चने की उन्नत खेती

भारत में पैदा की जाने वाली दलहनी फसलों में चने की खेती का खास स्थान है. देश में चने की पैदावार दुनिया की कुल पैदावार की 70 फीसदी तक होती है. चने की खेती किसानों के लिए काफी फायदेमंद मानी जाती है.

चने का इस्तेमाल न केवल दाल के रूप में किया जाता है, बल्कि इस के बेसन से कई तरह के स्वादिष्ठ पकवान व मिठाइयां भी तैयार की जाती हैं. गरीब से ले कर अमीर परिवारों में कई लोगों के नाश्ते में अंकुरित चने की खास जगह है. ताकतवर खाद्य वस्तुओं में चने का खास स्थान है, क्योंकि इस में 21 फीसदी प्रोटीन, 61 फीसदी कार्बोहाइडे्रट व साढ़े 4 फीसदी वसा पाए जाते हैं.

सदियों से चना न केवल इनसानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, बल्कि पशुओं के चारे व दाने के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में बाजार में चने की मांग हमेशा बनी रहती है, जिस की वजह से किसानों को चने का सही बाजार मूल्य मिल जाता है. किसान अगर अच्छी कृषि तकनीकी व उन्नतशील प्रजातियों के बीजों का इस्तेमाल कर चने की खेती करें, तो उन्हें कम जोखिम व कम लागत में भरपूर फायदा मिल सकता है.

जमीन की तैयारी व बोआई का समय : चने की खेती के लिए दोमट व हलकी दोमट मिट्टी मुफीद रहती है. जमीन का चुनाव करते समय इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि खेत से पानी निकासी का सही इंतजाम हो और मिट्टी ज्यादा लवणीय न हो.

चने की बोआई के लिए सब से अच्छा समय अक्तूबर के दूसरे हफ्ते से ले कर 15 नवंबर तक होता है. चने की बोआई से पहले यह देख लें कि खेत की सतह सख्त न हो और अंकुरण के लिए सही मात्रा में नमी मौजूद हो. चने की बोआई से पहले एक गहरी जुताई कल्टीवेटर या हैरो से करें व पाटा लगा दें. इस के बाद सही नमी में जुताई कर के चने की बोआई करें.

उन्नतशील किस्मों का चयन : चने की कई उम्दा प्रजातियों का इस्तेमाल मौजूदा दौर में किया जा रहा है. लेकिन कुछ खास किस्में जिन में बीमारियां कम लगती हैं, का इस्तेमाल कर के किसान कम कीमत में अच्छी पैदावार कर सकते हैं. चने की उकठारोधी प्रजातियों में जेजी 16, के 850, डीसीपी 92, आधार आरएससी 936, डब्ल्यूसीजी 2 व केसीडी 1168 खास हैं. अन्य बीमारी अवरोधी प्रजातियों में पूसा 256, अवरोधी गुजरात चना, राधे, पूसा 372, डब्ल्यूसीजी 1 व डब्ल्यूसीजी 2 खास हैं. देरी से बोआई की जाने वाली प्रजातियों में 372, पंत जी 186 व उदय खास हैं. काबुली चने की प्रजातियों में एचके 94, शुभ्रा, उज्ज्वल, जेजीके 1, पूसा, शुभ्रा 8128 व फूले जी 0517 खास हैं. चने की इन किस्मों की बोआई के लिए 1 एकड़ खेत के लिए 35-40 किलोग्राम या 1 हेक्टेयर खेत के लिए 75-100 किलोग्राम बीज की जरूरत रहती है.

बीजोपचार या बीजशोधन : आमतौर पर सभी दलहनी फसलों का बीजोपचार करना जरूरी होता है. दलहनी फसलों में राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार किए जाने से पौधों की जड़ों में अधिक गाठें होती हैं.

नाइट्रोजन के स्थिरीकरण व फास्फोरस की मौजूदगी बढ़ाने के लिए अलगअलग राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल किया जाता है. चने की 10 किलोग्राम मात्रा पर 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर का इस्तेमाल बीजोपचार के लिए किया जाता है. बीजोपचार के लिए चने की 10 किलोग्राम मात्रा को बाल्टी में ले कर उस में 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर को डाल कर अच्छी तरह से मिला लेते हैं. इस के बाद उपचारित बीजों को छाया में सुखाया जाता है. कभी भी उपचारित बीजों को धूप में न सुखाएं.

चने की फसल को बीजजनित रोगों से बचाने के लिए 2 ग्राम थीरम या 3 ग्राम मैंकोजेब या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा या 2 ग्राम थीरम के साथ 1 ग्राम कारबेंडाजिल की मात्रा को प्रति किलोग्राम की दर से बीजों में मिला कर बीज प्रोसेसिंग करना चाहिए. इस से चने की फसल को उकठा व जड़ गलन की बीमारी से बचाया जा सकता है.

खाद व उर्वरक : वैसे तो चने की खेती के लिए ज्यादा खाद व उर्वरक की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन चने की अधिक पैदावार लेने के लिए सही व संतुलित मात्रा में पोषक तत्त्वों की आपूर्ति करना भी जरूरी हो जाता है. चने की सभी किस्मों के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम गंधक का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के समय लाइन में करना चाहिए. चने में प्रोटीन काफी होता है, इसलिए मिट्टी से नाइट्रोजन का हृस होता है, जिस की भरपाई चने के पौधों में स्थित राइजोवियम गांठों से हो जाती है.

सिंचाई : चने की पहली सिंचाई बोआई के 45 से 60 दिनों बाद यानी फसल में फूल आने से पहले करनी चाहिए, जबकि दूसरी सिंचाई फली में दाना बनने के समय करनी सही रहती है. चने की फसल में जब फूल लगते हैं उस दौरान सिंचाई नहीं करनी चाहिए, ऐसा करने से चने की फसल में आने वाली फलियां झड़ जाती हैं व खरपतवार की मात्रा में बढ़ोतरी होती है.

चने की सिंचाई करते समय ध्यान रखें कि फसल में ज्यादा पानी न लगने पाए, क्योंकि चने की जड़ों में मौजूद राइजोबियम जीवाणुओं की क्रियाशीलता आक्सीजन के अभाव में ढीली पड़ जाती है.

इस का असर पौधों पर साफ दिखता है, इस से पौधे पीले पड़ जाते हैं और उन में फलियां व दाने कम बनने से पैदावार खुद ही घट जाती है. चने की फसल में उकठा रोग गहरी सिंचाई से ही लगता है. इसलिए जल निकासी जरूरी है.

Gram Cultivation

खरपतपवार रोकथाम : कृषि विज्ञान केंद्र, बंजरिया में जानकार राघवेंद्र विक्रम सिंह का मानना है कि चने की खेती में खरपतवार से न केवल पैदावार घटने की आशंका रहती है, बल्कि इस की विशेषता में भी कमी आ जाती है. चने की फसल में खरपतवार उगने से पैदावार में 50 से 60 फीसदी तक की कमी आती है. यदि समय रहते चने की फसल से खरपतवार को खत्म किया जाए तो पैदावार में 22 से 63 फीसदी की बढ़ोतरी हो जाएगी. चने की बोआई के 3 दिन के अंदर एलाक्लोर 3 से 4 लीटर या पैंडामेथालीन ढाई से 3 लीटर या मेंटोलाक्लोर 1 से 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में छिड़कना चाहिए. इन रसायनों के इस्तेमाल से चौड़ी व सकरी पत्ती के खरपतवार खत्म हो जाते हैं.

बीमारियों की रोकथाम : चने की फसल में आमतौर पर उकठा, मूल विगलन, ग्रीवा गलन, तना गलन, एस्कोकाब्लाइट रोग अधिकतर देखा गया है. यदि बोआई से पहले बीज साफ किया गया है तो इन बीमारियों का असर पौधों पर नहीं होता है. अगर फसल में उकठा रोग दिखाई पड़े तो रोगी पौधों को अलग कर खत्म कर देना चाहिए, जिस से फसल में उकठा के फैलने की आशंका कम हो जाती है. फसल को उकठा रोग से बचाने के लिए उकठारोधी किस्मों का इस्तेमाल करना चाहिए. इस की रोकथाम के लिए कापर आक्सीक्लोराइड की ढाई ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बना कर 2 से 3 बार छिड़काव करना चाहिए.

Gram Cultivation

चने के खास कीट व उन की रोकथाम : चने में आमतौर पर कटुआ कीट का ज्यादा आक्रमण होता है, जो ढाई सेंटीमीटर लंबा मटमैले भूरे रंग का पतंगा जैसा होता है. यह कीट रात को पौधों को जड़ से काट कर जमीन पर गिरा देता है. इस के अलावा फलीबेधक कीट जिसे प्रौढ़ पतंगा भी कहते हैं, ये शुरू में मुलायम पत्तियों को खाते हैं और फिर फलियों में दानों में छेद कर उन्हें खा जाते हैं. फलीबेधक कीट की एक सूड़ी 30-40 फलियों को प्रभावित करती है.

