Mustard : सरसों की खेती में बड़ी उपलब्धि

Mustard: भारतीय सरसों अनुसंधान संस्थान, भरतपुर द्वारा विकसित सरसों की दो उन्नत किस्मों भारत सरसों- 7 (डीआरएमआर- 150-35) और भारत सरसों- 8 (डीआरएमआर- 1165-40) को हाल ही में पौधा किस्म और किसान अधिकार संरक्षण प्राधिकरण (पीपीवीएफआरए), नई दिल्ली द्वारा पंजीकृत किया गया है. यह उपलब्धि संस्थान के अनुसंधान और नवाचार के प्रति उन की लग्न और मेहनत का प्रतीक है. संस्थान के निदेशक डा. विजय वीर सिंह के नेतृत्व में किसानों की बदलती आवश्यकताओं और कृषि क्षेत्र की विविध चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए इन किस्मों को विकसित किया गया है.

डा. विजय वीर सिंह ने कहा कि इन किस्मों का पंजीकरण संस्थान के उत्कृष्ट अनुसंधान का परिणाम है. हमें विश्वास है कि ये किस्में किसानों के लिए वरदान साबित होंगी और देश की खाद्य तेल सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान देंगी.  उन्होंने कहा कि पंजीकरण से इन किस्मों के बौद्धिक संपदा अधिकार सुरक्षित होंगे और संस्थान के नवाचारों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलेगी. साथ ही, आने वाले सालों में इस से किसानों को गुणवत्ता युक्त बीज उपलब्ध कराने, किसानों की आमदनी बढ़ाने और देश को खाद्य तेल क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लक्ष्यों को पूरा करने में सहायता मिलेगी.

डा. विजय वीर सिंह ने बताया कि भारत सरसों-7 एक शीघ्र पकने वाली किस्म है, जो बारिश आधारित, जल्दी बोआई में उपयुक्त और अधिक उपज व तेल फीसदी वाली है. यह किस्म बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम, छत्तीसगढ़ और मणिपुर जैसे राज्यों के लिए विकसित किया गया है.

वहीं, भारत सरसों 8 ताप और नमी दबाव के प्रति सहनशील, समय पर बोआई हेतु उपयुक्त, उच्च तेल फीसदी और औसतन 2,200-2,600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उपज देने वाली किस्म है. इसे राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और जम्मूकश्मीर के लिए विकसित किया गया है.

Fenugreek : मसाला व औषधीय फसल मेथी

Fenugreek : दुनिया में मसाला उत्पादन व उसे दूसरे देशों में भेजने के हिसाब से भारत सब से आगे है. इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. मसाले हमारी खाने की चीजों को स्वादिष्ठ तो बनाते ही हैं, साथ ही हमें इस से विदेशी मुद्रा भी मिलती है. मेथी मसाले की एक खास फसल है. इस की हरी पत्तियों में प्रोटीन, विटामिन सी व खनिज तत्त्व पाए जाते हैं. इस के बीज मसाले व दवा के रूप में काम आते हैं.

भारत में इस की खेती राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश और पंजाब में की जाती है. भारत में मेथी का सब से ज्यादा उत्पादन होता है. इस का इस्तेमाल औषधि के रूप में भी किया जाता है.

भूमि व जलवायु : मेथी को अच्छे जल निकास व सही जीवांश वाली सभी प्रकार की जमीन में उगाया जा सकता है, लेकिन दोमट मिट्टी इस के लिए सब से अच्छी रहती है. यह ठंडे मौसम की फसल है. यह पाले व लवणीयता को भी कुछ हद तक सहन कर सकती है. मेथी की शुरुआती बढ़त के लिए कम नमी वाली जलवायु व कम तापमान सही रहता है, लेकिन पकने के समय गरम व सूखा मौसम ज्यादा फायदेमंद होता है. फूल व फल बनते समय अगर आकाश में बादल छाए रहते हों तो फसल पर कीड़े व बीमारियां लग सकती हैं.

मेथी की अच्छी किस्में

आरएमटी 305 : यह एक बहुफसलीय किस्म है, जिस का औसत बीज भारी होता है. फलियां लंबी और ज्यादा दानों वाली होती हैं. दाने सुडौल, चमकीले पीले होते हैं. इस किस्म में छाछ्या रोग कम लगता है. पकने का समय 120 से 130 दिन है. औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आरएमटी 1 : यह किस्म पूरे राजस्थान के लिए सही है. इस के पौधे आधे सीधे व मुख्य तना नीचे की ओर गुलाबीपन लिए होता है. इस किस्म पर बीमारियों व कीटों का हमला कम होता है. पकने का समय 140 से 150 दिन है. इस की औसत उपज 14 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

हरी पत्तियों के लिए

पूसा कसूरी : यह छोटे दाने वाली मेथी होती है. इस की खेती हरी पत्तियों के लिए की जाती है. कुल 5 से 7 बार पत्तियों की कटाई की जा सकती है. इस की औसत उपज 5 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

खेत की तैयारी : भारी मिट्टी में खेत की 3 से 4  व हलकी मिट्टी में 2 से 3 जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए और खरपतवार निकाल देने चाहिए.

खाद व उर्वरक : प्रति हेक्टेयर 10 से 15 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद खेत तैयार करते समय डालें. इस के अलावा 40 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से पहले खेत में डालें.

बोआई व बीज की मात्रा : इस की बोआई अक्तूबर के आखिरी हफ्ते से नवंबर के पहले हफ्ते तक की जाती है. बोआई में देरी करने से फसल के पकने के समय तापमान ज्यादा हो जाता है, जिस से फसल जल्दी पक जाती है और उपज में कमी आती है व पछेती फसल में कीटों व बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है.

इस के लिए 20 से 25 किलोग्राम बीज की प्रति हेक्टेयर जरूरत पड़ती है. बीजों को 30 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में 5 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए. बीजों को राइजोबिया कल्चर से उपचारित के कर बोने से फसल अच्छी होती है.

