डीजल इंजन (Diesel Engine) खरीदने में धोखा न खाएं

Diesel Engine : गांवों में बिजली कम आती है और जब आती है, तो अकसर वोल्टेज सही नहीं आता. लिहाजा खेतीकिसानी के बहुत से काम वक्त पर ठीक से पूरे नहीं हो पाते. मजबूरन किसानों को डीजल से चलने वाले इंजन का सहारा लेना पड़ता है. डीजल इंजन (Diesel Engine) खेतीकिसानी से जुड़े बहुत से कामधंधों में काम आता है.

सिंचाई के पंपसैट, सबमर्सिबल पंप, जनरेटर, थ्रैशर, आटा चक्की, धान मशीन, गन्ना कोल्हू, आरा मशीन, इंटर लाकिंग टाइल्स प्लांट व तेल का स्पेलर आदि मशीनें चलाने में डीजल इंजन का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर किया जाता है. इसीलिए डीजल इंजन को किसानों का सच्चा साथी भी कहा जाता है.

डीजल इंजन (Diesel Engine) खरीदते समय पूरी सूझबूझ व सावधानी बरतना बहुत जरूरी है. दरअसल, बाजार में बहुत से ब्रांड के डीजल इंजनों की भरमार है, लिहाजा आम किसान इंजन खरीदते समय चकरा जाते हैं. ज्यादातार किसान इनाम के लालच या दुकानदारों की चिकनीचुपड़ी बातों के झांसे में आ कर कोई भी डीजल इंजन खरीदने का फैसला कर बैठते हैं.

तकनीक में लगातार हो रही तरक्की के कारण अब नए किस्म के डीजल इंजन आसानी से स्टार्ट होने लगे हैं. आयशर आदि मशहूर कंपनियों के बनाए  हुए 46 हार्स पावर तक की कूवत के दमदार एयर कूल्ड इंजन अपने देश में आसानी से मिलने लगे हैं, मगर ज्यादातर किसानों को उन की असलियत के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती है.

बरतें सावधानी

यह सच है कि बाजार में ग्राहकों को खूब ठगा जाता है. चालाक दुकानदार मुनाफा कमाने के चक्कर में बहुत सफाई से भोले ग्राहकों को चूना लगा देते हैं. खासतौर पर कम पढ़ेलिखे व भोले किसानों के साथ तो कई बार बहुत ही ज्यादती होती है. लिहाजा खरीदारी करते समय बहुत चौकस रहना लाजिम होता है.

किसानों को यह पहले ही तय कर लेना चाहिए कि उन्हें कौनकौन से काम डीजल इंजन से करने हैं और कामों को करने के लिए कितनी कूवत यानी हार्स पावर का इंजन लेना ठीक रहेगा. गौरतलब है कि कम हार्स पावर के इंजन से ज्यादा भारी काम लेने पर इंजन बैठ जाता है और ज्यादा हार्स पावर के इंजन से कम काम लेने से डीजल का खर्च ज्यादा आता है.

आमतौर पर डीजल इंजन 2 तरह के आते हैं, एयर कूल्ड व वाटर कूल्ड यानी एक हवा से ठंडा होने वाला और दूसरा पानी से ठंडा होने वाला. किसान पैसे व जरूरत के मुताबिक इंजन चुन सकते हैं.

सूझबूझ से करें फैसला

इंजन खरीदते समय जल्दबाजी न करें. हालांकि भीड़ में से उम्दा क्वालिटी का बेहतर इंजन छांट कर चुनना हर किसी के लिए आसान नहीं होता. लिहाजा अपने आसपास के जिन किसानों के पास डीजल इंजन हो, उन से पूरी मालूमात जरूर करें. उन के इंजन की खूबियों व दिक्कतों के तजरबे आप के काम आ सकते हैं. पूरी व सही जानकारी न होने से कई बार किसान बाजार में मात खा जाते हैं.

अकसर पूरी कीमत चुकाने के बाद भी घटिया क्वालिटी का इंजन किसानों के मत्थे मढ़ दिया जाता है. लिहाजा बहुत सोचसमझ कर फैसला करें.

याद रखें कि लोकल कंपनी के डीजल इंजन नामचीन कंपनी के इंजनों के मुकाबले सस्ते होते हैं, लेकिन उन की क्वालिटी घटिया होने से उन में घिसावट जल्दी व ज्यादा होती है. वे जल्दी खराब होते हैं. बारबार कारीगर के पास ले जा कर उन की मरम्मत करानी पड़ती है.

डीजल इंजन हमेशा अच्छी साख वाली दुकान या एजेंसी से व नामचीन कंपनी का व आईएसआई निशान वाला ही खरीदना चाहिए. नकली इंजन बेचने वाले किसानों को भरमाने के लिए आईएसआई के निशान का जाली स्टीकर लगाए रखते हैं, लेकिन उस में अंग्रेजी में एज आईएसआई यानी आईएसआई जैसा लिखा रहता है. लिहाजा चौकस रहें और किसी के बहकावे में कतई व भूल कर भी न आएं.

सस्ते पर न रीझें

लोकल कंपनी का सस्ता इंजन खरीदने में कुछ धन जरूर बच जाता है, लेकिन बाद में उस के रखरखाव पर उस से कहीं ज्यादा खर्च हो जाता है, तब पछताना पड़ता है. साथ ही महंगा रोए एक बार व सस्ता रोए बारबार वाली कहावत याद आने लगती है. लिहाजा शुरू में ही मशहूर कंपनी का असली इंजन खरीदने में समझदारी है. खरीदने से पहले पूरे बाजार में कीमत का जायजा लेना अच्छा रहता है, ताकि ठगे जाने की गुंजाइश न रहे.

आगरा, राजकोट, अहमदाबाद व मेरठ आदि शहरों में बड़े पैमाने पर डीजल इंजन बनाए जाते हैं. अलगअलग कंपनियों के माडल व हार्सपावर वाले इंजनों की कीमत भी अलगअलग शहरों में अलगअलग होती है. ब्रांडेड कंपनियों के इंजनों की कीमत में हेराफेरी करने की गुंजाइश नहीं होती, लिहाजा दुकानदार अपने मोटे मुनाफे के लिए किसानों को हमेशा लोकल कंपनियों का या मेड इन चाइना इंजन खरीदने की ही गलत सलाह देते हैं.

इंजन खरीदते समय यदि कोई भरोसे का मैकैनिक भी जांचपरख के लिए साथ में हो तो सोने में सुहागा रहता है. वह इंजन के बोर, स्ट्रोक व आरपीएम जैसी तकनीकी खासीयतों को आसानी से परख सकता है. इंजन खरीद की पक्की रसीद, मैनुअसल व उस का गारंटी कार्ड वगैरह पूरे कागजात जरूर लें. उस पर दुकानदार की मोहर लगवा कर दस्तखत कराएं व तारीख डलवाएं. इन को संभाल कर रखें ताकि वक्तजरूरत पर काम आएं.

