Citrus Fruits : नीबू प्रजाति के फलों की खेती

Citrus Fruits : भारत में उगाए जाने वाले तमाम फलों में नीबू प्रजाति के फलों की खास जगह है. इन में विटामिन ए, बी, सी व खनिज काफी मात्रा में पाए जाते हैं. नीबू वर्गीय फलों में मौसमी, माल्टा, संतरा व नीबू वगैरह खास हैं.

जलवायु व जमीन : नीबू प्रजाति के फल तमाम तरह की जलवायु में उगाए जाते हैं. मौसमी व माल्टा के उत्पादन के लिए गरमी के मौसम में अच्छी गरमी व सर्दी के मौसम में अच्छी सर्दी सही रहती है. इन के लिए शुष्क जलवायु जहां पर बारिश 50-60 सेंटीमीटर होती है, सही रहती है. संतरा व नीबू के लिए गरम, पाला रहित व नम जलवायु जहां बारिश 100-150 सेंटीमीटर होती है, सही रहती है. नीबू हर जगह उगाया जा सकता है.

नीबू प्रजाति के फलों की खेती कई प्रकार की जमीन में की जा सकती है, लेकिन ज्यादा उपजाऊ दोमट जमीन जो 2 से सवा 2 मीटर गहरी हो, इन की खेती के लिए ज्यादा अच्छी है. संतरा, मौसमी और माल्टा के लिए बलुई मिट्टी जिस में जल धारण की कूवत नहीं होती है, मुनासिब नहीं होती. जल निकास युक्त चिकनी मिट्टी जिस में जल धारण की कूवत नहीं होती है, इस की खेती के लिए अच्छी रहती है. इन फलों की खेती के लिए जमीन का चुनाव करते समय इस बात का खयाल रखना चाहिए कि जमीन लवणीय या क्षारीय न हो.

पौध लगाना : नीबू प्रजाति के पौधों को बीज व वानस्पतिक दोनों ही तरीकों द्वारा तैयार किया जाता है. बीज द्वारा पौधे तैयार करने के लिए जुलाई, अगस्त या फरवरी में बीज बोते हैं. नीबू में गूटी लगाने का सही समय जुलाई है. मौसमी व माल्टा के पौधों को कलिकायन से तैयार किया जाता है. इस के लिए पहले बीज से मूलवृंत तैयार करते हैं. बीज हमेशा रफलेमन (जमबेरी व जट्टी खट्टी) के स्वस्थ व पके फलों से लेने चाहिए. बीजों को फलों से निकालने के बाद उन्हें तुरंत क्यारियों में बो देना चाहिए. बीज बोने के लिए फरवरी का समय सही रहता है. जब मूलवृंत 1 साल का हो जाए तब उन पर ही कलिकायन (बडिंग) करें. नीबू प्रजाति के पौधे बीज से भी तैयार किए जा सकते हैं. बीजों को फलों से निकालने के बाद तुरंत नर्सरी में बो देना चाहिए. नर्सरी में पौधे 1 साल के होने के बाद ही खेत में रोपाई करनी चाहिए.

उन्नत किस्में : नीबू प्रजाति के तमाम वर्गों में इस्तेमाल में लाई जाने वाली प्रमुख प्रजातियों का विवरण निम्नलिखित है:

माल्टा वर्ग

जाफा : फल का आकार गोल होता है. इस की लंबाई 6.37 सेंटीमीटर और चौड़ाई 6.51 सेंटीमीटर होती है. यह पकने पर लालनारंगी रंग का हो जाता है. फल का औसत वजन 140 से 190 ग्राम होता है. इस में रस की मात्रा 30 से 35 फीसदी होतीहै. फल में बीजों की संख्या 5 से 10 तक तक होती है. इस के छिलके  की मोटाई 0.40 सेंटीमीटर होती है. फल नवंबरदिसंबर में पकते हैं. फल उत्पादन 125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है.

मौसमी : इस के फल छोटे से मध्यम आकार के होते हैं, जिन की लंबाई 6.07 सेंटीमीटर और चौड़ाई 6.25 सेंटीमीटर होती है. फल के ऊपर लंबाई में धारियां और तले पर गोल छल्ला होता है. फल पकने पर गहरे पीले रंग के हो जाते हैं, जिन में रस की मात्रा 30 से 35 फीसदी होती है. इस के छिलके की मोटाई 0.35 सेंटीमीटर होती है. फल में खटास 0.25 फीसदी और मिठास 10 से 12 फीसदी होती है. मौसमी नवंबरदिसंबर में पकती है. फलों की उपज 85 से 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

संतरा वर्ग

किन्नू: इस के फल गोल, मध्यम व चपटापन लिए हुए नारंगी रंग के होते हैं. फल का वजन 125 से 175 ग्राम तक होता है. पकने पर छिलका पतला व चमकदार होता है. इस का गूदा नारंगीपीला होता है और रस की मात्रा 40 से 45 फीसदी होती है. फल जनवरी में पकते हैं. पौधा लगाने के 5 सालों बाद 125 से 150 किलोग्राम प्रति पौधा उपज हासिल होती है.

नागपुर संतरा : यह राजस्थान के झालावाड़ क्षेत्र की मुख्य किस्म है, जो हरे रंग की हलके वजन वाली होती है. यह भरपूर रस वाली किस्म है, जो जनवरीफरवरी में पक कर तैयार हो जाती है.

नीबू वर्ग

कागजी नीबू : इस के फल मध्यम गोल आकार के होते हैं. इस का छिलका पतला होता है. रस की मात्रा 45 फीसदी होती है. इस में घुलनशील लवण 7 फीसदी और अम्लता 3 से 5 फीसदी होती है. फल पकने का समय जुलाईअगस्त और मार्च होता है. पैदावार 40 से 50 किलोग्राम प्रति पौधा होती है.

पंत लेमन : यह पंतनगर से कागजी फलों की चुनी हुई किस्म है, जिस का छिलका पतला होता है.

पौधे लगाने की विधि : नीबू वर्गीय पौधे 5×5 मीटर की दूरी पर लगाएं और 6 से 8 मीटर की दूरी पर मौसमी, संतरा वगैरह के लिए 90×90×90 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे 2 महीने पहले यानी मईजून के दौरान खोद लेने चाहिए. गड्ढों में 25 किलोग्राम गोबर की खाद, 1 किलोग्राम सुपरफास्फेट व 50 से 100 ग्राम क्यूनालफास 1.5 फीसदी या एंडोसल्फान 4 फीसदी चूर्ण मिट्टी में मिला कर भर देना चाहिए. पौधे लगाने का सब से सही समय जुलाईअगस्त रहता है. जहां पानी की अच्छी सुविधा हो, वहां फरवरी में भी पौधे लगाए जा सकते हैं.

खाद व उर्वरक : गोबर की खाद,सुपर फास्फेट व म्यूरेट आफ पोटाश की पूरी मात्रा व यूरिया की आधी मात्रा दिसंबरजनवरी में डालें और बाकी आधी यूरिया जूनजुलाई में डालें.

सूक्ष्म तत्त्व : नीबू वर्गीय फलों में सूक्ष्म तत्त्वों की कमी से पेड़ों में तमाम विकार पैदा हो जाते हैं. सूक्ष्म तत्त्वों में जिंक, बोरोन, मैगनीज, तांबा व लोहा खास हैं. जिंक की कमी से पत्तियां छोटी रह जाती हैं और उन की नसों के बीच का रंग हलका पड़ जाता है. जिंक की कमी से फल गिरने लगते हैं. मैगनीज की कमी के कारण पत्तियों का रंग धीरेधीरे हलका हो जाता है. ये लक्षण विकसित पत्तियों पर साफ दिखाई देते हैं.

पौधों में इन तत्त्वों की कमी के असर को रोकने के लिए इन तत्त्वों का छिड़काव फरवरी व जुलाई में करना चाहिए. इन तत्त्वों को अलगअलग घोलने के बाद पानी में मिलाना चाहिए. छिड़काव के लिए जिंक सल्फेट 500 ग्राम, कापर सल्फेट 300 ग्राम, मैगनीज 200 ग्राम, मैग्नीशियम सल्फेट 200 ग्राम, बोरिक एसिड 100 ग्राम, फेरस सल्फेट 200 ग्राम व बुझा हुआ चूना 900 ग्राम ले कर 100 लीटर पानी में मिलाना चाहिए.