कूबड़ कीड़ा : चने की फसल को कूबड़ कीड़े से भी ज्यादा नुकसान होता है. ये कीड़े फसल की पत्तियों, कलियों व फलों को खा कर नुकसान पहुंचाते हैं. इन की रोकथाम के लिए क्यूनालफास 25 ईसी का डेढ़ से 2 लीटर की मात्रा का छिड़काव करना चाहिए.

कटाई व भंडारण : चने की फसल की कटाई के बाद उस के भंडारण पर खास ध्यान देना चाहिए, क्योंकि दालों के भंडारण में ढोरा या घुन का हमला ज्यादा देखा गया है. इस के बचाव के लिए दालें धूप में सुखा कर नमी रहित कर देनी चाहिए. उस के बाद अल्यूमिनियम फास्फाइड की 2 गोलियां प्रति टन की दर से इस्तेमाल में लानी चाहिए. चने की अच्छी खेती की जानकारी के लिए

कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया, बस्ती के कृषि जानकार राघवेंद्र विक्रम सिंह के मोबाइल नंबर 9415670596 पर संपर्क किया जा सकता है.

सहजन (Drumstick) उगाने की वैज्ञानिक विधि

सहजन का वानस्पतिक नाम मोरिंगाऔलीफेरा है, इसे अंगरेजी में ड्रम स्टिक कहते हैं. यह उत्तर भारत के हिमालय क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से उगता है. इसे कोमल पत्तियों, फूलों व फलियों के लिए उगाया जाता है. भारत में इसे कई नामों से पुकारा जाता है, जैसे मोरिंगा, मोरिगाई, मुनगा व हार्स रेडिस वगैरह.

यह एक बहुवर्षीय पेड़ है, जिस की पत्तियों, फूलों व फलों को सब्जी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व झारखंड में यह काफी मशहूर है. इस की व्यावसायिक खेती कुछ इलाकों में ही की जाती है. ज्यादातर जगहों में यह घरों के बगीचों में ही उगाया जाता है.

सहजन की फलियों को सब्जी, अचार या सांभर बनाने में इस्तेमाल किया जाता है. इस के फूलों और पत्तियों से सब्जी बनाई जाती है. इस की सब्जी पौष्टिक और औषधीय गुणों से भरपूर होती है. आयुर्वेद के मुताबिक सहजन इनसानों में होने वाले तकरीबन 300 रोगों के इलाज में लाभदायक है.

राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद के अनुसार इस में काफी मात्रा में विटामिन, खनिज तत्त्व, वसा व प्रोटीन पाए जाते हैं. सहजन की पत्तियों व फलियों में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, कैल्शियम, कैरोटीन व विटामिन ‘सी’ पाए जाते हैं. इस में गाजर के मुकाबले 4 गुना ज्यादा विटामिन, संतरे के मुकाबले में 7 गुना ज्यादा विटामिन ‘सी’, दूध के मुकाबले में 4 गुना ज्यादा कैल्शियम, केले से 3 गुना ज्यादा पोटाश और दही से दोगुना ज्यादा प्रोटीन होता है.

मलेशिया में सहजन के बीजों को मूंगफली की तरह खाया जाता है. इस के बीजों से तेल निकाला जाता है, जिस का इस्तेमाल दवाओं में किया जाता है. आधुनिक खोजों से पता चला है कि सहजन से भूमिगत पानी साफ होता है. सहजन के इस्तेमाल व बाजार की मांग के लिहाज से इस की खेती काफी फायदे वाली साबित होती है.

सहजन जल्दी बढ़ने वाला पेड़ होता है. इस का पेड़ तकरीबन 5 मीटर ऊंचा होता है. इस में खुशबूदार फूल फरवरीमार्च में खिलते हैं. इस की फलियां करीब 25 सेंटीमीटर लंबी होती हैं.

पौधे तैयार करना : आमतौर पर सहजन के पौधे इस की टहनियों को काट कर लगा देने से तैयार हो जाते हैं. वैसे बीज से भी पौधे तैयार किए जाते हैं.

जलवायु : सहजन के सही विकास के लिए तकरीबन 25 डिगरी सेल्सियस तापमान सब से अच्छा रहता है. 40 डिगरी से ज्यादा तापमान इस पर खराब असर डालता है. फूल निकलने के दौरान बहुत कम या बहुत ज्यादा तापमान होने पर फूल गिर जाते हैं.

मिट्टी : सहजन को सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है. सही जल निकास वाली रेतीली दोमट, लाल व काली मिट्टी जिस का पीएच मान 6 से 7.5 के बीच हो सहजन की खेती के लिए सही मानी जाती है.

किस्में : जाफना, कुलानुर, धनराज, पाल मुरीगाई, ऐजहपानामा मुरिंगा, चाबक बेरी मुरीगाई, केम मुरीगाई व केट्टू मुरीगाई वगैरह इस की खास किस्में हैं. इस की उम्दा संकर किस्में हैं पीकेएम 1 व पीकेएम 2.

पौधे लगाना : सहजन की बहुवर्षीय किस्मों के पौधे कलम द्वारा तैयार किए जाते हैं. इस के लिए ढाईढाई मीटर की दूरी पर 45×45×45 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे बना कर उन में तकरीबन 15 किलोग्राम कंपोस्ट खाद मिट्टी में मिला कर भरें. चुनी हुई कलमों या पौधों को जून से अक्तूबर के बीच गड्ढों में रोप देते हैं.

इस की 1 वर्षीय किस्मों के 625 ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से नवंबरदिसंबर या जूनजुलाई के दौरान नर्सरी में बोए जाते हैं. पौधे 1 महीने में रोपाई लायक हो जाते हैं. हर गड्ढे में 2 बीज सीधे बो दिए जाते हैं. 1 हफ्ते में बीजों का अंकुरण हो जाता है.

खाद और उर्वरक : रोपाई के 3 महीने बाद हर पौधे को तकरीबन 40 ग्राम यूरिया, 100 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 50 ग्राम म्यूरेट आफ पोटाश देनी चाहिए. रोपाई के 6 महीने बाद हर पौधे को तकरीबन 250 ग्राम यूरिया व 30 किलोग्राम कंपोस्ट खाद देनी चाहिए.

काटछांट : समयसमय पर सहजन के पेड़ों की कांटछांट जरूरी है. तकरीबन 75 सेंटीमीटर की ऊंचाई पर मुख्य तने को काट देना चाहिए ताकि पेड़ की ऊंचाई सीमित रहे. फलों की तोड़ाई के बाद कांटछांट करनी चाहिए. छंटाई के 6 महीने बाद पेड़ दोबारा फल देना शुरू कर देते हैं.

खरपतवारों की रोकथाम : रोपाई के पहले 2 महीनों के दौरान खेत में खरपतवार नहीं रहने चाहिए. रोपाई के बाद पहले 3 सालों तक सहजन के पेड़ों के बीच मिर्च, शिमला मिर्च, बैगन, टमाटर, चना, मटर, कपास व दूसरी सब्जियां उगानी चाहिए, ताकि अलग से आमदनी होती रहे. उस के बाद अदरक व जिमीकंद वगैरह की खेती करनी चाहिए. इस से खेत में मिट्टी, नमी, पोषक तत्त्व, व खरपतवारों का प्रबंधन भी हो जाता है.

सिंचाई : रोपाई या बोआई के बाद 1 महीने तक सिंचाई का खास खयाल रखना चाहिए. फिर मौसम के मुताबिक सिंचाई करते रहना चाहिए.

कीड़ों की रोकथाम : सहजन में पत्ती खाने वाले पिल्लू व फल मक्खी का हमला होता है. इन का प्रकोप बरसात के मौसम में होता है.

इन की रोकथाम के लिए 0.2 फीसदी मैलाथियान का छिड़काव करना चाहिए. यदि मैलाथियान न हो, तो 0.15 फीसदी मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करना चाहिए. फलों की तोड़ाई से 1 हफ्ते पहले कोई छिड़काव नहीं करना चाहिए.

रोग नियंत्रण

उकटा रोग : सहजन के पौधों पर इस रोग का हमला अकसर होता है. इस की रोकथाम के लिए रोपाई के बाद 0.2 फीसदी कार्बंडाजिम के घोल का छिड़काव करना चाहिए.

उपज : 1 वर्षीय किस्मों की छठी गांठ से ही फल बनने शुरू हो जाते हैं. इस की अनुमानित उपज 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है.

औषधीय इस्तेमाल

पाचनशक्ति : सहजन की जड़ के 10 मिलीलीटर रस में 2 ग्राम सोंठ डाल कर सुबहशाम पीने से पाचनशक्ति बेहतर होती है.

उदर शूल: सहजन की 100 ग्राम छाल में 5 ग्राम हींग डाल कर उस में 20 ग्राम सोंठ मिला कर जल के साथ पीस कर 1-1 ग्राम की गोलियां बना लें. इन में से 1-1 गोली दिन में 2-3 बार खाने से उदर शूल, अफारा व गैस की तकलीफ ठीक हो जाती है.

