खेत में डालें हरी खाद (Green Manure)

हरी खाद की ये फसलें दलहनी व अदलहनी दोनों तरह की होती हैं पर ज्यादातर दलहनी फसलों को शामिल करते हैं क्योंकि इन फसलों में नाइट्रोजन बनाए रखने की कूवत होती है. खेती में हरी खाद उस सहायक फसल को कहते हैं जिस की खेती मुख्यत: जमीन में पोषक तत्त्वों को बढ़ाने और जैविक पदार्थों की भरपाई करने के मकसद से की जाती है.

अकसर इस तरह की फसल में ही हल चला कर मिट्टी में मिला दिया जाता है जो सड़गल कर जमीन की उपजाऊ कूवत को बढ़ाती है और लाभदायक जीवों की तादाद में इजाफा कर जमीन के उपजाऊपन को बनाए रखती है.

मुख्य खरीफ और रबी में उगाई जाने वाली विभिन्न फसलों की बोआई या रोपाई के पहले विभिन्न हरी खाद की फसलों को बो कर इन को हरी अवस्था में ही मिट्टी पलटने वाले हल से चला कर मिट्टी में मिला कर हरी खाद दी जाती है.

कुछ इलाकों में अदलहनीय फसलों का इस्तेमाल स्थानीय उपलब्धता, सूखा सहन करने की कूवत, तेजी से बढ़ोतरी व प्रतिकूल हालात में भी अनुकूलन के चलते किया जाता है. इन फसलों का ब्योरा इस तरह है:

हरी खाद में इस्तेमाल होने वाली फसलों के गुण

* दलहनी फसल हो, जो कम समय में ज्यादा नाइट्रोजन जमीन को दे सके.

* फसल में पानी की मांग कम हो ताकि कम सिंचाई की सुविधा वाले इलाकों में आसानी से उगाई जा सके.

* गहरी जड़ वाली फसल हो जो गहराई से पोषक तत्त्वों को हासिल कर सके और निचली सतहों को मुलायम बना सके.

* जल्दी उगने व तेजी से बढ़ने वाली फसलें सही होती हैं.

* काष्ठवत पौधे न हों, जिस से जल्दी सड़ाव हो सके.

* कीट और रोगों के प्रति प्रतिरोधी हो.

* परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से ये बाद वाली फसल को किसी तरह से खराब न करे.

* इन फसलों को ज्यादा क्रियाओं की जरूरत न हो जैसे खरपतवार नियंत्रण, पोषक तत्त्व प्रबंधन, खेत की तैयारी, सिंचाई वगैरह.

हरी खाद के फायदे

* इस से जमीन को जीवांश पदार्थ भरपूर मिलता है, जो मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की सक्रियता को बढ़ा कर जमीन की भौतिक व रासायनिक दशा को सुधारता है.

* हरी खाद डालने से जमीन की निचली सतहों से अवशोषित हो कर पोषक तत्त्व जमीन की ऊपरी सतह पर आ जाते हैं. इस से उथली जड़ वाली फसलें भी ली जा सकती हैं.

* यह खादपानी के बहाव को रोक कर जमीन में पानी सोखती है. साथ ही, जमीन के कटाव को भी रोकती है. इस तरह यह पानी व मिट्टी संरक्षण में सहायक है. साथ ही, जमीन की संरचना को भी यह सुधारती है और क्षारीय और लवणीय जमीन का सुधार करती है.

* हरी खाद पोषक तत्त्वों को अपने अंदर रोकती है और धीरेधीरे पौधों को देती है व पोषक तत्त्वों का नुकसान भी नहीं होने पाता है.

* दलहनी पौधों की जड़ों में वातावरण की स्वतंत्रता नाइट्रोजन को बनाए रखने वाले जीवाणु पाए जाते हैं जो आबोहवा से नाइट्रोजन को बनाए रख कर इस की उपलब्धता बढ़ाते हैं.

* यह फास्फोरस, कैल्शियम, पोटेशियम, मैगनीशियम, आयरन वगैरह की उपलब्धता को बढ़ाती है.

* यह खरपतवार नियंत्रण में भी मददगार है.

* यह रासायनिक उर्वरकों की घुलनशीलता बढ़ाती है जिस से उर्वरक पौधों को आसानी से मुहैया हो जाते हैं.

हरी खाद वाली फसलों की सस्य क्रियाएं : वैसे तो इन फसलों को ज्यादा सस्य क्रियाओं की जरूरत नहीं होती है, पर ज्यादा जीवांश पदार्थ हासिल करने के लिए सस्य क्रियाएं जरूर करनी चाहिए.

बोआई का समय : इन की बोआई पानी की उपलब्धता व मुख्य फसल की बोआई पर निर्भर करती है. बारिश पर आधारित इलाकों में खरीफ में मानसून शुरू होते ही बोआई कर देनी चाहिए जबकि सिंचाई वाले इलाकों में इस की बोआई अप्रैलमई माह तक कर देनी चाहिए.

जमीन की तैयारी : जमीन की 1 व 2 जुताई कर बोआई करनी चाहिए.

फास्फोरस का इस्तेमाल : अगर जमीन में फास्फोरस कम हो तो फास्फोरस उर्वरक देना चाहिए ताकि ज्यादा जड़ ग्रंथियां बनें और नाइट्रोजन बना रह सके.

बोआई की विधि : छिड़काव विधि से बीज को बराबर बिखेर कर ढकना चाहिए.

बीज दर : मुख्य फसल की तुलना में बीज दर अधिक रखनी चाहिए. जैसे सनई 30 किलोग्राम, ग्वार 25 किलोग्राम, ढैंचा 35 किलोग्राम, लोबिया 125 किलोग्राम, उड़द व मूंग 30-35 किलोग्राम वगैरह.

सिंचाई : गरमी व सर्दी के दिनों में क्रमश: 10 और 15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए.

जमीन में मिलाने की सही अवस्था : फसल की एक विशेष अवस्था पर पलटाई करने से जमीन को सब से ज्यादा नाइट्रोजन व जीवांश पदार्थ हासिल होते हैं.

इस अवस्था के पहले या बाद में पलटाई करना फायदेमंद नहीं होता है. जब फसल में 50 फीसदी फूल आ गए हों तो मिट्टी पलटने वाले हल से जमीन में दबा देना चाहिए. दबाने से पहले पाटा चला कर पौधों को गिरा देना चाहिए.

सनई की फसल में तकरीबन 50 दिन बाद व ढैंचा में 40 दिन बाद यह अवस्था आती है. बरसीम वगैरह की फसलों में 2-3 कटाई लेने के बाद फसल को खेत में दबा सकते हैं.

आगामी फसल की बोआई का अंतराल : खरीफ में धान की रोपाई तो दबाने के तुरंत बाद की जा सकती है, पर रबी फसलों जैसे गेहूं, गन्ना, आलू, सब्जियां वगैरह को हरी खाद देने के 30-35 दिन बाद बोना चाहिए.

पलटने की विधि और गहराई : खड़ी फसल को पहले पाटा चला कर खेत में गिरा देते हैं यानी मिट्टी पलटने वाले हल से इसे खेत में दबा देते हैं. फसल को खेत में दबाने की गहराई कई वजहों से प्रभावित होती है.

जमीन का प्रकार : बलुई जमीनों में गहराई और चिकनी जमीनों में ऊपरी सतह पर फसल का फुटाव जल्दी होता है, क्योंकि इन सतहों में नमी और हवा का बहना विच्छेदन की क्रियाओं के लिए सही होता है.

फसल की अवस्था : अपरिपक्व यानी अधपकी फसल किसी भी गहराई पर सड़ सकती है, पर परिपक्व यानी पकी हुई फसल कम गहराई पर ही दबानी चाहिए. जिन फसलों की शाखाएं व पत्तियां सख्त हों, उन्हें ऊपर की सतह में ही दबाना चाहिए.

मौसम : शुष्क मौसम में निचली सतह पर और नम मौसम में फसल को ऊपरी सतह पर ही दबाना चाहिए. फसल को खेत में दबा कर पाटा चलाना जरूरी है जिस से मिट्टी में अच्छी तरह से फसल दब जाए और फसल का सड़ना ठीक तरह से हो.

पूर्व सड़ाव के लिए अगर मिट्टी में नमी की कमी है तो खेत की सिंचाई करना जरूरी है. हरी खाद की पलटाई और आगामी फसल बोने के बीच के समय का अंतर भी खेत में करना चाहिए. मिट्टी में दबाने के 30-40 दिन के अंदर ही पूरी तरह सड़ाव हो पाता है.

हरी खाद देने की विधि : यह जरूरी है कि हरी खाद डालने की तकनीक की सही जानकारी हो क्योंकि इस के ऊपर ही हरी खाद की सफलता निर्भर करती है.

हरी खाद वाली फसलों की बोआई का समय इस तरह निश्चित करना चाहिए कि मिट्टी में उन पौधों को उस समय दबाया जा सके, जब ज्यादा से ज्यादा पोषक तत्त्व खेत में मौजूद हों.

पौधों के दबाने और अगली फसल के बोने के बीच इतना अंतर होना चाहिए कि हरी खाद

द्वारा मिले पोषक तत्त्व अगली फसल के लिए मिट्टी किस प्रकार की अवस्था में सब से

ज्यादा सही रहती है, इस का भी सही अंदाजा रहना चाहिए.

हरी खाद की सीमाएं : हमारे देश में हरी खाद के चलन में कुछ बाधाएं हैं. इस की वजह से हरी खाद की फसलें उगाना किसानों के लिए आसान नहीं है जैसे: कम बारिश वाले इलाकों में हरी खाद की फसल इस वजह से नहीं उगाते क्योंकि मिट्टी में नमी के चलते हरी खाद खेत में दबाने से वे अच्छी तरह सड़ती नहीं है. साथ ही, दगली बोई जाने वाली फसल के बीजों का अंकुरण यानी फुटाव भी नमी की कमी में नहीं हो पाता.

