गरीबों का भोजन अब अमीरों की थाली में

उदयपुर : 28 फरवरी, 2025 को ‘खाद्य एवं पोषण सुरक्षा व पौष्टिक अनाज’ विषय पर आयोजित एकदिवसीय कार्यशाला में महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी) के अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा ने कहा कि आजादी के समय हमारे देश की आबादी 33 करोड़ थी और पेट भरने के लिए केवल मोटे अनाज जैसे कांगणी, रागी, सांवा, कुटकी, बाजरा, ज्वार आदि ही थे. विगत 70 सालों में भारत की आबादी 150 करोड़ पंहुच गई है. तब अनाज की कमी को पूरा करने के लिए विदेशों से गेहूंधान मंगाना पड़ा था. आज कृषि वैज्ञानिकों की मेहनत के बल पर अनाज के भंडार भरे हुए हैं. खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भर है.

इस कार्यशाला में गिर्वा, कुराबड़, सायरा, गोगुंदा व कोटड़ा के 100 किसानों ने भाग लिया. डा. अरविंद वर्मा ने कहा कि एक किलो धान पैदा करने में 3,500 लिटर पानी खर्च होता है, जबकि मोटे अनाज, जिन्हें ‘श्री अन्न’ के नाम से पुकारा जाता है, एक या दो पिलाई में ही पक जाते हैं.

उन्होंने किसानों को शपथ दिलाई कि गेहूंमक्का करें, लेकिन कम से कम 20 फीसदी भूमि पर मोटे अनाज की बोआई जरूर करें. मोटा अनाज कभी गरीबों का भोजन था, लेकिन अब इसे अमीर लोगों का भोजन माना जाता है.

कीट विज्ञानी डा. आर. स्वामीनाथन ने बताया कि मोटे अनाज वाली फसलों में कीड़ाबीमारी नहीं के बराबर आती है. फिर भी मोटे अनाज की फसलों के आसपास हजारे के फूल के पौधे लगा देने मात्र से मित्र कीटों की भरमार रहेगी, जो शत्रु कीट का खात्मा कर देंगे.

आनुवंशिकी विभागाध्यक्ष डा. हेमलता शर्मा ने ‘श्री अन्न’ यानी मोटा अनाज को खाद्य, पोषण, स्वास्थ्य, पर्यावरण और गृह सुरक्षा में कारगर बताया और कहा कि मोटा अनाज प्रयोग में लाने से हम कई प्रकार की बीमारियों से बच सकते हैं. उन्होंने मोटे अनाज को खेतों में उगाने की विधि और बीज की उपलब्धता के बारे में बताया. मोटा अनाज पर कड़क छिलका होता है, जिसे हुलर (चक्की) से हटा कर हम रोटी, इडली, हलवा आदि कई चीजें बना सकते हैं.

उन्होंने किसानों से कहा कि पोषक तत्वों से भरपूर बाजरा कोई भी बाजार से न खरीदे. एमपीयूएटी की ओर से कार्यशाला के संभागी किसानों को बाजारा व अन्य ‘श्री अन्न’ के बीज सुलभ कराए जाएंगे. इस मौके पर ‘श्री अन्न’ की लाइव स्टाल भी लगाई गई, ताकि किसान मोटे अनाज को बारीकी से समझ सकें.

इस कार्यशाला में पूर्व संयुक्त निदेशक, कृषि, बंसत कुमार धूपिया ने कहा कि सब से पहले खेत की सेहत सुधारी जानी चाहिए. रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशियों का सीमित मात्रा में प्रयोग करने की सीख दी.

होम साइंस कालेज में खाद्य एवं पोषण विभाग सहप्राध्यापक डा. विशाखा सिंह ने मोटे अनाज की कटाई के बाद उन से बनने वाले विभिन्न व्यंजनों जैसे केक, बिसकुट, कुकीज, ब्रेड आदि के बारे में बताया.

आरंभ में संयुक्त निदेशक सुधीर कुमार वर्मा, सहायक निदेशक श्याम लाल सालवी, डा. डीपी सिंह, रामेश्वर लाल सालवी, हरीश टांक आदि ने भी अपने विचार रखे. कार्यक्रम का संचालन महेश व्यास ने किया.

कृषि क्षेत्र में हैं अपार रोजगार

उदयपुर :  देश के सुदूर गांवोंकसबों में बसे लोगों तक विभिन्न विषयों की जानकारी मुहैया कराने का रेडियोटैलीविजन एक सशक्त माध्यम है. ‘कृषि में संकट और तनाव’ विषयक कार्यक्रमों की अवधारणा और डिजाइन तैयार करने और प्रसारण के लिए एकदिवसीय कार्यशाला पिछले दिनों 27 फरवरी को हुई. कार्यशाला में 12 राज्यों के आकाशवाणी और दूरदर्शन में कार्यरत 30 अधिकारियों ने हिस्सा लिया.

उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि कृषि क्षेत्र लंबे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहा है, जो राष्ट्रीय आय और रोजगार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. भारतीय कृषि की यात्रा 1950 में मात्र 50 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन के साथ शुरू हुई, तब से हम ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

साल 2023-24 के दौरान 137.8 मिलियन टन चावल और 113.3 मिलियन टन गेहूं का रिकौर्डतोड़ उत्पादन किया. इस से निकट भविष्य में हमारी खाद्य सुरक्षा तो मजबूत हुई, लेकिन बढ़ती हुई आबादी के मद्देनजर प्राकृतिक संसाधनों की कमी और जलवायु परिवर्तन के चलते कृषि के विकास को बनाए रखना होगा.

उन्होंने आगे कहा कि पिछले कुछ दशकों में विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों ने अर्थव्यवस्था की वृद्धि में तेजी से योगदान दिया है, जबकि कृषि क्षेत्र का योगदान कम हुआ है. भारत में अभूतपूर्व कृषि संकट काफी समय से किसानों को प्रभावित कर रहा है. इन के पीछे के कारणों पर विचार करना होगा.

हाल के वर्षों में चरम जलवायु घटनाओं के साथसाथ बाजार और मूल्य में उतारचढ़ाव के चलते किसानों को कई बार आत्महत्या तक के लिए मजबूर होना पड़ा है. सच तो यह है कि हम कहीं न कहीं अपने किसानों के आर्थिक सशक्तीकरण और कल्याण के एजेंडा से चूक गए हैं.

