ये उपाय अपनाएं उम्दा दूध (Milk) पाएं

भारत का दूध (Milk) उत्पादन दुनिया में कुल दूध उत्पादन का 18.43 फीसदी है. दूध (Milk) में प्रोटीन, वसा व लैक्टोज पाया जाता है जो सेहत के लिए अच्छा होता है. लेकिन इसे खराब होने से बचाए रखना बहुत ही मुश्किल काम है.

ज्यादा दूध (Milk) उत्पादन के लिए अच्छी नस्ल के पशुओं को पाला जाता है, पर स्वच्छ दूध उत्पादन के बिना ज्यादा दूध देने वाले पशुओं को रखना भी बेकार है.

स्वच्छ दूध (Milk) हासिल करने के लिए अच्छी नस्ल के पशुओं को रखने के साथसाथ उन को बीमारियों से बचाने और टीकाकरण कराने की जरूरत होती है, जिस से सभी पोषक तत्त्वों वाला दूध (Milk) मिल सके.

अकसर देखा जाता है कि कच्चा दूध (Milk) जल्दी खराब होता है. खराब दूध (Milk) अनेक तरह की बीमारियां पैदा कर सकता है, इसलिए दूध के उत्पादन, भंडारण व परिवहन में खास सावधानी बरतने की जरूरत होती है.

कच्चे दूध (Milk)  में हवा, दूध दुहने वाले गंदे उपकरणों, खराब चारा, पानी, मिट्टी व घास से पैदा होने वाले कीटाणुओं से खराबी आ सकती है. इस वजह से कम अच्छी क्वालिटी के दूध (Milk) बाहरी देशों को नहीं बेच पाते हैं जबकि पश्चिमी देशों में इस की मांग बढ़ रही है.

वैसे, दूध (Milk) में जीवाणुओं की तादाद 50,000 प्रति इक्रोलिटर या उस से कम होने पर दूध (Milk) को अच्छी क्वालिटी का माना जाता है. दूध इन वजहों से खराब हो सकता है:

* थनों में इंफैक्शन का होना.

* पशुओं का बीमार होना.

* पशुओं में दूध (Milk)  के उत्पादन से संबंधित कोई कमी होना.

* हार्मोंस की समस्या.

* पशुओं की साफसफाई न होना.

* दूध (Milk) दुहने का गलत तरीका.

* दूध (Milk) दुहने का बरतन और उसे धोने का गलत तरीका होना.

* दूध (Milk) जमा करने वाले बरतन का गंदा होना.

* चारे व पानी का खराब होना.

* दूध (Milk) दुहने वाला बीमार हो या साफसफाई न रखता हो.

* थनों का साफ न होना.

दूध (Milk)

स्वच्छ दूध (Milk) उत्पादन के लिए ये सावधानियां बरतना जरूरी हैं:

* पशुओं का बाड़ा या पशुशाला और पशुओं के दुहने की जगह साफ हो. वहां मक्खियां, कीड़े, धूल न हो.

* बीड़ीसिगरेट पीना सख्त मना हो. शेड पक्के फर्श वाले हों. टूटफूट नहीं होनी चाहिए. गोबर व मूत्र निकासी के लिए सही इंतजाम होना चाहिए. पशुओं को दुहने से पहले शेड को साफ और सूखा रखना चाहिए. शेड में साइलेज और गीली फसल नहीं रखनी चाहिए. इस से दूध (Milk) में बदबू आ सकती है.

* पशु को दुहने से पहले उस के थन और आसपास की गंदगी को अच्छी तरह साफ कर लेना चाहिए.

* शेड में शांत माहौल होना चाहिए. सुबह और शाम गायभैंस के दुहने का तय समय होना चाहिए.

* दूध (Milk) दुहने वाला सेहतमंद व साफसुथरा होना चाहिए. दुहने वाले को अपने हाथ में दस्ताने पहनने की सलाह दी जानी चाहिए. दस्ताने न होने पर हाथों को अच्छी तरह जीवाणुनाशक घोल से साफ करना चाहिए. उस के नाखून व बाल बड़े नहीं होने चाहिए.

* दूध (Milk) रखने वाले बरतन एल्युमिनियम, जस्ते या लोहे के बने होने चाहिए. दुधारू पशुओं के थनों को दूध दुहने से पहले व बाद में पोटैशियम परमैगनेट या सोडियम हाइपोक्लोराइड की एक चुटकी को कुनकुने पानी में डाल कर धोया जाना चाहिए और अच्छी तरह सुखाया जाना चाहिए.

* दूध (Milk) दूहने से पहले और बाद में दूध की केन को साफ कर लेना चाहिए. इन बरतनों को साफ करने के लिए मिट्टी या राख का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

* दूध (Milk) दुहने से पहले थन से दूध (Milk) की 2-4 बूंदों को बाहर गिरा देना चाहिए क्योंकि इस में बैक्टीरिया की तादाद ज्यादा होती है, जिस से पूरे दूध (Milk) में इंफैक्शन हो सकता है.

* दूध (Milk) दुहते समय हाथ की विधि का इस्तेमाल करना चाहिए. अंगूठा मोड़ कर दूध दुहने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. इस से थन को नुकसान हो सकता है और उन में सूजन आ सकती है.

* एक पशु का दूध (Milk) 5-8 मिनट में दुह लेना चाहिए, क्योंकि दूध का स्राव औक्सीटोसिन नामक हार्मोन के असर पर निर्भर करता है. अगर दूध थन में छोड़ दिया जाता है तो यह इंफैक्शन की वजह बन सकता है.

* दूध दुहने के 2 घंटे के भीतर दूध (Milk) को घर के रेफ्रिजरेटर, वाटर कूलर या बल्क मिल्क कूलर का इस्तेमाल कर के 5 डिगरी सैल्सियस या इस से नीचे के तापमान में रखना चाहिए.

* दूध (Milk) के परिवहन के समय कोल्ड चेन में गिरावट को रोकने के लिए तय तापमान बनाए रखा जाना चाहिए.

* स्वास्थ्य केंद्रों पर पशुओं की नियमित जांच करा कर उन्हें बीमारी से मुक्त रखना चाहिए, वरना पशु के इस दूध (Milk) से इनसान भी इंफैक्शन का शिकार हो सकता है.

* पानी को साफ करने के लिए हाइपोक्लोराइड 50 पीपीएम की दर से इस्तेमाल किया जाना चाहिए. फर्श और दीवारों की सतह पर जमे दूध व गंदगी को साफ करते रहना चाहिए.

* दूध दुहते समय पशुओं को न तो डराएं और न ही उसे गुस्सा दिलाएं.

* दूध दुहते समय ग्वालों को दूध (Milk) या पानी न लगाने दें. सूखे हाथों से दूध दुहना चाहिए.

* एक ही आदमी दूध निकाले. उसे बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.