यदि इंजन में खराबी, सेवा में चूक या धोखाधड़ी का मामला हो, तो जिले के उपभोक्ता फोरम में जा कर मुआवजा पा सकते हैं. वहां यही सुबूत काम आते हैं. इंजन के मैनुअसल में इस्तेमाल के तरीके, कई हिदायतें व सावधानियां लिखी रहती हैं, उन्हें ध्यान से पढ़ें व उन का पूरा पालन करें, ताकि बेवजह की दिक्कतें न आएं और आएं तो आसानी से हल हो जाएं.

बहुत से दुकानदार बिल या रसीद पर नीचे बाईं ओर ग्राहक के भी दस्तखत कराते हैं. वहां पहले से चैक्ड एन सैटिस्फाइड लिखा होता है, इस का मतलब होता है कि खरीदी गई चीज सही हालत में हासिल की जा रही है. इस के बाद घर जा कर उस चीज में यदि कोई खामी निकलती है, तो दुकानदार की जिम्मेदारी नहीं होती.

रखरखाव : डीजल इंजन का इस्तेमाल खेतखलिहान व दूसरे कामधंधों में किया जाता है, लिहाजा उम्मीद की जाती है कि वह ठीक से काम करे. इंजन की जितनी ज्यादा बेहतर देखभाल की जाती है, वह उतना ही अच्छा काम करता है और उतना ही ज्यादा चलता है. इस के लिए यह जरूरी है कि उसे लाने, ले जाने,

चढ़ोनउतारने व रखने में लापरवाही न बरती जाए. जहां तक मुमकिन हो इंजन को धूप व पानी से बचा कर छाया में रखें, उस की सफाई करते रहें और वक्त पर उस की सर्विसिंग भी जरूर कराएं.

इंजन में डीजल डालते समय ध्यान रखें कि उस का फिल्टर ठीक हो. तेल की टंकी में कचरा न जाने दें. यदि इंजन में कभी कोई कमी नजर आए, तो सीधे कंपनी के सर्विस स्टेशन पर ले जाएं या किसी अच्छे मिस्त्री को ही दिखाएं. इन कुछ उपायों को अपनाने से किसान इंजन के नाम पर अपनी मेहनत की कमाई को बरबाद होने से बचा सकते हैं.

किसान उम्दा क्वालिटी का इंजन खरीद कर उसे सालोंसाल बगैर किसी दिक्कत के चला सकते हैं. वे डीजल इंजन की मदद से अपना कीमती वक्त, धन व मेहनत बचा कर ज्यादा व बेहतर काम कर सकते हैं और खेती से जुड़े अपने सहायक कामधंधे बढ़ा कर अपनी कमाई में भरपूर इजाफा कर सकते हैं.

हलदी (Turmeric) की खेती

हलदी (Turmeric) खास मसाला फसल है. भारत में तमाम व्यंजनों में मसाले के तौर पर इस का इस्तेमाल होता है. हलदी (Turmeric) का इस्तेमाल तमाम औषधियों में भी किया जाता है. हलदी (Turmeric) एक उष्ण कटिबंधीय फसल है. इस की खेती के लिए नमी वाली जलवायु अच्छी मानी जाती है.

जमीन : खेती के लिए जमीन समतल, अच्छे पानी के निकास वाली, बलुई दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 7-7.5 हो, सही मानी जाती है. अम्लीय, क्षारीय, लवणीय और पानी खड़ा रहने वाली जमीन इस के लिए ठीक नहीं है.

खेत की तैयारी : मिट्टी पलटने वाले हल से या ट्रैक्टर हैरो से 2-3 बार अच्छी जुताई करें व सुहागा लगा कर खेत को खरपतवार व ढेले रहित तैयार करें. अन्य घासफूल को अच्छी तरह से निकाल दें. इस के बाद 3 मीटर चौड़ी व 20 मीटर लंबी क्यारियां बना लें. 2 क्यारियों के बीच 20 सेंटीमीटर की जगह छोड़नी चाहिए, जिस से फसल की अच्छी देखभाल हो सके और हलदी के फुटाव के लिए भी सही जगह मिल सके.

हलदी की खास किस्में : रश्मि, सुरमा, रोमा व सोनाली के अलावा हलदी की अन्य लोकप्रिय किस्में लाकाडाग, डुग्गीगली, टेकुटपेटो, कस्तूरी पुष्पा, पीटीएस 10, पीटीएस 24, टी सुंदर, अल्लेटंपी, लोखड़ी, फुलबनी लोकल, मद्रास मगल, राजा बोट, कटहड़ी सुवर्णा, रजतरेखा, प्रतिभा, नूरी प्रभा वगैरह हैं.

बोने का समय : हलदी की अच्छी फसल लेने के लिए बिजाई अप्रैल के आखिरी हफ्ते में करें. जहां सिंचाई की सहूलियत नहीं है, वहां जुलाई के पहले हफ्ते में बिजाई की जाती है. देर से बिजाई करने पर पौधों की बढ़वार व उपज कम होती है.

बीज की मात्रा व बोने का तरीका : हलदी की बोआई कंदों से की जाती है. इस के लिए 6-8 क्विंटल स्वस्थ व एक साइज के कंद प्रति एकड़ बिजाई के लिए सही रहते हैं.

कंदों के आकार का उत्पादन पर बहुत गहरा असर पड़ता है. ज्यादा वजन वाले कंद जल्दी स्थापित हो जाते हैं. बीज के लिए कंदों का वजन 30-40 ग्राम होना चाहिए. हलदी की बोआई लाइन से लाइन की दूरी 30 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर रख कर करनी चाहिए. इस के बाद कंद जमने तक खेत में नमी बनाए रखनी चाहिए. बोआई से पहले कंदों को डाइथेन एम 45 की 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर उस में 30 मिनट तक डुबो कर रखें.

खाद व उर्वरक : खेत की तैयारी के समय 10-12 टन गोबर की अच्छी गलीसड़ी व सूखी खाद प्रति एकड़ की दर से खेत में मिलाएं.

सिंचाई : हलदी जमने में लंबा समय लेती है, जिस के लिए खेत में नमी बनी रहनी चाहिए. अप्रैल से जून में 8-10 दिनों के अंतर से और सर्दियों में 20-25 दिनों के अंतर से हलकी सिंचाई करें. बारिश हो जाने पर इस फसल को अलग से पानी लगाने की जरूरत नहीं पड़ती.

निराईगुड़ाई : फसल में उगने वाले खरपतवारों को समयसमय पर निकालते रहें. आजकल निराईगुड़ाई के लिए साइकिलनुमा तमाम यंत्र सस्ते दामों पर मौजूद हैं.

खुदाई व पत्तियों से मुनाफा : हलदी को किस्मों के आधार पर 7-10 महीने के बाद जब पत्तियां सूख कर पीली पड़ जाएं, तब पत्तियों को काट कर उन का वाष्प आसवन विधि से तेल निकालें. पत्तियों में 1 फीसदी तेल होता है. इस के तेल से अतिरिक्त आमदनी होती है. जमीन को खोद कर या जुताई कर के कंदों को निकाल लिया जाता है. बीज के लिए रखी जाने वाली हलदी को छांट कर बिना साफ किए छायादार जगह पर ढेर बना कर हलदी की पत्तियों से ढक कर ऊपर मिट्टी डाल दी जाती है.