उन्होंने यह भी कहा कि कृषि बाजार, कोल्ड स्टोरेज, गोदाम और कृषि प्रसंस्करण सहित कृषि बुनियादी ढांचे का विकास कृषि उत्पादन में वृद्धि के अनुरूप गति से नहीं हुआ है. भारत में कृषि संकट को कम करने के लिए किसानों की आय बढ़ाने के लिए नीतियां बनानी होंगी. रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे. डिजिटल कृषि मिशन, सतत कृषि मिशन, प्राकृतिक खेती पर राष्ट्रीय मिशन, बीज और रोपण सामग्री पर उपमिशन की आवश्यकता है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि आकाशवाणी और दूरदर्शन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के अग्रदूत हैं. इन में ग्रामीण लोगों की मानसिकता को ऊपर उठाने की क्षमता है. डीडी किसान दूरदर्शन का प्रमुख चैनल है.

प्रसार भारती की अतिरिक्त महानिदेशक अनुराधा अग्रवाल ने कहा कि पर्याप्त प्रचारप्रसार की कमी में किसान सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हैं. प्रसार भारती व इस से जुड़े अधिकारियों की जिम्मेदारी है कि ऐसी योजनाओं को उन लोगों तक पहुंचाए. कृषि संबंधी प्रसारण से युवा व महिलाओं का ज्ञानवर्द्धन होगा और वे कृषि से जुड़ेंगे. हर क्षेत्र की जलवायु अलगअलग है. वहां के इको सिस्टम को समझ कर कार्यक्रम तैयार करें, ताकि योजनाओं का समग्र लाभ उन्हें मिल सके. उन्होंने कहा कि किसान खुश नहीं है. परेशान हो कर वह अन्न पैदा कर रहा है, जो कभी भी किसी के अंग नही लगेगा.

अटारी, जोधपुर के निदेशक डा. जेपी मिश्रा ने कहा कि देश में वर्तमान में 731 कृषि विज्ञान केंद्र  कार्यरत हैं. रेडियो व दूरदर्शन पर भी किसान हित के अनेकों कार्यक्रम प्रसारित होते हैं, लेकिन किसान किनकिन समस्याओं का सामना कर रहा है, इस का खयाल किसी को नहीं है. कम जोत के कारण किसान बेबस है. आज वह उत्पादन, कीमतों, आय और रोजगार के चक्रव्यूह में फंस कर रह गया है.

एनएबीएम, नई दिल्ली के पाठ्यक्रम निदेशक डा. उमाशंकर सिंह ने कहा कि आकाशवाणी व दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम तार्किक हों, शोधपरक हों, ताकि जो ज्ञान किसानों तक पहुंचे, उस का पूर्ण लाभ मिल सके. जिला स्तर पर तैनात कृषि विभाग के अधिकारियों को भी अपडेट करना होगा, ताकि नवीनतम तकनीकयुक्त ज्ञान का प्रसारण हो.

इस कार्यक्रम में वरिष्ठ अधिकारी परिषद के सदस्य डा. अरविंद वर्मा, डा. आरबी दुबे, डा. सुनील जोशी, डा. वी. नेपालिया, डा. एसके इंटोदिया एवं डा. राजीव बैराठी मौजूद रहे.

Mung Bean : ग्रीष्मकालीन मूंग की उन्नत खेती

Mung Bean  : दलहनी फसलों में मूंग का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है. इस में 24 फीसदी प्रोटीन के साथसाथ रेशा एवं लौह तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. आज जल्दी पकने वाली किस्मों एवं उच्च तापमान को सहन करने वाली प्रजातियों की उपलब्धता के कारण यह फायदेमंद सिद्ध हो रही है.

वर्तमान में सघन खेती, अंधाधुंध कीटनाशियों एवं असंतुलित खादों के इस्तेमाल से जमीनों की उर्वराशक्ति घट रही है. साथ ही, सभी फसलों की उत्पादकता में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है.

इस स्थिति से निबटने के लिए हरी खादों व दलहनी फसलों को अपनाएं और अपनी जमीनों की उर्वराशक्ति को बरकरार रखने व देश की बढ़ती हुई खाद्यान्न समस्याओं से निबटने में अपना भरपूर योगदान दें.

ग्रीष्मकालीन मूंग (Mung Bean) उगाने के फायदे

* अतिरिक्त आय

* कम समय के कारण धान व गेहूं फसल चक्र में उपयोगी

* खाली पड़े खेतों का सही उपयोग

* भूमि की उपजाऊ शक्ति में सुधार

* उगाने में कम खर्च

* पानी का सदुपयोग

* बीमारी व कीटों का कम प्रकोप

* भूमि कटाव से बचाव

* दलहन उत्पादन में वृद्धि

* विदेशी पैसों की बचत

उन्नत किस्में : मूंग की बिजाई के लिए के-851 (70-75 दिन) मुसकान (65 दिन), एसएमएल-668 (60-65 दिन), एमएच-421 (60 दिन) व नई किस्म एमएच-1142 (63-70 दिन) की खेती की जा सकती है जो धान व गेहूं चक्र के लिए बहुपयोगी पाई गई है.

भूमि : अच्छी मूंग की फसल लेने के लिए दोमट या रेतली दोमट भूमि सही रहती है. समय पर बिजाई वाले गेहूं से खाली खेतों में ग्रीष्मकालीन मूंग ली जा सकती है.

इस के अलावा धानगेहूं उगाने वाले क्षेत्रों में आलू, गन्ना व सरसों से खाली खेतों में भी मूंग की खेती की जा सकती है.

भूमि की तैयारी : गेहूं की कटाई के एक सप्ताह पहले रौनी/पलेवा करें और गेहूं की कटाई के तुरंत बाद 2-3 जुताई कर के खेत को अच्छी तरह तैयार करें.

इस बात का खास खयाल रखें कि खेत में बिजाई के समय समुचित नमी हो, ताकि समुचित जमाव हो सके.

बिजाई का सही समय : इस मौसम में वैसे तो मूंग की बिजाई फरवरी के दूसरे सप्ताह से मार्च तक की जाती है, लेकिन धानगेहूं बहुमूल्य क्षेत्रों में गेहूं की कटाई यदि 15 अप्रैल तक भी हो जाती है, तो इस के बाद भी मूंग की अच्छी पैदावार ली जा सकती है, क्योंकि ये किस्में 55-65 दिन में ही पक कर तैयार हो जाती हैं.