* दूध (Milk) की मात्रा बढ़ाने या ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए इस में गैरकानूनी रूप से बैन की गई चीजों को मिलाना व इस की क्वालिटी के साथ छेड़छाड़ करना ही मिलावट कहलाता है. यह मिलावटी दूध सब के लिए नुकसानदायक होता है. पानी, नमक, चीनी, गेहूं, स्टार्च, वाशिंग सोड़ा, यूरिया, हाइड्रोजन पेराक्साइड वगैरह का इस्तेमाल दूध की मात्रा बढ़ाने व उसे खराब होने से बचाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो गलत है.

दूध (Milk) की मिलावट का कुछ सामान्य तरीकों से पता किया जा सकता है. जैसे दूध (Milk) का खोया बना कर, दूध में हाथ डाल कर, जमीन पर गिरा कर, छान कर व चख कर. इस के अलावा वैज्ञानिक तरीके से भी दूध की मिलावट की जांच की जा सकती है.

महिला किसानों (Women Farmers) के साथ भेदभाव (Discrimination) क्यों

भारत कृषि प्रधान देश है. यहां तकरीबन 65 फीसदी आबादी कृषि कार्यों में लगी है. देश के सभी राज्यों में किसानों की स्थिति काफी दयनीय है, जबकि किसान खेतों में रातदिन काम करते हैं. फिर चाहे सर्दियों की ठिठुरन भरी रात हो या मईजून की तपती धूप, हर मौसम में किसान कड़ी मेहनत करते हैं. देश के ज्यादातर हिस्सों में पुरुष किसानों के साथ ही महिलाएं भी बढ़चढ़ कर खेती के कामों में अपना योगदान दे रही हैं.

एक तरफ जहां पुरुष किसानों को खेतों में काम करने के बदले ज्यादा मजदूरी मिलती है, वहीं दूसरी तरफ महिलाओं को उन से काफी कम रुपयों में काम करना पड़ता है.

आज भी देश की महिला मजदूरों को अपनी मेहनत की वाजिब मजदूरी नहीं मिल पाती. आज 21वीं सदी में भी पुरुष और महिला में इतना बड़ा भेद है. इस के लिए हमारी पुरुषवादी सोच जिम्मेदार है. हम इस के आगे सोच नहीं पा रहे हैं.

आप देश के किसी कोने में खेतों में जा कर देखेंगे तो चाहे झुलसा देने वाली गरमी हो या फिर बदन को कंपकंपा देने वाली ठंड, हर मौसम में अपनी सेहत की परवाह किए बिना घंटों खेतों में काम करती औरतें मिल जाएंगी. देश की मौजूदा स्थिति यह है कि घरों के बाहर काम करने वाली तकरीबन 80 फीसदी महिलाएं खेतीबारी से जुड़े कामों में लगी हैं, इन सब के बावजूद जब भी किसानों की बात आती है, तो हम सब के जेहन में जो तसवीर उभरती है, वह पुरुष किसानों की होती है.

ऐसा नहीं है कि देश के कुछ राज्यों में ही यह स्थिति हो, सभी जगह ऐसा ही है. आप सब से ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश को देख लें, वहां भी महिला किसानों की यही दुर्दशा है.

इस के अलावा महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, असम व ओडिशा आदि राज्यों में कमोबेश एकजैसे हालात हैं. उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में सर्दियों के मौसम में महिलाएं गन्ने के खेतों में गन्ने की कटाई करने के लिए हंसिया या चापड़ हाथों में लिए देखी जा सकती हैं.

इस के अलावा धान की रोपाई, खेतों से खरपतवार निकालना, फसलों की कटाई और मड़ाई तक सभी काम महिलाएं आसानी से कर लेती हैं. देश के चुनिंदा इलाकों में हल से खेतों की जुताई करते हुए भी महिलाएं दिख जाएंगी. इतना सब होने के बाद भी उन के हक की वाजिब कीमत कोई देने को तैयार नहीं है.

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं का श्रम पुरुषों की तुलना में दोगुना है. इस के बावजूद महिलाओं को किसान का दर्जा देने में आज तक आनाकानी हो रही है, जबकि यह महिलाओं के हक की बात है.

मेहनत की बात करें तो महिलाएं घर के कामों के साथसाथ खेतों की भी जिम्मेदारी संभालती हैं. इतना ही नहीं, वे अपने दुधमुंहे बच्चे को खेतों में ले जा कर काम करती हैं, साथ ही अपने बच्चों का भी खयाल रखती हैं.

महिला किसानों का यह श्रम यहीं खत्म नहीं होता है, वे पशुपालन का काम भी करती हैं. कृषि प्रधान देश होते हुए भी यहां किसानों की हालत दयनीय है और यदि बात महिला किसानों की करें तो उन की हालत पुरुष किसानों से भी बदतर है.

देश में 60 से 80 फीसदी महिलाएं खेती के काम में लगी रहती हैं. अगर जमीन के मालिकाना हक की बात करें तो सिर्फ 13 फीसदी महिलाओं के पास ही हक है.

महिलाओं को जब मर्दों के समान काम करने के बावजूद बराबर का मेहनताना नहीं मिल पाता, तो इस हालत में उन को मालिकाना हक देने की बात दूर की कौड़ी है. जब तक समाज में महिलाओं को ले कर लोगों का नजरिया नहीं बदलेगा, तब तक उन्हें उन का हक नहीं मिल पाएगा.

अगर समाज को प्रगतिशील बनाना है तो महिलाओं को प्रोत्साहित करना होगा. इस के लिए हमें सोच बदलनी पड़ेगी. जब सोच बदलेगी तो समानता आ ही जाएगी.

पशुपालन में मशीनीकरण (Mechanization) को बढ़ावा

उदयपुर : 28 जनवरी, 2025. अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना के अंतर्गत ‘पशुपालन के लिए मशीनीकरण’ (Mechanization) विषय पर 2 दिवसीय 24वीं वार्षिक राष्ट्रीय कार्यशाला अनुसंधान निदेशालय सभागार में हुई.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की मेजबानी में आयोजित इस कार्यशाला में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली सहित देशभर के 100 से ज्यादा कृषि वैज्ञानिक, अभियंता और अनुसंधानकर्ताओं ने हिस्सा लिया.

उद्घाटन सत्र में आयुक्त पशुपालन, भारत सरकार, नई दिल्ली डा. अभिजीत मित्रा ने कहा कि कृषि पशुपालन के 3 प्रमुख घटक उत्पादन, रखरखाव एवं फूड सेफ्टी में मैकेनाइजेशन की अपार संभावनाएं  हैं. डेयरी पोल्ट्री के क्षेत्र में भी मशीनीकरण (Mechanization) को तरजीह दी जानी चाहिए, तभी हम दुनिया के साथ कदम से कदम मिला कर चल पाएंगे.