प्रसंस्करण : बेची जाने वाली हलदी की जड़ों से मिट्टी को साफ किया जाता है और 1 हफ्ते तक छाया में सुखाने के बाद हलदी को 100 लीटर पानी में 100 ग्राम सोडियम बाईकार्बोनेट या सोडियम कार्बोनेट घोल कर तांबे, गेल्बनाइज्ड लोहे या मिट्टी के बरतन में भर कर 1-2 घंटे तक उबालते हैं.

पीला रंग लाने के लिए 50 ग्राम सोडियम बाइसल्फेट और 50 ग्राम हाइड्रोक्लोरिक अम्ल भी डाल देते हैं. जब पानी से सफेद धुआं आने लगे, हलदी दबाने पर मुलायम हो जाए, तब उबालना बंद कर देते हैं. इन कंदों को जमीन पर फैला कर 10-15 दिनों तक सुखाया जाता है. जब पलटने पर धात्विक ध्वनि आने लगे, तब पालिश करने वाले ड्रम में भर कर घुमा कर चमकाते हैं. पालिश करने के बाद इस की सतह पर चमकदार पीला रंग चढ़ाया जाता है.

उपज : हलदी की उपज (गीली) 100-120 क्विंटल प्रति एकड़ होती है, जो सूखने पर 10-12 क्विंटल बचती है और पत्तियों के आसवन से 8-12 किलोग्राम तेल प्रति एकड़ हासिल हो सकता है.

बदहाल कृषि अर्थव्यवस्था (Agricultural Economy) का राजनीतिक अर्थशास्त्र

Agricultural Economy: एक जमाना था, जब कृषि का अर्थव्यवस्था में बोलबाला हुआ करता था. लोगों के लिए खेती ही जिंदगी चलाने का जरीया और जीवन जीने का तरीका दोनों होती थी. कृषि व्यवस्था का विकास अपनेआप में एक प्रगतिशील घटना थी. लेकिन यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद धीरेधीरे कृषि की अहमियत कम होती गई और उस की जगह नए उद्योगधंधों ने ले ली.

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यूरोप का आधुनिकीकरण जब तीसरी दुनिया के देशों में पहुंचा, तो उन की अर्थव्यवस्था जो उस समय कृषि आधारित थी, के लिए कहर साबित हुआ. गुलामी के कारण इन देशों का पूरा उत्पादन यूरोप के विकसित कारखानों की भूख मिटाने वाला कच्चा माल बन कर रह गया.

भारत की हालत भी अन्य गुलाम देशों से कोई खास अलग नहीं रही. उसे 200 सालों तक अपने कृषि उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा कच्चे माल के रूप में इंगलैंड के उद्योगधंधों के लिए निर्यात करना पड़ा. अंगरेजों ने न केवल भारत को लूटा, बल्कि भारतीयों की जरूरतों को भी नजरअंदाज किया, जिस के कारण कई बार भुखमरी तक की नौबत आ गई. हालात का अंदाजा चंपारण में किसानों से जबरदस्ती नील की खेती कराने से लगाया जा सकता है.

जब साल 1947 में अंगरेजों से भारत को आजादी मिली, तो खेती की हालत खराब थी. यहां के उद्योगधंधों का भी ठीक से विकास नहीं हुआ था. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कृषि व्यवस्था और उद्योगधंधों में सुधार लाने की कोशिशों का दावा किया गया, पर हकीकत में इन सब कोशिशों से भी कृषि की हालत में कोई खास सुधार देखने को नहीं मिला. वहीं दूसरी तरफ भूसुधार आंदोलनों की असफलता के कारण अंगरेजों के समय में होने वाले किसान आंदोलन आजादी के बाद भी देश के तमाम हिस्सों में उठते रहे हैं. इस की झलक तेलंगाना के महान किसान विद्रोह से ले कर आज के किसान आंदोलनों में देखी जा सकती है.

Bad Agricultural Economy

आमतौर पर हरित क्रांति को कृषि के सुधार क्षेत्र में एक ऐतिहासिक कदम माना जाता है, जिस से देश के कुल अनाज उत्पादन में काफी इजाफा देखा गया, पर छोटे और मंझोले किसानों के लिए यह बेकार साबित हुई. महंगे खादबीजों और उन्नत मशीनों जैसे टै्रक्टर और सिंचाई के यंत्रों ने बड़े किसानों का काम बहुत हद तक आसान कर दिया. अब उन की फसलों के उत्पादन में काफी इजाफा देखा गया, पर वहीं दूसरी ओर इन सब यंत्रों का इस्तेमाल और महंगे खादबीज खरीदना छोटे किसानों के बूते की बात नहीं थी, जिस से वे पहले से ज्यादा पिछड़ते गए.

कृषि के लिए सब से बुरा दौर तो तब शुरू हुआ, जब साल 1991 में भारत ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीति की ओर कदम बढ़ाया. खेती की पहले से खराब हालत किसानों के लिए फांसी का फंदा बनती गई.

खेतीबारी के तौरतरीके अब पूरी तरह से बदल गए. कृषि की लागत आसमान छूने और कर्ज समय पर न चुकाए जाने के कारण, किसानों पर कर्ज की रकम बहुत ज्यादा हो गई, जो किसानों की औकात से बाहर हो गई.

साल 1995 के बाद के आंकड़े देखें तो वे काफी खराब हैं. सचाई यह है कि किसानों के आत्महत्या के मामले काफी बढ़े हैं. भारत की कुल आबादी के 70 से 72 फीसदी लोग खेती पर निर्भर माने जाते हैं.

जब ऐसी हालत में कृषि पर संकट बढ़ेगा, तो उस पर निर्भर लोगों के जीवन पर संकट आना लाजिम है. सरकारी आंकड़ों की ही बात करें तो साल 1995 से साल 2003 के बीच औसतन हर साल 15400 किसानों के आत्महत्या के मामले सामने आए हैं. वहीं साल 2004 से साल 2012 के बीच इन की संख्या 16000 से ऊपर रही है. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि हकीकत में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या इन आंकड़ों से कहीं ज्यादा है.

नहीं आते दिखाई दे रहे किसानों के अच्छे दिन : मौजूदा सरकार का पूंजीपतियों की ओर बढ़ता झुकाव किसानों के लिए घातक है. उस के द्वारा समाज में राष्ट्र व धर्म के नाम पर जो आग फैलाई जा रही है, वह किसानों को भी अपने लपेटे में ले लेगी.

यह एक सचाई है कि कृषि में खेतीबारी के साथसाथ पशुपालन भी जुड़ा रहता है. जहां खेती नहीं होगी, वहां पशुपालन भी मुश्किल होता है और बिना पशुधन खेती करना कठिन होता है. किसानों को दोनों से आर्थिक लाभ मिलता है. लेकिन जब से बीफ बैन के साथसाथ अन्य मीट पर रोक लगाने को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया गया है, तब से पशुपालन का काम बिगड़ गया है.