बीजोपचार : मृदाजनित रोगों से फसल को बचाने के लिए बोए जाने वाले बीजों को कैप्टान, थिरम या बाविस्टिन 3-4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से सुखा कर बीज तैयार करें.

दलहनी फसलें में राइजोबयिम (जीवाणु टीके) से बीज उपचार करने से बनने वाली गांठें अधिक मजबूत होती हैं, जो वायुमंडल में उपलब्ध नाइट्रोजन ले कर भूमि में जमा करती हैं. जीवाणु टीके से उपचार हेतु 50 ग्राम गुड़ को लगभग 250 मिलीलिटर पानी में घोल बना लें और छाया में पक्के फर्श पर बीज फैला कर हाथों से मिला दें, ताकि सभी बीजों पर गुड़ चिपक जाए.

बाद में इन बीजों पर जीवाणु टीके का पैकेट व घोल को गुड़ लगे बीजों पर डालें और हाथ से मिलाएं, जिस से सभी दानों पर कल्चर लग जाए. बीजों को छाया में सुखा कर बिजाई के काम में लाएं.

बीज की मात्रा : गरमी के मौसम में पौधों की बढ़वार पहले के मुकाबले कम हो जाती है, इसलिए अच्छी पैदावार लेने के लिए बीज अधिक डालें और फासला भी कम रखें.

पौधों की उचित संख्या के लिए बीज की मात्रा तकरीबन 10-12 किलो बीज प्रति एकड़ का प्रयोग करें.

खादों का प्रयोग : दलहनी फसलों को खाद की कम जरूरत होती है. बिजाई के समय तकरीबन 6-8 किलोग्राम शुद्ध नाइट्रोजन व 16 किलोग्राम फास्फोरस की जरूरत होती है जिसे 12-15 किलोग्राम यूरिया व 100 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट से पूरा किया जा सकता है.

अच्छी पैदावार लेने के लिए 10 किलो जिंक सल्फेट प्रति एकड़ का प्रयोग जरूर करें.

छंटाई : बिजाई के लगभग 2 सप्ताह बाद जब पौधे व्यवस्थित हो जाएं, तब पौधे से पौधे का फासला 8-10 सैंटीमीटर रख कर फालतू पौधे निकाल देने चाहिए. पौधों की सही बढ़वार के लिए छंटाई करना बहुत जरूरी है, ताकि हर एक पौधे को उचित हवा, नमी, सूर्य की रोशनी व पोषक तत्त्व पूरी मात्रा में मिल सकें.

मूंग (Mung Bean)

खरपतवार नियंत्रण : खरपतवार फसल के दुश्मन हैं, क्योंकि यह जमीन से नमी का शोषण करते है और फसल की बढ़वार में  बाधक साबित होते हैं. इसलिए पहली सिंचाई के बाद चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार उग आते हैं, जिन्हें कसोले से निकाल देना चाहिए.

पैंडीमेथिलीन नामक खरपतवारनाशी 1.25 किलोग्राम को 200 लिटर पानी में घोल बना कर बिजाई के तुरंत बाद छिड़काव करने से खरपतवारों पर काबू पाया जा सकता है.

सिंचाई : ग्रीष्मकालीन मूंग में सिर्फ 2 सिंचाई काफी रहती है. फसल में पहली सिंचाई 20-25 दिन बाद की जाती है, जबकि दूसरी सिंचाई 15-20 दिन के बाद करनी चाहिए.

ज्यादा सिंचाई करने से पौधों की बढ़वार अत्यधिक हो जाती है और फलियां कम लगती हैं और एकसाथ भी नहीं पकती.

कीड़े व बीमारी

ग्रीष्मकालीन मूंग में खरीफ मूंग की तुलना में कीड़ों का प्रकोप कम होता है. कभीकभार बालों वाली सुंडी, पत्ती छेदक, फली छेदक, हरा तेला व सफेद मक्खी आदि कीड़ों का प्रकोप देखने में आता है.

बालों वाली सुंडी की रोकथाम के लिए 200 मिली मोनोक्रोटोफास 36 एसएल या 500 मिली क्विनालफास का 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

हरा तेला व सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए 400 मिली मैलाथियान या 250 से 300 मिली रोगोर या मेटासिस्टोक्स का प्रयोग 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

बीमारी

ज्यादातर ग्रीष्मकालीन मूंग में बीमारियों का प्रकोप नहीं होता. कभीकभार पत्ती धब्बा रोग व पीला मौजेक रोग का प्रकोप देखने में आता है.

पत्ती धब्बा रोग : पत्तियों पर कोणदार व भूरे लाल रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो बीच में धूसर या भूरे रंग के और सिरों पर लालजामुनी रंग के होते हैं.

इन धब्बों को रोकने के लिए ब्लिटौक्स-50 या इंडोफिल एम-45 की 600-800 ग्राम दवा की मात्रा 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

पीला मौजेक रोग : मूंग में लगने वाला यह एक भयानक रोग है और इस रोग को सफेद मक्खी फैलाती है. इस रोग से प्रभावित पौधों के पत्ते दूर से ही पीले नजर आने शुरू हो जाते हैं. रोग अधिक फैलने से पूरा पौधा पीला पड़ जाता है.

इस रोग को रोकने के लिए जब भी खेत में पीले पौधे दिखाई पड़ें, तो उन्हें तुरंत उखाड़ देना चाहिए, क्योंकि यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है, इसलिए समयसमय पर इस के नियंत्रण के लिए रोगोर या मेटासिस्टोक्स कीटनाशी का 200 से 350 मिलीलिटर दवा का छिड़काव 100 से 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव कर देना चाहिए.

उपज व कटाई

ग्रीष्मकालीन मूंग में बिजाई के लगभग 50-55 दिन बाद फलियां पकनी शुरू हो जाती है. पकने पर फलियों का रंग गहरा भूरा हो जाता है. एक एकड़ से तकरीबन 4 से 6 क्विंटल पैदावार मिल जाती है.

Micro-Irrigation : ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ माइक्रोइरीगेशन योजना

Micro-Irrigation : आजकल किसानों के सामने खेती में सिंचाई एक बड़ी समस्या है. दिनोंदिन पानी का लैवल नीचे पहुंचता जा रहा है. ऐसे समय में हमें खेती में कम पानी से सिंचाई हो, ऐसी तकनीक की दरकार है. इसी संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा सिंचाई के लिए माइक्रोइरीगेशन (Micro-Irrigation) योजना ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ के नाम से योजना चलाई जा रही है. राष्ट्रीय कृषि विकास योजना भी इस योजना के अंतर्गत ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी तरीके से अनेक फसलों में अपनाने पर जोर दे रहा है. इस सिंचाई पद्धति से 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत की जा सकती है.

