Thandai : गरमियों में पीजिए कूलकूल ठंडाई

Thandai: गरमी के मौसम में ठंडाई का अपना अलग ही मजा होता है. पहले के समय में शादी समारोहों में ठंडाई (Thandai) का इस्तेमाल होता था. अब बहुत सारे लोग कोल्ड ड्रिंक की जगह ठंडाई पीने लगे हैं. ठंडाई ज्यादातर बादाम के इस्तेमाल से बनती है. बादाम की तासीर गरम होती है, लेकिन उन को पानी में रात भर भिगो दें तो उन की तासीर बदल कर ठंडी हो जाती है. होली के अवसर पर भी लोग ठंडाई पी कर इस का आनंद लेते हैं.

ज्यादातर बनीबनाई ठंडाई को पानी या दूध में डाल कर इस्तेमाल किया जाता है. मिश्रांबू ठंडाई का बहुत मशहूर ब्रांड है. यह वाराणसी से बनाना शुरू हुआ था. साल 1924 में वाराणसी के रहने वाले सच्चिदानंद दुबे ने मिश्रांबू को तैयार किया. यह मेवों के मिश्रण से तैयार किया जाता है. अब पीढ़ी दर पीढ़ी यह कारोबार चल रहा है. अगर खुद ठंडाई बना कर पीना पसंद करें, तो यह काम काफी आसान होता है.

ठंडाई बनाने की सामग्री

बादाम 50 ग्राम, खसखस 30 ग्राम, तरबूज के छिले हुए बीज 20 ग्राम, खरबूजे के छिले हुए बीज 20 ग्राम, ककड़ी के छिले हुए बीज 20 ग्राम, सौंफ 50 ग्राम, काली मिर्च 10 ग्राम, देसी गुलाब की सूखी पंखुडि़यां 20 ग्राम, केसर 5-6 पत्तियां, हरी इलायची 5, बीज निकाले हुए मुनक्का 8, मिश्री 10 ग्राम, दूध 1 लिटर.

ठंडाई बनाने की विधि

बादाम, खसखस, तरबूज के बीज, खरबूजे के बीज, ककड़ी के बीज, सौंफ, गुलाब की पंखुडि़यां, काली मिर्च, इलायची और मुनक्का को पानी में भिगो दें. सभी सामग्री को रात भर (करीब 5-6 घंटे) पानी में भीगने दें. सुबह बादाम के छिलके हटा दें और सारी सामग्री पानी सहित अच्छी तरह बारीक पीस लें. सिलबट्टे पर पीस सकें तो बहुत अच्छा है या ग्राइंडर में जितना हो सके उतना बारीक पीस लें. इस का पानी कतई न फेंके. यह पानी बहुत फायदेमंद होता है. पिसा हुआ तैयार पेस्ट अलग रख लें.

दूध में मिश्री व केसर डाल कर उबालें और ठंडा कर लें. पिसी हुई सामग्री में 1 गिलास पानी डाल कर साफ कपड़े या बारीक छलनी से छान लें. थोड़ाथोड़ा कर के पानी डालते जाएं और छानते जाएं. ये करीब 2 गिलास होना चाहिए. छलनी से निकले पानी में तैयार किया दूध मिला दें. इस तरह आप के पास 6 गिलास स्वादिष्ठ ठंडाई तैयार हो जाएगी. इस स्वादिष्ठ और फायदेमंद ठंडाई का मजा परिवार वालों या दोस्तों के साथ लें.

ठंडाई के फायदे

ठंडाई पीने से गरमी की वजह से शरीर को होने वाले नुकसानों से बचाव होता है. आंखों में जलन व पेशाब में जलन जैसी तकलीफें इस से ठीक हो जाती हैं. ठंडाई पीने से लू से बचाव होता है. बादामों से भरपूर ठंडाई पीने से दिमाग की कूवत में इजाफा होता है. यह दिल के लिए भी फायदेमंद होती है. ठंडाई पीने से पेट साफ रहता है और कफ में आराम मिलता है. ठंडाई में मौजूद तरबूज, खरबूज व ककड़ी के बीज किडनी और पेशाब संबंधी तकलीफों में फायदा पहुंचाते हैं.

Machine : किसान ने बनाई कंपोस्ट टर्निंग मशीन

Machine : हरियाणा के पानीपत जिले के सींख गांव के किसान जितेंद्र मलिक की पढ़ाई के वक्त खेती के कामों में दिलचस्पी कम ही रही, लेकिन पढ़ाई में भी उन का मन ज्यादा नहीं लगा.

उन्होंने दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी. उन्होंने साल 1995 में गांव में सफेद बटन मशरूम की खेती शुरू की. साल 2005 तक तो जैसेतैसे मशरूम की उपज ली, मगर काम में उत्साह महसूस नहीं हो रहा था. रोजरोज मजदूरों की समस्या रहती थी.

उसी बीच उन्होंने ‘खुंबी कंपोस्ट मिक्सचर मशीन’ बना डाली. मशीन को ट्रैक्टर के पीछे जोड़ कर ट्रायल किया तो मनचाही सफलता हाथ नहीं लगी. फिर से वे अनमने मन से खेती में जुट गए, मगर कसक थी कामयाब होने की.

कुछ अरसे बाद रोजरोज की परेशानियों से पीछा छुड़ाने के लिए जितेंद्र ने फिर से मशरूम की मशीन बनाने की सोची. इस बार भाई ने हिम्मत बंधाई.

15 दिनों में मशीन बनाने से जुड़े सभी उपकरणों को जुटाया. मशीन तैयार की और ट्रायल किया. सब कुछ सही हुआ. अगले साल मशीन में कुछ मामूली से बदलाव किए, जो अब तक कायम हैं. तब मशीन बनाने में 2 लाख रुपए खर्च हुए थे.

कैसे काम करती है यह मशीन

जितेंद्र ने मशीन को ‘कंपोस्ट टर्निंग मशीन’ नाम दिया है. यह मशीन खाद डालने पर पड़ी हुई सभी गांठों को खोल देती है. इन गांठों को तोड़ने के लिए छत में एक जाली भी लगाई है, जिस के संपर्क में आने से कंपोस्ट की गांठें टूट जाती हैं. यह अंदरूनी परत को बाहर और बाहरी परत को अंदर की तरफ फेंकने का काम भी करती है, जिस से अमोनिया की निकासी में बहुत सहायता मिलती है.

इस मशीन से क्वालिटी कंपोस्ट तैयार होता है. मजदूरों की तादाद कम हुई है और उत्पादन बढ़ गया है. यह अकेली मशीन 50 मजदूरों के बराबर का काम 1 दिन में करती है. इस मशीन द्वारा मात्र 60 मिनट में 300 क्विंटल के करीब कंपोस्ट टर्न होता है.

शुरू में कंपोस्ट पूरी तरह भीगता नहीं था, अब पाइप चलाने पर फुहारे से पानी मिल जाता है. मशीन को चलाना भी काफी आसान है. यह बिजली और डीजल दोनों से चल सकती है.