उन्होंने आगे कहा कि पशुपालकों में आज 70 फीसदी महिलाएं काम कर रही हैं. पशुपालन के क्षेत्र में केवल एक छोटे से घटक गोबर उठाना, पोल्ट्री मल व अन्य अपशिष्ट की साफसफाई के लिए भी मशीन तैयार कर ली जाए, तो मानव श्रम की काफी बचत होगी और यह श्रम अन्य कार्यों के उपयोग में आ जाएगा.

डा. अभिजीत मित्रा ने आगे कहा कि पशुपालन विभाग, नई दिल्ली भविष्य में पंचायत राज, उद्यान, कृषि विपणन और अन्य संबद्ध विभागों को साथ ले कर पशुपालन में मशीनीकरण (Mechanization) पर कुछ इस तरह का रोल मौडल तैयार करेगा, जो देशभर में ब्लौक व पंचायत लैवल पर उपयोगी साबित हो. भारत में वर्तमान में 192 मिलियन गौवंश है. इन में से 27 फीसदी क्रौस ब्रीड हैं, जबकि 10 फीसदी ही दूध उत्पादन में शामिल है.

इस बीच उन्होंने राजस्थान की गाय की नस्ल ‘थारपारकर’ का भी जिक्र किया और कहा कि ‘थारपारकर’ वह नस्लीय गाय है, जो विपरीत परिस्थितियों में थार रेगिस्तान को पार करने की क्षमता रखती है और भरपूर दूध भी देती है.

उपमहानिदेशक, आईसीएआर, नई दिल्ली डा. एसएन झा ने कहा कि मौजूदा परिवेश में पशुपालन ही नहीं, बल्कि ‘संपूर्ण मशीनीकरण’ (Mechanization) की दिशा में भी काम करना होगा. विकास के मामले में दुनिया की गति काफी तेज है और ज्ञान के बल पर ही हम इस गति का मुकाबला कर पाएंगे. उन्होंने कृषि वैज्ञानिकों को हर समय अपडेट रहने को कहा.

पशुपालन के साथसाथ फार्म मैकेनाइजेशन पर जोर देते हुए डा. एसएन झा ने कहा कि केवल जलवायु, साफसफाई व आर्द्रता को नियंत्रण करने मात्र से हम दूध उत्पादन में 10 फीसदी की और भी अधिक वृद्धि कर सकते हैं.

उन्होंने कहा कि हमें स्वीकार करना होगा कि ‘जब तक सूरज चांद रहेगा, इस धरा पर पशुधन रहेगा’ पुरानी परंपराओं का त्याग करते हुए पशुधन के रखरखाव, दूध व मांस उत्पादन में वृद्धि के लिए नए तौरतरीकों को अमल में लाना होगा.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने बेबाकी से तर्क रखा कि जल, जंगल, जलवायु और जमीन अकेले मनुष्य की बपौती नहीं हैं, वरन इस चराचर जगत में विचरण करने वाले हर जीव का इस पर अधिकार है. गलती यहां हुई कि प्रकृति की इस देन को आदमी ने अपनी बपौती मान लिया. ऐसे में जलचर, नभचर और थलचर प्राणी कहां जाएंगे भलाई इसी में है कि पशुपक्षियों को भी पर्याप्त दानापानी मिलना चाहिए, ताकि प्राकृतिक संतुलन बना रहे.

उन्होंने पशु आहार बनाने, दूध निकालने, अपशिष्ट प्रबंधन और पानी देने की व्यवस्था के लिए भी उपकरण व मशीनरी विकसित करने पर जोर दिया. साथ ही, पशुधन के लिए बेहतर आवास, स्वच्छता व स्वास्थ्य नियंत्रण की भी आवश्यकता है.

आईसीएआर, नई दिल्ली के सहायक महानिदेशक डा. अमरीश त्यागी ने कहा कि आने वाला समय क्षमता निर्माण व कौशल विकास का है. पशुपालन के लिए मशीनीकरण (Mechanization) इसी सोच का हिस्सा है. हर क्षेत्र में गहन अध्ययन, सर्वे तकनीक व प्रौद्योगिकी हस्तांतरण से ही हम उपकरण और मशीन की कल्पना कर उसे साकार रूप में धरातल पर उतर पाएंगे.

परियोजना समन्वयक डा. एसपी सिंह, निदेशक, सीआईएई, भोपाल, डा. सीआर मेहता ने पशु प्रबंधन की आधुनिक तकनीकियों का जिक्र किया. आरंभ में सीटीएई डीन डा. अनुपम भटनागर ने अभियांत्रिकी महावि़द्यालय में होने वाली गतिविधियों पर प्रकाश डाला.

पुस्तक एवं पैम्फलेट का विमोचन

आरंभ में अतिथियों ने अधिष्ठाता सीडीएफडी डा. लोकेश गुप्ता द्वारा लिखित पुस्तक ‘आधुनिक पशुपालन एवं प्रबंधन’ एवं पैम्फलेट समुचित पशु आहार प्रबंधन, पशुचलित उन्नत कृषि यंत्र का विमोचन किया.

कार्यशाला में इन का रहा प्रतिनिधित्व

आईसीएआर-सीआईएई, भोपाल (मध्य प्रदेश), एमपीयूएटी, उदयपुर (राजस्थान), जीबीपीयूएटी, पंतनगर (उत्तराखंड), यूएएस, रायचूर (कर्नाटक), वीएनएमयू, परभणी (महाराष्ट्र), आईजीकेवी, रायपुर (छत्तीसगढ़), ओयूएटी, भुवनेश्वर (ओडिशा), आईसीएआर-एनडीआरआई, करनाल (हरियाणा) और सीएयू-सीएईपीएचटी, गंगटोक (सिक्किम).

बढ़ेगा दलहन एवं तिलहन (Pulses and Oilseeds) का उत्पादन

मऊ : भाकृअनुप-राष्ट्रीय बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, कुश्मौर, मऊ में 27 से 31 जनवरी, 2025 तक चलने वाले पांचदिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में भोजपुर, बिहार से 30 किसान भाग लेने आए. ‘दलहन एवं तिलहन फसलों में बीज की गुणवत्ता का महत्व’ विषय पर आधारित प्रशिक्षण कार्यक्रम का उद्घाटन समारोह 27 जनवरी, 2025 को हुआ.

निदेशक, डा. संजय कुमार ने कृषि प्रौद्योगिकी प्रबंधन अभिकरण, भोजपुर, बिहार से आए किसानों का स्वागत किया. उन्होंने किसानों से उन की कृषि से जुड़ी समस्याएं एवं चिंताएं जानने का प्रयास किया.

उन्होंने किसानों को आश्वासन दिया कि प्रशिक्षण कार्यक्रम में संस्थान के वैज्ञानिक किसानों की हर प्रकार की समस्याओं का समाधान करेंगे और व्यक्तिगत रूप से किसानों को उन के खेत, उस में लगने वाले बीज, बीज की प्रजाति समेत सभी प्रकार की जानकारी देंगे, ताकि वे अपने खेती के विषय में सक्षम और सही निर्णय ले सकें. कार्यक्रम का संचालन संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डा. अंजनी कुमार सिंह की अध्यक्षता में हो रहा है.