जिन इलाकों में मिट्टी में नमी की कमी नहीं हो पाती है यानी सिंचित या ज्यादा बारिश वाले इलाकों में, जिस मौसम में हरी खाद की फसल उगाते हैं, उस मौसम में किसान की दूसरी जरूरत की कोई फसल नहीं ली जा सकती. इसलिए हरी खाद की फसल की अपेक्षा किसान दूसरी फसल लेना ज्यादा पसंद करता है.

किसान को हरी खाद को खेत में दबाने के यंत्र भी मुहैया नहीं हैं और ज्यादातर किसान हरी खाद को मिट्टी में दबाने की तकनीक से वाकिफ नहीं हैं.

विशेष रूप से खरीफ मौसम में फसल की सही बढ़वार के लिए बारिश न होने पर सिंचाई का भी सही इंतजाम नहीं हो पाता.

तमाम तरह की मिट्टियों, खासतौर से विकारग्रस्त यानी लवणीय, क्षारीय, जलमगन यानी पानी में डूबी हुई, पथरीली वगैरह के लिए सही हरी खाद की फसल का मिलना मुश्किल होता है.

जैविक उत्पाद (Organic Produce) जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ाता है

भारत में ज्यादातर जगहों पर एक ही तरह की परंपरागत खेती की जाती है. जमीन में रासायनिक खाद का इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा होता है, बेहद ज्यादा जुताई होती है और फसलों का सही चक्र नहीं अपनाया जाता है.

इस वजह से जमीन के उपजाऊपन में कमी आ रही है और इस की उर्वराशक्ति भी कमजोर होती जा रही है जो भारतीय किसानों के लिए एक बड़ी चुनौती है. ऐसे में जैविक उर्वरक के इस्तेमाल से जमीन की उर्वराशक्ति बरकरार रहती है जिस से किसानों को बेहतर उपज पाने में मदद मिलती है.

कृषि माहिरों के मुताबिक, भारत की तकरीबन 147 मिलियन हेक्टेयर खेती पर बुरा असर पड़ रहा है. ऐसे में खेतों की उत्पादन कूवत घटती जा रही है. ऐसी और भी कई वजहें हैं जो देश की खेती की जमीन को खराब करने में मदद कर रही हैं.

देश के कुछ हिस्सों की जमीन में जहां एक ओर पीएच मान बेहद कम हो गया है वहीं दूसरी ओर कुछ इलाकों में जमीन का पीएच मान बहुत ज्यादा बढ़ गया है. इन दोनों ही हालात में रासायनिक खाद का अंधाधुंध इस्तेमाल जिम्मेदार है.

इसी तरह से जमीन का आर्गेनिक कार्बन भी जरूरी लैवल से बेहद कम हो गया है. इन्हीं वजहों को देखते हुए उपज बढ़ाने के लिए किसान अपने खेतों में ज्यादा से ज्यादा रासायनिक खादों और दूसरे रासायनिक सामान का इस्तेमाल कर रहे हैं.

यह चलन आगे चल कर परेशानी को और भी बढ़ाने का काम करता है जिस से किसानों को अपनी लागत और उम्मीद की तुलना में पैदावार नहीं मिलती है.

खेती के गलत तरीके, जैसे कि बहुत ज्यादा जुताई, बारबार बोआई, सिंचाई और पानी का खराब इंतजाम, फसलों में फसल चक्र न अपनाना भी समस्या को और बढ़ाता है.

जैविक उत्पाद (Organic Produce)

जमीन में जैविक तत्त्वों की कमी होने से भी हालात में इस का जीवनकाल कम हो जाता है और जमीन खराब हो जाती है.

कायाकल्प एक जैविक भूमि उर्वरक है. यह जमीन की जैविक शक्ति को बढ़ाने में मदद करता है, साथ ही जमीन में पोषकता को बढ़ाता है और जमीन के लिए एक शक्तिवर्धक टौनिक की तरह काम करता है, जिस से किसानों को बेहतर पैदावार मिलती है.

यह जमीन में पानी को सोख कर रखने की शक्ति भी बढ़ाता है, जिस से पानी की कमी के दिनों में भी फसलों को मदद मिलती है.

कायाकल्प जमीन के जैविक कार्बन में सुधार करता है. यह जमीन की संपदा जैसे आयन विनिमय की कूवत को बढ़ाता है, पानी को थाम कर रखने की कूवत बढ़ता है. जमीन के पीएच मान को संतुलित करता है और पौधों के लिए सूक्ष्म पोषक तत्त्वों जैसे कि आयरन, जिंक, मैग्नीशियम और बोरोन की उपलब्धता बढ़ाता है. यह अन्य सूक्ष्म जैविक तत्त्वों के विकास में भी सहायक होता है. और पौधों को तेजी से पनपने लायक बनाता है.

जैविक उर्वरक के इस्तेमाल से जमीन की उर्वराशक्ति बरकरार रहती है जिस से किसानों को बेहतर उपज पाने में मदद मिलती है. इतना ही नहीं, इस उत्पाद के सही इस्तेमाल से केंचुओं की तादाद भी बढ़ती है जो मिट्टी को सेहतमंद बनाते हैं और जमीन में रासायनिक उर्वरक के इस्तेमाल की तय मानक सीमा की जरूरत को 25 फीसदी तक कम करते हैं.

जड़ वाली सब्जियों (Root Vegetables) की जैविक खेती

शलजम, मूली, गाजर, अरवी, चुकंदर, शकरकंद वगैरह सब्जियां हरी पत्तेदार व जड़ वाली हैं. इन सब्जियों में विटामिन ए, एस्कार्बिक अम्ल, लोहा, कैल्शियम, फास्फोरस, पोटेशियम व अमीनो एसिड की अच्छी मात्रा पाई जाती है. इन चीजों की कमी में भारत की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा खासकर औरतें व बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.

संतुलित आहार में प्रतिदिन इनसान को 285 ग्राम हरी पत्तेदार सब्जियां लेनी चाहिए, जिस में 100 ग्राम जड़ वाली सब्जियां, 115 ग्राम पत्तेदार सब्जियां और 75 ग्राम दूसरी सब्जियां होनी चाहिए.

इन सब्जियों को खाने से कुपोषण की समस्या नहीं होगी और शारीरिक व मानसिक कमजोरी भी दूर होगी. विभिन्न प्रकार की इन सब्जियों में पेट के विकार को दूर करने के साथसाथ खाने को पचाने की ताकत भी होती है.

इन सब्जियों के उत्पादन में रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मिट्टी की उपजाऊ ताकत कम होने से उर्वरताशक्ति के साथसाथ सब्जियों की क्वालिटी और भंडारण की कूवत प्रभावित हो रही है.

इस की वजह यह है कि इन जड़ वाली सब्जियों व दूसरी खाने की चीजों को उगाने में नाइट्रोजन का इस्तेमाल सब से ज्यादा होता है. ज्यादा नाइट्रेट उर्वरकों के इस्तेमाल होने से मिट्टी और जमीन लगातार प्रदूषित हो रही है जो मनुष्य की सेहत के लिए हानिकारक है इसलिए कार्बनिक खादों के इस्तेमाल से मिट्टी की उर्वरताशक्ति व उत्पादन के टिकाऊपन को बढ़ाया जा सकता है.

इस के अलावा कार्बनिक खादों की कीमत कम होने के अलावा उस के उत्पाद की कीमत ज्यादा मिलती है. इन के इस्तेमाल से कम लागत पर जड़ वाली सब्जियां उगाई जा सकती हैं और सब्जियों की बेहतर क्वालिटी, ज्यादा उत्पादन व जमीन की उर्वरताशक्ति को बनाए रखा जा सकता है.

जड़ वाली सब्जियों में कार्बनिक खादों को बोआई या रोपाई के 10-15 दिन पहले इस्तेमाल करना चाहिए. कार्बनिक खाद अच्छी तरह से तैयार होनी चाहिए वरना कीट व रोग लग सकता है.

कार्बनिक खेती में जैविक उर्वरकों जैसे एजोस्पाइरिलम, एजोटोबैक्टर, राइजोबियम, बायोजाइम (दानेदार व तरल), घुलनशील बनाने वाले सूक्ष्म जीव, वैस्कुलर आरवैस्कुलर कवक वगैरह को बढ़ावा दिया जाता है. इस के इस्तेमाल से क्वालिटी ज्यादा अच्छी न होने, ज्यादा उत्पादन होने के साथसाथ हानिकारक रासायनिक उर्वरकों की मात्रा में भी कटौती की जाती है.

जैविक खेती को कुदरती खेती, कार्बनिक खेती व रसायनविहीन खेती वगैरह नामों से भी जाना जाता है. इस का मकसद इस तरह से फसल उगाना है कि मिट्टी, पानी व हवा को प्रदूषित किए बगैर लंबे समय तक उत्पादन हासिल किया जा सके. इस के लिए कई जैविक स्रोतों का इस्तेमाल किया जाता है. जैसे हरी खाद या कंपोस्ट खाद, जैविक उर्वरक, दलहनी फसलों में फसल चक्र अपनाना, फसल अवशेषों का इस्तेमाल, जैविक कीटनाशक व कवकनाशी का इस्तेमाल शामिल है.

जैविक खेती के घटक

प्राथमिक स्रोत : गोबर की खाद यानी कंपोस्ट, हरी खाद, सनई, ढैंचा, लोबिया वगैरह. जैव उर्वरक राइजोबियम, एजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम, पीएसबी, बायोजाइम वगैरह. केंचुए की खाद (वर्मी कंपोस्ट), मुरगी खाद, कीड़े व रोग का जैविक नियंत्रण ट्राइकोग्रामा ट्राइकोडर्मा, एनपीवी, फेरोमोन ट्रेप, नीम उत्पाद, ट्रेप फसल वगैरह.