खेती और पशुपालन में जो संतुलित संबंध था, वह अब बिगड़ने लगा है. एक ओर जहां गाय, भैंस, बकरी, मुरगी वगैरह पालने वालों का धंधा चौपट होने पर है, वहीं इस से मांस के कारोबारियों की हालत भी खराब हो गई है.

Bad Agricultural Economyजबजब किसानों की आत्महत्या और आंदोलन के मुद्दे जोर पकड़ते हैं, तो कई प्रकार के सुझाव सामने आते हैं, जैसे एक किसान आयोग की स्थापना की जाए, स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू किया जाए या किसानों को एक तय वेतन दिया जाए, लेकिन दिक्कत यह है कि भारत के राजनीतिक आकाओं ने यहां के दलाल पूंजीपतियों के दबाव में आ कर देश को वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के आगे इतना गिरवी रख दिया है कि वे चाह कर भी जरूरी कदम नहीं उठा सकते.

अब सवाल उठता है कि क्या और कोई रास्ता नहीं है किसानों के सामने खुदकुशी करने या पुलिस की गोलियों से मरने के अलावा न केवल किसानों का ही, बल्कि हर भारतीय का फर्ज बनता है कि एक सामूहिक बड़े जन आंदोलन को खड़ा किया जाए, जो भारत को इस पूंजीवादी गुलामी के शिकंजे से बाहर निकालने में कामयाब हो, जिस से न केवल किसानमजदूरों के हालात सुधरेंगे, बल्कि तालीम और रोजगार के क्षेत्र में भी आम नागरिक के लिए रास्ते खुलेंगे.

बेल (Wood Apple) की खेती

आसानी से उगने वाला बेल (Wood Apple) औषधीय पेड़ होता है. बेल के पत्ते वात, शूल व आम बुखार को नष्ट करते हैं. इस के फूल वमन और अतिसार में फायदा पहुंचाते हैं. बेल मीठा और ठंडी तासीर वाला होता है. इस की जड़ की छाल और कच्चे फल का इस्तेमाल दस्त, पेचिश, पेटदर्द और पीलिया में फायदेमंद होता है. बेल के पत्तों का रस जुकाम, खांसी व दमे में फायदा पहुंचाता है.

किस्में : नरेंद्र बेल 1, नरेंद्र बेल 2, नरेंद्र बेल 5, मिर्जापुरी, कागजी, गोंडा, फैजाबाद वगैरह.

बोआई : नर्सरी में बीज फरवरीमार्च में बोए जाते हैं. जब बीजू पौधे पेंसिल के आकार के या इस से ज्यादा बड़े हो जाएं तो फरवरीमार्च या जुलाईअगस्त में पैच बडिंग की जाती है. इस के बाद बारिश के मौसम में तैयार पौधों को खेत में लगा दिया जाता है. पेड़ से पेड़ का फासला 10 मीटर रखा जाता है.

खाद व उर्वरक : 10 किलोग्राम गोबर की खाद (सड़ी), 100 ग्राम यूरिया, 150 ग्राम सुपर फास्फेट व 100 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश 1 साल के पौधे को दें. यह मात्रा इसी दर से 10 सालों तक बढ़ाते रहें. गोबर की खाद व अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा जून में और नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा अगस्त में दें.

सिंचाई : छोटे पेड़ों को 10 से 15 दिनों के अंतर पर नियमित रूप से सिंचाई की जरूरत होती है. बेल के बड़े पेड़ बिना सिंचाई के भी रह सकते हैं.

कटाईछंटाई: पेड़ का अच्छा ढांचा बनाने के लिए जमीन की सतह से 70 सेंटीमीटर ऊंचाई तक मुख्य तने पर कोई दूसरी शाखा नहीं रहने देनी चाहिए.

फूल व फल लगने का समय : बडिंग करने के करीब 5 साल बाद पौधों पर फल आने शुरू होते हैं. इस में मईजून के महीनों में फूल आते हैं और 10 महीने बाद फल पक कर तैयार हो जाते हैं.

पैदावार : अच्छी तरह देखभाल करने पर 10 से 12 साल की उम्र के पेड़ों से 300 से 400 फल प्रति पेड़ की दर से मिलते हैं.

खास कीड़े व बीमारियां

आल्टरनेरिया लीफ स्पाट : इस रोग में पत्तियों पर भूरे रंग के अनियमित आकार के धब्बे बनते हैं. रोगी पत्तियां झुलस कर गिर जाती हैं. यह रोग अल्टरनेरिया कवक के कारण होता है. रोकथाम के लिए कापरआक्सीक्लोराइड 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर करें.

अंतर्विगलन रोग : यह रोग संक्रमित फलों में लगता है. इस रोग में फलों का गूदा सड़ कर पूरी तरह नष्ट हो जाता है. ऐसी हालत में फल तोड़ते समय इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि उन में चोट न लगे.

फलों का फटना: कभीकभी सूक्ष्म तत्त्वों की कमी के कारण फल फट जाते हैं. नमी की कमी से भी फल फट जाते हैं. फलों के पकने से पहले ही उन में दरार पड़ जाती है. रोकथाम के लिए सिंचाई का पूरा खयाल रखें. पोषक तत्त्वों की कमी गोबर की खाद डाल कर दूर करें. इस के अलावा सूक्ष्म तत्त्वों का छिड़काव करें.

केंकर : इस बीमारी से प्रभावित भागों पर धब्बे बनते हैं, जो बाद में बढ़ कर भूरे हो जाते हैं. पत्तियों पर छेद हो जाते हैं. रोग से फल भी झड़ जाते हैं. रोकथाम के लिए स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 100 पीपीएम (यानी 1 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में) घोल का छिड़काव करें.

जयपुर जिले के सांगानेर तहसील के रूंडल गांव के प्रगतिशील किसान रामगोपाल यादव ने अपने खेत के चारों तरफ बेल के 25 से 30 पेड़ लगा रखे हैं.

इन पेड़ों से हर साल काफी अच्छी आमदनी होती है. किसान रामगोपाल यादव को 20 से 25 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से आमदनी होती है.

किसानों के शोषण (Exploitation of Farmers) के कारण

Exploitation of Farmers: चुनाव वाले समय में किसानों से कर्ज माफी जैसे तमाम वादे कर दिए जाते हैं. पर जब वादे निभाने का समय आता है, तब तमाम तरह की शर्तें लगा दी जाती हैं, जिन का फायदा जरूरतमंद किसानों तक नहीं पहुंच पाता और उन की उम्मीदों पर पानी फिर जाता है. किसानों का शोषण आढ़ती, व्यापारी से ले कर सरकार तक करती आई है.

किसानों को व्यापारी समयसमय पर मदद करते रहते हैं, पर उस के बदले 3 फीसदी की दर से ब्याज भी वसूलते हैं. फसल आने पर व्यापारी अपना पैसा ब्याज सहित काट लेते हैं. किसान पहले ही व्यापारी का कर्जदार होता है, इसलिए वह दूसरे बाजार या आढ़ती को माल नहीं बेच पाता, जिस का लाभ व्यापारी उठाते हैं.

किसानों के बीच यह भी सोच है कि उन के पुरखे भी व्यापारियों से लेनदेन करते आए थे, लिहाजा वे भी उन्हीं के जाल में फंसे रहते हैं.