कार्यक्रम के उद्घाटन समारोह में प्रतिभागी किसानों ने अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए बताया कि भोजपुर, बिहार में दलहन एवं तिलहन के साथ धान, गेहूं, खेसारी और सब्जी की खेती की जाती है.

प्रधान वैज्ञानिक डा. अंजनी कुमार सिंह ने किसानों को फसलों की नई प्रजाति लगाने के लिए और गुणवत्ता बीज उत्पादन में अपना योगदान देने के लिए प्रेरित किया. प्रशिक्षण कार्यक्रम का समन्वयन डा. अंजनी कुमार सिंह, डा. आलोक कुमार, डा. पवित्रा वी. एवं डा. विनेश बनोथ कर रहे हैं.

नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) कमाई से छाई बहार

राजस्थान का मारवाड़ इलाका लजीज खाने की वजह से दुनियाभर में अपनी खास पहचान रखता है, चाहे बीकानेर की नमकीन भुजिया हो या रसगुल्ले की बात हो या फिर जोधपुर के मिरची बड़े व कचौरी की, एक खास तसवीर उभर कर सामने आती है. वहीं दूसरी ओर इस इलाके में मसालों की खेती भी की जाती है. प्रदेश का नागौर जिला एक ऐसी ही मसाला खेती के लिए दुनियाभर में जाना जाता है और वह है कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की खेती.

डाक्टर और वैज्ञानिक कई तरह की बीमारियों के इलाज के लिए भी कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के इस्तेमाल की सलाह देते हैं. कई औषधीय गुणों से भरपूर इस मेथी का इस्तेमाल पुराने जमाने से ही पेट दर्द दूर करने, कब्जी दूर करने और बलवर्धक औषधीय के रूप में होता आया है.

मेथी (Fenugreek) की बहुउपयोगी पत्तियां सेहत के लिए फायदेमंद होने के साथसाथ खाने को लजीज बनाने में भी खास भूमिका निभाती है. खास तरह की खुशबू और स्वाद की वजह से मेथी का इस्तेमाल सब्जियों, परांठे, खाखरे, नान और कई तरह के खानों में होता है.

नागौर की यह मशहूर मेथी (Fenugreek) अंतर्राष्ट्रीय कारोबार जगत में बेहद लजीज मसालों के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है. अब तो मेथी (Fenugreek) का इस्तेमाल लोग ब्रांड नेम के साथ करने लगे हैं. सेहत की नजर से देखें तो मेथी (Fenugreek) में प्रचुर मात्रा में विटामिन ए, कैल्शियम, आयरन व प्रोटीन मौजूद है.

किसान सेवा समिति, मेड़ता के बुजुर्ग किसान बलदेवराम जाखड़ बताते हैं कि किसी जमाने में पाकिस्तान के कसूरी इलाके में ही यह मेथी (Fenugreek) पैदा होती थी, जिस के चलते इस का नाम कसूरी पड़ा. धीरेधीरे इस की पैदावार फसल के रूप में सोना उगलने वाली नागौर की धरती पर होने लगी.

आज हाल यह है कि नागौर दुनियाभर में कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) उपजाने वाला सब से बड़ा जिला बन गया है. यहां की मेथी (Fenugreek) मंडियों ने विश्व व्यापारिक मंच पर अपनी एक अलग जगह बनाई है. न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) बिकने के लिए जाती है.

नागौर के ही एक मेथी (Fenugreek) कारोबारी बनवारी लाल अग्रवाल के मुताबिक, कई मसाला कंपनियों ने कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को दुनियाभर में पहचान दिलाई है. देश की दर्जनभर मसाला कंपनियां कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को खरीद कर देशविदेश में कारोबार करती हैं. इसी वजह से इस मेथी (Fenugreek) का कारोबारीकरण हो गया है.

नागौर जिला मुख्यालय में 40 किलोमीटर की दूरी में फैले इलाके खासतौर से कुचेरा, रेण, मूंडवा, अठियासन, खारड़ा व चेनार गांवों में मेथी (Fenugreek) की सब से ज्यादा पैदावार होती है. मेथी (Fenugreek) की फसल के लिए मीठा पानी सब से अच्छा रहता है. चिकनी व काली मिट्टी इस की खेती के लिए ठीक रहती है.

कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की फसल अक्तूबर माह में बोई जाती है. 30 दिन बाद इस की पत्तियां पहली बार तोड़ने लायक हो जाती हैं. इस के बाद फिर हर 15 दिन बाद इस की नई पत्तियां तोड़ी जाती हैं.

मेथी (Fenugreek) के एकएक पौधे की पत्तियां किसान भाई अपने हाथों से तोड़ते हैं. लोकल बोलचाल में मेथी की पत्तियां तोड़ने के काम को लूणना या सूंठना कहते हैं. पहली बार तोड़ी गई पत्तियां स्वाद व क्वालिटी के हिसाब से सब  अच्छी होती है.

वर्तमान में मेथी (Fenugreek) की पैदावार में संकर बीज का इस्तेमाल सब से ज्यादा होता है. यहां के इसे किसान काश्मीरो के नाम से जानते हैं. कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) उतारने में सब से ज्यादा मेहनत होती है, क्योंकि इस के हरेक पौधे की पत्तियों को हाथ से ही तोड़ना पड़ता है.

कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek)

कैसे करें खेती

भारत में मेथी की कई किस्में पाई जाती हैं. कुछ उन्नत हो रही किस्मों में चंपा, देशी, पूसा अलविंचीरा, राजेंद्र कांति, हिंसार सोनाली, पंत रागिनी, काश्मीरी, आईसी 74, कोयंबूटर 1 व नागौर की कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) खास हैं. इस की अच्छी खेती के लिए इन बातों पर ध्यान देना जरूरी है:

आबोहवा व जमीन : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) की खेती के लिए शीतोष्ण आबोहवा की जरूरत होती है, जिस में बीजों के जमाव के लिए हलकी सी गरमी, पौधों की बढ़वार के लिए थोड़ी ठंडक और पकने के लिए गरम मौसम मिले. वैसे, यह मेथी हर तरह की जमीन में उगाई जा सकती है, लेकिन इस की सब से अच्छी उपज के लिए बलुई या दोमट मिट्टी बेहतर रहती है.

खाद व उर्वरक : अच्छी फसल के लिए 5 से 6 टन गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत तैयार करते समय मिला देनी चाहिए. इस के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-40 किलो फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर देने से उपज में बढ़ोतरी होती है. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई से पहले देते हैं. बाकी नाइट्रोजन 2 बार में 15 दिन के अंतराल पर देते हैं.