पूरक स्रोत : वानस्पतिक अवशिष्ट जैसे खली, पुआल, भूसा व फसल अवशेष वगैरह. जानवरों के अवशिष्ट, हड्डी का चूरा, मछली की खाद वगैरह. चीनी मिल की खाद यानी प्रेसमड वगैरह.

बरतें सावधानी

* राइजोबियम जीवाणु फसल विशिष्ट होता है, इसलिए फसल में पैकेट पर लिखी मात्रा का इस्तेमाल करें.

* जैव उर्वरक के पैकेट को धूप व गरमी से दूर किसी ठंडी जगह पर रखें.

* जैव उर्वरक या जैव उर्वरक से उपचारित बीजों को किसी भी रसायन या रासायनिक खाद के साथ न मिलाएं.

* अगर बीजों पर फफूंदनाशी का इस्तेमाल करना हो तो बीजों को पहले फफूंदनाशी से उपचारित करें, फिर जैव उर्वरक से उपचारित करें.

* जैव उर्वरक का इस्तेमाल पैकेट पर लिखी अंतिम तारीख से पहले ही कर लें.

सब्जी उत्पादन में जैविक खेती का महत्त्व

* मिट्टी में ये सालभर ढकी रहती है, जिस वजह से नुकसान कम से कम होता है.

* कम जुताई की वजह से मिट्टी सख्त नहीं हो पाती है.

* जानवरों के अवशिष्ट, फसलों के अवशेषों और दूसरी संपदाओं के चलते मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है. मिट्टी में जैविक पदार्थों, अंशों की मात्रा बढ़ जाती है.

* फसल चक्र अपनाने से वैराइटी बढ़ जाती है.

* बेहतरीन प्रबंधन की तकनीकों को अपना कर पौधे को संतुलित पोषक तत्त्वों की आपूर्ति की जाती है, पर इतना ध्यान भी रखा जाता है कि पानी प्रदूषित न होने पाए.

* खेत में दालें और चारे की फसल लगाई जाती है.

* मित्र कीटों और सूक्ष्मजीवियों की तादाद बढ़ाने के लिए खेत के चारों तरफ उगे पौधों और दूसरी वनस्पतियों पर भी ध्यान दिया जाता है.

* मित्र कीटों की सुरक्षा, भोजन, आश्रय पर पूरा ध्यान दिया जाता है.

* वातावरण में रसायनों से होने वाले प्रदूषण में कमी आती है.

जलवायु व मिट्टी

सब्जियों का उत्पादन वैज्ञानिक ढंग से किया जाने वाला काम है. जड़ वाली सब्जियों की अच्छी फसल ठंडी व नम जलवायु में होती है. इस के बीज का अंकुरण 10-15 सैंटीमीटर जमीनी तापमान पर होता है लेकिन छोटी, जल्दी बढ़ने वाली किस्में रेतीली दोमट मिट्टी में और बड़ी पछेती किस्में दोमट, मटियारदोमट मिट्टी में अच्छी पैदावार देती हैं.

खेतों में जल निकास की सही व्यवस्था होनी चाहिए. उन्नतशील किस्मों के बीजों को ही बोएं. बीज विश्वसनीय संस्थान से ही खरीदें. बीज प्रमाणित, शुद्ध, अच्छी तरह जमने व रोगरहित होने चाहिए.

बीज खरीदते समय पैकेट पर पैकिंग तिथि जरूर देख लें. पैकेट पर लिखी आखिरी तारीख से पहले इस्तेमाल कर लें वरना फसल खराब हो सकती है या कीट व रोग का हमला हो सकता है. बोआई के लिए उन्नतशील किस्मों के बीज या संकर बीज सही होते हैं.

खेत की तैयारी

खेत की जुताई 3-4 बार कर मिट्टी को भुरभुरा व समतल बना लें. जुताई के पहले गोबर की सड़ी खाद व उर्वरकों को मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए. अच्छे जल निकास वाली जीवांशयुक्त उपजाऊ दोमट जमीन जड़ वाली सब्जियों की खेती के लिए मुफीद होती है.

खेत की अच्छी तरह जुताई कर उस में गोबर की सड़ी खाद मिलानी चाहिए. पूरे खेत को छोटीछोटी क्यारियों में बांट लेना चाहिए. क्यारी 10 मीटर लंबी, 1-1.5 मीटर चौड़ी और जमीन से 15 सैंटीमीटर ऊंची होनी चाहिए, जिस से निराईगुड़ाई में परेशानी न हो और क्यारी में भी 15-20 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद डाल दें.

ऐसे करें बोआई

जिस खेत में इन फसलों को लगाना हो, उस की अच्छी तरह से जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा व समतल बना लेना चाहिए. बोआई से पहले ही लाइन बना देनी चाहिए यानी अच्छी पैदावार से बोआई करनी चाहिए.

खरपतवार पर नियंत्रण

जड़ वाली सब्जियों की अच्छी फसल लेने के लिए खेत में नमी का होना जरूरी है. अगर बोते समय जमीन में नमी की कमी है तो पहली सिंचाई बोने के तुरंत बाद करें. दूसरी सिंचाई पहली सिंचाई के 15-20 दिन बाद करें. पूरी फसल में 3-4 सिंचाई करने की जरूरत होती है.

पहली निराईगुड़ाई बोआई के 20 से 25 दिन बाद करनी चाहिए ताकि जड़ों को कोई नुकसान न पहुंचे. पौधों की जड़ों पर मिट्टी भी चढ़ानी चाहिए ताकि पौधे की जड़ मिट्टी पकड़ सके.

खरपतवार नियंत्रण के लिए अंकुरण से पहले खरपतवारनाशी पेंडीमिथेलीन 1200 एमएल प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करते हैं. इस के अलावा 2 लाइनों के बीच व्हील हो का इस्तेमाल भी फायदेमंद होता है.

खाद

उत्पादन व क्वालिटी बढ़ाने के लिए 20-25 किलोग्राम बायोजाइम दानेदार और 200-250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद खेत की तैयारी के समय इस्तेमाल करें और बायोजाइम वेजीटेबल यानी तरल की 400-500 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर में 3 छिड़काव 20-25 दिन के अंतराल पर करें.

जड़ वाली सब्जियों (Root Vegetables)

कीट व रोग नियंत्रण

किसान 200 ग्राम ट्राइकोडर्मा को 100 किलोग्राम सड़ी व नम गोबर की खाद या कंपोस्ट में अच्छी तरह से मिला लें और उसे 1-2 दिनों तक के लिए छाया में पौलीथिन से ढक कर रखें. इस से ट्राइकोडर्मा में मिली कंपोस्ट को फैला कर 6 इंच मोटी परत बना लें और उस पर बीज बोएं.

इस विधि से पौधे की बढ़वार भी अच्छी होती है और उस में आर्द्रगलन या पौध गलन रोग का हमला भी नहीं होता.

बोआई का समय

बोने से पहले खेत की अच्छी तरह तैयारी कर लें. खेत की तैयारी के समय मिलने वाली व्हाइट ग्रब व कट वर्म की सूंडि़यों को इकट्ठा कर नष्ट करें. बीजों को बोने से पहले ट्राइकोडर्मा की 250 ग्राम मात्रा 10 लिटर पानी में मिला कर पौधों की जड़ों को 10 मिनट के लिए घोल में उपचारित करें.

फसलों में नुकसान पहुंचाने वाली सभी मिट्टी से संबंधित बीमारियों के नियंत्रण के लिए 1-2 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा को 500 किलोग्राम नम गोबर की खाद कंपोस्ट में अच्छी तरह मिला लें और 1-2 दिन के लिए छाया में पौलीथिन से ढक दें.

बोआई से पहले ट्राइकोडर्मा और कंपोस्ट के इस मिश्रण को एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में छिड़काव कर दें या फैला दें.

ध्यान दें कि कंपोस्ट के छिड़काव के बाद मिट्टी में समुचित नमी बनी रहे. व्हाइट बटरफ्लाई पीले रंग के अंडे समूहों में देती है. व्हाइट कैटरपिलर के प्रौढ़ भी अपने अंडे समूह में देते हैं जो भूरे रंग की रोएंदार संरचना से ढके रहते हैं.

इन कीटों की सूंडि़यां भी शुरू की अवस्था में समूह में रहती हैं इसलिए किसानों को फसल की निगरानी के समय मिलने वाले अंडों और सूंडि़यों के समूहों को पत्तियों के साथ तोड़ कर नष्ट कर दें. इस से इन कीटों का प्रकोप कम हो जाता है.

फसल की निगरानी के समय अगर काला धब्बा और काला सड़न रोग दिखाई दे तो शुरू की अवस्था में ही ऐसी पत्तियों को तोड़ कर नष्ट कर दें. इस से इन रोगों का प्रकोप कम हो जाता है.

अगर फसल में काला सड़न रोग लगने की आशंका हो तो स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 1 ग्राम और कौपर औक्सीक्लोराइड 3 ग्राम प्रति लिटर पानी में मिला कर पौधों की जड़ों में डालें.

फसल की निगरानी के समय यदि जड़ गलन और मृदु रोमिल आसिता में से किसी भी रोग के प्रकोप से नुकसान होने का डर हो तो ट्राइकोडर्मा की 2-3 ग्राम प्रति लिटर पानी में मिला कर फसल पर या जड़ के पास छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर दूसरा छिड़काव 7-10 दिनों के बाद करें.

अगर माहू कीट (एफिड) का हमला हो तो क्राइसोपरला (परभक्षी कीट) को लार्वा अवस्था में बुरादे के साथ मिला कर फसलों में 50,000 प्रति हेक्टेयर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार इस्तेमाल करें.