मंदाग्नि : सहजन की ताजी जड़, सरसों और अदरक को बराबर मात्रा में पीस कर 1-1 ग्राम की गोलियां  बना कर रख लें. दिन में 2-2 गोलियां सुबहशाम खाने से मंदाग्नि और तिल्ली में लाभ होता है.

दिमागी बुखार : सहजन की छाल को पानी में घिस कर इस की 2 बूंदें नाक में डालने से दिमागी बुखार ठीक हो जाता है.

सांस के रोग : सहजन की जड़ का रस और अदरक का रस मिला कर उस की 10-15 मिलीलीटर मात्रा रोजाना सुबहशाम पीने से सांस के रोग ठीक हो जाते हैं.

गठिया : सहजन की जड़ को अदरक व सरसों के साथ पीस कर लेप करने से गठिया ठीक हो जाता है. सहजन के गोंद का लेप करने से भी गठिया की सूजन ठीक हो जाती है.

चोट और मोच के दर्द : सहजन की पत्तियों को सरसों के तेल के साथ पीस कर चोट व मोच पर लेप कर के धूप में बैठने से उन के दर्द ठीक हो जाते हैं.

कान के नीचे की सूजन : सहजन की छाल और राई को पीस कर लेप करने से कान के नीचे की सूजन ठीक हो जाती है.

घुटनों का पुराना दर्द : सहजन के पत्तों में बराबर मात्रा में सरसों का तेल मिला कर उसे पीस कर कुनकुना कर के लेप करने से घुटनों का पुराना दर्द ठीक हो जाता है.

वात की तकलीफ : सहजन के पत्तों को पानी के साथ पीस कर कुनकुना कर के लेप करने से वात की तकलीफ ठीक हो जाती है.

यकृत कैंसर : सहजन की 20 ग्राम छाल का काढ़ा बना कर, आरोग्य वर्धिनी 2 गोलियों के साथ दिन में 3 बार इस्तेमाल करने से यकृत कैंसर में फायदा होता है.

दाद : सहजन की जड़ की छाल पानी में घिस कर लेप करने से दाद ठीक हो जाता है.

बुखार : सहजन की 20 ग्राम ताजी जड़ को 100 मिलीलीटर पानी में उबाल कर पीने से बुखार ठीक हो जाता है.

स्नायु (नाड़ी) रोग : सहजन की जड़ की छाल को पीस कर लेप करने से स्नायु रोग ठीक हो जाता है.

सिर दर्द : सहजन की जड़ के रस में बराबर मात्रा में गुड़ मिला कर 1-1 बूंद नाक में डालने से सिर दर्द ठीक हो जाता है.

आंखों के रोग : सहजन के पत्तों के रस में बराबर मात्रा में शहद मिला कर उस की 2-2 बूंदें आंखों में डालने से आंखों के रोगों में लाभ होता है.

दांतों का सड़ना : सहजन की पत्तियों को मुंह में रखने से दांतों का सड़ना रुक जाता है.

कुष्ठ रोग : सहजन की फलियों की सब्जी खाने से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता है.

कुत्ते के काटने पर : सहजन की पत्तियों, लहसुन, हलदी, नमक और कालीमिर्च को बराबर मात्रा में ले कर पीसें. फिर उसे कुत्ते के काटने वाली जगह पर लगाएं. इस से काफी फायदा होता है.

वीर्य में इजाफा : सहजन के फूलों को दूध में उबाल कर पीने से वीर्य में इजाफा होता है.

गठिया बेसन भुजिया चटपटी मसालेदार

बेसन से बनी गठिया गुजराती नमकीन है. जब इसे बेसन के सेव के साथ मिला दिया जाता है, तो यह बहुत स्वादिष्ठ हो जाती है.

कई जगहों पर गठिया नमकीन का इस्तेमाल चाट बनाने में भी किया जाता है. गठिया नमकीन पहले गुजरात में ही बनती थी. अब यह राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में भी बनने लगी है.

मध्य प्रदेश का इंदौर तरहतरह की नमकीनों के लिए मशहूर है. गठिया नमकीन यहां सब से ज्यादा तैयार होने वाली नमकीन है. गुजराती गठिया ज्यादा मसालेदार नहीं होती. यह खाने में मुलायम होती है. राजस्थान में तैयार होने वाली गठिया नमकीन तीखी और मसालेदार होती है.

बड़ी कंपनियों के अलावा अब नमकीन का छोटा कारोबार करने वाले भी गठिया नमकीन बनाने लगे हैं. गठिया नमकीन बनाने वालों का कहना है कि यह खराब नहीं होती. ऐसे में इसे बनाने और बेचने का काम सरल होता है. नमकीन का कारोबार करने वाले दिनेश कुमार कहते हैं, ‘गठिया और बेसन भुजिया को एकसाथ मिलाने से इन का जायका बढ़ जाता है.

गठिया भुजिया बनाने का तरीका

सामग्री : आधा किलो बेसन, 1 चम्मच अजवायन, आधा चम्मच लाल मिर्च पाउडर, आधा चम्मच बेकिंग सोडा, 100 ग्राम तेल, स्वादानुदार नमक, 2 कप तेल तलने के लिए.

विधि : सब से पहले बेसन को छान लें. उस में सोडा, अजवायन, लालमिर्च पाउडर और नमक डाल कर मिलाएं. फिर बेसन में थोड़ा तेल डाल कर दोनों हाथों से रगड़ कर मिलाएं. इस के बाद बेसन में थोड़ाथोड़ा पानी डाल कर गूंध लें. बेसन गूंधते वक्त खयाल रखें कि वह न ज्यादा सख्त रहे, न ही बहुत नरम हो. फिर हाथों में तेल लगा कर गुंधे हुए बेसन पर लगाएं और उसे कुछ देर के लिए ढक कर रख दें. अब गठिया तलने के लिए गैस पर कड़ाही में तेल गरम करें. बेसन को 2 हिस्सों में बांट कर लंबा कर लें. अब इसे नमकीन बनाने वाली मशीन में डाल कर बड़े छेद वाला सांचा इस्तेमाल करें. गैस की आंच को मध्यम करें और मशीन को दबाते हुए तेल में गठिया के लच्छे डाल कर तलें.

गठिया को सुनहरा होने तक तलें. अब प्लेट में टिश्यू पेपर लगाएं और उस पर तले हुए गठिया निकाल लें. इसी तरह बचे हुए बेसन से बाकी के गठिया बनाएं. तलने के बाद लच्छे छोटे टुकड़ों में तोड़ लें. इसी तरह से बेसन की भुजिया भी बनती है. गठिया और बेसन की भुजिया में यह अंतर होता है कि दोनों को बनाने के लिए अलगअलग आकार की छेद वाली जाली मशीन में लगानी होती है. गठिया के लिए बड़े छेद वाली जाली का इस्तेमाल होता है, जबकि भुजिया बनाने के लिए महीन छेद वाली जाली का इस्तेमाल किया जाता है. गठिया और बेसन की भुजिया को एकसाथ मिलाने से नमकीन की अलग किस्म तैयार हो जाती है.

गठिया चाट

इंदौर की खास नमकीन डिश है गठिया चाट. इसे खा कर मुंह का स्वाद सुधर जाता है. इस डिश को बनाने में बहुत कम समय लगता है.

विधि : गठिया चाट बनाने के लिए मोटे गठियों को एक बर्तन में डालें. अब इस में थोड़ी सी पिसी चीनी डालें और स्वाद के अनुसार कालानमक भी डाल दें. फिर इस में नीबू का रस डालें और इन सभी को अच्छी तरह मिलाएं. इस मिश्रण को सर्विंग प्लेट में रख कर उस पर लंबे कटे प्याज और टमाटर डालें. एक बार फिर से नीबू निचोड़ दें. इस पर चटपटा चाट मसाला डालें. अंत में धनिया बुरक कर चटपटी गठिया चाट पेश करें.

गाजर (Carrot) की खेती और बीज उत्पादन

गाजर का जड़ वाली सब्जियों में खास स्थान है. इसे देशभर में उगाया जाता है. उत्तर प्रदेश, असम, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब व हरियाणा प्रमुख गाजर उत्पादक राज्य हैं.

किस्में : गाजर की किस्मों को 2 भागों में बांटा है, एशियन व यूरोपीय. एशियन किस्म सालाना होती है. इस का आकार व रंग अलग होता है. इस का ऊपरी भाग चौड़ा होता है, जो नीचे की ओर पतला होता जाता है. यह लाल, पीले, नारंगी व बैंगनी रंग की होती है. यह उच्च तापमान को सहन करने वाली किस्म है. यूरोपीय किस्म आकार में छोटी, चिकनी और समान रूप से मोटी होती है. इस का रंग नारंगी होता है.