बोआई : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) को अगर बीज के रूप में उगाना है, तो इसे मध्य सितंबर से नवंबर माह तक बोया जाता है. लेकिन अगर इसे हरी सब्जी के लिए उगाना है तो मध्य अक्तूबर से मार्च माह तक भी बो सकते हैं. वैसे, सब से अच्छी उपज लेने के लिए नागौर इलाके में इसे ज्यादातर अक्तूबर से दिसंबर माह के बीच ही बोया जाता है.

इस की बोआई लाइनों में करनी चाहिए. लाइन से लाइन की दूरी 15 से 20 सैंटीमीटर व गहराई 2 से 3 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. ज्यादा गहराई पर बीज का जमाव अच्छा नहीं रहता. बीज बोने के बाद पाटा जरूर लगाएं, ताकि बीज मिट्टी से ढक जाए. यह मेथी 8 से 10 दिनों में जम जाती है.

सिंचाई: कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के पौधे जब 7-8 पत्तियों के हो जाएं, तब पहली सिंचाई कर देनी चाहिए. यह समय खेत की दशा, मिट्टी की किस्म व मौसमी बारिश वगैरह के मुताबिक घटबढ़ सकता है. हरी पत्तियों की ज्यादा कटाई के लिए सिंचाई की तादाद बढ़ा सकते हैं.

फसल की हिफाजत : कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) में पत्तियों व तनों के ऊपर सफेद चूर्ण हो जाता है व पत्तियां हलकी पीली पड़ जाती हैं. बचाव के लिए 800 से 1200 ग्राम प्रति हेक्टेयर ब्लाईटाक्स 500-600 लिटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़क दें.

पत्तियां व तनों को खाने वाली गिड़ार से बचाने के लिए 2 मिलीलिटर रोगर 200 लिटर पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करें. छिड़काव कटाई से 5 से 7 दिन पहले करें.

कटाई : हरी सब्जि के लिए बोआई के 3-4 हफ्ते बाद कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) कटाई के लिए तैयार हो जाती है. बाद में फूल आने तक हर 15 दिन में कटाई करते हैं. बीज उत्पादन के लिए 2 कटाई के बाद कटाई बंद कर देनी चाहिए.

उपज और स्टोरेज : सब्जी के लिए मेथी की औसत उपज 80 से 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व बीज के लिए 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हासिल होती है. हरी सब्जी के लिए मेथी की पत्तियों को अच्छी तरह से सुखा कर एक साल तक स्टोर कर सकते हैं और बीज को 3 साल तक स्टोर किया जा सकता है.

गौरतलब है कि कसूरी मेथी (Kasuri Fenugreek) के बीजों का मसाले के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है.

खाजा : स्वाद से भरपूर, देशी मिठाई

हमारे देश में मिठाइयों की भरमार है. मिठाई अलगअलग तरह के प्रयोग और नाम से तैयार की जाती है. उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तर भारत के कई राज्यों में बनने वाली मिठाई खाजा भी है. खाजा यानी वह मिठाई, जिसे देखते ही खाने का मन करे.

इसे बनाने में प्रमुख रूप से मैदा, घी और चीनी का प्रयोग होता है. कई शहरों में खाजा बनाते समय ही चेरी, मेवा, खोया और इलायची को भी मिला दिया जाता है.

उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाकों में इस को खजला नाम से भी जाना जाता है. बुलंदशहर, औरैया, इटावा, आगरा और राजस्थान के तमाम इलाकों में इस को खजला के नाम से ही जाना जाता है.

खजला बड़ी पूरी के आकार का बनता है. इस में मेवा, चेरी भर कर स्वादिष्ठ बना दिया जाता है. गोलगोल खाजा बनने के अलावा चपटे आकार का खाजा भी बनता है. उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ इलाके में इस को केवल आटा, घी और चीनी के प्रयोग से तैयार किया जाता है.

गांव के कई इलाकों में खाजा का इस्तेमाल इसलिए भी ज्यादा होता है क्योंकि इस मिठाई को 15-20 दिन तक आराम से खा सकते हैं. ऐसे में इसे शादीविवाह में देने और खानेपीने के रूप में ज्यादा पसंद किया जाता है.

मेले में लगने वाली दुकानों में यह सब से ज्यादा दिखाई देता है. कीमत के हिसाब से देखें तो यह सस्ती मिठाई है. 150 से 250 रुपए किलोग्राम तक के भाव में यह आसानी से मिल जाती है.

खाजा खाने में बेहद कुरकुरा होता है. इस को कुरकुरा बनाने के लिए आटे में गूंदते समय घी का इस्तेमाल ज्यादा किया जाता है. इस को सजाने के लिए खोया, चेरी और मेवा का इस्तेमाल किया जाता है.

गोरखपुर की रहने वाली रंजना वर्मा कहती हैं कि खाजा केवल मिठाई नहीं है, बल्कि यह हमारे देशी चलन का हिस्सा है. आज के समय में शादीविवाह में पुरानी मिठाइयों का चलन वापस लौटता नजर आ रहा है. ऐसे में एक बार फिर से देशी मिठाइयां ट्रेंड में आ गई हैं. शादीविवाह में यह मिठाई उपहार के रूप में भी दी जाती है.

यही वजह है कि पुरानी देशी मिठाइयां बाजार में फिर से जगह बनाती जा रही हैं. मेलों में लोग देशी मिठाई का स्वाद लेना चाहते हैं. इन की दुकानें भी रोजगार का जरीया बन गई हैं. मेवा और खोया की जगह अनाज से बनी मिठाइयां सब से ज्यादा मशहूर हो रही हैं.

खाजा बनाने के लिए सामग्री

एक कप मैदा. मैदा में मिलाने के लिए 2 चम्मच घी. पेस्ट के लिए 2 चम्मच घी और मैदा अलग से लें. चाशनी बनाने के लिए आधा कप चीनी, आधा कप से कम पानी और इलायची पाउडर लें. खाजा को सजाने के लिए आधा कप सूखे और पिसे हुए मेवे का मिश्रण. मावा आधा कटोरी और चेरी आधा कप तैयार करें. खाजा को तलने के लिए घी या तेल इस्तेमाल करें.

ऐसे तैयार करें खाजा

मैदे में घी को हलका गरम कर के मोयन बना लें. पानी के सहारे मुलायममुलायम आटा गूंद लें. तकरीबन 20 मिनट तक आटा ढक कर रख दें. पानी और चीनी को मिला कर चाशनी तैयार करने के लिए पहले इस को गरम करें. इस में इलायची पाउडर भी मिला दें. चीनी गाढ़ी हो कर चाशनी में तबदील हो जाए तो इस को अलग रख दें.