उन्होंने हाल ही में एक नई मशीन भी बनाई है, जिस की लागत करीब सवा 3 लाख रुपए है. पहले वाली मशीन तैयार कंपोस्ट को सीधे एक ही लाइन में रखती जाती थी, अब यह नई मशीन कंपोस्ट को मनचाही जगह दाएंबाएं रखती है. यह कंपोस्ट को ट्राली में भी लोड कर सकती है, ताकि उसे दूसरी जगह ले जाया जा सके.

यह नई मशीन जेसीबी का काम भी कर लेती है. इस मशीन से न सिर्फ पैदावार बढ़ेगी, बल्कि खर्च भी कम होगा. जो काम पहले 40-50 मजदूरों से होता था, अब महज 10 मजदूरों से ही हो जाता है.

मानसम्मान

Machines

अपने नवाचारों के लिए जितेंद्र को कई मानसम्मान भी मिले हैं. उन्हें ‘राष्ट्रीय फार्म इन्नोवेटर मीट’ 2010 में आईसीएआर ने मैसूर के केवीके में सम्मान प्रदान किया.

हरियाणा के चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय ने उन्हें 3 बार सम्मानित किया. सोलन के मशरूम निदेशालय ने भी उन्हें सम्मान दिया. जितेंद्र को नेशनल इन्नोवेशन फाउंडेशन का 3 लाख रुपए का द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा राष्ट्रपति भवन में 7 मार्च, 2015 को ‘कंपोस्ट टर्निंग मशीन’ बनाने के लिए दिया गया.

बीकानेर के राजस्थान पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय में 9-10 मार्च को देशभर के कृषक वैज्ञानिकों, प्रगतिशील किसानों व विशेषज्ञों के राष्ट्रीय मंथन कार्यक्रम में उन्हें ‘खेतों के वैज्ञानिक’ सम्मान से नवाजा गया.

मशीन की ज्यादा जानकारी के लिए किसान निम्न पते पर संपर्क कर सकते हैं: गांवपोस्ट : सींख, तहसील : इसराना, जिला : पानीपत (हरियाणा). मोबाइल नंबर 09813718528.

DAP Bags : किसानों को डीएपी की बोरी 1350 रूपए में मिलेगी

DAP Bags : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फास्फेटिक और पोटासिक उर्वरकों पर खरीफ सीजन, 2025 (01.04.2025 से 30.09.2025 तक) के लिए पोषक तत्व आधारित सब्सिडी  दरें तय करने के लिए उर्वरक विभाग के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. खरीफ सीजन 2025 के लिए बजटीय आवश्यकता लगभग 37,216.15 करोड़ रुपए होगी. यह रबी सीजन 2024-25 के लिए बजटीय आवश्यकता से लगभग 13,000 करोड़ रुपए अधिक है.

कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस  फैसले पर कहा कि मोदी सरकार निरंतर किसानों की आय बढ़ाने के प्रयास में लगी है. किसानों की आय बढ़ाने के साथ उत्पादन बढ़ाना भी ज़रूरी है और उत्पादन बढ़ाने के लिए फर्टिलाइजर या खाद की आवश्यकता पर भी ध्यान देना होगा.

उन्होंने आगे कहा कि उत्पादन बढ़ने के साथ ही फर्टिलाइजर की कीमतें भी नियंत्रित रहे, यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्राथमिकता रही है. किसानों पर फर्टिलाइजर विशेषकर डीएपी की बढ़ी हुई लागत का बोझ न आए इसलिए सरकार बढ़ी हुई कीमतों का भार उठाने के लिए विशेष पैकेज देती है.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार किसान हितैषी सरकार है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 1350 रूपए प्रति बोरी कीमत तय की है, ताकि किसानों को अधिक कीमत न देनी पड़े इस के लिए भारी सब्सिडी किसानों को दी जा रही है.

उन्होंने बताया कि इस साल भी लगभग 1लाख 75 हजार करोड़ रूपए की सब्सिडी किसानों को सस्ती खाद उपलब्ध कराने के लिए सरकार ने दी है. अब किसानों को डीएपी की बोरी 1350 रूपए में ही मिलेगी. खरीफ के सीजन में ही सस्ती डीएपी देने के लिए 37 हजार 216 करोड़ रूपए विशेष रूप से सब्सिडी दी जाएगी.

इस के साथ ही किसानों के पक्ष में आयातनिर्यात नीति में परिवर्तन किया गया है, चना उत्पादक किसानों के लिए चने पर 10  फीसदी आयात शुल्क लागू करने के फैसले की अधिसूचना कल केंद्र सरकार ने जारी कर दी है, जिस से चना  उत्पादक किसानों को लाभ होगा.

केंद्र सरकार के इस निर्णय पर कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि 10 फीसदी आयात शुल्क लगाने के कारण सस्ता चना विदेश से नहीं आएगा. इस से हमारे किसानों को उन की उपज का बाजार में सही दाम मिलेगा.

कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बताया कि इस साल चने का भी बंपर उत्पादन हुआ है. कृषि के 2024-25 के अग्रिम अनुमान के अनुसार चने का उत्पादन 115 लाख मीट्रिक टन से अधिक होगा जबकि पिछले साल 110 लाख मीट्रिक टन उत्पादन हुआ था.

सरकार ने ऐसे अनेकों किसान हितैषी फैसले किए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मंत्र है, कि किसानों को उस के उत्पादन के ठीक दाम दें, इसलिए न केवल उत्पादन की लागत पर 50 फीसदी लाभ दे कर न्यूनतम समर्थन मूल्य एमएसपी घोषित की जाती है बल्कि, खरीदने की भी उचित व्यवस्था की जाती है.

किसान के उत्पाद की कीमत घटने पर हम आयातनिर्यात नीति को भी किसान हितैषी बनाते हैं. उन्होंने बताया कि पिछले दिनों आयतित मसूर आई थी. जिस पर जीरो फीसदी आयात शुल्क था. जिस से कीमतें कम होती और किसान को घाटा होता. इसलिए, सरकार ने फैसला किया कि आयतित मसूर पर आयात शुल्क 11 फीसदी वसूली जाएगी.

Saffron Cultivation : अब केसर की खेती होगी पश्चिम उत्तर प्रदेश में भी

Saffron Cultivation :  सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केसर की खेती को बढ़ावा देने के लिए कृषि विश्वविद्यालय की वैज्ञानिक प्रोफैसर वैशाली को एक करोड़ 55 लाख रुपए की परियोजना उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा स्वीकृत की गई है.

इसी विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफैसर केके सिंह ने कहा कि उन का प्रयास है, कि कृषि विविधीकरण पर जोर दिया जाए जिस से किसान धान, गेहूं और गन्ना फसलों से हटकर सब्जी, फूल और फल उत्पादन की तरफ भी बड़े और अगर वे सहफसली खेती को बढ़ावा देंगे तो उन की आय में वृद्धि भी होगी.