हमारे देश में किसानों के विकास के लिए सरकार द्वारा अनेक कृषि योजनाएं चलाई जा रही हैं. चाहे बात खेत की बोआई की हो या खेत की सिंचाई की हो, फसल की निराईगुड़ाई की हो, फसल की छंटाई की हो, उस की गहाई की हो या खेत तैयार करने की हो, इन सब के बावजूद खेती के अनेक काम होते हैं, जिस के लिए अनेक आधुनिक तकनीकी पर आधारित कृषि यंत्र हैं, जिन के इस्तेमाल से न केवल फसल से अच्छी उपज मिलती है, बल्कि समय और मेहनत भी कम लगती है.

आजकल किसानों के सामने खादबीज के अलावा सिंचाई भी एक बड़ी समस्या है. दिनोंदिन पानी का लैवल नीचे पहुंचता जा रहा है. ऐसे समय में हमें खेती में कम पानी से सिंचाई हो, ऐसी तकनीकों की दरकार है.

इसी संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा सिंचाई के लिए माइक्रोइरीगेशन योजना ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ के नाम से योजना चलाई जा रही है. इसे सूक्ष्म सिंचाई तकनीक भी कहा जाता है.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना भी इस योजना के अंतर्गत ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी तरीके से अनेक फसलों में अपनाने पर जोर दे रहा है. इस सिंचाई पद्धति से 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत की जा सकती है और 35 से 40 फीसदी तक अधिक पैदावार भी हासिल की जा सकती है.

यूपीएमआईपी पोर्टल से करें रजिस्टर

वर्तमान में इस योजना का संचालन यूपीएमआईपी पोर्टल के जरीए किया जा रहा है. जो किसान इस योजना का लाभ लेना चाहता है, वह  पोर्टल पर रजिस्टर कर सूक्ष्म सिंचाई पद्धति लगा सकते हैं.

योजना प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए लाभार्थी किसानों के प्रक्षेत्रों (खेत) पर लगाई गई इस यूनिट का इंस्पैक्शन (जांच) थर्ड पार्टी द्वारा किया जाता है, जिस से सिंचाई यूनिट का बीमा भी किया जा सके.

ड्रिप सिंचाई पद्धति के लिए चुनी गईं फसलें

बागबानी फसल : फल उद्यान (फलों के बाग) : आम, अमरूद, आंवला, नीबू, बेल, बेर, अनार, अंगूर, आड़ू, लोकाट, आलूबुखारा, नाशपाती, पपीता, केला आदि.

सब्जी फसल : टमाटर, बैंगन, भिंडी, मिर्च, शिमला मिर्च, गोभीवर्गीय एवं कद्दूवर्गीय सब्जियां.

फूल और औषधीय फसल : खुशबूदार और औषधीय फसलों में अनेक तरह के फूलों की खेती जैसे ग्लैडियोलस, गुलाब, रजनीगंधा, सगंध पौधे और अनेक औषधीय फसलें आती हैं. इन फसलों के अलावा आलू, गन्ना और अनेक कृषि फसलें भी हैं, जो इस ड्रिप सिंचाई की योजना के अंतर्गत आती हैं.

स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति

इस में मुख्य रूप से मटर, आलू, गाजर, पत्तेदार सब्जियां और कृषि फसलों में माइक्रो, मिनी, पोर्टेबल, सैमी, परमानैंट एवं रेनगन स्प्रिंकलर का इस्तेमाल होता है.

सिंचाई यंत्र पर सब्सिडी का पैमाना

माइक्रोइरीगेशन योजना के तहत किसान को इस योजना का लाभ उस की श्रेणी के अनुसार मिलता है. इस के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार अपनेअपने हिस्से की सब्सिडी किसान को देती है. शेष राशि जो लाभार्थी को उठानी होती है, वह काफी कम होती है. विस्तार से सारणी में जानकारी दी गई है.

Oilseed Production : कैसे बढ़ेगा तिलहन उत्पादन

Oilseed Production :  पिछले दिनों 24 फरवरी,2025 को राष्ट्रीय खाद्य तेल-तिलहन मिशन नेशनल मिशन औन एडिबल औयल (एनएमइओ) योजानान्तर्गत दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया. इस कार्यशाला में खेरवाड़ा, मावली, झाड़ोल, फलासिया और नयागांव पंचायत समितियों के चयनित 100 किसानों ने भाग लिया.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी) के निदेशक अनुसंधान के नवीन सभाकक्ष में आयोजित कार्यशाला में किसानों को तिलहन उत्पादन बढ़ाने और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता संबंधी महत्वपूर्ण गुण सिखाए गए.

एमपीयूएटी के पादप रोग वैज्ञानिक डा. आरएस रत्नू ने तेल वाली फसलों यथा तिल, मूगंफली, सोयाबीन, अरण्डी, सूरजमुखी, सरसों, अलसी, कुसुम आदि में लगने वाली बीमारियों और उन के निदान के बारे में बताया, ताकि तिलहन की खेती करने वाले किसान समय रहते नुकसान से बच सकें.

कीट वैज्ञानिक डा. आर स्वामिनाथन ने तिलहन फसलों में लगने वाले प्रमुख कीट और उन का निदान, मित्र कीट की पहचान और उस का महत्व, फसल चक्र अपनाने के फायदे आदि के बारे में विस्तारपूर्वक बताया. पादप व अनुवांशिकी विभाग के डा. पीबी सिंह, अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा और डा. अभय दशोरा ने मूगंफली की उन्नत किस्मों व खरपतार नियंत्रण आदि की जानकारी दी.

आरंभ में संयुक्त निदेशक कृषि जिला उदयुपर सुधीर कुमार वर्मा ने कार्यशाला के लक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए बताया कि तिलहन उत्पादन मिशन के अंतर्गत 2030-31 तक केंद्र ने 10 हजार 800 करोड़ रूपए की मंजूरी दी है. इस में 20 फीसदी राशि राज्य सरकार वहन करेगी.

Agricultural Science Fair : आईएआरआई में ‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’

Agricultural Science Fair : ‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’ दिनांक 24 फरवरी, 2025 को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ. यह तीन दिवसीय आयोजन कृषि नवाचार, सतत विकास, और प्रौद्योगिकी संचालित समाधानों को किसानों तक पहुंचाने के लिए किया गया था.