अब आटे की पतली पूरी बेल कर इस में घी और मैदे का पेस्ट लगाएं. दूसरी पूरी बेल कर इस के ऊपर रखें. इस तरह से कई पूरियां पेस्ट लगा कर ऊपर रखें. इस को रोल करें और एक बार फिर से बेल कर कड़ाही में घी और तेल डाल कर तलें. पूरी तरह से यह पूरी गोलगोल हो कर तैयार होगी. इस को निकाल कर पहले से बनी चाशनी में डाल दें. जब चाशनी में ठंडी हो जाए तो सूखे मेवे, चेरी और मावा डाल कर इस को सजा दें. जब आप खा कर देखेंगे तो ऐसा लगेगा जैसे कह रहा हो मुझे खाजा.

भारत के एप्पल मैन (Apple Man) हरिमन शर्मा को पद्मश्री पुरस्कार (Padmashree Award)

हिमाचल प्रदेश : हिमाचल प्रदेश के दूरदर्शी किसान हरिमन शर्मा को भारतीय कृषि में उन के परिवर्तनकारी योगदान के लिए सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्मश्री (Padmashree Award) से सम्मानित किया गया है. उन्होंने एचआरएमएन-99 नामक एक अभिनव, स्वपरागण (पौधे के परागकण उसी पौधे के किसी फूल के वर्तिकाग्र पर या उसी पौधे के किसी दूसरे फूल के वर्तिकाग्र पर पहुंचते हैं) और कम ठंड में उपजने वाली सेब की किस्म विकसित की है, जिस ने देश में सेब की बागबानी में क्रांति ला दी है. इस से भौगोलिक दृष्टि से बागबानी व्यापक हो गई है और रसदार पौष्टिक सेब की यह किस्म लोगों तक पहुंच गई है.

व्यावसायिक सेब की अन्य किस्मों को समशीतोष्ण जलवायु और लंबे समय तक शीतकालीन मौसम की आवश्यकता होती है, पर इस के विपरीत एचआरएमएन-99 की बागबानी उष्ण कटिबंधीय, उपोष्ण कटिबंधीय और मैदानी क्षेत्रों में हो सकती है, जहां गरमियों में तापमान 40-45 डिगरी सैल्सियस तक पहुंच जाता है. इस से अब उन क्षेत्रों में भी सेब की खेती संभव हो सकती है, जहां पहले इसे अव्यवहारिक माना जाता था.

मुश्किलों ने दिखाया रास्ता

बचपन में ही अनाथ हो चुके हरिमन शर्मा का बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश) स्थित छोटे से गांव पनियाला की पहाड़ी गलियों से राष्ट्रपति भवन के भव्य कक्ष तक का सफर किसान समुदाय के साथ ही देश के छात्रों, शोधकर्ताओं और बागबानी करने वालों के लिए काफी प्रेरणादायक है.

तमाम मुश्किलों के बावजूद हरिमन शर्मा ने मैट्रिक तक की शिक्षा पूरी की और खेतीकिसानी और फल उपजाने के प्रति अपना जुनून बनाए रखा.

एचआरएमएन-99 सेब किस्म की उपज की कहानी साल 1998 में तब शुरू हुई, जब हरिमन शर्मा ने अपने घर के पिछले हिस्से में घर में इस्तेमाल किए गए सेब के कुछ बीज लगा दिए. इन में से एक बीज उल्लेखनीय रूप से अगले साल अंकुरित हो गया और 1,800 फुट की ऊंचाई पर स्थित पनियाला की गरम जलवायु के बावजूद साल 2001 में पौधे ने फल दिए.

हरिमन शर्मा ने यह देखते हुए सावधानीपूर्वक मातृ पौध की देखभाल की और ग्राफ्टिंग द्वारा कई पौधे लगाए और अंततः सेब का एक समृद्ध बाग बना लिया.

अगले दशक में उन्होंने विभिन्न कलमों में ग्राफ्टिंग तकनीकों का प्रयोग कर के सेब की अभिनव किस्म को परिष्कृत करने पर ध्यान केंद्रित किया. समान जलवायु परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में इस सफलता को दोहराने के प्रयासों के बावजूद शुरुआत में उन के काम पर कृषि और वैज्ञानिक समुदायों का अधिक ध्यान नहीं गया.

सेब की नई प्रजाति को देश की सभी जलवायु में उगाना आसान

साल 2012 में भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के एक स्वायत्त संस्थान, राष्ट्रीय नवाचार फाउंडेशन (एनआईएफ) भारत ने इस का पता लगाया. एनआईएफ ने सेब की किस्म की विशिष्टता सत्यापित करते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद संस्थानों, कृषि विज्ञान केंद्रों, कृषि विश्वविद्यालयों, राज्य कृषि विभागों, किसानों और देशभर के स्वयंसेवी संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ मिल कर आणविक अध्ययन, फल गुणवत्ता परीक्षण और बहुस्थान परीक्षणों की सुविधा प्रदान कर इस की विशिष्टता प्रमाणन में सहयोग दिया.

इन सहयोगी प्रयासों से सेब की यह किस्म 29 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पहुंच गई. इन में बिहार, झारखंड, मणिपुर, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, दादरा और नगर हवेली, कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान, जम्मूकश्मीर, पंजाब, केरल, उत्तराखंड, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, पांडिचेरी, हिमाचल प्रदेश शामिल हैं. साथ ही, इसे नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन में भी लगाया गया है. एनआईएफ ने इस का पंजीकरण नई दिल्ली के पौधा किस्म और किसान अधिकार संरक्षण प्राधिकरण में करने में सहायता प्रदान की.

राष्ट्रपति से मिली सराहना

अपने अभिनव प्रयास के लिए हरिमन शर्मा को साल 2017 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 9वें राष्ट्रीय द्विवार्षिक ग्रासरूट इनोवेशन और उत्कृष्ट पारंपरिक ज्ञान पुरस्कारों के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था.

इस के अलावा भी हरिमन शर्मा कई पुरस्कारों से सम्मानित किए गए हैं. इन में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय नवोन्मेषी किसान पुरस्कार (2016), आईएआरआई फैलो पुरस्कार (2017), डीडीजी, आईसीएआर द्वारा किसान वैज्ञानिक उपाधि (2017), राष्ट्रीय सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार (2018), राष्ट्रीय कृषक सम्राट सम्मान (2018) जगजीवन राम कृषि अभिनव पुरस्कार (2019) के अलावा कई राज्य और केंद्र सरकार के पुरस्कार शामिल हैं. हरिमन शर्मा ने नवंबर, 2023 में मलेशिया में आयोजित चौथे आसियान इंडिया ग्रासरूट इनोवेशन फोरम में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया था.

गुणों से भरपूर

एचआरएमएन-99 सेब की किस्म की विशेषता इस की धारीदार लालपीली त्वचा, मुलायम और रसदार गूदा और प्रति पौधा सालाना 75 किलोग्राम तक फल देने की क्षमता है. सेब की इस प्रजाति की बागबानी से देश में हजारों किसान लाभान्वित हुए हैं.