यदि फसल निगरानी के समय लीफ वेबर, डायमंड बैक माथ, व्हाइट बटरफ्लाई, एफिड, कैबेज बोरर, कैबेज सेमीलूपर या तंबाकू की सूंड़ी में से किसी भी कीट का हमला दिखाई दे तो बेसीलम थूरिनजिएंसिस पर आधारित जैविक कीटनाशकों जैसे हाल्ट, बायोलेप वगैरह में से किसी एक का 2 ग्राम मात्रा का प्रति लिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें.

यदि जैविक कीटनाशक के छिड़काव के बाद भी पत्ती खाने वाले कीटों और माहू में से किसी का प्रकोप हो तो जैविक कीटनाशक का दोबारा छिड़काव 10-12 दिनों बाद नीम पर आधारित कीटनाशकों जैसे निंबीसिडीन, बायोनीम वगैरह में से किसी एक का 5 मिलीलिटर पानी में मिला कर छिड़काव करें.

किसी भी प्रकाशस्रोत के नीचे चौड़े मुंह वाले किसी बरतन या टब वगैरह में मिट्टी का तेल मिला हुआ पानी रख देना चाहिए, जिस से प्रकाश की ओर आकर्षित हो कर गुबरैले यानी सड़े गोबर में लगने वाला कीड़ा जमीन पर रखे बरतन में गिर कर नष्ट हो जाएं.

रात के समय खेतों में फसल अवशेषों को जला कर भी गुबरैलों को आकर्षित किया जा सकता है. जलते हुए फसल अवशेषों को ढेर के पास भी चौड़े मुंह के बरतन में मिट्टी का तेल मिला कर पानी रखना चाहिए. इस से आग के प्रकाश की ओर आकर्षित होने वाले गुबरैले बरतन में गिर कर नष्ट हो जाएं. खेतों में पड़े पुराने ठूंठों और जड़ों को इकट्ठा कर नष्ट कर दें. इस से कीट का हमला कम हो जाता है.

इस तरह जैविक विधि से जड़ वाली सब्जियों की खेती किसानों के लिए अच्छे उत्पादन के साथसाथ मिट्टी की उत्पादकता व उर्वराशक्ति को बढ़ाने में मददगार है.

आत्मनिर्भर भारत (Self-Reliant India) बनाने में कृषि क्षेत्र की खास भूमिका

हिसार : चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के सहयोग से चौथी अंतर्राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिस का मुख्य विषय ‘रिसेंट एडवांसेज इन एग्रीकल्चर फार आत्मनिर्भर भारत’ (आरएएएबी-2024) था. यह कार्यशाला आरवीएसकेवीवी, ग्वालियर द्वारा आभासी मोड में आयोजित की गई. कार्यशाला में मुख्य अतिथि एग्रीकल्चरल साइंटिस्ट्स रिक्रूटमेंट बोर्ड (एएसआरबी), नई दिल्ली के चेयरमैन डा. संजय कुमार, चीफ पैटर्न के रूप में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज, जबकि विशिष्ट अतिथि के रूप में यूएएस थारवाड विश्वविद्यालय के कुलपति डा. पीएल पाटिल व आईजीकेवी, रायपुर विश्वविद्यालय के कुलपति डा. गिरीश चंदेल इत्यादि उपस्थित रहे. कार्यशाला के आयोजक सचिव डा. अंकुर शर्मा रहे.

मुख्य अतिथि डा. संजय कुमार ने कहा कि भारत को आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा 2020 में की गई थी, जिस का मुख्य उद्देश्य स्थानीय उत्पादों को प्रचलित व बढ़ावा देना है और कृषि क्षेत्र सहित भारत में विनिर्माण को प्रोत्साहित करना है. इस मिशन के तहत ‘मेक इन इंडिया’ के संकल्प को पूरा करने में कृषि भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. अब भारतीय कृषि न केवल उत्पादकता और लाभप्रदता पर, बल्कि स्थिरता पर भी ध्यान केंद्रित कर रही है.

उन्होंने कहा कि आज के समय में कृषि पारिस्थितिकी, जैविक खेती, प्राकृतिक खेती और संरक्षण कृषि का चलन बढ़ रहा है, क्योंकि किसान तेजी से मिट्टी के स्वास्थ्य, जैव विविधता और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के महत्व को पहचान रहे हैं. इन  को अपना कर, किसान मिट्टी की उर्वरता में सुधार कर सकते हैं, मिट्टी के कटाव को कम कर सकते हैं और रसायनों के प्रयोग को कम कर सकते हैं, जिस से जलवायु परिवर्तन से होने वाली समस्याओं से निबटा जा सकता है.

उन्होंने आगे बताया कि नई और आधुनिक तकनीकों को अपना कर किसान अपनी फसलों के उत्पादन को बढ़ा रहा है और देश को आत्मनिर्भर बनाने में भी अपना योगदान दे रहा है.

आत्मनिर्भर भारत (Self-Reliant India)कार्यशाला के चीफ पैटर्न व हकृवि के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने अपने संबोधन में कहा कि आने वाले समय में भारत को आत्मनिर्भर बनाने में कृषि क्षेत्र की अह्म भूमिका रहेगी. कृषि हमेशा से हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही है. यह लाखों लोगों को आजीविका प्रदान करती है और हमारी विशाल आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती है. हाल ही के वर्षों में,  इस क्षेत्र में उत्पादकता, स्थिरता और प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए कृषि पद्धतियों और प्रौद्योगिकियों में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है, जो इस क्षेत्र को बढ़ाने और आत्मनिर्भरता की दिशा में हमारे संकल्प को मजबूत करने में मदद करेगी.

उन्होंने आगे बताया कि आत्मनिर्भर भारत के दृष्टिकोण और उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए देश को उत्पादों के आयात पर निर्भरता कम करनी होगी, स्थानीय उत्पादों को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देना होगा और उत्पादों के निर्यात को बढ़ाने के बारे में भी सोचना होगा. कृषि क्षेत्र में युवाओं और हितधारकों को आकर्षित करने की आवश्यकता है, क्योंकि कृषि शिक्षा आत्मनिर्भर भारत के लिए सब से अच्छे रोडमैप में से एक हो सकती है, क्योंकि यह कृषि आधारित स्टार्टअप के लिए आधार तैयार करती है.

उन्होंने कहा कि फसल उत्पादन बढ़ाने और युवाओं की कृषि क्षेत्र में भागीदारी बढ़ाने के लिए जीपीएस, सेंसर, ड्रोन और डेटा एनालिटिक्स जैसी आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल करने की जरूरत है. हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय भी किसानों के हित के लिए शोध कार्यों, नवीनतम तकनीकों,  शैक्षणिक गतिविधियों व विस्तार कार्यों जैसी गतिविधियों से भारत को आत्मनिर्भर बनाने में अग्रणी भूमिका निभा रहा है.

इस दौरान एग्रीमीट फांउडेशन, यूपी की अध्यक्ष डा. हर्षदीप कौर द्वारा कार्यशाला में भाग लेने वाले अतिथियों का परिचय करवाया गया. कार्यशाला में आरएलबीसीएयू, झांसी, उत्तर प्रदेश के अनुसंधान निदेशक डा. एसके चतुर्वेदी, एसकेएलटीएसएचयू, तेलंगाना की कुलपति डा. नीरजा प्रभाकर,  आईसीएआर-डीसीआर, पुटुर के निदेशक डा. जेडी अडिगा, राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय, ग्वालियर के कुलपति प्रो. एके शुक्ला ने भी अपने विभिन्न विषयों पर व्याख्यान दिए.

आईसीएआर-एनआईबीएसएम, रायपुर के संयुक्त निदेशक डा. अनिल दीक्षित ने सभी का स्वागत किया, जबकि कार्यशाला के अंत में आईसीएआर-एनआईबीएसएम, रायपुर, छत्तीसगढ़ के वैज्ञानिक डा. एन. अश्विनी ने धन्यवाद प्रस्ताव पारित किया.

इको फ्रैंडली खेती जैविक खेती (Organic Farming)

जब जैविक खेती की बात आती है तो फसलों में कीटों के हमले से सुरक्षा किस तरह की जाए, यह समस्या सब से पहले सामने आती है. इस के लिए हमारे यहां कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल से पर्यावरण प्रदूषण, जमीन की उर्वरता पर उलटा असर, इनसान की सेहत पर बुरा असर और उत्पादन लागत का बढ़ना वगैरह प्रमुख समस्याएं हैं.

जैविक जीवनाशियों के इस्तेमाल द्वारा हम इन सभी समस्याओं से नजात पा सकते हैं. खेती में जैविक जीवनाशियों का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है. हमारे देश में इन का इस्तेमाल पुराने समय से ही होता आया है. किसान इन सब से भलीभांति परिचित हैं.

जैविक जीवनाशी के रूप में कई तरह की चीजों का इस्तेमाल किया जाता है, जो उत्पादन लागत को कम करने के साथसाथ पर्यावरण सुरक्षा के लिए भी महत्त्वपूर्ण है.

जैविक जीवनाशी की सूची वैसे तो काफी लंबी है, पर प्रमुख जीवनाशी जो आज भी प्रचलित हैं और किसानों के बीच लोकप्रिय हैं, वे इस तरह हैं:

नीम, तंबाकू, करंज, मिर्च, हींग, गोमूत्र, छाछ, राख वगैरह का इस्तेमाल जैविक कीटनाशी के रूप में किया जा सकता है.

नीम कीटनाशी के तौर पर इस तरह से काम करता है:

* कीटों का असर खत्म करने या रोकने के रूप में.

* कीटों की बढ़वार को रोक कर.