एशियन : इस किस्म से अधिक उपज मिलती है. इन से हलुआ, अचार, मुरब्बा, सब्जी, सलाद आदि बनाए जाते हैं. इन्हें सुखा कर बेमौसमी फलों का मजा लिया जाता है. खास एशियन किस्मों के खास लक्षणों की जानकारी नीचे दी गई है :

पूसा केसर : यह एक संकर किस्म है, जो 90 से 110 दिनों में तैयार होती है. इसे अगस्त से अक्तूबर के शुरू में बोया जाता है. इस की जड़ें गहरे लाल रंग की होती हैं. इस का मध्य भाग छोटा और हलके लाल रंग का होता है. प्रति हेक्टेयर यह 250-300 क्विंटल तक उपज देती है.

पूसा मेघाली : यह किस्म 110 से 120 दिनों बाद तैयार होती है. इस की जड़ें और गूदा नारंगी रंग का होता है. यह अगस्तसितंबर में बोने के लिए सही किस्म है. प्रति हेक्टेयर यह 250-300 क्विंटल उपज देती है.

सेलेक्शन 223 : यह किस्म महज 60 दिनों में तैयार हो जाती है और खेत में 90 दिनों तक अच्छी तरह रहती है. इस की जड़ें 15 से 18 सेंटीमीटर लंबी, नारंगी और खाने में स्वादिष्ठ होती हैं. इस प्रजाति की बोआई देर से की जा सकती है. इस की औसतन उपज 200 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है.

गाजर नंबर 29 : यह एक अगेती किस्म है. इस की जड़ें लाल और लंबी बढ़ने वाली होती हैं. इस का बीज मैदानी क्षेत्रों में आसानी से तैयार किया जाता है. इस प्रजाति की औसतन उपज 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

गाजर (Carrot)

यूरोपीय किस्में

पूसा यमदग्नि : यह अधिक उपज देने वाली किस्म है. यह किस्म 86 से 130 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें 15-20 सेंटीमीटर लंबी, हलकी, केसरिया रंग की आधी ठूंठ के आकार की होती हैं. यह किस्म तेजी से बढ़ती है. इस में कैरोटीन अधिक मात्रा में पाया जाता है. इस का गूदा केसरिया रंग का अच्छी खुशबू वाला कोमल और स्वादिष्ठ होता है. पूसा नयनज्योति भी एक अच्छी किस्म है.

नैनटिस : इस किस्म का ऊपरी भाग छोटा और हरी पत्तियों वाला होता है. इस की जड़ें 12 से 15 सेंटीमीटर लंबी, बेलनाकार और नारंगी रंग की होती हैं. फसल 90 से 110 दिनों में तैयार होती है. खाने में यह बेहद लजीज होती है और प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल तक उपज देती है. मध्य अक्तूबर से दिसंबर तक इस की बोआई की जाती है.

चैंटेन : यह किस्म 100 से 120 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें मोटी और गहरे लाल रंग की होती हैं. इस किस्म का बीज मैदानी क्षेत्रों में तैयार किया जाता है. प्रति हेक्टेयर यह 150 क्विंटल तक उपज देती है. इस किस्म को मध्य अक्तूबर से दिसंबर के शुरू तक बोया जा सकता है.

जैनो : यह किस्म 115 से 120 दिनों में तैयार होती है. इस की जड़ें करीब 15 सेंटीमीटर लंबी होती हैं. तमिलनाडु का नीलगिरि क्षेत्र इस किस्म को उगाने के लिए सही है.

इंप्रेटर : इस किस्म को संकरण से तैयार किया जाता है. यह मध्य से देर अवधि वाली किस्म है. इस का गूदा नारंगी रंग का होता है. यह अधिक उपज देने वाली किस्म है.

जलवायु : वैसे तो गाजर ठंडी जलवायु की फसल है, लेकिन इस की कुछ किस्में अधिक तापमान को भी सहन कर लेती हैं. जड़ों के रंग का विकास और उन की बढ़वार पर तापमान का प्रभाव पड़ता है.  10-15 डिगरी सेल्सियस तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है. लेकिन यूरोपीय किस्मों के लिए 4 से 6 हफ्ते तक 4.8 से 10 डिगरी सेल्सियस तापमान  होना चाहिए .

जमीन : गाजर के उत्पादन के लिए उचित जल निकास वाली गहरी, बलुई दोमट जमीन अच्छी मानी गई है. जमीन का पीएच मान साढे़ 6 होना चाहिए. अधिक क्षारीय या अधिक अम्लीय मिट्टी इस के सफल उत्पादन में बाधक मानी जाती है.

खेत की तैयारी : गाजर की अधिक उपज लेने के लिए खेत की तैयारी होना जरूरी है. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. इस के बाद 2-3 बार कल्टीवेटर या हैरो से जुताई करें. जुताई के बाद पाटा चलाएं.

खाद व उर्वरक : गाजर को आमतौर पर कम उपजाऊ व हलकी मिट्टी में उगाया जाता है. लिहाजा, खाद और उर्वरकों के इस्तेमाल से इस पर अच्छा प्रभाव पड़ता है. मिट्टी की जांच के बाद इन का इस्तेमाल करना फायदेमंद होता है. फसल को 25-30 टन गोबर की खाद के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 45 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देनी चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की आखिरी जुताई के समय खेत में मिला कर  पाटा चलाएं. उस के बाद बोआई करें. नाइट्रोजन की बची आधी मात्रा का बोआई के 40-45 दिनों बाद छिड़काव करें, जिस से पैदावार पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा.

बीजों की मात्रा : प्रति हेक्टेयर 5-6 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है. फसल को फफूंदी जनित रोगों से बचाने के लिए बीजों को बोने से पहले कार्बेंडाजिम 3 ग्राम पाउडर प्रति किलोग्राम बीज की दर से ले कर उस से उपचारित कर के बोना चाहिए. बीज को जल्दी अंकुरण के लिए 12 से 24 घंटे पानी में भिगो कर बोना चाहिए.

बोने का समय : गाजर की बोआई का समय इस बात पर निर्भर करता है कि उस की कौन सी किस्म उगानी है. उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में एशियाई किस्मों को अगस्त के आखिरी सप्ताह से अक्तूबर के पहले सप्ताह तक बोते हैं, जबकि यूरोपीय किस्मों की बोआई नवंबर में की जाती है. पर्वतीय इलाकों में बोआई मार्च से जून तक की जाती है. दक्षिण और मध्य भारत में बोआई जनवरीफरवरी, जूनजुलाई और अक्तूबरनवंबर में की जाती है.

बोने की विधि : गाजर की बोआई समतल क्यारियों व मेंड़ों पर की जाती है. इस की ज्यादाउपज लेने के लिए इसे मेंड़ों पर उगाना ठीक रहता है. लाइनों और पौधों की आपसी दूरी 45×7.5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. बीज को 1.5 सेंटीमीटर से अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए. गाजर की लगातार फसल लेने के लिए 10-15 दिनों बाद बोआई करनी चाहिए. गाजर का अंकुरण धीमी गति से होता है. अकसर 10-20 दिनों बाद अंकुरण होता है.

सिंचाई और जल निकास : बोआई के बाद मेंड़ों को तब तक नम रखना जरूरी है, जब तक कि बीजों का अंकुरण न हो जाए. इस के बाद 8-10 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. कम नमी के कारण उपज कम मिलती है, जबकि अधिक नमी से उपज में भारी कमी हो सकती है. लिहाजा, गाजर की सिंचाई पत्तियों के मुरझाने से पहले करनी चाहिए.

जल प्रबंधन पर दें ध्यान

सिंचाई करते समय यह ध्यान रहे कि सिंचाई पौधे में की जा रही है, न कि जमीन में. इस में सिंचाई की आधुनिक विधियां इस्तेमाल करें. करीब 3 दशकों में सिंचाई की सूक्ष्म प्रणाली से फसल के उत्पादन में पाया गया है कि औसतन अन्य पारंपरिक सिंचाई विधियों की तुलना में इस के द्वारा 50 से 60 फीसदी जल बचाया जा सकता है.

खेत में खरपतवार भी कम आते हैं. जिस तरह ड्रिपरों से बूंदबूंद जल दिया जाता है, उसी प्रकार रासायनिक उर्वरकों को भी सिंचाई में फर्टिलाइजर इंजेक्टर की मदद से फसलों को दिया जा सकता है.

ऐसी व्यवस्था के तहत उर्वरकों को कम मात्रा में कम अंतराल रख कर जल्दीजल्दी सिंचाई के साथ दिया जा सकता है.

खरपतवार नियंत्रण : गाजर की फसल के साथ उगे खरपतवार उस की बढ़वार व उपज पर खराब असर डालते हैं. लिहाजा, उन की रोकथाम समय पर करना जरूरी है. इस के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई करें. इस दौरान घने पौधों को उखाड़ दें, ताकि पौधों का विकास व बढ़वार अच्छी तरह हो सके. खरपतवारों की रोकथाम के लिए पेंडामेथलीन नामक खरपतवारनाशी की 3.3 लीटर मात्रा 800 से 1,000 लीटर पानी में घोल कर अंकुरण से पहले छिड़काव करें.

