Sustain Plus Project : एनडीडीबी सस्टेन प्लस परियोजना हुई शुरू

Sustain Plus Project : मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के तहत पशुपालन और डेयरी विभाग ने बीते दिनों 3 मार्च, 2025 को भारत मंडपम, नई दिल्ली में डेयरी क्षेत्र में स्थिरता पर कार्यशाला का सफलतापूर्वक आयोजन किया. केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन, डेयरी और पंचायती राज मंत्री राजीव रंजन सिंह की उपस्थिति में इस कार्यशाला का उद्घाटन किया.

केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के राज्य मंत्री प्रो. एसपी सिंह बघेल और जौर्ज कुरियन भी इस अवसर पर उपस्थित थे.  डेयरी क्षेत्र के प्रमुख हितधारकों के साथसाथ पशुपालन और डेयरी विभाग, पैट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, उर्वरक विभाग, राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी), इंडियन औयल कौर्पोरेशन लिमिटेड और विभिन्न दूध सहकारी समितियों के वरिष्ठ अधिकारियों ने भी इस कार्यशाला में भाग लिया.

कार्यशाला ने तकनीकी, वित्तीय और कार्यान्वयन सहायता का लाभ उठा कर डेयरी क्षेत्र में सतत और समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिए एनडीडीबी और नाबार्ड के बीच समझौता हुआ.  देशभर में बायोगैस संयंत्र स्थापित करने के लिए एनडीडीबी ने 15 राज्यों के 26 दुग्ध संघों के साथ समझौता किया.

इस अवसर पर डेयरी क्षेत्र में स्थिरता के उद्देश्य से दिशानिर्देश जारी किए गए, साथ ही, एनडीडीबी (राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड) के लघु पैमाने पर बायोगैस, बड़े पैमाने पर बायोगैस/संपीड़ित बायोगैस परियोजनाओं और टिकाऊ डेयरी के आर्थिक सहायता के लिए एनडीडीबी ‘सस्टेन प्लस परियोजना’ के तहत वित्तपोषण पहलों की शुरुआत की गई.

इन पहलों से डेयरी फार्मिंग में चक्रीय प्रथाओं को अपनाने में तेजी आने, कुशल खाद प्रबंधन, ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा मिलने और पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने की उम्मीद है.  इस राष्ट्रीय कार्यशाला ने नीति बनाने वालों, उद्योग जगत के नेताओं और विशेषज्ञों को स्थिरता बढ़ाने, कार्बन उत्सर्जन को कम करने और छोटे व सीमांत डेयरी किसानों के लिए आर्थिक सहायता सुनिश्चित करने और विकसित करने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान किया.

Sustain Plus Project

केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कहा कि आज जब हम श्वेत क्रांति 2.0 की ओर बढ़ रहे हैं, तो स्थिरता और चक्रीयता का महत्व और भी बढ़ गया है. उन्होंने कहा कि पहली श्वेत क्रांति की मदद से हम ने अब तक जो हासिल किया है, उस के अलावा डेयरी क्षेत्र में स्थिरता और चक्रीयता को अभी पूरी तरह हासिल किया जाना बाकी है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि भारत की कृषि व्यवस्था छोटे किसानों पर आधारित है और गांवों से शहरों की ओर उन का पलायन उन की समृद्धि से जुड़ा है. उन्होंने कहा कि ग्रामीण पलायन की समस्या पर काबू पाने के साथसाथ छोटे किसानों को समृद्ध बनाने के लिए डेयरी एक महत्वपूर्ण विकल्प है.

केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने कहा कि डेयरी क्षेत्र में चक्रीयता और स्थिरता पर ध्यान देने के साथ, ईंधन के उत्पादन के लिए गाय के गोबर का उपयोग किसानों की आय बढ़ाने में काफी मदद करेगा.

उन्होंने आगे कहा कि देश में 53 करोड़ से अधिक के विशाल पशुधन संसाधन में से लगभग 30 करोड़ गाय और भैंसें हैं, इसलिए बड़ी मात्रा में गाय का गोबर उपलब्ध है, जिस का उपयोग जैविक खाद, जैव ईंधन आदि के लिए किया जा सकता है, जिस से उत्पादकता बढ़ेगी और साथ ही किसानों की आय भी बढ़ेगी.

मंत्री राजीव रंजन सिंह ने आगे कहा कि आज सरकार के प्रयासों के कारण डेयरी क्षेत्र काफी हद तक असंगठित से संगठित क्षेत्र में बदल गया है. उन्होंने देश में हरित विकास और किसान कल्याण को बढ़ावा देने के लिए चक्रीय अर्थव्यवस्था प्रथाओं, नवीकरणीय ऊर्जा पहलों और सार्वजनिक निजी भागीदारी के महत्व का भी जिक्र किया.

हितधारकों से बात करते हुए उन्होंने कहा कि पर्यावरण के अनुकूल प्रथाओं को नवाचार के साथ एकीकृत करने से न केवल हरित विकास को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि लाखों किसानों का भला भी होगा.

पशुपालन एवं डेयरी विभाग की सचिव अलका उपाध्याय ने डेयरी क्षेत्र में टिकाऊ प्रथाओं की आवश्यकता और सर्कुलर अर्थव्यवस्था सिद्धांतों को एक करने के सरकार के दृष्टिकोण पर जोर दिया और कहा कि भारत “विश्व की डेयरी” है और डेयरी क्षेत्र, कृषि जीवीए में 30 फीसदी का योगदान देता है. इन टिकाऊ प्रथाओं को लागू करने के लिए एनडीडीबी ने 1,000 करोड़ रुपए के आवंटन के साथ एक नई वित्तपोषण योजना शुरू की है, जिस का उद्देश्य छोटे बायोगैस, बड़े पैमाने के बायोगैस संयंत्रों और संपीड़ित बायोगैस (सीबीजी) परियोजनाओं के लिए लोन सहायता के माध्यम से आर्थिक सहायता प्रदान करना है, जिस से आने वाले 10 सालों में विभिन्न खाद प्रबंधन मौडलों को बढ़ाने में सुविधा होगी.

कार्यशाला के विचारविमर्श के प्रमुख विषयों में सफल चक्रीय अर्थव्यवस्था मौडल, छोटे डेयरी किसानों के लिए कार्बन क्रैडिट के अवसर और टिकाऊ प्रथाओं को बढ़ावा देने में कार्बन ट्रेडिंग की भूमिका शामिल थी. भारत सरकार द्वारा समर्थित और एनडीडीबी के नेतृत्व में डेयरी क्षेत्र ने स्थिरता और चक्रीयता को बढ़ाने के लिए प्रमुख खाद प्रबंधन पहलों की शुरुआत की है.

3 उल्लेखनीय मौडलों में जकारियापुरा मौडल, बनास मौडल और वाराणसी मौडल शामिल हैं, जो दूध के साथसाथ गोबर की एक मूल्यवान वस्तु के रूप में क्षमता को उजागर करते हैं, जो एक अधिक टिकाऊ और चक्रीय डेयरी पारिस्थितिकी तंत्र में योगदान देता है, साथ ही पशुपालकों की आय में वृद्धि का भी काम करता है.

छत्तीसगढ़ बजट 2025-26 : बस्तर के किसान हितों की अनदेखी

छत्तीसगढ़ सरकार के 2025-26 के बजट को हम एक माने में निश्चित रूप से अनूठा कह सकते हैं कि एआई और डिजिटलाइजेशन के युग में यह बजट हाथ से लिखा गया. कुछ नया कर दिखाने के चक्कर में पूर्व तेजतर्रार आईएएस वित्त मंत्री शायद मोदी के डिजिटलाइजेशन के नारे को भूल गए.

पहली नजर में बजट में कई लोकलुभावनी बातें नजर में आती हैं, पर जब हम गहराई से बजट की पड़ताल करते हैं, तो हमें प्रदेश के किसानों के उत्थान और बस्तर के समग्र विकास के लिए कोई ठोस दृष्टिकोण नजर नहीं आता. अकसर बजट आंकड़ों की बाजीगरी और खोखली घोषणाओं के पुलिंदे ही होते हैं, यह बजट भी इस से कुछ ज्यादा अलग हट कर नहीं है. इस बजट की सब से बड़ी विडंबना यह रही कि बस्तर, जो प्रदेश व देश के लिए सब से अधिक प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराता है, उसे एक बार फिर नजरअंदाज कर दिया गया है.