सिंचाई : फल तोड़ने के बाद 1 महीने तक पानी देना बंद कर दें. फिर फूल खिलने से पहले सिंचाई शुरू कर देनी चाहिए. फूल खिलने के समय सिंचाई न करें. जब फल मूंग के दाने के बराबर हो जाएं तो नियमित सिंचाई करें. गरमी के मौसम में करीब 10 से 15 दिनों के अंतर पर और सर्दी के मौसम में 25-30 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. फल विकास के समय सही मात्रा में नमी होना जरूरी है, वरना फल फटने लगते हैं.

देखभाल : फल देने वाले पौधों की कम से कम कटाईछंटाई करनी चाहिए. फलों को तोड़ने के बाद ऐसी शाखाएं जो जमीन के ज्यादा संपर्क में आ जाती हैं, उन को काट देना चाहिए. सभी रोगी व घनी शाखाओं को भी काट देना चाहिए. सही आकार देने के लिए रोपाई के 3 सालों तक कटाईछंटाई करते रहना चाहिए. बाग लगाने के शुरू के 3 सालों में बाग में दलहनी फसलों की खेती की जा सकती है. इस से शुरू के सालों में भी आमदनी हासिल होती रहेगी.

कीड़ों की रोकथाम

नीबू की तितली : इस की लटें शुरू में चिडि़यों के बीट की तरह दिखाई देती हैं. अंडों से निकलने के तुरंत बाद ये पत्तियों को खाने लगती हैं और नुकसान पहुंचाती हैं.

* रोकथाम के लिए पेड़ों की संख्या ज्यादा न हो, तो लटों को पेड़ों से चुन कर मिट्टी के तेल मिले पानी में डाल कर मार देना चाहिए.

* मोनोक्रोटोफास की 1.5 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें.

फल चूसक पतंगा: यह कीट फलों में छेद कर के रस चूसता है, जिस से संक्रमित भाग पीला पड़ जाता है और फल की गुणवत्ता कम हो जाती है.

* रोकथाम के लिए प्रकाशपाश का इस्तेमाल कर के पतंगों को इकट्ठा कर के मार देना चाहिए.

* शीरा या शक्कर की 100 ग्राम मात्रा के 1 लीटर पानी में बनाए घोल में 10 मिलीलीटर मैलाथियान 50 ईसी मिला कर मिट्टी के प्यालों में 100 मिलीलीटर प्रति प्याला के हिसाब से पेड़ों पर कई जगह पर टांग देना चाहिए.

* मैलाथियान 50 ईसी की 1 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बना कर छिड़कव करना चाहिए.

Citrus Fruits

लीफ माइनर, सिट्रस सिल्ला व रेड स्पाइडर माइट : लीफ माइनर की लटें बहुत छोटी होती हैं. ये पत्तियों में सुरंग बनाती हैं. बारिश के मौसम में इन का हमला ज्यादा होता है.

सिट्रस सिल्ला का आक्रमण नई पत्तियों व कोमल भागों में होता है. ये पत्तियों से रस चूसते हैं, जिस के कारण पत्तियां सिकुड़ जाती हैं.

इस कीट का हमला बारिश के मौसम में ज्यादा होता है.

रेड स्पाइडर माइट पत्तियों के ऊपरी सिरों से रस चूसती है. कभीकभी यह बहुत ही ज्यादा नुकसान पहुंचाती है.

रोकथाम के लिए फोरमोथियोन 25 ईसी (सेस्थियो) का 1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर छिड़काव करें. सिट्रस सिल्ला की रोकथाम के लिए नई पत्तियां आने पर छिड़काव करना जरूरी है. यह रसायन मिलीबग की भी रोकथाम करता है.

मूल ग्रंथी (सूत्रकृमि) : इस का हमला नीबू की जड़ों पर होता है. इस के हमले से पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, टहनियां सूखने लगती हैं और जड़ गुच्छेदार बन जाती है. इस के असर से पेड़ पर फल छोटे व कम लगते हैं और जल्दी गिर जाते हैं.

रोकथाम के लिए कार्बोफ्यूरान 3 जी 20 ग्राम प्रति पेड़ की दर से इस्तेमाल करें.

बीमारियों की रोकथाम

नीबू का केंकर रोग: जीवाणु से होने वाले इस रोग से पत्तियों, टहनियों व फलों पर भूरे रंग के कटे खुरदरे व कार्कनुमा धब्बे पड़ जाते हैं. रोगी पत्तियां गिर जाती हैं. टहनियों व शाखाओं पर लंबे घाव बनते हैं, जिस से टहनियां टूट जाती हैं. इस रोग से कागजी नीबू को ज्यादा नुकसान होता है.

रोकथाम के लिए नए बगीचे में हमेशा रोग रहित नर्सरी के पौधे ही इस्तेमाल में लाएं और रोपाई से पहले पौधों पर बोर्डों मिश्रण (4:4:50) या ताम्रयुक्त कवकनाशी (ब्लाइटाक्स) 0.3 फीसदी का छिड़काव करें.

रोग के प्रकोप को रोकने के लिए कटाईछंटाई के बाद जून से अक्तूबर तक बोर्डों मिश्रण (4:4:50) या स्ट्रेप्टोसाक्लिन 250-500 मिलीग्राम प्रति लीटर के घोल का 20 दिनों के अंतर पर फरवरी और मार्च के महीनों में छिड़काव करें.

गोदाति रोग (गमोसिस) : इस रोग के कारण तनों पर जमीन के पास से और टहनियों के रोगग्रस्त भाग से गोंद जैसा पदार्थ निकल कर छाल पर बूंदों के रूप में इकट्ठा हो जाता है, जिस की वजह से छाल सूख कर फट जाती है और भीतरी भाग भूरे रंग का हो जाता है. रोग के हमले से अंत में पेड़ फटने की स्थिति में पहुंच जाता है.

रोकथाम के लिए रोगग्रस्त छाल खुरचने के बाद रिडोमिल एमजेड 20 ग्राम व अलसी का तेल 1 लीटर को अच्छी तरह मिला कर या ताम्रयुक्त कवकनाशी का लेप कर दीजिए और इन्हीं कवकनाशी के 0.3 फीसदी या रिडोमिल एमजेड 25 से 0.2 फीसदी घोल के 4-5 छिड़काव 15 दिनों के अंतर पर कीजिए. इस के अलावा बगीचे की सही देखभाल, पानी के अच्छे निकास, धूपहवा वगैरह का पूरा ध्यान इस रोग से बचाव के लिए जरूरी है.

विदर टिप या डाई बैक : इस रोग से पत्तियों पर भूरेबैगनी धब्बे पड़ जाते हैं.

टहनियां ऊपर से नीचे की ओर सूखती हुई भूरी हो जाती हैं और पत्तियां सूख कर गिर जाती है.

रोकथाम के लिए रोगयुक्त भाग की छंटाई के बाद ताम्र युक्त कवकनाशी (कापर आक्सीक्लोराइड) 3 ग्राम या मैंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव बारिश के मौसम में 15 दिनों व सर्दी के मौसम में 20 दिनों के अंतर पर करना चाहिए. इस के अलावा साल में 2 बार (फरवरी और अप्रैल में) सूक्ष्म तत्त्वों का छिड़काव करें.

फलों का गिरना: तोड़ाई के 5 हफ्ते पहले से फल गिरने लग जाते हैं. इन की रोकथाम के लिए 1 ग्राम 2-4 डी 100 लीटर पानी में या प्लेनोफिक्स हारमोन्स 1 मिलीलीटर प्रति 4 से 5 लीटर पानी में घोल कर संतरा और मौसमी के पेड़ों पर छिड़कना चाहिए.

तोड़ाई व उपज : संतरा, माल्टा व नीबू का रंग जब हलका पीला हो जाए, तब इन की तोड़ाई करनी चाहिए.

मौसमी, संतरा और माल्टा की उपज प्रति पौधा 70 से 80 किलोग्राम होती है. कागजी नीबू में 40 से 50 किलोग्राम प्रति पौधा उपज हासिल होती है.