इस के अलावा दुकानदार खाद, बीज व कीटनाशक आदि सामान भी बेचते हैं. कुछ दुकानदार तय कीमत से भी कम पर किसानों को सामान बेचते हैं, लेकिन उस के साथ दूसरा सामान ऐसा देते हैं, जिस से वे 40 फीसदी तक मुनाफा कमाते हैं. यहां भी किसान का शोषण होता है, जिस का उन को पता ही नहीं चल पाता है.

exploitation of farmers

लुभावना पैकेज

हर प्रदेश में जगहजगह कृषि गोदाम, कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि रक्षा इकाई जैसे केंद्र हैं, जहां से किसानों को बीज व कीटनाशक मिलते हैं और सलाह भी मिलती है. ये केंद्र किसानों को उपकरणों, बीजों व दवा पर छूट के बारे में भी जानकारी देते हैं. यही काम अगर सरकारी कर्मचारी करें, तो किसान ज्यादा फायदे में रहेगा. छूट वाले बीज महज 3-5 फीसदी किसान ही ले पाते हैं. सब्सिडी वाले बीज कुछ लोगों द्वारा पहले ही खरीद लिए जाते हैं, जिन्हें बाद में किसानों को मनचाहे दामों पर बेचा जाता है.

तहसील स्तर पर कर्मचारी

सरकारी तबका भी किसानों का शोषण करने में पीछे नहीं है. किसान का सब से नजदीकी संबंध लेखपाल के साथ होता है. लेखपाल किसान के घर आता है, तो किसान उसे दूध, घी, फलसब्जियां और दालें आदि देते हैं, लेकिन अगर किसान खसरा या कोई और जरूरी कागज लेने लेखपाल के पास जाए, तो वह कम से कम 50 रुपए जरूर लेगा. कृषि से संबंधित कोई भी काम कराना हो, तो बिना घूस दिए किसानों का काम नहीं होता. कोई डाक्यूमेंट बनवाना हो तब भी पैसे लगते हैं. अगर कोई राहत का चैक बनना है, तो तहसीलदार या डीएम का बहाना बना कर लेखपाल 10 फीसदी तक रकम नकद लेता है.

कृषि क्षेत्र से जुड़े नेता

आज किसानों की बातें एसी में बैठे नेता या कृषि अधिकारी अकसर करते हैं. वे किसानों को समयसमय पर बरगलाते हैं, जिस से किसान समय से केसीसी, लगान व सिंचाई का पैसा नहीं देते, नतीजतन उन का ब्याज बढ़ जाता है. मजबूरन किसान कर्ज चुकाने के लिए तरहतरह के तरीके इस्तेमाल करते हैं. कई दफा वे फर्जी दस्तावेज भी बनवा लेते हैं, जिस से भविष्य में अकसर उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है.

Unseasonal Rain : अप्रैल माह में बेमौसम बरसात से फसल सुरक्षा

Unseasonal Rain : अप्रैल में बेमौसम बारिश से गेहूं, प्याज एवं अन्य सब्जियों जैसी फसलों को भारी नुकसान होगा, इस से किसानों की आय प्रभावित होगी और कीमतें बढ़ेगी.

प्रसार्ड ट्रस्ट मल्हनी भाटपाररानी देवरिया के निदेशक प्रो. रवि प्रकाश मौर्य सेवानिवृत वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक ने बताया, कि बेमौसम बारिश (Unseasonal Rain) से उन किसानों को नुकसान होगा जिन्होंने अभी तक गेहूं की फसल की कटाईमड़ाई नहीं की है.

मौसम ठीक होने पर फसल सुखने के बाद तुरंत गेहूं की कटाईमड़ाई कर अनाज को सुखा कर भंडारण करें.

प्याज की फसल में नमी बढ़ने से पत्ते सड़ जाते हैं और प्याज जमीन में सड़ने लगती है. प्याज का रंग और क्वालिटी खराब हो सकती है. इस के साथ ही, लहसुन जो खुदाई की स्थिति में है, उसे भी नुकसान होगा.

बेमौसम बारिश (Unseasonal Rain) से पोस्टहार्वेस्ट गतिविधियों पर असर पड़ सकता है, जिस से जल्द खराब होने वाली फलों व सब्जियों की कीमतों में बढ़ोतरी हो सकती है. अब और बारिश होती है, तो मिट्टी में नमी बनी रहने से फसल में फंगस, बैक्टीरिया और कीट आदि सहित पीला मोजेक रोग का खतरा बढ़ जाएगा. ऐसे में फसल पीली हो कर सड़ जाएगी.

मक्का की फसलों को हवा चलने के कारण गिरने से नुकसान हाेने की संभावना है. कद्दू वर्गीय सब्जियों में फल सड़ने की आशंका बनेगी. आम के टिकोरे(फल) तेज हवा चलने से गिरेगें. इस के साथ ही दलहनी फसलों में उड़द व मूंग की फसल प्रभावित हो सकती है.

जो किसान खेत से फसल काट कर खलिहान में रखे हैं, वे प्रभावित होगी. मौसम साफ होने पर खलिहान में रखी फसल को फैला कर सुखाएं. किसानों को सलाह दी जाती है, कि जल निकास की व्यवस्था सुनिश्चित करें जिस से फसलों को बचाया जा सके.

जो खेत खाली है उन की मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें, जिस से तेज धूप होने से हानिकारक कीट,खरपतवार फंगस आदि नष्ट हो जाएंगे और मृदा की गुणवत्ता बनी रहेगी.

इस के साथ ही, आकाशवाणी, दूरदर्शन से मौसम समाचार समयसमय पर सुनते रहें. मोबाइल पर मौसम ऐप डाउनलोड कर ताजा मौसम की जानकारी ले सकते हैं.

बांझ होते मवेशी (Cattle) और परेशान पशुपालक

Cattle: बिहार के 20 लाख से ज्यादा मवेशियों पर बांझपन का खतरा मंडराने लगा है. औक्सीटोसिन इंजेक्शन की वजह से मवेशियों में यह बीमारी पनप रही है. राज्य में दुधारू मवेशियों की संख्या 40 लाख के करीब है. केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने इस खतरे के बारे में राज्य के मुख्य सचिव को पत्र भेज कर आगाह किया है. गौरतलब है कि मवेशियों में दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए औक्सीटोसिन इंजेक्शन लगाने पर केंद्र सरकार ने रोक लगा रखी है. इस इंजेक्शन को मवेशी को तभी लगाया जा सकता है, जब वह एग्लैक्सिया बीमारी से पीडि़त हो.

वेटनरी डाक्टर सुरेंद्र नाथ कहते हैं कि इस इंजेक्शन की वजह से गायों और भैंसों में बांझपन का खतरा काफी हद तक बढ़ गया है. आमतौर पर गायभैंसों की औसत प्रजनन कूवत 8 से 10 बच्चे पैदा करने की होती है. औक्सीटोसिन इंजेक्शन की वजह से औसत प्रजनन कूवत घट कर 2-3 बच्चे की ही रह गई है. मवेशीपालक दूध का उत्पादन बढ़ाने के लालच में खुलेआम इस इंजेक्शन का इस्तेमाल कर के कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं और मवेशियों की जान को भी खतरे में डाल रहे हैं.

