द्वारा शैवाल का नियंत्रण किया जा सकता है.

कोलेटट्रिचम एकुटाटम

इस बीमारी की उपस्थिति सब से ज्यादा बरसात के मौसम में प्रचलित है. इस रोग के शुरुआती लक्षणों में भूरे रंग से, फूलों की पंखुड़ी पर पानी के लथपथ घाव शामिल हैं. उस के बाद पंखुडि़यां नारंगी रंग में बदल जाती हैं और सूख जाती हैं.

प्रमुख कीट रोग

नीबू का तेला : नीबू जाति के पौधों को नीबू का तेला रस चूस कर मार्चअप्रैल माह और बारिश के मौसम के बाद नुकसान पहुंचाता है.

लीफ माइनर: पत्तियों की दोनों सतहों पर चांदी की तरह चमकीली और टेढ़ीमेढ़ी सुरंग बनाती है.

सफेदमक्खी: मार्च से सितंबर माह तक सक्रिय रहने वाला यह कीट भी पत्तियों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता है.

रोकथाम : नीबू का तेला व लीफ माइनर के नियंत्रण के लिए अप्रैल माह में 750 मिलीलिटर मैटासिस्टाक्स 25 ईसी या 625 मिलीलिटर रोगोर 30 ईसी या 500 मिलीलिटर मोनोक्रोटोफास 36 एसएल को 500 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ की दर से छिड़कें.

नीबू की तुड़ाई

फल पकने पर एकएक फल को हाथ से तोड़ा जाता है, लेकिन एक टमटम भी इस्तेमाल किया जा सकता है. सालाना तकरीबन 8-12 बार फल की तुड़ाई होती है. इस का सटीक समय जुलाई से सितंबर माह तक है. 70 फीसदी फसलें मई में तैयार होती हैं. तकरीबन 40 फीसदी फसलों का इस्तेमाल केवल रस के गाढ़ा बनाने के लिए किया जाता है. अपरिपक्व फल रस का उत्पादन नहीं करता है, इसलिए इसे उस समय नहीं तोड़ा जाना चाहिए. बेहतर परिणाम के लिए तभी तोड़ें जब फल एकदम पक जाएं.

फलों की पैदावार

पौधों में सालभर फूल और फल लगते हैं, पर गरमियों के अंत की ओर एक विशिष्ट फलने का उच्चतम स्तर दिखाई देता है. 41 किलोग्राम फलों की पैदावार 2 मीटर लंबे पेड़ों से हासिल की गई है, जबकि साइट्रस जंभूरी पर कलम बांधने से बराबर आकार के पेड़ों में 21 किलोग्राम की पैदावार होती है.

फल का भंडारण

फलों में किसी उपचार की जरूरत नहीं होती है. ताजा फल 6 से 8 हफ्ते के लिए अच्छी स्थिति में रहते हैं. इसलिए इस के रखरखाव में ज्यादा खर्च नहीं आता, लेकिन इस से ज्यादा दिनों तक स्टोर करने के लिए कोल्डस्टोरेज की जरूरत पड़ती है.

बाजरे (Millet) की वैज्ञानिक खेती

सूखे मौसम या कम सिंचाई वाले खेतों के लिए बाजरा बहुत ही उम्दा फसल है. यही वजह है कि बाजरे की खेती राजस्थान के अलावा उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा व पश्चिम बंगाल में बड़े पैमाने पर की जाती है.

बाजरा मोटे अनाजों की कैटीगरी में आता है. इस की खेती गरमियों में भी कर सकते हैं. यह कई रोगों को दूर करने के साथ शरीर को भी फिट रखने में कारगर है. यही वजह है कि शहरों में लोग इस की ऊंची कीमत देने को तैयार रहते हैं.

मिट्टी : बाजरे की खेती के लिए हलकी या बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी गई है. साथ ही पानी के निकलने का अच्छा बंदोबस्त होना चाहिए.

खेत की तैयारी : पहली बार की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल या रोटावेटर से करें और उस के बाद 2-3 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई कर के खेत को तैयार करें.

बोआई का समय और विधि : बोआई का सही समय जुलाई से ले कर अगस्त माह तक है. ध्यान रहे कि इस की बोआई लाइन से करने पर ज्यादा फायदा होता है. लाइन से लाइन की दूरी 40 सैंटीमीटर और पौध से पौध की दूरी 10 से 15 सैंटीमीटर रखें. बीज बोने की गहराई तकरीबन 4 सैंटीमीटर तक ठीक रहती है.