उन्होंने बताया की किसान तक केसर उत्पादन की विधि को स्टैंडर्डाइज्ड करने के लिए पहले विश्वविद्यालय में प्रयोगशाला विकसित की जाएगी और शोध के बाद इस तकनीकी को किसानों  तक पहुंचाया जाएगा. इस के लिए किसानों को प्रशिक्षण भी दिया जाएगा.

इस परियोजना की अन्वेषक प्रोफैसर वैशाली ने बताया की वैसे केसर की खेती श्रीनगर और  हिमाचल प्रदेश में जहां पर तापमान काफी कम रहता है, वहां पर की जाती है, लेकिन अब इस परियोजना के माध्यम से कोल्ड चैंबर को तैयार कर के उस में केसर की फसल के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया जाएगा और उस में इस की खेती को बढ़ावा दिया जाएगा. किसानों को तकनीकी ज्ञान उपलब्ध कराने के लिए समयसमय पर प्रशिक्षण का आयोजन किया जाएगा. जिस से किसान भी इस तकनीक को अपना कर अपने यहां केसर का उत्पादन प्रारंभ कर सके.

निदेशक शोध डा. कमल खिलाड़ी ने बताया की इस तरह की परियोजनाओं से किसानो को लाभ होगा. यह परियोजना कृषि विश्वविद्यालय के कालेज औफ बायोटैक्नोलौजी महाविद्यालय के पादप जैव प्रौद्योगिकी संभाग को मिली है. इस परियोजना में मुख्य अन्वेषक प्रोफैसर शालिनी से अन्वेषक प्रोफैसर डा. आरएस सेंगर, डा. मनोज यादव, डा. मुकेश कुमार एवं डा. नीलेश कपूर है.

केसर की खेती

केसर की खेती यूरोप और एशियाई भागों में किया जाता है. ईरान और स्पेन जैसे देश पूरी दुनिया का 80 फीसदी केसर का उत्पादन करते हैं. केसर समुद्र तल से 1000 से 2500 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जाता है. केसर की खेती के लिए बर्फीले इलाके बेहतर माने जाते हैं. इस की खेती कर किसान भी अच्छी कमाई कर सकते हैं.

कैसर की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी

केसर की खेती बलुई दोमट और दोमट मिट्टी में की जाती है. लेकिन बढ़ती तकनीक और उचित देखभाल की मदद से राजस्थान जैसे शुष्क क्षेत्रों में भी इस की खेती की जा सकती है. केसर की खेती के लिए जलभराव वाली जगह नहीं होनी चाहिए. क्योंकि केसर के बीज पानी में सड़ कर नष्ट हो जाते हैं. इस की खेती के लिए भूमि का पीएच  मान सामान्य होना चाहिए.

जलभराव वाले खेत केसर की खेती के लिए सही नहीं होते, क्योंकि जलभराव से कंद सड़ सकते हैं. केसर के पौधे को हल्की सिंचाई की जरूरत होती है और ठंडे मौसम में इसे विशेष देखभाल की आवश्यकता होती है. इस के लिए दिन में 17 डिगरी सैल्सियस  और रात में 10 डिगरी सैल्सियस तापमान आदर्श माना जाता है.

केसर बोआई के लिए मिट्टी की तैयारी कैसे करें:

मिट्टी की अच्छी तैयारी के लिए गहरी जुताई करें और कुछ दिनों के लिए खेत को खुला छोड़ें ताकि धूप से हानिकारक जीवाणु नष्ट हो सके. जुताई के बाद, खेत में 20-25 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद मिलाकर मिट्टी की उर्वरकता और केसर की जड़ों को पोषक तत्व प्रदान करें. खेत को हल या लकड़ी के पटरे से समतल करें ताकि सिंचाई के समय पानी का समान वितरण हो और जलभराव न हो. खेत में 15-20 सैंटीमीटर ऊंची क्यारियां बनाएं. क्यारियों की चौड़ाई 1.1 मीटर और लंबाई आवश्यकता अनुसार रखें.

मुख्य उत्पादक क्षेत्र

भारत में, केसर की खेती मुख्य रूप से जम्मूकश्मीर और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में की जाती है. विशेष रूप से, कश्मीर का पांपोर क्षेत्र केसर उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है. यहां की मिट्टी और जलवायु केसर की खेती के लिए आदर्श मानी जाती है.

केसर की उन्नत किस्में

रोपाई का समय : केसर की रोपाई का उचित समय अगस्त से सितंबर के बीच होता है, जब मौसम ठंडा और शुष्क होता है.

केसर की खेती के लिए प्रमुख किस्में : केसर की खेती से ज्यादा उत्पादन प्राप्त करने के लिए कुछ प्रमुख किस्में देखते हैं.
कश्मीरी केसर, ईरानी केसर, स्पैनिश केसर, अफगानी केसर, तुर्की केसर

कंद रोपाई का तरीका :

रोपाई के लिए 15-20 सैंटीमीटर की गहराई पर कंद को लगाएं।
कंदों के बीच की दूरी 10-15 सैंटीमीटर और कतारों के बीच की दूरी 20-25 सैंटीमीटर रखें.

कंद रोपने की विधि :
कंदों को हाथ से लगाएं या हल्के फावड़े का उपयोग करें.
कंदों को रोपने के बाद मिट्टी से ढक दें और हल्का सा दबा दें.

केसर के बीज बोने का सब से सही समय : केसर की फसल लगभग 6 माह में तैयार हो जाती है. केसर की अच्छी गुणवत्ता प्राप्त करने के लिए केसर के बीजों को सही समय पर लगाना बहुत जरूरी है. केसर अच्छी क्वालिटी के आधार पर ही बिकता है. केसर के बीज जुलाई से सितंबर तक बरसात के मौसम की समाप्ति के बाद लगाए जाने चाहिए. इन बीजों को अगस्त के महीने में लगाना सब से अच्छा माना जाता है. अगस्त के मौसम में बीज देने के बाद इस की सूक्ष्म केसर शुरुआती सीजन में देने के लिए तैयार हो जाती है. अत्यधिक ठंड में केसर को खसरा होने का खतरा नहीं रहता है.

कीटः केसर के कंदों को सफेद सुंडिया मुख्य तौर पर नुकसान पहुंचाती हैं. इस की रोकथाम के लिए क्लोरपायरीफास धूल या 5 फीसदी दानेदार क्विनाल्फास, 25-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बिजाई के समय खेत में डालना उत्तम रहता है.

रोगः रोगों में कंद सड़न रोग केसर की मुख्य बीमारी है, जो कि फ्यूजेरियम सोलेनाइ नामक फफूंद के कारण होती है. इस की रोकथाम के लिए कंदों को बाविस्टिन के घोल से उपचारित करना चाहिए। अक्तूबर व अप्रैल में खड़ी फसल में बाविस्टिन से मृदा शोधित करने से भी रोगकारक बीजाणुओं की वृद्धि रूक जाती है.

