बगीचे पर ऊंचे तापमान के असर का बचाव

फलों के पेड़ों को ज्यादा तापक्रम के कारण सनबर्न व सन स्काल्ड नाम के नुकसान होते हैं. पौधों की बढ़वार के समय तापक्रम अधिक होने पर धूप के सीधे संपर्क में आने वाली पत्तियों, तनों व फलों को नुकसान होता है. जब वायुमंडल में आर्द्रता कम हो व हवाएं तेज चलें, तब ज्यादा तापमान के प्रभाव से पौधों को बहुत ज्यादा नुकसान होता है. इस समय पौधों से ज्यादा भाप निकलती है, जिस से पौधों की पत्तियां व टहनियां सूख जाती हैं.

बाग की दक्षिणपश्चिम दिशा में सूर्य की किरणें अन्य दिशाओं की तुलना में दिन में ज्यादा समय तक सीधी पड़ती हैं, जिस के कारण पौधों में सन स्काल्ड होता है. सूर्यास्त के  बाद तापक्रम अचानक गिर जाता है, जिस से पौधों को नुकसान पहुंचता है. नीबू प्रजाति के पेड़ों को यह नुकसान ज्यादा होता है.

ऊंचे तापमान से पेड़ों का बचाव : गरमी के मौसम में जब तापक्रम 40 डिगरी सेंटीग्रेड से ऊपर पहुंचने लगता है, उस समय पौधों को गरमी से बचाने के लिए निम्नलिखित सावधानियां अपनानी चाहिए:

छाया करना: छोटे पौधों (नए रोपित) को कांस, मूंज, कड़वी आदि की टटियां बना कर ढक देना चाहिए. गमलों में लगे पौधों को बड़े पौधों की छाया में रख कर गरमी से बचाया जा सकता है.

पौधों को ढकना : यदि मुमकिन हो तो पौधों के तनों को ऊपर से नीचे तक अखबार लपेट कर ढक देना चाहिए, ताकि पौधों की ऊंचे तापमान से रक्षा की जा सके.

नियमित सिंचाई : पौधों को ऊंचे तापमान से बचाने के लिए मिट्टी की किस्म व तापमान को ध्यान में रखते हुए सिंचाई का अंतराल कम कर देना चाहिए. नियमित सिंचाई कर के हलकी नमी बनाए रखनी चाहिए.

सिंचाई के समय में बदलाव : गरमी में सिंचाई के शाम के समय में बदलाव कर देना चाहिए, क्योंकि दिन की गरमी के बाद अचानक पानी देने से पौधे मर जाते हैं. गरमी में रात 2 बजे से सुबह 9 बजे तक सिंचाई करनी चाहिए.

बगीचे (Garden)

विंड ब्रेक लगाना : बाग लगाते समय पश्चिम दिशा में लंबे सदाबहार पेड़ों की 2-3 पट्टियां जरूर लगाएं. सदाबहार पेड़ों में जामुन, कटहल, बांस, सफेदा, सूलबूल, पोपलर, महुआ व टीक आदि का चयन स्थानीय हालात के मुताबिक करना चाहिए. किसी कारण यह विंड ब्रेक सफल न हो, तो अगला विंड ब्रेक तैयार होने तक कच्ची या पक्की दीवार बना कर पौधों की रक्षा की जा सकती है.

सफेदी कर के : पेड़ों पर सफेदी कर के भी उन्हें गरमी से बचाया जा सकता है. जाड़े के मौसम के बाद पौधों पर बसंत के मौसम में सफेदी की दोहरी कोटिंग कर देनी चाहिए. सफेदी की कोटिंग करने से पौधों की गरमी के साथसाथ कीड़ों से भी सुरक्षा हो जाती है.

नर्सरी के पौधों की ग्रीन हाउस में सुरक्षा : नर्सरी के पौधों की ग्रीन हाउस में ऊंचे तापमान से सुरक्षा की जा सकती है. इस के लिए सस्ती सामग्री का इस्तेमाल कर के ग्रीन हाउस बना सकते हैं.

Onion Seed : प्याज बीज उत्पादन की वैज्ञानिक विधि

Onion Seed| प्याज के शुद्ध व विश्वसनीय बीज पैदा करने के लिए सही कृषि क्रियाओं, प्रजातियों, छंटाई, कीड़ों व बीमारियों की रोकथाम, परागण, कटाई, सुखाई, मड़ाई, बीज की सफाई, भराई व भंडारण के बारे में सही ज्ञान होना बहुत जरूरी है.

बीज उत्पादन के लिए प्याज को 2 वर्षीय कहा गया है. सभी जातियों का (जो भारत में उगाई जाती हैं) बीज उत्पादन मैदानी क्षेत्रों में आसानी से किया जाता है.

