Citrus Fruits : नीबू प्रजाति के फलों की खेती

Citrus Fruits : भारत में उगाए जाने वाले तमाम फलों में नीबू प्रजाति के फलों की खास जगह है. इन में विटामिन ए, बी, सी व खनिज काफी मात्रा में पाए जाते हैं. नीबू वर्गीय फलों में मौसमी, माल्टा, संतरा व नीबू वगैरह खास हैं.

जलवायु व जमीन : नीबू प्रजाति के फल तमाम तरह की जलवायु में उगाए जाते हैं. मौसमी व माल्टा के उत्पादन के लिए गरमी के मौसम में अच्छी गरमी व सर्दी के मौसम में अच्छी सर्दी सही रहती है. इन के लिए शुष्क जलवायु जहां पर बारिश 50-60 सेंटीमीटर होती है, सही रहती है. संतरा व नीबू के लिए गरम, पाला रहित व नम जलवायु जहां बारिश 100-150 सेंटीमीटर होती है, सही रहती है. नीबू हर जगह उगाया जा सकता है.

नीबू प्रजाति के फलों की खेती कई प्रकार की जमीन में की जा सकती है, लेकिन ज्यादा उपजाऊ दोमट जमीन जो 2 से सवा 2 मीटर गहरी हो, इन की खेती के लिए ज्यादा अच्छी है. संतरा, मौसमी और माल्टा के लिए बलुई मिट्टी जिस में जल धारण की कूवत नहीं होती है, मुनासिब नहीं होती. जल निकास युक्त चिकनी मिट्टी जिस में जल धारण की कूवत नहीं होती है, इस की खेती के लिए अच्छी रहती है. इन फलों की खेती के लिए जमीन का चुनाव करते समय इस बात का खयाल रखना चाहिए कि जमीन लवणीय या क्षारीय न हो.

पौध लगाना : नीबू प्रजाति के पौधों को बीज व वानस्पतिक दोनों ही तरीकों द्वारा तैयार किया जाता है. बीज द्वारा पौधे तैयार करने के लिए जुलाई, अगस्त या फरवरी में बीज बोते हैं. नीबू में गूटी लगाने का सही समय जुलाई है. मौसमी व माल्टा के पौधों को कलिकायन से तैयार किया जाता है. इस के लिए पहले बीज से मूलवृंत तैयार करते हैं. बीज हमेशा रफलेमन (जमबेरी व जट्टी खट्टी) के स्वस्थ व पके फलों से लेने चाहिए. बीजों को फलों से निकालने के बाद उन्हें तुरंत क्यारियों में बो देना चाहिए. बीज बोने के लिए फरवरी का समय सही रहता है. जब मूलवृंत 1 साल का हो जाए तब उन पर ही कलिकायन (बडिंग) करें. नीबू प्रजाति के पौधे बीज से भी तैयार किए जा सकते हैं. बीजों को फलों से निकालने के बाद तुरंत नर्सरी में बो देना चाहिए. नर्सरी में पौधे 1 साल के होने के बाद ही खेत में रोपाई करनी चाहिए.

उन्नत किस्में : नीबू प्रजाति के तमाम वर्गों में इस्तेमाल में लाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियों का विवरण निम्नलिखित है:

माल्टा वर्ग

जाफा : फल का आकार गोल होता है. इस की लंबाई 6.37 सेंटीमीटर और चौड़ाई 6.51 सेंटीमीटर होती है. यह पकने पर लालनारंगी रंग का हो जाता है. फल का औसत वजन 140 से 190 ग्राम होता है. इस में रस की मात्रा 30 से 35 फीसदी होतीहै. फल में बीजों की संख्या 5 से 10 तक तक होती है. इस के छिलके  की मोटाई 0.40 सेंटीमीटर होती है. फल नवंबरदिसंबर में पकते हैं. फल उत्पादन 125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है.

मौसमी : इस के फल छोटे से मध्यम आकार के होते हैं, जिन की लंबाई 6.07 सेंटीमीटर और चौड़ाई 6.25 सेंटीमीटर होती है. फल के ऊपर लंबाई में धारियां और तले पर गोल छल्ला होता है. फल पकने पर गहरे पीले रंग के हो जाते हैं, जिन में रस की मात्रा 30 से 35 फीसदी होती है. इस के छिलके की मोटाई 0.35 सेंटीमीटर होती है. फल में खटास 0.25 फीसदी और मिठास 10 से 12 फीसदी होती है. मौसमी नवंबरदिसंबर में पकती है. फलों की उपज 85 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

संतरा वर्ग

किन्नू: इस के फल गोल, मध्यम व चपटापन लिए हुए नारंगी रंग के होते हैं. फल का वजन 125 से 175 ग्राम तक होता है. पकने पर छिलका पतला व चमकदार होता है. इस का गूदा नारंगीपीला होता है और रस की मात्रा 40 से 45 फीसदी होती है. फल जनवरी में पकते हैं. पौधा लगाने के 5 सालों बाद 125 से 150 किलोग्राम प्रति पौधा उपज हासिल होती है.

नागपुर संतरा : यह राजस्थान के झालावाड़ क्षेत्र की मुख्य किस्म है, जो हरे रंग की हलके वजन वाली होती है. यह भरपूर रस वाली किस्म है, जो जनवरीफरवरी में पक कर तैयार हो जाती है.

नीबू वर्ग

कागजी नीबू : इस के फल मध्यम गोल आकार के होते हैं. इस का छिलका पतला होता है. रस की मात्रा 45 फीसदी होती है. इस में घुलनशील लवण 7 फीसदी और अम्लता 3 से 5 फीसदी होती है. फल पकने का समय जुलाईअगस्त और मार्च होता है. पैदावार 40 से 50 किलोग्राम प्रति पौधा होती है.

पंत लेमन : यह पंतनगर से कागजी फलों की चुनी हुई किस्म है, जिस का छिलका पतला होता है.

पौधे लगाने की विधि : नीबू वर्गीय पौधे 5×5 मीटर की दूरी पर लगाएं और 6 से 8 मीटर की दूरी पर मौसमी, संतरा वगैरह के लिए 90×90×90 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे 2 महीने पहले यानी मईजून के दौरान खोद लेने चाहिए. गड्ढों में 25 किलोग्राम गोबर की खाद, 1 किलोग्राम सुपरफास्फेट व 50 से 100 ग्राम क्यूनालफास 1.5 फीसदी या एंडोसल्फान 4 फीसदी चूर्ण मिट्टी में मिला कर भर देना चाहिए. पौधे लगाने का सब से सही समय जुलाईअगस्त रहता है. जहां पानी की अच्छी सुविधा हो, वहां फरवरी में भी पौधे लगाए जा सकते हैं.

खाद व उर्वरक : गोबर की खाद,सुपर फास्फेट व म्यूरेट आफ पोटाश की पूरी मात्रा व यूरिया की आधी मात्रा दिसंबरजनवरी में डालें और बाकी आधी यूरिया जूनजुलाई में डालें.

सूक्ष्म तत्त्व : नीबू वर्गीय फलों में सूक्ष्म तत्त्वों की कमी से पेड़ों में तमाम विकार पैदा हो जाते हैं. सूक्ष्म तत्त्वों में जिंक, बोरोन, मैगनीज, तांबा व लोहा खास हैं. जिंक की कमी से पत्तियां छोटी रह जाती हैं और उन की नसों के बीच का रंग हलका पड़ जाता है. जिंक की कमी से फल गिरने लगते हैं. मैगनीज की कमी के कारण पत्तियों का रंग धीरेधीरे हलका हो जाता है. ये लक्षण विकसित पत्तियों पर साफ दिखाई देते हैं.

पौधों में इन तत्त्वों की कमी के असर को रोकने के लिए इन तत्त्वों का छिड़काव फरवरी व जुलाई में करना चाहिए. इन तत्त्वों को अलगअलग घोलने के बाद पानी में मिलाना चाहिए. छिड़काव के लिए जिंक सल्फेट 500 ग्राम, कापर सल्फेट 300 ग्राम, मैगनीज 200 ग्राम, मैग्नीशियम सल्फेट 200 ग्राम, बोरिक एसिड 100 ग्राम, फेरस सल्फेट 200 ग्राम व बुझा हुआ चूना 900 ग्राम ले कर 100 लीटर पानी में मिलाना चाहिए.

सिंचाई : फल तोड़ने के बाद 1 महीने तक पानी देना बंद कर दें. फिर फूल खिलने से पहले सिंचाई शुरू कर देनी चाहिए. फूल खिलने के समय सिंचाई न करें. जब फल मूंग के दाने के बराबर हो जाएं तो नियमित सिंचाई करें. गरमी के मौसम में करीब 10 से 15 दिनों के अंतर पर और सर्दी के मौसम में 25-30 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. फल विकास के समय सही मात्रा में नमी होना जरूरी है, वरना फल फटने लगते हैं.

देखभाल : फल देने वाले पौधों की कम से कम कटाईछंटाई करनी चाहिए. फलों को तोड़ने के बाद ऐसी शाखाएं जो जमीन के ज्यादा संपर्क में आ जाती हैं, उन को काट देना चाहिए. सभी रोगी व घनी शाखाओं को भी काट देना चाहिए. सही आकार देने के लिए रोपाई के 3 सालों तक कटाईछंटाई करते रहना चाहिए. बाग लगाने के शुरू के 3 सालों में बाग में दलहनी फसलों की खेती की जा सकती है. इस से शुरू के सालों में भी आमदनी हासिल होती रहेगी.

कीड़ों की रोकथाम

नीबू की तितली : इस की लटें शुरू में चिडि़यों के बीट की तरह दिखाई देती हैं. अंडों से निकलने के तुरंत बाद ये पत्तियों को खाने लगती हैं और नुकसान पहुंचाती हैं.

* रोकथाम के लिए पेड़ों की संख्या ज्यादा न हो, तो लटों को पेड़ों से चुन कर मिट्टी के तेल मिले पानी में डाल कर मार देना चाहिए.

* मोनोक्रोटोफास की 1.5 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें.

फल चूसक पतंगा: यह कीट फलों में छेद कर के रस चूसता है, जिस से संक्रमित भाग पीला पड़ जाता है और फल की गुणवत्ता कम हो जाती है.

* रोकथाम के लिए प्रकाशपाश का इस्तेमाल कर के पतंगों को इकट्ठा कर के मार देना चाहिए.

* शीरा या शक्कर की 100 ग्राम मात्रा के 1 लीटर पानी में बनाए घोल में 10 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ईसी मिला कर मिट्टी के प्यालों में 100 मिलीलीटर प्रति प्याला के हिसाब से पेड़ों पर कई जगह पर टांग देना चाहिए.

* मैलाथियान 50 ईसी की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़कव करना चाहिए.