उपज : शुद्ध केसर की औसतन उपज लगभग 2-5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक ली जा सकती है.

भंडारण : केसर के फूल अक्तूबर के महीने में खिलने आंरभ होतें है और नवंबर और कम उंचाई वाले क्षेत्रों में दिसंबर के पहले सप्ताह तक फूल प्राप्त कर सकते हैं. केसर के फूल को प्रतिदिन सुबह ओस सुखने के उपरांत तोड़ना चाहिए. ऐसा न करने पर इस की गुणवत्ता व उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

फूलों का रस चूसने वाली मक्खियां भी इन्हें नुकसान पहुंचाती हैं. मादा भाग को फूल से अलग करने के बाद छांवदार जगह में तब तक सुखाया जाता है, जब तक कि इन में 7 से 8 फीसदी तक नमी हो. केसर का भंडारण वायुरोधक पात्रों में किया जाता है. इसे दो या तीन साल तक भंडारित किया जा सकता है, जिस के बाद स्वाद और संगुध नष्ट हो जाती है.

Agricultural training : पारंपरिक कलाओं के साथ महिलाओं को कृषि प्रशिक्षण

Agricultural training : राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, कृषि विभाग, जयपुर एवं अखिल भारतीय कृषिरत महिला अनुसंधान परियोजना, महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय उदयपुर के संयुक्त तत्वावधान में झाड़ोल व फलासिया के 10 स्वयं सहायता समूह की लगभग 150 महिला सदस्यों एवं गुडली व लोयरा की 75 महिला सदस्यों ने गत एक माह में राजस्थान की पारंपरिक कला के साथ कृषि के विभिन्न व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसे मशरूम की खेती, वर्मी कंपोस्ट, बकरी पालन व मुर्गी पालन पर पूर्णतया प्रायोगिक प्रशिक्षण प्राप्त किए.

परियोजना प्रभारी डा. विशाखा बंसल ने बताया कि राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत उन का लक्ष्य साल 2025 से 2027 तक झाड़ोल व फलासिया की 150 महिलाओं को स्वयं सहायता समूह में गठित कर विभिन्न रोजगारों के प्रशिक्षण उपलब्ध करवा कर स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना व स्वयं का रोजगार स्थापित करने में सहायता करना है.

योजना के अंतर्गत अब तक 10 स्वयं सहायता समूहों का गठन कर उन को बैंक से जोड़ दिया गया है और सभी सदस्यों को 5 विधाओं में दो दिवसीय प्राथमिक प्रशिक्षणों के माध्यम से प्रशिक्षित किया जा चुका है.

साल 2026 में इन सभी सदस्यों को स्वरोजगार करने के लिए निरंतर फालोअप प्रशिक्षणों एवं तकनीकी मार्गदर्शन द्वारा प्रेरित किया जाएगा. साथ ही, रोजगार प्रारंभ करने के लिए प्रतापधन किस्म के मुर्गी के चूजों की 20 यूनिट, सिरोही नस्ल के तीन बकरे, मशरूम की 30 यूनिट एवं वर्मी कंपोस्ट की 30 यूनिट प्रोत्साहन स्वरूप दिए जाएंगे. जिस से कि यह महिलाएं सीधे ही स्वरोजगार से जुड़ पाएंगी.

राजस्थान की बांधनी कला के बढ़ते आकर्षण के कारण इस कला का दो दिवसीय प्रायोगिक प्रशिक्षण पिछले दिनों 24 और 25 मार्च, 2025 को अनुसंधान निदेशालय में आयोजित किया गया. यह प्रशिक्षण ख्याति प्राप्त याकूब मोहम्मद मुल्तानी व अंजुम आरा, केंद्रीय सरकार से मान्यता प्राप्त (सीसीआरटी) द्वारा प्रदान किया गया.

प्रशिक्षण में अनुसूचित जनजाति बाहुल्य क्षेत्र झाड़ोल की 30 महिला सदस्यों ने बहुत ही उत्साहपूर्वक भाग लिया. प्रशिक्षण कार्यक्रम में कार्तिक सालवी, प्रमोद कुमार, डा. वंदना जोशी, डा. कुसुम शर्मा व अनुष्का तिवारी का विशेष सहयोग रहा.

Seed Technology : उन्नत बीज तकनीकों का प्रदर्शन

Seed Technology |  भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संभाग द्वारा “बीज गुणवत्ता नियंत्रण के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियां” विषय पर एकदिवसीय प्रक्षेत्र दिवस का आयोजन पिछले दिनों 25, मार्च 2025 को भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की अनुसूचित जाति उपयोजना के तहत आयोजित किया गया.

इस का मुख्य उद्देश्य अनुसूचित जाति के किसानों सहित अन्य किसानों को बीज नवाचारों से अवगत कराना और बीज गुणवत्ता प्रबंधन को मजबूत बनाना था. इस कार्यक्रम में गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) के भौपुर और गालंद गांवों के लगभग 100 किसान और संस्थान के वैज्ञानिक, संकाय सदस्य और छात्रछात्राओं ने भाग लिया.

प्रक्षेत्र दिवस में संस्थान द्वारा विकसित उच्च उपज देने वाली फसल किस्मों और बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी प्रभाग द्वारा विकसित उन्नत बीज प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन किया गया. इन में रबी फसलों के बीज उत्पादन तकनीक, बीज गुणवत्ता परीक्षण प्रोटोकौल, भंडारण समाधान, और बीज उन्नयन विधियों का प्रदर्शन शामिल था. इंटरएक्टिव प्रदर्शन के माध्यम से किसानों को फसल उत्पादकता और लाभप्रदता बढ़ाने के लिए व्यावहारिक जानकारी दी गई.

कार्यक्रम का उद्घाटन डा. रवींद्र नाथ पडारिया, संयुक्त निदेशक (प्रसार) ने किया. उन्होंने फसल उत्पादकता और आय वृद्धि में उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की महत्वपूर्ण भूमिका पर बल दिया. डा. संदीप कुमार लाल, नोडल अधिकारी, ने इस योजना के अंतर्गत किसानों को दी जा रही सुविधाओं की जानकारी दी. उन्होंने बताया कि इस योजना के तहत अनुसूचित जाति के किसानों को पूसा संस्थान द्वारा विकसित उच्च उपज वाले बीज, कृषि उपकरण (जैसे फावड़ा, खुर्पी, पावर स्प्रेयर आदि) मुफ्त में उपलब्ध कराए जाते हैं, जिस से उन की आर्थिक स्थिति में सुधार हो सके.

डा. ज्ञानपी मिश्रा, प्रमुख, बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संभाग ने किसानों को वैज्ञानिकों के साथ संवाद स्थापित करने और बीज संबंधी वास्तविक समस्याओं के समाधान के लिए सक्रिय भागीदारी का आह्वान किया.