हंसें या रोएं- जैविक खेती के लिए 20 करोड़, प्रमाणीकरण के लिए 24 करोड़

सरकार सालभर जैविक खेती के सैमिनार व वर्कशौप करती है. दिनरात जैविक खेती की बातें होती हैं, पर जब बजट में राशि देने की बात आती है, तो जैविक खेती के साथ कैसा मजाक किया जाता है, उस की बानगी देखिए, इस बजट में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए मात्र 20 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है और जैविक प्रमाणन के लिए 24 करोड़ रुपए देंगे.

प्रदेश के 40 लाख किसानों को जैविक खेती के लिए प्रति किसान सालाना केवल 50 रुपए मात्र. ऐसे में जैविक भारत मिशन-2047: मियोनप (MIONP) और सतत विकास के ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के सस्टेनेबल डेवलपमेंट के ‘SDGs’ के संयुक्त वैश्विक लक्ष्यों को भारत कैसे पूरा कर पाएगा. इस बिंदु को हलके में बिलकुल नहीं लिया जाना चाहिए.

इसी से जुड़ी दूसरी गंभीर बात यह कि सरकार को जैविक खेती करवाने से ज्यादा चिंता जैविक प्रमाणीकरण की है. यह बिलकुल वैसा ही है, जैसे किसी को खेती के लिए 20 रुपए दिए जाएं और उस की फसल की गुणवत्ता जांचने के लिए 24 रुपए.

सचाई यह है कि जैविक प्रमाणीकरण की मौजूदा व्यवस्था किसान हितैषी नहीं, बल्कि पूरी तरह से बिचौलियों और सर्टिफिकेशन एजेंसियों के फायदे के लिए बनी हुई है. किसान जैविक खेती करने में हजारों रुपए लगाता है, लेकिन प्रमाणपत्र हासिल करने में उसे और ज्यादा खर्च करना पड़ता है. फिर भी उसे बाजार में उचित दाम नहीं मिलता. सरकार को यह समझना चाहिए कि जब जैविक खेती को सही तरीके से बढ़ावा ही नहीं दिया गया, तो प्रमाणीकरण करवा कर क्या फायदा?

अगर सरकार वास्तव में जैविक खेती के प्रति गंभीर होती, तो उसे प्रमाणीकरण की तुलना में जैविक खेती के विस्तार और किसानों की सहायता पर ज्यादा फोकस करना चाहिए था. लेकिन यहां फिर वही पुरानी नीति अपनाई गई. किसानों को कम पैसा दो और अफसरों व एजेंसियों को ज्यादा.

ऋण कृत्वा घृतं पिवामि यानी किसानों को कर्ज में डालने की नीति असली समस्या पर ध्यान नहीं

बजट में किसानों के लिए 8,500 करोड़ रुपए के ब्याजमुक्त लोन की घोषणा की गई है. देखने में यह अच्छा लग सकता है, लेकिन असल में यह किसानों की समस्याओं का हल नहीं कर रही,  बल्कि उन्हें एक और कर्ज के जाल में फंसाने की रणनीति है. कर्ज का मकड़जाल किसानों की सब से बड़ी समस्या है.

किसानों की असली समस्या का हल ‘कर्ज’ नहीं, बल्कि उन की उपज का वाजिब दाम न मिलना है. अगर किसान को उस की फसल का सही दाम मिले, तो उसे बारबार कर्ज लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. कर्ज पर ध्यान देने के बजाय सरकार को यह देखना चाहिए कि:
– किसानों को उन की उपज का लाभकारी मूल्य मिले.
– सभी फसलों पर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) सुनिश्चित किया जाए.
– खेत में उत्पादन के उपरांत भी फसल का एक बड़ा हिस्सा 25 से 30 फीसदी तक समुचित भंडारण, प्रसंस्करण, परिवहन, विपणन की कमी और अन्य विभिन्न कारणों से नष्ट हो जाता है, यह राष्ट्रीय क्षति है. इन पोस्ट हार्वेस्ट हानि को नियंत्रित किया जाए.
– कृषि उत्पादों के लिए कृषकोन्मुखी प्रभावी बाजार व्यवस्था विकसित की जाए.

हम आखिर कब समझेंगे कि ब्याज मुक्त लोन देना सिर्फ तात्कालिक राहत है, लेकिन यह किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है. इस से किसान लगातार कर्ज के जाल में फंसते जाते हैं और उन की वित्तीय स्वतंत्रता कभी नहीं आती. समस्या कर्ज की नहीं, बल्कि आय बढ़ाने की है और इस पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.

बस्तर से हर घंटे खनिज की अनवरत लूट, लेकिन बस्तर को कुछ नहीं?

बस्तर सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए खनिजों का सब से बड़ा भंडार है. यहां से रोजाना 24 ट्रेन भर कर सिर्फ लौह अयस्क निकाला जाता है, जो भारत के कई प्रमुख इस्पात संयंत्रों और उद्योगों के लिए जीवनरेखा है. इस के अलावा बौक्साइट, टिन, सोना, मैग्नीज, कोयला और कई अन्य कीमती खनिज भी यहां से निकाले जाते हैं.

लेकिन क्या बस्तर को इन खनिजों से होने वाली कमाई का उचित हिस्सा मिलता है? अगर सिर्फ लौह अयस्क की रौयल्टी का पूरा हिस्सा बस्तर के लोगों को मिल जाए, तो वे अरब के शेखों की तरह और भी अमीर हो सकते हैं. लेकिन सचाई यह है कि खनिजों की लूट हो रही है और इस का लाभ बस्तर को नहीं मिलता है.

बस्तर के विकास के लिए जो थोड़ीबहुत राशि चिड़िया के चुग्गे की तरह ‘डीएमएफ’ के नाम पर मिलती भी है, तो वह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है. यह पैसा कलक्टरों और नेताओं की पौकेटमनी की तरह खर्च होता है और आम जनता तक कुछ नहीं पहुंचता. यह घोर अन्याय है और वर्तमान वित्त मंत्री इस कड़वी सचाई से अच्छी तरह परिचित हैं, क्योंकि वे खुद बस्तर के कलक्टर रह चुके हैं.

बस्तर की अकूत वन संपदा, वनोपज का दोहन, पर बदले में सिर्फ ठेंगा

बस्तर संभाग में लगभग 70 फीसदी क्षेत्र वनों से आच्छादित माना जाता है. सरकारें यहां की बहुमूल्य लकड़ी और तरहतरह के वनोपजों का लगातार दोहन करती रही हैं. कहा जाता है कि वन विभाग के ठीकठाक रेंज के रेंजर साहब की आमदनी जिले के कलक्टर से भी ज्यादा होती है या थी (डीएमएफ फंड के प्रावधान के पूर्व). और यह विभागीय बंदरबांट तो मात्र खुरचन की है, असल मलाई तो सरकार के खाते में जाती है. किंतु इस के बदले में बस्तर को क्या मिलता है, यह भी अपनेआप में सोचने का विषय है.

बस्तर में पर्यटन और रोजगार के अपार अवसरों की अनदेखी

बस्तर पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाओं वाला क्षेत्र है, लेकिन बजट में इकोटूरिज्म और फार्मटूरिज्म के लिए सिर्फ 10 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. इतने कम बजट में कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पर्यटन ढांचा विकसित नहीं किया जा सकता.

हवाई कनैक्टिविटी का संकट : बस्तर से रायपुर के लिए साल 1991 में हवाई सेवा शुरू हुई थी. सरकारों द्वारा बस्तर की अनदेखी के कारण यह कभी नियमित नहीं चल पाई. ‌इस सरकारी उदासीनता और पक्षपात के कारण पिछले 4-5 महीनों से यह सेवा एक बार फिर से बंद पड़ी है.

यह हास्यास्पद है कि जहां देशविदेश में नए एयरपोर्ट बन रहे हैं, वहीं बस्तर संभाग जो कि विश्व के कई देशों से क्षेत्रफल में ज्यादा बड़ा है, इसे प्रदेश की राजधानी रायपुर से जोड़ने वाली एकमात्र हवाई सेवा भी बंद कर दी गई है. अगर यह घोर पक्षपात और अपेक्षा नहीं है तो और क्या है?