Citrus Fruits

लीफ माइनर, सिट्रस सिल्ला व रेड स्पाइडर माइट : लीफ माइनर की लटें बहुत छोटी होती हैं. ये पत्तियों में सुरंग बनाती हैं. बारिश के मौसम में इन का हमला ज्यादा होता है.

सिट्रस सिल्ला का आक्रमण नई पत्तियों व कोमल भागों में होता है. ये पत्तियों से रस चूसते हैं, जिस के कारण पत्तियां सिकुड़ जाती हैं.

इस कीट का हमला बारिश के मौसम में ज्यादा होता है.

रेड स्पाइडर माइट पत्तियों के ऊपरी सिरों से रस चूसती है. कभीकभी यह बहुत ही ज्यादा नुकसान पहुंचाती है.

रोकथाम के लिए फोरमोथियोन 25 ईसी (सेस्थियो) का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर छिड़काव करें. सिट्रस सिल्ला की रोकथाम के लिए नई पत्तियां आने पर छिड़काव करना जरूरी है. यह रसायन मिलीबग की भी रोकथाम करता है.

मूल ग्रंथी (सूत्रकृमि) : इस का हमला नीबू की जड़ों पर होता है. इस के हमले से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, टहनियां सूखने लगती हैं और जड़ गुच्छेदार बन जाती है. इस के असर से पेड़ पर फल छोटे व कम लगते हैं और जल्दी गिर जाते हैं.

रोकथाम के लिए कार्बोफ्यूरान 3 जी 20 ग्राम प्रति पेड़ की दर से इस्तेमाल करें.

बीमारियों की रोकथाम

नीबू का केंकर रोग: जीवाणु से होने वाले इस रोग से पत्तियों, टहनियों व फलों पर भूरे रंग के कटे खुरदरे व कार्कनुमा धब्बे पड़ जाते हैं. रोगी पत्तियां गिर जाती हैं. टहनियों व शाखाओं पर लंबे घाव बनते हैं, जिस से टहनियां टूट जाती हैं. इस रोग से कागजी नीबू को ज्यादा नुकसान होता है.

रोकथाम के लिए नए बगीचे में हमेशा रोग रहित नर्सरी के पौधे ही इस्तेमाल में लाएं और रोपाई से पहले पौधों पर बोर्डों मिश्रण (4:4:50) या ताम्रयुक्त कवकनाशी (ब्लाइटाक्स) 0.3 फीसदी का छिड़काव करें.

रोग के प्रकोप को रोकने के लिए कटाईछंटाई के बाद जून से अक्तूबर तक बोर्डों मिश्रण (4:4:50) या स्ट्रेप्टोसाक्लिन 250-500 मिलीग्राम प्रति लीटर के घोल का 20 दिनों के अंतर पर फरवरी और मार्च के महीनों में छिड़काव करें.

गोदाति रोग (गमोसिस) : इस रोग के कारण तनों पर जमीन के पास से और टहनियों के रोगग्रस्त भाग से गोंद जैसा पदार्थ निकल कर छाल पर बूंदों के रूप में इकट्ठा हो जाता है, जिस की वजह से छाल सूख कर फट जाती है और भीतरी भाग भूरे रंग का हो जाता है. रोग के हमले से अंत में पेड़ फटने की स्थिति में पहुंच जाता है.

रोकथाम के लिए रोगग्रस्त छाल खुरचने के बाद रिडोमिल एमजेड 20 ग्राम व अलसी का तेल 1 लीटर को अच्छी तरह मिला कर या ताम्रयुक्त कवकनाशी का लेप कर दीजिए और इन्हीं कवकनाशी के 0.3 फीसदी या रिडोमिल एमजेड 25 से 0.2 फीसदी घोल के 4-5 छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर कीजिए. इस के अलावा बगीचे की सही देखभाल, पानी के अच्छे निकास, धूपहवा वगैरह का पूरा ध्यान इस रोग से बचाव के लिए जरूरी है.

विदर टिप या डाई बैक : इस रोग से पत्तियों पर भूरेबैगनी धब्बे पड़ जाते हैं.

टहनियां ऊपर से नीचे की ओर सूखती हुई भूरी हो जाती हैं और पत्तियां सूख कर गिर जाती है.

रोकथाम के लिए रोगयुक्त भाग की छंटाई के बाद ताम्र युक्त कवकनाशी (कापर आक्सीक्लोराइड) 3 ग्राम या मैंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव बारिश के मौसम में 15 दिनों व सर्दी के मौसम में 20 दिनों के अंतर पर करना चाहिए. इस के अलावा साल में 2 बार (फरवरी और अप्रैल में) सूक्ष्म तत्त्वों का छिड़काव करें.

फलों का गिरना: तोड़ाई के 5 हफ्ते पहले से फल गिरने लग जाते हैं. इन की रोकथाम के लिए 1 ग्राम 2-4 डी 100 लीटर पानी में या प्लेनोफिक्स हारमोन्स 1 मिलीलीटर प्रति 4 से 5 लीटर पानी में घोल कर संतरा और मौसमी के पेड़ों पर छिड़कना चाहिए.

तोड़ाई व उपज : संतरा, माल्टा व नीबू का रंग जब हलका पीला हो जाए, तब इन की तोड़ाई करनी चाहिए.

मौसमी, संतरा और माल्टा की उपज प्रति पौधा 70 से 80 किलोग्राम होती है. कागजी नीबू में 40 से 50 किलोग्राम प्रति पौधा उपज हासिल होती है.

Hydroponics Technology : हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से हरा चारा

Hydroponics Technology: शहर हो या गांव, आज के समय में अनेक पशुपालक डेरी व्यवसाय करना चाहते हैं, लेकिन उन के लिए चारे की समस्या आड़े आ जाती है. गांव में तो किसानों को यह समस्या ज्यादा नहीं है, लेकिन शहरों में जो लोग पशुपालन कर रहे हैं, उन्हें हरा चारा नहीं मिल पाता. शहरों के आसपास चारा उगाने के लिए जमीन की अच्छीखासी कमी है.

आमतौर पर पौधे उगाने के लिए बीजों को मिट्टी में बोया जाता है, जबकि हाइड्रोपोनिक्स तकनीक (Hydroponics Technology) में बीजों को बिना मिट्टी के उगाया जाता है और बहुत कम जमीन की जरूरत होती है.

कृषि विशेषज्ञों और कृषि यंत्र विशेषज्ञों ने मिल कर हाइड्रोपोनिक्स तकनीक ईजाद की है. हाइड्रोपोनिक्स तकनीक पर आयुर्वेट के वैज्ञानिकों द्वारा लगातार आगे बढ़ाने का काम किया जा रहा है और उन्हें  इस के अच्छे नतीजे मिल रहे हैं.

इस तकनीक से उगाए गए चारे को हाइड्रोपोनिक्स चारा भी कह सकते हैं. इस हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से रोज ही हरा चारा उगाया जा सकता है. इस तकनीक से 1 किलोग्राम बीजों से 7 दिनों में 6-8 किलोग्राम हरा चारा पैदा हो जाता है.

यह मशीन अलगअलग कूवतों में मिलती है. इस से 1 दिन में 240 किलोग्राम से ले कर 960 किलोग्राम तक हरे चारे का उत्पादन हो सकता है. गरमी हो या सर्दी या बरसात इस का कोई फर्क नहीं पड़ता. मक्का, जौ और जई जैसे चारे के लिए प्रचलित अनाजों से हाईड्रोपोनिक चारा तैयार किया जाता है.

जमीन में उगाए गए चारे की तुलना में हाइड्रोपोनिक्स मशीन में उगाया गया चारा पौष्टिकता और गुणों से भरपूर होता है. जमीन के मुकाबले इस मशीन से कई गुना अधिक चारा पैदा किया जा सकता है. इस मशीन से चारा उगाने में पानी की भी बहुत बचत होती है. मशीन के नीचे ही पानी की टंकी लगी होती है, जिस से जरूरत के अनुसार पानी मशीन में जाता है. ट्रे में जितने पानी की जरूरत होती है, उतना ही खर्च होता है, बाकी पानी वापस टंकी में चला जाता है.

इस चारे की खूबी यह है कि हमें जड़, बीज व चारा तीनों चीजें मिलती हैं, जबकि खेत में उगाने से हमें केवल चारा ही मिलता है. जमीन में चारा तैयार होने में जहां कम से कम 1 महीना लगता है, वहीं इस मशीन से महज 1 हफ्ते में चारा मिलने लगता है. जमीन में उगे चारे के मुकाबले हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से उगाया गया चारा अधिक पौष्टिक और गुणकारी होता है.

Hydroponics Technology

इस चारे की एक और खूबी यह है कि यह कीटनाशकों और खरपतवार से रहित शुद्ध पशु आहार होता है.

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि दुधारू पशु को रोजाना कुछ मात्रा इस चारे की भी मिला कर खिलाई जाए, तो दूध में अच्छीखासी बढ़ोतरी होती है. इस के इस्तेमाल से गायभैंस के बच्चों की भी बढ़वार अच्छी होती है. अगर प्रजनन करने वाले सांड़ों को भी यह चारा खिलाया जाए तो उन की प्रजनन कूवत में बढ़ोतरी होती है.

इस तकनीक से गन्ने की पौध, गेहूं के ज्वारे आदि की पौध तैयार की जा सकती है. हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से धान की नर्सरी भी उगाई जा सकती है. इस से धान के पौधे 1 हफ्ते में तैयार हो जाते हैं. ऐसे पौधे घासपात रहित व रोगमुक्त होते हैं.

आयुर्वेट प्रोग्रीन हाइड्रोपोनिक्स मशीन

Hydroponics Technology

मशीन निर्माता का कहना है कि यह कृषि मंत्रालय भारत सरकार द्वारा पहली और एकमात्र हाइड्रोपोनिक्स मशीन है. इस मशीन पर कृषि मंत्रालय द्वारा सब्सिडी की सुविधा उपलब्ध है और यह खासकर पशु विश्वविद्यालयों द्वारा अनुमोदित है.

प्रोफेसर डा. आरके धूरिया, पशु पोषण विभाग, बीकानेर, राजस्थान का कहना है कि उन के विश्वविद्यालय में पिछले 4 सालों से आयुर्वेट हाइड्रोपोनिक्स मशीन सफलतापूर्वक चल रही है. मशीन द्वारा उत्पादित हरा चारा साधारण हरे चारे की तुलना में 2 से 3 गुना प्रोटीनयुक्त होता है और उस में तकरीबन दोगुनी ऊर्जा होती है. हाइड्रोपोनिक्स हरे चारे के इस्तेमाल से दूध उत्पादन में बढ़ोतरी होती है व संपूर्ण पशु आहार में बचत होती है.

मशीन निर्माता का कहना है कि डेरी फार्म, फार्म हाउस व अन्य पशु आहार तैयार करने वाली कंपनियां उन की मशीन इस्तेमाल कर रही हैं. जरूरत के हिसाब से तमाम साइजों में मशीनें मौजूद हैं.