किसानों ने कार्यक्रम के अंतर्गत संरक्षित खेती प्रौद्योगिकी केंद्र  का दौरा भी किया, जहां उन्होंने टमाटर, शिमला मिर्च और खीरा जैसी सब्जियों की संरक्षित वातावरण में खेती की उन्नत तकनीकों का अवलोकन किया. इस से उन्हें आधुनिक कृषि पद्धतियों की नई जानकारी मिली.

कार्यक्रम का समापन धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ, जिस में पूसा संस्थान की किसानों के लिए नवीनतम कृषि तकनीकों को उपलब्ध कराने और समावेशी कृषि विकास को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता दोहराई गई.

Cold Room : शीतलन कक्ष – ग्रामीण क्षेत्रों में फलसब्जी भंडारण

Cold Room | फलों और सब्जियों में पानी की मात्रा अधिक यानी 70-90 फीसदी होने के कारण तोड़ाई के बाद वे जल्दी खराब होने लगते हैं, जिस से तकरीबन कुल उत्पादन का 20-25 फीसदी भाग इस्तेमाल से पहले बेकार हो जाता है. यदि इन फलसब्जियों को खेत से तोड़ाई के बाद ठंडी जगहों पर स्टोर किया जाए, तो इन में होने वाली जैविक क्रियाएं मंद पड़ जाएंगी और ये काफी समय तक खाने लायक बने रहेंगे.

फलों व सब्जियों को खेत पर सुरक्षित रखने के लिए किसानों के पास मौजूद ईंटों, रेती, बांस, खसखस की टाटी और प्लास्टिक की चादरों से भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित शून्य ऊर्जा शीतलन कक्ष का निर्माण कर के यह काम आसानी से किया जा सकता है.

फलों और सब्जियों पर ज्यादा तापमान का प्रभाव :

* अधिक तापमान के कारण फलों व सब्जियों की सतह से पानी भाप के रूप में निकल जाता है, जिस से उन की ताजगी खत्म हो जाती है और वजन में कमी आ जाती है.

* फलों व सब्जियों में पानी की मात्रा अधिक होने के कारण सूक्ष्म जीवों के प्रभाव से उन में सड़न पैदा हो जाती है.

* बाहरी वातावरण के प्रभाव से फलों व सब्जियों की गुणवत्ता में कमी, ताजगी व ग्राहक आकर्षण में गिरावट आ जाती है और कच्चे तोडे़ गए फलों में स्वाद व रंग का विकास नहीं हो पाता है.

शून्य ऊर्जा शीतलन कक्ष की उपयोगिता : शून्य ऊर्जा शीतलन कक्ष को ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों के घरेलू उपयोग से ले कर फार्म उत्पादों को स्टोर करने और सब्जी व फल बेचने वालों के यहां बची सब्जियों को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के काम में लिया जा सकता है.

घरेलू इस्तेमाल के लिए : अमूमन ऊर्जा शीतलन कक्ष का तापमान गरमी में बाहरी वातावरण से 6-8 डिगरी सेल्सियस तक कम रहता है, इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां घरेलू खाद्य सामग्री को रखने के लिए रेफ्रिजरेटर की सुविधा नहीं है, वहां परिवार की खाद्य सामग्री जैसे दही, दूध, छाछ, सब्जियां व फल शीतलन कक्ष में रखे जा सकते हैं, जिस से इन उत्पादों को अधिक समय तक खाने योग्य रखा जा सकता है.

फार्म के इस्तेमाल के लिए : ऐसे छोटे किसान जिन का दैनिक सब्जी व फल उत्पादन काफी कम होता है, वे अपने उत्पादों को मंडी तक ले जाने के खर्च से बचने के लिए ग्रामीण बाजार में औनेपौने दामों पर बेच देते हैं. इस प्रकार के किसान रोजाना फलों और सब्जियों को तोड़ कर शीतलन कक्ष में भंडारित कर के 3-4 दिनों में 1 बार बाजार जा कर उन सब्जियों व फलों को बेच कर अधिक लाभ कमा सकते हैं.

फुटकर व्यापारियों के लिए : फुटकर दुकानदार दिनभर अपनी सब्जियों व फलों को बेचते हैं. अधिक तापमान के कारण सब्जियां व फल शाम तक काफी खराब हाने लगते हैं. अगर शाम को बचे हुए फलों व सब्जियों को ऊर्जा शीतलन कक्ष में भंडारित कर के रखा जाए तो अगले दिन वे बाहर रखे उत्पादों से काफी अच्छी अवस्था में बने रहते हैं, जिस से दुकानदार को अच्छा बाजार भाव मिलता है.

एक ही जगह दुकान व टोकरा लगा कर बेचने वाले फल व सब्जी विक्रेता को तो केवल नमूने के तौर पर फलों व सब्जियों को बाहर रखना चाहिए. अतिरिक्त उत्पाद को शीतलन कक्ष में रखने से काफी लाभ होता है, इस से फल व सब्जियां लंबे समय तक बिलकुल खराब नही होते हैं.

ऊर्जा शीतलन कक्ष का निर्माण : फल व सब्जी को सुरक्षित रखने के लिए शून्य ऊर्जा सेंटीमीटर शीतलन कक्ष का निर्माण हवादार और छायादार खुले स्थान पर करना चाहिए. ईंटों को जमा कर 165 सेंटीमीटर×115 सेंटीमीटर आकार के एक आयाताकार चबूतरे का निर्माण करना चाहिए, ईंटों के मध्य स्थान में बालूरेत भर देनी चाहिए और दोनों दीवारों के मध्य 7-8 सेंटीमीटर तक का स्थान जरूर रखना चाहिए, जिस में बाद में नदी की रेत भरी जाती है.

दोहरी दीवार की ऊंचाई 60 से 65 सेंटीमीटर तक रखनी चाहिए, ताकि किसी भी सामग्री को आसानी से रखा व निकाला जा सके. आवश्यकतानुसार इस की लंबाई में कुछ बदलाव तो किया जा सकता है, पर चौड़ाई उतनी ही रखनी चाहिए, जिस से ठंडक भी ठीक बनी रहे और फलों व सब्जियों की टोकरियों को निकालने व रखने में आसानी रहे.

Cold Room

ईंटों की दीवार बनाने के लिए चिकने गारे या हलकी सीमेंटबजरी के मिश्रण का इस्तेमाल करना चाहिए. मध्य के खाली स्थान में नदी की रेत कंकरीट के साथ भरनी चाहिए. ऊपर का ढक्कन बांस, बोरी, घास जवसा व खसखस से बनी टाटी का होना चाहिए. इस ढक्कन की लंबाई और चौड़ाई पूरे भंडारण कक्ष से थोड़ी ज्यादा होनी चाहिए.