बिहार के पशुपालन विभाग के आकलन के मुताबिक राज्य में भैंस प्रजाति के 80 लाख जानवर हैं, जिन में से 16 लाख दुधारू हैं. इसी तरह गाय प्रजाति के 1 करोड़ जानवर हैं, जिन में से 50 लाख गायें हैं. इन में से 24 लाख दुधारू हैं.

औक्सीटोसिन स्तनपायी संबंधी हार्मोन है, जो साल 1953 में बाजार में आया था. इस इंजेक्शन को स्तनपान तेज कराने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. यह दवा दूध को बढ़ाती है, लेकिन ज्यादा इस्तेमाल से प्रजनन कूवत धीरेधीरे खत्म होने लगती है.

ज्यादा दूध निकालने के लालच में डेरी संचालक औक्सीटोसिन इंजेक्शन का जम कर इस्तेमाल करते हैं. इस से तात्कालिक फायदा तो हो जाता है, पर मवेशियों की प्रजनन कूवत धीरेधीरे खत्म हो जाती है. कानून कहता है कि इस दवा को डाक्टर की पर्ची के बगैर न बेचें, नहीं तो दवा की दुकान का लाइसेंस रद्द हो सकता है और 5 साल की कैद की सजा भी मिल सकती है. इस कानून के बाद भी हालत यह है कि भूसा, चोकर, खली आदि की दुकानों पर खुल्लमखुल्ला औक्सीटोसिन इंजेक्शन बिक रहा है.

दुधारू मवेशियों में तेजी से बढ़ती बांझपन की समस्या डेरी उद्योग को खासा नुकसान पहुंचा रही है. करीब 30 फीसदी मवेशी बांझपन और प्रजनन संबंधी बीमारियों की चपेट में हैं. भोजन में हरे चारे का नहीं मिलना, शरीर में लवण की कमी होना, हार्मोन का संतुलन बिगड़ना और औक्सीटोसिन का ज्यादा इस्तेमाल किया जाना पशुओं में बांझपन की खास वजहें हैं.

वेटनरी डाक्टर कौशल किशोर बताते हैं कि कुपोषण, संक्रमण, जन्मजात विकार, अंडाणु या हार्मोन में असंतुलन दुधारू मवेशियों में बांझपन की अन्य वजहें हैं. गायों और भैंसों में यौन उत्तेजना 18-21 दिनों में एक बार 18 से 24 घंटे के लिए होती है.

यौन उत्तेजना होने पर गायें खूब रंभाती हैं, बेचैनी में इधरउधर घूमने लगती हैं और खूंटा उखाड़ कर भागने की कोशिश करती हैं. गायों के उलट भैंसें इस दौरान खामोश ही रहती हैं. इस से पशुपालकों को उन की यौन उत्तेजना के बारे में पता नहीं चलता है.

Cattle

इस के लिए पशुपालकों को हमेशा पशुओं की निगरानी करनी चाहिए. उत्तेजना का गलत अनुमान बांझपन के अनुपात को बढ़ा सकता है.

बांझपन से अपने पशुओं को बचाने के लिए पशुपालकों को चाहिए कि पशुओं की यौन उत्तेजना के दौरान ब्रीडिंग जरूर कराएं. अगर किसी पशु में उत्तेजना नहीं आती हो, तो तुरंत डाक्टर की सलाह लेनी चाहिए.

इस के साथ ही हर 6 महीने पर पशुओं के पेट के कीड़ों की जांच जरूर करानी चाहिए. पशुओं के वजन के बढ़ने और घटने पर भी ध्यान रखना जरूरी है. पशु का वजन 230 से 250 किलोग्राम के बीच हो तो बेहतर गर्भाधान होता है.

बांझपन से ऐसे बचाएं दुधारू पशुओं को

*             पशुओं का दूध बढ़ाने के लिए औक्सीटोसिन इंजेक्शन का इस्तेमाल न करें.

*             पशुओं को हरा चारा खूब खिलाएं.

*             रोगों से मुक्त रखने के लिए समयसमय पर वेटनरी डाक्टर से सलाह लेते रहें.

*             पशुओं में होने वाली यौन उत्तेजना के प्रति जागरूक रहें.

*             अंडाणु या हार्मोन के असंतुलन की जांच कराते रहें और इलाज में लापरवाही न बरतें.

52 दिनों में तैयार होने वाली मूंग (Moong)

Moong: भारत में दालों की पैदावार कम और खपत ज्यादा होने से इन की कीमतों में उछाल आ रहा है. केंद्र सरकार ने दलहनी फसलों के रकबे को बढ़ाने का सुझाव दिया है.

इस के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने मूंग की एक ऐसी किस्म तैयार की है, जो पीला मोजेक वायरस अटैक से प्रभावित नहीं होगी. यह किस्म 52 दिनों में पक कर तैयार होगी.

भारतीय दाल अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने 20 सालों की खोज के बाद इस ‘विराट’ नामक मूंग की नई प्रजाति को तैयार करने में कामयाबी हासिल की है.

खास बात यह है कि मूंग की नई प्रजाति से किसानों को 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन भी मिलेगा.

कृषि मंत्रालय के पल्स डायरेक्टर डा. बीबी सिंह के मुताबिक मूंग की नई प्रजाति विराट कम पानी में पक कर तैयार होगी. साथ ही फसल कटाई के बाद हरी खाद तैयार कर जमीन की उर्वरा शक्ति में बढ़ोतरी की जा सकती है. मूंग की यह फसल पीला मोजेक के साथसाथ चूर्णित आसिता बीमारी के प्रति भी सहनशील होगी.

जमीन का चुनाव और तैयारी : मूंग की खेती सभी तरह की जमीन में की जा सकती है. मध्यम दोमट, मटियार जमीन, समुचित पानी के निकास वाली, जिस का पीएच मान 6-7 हो, इस के लिए अच्छी होती है.

जमीन में सही मात्रा में स्फुर का होना लाभदायक होता है. 2 या 3 बार हल या बखर चला कर मिट्टी को पाटा लगा कर समतल करें. दीमक के असर वाले खेत में फसल की सुरक्षा के लिए एल्ड्रिन 4 फीसदी चूर्ण की 7 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ के हिसाब से अंतिम बखरनी के पहले डालें और बखर से मिट्टी में मिलाएं.

बीज की मात्रा व बीजोपचार : खरीफ मौसम में मूंग के बीज की 5 से 7 किलोग्राम मात्रा प्रति एकड़ की दर से लगती है. कार्बेंडाजिम, थायरम या थायरम फफूंदनाशक दवा से बीज उपचारित करने से बीजों और जमीन में पैदा होने वाली बीमारियों से फसल की सुरक्षा होती है.