बीज दर और उपचार: इस की बोआई के लिए प्रति हेक्टेयर 4-5 किलोग्राम बीजों की जरूरत होती है. बीजों को 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए. अरगट के दानों को 20 फीसदी नमक के घोल में डाल कर निकाला जा सकता है.

खरपतवार पर नियंत्रण : बाजरे की फसल में खरपतवार ज्यादा उगते हैं. बेहतर होगा कि खरपतवारों को निराईगुड़ाई कर के निकाल दें. इस से एक ओर जहां मिट्टी में हवा और नमी पहुंच जाती है, वहीं दूसरी ओर खरपतवार भी नहीं पनप पाते हैं.

खरपतवारों की कैमिकल दवाओं से रोकथाम करने के लिए एट्राजीन 0.50 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 800-1000 लिटर पानी में मिला कर बोआई के बाद व जमाव से पहले एकसमान रूप से छिड़काव कर देना चाहिए.

खाद और उर्वरक : खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल खेत की मिट्टी की जांच के आधार पर करना चाहिए. हालांकि मोटेतौर पर संकर प्रजातियों में हाईब्रिड के लिए 80-100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश व देशी प्रजातियों के लिए 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 25 किलोग्राम फास्फोरस व 25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई से पहले इस्तेमाल करें. उस के बाद नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा टौप ड्रेसिंग के रूप में जब पौधे 25-30 दिन के हो जाएं तो छिटक कर छिड़काव करें.

सिंचाई : बाजरे की फसल बारिश के मौसम में उगाई जाती है. बरसात का पानी ही इस के लिए सही होता है. यदि बरसात का पानी न मिल सके तो फूल आने पर जरूरत के मुताबिक सिंचाई करनी चाहिए.

बाजरे (Millet)

खास रोगों का उपचार

बाजरे का अरगट : यह रोग क्लेविसेप्स माई क्रोसिफैला नामक कवक से फैलता है. यह रोग बालियों या बालियों के कुछ ही दानों पर ही दिखाई देता है. इस में दाने की जगह पर भूरे काले रंग की सींग के आकार की गांठें बन जाती हैं. इसे स्केलेरोशिया कहते हैं. प्रभावित दाने इनसानों और जानवरों के लिए नुकसानदायक होते हैं, क्योंकि उन में जहरीला पदार्थ होता है. इस रोग की वजह से फूलों में से हलके गुलाबी रंग का गाढ़ा और चिपचिपा पदार्थ निकलता है. रोग ग्रसित बालियों पर फफूंद जम जाता है.

रोकथाम : बोने से पहले 20 फीसदी नमक के घोल में बीजों को डुबो कर स्केलेरोशिया अलग किए जा सकते हैं. खड़ी फसल में इस की रोकथाम के लिए फूल आते ही घुलनशील जिरम 80 फीसदी चूर्ण 1.5 किलोग्राम या जिनेब 75 फीसदी चूर्ण 2 किलोग्राम या मैंकोजेब चूर्ण को 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 5-7 दिन के अंतराल पर छिड़कना चाहिए.

कंडुआ : यह रोग टालियोस्पोरियम पेनिसिलेरी कवक से लगता है. इस रोग में दाने आकार में बड़े, गोल अंडाकार व हरे रंग के हो जाते हैं. इन में काला चूर्ण भरा होता है. मंड़ाई करते समय ये दाने फूट जाते हैं, जिस से उन में से काला चूर्ण निकल कर सेहतमंद दानों पर चिपक जाता है.

रोकथाम : इस की रोकथाम के लिए किसी पारायुक्त कैमिकल से बीज उपचारित कर के बोने चाहिए. सावधानी के लिए एक ही खेत में हर साल बाजरे की खेती नहीं करनी चाहिए.

हरित बाली रोग : इसे डाउनी मिल्ड्यू नाम से जाना जाता है. रोगकारक स्केलेरोस्पोरा ग्रैमिनीकोला पत्तियों पर पीलीसफेद धारियां पड़ जाती हैं. इस के नीचे की तरफ रोमिल फफूंदी की बढ़वार दिखाई देती है. बाल निकलने पर बालों में दानों की जगह पर टेढ़ीमेढ़ी हरी पत्तियां बन जाती हैं और बाली गुच्छे या झाड़ू सी दिखाई देती है.

रोकथाम : शोधित बीज ही बोने चाहिए. रोग से ग्रसित पौधे को जला दें और फसल चक्र अपनाएं. शुरुआती अवस्था में जिंक मैगनिज कार्बामेट या जिनेब 0.2 फीसदी को पानी में घोल कर छिड़काव करें.