लगातार पानी की पूर्ति के लिए 15-20 लीटर की कूवत के मटके, जिस पर नल लगा हो, को 3 लकडि़यों के सहारे से जमीन से 6-7 फुट की ऊंचाई पर लगाना चाहिए. नल को एक पाइप द्वारा ईंटों के मध्य भाग से जोड़ना चाहिए और पाइप पर 15-15 सेंटीमीटर की दूरी पर बारीक छेद कर देने चाहिए, जिस से जल का रिसाव बूंदबूंद कर होता रहे. अधिक गरमी के दिनों में दिन में 2-3 बार रेत व ढक्कन को तर करना होता है.

फल व सब्जी का भंडारण : फलों और सब्जियों को 10-15 किलोग्राम कूवत की अलगअलग बांस की टोकरियों में भर कर रखना चाहिए. हर टोकरी को गीली टाट से ढकना चाहिए. टोकरियों की संख्या अधिक हो तो लकड़ी की तिपाइयों का इस्तेमाल करना चाहिए. उस के बाद कक्ष के ढक्कन को अच्छी तरह से तर कर के ढक देना चाहिए. ढक्कन को दिन में 3 से 4 बार अच्छी तरह से गीला करना चाहिए. जहां तक संभव हो ढक्कन को बारबार नहीं खोलना चाहिए.

Cold Room

शीतलन का सिद्धांत : शीतलन कक्ष वाष्पीकरण के लिए आवश्यक गुप्त ऊष्मा के सिद्धांत पर आधारित है.

इस में जब गरम हवाएं शीतलन कक्ष की बाहरी सतह से टकराती हैं, तो सतह पर जमा नमी का वाष्पीकरण होता रहता है और वाष्पीकरण के लिए आवश्यक गुप्त ऊष्मा कक्ष के भीतरी भाग से पहुंचती है, जिस से अंदर का तापमान गरमी में बाहरी तापमान से 6-8 डिगरी सेल्सियस कम रहता है और आर्द्रता अंश तकरीबन 85-90 फीसदी तक रहता है, जो उष्ण व उपोष्ण फलों व सब्जियों के सुरक्षित भंडारण के लिए सहायक है.

सर्दी में जब तापमान कम हो जाता है, तो कक्ष का तापमान बाहरी तापमान से लगभग 4-6 डिगरी सेल्सियस तक ज्यादा रहता है. ऐसे में फलों और सब्जियों को भीषण सर्दी के प्रकोप से भी बचाया जा सकता है.

शून्य ऊर्जा शीतलन कक्ष में आमतौर पर गरमी में तापमान 26 डिगरी सेल्सियस से 38 डिगरी सेल्सियस के मध्य रहता है और आपेक्षिक आर्द्रता 70-90 फीसदी तक पाई जाती है. इन हालात में भी पत्तेदार सब्जियों जैसे पालक, धनिया, चौलाई व सलाद को 2-3 और दूसरे फलों व सब्जियों को 7-15 दिनों तक बिना गुणवत्ता हानि के सुरक्षित भंडारित रखा जा सकता है.

* अधिक नमी होने के कारण सब्जियों व फलों की बाहरी सतह से पानी का नुकसान नहीं होने से फलों व सब्जियों का भार व ताजगी बनी रहती है.

* कम तापमान व ज्यादा नमी के कारण सूक्ष्म जीवों की क्रियाविधि में कमी होने से फलों व सब्जियों में सड़न नहीं होती है.

* कम पके फलों को शीतलन कक्ष में रखने से उन के स्वाद और रंग का विकास भी अच्छा होता है.

Masala Peanut : मूंगफली और बेसन का चटकारेदार स्वाद

Masala Peanut |मूंगफली खाने में सब से अच्छी होती है. लोगों को इस को हर रूप में खाना पसंद आता है. ज्यादातर नमकीनों में मूंगफली का प्रयोग किया जाता है. मूंगफली के प्रयोग से नमकीन का स्वाद बढ़ जाता है. यह सेहत के लिए भी अच्छी होती है.

मूंगफली के बढ़ते हुए प्रयोग को देखते हुए अब केवल मूंगफली को ले कर प्रयोग होने लगे हैं. इस को मूंगफली नमकीन, मसाला पीनट जैसे कई नामों से जाना जाता है. यह छोटे और बड़े हर तरह के पैकेट में मिलता है. अच्छी क्वालिटी की मूंगफली, बेसन और मसालों के प्रयोग से यह बहुत टेस्टी बन जाता है. इस को रोजगार का जरीया भी बनाया जा सकता है.

देश में मूंगफली की खेती बडे़ पैमाने पर होती है. मूंगफली के बढ़ते प्रयोग से इस के किसानों का मुनाफा बढ़ता है. मूंगफली को ‘गरीबों का मेवा’ कहा जाता है. खासकर जाड़ों में इस को खाना बहुत गुणकारी होता है.

मूंगफली के इन गुणों के कारण ही मिठाई से ले कर नमकीन तक में इस का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. मसाला पीनट मूंगफली नमकीन का बदला हुआ रूप है. करीबकरीब पूरे देश में यह मिलता है. ऐसे में यह किसान और उपभोक्ता दोनों के लिए हितकारी है.

इसे बडे़ पैमाने पर बना कर रोजगार का जरीया भी बनाया जा सकता है. अगर माइक्रोवेव का प्रयोग नहीं करना चाहते हैं, तो मसाला लगे मूंगफली के दानों को तेल में हलका सा फ्राई कर लीजिए. ध्यान रहे कि मसाला जलने न पाए.

अगर मसाला जल गया तो इस का स्वाद अच्छा नहीं होगा. इस के साथ यह देखना भी बहुत जरूरी है कि जिस मूंगफली का प्रयोग किया जा रहा हो, उस की क्वालिटी बहुत अच्छी हो, खराब किस्म की मूंगफली के दाने स्वाद को खराब करते हैं.

बनाने की विधि : सब से पहले बेसन को किसी बड़े प्याले में डाल कर उस में नमक, लाल मिर्च पाउडर, गरम मसाला, धनिया पाउडर, अमचूर पाउडर, बेकिंग सोडा और हींग डाल कर अच्छी तरह मिला दीजिए. थोड़ा अमचूर पाउडर बचा कर रख लीजिए. इस का प्रयोग बाद में करेंगे.

मूंगफली के दाने जिस बरतन में भरे हैं, उस में इतना पानी भर दीजिए कि मूंगफली के दाने पानी में डूब जाएं और तुरंत छलनी से छान कर पानी हटा दीजिए. ध्यान रखें कि मूंगफली के दाने सिर्फ गीले होने चाहिए. मूंगफली के गीले दाने बेसन मसाला मिक्स में डाल कर मिक्स कीजिए. देख लीजिए कि बेसन मसाला मूंगफली के दाने के ऊपर अच्छी तरह कोट हो जाए. अगर बेसन सूखा बचा हुआ है, तो 1-2 छोटे चम्मच पानी छिड़कते हुए डाल कर मिला दीजिए, ताकि सारा बेसन और मसाले मूंगफली के दानों पर कोट हो जाएं. अब तेल डाल कर मूंगफली के दानों में मिला दीजिए.