नीम का कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल

नीम की पत्तियों का अर्क

* एक किलोग्राम नीम की पत्तियों का 10 लिटर पानी में तैयार किया गया अर्क टिड्डा, माहू, सैनिक कीट वगैरह से ग्रसित फसल पर छिड़काव करने से इन कीटों पर प्रभावी नियंत्रण होता है.

* नीम की पत्तियों को अनाज के साथ मिला कर रखने से भंडारण के दौरान अनाजों में कीटों का हमला रोका जा सकता है.

जैविक खेती (Organic Farming)

नीम का फल

* नीम का फल जिसे निंबोली भी कहा जाता है, को पीस कर इस की एक ग्राम मात्रा प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर फसलों पर छिड़काव करने से इल्ली, माहू, तेलिया वगैरह कीटों के असर को नियंत्रित किया जा सकता है.

* 1.2 किलोग्राम निंबोली के पाउडर को 100 किलोग्राम गेहूं बीज के साथ मिला कर रखने से बीज को चावल की सूंड़ी नामक कीट से तुरंत सुरक्षा दी जा सकती है.

नीम का तेल

* 125 मिलीलिटर नीम के तेल को 15 ग्राम साबुन के साथ थोड़े से पानी में घोलते हैं. इस के बाद 4.5 लिटर पानी मिला कर पतला कर आलू, कपास वगैरह फसलों पर छिड़कने से माहू कीट को रोका जाता है. साथ ही, कपास की फसल को भी इस कीट से सुरक्षित किया जा सकता है.

नीम की खली

जिन खेतों में गर्डल बीटल व नेमाटोड की समस्या पाई जाती है, वहां नीम की खली 8 क्विंटल प्रति एकड़ की दर से खेत में मिला कर उपचार करने से इन का प्रकोप नहीं रहता है.

तंबाकू का कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल : तंबाकू में निकोटीन पाया जाता है, जिस में कीटनाशक गुण होते हैं. इस का जीवनाशी के रूप में इस्तेमाल इस तरह किया जाता है:

तंबाकू का घोल : 750 ग्राम तंबाकू की सूखी पत्तियां ले कर उन्हें 7 लिटर पानी में उबाल कर रातभर इस घोल को ऐसे ही पड़ा रहने दें. सुबह इस को छान कर फसल पर छिड़कने से कीटों पर काबू पाया जा सकता है.

तंबाकू का चूर्ण : बारीक पिसे हुए तंबाकू के चूर्ण को पानी में घोल कर छिड़काव करने से रस चूसने वाले कीटों का खात्मा होता है.

तंबाकू का धूम्रक : एक किलोग्राम तंबाकू की पत्तियों का चूर्ण 5 लिटर पानी में घोल बना कर रातभर रखते हैं.

अगले दिन इस घोल को 250 ग्राम साबुन के साथ उबालते हैं. इस के बाद इसे छान कर इस का इस्तेमाल मिट्टी के धूम्रक के रूप में किया जाता है, जिस से खेत में मौजूद कीट जैसे दीमक, ह्वाइट ग्रब वगैरह को नियंत्रित किया जा सकता है.

करंज का कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल : तकरीबन 5 किलोग्राम करंज की पत्तियों को 2 लिटर पानी में तब तक उबाला जाता है जब तक कि पानी आधा न रह जाए. इस के बाद 20 मिलीलिटर करंज अर्क को एक लिटर पानी में मिला कर फल पर छिड़काव करने से रस चूसने वाले कीटों का खात्मा होता है.

मिर्च का कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल : 100 ग्राम मिर्च को पीस कर 5 लिटर पानी में घोल बना कर तैयार कर लेते हैं. इस घोल में एक चम्मच डिटर्जैंट पाउडर मिला कर कीटों से प्रभावित फसल पर छिड़काव करने से फसल कीटों से सुरक्षित रहती है.

हींग का कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल : हींग परूलापिलिड नामक पौधे के भूमिगत तने और जड़ों पर लगा कर गोंद जैसा एक पदार्थ होता है, यह पानी में घोलने पर दूधिया रंग का हो जाता है.

* हींग को नीम की पत्तियों के घोल के साथ मिला कर छिड़काव करने से विभिन्न प्रकार के कीटों और जीवाणुजनित रोगों से फसलें सुरक्षित हो जाती हैं.

* 100 ग्राम हींग के 300 लिटर नीम की पत्तियों के घोल में मिला कर छिड़काव करने से कीटों का प्रभावी नियंत्रण होता है.

गोमूत्र का कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल : 10 लिटर देशी गाय का मूत्र एक साफ बरतन में ले कर इस में एक किलोग्राम नीम के पत्ते डाल कर 15 दिन तक ऐसे ही छोड़ देते हैं.

इस के बाद इसे तब तक उबालते हैं जब तक कि घोल की मात्रा आधी न रह जाए. इस की तीव्रता बढ़ाने के लिए उबालते समय इस में 50 ग्राम लहसुन कूट कर डाल दिया जाता है.

इस तरह से तैयार जीवनाशी की 1 लिटर मात्रा को 100 लिटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करें. जरूरत पड़ने पर 4-5 छिड़काव करें जिस से कि कीट पूरी तरह से नष्ट हो जाएं.

छाछ का कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल : छाछ को मिट्टी के एक घड़े में भर कर साफ कपड़े से ढक कर इसे जमीन में गाड़ दिया जाता है.

21 दिन बाद इस घड़े को निकाल कर 15-20 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव करने से रस चूसने वाले कीट और इल्लियों का खात्मा होता है.

राख : फसलों पर राख का भुरकाव करने से भी माही कीट पर नियंत्रण किया जा सकता है.

खेती में जैव उर्वरक (Bio-Fertilizer) का महत्त्व

जल, जंगल और जमीन कैमिकल उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से संकट में हैं. इस के इस्तेमाल से एक ओर जहां हमारी खेती की लागत बढ़ती चली जा रही है, वहीं दूसरी ओर समूचा जीवजगत भी संकट का सामना कर रहा है. खेती, बागबानी की लागत घटाने और सभी जीव, निर्जीव को सुरक्षित रखने के लिए अब वक्त आ गया है कि ज्यादा से ज्यादा जैव उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाए.

जैव उर्वरक बेहद सस्ते होने के साथ ही साथ मिट्टी में पड़े कैमिकल उर्वरकों की घुलनशीलता बढ़ा कर फसलों तक पहुंचाते हुए पैदावार में बढ़ोतरी करते हैं. इस के इस्तेमाल से उर्वरकों की मात्रा घटती है, जिस से आयात किए जाने वाले उर्वरकों पर खर्च होने वाली धनराशि की बचत होती है.

क्या है जैव उर्वरक

जैव उर्वरक जीवाणु खाद होती है. 1 ग्राम जैव उर्वरक में 10 करोड़ जीवाणु या सूक्ष्म जीव रहते हैं. इस में मौजूद लाभकारी सूक्ष्म जीवाणु वायुमंडल की नाइट्रोजन को पकड़ कर फसल को मुहैया कराते हैं.

इसी तरह मिट्टी में मौजूद अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बना कर पौधों को देते हैं. इस तरह जैव उर्वरकों के इस्तेमाल से कैमिकल उर्वरकों की मात्रा कम हो जाती है, जिस से लागत भी कम हो जाती है.

क्या होगा फायदा

फसलों में जैव उर्वरकों का इस्तेमाल उसी तरह से जरूरी है, जैसे सभा में आम लोगों का शामिल होना. मिट्टी में पहुंचे उर्वरकों की फसल में प्राप्यता यानी मौजूदगी बहुत कम हो पाती है.

इस बात का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि कैमिकल उर्वरकों में सब से ज्यादा प्राप्यता यानी उर्वरकों की वह मात्रा, जो पौधों को मिलती है तकरीबन 40-50 फीसदी नाइट्रोजन की है, बाकी सभी उर्वरकों का मसलन डीएपी, पोटाश का इस से कम रहता है.

ऐसे में इन जैव उर्वरकों के इस्तेमाल से मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की तादाद बढ़ जाती है. ये सूक्ष्मजीव मिट्टी में मौजूद उर्वरकों की घुलनशीलता बढ़ा देते हैं.

मिट्टी में कैमिकल उर्वरकों के घटने और सूक्ष्मजीवों के बढ़ने से फायदेमंद कीटों की तादाद तेजी से बढ़ती है. यही नहीं, जैव उर्वरक कई तरह के हार्मोंस भी छोड़ते हैं, इस से पैदावार में सकारात्मक असर पड़ता है.

राइजोबियम कल्चर : इस का इस्तेमाल दलहनी फसलों में किया जाता है.

वैसे भी अलगअलग दलहनी फसलों के लिए अलगअलग राइजोबियम कल्चर होता है.

दरअसल, राइजोबियम कल्चर में राइजोबियम जीवाणु पाए जाते हैं. वायुमंडल में 78 फीसदी नाइट्रोजन पाया जाता है. इस नाइट्रोजन को मिट्टी में इकट्ठा करने की कूवत सिर्फ दलहनी फसलों में होती है, क्योंकि दलहनी फसलों की जड़ों में कुछ लाल रंग की गांठें होती हैं, जिस पर राइजोबियम नाम का जीवाणु पाया जाता है.

बोआई के पहले बीजोपचार कर लेने से खेत में पहले से ही मौजूद राइजोबियम जीवाणु रहता है, जिस से पैदावार में बढ़ोतरी होती है.

एजेटोबैक्टर : जो काम राइजोबियम कल्चर करता है, वही काम सभी गैरदलहनी फसलों के लिए एजेटोबैक्टर करता है.

एजोस्पाइरिलम : यह खासतौर पर गन्ना, मोटा अनाज, बाजरा के लिए बहुत ही उपयोगी है. इस का भी काम एजेटोबैक्टर सरीखा है.