पूसा कृषि विज्ञान मेले (Agricultural Science Fair) के समापन दिवस पर किसानों, कृषि वैज्ञानिकों, उद्योग जगत के नेताओं और नीति निर्माताओं की भारी भागीदारी देखी गई. एक लाख से अधिक किसानों ने इस मेले में सक्रिय रूप से भाग लिया और 300 नवीनतम कृषि तकनीकों का अवलोकन किया, जो फसल  उत्पादकता बढ़ाने और स्थाई कृषि को बढ़ावा देने के लिए विकसित की गई हैं.

इस मेले में दिन की प्रमुख गतिविधियों में युवा और महिला उद्यमिता विकास पर तकनीकी सत्र शामिल था, जिस की अध्यक्षता डा. एके सिंह, पूर्व निदेशक, आईसीएआर-आईएआरआई (ICAR-IARI), ने की और इस की सह-अध्यक्ष डा. अनुपमा सिंह, डीन एवं संयुक्त निदेशक, आईएआरआई,रहीं.

इस सत्र के मुख्य अतिथि डा. वीवी सदामाते, योजना आयोग के पूर्व सलाहकार थे. सत्र में प्रमुख विषयों जैसे कि वर्टिकल फार्मिंग, हाइड्रोपोनिक्स, संरक्षित खेती, पुष्प कृषि आधारित उद्यमों और मशरूम उत्पादन पर चर्चा की गई. इस दौरान युवा और महिला किसानों को कृषि उद्यमिता को अपनाने के लिए प्रेरित करने के महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए.

इस के अतिरिक्त, नवाचारशील किसानों की बैठक (इनोवेटिव फार्मर्स मीटिंग) का आयोजन किया गया, जिस में प्रगतिशील किसानों को अपने सफलता के अनुभव और उन्नत तकनीकों को साझा करने का अवसर मिला. इस सत्र की अध्यक्षता डा. राजबीर सिंह, डीडीजी, आईसीएआर ने की, जब कि डा. जेपी शर्मा, पूर्व कुलपति, एसकेयूएएसटी, जम्मू, मुख्य अतिथि रहे. इस अवसर पर उत्कृष्ट किसानों और शोधकर्ताओं को उन के योगदान के लिए सम्मानित किया गया.

‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’ के समापन समारोह के मुख्य अतिथि डा. हिमांशु पाठक, सचिव(DARE) और महानिदेशक(ICAR) थे. उन्होंने जलवायु-स्मार्ट कृषि की आवश्यकता पर जोर दिया और सतत कृषि तकनीकों और आधुनिक प्रौद्योगिकी समाधानों के समावेश का आह्वान किया, जिस से खाद्य उत्पादन में स्थायित्व सुनिश्चित किया जा सके. उन्होंने किसानों को पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक नवाचारों का समावेश कर दीर्घकालिक कृषि स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित किया.

Agricultural Science Fair

आईसीएआर-आईएआरआई के निदेशक डा. सीएच श्रीनिवास राव ने भी सभा को संबोधित किया और जलवायु-प्रतिकारक (क्लाइमेट-रेसिलिएंट) फसलों और उन्नत कृषि तकनीकों को अपनाने पर बल दिया, जिस से जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम किया जा सके. उन्होंने सतत कृषि उत्पादकता बनाए रखने के लिए निरंतर अनुकूलन और वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता को दोहराया.

कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन डा. आरएन पडारिया, संयुक्त निदेशक (विस्तार), आईसीएआर-आईएआरआई, द्वारा प्रस्तुत किया गया. उन्होंने सभी गणमान्य व्यक्तियों, प्रतिभागियों, हितधारकों और देशभर के किसानों का आभार व्यक्त किया, जिन के योगदान से यह आयोजन सफल बना.

‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’  उत्साहपूर्ण माहौल में संपन्न हुआ, जिस ने किसानों को ज्ञान, तकनीक और संसाधनों से सशक्त बनाने की अपनी प्रतिबद्धता को फिर से दोहराया. यह आयोजन कृषि परिवर्तन को बढ़ावा देने, नवाचार को प्रोत्साहित करने और कृषि क्षेत्र को भविष्य की चुनौतियों के प्रति अधिक सशक्त बनाने के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य करेगा.

Fox Nut : टैक्नोलौजी की मदद से बेहतर व आसन होगी मखाने की खेती

दरभंगा : केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान पिछले दिनों 23 फरवरी को दरभंगा, बिहार पहुंचे, जहां उन्होंने तालाब में उतर कर मखाना (Fox Nut) उत्पादक किसानों से बात की.

उन्होंने मखाने (Fox Nut)  की खेती की पूरी प्रक्रिया समझी और मखाना (Fox Nut) उत्पादन में आने वाली कठिनाइयों को जानने के साथ ही किसानों से सुझाव भी लिए. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि मखाना की खेती कठिन है और तालाब में दिनभर रह कर खेती करनी होती है. केंद्र सरकार ने इस साल बजट में मखाना बोर्ड बनाने का ऐलान किया है. इस बोर्ड के बनने के पहले वे किसानों से सुझाव ले कर चर्चा कर रहे हैं, ताकि किसानों की वास्तविक समस्याएं समझी जा सकें.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दरभंगा में राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र पर संवाद कार्यक्रम में मखाना के किसानों से सुझाव लेने के साथ ही उन्हें संबोधित भी किया. इस मौके पर मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हम केवल विभाग नहीं चलाते हैं, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में गहराई तक जा कर कैसे हम किसानों की तकलीफ दूर करें, इस की कोशिश करते हैं.