मुख्य कीट

तनामक्खी कीट : यह कीट बाजरे का दुश्मन है, जो फसल की शुरुआती अवस्था में बहुत नुकसान पहुंचाता है. जब फसल 30 दिन की होती है तब तक कीट से फसल को 80 फीसदी नुकसान हो जाता है.

इस के नियंत्रण के लिए बीज को इमिडाक्लोरोप्रिड गोचो 14 मिलीलिटर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए और बोआई के समय बीज की मात्रा 10 से 12 फीसदी ज्यादा रखनी चाहिए.

जरूरी हो तो अंकुरण के 10-12 दिन बाद इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल 5 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. फसल काटने के बाद खेत में गहरी जुताई करें और फसल के अवशेषों को इकट्ठा कर के जला दें.

तनाभेदक कीट : तनाभेदक कीट का प्रकोप फसल में 10 से 15 दिन से शुरू हो कर फसल के पकने तक रहता है. इस के नियंत्रण के लिए फसल काटने के बाद खेत में गहरी जुताई करें और फसल के अवशेषों को जला दें.

खेत में बोआई के समय कैमिकल खाद के साथ 10 किलोग्राम की दर से फोरेट 10 जी अथवा कार्बोफ्यूरान दवा खेत में अच्छी तरह मिला दें और बोआई 15-20 दिन बाद इमिडाक्लोरोप्रड 200 एसएल 5 मिलीलिटर प्रति 10 लिटर या कार्बोरिल 50 फीसदी घुलनशील पाउडर 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करें.

टिड्डा कीट : यह बाजरे की फसल को छोटी अवस्था से ले कर फसल पकने तक नुकसान पहुंचाता है. यह कीट पत्तों के किनारों को खा कर धीरेधीरे पूरी पत्तियों को खा जाता है. बाद में फसल में केवल मध्य शिराएं और पतला तना ही रह जाता है.

इस के नियंत्रण के लिए फसल में कार्बोरिल 50 फीसदी घुलनशील पाउडर 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 10 से 15 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करें.

पक्षियों से बचाव : बाजरा पक्षियों का मुख्य भोजन है. फसल में जब दाने बनने लगते हैं तो सुबहशाम पक्षियों से बचाव करना बहुत ही जरूरी है.

भरपूर लें उपज तरबूजेखरबूजे (Watermelon and Melon) की खेती से

भारत में कद्दूवर्गीय सब्जीफलों में तरबूज और खरबूजे का खास स्थान है. ये दोनों ही संतुलित भोजन माने जाते हैं. पाचनशक्ति ठीक होने के साथ ही ये पोषक तत्त्वों से भी भरपूर होते हैं. इन का इस्तेमाल पके फल के रूप में ज्यादा किया जाता है. तरबूज खा कर गरमी से राहत मिलती है, वहीं यकृत और आंत के रोगों में आराम मिलता है. खरबूजा भी कब्ज के रोगियों के लिए बहुत फायदेमंद फल है.

तरबूज और खरबूजे का इस्तेमाल गरमी में बहुतायत किया जाता है. दूसरे फलों की तुलना में ये सस्ते होते हैं. इसे हर तबके के लोग आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं. इन को दूसरे कद्दूवर्गीय सब्जीफलों की अपेक्षा बाजार भाव ज्यादा मिलता है, इसलिए ज्यादा उपज लेने के लिए नई प्रजातियों और वैज्ञानिक विधि से खेती की जानकारी का होना बहुत जरूरी है. इस से कम लागत में ज्यादा उपज ली जा सके.

जमीन की तैयारी

दूसरी कद्दूवर्गीय फसलों के साथ इन की खेती समतल खेतों में भी अच्छी तरह से उगाई जा सकती है. बलुई दोमट मिट्टी बढि़या मानी जाती है. इस में जीवांश की मात्रा काफी हों, खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें और 2-3 जुताई कल्टीवेटर से करें. हर जुताई के बाद पाटा चला कर जमीन को इकसार और मिट्टी को बारीक कर लेते हैं.

उन्नतशील प्रजातियां

उत्पादन के लिहाज से तरबूज और खरबूजा की लोकल किस्मों के अलावा बहुत सी उन्नतशील प्रजातियां ईजाद की गई हैं. ये किस्में मिठास के साथसाथ दूर तक भेजने में भी खराब नहीं होती हैं.