Hydroponics Technology : हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से हरा चारा

Hydroponics Technology: शहर हो या गांव, आज के समय में अनेक पशुपालक डेरी व्यवसाय करना चाहते हैं, लेकिन उन के लिए चारे की समस्या आड़े आ जाती है. गांव में तो किसानों को यह समस्या ज्यादा नहीं है, लेकिन शहरों में जो लोग पशुपालन कर रहे हैं, उन्हें हरा चारा नहीं मिल पाता. शहरों के आसपास चारा उगाने के लिए जमीन की अच्छीखासी कमी है.

आमतौर पर पौधे उगाने के लिए बीजों को मिट्टी में बोया जाता है, जबकि हाइड्रोपोनिक्स तकनीक (Hydroponics Technology) में बीजों को बिना मिट्टी के उगाया जाता है और बहुत कम जमीन की जरूरत होती है.

कृषि विशेषज्ञों और कृषि यंत्र विशेषज्ञों ने मिल कर हाइड्रोपोनिक्स तकनीक ईजाद की है. हाइड्रोपोनिक्स तकनीक पर आयुर्वेट के वैज्ञानिकों द्वारा लगातार आगे बढ़ाने का काम किया जा रहा है और उन्हें  इस के अच्छे नतीजे मिल रहे हैं.

इस तकनीक से उगाए गए चारे को हाइड्रोपोनिक्स चारा भी कह सकते हैं. इस हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से रोज ही हरा चारा उगाया जा सकता है. इस तकनीक से 1 किलोग्राम बीजों से 7 दिनों में 6-8 किलोग्राम हरा चारा पैदा हो जाता है.

यह मशीन अलगअलग कूवतों में मिलती है. इस से 1 दिन में 240 किलोग्राम से ले कर 960 किलोग्राम तक हरे चारे का उत्पादन हो सकता है. गरमी हो या सर्दी या बरसात इस का कोई फर्क नहीं पड़ता. मक्का, जौ और जई जैसे चारे के लिए प्रचलित अनाजों से हाईड्रोपोनिक चारा तैयार किया जाता है.

जमीन में उगाए गए चारे की तुलना में हाइड्रोपोनिक्स मशीन में उगाया गया चारा पौष्टिकता और गुणों से भरपूर होता है. जमीन के मुकाबले इस मशीन से कई गुना अधिक चारा पैदा किया जा सकता है. इस मशीन से चारा उगाने में पानी की भी बहुत बचत होती है. मशीन के नीचे ही पानी की टंकी लगी होती है, जिस से जरूरत के अनुसार पानी मशीन में जाता है. ट्रे में जितने पानी की जरूरत होती है, उतना ही खर्च होता है, बाकी पानी वापस टंकी में चला जाता है.

इस चारे की खूबी यह है कि हमें जड़, बीज व चारा तीनों चीजें मिलती हैं, जबकि खेत में उगाने से हमें केवल चारा ही मिलता है. जमीन में चारा तैयार होने में जहां कम से कम 1 महीना लगता है, वहीं इस मशीन से महज 1 हफ्ते में चारा मिलने लगता है. जमीन में उगे चारे के मुकाबले हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से उगाया गया चारा अधिक पौष्टिक और गुणकारी होता है.

Hydroponics Technology

इस चारे की एक और खूबी यह है कि यह कीटनाशकों और खरपतवार से रहित शुद्ध पशु आहार होता है.

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि दुधारू पशु को रोजाना कुछ मात्रा इस चारे की भी मिला कर खिलाई जाए, तो दूध में अच्छीखासी बढ़ोतरी होती है. इस के इस्तेमाल से गायभैंस के बच्चों की भी बढ़वार अच्छी होती है. अगर प्रजनन करने वाले सांड़ों को भी यह चारा खिलाया जाए तो उन की प्रजनन कूवत में बढ़ोतरी होती है.

इस तकनीक से गन्ने की पौध, गेहूं के ज्वारे आदि की पौध तैयार की जा सकती है. हाइड्रोपोनिक्स तकनीक से धान की नर्सरी भी उगाई जा सकती है. इस से धान के पौधे 1 हफ्ते में तैयार हो जाते हैं. ऐसे पौधे घासपात रहित व रोगमुक्त होते हैं.

आयुर्वेट प्रोग्रीन हाइड्रोपोनिक्स मशीन

Hydroponics Technology

मशीन निर्माता का कहना है कि यह कृषि मंत्रालय भारत सरकार द्वारा पहली और एकमात्र हाइड्रोपोनिक्स मशीन है. इस मशीन पर कृषि मंत्रालय द्वारा सब्सिडी की सुविधा उपलब्ध है और यह खासकर पशु विश्वविद्यालयों द्वारा अनुमोदित है.

प्रोफेसर डा. आरके धूरिया, पशु पोषण विभाग, बीकानेर, राजस्थान का कहना है कि उन के विश्वविद्यालय में पिछले 4 सालों से आयुर्वेट हाइड्रोपोनिक्स मशीन सफलतापूर्वक चल रही है. मशीन द्वारा उत्पादित हरा चारा साधारण हरे चारे की तुलना में 2 से 3 गुना प्रोटीनयुक्त होता है और उस में तकरीबन दोगुनी ऊर्जा होती है. हाइड्रोपोनिक्स हरे चारे के इस्तेमाल से दूध उत्पादन में बढ़ोतरी होती है व संपूर्ण पशु आहार में बचत होती है.

मशीन निर्माता का कहना है कि डेरी फार्म, फार्म हाउस व अन्य पशु आहार तैयार करने वाली कंपनियां उन की मशीन इस्तेमाल कर रही हैं. जरूरत के हिसाब से तमाम साइजों में मशीनें मौजूद हैं.

अधिक जानकारी के लिए किसान दिल्ली कार्यालय के फोन नंबर 011-22455993, गाजियाबाद कार्यालय के फोन नंबर 0120-7100201 और मोबाइल नंबर 9953150352 पर संपर्क कर सकते हैं.

लहसुन (Garlic) उखाड़ने की मशीन से काम हुआ आसान

Garlic : राजस्थान के जोधपुर जिले का मथानिया गांव उम्दा खेतीकिसानी के लिए जाना जाता है. मथानिया की लाल मिर्च के नाम से इस गांव के खेतों में उपजी मिर्च की मांग विदेशों तक थी. फिर किसानों द्वारा फसलचक्र को तवज्जुह न देने की वजह से यहां की मिर्ची की खेती तमाम रोगों का शिकार हो गई. लेकिन धीरेधीरे किसान जागरूक हुए हैं और कुदरत के नियमों का पालन कर रहे हैं. अब इस इलाके में मिर्च के अलावा गाजर, पुदीना और लहसुन की खेती भी जोरों पर है.

लहसुन (Garlic) की खेती में यहां के किसानों को शिकायत थी कि जब वे लहसुन (Garlic) को खेत में से उखाड़ने का काम करते हैं, तो उन के हाथ खराब हो जाते हैं. हाथ फटने और नाखूनों में मिट्टी चले जाने के कारण अगले दिन खेत में जा कर मेहनत करना कठिन होता था.

किसान मदन सांखला ने इस समस्या को चैलेंज के रूप में स्वीकारते हुए लहसुन की फसल निकालने के लिए एक मशीन बनाने की सोची. मदन को किसान होने के साथसाथ अपने बड़े भाई अरविंद के लोहे के यंत्र बनाने के कारखाने में मिस्त्री के काम का अनुभव भी था. उस ने अपने अनुभव के आधार पर जो मशीन बनाई, उसे काफी बदलावों के बाद कुली मशीन नाम दिया, चूंकि लहसुन में कई कुलियां होती हैं.

लहसुन (Garlic) की खेती में 1 मजदूर दिन भर में 100 से 200 किलोग्राम लहसुन ही खेत से उखाड़ (निकाल) पाता है. दिन भर की मेहनत के बाद अगले दिन खेत में मजदूरी करना सब के बस की बात नहीं रहती थी. इस तरह से लागत बढ़ने लगी और हम लोग लहसुन को कम महत्त्व देने लगे.

‘समस्या के हल के लिए हम ने लहसुन (Garlic) को लोहे की राड या हलवानी से निकालना शुरू किया. इस से हमें काम में थोड़ीबहुत आसानी जरूर हुई, पर यह समस्या का अंत नहीं था. मुझे अंत तक पहुंचने की जल्दी थी.