राष्ट्रीय नवाचार फाउंडेशन ने इस की व्यावसायिक बागबानी को सहयोग देने, बाग लगाने और राज्य कृषि विभागों एवं भारत सरकार के पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय के उत्तरपूर्वी परिषद के अंतर्गत उत्तरपूर्वी क्षेत्र सामुदायिक संसाधन प्रबंधन परियोजना के साथ मिल कर बड़े पैमाने पर उत्तरपूर्वी राज्यों में इस किस्म को रोपने के प्रशिक्षण प्रदान करने में भी सहायता दी है. इस के परिणामस्वरूप सभी पूर्वोत्तर राज्यों में इस किस्म के एक लाख से अधिक पौधे रोपे गए हैं, जिस से किसानों को आय का एक अतिरिक्त स्रोत मिला है.

हरिमन शर्मा के विशिष्ट नवाचार से भारत में सेब की बागबानी में उल्लेखनीय बदलाव आया है, साथ ही इस ने बड़े पैमाने पर किसानों को अतिरिक्त आय और पोषण के बेहतर स्रोत अपनाने के लिए प्रेरित किया है. उन के प्रयासों से कभी अमीरों का आहार माना जाने वाला सेब अब आम आदमी की पहुंच में आ गया है.

पद्मश्री पुरस्कार द्वारा सम्मानित हरिमन शर्मा के प्रयासों को मान्यता मिलना, राष्ट्रीय चुनौतियों के समाधान और सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के साथ संरेखित स्थायी आजीविका सृजन में जमीनी स्तर के नवाचारों की परिवर्तनकारी शक्ति का प्रमाण है.

गणतंत्र दिवस (Republic Day) पर किसानों को कराया पूसा संस्थान का भ्रमण

नई दिल्ली : 27 जनवरी, 2025  को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में 500 किसानों ने भ्रमण किया. ये किसान कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान के विशेष अतिथि के तौर पर देशभर से राजधानी के गणतंत्र दिवस (Republic Day)  उत्सव में शामिल होने आए थे. ये किसान भारत सरकार की विभिन्न योजनाओं जैसे किसान उत्पादक समूह, किसान सम्मान निधि, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजनाओं के लाभार्थी थे.

किसानों के दिल्ली आने का ज्यादा से ज्यादा फायदा मिल सके और किसान कृषि की आधुनिकतम तकनीकों की जानकारी से लाभान्वित हो सकें, इस उद्देश्य को ध्यान में रख कर इस भ्रमण की योजना बनाई गई.

पूसा संस्थान के संपूर्ण अनुसंधान प्रक्षेत्र में ऐसे 16 क्लस्टर चिह्नित किए गए, जैसे संरक्षित खेती, ग्रीनहाउस एवं अलंकृत नर्सरी, सब्जी नर्सरी, टपक सिंचाई के अंतर्गत सब्जी उत्पादन, वर्टिकल खेती एवं हाइड्रोपोनिक्स, मशरूम इकाई, समन्वित खेती (सिंचित) मौडल, समन्वित खेती (वर्षा आधारित) मौडल, जल प्रौद्योगिकी केंद्र में जल संसाधन प्रबंधन के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियां, अधिक समय तक फसल प्रबंधन हेतु पूसा फार्म सनफ्रीज, सरसों प्रक्षेत्र, गेहूं पोषण प्रबंधन प्रक्षेत्र, उपसतही सिंचाई एवं फर्टिगेशन प्रक्षेत्र, मसूर और चना प्रक्षेत्र, पुष्प उद्यान, आम एवं किन्नू का बगीचा एवं उद्यमिता विकास में सक्षम पूसा एग्री कृषि हाट शामिल थे.

गणतंत्र दिवस (Republic Day)

सभी स्थानों में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों एवं तकनीकी अधिकारी मौजूद थे. उन्होंने संबंधित तकनीकों की जानकारी दी. पूसा संस्थान में भ्रमण करने आए किसानों में महिलाएं, बुजुर्ग, युवा, सभी तबके के किसान थे. उन्होंने वैज्ञानिकों के साथ बढ़चढ़ कर चर्चा में हिस्सा लिया एवं तकनीकी सीखने में रुचि दिखाई.

इस अवसर पर संस्था एवीपीएल की ओर से अंजुल त्यागी व उन की टीम मौजूद थी. इन्होंने ड्रोन द्वारा खेत पर छिड़काव का जीवंत प्रदर्शन किया.

कार्यक्रम की योजना कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय एवं भारतीय कृषि अनुसंधान के संयुक्त निदेशक डा. आरएन पडारिया ने बनाई. इस कार्यक्रम का सफल संचालन डा. एके सिंह, प्रभारी, कृषि प्रौद्योगिकी आकलन एवं स्थानांतरण केंद्र ने किया.

कार्यक्रम में पूसा संस्थान के अनेक कृषि विशेषज्ञ, वैज्ञानिक व तकनीकी अधिकारी विभिन्न क्लस्टरों में तकनीकी ज्ञान एवं प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए अनुसंधान प्रक्षेत्र में किसानों के साथ चर्चा के लिए उपलब्ध रहे.

नीलगाय (Nilgai) से फसलों की हिफाजत (Protection)

नीलगाय (Nilgai) से फसलों को बचाने के लिए कई तरीके हैं, लेकिन ज्यादातर उपाय खर्चीले हैं व गरीब किसानों की पहुँच से बाहर होते हैं.  कुछ ऐसे उपाय हैं जिन्हें आजमा कर आप अपनी फसलों का नीलगाय (Nilgai) व जंगली जानवरों से बचाव कर सकते हैं.

सबसे ज्यादा नुकसान किसानों को नीलगाय (Nilgai) से होता है. नीलगाय (Nilgai) झुंड में रहती हैं. इन की तादाद कभीकभी 25-30 तक रहती है. ऐसे में ये जिस किसी खेत में घुसती हैं, उस का एक बार में सफाया कर देती हैं.

नीलगाय (Nilgai) से फसलों को बचाने के लिए कई तरीके हैं, लेकिन ज्यादातर उपाय खर्चीले हैं. गरीब किसानों के पास इतना पैसा नहीं होता कि वे खेतों की तारबंदी करवा लें.

कृषि वैज्ञानिकों ने कई रिसर्च के जरीए इस बात को साबित कर दिया है कि नीलगाय (Nilgai) के गोबर के घोल की गंध उन्हें खेतों में आने से रोकती है.