प्याज के बीजोत्पादन की विधि

कंद से बीज उत्पादन विधि : इस विधि में कंदों को बनने के बाद उखाड़ लिया जाता है और अच्छी तरह चुन कर के दोबारा खेतों में रोपा जाता है. इस विधि से गाठों की छंटाई संभव होती है, शुद्ध बीज बनता है और उपज भी ज्यादा होती है. लेकिन इस विधि में लागत ज्यादा आती है और समय अधिक लगता है.

1 वर्षीय विधि : इस विधि में बीजों को मईजून में बोया जाता है और पौधों की रोपाई जुलाईअगस्त में की जाती है. कंद नवंबर में तैयार हो जाते हैं. कंदों को उखाड़ कर छांट लिया जाता है. अच्छे कंदों को 10-15 दिनों बाद दोबारा दूसरे खेत में लगा दिया जाता है. इस विधि से मई तक बीज तैयार हो जाते हैं. क्योंकि इस से 1 साल में ही बीज बन जाते हैं, लिहाजा इसे 1 वर्षीय विधि कहते हैं. इस विधि से खरीफ प्याज की प्रजातियों का बीजोत्पादन होता है.

2 वर्षीय विधि : इस विधि में बीज अक्तूबनवंबर में बोए जाते हैं और पौधे दिसंबर के आखिर या जनवरी के शुरू में खेत में लगाए जाते हैं. कंद मई के अंत तक तैयार हो जाते हैं. चुने हुए कंद अक्तूबर तक भंडार में रखे जाते हैं.

नवंबर में फिर चुन कर अच्छे कंद खेत में लगा दिए जाते है. क्योंकि इस विधि के द्वारा बीज पैदा होने में तकरीबन डेढ़ साल लग जाते हैं, इसलिए इसे 2 वर्षीय विधि कहते हैं. इस विधि से रबी प्याज की प्रजातियों का बीजोत्पादन करते हैं.

प्याज कंद उगाने की उन्नत विधि

सही जलवायु : अच्छी पैदावार के लिए 14-21 डिगरी सेल्सियस तापमान, 10 घंटे लंबे दिन और 70 फीसदी आर्द्रता मुनासिब होती है.

जमीन और उस की तैयारी : बलुई दोमट, सिल्टी दोमट और गहरी भुरभुरी 6.5-7.5 पीएच वाली मिट्टी प्याज के लिए अच्छी होती है. 3-4 जुताइयां कर के खेत की अच्छी तैयारी कर लेते हैं.

बोआई और रोपाई का समय

खरीफ के प्याज की बोआई जूनजुलाई और रोपाई जुलाईअगस्त में करनी चाहिए. रबी के प्याज की बोआई अक्तूबरनवंबर और रोपाई दिसंबरजनवरी में करनी चाहिए.

दूरी : रोपाई करते समय लाइन से लाइन की दूरी 15 सेंटीमीटर और लाइन में पौधों की दूरी 10 सेंटीमीटर रखते हैं. रोपाई के फौरन बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए.

बीज की मात्रा : 1 हेक्टेयर की रोपाई के लिए 6-8 किलोग्राम बीज सही होता है.

खाद : गोबर की खाद 50 टन, कैल्सियम अमोनियम नाइट्रेट 400 किलोग्राम या यूरिया 200 किलोग्राम, सिंगल सुपर फास्फेट 300 किलोग्राम और म्यूरेट आफ पोटाश 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए. नाइट्रोजन खाद को 2 भागों में रोपाई के 30 और 45 दिनों के अंतर पर देना चाहिए.

सिंचाई: सिंचाई समय पर जरूरत के मुताबिक 8-15 दिनों के अंतर पर करते हैं.

खरपतवार निकालना : अच्छी फसल के लिए शुरू में 2-3 बार खरपतवार निकालना आवश्यक होता है. रोपाई के 3 दिनों बाद या रोपाई से पहले 3.5 लीटर स्टांप खरपतवारनाशी 800 लीटर पानी में डाल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से खरपतवार खत्म करने में मदद मिलती है.

फसल सुरक्षा: प्याज में थ्रिप्स नामक कीट लगने पर 500 लीटर पानी में 750 मिलीलीटर मैलाथियान या 375 मिलीलीटर मोनोक्राटोफास या सैंडोविट मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करते हैं.

स्टेमफिलियम झुलसा और पर्पल ब्लाच रोग से बचाव के लिए डाईथेन एम 45 या इंडोफिल एम 45 की 2.5 किलोग्राम मात्रा या कवच की 2 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करते हैं.

खुदाई : 50 फीसदी पत्तियां जमीन पर गिरने के 1 हफ्ते बाद खुदाई करने से भंडारण में होने वाली हानि कम होती है. खुदाई कर के पौधों को कतारों में रख कर सुखा लेते हैं. पत्तों को गर्दन से 2.5 सेंटीमीटर ऊपर से अलग कर लेते हैं और फिर 1 हफ्ते तक सुखाते हैं.