गाजर (Carrot)

कीड़ों की रोकथाम

पत्ती फुदका : इस कीट के वयस्क और निम्फ  दोनों ही पौधों का रस चूसते हैं. इस वजह से प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पर खराब असर पड़ता है. इस कीड़े की रोकथाम के लिए 0.05 फीसदी मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करना चाहिए.

कट वर्म : यह कीट रात के समय पौधों को आधार से काट देता है. इस की रोकथाम के लिए 0.1 फीसदी क्लोरोपाइरीफास के घोल से जमीन को अच्छी तरह भिगो दें.

गाजर की सुरसुरी : इस कीट के सफेद टांगरहित शिशु गाजर के ऊपरी हिस्से में सुरंग बना कर नुकसान पहुंचाते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एसएल 1 मिलीलीटर या डाइमेथोएट 30 ईसी 2 मिलीलीटर का छिड़काव करें.

जंग मक्खी : इस कीट के शिशु पौधों की जड़ों में सुरंग बनाते हैं, जिस से पौधे मर भी सकते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए क्लोरोपायरीफास 20 ईसी का 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से हलकी सिंचाई के साथ इस्तेमाल करें.

कंपोस्ट खाद : वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

आज वर्मी कंपोस्ट खाद बहुत सस्ती, सरल व खेतों के लिए काफी उपयोगी है. गोबर की खाद के लिए जहां भरपूर गोबर उपलब्ध नहीं हो पाता, वहीं दूसरी ओर गड्ढे खोद कर खाद बनाने में भी 6 महीने का समय लगता है. कूड़ाकरकट से बनने वाली कंपोस्ट खाद भी 4 महीने से पहले नहीं बन पाती है, जबकि वर्मी कंपोस्ट खाद 40 से 45 दिन में बन कर तैयार हो जाती है.

खेती के लिए जैविक खाद का इस्तेमाल काफी खास है. फसल पैदावार की नजर से मिट्टी एक सचेत और जीवंत माध्यम है. भूमि की उत्पादकता कूवत को ध्यान में रखते हुए उस का पालनपोषण अत्यंत जरूरी माना जाता है. अगर हमें रासायनिक खेती को छोड़ कर वर्मी खाद आधारित खेती में बदलना है तो मिट्टी के उपयोग को समझना जरूरी  है. जमीन हमें अनेक तरह के खाद्यान्न मुहैया करा कर हमारी मुफ्त सेवा करती है.

अत: जमीन भी हम से कुछ सेवा की अपेक्षा रखती है. खेतों में प्रति बीघा 100 या 250 मिलीलीटर की शीशी खाली करना ही भूमि की सेवा नहीं है. प्रति बीघा 2 से 3 टन जैविक खाद बना कर खेतों में डालना भूमि की सच्ची सेवा है. ऐसी ही एक जैविक खाद केंचुओं द्वारा निर्मित खाद है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में वर्मी कंपोस्ट के नाम से भी जाना जाता है.

सलाह

एक अच्छे खेत के लिए साल में कम  कम 2 बार 8 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से वर्मी कंपोस्ट का समान मात्रा में इस्तेमाल करना चाहिए. 2 से 3 साल के बाद जमीन की उर्वरता व संरचना देख कर वर्मी कंपोस्ट की मात्रा धीरेधीरे कुछ कम की जा सकती है.

कंपोस्ट खाद के इस्तेमाल से खेतों को सब से ज्यादा लाभ जैविक कार्बन से होता है. इस जैविक कार्बन को किसी भी औद्योगिक उत्पाद के रूप में तैयार नहीं किया जा सकता है. अत: गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट खाद के अलावा मिट्टी में इतनी ज्यादा मात्रा में जैविक कार्बन पहुंचाने का दूसरा कोई माध्यम नहीं है. जैसा कि हम जानते हैं कि मिट्टी में कार्बन से पौधों को ऊर्जा मिलती है.

पौधों की जड़ों व मिट्टी में उपस्थित अनेक प्रकार के जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण और न घुलने वाले फास्फोरस को घुलनशील फास्फोरस में बदल कर पौधों को मुहैया कराते हैं.

लेकिन कार्बन की कमी के कारण ये जीवाणु ठीक तरह से काम नहीं कर पाते. इसलिए जैविक कार्बन कृषि योग्य मिट्टी के लिए काफी खास तत्त्व माना जाता है. मिट्टी में कार्बन की कमी से सूक्ष्मजीवी सही तरह से सक्रिय नहीं हो पाते, जिस से मिट्टी में ह्मूमस का निर्माण नहीं हो पाता और उस की जलधारण कूवत कम हो जाती है.

मिट्टी में जैविक कार्बन का कितना महत्त्व है, इसे हम इस तरह समझ सकते हैं. यदि घर में 100 वाट का बल्ब लगाया जाए, लेकिन करंट 40 वाट जितना भी न हो तो 100 वाट की रोशनी हमें मिल ही नहीं सकती.

ठीक इसी तरह यदि मिट्टी में कई तरह के सूक्ष्म व पोषक तत्त्व मौजूद रहते हैं, लेकिन कार्बन यदि सही मात्रा में न हो तो पौधे इन तत्त्वों को सही तरह हासिल नहीं कर पाते और उन्हें इन पोषक व सूक्ष्म तत्त्वों की पूर्ति रासायनिक उत्पादों से करनी पड़ती है.

नतीजतन, सब से पहले तो फसल की लागत बढ़ जाती है, इस के बाद मिट्टी में मौजूद रासायनिक उत्पादों का कुछ हिस्सा ही पौधे ले पाते हैं और ज्यादा रासायनिक उत्पादों से  जमीन की संरचना व उर्वरता भी बिगड़ जाती है. मिट्टी में पौधों की संतुलित बढ़ोतरी के लिए 16 तरह के पोषक तत्त्व जरूरी बताए गए हैं, जिन में सब से पहला स्थान जैविक कार्बन का ही है. देश में मिट्टी को सोना बनाने की जो बात कही जाती  है वह मुख्य रूप से मिट्टी में जैविक कार्बन की उपस्थिति पर ही निर्भर करती है.

जमीन को भी खुराक की जरूरत होती है. उसे भूखा रख कर हम कब तक अन्न हासिल कर सकेंगे. रासायनिक उर्वरक जमीन का भोजन नहीं है, कार्बनिक पदार्थों व 16 तरह के पोषक तत्त्वों से युक्त गोबर या कंपोस्ट खाद ही जमीन का  भोजन है.

रासायनिक उर्वरक जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं. गोबर या कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल किए बिना जमीन में रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल करना हानिकारक होता है. अलगअलग फसलों में विभिन्न तरह की बीमारियों व कीटों के लिए कई तरह के रासायनिक उत्पाद बाजार में बिकते हैं. खड़ी फसल बचाने के लिए रासायनिक उत्पादों का इस्तेमाल कोई बुराई नहीं है, लेकिन रासायनिक उत्पादों के साथसाथ जैविक उत्पादों को भी ज्यादा से ज्यादा अहमियत देनी चाहिए.

देश में इतने सालों तक केवल रासायनिक खेती करने के बाद भी यदि हम जमीन से अनाज हासिल करते हैं तो इस का श्रेय हमारे पूर्वजों को जाता है, जिन्होंने युगों तक इस जमीन में जैविक खेती की वरना अमेरिका जैसा राष्ट्र केवल कुछ समय तक रासायनिक खेती कर के अपनी 12 करोड़ एकड़ कृषि लायक जमीन गंवा चुका है और अब अपने कृषि कार्यक्रम में रासायनिक उत्पादों के साथसाथ जैविक उत्पादों को भी काफी महत्त्व दे रहा है. वहीं दूसरी ओर जैविक खेती का जनक भारत केवल रासायनिक खेती के कुचक्र में दिनोदिन फंसता जा रहा है. यदि यही हालात रहे तो आने वाली पीढि़यों को कृषि योग्य जमीन के नाम पर रासायनिक झील व दलदल के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.

वर्तमान हालात में किसानों का रासायनिक उत्पादों का उपयोग किए बिना अधिकतम उपज लेना आसान नहीं है, लेकिन किसानों को कंपोस्ट खाद व अन्य जैविक उत्पादों का इस्तेमाल करने में किसी भी तरह की लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए.

अपने कृषि कार्यक्रम में जैविक खेती अपनाने पर किसानों का आर्थिक पहलू किसी भी तरह से कमजोर नहीं होगा, क्योंकि स्वास्थ्यप्रद जैविक खाद्य सामग्री हमेशा दोगुने दामों पर बिकती है और जमीन, जल व हवा भी प्रदूषणमुक्त रहते हैं.

देश में करोड़ों रुपए का शुद्ध पानी मिनरल वाटर की बोतलों में बिक सकता  है, तो जैविक खेती से उत्पन्न स्वास्थ्यप्रद खाद्य सामग्री भी ऊंचे दामों पर आसानी से बाजार में बिक सकती है.