तरबूज की सामान्य किस्में

सुगर बेबी : इस किस्म का फल मध्यम आकार का होता है और वजन औसतन 3 से 4 किलोग्राम का होता है. फल का रंग हरा, गूदा लाल और काफी मीठा होता है. इस की भंडारण कूवत दूसरी किस्मों की तुलना में ज्यादा होती है.

अर्का ज्योति : इस किस्म के फलों का वजन 6 से 8 किलोग्राम होता है. गूदा चमकीला और लाल रंग का होता है. खाने योग्य गूदा दूसरी किस्मों की तुलना में ज्यादा होता है औैर इस की भंडारण कूवत दूसरी किस्मों की तुलना में ज्यादा होती है.

तरबूज की संकर किस्में

राज रस : यह किस्म सनग्रो सीड्स कंपनी द्वारा ईजाद की गई है. इस के फलों में शर्करा की मात्रा ज्यादा होती है. यह फसल 80 से 85 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. फलों का आकार गोल, लाल रंग का गूदा और फलों के ऊपर हरे रंग की पट्टी होती है.

पीएस एस 742: इस किस्म के बीज शीतल सीड्स कंपनी द्वारा तैयार किए गए हैं. इस के फल गोल, जिन का रंग हलका हरा होता है. यह किस्म बोने के 85 से 90 दिन में पक कर तैयार हो जाती है.

तरबूजेखरबूजे (Watermelon and Melon)

खरबूजा की सामान्य किस्में

पूसा शरबती : यह अगेती किस्म की फसल है. इस के फल गोल और हरी धारी होती है. इस का गूदा मोटा संतरी रंग का और कम रसदार होता है. इस के फलों को कई दिनों तक रखा जा सकता है. इस में मिठास तकरीबन 8 से 10 फीसदी होती है.

पंजाब सुनहरी : इस किस्म के फलों का औसत वजन 700 से 800 ग्राम और फलों में मिठास 10 से 12 फीसदी होती है. इस का गूदा संतरी रंग का, मध्यम रसदार और खुशबूदार होता है.

हरा मधु : यह देर से तैयार होने वाली किस्म है. इस के फलों का आकार गोले और वजन 1 किलोग्राम होता है. इस में शर्करा की मात्रा 14 से 15 फीसदी होती है जो दूसरी किस्मों की तुलना में काफी ज्यादा है. मोटा गूदा हरा और रसीला होता है और इस के छिलके का रंग हलका पीला और हरी धारियां होती हैं.

खरबूजा की संकर किस्में

पताशा : बीजो शीतल सीड्स कंपनी ने इस किस्म को ईजाद किया है. फलों का वजन तकरीबन 1 से डेढ़ किलोग्राम होता है. इस के फलों में अच्छी खुशबू, गोल और शर्करा की मात्रा ज्यादा होती है.

खाद और उर्वरक

तरबूज और खरबूजा की फसल में अच्छी उपज हासिल करने के लिए जहां तक संभव हो, मिट्टी की जांच करा कर ही संतुलित मात्रा में खाद का इस्तेमाल करना चाहिए.

वैसे तो तरबूज और खरबूजा में 150 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद की जरूरत होती है.

खेत की तैयारी के समय ही मिट्टी में गोबर की सही खाद मिला देनी चाहिए. फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा बोआई के पहले मिट्टी में मिला देनी चाहिए और नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा बोआई के एक महीने के बाद फूल आने के पहले इस्तेमाल करनी चाहिए. तरबूज और खरबूजा की फसल में फलों की मिठास और खास पोषक तत्त्व पोटाश की संतुलित मात्रा पर निर्भर करता है.

बोआई की विधि

दोनों फसलों की बोआई एक ही तरह से की जाती है. इस के लिए 3 मीटर की दूरी पर 40-50 सैंटीमीटर की चौड़ी नाली बनाते हैं और नाली के दोनों किनारों पर 60 सैंटीमीटर चौड़े गड्ढे बनाते हैं.

नाली के दोनों किनारों पर 60 सैंटीमीटर की दूरी पर 2 से 3 बीजों की बोआई करते हैं. बीजों को 2-3 सैंटीमीटर की गहराई पर बोते हैं और जमाव हो जाने पर 1 या 2 स्वस्थ पौध ही रखते हैं.

अच्छे जमाव के लिए बीजों को बोआई के पहले पानी में कुछ समय तक भिगो कर रखना चाहिए.