अधिक जानकारी के लिए किसान दिल्ली कार्यालय के फोन नंबर 011-22455993, गाजियाबाद कार्यालय के फोन नंबर 0120-7100201 और मोबाइल नंबर 9953150352 पर संपर्क कर सकते हैं.

Paddy: धान की उन्नत खेती से उगा सकते हैं सोना

Paddy: तमाम कुदरती आपदाओं की वजह से पिछले 1 दशक से मध्य प्रदेश की खास खरीफ की फसल सोयाबीन ने प्रदेश के किसानों की हालत खराब कर दी, नतीजतन किसानों ने धान (Paddy) की खेती शुरू कर दी और रिकार्ड उत्पादन कर के खेती को लाभ का धंधा बना दिया.

पहले छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता था, पर अब मध्य प्रदेश में धान की खेती बड़े पैमाने पर की जाने लगी है. किसान बड़े रकबे में धान की खेती कर के अपने खेतों में सोना उगा सकते हैं.

खेत की तैयारी : गरमी के मौसम में सही समय पर खेत की गहरी जुताई हल या प्लाउ चला कर करें, जिस से मिट्टी उलटपलट जाए. मेंड़ों की सफाई जरूर करें. गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद 10 से 12 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई या बारिश से पहले खेत में फैला कर मिलाएं.

धान की खेती की विधियां

सीधे बीज बोने की विधि : खेत में सीधे बीज बो कर निम्न तरह से धान की खेती की जाती है:

* छिटकवां बोआई.

* नाड़ी हल या दुफन या सीड ड्रिल से कतारों में बोआई.

* बियासी विधि (छिटकवां विधि) से सवा गुना ज्यादा बीज बो कर बोआई के 1 महीने बाद फसल की पानी भरे खेत में हलकी जुताई.

* लेही विधि (धान के बीजों को अंकुरित कर के मचौआ किए गए खेतों में सीधे छिटकवां विधि से बोआई).

रोपा विधि : इस विधि के तहत धान के पौधे सीमित क्षेत्र में तैयार किए जाते हैं. फिर 25 से 30 दिनों के पौधों की खेत में रोपाई की जाती है.

बीजों की मात्रा : अनुविभागीय अधिकारी कृषि केएस रघुवंशी बताते हैं कि धान की बोआई के लिए बीजों की मात्रा बोआई की विधि के मुताबिक अलगअलग रखनी चाहिए.

बीजों का उपचार : बीजों को थायरम या डायथेन एम 45 दवा की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर के बोआई करें. बैक्टेरियल बीमारियों से बचाव के लिए बीजों को 0.02 फीसदी स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के घोल में डुबा कर उपचारित करना फायदेमंद होता है.

बोआई का सही समय : बारिश का मौसम शुरू होते ही धान की बोआई का काम शुरू करें. मध्य जून से जुलाई के पहले हफ्ते तक बोआई का सब से अच्छा समय होता है. रोपाई के बीजों की बोआई रोपणी में जून के पहले हफ्ते में ही सिंचाई की सुविधा वाली जगहों पर कर दें, क्योंकि जून के तीसरे हफ्ते से मध्य जुलाई तक की रोपाई से अच्छी पैदावार मिलती है.

खाद व उर्वरक

गोबर की खाद या कंपोस्ट : धान की फसल में 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी गोबर खाद या कंपोस्ट का इस्तेमाल करने से महंगे उर्वरकों के खर्च में बचत की जा सकती है.

हरी खाद : रोपाई वाले धान में हरी खाद के इस्तेमाल में सरलता होती है. इसे मिट्टी में आसानी से मिलाया जा सकता है. हरी खाद के लिए सनई के करीब 25 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रोपाई से 1 महीने पहले बोने चाहिए. करीब 1 महीने की खड़ी सनई की फसल को खेत में मचौआ करते समय मिला देना चाहिए. यह 3-4 दिनों में सड़ जाती है. ऐसा करने से करीब 50-60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर उर्वरकों की बचत होगी.

जैव उर्वरकों का इस्तेमाल : कतारों में बोआई वाले धान में 500 ग्राम एजेटोवेक्टर और 500 ग्राम पीएसबी जीवाणु उर्वरक का प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल करने से 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन और स्फुर उर्वरक बचाए जा सकते हैं.

इन दोनों जीवाणु उर्वरकों को 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर सूखी सड़ी हुई गोबर की खाद में मिला कर बोआई करते समय कूड़ों में डालने से इन का पूरा लाभ मिलता है. सीधी बोआई वाले धान में उगने के 20 दिनों और रोपाई के 20 दिनों की अवस्था में 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हरीनीली काई का बुरकाव करने से करीब 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन उर्वरक की बचत की जा सकती है. ध्यान रहे कि काई का बुरकाव करते समय खेत में सही नमी या हलकी नमी की सतह रहनी चाहिए.

उर्वरकों का इस्तेमाल : धान की फसल में उर्वरकों का इस्तेमाल बोई जाने वाली प्रजाति के मुताबिक करना चाहिए.

उर्वरक देने का समय : नाइट्रोजन की आधी मात्रा और स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा आधार खाद के रूप में रोपाई से पहले खेत तैयार करते समय या कीचड़ मचाते समय बुरक कर मिट्टी में मिलाएं. बची नाइट्रोजन की आधी मात्रा अंकुर फूटने की अवस्था में (रोपाई के 20 दिनों बाद) और आधी मात्रा गंभोट की अवस्था में देनी चाहिए. जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में खेत की तैयारी करते समय जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 3 साल में 1 बार इस्तेमाल करें. गंधक की कमी वाले क्षेत्रों में गंधक वाले उर्वरकों (जैसे सिंगल सुपर फास्फेट) का इस्तेमाल करें.

सिंचाई : धान की फसल में सिंचाई का बहुत महत्त्व है. रोपाई से अंकुर निकलने की अवस्था तक खेत में पानी की सतह 2-5 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. कंसे (अंकुर) निकलने के बाद से गंभोट की अवस्था तक 10-15 सेंटीमीटर पानी की सतह रखें. धान की फसल में जरूरत से ज्यादा पानी भरना अच्छी पैदावार में बाधक होता है.

लेही के लिए बीज अंकुरित करना: लेही विधि से बोआई करने के लिए खेत की तैयारी के तुरंत बाद अंकुरित बीज मौजूद होने चाहिए. लिहाजा लेही बोआई के तय समय के 3-4 दिनों पहले से ही बीज अंकुरित करने का काम शुरू कर दें.

इस के लिए बीजों की तय मात्रा को रात के समय पानी में 8-10 घंटे के लिए भिगोएं. फिर इन भीगे हुए बीजों का पानी निकाल दें. फिर इन बीजों को पक्की सूखी सतह पर रख कर बोरों से ढक दें. ढकने के 24-30 घंटे के अंदर बीज अंकुरित हो जाते हैं. इस के बाद बोरों को हटा कर बीजों को छाया में फैला कर सुखाएं. इन अंकुरित बीजों का इस्तेमाल 6-7 दिनों तक किया जा सकता है.

रोपणी में पौधे तैयार करना : जितने रकबे में धान की रोपाई करनी हो उस के 1/20 भाग में रोपणी बनानी चाहिए. रोपणी में इस प्रकार से बोआई करनी चाहिए कि करीब 3-4 हफ्ते के पौधे रोपाई के लिए समय पर तैयार हो जाएं. रोपणी के लिए 2-3 बार जुताई कर के अच्छी तरह खेत तैयार करें.

इस के बाद खेत में 1.5-2.0 मीटर चौड़ी पट्टियां बना लें, जिन की लंबाई खेत मुताबिक कम या ज्यादा हो सकती है. हर पट्टी के बीच 30 सेंटीमीटर की नाली रखें. इन नालियों की मिट्टी नाली बनाते समय पट्टियों पर डालने से वे ऊंची हो जाती हैं.

ये नालियां जरूरत के मुताबिक सिंचाई व जल निकास के लिए मददगार होती हैं. रोपणी में 8 से 10 सेंटीमीटर के अंतर से कतारों में बोआई करने से रखरखाव और रोपाई के लिए पौधे उखाड़ने में आसानी होती है.

कम पानी में भी हो सकता है धान का उत्पादन : सूखा प्रतिरोधी धान की खेती करना अब मुमकिन हो गया है. गेहूं की तरह अब चावल उगाने के लिए भी नई तकनीक की खोज हो गई है. अब धान के खेत को हमेशा पानी से भरा हुआ रखे बिना भी इस की खेती की जा सकती है. नई तकनीक से धान की फसल के लिए पानी की जरूरत में 40 से 50 फीसदी तक कमी करने में मदद मिलेगी.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और फिलीपींस अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआरआरआई) ने संयुक्त रूप से यह तकनीक विकसित की है. इस परियोजना में कटक स्थित केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (सीआरआरआई) की भी भागीदारी है. कटक स्थित संस्थान ने ही धान की वैसी किस्मों की पहचान की है, जिन्हें दूसरी फसलों की तरह कुछ दौर की सिंचाई के जरीए उगाया जा सकता है.

संस्थान ने खेती की ऐसी विधियों की भी खोज की है, जिन के जरीए धान की ऐसी किस्मों से करीबकरीब उतनी उपज हो सकती है, जितनी सामान्य तौर पर ज्यादा पैदावार वाली धान की किस्मों से होती है.

तकनीकी तौर पर यह एरोबिक राइस कल्टीवेशन कहलाता है. इस तकनीक में धान के खेत में स्थिर पानी की जरूरत नहीं होती और न ही धान के छोटे पौधे तैयार करने की जरूरत होती है, जैसा कि आमतौर पर होता है.

इस तकनीक में कुशलता से तैयार किए गए खेतों में सीधे बीज बो दिए जाते हैं और इस तरह मजदूरी की लागत की भी बचत हो जाती है.

लहसुन (Garlic) उखाड़ने की मशीन से काम हुआ आसान

Garlic : राजस्थान के जोधपुर जिले का मथानिया गांव उम्दा खेतीकिसानी के लिए जाना जाता है. मथानिया की लाल मिर्च के नाम से इस गांव के खेतों में उपजी मिर्च की मांग विदेशों तक थी. फिर किसानों द्वारा फसलचक्र को तवज्जुह न देने की वजह से यहां की मिर्ची की खेती तमाम रोगों का शिकार हो गई. लेकिन धीरेधीरे किसान जागरूक हुए हैं और कुदरत के नियमों का पालन कर रहे हैं. अब इस इलाके में मिर्च के अलावा गाजर, पुदीना और लहसुन की खेती भी जोरों पर है.

लहसुन (Garlic) की खेती में यहां के किसानों को शिकायत थी कि जब वे लहसुन (Garlic) को खेत में से उखाड़ने का काम करते हैं, तो उन के हाथ खराब हो जाते हैं. हाथ फटने और नाखूनों में मिट्टी चले जाने के कारण अगले दिन खेत में जा कर मेहनत करना कठिन होता था.