‘तब मैं ने एक मशीन बनाई. नालीदार शेप वाले मजबूत ऐंगल से बनी हल जितनी ऊंची यह मशीन खूब लोकप्रिय हो रही है. इसे ट्रैक्टर के पीछे टोचिंग कर के इस्तेमाल किया जाता है. यह एक एडजस्टेबल मशीन है. खेत में मिट्टी के हिसाब से लहसुन की गांठें कम या ज्यादा गहराई तक बैठती हैं, लिहाजा ट्रैक्टर से जोड़ कर इसे हल की तरह मनचाहे एंगल पर खेत में उतारा जा सकता है. जमीन के भीतर रहने वाले हिस्से में एक आड़ी पत्ती (ब्लेड) लगी रहती है, जिसे जमीनतल के समानांतर न रख कर थोड़ा टेढ़ा रखा गया है. यह आड़ी पत्ती मजबूत लोहे की बनी होती है.

मशीन की पत्ती जमीन में 7-8 इंच या 1 फुट तक गहरी जाती है और मिट्टी को नरम कर देती है. इस से फायदा यह होता है कि लहसुन को ढीली पड़ चुकी मिट्टी से बाद में आसानी से इकट्ठा किया जा सकता है. लहसुन रहता मिट्टी के अंदर ही है, बाहर निकलने और धूप में खराब होने का अब डर नहीं है.

पहले हाथ से लहसुन (Garlic) निकालने पर पूरे दिन में 1 लेबर 5 क्यारियों से लहसुन निकाल पाता था. गौरतलब है कि 1 बीघे में 100 क्यारियां होती हैं. इस मशीन के नतीजे चौंकाने वाले हैं. इसे ट्रैक्टर से जोड़ कर 1 बीघे का लहसुन महज 15 मिनट में उखाड़ लिया जाता है.

(Garlic)

हाथ से लहसुन उखाड़ने के दौरान करीब 3 से 4 फीसदी लहसुन जमीन में ही रह जाता था. किसान या मजदूर चाहे कितना भी अनुभवी क्यों न हो, लहसुन टूट कर जमीन में रह ही जाता था. इस के अलावा पत्तों समेत उखाड़े जाने वाले लहसुन की कुलियों (गांठों) को खराब होने से बचाने के लिए तुरंत ही इकट्ठा कर के छाया में सुखाना पड़ता था. इस काम की मजदूरी भी देनी पड़ती थी.

अब 1 लेबर 1 दिन में 1 बीघे यानी 100 क्यारियों में से लहसुन उखाड़ सकता है. इस मशीन से वक्त की बचत हुई है और दाम भी अच्छे मिलने लगे हैं. राजस्थान के कोटा में लहसुन ज्यादा होता है, इसलिए वहां इस मशीन की मांग ज्यादा है.

पहले हाथ से लहसुन निकालने पर उसे खराब होने से बचाने के लिए बोरी से ढक कर रखना पड़ता था. अब यह फायदा है कि लहसुन रहता तो जमीन में ही है, बस मिट्टी नर्म हो जाती है, इसलिए इसे जरूरत के मुताबिक निकाला जा सकता है. इस मशीन की लागत 13000 से 15000 रुपए के बीच आती है.

ज्यादा जानकारी के लिए किसान निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं:

मदन सांखला, मार्फत विजयलक्ष्मी इंजीनियरिंग वर्क्स, राम कुटिया के सामने, नयापुरा, मारवाड़ मथानिया 342305, जिला जोधपुर, राजस्थान. फोन : 09414671300.

Cold Room : शीतलन कक्ष – ग्रामीण क्षेत्रों में फलसब्जी भंडारण

Cold Room | फलों और सब्जियों में पानी की मात्रा अधिक यानी 70-90 फीसदी होने के कारण तोड़ाई के बाद वे जल्दी खराब होने लगते हैं, जिस से तकरीबन कुल उत्पादन का 20-25 फीसदी भाग इस्तेमाल से पहले बेकार हो जाता है. यदि इन फलसब्जियों को खेत से तोड़ाई के बाद ठंडी जगहों पर स्टोर किया जाए, तो इन में होने वाली जैविक क्रियाएं मंद पड़ जाएंगी और ये काफी समय तक खाने लायक बने रहेंगे.

फलों व सब्जियों को खेत पर सुरक्षित रखने के लिए किसानों के पास मौजूद ईंटों, रेती, बांस, खसखस की टाटी और प्लास्टिक की चादरों से भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित शून्य ऊर्जा शीतलन कक्ष का निर्माण कर के यह काम आसानी से किया जा सकता है.

फलों और सब्जियों पर ज्यादा तापमान का प्रभाव :

* अधिक तापमान के कारण फलों व सब्जियों की सतह से पानी भाप के रूप में निकल जाता है, जिस से उन की ताजगी खत्म हो जाती है और वजन में कमी आ जाती है.

* फलों व सब्जियों में पानी की मात्रा अधिक होने के कारण सूक्ष्म जीवों के प्रभाव से उन में सड़न पैदा हो जाती है.

* बाहरी वातावरण के प्रभाव से फलों व सब्जियों की गुणवत्ता में कमी, ताजगी व ग्राहक आकर्षण में गिरावट आ जाती है और कच्चे तोडे़ गए फलों में स्वाद व रंग का विकास नहीं हो पाता है.

शून्य ऊर्जा शीतलन कक्ष की उपयोगिता : शून्य ऊर्जा शीतलन कक्ष को ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों के घरेलू उपयोग से ले कर फार्म उत्पादों को स्टोर करने और सब्जी व फल बेचने वालों के यहां बची सब्जियों को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के काम में लिया जा सकता है.

घरेलू इस्तेमाल के लिए : अमूमन ऊर्जा शीतलन कक्ष का तापमान गरमी में बाहरी वातावरण से 6-8 डिगरी सेल्सियस तक कम रहता है, इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां घरेलू खाद्य सामग्री को रखने के लिए रेफ्रिजरेटर की सुविधा नहीं है, वहां परिवार की खाद्य सामग्री जैसे दही, दूध, छाछ, सब्जियां व फल शीतलन कक्ष में रखे जा सकते हैं, जिस से इन उत्पादों को अधिक समय तक खाने योग्य रखा जा सकता है.

फार्म के इस्तेमाल के लिए : ऐसे छोटे किसान जिन का दैनिक सब्जी व फल उत्पादन काफी कम होता है, वे अपने उत्पादों को मंडी तक ले जाने के खर्च से बचने के लिए ग्रामीण बाजार में औनेपौने दामों पर बेच देते हैं. इस प्रकार के किसान रोजाना फलों और सब्जियों को तोड़ कर शीतलन कक्ष में भंडारित कर के 3-4 दिनों में 1 बार बाजार जा कर उन सब्जियों व फलों को बेच कर अधिक लाभ कमा सकते हैं.

फुटकर व्यापारियों के लिए : फुटकर दुकानदार दिनभर अपनी सब्जियों व फलों को बेचते हैं. अधिक तापमान के कारण सब्जियां व फल शाम तक काफी खराब हाने लगते हैं. अगर शाम को बचे हुए फलों व सब्जियों को ऊर्जा शीतलन कक्ष में भंडारित कर के रखा जाए तो अगले दिन वे बाहर रखे उत्पादों से काफी अच्छी अवस्था में बने रहते हैं, जिस से दुकानदार को अच्छा बाजार भाव मिलता है.

एक ही जगह दुकान व टोकरा लगा कर बेचने वाले फल व सब्जी विक्रेता को तो केवल नमूने के तौर पर फलों व सब्जियों को बाहर रखना चाहिए. अतिरिक्त उत्पाद को शीतलन कक्ष में रखने से काफी लाभ होता है, इस से फल व सब्जियां लंबे समय तक बिलकुल खराब नही होते हैं.