पीएसबी कल्चर : इसे फास्फोरस सोल्यूब्लाइजिंग बैक्टीरिया या फास्फोरस सोल्यूब्लाइजिंग माइक्रोब्स (पीएसबी / पीएसएम) कल्चर कहते हैं.

फास्फोरस वाले उर्वरक को विकलांग उर्वरक कहते हैं. विकलांग इसलिए क्योंकि उर्वरकों में सब से धीमी घुलनशीलता फास्फोरस वाले उर्वरकों की है. पीएसबी/पीएसएम कल्चर के इस्तेमाल से फास्फोरस की घुलनशीलता बढ़ जाती है.

एजोला फर्न : यह सर्द मौसम में ठहरे हुए पानी के ऊपर रहता है. यह दूर से देखने पर हरे या लाल रंग का चटाईनुमा लगता है. इस की पत्तियां अत्यधिक छोटी और मोटी होती हैं. इन्हीं पत्तियों के नीचे के छेदों में सहजीवी साइनोबैक्टीरिया नाम का जीव पाया जाता है, जो नाइट्रोजन स्थिरीकरण यानी बनाए रखने में मददगार है. यह पानी में डूबे धान के खेतों में बोआई के एक हफ्ते बाद 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उगाया जा सकता है, जो 2 किलोग्राम नाइट्रोजन रोजाना की दर से स्थिर कर सकता है.

एजोला का इस्तेमाल कंपोस्ट खाद बनाने या 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हरी खाद के रूप में जमीन में मिला कर किया जा सकता है. इस के इस्तेमाल से धान में खरपतवार कम पनपते हैं और नाइट्रोजन की बचत 40-80 किलोग्राम तक प्रति हेक्टेयर हो जाती है.

नील हरित शैवाल : इसे ब्लू ग्रीन या नील हरित शैवाल के नाम से जानते हैं. इसे धान के खेत या तालाबों में उगाया जाता है. इस से तमाम तरह की बढ़वार रोकने वाले हार्मोंस, विटामिन बी12, तमाम तरह के एमीनो एसिड निकलते हैं. नतीजतन, धान के पौधों में अच्छी बढ़वार के साथसाथ दानों की क्वालिटी भी बेहतर होती है. बीजीए के उपयोग से धान में 15-20 फीसदी तक बढ़ोतरी हो जाती है, साथ ही नाइट्रोजन की 30 किलोग्राम तक प्रति हेक्टेयर बचत हो जाती है.

प्रयोग विधि और मात्रा : एजोला फर्न, नील हरित शैवाल, एजोस्पाइरिलम का इस्तेमाल खेत की स्थिति के हिसाब से अलगअलग होता है. बेहतर होगा कि आप मिट्टी की जांच करा कर अपने निकटतम खेती के माहिरों से मिलें. उन के परामर्श के मुताबिक खेत में इन का इस्तेमाल करें, जबकि राइजोबियम कल्चर, एजेटोबैक्टर, पीएसबी कल्चर का इस्तेमाल करने की विधि व मात्रा एकसमान है.

बीजोपचार के लिए 200 ग्राम जैव उर्वरकों का आधा लिटर पानी में घोल बनाने के बाद जैव उर्वरकों के घोल को 10 किलोग्राम बीज के ढेर पर धीरेधीरे डाल कर हाथों से मिलाएं ताकि जैव उर्वरक समान रूप से बीजों पर चिपक जाएं. इस के बाद उपचारित बीज को छाया में सुखा कर बोआई कर सकते हैं.

जड़ उपचार जो कि रोपाई वाली फसलों के लिए ज्यादा सही होता है.  एक एकड़ की फसल के लिए 1-2 किलोग्राम जैव उर्वरकों का 10-15 लिटर पानी में घोल बनाने के बाद 15-20 मिनट तक जड़ों को डुबो कर रोपाई की जा सकती है.

एक एकड़ खेत में मिट्टी उपचार के लिए 2 किलोग्राम जैव उर्वरक यानी 10 पैकेट की जरूरत पड़ती है. 25 किलोग्राम खूब सड़ी हुई कंपोस्ट खाद या 25 किलोग्राम मिट्टी में 2 किलोग्राम जैव उर्वरकों को खूब अच्छी तरह से मिला कर बोआई के समय या 24 घंटे पहले समान रूप से खेत में मिला दिया जाता है.

सावधानियां

* जैव उर्वरकों का इस्तेमाल हमेशा शाम के समय ही करना चाहिए, क्योंकि सुबह या दोपहर में करने पर तेज धूप होने के कारण इन के अंदर मौजूद सूक्ष्म जीव मर सकते हैं, वहीं शाम के वक्त प्रयोग करने पर रातभर और अगले दिन सुबह तक सूक्ष्म जीवों को नए वातावरण में तालमेल बनाने में दिक्कत नहीं होती है.

* जैव उर्वरकों का कैमिकल खादों के साथ बिलकुल भी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैव उर्वरकों के अंदर सूक्ष्म जीव होते हैं. इन सूक्ष्म जीवों को कैमिकल उर्वरकों के साथ नुकसान होता है.

* ऐक्सपायर डेट निकल जाने के बाद जैव उर्वरकों का इस्तेमाल बिलकुल न करें.

प्राकृतिक खेती (Natural Farming) उत्पाद को मिले बेहतर दाम

हिसार: चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में ‘वैज्ञानिककिसान विचारविमर्श’ संगोष्ठी का आयोजन किया गया. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने इस मीटिंग की अध्यक्षता की. इस मीटिंग में प्रबंधन मंडल के भूतपूर्व सदस्य सीपी आहुजा, शरद बतरा व शिवांग बतरा भी मौजूद रहे. कार्यक्रम में प्राकृतिक खेती कर रहे विभिन्न जिलों के प्रगतिशील किसानों ने भाग लिया.

कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने आधुनिक युग में प्राकृतिक खेती के विस्तार से ले कर उस की अहमियत पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि ‘वैज्ञानिककिसान विचारविमर्श’ संगोष्ठी का मुख्य उद्देश्य प्राकृतिक खेती कर रहे किसानों की समस्याओं को जान कर उन का हल करना व शोध कार्यों को उन के अनुरूप बनाना है.

कुलपति प्रो. बीआर कंबोज ने प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों के उत्पादों को बेहतर दाम दिलवाने के लिए उपभोक्ताओं से सामंजस्य व सीधे तौर पर जुड़ कर आपस में विश्वास पैदा करना जरूरी है.

उन्होंने प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए विशेष रूप से पाठ्यक्रम बनाना, अधिक से अधिक प्रशिक्षणों का आयोजन व किसान समुदाय द्वारा तैयार किए गए कृषि मौडल की प्रदर्शनी भी लगाने पर जोर दिया. प्राकृतिक खेती कर रहे किसान व्हाट्सएप ग्रुप बनाएं, जिस में वे अपनी समस्याएं व समाधान शेयर करें, ताकि उस का तुरंत एकदूसरे को लाभ पहुंच सके, साथ ही आपस में तकनीकों का भी आदानप्रदान हो.

उन्होंने आगे बताया कि भावी पीढ़ियों को रसायनमुक्त व पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य पदार्थ उपलब्ध करवाना वैज्ञानिकों व किसानों की मुख्य प्राथमिकता है. इस के लिए उन्होंने कहा कि किसान शुरुआत में कम जगह पर प्राकृतिक खेती को अपनाएं और धीरेधीरे उस का क्षेत्रफल बढ़ाते जाएं.

उन्होंने वैज्ञानिकों से भी आह्वान किया कि वे आधुनिक युग में आने वाली समस्याओं को ध्यान में रखते हुए जब भी शोध करें, तो विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों, पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता, श्रमिकों की उपलब्धता, वर्षा, जमीन का और्गेनिक कार्बन, खरपतवार, पूरे साल का फसल चक्र, कीट और बीमारियों के प्रबंधन से संबंधित बातों पर मंथन जरूर करें.

हकृवि में स्थापित पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैविक खेती उत्कृष्टता केंद्र के निदेशक डा. अनिल कुमार ने विभिन्न विषयों पर चल रहे प्रयोगों के बारे में जानकारियां साझा की. साथ ही, किसानों के सवालों के जवाब भी दिए.

उन्होंने कहा कि प्राकृतिक खेती के तहत विभिन्न फलों एवं सब्जियों पर शोध किए जा रहे हैं. अनुसंधानों के उचित परिणामों को किसानों तक पहुंचाया जा रहा है, जिस से कि वे प्राकृतिक खेती को अपनाने के लिए अधिक से अधिक जागरूक हों. संगोष्ठी में किसानों का यह मत था कि प्राकृतिक खेती के प्रमाणीकरण की प्रक्रिया को सरल बनाया जाए.

इस अवसर पर अतिरिक्त अनुसंधान निदेशक डा. राजेश कुमार गेरा, मीडिया एडवाइजर डा. संदीप आर्य सहित सहायक निदेशक डा. सुरेंद्र यादव, संयुक्त निदेशक डा. सुरेश कुमार, डा. सुमित देशवाल, डा. सुरेश कुमार, डा. किशोर कुमार, डा. दीपिका, मंजीत सहित प्रगतिशील किसान, जिन में सुधीर महता, सुभाष बेनीवाल, कमल वीर, पंकज माचरा, मुल्कराज चावला, सुरेन्द्र कुमार, राजेंद्र कुमार, रणधीर सिंह, मनेाज कुमार, सूरजभान, धर्मवीर पूनिया, सुरजीत सिंह, नरेश कुमार, अमनदीप, वीरेंद्र कुमार, कृष्ण, दलजीत सिंह, गौरव तनेजा, मुकेश कंबोज, आशीष महता, डा. बलविंदर सिंह, संजय व दिलेर भी उपस्थित रहे.