किसान मदन सांखला ने इस समस्या को चैलेंज के रूप में स्वीकारते हुए लहसुन की फसल निकालने के लिए एक मशीन बनाने की सोची. मदन को किसान होने के साथसाथ अपने बड़े भाई अरविंद के लोहे के यंत्र बनाने के कारखाने में मिस्त्री के काम का अनुभव भी था. उस ने अपने अनुभव के आधार पर जो मशीन बनाई, उसे काफी बदलावों के बाद कुली मशीन नाम दिया, चूंकि लहसुन में कई कुलियां होती हैं.

लहसुन (Garlic) की खेती में 1 मजदूर दिन भर में 100 से 200 किलोग्राम लहसुन ही खेत से उखाड़ (निकाल) पाता है. दिन भर की मेहनत के बाद अगले दिन खेत में मजदूरी करना सब के बस की बात नहीं रहती थी. इस तरह से लागत बढ़ने लगी और हम लोग लहसुन को कम महत्त्व देने लगे.

‘समस्या के हल के लिए हम ने लहसुन (Garlic) को लोहे की राड या हलवानी से निकालना शुरू किया. इस से हमें काम में थोड़ीबहुत आसानी जरूर हुई, पर यह समस्या का अंत नहीं था. मुझे अंत तक पहुंचने की जल्दी थी.

‘तब मैं ने एक मशीन बनाई. नालीदार शेप वाले मजबूत ऐंगल से बनी हल जितनी ऊंची यह मशीन खूब लोकप्रिय हो रही है. इसे ट्रैक्टर के पीछे टोचिंग कर के इस्तेमाल किया जाता है. यह एक एडजस्टेबल मशीन है. खेत में मिट्टी के हिसाब से लहसुन की गांठें कम या ज्यादा गहराई तक बैठती हैं, लिहाजा ट्रैक्टर से जोड़ कर इसे हल की तरह मनचाहे एंगल पर खेत में उतारा जा सकता है. जमीन के भीतर रहने वाले हिस्से में एक आड़ी पत्ती (ब्लेड) लगी रहती है, जिसे जमीनतल के समानांतर न रख कर थोड़ा टेढ़ा रखा गया है. यह आड़ी पत्ती मजबूत लोहे की बनी होती है.

मशीन की पत्ती जमीन में 7-8 इंच या 1 फुट तक गहरी जाती है और मिट्टी को नरम कर देती है. इस से फायदा यह होता है कि लहसुन को ढीली पड़ चुकी मिट्टी से बाद में आसानी से इकट्ठा किया जा सकता है. लहसुन रहता मिट्टी के अंदर ही है, बाहर निकलने और धूप में खराब होने का अब डर नहीं है.

पहले हाथ से लहसुन (Garlic) निकालने पर पूरे दिन में 1 लेबर 5 क्यारियों से लहसुन निकाल पाता था. गौरतलब है कि 1 बीघे में 100 क्यारियां होती हैं. इस मशीन के नतीजे चौंकाने वाले हैं. इसे ट्रैक्टर से जोड़ कर 1 बीघे का लहसुन महज 15 मिनट में उखाड़ लिया जाता है.

(Garlic)

हाथ से लहसुन उखाड़ने के दौरान करीब 3 से 4 फीसदी लहसुन जमीन में ही रह जाता था. किसान या मजदूर चाहे कितना भी अनुभवी क्यों न हो, लहसुन टूट कर जमीन में रह ही जाता था. इस के अलावा पत्तों समेत उखाड़े जाने वाले लहसुन की कुलियों (गांठों) को खराब होने से बचाने के लिए तुरंत ही इकट्ठा कर के छाया में सुखाना पड़ता था. इस काम की मजदूरी भी देनी पड़ती थी.

अब 1 लेबर 1 दिन में 1 बीघे यानी 100 क्यारियों में से लहसुन उखाड़ सकता है. इस मशीन से वक्त की बचत हुई है और दाम भी अच्छे मिलने लगे हैं. राजस्थान के कोटा में लहसुन ज्यादा होता है, इसलिए वहां इस मशीन की मांग ज्यादा है.

पहले हाथ से लहसुन निकालने पर उसे खराब होने से बचाने के लिए बोरी से ढक कर रखना पड़ता था. अब यह फायदा है कि लहसुन रहता तो जमीन में ही है, बस मिट्टी नर्म हो जाती है, इसलिए इसे जरूरत के मुताबिक निकाला जा सकता है. इस मशीन की लागत 13000 से 15000 रुपए के बीच आती है.

ज्यादा जानकारी के लिए किसान निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं:

मदन सांखला, मार्फत विजयलक्ष्मी इंजीनियरिंग वर्क्स, राम कुटिया के सामने, नयापुरा, मारवाड़ मथानिया 342305, जिला जोधपुर, राजस्थान. फोन : 09414671300.

Solar Energy : ऊर्जा से ट्यूबवैल चलें

Solar Energy: पानीपत शहर से 7 किलोमीटर पहले दिल्लीचंडीगढ़ हाईवे पर बाएं हाथ पर एक गांव है सिवाह. वहां के एक प्रगतिशील किसान रामप्रताप शर्मा ने आधुनिक तरीके से खेतीबारी कर के न केवल धरती से सोना उगाया है, बल्कि कई अवार्ड भी जीते हैं.

55 साल के रामप्रताप शर्मा ने कम उम्र में ही खेतीबारी से नाता जोड़ लिया था और आज वे अपनी तकरीबन 30 एकड़ पारिवारिक जमीन पर परंपरागत व आधुनिक दोनों तरीकों से फसलें उगा रहे हैं.

वैसे तो खेतीबारी की इस बैल्ट में ज्यादातर किसान साल में 3 फसलें जैसे गेहूं, धान व गन्ना अपने खेतों में उगाते हैं, लेकिन रामप्रताप शर्मा ने कुछ हट कर सोचा. उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र ऊझा, पानीपत के कृषि वैज्ञानिकों डा. राजबीर गर्ग और आरएस दहिया की मदद से 4-5 एकड़ जमीन में खेतीबारी के आधुनिक तरीके अपना कर बैगन, प्याज, हरी मिर्च, टमाटर, घीया, तुरई, सेम, खीरा, आलू, शलगम के अलावा खरबूजा और पपीता की भी खेती की.

रामप्रताप शर्मा मल्चिंग तकनीक से आधुनिक खेती करते हैं, जिस में ड्रिप सिंचाई का अहम योगदान होता है. साथ ही उत्तम किस्म के बीज और उन की बोआई पर भी खास ध्यान दिया जाता है.

रामप्रताप शर्मा ने बताया, ‘नई तकनीक से खेती करने में ज्यादा मेहनत की जरूरत होती है. आम शब्दों में कहें, तो किसान को एक वैज्ञानिक की सोच अपनानी पड़ती है और ज्यादा से ज्यादा फसल लेने के लिए उसे खेतीबारी के आधुनिक उपकरणों, खाद और दवाओं की पूरी जानकारी होनी चाहिए. कृषि विज्ञान केंद्र इस के लिए किसानों के सम्मेलन और कार्यशालाएं आयोजित कराते हैं, जो बहुत उपयोगी साबित होते हैं.

‘मैं कृषि वैज्ञानिकों से साल 2010 में जुड़ा था और तब से नई तकनीक की खेतीबारी कर रहा हूं. यह कृषि वैज्ञानिकों की हिदायतों और मेरी मेहनत का ही नतीजा है कि मैं ने साल 2014 में मांगिआना, सिरसा के ‘प्रथम फल मेले’ में पपीता उगाने में पहला इनाम हासिल किया था. इतना ही नहीं, साल 2016 में घरौंडा, हरियाणा के ‘स्वर्ण जयंती मैगा ऐक्सपो’ में प्याज उगाने में पहला और शलगम उगाने में दूसरा इनाम जीता था.’

Solar Energy

पिछले 2-3 सालों से ‘सिवाह फलसब्जी उत्पादक संघ’ के प्रधान रामप्रताप शर्मा ने किसानों की समस्याओं पर बात करते हुए चिंता जताई. वे बोले, ‘किसानों की सब से बड़ी समस्या यह है कि उन्हें अपने उत्पादों की सही कीमत नहीं मिलती है. मंडी में बिचौलियों का राज है. वे किसानों से बहुत कम कीमत पर माल खरीदते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि अगर किसान समय रहते अपनी फसल नहीं बेचेंगे, तो उन की फसल खराब हो जाएगी.’

इस समस्या का क्या हल है इस सवाल पर रामप्रताप शर्मा ने बताया, ‘किसानों का भला तभी हो सकता है, जब उन की फसल सीधी सरकार या निजी कंपनियों के पास जाए. इस के लिए कलेक्शन सेंटर होने चाहिए. आजकल खेतीबारी करना बहुत महंगा सौदा है. किसान अपने घर से पैसे लगाते हैं और फसल उगा कर कुदरत के भरोसे रहते हैं.

अगर कुदरत की मार नहीं भी पड़ती है, तो भी मंडी में सही दाम नहीं मिलने से उन्हें मनचाहा मुनाफा नहीं मिलता है.

‘किसान अपनी फसल का भंडारण कहां करें, यह भी बहुत बड़ी समस्या है. निजी भंडारघरों में अपनी फसल रखना हर किसान के बस की बात नहीं है.

‘आधुनिक तरीके से खेती करने में पहली नजर में तो यही लगता है कि किसान भरपूर मुनाफा कमाते हैं, पर यह सब दूर के ढोल सुहाने जैसा है.

नई तकनीक में इस्तेमाल होने वाली मशीनें बेहद महंगी होती है. पोटैटो डिगर मशीन 85000 रुपए की आती है. छोटे किसानों के लिए इस तरह की मशीनें इस्तेमाल करना सपने जैसा है.

‘किसानों को बिजली भी बहुत सताती है. सही समय पर फसल को पानी न मिले, तो उस का फसल की उत्पादकता पर बुरा असर पड़ता है. किसान ट्यूबवैल लगवा भी लें, पर बिजली ही न हो, तो सब बेकार है.

‘मेरा मानना है कि सरकार सौर ऊर्जा से चलने वाले ट्यूबवैल लगवाए और उन पर सब्सिडी भी दे. एक और बात, सरकार स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करे और उसे लागू करे.

‘खेतीबारी में सरकार को किसानों की हरमुमकिन मदद करनी चाहिए, तभी तो वे करोड़ों भूखे पेटों के लिए अन्न उगा सकेंगे. किसानों के अच्छे दिन लाओ, देश के अपनेआप आ जाएंगे.’

खेती की तकनीकों के बारे में ज्यादा जानकारी लेने के लिए रामप्रताप शर्मा से उन के मोबाइल नंबर 09813300835 पर बात की जा सकती है.