उन्होंने आगे कहा कि किसान की आमदनी बढ़नी चाहिए. 57 फीसदी  लोग आज भी खेती पर निर्भर हैं, और खेती भी एक चीज की नहीं है, कहीं केला है तो कहीं लीची है, कहीं मकई है, तो कहीं गेहूं है, कहीं धान है, इस धरती पर तो मखाना है. अगर किसानों का कल्याण करना है, तो हमें हर एक फसल को ठीक से देखना पड़ेगा और इसलिए जब मैं पहली बार कृषि मंत्री बन कर पटना आया था, कृषि भवन में तब बैठक हुई थी किसानों के साथ और उस बैठक में मखाना उत्पादक किसानों ने अपनी समस्या बताई थी.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद किया, जिन्होंने मखाना केंद्र बनाया था. उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी का भी आभार जताया कि अब उन्होंने मखाना बोर्ड बनाने का फैसला किया है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि मखाना सुपरफूड है, पौष्टिकता का भंडार है, ये मखाना आसानी से पैदा नहीं होता है. मखाना पैदा करने के लिए कितनी तकलीफें सहनी पड़ती हैं, ये यहां आ कर देखा जा सकता है. इसलिए मेरे मन में ये भाव आया कि जिन्होंने किसानों की तकलीफ नहीं देखी, वह दिल्ली के कृषि भवन में बैठ कर मखाना बोर्ड बना सकते हैं क्या…? इसीलिए मैं ने कहा कि पहले वहां चलना पड़ेगा, जहां किसान मखाने की खेती कर रहा है. खेती करतेकरते कितनी दिक्कत और परेशानी आती है, ये भी हो सकता है कि यहां कार्यक्रम करते और निकल जाते, लेकिन इस से भी सही जानकारी नहीं मिलती.

उन्होंने कहा कि मेरे मन में भाव आया कि शिवराज तू तो सेवक है, एक बार पोखर, तालाब में उतर जा और मखाने की बेल को लगा, तब तो पता चलेगा कि मखाने की खेती कैसे होती है. जब बेल हाथ में ली तो पता चला कि उस के ऊपर भी कांटे थे और नीचे भी कांटे थे. हम तो केवल मखाना खाते हैं, लेकिन कभी कांटे नहीं देखे. जब हमारे किसान भाईबहन मखाने की खेती करते हैं, उन के लिए इस फसल को जितना लगाना कठिन है, उतना ही निकालना भी कठिन है.

मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों से कहा कि सही माने में आप से समझ कर कि मखाना बोर्ड बने तो कैसे बने, इसलिए उन्होंने अधिकारियों को भी निर्देश दिया है कि आईसीएआर (ICAR) व अनुसंधान केंद्र  कांटारहित मखाने का बीज विकसित करने पर काम करें.

Fox Nut

यह असंभव काम भी नहीं है. पर जहां बात मेकैनाइजेशन की आई, पानी में डुबकी लगा कर इसे निकालना पड़ता है, पूरे डूब गए आंख, नाक, कान में पानी और केवल पानी ही नहीं होता है, पानी के साथ कीचड़ भी होती है. अब आज के युग में मेकैनाइजेशन से ये चीज बदली जा सकती हैं, अभी यंत्र तो बने हैं, लेकिन उस में आधा मखाना आता है और आधा आता ही नहीं है. गुरिया बड़ी मुश्किल से निकलती है और इसलिए मेकैनाइजेशन होगा और ऐसे यंत्र बनाए जाएंगे, जो गुरिया को आसानी से बाहर खींच लाएं. आज टैक्नोलौजी है और प्रोसैसिंग में लगे कई मित्र ये काम कर रहे हैं.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हम उत्पादन बढ़ाने पर काम करेंगे. दूसरा, हम काम करेंगे उत्पादन की लागत घटाना. लागत कैसे घट सकती है, उस के कई पक्ष मेरे सामने आ गए हैं. तीसरा काम- उत्पादन में आने वाली कठिनाइयों को दूर करना, जिस से खेती आसान हो जाए. अब कई पोखर चाहिए, तालाब चाहिए, पानी रोकने की व्यवस्था चाहिए, हम लोग विचार करेंगे कि केंद्र और राज्य सरकार की अलगअलग योजना के तहत ये कैसे बनाए जा सकते हैं. क्या मनरेगा में कहीं तालाबों का निर्माण हो सकता है? कई तरह के रास्ते निकल सकते हैं, उस पर भी हम काम करेंगे. कठिनाइयों को दूर करना है और जिस के लिए कई काम करने पड़ेंगे, वे  है- मखाने की उचित कीमत मिल जाए, इस का इंतजाम करना आदि.

अभी तो ठीक है, लेकिन कई बार दाम गिर जाते हैं, इसलिए बाजार का विस्तार, मंडियों को ठीक करना, घरेलू बाजार, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मखाने की पहुंच बनाना है. उन्होंने कहा कि ये सुपरफूड मखाना एक दिन दुनिया में छा जाएगा, क्योंकि मखाने में कई गुण मौजूद हैं. इसलिए सुपरफूड की हम कैसे मार्केटिंग करें, ब्रांडिंग करें, पेकैजिंग करें, उस सभी में सहयोग देंगे.

उन्होंने कहा कि लीज पर जमीन ले कर खेती करने वाले किसानों को केंद्र सरकार की सभी योजनाओं का लाभ मिले. चाहे किसान क्रैडिट कार्ड हो, कम दरों पर ब्याज, खाद की व्यवस्था, एमएसपी आदि का भी बंदोबस्त हो. बंटाईदार, मेहनत  करने वाले को भी लाभ मिलना चाहिए. इस दिशा में हम काम कर रहे हैं. मखाना उत्पादक किसानों की ट्रेनिंग पर भी काम किया जाएगा. कार्यशाला लगाना, ट्रेनिंग कैंप लगा कर कैसे कौशल विकसित किया जाए, इस की कोशिश करेंगे.

मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि आज का कार्यक्रम कर्मकांड नहीं है, यह आम सभा नहीं है, यह किसान पंचायत है. मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए भी किसानों से बात कर के उन के कल्याण की योजना बनाता था.  यही तो जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है.

उन्होंने आगे कहा कि कल बिहार के सौभाग्य के सूर्य का उदय होगा, जब प्रधानमंत्री मोदी पधारेंगे. पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा कि बिहार अद्भुत राज्य है, यहां का टैलेंट, यहां के मेहनती किसान, विशेषकर बिहार का मखाना सुपर फूड. मखाना का उत्पादन बढ़े, प्रोसैसिंग हो, गुणवत्ता बढ़े, अभी मखाना उत्पादक किसान कई कठिनाइयों में काम करते हैं, टैक्नोलौजी के माध्यम से उन कठिनाइयों को दूर किया जाए, इस के लिए मखाना बोर्ड बनाया जा रहा है.

Crop diversification: फूलों और मशरूम की खेती से बढ़ेगी आय

उदयपुर: तुरगढ़ गांव, झाड़ोल तहसील, उदयपुर में महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशालय के अंतर्गत फसल विविधीकरण (Crop diversification) परियोजना के तहत दोदिवसीय किसान प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन हुआ. इस कार्यक्रम का उद्देश्य फसल विविधीकरण (Crop diversification)  को प्रोत्साहित करते हुए किसानों की आय और कृषि स्थिरता को बढ़ाना था.