अन्य राज्य अपने दुर्गम क्षेत्रों को हवाई सेवा से जोड़ने के लिए शुरुआती फ्लाइट्स में घाटा होने पर कैपिंग के आधार पर हवाई कंपनियों को जरूरी अनुदान दे कर भी नियमित हवाई सेवाएं चलवा रहे हैं, तो बस्तर के लिए यह व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती थी?

दरअसल, राजनीतिक इच्छाशक्ति और विजन का घोर संकट है और बस्तर में यह संकट सब से ज्यादा है. सड़क मार्ग से बस्तर के कोंटा से रायपुर तक की यात्रा आज भी कम से कम 12 घंटे की होती है, जो बाहर इलाज के लिए जाने वाले मरीजों, उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाने वाले छात्रों और बस्तर में नए उद्यम लगाने में रुचि लेने वाले उद्यमियों के लिए बेहद कष्टदायक है. इन के लिए हवाई सेवा एक लग्जरी या विलासिता नहीं, बल्कि अनिवार्य आवश्यकता है.

आदिवासियों के लिए घोषणाएं, हकीकत में कितनी कारगर?

सरकार ने तेंदूपत्ता संग्राहकों को 5,500 रुपए प्रति बोरा भुगतान की घोषणा की है, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि क्या यह राशि वास्तविक संग्राहकों तक पहुंचेगी?

पहले भी ऐसे दावे किए गए थे, लेकिन पैसा बिचौलियों के हाथों में चला जाता था.

‘चरण पादुका योजना’ के लिए 50 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, लेकिन यह सिर्फ एक सांकेतिक योजना बन कर रह जाती है.

हालांकि, ‘भूमिहीन कृषि मजदूर कल्याण योजना’ के तहत 5.65 लाख मजदूरों को सालाना 10,000 रुपए की आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है, जो एक अच्छा कदम कहा जा सकता है. यदि यह राशि सीधे मजदूरों के खातों में पारदर्शी तरीके से पहुंचती है, तो इस से काफी राहत मिलेगी.

कृषि व वनोपज आधारित उद्योगों के लिए कोई ठोस नीति और क्रियान्वयन का रोड मैप नहीं

छत्तीसगढ़ में खाद्य प्रसंस्करण और कृषि व वनोपजों पर आधारित उद्योगों की अपार संभावनाएं हैं. लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस व्यावहारिक नीति नहीं है.

डेयरी समग्र विकास परियोजना के लिए मात्र 50 करोड़ रुपए रखे गए हैं, जो ऊंट के मुंह में जीरा है. मत्स्यपालन, पोल्ट्री, बकरीपालन के लिए मात्र 200 करोड़ रुपए का प्रावधान है, जब कि ये क्षेत्र ग्रामीण अर्थव्यवस्था को काफी मजबूत कर सकते हैं.

यह भी उल्लेखनीय है कि बस्तर में काजू, कौफी और मसालों की खेती के अलावा जड़ीबूटियों की खेती और प्रसंस्करण की जबरदस्त संभावनाएं हैं, लेकिन इस बजट में इन के लिए कोई विशेष प्रोत्साहन नहीं दिया गया. यदि सरकार इस क्षेत्र में ठोस नीतियां बनाती, तो बस्तर का आर्थिक परिदृश्य बदल सकता था.

अंत में यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान वित्त मंत्री ओपी चौधरी पूर्व में बस्तर के संवेदनशील लोकप्रिय कलक्टर रह चुके हैं. उन्हें इस क्षेत्र की चुनौतियों की गहरी समझ थी और उम्मीद थी कि उन के वित्त मंत्री के कार्यकाल में बस्तर को अधिक प्राथमिकता मिलेगी. लेकिन चाहे वजह जो भी हो, पर हुआ एकदम उलटा. मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री ने अपनेअपने क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान दिया, जब कि बस्तर के लिए बहुत कम ध्यान दिया गया. गजब है कि हमारी लगभग सभी समस्याओं की जड़ में राजनीति है और सभी समस्याओं का समाधान भी राजनीति में ही निहित है. इस राजनीति की माया भी अजब है, जहां राजनीति के हमाम में उतरते ही सब नंगे हो जाते हैं.

(लेखक ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ और राष्ट्रीय संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ ‘आईफा’)

खेती में पशुपालन फायदेमंद, गौ संरक्षण भी जरूरी

उदयपुर : रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जमीन की सेहत और पौलीथिन व अन्य डिस्पोजेबल के इस्तेमाल से गायों की सेहत इतनी बिगड़ चुकी है कि वह एक दिन स्वच्छ दूध देना भी बंद कर देंगी. ये बात स्कूल शिक्षा एवं पंचायती राज मंत्री मदन दिलावर ने कही.

मंत्री मदन दिलावर राजस्थान कृषि महाविद्यालय के नूतन सभागार में ’कृषि दक्षता और पशु कल्याण को सुदृढ़ बनाने की दिशा में सटीक पशुधन प्रबंधन तकनीक’ विषयक तीनदिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में बतौर मुख्य अतिथि संबोधित कर रहे थे.

सम्मेलन में देशभर के 29 प्रांतों के लगभग 400 वैज्ञानिक, पशुधन के जानकार व किसानों ने भाग लिया. उन्होंने गिर, साहीवाल, थारपारकर गायों का जिक्र करते हुए कहा कि जिन का कंधा ऊंचा हो, सही मायने में उन्हीं गायों का दूध लाभप्रद है.

उन्होंने विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि वे इस रणनीति पर काम करें कि हमारी पारंपरिक देसी गायों का संरक्षण किया जा सके. पुराने समय से हमारे पूर्वजों ने खेती करना शुरू किया होगा तो कितने संकट आए होंगे. खुदाई कर मिट्टी तैयार करना, खेत का आकार देना. तब खेती में बैलों का ही इस्तेमाल होता था. हल के माध्यम से खेतीकिसानी का काम होता था. आज के तकनीकी दौर में मशीनीकरण का बोलबाला है. हमें बैलों की महत्ता को भी नहीं भूलना चाहिए.

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने बताया कि उन के दो वर्ष तीन माह के कार्यकाल में एमपीयूएटी ने 44 पेटेंट हासिल किए. इस तरह कुल 55 पेटेंट विश्वविद्यालय के नाम हैं.

उन्होंने विश्वविद्यालय के पशुधन वैज्ञानिकों आह्वान किया कि मंत्री मदन दिलावर की मंशा के अनुसार अपनी गायों की ब्रीड को संरक्षित करने की दिशा में सारगर्भित शोध करने की जरूरत है. देश को ऐसी कृषि प्रणाली की जरूरत है, जो न केवल पशु हितैषी हो, बल्कि वातावरण और पर्यावरण को बचाने वाली भी हो. 21वीं पशुगणना के परिणाम भी इस में मददगार साबित होंगे.

विशिष्ट अतिथि अमूल आणंद (गुजरात) के महाप्रबंधक डा. अमित व्यास ने कहा कि विश्व में 240 मीट्रिक टन दूध उत्पादन में हमारे देश की भागीदारी 23 फीसदी है. देश में सर्वाधिक दूध उत्पादन में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा स्थान राजस्थान का है.

डा. अमित व्यास ने कहा कि गाय का दूध कैसे बढ़े और खर्च कम कैसे हो. इस पर अमूल बड़े पैमाने पर काम कर रहा है और सफलता भी मिली है. अमूल प्रतिष्ठान में 400 पशु चिकित्सकों की टीम में नित्य गायों की देखभाल में लगी है और लक्षण दिखाई देते ही इलाज आरंभ कर दिया जाता है. खास बात यह है कि आयुर्वेदिक व होमियोपैथिक दवाओं से गायों का इलाज किया जा रहा है. ऐसी तकनीक किसानों तक भी पहुंचनी चाहिए. साथ ही, अमूल बायोगैस, गायों की खुराक, कृत्रिम गर्माधान, ड्रोन तकनीक पर भी लगातार काम कर रहा है.

कार्यक्रम में राज्यसभा चुन्नी लाल गरासिया, एमबीएस विश्वविद्यालय जोधपुर के कुलपति डा. अजय शर्मा, भारतीय पशु उत्पादन एवं प्रबंधन सोसायटी सरदार कृषि नगर दांतीवाड़ा (गुजरात) के अध्यक्ष डा. एपी चौधरी ने भी संबोधित किया.