सिंचाई व निराईगुड़ाई : मेथी की खेती रबी में सिंचित फसल के रूप में की जाती है. सिंचाई कितनी बार करनी है यह मिट्टी व बारिश पर निर्भर करता है.

वैसे रेतीली दोमट मिट्टी में अच्छी उपज के लिए करीब 8 सिंचाई करने की जरूरत पड़ती है, लेकिन ऐसी अच्छी भूमि पर जिस में पानी की मात्रा ज्यादा हो 4 से  5 सिंचाई काफी हैं. फलियां व बीजों के विकास के समय पानी की कमी नहीं होनी चाहिए. बीज बोने के बाद हलकी सिंचाई करें.

उस के बाद जरूरत के हिसाब से 15 से 20 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें. बोआई के 30 दिनों बाद निराईगुड़ाई कर के पौधों की छंटाई कर देनी चाहिए व कतारों में बोई फसल से गैर जरूरी पौधों को हटा कर पौधों के बीच की दूरी 10 सेंटीमीटर रखें.

जरूरत हो तो 50 दिनों बाद दूसरी निराईगुड़ाई करें. पौधों की बढ़त की शुरुआती अवस्था में निराईगुड़ाई करने से मिट्टी में हवा लगती है और खरपतवार रोकने में मदद मिलती है.

मेथी में खरपतवार नियंत्रण

मेथी के उगने के 25 व 50 दिनों बाद 2 बार निराईगुड़ाई कर के पूरी तरह से खेत से खरपतवार हटाया जा सकता है. इस के अलावा मेथी की बोआई से पहले 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर फ्लूक्लोरेलिन को 600 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करें. उस के बाद मेथी की बोआई करें. पेंडीमेथालीन 0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर को 600 लीटर पानी में घोल कर के मेथी की बोआई के बाद मगर उगने से पहले छिड़काव कर के खेत से खरपतवार को हटाया जा सकता है.

ध्यान रखें कि फ्लूक्लोरेलिन के छिड़काव के बाद खेत को खुला नहीं छोड़ें वरना इस का वाष्पीकरण हो जाता है और पेंडीमेथालीन के छिड़काव के समय खेत में नमी होना बहुत जरूरी है.

Fenugreekकीट व उन की रोकथाम

फसल पर नाशीकीटों का प्रकोप कम होता है, लेकिन कभीकभार  एफिड (माहू), जैसिड (तेला), पत्ती भक्षक लटें, सफेद मक्खी, थ्रिप्स, माइटस, फली छेदक व दीमक का आक्रमण पाया जाता है. सब से ज्यादा नुकसान ऐफिड से होता है.

माहू का हमला मौसम में ज्यादा नमी व आसमान में बादल रहने पर होता है. यह कीट पौधों के मुलायम भागों से रस चूस कर नुकसान पहुंचाता है. दाने कम व कम गुणवत्ता के बनते हैं. इन कीटों पर भी ऐफिड के लिए बताए गए उपचार के तरीके अपनाएं, जिन में जैविक तरीका ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करें.

आक्रमण बढ़ता दिखने पर नीम से बने रसायनों जैसे निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल 0.03 फीसदी का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें.

रोग व उन की रोकथाम

छाछिया : यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी’ नामक कवक से होता है. रोग के प्रकोप से पौधों की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देने लगता है, जो पूरे पौधे पर फैल जाता है. इस से पौधे को नुकसान होता है.

इलाज : गंधक चूर्ण की 20 से 25 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर भुरकाव करें या केराथेन एलसी 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के हिसाब से 10 से 15 दिनों बाद दोहराएं. रोगरोधी मेथी हिसार माधवी बोएं.

तुलासिता (डाउनी मिल्ड्यू) : यह रोग ‘पेरेनोस्पोरा स्पी’ नाम के कवक से होता है. इस रोग से पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले धब्बे दिखाई देते हैं व नीचे की सतह पर फफूंद दिखाई देती है. जब यह रोग बढ़ जाता है तो पत्तियां झड़ जाती हैं.

इलाज : फसल में ज्यादा सिंचाई न करें. इस रोग की शुरुआत में फसल पर मेंकोजेब 0.2 फीसदी या रिडोमिल 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करें. जरूरत के हिसाब से 15 दिनों बाद दोहराएं. रोगरोधी मेथी हिसार मुकता एचएम 346 बोएं.

जड़गलन : मेथी की फसल में जड़गलन रोग का प्रकोप भी बहुत होता है, जो बीजोपचार कर के, फसलचक्र अपना कर और ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद में मिला कर बोआई से पहले जमीन में दे कर कम किया जा सकता है.

कटाई व उपज : जब पौधों की पत्तियां झड़ने लगें व पौधे पीले रंग के हो जाएं, तो पौधों को उखाड़ कर या हंसिया से काट कर खेत में छोटीछोटी ढेरियों में रखें. सूखने के बाद कूट कर या थ्रेसर से दाने अलग कर लें. साफ दानों को सुखाने के बाद बोरियों में भरें. खेती पर ध्यान देने से 15 से 20 क्विंटल बीजों की प्रति हेक्टेयर पैदावार हो सकती है.

Brinjal : बैगन – पूरे साल फसल और मुनाफा

Brinjal : चमकीले और खूबसूरत नजर आने वाले बैगन की खेती समूचे देश में पूरे साल कभी भी की जा सकती है. रबी, खरीफ और गरमी तीनों मौसमों में इसे उपजाया जा सकता है. अधिकतर लोगों में यह भ्रम है कि बैगन सेहत के लिए नुकसान देने वाला है. इस से नाकभौं सिकोड़ने वालों ने इसे ‘बे गुण’ का नाम दे रखा है. सचाई यह है कि खांसी, हाई ब्लड प्रेशर, खून की कमी और दिल की बीमारी जैसे रोगों के लिए यह काफी फायदेमंद है. सफेद बैगन चीनी के मरीजों के लिए फायदेमंद होता है. इस के साथ ही इस की खेती करने वाले को अच्छाखासा मुनाफा भी मिलता है.