Sunflower : सूरजमुखी से भरपूर आमदनी

सूरजमुखी (Sunflower) की खेती देश में पहली बार साल 1969 में उत्तराखंड के पंतनगर में की गई थी. यह एक ऐसी तिलहनी फसल है, जिस पर प्रकाश का कोई असर नहीं पड़ता. यानी यह फोटोइनसेंसिटिव है. हम इसे खरीफ, रबी और जायद तीनों मौसमों में उगा सकते हैं. इस के बीजों में 45-50 फीसदी तक तेल पाया जाता है. इस के तेल में एक खास तत्त्व लिनोलिइक अम्ल पाया जाता है. लिनोलिइक अम्ल शरीर में कोलेस्ट्राल को बढ़ने नहीं देता है. अपनी खूबियों की वजह से इस का तेल दिल के मरीजों के लिए दवा की तरह काम करता है.

प्रकाश का कोई असर न पड़ने की वजह से सूरजमुखी अचानक होने वाले मौसम के बदलावों को भी सह लेता है. इसीलिए सू्ररजमुखी की खेती किसानों को भरपूर आमदनी देती है. इसी वजह से देश के अलगअलग हिस्सों में इस की खेती का रकबा बढ़ता ही जा रहा है.

जमीन : इस की खेती अम्लीय और क्षारीय जमीनों को छोड़ कर हर तरह की जमीनों में की जा सकती है. वैसे ज्यादा पानी सोखने वाली भारी जमीन इस के लिए ज्यादा अच्छी होती है.

खेत की तैयारी : खेत में भरपूर नमी न होने पर पलेवा लगा कर जुताई करनी चाहिए. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के बाद साधारण हल से 2-3 बार जुताई कर के खेत को भुरभुरा बना लेना चाहिए या रोटावेटर का इस्तेमाल करना चाहिए.

किस्में : सूरजमुखी की 2 तरह की किस्में होती हैं, एक कंपोजिट और दूसरी हाईब्रिड. कंपोजिट किस्मों में माडर्न व सूर्या खास हैं. हाईब्रिड किस्मों में केवीएसएच 1, एसएच 3222, एमएसएफएच 17 व वीएसएफ 1 वगैरह शामिल हैं.

बोआई का समय व विधि : जायद फसल की बोआई फरवरी के अंतिम हफ्ते से ले कर मध्य मार्च तक कर लेनी चाहिए, जबकि बसंतकालीन बोआई 15 जनवरी से 10 फरवरी तक कर लेनी चाहिए. लाइन से बोआई करना बेहतर होता है. बोआई हल के पीछे कूंड़ों में 4-5 सैंटीमीटर गहराई पर करें और लाइन से लाइन की दूरी 45 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 15 सेंटीमीटर रखें.

Sunflower

बीजों की मात्रा : हाईब्रिड किस्म होने पर 5-6 किलोग्राम और कंपोजिट किस्म होने पर 12-15 किलोग्राम बीजों का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

खाद व उर्वरक : खाद व उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच कराने के बाद मिली शिफारिशों के आधार पर ही करना चाहिए. वैसे मोटे तौर पर 3-4 टन खूब सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना लाभप्रद होता है.

कंपोजिट किस्म में 80 किलोग्राम नाइट्रोजन और हाईब्रिड किस्म में 100 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. कंपोजिट व हाईब्रिड दोनों किस्मों के लिए 60 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश देना जरूरी होता है. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के वक्त कूंड़ों में देनी चाहिए.

नाइट्रोजन की बची हुई मात्रा बोआई के 25-30 दिनों बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए. अगर आलू के बाद सूरजमुखी की बोआई की जा रही है, तो उर्वरकों की मात्रा 25 फीसदी घटा देनी चाहिए. तिलहनी फसलों की गुणवत्ता में सल्फर की खास भूमिका होती है, लिहाजा, 200 किलोग्राम जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से देना लाभदायी रहेगा.

खरपतवार नियंत्रण : खरपतवार निकालने के लिए रासायनिक दवाओं का इस्तेमाल न कर के यांत्रिक विधि अपनाएं. अगर रासायनिक विधि ही अपनानी है, तो बोआई के 2-3 दिनों के अंदर पेंडीमेथलीन (50 फीसदी) दवा का इस्तेमाल करें.

सिंचाई : पहली सिंचाई बोआई के 20-25 दिनों बाद करना जरूरी होता है. भारी जमीन में 3-4 सिंचाई व हलकी जमीन में 4-5 सिंचाई करना ठीक होता है. फूल निकलते समय और दाना भरते समय खेत में नमी बनाए रखना बहुत ही जरूरी है. सिंचाई इस तरीके से करनी चाहिए कि पौधे गिरने न पाएं. स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई करना बेहतर होगा.

खास कीड़े

दीमक : दीमक फसल को बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाती है. इस की रोकथाम बोआई से पहले ही कर लेनी चाहिए. इस के लिए खेत में पड़े फसल अवशेषों को खूब अच्छी तरह से सड़ा देना चाहिए. खूब अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद ही खेत में इस्तेमाल करनी चाहिए. दीमक की रोकथाम के लिए बिवेरिया बैसियाना या क्लोरपाइरीफास (20 ईसी) दवाओं का इस्तेमाल कृषि वैज्ञानिक से सलाह ले कर कर सकते हैं.

हरा फुदका : इस कीट के प्रौढ़ व बच्चे पत्तियों का रस चूसते हैं, जिस से पत्तियों पर धब्बे पड़ जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए डाईमेथोएट 30 फीसदी ईसी दवा की 1 लीटर मात्रा का 600-800 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए. दवा का छिड़काव हमेशा दोपहर के बाद करना चहिए.

डस्की बग : ये कीड़े पत्तियों व डंठलों से रस चूस कर हानि पहुंचाते रहते हैं. जिन दवाआें से हरा फुदका की रोकथाम होती है, उन्हीं से इस की रोकथाम भी की जा सकती है.

फली बेधक : ये कीट फूल में बन रहे बीजों को खा कर काफी नुकसान पहुंचाते हैं. रोकथाम के लिए कृषि वैज्ञानिक से पूछ कर दवा का छिड़काव शाम के समय करें.

Sunflowerकटाईमड़ाई: जब सूरजमुखी के बीज पक कर कड़े हो जाएं तो मुंडकों यानी फूलों की कटाई कर लेनी चाहिए. पके हुए मुंडकों का पिछला भाग पीलेभूरे रंग का हो जाता है. मुंडकों को काट कर छाया में सुखा लेना चाहिए, मगर ढेर बना कर नहीं रखना चाहिए. सूखने के बाद इस की मड़ाई सूरजमुखी वाले थ्रैशर या डंडे से पीट कर करनी चाहिए.

उपज और भंडारण : सूरजमुखी की सामान्य प्रजतियों की पैदावार 12-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर व हाईब्रिड प्रजातियों की पैदावार 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो जाती है. भंडारण के लिए इस के बीजों की नमी 8-10 फीसदी ही होनी चाहिए. 3 महीने के अंदर बीजों से तेल की पेराई कर लेनी चाहिए, वरना तेल में कड़वाहट आने लगती है.

कुछ अन्य ध्यान देने वाली बातें

*             बीज शोधन और बीज उपचार के बाद ही सूर्यमुखी के बीजों की खेत में बोआई करें.

*             सूरजमुखी का फूल काफी बड़ा और वजनदार होता है. लिहाजा, तेज हवा चलने पर पौधों के गिरने का खतरा रहता है. इस से बचने के लिए पहली सिंचाई करने के बाद पौधों पर 10-15 सेंटीमीटर मिट्टी जरूर चढ़ा देनी चाहिए.

*             15 दिनों के अंदर घने बोए गए पौधों को 15-20 सैंटीमीटर की दूरी पर कर देना चाहिए.

Plowing Machine : रोटावेटर- जमीन को दुरुस्त बनाते जुताई यंत्र

Plowing Machine: अच्छी पैदावार लेने के लिए जिस प्रकार से अच्छी प्रजाति के बीज व उर्वरक जरूरी हैं, उसी तरह से खेत की अच्छी जुताई होना भी जरूरी है. हम कितनी भी अच्छी क्वालिटी का खादबीज इस्तेमाल कर लें, लेकिन खेत की तैयारी ठीक नहीं हुई तो हमारी फसल पैदावार पर असर पड़ना लाजिम है.

जमीन की जुताई खेत तैयार करने का सब से पहला और बुनियादी काम भी है. गेहूं की फसल कटने के बाद गरमी के मौसम में तो जुताई का महत्त्व और भी बढ़ जाता है. गरमी के मौसम में खेत की जुताई कर के खेत खुला छोड़ देने पर तमाम तरह के कीटपतंगे मर जाते हैं और खरपतवार भी काफी हद तक खत्म हो जाते हैं. खेत की जुताई करने के लिए अनेक यंत्र आज बाजार में मौजूद हैं. खास तकनीक से बने ये जुताई यंत्र (Plowing Machine) खेत की अच्छी जुताई करने में सक्षम होते हैं, जिन के इस्तेमाल से कम समय में अच्छी जुताई की जाती है.

विराट रोटरी टिलर

माशियो कंपनी का बना यह यंत्र जमीन की जुताई करने के लिए एक मजबूत बहुपयोगी रोटरी टिलर है. यह रोटरी टिलर किसी भी फसल के लिए अच्छी क्यारी बनाने में भी सक्षम है. यह सूखी या गीली मिट्टी में किसी भी हालत में काम करने वाला यंत्र है. यह खेत के पिछली फसल के अवशेषों को जड़ से निकाल कर उन्हें खेत में मिलाने का काम भी करता है.

खास तकनीक से बने इस के मजबूत ब्लेड हर प्रकार की मिट्टी में अच्छी तरह से काम करते हैं और खेत की मिट्टी को भुरभुरा बना कर के उसे एकसार बनाने का काम बखूबी करते हैं. कंपनी का कहना है कि इस यंत्र के खास इटैलियन ब्लैड हैं, जो घिसते कम हैं और लंबे समय तक चलते हैं. इस यंत्र का खास रखरखाव भी नहीं है. विराट रोटरी टिलर के अनेक मौडल कई साइजों में मौजूद हैं, जिन्हें अपनी जरूरत के मुताबिक लिया जा सकता है. जिन्हें 30 एचपी से 60 एचपी तक के सभी ट्रैक्टरों के साथ जोड़ कर चलाया जा सकता है.

खासीयतें : इस में हैवी ड्यूटी पीटीओ शाफ्ट, अच्छी क्वालिटी वाले इटैलियन ब्लैड, टिकाऊ साइड गियर ड्राइव, अधिक ताकतवर मल्टी स्पीड गियर ताकत और मजबूत फ्रेम जैसी अनेक खासीयतें हैं.