आयोजन सचिव सिद्धार्थ मिश्रा ने बताया कि राजस्थान कृषि महाविद्यालय के पशु उत्पादन विभाग और भारतीय पशु उत्पादन एवं प्रबंधन सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित तीनदिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में कुल 7 तकनीकी सत्रों में वैज्ञानिकों ने उपरोक्त विषय पर गहन मंथन किया. आरंभ में सम्मेलन समन्वयक डा. जेएल चौधरी ने स्वागत भाषण दिया. संचालन डा. गायत्री तिवारी ने किया.

लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड व सम्मान

समारोह में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड तमिलनाडु के डा. त्यागराज शिवकुमार को दिया गया, जबकि पशु उत्पादन के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने पर डा. बालूस्वामी (तमिलनाडु), डा. बीएस खद्दा (मोहली), डा. बी. सतीशचंद्र (कर्नाटक), डा. बी. रमेश (तमिलनाडु) को शील्ड व सम्मानपत्र दे कर सम्मानित किया गया. साथ ही, इफको के प्रबंधक सुधीर मान व शिक्षा मंत्री के विशेषाधिकारी डा. सुनील दाधीच को भी स्मृति चिन्ह दे कर सम्मानित किया गया.

गाय का दूध पिलाओ – बच्चा चंचल व तेज दिमाग का होगा
‘पाडा तो पाडा ही रहेगा’

शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने कहा कि गाय का दूध पीने वाला बच्चा सदैव चंचल, तेज दिमाग वाला होता है, जबकि भैंस का दूध पीने वाला बच्चा ऊंगणिया (आलसी) होता है. गाय के बछड़े को छोड़ते ही वह उछलताकूदता सीधे अपनी मां के पास पंहुच जाता है.

उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि गाय का बछड़ा थोड़ा बड़ा होने पर केरड़ा, नारकिया और अंत में बैल बनता है, जबकि भैंस का बच्चा जन्म से अंत तक पाडा ही रहता है.

कृषि दक्षता व पशु कल्याण विषयक राष्ट्रीय सम्मेलन में मंत्री मदन दिलावर ने स्पष्ट किया कि हर पशु का अपना महत्व है. यदि चेतक घोड़ा नहीं होता तो महाराणा प्रताप का नाम इतना आगे नहीं होता.

उन्होंने आगे कहा कि ऊंट को राज्य पशु का दर्जा दिया गया है. यह प्रजाति भी विलुप्त होने के कगार पर है. वैज्ञानिकों को इसे बचाने के उपाय ईजाद करने होंगे. सीमा सुरक्षा मामले में भी ऊंट की अपनी अहमियत है. ‘रेगिस्तान के जहाज’ के नाम से परिचित ऊंट बीएसएफ के लिए वरदान है, जो बिना पानी पीए 8-10 दिन निकाल लेता है. लेकिन गाय की अपनी विशेष महत्ता है. गाय का गोबर व मूत्र से कई बीमारियां स्वतः भाग जाती हैं. कोई भी पवित्र कार्य करने से पूर्व गोबर से लिपाई का चलन है, ताकि शुद्धता बरकरार रहे.

उन्होंने यह भी कहा कि राजस्थान में कितना भी संकट आए, यहां का किसान आत्महत्या नहीं करता है. अकेली गाय ही अपने दूध से किसान का पेट भर सकती है. हमें दूध, पनीर, मिठाई, चाय तो भाती है, लेकिन गाय नहीं सुहाती. इसलिए हम ने उसे निकाल दिया और वह सड़कों पर, खेतों में या फिर बूचड़खाने ही उन के लिए बचे हैं.

गरीबों का भोजन अब अमीरों की थाली में

उदयपुर : 28 फरवरी, 2025 को ‘खाद्य एवं पोषण सुरक्षा व पौष्टिक अनाज’ विषय पर आयोजित एकदिवसीय कार्यशाला में महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी) के अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा ने कहा कि आजादी के समय हमारे देश की आबादी 33 करोड़ थी और पेट भरने के लिए केवल मोटे अनाज जैसे कांगणी, रागी, सांवा, कुटकी, बाजरा, ज्वार आदि ही थे. विगत 70 सालों में भारत की आबादी 150 करोड़ पंहुच गई है. तब अनाज की कमी को पूरा करने के लिए विदेशों से गेहूंधान मंगाना पड़ा था. आज कृषि वैज्ञानिकों की मेहनत के बल पर अनाज के भंडार भरे हुए हैं. खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भर है.

इस कार्यशाला में गिर्वा, कुराबड़, सायरा, गोगुंदा व कोटड़ा के 100 किसानों ने भाग लिया. डा. अरविंद वर्मा ने कहा कि एक किलो धान पैदा करने में 3,500 लिटर पानी खर्च होता है, जबकि मोटे अनाज, जिन्हें ‘श्री अन्न’ के नाम से पुकारा जाता है, एक या दो पिलाई में ही पक जाते हैं.

उन्होंने किसानों को शपथ दिलाई कि गेहूंमक्का करें, लेकिन कम से कम 20 फीसदी भूमि पर मोटे अनाज की बोआई जरूर करें. मोटा अनाज कभी गरीबों का भोजन था, लेकिन अब इसे अमीर लोगों का भोजन माना जाता है.

कीट विज्ञानी डा. आर. स्वामीनाथन ने बताया कि मोटे अनाज वाली फसलों में कीड़ाबीमारी नहीं के बराबर आती है. फिर भी मोटे अनाज की फसलों के आसपास हजारे के फूल के पौधे लगा देने मात्र से मित्र कीटों की भरमार रहेगी, जो शत्रु कीट का खात्मा कर देंगे.

आनुवंशिकी विभागाध्यक्ष डा. हेमलता शर्मा ने ‘श्री अन्न’ यानी मोटा अनाज को खाद्य, पोषण, स्वास्थ्य, पर्यावरण और गृह सुरक्षा में कारगर बताया और कहा कि मोटा अनाज प्रयोग में लाने से हम कई प्रकार की बीमारियों से बच सकते हैं. उन्होंने मोटे अनाज को खेतों में उगाने की विधि और बीज की उपलब्धता के बारे में बताया. मोटा अनाज पर कड़क छिलका होता है, जिसे हुलर (चक्की) से हटा कर हम रोटी, इडली, हलवा आदि कई चीजें बना सकते हैं.

उन्होंने किसानों से कहा कि पोषक तत्वों से भरपूर बाजरा कोई भी बाजार से न खरीदे. एमपीयूएटी की ओर से कार्यशाला के संभागी किसानों को बाजारा व अन्य ‘श्री अन्न’ के बीज सुलभ कराए जाएंगे. इस मौके पर ‘श्री अन्न’ की लाइव स्टाल भी लगाई गई, ताकि किसान मोटे अनाज को बारीकी से समझ सकें.

इस कार्यशाला में पूर्व संयुक्त निदेशक, कृषि, बंसत कुमार धूपिया ने कहा कि सब से पहले खेत की सेहत सुधारी जानी चाहिए. रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशियों का सीमित मात्रा में प्रयोग करने की सीख दी.

होम साइंस कालेज में खाद्य एवं पोषण विभाग सहप्राध्यापक डा. विशाखा सिंह ने मोटे अनाज की कटाई के बाद उन से बनने वाले विभिन्न व्यंजनों जैसे केक, बिसकुट, कुकीज, ब्रेड आदि के बारे में बताया.

आरंभ में संयुक्त निदेशक सुधीर कुमार वर्मा, सहायक निदेशक श्याम लाल सालवी, डा. डीपी सिंह, रामेश्वर लाल सालवी, हरीश टांक आदि ने भी अपने विचार रखे. कार्यक्रम का संचालन महेश व्यास ने किया.

कृषि क्षेत्र में हैं अपार रोजगार

उदयपुर :  देश के सुदूर गांवोंकसबों में बसे लोगों तक विभिन्न विषयों की जानकारी मुहैया कराने का रेडियोटैलीविजन एक सशक्त माध्यम है. ‘कृषि में संकट और तनाव’ विषयक कार्यक्रमों की अवधारणा और डिजाइन तैयार करने और प्रसारण के लिए एकदिवसीय कार्यशाला पिछले दिनों 27 फरवरी को हुई. कार्यशाला में 12 राज्यों के आकाशवाणी और दूरदर्शन में कार्यरत 30 अधिकारियों ने हिस्सा लिया.

उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि कुलपति डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि कृषि क्षेत्र लंबे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहा है, जो राष्ट्रीय आय और रोजगार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. भारतीय कृषि की यात्रा 1950 में मात्र 50 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन के साथ शुरू हुई, तब से हम ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

साल 2023-24 के दौरान 137.8 मिलियन टन चावल और 113.3 मिलियन टन गेहूं का रिकौर्डतोड़ उत्पादन किया. इस से निकट भविष्य में हमारी खाद्य सुरक्षा तो मजबूत हुई, लेकिन बढ़ती हुई आबादी के मद्देनजर प्राकृतिक संसाधनों की कमी और जलवायु परिवर्तन के चलते कृषि के विकास को बनाए रखना होगा.

उन्होंने आगे कहा कि पिछले कुछ दशकों में विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों ने अर्थव्यवस्था की वृद्धि में तेजी से योगदान दिया है, जबकि कृषि क्षेत्र का योगदान कम हुआ है. भारत में अभूतपूर्व कृषि संकट काफी समय से किसानों को प्रभावित कर रहा है. इन के पीछे के कारणों पर विचार करना होगा.

हाल के वर्षों में चरम जलवायु घटनाओं के साथसाथ बाजार और मूल्य में उतारचढ़ाव के चलते किसानों को कई बार आत्महत्या तक के लिए मजबूर होना पड़ा है. सच तो यह है कि हम कहीं न कहीं अपने किसानों के आर्थिक सशक्तीकरण और कल्याण के एजेंडा से चूक गए हैं.

उन्होंने यह भी कहा कि कृषि बाजार, कोल्ड स्टोरेज, गोदाम और कृषि प्रसंस्करण सहित कृषि बुनियादी ढांचे का विकास कृषि उत्पादन में वृद्धि के अनुरूप गति से नहीं हुआ है. भारत में कृषि संकट को कम करने के लिए किसानों की आय बढ़ाने के लिए नीतियां बनानी होंगी. रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे. डिजिटल कृषि मिशन, सतत कृषि मिशन, प्राकृतिक खेती पर राष्ट्रीय मिशन, बीज और रोपण सामग्री पर उपमिशन की आवश्यकता है.

डा. अजीत कुमार कर्नाटक ने कहा कि आकाशवाणी और दूरदर्शन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के अग्रदूत हैं. इन में ग्रामीण लोगों की मानसिकता को ऊपर उठाने की क्षमता है. डीडी किसान दूरदर्शन का प्रमुख चैनल है.

प्रसार भारती की अतिरिक्त महानिदेशक अनुराधा अग्रवाल ने कहा कि पर्याप्त प्रचारप्रसार की कमी में किसान सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हैं. प्रसार भारती व इस से जुड़े अधिकारियों की जिम्मेदारी है कि ऐसी योजनाओं को उन लोगों तक पहुंचाए. कृषि संबंधी प्रसारण से युवा व महिलाओं का ज्ञानवर्द्धन होगा और वे कृषि से जुड़ेंगे. हर क्षेत्र की जलवायु अलगअलग है. वहां के इको सिस्टम को समझ कर कार्यक्रम तैयार करें, ताकि योजनाओं का समग्र लाभ उन्हें मिल सके. उन्होंने कहा कि किसान खुश नहीं है. परेशान हो कर वह अन्न पैदा कर रहा है, जो कभी भी किसी के अंग नही लगेगा.

अटारी, जोधपुर के निदेशक डा. जेपी मिश्रा ने कहा कि देश में वर्तमान में 731 कृषि विज्ञान केंद्र  कार्यरत हैं. रेडियो व दूरदर्शन पर भी किसान हित के अनेकों कार्यक्रम प्रसारित होते हैं, लेकिन किसान किनकिन समस्याओं का सामना कर रहा है, इस का खयाल किसी को नहीं है. कम जोत के कारण किसान बेबस है. आज वह उत्पादन, कीमतों, आय और रोजगार के चक्रव्यूह में फंस कर रह गया है.

एनएबीएम, नई दिल्ली के पाठ्यक्रम निदेशक डा. उमाशंकर सिंह ने कहा कि आकाशवाणी व दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम तार्किक हों, शोधपरक हों, ताकि जो ज्ञान किसानों तक पहुंचे, उस का पूर्ण लाभ मिल सके. जिला स्तर पर तैनात कृषि विभाग के अधिकारियों को भी अपडेट करना होगा, ताकि नवीनतम तकनीकयुक्त ज्ञान का प्रसारण हो.

इस कार्यक्रम में वरिष्ठ अधिकारी परिषद के सदस्य डा. अरविंद वर्मा, डा. आरबी दुबे, डा. सुनील जोशी, डा. वी. नेपालिया, डा. एसके इंटोदिया एवं डा. राजीव बैराठी मौजूद रहे.

Mung Bean : ग्रीष्मकालीन मूंग की उन्नत खेती

Mung Bean  : दलहनी फसलों में मूंग का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है. इस में 24 फीसदी प्रोटीन के साथसाथ रेशा एवं लौह तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. आज जल्दी पकने वाली किस्मों एवं उच्च तापमान को सहन करने वाली प्रजातियों की उपलब्धता के कारण यह फायदेमंद सिद्ध हो रही है.

वर्तमान में सघन खेती, अंधाधुंध कीटनाशियों एवं असंतुलित खादों के इस्तेमाल से जमीनों की उर्वराशक्ति घट रही है. साथ ही, सभी फसलों की उत्पादकता में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है.

इस स्थिति से निबटने के लिए हरी खादों व दलहनी फसलों को अपनाएं और अपनी जमीनों की उर्वराशक्ति को बरकरार रखने व देश की बढ़ती हुई खाद्यान्न समस्याओं से निबटने में अपना भरपूर योगदान दें.

ग्रीष्मकालीन मूंग (Mung Bean) उगाने के फायदे

* अतिरिक्त आय

* कम समय के कारण धान व गेहूं फसल चक्र में उपयोगी

* खाली पड़े खेतों का सही उपयोग

* भूमि की उपजाऊ शक्ति में सुधार

* उगाने में कम खर्च

* पानी का सदुपयोग

* बीमारी व कीटों का कम प्रकोप

* भूमि कटाव से बचाव

* दलहन उत्पादन में वृद्धि

* विदेशी पैसों की बचत

उन्नत किस्में : मूंग की बिजाई के लिए के-851 (70-75 दिन) मुसकान (65 दिन), एसएमएल-668 (60-65 दिन), एमएच-421 (60 दिन) व नई किस्म एमएच-1142 (63-70 दिन) की खेती की जा सकती है जो धान व गेहूं चक्र के लिए बहुपयोगी पाई गई है.

भूमि : अच्छी मूंग की फसल लेने के लिए दोमट या रेतली दोमट भूमि सही रहती है. समय पर बिजाई वाले गेहूं से खाली खेतों में ग्रीष्मकालीन मूंग ली जा सकती है.

इस के अलावा धानगेहूं उगाने वाले क्षेत्रों में आलू, गन्ना व सरसों से खाली खेतों में भी मूंग की खेती की जा सकती है.

भूमि की तैयारी : गेहूं की कटाई के एक सप्ताह पहले रौनी/पलेवा करें और गेहूं की कटाई के तुरंत बाद 2-3 जुताई कर के खेत को अच्छी तरह तैयार करें.

इस बात का खास खयाल रखें कि खेत में बिजाई के समय समुचित नमी हो, ताकि समुचित जमाव हो सके.

बिजाई का सही समय : इस मौसम में वैसे तो मूंग की बिजाई फरवरी के दूसरे सप्ताह से मार्च तक की जाती है, लेकिन धानगेहूं बहुमूल्य क्षेत्रों में गेहूं की कटाई यदि 15 अप्रैल तक भी हो जाती है, तो इस के बाद भी मूंग की अच्छी पैदावार ली जा सकती है, क्योंकि ये किस्में 55-65 दिन में ही पक कर तैयार हो जाती हैं.

बीजोपचार : मृदाजनित रोगों से फसल को बचाने के लिए बोए जाने वाले बीजों को कैप्टान, थिरम या बाविस्टिन 3-4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से सुखा कर बीज तैयार करें.