कंदों को सीधे सूर्य की रोशनी में नहीं सुखाना चाहिए और भीगने से बचाना चाहिए, वरना भंडारण में काफी नुकसान होता है.

भंडारण : अच्छी, समान रंग की पतली गर्दन वाली, दोफाडे़ रहित प्याजों का भंडारण करते हैं. 4.5 सेंटीमीटर से 6.5 सेंटीमीटर व्यास के प्याज कंद बीज उत्पादन के लिए सही होते हैं. उन्हीं का भंडारण करते हैं. इस से छोटे व बड़े कंदों को बाजार में बेच देना चाहिए.

गांठों का चयन और बोआई : बीजोत्पादन के लिए 4.5 से 6.5 सेंटीमीटर व्यास वाले कंद लगाने से पैदावार अच्छी होती है. कंद एक जैसे और स्वस्थ होने चाहिए.

बीजोत्पादन के लिए कंदों को लगाने का समय : नवंबर का पहला हफ्ता या दिसंबर के मध्य तक का समय बीज उत्पादन के लिए होता है. रबी प्रजातियों को नवंबर के मध्य और खरीफ की प्रजातियों को दिसंबर मध्य तक लगाना चाहिए. चुने हुए कंदों का एक तिहाई हिस्सा काट कर गांठों को 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम के घोल में डुबा कर लगाया जाता है. कंदों को अच्छी तरह तैयार किए गए खेतों में समतल क्यारियों में 45×30 सेंटीमीटर की दूरी पर 1.5 सेंटीमीटर गहरा लगाया जाना चाहिए. बोआई के बाद हलकी सिंचाई करनी चाहिए.

1 हेक्टेयर जमीन में लगने के लिए तकरीबन 25-30 क्विंटल कंद काफी होते हैं. खरीफ के प्याज को लगाने से पहले कंदों को 1 फीसदी केएनओ के घोल में मिला कर रखें, इस से अंकुरण अच्छा होता है.

खाद व उर्वरक : कंदों को लगाने से 20-25 दिनों पहले 20 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देनी चाहिए. बाद में 100 किलोग्राम यूरिया, 300 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 100 किलोग्राम म्यूरेट आफ पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में कंदों के लगाने के स्थान पर खुरपी से बनाए गए गड्ढों में अच्छी तरह मिलाने के बाद कंदों को लगाते हैं. यदि ऐसा न किया जाए तो कंद खाद के संपर्क में आने पर सड़ने शुरू हो जाते हैं. कंदों के लगाने के 30 दिनों बाद 100 किलोग्राम यूरिया या 200 किलोग्राम किसान खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से पौधों की जड़ों के पास मिला देते हैं.

राष्ट्रीय बागबानी अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान ने अपने प्रयोगों द्वारा पूसा रेड की गांठों को 30×45 सेंटीमीटर की दूरी पर लगा कर और 60 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर दे कर करनाल और नासिक क्षेत्रों में सब से अच्छी बीज की पैदावार हासिल की है. नासिक में एग्रीफाउंड डार्क रेड प्रजाति के बीजोत्पादन में 30×30 सेंटीमीटर दूरी रखने और 120 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से डालने से ज्यादा पैदावार मिली है. खेत में 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से पीएसबी का इस्तेमाल भी करना चाहिए.

खरपतवारनाशक दवाओं का इस्तेमाल : स्टांप प्रति हेक्टेयर 3.5 लीटर की दर से कंद लगाने से पहले क्यारियों में छिड़कते हैं. 1 बार खरपतवारों को हाथों से निकालते हैं, इस से खरपतवारों पर नियंत्रण रहता है और पैदावार भी अच्छी होती है.

सिंचाई व फसल की देखभाल : मौसम व मिट्टी के अनुसार हर 7-10 दिनों के अंतर पर बराबर सिंचाई करनी चाहिए. बोआई के 2 महीने बाद पौधों की जड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.

इस से उन्हें सहारा मिलता है और फूल निकलते समय गिरने से बच जाते हैं. ड्रिप इरीगेशन से भी प्याज का बीजोत्पादन किया जाता है.

अलगाव दूरी : प्याज में परपरागण होता है, इसलिए जब 2 जातियों के प्रमाणित बीज पैदा करने हों, तो उन के बीच में कम से कम 500 मीटर की दूरी होनी चाहिए.

खराब पौधों की छंटाई : रोगग्रस्त और उन पौधों को जो उस जाति से अलग दिखाई पड़े जिस का बीज बनाया जा रहा है, फूल आने से पहले ही निकाल देना चाहिए. इस से शुद्ध बीजोत्पादन में मदद मिलती है.