बैगन की खेती हर तरह की मिट्टी में की जा सकती है, पर हलकी भारी और दोमट मिट्टी इस के लिए काफी मुफीद मानी जाती है. इस के लिए खेत तैयार करने के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से की जाती है. उस के बाद की जुताई कल्टीवेटर से करना बेहतर होता है. हर जुताई के बाद पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी बना दिया जाता है. उस के बाद निराई व गुड़ाई और सिंचाई  के लिए खेतों को क्यारियों में बांट दिया जाता है.

लंबा बैगनी, लंबा हरा, सफेद कलौंजी, गोल आदि बैगन की मुख्य प्रजातियां हैं. जिस इलाके में जिन प्रजातियों के बैगन की मांग होती है, उस के मुताबिक  इस की खेती की जाती है. इस की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर 500 से 700 ग्राम बीजों की जरूरत पड़ती है. बैगन के बीजों को नर्सरी में लगा कर पहले पौध तैयार कर लिए जाते हैं. इस की खरीफ फसल के लिए मार्च में, रबी फसल के लिए जून में और गरमी की फसल के लिए नवंबर में बीजों को बोया जाता है.

नर्सरी में 4 से 5 हफ्ते में तैयार होने वाले पौधों को खेतों में रोपा जाता है. कतार से कतार की दूरी 60 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 45 सेंटीमीटर होनी चाहिए. बैगन के खेत की समयसमय पर निराईगुड़ाई करना जरूरी है. खेत में नमी की कमी होने पर सिंचाई कर देनी चाहिए. बैगन के पौधे लंबे समय तक फल देते हैं, इसलिए खाद और उर्वरक की काफी जरूरत होती है.

बैगन की फसल को सब से ज्यादा नुकसान फल छेदक और तना छेदक कीटों से होता है. इन से बचाव के लिए किसान जरूरत से ज्यादा कैमिकल कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं. इस से मित्र कीट मारे जाते हैं और नुकसान पहुंचाने वाले कीटों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाने से वे मरते नहीं हैं. बैगन के पौधों को पौधा संरक्षण की सामेकित प्रबंधन तकनीक से बचाया जा सकता है. पौध गलन, पौधों में बौनापन, पत्तों में पीलापन, पत्तों का झड़ना, पत्तों का छोटा होना आदि बैगन के मुख्य रोग हैं. इन्हें जैविक तकनीक से दूर किया जा सकता है.

फल छेदक, तना छेदक और किसी भी तरह के कीटों से बचाव के लिए बैसीलस थुरिनजेनसिस (डीपीएल 8, डेलफिन) एनपीबी 4 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिला कर नीम आधारित कीटनाशकों का इस्तेमाल कर के बैगन के पौधों और फसल को बचाया जा सकता है. वहीं बाभेरिया बासियाना फफूंद आधारित कीटनाशक है. इसे 4 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर इस्तेमाल करना होता है. लाल मकड़ी से बचाव के लिए सल्फर का इस्तेमाल बेहतर होता है.

नई तकनीक के जरीए उन्नत बैगन की खेती करने से प्रति हेक्टेयर 400 क्विंटल की उपज होती है. थोक बाजार में इस की कीमत 1000 से 1200 रुपए प्रति क्विंटल है. इस हिसाब से 1 हेक्टेयर में बैगन की खेती करने पर कम से कम 4 लाख रुपए कमाए जा सकते हैं. प्रति हेक्टेयर बैगन की खेती की लागत डेढ़ लाख रुपए के करीब होती है. इस लिहाज से प्रति हेक्टेयर ढाई लाख रुपए की आमदनी हो जाती है.

Machines : मल्टीक्रौप थ्रैसर गहाई से करें कमाई

Machines : फसलों की गहाई में आज थ्रैसर की खास अहमियत है. जो काम आम तरीके से करने में काफी समय लगता था, वही काम अब मशीनों ने आसान कर दिया है. आज बाजार में कई प्रकार के मल्टीक्रौप थ्रैसर मौजूद हैं, जिन के पुर्जों में हलका सा बदलाव कर के या चलाते समय उन को इस्तेमाल करने की तकनीक को थोड़ा हेरफेर कर के कई अलगअलग फसलों की गहाई आसानी से की जा सकती है. मक्का, सोयाबीन, ज्वार, बाजरा, सरसों, मूंग, चना, उड़द वगैरह फसलों की गहाई अच्छी क्वालिटी वाले थ्रैसर से की जा सकती है.

अगर हम अच्छी मशीन इस्तेमाल नहीं करते हैं, तो हमें अपने अनाज में टूटफूट ज्यादा मिलेगी या साथसुथरा अनाज नहीं मिलेगा, इसलिए अनाज में टूटफूट से बचाव के लिए गहाई मशीन यानी थ्रैसर मशीन का सही चयन करना जरूरी है. कुछ मशीन निर्माता कुछ खास फसलों के लिए खास थ्रैसर भी बनाते हैं.

आज तमाम कंपनियां थ्रैसर बना रही हैं, जिन में साइको एग्रोटेक कंपनी योद्धा के नाम से थ्रैसर बना रही है. इस के अलावा अमर मक्का थ्रैसर, ग्रिल एग्रो आदि अनेक कंपनियां मक्का थ्रैसर व मल्टी क्रौस थ्रैसर बना रही हैं.

कुछ कृषि यंत्र निर्माता अलगअलग अनाज के लिए खास थ्रैसर भी बनाते हैं. चूंकि ऐसे थ्रैसर किसी खास फसल के लिए ही बनाए जाते हैं, तो जाहिर है कि उन से बेहतर नतीजे मिलेंगे.

आइए जानते हैं मक्का थ्रैसर में बारे में, जिसे खासतौर पर मक्के की गहाई के लिए बनाया गया है.