दलहनी फसलें में राइजोबयिम (जीवाणु टीके) से बीज उपचार करने से बनने वाली गांठें अधिक मजबूत होती हैं, जो वायुमंडल में उपलब्ध नाइट्रोजन ले कर भूमि में जमा करती हैं. जीवाणु टीके से उपचार हेतु 50 ग्राम गुड़ को लगभग 250 मिलीलिटर पानी में घोल बना लें और छाया में पक्के फर्श पर बीज फैला कर हाथों से मिला दें, ताकि सभी बीजों पर गुड़ चिपक जाए.

बाद में इन बीजों पर जीवाणु टीके का पैकेट व घोल को गुड़ लगे बीजों पर डालें और हाथ से मिलाएं, जिस से सभी दानों पर कल्चर लग जाए. बीजों को छाया में सुखा कर बिजाई के काम में लाएं.

बीज की मात्रा : गरमी के मौसम में पौधों की बढ़वार पहले के मुकाबले कम हो जाती है, इसलिए अच्छी पैदावार लेने के लिए बीज अधिक डालें और फासला भी कम रखें.

पौधों की उचित संख्या के लिए बीज की मात्रा तकरीबन 10-12 किलो बीज प्रति एकड़ का प्रयोग करें.

खादों का प्रयोग : दलहनी फसलों को खाद की कम जरूरत होती है. बिजाई के समय तकरीबन 6-8 किलोग्राम शुद्ध नाइट्रोजन व 16 किलोग्राम फास्फोरस की जरूरत होती है जिसे 12-15 किलोग्राम यूरिया व 100 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट से पूरा किया जा सकता है.

अच्छी पैदावार लेने के लिए 10 किलो जिंक सल्फेट प्रति एकड़ का प्रयोग जरूर करें.

छंटाई : बिजाई के लगभग 2 सप्ताह बाद जब पौधे व्यवस्थित हो जाएं, तब पौधे से पौधे का फासला 8-10 सैंटीमीटर रख कर फालतू पौधे निकाल देने चाहिए. पौधों की सही बढ़वार के लिए छंटाई करना बहुत जरूरी है, ताकि हर एक पौधे को उचित हवा, नमी, सूर्य की रोशनी व पोषक तत्त्व पूरी मात्रा में मिल सकें.

मूंग (Mung Bean)

खरपतवार नियंत्रण : खरपतवार फसल के दुश्मन हैं, क्योंकि यह जमीन से नमी का शोषण करते है और फसल की बढ़वार में  बाधक साबित होते हैं. इसलिए पहली सिंचाई के बाद चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार उग आते हैं, जिन्हें कसोले से निकाल देना चाहिए.

पैंडीमेथिलीन नामक खरपतवारनाशी 1.25 किलोग्राम को 200 लिटर पानी में घोल बना कर बिजाई के तुरंत बाद छिड़काव करने से खरपतवारों पर काबू पाया जा सकता है.

सिंचाई : ग्रीष्मकालीन मूंग में सिर्फ 2 सिंचाई काफी रहती है. फसल में पहली सिंचाई 20-25 दिन बाद की जाती है, जबकि दूसरी सिंचाई 15-20 दिन के बाद करनी चाहिए.

ज्यादा सिंचाई करने से पौधों की बढ़वार अत्यधिक हो जाती है और फलियां कम लगती हैं और एकसाथ भी नहीं पकती.

कीड़े व बीमारी

ग्रीष्मकालीन मूंग में खरीफ मूंग की तुलना में कीड़ों का प्रकोप कम होता है. कभीकभार बालों वाली सुंडी, पत्ती छेदक, फली छेदक, हरा तेला व सफेद मक्खी आदि कीड़ों का प्रकोप देखने में आता है.

बालों वाली सुंडी की रोकथाम के लिए 200 मिली मोनोक्रोटोफास 36 एसएल या 500 मिली क्विनालफास का 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

हरा तेला व सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए 400 मिली मैलाथियान या 250 से 300 मिली रोगोर या मेटासिस्टोक्स का प्रयोग 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

बीमारी

ज्यादातर ग्रीष्मकालीन मूंग में बीमारियों का प्रकोप नहीं होता. कभीकभार पत्ती धब्बा रोग व पीला मौजेक रोग का प्रकोप देखने में आता है.

पत्ती धब्बा रोग : पत्तियों पर कोणदार व भूरे लाल रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो बीच में धूसर या भूरे रंग के और सिरों पर लालजामुनी रंग के होते हैं.

इन धब्बों को रोकने के लिए ब्लिटौक्स-50 या इंडोफिल एम-45 की 600-800 ग्राम दवा की मात्रा 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

पीला मौजेक रोग : मूंग में लगने वाला यह एक भयानक रोग है और इस रोग को सफेद मक्खी फैलाती है. इस रोग से प्रभावित पौधों के पत्ते दूर से ही पीले नजर आने शुरू हो जाते हैं. रोग अधिक फैलने से पूरा पौधा पीला पड़ जाता है.

इस रोग को रोकने के लिए जब भी खेत में पीले पौधे दिखाई पड़ें, तो उन्हें तुरंत उखाड़ देना चाहिए, क्योंकि यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है, इसलिए समयसमय पर इस के नियंत्रण के लिए रोगोर या मेटासिस्टोक्स कीटनाशी का 200 से 350 मिलीलिटर दवा का छिड़काव 100 से 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव कर देना चाहिए.

उपज व कटाई

ग्रीष्मकालीन मूंग में बिजाई के लगभग 50-55 दिन बाद फलियां पकनी शुरू हो जाती है. पकने पर फलियों का रंग गहरा भूरा हो जाता है. एक एकड़ से तकरीबन 4 से 6 क्विंटल पैदावार मिल जाती है.

Micro-Irrigation : ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ माइक्रोइरीगेशन योजना

Micro-Irrigation : आजकल किसानों के सामने खेती में सिंचाई एक बड़ी समस्या है. दिनोंदिन पानी का लैवल नीचे पहुंचता जा रहा है. ऐसे समय में हमें खेती में कम पानी से सिंचाई हो, ऐसी तकनीक की दरकार है. इसी संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा सिंचाई के लिए माइक्रोइरीगेशन (Micro-Irrigation) योजना ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ के नाम से योजना चलाई जा रही है. राष्ट्रीय कृषि विकास योजना भी इस योजना के अंतर्गत ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी तरीके से अनेक फसलों में अपनाने पर जोर दे रहा है. इस सिंचाई पद्धति से 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत की जा सकती है.

हमारे देश में किसानों के विकास के लिए सरकार द्वारा अनेक कृषि योजनाएं चलाई जा रही हैं. चाहे बात खेत की बोआई की हो या खेत की सिंचाई की हो, फसल की निराईगुड़ाई की हो, फसल की छंटाई की हो, उस की गहाई की हो या खेत तैयार करने की हो, इन सब के बावजूद खेती के अनेक काम होते हैं, जिस के लिए अनेक आधुनिक तकनीकी पर आधारित कृषि यंत्र हैं, जिन के इस्तेमाल से न केवल फसल से अच्छी उपज मिलती है, बल्कि समय और मेहनत भी कम लगती है.

आजकल किसानों के सामने खादबीज के अलावा सिंचाई भी एक बड़ी समस्या है. दिनोंदिन पानी का लैवल नीचे पहुंचता जा रहा है. ऐसे समय में हमें खेती में कम पानी से सिंचाई हो, ऐसी तकनीकों की दरकार है.

इसी संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा सिंचाई के लिए माइक्रोइरीगेशन योजना ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ के नाम से योजना चलाई जा रही है. इसे सूक्ष्म सिंचाई तकनीक भी कहा जाता है.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना भी इस योजना के अंतर्गत ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी तरीके से अनेक फसलों में अपनाने पर जोर दे रहा है. इस सिंचाई पद्धति से 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत की जा सकती है और 35 से 40 फीसदी तक अधिक पैदावार भी हासिल की जा सकती है.

यूपीएमआईपी पोर्टल से करें रजिस्टर

वर्तमान में इस योजना का संचालन यूपीएमआईपी पोर्टल के जरीए किया जा रहा है. जो किसान इस योजना का लाभ लेना चाहता है, वह  पोर्टल पर रजिस्टर कर सूक्ष्म सिंचाई पद्धति लगा सकते हैं.

योजना प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए लाभार्थी किसानों के प्रक्षेत्रों (खेत) पर लगाई गई इस यूनिट का इंस्पैक्शन (जांच) थर्ड पार्टी द्वारा किया जाता है, जिस से सिंचाई यूनिट का बीमा भी किया जा सके.