परागण को सुधारने के लिए ध्यान देने वाली बातें : प्याज में परपरागण होता है, इसलिए मधुमक्खियों का अधिक संख्या में होना जरूरी होता है. अच्छी तरह पर परागण के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

* मधुमक्खियों की कालोनी खेत के बीच में रखनी चाहिए.

* फूल आने के समय और बीज बनने के समय सिंचाई बराबर करनी चाहिए.

* फूल आने के समय किसी ऐसी दवा का छिड़काव नहीं करना चाहिए, जो मधुमक्खियों के लिए हानिकारक हो.

* अधिक तेज हवा से भी मधुमक्खियां फूलों पर बैठ नहीं पाती इस से परागण अच्छी तरह नहीं होता.

तेज हवा से बचाने के लिए प्याज बीजोत्पादन के खेत के चारों तरफ ऊंचे पौधों की बाड़ लगानी चाहिए.

फसल की सुरक्षा : थ्रिप्स और शीर्ष छेदक कीटों के आक्रमण के समय इंडोसल्फान या जोलोन की 2 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए.

बैगनी धब्बा और स्टेमफिलियम झुलसा रोग की रोकथाम के लिए मैंकोजेब की 2 किलोग्राम मात्रा को प्रति 800 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 15 दिनों के अंतर पर छिड़काव करना चाहिए. दवा छिड़कने से पहले घोल में चिपकने वाली दवा अवश्य मिला दें. नासिक और करनाल में मैंकोजेब 0.25 फीसदी और मोनोक्रोटाफास 0.05 फीसदी का 5-6 बार छिड़काव करने से रोगों का नियंत्रण अच्छा रहा और उत्पादन बढ़ा.

कटाई, मड़ाई, बीज की सफाई, सुखाई, भंडारण और पैकिंग : बोआई के 1 हफ्ते बाद अंकुरण शुरू हो जाता है. तकरीबन ढाई महीने बाद फूल वाले डंठल बनने शुरू हो जाते हैं. फूल गुच्छ बनने के 6 हफ्ते के अंदर ही बीज पक जाते हैं.

गुच्छोें का रंग जब मटमैला हो जाए और 20 फीसदी कैपसूल के काले बीज दिखाई देने लगें, तो गुच्छों को कटाई लायक समझना चाहिए.

फूलों के गुच्छे समान रूप से नहीं पकते, इसलिए उन्हीं गुच्छों को काटना चाहिए जिन के बीज छितरने वाले हों. कटे हुए गुच्छों को कैनवास के कपड़े पर या हवादार और छायादार जगह पर बने पक्के फर्श पर फैला कर सुखाना चाहिए. इस के बाद बीजों की सफाई मशीन से कर देनी चाहिए. यदि बीज अच्छी तरह साफ न हो पाएं तो ग्रेविटी सेपरेटर से दोबारा साफ करने चाहिए.

साफ बीजों को यदि टीन के डब्बों, अल्यूमिनियम फायलों या मोटे प्लास्टिक के लिफाफों में भरना हो, तो उन्हें 5 फीसदी नमी तक सुखाना चाहिए.

सुखाने के बाद बीजों को 2-3 ग्राम थाइरम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के लिफाफे या डब्बों में बंद करना चाहिए.

अगर बीजों को अच्छी तरह से सुखा कर बंद डब्बों या मोटे प्लास्टिक के लिफाफे में भरा गया हो, तो 18 से 20 डिगरी सेल्सियस तापमान और 30 से 40 फीसदी नमी में 2 सालों तक सुरक्षित रखा जा सकता है.

औसत उपज : औसत उपज 8 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

Marigold : गेंदा उगाएं अच्छी आमदनी पाएं

मशहूर फूल गेंदा (Marigold) की उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका और मैक्सिको की मानी जाती है. गेंदे (Marigold) की खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु और मृदा में सफलतापूर्वक की जा सकती है. गेंदे (Marigold) के पौधे में पुष्पन की अवधि अधिक होने के साथ ही साथ सुंदर पुष्प व इस के पुष्प का जीवनकाल अच्छा होने से पूरे विश्व में गेंदे (Marigold) के फूल की मांग दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.

मुख्य तौर पर गेंदे की 3 प्रजातियों टैंजेटिस इरेक्टा (अफ्रीकन गेंदा), टैंजेटिस पेटुला (फ्रेंच गेंदा) और टैंजेटिस माइन्यूटा (जंगली गेंदा) का इस्तेमाल विभिन्न मकसदों के लिए किया जाता है. अफ्रीकन और फ्रेंच गेंदे के फूलों का इस्तेमाल माला बनाने, पार्टी या शादी के पंडाल को सजाने, शादी में गाड़ी की सजावट और धार्मिक जगहों में पूजा के लिए किया जाता है. इस के अलावा इसे गमलों और क्यारियों में लगा कर घर, पार्क वगैरह जगहों को सजाया जाता है.