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प्रकाश मक्का थ्रैसर

इस थ्रैसर के बाबत हमारी बात अनिल कुमार गर्ग से हुई जिन्होंने बताया, ‘हम किसानों के लिए कई कृषि यंत्र तैयार कर रहे हैं. आज के समय में ज्यादातर किसान हमारे द्वारा बनाए गए कृषि यंत्रों का ही इस्तेमाल कर रहे हैं. यह थ्रैसर हम ने खासतौर से मक्के की गहाई के लिए बनाया है. इसे 45 हार्सपावर के किसी भी ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर चलाया जा सकता है. इसे 35 हार्सपावर के ट्रैक्टर के साथ भी चला सकते हैं, लेकिन तब अनाज की गहाई की कूवत कम हो सकती है. 1-2 साल में ही कमाई कर के यह थ्रैसर अपनी कीमत वसूल कर देता है.

‘हमारे इस थ्रैसर की मांग उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे तमाम राज्यों में है. कोई भी किसान इस थ्रैसर के बारे में जानने के लिए मोबाइल नंबर 9897591803 पर फोन कर सकता है.’

गणेश राज थ्रैसर

गणेश एग्रो कंपनी के पास  गेहूं, मक्का, ज्वार, जीरा, धनिया, सरसों, चना, सौंफ, अरंड, सोयाबीन, ग्वार व चावल आदि की गहाई के लिए कई मौडल मौजूद हैं.

कंपनी का कहना है कि उस के पास हैवी चैसिस व हैवी फ्लाई व्हील के साथ थ्रैसर मौजूद हैं. दानेदाने की शुद्धता की गारंटी है. आप गणेश एग्रो कंपनी में टौल फ्री नंबर 18001200313 पर या 912764273442, 267446 पर फोन कर के अधिक जानकारी ले सकते हैं.

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अमर मल्टी क्रौप थ्रैसर

35 से 40 हौर्स पावर और अधिक कूवत वाले ट्रैक्टर से चलने वाले थ्रैसर इस कंपनी में भी मौजूद हैं. प्रोडक्ट क्वालिटी के लिए इस कंपनी को साल 1993 में राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है.

कंपनी में कई प्रकार के थ्रैसर मौजूद हैं, जिन की कीमत 20 हजार रुपए से ले कर सवा लाख रुपए तक है. ये थ्रैसर 5 हौर्स पावर मोटर से ले कर 80 हौर्स पावर तक के ट्रैक्टर के साथ चलाए जा सकते हैं.

इस कंपनी के जगदेव सिंह का कहना है कि उन के मल्टी क्रौप थ्रैसर से धान को छोड़ कर सभी फसलों की गहाई की जा सकती है. थ्रैसर के साथ बुकलेट दी जाती है, जिस में पूरी जानकारी होती है कि किस अनाज के लिए थ्रैसर से किस तरह से काम लेना है. थ्रैसर में क्याक्या बदलाव करना है, यह जानकारी भी दी होती है.

ज्यादा जानकारी के लिए मोबाइल नंबर 098726579 , 09872018040 पर बात की जा सकती है.

Kisan clubs : किसान क्लब बन रहे किसानों की तरक्की की राह

Kisan clubs: भारत में छोटी जोत व बटाई पर खेती का काम करने वाले किसानों की संख्या ज्यादा है. इन में से तमाम ऐसे किसान हैं, जिन के पास जमीन नहीं है, लेकिन किसी न किसी तरीके से किराए पर जमीन ले कर वे खेती का काम करते हैं. इन किसानों को खेती में काम आने वाले जरूरी सामान इसलिए आसानी से मुहैया नहीं हो पाते, क्योंकि कम खेती की वजह से महंगी मशीनें व उपकरण खरीदना उन के बस की बात नहीं होती है. ऐसे में राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक नाबार्ड ने बटाई पर काम करने वाले किसानों के लिए छोटेछोटे समूहों में किसान क्लब बना कर उन की खेती को आसान किया है. इन क्लबों में 5 से ले कर 15 किसान होते हैं, जो आपस में अपने तजरबों का इस्तेमाल कर के अपनी खेती को लाभदाई बनाते हैं.

किसान क्लबों का इस्तेमाल न केवल तकनीकी ज्ञान बांटने के लिए होता है, बल्कि एक समूह में बैंक से कर्ज ले कर किसान यंत्र, खाद बीज वगैरह की खरीदारी भी करते हैं, जिस से आपस में इन कृषि में काम आने वाले सामानों का इस्तेमाल हो पाता है. नाबार्ड द्वारा कृषि विज्ञान केंद्रों, एनजीओ व ग्रामीण बैंकों द्वारा ये किसान क्लब बनाए जाते हैं, जिन के जरीए छोटे किसान अपनी माली हालत सुधार सकते हैं.

कुछ इसी तरह की खेती की सफलता की मिसाल सरदार भगत सिंह कृषि क्लब है, जो बस्ती जिले के विकास खंड बहादुरपुर के गांव शेखपुरा के छोटे जोत वाले 12 किसानों का एक समूह है. इस से जुड़े किसान पहले आर्थिक रूप से बहुत ही कमजोर थे. अकसर जानकारी न होने की वजह से इन किसानों को खेती में नुकसान हो जाता था. एक दिन इस गांव के किसान रामबक्स चौधरी को नाबार्ड द्वारा आयोजित एक ट्रेनिंग में शामिल होने का मौका मिला, जहां उन्हें पता चला कि नाबर्ड स्वैच्छिक संस्थाओं के जरीए छोटे किसानों का समूह बना कर उन्हें खेती में मदद करने का काम कर रहा है.

रामबक्स चौधरी ने वहां शक्ति उद्योग एवं प्रशिक्षण संस्थान से जुड़े निरंकार लाल श्रीवास्तव से अपने गांव में किसान क्लब की स्थापना की बात रखी. निरंकार लाल श्रीवास्तव ने रामबक्स को कृषक क्लब गठन की जरूरी जानकारी दी और एक दिन उन्होंने शेखपुरा गांव में 12 किसानों के एक समूह का गठन करा दिया.