अधिक जानकारी के लिए आप कंपनी के मोबाइल नंबर 91-2138612500 पर संपर्क कर सकते हैं. या भारत एग्रो इंडस्ट्रीज के फोन नंबर 01692-230028 पर बात कर जानकारी ले सकते हैं.

फील्ड किंग रोटरी टिलर

बेरी उद्योग प्रा. लि. 4 प्रकार के मौडल फील्डकिंग रोटरी टिलर बना रही है.

Machine

टर्मीनेटर मौडल: अधिक ब्लेड वाला यह टिलर मिट्टी को 7 इंच की गहराई तक में खोदता है और इस यंत्र के खास तरीके से बने ब्लेड ट्रैक्टर पर कम लोड डालते हैं, जिस से ईंधन की बचत होती है. बोरोन स्टील के बने ब्लेड सामान्य ब्लेडों के मुकाबले ज्यादा चलते हैं. इस यंत्र को 35 हार्सपावर से 60 हार्सपावर के ट्रैक्टर के साथ जोड़ कर चलाया जा सकता है.

दबंग मौडल: इस मौडल में वही सब खासीयतें है तो टर्मीनटर मौडल में है. पर इस को 35 हार्स पावर से 90 हार्स पावर तक के ट्र्रैक्टर से जोड़ कर चलाया जा सकता है. इस के अलावा 2 अन्य मौडल मिनी व रेगुलर भी हैं.

अधिक जानकारी के लिए आप कंपनी के फोन नंबर 91-1842221571/72,73 पर संपर्क कर सकते हैं.

हिसार, हरियाणा की लक्ष्मी आटोमोबाइल पर भी ये यंत्र उपलब्ध हैं. चंदा पूनिया के मोबाइल नंबर 98121-49398 पर भी बात कर के यंत्र खरीद जा सकते हैं या कंपनी के ग्राहक सेवा केंद्र 0184-6656666 पर भी जानकारी ले सकते हैं.

प्रकाश रोटावेटर

नवभारत इंडस्ट्रीज का बना प्रकाश रोटावेटर भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त रोटावेटर है और एफएमटीटीआई, हिसार से रजिस्टर्ड है.

यह सूखी, गीली एवं हर तरह की जमीन में अच्छी तरह काम करता है. खेतों की पिछली फसल की जड़ों, खरपतवारों व घासफूस को जमीन में मिला देता है. जिस से खेती की जैविक कूवत बढ़ती है. यह रोटावेटर, गन्ना, केला, कपास, मक्का, धान, गेहूं, आलू से खाली हुए खेतों को बोआई लायक बनाने में कारगर है.

इस रोटावेटर की जानकारी के लिए आप कंपनी के मोबाइल नंबर 09897591803 व फोन नंबर 0562-4042153 पर संपर्क कर सकते हैं.

योद्धा रोटावेटर

साइको एग्रोटेक कंपनी योद्धा के नाम से रोटावेटर बना रही है. 6 अलगअलग साइजों में उपलब्ध रोटावेटरों को 30-35 हार्सपावर से ले कर 60-70 हार्स पावर के टैक्टरों के साथ जोड़ कर चलाया जा सकता है.

खास तकनीक से तैयार हैवी ड्यूटी गेयर बाक्स, सभी नटबोल्ट अच्छी क्वालिटी के स्टील से बने हैं. ट्रेलिंग बोर्ड को एडजैस्ट करने के लिए आटौमेटिक स्प्रिंग लगे हैं और बेयरिंग यंत्र को सील नमी और कीचड़ से बचाती है. पाउडर कोटिंग पेंट (भट्टी पेंट) इस यंत्र को जंग से बचाता है.

अधिक जानकारी के लिए फोन नंबर 01628-284188 या मोबाइल नंबरों 7087222688, 7087222788, 7087222588 पर संपर्क कर सकते हैं

Onion Processing : प्याज की प्रोसैसिंग से होगी ज्यादा कमाई

Onion Processing: प्याज काटने से अकसर आंखों में आंसू आ जाते हैं, लेकिन पिछले दिनों मंडियों में प्याज के दाम गिरने से किसान खून के आंसू रोते रहे. किसान मुनाफा तो दूर, उपज की लागत व मंडी में प्याज लाने का भाड़ा तक नहीं निकाल पाए. लिहाजा बहुत से किसानों ने इस बार प्याज की खेती से तोबा कर ली.

प्याज ही क्या आलू हो या गन्ना, मिर्च हो या टमाटर, जब जिस फसल की पैदावार ज्यादा हो जाती है, तो उस की कीमतें धड़ाम से नीचे गिर जाती हैं. इस से नुकसान किसानों का होता है. अकसर वे बरबाद हो जाते हैं. लिहाजा बेहद जरूरी है कि किसान इस मुसीबत से नजात पाने के लिए कारगर उपाय अपनाएं.

प्याज की प्रोसैसिंग (Onion Processing)

उपज की कीमत बढ़ाने व उसे बरबाद होने से बचाने के लिए उस की प्रोसेसिंग करना एक कारगर तरीका साबित हुआ है. प्याज की भी प्रोसेसिंग यानी डब्बाबंदी की जा सकती है. प्याज उत्पादक तकनीक सीख कर प्याज प्रोसेसिंग इकाई लगा सकते हैं और प्याज से कई तरह के उत्पाद बना सकते हैं.

बाजार में सिरके की प्याज, प्याज का पेस्ट व पाउडर आदि कई उत्पाद मिलते हैं. ज्यादातर किसान नहीं जानते कि अब देशविदेश में प्याज का पेस्ट, क्रीम, भुनी प्याज, करारी प्याज, प्याज के छल्ले, प्याज का तेल, प्याज का अचार, प्याज फ्लेक्स, सूखा प्याज, प्याज का सिरका, प्याज का सास, प्याज का सूप, प्याज का जूस, छिली प्याज व प्याज के बेवरेज पेय आदि की मांग दिनोंदिन तेजी से बढ़ रही है.

दरअसल, ताजे प्याज के मुकाबले प्याज के प्रोसेस्ड उत्पादों को इस्तेमाल करना ज्यादा आसान है. नई तकनीक से प्याज का इस्तेमाल रंग व एसेंस आदि बनाने में भी किया जा सकता है. साथ ही बचे प्याज का कचरा व सड़ी हुई प्याज भी बेकार नहीं जाती. उसे बायोगैस बनाने में इस्तेमाल किया जाता है. लिहाजा सूझबूझ के साथ व चेन बना कर उत्पादन करने से उत्पादों की लागत घटती है, उपज खपती है व मुनाफा बढ़ता है.

भरपूर पैदावार

प्याज की पैदावार के मामले में भारत दुनिया भर में दूसरे नंबर पर है. देश में प्याज का कुल रकबा 11 लाख, 50 हजार हेक्टेयर है, जिस में 187 लाख, 36 हजार टन प्याज की पैदावार होती है. पड़ोसी देश चीन सिर्फ 9 लाख 30 हजार हेक्टेयर जमीन में भी हम से ज्यादा यानी 205 लाख टन प्याज पैदा करता है.

भारत में प्याज को महफूज रखने के लिए भंडारण के सही इंतजाम कम हैं, लिहाजा काफी प्याज हर साल गलसड़ कर खराब हो जाता है. बेहतर भंडारण से ही उसे बचाया जा सकता है. ज्यादातर भारतीय किसानों की माली हालत कमजोर है, लिहाजा अपना खर्च चलाने के लिए उन्हें उपज बेचने की जल्दी रहती है. बड़े व्यापारी प्याज का भंडारण कर के मौके का फायदा उठाते हैं और किसान बेचारे देखते रह जाते हैं.

जागरूकता जरूरी

कुल पैदा होने वाले प्याज के तकरीबन 7 फीसदी हिस्से की ही प्रोसैसिंग होती है, जबकि प्याज उत्पादों के बढ़ रहे निर्यात से इस काम में भारी इजाफा होने की उम्मीद है. बढ़ती मांग को देखते हुए प्याज की प्रोसैसिंग व उस के कारोबार की बड़ी गुंजाइश है. प्याज प्रोसैसिंग की तकनीक सीखना मुश्किल नहीं है.

जरूरत किसानों के जागरूक होने व पहल करने की है. प्याज की प्रोसैसिंग सीखने व उस का तजरबा करने की है. यदि किसान ठान लें, तो वे आपस में मिल कर प्याज प्रसंस्करण की बड़ी इकाई भी लगा सकते हैं. अपनी उपज को कच्चे माल की तरह न बेच कर खुद उसे प्रोसैस करने में इस्तेमाल कर सकते हैं. वे अपने बच्चों को बेहतर रोजगार का जरीया दे सकते हैं.

लागत घटाएं

किसानों के मुताबिक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्याज की उत्पादन लागत 12 रुपए प्रति किलोग्राम आ रही है, जबकि पिछले दिनों मेरठ की मंडी में प्याज के दाम घट कर 3-4 रुपए प्रति किलोग्राम तक रह गए थे. लिहाजा, प्याज की बोआई से कटाई तक नई तकनीक अपना कर लागत में कमी लाने की जरूरत है.

इस के अलावा कम जमीन में ज्यादा उपज लेना भी लाजिम है, ताकि प्रति हेक्टेयर औसत उपज बढ़े. साथ ही, किसान प्याज को महफूज रखने के लिए भंडारण की कूवत भी जरूर बढ़ाएं. प्याज की पैदावार में महाराष्ट्र सब से आगे है, दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश है व तीसरे पर कर्नाटक है. अब उत्तर प्रदेश में भी प्याज की खेती बहुत तेजी से बढ़ रही है.

प्याज की खेती में नई तकनीक अपना कर व नई किस्में उगा कर प्याज की पैदावार बढ़ाई जा सकती है, लेकिन सिर्फ पैदावार ही नहीं, उस से आमदनी बढ़ाने की भी जरूरत है. जब भी प्याज की पैदावार ज्यादा होती है, उस की कीमतें गिर जाती हैं और खेतों व गोदामों में प्याज सड़ जाता है.

प्याज की प्रोसेसिंग में हम आज भी बहुत पीछे हैं. प्याज की बड़ी मंडियां महाराष्ट्र के नासिक व लासलगांव में हैं. प्याज के जमाखोर किसानों व प्याज की मंडियों को आसानी से काबू कर लेते हैं. ऐसे में किसानों व उपभोक्ताओं को बचाने के लिए जमाखोरों का जाल तोड़ना बेहद जरूरी है.

कमजोर ढांचा

प्याज की मांग व खपत देश में सब से ज्यादा है, लिहाजा भारत सरकार के लघु कृषक कृषि व्यापार संघ ने निगरानी के लिए मार्केट इंटेलीजेंस सिस्टम बना रखा है, लेकिन इस के बावजूद प्याज उत्पादकों को उन की उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती, दूसरी ओर फुटकर ग्राहकों को प्याज खरीदने के लिए मुंहमांगी कीमत चुकानी पड़ती है.