अफ्रीकन गेंदे की कुछ प्रजातियां, जिन की पुष्प डंडी लंबी होती है, उन के पुष्पों को डंडी के साथ काट कर घर के अंदर गुलदस्तों में लगा कर सजावट के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

पिछले कुछ सालों में दक्षिण भारत में अफ्रीकन गेंदे का क्षेत्रफल इस के फूलों की पंखुडि़यों से प्रसंस्करण विधि द्वारा कैरोटिनोएड्स निकालने के कारण बढ़ा है और कैरोटिनाएड्स का अधिकांश इस्तेमाल पोल्ट्री फीड (मुरगी के दाने) में किया जा रहा है. इस प्रकार का पोल्ट्री फीड मुरगी को खिलाने से उस के अंडे के योक और मांस का रंग पीला हो जाता है. ऐसे अंडों और मांस की मांग बाजार में ज्यादा है. दक्षिण भारत से कैरोटिनोएड्स को लगातार बाहर के तमाम देशों में भेजा जा रहा है.

ज्ांगली गेंदे के पौधों से प्रसंस्करण विधि द्वारा सुगंधित तेल निकाला जाता है. जंगली गेंदा दक्षिणपश्चिमी हिमालय में 1000 से 2500 मीटर समुद्र तल की ऊंचाई तक हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड एवं जम्मूकश्मीर के विभिन्न भागों में जंगली तौर पर पाया जाता है और इस क्षेत्र के कुछ किसान कारोबारी फसल के तौर पर इस की खेती भी कर रहे हैं.

फ्रांस, केनिया और आस्ट्रेलिया मुख्यतौर पर जंगली गेंदे से तेल निकालने का काम बड़े पैमाने पर कर रहे हैं. गेंदे का प्रयोग इस की पंखुडि़यों के रस को आंख की बीमारी और अल्सर के उपचार के लिए भी किया जाता है. गेंदे की खेती करने से खेत में निमेटोड का प्रकोप बहुत कम हो जाता है.

अफ्रीकन और फ्रेंच गेंदे की खेती भारत के कई हिस्सों में की जाती है. निचले पहाड़ी इलाकों में गेंदे के फूलों का उत्पादन उस समय होता है, जब मैदानी इलाकों में (गरमी का मौसम) उत्पादन घट जाता है, लेकिन मांग बढ़ जाती है. साथ ही, गरमियों में मैदानी इलाकों में इस के पुष्प उत्पादन की लागत अधिक सिंचाई करने के कारण बढ़ जाती है.

जलवायु

अफ्रीकन और फ्रेंच गेंदा दूसरे मौसमी फूलों जैसा नहीं है, जो साल में 1 बार ही पुष्प उत्पादन करेगा, बल्कि यह विभिन्न समय पर पौध रोपण करने पर हर साल पुष्पोत्पादन करता रहता है. खुली जगह जहां पर सूर्य की रोशनी सुबह से शाम तक रहती हो, ऐसी जगह पर गेंदे की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है. छायादार जगहों पर इस के पुष्प उत्पादन की दर बहुत कम हो जाती है और क्वालिटी भी घट जाती है. शीतोष्ण जलवायु को छोड़ कर अन्य जलवायु में इस की खेती पूरे साल की जा सकती है. शीतोष्ण जलवायु में इस का पुष्पोत्पादन केवल गरमी के मौसम में किया जाता है.

प्रवर्धन

गेंदे का प्रवर्धन बीज और वानस्पतिक भाग शाखा से कलम विधि द्वारा किया जाता है. वानस्पतिक विधि द्वारा प्रवर्धन करने से पौधे पैतृक जैसे ही उत्पादित होते हैं. व्यावसायिक स्तर पर गेंदे का प्रवर्धन बीज द्वारा किया जाता है.

गेंदे का बीज प्रति हेक्टेयर लगभग 800 ग्राम से 1000 ग्राम (1 किलोग्राम) की दर से लगता है. गेंदे का प्रवर्धन कलम विधि द्वारा करने के लिए 6 से 8 सेंटीमीटर लंबी कलम पौधे के ऊपरी भाग से लेते हैं.

पौधे से कलम को अलग करने के बाद कलम के निचले हिस्से से 3 से 4 सेंटीमीटर तक सभी पत्तियों को ब्लेड से काट देते हैं और कलम के निचले भाग को तिरछा काटते हैं. इस के बाद कलम को बालू में 2 से 3 सेंटीमीटर गहराई पर लगा देते हैं. कलम को बालू में लगा देने के 20 से 25 दिनों के बाद कलम में जडें़ बन जाती हैं. इस तरह वानस्पतिक प्रवर्धन विधि से पौधा बन कर रोपण हेतु तैयार हो जाता है.