उन्नत कृषि तकनीकी से सुधरे किसानों के हालात : शेखपुरा गावं के किसानों ने कृषि क्लब गठन के बाद नाबार्ड व शक्ति उद्योग एवं प्रशिक्षण संस्थान के माध्यम से खेती की तकनीकी पर पहला प्रशिक्षण हासिल कर के अपने खेतों में उन्नतशील बीज, खाद व खेती यंत्रों का इस्तेमाल कर के फसल लेनी शुरू कर दी, जिस का नतीजा रहा कि किसानों को उन की फसल से अच्छी उपज व आमदनी हासिल हुई. वर्तमान में किसान क्लब से जुड़े किसानों द्वारा अच्छे किस्म के बीजों का इस्तेमाल करते हुए चना, भिंडी, सरसों, गेहूं, मटर वगैरह की खेती की जा रही है.

Kisan clubs

कृषि विशेषज्ञों द्वारा दी जाती है सलाह : सरदार भगत सिंह कृषक क्लब से जुड़े किसानों को नाबार्ड बैंक द्वारा नियुक्त संस्था की तरफ से कृषि विज्ञान केंद्र से जुड़े कृषि वैज्ञानिक समयसमय पर प्रशिक्षण देते हैं. जिस के द्वारा किसान अपनी फसलों में लगने वाले कीट, बीमारी, आदि की रोकथाम के साथ ही फसल के भंडारण व विपणन की सही प्रक्रिया को अपनाते हुए दोहरा लाभ ले रहे हैं.

आमदनी के खुले रास्ते : किसान क्लब से जुड़ने के बाद ये किसान अपने स्थानीय बैंक से किसान क्रेडिट कार्ड बनवा कर अपनी खेती की छोटीमोटी जरूरतों को बैंक से पैसा ले कर पूरी करते हैं. वहीं इन किसानों द्वारा संयुक्त रूप से धन की बचत की जाती है, जो उन के कठिन हालात में काम आती है.

किसान रामबक्स चौधरी का कहना है कि किसान क्लब के गठन के बाद उन लोगों की माली हालत में बहुत तेजी से सुधार आया है. इस का कारण किसान क्लब से खेती की बारीकियों पर समयसमय पर विशेषज्ञों द्वारा जानकारी दिया जाना ही है.

किसान रामनिवास का कहना है कि पहले उन की चने की पूरी फसल को कीड़े बरबाद कर देते थे. लेकिन विशेषज्ञों की सलाह से उन्होंने अपने चने की फसल को कीड़ों से पूरी तरह सुरक्षित करना सीख लिया है. वहीं किसान रामनवल चौधरी ने भी अपनी चने की फसल में रायजोबियम क्लचर का इस्तेमाल करते हुए उकठा से नजात पाई.

किसान शत्रुघन ने किसान क्लब द्वारा की गई बचत के पैसे से सब्जी की खेती शुरू की. आज उन्हें हर महीने 10 से 15 हजार रुपए की आमदनी हो रही है. इसी तरह किसान रामप्रकाश चौधरी गेहूं, सरसों व मटर की फसल से दोगुना मुनाफा ले रहे हैं.

शक्ति उद्योग व प्रशिक्षण संस्थान के मुखिया निरंकार लाल श्रीवास्तव का कहना है कि कोई भी किसान अपने गांव में छोटेछोटे समूह में किसान क्लब का गठन कर सकता है. इस के लिए नाबार्ड बैंक द्वारा सहयोग किया जाता है. इन समूहों को खेती के अलावा आमदनी बढ़ाने वाली गतिविधियों से भी जोड़ा जाता है, जैसे बैंकों से कर्ज दिला कर गांव में सोलर चार्जिंग प्वाइंट की स्थापना कराना, खेती की मशीनों की खरीदारी कर के उन्हें किराए पर उपलब्ध करा कर उन्हें मदद देना.

Laddu : आटा गोंद मखाना लड्डू

Laddu: यह एक जल्दी बनने वाली मिठाई है. इस को किसी भी मौसम में बनाया जा सकता है. बच्चों के लिए यह बहुत ही स्वास्थ्यवर्धक है. साथ ही गर्भवती महिलाओं के लिए ये लड्डू खाना काफी लाभदायक होता है. घर में आए मेहमानों को भी आप ये लड्डू बना कर खिला सकते हैं. उत्तरी भारत के विभिन्न ग्रामीण इलाकों में ये लड्डू काफी लोकप्रिय हैं. इन के बनाने की विधि भी काफी सरल है. कोई भी इन को आसानी से तैयार कर सकता है.

जरूरी सामग्री

2 कप गेहूं का आटा, आधा कप पिसी हुई चीनी, आधा कप गुड़ की शक्कर, 1 कप देशी घी, 2 चम्मच बादाम गिरी, 2 चम्मच काजू गिरी, आधा कप गोंद (भुना और दरदरा), आधा कप मखाने (भुने और दरदरे), 1 चम्मच पिस्ता, 1 चांदी का वर्क, 2 चम्मच नारियल का चूरा, 1 चम्मच सोंठ.

बनाने की विधि

कड़ाही में घी गरम करें. घी में धीमी आंच पर आटे को छान कर भून लें.

अब फ्राई पैन में पिसी हुई चीनी, भुना आटा, बादाम गिरी, काजू गिरी, गोंद, मखाना, सोंठ और नारियल का चूरा मिलाएं.

तैयार मिश्रण को ठंडा होने दें और फिर हाथ से गोल और मध्यम आकार के लड्डू बनाएं. लड्डुओं को पिस्ते और चांदी वर्क से सजाएं. प्लेट में रखें और पेश करें.

Pulasa Fish: गोदावरी नदी की शान ‘पुलासा’ को है खतरा

Pulasa Fish : गोदावरी की शान कही जाने वाली पुलासा मछली अब गंभीर संकट से जूझ रही है. पुलासा मछली एक पौष्टिक मछली है जिस में अच्छे फैटी एसिड्स, मिनरल्स और प्रोटीन होते हैं, जो सेहत के लिए काफी अच्छे होते हैं. लेकिन अब गंभीर संकट का सामना कर रही पुलासा मछली बहुत कम होती जा रही है.