ऊर्जा शीतलन कक्ष का निर्माण : फल व सब्जी को सुरक्षित रखने के लिए शून्य ऊर्जा सेंटीमीटर शीतलन कक्ष का निर्माण हवादार और छायादार खुले स्थान पर करना चाहिए. ईंटों को जमा कर 165 सेंटीमीटर×115 सेंटीमीटर आकार के एक आयाताकार चबूतरे का निर्माण करना चाहिए, ईंटों के मध्य स्थान में बालूरेत भर देनी चाहिए और दोनों दीवारों के मध्य 7-8 सेंटीमीटर तक का स्थान जरूर रखना चाहिए, जिस में बाद में नदी की रेत भरी जाती है.

दोहरी दीवार की ऊंचाई 60 से 65 सेंटीमीटर तक रखनी चाहिए, ताकि किसी भी सामग्री को आसानी से रखा व निकाला जा सके. आवश्यकतानुसार इस की लंबाई में कुछ बदलाव तो किया जा सकता है, पर चौड़ाई उतनी ही रखनी चाहिए, जिस से ठंडक भी ठीक बनी रहे और फलों व सब्जियों की टोकरियों को निकालने व रखने में आसानी रहे.

Cold Room

ईंटों की दीवार बनाने के लिए चिकने गारे या हलकी सीमेंटबजरी के मिश्रण का इस्तेमाल करना चाहिए. मध्य के खाली स्थान में नदी की रेत कंकरीट के साथ भरनी चाहिए. ऊपर का ढक्कन बांस, बोरी, घास जवसा व खसखस से बनी टाटी का होना चाहिए. इस ढक्कन की लंबाई और चौड़ाई पूरे भंडारण कक्ष से थोड़ी ज्यादा होनी चाहिए.

लगातार पानी की पूर्ति के लिए 15-20 लीटर की कूवत के मटके, जिस पर नल लगा हो, को 3 लकडि़यों के सहारे से जमीन से 6-7 फुट की ऊंचाई पर लगाना चाहिए. नल को एक पाइप द्वारा ईंटों के मध्य भाग से जोड़ना चाहिए और पाइप पर 15-15 सेंटीमीटर की दूरी पर बारीक छेद कर देने चाहिए, जिस से जल का रिसाव बूंदबूंद कर होता रहे. अधिक गरमी के दिनों में दिन में 2-3 बार रेत व ढक्कन को तर करना होता है.

फल व सब्जी का भंडारण : फलों और सब्जियों को 10-15 किलोग्राम कूवत की अलगअलग बांस की टोकरियों में भर कर रखना चाहिए. हर टोकरी को गीली टाट से ढकना चाहिए. टोकरियों की संख्या अधिक हो तो लकड़ी की तिपाइयों का इस्तेमाल करना चाहिए. उस के बाद कक्ष के ढक्कन को अच्छी तरह से तर कर के ढक देना चाहिए. ढक्कन को दिन में 3 से 4 बार अच्छी तरह से गीला करना चाहिए. जहां तक संभव हो ढक्कन को बारबार नहीं खोलना चाहिए.

Cold Room

शीतलन का सिद्धांत : शीतलन कक्ष वाष्पीकरण के लिए आवश्यक गुप्त ऊष्मा के सिद्धांत पर आधारित है.

इस में जब गरम हवाएं शीतलन कक्ष की बाहरी सतह से टकराती हैं, तो सतह पर जमा नमी का वाष्पीकरण होता रहता है और वाष्पीकरण के लिए आवश्यक गुप्त ऊष्मा कक्ष के भीतरी भाग से पहुंचती है, जिस से अंदर का तापमान गरमी में बाहरी तापमान से 6-8 डिगरी सेल्सियस कम रहता है और आर्द्रता अंश तकरीबन 85-90 फीसदी तक रहता है, जो उष्ण व उपोष्ण फलों व सब्जियों के सुरक्षित भंडारण के लिए सहायक है.

सर्दी में जब तापमान कम हो जाता है, तो कक्ष का तापमान बाहरी तापमान से लगभग 4-6 डिगरी सेल्सियस तक ज्यादा रहता है. ऐसे में फलों और सब्जियों को भीषण सर्दी के प्रकोप से भी बचाया जा सकता है.

शून्य ऊर्जा शीतलन कक्ष में आमतौर पर गरमी में तापमान 26 डिगरी सेल्सियस से 38 डिगरी सेल्सियस के मध्य रहता है और आपेक्षिक आर्द्रता 70-90 फीसदी तक पाई जाती है. इन हालात में भी पत्तेदार सब्जियों जैसे पालक, धनिया, चौलाई व सलाद को 2-3 और दूसरे फलों व सब्जियों को 7-15 दिनों तक बिना गुणवत्ता हानि के सुरक्षित भंडारित रखा जा सकता है.

* अधिक नमी होने के कारण सब्जियों व फलों की बाहरी सतह से पानी का नुकसान नहीं होने से फलों व सब्जियों का भार व ताजगी बनी रहती है.

* कम तापमान व ज्यादा नमी के कारण सूक्ष्म जीवों की क्रियाविधि में कमी होने से फलों व सब्जियों में सड़न नहीं होती है.

* कम पके फलों को शीतलन कक्ष में रखने से उन के स्वाद और रंग का विकास भी अच्छा होता है.

Masala Peanut : मूंगफली और बेसन का चटकारेदार स्वाद

Masala Peanut |मूंगफली खाने में सब से अच्छी होती है. लोगों को इस को हर रूप में खाना पसंद आता है. ज्यादातर नमकीनों में मूंगफली का प्रयोग किया जाता है. मूंगफली के प्रयोग से नमकीन का स्वाद बढ़ जाता है. यह सेहत के लिए भी अच्छी होती है.

मूंगफली के बढ़ते हुए प्रयोग को देखते हुए अब केवल मूंगफली को ले कर प्रयोग होने लगे हैं. इस को मूंगफली नमकीन, मसाला पीनट जैसे कई नामों से जाना जाता है. यह छोटे और बड़े हर तरह के पैकेट में मिलता है. अच्छी क्वालिटी की मूंगफली, बेसन और मसालों के प्रयोग से यह बहुत टेस्टी बन जाता है. इस को रोजगार का जरीया भी बनाया जा सकता है.

देश में मूंगफली की खेती बडे़ पैमाने पर होती है. मूंगफली के बढ़ते प्रयोग से इस के किसानों का मुनाफा बढ़ता है. मूंगफली को ‘गरीबों का मेवा’ कहा जाता है. खासकर जाड़ों में इस को खाना बहुत गुणकारी होता है.

मूंगफली के इन गुणों के कारण ही मिठाई से ले कर नमकीन तक में इस का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. मसाला पीनट मूंगफली नमकीन का बदला हुआ रूप है. करीबकरीब पूरे देश में यह मिलता है. ऐसे में यह किसान और उपभोक्ता दोनों के लिए हितकारी है.

इसे बडे़ पैमाने पर बना कर रोजगार का जरीया भी बनाया जा सकता है. अगर माइक्रोवेव का प्रयोग नहीं करना चाहते हैं, तो मसाला लगे मूंगफली के दानों को तेल में हलका सा फ्राई कर लीजिए. ध्यान रहे कि मसाला जलने न पाए.

अगर मसाला जल गया तो इस का स्वाद अच्छा नहीं होगा. इस के साथ यह देखना भी बहुत जरूरी है कि जिस मूंगफली का प्रयोग किया जा रहा हो, उस की क्वालिटी बहुत अच्छी हो, खराब किस्म की मूंगफली के दाने स्वाद को खराब करते हैं.

बनाने की विधि : सब से पहले बेसन को किसी बड़े प्याले में डाल कर उस में नमक, लाल मिर्च पाउडर, गरम मसाला, धनिया पाउडर, अमचूर पाउडर, बेकिंग सोडा और हींग डाल कर अच्छी तरह मिला दीजिए. थोड़ा अमचूर पाउडर बचा कर रख लीजिए. इस का प्रयोग बाद में करेंगे.

मूंगफली के दाने जिस बरतन में भरे हैं, उस में इतना पानी भर दीजिए कि मूंगफली के दाने पानी में डूब जाएं और तुरंत छलनी से छान कर पानी हटा दीजिए. ध्यान रखें कि मूंगफली के दाने सिर्फ गीले होने चाहिए. मूंगफली के गीले दाने बेसन मसाला मिक्स में डाल कर मिक्स कीजिए. देख लीजिए कि बेसन मसाला मूंगफली के दाने के ऊपर अच्छी तरह कोट हो जाए. अगर बेसन सूखा बचा हुआ है, तो 1-2 छोटे चम्मच पानी छिड़कते हुए डाल कर मिला दीजिए, ताकि सारा बेसन और मसाले मूंगफली के दानों पर कोट हो जाएं. अब तेल डाल कर मूंगफली के दानों में मिला दीजिए.