पौधों के पोषण के लिए किसानों ने खुद पहल की और गोबर व गौमूत्र आधारित खादें तैयार कर इस्तेमाल कीं, जैसे अमृपानी, मटा खाद, हरी पत्तियों की तरल खाद, बायोगैस संयंत्र की स्लेरी खाद, सींग खाद आदि तरल और त्वरित खाद ने भी कमाल का काम कर दिखाया. प्रयोगशील किसानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व कुछ कर्मठ देशप्रेमी वैज्ञानिकों ने इस जैविक खेती पद्धति को कृषि विज्ञान में बदलना शुरू किया और खुद इस्तेमाल कर अनुकूल परिणाम हासिल कर दिखाया कि यह एक चिरस्थायी पद्धति है.

गेहूं, चना, मक्का, ज्वार, अरहर, मूंग, तिल, मूंगफली, कपास, सोयाबीन, फल, सब्जी, चरीचारा, सभी फसलें जैविक पद्धति से उपजा कर दिखा दिया कि बिना बाजारू कृषि उत्पादों के भी अच्छी खेती की जा सकती है.

खेती में कीट और बीमारी भी कभीकभी आती है, लेकिन जैविक कृषि पद्धति अपनाएंगे तो यह भी कम हो जाती है. गोमूत्र, पुरानी छाछ, हींग, मिर्च, लहसुन का मिश्रण, नीम का तेल, नीम, करंज, शरीफा, आईपोमिया, गाजर घास आदि पानी में घोल कर 15-20 दिन के अंतर से छिड़काव करने से कीट और बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है.

सूरन की खेती और उस के व्यंजन

सूरन एक जड़ वाली फसल है. इस का उपयोग सब्जी के अलावा अनेक तरह के व्यंजन बनाने के लिए भी किया जाता है. सेहत के नजरिए से भी यह काफी लाभकारी है. इस में पर्याप्त मात्रा में कार्बोहाइडे्ट्स, प्रोटीन, फाइबर, विटामिन बी 1, विटामिन बी 6, फोलिक एसिड, बीटा कैरोटीन जैसे पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं. बवासीर के अलावा कई अन्य समस्याओं में भी सूरन का सेवन बहुत फायदेमंद है.

इतना ही नहीं, सूरन के सेवन से जोड़ों का दर्द कम होता है, क्योंकि इस में एंटीइंफ्लेमेशन और दर्द कम करने वाले गुण मौजूद होते हैं. वजन घटाने में सहायक होने के साथसाथ, कब्ज, तनाव को सूरन दूर करता है. इस में बीटा कैरोटीन, एंटीऔक्सीडेंट इम्यूनिटी को मजबूत करने वाले गुण पाए जाते हैं.

प्राकृतिक रूप से उपलब्ध सूरन के घनकंदों में कैल्शियम आक्जेलेट नामक रसायन पाया जाता है, जिस के कारण खाने से गले में खुजली होती है, लेकिन वैज्ञानिकों ने नवीन उन्नतिशील किस्मों को विकसित किया है, जिस में कैल्शियम आक्जेलेट की मात्रा कम पाया जाता है. उन्नत किस्मों में गजेंद्र, कोवुर, संतरागाछी, नरेंद्र अगात आदि प्रमुख हैं.

मार्च से अप्रैल माह रोपण का सही समय है. आधा किलोग्राम से कम वजन का कंद नहीं रोपें, पंक्ति से पंक्ति और पौधे से पौधे की दूरी आधाआधा मीटर रखें. घनकंदों को लगाते समय प्रत्येक गड्ढे में 2-3 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद,18 ग्राम यूरिया, 38 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट एवं 15 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश का प्रयोग करना चाहिए. 32 से 40 क्विंटल कंद की प्रति एकड़ में आवश्यकता होती है. पैदावार 320 से 400 क्विंटल तक प्रति एकड़ की दर से होती है, जो प्रजाति, दूरी एवं लगाने के समय पर निर्भर है. 7-8 माह में खुदाई के लिए फसल तैयार हो जाती है. अंतःफसल के रूप में लोबिया, भिंडी ले सकते हैं. बगीचे में भी इस की खेती कर सकते है.

इस से बनने वाले विभिन्न पौष्टिक खाध्य पदार्थो के बारे में प्रो. सुमन प्रसाद मौर्य, अध्यक्ष, मानव विकास एवं परिवार अध्ययन आचार्य नरेंद्र देव कृषि ए्वं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, अयोध्या ने बताया कि सूरन को छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर और उबाल कर सब्जी या चोखा/भरता बनाया जाता है.

उबले हुए सूरन को चाट मसाला ,नीबू का रस, प्याज और धनिया के साथ मिला कर एक ताजगी भरी चाट बनाई जा सकती है. इसे टिक्की के रूप में भी प्रयोग कर सकते हैं. सूरन को कद्दूकस कर के घी में भून कर दूध, चीनी के साथ मेवा आदि डाल कर स्वादिष्ठ हलवा बनाया जाता है.

सूरन को कद्दूकस कर के बराबर नाप से लहसुन, हरी मिर्च को कूट कर मिलाएं. नमक और खटाई मिला कर धूप में पानी सूखने तक रखें. फिर सरसों का तेल गरम कर कुनकुना होने पर अचार में मिला दें. एक सप्ताह में तैयार होने पर इसे खाने के साथ खाया जा सकता है.

महिला किसान मालती मकोइया से मालामाल

भारत में आयुर्वेद का काफी पुराना इतिहास है. हमारे इर्दगिर्द न जाने कितनी जंगलीऔषधियां खेतखलिहानों, बागबगीचों व घर के गलियारे में लगी मिल जाएंगी. लेकिन जानकारी न होने के कारण हम उन्हें कभी तवज्जुह नहीं देते. यदि हमें इन दवाओं की जानकारी होती तो हमारी माली हालत में काफी सुधार होता.

हम एक ऐसी महिला किसान के बारे में बता रहे हैं, जिस ने औषधीय खेती के दम पर अपने साथसाथ इलाके के तमाम किसानों की जीवनशैली भी बदल दी है. मालती देवी औषधीय खेती मकोइया को अपना कर अपनी माली हालत में इजाफा कर आज मालामाल हो गई हैं. भारतीय वनस्पति मकोइया औषधीय गुणों से भरपूर है. खुद उगने और औषधीय होने की वजह से देश में इस की खेती की जाने लगी है.

उत्तर प्रदेश के हरदोई जनपद के कमलापुर गांव की मालती देवी के मन में शुरू से ही कुछ करने की इच्छा थी. मालती देवी बताती हैं कि अपने मायके में किसी को मकोइया की खेती करते देख मैं ने भी इस के बारे में सोचा और ठान लिया कि मैं भी मकोइया की खेती करूंगी. इस के लिए सब  पहले जमीन के बारे में सोचा.

बाजार की स्थिति, पूंजी, मसलन, तैयार माल कहां ले जाया जाए और किस दर से बिकेगा, पूरी जानकारी लेने के बाद इस की खेती पर विचार किया. मुझे लगा कि अन्य फसलों के मुकाबले मकोइया कम समय की सब से अच्छी नकदी फसल हो सकती है. मजबूत फैसले और अटूट विश्वास के साथ 500 ग्राम बीज मैं ने वहीं से लिए, फसल बोई और अच्छा लाभ कमाया.

मकोइया के गुणों के बारे में लखीमपुर जिला मुख्यालय पर हर्बल चिकित्सा पद्धति के जानेमाने चिकित्सक वीबी धुरिया बताते हैं कि जंगली औषधि मकोइया आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथ, एलोपैथ भारत में अलगअलग चिकित्सा विधियों में इस्तेमाल होती है. मकोइया का पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है, जिस में किडनी रोग, गुर्दों का सिकुड़ जाना, लिवर का छोटा होना, पीलिया, खून की कमी, गुर्दों के काम न करने की स्थिति में चमत्कारी प्रभाव देखे गए हैं.

खेत की तैयारी और बोजाई : खेत की जुताई कर, खरपतवार हटा कर, भुरभुरी मिट्टी में सड़ी गोबर की खाद संतुलित मात्रा में मिलाते  हैं. 1 बीघे खेत के लिए 100 ग्राम बीज की जरूरत होती है. सही नमी होने पर पौध तैयार करने के लिए बिजाई करते हैं.

रोपण विधि : बोआई के करीब 30 दिन के भीतर पौध रोपण के लिए तैयार हो जाती है. रोपण लाइन से लाइन की दूरी डेढ़ फुट सही रहती  है.

सही समय : अक्तूबर व नवंबर पौधरोपण के लिए सही है.

पैदावार : मकोइया किसान जसवंत बताते हैं कि 1 एकड़ खेत में 5 से 7 क्विंटल दाने निकलते हैं. जितने दाने निकलते हैं उतने ही डंठल निकलते हैं, जो समान दर से बाजार में बिकते हैं.