पुलासा मछली की संख्या में भारी कमी के बारे में मत्स्य विभाग ने बताया कि ‘पुलासा’ की भारी मांग के कारण, अत्यधिक मछली पकड़ने से यह प्रजाति अब खतरे में है. मत्स्य विभाग ने कहा कि अगर समय रहते सख्त नियम नहीं बनाए गए तो यह प्रजाति खत्म हो जाएगी. जबकि यह प्रजाति 90 के दशक में काफी संख्या में मिलती थी.

पुलासा मछली के बारे में 145 साल पुरानी डच वैज्ञानिक पत्रिका एल्सेवियर के मुताबिक बताया गया है कि ऊपरी नदियों से पानी का कम बहाव, नदियों में भारी गाद जमाव, नदी के मार्गों में बाधा, भोजन और नर्सरी के मैदानों का नुकसान सहित अत्यधिक मछली पकड़ने के कारण नदियों में पुलासा मछली की संख्या में कमी आई है.

Herbal Revolution: बस्तर की माटी से निकली हर्बल क्रांति

Herbal Revolution : भारत के पहले अंतर्राष्ट्रीय जैविक प्रमाणित हर्बल फार्म ‘मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं अनुसंधान केंद्र’ में आयोजित एमडी बोटैनिकल्स का पहला इंडक्शन मीट सिर्फ एक प्रशिक्षण शिविर नहीं, बल्कि विपणन की पारंपरिक दृष्टि और आधुनिक सोच के मध्य एक सेतु था. इस ऐतिहासिक आयोजन ने छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में एक जमीनी बिक्री नेटवर्क की नींव रखते हुए नवगठित टीम को उत्पादों, मूल्यों और समूह के दीर्घकालिक विजन से परिचित कराया.

एमडी बोटैनिकल्स की संस्थापक एवं प्रबंध निदेशक अपूर्वा त्रिपाठी, जिन्हें भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश की श्रेष्ठ युवा महिला उद्यमी के रूप में सम्मानित किया जा चुका है, ने उद्घाटन सत्र में कंपनी की आत्मा और उद्देश्य को रेखांकित किया. उन्होंने बताया कि एमडी बोटैनिकल्स केवल एक ब्रांड नहीं, बल्कि उन का “ब्रेनबेबी” है, जो जनजातीय क्षेत्रों में महिला सशक्तीकरण, जैविक औषधीय खेती और वैश्विक गुणवत्ता के समर्पण से जन्मा है.

इस प्रशिक्षण सत्र में प्रतिभागियों को मां दंतेश्वरी समूह के संस्थापक एवं भारत के हर्बल क्रांति पुरुष डा. राजाराम त्रिपाठी की प्रेरणादायी यात्रा से भी परिचित कराया गया, जिन्होंने 1996 में इस समूह की स्थापना की थी. भारत में जैविक हर्बल क्रांति के अग्रदूत डा. राजाराम त्रिपाठी को “हर्बल किंग औफ इंडिया” के रूप में भी जाना जाता है. मां दंतेश्वरी हर्बल समूह को भारत सरकार के राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड द्वारा सर्वश्रेष्ठ निर्यातक पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है.

इस फार्म भ्रमण का संचालन फार्म निदेशक अनुराग त्रिपाठी और वरिष्ठ विषय विशेषज्ञ जसमती नेताम और कृष्णा नेताम के नेतृत्व में हुआ. इस दौरान विपणन अधिकारियों ने प्रत्यक्ष रूप से 340 से अधिक दुर्लभ व संकटग्रस्त वनौषधियों को उन के प्राकृतिक रहवास में संरक्षित और संवर्धित होते देखा.

यहां विशुद्ध पारंपरिक जैविक पद्धतियों और आधुनिकतम सस्टेनेबल टैक्नोलौजी के मेल से विश्व की सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता की सफेद मूसली, गोल्डन मूसली, कालमेघ और इंसुलिन प्लांट जैसी वन औषधियां उगाई जाती हैं. विशेष रूप से यहां की काली मिर्च में 16 फीसदी तक पिपराइन की उपस्थिति पाई गई है, जिस की पुष्टि भारत सरकार के इंडियन इंस्टीट्यूट औफ स्पाइस रिसर्च ने भी की है, जो इसे वैश्विक बाजार में स्पेशल बनाती है.

Herbal Revolutionइस भ्रमण के दौरान अधिकारियों ने एक अभिनव जैविक पालीहाउस मौडल भी देखा, जिसे केवल 1.5 लाख रुपए की लागत से पर्यावरणीय दृष्टि से अनुकूल रूप में तैयार किया गया है. यह संरचना पारंपरिक प्लास्टिक पालीहाउस  (40 लाख रुपए लागत) की तुलना में अधिक टिकाऊ है और नाइट्रोजन फिक्सेशन जैसी जैविक प्रक्रियाओं को भी बढ़ावा देती है. इस मौडल से 10 सालों में प्रति एकड़ 3 करोड़ रुपए तक का प्रतिफल मिलने की संभावना है.

इस शिविर का एक प्रमुख आकर्षण स्टीविया अनुसंधान परियोजना रही, जो एमडी बोटैनिकल्स और सीएसआईआर आईएचबीटी, पालमपुर के बीच एक ऐतिहासिक समझौते के तहत संचालित है. इस में अत्यधिक मीठी, कड़वाहट रहित और शून्य कैलोरी वाली स्टीविया की सर्वश्रेष्ठ प्रजातियों का विकास किया जा रहा है, जो भारत में पहली बार हो रहा है. इस दिशा में कंपनी एक प्राकृतिक चीनी उत्पादन संयंत्र की स्थापना की दिशा में भी काम कर रही है.