मिट्टी

गेंदे की खेती हर तरह की मिट्टी में की जा सकती है. बलुई दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच हो और जीवांश पदार्थ की प्रचुर मात्रा के साथसाथ पानी के निकलने का सही इंतजाम हो, अच्छी  मानी गई है.

क्यारी की तैयारी

क्यारी बनाने से पहले मिट्टी की लगभग 30 सेंटीमीटर गहरी खुदाई कर के भुरभुरी और खरपतवाररहित कर लेते हैं. रासायनिक उर्वरक और गोबर की सड़ी खाद जरूरत के मुताबिक मिट्टी में डाल कर 15 से 20 सेंटीमीटर गहराई तक अच्छी तरह मिला देते हैं. क्यारी की चौड़ाई और लंबाई सिंचाई के साधन व खेत के आकार पर निर्भर करती है.

खेत समतल होने पर क्यारी लंबी और चौड़ी बनानी चाहिए, लेकिन खेत ऊंचेनीचे होने पर क्यारी का आकार छोटा रखना लाभदायक होता है. अच्छी तरह तैयार भुरभुरी मिट्टी में 2 से 3 मीटर चौड़ी और सुविधानुसार लंबी क्यारी बनानी चाहिए. 2 क्यारियों के बीच में 1 से डेढ़ फुट चौड़ी मेंड़ बनानी चाहिए.

नर्सरी की क्यारी की तैयारी और बीज की बोआई : गेंदे की पौध तैयार करने के लिए सामान्य तौर पर 1 मीटर चौड़ी और 15 से 20 सेंटीमीटर जमीन की सतह से ऊंची क्यारी बनाते हैं. 2 क्यारियों के बीज में 30 से 40 सेंटीमीटर का फासला छोड़ देते हैं, जिस से नर्सरी में सुगमतापूर्वक निराई हो सके और क्यारी से पौधों को रोपण हेतु निकाला जा सके.

नर्सरी की क्यारी की मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी कर के उस में सड़ी हुई गोबर की खाद 10 से 12 किलोग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से मिला देते हैं. अगर बलुई दोमट मिट्टी न हो, तो क्यारी में आवश्यकतानुसार बालू की मात्रा भी मिला देते हैं.

बीज की बोआई से पहले 2 ग्राम कैप्टान प्रति लीटर पानी में घोल कर सभी क्यारियों में छिड़क देना चाहिए, इस से नर्सरी में कवक का प्रकोप कम हो जाता है. बीज के अंकुरण के बाद पौधों की मृत्यु दर कम हो जाती है. क्यारी में बीज की बोआई 2 लाइनों के बीच में 6 से 8 सेंटीमीटर का फासला रखते हुए 1.5 से 2 सेंटीमीटर की गहराई पर करनी चाहिए. पंक्तियों में बीज पासपास नहीं रखने चाहिए, क्योंकि पासपास बीज की बोआई करने से पौध कमजोर हो जाती है.

क्यारियों में गरमी के मौसम में सुबहशाम और सर्दी और बरसात के मौसम में सुबह पानी प्रतिदिन फुहारा विधि से देना चाहिए.

गरमी के मौसम का पुष्पोत्पादन करने के लिए फरवरी महीने के दूसरे हफ्ते और बारिश के मौसम में पुष्पोत्पादन के लिए जून के पहले हफ्ते में बीज की बोआई करनी चाहिए. सर्दी में पुष्पोत्पादन के लिए सितंबर महीने के दूसरे हफ्ते में बीज की बोआई करनी चाहिए.

पौध रोपण

नर्सरी में बीज की बोआई के 1 महीने बाद पौध रोपण के लिए तैयार हो जाती है. अफ्रीकन गेंदा 41×40 सेंटीमीटर और फ्रेंच 30×30 सेंटीमीटर पौध से पौध और लाइन से लाइन के फासले पर 4 से 5 सेंटीमीटर गहराई पर लगाना चाहिए.

पौध रोपण गरमी के मौसम में सांयकाल और सर्दी और बरसात में पूरे दिन किया जा सकता है. पौध रोपण के समय यदि पौध लंबा हो गया हो तो लगाने से पहले उस के ऊपरी हिस्से को काट देना चाहिए.

खाद और उर्वरक

गोबर की सड़ी खाद 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए. इस के अलावा प्रति हेक्टेयर 200 किलोग्राम नाइट्रोजन और 80 किलोग्राम फास्फोरस और पोटाश देने से पुष्पोत्पादन बढ़ जाता है. फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा के लिए सिंगल सुपरफास्फेट और म्यूरेट औफ पोटाश को क्यारी की तैयारी के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए. नाइट्रोजन की मात्रा को 3 बराबर भागों में बांट कर 1 भाग क्यारी की तैयारी के समय और 2 भाग पौध रोपते समय 30 और 60 दिनों पर यूरिया या कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट उर्वरक द्वारा देना चाहिए.