प्याज की प्रोसैसिंग को बढ़ावा दे कर और प्याज की खरीद व बिक्री सहकारिता के जरीए कर के यह मसला काफी हद तक हल हो सकता है, लेकिन राष्ट्रीय सहकारी कृषि विपणन महासंघ, नैफेड जैसी संस्थाएं भी नाकाम हैं. लिहाजा किसान पिस रहे हैं और बिचौलिए चांदी काट रहे हैं.

पुरानी तकनीक

भारत में आज भी ऐसे कई इलाके हैं, जिन में प्याज की प्रति हेक्टेयर औसत उपज 10 टन से भी कम है. दरअसल किसान प्याज की खेती तो करते हैं, लेकिन ज्यादातर किसान प्याज की पुरानी किस्में उगाते हैं और खेती के पुराने तौरतरीके अपनाते हैं. लिहाजा प्याज की खेती में फायदा दूर, लागत भी मुश्किल से निकलती है. लिहाजा प्याज की खेती में सुधार व बदलाव लाना जरूरी है.

खोजबीन

Onion Processing

दरअसल, अभी तक नकदी फसलों पर ज्यादा जोर होने की वजह से प्याज जैसी फसलों पर खास ध्यान नहीं दिया गया. बहुत से किसान यह नहीं जानते कि प्याजलहसुन की खेती को बढ़ावा देने के लिए साल 1994 से पुणे में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक अनुसंधान निदेशालय चल रहा है. देशभर में उस के 28 सेंटर हैं.

प्याज निदेशालय के वैज्ञानिकों ने प्याज की पैदावार, क्वालिटी व निर्यात बढ़ाने के लिए काफी खोजबीन की है. उन्होंने प्याज की नई किस्में खोजने के साथसाथ प्याज महफूज रखने की तकनीक व उस की प्रोसैसिंग के तरीके भी निकाले हैं. वहां प्याज की उन्नत खेती करने के लिए किसानों को बीज, सलाह व ट्रेनिंग भी दी जाती है. यह बात अलग है कि तमाम किसानों को ऐसी बातों का पता ही नहीं चलता. लिहाजा, वे इन सहूलियतों का फायदा नहीं उठा पाते.

प्याज परियोजना निदेशालय में खेती व बागबानी महकमों के मुलाजिमों, कारोबारियों व किसानों को प्याज की ज्यादा पैदावार देने वाली नई संकर किस्मों, खेती की नई तकनीक, प्याज फसल का रोगोंकीटों से बचाव, प्याज का बेहतर भंडारण व उस की बिक्री जैसे पहलुओं पर ट्रेनिंग दी जाती है. लिहाजा, वहां के माहिरों से तालमेल बना कर उस का फायदा उठाया जा सकता है.

प्याज निदेशालय ने 5 व 10 टन कूवत के किफायती भंडारघरों के 2 डिजाइन निकाले हैं, जिन में तली व दीवारों से हवा जाने का इंतजाम है. साथ ही बड़ी, छोटी व मझली साइजों की प्याज को छांट कर अलग करने वाली ग्रेडर मशीन भी बनाई है. इस से हाथ से काम करने के मुकाबले 20 गुना ज्यादा व जल्दी प्याज की बेहतर छंटाई होती है.

उम्दा किस्में

देश के अलगअलग इलाकों में लाल प्याज की 45, सफेद प्याज की 10, पीली प्याज की 3 व भूरी प्याज की 1 किस्म सहित कुल 59 किस्में फिलहाल चलन में हैं. इन में से खासतौर पर एन 2-4-1, एन 53, एन 257-9-1, फुले सफेद, पूरा रैड, भीमा सुपर, भीमा रैड, भीमा शक्ति, भीमा शुभ्रा, भीमा श्वेता व भीमा डार्क रैड वगैरह किस्में ही ज्यादा बोई जाती हैं.

आमतौर पर ज्यादातर किसान जल्दी पक कर ज्यादा उपज देने वाली किस्मों की प्याज बोना पसंद करते हैं.

इस लिहाज से करीमनगर, तेलंगाना में डब्ल्यूएम 514 किस्म की 4-6 कंद वाली सफेद गुच्छेदार प्याज पहचानी गई है., जो सिर्फ 110 से 125 दिनों में पक कर 20 टन प्रति हेक्टेयर तक की पैदावार देती है. जरूरत उस का बीज मुहैया कराने की है.

हालांकि प्याज की नई किस्मों की खोजबीन करने पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने काफी काम किया है, लेकिन वह खोज बेकार है, जो गांवों तक न पहुंचे. पिछले दिनों असम व अरुणाचल प्रदेश से जंगली व बोई जा रही प्याज की 49 किस्में इकट्ठा की गई हैं. साथ ही, जल्दी पकने व ज्यादा उपज देने वाली अमेरिकन प्याज की 40 किस्मों को भी भारत की आबोहवा में बो कर आजमाया जा रहा है.

जल्द ही इस खोजबीन के नतीजे आने की उम्मीद है. जरूरत जागरूकता बढ़ाने व प्याज उत्पादकों को बाजार, बिक्री, वाजिब कीमत व प्रोसैसिंग आदि की सहूलियतें मुहैया कराने की है, ताकि प्याज पैदा करने वालों की आमदनी में इजाफा हो सके. सरकार के भरोसे रह कर कुछ होने वाला नहीं है, लिहाजा किसानों को खुद एकजुट हो कर कोशिशें करनी होगी. प्याज के बारे में और ज्यादा जानकारी के लिए किसान निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं:

निदेशक

प्याज और लहसुन अनुसंधान निदेशालय

राजगुरु नगर, पुणे, महाराष्ट्र. पिन : 410505 फोन : 02135-222026.

प्याज की प्रोसैसिंग से करें कमाई

बीते दिनों देश के कई हिस्सों में किसानों ने अपनी प्याज सड़क पर फेंक कर गुस्से का इजहार किया, लेकिन ओहदेदारों के कानों पर जूं नहीं रेंगी. दिल्ली आदि में प्याज की फुटकर कीमतें भले ही गिरें, लेकिन थोक मंडियों में प्याज की तबाही होने से किसान खून के आंसू रोते हैं. गिरती कीमतों से निबटने का उपाय भंडारण है, लेकिन शीत भंडारों की गिनती व कूवत कम है. किसानों को जरूरतों व कर्ज चुकाने को तुरंत पैसा चाहिए. वे कीमतें बढ़ने तक का इंतजार नहीं कर पाते. इसलिए कम दामों पर ही अपनी  प्याज बेच देते हैं.

प्याजलहसुन अनुसंधान निदेशालय, राजगुरु नगर, पुणे के मुताबिक प्याज को प्रोसैस कर के छिली, सूखी, पाउडर व पेस्ट बना कर बेच सकते हैं. उस का अचार, तेल, सिरका, पेय व सास वगैरह बना सकते हैं. प्याज के कचरे से रेशा, रंग व बायोगैस बनते हैं. लिहाजा निजी, सहकारी व सरकारी क्षेत्र की छोटी, मझोली व बड़ी प्रोसैसिंग इकाइयों को बढ़ाना होगा. इसलिए कृषि, खाद्य प्रसंस्करण महकमे व किसान पहल करें. प्याज उत्पादक प्रसंस्करण की तकनीक सीखें. ताकि प्याज की कीमतें गिरने की मुसीबत से नजात मिले व कमाई में इजाफा हो.

नैस्ले, पैप्सी व आईटीसी वगैरह बहुत सी कंपनियां सूखी प्याज खरीदती हैं. प्याज प्रोसैसिंग की 80 इकाइयों में से 65 अकेले गुजरात में व बाकी महाराष्ट्र वगैरह में हैं. कटाई के बाद की तकनीक का एक केंद्रीय संस्थान, सीफेट, लुधियाना में है, जो किसानों को प्याज सुखाने की ट्रेनिंग देता है. प्याज का पाउडर बनाने की मशीनों की जानकारी अलीबाबा डाट काम से कर सकते हैं. प्याज प्रोसैसिंग यूनिट की लागत, लाभ, मशीनरी, निर्यात, बाजार, नियमकानून व सरकारी स्कीमों वगैरह की जानकारी यहां से भी कर सकते हैं.

Goat Farming : बकरीपालन को कैसे दें प्रोफेशनल रंग

Goat Farming: भारत के गांवों में गरीब तबके के लाखों लोग पिछले कई दशकों से जैसेतैसे बकरीपालन (Goat Farming) कर के अपने परिवारों का पेट पालते रहे हैं. कई सालों तक बकरीपालन (Goat Farming) करने के बाद भी गरीबों की माली हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं हो पाता है.

आज बकरीपालन एक बड़ा कारोबार बन चुका है. अगर बकरीपालन करने वाले व्यावसायिक तरीके से गोट फार्मिंग (बकरीपालन) करें तो बकरियों की संख्या और आमदनी दोनों में लगातार इजाफा हो सकता है. इतना ही नहीं बड़े पैमाने पर बकरीपालन शुरू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की बकरीपालन योजनाओं और अनुदान का लाभ भी लिया जा सकता है.

इस कारोबार को शुरू करने से पहले यह जानना और समझना जरूरी है कि व्यावसायिक बकरीपालन क्या है? इस में कितनी लागत आएगी? कितना मुनाफा होगा? सरकार की ओर से क्या मदद मिलती है? बकरीपालन में 100 से 1000 बकरियों को 1 ही बाड़े में रखा जा सकता है और बड़े नाद में सभी को एकसाथ खाना खिलाया जाता है. यह तरीका मुरगीपालन यानी पोल्ट्री फार्म की तरह ही होता है.

घर में 5-7 बकरियां पालने और बकरियों का व्यावसायिक रूप से पालन करने में फर्क है. अगर 1 परिवार कम से कम 100 बकरियों का पालन करे तो उस परिवार के 6-8 लोगों को काम मिलेगा और आमदनी भी बढ़ेगी.

गौरतलब है कि भारत में मांस की मांग करीब 80 लाख टन है, जबकि 60 लाख टन का ही उत्पादन हो पाता है. इस में बकरी के मांस की खपत 12 फीसदी ही है. इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि बकरीपालन का बाजार कितना खाली है.

पशु वैज्ञानिक डा. सुरेंद्र नाथ बताते हैं कि गोट फार्मिंग की छोटी यूनिट में 20 बकरियां और 1 बकरा होते हैं, जबकि बड़ी यूनिट में 40 बकरियां और 2 बकरे होते हैं. लोकल किस्म की बकरी 1 साल में 2 बार 2-2 बच्चे देती है. कुछ बकरियां 3-4 बच्चे भी देती हैं. इस हिसाब से 20 बकरियों वाली यूनिट से 1 साल में कम से कम 80 बच्चे मिल सकते हैं. 1 बकरे या बकरी की कीमत कम से 4000 रुप्ए होती है. इस लिहाज से 80 बकरेबकरियों की कीमत 320000 रुपए होगी. 1 यूनिट की बकरियों के चारे, दवा व टीकों आदि पर साल में करीब 1 लाख रुपए खर्च होते हैं. इस तरह 1 यूनिट से कम से कम ढाई लाख रुपए के करीब सालाना कमाई होती है.