इस शिविर का कुशल समन्वय राष्ट्रीय विपणन प्रमुख केविन जेवियर ने किया. उन के साथ प्रवीण कुमार, प्रवेश मिश्रा (क्षेत्रीय विपणन प्रबंधक), संतोष उपाध्याय, ज्योति मजूमदार, संजय साहू, सुमंता रक्षित (बिजनेस डेवलपमैंट मैनेजर) व सुरेंद्र प्रधान और सत्य राजावत (एरिया सेल्स मैनेजर) जैसे अनुभवी अधिकारी उपस्थित रहे. इस के  अतिरिक्त स्वामीनाथन, मुख्य सलाहकार के रूप में विशेष रूप से उपस्थित थे, जिन्होंने नीति और दिशा पर आवश्यक मार्गदर्शन प्रदान किया.

वरिष्ठ विषय विशेषज्ञ जसमती नेताम ने टीम को फार्म में कार्यरत महिला स्वयं सहायता समूहों से भी परिचित कराया, जो स्वयं अपूर्वा त्रिपाठी और जसमती नेताम के संयुक्त नेतृत्व में संचालित होते हैं. ये समूह जनजातीय महिलाओं के सामाजिकआर्थिक सशक्तीकरण का जीताजागता प्रमाण हैं.

Herbal Revolution

इस सभी 25 प्रतिभागियों ने एमडी बोटैनिकल्स के उत्पाद पोर्टफोलियो, जिस में हर्बल पाउडर, कैप्सूल, वैलनेस टी, और स्किन केयर उत्पाद शामिल हैं, पर केंद्रित गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया. प्रतिभागियों ने एकमत से कहा कि यह पहली बार है जब उन्होंने जाना कि हर्बल उत्पादों की गुणवत्ता पैकेजिंग या प्रचार में नहीं, बल्कि उस की उत्पत्ति की पवित्रता और उस को बनाने की में निहित होती है.

यह आयोजन प्रमाण है कि मां दंतेश्वरी हर्बल समूह यूं ही भारत में हर्बल उत्पादन का सिरमौर नहीं बना. यह उस की सालों की वैज्ञानिक शोध, पारंपरिक ज्ञान, तकनीकी नवाचार और सामाजिक समर्पण का परिणाम है, जो अब वैश्विक मंच पर भारत की जैविक शक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहा है.

मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं अनुसंधान केंद्र
कोंडागांव, बस्तर, छत्तीसगढ़
मोबाइल: +91 9425 265 105
लैंडलाइन: +91 7786 242 506
ईमेल: press@mdherbal.in
वेबसाइट: www.mdherbal.in

Carrot Cultivation : गाजर की खेती और मशीनों का इस्तेमाल

Carrot Cultivation : गाजर की खेती कर के कई किसान अपने जीवन में मिठास घोस रहे हैं. यह सर्दियों के मौसम में पैदा की जाने वाली फसल है. इस फसल को तकरीबन हर तरह की मिट्टी में उगाया जा सकता है, लेकिन इस के लिए सब से सही बलुई दोमट मिट्टी होती है.

मिट्टी उपजाऊ हो साथ ही जल निकासी भी सही हो, तो गाजर की खेती से अच्छी पैदावार ली जा सकती है. 15-20 डिगरी सेल्सियस तापमान इस की बढ़ोतरी के लिए अच्छा होता है. इस फसल पर पाले का असर भी नहीं होता है.

गाजर की खेती की तैयारी

जिस खेत में गाजर बोनी है उस की जुताई कर के छोड़ दें, जिस से मिट्टी को तेज धूप लगे और कीड़ेमकोड़े खत्म हो जाएं.

उस के बाद ट्रैक्टर हैरो या कल्टीवेटर से 3-4 बार जुताई करें. अच्छी तरह से पाटा चलाएं, जिस से मिट्टी भुरभुरी हो जाए. देशी गोबर वाली खाद मिला कर खेत को तैयार करें. इस के बाद गाजर के बीजों की बोआई करें. खेत में चाहें तो क्यारियां भी बना सकते हैं.

गाजर की मुख्य किस्में

पूसा केसर : यह एक उन्नतशील एशियाई किस्म है, जिस की जड़ें लालनारंगी सी होती हैं. जड़ें लंबीपतली व पत्तियां कम होती हैं. यह अगेती किस्म है, जिस में अधिक तापमान को सहन करने की कूवत होती है.

पूसा यमदिग्न: यह अधिक उपज देने वाली किस्म है. इस की जड़ों का रंग हलका नारंगी (बीच के हिस्से में हलका पीला) होता है. गूदा मुलायम व मीठा होता है.

पूसा मेधाली : यह किस्म अच्छी मानी जाती है. किसान अपने इलाके के हिसाब से कृषि जानकारों से राय ले कर इस के बीज बो सकते हैं. यह किस्म भी अच्छे गुण वाली है.

पूसा रुधिर : यह पूसा की खास किस्म है. आकर्षक लंबी लाल जड़ें, चमकता लाल रंग, समान आकार और ज्यादा मिठास इस प्रजाति की खासीयतें हैं.

बीज की मात्रा व बोने का समय

अगेती किस्मों को सितंबरअक्तूबर में ही बो दें. मध्यम व पछेती किस्मों को नवंबर के आखिरी हफ्ते तक बोया जाता है. गाजर की बोआई के लिए 6-7 किलोग्राम बीजों की प्रति हेक्टेयर जरूरत होती है. बोआई लाइनों में मेंड़ बना कर करें. इन मेंड़ों की आपस में दूरी 40-45 सेंटीमीटर रखें या छोटीछोटी क्यारियां बना कर बोएं.

खाद व उर्वरक

गाजर की अच्छी खेती के लिए देशी गोबर की खाद 15 से 20 ट्राली प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में डालें. नाइट्रोजन 30 किलोग्राम, फास्फोरस 40 किलोग्राम और पोटाश 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई से 15-20 दिनों पहले मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएं. 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से नाइट्रोजन बोआई से 35-40 दिनों बाद छिड़कें, जिस से जड़ें अच्छी विकसित हो सकें.