जैविक खेती में गोबर की खाद (Cow Dung Manure) है खास

सुगंधित धान और जैविक खेती के जरीए अपनी आय में इजाफा करने वाले किसान राममूर्ति मिश्र को खेती में उन के योगदान के लिए साल 2021 में भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान भारत सरकार द्वारा नवाचारी कृषक अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है. वे जैविक खेती के अपने अनुभवों को दूसरे किसानों में भी बांटने का काम कर रहे हैं. वे अकसर जिले के बाहर के किसानों को जैविक खेती का प्रशिक्षण देने जाते रहते हैं.

लोगों की यह शिकायत रहती है कि जैविक खेती के चलते अकसर उत्पादन घट जाता है, लेकिन राम मूर्ति मिश्र का कहना है कि जैविक खेती के दिशानिर्देशों का पालन करना जरूरी है तभी किसान जैविक खेती के जरीए अधिक उत्पादन ले पाने में सक्षम हो सकते हैं.

जैविक खेती में गोबर की खाद का सब से ज्यादा उपयोग किया जाता है. ऐसे में किसान गुणवत्तापूर्ण गोबर की खाद कैसे बनाएं और उस का खेती में क्या लाभ है, इस विषय पर राममूर्ति मिश्र से विस्तार से बातचीत की गई. पेश हैं, उन से हुई बातचीत के खास अंश :

खेती में गोबर की खाद मिट्टी की उत्पादन कूवत को कैसे बढ़ाती है?

भूमि में लाभकारी जीवों का मुख्य भोजन कार्बनिक पदार्थ होता है जो गोबर की खाद में उच्च अनुपात में पाया जाता है. गोबर की खाद से अल्प मात्रा में नाइट्रोजन सीधे पौधों को प्राप्त होता है और बड़ी मात्रा में खाद सड़ने के साथसाथ लंबी अवधि तक उपलब्ध होता रहता है.

फास्फोरस और पोटाश अकार्बनिक स्रोतों की भांति गोबर की खाद में औसतन प्रति टन 5-6 किलोग्राम नाइट्रोजन, 1.2-2 किलोग्राम फास्फोरस और 5-6 किलोग्राम पोटाश पाया जाता है.

हालांकि, गोबर की खाद भारत में एक आम जैविक खाद है पर किसान इस के बनाने की वैज्ञनिक विधि और कुशलतापूर्वक इस के उपयोग पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते हैं, जबकि गोबर की सड़ी हुई खाद मिट्टी के भौतिक, जैविक व रासायनिक गुणों में सुधार कर उर्वरता बढ़ाती है. गोबर की खाद नाइट्रोजन व पोषक तत्त्वों का प्राकृतिक स्रोत होती है. यह मिट्टी में ह्यूमस और धीमी गति से रिलीज होने वाले पोषक तत्त्वों में बढ़ोतरी करती है, साथ ही भूमि की जलधारण क्षमता बढ़ा कर पोषक तत्त्वों को बनाए रखने में मदद करती है. गोबर की सड़ी हुई खाद लाभकारी जीवाणुओं की संख्या बढ़ाती है.

गोबर की शुद्ध और गुणवत्तायुक्त खाद का निर्माण किसान कैसे करें?

वैसे तो देश के अधिकांश पशुपालकों द्वारा गोबर का एक बडा भाग उपले बनाने में प्रयोग किया जाता है, जबकि इस का उपयोग जैविक खाद बना कर फसल में जैव उर्वरक के रूप में किया जा सकता है. इस के अलावा पशुओं के लिए बिछी मिट्टी में मूत्र नष्ट हो जाता है, जबकि इस का उपयोग गोबर की खाद बनाने में किया जा सकता है. अकसर पशुपालक गोबर को सड़क किनारे या घरों के पास ढेर लगा कर खाद बनाने का करते हैं, जिस से धूप व वर्षा के कारण पोषक तत्त्वों का ह्रास हो जाता है, साथ ही पर्यावरण भी दूषित होता है.

इस लिए पशुपालक किसान गुणवत्तापूर्ण गोबर की खाद तैयार करने के लिए ऐसे उंचे स्थल का चयन करें जहां वर्षा का पानी एकत्र नहीं होता है. इसी के साथ गोबर की खाद बनाने के लिए तेज धूप व वर्षा से बचाने हेतु छायादार स्थान व छत की भी आवश्यकता होती है. इस विधि में 2 मीटर चौड़ा और 1 मीटर गहरा व सुविधानुसार लंबाई का गड्ढा खोदा जाता है. गड्ढे की गहराई एक तरफ 3 फुट और दूसरी तरफ साढ़े 3 फुट होनी चाहिए. वर्षा जल के भराव को रोकने के लिए गड्ढे के चारों तरफ मेंड़ बनाई जाती है. प्रत्येक किसान के पास 2-3 गड्ढे होने चाहिए जिस से क्रम चलता रहे.

पशुओं के गोबर को एकत्र करते समय सावधानी बरतनी चाहिए कि पशुओं का मूत्र नष्ट न होने पाए. इस के लिए पशुओं के नीचे खराब भूसा, बेकार चारा या फसलों के अवशेषों को फैला दिया जाता है, जो पशु मूत्र को सोख लेते हैं. इस के लिए धान की पुआल एवं गन्ने की पत्तियां, बाजरे का बबूला आदि उपयुक्त रहते हैं. फसल अवशेषों द्वारा मूत्र सोख लेने से कार्बन और नाइट्रोजन का अनुपात कम हो जाता है और अवशेष जल्दी सड़ जाता है. पक्के फर्श की स्थिति में एक तरफ ढाल बना कर गड्ढे में मूत्र को एकत्र किया जा सकता है. गढ्ढे में भरने के लिए पशुओं के गोबर को उन के मूत्र से भीगे बिछावन में मिला कर परत दर परत भरते हैं.

गोबर खाद के निर्माण के लिए पशुपालक गड्ढों की भराई कैसे करें?

किसानों द्वारा गोबर की खाद को कम गहरी तरफ से गढ्ढा भरना शुरू करना चाहिए. गड्ढे को मूत्र में भीगा बिछावन एवं गोबर की परतों से क्रमवार भरना चाहिए. इसी क्रम में गड्ढा भरते समय भूमि के स्तर से लगभग डेढ़ फुट उंचाई तक ढेर लगा सकते हैं. अंत में उस के उपर 2 इंच मोटी मिट्टी की परत बिछा देनी चाहिए. ऐसा करने से पोषक तत्त्वों का ह्रास नहीं होगा और खरपतवारों के बीज अच्छी तरह सड़ जाएंगें. गड्ढा भरते समय फसल अवषेष में नमी पर्याप्त होनी चाहिए.

किसान गोबर की तैयार खाद उपयोग खेती में कैसे लाएं?

किसान जब भी गोबर की खाद प्रयोग करें तो यह जरूर ध्यान रखें कि उपयोग के समय खेत में पर्याप्त नमी जरुर हो. किसान कभी भी गोबर की तैयार खाद को अपने खेत में ढेरी लगा कर न छोड़ें. उन्हें चाहिए कि फसल बोआई के 15-20 दिन पूर्व खाद को समान रूप से बिखेर कर नमी की दशा में मिट्टी में मिला दें. इस बात का ध्यान जरूर रखें कि खेत या फसल में बिना सड़ी खाद का प्रयोग कदापि न करें, क्योंकि बिना सड़ी खाद के उपयोग से दीमक का प्रकोप बढ़ जाता है.

गोबर की तैयार खाद को सामान्य फसलों में 2 से 5 टन/हेक्टेयर की दर से एवं सब्जी व गन्ने में 5-10 टन/हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए. गोबर की खाद के साथ सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग करना उत्तम रहता है.

कृषि में डिप्लोमा (Diploma in Agriculture) कर किसानों तक पहुंचा रहे जानकारी

शाजापुर: कृषि आदान विक्रेताओं के लिए संचालित देशी डिप्लोमा के अंतर्गत कृषि विज्ञान केंद्र, शाजापुर और आत्मा परियोजना किसान कल्याण एवं कृषि विकास विभाग द्वारा राष्ट्रीय कृषि प्रसार संस्थान, हैदराबाद, राज्य कृषि विस्तार एवं प्रशिक्षण संस्थान, भोपाल के वित्तीय सहयोग से कृषि आदान विक्रेताओं के लिए एकवर्षीय डिप्लोमा कोर्स के प्रमाणपत्र का वितरण समारोह का आयोजन कृषि विज्ञान केंद्र में विधायक शाजापुर अरुण भीमावद के मुख्य आतिथ्य में आयोजित किया गया.

इस कार्यक्रम में प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख डा. जीआर अंबावतिया, उपसंचालक, कृषि, केएस यादव, वैज्ञानिक एवं फेसिलटेटर डा. एसएस धाकड, आत्मा परियोजना संचालक मती स्मृति व्यास, अनुविभागीय अधिकारी, कृषि, राजेश चौहान, डा. गायत्री वर्मा, डा. मुकेश सिंह, रत्नेष विश्वकर्मा, निकिता नंद, गंगाराम राठौर उपस्थिति थे.

इसी दौरान देशी डिप्लोमा के 48 सप्ताह के इस कार्यक्रम में परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले प्रशिक्षणार्थियों को राष्ट्रीय कृषि विस्तार प्रबंधन संस्थान, हैदराबाद द्वारा डिप्लोमा सर्टिफिकेट के प्रमाणपत्रों का वितरण किया गया. इस देशी डिप्लोमा का गोल्ड मैडल प्रकाशचंद्र चौधरी, सिल्वर मैडल माखन सिंह पाटीदार और ब्रांज मैडल सुनील हावड़िया को प्रदान किया गया.