माइक्रोवेव सेफ  ट्रे ले लीजिए और मसाला मिले मूंगफली के दाने ट्रे में अलगअलग करते हुए फैला दीजिए. ट्रे को माइक्रोवेव में रखिए और अधिकतम तापमान पर 4 मिनट माइक्रोवेव में गरम कीजिए. ट्रे को बाहर निकालिए और दानों को पलट दीजिए, अलगअलग कर दीजिए. ट्रे को फिर से माइक्रोवेव में रख दीजिए और 1 मिनट और माइक्रोवेव में गरम कर लीजिए. ट्रे को बाहर निकालिए. मसाला पीनट बन चुके हैं.

मसाला पीनट में चाट मसाला डाल कर मिला दीजिए. अगर आप महसूस करें कि अभी मसाला पीनट पूरी तरह से कुरकुरे नहीं हुए हैं, तो उन्हें 1 मिनट और माइक्रोवेव में गरम कर लीजिए.

मसाला पीनट को पूरी तरह ठंडा होने के बाद एयर टाइट कंटेनर में भर कर रख दीजिए. अगर आप मसाला पीनट में तेल नहीं डालना चाहें, तो न डालें. बिना तेल के भी मसाला पीनट अच्छे बनते हैं, लेकिन तेल डालने से मसाला पीनट का रंग और स्वाद दोनों ही बढ़ जाते हैं.

मसाला पीनट बनाने के लिए सामग्री : मूंगफली के दाने 1 कप, बेसन आधा कप, नमक स्वादानुसार, लाल मिर्च पाउडर  स्वादानुसार, आधा चम्मच गरम मसाला, आधा चम्मच चाट मसाला, आधा चम्मच धनिया पाउडर, आधा छोटा चम्मच अमचूर पाउडर, बेकिंग सोडा 2 चुटकी, हींग 1 चुटकी

Home Garden : बागबानी से महकाएं घरद्वार

Home Garden | बागबानी का शौक हर किसी को होता है. यह शौक पूरा करने के लिए कुछ समय तो देना ही पड़ता है. हम अगर पूरे बाग को रंगबिरंगे फूलों से सजाएं, तो हमें पेड़पौधों और गमलों का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा. ऐसा नहीं है कि सिर्फ 4-5 पौधे लगाए और पूरा बाग सज गया या सिर्फ गमले के बीच में पानी भर दिया तो हो गई बागबानी.

बाग लगाने के लिए उस की देखरेख भी जरूरी है. जरूरत पड़ने पर उस में खादों और कीटनाशकों का भी प्रयोग किया जाता है. किस तरह के बीज बोएं  कितनी धूप दिखाएं  कितना पानी और उर्वरक दें. बागबानी में इन सब बातों का ध्यान रखना पड़ता है.

बरसात के मौसम में जहां बालसम, गमफरीना, नवरंग व मुर्गकेश वगैरह के पौधे लगाए जा सकते हैं, तो वहीं सर्दी के मौसम में पैंजी, पिटुनिया, डहेलिया, गेंदा व गुलदाऊदी वगैरह के पौधे लगाए जा सकते हैं. इन के अलावा बारहमासी फूलों के पौधे जैसे गुड़हल, रात की रानी व बोगनवेलिया वगैरह भी लगाए जा सकते हैं. यह जरूरी नहीं है कि आप ढेरों पौधे लगाएं. आप उतने ही पौधे लगाएं, जिन की देखरेख आसानी से कर सकते हैं.

रंगबिरंगे फूल जो सितंबर से नवंबर तक खिलते हैं, वे कई तरह के होते हैं. उन में सेवंती और गेंदे के ढेर सारे विकल्प होते हैं. सितंबर से ले कर नवंबर के शुरुआती दिनों तक कभी भी इन्हें लगा सकते हैं.

यदि सिर्फ फूल वाले पौधे लगाना चाहते हैं, तो पिटूनिया, सालविया, स्वीट विलियम, स्वीट एलाइसम, चायना मोट, जीनिया, गुलमेहरी, गमफरीना, सूरजमुखी और डहेलिया जैसे पौधे चुन सकते हैं और यदि सजीले पौधों से बगीचे को सजाना है, तो कोलियस और इंबेशन लगाना बेहतर होगा.

कुछ पौधे जैसे मनीप्लांट, कैक्टस और ड्राइसीना इनडोर प्लांट हैं यानी हम ये पौधे छांव में, कमरे में या कहीं भी लगा सकते हैं. इन सब में मनीप्लांट आसानी से मिलने वाला, हमेशा हराभरा रहने वाला पौधा है. इस के हरे पत्तों पर हलके हरेसफेद धब्बे सुंदर लगते हैं.

ऐसा ही एक और इनडोर पौधा है कैक्ट्स. इस कांटेदार पौधे की भी देखभाल करनी पड़ती है. इसे लगाते समय मिट्टी में नीम की खली, गोबर की खाद और रेत बराबर मात्रा में मिलानी चाहिए. इसे काफी कम पानी देना पड़ता है. हर साल पौधे को निकाल कर उस की सड़ी जड़ें काट देनी चाहिए और फिर से गमले में लगा देना चाहिए. बहुत तेज धूप होने पर या तेज बरसात में पौधों को छाया में ही रखना बेहतर होता है. अपने समय में इन में फूल आते हैं, जिन की खूबसूरती देखते ही बनती है.

गेंदे के पौधे साल में 3 बार नवंबर, जनवरी और मईजून में लगा सकते हैं. इस तरह पूरे साल गेंदे के फूल मिल सकते हैं. यह कीड़ों से सुरक्षित रहता है. गेंदे की कई किस्में होती हैं, जैसे हजारा गेंदा, मेरी गोल्ड, बनारसी या जाफरानी.

यदि इस के फूलों को सुखा कर रख लें तो हम इस से अगली बार पौधे तैयार कर सकते हैं. असल में सूखा हुआ फूल बीज के लिए तैयार हो जाता है.

दूसरा फूल है गुड़हल का. इसे सितंबर से अक्तूबर में लगाना चाहिए. गुड़हल कई रंगों का होता है जैसे लाल, गहरा लाल, गुलाबी, बैगनी, नीला वगैरह. समयसमय पर इस में खाद डालते रहना चाहिए. इस की नियमित सिंचाई भी जरूरी है.

एक खूबसूरत सा पौधा है सूरजमुखी. इस के कई साइज होते हैं. बड़ा सूरजमुखी गोभी के फूल से भी बड़ा होता है. इस के बीजों से तेल भी निकाला जाता है. छोटा सूरजमुखी ढेर सारे पीले फूल देता है. इसे अप्रैल में लगाना चाहिए. यह घरों में बगीचे की शान बढ़ाता है.