माइक्रोवेव सेफ  ट्रे ले लीजिए और मसाला मिले मूंगफली के दाने ट्रे में अलगअलग करते हुए फैला दीजिए. ट्रे को माइक्रोवेव में रखिए और अधिकतम तापमान पर 4 मिनट माइक्रोवेव में गरम कीजिए. ट्रे को बाहर निकालिए और दानों को पलट दीजिए, अलगअलग कर दीजिए. ट्रे को फिर से माइक्रोवेव में रख दीजिए और 1 मिनट और माइक्रोवेव में गरम कर लीजिए. ट्रे को बाहर निकालिए. मसाला पीनट बन चुके हैं.

मसाला पीनट में चाट मसाला डाल कर मिला दीजिए. अगर आप महसूस करें कि अभी मसाला पीनट पूरी तरह से कुरकुरे नहीं हुए हैं, तो उन्हें 1 मिनट और माइक्रोवेव में गरम कर लीजिए.

मसाला पीनट को पूरी तरह ठंडा होने के बाद एयर टाइट कंटेनर में भर कर रख दीजिए. अगर आप मसाला पीनट में तेल नहीं डालना चाहें, तो न डालें. बिना तेल के भी मसाला पीनट अच्छे बनते हैं, लेकिन तेल डालने से मसाला पीनट का रंग और स्वाद दोनों ही बढ़ जाते हैं.

मसाला पीनट बनाने के लिए सामग्री : मूंगफली के दाने 1 कप, बेसन आधा कप, नमक स्वादानुसार, लाल मिर्च पाउडर  स्वादानुसार, आधा चम्मच गरम मसाला, आधा चम्मच चाट मसाला, आधा चम्मच धनिया पाउडर, आधा छोटा चम्मच अमचूर पाउडर, बेकिंग सोडा 2 चुटकी, हींग 1 चुटकी

Home Garden : बागबानी से महकाएं घरद्वार

Home Garden | बागबानी का शौक हर किसी को होता है. यह शौक पूरा करने के लिए कुछ समय तो देना ही पड़ता है. हम अगर पूरे बाग को रंगबिरंगे फूलों से सजाएं, तो हमें पेड़पौधों और गमलों का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा. ऐसा नहीं है कि सिर्फ 4-5 पौधे लगाए और पूरा बाग सज गया या सिर्फ गमले के बीच में पानी भर दिया तो हो गई बागबानी.

बाग लगाने के लिए उस की देखरेख भी जरूरी है. जरूरत पड़ने पर उस में खादों और कीटनाशकों का भी प्रयोग किया जाता है. किस तरह के बीज बोएं  कितनी धूप दिखाएं  कितना पानी और उर्वरक दें. बागबानी में इन सब बातों का ध्यान रखना पड़ता है.

बरसात के मौसम में जहां बालसम, गमफरीना, नवरंग व मुर्गकेश वगैरह के पौधे लगाए जा सकते हैं, तो वहीं सर्दी के मौसम में पैंजी, पिटुनिया, डहेलिया, गेंदा व गुलदाऊदी वगैरह के पौधे लगाए जा सकते हैं. इन के अलावा बारहमासी फूलों के पौधे जैसे गुड़हल, रात की रानी व बोगनवेलिया वगैरह भी लगाए जा सकते हैं. यह जरूरी नहीं है कि आप ढेरों पौधे लगाएं. आप उतने ही पौधे लगाएं, जिन की देखरेख आसानी से कर सकते हैं.

रंगबिरंगे फूल जो सितंबर से नवंबर तक खिलते हैं, वे कई तरह के होते हैं. उन में सेवंती और गेंदे के ढेर सारे विकल्प होते हैं. सितंबर से ले कर नवंबर के शुरुआती दिनों तक कभी भी इन्हें लगा सकते हैं.

यदि सिर्फ फूल वाले पौधे लगाना चाहते हैं, तो पिटूनिया, सालविया, स्वीट विलियम, स्वीट एलाइसम, चायना मोट, जीनिया, गुलमेहरी, गमफरीना, सूरजमुखी और डहेलिया जैसे पौधे चुन सकते हैं और यदि सजीले पौधों से बगीचे को सजाना है, तो कोलियस और इंबेशन लगाना बेहतर होगा.

कुछ पौधे जैसे मनीप्लांट, कैक्टस और ड्राइसीना इनडोर प्लांट हैं यानी हम ये पौधे छांव में, कमरे में या कहीं भी लगा सकते हैं. इन सब में मनीप्लांट आसानी से मिलने वाला, हमेशा हराभरा रहने वाला पौधा है. इस के हरे पत्तों पर हलके हरेसफेद धब्बे सुंदर लगते हैं.

ऐसा ही एक और इनडोर पौधा है कैक्ट्स. इस कांटेदार पौधे की भी देखभाल करनी पड़ती है. इसे लगाते समय मिट्टी में नीम की खली, गोबर की खाद और रेत बराबर मात्रा में मिलानी चाहिए. इसे काफी कम पानी देना पड़ता है. हर साल पौधे को निकाल कर उस की सड़ी जड़ें काट देनी चाहिए और फिर से गमले में लगा देना चाहिए. बहुत तेज धूप होने पर या तेज बरसात में पौधों को छाया में ही रखना बेहतर होता है. अपने समय में इन में फूल आते हैं, जिन की खूबसूरती देखते ही बनती है.

गेंदे के पौधे साल में 3 बार नवंबर, जनवरी और मईजून में लगा सकते हैं. इस तरह पूरे साल गेंदे के फूल मिल सकते हैं. यह कीड़ों से सुरक्षित रहता है. गेंदे की कई किस्में होती हैं, जैसे हजारा गेंदा, मेरी गोल्ड, बनारसी या जाफरानी.

यदि इस के फूलों को सुखा कर रख लें तो हम इस से अगली बार पौधे तैयार कर सकते हैं. असल में सूखा हुआ फूल बीज के लिए तैयार हो जाता है.

दूसरा फूल है गुड़हल का. इसे सितंबर से अक्तूबर में लगाना चाहिए. गुड़हल कई रंगों का होता है जैसे लाल, गहरा लाल, गुलाबी, बैगनी, नीला वगैरह. समयसमय पर इस में खाद डालते रहना चाहिए. इस की नियमित सिंचाई भी जरूरी है.

एक खूबसूरत सा पौधा है सूरजमुखी. इस के कई साइज होते हैं. बड़ा सूरजमुखी गोभी के फूल से भी बड़ा होता है. इस के बीजों से तेल भी निकाला जाता है. छोटा सूरजमुखी ढेर सारे पीले फूल देता है. इसे अप्रैल में लगाना चाहिए. यह घरों में बगीचे की शान बढ़ाता है.

एक और सुंदर दिखने वाला पौधा है जीनिया. यह 3 किस्मों में मिलता है. इस की छोटी किस्म पर्सियन कारपेट कहलाती है. इसे अगस्त या सितंबर में लगाना चाहिए ताकि इसे बरसाती कीड़ों से बचाया जा सके. इस के कागज जैसे रंगीन फूल पौधे पर कभी नहीं सूखते हैं.

एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पौधा है तुलसी. यह तकरीबन हर घर में मिलता है. इस की 3 किस्में होती हैं रामा तुलसी, श्यामा तुलसी और बन तुलसी. इसे साल में कभी भी लगा सकते हैं. यह औषधीय गुणों का वाला पौधा है. यह वातावरण को शुद्ध रखता है. इस की पत्तियों को चबाने से अनगिनत बीमारियों से बचा जा सकता है.

एक और पौधा है डहेलिया. डहेलिया को क्यारियों और गमलों दोनों में उगाया जा सकता है. इसे उगाने के लिए पूरी तरह खुला स्थान चाहिए, जहां कम से कम 4 से 6 घंटे तक धूप आती हो.