नीलगाय (Nilgai) फसलों को तो खाती हैं ही, बल्कि इन के पैरों से भी खेत में काफी नुकसान होता है. सरसों और आलू के पौधे यदि एक बार टूट गए तो दोबारा जड़ें जमाना मुश्किल हो जाता है इसलिए फसलों की हिफाजत के लिए नीचे दिए गए उपाय अपनाना जरूरी हैं:

* नीलगाय (Nilgai) को खेतों की ओर आने से रोकने के लिए 4 लिटर मट्ठा में आधा किलो छिला हुआ लहसुन पीस कर मिला दें और इस में 500 ग्राम बालू डालें. इस घोल का 5-5 दिन बाद छिड़काव करें. इस की गंध से तकरीबन 20 दिन तक नीलगाय (Nilgai) खेतों में नहीं आएंगी. इसे 15 लिटर पानी के साथ भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

* 20 लिटर गोमूत्र, 5 किलोग्राम नीम की पत्तियां, 2 किलोग्राम धतूरा, 2 किलोग्राम मदार की जड़, फलफूल, 500 ग्राम तंबाकू की पत्तियां, 250 ग्राम लहसुन, 150 ग्राम लाल मिर्च पाउडर को डब्बे में भर कर धूप में 40 दिन तक के लिए रख दें. उस में हवा नहीं जानी चाहिए. इस के बाद 1 लिटर इस दवा को 80 लिटर पानी में घोल कर फसल पर छिड़काव करने से महीनेभर तक नीलगाय (Nilgai) फसलों को नुकसान नहीं पहुंचाती हैं. इस से नीलगाय (Nilgai) से हिफाजत के साथ ही आप की फसलों की कीटपतंगों से भी हिफाजत हो जाएगी.

* किसान अपने खेतों के चारों तरफ कंटीली तार के साथ ही बांस की फट्टियां लगा सकते हैं. आजकल बाजार में जानवरों से बचाव के लिए चमकीली बैंड की पट्टियां भी मिल रही हैं. इन से भी घेराबंदी की जा सकती है.

* खेत की मेंड़ों को ऊंचा बनाना चाहिए और इन मेंड़ों के किनारे करौंदा, जैट्रोफा, तुलसी, खस, जिरेनियम, मैंथा, लैमन ग्रास, सिट्रोनेला, पामारोजा के पौधे लगाए जा सकते हैं. इन पौधों की खासीयत यह होती है कि ये काफी घने होते हैं और कुछ पौधे कंटीले भी होते हैं. यह तरीका भी आप की फसल को महफूज रख सकता है.

* कुछ किसान अपने खेत में आदमी के आकार का पुतला बना कर खड़ा कर देते हैं. इस से जानवरों को यह डर रहता है कि कोई आदमी खेत पर है. इस से भी नीलगाय खेतों में नहीं आती हैं.

* नीलगाय के गोबर का घोल बना कर मेंड़ से 1 मीटर अंदर फसलों पर छिड़कने से कुछ समय के लिए फसलों की हिफाजत की जा सकती है.

* किसानों को चाहिए कि वे फसलों पर 1 लिटर पानी में 1 ढक्कन फिनाइल के घोल का छिड़काव करें. इस से नीलगाय फिनाइल की बदबू से खेतों के आसपास आने की हिम्मत नहीं करेंगी.

* गधे की लीद, पौल्ट्री का कचरा, गोमूत्र, सड़ी सब्जियों की पत्तियों का घोल बना कर फसलों पर छिड़कने से नीलगाय खेतों के पास नहीं आती हैं.

* कुछ किसान अपने खेतों में रात के वक्त मिट्टी के तेल की डिबरी जला देते हैं, जिस से नीलगाय खेतों में नहीं आती हैं.

ये कुछ ऐसे उपाय हैं जिन्हें आजमा कर आप अपनी फसलों का नीलगाय व जंगली जानवरों से बचाव कर सकते हैं.

लखनऊ की गुलाब रेवड़ी (Gulab Rewari)

लखनऊ की गुलाब रेवड़ी देश भर में अपने स्वाद और खुशबू के लिए मशहूर है. इस गुलाब रेवड़ी का रंग तो गुलाबी नहीं होता, लेकिन इस की खुशबू में गुलाब महकता है.

कई बार तो खुशबू के लिए रेवड़ी के पैकेट में सूखे गुलाब की पत्तियों या फिर गुलाब के खाने वाले इत्र का इस्तेमाल किया जाता है.

गुलाब रेवड़ी के साथ अब दूसरे स्वाद और खुशबू वाली रेवडि़यां भी आ रही हैं. इन का आकार भी बदल गया है. रेवड़ी बनाने के कारोबार से ले कर बेचने तक का अलगअलग कारोबार कर के लोग कमाई कर रहे हैं.

फेरी में बिकने वाली लखनऊ की गुलाब रेवड़ी अब बड़ीबड़ी मिठाई की दुकानों की शान बन गई हैं. जाड़ों में यह काफी बिकती है. गुड़, शक्कर और तिल से बनने वाली रेवड़ी सेहत के लिए काफी उपयोगी है. यह शरीर में जाड़ों में होने वाली तेल की कमी को पूरा करती है. इस से शरीर को ऊर्जा मिलती है. यही वजह है कि जाड़ों में गुड़ और तिल से बनने वाली रेवड़ी सभी को पसंद आती है. रेवड़ी पहले छोटे कारोबारियों द्वारा बनाई और बेची जाती थी, लेकिन अब यह दुनिया भर के बाजारों में छा गई है.

रेवड़ी अब कारपोरेट स्वीट बन गई है. दीवाली, नया साल और होली के मौके पर इस को उपहार में दिया जाने लगा है. रेवड़ी की खासीयत इस का कुरकुरापन है. लखनऊ के अलावा रेवड़ी का यह कारोबार उत्तर प्रदेश के मेरठ, हरियाणा के रोहतक और राजस्थान के जयपुर और अलवर जैसे शहरों में भी बड़े पैमाने पर होने लगा है. अपने खास स्वाद के कारण जयपुर और मेरठ की रेवडि़यां भी खूब पसंद की जा रही हैं.

बनाएं घर पर रेवड़ी

गजक बनाने वाली सामग्री ही रेवड़ी बनाने में भी लगती है. रेवड़ी में भी तिल, गुड़, चीनी का इस्तेमाल होता है. गुड़ और चीनी को एकसाथ मिलाने से रेवड़ी में दोनों का स्वाद मिलता है. इस का दूसरा लाभ यह होता है कि रेवड़ी का रंग पूरी तरह से साफ हो जाता है. केवल गुड़ से तैयार रेवड़ी का रंग अच्छा नहीं दिखता है. चीनी और गुड़ की चाशनी को मिला कर खूंटी में गरमगरम लटका कर खींचा जाता है. जब इस में से सफेद तार निकलने लगे, तो गरमगरम मनचाहे आकार में इसे काट कर छोटीछोटी रेवड़ी तैयार की जाती हैं. चाशनी ठंडी होने पर यह नहीं बन पाती है. इसे मशीन से दबा कर ऊपर से तिल चिपका दिए जाते हैं. इसे बनाने में सब से ज्यादा सावधानी चाशनी तैयार कने में बरतनी पड़ती है.