इस के बाद बीजों को जवाहर रायजोबियम कल्चर से उपचारित करें. 4 ग्राम रायजोबियम कल्चर प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से ले कर बीजों को उपचारित करें और छाया में सुखा कर जल्दी ही बोआई करें. इस उपचार से रायजोबियम की गांठें ज्यादा बनती हैं, जिस से नाइट्रोजन स्थरीकरण में बढ़ोतरी होती है और जमीन की उर्वरा शक्ति बनी रहती है.

बोने का समय : खरीफ में जून के आखिरी हफ्ते से जुलाई के दूसरे हफ्ते तक सही बरसात होने पर बोआई करें. जायद में फरवरी के दूसरे या तीसरे हफ्ते से मार्च के दूसरे हफ्ते तक बोआई करनी चाहिए.

खाद व उर्वरक : मूंग के लिए 7 किलोग्राम नाइट्रोजन, 1 किलोग्राम स्फुर 7 किलोग्राम पोटाश और 7 किलोग्राम गंधक प्रति एकड़ बोने के समय इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई और जल निकास : अकसर खरीफ के सीजन में सिंचाई की जरूरत नहीं होती है. पर फूल अवस्था आने पर सूखे की स्थिति में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोतरी होती है. ज्यादा बारिश की स्थिति में खेत से पानी का निकलना जरूरी है. जायद मूंग फसल में खरीफ की तुलना में पानी की ज्यादा जरूरत होती है.

निराई व बोआई : पहली निराई बोआई के 1 से 14 दिनों के अंदर व दूसरी 3 से 34 दिनों में करनी चाहिए. 1-2 बार कोल्पा चला कर खेत को नींदारहित रखा जा सकता है. खरपतवार नियंत्रण के लिए नींदा नाशक दवाओं जैसे बासालीन या पेंडामेथलीन का इस्तेमाल भी किया जा सकता है.

पौध संरक्षण

कीट : फसल की शुरुआती अवस्था में तनामक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफेद मक्खी, माहू, जैसिड, थ्रिप्स वगैरह का हमला होता है. इन की रोकथाम के लिए इंडोसल्फान 24 ईसी की 3 से 4 मिलीलीटर व क्वीनालफास 14 ईसी की 5 मिलीलीटर मात्रा प्रति एकड़ या मिथाइल डिमेटान 14 ईसी की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति एकड़ के हिसाब से इस्तेमाल करें. जरूरत पड़ने पर 4 दिनों बाद दोबारा छिड़काव करें.

पुष्पावस्था में फली छेदक और नीली तितली का हमला होता है. क्वलीनालफास 14 ईसी की 5 मिलीलीटर या मिथाइल डिमेटान 14 ईसी की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति एकड़ के हिसाब से 4 दिनों के अंतर पर छिड़काव करने से इन की रोकथाम हो सकती है. कई इलाकों में कंबल कीड़े का भारी हमला होता है. इस की रोकथाम के लिए पेराथियान चूर्ण 1 फीसदी का बुरकाव करें.

रोग

मेक्रोफोमिना रोग : कत्थई भूरे रंग के धब्बे पत्तियों के निचले भाग पर मेंकोफोमिना और सरकोस्पोरा फफूंद के द्वारा बनते हैं. इन की रोकथाम के लिए 4 फीसदी कार्बेंडाजिम या फायटोलान या डायथेन जेड पानी में घोल कर इस्तेमाल करें.

भभूतिया रोग या बुकनी रोग : 2-3 दिनों की फसल में पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है. इस की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक या कार्बेडाजिम 4 दिनों के अंतराल पर 3 बार छिड़काव करें.

पीला मोजेक वायरस रोग : यह सफेद मक्खी द्वारा फैलने वाला विषाणुजनित रोग है. इस रोग के असर की वजह से पत्तियां और फलियां पीली पड़ जाती हैं और उपज पर प्रतिकूल असर होता है. सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफास 25 ईसी की 2 मिलीलीटर मात्रा का प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें. इस रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें. पीला मोजेक वायरस निरोधक किस्मों को उगाना ही सब से अच्छा उपाय है.

Apple: किन्नौर के बागबान ने उगाया जमीन के नीचे सेब

उम्दा सेब (Apple) की बात की जाए तो देश और विदेश में शिमला और किन्नौर के नाम सब से आगे रहते हैं. किन्नौर का सेब देशविदेश में सब से ज्यादा पसंद किया जाता है. किन्नौर में कड़ाके की ठंड में पैदा होने वाले सेब (Apple) की सब से ज्यादा मांग रहती है. किन्नौर के बागबानों की खास फसल सेब (Apple) ही है और यह उन की साल भर की मेहनत रहती है. साल भर का खर्चा भी सेब (Apple) की फसल बेचने से ही उठाया जाता है. किन्नौर की अर्थव्यवस्था सेब पर काफी हद तक टिकी हुई है.

अभी तक तो पेड़ों से ही सेब की पैदावार हासिल की जाती रही है, पर अब किन्नौर के बागबान ग्राउंड एप्पल की पैदावार भी करने लगे हैं. यहां के बागबान अब ग्राउंड एप्पल को फसल के रूप में उगाने को आगे आए हैं. किन्नौर के सेब का जिक्र आते ही किसी के भी मुंह में पानी आना लाजिम है. अब किन्नौर के बागबान जमीन के नीचे यानी भूमिगत सेब पैदा कर के देश की मंडियों में तहलका मचाने वाले हैं.

किन्नौर के जागरूक बागबान सत्यजीत ने ग्राउंड एप्पल उगा कर जिले के बागबानों के लिए आय का एक नया जरीया ढूंढ़ निकाला है. सत्यजीत नेपाल से लाए गए इस बीज का किन्नौर में सफल प्रयोग कर चुके हैं व अब इस की कमर्शियल खेती करने लगे हैं. जिले के अन्य जागरूक किसान भी उन से ग्राउंड एप्पल का बीज ले जा कर खेतों में उगाने लगे हैं. अमेरिका से नेपाल होते हुए ग्रांउड एप्पल किन्नौर पहुंचा है.

इस सेब की फसल का लोग किस रूप में और कितना दोहन कर पाते हैं, यह भविष्य बताएगा, पर इतना जरूर है कि बागबान अपने खेतों में ग्राउंड एप्पल की खेती करने को आगे जरूर आए हैं.

पेशे से एडवोकेट सत्यजीत नेगी लंबे समय से बागबानी से भी जुड़े हैं और बागबानी क्षेत्र में तरहतरह से प्रयोग कर चुके हैं. ग्राउंड एप्पल को किन्नौर के बागबानों के बीच सब से पहले लाने का काम भी उन्होंने ही किया है. एक नेपाली से उन्होंने ग्राउंड एप्पल का बीज हासिल किया और इस की खेती करने में सफलता हासिल की.

सत्यजीत नेगी ने सब से पहले इस का परीक्षण मार्च, 2014 में किन्नौर जिला मुख्यालय रिकांगपिओ पेवारी और पूवर्नी गांव में अपने खेतों में किया. 7 महीने बाद इस के अच्छे नतीजे सामने आए. इस से प्रोत्साहित हो कर सत्यजीत ने पिछले साल करीब 10 किलोग्राम बीज तैयार करने के साथ 1 क्विंटल ग्राउंड एप्पल भी तैयार किए हैं.