पिछले 12 सालों से बकरीपालन कर के अच्छीखासी कमाई करने वाले पटना जिले के नौबतपुर गांव के मनोज बताते हैं कि इस व्यवसाय की सब से बड़ी खासीयत यह है कि बाढ़ या सूखा जैसी आपदा का इस पर खास असर नहीं पड़ता. इस के अलावा अचानक पैसों की जरूरत पड़ने पर बकरियों को बेचा जा सकता है. बकरों व बकरियों को कभी भी कहीं भी बेचा जा सकता है. कई मौकों पर तो बकरियों की मुंहमांगी कीमतें मिलती हैं.

प्रोफेशनल तरीके से बकरीपालन शुरू करने से पहले विशेषज्ञों से सलाह लेना जरूरी है. किसी की सुनीसुनाई बातों में फंस कर इस काम को शुरू नहीं करें. बकरियों की 1 छोटी यूनिट के लिए 300 वर्गमीटर जगह और करीब 1 लाख रुपए की जरूरत होती है. बकरियों को रखने के लिए जमीन से कुछ ऊंचाई पर बांस की जमीन बना ली जाती है. बकरीपालन वाली जगह पर पानी का जमाव नहीं होना चाहिए और जगह हवादार होनी चाहिए. इस कारोबार को समझने के बाद बजट और योजना बना कर ही काम शुरू करना बेहतर होगा.

Floriculture :फ्लोरीकल्चर- फूलों सा खिलता कारोबार

Floriculture: फूलों की मांग आज के समय में दिनबदिन बढ़ती ही जा रही है. खुशी के हर मौके पर फूलों का इस्तेमाल बहुत ही जरूरी हो गया है. यही वजह है कि सुबह सब से जल्दी और रात में देर तक फूलों की ही दुकानें खुली मिलती हैं. लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए फूलों का करोबार देश से ले कर विदेशों तक में फैला हुआ है.

फूलों के पौधे कम समय में ही तैयार हो जाते हैं, जिस से फूलों का कारोबार मुनाफे का जरीया बन गया है. आने वाले समय में भी फूलों के बढ़ते कारोबार से फूलों की खेती और इस से जुडे़ दूसरे काम बड़े कारोबार के रूप में निखरेंगे. भारत के अलावा कीनिया, इजराइल, कोलबिंया, फ्रांस, जापान और जर्मनी फूलों के सब से बड़े निर्यातक देश हैं.

भारत के कर्नाटक प्रदेश में फूलों की खेती सब से ज्यादा होती है. देश में फूलों की पैदावार का 75 फीसदी हिस्सा कर्नाटक में ही होता है. फूलों के कारोबार की मांग साल दर साल 25 से 30 फीसदी के हिसाब से बढ़ती जा रही है. फूलों के निर्यात में भारत का हिस्सा बहुत ही कम है. भारत में जमीन, जलवायु और कई तरह के फूलों की पैदावार के चलते फूलों के कारोबार की संभावना बहुत है. इसी वजह से फ्लोरीकल्चर नई विधा के रूप में उभर कर सामने आई है.

फ्लोरीकल्चर का संबंध फूलों की खेती से होता है. इस में फूल और फूलदार पेड़ों की खेती और उस के व्यावसायिक इस्तेमाल के बारे में जानकारी मिलती है. फूलों की खपत ताजे फूलों के साथसाथ परफ्यूम, फार्मा और सौंदर्य सामग्री बनाने वाली कंपनियों में होती है. फूलों के

बढ़ते कारोबार ने फ्लोरीकल्चर में कैरियर के नए रास्ते भी खोल दिए हैं. फ्लोरीकल्चर की जानकारी हासिल कर के स्वरोजगार को भी बढ़ाया जा सकता है. फ्लोरीकल्चर में फूलों के कारोबार से जुड़ी हुई हर तरह की जानकारी दी जाती है, जो फूलों से जुड़े हुए कारोबार को बढ़ाने में मदद करती है.

फूलों से रोजगार

Floricultureफूलों के कारोबार से कैरियर को नया आयाम दिया जा सकता है. फ्लोरीकल्चर से जानकारी हासिल करने के बाद अपना छोटा रोजगार चलाया जा सकता है. फूलों के कच्चे माल को बेचने का कारोबार हो सकता है. फ्लोरीकल्चर से डिगरी लेने के बाद सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में नौकरी मिलने की ढेर सारी संभावनाएं हो जाती हैं.

इस डिगरी को लेने के बाद लैंडस्कैप डिजाइनर, हार्टिकल्चर थेरेपिस्ट, ग्राउंड कीपर्स और फ्लोरल डिजाइनर के रूप में काम मिलने लगता है. इस के अलावा खेत बागान प्रबंधक, सुपरवाइजर और विशेषज्ञ के रूप में भी नौकरी की जा सकती है.

फूलों की सजावट अलगअलग समय पर अलगअलग तरह से होती है. जिन लोगों को इस की जानकारी होती है, उन की भी अच्छी डिमांड होती है. फूलों की नर्सरी लगाने, खुशबूदार पौधों और लैंडकेपिंग के बारे में जानकारियां देने का काम भी किया जा सकता है. फ्लोरीकल्चर  में फूलों और कलियों का उत्पादन, डिजाइनिंग, बुके बनाना, झालर वाले फूलदार पौधे उगाना जैसी तमाम जानकारियां दी जाती हैं.

इस में फूलों की खेती की पूरी जानकारी दी जाती है. फूलों की चुनाई की जानकारी भी फ्लोरीकल्चर में मिलती है.

बदलते समय में घर व आफिस में हरियाली को अच्छे इंटीरियर के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है. लोग बागबानी में भी रुचि रखने लगे हैं. इस से बागबानी, आफिस, घर, पार्क और कार्यालय वगैरह की सजावट करने के लिए सलाह देने का काम भी किया जा सकता है. कई बड़ी कंपनियां इस तरह के लोगों को नौकरी पर भी रखती हैं.

फ्लोरीकल्चर की पढ़ाई

Floriculture

फ्लोरीकल्चर के क्षेत्र में कैरियर बनाने के लिए ऐसे मेहनती लोगों की जरूरत होती है, जो नेचर के करीब होते हैं और खेती के काम करना चाहते हैं. फ्लोरीकल्चर विषय में डिगरी की उपलब्धता नहीं है. इस के लिए एग्रीकल्चर में गे्रजुएट या बीएससी इन एग्रीकल्चर का चुनाव किया जा सकता है.

बायोटेक्नोलाजी में भी एग्रीकल्चर का दखल बढ़ गया है. जीव विज्ञान से 12वीं कक्षा की परीक्षा पास करने के बाद बीएसएसी और उस के बाद एमएससी इन हार्टीकल्चर परीक्षा पास की जा सकती है. एमएससी हार्टीकल्चर में फूलों, फलों और सब्जियों के बारे में बताया जाता है. कम समय में जानकारी हासिल करने के लिए अलगअलग स्कूलकालेजों के द्वारा डिप्लोमा कोर्स भी किए जा सकते हैं.

इलाहाबाद एग्रीकल्चरल विश्वविद्यालय, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश), चंद्रशेखर आजाद एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय कानपुर (उत्तर प्रदेश), चौधरी चरण सिंह एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय हिसार, इंडियन एग्रीकल्चर रिर्सच इंस्टीट्यूट कृषि अनुसंधान भवन नई दिल्ली, कालेज आफ एग्रीकल्चर पूना और फारेस्टी रिसर्च विश्वविद्यालय देहरादून जैसी तमाम जगहों से एग्रीकल्चर कोर्स कराए जाते

हैं. पालीटेकनिक स्कूल आफ हार्टीकल्चर जूनागढ़, एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय जूनागढ़ और डिपार्टमेंट आफ बाटनी हिसलाय कालेज नागपुर जैसी जगहों से डिप्लोमा कोर्स भी किए जा सकते हैं.

40फीसदी बढ़ रहा फूलों का कारोबार

Floricultureशादी का मंडप हो या किसी के स्वागत की तैयारी, फूलों की सजावट सब से जरूरी होती है. रोज के कामकाज में फूलों की सजावट का ज्यादा इस्तेमाल होने से तरहतरह के फूलों की मांग बढ़ गई है. अब सजवाट और लाइट के हिसाब से अलगअलग रंगों के फूलों की मांग बढ़ गई है. इसी वजह से तरहतरह के देशी और विदेशी फूलों की खेती करने वालों की तादाद बढ़ गई है. पहले किसान गेंदा और गुलाब की खेती तक ही अपने को सीमित रखते थे, मगर अब नएनए फूलों की मांग बढ़ने से रंगबिरंगे विदेशी फूलों की खेती भी लाभदायक हो गई है. जो फूल लोकल बाजार में नहीं मिलते हैं, वे बडे़ शहरों और विदेशों तक से मंगाए जाते हैं. अपने देश के भी बहुत सारे किसान विदेशों में फूलों को भेजते हैं.

जनवरी से ले कर दिसंबर तक हर महीने में कोई न कोई खास दिन जरूर होता है, जिस में बहुत सारे लोग एकदूसरे को बधाई देते हैं. बधाई देने के लिए फूलों के बुके से अच्छा दूसरा कुछ नहीं होता है. इस के अलावा जन्मदिन या अन्य मौकों पर शुभकामना संदेश देने के लिए भी फूलों के गुलदस्ते बहुत काम के होते हैं.

जिस तरह से फूलों की बाजार में मांग बढ़ी है,उसी के मुताबिक फूलों की खेती का दायरा भी बढ़ गया है. किसानों के लिए फूलों की खेती चमकते सोने के समान हो गई है. देशी फूलों के साथसाथ अब बहुत सारे विदेशी फूलों की खेती भी भारतीय किसानों ने करनी शुरू कर दी है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ और आसपास के जिलों की बात करें, तो रायबरेली, हरदोई, कन्नौज, बाराबंकी और कानपुर में गुलाब, गलोडियस, रजनीगंधा और जरबेरा जैसे फूलों की खेती होती है. इस के अलावा उत्तराखंड से बहुत सारे फूल आते हैं. दिल्ली और बेंगलूरू की फूल मंडियों से बहुत सारे देशी और विदेशी फूल मंगवाए जाते हैं.

इन फूलों में तमाम तरह की किस्में होती हैं. फूलों की डिमांड का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शादीविवाह के सीजन में मंडी से फूल गायब हो जाते हैं. फूलों की खेती करने वाले तमाम किसान महसूस कर रहे हैं कि फूलों का बढ़ता कारोबार उन के लिए सुनहरा भविष्य ले कर आया है.