सिंचाई का तरीका

बोआई के समय यदि खेत में मुनासिब नमी की कमी हो तो बोआई के बाद पहली सिंचाई तुरंत कर देनी चाहिए. दूसरी और तीसरी सिंचाई 4-5 दिन के फासले पर करनी चाहिए ताकि खेत में मुनासिब नमी बनी रहे.

सिंचाई करते समय पानी नाली के ऊपर न जाए. उतना ही पानी नाली में रखना चाहिए जितना बोआई की जगह तक नमी पहुंच जाए. दूसरी सिंचाई समयसमय पर करते रहना चाहिए.

पकने की अवस्था पर सिंचाई कम कर देनी चाहिए, नहीं तो अधिक पानी देने पर फल फट जाते हैं और फलों की क्वालिटी पर बुरा असर पड़ता है. बाजार में भाव भी उस का कम मिलता है.

पादप हार्मोंस का इस्तेमाल

पौधों की शुरुआती अवस्था में जब 2-4 पत्तियां निकल आएं, तब इथराल नामक हार्मोन 200 से 250 पीपीएम की मात्रा का छिड़काव करने पर मादा फूलों की तादाद में इजाफा होता है.

आमतौर से गरमी में ज्यादा तापमान होने पर यह समस्या आती है. नर फल संख्या में ज्यादा और मादा फूलों की संख्या कम आती है. इस के उपचार के लिए मुनासिब हार्मोन का इस्तेमाल करना चाहिए जिस से उपज में काफी इजाफा होगा.

कटाई और छंटाई

तरबूज और खरबूजा की फसल में कटाईछंटाई एक जरूरी प्रक्रिया है. तरबूज मुख्य शाखाओं को 3-4 गांठ के बाद काट देना चाहिए. इस में निकलने वाली दूसरी शाखाओं पर फूल आते हैं और एक शाखा पर एक जैसे फल ही लेना चाहिए.

इस तरह एक पौध पर केवल 3 से 4 फल लेना और खरबूजा की मुख्य शाखाओं पर निकलने वाली 3 से 5 गांठ तक की सभी दूसरी शाखाओं को काट देना चाहिए और एक पौध से 4 फल ही लेना चाहिए.

कटाईछंटाई से होने वाले लाभ

* पौधों की बढ़वार अच्छी होती है.

* फलों की क्वालिटी प्रभावित नहीं होती है. फलों का बाजार भाव ज्यादा मिलता है.

कीट और रोग नियंत्रण

तरबूजेखरबूजे (Watermelon and Melon)

कीट नियंत्रण : तरबूज और तरबूजा में कई तरह के कीट फसल को नुकसान पहुंचाते हैं. जैसे कद्दू का लाल कीड़ा.

इस कीट की प्रौढ़ और ग्रव दोनों ही फसल को नुकसान पहुंचाती हैं. प्रौढ़ कीट फरवरी माह के आखिर तक सूखी पत्तियों और जमीन की दरारों में निष्क्रिय अवस्था में रहती हैं.

मार्च माह के शुरू में ये सक्रिय हो कर पौधों की मुलायम पत्तियों, फूलों की कलियों और कोमल तनों को खा कर जगहजगह छेद बना देती हैं.

ग्रव कीट जमीन के अंदर जड़ और तनों में छेद बना कर उन को खाते हैं. ये जमीन के संपर्क में आने वाले फलों में घुस कर छेद बना देते हैं. इस कीट का प्रकोप मार्च से अप्रैल माह तक ज्यादा होता है.

नियंत्रण

* सुबह ओस पड़ने पर राख का बुरकाव करने से प्रौढ़ कीट पौधों पर नहीं बैठता है, जिस से नुकसान कम होता है.

* जैविक विधि से नियंत्रण के लिए अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम 5 से 10 मिलीलिटर या अजादीरैक्टिन 5 फीसदी 0.5 मिलीलिटर की दर से 2-3 छिड़काव करने से फायदा होता है.

इस कीट का ज्यादा हमला होने पर कीटनाशी जैसे डाईक्लोरोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलिटर या ट्राइक्लोफेरान 50 ईसी 1 मिलीलिटर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एमएल 0.5 मिलीलिटर की दर से 10 दिनों के फासले पर पत्ती पर छिड़काव करें.

फलमक्खी : यह कीट कोमल फलों के छिलके के नीचे अंडे देती है. अंडे 1 से 9 दिन में फूटते हैं. अंडे से बहुत छोटा मैगेट निकलता है जो गूदे में छेद कर फल को अंदर से खाता है. दोहरे बैक्टीरियल संक्रमण के कारण फल सड़ जाता है. मिट्टी में जा कर मैगेट प्यूपा बन जाता है.