ड्रिप सिंचाई पद्धति के लिए चुनी गईं फसलें

बागबानी फसल : फल उद्यान (फलों के बाग) : आम, अमरूद, आंवला, नीबू, बेल, बेर, अनार, अंगूर, आड़ू, लोकाट, आलूबुखारा, नाशपाती, पपीता, केला आदि.

सब्जी फसल : टमाटर, बैंगन, भिंडी, मिर्च, शिमला मिर्च, गोभीवर्गीय एवं कद्दूवर्गीय सब्जियां.

फूल और औषधीय फसल : खुशबूदार और औषधीय फसलों में अनेक तरह के फूलों की खेती जैसे ग्लैडियोलस, गुलाब, रजनीगंधा, सगंध पौधे और अनेक औषधीय फसलें आती हैं. इन फसलों के अलावा आलू, गन्ना और अनेक कृषि फसलें भी हैं, जो इस ड्रिप सिंचाई की योजना के अंतर्गत आती हैं.

स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति

इस में मुख्य रूप से मटर, आलू, गाजर, पत्तेदार सब्जियां और कृषि फसलों में माइक्रो, मिनी, पोर्टेबल, सैमी, परमानैंट एवं रेनगन स्प्रिंकलर का इस्तेमाल होता है.

सिंचाई यंत्र पर सब्सिडी का पैमाना

माइक्रोइरीगेशन योजना के तहत किसान को इस योजना का लाभ उस की श्रेणी के अनुसार मिलता है. इस के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार अपनेअपने हिस्से की सब्सिडी किसान को देती है. शेष राशि जो लाभार्थी को उठानी होती है, वह काफी कम होती है. विस्तार से सारणी में जानकारी दी गई है.

Oilseed Production : कैसे बढ़ेगा तिलहन उत्पादन

Oilseed Production :  पिछले दिनों 24 फरवरी,2025 को राष्ट्रीय खाद्य तेल-तिलहन मिशन नेशनल मिशन औन एडिबल औयल (एनएमइओ) योजानान्तर्गत दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया. इस कार्यशाला में खेरवाड़ा, मावली, झाड़ोल, फलासिया और नयागांव पंचायत समितियों के चयनित 100 किसानों ने भाग लिया.

महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (एमपीयूएटी) के निदेशक अनुसंधान के नवीन सभाकक्ष में आयोजित कार्यशाला में किसानों को तिलहन उत्पादन बढ़ाने और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता संबंधी महत्वपूर्ण गुण सिखाए गए.

एमपीयूएटी के पादप रोग वैज्ञानिक डा. आरएस रत्नू ने तेल वाली फसलों यथा तिल, मूगंफली, सोयाबीन, अरण्डी, सूरजमुखी, सरसों, अलसी, कुसुम आदि में लगने वाली बीमारियों और उन के निदान के बारे में बताया, ताकि तिलहन की खेती करने वाले किसान समय रहते नुकसान से बच सकें.

कीट वैज्ञानिक डा. आर स्वामिनाथन ने तिलहन फसलों में लगने वाले प्रमुख कीट और उन का निदान, मित्र कीट की पहचान और उस का महत्व, फसल चक्र अपनाने के फायदे आदि के बारे में विस्तारपूर्वक बताया. पादप व अनुवांशिकी विभाग के डा. पीबी सिंह, अनुसंधान निदेशक डा. अरविंद वर्मा और डा. अभय दशोरा ने मूगंफली की उन्नत किस्मों व खरपतार नियंत्रण आदि की जानकारी दी.

आरंभ में संयुक्त निदेशक कृषि जिला उदयुपर सुधीर कुमार वर्मा ने कार्यशाला के लक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए बताया कि तिलहन उत्पादन मिशन के अंतर्गत 2030-31 तक केंद्र ने 10 हजार 800 करोड़ रूपए की मंजूरी दी है. इस में 20 फीसदी राशि राज्य सरकार वहन करेगी.

Agricultural Science Fair : आईएआरआई में ‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’

Agricultural Science Fair : ‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’ दिनांक 24 फरवरी, 2025 को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ. यह तीन दिवसीय आयोजन कृषि नवाचार, सतत विकास, और प्रौद्योगिकी संचालित समाधानों को किसानों तक पहुंचाने के लिए किया गया था.

पूसा कृषि विज्ञान मेले (Agricultural Science Fair) के समापन दिवस पर किसानों, कृषि वैज्ञानिकों, उद्योग जगत के नेताओं और नीति निर्माताओं की भारी भागीदारी देखी गई. एक लाख से अधिक किसानों ने इस मेले में सक्रिय रूप से भाग लिया और 300 नवीनतम कृषि तकनीकों का अवलोकन किया, जो फसल  उत्पादकता बढ़ाने और स्थाई कृषि को बढ़ावा देने के लिए विकसित की गई हैं.

इस मेले में दिन की प्रमुख गतिविधियों में युवा और महिला उद्यमिता विकास पर तकनीकी सत्र शामिल था, जिस की अध्यक्षता डा. एके सिंह, पूर्व निदेशक, आईसीएआर-आईएआरआई (ICAR-IARI), ने की और इस की सह-अध्यक्ष डा. अनुपमा सिंह, डीन एवं संयुक्त निदेशक, आईएआरआई,रहीं.

इस सत्र के मुख्य अतिथि डा. वीवी सदामाते, योजना आयोग के पूर्व सलाहकार थे. सत्र में प्रमुख विषयों जैसे कि वर्टिकल फार्मिंग, हाइड्रोपोनिक्स, संरक्षित खेती, पुष्प कृषि आधारित उद्यमों और मशरूम उत्पादन पर चर्चा की गई. इस दौरान युवा और महिला किसानों को कृषि उद्यमिता को अपनाने के लिए प्रेरित करने के महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए.

इस के अतिरिक्त, नवाचारशील किसानों की बैठक (इनोवेटिव फार्मर्स मीटिंग) का आयोजन किया गया, जिस में प्रगतिशील किसानों को अपने सफलता के अनुभव और उन्नत तकनीकों को साझा करने का अवसर मिला. इस सत्र की अध्यक्षता डा. राजबीर सिंह, डीडीजी, आईसीएआर ने की, जब कि डा. जेपी शर्मा, पूर्व कुलपति, एसकेयूएएसटी, जम्मू, मुख्य अतिथि रहे. इस अवसर पर उत्कृष्ट किसानों और शोधकर्ताओं को उन के योगदान के लिए सम्मानित किया गया.

‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’ के समापन समारोह के मुख्य अतिथि डा. हिमांशु पाठक, सचिव(DARE) और महानिदेशक(ICAR) थे. उन्होंने जलवायु-स्मार्ट कृषि की आवश्यकता पर जोर दिया और सतत कृषि तकनीकों और आधुनिक प्रौद्योगिकी समाधानों के समावेश का आह्वान किया, जिस से खाद्य उत्पादन में स्थायित्व सुनिश्चित किया जा सके. उन्होंने किसानों को पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक नवाचारों का समावेश कर दीर्घकालिक कृषि स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित किया.

Agricultural Science Fair

आईसीएआर-आईएआरआई के निदेशक डा. सीएच श्रीनिवास राव ने भी सभा को संबोधित किया और जलवायु-प्रतिकारक (क्लाइमेट-रेसिलिएंट) फसलों और उन्नत कृषि तकनीकों को अपनाने पर बल दिया, जिस से जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम किया जा सके. उन्होंने सतत कृषि उत्पादकता बनाए रखने के लिए निरंतर अनुकूलन और वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता को दोहराया.

कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन डा. आरएन पडारिया, संयुक्त निदेशक (विस्तार), आईसीएआर-आईएआरआई, द्वारा प्रस्तुत किया गया. उन्होंने सभी गणमान्य व्यक्तियों, प्रतिभागियों, हितधारकों और देशभर के किसानों का आभार व्यक्त किया, जिन के योगदान से यह आयोजन सफल बना.

‘पूसा कृषि विज्ञान मेला 2025’  उत्साहपूर्ण माहौल में संपन्न हुआ, जिस ने किसानों को ज्ञान, तकनीक और संसाधनों से सशक्त बनाने की अपनी प्रतिबद्धता को फिर से दोहराया. यह आयोजन कृषि परिवर्तन को बढ़ावा देने, नवाचार को प्रोत्साहित करने और कृषि क्षेत्र को भविष्य की चुनौतियों के प्रति अधिक सशक्त बनाने के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य करेगा.