रखरखाव : रोपण के बाद समयसमय पर निराईगुड़ाई करनी पड़ती है, जिस से खरपतवार फसल को प्रभावित न कर सके. साथ ही मकोइया की खेती में जैविक खादों का इस्तेमाल काफी लाभकारी होता है.

5 से 6 महीने में फसल पक कर तैयार हो जाती है. फसल कटाई के बाद सुखाई जाती है. इसे तार से बुनी चारपाई पर डाल कर पतली छड़ी से पीटते हैं, जिस से उस का दाना नीचे गिर जाता है. इस प्रक्रिया से डंठल अलग हो जाते हैं. फिर दाने और डंठल अलग से सुखाए जाते हैं और फसल बाजार में बेचने के लिए तैयार हो जाती है.

हालांकि बाजार भाव में काफी

उतारचढ़ाव रहता है फिर भी कम समय में यह नकदी फसलों में सब से लाभकारी फसल साबित हो रही?है.

लखनऊ की शहादतगंज की औषधीय मंडी में ले जा कर किसान इसे बेच सकते?हैं. आज इलाके में तकरीबन 90 एकड़ में खेती होती है. कम समय की फसल होने के कारण आसपास के गांव के किसान भी इसे अपना रहे?हैं. वहीं मालती देवी मकोइया के बल पर मालामाल हो गई हैं.

सिंचाई एवं जल प्रबंधन परियोजना की बैठक

उदयपुर : 24 अक्तूबर, 2024. महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय के सभागार में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् की अनुसंधान परियोजनाओं की मध्य एवं पश्चिमी क्षेत्र की दोदिवसीय समीक्षा दल बैठक का शुभारंभ हुआ. इस बैठक में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की सिंचाई जल प्रबंधन परियोजना की पांचवर्षीय कार्यों की समीक्षा की गई, जिस में देश के 7 विभिन्न विश्वविद्यालयों एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केंद्र के वैज्ञानिक अपने कार्यों की प्रगति की समीक्षा के लिए प्रतिवेदन प्रस्तुत किया.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक, कुलपति, मप्रकृप्रौविवि, उदयपुर ने अपना संदेश साझा करते हुए बताया कि पंचवर्षीय समीक्षा दल बैठक अनुसंधान कार्यों के मूल्यांकन एवं समीक्षा हेतु एक अतिमहत्वपूर्ण बैठक होती है. इस उच्चस्तरीय समीक्षा दल के सदस्य काफी अनुभवी, पूर्व कुलपति एवं पूर्व निदेशक व अधिष्ठाता स्तर के अधिकारी होते हैं. समीक्षा दल की बैठक में विगत 5 सालों के अनुसंधान कार्यों की समीक्षा की जाती है और आने वाले समय में अनुसंधान कार्य को दिशा प्रदान की जाती है.

उन्होंने कहा कि मेवाड़ की ख्याति महाराणा प्रताप के साथसाथ उच्च कोटि के जल संचयन, संरक्षण एवं प्रबंधन तकनीक से है, जिस का उल्लेख मेवाड़ ऐतिहासिक लेखक चक्रपाणी मिश्रा ने अपने ग्रंथ विश्व वल्लभ में किया है.

कार्यक्रम एवं समीक्षा दल के अध्यक्ष डा. वीएन शारदा, पूर्व निदेशक, भारतीय जल प्रबंधन संस्थान, भुवनेश्वर एवं भूतपूर्व सदस्य एएसआरबी ने सिंचाई जल की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए विभिन्न नदी, नहर एवं जलाशयों के संयुक्त अनुसंधान की महती जरूरत के बारे में बताया. उन्होंने आईडब्ल्यूएम पर एआईसीआरपी के उद्देश्यों को फिर से तैयार करने और कृषि पारिस्थितिकीय क्षेत्रों के आधार पर काम को सिंक्रनाइज करने का सुझाव दिया. सिंचाई जल प्रबंधन के सभी एआईसीआरपी केंद्रों को अपने कृषि पारिस्थितिकीय क्षेत्रों में समस्याओं की पहचान करनी चाहिए और फिर विषयों के आधार पर प्रयोग की योजना बनानी चाहिए. प्रयोगों या परियोजनाओं की योजना बनाते या तैयार करते समय कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्र के संबंधित केंद्र की सिंचाई और जल संसाधनों के दशकवार आधारभूत डेटा की आवश्यकता होगी.

उन्होंने यह भी बताया कि प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता कम हो रही है, इसलिए उपलब्ध पानी का विवेकपूर्ण उपयोग और विभिन्न क्षेत्रों के बीच पानी का वितरण बहुत महत्वपूर्ण है.

डा. अरविन्द वर्मा, अनुसंधान निदेशक ने समीक्षा दल के सदस्यों एवं विभिन्न अनुसंधान केंद्रों से पधारे हुए परियोजना प्रभारियों एवं वैज्ञानिकों का स्वागत करते हुए कहा कि कृषि के लिए जल एक महत्वपूर्ण इनपुट है. इस के राजस्थान के परिपेक्ष में विवेकपूर्ण उपयोग के बारे में विस्तार से बताया. सिंचाई जल प्रबंधन (आईडब्ल्यूएम) परियोजना द्वारा तैयार किया गया वाटर बजट राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया.

अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा ने राजस्थान के परिपेक्ष में परियोजना की उपलब्धता को साझा किया एवं जल प्रबंधन पर किसान उपयोगी सिफारिशों की उपयोगिता एवं फसल जल उपलब्धता पर बताया. साथ ही उन्होंने बताया कि परियोजना के प्रभारी डा. पीके सिंह ने अनुसंधान आलेख को आस्ट्रेलिया में पढ़ा और डा. केके यादव ने आस्ट्रेलिया एवं वियतनाम में अनुसंधान आलेखों को पढ़ा.

परियोजना के वैज्ञानिक डा. मनजीत सिंह को परियोजना के अंतर्गत छाली गांव में एनिकट निर्माण के लिए उपराष्ट्रपति से सेगी अवार्ड प्राप्त हुआ.

डा. एसएन पांडा, सदस्य, क्यूआरटी ने अपने परिचयात्मक भाषण में कहा कि पानी की गुणवत्ता में गिरावट के साथ प्राकृतिक संसाधन तेजी से घट रहे हैं, जो आजकल एक गंभीर चिंता का विषय है. उन्होंने सुझाव दिया कि सतही जल और भूजल संसाधनों से संबंधित समस्याओं को अलगथलग करने के बजाय समग्रता में निबटाया जाना चाहिए.

उन्होंने जल संसाधन प्रबंधन में कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मशीन लर्निंग और सैंसर के अनुप्रयोग पर भी जोर दिया. उन्होंने जोन और क्षेत्र के अनुसार समस्याओं की पहचान करने का भी सुझाव दिया.

डा. पीके सिंह, पूर्व अधिष्ठाता एवं परियोजना प्रभारी, सिंचाई जल प्रबंधन ने बताया कि यहां से विकसित प्लास्टिक लाइनिंग पौंड की अनुशंसा राष्ट्रपति द्वारा की गई और इस को देश के सभी कृषि विज्ञान केंद्रों पर लागू करने की सिफारिश की गई.

इस अवसर पर मध्य एवं पश्चिमी क्षेत्र में संचालित परियोजनाओं के परियोजना समन्वयकों ने अपनी अनुसंधान परियोजनाओं का संक्षिप्त प्रतिवेदन प्रस्तुत किया. कार्यक्रम के दौरान अतिथियों द्वारा भूमि जल एटलस एवं दो तकनीकी बुलैटिन का विमोचन किया गया. डा. केके यादव, विभागाध्यक्ष एवं परियोजना प्रभारी ने पधारे हुए अधिकारियों एवं वैज्ञानिकों का धन्यवाद प्रेषित किया. कार्यक्रम का संचालन डा. एससी मीणा, आचार्य, मृदा विज्ञान विभाग ने किया.

सर्दी की गुलाबी फसल शलगम (Turnip)

शलगम जड़ वाली हरी फसल है. इसे ठंडे मौसम में हरी सब्जी के रूप उगाया व इस्तेमाल किया जाता है. शलगम का बड़ा साइज होने पर इस का अचार भी बनाया जाता है. ठंडे मौसम की फसल होने से कम तापमान पर भी ज्यादा स्वाद होता है. बोआई के 20-25 दिनों के बाद से ही शलगम को साग के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

शलगम की जड़ों व पत्तियों में ज्यादा पोषक तत्त्व पाए जाते हैं. इस से ज्यादा मात्रा में कैल्शियम और विटामिन ‘सी’ मिलता है. साथ ही इस में अन्य पोषक तत्त्व फास्फोरस, कार्बोहाइड्रेट्स वगैरह भी भरपूर मात्रा में मिलते हैं.

शलगम की फसल को सभी तरह की जमीन में उगाया जा सकता है. लेकिन अच्छी पैदावार के लिए हलकी चिकनी दोमट या बलुई दोमट मिट्टी वाली जमीन बेहतर होती है. जल निकासी भी ठीक होनी चाहिए, वरना पानी भरा रहने पर फसल खराब हो सकती है.