नियंत्रण

* 0.3 फीसदी डाइजेनान या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 1.0 लिटर मात्रा को 1000 से 1200 लिटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें.

* मैलाथियान 50 ईसी की 50 मिलीलिटर मात्रा को 50 लिटर पानी में मिला कर इस में 0.5 किलोग्राम गुड़ मिला दें. इस घोल का पौधे पर छिड़काव करने से कीट खिंचे चले आते हैं और घोल को चूस कर मर जाते हैं.

* क्यूल्योर और मैलाथियान 50 ईसी 1:1 के अनुपात में 10 मिलीलिटर का घोल बना कर किसी बरतन में 25 हेक्टेयर की दर से जहर खाद्य के रूप में इस्तेमाल करते हैं.

* क्यूल्योर, एल्कोहल, कीटनाशक मैलाथियान 50 ईसी का मिश्रण 6:4:1 के अनुपात में बनाते हैं. लकड़ी के गुटके 2×2×1 सैंटीमीटर को इस मिश्रण में 24 घंटे डुबोने के बाद खेत में 25 हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करते हैं.

* सड़ा हुआ केला एक किलोग्राम, कार्बोफ्यूरान 5 ग्राम, खमीर 5 ग्राम, साइट्रिक एसिड 5 ग्राम को किसी पात्र में रख कर इस्तेमाल करते हैं.

चूर्णिल आसिता

इस रोग का हमला खासतौर से सूखे मौसम में ज्यादा होता है. शुरुआती लक्षणों में तने, पत्तियों और दूसरे हिस्सों पर सफेद आटे जैसी परत दिखाई देती है. ज्यादा प्रकोप की दशा में पत्तियां पीली हो कर गिर जाती हैं और फलों का आकार छोटा रह जाता है.

नियंत्रण

* रोग लगे पौधों को खेत से निकाल कर जला दें.

* इस पर नियंत्रण के लिए केराथेन या सल्फर नामक दवा 1 से 2 ग्राम दवा प्रति लिटर पानी का छिड़काव करना चाहिए.

मृदुरोमिल आसिता

उत्तरी भारत में इस रोग का प्रकोप ज्यादा होता है. आमतौर पर यह रोग बारिश के बाद तापमान बढ़ने पर तेजी से फैलता है.

शुरुआती लक्षणों में पत्तियों की सतह पर पीले कोणीय धब्बे दिखाई देते हैं. ज्यादा नमी होने पर पत्तियों की निचली सतह पर इस कवक की ज्यादा बढ़वार दिखाई देती है.

नियंत्रण

* रोगी पत्तियों को निकाल कर जला दें.

* मैंकोजेब 2.5 लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें.

फलों की तुड़ाई

तरबूज और खरबूजा के पकने के बाद तुड़ाई की जाती है. फलों की सही समय पर तुड़ाई करना बहुत जरूरी होता है, क्योंकि उसी समय फल का रंग मनमोहक व खुशबूदार बना रहता है.

तरबूज के पक जाने पर को हाथ की उंगली से थपथपाने पर धपधप की आवाज निकलती है. फल का जो भाग जमीन के संपर्क में रहता है, उतना भाग पीला पड़ जाता है.

वैसे, इस के पकने की खास पहचान यह है कि जिस गांठ से फल निकलता है, उस पर लगा ट्रेडिल डंठल यदि सूख जाए तो समझना चाहिए कि फल पूरी तरह से पक गया है.

विपणन

तरबूज और खरबूजा का फल ताजा अवस्था में बाजार में पहुंचाने पर ही फसल की वाजिब कीमत मिलती है. इन फलों को बाजार तक पहुंचाने के लिए तरबूज को बोरे में और खरबूजा को टोकरी में भर कर लंबी दूरी तक भेजा जा सकता है.

लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि बहुत दूर के बाजार में बेचने वाले फलों को पूरी तरह पकने से पहले तोड़ लेना चाहिए, जिस से फलों को 2-3 दिन तक महफूज रखा जा सके.

उपज

फलों की उपज उस की किस्मों पर निर्भर है. तरबूज की सामान्य प्रजातियों की 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और संकर प्रजातियों से 300 से 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर औसतन उपज मिल जाती है, वहीं खरबूजा की सामान्य प्रजातियों से 180 से 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और संकर किस्मों से 250 से 300 क्विंटल औसतन उपज मिल जाती है.