सिंचाई : बोआई के लिए पलेवा करें या नमी होने पर बोएं. बोआई के 10-15 दिनों के बाद नमी न होने पर हलकी सिंचाई करें. सिंचाई अधिक पैदावार लेने के लिए जरूरी है, इसलिए हलकीहलकी सिंचाई करें. खेत में नमी रहना जरूरी है.

खरपतवार : खेत में खरपतवार न पनपने दें. समय रहते ही खरपतवार निकालते रहें. साथ ही गाजर के पौधे ज्यादा घने महसूस हों तो उन्हें कम कर दें.

कीड़े व बीमारियां : गाजर में ज्यादातर पत्ती काटने वाला कीड़ा लगता है, जो पत्तियों को नुकसान पहुंचाता है. इस की रोकथाम के लिए जरूरी उपाय करें. फसल को अगेती बोएं. गाजर की फसल में एक पीलापन वाली बीमारी लगती है, जो पत्तियों को खराब करती है. बीजों को 0.1 फीसदी मरक्यूरिक क्लोराइड से उपचारित कर के बोने पर यह बीमारी नहीं लगती?है.

खुदाई : जब गाजर की मोटाई व लंबाई ठीकठाक और बाजार भेजने लायक हो जाए, तो खुदाई करनी चाहिए. खुदाई के लिए खेत में नमी होनी चाहिए. खुदाई के समय ध्यान रखें कि जड़ों को नुकसान न पहुंचे. जड़ों के कटने से भाव घट जाता है.

उपज : गाजर की फसल का ठीक तरह से ध्यान रखा जाए, तो 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है. वैसे उपज किस्मों पर अधिक निर्भर करती है.

गाजर से हो रही अच्छी कमाई

यों तो गाजर की मांग सभी इलाकों में बढ़ रही है, लेकिन राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले में पिछले कुछ सालों से गाजर का व्यापार जोरों पर है. इस का कारण यहां की गाजर की राज्य से बाहर की मंडियों में अच्छी मांग होना भी है. कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो यहां की गाजर में रस भरपूर मात्रा में होता है. इस से गाजर पूरी तरह रसीली हो जाती है. इस के ट्रांसपोर्ट करने पर भी इस का रस कई दिनों तक इसे सूखने नहीं देता. यह श्रीगंगानगर से दूर दूसरे राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा, गुजरात व उत्तर प्रदेश में बेची जा रही है.

पश्चिम उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले में स्थित सूदना गांव में भी गाजर की खेती में इजाफा हो रहा है. यह गांव ‘गाजर गांव’ के रूप में मशहूर है. इस का श्रेय भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित एक उन्नत किस्म ‘पूसा रुधिर’ को जाता है. माडल गांव के रूप में विकसित करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने साल 2010 में 4 गांवों को चुना, जिन में से सूदना गांव एक है. गांव के किसान सब्जियों में गाजर भी उगाया करते थे, लेकिन उतना फायदा नहीं ले पाते थे, जितना अब पूसा रुधिर से ले पा रहे हैं. साल 2011-12 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने इस गांव के एक सीमांत किसान चरण सिंह के 1.75 एकड़ खेत में पूसा रुधिर गाजर उगाने की शुरुआत की.

गाजर की फसल के लिए नियमित सलाह दी गई. किसान को पूसा रुधिर गाजर की 393.75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से उम्दा फसल मिली, यह आम प्रचलित किस्म से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अधिक थी.

ज्यादा पैदावार और फायदे के साथ पूसा रुधिर के बेहतर प्रदर्शन से उत्साहित हो कर गांव के दूसरे किसानों ने भी इस में रुचि दिखाई.

Mushrooms : मशरुम की सिर्फ कुछ प्रजाति ही हैं खाने लायक

Mushrooms  : वर्तमान में गावों से ले कर शहरों तक में मशरुम खाने का कल्चर बढ़ गया है. चूंकि मशरुम काफी पौष्टिक होती है, इसलिए अब इसे शहरों में भी बड़े चाव से खाया जाता है और ग्रामीण क्षेत्रों में तो बारिश जैसे मौसम में मशरुम ऐसे ही जंगल वगैरह में उग आती है, जिस को ग्रामीण क्षेत्रों में लोग तोड़ कर खा जाते हैं, और अपनी जान गवां देते हैं.

इस समय बारिश का मौसम है. ऐसे मौसम में ग्रामीण क्षेत्रों से जंगली मशरुम का सेवन कर जान गंवाने और बीमार पड़ने के मामले लगातार सामने आते रहते हैं. ऐसे में लोगों को इस बात की जानकारी होना बहुत जरूरी है, कि कौन सा मशरुम सेहत के लिए सही है और कौन सा सेहत के लिए हानिकारक है.

इसी संदर्भ में कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल के डीएसबी परिसर की प्राध्यापिका डा. प्रभा पंत ने कई शोधपत्रों का अध्ययन किया और बताया कि दुनियाभर में सिर्फ 18 फीसदी ही मशरुम की ऐसी प्रजाति है, जो खाने लायक है. डा. प्रभा पंत कवक यानी फंजाई के बारे में पढ़ाती हैं. ऐसे में उन्होंने लंबे समय से मशरुम पर आधारित कई शोधपत्रों का अध्ययन किया है और अपने अध्ययन में उन्होंने यह पाया कि दुनियाभर मशरुम की 14 हजार प्रजातियों में से सिर्फ 2,500 प्रजाति ही खाने लायक होती हैं.

उन्होंने बताया कि बारिश के दिनों में जंगलों में कई प्रकार के फंगस यानी मशरुम उगते हैं. अब क्योंकि क्लोरोफिल की कमी के चलते ये हरे रंग के नहीं होते हैं. इसलिए कई जहरीले मशरुम होते हैं, जिन को खाने पर जान भी जा सकती है. इसलिए जब तक मशरुम की जानकारी न हो, तब तक न खाएं.