शलगम सर्दी की फसल होने के कारण ज्यादा ठंड को भी सहन कर लेती है. अच्छी बढ़वार के लिए ठंड व नमी वाली जलवायु सही रहती है. इसी कारण पहाड़ी इलाकों में शलगम की अच्छीखासी पैदावार मिलती है.

अच्छी पैदावार के लिए खेत की जुताई अच्छी तरह करनी चाहिए, जिस से जमीन भुरभुरी हो जाए. साथ ही घास व ठूंठ वगैरह को बाहर निकाल कर नष्ट कर दें और छोटीछोटी क्यारियां बना लें, ताकि इन की देखभाल अच्छी तरह से हो सके.

उपज से फायदा : शलगम जब छोटेछोटे साइज की हों, तभी उन्हें मंडी में साग के रूप में बेचा जाता है और बाद में जब शलजम बड़ी हो जाती है, तो उसे लोग अचार व सब्जी वगैरह में भी इस्तेमाल करते हैं.

यह कम समय में तैयार होने वाली सामान्य फसल है. इस की खास देखभाल की भी जरूरत नहीं होती और किसान को मुनाफा भी ज्यादा मिलता है.

शलगम की कुछ खास प्रजातियां

लाल 4 : यह किस्म जल्दी तैयार होने वाली है. लाल किस्म को ज्यादातर सर्दी के मौसम में लगाते हैं. इस की जड़ें गोल, लाल और मध्यम आकार की होती हैं. फसल 60 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

सफेद 4 : इस किस्म को ज्यादातर बरसात के मौसम में लगाते हैं. यह जल्दी तैयार होती है और इस की जड़ों का रंग बर्फ जैसा सफेद होता है. गूदा चरपराहट वाला होता है. ये 50-55 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिलती है.

परपल टोप : इस किस्म की जड़ें बड़े आकार की होती हैं. ऊपरी भाग बैगनी, गूदा सफेद और कुरकुरा होता है. यह ज्यादा उपज देती है. इस का गूदा ठोस और ऊपर का भाग चिकना होता है.

पूसा स्वर्णिमा : इस किस्म की जड़ें गोल, मध्यम आकार वाली, चिकनी और हलके पीले रंग की होती हैं. गूदा भी पीलापन लिए होता है. यह 65-70 दिनों में तैयार हो जाती है. सब्जी के लिए यह अच्छी किस्म है.

पूसा चंद्रिमा : यह किस्म 55-60 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की जड़ें गोलाई लिए हुए होती हैं. यह ज्यादा उपज देती है.

पूसा कंचन : इस किस्म का छिलका ऊपर से लाल, गूदा पीले रंग का होता है. यह अगेती किस्म है, जो शीघ्र तैयार होती है. इस की जड़ें मीठी व खुशबूदार होती  हैं.

पूसा स्वेती : यह किस्म भी अगेती है. बोआई अगस्तसितंबर में की जाती है. जड़ें काफी समय तक खेत में छोड़ सकते हैं. जड़ें चमकदार व सफेद होती हैं.

स्नोवाल : यह भी अगेती किस्मों में शामिल है. इस की जड़ें मध्यम आकार की, चिकनी, सफेद और गोलाकार होती हैं. गूदा नरम व मीठा होता है.

बाजरे की प्रोसेसिंग (Processing of Millets) – रोजगार का जरीया

एक मोटे अनाज के रूप में पहचान बनाने वाले बाजरे से आज अनेक खाद्य पदार्थ बनाए जा रहे हैं. खासकर बाजरे का दलिया बना कर आज अनेक कंपनियां खासी कमाई कर रही हैं. आजकल बाजरे के नमकीन सेब, लड्डू, बरफी, शकरपारा, ढोकला, केक, पास्ता, मट्ठी व बिस्कुट वगैरह भी काफी पसंद किए जा रहे हैं. बाजरे में काफी मात्रा में प्रोटीन, वसा, रेशा व खनिज लवण होते हैं, जो हमारे लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं.

बाजरे की प्रोसेसिंग कर के ये सब व्यंजन बड़ी आसानी से तैयार किए जा सकते हैं. लघु उद्योग के रूप में गांव वाले या शहरी लोग भी इसे कारोबार के रूप में अपना सकते हैं. काम शुरू करने के लिए इस की ट्रेनिंग लेना बहुत जरूरी है.

ट्रेनिंग के लिए चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार (हरियाणा) के खाद्य एवं पोषण विभाग से संपर्क किया जा सकता है. इस कृषि विश्वविद्यालय से जुड़े गृह विज्ञान महाविद्यालय में बाजरे के कई प्रकार के व्यंजनों को बनाना सिखाया जाता है. बाजरे की प्रोसेसिंग को ले कर इन का एक खास विभाग है ‘बाजरा उत्कृष्टता केंद्र’. इस के तहत इन के विशेषज्ञ समयसमय पर लोगों को ट्रेनिंग देते हैं, जो कि बहुत कम दिनों की होती है. इन के अनुभवी लोग तमाम जगहों पर जा कर भी ट्रेनिंग देते हैं.

प्रोसेसिंग तकनीक से बाजरा व अन्य अनाजों को उत्पाद के रूप में बदला जा सकता है. पुराने समय के लोग पारंपरिक तरीकों से इन अनाजों की प्रोसेसिंग करते थे जैसे बाजरे का आटा बनाने के लिए उसे हाथ से कूटना, हाथ की चक्की से पीसना, छिलका उतारना, दलिया बनाना वगैरह. लेकिन इन तरीकों से मेहनत और समय तो ज्यादा लगता था, पर उत्पादन कम होता था. साथ ही अनाज में छिलका आदि भी लगा रह जाता था, जिस से सही गुणवत्ता भी नहीं मिल पाती थी.

अब इन कामों के लिए प्रोसेसिंग की मशीनें आ गई हैं. इन मशीनों से ये काम बहुत आसानी से किए जा सकते हैं. मशीनों के इस्तेमाल से समय की बचत के साथसाथ मेहनत भी कम लगती है. मशीनों की जानकारी ले कर इस रोजगार की दिशा में काम किया जा सकता है.

बाजरे की प्रोसेसिंग के लिए कुछ खास मशीनें

डिस्टोनर, ग्रेडर व एस्पिरेटर : यह बाजरे की ग्रेडिंग करने की मशीन है. इस मशीन से बाजरे से रेत, कंकड़ व पत्थर वगैरह को अलग किया जाता है और बाजरे के दानों की ग्रेडिंग भी की जाती है.

छिलका उतारने की मशीन : इस मशीन से बाजरे की ऊपरी मोटी परत दानों से अलग की जाती है. छिलका उतारते समय दाने थोड़ी मात्रा में टूट भी जाते हैं, लेकिन छिलका उतरे अनाज से बाजरे के व्यंजन ज्यादा स्वादिष्ठ बनते हैं.

अनाज उबालने की मशीन (पारबौयलिंग मशीन) : यह मशीन 2 भागों में बनी होती है. इस मशीन में अनाज भिगोया व थोड़ी देर तक उबाला जाता है, जिस से बाजरे के अपोषक तत्त्व कम हो जाते हैं और बाजरे को ज्यादा समय तक रखा जा सकता है. साथ ही बाजरे की पौष्टिकता बढ़ जाती है, जिस से बने खाद्य पदार्थ ज्यादा पौष्टिक व स्वादिष्ठ होते हैं.

दलिया बनाने की मशीन (हैमर मिल/पुलवेरीजर) : आज बाजरे का दलिया काफी पसंद किया जाता है. इस मशीन से बढि़या क्वालिटी का दलिया निकाला जाता है. इस मशीन से छिलका उतारे गए बाजरे का दलिया बनाया जाता है और इसे मोटा आटा बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. दलिया बनने के बाद मोटे आटे व दलिया को छान कर अलग कर लिया जाता है. यह मशीन अलगअलग कूवत में मिलती है.

सोलर टनल ड्रायर : यह मशीन सोलर ऊर्जा द्वारा चलती है. इस मशीन से बाजरे व किसी भी खाद्य पदार्थ को सुखाया जाता है. इस मशीन से समय व ईंधन की बचत होती है.

इस का तापमान नियंत्रित होता है. चूंकि यह मशीन सौर ऊर्जा से चलती है, इसलिए इस की कार्य क्षमता आकार व मौसम पर निर्भर करती है.

अगर आप भी बाजरे के उत्पाद बना कर बेचना चाहते हैं यानी अपनी इकाई लगाना चाहते हैं, तो सब से पहले ट्रेनिंग लेना जरूरी है. संस्थान द्वारा कम समय के कोर्स भी चलाए जा रहे हैं, जिन्हें कर के आप अपना कारोबार शुरू कर सकते हैं.

ज्यादा जानकारी के लिए चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार (हरियाणा) के बाजरा उत्कृष्टता केंद्र, खाद्य एवं पोषक विभाग, गृह विज्ञान महाविद्यालय से संपर्क कर सकते हैं.