सिंचाई व जलनिकासी

गेंदे की खेती में पौधों की बढ़वार और पुष्पोत्पादन में सिंचाई का खास महत्त्व है. सिंचाई के पानी का पीएच मान 6.5 से 7.5 तक लाभकारी पाया गया है. पौध रोपने के बाद सिंचाई खुली नाली विधि से की जाती है. मिट्टी में अच्छी नमी होने से जड़ों की अच्छी बढ़वार होती है और पौधों को मिट्टी में मौजूद पोषक तत्त्व सही मात्रा में मिलते रहते हैं.

शुष्क मौसम में सिंचाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए. गरमी में 5 से 6 दिनों और सर्दी में 8 से 10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. क्यारियों में पानी जमा नहीं होना चाहिए. बरसात में पानी की निकासी के लिए नाली पहले से तैयार रखनी चाहिए.

निराई कर निकालें खरपतवार :खरपतवार जब छोटे रहें, उसी समय खेत से बाहर निकाल देने चाहिए. पौधों की छोटी अवस्था में समय पर मिट्टी की गुड़ाई करनी चाहिए. ऐसा करने से मिट्टी भुरभुरी बनी रहती है और जड़ों की अच्छी बढ़वार होती है. मिट्टी की गुड़ाई बहुत गहरी नहीं करनी चाहिए.

यों करें शीर्षनोचन

ऐसा पौधों के फैलाव को बढ़ाने के लिए किया जाता है. शीर्षनोचन 2 बार करने से पुष्पोत्पादन बढ़ जाता है. अगर पौध रोपने में देरी हो रही हो, तो केवल पहला शीर्षनोचन करना चाहिए.

पहला शीर्षनोचन : पौध रोपण के समय यदि पौधों का शीर्षनोचन न किया गया हो, तो पौध लगाने के 12 से 15 दिनों बाद उन हर पौधों का शीर्षनोचन हाथ से करना चाहिए, जिन की लंबाई जमीन की सतह से 15 सेंटीमीटर से ज्यादा हो गई हो.

शीर्षनोचन के समय यह ध्यान रखा जाता है कि शीर्षनोचन के बाद पौध पर 4 से 5 पूर्ण विकसित पत्तियां बनी रहें. ऐसा करने से एक पौध पर 3 से 5 तक मुख्य शाखाएं आ जाती हैं. शाखाओं की संख्या बढ़ने पर पुष्पोत्पादन बढ़ जाता है.

दूसरा शीर्षनोचन : पहला शीर्षनोचन जैसा ही दूसरा शीर्षनोचन करते हैं. इस में मुख्य शाखाएं जब 15 से 20 सेंटीमटर लंबी हो जाती हैं, उस समय हर शाखा पर 4 से 5 पूरी विकसित पत्तियां छोड़ कर शीर्षनोचन कर देते हैं.

पुष्पों की तोड़ाई और उपज : गरमी के मौसम की फसल मई के मध्य से शुरू हो कर बरसात के समय तक चलती है. लेकिन यह देखा गया है कि जून में सर्वाधिक पुष्प उत्पादन होता है.

बरसात के मौसम की फसल में फूलों का उत्पादन सितंबर मध्य से शुरू हो कर लगातार दिसंबर तक और सर्दी में फसल जनवरी मध्य से शुरू हो कर मार्च तक लगातार पुष्पोत्पादन होता रहता है.  पहाड़ी इलाकों में गरमी और बरसात की फसल सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है. पुष्पों को पौध से तब अलग करते हैं, जब पुष्प पूरी तरह से खिल जाएं.

फूलों को तोड़ते समय यह ध्यान रखा जाता है कि फूल के नीचे लगभग 0.5 सेंटीमीटर तक लंबा हरा डंठल फूल से जुड़ा रहे. फूलों की तोड़ाई सुबह के समय करनी चाहिए और फूल किसी ठंडी जगह पर रखने चाहिए. अगर फूलों के ऊपर अतिरिक्त नमी या पानी की बूंदें हों, तो उन्हें छायादार जगह पर फैला देना चाहिए.

नमी कम हो जाने के बाद फूलों को बांस की टोकरी में बाजार भेज दिया जाता है. फूलों को अतिरिक्त नमी के साथ पैक करने पर उन की पंखुडि़यां काली पड़ने लगती हैं. इसी कारण ऐसे फूलों की कीमत बाजार में बहुत कम मिलती है. यदि सही तरीके से फसल पर ध्यान दिया गया हो, तो अफ्रीकन गेंदे से 200 से 250 क्विंटल और फ्रेंच गेंदे से 100 से 125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर फूलों की उपज मिल जाती है.