आयोजित कार्यक्रम में शाजापुर के विधायक अरुण भीमावद ने बताया कि खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिए जिले के सभी कृषि आदान विक्रेताओं को प्रशिक्षित होना जरूरी है, जिस से उन्नत कृषि तकनीक की जानकारी कृषि आदान विक्रेताओं के माध्यम से किसानों तक पहुंच सके. साथ ही, उन्होंने जैविक खेती एवं प्राकृतिक खेती की उन्नत तकनीक अपनाने की सलाह दी, जिस से खेती की लागत कम हो सके.

इस दौरान उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र के सभी वैज्ञानिकों को बधाई दी कि उन्होंने उन्नत कृषि तकनीक की जानकारी सभी किसानों एवं कृषि आदान विक्रेताओं को हिंदी में उपलब्ध कराई. सभी कृषि आदान विक्रेताओं को सलाह दी गई कि वे कृषि विज्ञान केंद्र के समस्त वैज्ञानिकों के निरंतर संपर्क में रह कर उन्नत कृषि तकनीक की जानकारी किसानों तक पहुंचाते रहें.

कार्यक्रम के प्रारंभ में केंद्र प्रमुख डा. जीआर अंबावतिया के द्वारा आए हुए सभी अतिथियों का स्वागत किया एवं खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिए केंद्र द्वारा किए जा रहे कार्यों की जानकारी दी. इस दौरान उपस्थित सभी कृषि आदान विक्रेताओं को सलाह दी कि उद्यानिकी एवं औषधीय फसलों की उन्नत कृषि तकनीक किसानों तक पहुंचाएं, जिस से उन की आय में वृद्धि हो सके.

इस दौरान उपसंचालक, कृषि, केएस यादव ने प्राकृतिक खेती एवं जैविक खेती की उन्नत तकनीक अपनाने की सलाह दी. सभी कृषि आदान विक्रेताओं को सलाह दी कि वे कृषि विज्ञान केंद्र की उन्नत कृषि तकनीक किसानों तक पहुंचाएं. व्यापारियों के लिए कृषि आदानों से संबंधित विभिन्न अधिनियमों, नियमों और विनियमों के लाभ के बारे में विस्तार से बताया गया.

देशी डिप्लोमा कोर्स के प्रभारी एवं केंद्र के वैज्ञानिक डा. एसएस धाकड़ ने बताया कि इस एकवर्षीय डिप्लोमा कोर्स के दौरान हर सप्ताह कृषि विज्ञान केंद्र में प्रति शनिवार 40 कक्षाएं आयोजित की गईं. इस डिप्लोमा कोर्स के दौरान केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल एवं कृषि महाविद्यालय, सिहोर सहित प्रगतिशील किसानों के प्रक्षेत्र पर कुल 8 दिवसीय भ्रमण कार्यक्रम आयोजित किए गए.

इस डिप्लोमा कोर्स में आधुनिक कृषि तकनीक, उन्नत किस्म, एकीकृत उर्वरक प्रबंधन, कीट प्रबंधन, खरपतवार प्रबंधन, जल प्रबंधन, संरक्षित खेती, जलग्रहण क्षेत्र प्रबंधन, उन्नत कृषि यंत्रों के साथ जैविक खेती के विभिन्न विषयों की तकनीकी जानकारी कृषि महाविद्यालय, इंदौर, राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान संस्थान, भोपाल, इंदौर, ग्वालियर व कृषि विज्ञान केंद्र, शाजापुर, उज्जैन, देवास, राजगढ़ के वरिष्ठ वैज्ञानिकों द्वारा उपलब्ध कराई गई.

कार्यक्रम के आयोजन में रत्नेष विश्वकर्मा, निकिता नंद एवं गंगाराम राठौड़ का खासा योगदान रहा. आभार प्रदर्शन डा. गायत्री वर्मा द्वारा किया गया.

इस दौरान देशी कोर्स के बारे में विभिन्न प्रशिक्षणर्थियों ने अपने अनुभव आतिथ्यों के सामने रखे :

 

संजय जैन : कृषि विज्ञान केंद्र में एकवर्षीय देशी डिप्लोमा कोर्स के दौरान एकीकृत खरपतवार प्रबंधन, पौलीथिन लाइनिंग, तालाब, मछलीपालन एवं जल प्रबंधन की उन्नत तकनीक सीख कर ज्यादा से ज्यादा किसानों तक पहुंचा रहे हैं, जिस से मेरे कृषि व्यापार में वृद्धि हो रही है एवं किसानों को सही सलाह मिल रही है. वह अच्छा उत्पादन ले रहे हैं.

ओमप्रकाश गोठी : कृषि विज्ञान केंद्र में नए कृषि यंत्रों का प्रयोग एवं विभिन्न फसलों के लिए इन का उपयोग और जल संरक्षण एवं संवर्धन की उन्नत तकनीक सीखी एवं इन तकनीकों का किसानों के बीच प्रचारप्रसार कर रहे हैं.

परमानंद पाटीदार : उन्नत तकनीक देशी डिप्लोमा कोर्स के माध्यम से सीखने के बाद मेरे कृषि संबंधी व्यापार में वृद्धि हो रही है एवं किसानों को वैज्ञानिकों द्वारा बताई गई जल संरक्षण संवर्धन की उन्नत तकनीक को ज्यादा से ज्यादा किसानों तक पहुंचा रहे हैं, जिस से सिंचाई जल की पूर्ति हो सके.

सुनील हावड़िया : कृषि विज्ञान केंद्र के फसल संग्रहालय में विभिन्न फसलों की उन्नत किस्मों एवं फार्म प्रबंधन तकनीक सीखी, जिस से खेतीबाड़ी में किसानों को लाभ हो रहा है एवं वैज्ञानिकों की सलाहों को हम ज्यादा से ज्यादा किसानों तक पहुंचा रहे हैं.

राजेश पाटीदार : कृषि विज्ञान केंद्र में सोयाबीन की उन्नत तकनीक की जानकारी जैसे उन्नत किस्म, रेज्डबेड से बोआई एवं पौध संरक्षण उपाय की विषेष जानकारी मिली, जिस को अपनी फर्म के माध्यम से किसानों तक पहुंचा रहा हूं.

माखनसिंह पाटीदार : मिट्टी परीक्षण एवं उर्वरक प्रबंधन से संबंधित जानकारी के साथसाथ सोयाबीन के विकल्प के बारे में सीखा एवं किसानों को उड़द, मूंग, ज्वार, मक्का की तकनीकी सलाहें वैज्ञानिकों के माध्यम से पहुंचाई गईं.

इस दौरान केंद्र प्रदर्शन इकाई का उपस्थित अतिथियों एवं प्रशिक्षणार्थियों द्वारा भम्रण किया गया और तकनीकी जानकारी दी गई.

प्राकृतिक खेती (Natural farming) है जैविक खेती से अलग

भिंड : कृषि विज्ञान केंद्र, लहार, भिंड द्वारा भिंड जिले में ग्राम मगदपुरा में 2 दिवसीय प्राकृतिक खेती पर प्रशिक्षण हुआ. कृषि विज्ञान केंद्र के प्रधान वैज्ञानिक एवं प्रमुख डा. एसपी सिंह के निर्देशन में कार्यक्रम कराया गया, जिस में डा. एसपी सिंह ने बताया कि प्राकृतिक खेती जैविक खेती से भिन्न है, क्योकि जैविक खेती में खादों एवं जैविक कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है, जबकि प्राकृतिक खेती में प्रकृति प्रदत्त उत्पादों एवं साधनों का उपयोग किया जाता है. इस में उत्पादन को प्रकृति की शक्ति माना जाता है और कृषि कर्षण क्रियाएं कम से कम की जाती है.

इसी कम में प्राकृतिक खेती के नोडल अधिकारी डा. बीपीएस रघुवंशी ने बताया कि इस पद्धति में रासायनिक खाद, गोबर खाद, जैविक खाद, केंचुआ खाद एवं जहरीले कीटनाशक, रासायनिक खरपतवारनाशक, रासायनिक फफूंदनाशक नहीं डालना है, केवल एक देशी गाय की सहायता से इस खेती को कर सकते है. किसानों की पैदावार का आधा हिस्सा उन के उर्वरक, खाद, कीट एवं रोगनाशकों में चला जाता है. यदि किसान खेती में अधिक मुनाफा या फायदा कमाना चाहता है, तो उसे प्राकृतिक खेती की तरफ आना चाहिए.
उन्होंने प्राकृतिक खेती के उत्पाद जीवामृत, बीजामृत, घनजीवामृत के बारे में विस्तार से चर्चा की. उन्होंने बताया कि बीजामृत से बीजोपचारित करने से बीजों की अंकुरण क्षमता एवं अंकुरण फीसदी बढ़ती है, बीजों में एकसमान अंकुरण, फंगस एवं वायरस को रोकता है. वहीं जीवामृत गाय के गोबर, गोमूत्र, गुड़, बेसन एवं पीपल एवं बरगद के पेड़ के नीचे की मिट्टी से बनाते हैं. यह जीवामृत जब सिंचाई के साथ खेत में प्रयोग किया जाता है, तो भूमि जीवाणुओं की संख्या तीव्र गति से बढ़ती है एवं भूमि के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में सुधार होता है.

इसी क्रम में केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक उद्यानिकी डा. कर्णवीर सिंह ने मल्चिंग के बारे में बताया कि इस में जुताई के स्थान पर फसल के अवशेषों को भूमि पर आच्छादित कर दिया जाता है.
कृषि वैज्ञानिक डा. एनएस भदौरिया ने बताया कि ब्रहारवा अग्निस्त्र और नीमास्त्र के बारे में बताया. डा. रूपेंद्र कुमार और डा. सुनील शाक्य ने अपने विषय से संबंधित किसानों से चर्चा किया. कार्यक्रम में पूर्व अध्यक्ष खनिज विकास निगम कोक सिंह नरवरिया ने भी चर्चा किया. किसानों के यहां जीवामृत, बीजामृत आदि उत्पाद को बना कर बताया.