कार्यक्रम के शुरू में परियोजना अधिकारी डा. हरि सिंह ने फसल विविधीकरण (Crop diversification) की परिभाषा और इस की आवश्यकता व आर्थिक महत्व पर चर्चा की. उन्होंने बताया कि पारंपरिक फसलों के साथ अन्य फसलों को अपनाने से न केवल मुनाफा बढ़ता है, बल्कि मिट्टी की उर्वरता और जल संरक्षण भी होता है.

एकल फसल प्रणाली के विपरीत विविध फसलें बाजार के उतारचढ़ाव और मूल्य अस्थिरता से सुरक्षा प्रदान करती हैं. इस के अलावा डा. हरि सिंह ने किसानो को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, ई-नाम व न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी केंद्र द्वारा चलाई जा रही परियोजनाओं की जानकारी प्रदान की.

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो. लक्ष्मी नारायण महावर ने कहा कि फसल विविधीकरण (Crop diversification) दक्षिणी राजस्थान के किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण बदलाव ले कर आया है. उन्होंने दक्षिण राजस्थान में फूलों की खेती के महत्व के बारे में बताया कि यहां की जलवायु फूलों की खेती के लिए अनुकूल है, जिस से किसानों को पारंपरिक खेती की तुलना में अधिक लाभ मिल सकता है.

वहीँ प्रोफैसर नारायण लाल मीना ने मशरूम की खेती पर ध्यान केंद्रित करते हुए इस के आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी लाभों के बारे में बताया और यह भी बताया कि किस प्रकार हम कम निवेश में अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं. साथ ही, उन्होंने मशरूम पाउडर के पोषण मूल्य और बाजार मूल्य के बारे में भी बताया.

Crop diversification

प्रशिक्षण के दौरान मदन लाल मरमट, नारायण सिंह झाला और नरेंद्र यादव ने किसानों के साथ सूखे और एकल फसल से होने वाले नुकसान और उन की चुनौतियों पर चर्चा की और बताया कि कैसे हम फसल विविधीकरण (Crop diversification) के माध्यम से ऐसी समस्याओं पर काबू पा सकते हैं, जिस से कृषि स्थिरता और किसानों की आय में वृद्धि होगी.

कार्यक्रम के अंत में परियोजना अधिकारी डा. हरि सिंह ने खरीफ और रबी फसलों की उन्नत किस्मों की विस्तृत जानकारी दी. उन्होंने किसानों को बताया कि उन्नत किस्में न केवल अधिक उत्पादकता देती हैं, बल्कि कीट और रोग प्रतिरोधक क्षमता भी रखती हैं.

उन्होंने आगे कहा कि फसलों की उन्नत किस्मों का चयन और सही समय पर बोआई किसानों की उत्पादकता में वृद्धि कर सकता है. साथ ही, संतुलित उर्वरक और सिंचाई प्रबंधन भी महत्वपूर्ण है. उन्होंने खेती के नवीनतम तरीकों जैसे बीजोपचार, समय पर खरपतवार नियंत्रण और फसल चक्र अपनाने पर जोर दिया.

इस कार्यक्रम में 40 से अधिक किसानों ने भाग लिया और प्रशिक्षण को काफी लाभदायक बताया. प्रतिभागियों ने इस जानकारी को अपने खेतों में लागू करने का संकल्प लिया, ताकि फसल विविधीकरण (Crop diversification) के माध्यम से उन की कृषि आय और स्थिरता में सुधार हो सके.

Natural farming : प्रकृति के साथ तालमेल ही प्राकृतिक खेती

उदयपुर : महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के तत्वावधान में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित जैविक खेती (Natural farming) पर अग्रिम संकाय प्रशिक्षण केंद्र के अंतर्गत 21 दिवसीय राष्ट्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रम ‘‘प्रकृति के साथ सामंजस्यः प्राकृतिक खेती में अनुसंधान और नवाचार’’ पर अनुसंधान निदेशालय, उदयपुर में पूर्व कुलपति डा. उमाशंकर शर्मा की अध्यक्षता में 19 फरवरी, 2025 को शुभारंभ हुआ.

इस अवसर पर पूर्व कुलपति डा. उमाशंकर शर्मा ने कहा कि प्राकृतिक खेती ही पर्यावरण के लिए अनुकूल है. प्राकृतिक खेती (Natural farming) द्वारा पर्यावरण को दूषित होने से बचाने के साथसाथ मृदा स्वास्थ्य यानी मिट्टी की सेहत में भी बढ़ोतरी होगी. प्राकृतिक खेती (Natural farming) में प्रयोग कर रहे घटकों से मिट्टी में लाभदायक जीवाणुओं की बढ़ोतरी होगी, जिस से फसलों के उत्पादन में स्थायित्व आएगा.

Natural farmingडा. उमाशंकर शर्मा ने सभी प्रतिभागियों को 21 दिवसीय प्रशिक्षण के दौरान सभी वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि अपनेअपने क्षेत्र में जा कर ब्रांड अंबेसडर की भूमिका निभाएं. इस प्रशिक्षण में 5 राज्यों के 26 वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया. डा. एसके शर्मा, सहायक महानिदेशक, मानव संसाधन, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने बताया कि प्राकृतिक कृषि (Natural farming) एक तकनीक ही नहीं, अपितु पारिस्थितिकी दृष्टिकोण है, जिस के द्वारा प्रकृति के साथ तालमेल बिठाया जाता है.

डा. उमाशंकर शर्मा ने 5 राज्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे प्राकृतिक कृषि पर प्रशिक्षण ले रहे वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए कहा कि ज्ञान की सघनता एवं प्रशिक्षणों से दक्षता में वृद्धि द्वारा इस कृषि को बढ़ावा दिया जा सकता है. साथ ही, उन्होंने प्राकृतिक खेती (Natural farming) के घटक जीवामृत, बीजामृत, धनजीवामृत, आच्छादन एवं वाष्प के साथ जैविक कीटनाशियों पर जोर  दिया.

इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि डा. एसके शर्मा ने कहा कि प्राकृतिक खेती (Natural farming) के महत्व को देखते हुए स्नातक छात्रों के लिए विशेष पाठ्यक्रम पूरे देश में शुरू किया जा रहा है. इस के लिए सभी विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों, शिक्षकों, विषय विशेषज्ञों एवं विद्यार्थियों के लिए प्रशिक्षण आयोजित किए जा रहे हैं.