किन्नौर के बागबानों के लिए ग्राउंड एप्पल नई उम्मीद की किरण ले कर आया है और यह नकदी फसल के रूप में पैदा किया जा सकता है. ग्राउंड एप्पल की फसल उगाने का सब से बड़ा फायदा यही है कि इसे पक्षी और बंदरों से ज्यादा नुकसान नहीं होगा. इसे जमीन के नीचे आलू की तरह लगाने से पक्षियों से नुकसान का खतरा नहीं रहता है और यह जानवरों की नजरों से भी बचा रहता है.

सत्यजीत नेगी ने ग्राउंड एप्पल का बीज प्रदेश की बागबान मंत्री विद्या स्टोक्स को भेट किया है, ताकि देश के अन्य क्षेत्रों में ग्राउंड एप्पल की पैदावार की संभावनाओं को तलाशा जा सके. इस में कोई शक नहीं है कि ग्राउंड एप्पल की पैदावार बढ़ने से प्रदेश के अन्य इलाकों के बागबानों को भी ग्राउंड एप्पल की पैदावार के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. जमीन के नीचे होने की वजह से ग्राउंड एप्पल पर ओलावृष्टि की ज्यादा मार नहीं पड़ेगी. इस के अलावा फसल को मौसम की मार भी ज्यादा नहीं पड़ेगी.

ग्राउंड एप्पल से कई प्रोडक्ट होते हैं तैयार : ग्राउंड एप्पल को वैसे कच्चा खाया जा सकता है, क्योंकि इस का स्वाद अन्य सेबों की तरह मीठा ही है. इस के अलावा ग्राउंड एप्पल से जूस, जैम, जैली व चटनी आदि बनाए जा सकते हैं. ग्राउंड एप्पल को बाजार में नकदी फसल के रूप में भी बेच सकते हैं. इस के बीजों को भी बागबानों को बेचा जा सकता है.

गड़हनी साग (Garhani Saag)

घास प्रजाति का गड़हनी साग (Garhani Saag) गरीब आदिवासियों की थाली में सब से स्वादिष्ठ सागभाजी है. वे इसे बाजार से नहीं, बल्कि मुफ्त में नदीनालों के किनारों से लाते हैं और सागभाजी बना कर चावल या रोटी के साथ मजे से खाते हैं.

यह उन का सब से प्रिय सागभाजी है. अब तो इस सागभाजी को आदिवासियों की देखादेखी और भी लोग खाने लगे हैं.

घास पतवार के रूप में गड़हनी साग झारखंड के पूर्वी और पश्चिमी सिंहभूमि के नमी वाले स्थानों पर पाया जाता है. यह साग खेतों में नहीं उपजाया जाता, बल्कि यह अन्य सब्जीभाजी लगे खेतों में अपनेआप उग आता है. इस की पैदावार के स्थान उथली नदी, नालों के किनारे, सब्जीभाजी लगे खेत, कुएं व तालाब के किनारे वगैरह हैं. यह साग मुख्य रूप से पानी वाले स्थानों पर होता है.

गड़हनी साग के डंठल में दाएंबाएं चारों तरफ से पत्तियां निकली होती हैं. इस में फूल नहीं होता. इस की लंबाई 7 से 8 इंच के करीब होती है. इस का डंठल बाल पेन के रीफिल से थोड़ा ही मोटा होता है और पत्तियां 1 इंच से बड़ी नहीं होतीं. डंठल हलके हरे रंग का होता है, जबकि इस की पत्तियां गहरे हरे रंग की होती हैं. इस की जड़ मिट्टी और पानी दोनों में होती है, लेकिन पानी इस के लिए जरूरी है. इस की जड़ मिट्टी के बगैर भी बढ़ती है, लेकिन पानी के बिना यह तुरंत मुरझा जाता है.

आम शहरी लोग गड़हनी साग से अनजान होने के कारण अपने खानपान में इसे शामिल नहीं करते, इसलिए यह बाजारों में नहीं बिकता है. सच तो यह है कि इस के बारे में आदिवासियों के अलावा कोई जानता ही नहीं है.

यह साग खाने में काफी स्वादिष्ठ होता है. जैसे चौलाई का साग बनाया जाता है, उसी तरह से इसे भी बनाया जाता है. पहले इसे नाखूनों से तोड़ा जाता है, फिर धो कर काट लिया जाता है. काटने के बाद सरसों का तेल कड़ाही में गरम कर के मेथी की छौंक लगाई जाती है, फिर गड़हनी साग को कड़ाही में डाल कर फ्राई किया जाता है. फ्राई करते समय यह साग पानी छोड़ता है, जिसे कड़ाही में ही सुखा दिया जाता है. पकने के बाद इसे कड़ाही से निकाल कर एक कटोरे में ले कर इस में थोड़ा कच्चा तेल, नमक और कटी हरी मिर्च मिलाते हैं.

इस प्रकार यह खाने के लिए तैयार हो जाता है. इस का स्वाद चने के साग जैसा ही लगता है, लेकिन थोड़ा अलग सा लगता है. इसे भात यानी चावल के साथ सान कर खाया जा सकता है. कुछ लोग इसे दालभात के साथ भी खाते हैं. रोटी के साथ खाने में यह और भी स्वादिष्ठ लगता है.

गड़हनी साग सेहत के लिहाज से भी काफी लाभदायक होता है. इसे खाने से आंखों की रोशनी बरकरार रहती है, खून का संचार सही रहता है, पेट ठंडा रहता है, कब्ज नहीं होता, सिर के बाल नहीं झड़ते हैं और न ही जल्दी सफेद होते हैं. यह सच है कि इसे खाने वाले आदिवासी लोगों की आंखों पर चश्मा नहीं चढ़ता और न ही वे गंजे होते हैं.

ठंड के मौसम में नमी ज्यादा रहने के कारण गड़हनी साग जगहजगह उग आता है. वैसे तो यह गरमी के मौसम में भी होता है, लेकिन कम होता है. चौलाई व सरसों जैसे मशहूर सागों की तरह इस में भी ठंड के मौसम में पानी की मात्रा ज्यादा होती है, जबकि गरमी के दिनों में इस में पानी की मात्रा कम हो जाती है. आदिवासी लोग इसे जाड़े के दिनों में ज्यादा खाना पसंद करते हैं, क्योंकि इस मौसम में इस का स्वाद बढ़ जाता है.

ऐसा भी नहीं है कि इसे केवल आदिवासी ही खाते हैं. यह साग इसे जानने वाले आम मध्यमवर्ग के घरों में भी हफ्ते में एकाध बार पकता ही है. शहरी माहौल में रहने वाले लोगों को इसे स्थानीय बाजारों में खोजते देखा गया है. ऐसे लोग गांवदेहातों से आने वाले सब्जी विक्रेताओं को आर्डर दे कर इसे मंगवाते हैं.

यह एक ऐसा घास प्रजाति का साग है, जिस की खेती नहीं होती. अगर इसे व्यावसायिक रूप से बेचने के लिए उपजाया जाए तो इस पर कोई लागत नहीं आएगी और मुनाफा भी काफी हो सकता है.