पौधा लगाने की विधि

पौधा लगाने की सब से अच्छी विधि कटिंग द्वारा पौधा तैयार करना है. पुराने पौधों की शाखाओं के ऊपरी भाग से 8 सेंटीमीटर लंबी कटिंगें काट लें. उन को मोटी रेत या बदरपुर में 2 इंच की दूरी पर, डेढ़ इंच गहराई में लगाएं. लगाने के बाद 3 दिनों तक कटिंग लगाए गए गमलों को छायादार जगह पर रखें. उन से 15 दिनों के बाद जड़ें निकल आती हैं. इस के बाद ही इन्हें 10 से 12 इंच के गमलों में लगाते हैं. ये पौधे ज्यादा धूप या पानी से मुरझा जाएंगे, लिहाजा इस बात का खास ध्यान रखें.

यदि पौधों को गमलों में उगाना है, तो गमलों में 3 हिस्से मिट्टी व 1 भाग गोबर की खाद मिला कर भर दें. गमले का ऊपरी हिस्सा कम से कम 1 से डेढ़ इंच खाली रखें, जिस से पानी के लिए जगह मिल सके. 1 गमले में 1 ही पौधा रोपें. पौधे रोपने के तुरंत बाद पानी देना चाहिए. यदि पौधे क्यारी में लगाने हों, तो उन्हें 40-50 सेंटीमीटर की दूरी पर रोपें. क्यारी को 10-12 इंच गहरा खोद लें. इस के बाद 100 ग्राम सुपर फास्फेट, 100 ग्राम सल्फेट पोटेशियम, 25 ग्राम मैग्नेशियम सल्फेट प्रति वर्गमीटर क्षेत्र के हिसाब से दें. साथ ही फूलों में चमक लाने के लिए खड़ी फसल में 1 चम्मच मैग्नेशियम सल्फेट को 10 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

क्यारियां कंकड़पत्थर रहित होनी चाहिए. क्यारियों की मिट्टी में 5 किलोग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से गोबर की खाद जरूर मिलानी चाहिए.

अगर आप डहेलिया को गमलों में उगाना चाहते हैं, तो गमले कम से कम 12 से 14 इंच के लें. मिट्टी व गोबर की खाद की बराबर मात्रा को गमलों में भर दें. गमले पूरी तरह मिट्टी से न भरें. उन का ऊपरी हिस्सा कम से कम 2 से ढाई इंच खाली होना चाहिए, जिस से गमलों में पानी के लिए जगह रहे.

गरमी पड़ने पर हफ्ते में 2 बार पानी देने की जरूरत होती है. सर्दी के मौसम में 8 से 10 दिनों के अंतर पर पौधों को पानी देना चाहिए.

नरवाई जलाने (Burning Stubble) से नुकसान

Burning Stubble |फसल काटने के बाद तने के जो अवशेष बचे रहते हैं, उन्हें नरवाई कहते हैं. पिछले सालों का तजरबा रहा है कि किसान फसल कटाई के बाद फसल अवशेष नरवाई को जला देते हैं. इस से आग लगने के हादसों के डर के साथसाथ भूमि में मौजूद सूक्ष्म जीव जल कर खत्म हो जाते हैं और जैविक खाद का निर्माण बंद हो जाता है.

हम खेतों की मिट्टी को सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखें, तो हमें मिट्टी में बहुत से सूक्ष्म जीव नजर आते हैं, जो नरवाई को जलाने से मर जाते हैं. फसलों के गिरते उत्पादन और किसानों को हो रहे घाटे के पीछे नरवाई जलना खास वजह है.

नरवाई को खेत में मिलाने के लाभ

* खेत में जैव विविधता बनी रहती है. जमीन में मौजूद मित्र कीट शत्रु कीटों को खा कर नष्ट कर देते हैं.

* जमीन में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है, जिस से फसल उत्पादन ज्यादा होता है.

* दलहनी फसलों के अवशेषों को जमीन में मिलाने से नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ जाती है, जिस से फसल उत्पादन भी बढ़ता है.

* किसानों द्वारा नरवाई जलाने के बजाय भूसा बना कर रखने पर जहां एक ओर उन के पशुओं के लिए चारा मौजूद होगा, वहीं अतिरिक्त भूसे को बेच कर वे आमदनी भी बढ़ा सकते हैं.

* किसान नरवाई को रोटावेटर की सहायता से खेत में मिला कर जैविक खेती का लाभ ले सकते हैं.

नरवाई जलने से नुकसान

* जमीन में जैव विविधता खत्म हो जाती है और सूक्ष्म जीव जल कर खत्म हो जाते हैं.

* जैविक खाद का निर्माण बंद हो जाता है.

* जमीन कठोर हो जाती है, जिस के कारण जमीन की जलधारण कूवत कम हो जाती है.

* पर्यावरण खराब हो जाता है और तापमान में बढ़ोतरी होती है.

* कार्बन से नाइट्रोजन व फास्फोरस का अनुपात कम हो जाता है.

* जीवांश की कमी से जमीन की उर्वरक कूवत कम हो जाती है.

* नरवाई जलाने से जनधन की हानि होने का खतरा रहता है.

* खेत की सीमा पर लगे पेड़पौधे जल कर खत्म हो जाते हैं.

आखिर क्या करें किसान

* नरवाई खत्म करने के लिए रोटावेटर चला कर नरवाई को बारीक कर के मिट्टी में मिलाएं.

* नरवाई को मिट्टी में मिला कर जैविक खाद तैयार करें, साथ ही स्ट्रारीपर का इस्तेमाल करें और डंठलों को काट कर भूसा बनाएं.

* भूसे का इस्तेमाल किसान अपने पशुओं को खिलाने के लिए करें और भूसा बेच कर अलग से आमदनी भी हासिल करें.

Deep Plowing : गरमी में करें खेत की गहरी जुताई

Deep Plowing | रबी और जायद की कटाई के बाद कुछ दिनों तक अधिकतर खेत खाली पड़े रहते हैं. इन खाली दिनों में खेतों की गहरी जुताई का बेहद महत्त्व है. गरमी की जुताई से अगली फसल को कई तरह के लाभ मिलते हैं. इस से फसल पर कीटों और रोगों का हमला कम होता है और उपज में इजाफा होता है.

गरमी की गहरी जुताई के फायदे

जीवांश खाद की प्राप्ति : गरमी के समय में रबी व जायद की फसल कट जाने के बाद खेत की जुताई करने से फसल के अवशेष डंठल व पत्तियां आदि भूमि में दब जाते हैं, जो बारिश के मौसम में सड़ कर जमीन को जीवांश पदार्थ मुहैया कराते हैं.

हानिकारक कीटों से बचाव: गरमी की जुताई से रबी या जायद की फसलों पर लगे हुए हानिकारक कीटों के अंडे व लार्वा, जो जमीन की दरारों में छिपे होते हैं, मईजून की तेज धूप से नष्ट हो जाते हैं. इस से खेत कीटपतंगों से सुरक्षित हो जाता है और अगली फसल में कीटों के हमले की संभावना कम हो जाती है.

मिट्टी रोगों से बचाव : गरमी की जुताई से खरपतवारों के बीज तेज गरमी से नष्ट हो जाते हैं. बाकी बचे बीज ज्यादा गहराई में पहुंच जाने से उन का अंकुरण नहीं हो पाता. नतीजतन खेत को खरपतवार से नजात मिल जाती है.

कीटनाशकों के प्रभाव से मुक्ति : रबी या खरीफ फसलों में इस्तेमाल किए गए कीटनाशकों व खरपतवारनाशकों का असर जमीन में गहराई तक हो जाता है. गरमी में जुताई कर देने से खेत में उन का प्रभाव खत्म हो जाता है. तेज धूप से ये जहरीले रसायन विघटित हो जाते हैं और उन का खेत में असर नहीं रह जाता है.

रासायनिक उर्वरकों का विघटन : खेत में इस्तेमाल किए गए रासायनिक उर्वरकों का 65 फीसदी हिस्सा अघुलनशील हालत में खेत में पड़ा रह जाता है, जो धीरेधीरे खेत को बंजर बनाता है. गरमी की जुताई से सूर्य की तेज धूप से ये रसायन विघटित हो कर घुलनशील उर्वरकों में बदल जाते हैं और अगली फसल को पोषण देते हैं.