उन्होंने आगे बताया कि महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय का प्राकृतिक खेती में वृहद अनुसंधान कार्य एवं अनुभव होने के कारण यह विशेष दायित्व विश्वविद्यालय को दिया गया है. प्राकृतिक खेती (Natural farming) के विषय में पूरे विश्व की दृष्टि भारत की ओर है. ऐसे में पूरे विश्व भर से वैज्ञानिक एवं शिक्षक प्रशिक्षण लेने के लिए भारत आ रहे हैं. ऐसे में हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हम उत्कृष्ट श्रेणी के प्रशिक्षण आयोजित करें.

Natural farming

डा. अरविंद वर्मा, निदेशक अनुसंधान एवं कोर्स डायरेक्टर ने अतिथियों का स्वागत किया एवं प्रशिक्षणार्थियों को दिए गए प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के बारे में विस्तृत रूप से बताया. डा. अरविंद वर्मा ने बताया कि पूरे प्रशिक्षण में 49 सैद्धांतिक व्याख्यान, 9 प्रयोग प्रशिक्षण एवं 4 प्रशिक्षण भ्रमणों द्वारा प्रतिभागियों को प्रशिक्षित किया गया.

उन्होंने प्राकृतिक खेती पर सुदृढ़ साहित्य विकसित करने की आवश्यकता बताई. साथ ही, इस ट्रेनिंग के रिकौर्ड वीडियो यूट्यूब व अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से प्रसारित करने की आवश्यकता पर भी बल दिया, जिस से कि वैज्ञानिक समुदाय एवं जनसामान्य में प्राकृतिक खेती के प्रति जागरूकता बढ़े एवं इस की जानकारी सुलभ हो सके.

कार्यक्रम में डा. आरएल सोनी, निदेशक, प्रसार शिक्षा निदेशालय, डा. सुनील जोशी, निदेशक, डीपीएम एवं अधिष्ठाता सीटीएआई, डा. मनोज महला, छात्र कल्याण अधिकारी, डा. अमित त्रिवेदी, क्षेत्रीय निदेशक अनुसंधान, उदयपुर, डा. रविकांत शर्मा, सहनिदेशक अनुसंधान एवं डा. एससी मीणा, आहरण वितरण अधिकारी एवं राजस्थान कृषि महाविद्यालय के सभी विभागाध्यक्ष और  तमाम वैज्ञानिक आदि उपस्थित थे. कार्यक्रम का संचालन डा. लतिका शर्मा, आचार्य ने किया.

Agricultural Science Centers को मिला आईएसओ का दर्जा

उदयपुर : 21 फरवरी, 2025 को महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी से संबद्ध सभी कृषि विज्ञान केंद्रों (Agricultural Science Centers) को आईएसओ 9001: 2015 प्रमाणपत्र मिलने के साथ ही प्रसार शिक्षा निदेशालय को भी इस उपलब्धि से नवाजा गया. अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन (आईएसओ) प्रमाणपत्र मिलने से वैश्विक स्तर पर प्रसार सेवाओं को न केवल बढ़ावा मिलेगा, बल्कि किसानों का और अधिक जुड़ाव होगा.

कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने यह जानकारी देते हुए बताया कि एमपीयूएटी के इतिहास में यह उपलब्धि मील का पत्थर साबित होगी. आईएसओ प्रमाणपत्र मिलने से एमपीयूएटी की देशविदेश में ख्याति बढ़ेगी. साथ ही, केवीके की प्रतिष्ठा, विश्वसनीयता, कर्मचारी सहभागिता, कानून व नियमों की अनुपालना और वैश्विक व्यापार में भी बढ़ोतरी होगी.

इन केवीके को मिला आईएसओ प्रमाणपत्र

कृषि विज्ञान केंद्र – बोरवट फार्म- बांसवाड़ा, रिठोला- चित्तौड़गढ़, फलोज- डूंगरपुर, बसाड़- प्रतापगढ़, धोइंदा- राजसमंद और सियाखेड़ी- उदयपुर द्वितीय. सुवाणा- भीलवाड़ा प्रथम और अरणियाघोड़ा- भीलवाड़ा द्वितीय को पहले ही आईएसओ प्रमाणपत्र मिल चुका है. इस तरह प्रसार शिक्षा निदेशालय को भी यह प्रमाणपत्र दिया गया है.

ये गतिविधियां बनीं मुख्य आधार

प्रसार शिक्षा निदेशक डा. आरएल सोनी ने बताया कि कृषि विज्ञान केंद्रों पर हालांकि किसान हित से जुड़ी अनेकों गतिविधियां संचालित होती हैं, लेकिन भीलवाड़ा की तर्ज पर सभी आईएसओ प्राप्त केवीके में विभिन्न प्रदर्शन इकाईयां जैसे सिरोही बकरी, प्रतापधन मुरगी, डेयरी, चूजापालन, वर्मी कंपोस्ट, वर्मीवाश, प्राकृतिक खेती इकाई, नर्सरी, नेपियर घास, वर्षा जल संरक्षण इकाई, बायोगैस, मछलीपालन, कम लागत से तैयार हाइड्रोपौनिक, हरा चारा उत्पादन इकाई, आंवला, अमरूद एवं नीबू का मातृवृक्ष बगीचा, बीजोत्पादन एवं क्राप केफैटेरिया आदि के माध्यम से किसान समुदाय के लिए समन्वित कृषि प्रणाली के उद्यम स्थापित कर, स्वरोजगार पैदा कर एवं आजीविका को सुदृढ कर आत्मनिर्भर किया जा रहा है.

ऐसे में किसानों का गांव से शहरों की ओर पलायन कम हुआ है. यही नहीं, किसान समुदाय के फसल उत्पादन और अन्य कृषि उत्पादों का समय पर विपणन होने से आमदनी में भी इजाफा हुआ है. इस के अलावा कृषि विज्ञान केंद्रों में समयसमय पर किसान मेलों, किसानवैज्ञानिक संवाद, किसान गोष्ठी, जागरूकता कार्यक्रम, महत्वपूर्ण दिवस, प्रदर्शन आदि प्रसार गतिविधियों का आयोजन कर कृषि नवाचार की सफल तकनीकियों का हस्तांतरण किया जा रहा है.