Fox Nut : टैक्नोलौजी की मदद से बेहतर व आसन होगी मखाने की खेती

दरभंगा : केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान पिछले दिनों 23 फरवरी को दरभंगा, बिहार पहुंचे, जहां उन्होंने तालाब में उतर कर मखाना (Fox Nut) उत्पादक किसानों से बात की.

उन्होंने मखाने (Fox Nut)  की खेती की पूरी प्रक्रिया समझी और मखाना (Fox Nut) उत्पादन में आने वाली कठिनाइयों को जानने के साथ ही किसानों से सुझाव भी लिए. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि मखाना की खेती कठिन है और तालाब में दिनभर रह कर खेती करनी होती है. केंद्र सरकार ने इस साल बजट में मखाना बोर्ड बनाने का ऐलान किया है. इस बोर्ड के बनने के पहले वे किसानों से सुझाव ले कर चर्चा कर रहे हैं, ताकि किसानों की वास्तविक समस्याएं समझी जा सकें.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दरभंगा में राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र पर संवाद कार्यक्रम में मखाना के किसानों से सुझाव लेने के साथ ही उन्हें संबोधित भी किया. इस मौके पर मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हम केवल विभाग नहीं चलाते हैं, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में गहराई तक जा कर कैसे हम किसानों की तकलीफ दूर करें, इस की कोशिश करते हैं.

उन्होंने आगे कहा कि किसान की आमदनी बढ़नी चाहिए. 57 फीसदी  लोग आज भी खेती पर निर्भर हैं, और खेती भी एक चीज की नहीं है, कहीं केला है तो कहीं लीची है, कहीं मकई है, तो कहीं गेहूं है, कहीं धान है, इस धरती पर तो मखाना है. अगर किसानों का कल्याण करना है, तो हमें हर एक फसल को ठीक से देखना पड़ेगा और इसलिए जब मैं पहली बार कृषि मंत्री बन कर पटना आया था, कृषि भवन में तब बैठक हुई थी किसानों के साथ और उस बैठक में मखाना उत्पादक किसानों ने अपनी समस्या बताई थी.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद किया, जिन्होंने मखाना केंद्र बनाया था. उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी का भी आभार जताया कि अब उन्होंने मखाना बोर्ड बनाने का फैसला किया है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि मखाना सुपरफूड है, पौष्टिकता का भंडार है, ये मखाना आसानी से पैदा नहीं होता है. मखाना पैदा करने के लिए कितनी तकलीफें सहनी पड़ती हैं, ये यहां आ कर देखा जा सकता है. इसलिए मेरे मन में ये भाव आया कि जिन्होंने किसानों की तकलीफ नहीं देखी, वह दिल्ली के कृषि भवन में बैठ कर मखाना बोर्ड बना सकते हैं क्या…? इसीलिए मैं ने कहा कि पहले वहां चलना पड़ेगा, जहां किसान मखाने की खेती कर रहा है. खेती करतेकरते कितनी दिक्कत और परेशानी आती है, ये भी हो सकता है कि यहां कार्यक्रम करते और निकल जाते, लेकिन इस से भी सही जानकारी नहीं मिलती.

उन्होंने कहा कि मेरे मन में भाव आया कि शिवराज तू तो सेवक है, एक बार पोखर, तालाब में उतर जा और मखाने की बेल को लगा, तब तो पता चलेगा कि मखाने की खेती कैसे होती है. जब बेल हाथ में ली तो पता चला कि उस के ऊपर भी कांटे थे और नीचे भी कांटे थे. हम तो केवल मखाना खाते हैं, लेकिन कभी कांटे नहीं देखे. जब हमारे किसान भाईबहन मखाने की खेती करते हैं, उन के लिए इस फसल को जितना लगाना कठिन है, उतना ही निकालना भी कठिन है.

मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों से कहा कि सही माने में आप से समझ कर कि मखाना बोर्ड बने तो कैसे बने, इसलिए उन्होंने अधिकारियों को भी निर्देश दिया है कि आईसीएआर (ICAR) व अनुसंधान केंद्र  कांटारहित मखाने का बीज विकसित करने पर काम करें.

Fox Nut

यह असंभव काम भी नहीं है. पर जहां बात मेकैनाइजेशन की आई, पानी में डुबकी लगा कर इसे निकालना पड़ता है, पूरे डूब गए आंख, नाक, कान में पानी और केवल पानी ही नहीं होता है, पानी के साथ कीचड़ भी होती है. अब आज के युग में मेकैनाइजेशन से ये चीज बदली जा सकती हैं, अभी यंत्र तो बने हैं, लेकिन उस में आधा मखाना आता है और आधा आता ही नहीं है. गुरिया बड़ी मुश्किल से निकलती है और इसलिए मेकैनाइजेशन होगा और ऐसे यंत्र बनाए जाएंगे, जो गुरिया को आसानी से बाहर खींच लाएं. आज टैक्नोलौजी है और प्रोसैसिंग में लगे कई मित्र ये काम कर रहे हैं.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हम उत्पादन बढ़ाने पर काम करेंगे. दूसरा, हम काम करेंगे उत्पादन की लागत घटाना. लागत कैसे घट सकती है, उस के कई पक्ष मेरे सामने आ गए हैं. तीसरा काम- उत्पादन में आने वाली कठिनाइयों को दूर करना, जिस से खेती आसान हो जाए. अब कई पोखर चाहिए, तालाब चाहिए, पानी रोकने की व्यवस्था चाहिए, हम लोग विचार करेंगे कि केंद्र और राज्य सरकार की अलगअलग योजना के तहत ये कैसे बनाए जा सकते हैं. क्या मनरेगा में कहीं तालाबों का निर्माण हो सकता है? कई तरह के रास्ते निकल सकते हैं, उस पर भी हम काम करेंगे. कठिनाइयों को दूर करना है और जिस के लिए कई काम करने पड़ेंगे, वे  है- मखाने की उचित कीमत मिल जाए, इस का इंतजाम करना आदि.

अभी तो ठीक है, लेकिन कई बार दाम गिर जाते हैं, इसलिए बाजार का विस्तार, मंडियों को ठीक करना, घरेलू बाजार, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मखाने की पहुंच बनाना है. उन्होंने कहा कि ये सुपरफूड मखाना एक दिन दुनिया में छा जाएगा, क्योंकि मखाने में कई गुण मौजूद हैं. इसलिए सुपरफूड की हम कैसे मार्केटिंग करें, ब्रांडिंग करें, पेकैजिंग करें, उस सभी में सहयोग देंगे.

उन्होंने कहा कि लीज पर जमीन ले कर खेती करने वाले किसानों को केंद्र सरकार की सभी योजनाओं का लाभ मिले. चाहे किसान क्रैडिट कार्ड हो, कम दरों पर ब्याज, खाद की व्यवस्था, एमएसपी आदि का भी बंदोबस्त हो. बंटाईदार, मेहनत  करने वाले को भी लाभ मिलना चाहिए. इस दिशा में हम काम कर रहे हैं. मखाना उत्पादक किसानों की ट्रेनिंग पर भी काम किया जाएगा. कार्यशाला लगाना, ट्रेनिंग कैंप लगा कर कैसे कौशल विकसित किया जाए, इस की कोशिश करेंगे.

मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि आज का कार्यक्रम कर्मकांड नहीं है, यह आम सभा नहीं है, यह किसान पंचायत है. मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए भी किसानों से बात कर के उन के कल्याण की योजना बनाता था.  यही तो जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है.

उन्होंने आगे कहा कि कल बिहार के सौभाग्य के सूर्य का उदय होगा, जब प्रधानमंत्री मोदी पधारेंगे. पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा कि बिहार अद्भुत राज्य है, यहां का टैलेंट, यहां के मेहनती किसान, विशेषकर बिहार का मखाना सुपर फूड. मखाना का उत्पादन बढ़े, प्रोसैसिंग हो, गुणवत्ता बढ़े, अभी मखाना उत्पादक किसान कई कठिनाइयों में काम करते हैं, टैक्नोलौजी के माध्यम से उन कठिनाइयों को दूर किया जाए, इस के लिए मखाना बोर्ड बनाया जा रहा है.