एक और सुंदर दिखने वाला पौधा है जीनिया. यह 3 किस्मों में मिलता है. इस की छोटी किस्म पर्सियन कारपेट कहलाती है. इसे अगस्त या सितंबर में लगाना चाहिए ताकि इसे बरसाती कीड़ों से बचाया जा सके. इस के कागज जैसे रंगीन फूल पौधे पर कभी नहीं सूखते हैं.

एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पौधा है तुलसी. यह तकरीबन हर घर में मिलता है. इस की 3 किस्में होती हैं रामा तुलसी, श्यामा तुलसी और बन तुलसी. इसे साल में कभी भी लगा सकते हैं. यह औषधीय गुणों का वाला पौधा है. यह वातावरण को शुद्ध रखता है. इस की पत्तियों को चबाने से अनगिनत बीमारियों से बचा जा सकता है.

एक और पौधा है डहेलिया. डहेलिया को क्यारियों और गमलों दोनों में उगाया जा सकता है. इसे उगाने के लिए पूरी तरह खुला स्थान चाहिए, जहां कम से कम 4 से 6 घंटे तक धूप आती हो.

पौधा लगाने की विधि

पौधा लगाने की सब से अच्छी विधि कटिंग द्वारा पौधा तैयार करना है. पुराने पौधों की शाखाओं के ऊपरी भाग से 8 सेंटीमीटर लंबी कटिंगें काट लें. उन को मोटी रेत या बदरपुर में 2 इंच की दूरी पर, डेढ़ इंच गहराई में लगाएं. लगाने के बाद 3 दिनों तक कटिंग लगाए गए गमलों को छायादार जगह पर रखें. उन से 15 दिनों के बाद जड़ें निकल आती हैं. इस के बाद ही इन्हें 10 से 12 इंच के गमलों में लगाते हैं. ये पौधे ज्यादा धूप या पानी से मुरझा जाएंगे, लिहाजा इस बात का खास ध्यान रखें.

यदि पौधों को गमलों में उगाना है, तो गमलों में 3 हिस्से मिट्टी व 1 भाग गोबर की खाद मिला कर भर दें. गमले का ऊपरी हिस्सा कम से कम 1 से डेढ़ इंच खाली रखें, जिस से पानी के लिए जगह मिल सके. 1 गमले में 1 ही पौधा रोपें. पौधे रोपने के तुरंत बाद पानी देना चाहिए. यदि पौधे क्यारी में लगाने हों, तो उन्हें 40-50 सेंटीमीटर की दूरी पर रोपें. क्यारी को 10-12 इंच गहरा खोद लें. इस के बाद 100 ग्राम सुपर फास्फेट, 100 ग्राम सल्फेट पोटेशियम, 25 ग्राम मैग्नेशियम सल्फेट प्रति वर्गमीटर क्षेत्र के हिसाब से दें. साथ ही फूलों में चमक लाने के लिए खड़ी फसल में 1 चम्मच मैग्नेशियम सल्फेट को 10 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

क्यारियां कंकड़पत्थर रहित होनी चाहिए. क्यारियों की मिट्टी में 5 किलोग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से गोबर की खाद जरूर मिलानी चाहिए.

अगर आप डहेलिया को गमलों में उगाना चाहते हैं, तो गमले कम से कम 12 से 14 इंच के लें. मिट्टी व गोबर की खाद की बराबर मात्रा को गमलों में भर दें. गमले पूरी तरह मिट्टी से न भरें. उन का ऊपरी हिस्सा कम से कम 2 से ढाई इंच खाली होना चाहिए, जिस से गमलों में पानी के लिए जगह रहे.

गरमी पड़ने पर हफ्ते में 2 बार पानी देने की जरूरत होती है. सर्दी के मौसम में 8 से 10 दिनों के अंतर पर पौधों को पानी देना चाहिए.

नरवाई जलाने (Burning Stubble) से नुकसान

Burning Stubble |फसल काटने के बाद तने के जो अवशेष बचे रहते हैं, उन्हें नरवाई कहते हैं. पिछले सालों का तजरबा रहा है कि किसान फसल कटाई के बाद फसल अवशेष नरवाई को जला देते हैं. इस से आग लगने के हादसों के डर के साथसाथ भूमि में मौजूद सूक्ष्म जीव जल कर खत्म हो जाते हैं और जैविक खाद का निर्माण बंद हो जाता है.

हम खेतों की मिट्टी को सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखें, तो हमें मिट्टी में बहुत से सूक्ष्म जीव नजर आते हैं, जो नरवाई को जलाने से मर जाते हैं. फसलों के गिरते उत्पादन और किसानों को हो रहे घाटे के पीछे नरवाई जलना खास वजह है.

नरवाई को खेत में मिलाने के लाभ

* खेत में जैव विविधता बनी रहती है. जमीन में मौजूद मित्र कीट शत्रु कीटों को खा कर नष्ट कर देते हैं.

* जमीन में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है, जिस से फसल उत्पादन ज्यादा होता है.

* दलहनी फसलों के अवशेषों को जमीन में मिलाने से नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ जाती है, जिस से फसल उत्पादन भी बढ़ता है.

* किसानों द्वारा नरवाई जलाने के बजाय भूसा बना कर रखने पर जहां एक ओर उन के पशुओं के लिए चारा मौजूद होगा, वहीं अतिरिक्त भूसे को बेच कर वे आमदनी भी बढ़ा सकते हैं.

* किसान नरवाई को रोटावेटर की सहायता से खेत में मिला कर जैविक खेती का लाभ ले सकते हैं.

नरवाई जलने से नुकसान

* जमीन में जैव विविधता खत्म हो जाती है और सूक्ष्म जीव जल कर खत्म हो जाते हैं.

* जैविक खाद का निर्माण बंद हो जाता है.

* जमीन कठोर हो जाती है, जिस के कारण जमीन की जलधारण कूवत कम हो जाती है.

* पर्यावरण खराब हो जाता है और तापमान में बढ़ोतरी होती है.

* कार्बन से नाइट्रोजन व फास्फोरस का अनुपात कम हो जाता है.

* जीवांश की कमी से जमीन की उर्वरक कूवत कम हो जाती है.

* नरवाई जलाने से जनधन की हानि होने का खतरा रहता है.

* खेत की सीमा पर लगे पेड़पौधे जल कर खत्म हो जाते हैं.

आखिर क्या करें किसान

* नरवाई खत्म करने के लिए रोटावेटर चला कर नरवाई को बारीक कर के मिट्टी में मिलाएं.

* नरवाई को मिट्टी में मिला कर जैविक खाद तैयार करें, साथ ही स्ट्रारीपर का इस्तेमाल करें और डंठलों को काट कर भूसा बनाएं.

* भूसे का इस्तेमाल किसान अपने पशुओं को खिलाने के लिए करें और भूसा बेच कर अलग से आमदनी भी हासिल करें.