मिट्टी में वायु संचार : बारबार ट्रैक्टर जैसे भारी वाहनों से जुताई व सिंचाई करने से मिट्टी के कणों के बीच का खाली स्थान कम हो जाता है, यानी खेत की मिट्टी सख्त व कठोर हो जाती है. इस से मिट्टी में हवा का आनाजाना रुक जाता है, जिस से उस की उर्वरता कम हो जाती है. गरमी की जुताई से मिट्टी की नमी खत्म होने लगती है और कणों के बीच का खाली स्थान बढ़ जाता है यानी पोली हो जाती है. इस से उस में हवा का आनाजाना होने लगता है, जो फसल की सेहत के लिए अच्छा होता है.

जलधारण कूवत का विकास : गरमी की जुताई से खेत की नमी काफी गहराई तक सूख जाती है. मिट्टी के सूराख खुल जाने से बारिश का पानी जमीन द्वारा सोख लिया जाता है, जिस से मिट्टी की जलधारण कूवत बढ़ जाती है व नमी काफी मात्रा में खेत में मौजूद रहती है. यह नमी खरीफ की फसल के उत्पादन में काम आती है.

कैसे करें गरमी की जुताई : गरमी के समय में खेत की जुताई खेत के ढाल के विपरीत करें. इस से बारिश का पानी ज्यादा से ज्यादा खेत द्वारा सोखा जाएगा. इस से जमीन का कटाव रोकने में भी मदद मिलेगी. हलकी व रेतीली जमीन में ज्यादा जुताई न करें, क्योंकि इस से मिट्टी भुरभुरी हो जाती है और हवा व बरसात से मिट्टी का कटाव बढ़ जाता है.

Trench Method :ट्रैंच विधि से किया गन्ना उत्पादन

Trench Method | उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के रहने वाले शरद त्यागी एक ऐसे इनसान हैं, जिन में हमेशा आम लोगों से हट कर कुछ नया करने की ललक रहती है.

उन्होंने शिक्षा पूरी करने के बाद भारतीय सीमा सुरक्षा बल में नौकरी कर ली, लेकिन उन का मन नौकरी में नहीं लगा, लिहाजा उन्होंने नौकरी छोड़ दी और घर वापस आ कर अपने पिताजी के पैतृक व्यवसाय खेती में लग गए. उन के मन में जो आम लोगों से हट कर करने का जज्बा था, वह शांत नहीं हुआ, तो वे एक दिन कृषि विज्ञान केंद्र गए.

कृषि विज्ञान केंद्र ने दी नई दिशा : आधुनिक कृषि तकनीकों को जानने की इच्छा और कुछ करने के बुलंद हौसलों के साथ उन्होंने केंद्र के वैज्ञानिकों से गन्ना उत्पादन तकनीकों की विस्तार से जानकारी ली. केंद्र के वैज्ञानिकों ने समयसमय पर उन के खेत पर जा कर उन्हें नवीनतम तकनीकों से अवगत कराया.

आधुनिक तकनीकों से खेती की शुरुआत : खेती की नवीनतम जानकारी से प्रभावित हो कर शरद त्यागी ने ट्रैंच विधि से गन्ना उत्पादन करने की शुरुआत की. आज वे ट्रैंच विधि से गन्ना उत्पादन के लिए अपने जिले ही नहीं, बल्कि प्रदेश व देश के किसानों के लिए रोल माडल बन गए हैं. तकरीबन 5000 किसान उन से उन की तकनीकों के बारे में जानकारी ले चुके हैं. आज भी शरद कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों के संपर्क में रहते हैं और जो कृषि संबंधी समस्याएं आती हैं, उन का हल पूछते हैं.

trench method

ट्रैंच विधि से गन्ना उत्पादन के लाभ

* बीज की मात्रा आम विधि के मुकाबले कम लगती है.

* आम विधि के मुकाबले जमाव ज्यादा होता है.

* सिंचाई करने में कम समय लगता है, नतीजतन पानी की बचत होती है.

* उत्पादन खर्च में कमी आती है.

* उपज ज्यादा मिलती है.

Food processing : खाद्य प्रसंस्करण शौक को बनाया रोजगार

Food processing| तरक्की के नजरिए से खाद्य प्रसंस्करण काफी बड़ा क्षेत्र है. इस से तरक्की की अनेक संभावनाएं हैं. इस के तहत अनेक तरह की फलसब्जियों की प्रोसेसिंग कर अनेक उत्पाद तैयार किए जाते हैं, जिन की बाजार में अच्छी कीमत भी मिलती है. इस में खासकर अचार, मुरब्बे, जैम, चटनी, जूस, पापड़, बड़ी, चिप्स, बिसकुट जैसे अनेक उत्पाद हैं, जिन्हें गांवदेहात से ले कर बड़े शहरों तक बहुत पसंद किया जाता है. सरकार की भी प्रोसेसिंग के क्षेत्र में लोगों को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएं हैं.

फूड प्रोसेसिंग के तहत अनेक संस्थाओं व अनेक कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा इस तरह के कोर्स कराए जाते हैं, जहां से ट्रेनिंग ले कर कोई भी महिला या पुरुष इसे रोजगार का साधन बना सकता है और आमदनी ले सकता है. फूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले महिलाएं ज्यादा हाथ आजमा रही हैं और सफल भी हो रही हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में महिलाएं घरेलू तौर पर पहले ही दक्ष होती हैं.

ऐसी ही एक महिला हैं राजवंती, जो हरियाणा के जींद जिले की रहने वाली हैं. उन्होंने ‘सुप्रीम अचार उद्योग’ के नाम से अपनी इकाई लगा रखी है. पटियाला चौक रेलवे रोड पर स्थित इन की इकाई में तकरीबन 45 तरह के उत्पाद तैयार किए जाते हैं, जिन में 30 तरह के अचार, 6 तरह के मुरब्बे शामिल हैं. इन के अलावा वे अनेक तरह की चटनी, जैम, शर्बत, कैंडी वगैरह भी बनाती हैं. उन की इकाई में 15 से 20 लोगों को रोजगार भी मिल रहा है.

Food processing

हरियाणा के रोहतक व दादरी, पंजाब के चंडीगढ़ और दिल्ली के रोहिणी में इन के शोरूम हैं.

अभी हाल ही में चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय, हिसार में लगे कृषि मेले में राजवंती से मुलाकात हुई. उन्होंने बताया, ‘मुझे बचपन से ही तरहतरह के व्यंजन बनाने का शौक था.

‘यही शौक आज मेरा रोजगार बन गया और मैं इस लायक हो गई कि 15-20 लोगों को भी अपने साथ रोजगार दिया.’

हालांकि राजवंती ने सिलाईकढ़ाई में आईटीआई की है, लेकिन तरहतरह के पकवान बनाने के शौक ने उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है.

राजवंती ने बताया कि वे घरेलू तौरतरीकों से आयुर्वेद की पद्धति के मुताबिक अपने उत्पाद तैयार करती हैं, जिन्हें पूरी शुद्धता के साथ तैयार किया जाता है. लोगों का उन पर विश्वास ही उन की सफलता की सीढ़ी है.

उन्होंने आगे बताया कि खुद का रोजगार शुरू करने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम योजना की जानकारी अपने क्षेत्र के जिला उद्योग केंद्र, जींद से ली, जहां से उन्हें पूरा सहयोग मिला और प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम के तहत साल 2012-13 में उन्हें 25 लाख रुपए लोन बैंक द्वारा मुहैया कराया गया. उस के बाद उन्होंने ‘सुप्रीम अचार उद्योग’ के नाम से अपनी इकाई स्थापित की. इस के बाद वे दिल्ली व हरियाणा में लगने वाले कृषि मेलों में भी पहुंचने लगीं, जहां उन्होंने स्टाल लगा कर अपने उत्पादों को आम लोगों तक पहुंचाया.

आज के समय में फूड प्रोसेसिंग खासा मुनाफे का सौदा है. कम पढ़ेलिखे लोग भी इस की ट्रेनिंग ले कर इसे अपने रोजगार का जरीया बना सकते हैं. अनेक संस्थाओं और कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा बहुत कम समय की ट्रेनिंग दी जाती है, जहां से टे्रनिंग ले कर कोई भी व्यक्ति अपना रोजगार शुरू कर सकता है.