Marigold

मुख्य कीट और रोकथाम

रेड स्पाइडर माइड : माइड गेंदे की पत्तियों का रस चूस लेते हैं, जिस से पत्तियां हरे रंग से भूरे रंग में बदलने लगती हैं और पौधों की बढ़वार बिलकुल रुक जाती है. इस का प्रकोप होने पर पुष्पोत्पादन भी नहीं हो पाता है. जो कलियां बनती भी हैं, वे खिल भी नहीं पाती हैं. इस की रोकथाम के लिए हिल्फोल 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

एफिड्स : एफिड्स रस चूसने वाला कीट है. इस का प्रकोप पत्तियों, टहनियों और पुष्प कलियों पर होता है. यह पौधे की बढ़वार को कम कर देता है. इस की रोकथाम के लिए मैलाथियान या इंडोसल्फान का छिड़काव 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर करना चाहिए.

लीफमाइनर : लीफमाइनर नर और मादा दोनों पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. गेंदे में इस का प्रकोप होने पर पत्तियों में सफेद धारियां बन जाती हैं और पौधों की बढ़वार कम हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए 1.5 से 2 मिलीलीटर इंडोसल्फान प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

कैटरपिलर : यह कीट हरे और भूरेकाले रंग का होता है. यह पत्तियों, टहनियों और कलियों को नुकसान पहुंचाता है. इस की रोकथाम के लिए 1.5 मिलीलीटर इंडोसल्फान या मैलाथियान 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

खास बीमारियां और रोकथाम

डैमपिंग आफ : यह बीमारी राइजोकटोनिया सोलेनाई कवक का प्रकोप होने पर नर्सरी में होती है. इस बीमारी का हमला होने पर नर्सरी में ही पौधे खत्म हो जाते हैं.

अधिकतर यह बीमारी नर्सरी में पौधों को बहुत ज्यादा पानी देने के कारण होती है. इस की रोकथाम के लिए क्यारी में बीज की बोआई करने से पहले कापर कवकनाशी कैप्टान के घोल (0.2 फीसदी सांद्रता) का छिड़काव करना चाहिए या मिट्टी को फार्मल्डीहाइड नामक कैमिकल के घोल (2 फीसदी सांद्रता) से संक्रमित कर देना चाहिए. इस बीमारी का प्रकोप होने के बाद निदान करना बहुत ही कठिन है.

फ्लावर बड राट : यह बीमारी अधिक आर्द्रता वाले इलाकों में देखी गई है. इस बीमारी में कलियों पर ब्राउन धब्बे पड़ जाते हैं. इस तरह की कलियां पूरी तरह से खिल नहीं पाती हैं. इस की रोकथाम के लिए डाइथेन एम 45 के 0.2 फीसदी सांद्रता के घोल का छिड़काव करें.

कालर राट, फूट राट और रूट राट : ये बीमारियां राइजोकाटोनिया सोलेनाई, फाइटोप्थेरा स्पेशीज, पीथियम स्पेशीज वगैरह कवकों के कारण होती हैं. कालर राट पौधे की किसी अवस्था में देखा जा सकता है. फूट राट एवं रूट राट अधिक आर्द्रता वाले इलाकों में और क्यारी में अधिक पानी होने के कारण भी पाई पाती है. इस की रोकथाम के लिए नर्सरी की मिट्टी को बीज की बोआई से पहले फार्मल्डीहाइड के घोल से साफ करें, रोगरहित बीज का प्रयोग करें, रोगग्रसित पौधों को उखाड़ दें, बहुत घनी नर्सरी या पौध रोपण न करें और बोआई से पहले कैप्टान से बीज को उपचारित करें.

लीफ स्पाट : यह बीमारी अल्टरनेरिया टैजेटिका कवक के प्रकोप होने पर गेंदे के पौधे पर देखी गई है. इस बीमारी से प्रभावित पौधों की पत्तियों के ऊपर भूरा गोल धब्बा दिखने लगता है. इस बीमारी की रोकथाम के लिए बाविस्टीन 1 से 1.5 ग्राम पाउडर प्रति लीटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़काव करना चाहिए.

पाउडरी मिल्ड्यू : गेंदा के फूल में पाउडरी मिल्ड्यू ओडियम स्पेशीज और लेविल्लुला टैरिका कवकों के प्रकोप होने के कारण होता है. इस बीमारी में पौधों की पत्तियों के ऊपर सफेद पाउडर दिखने लगता है. इस बीमारी की रोकथाम के लिए कैराथेन 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़काव करना चाहिए.

विषाणु रोग : विषाणु पौधों की क्वालिटी को धीरेधीरे कम कर देते हैं. गेंदे में कुकुंबर मोजेक वायरस का हमला देखा गया है. इस विषाणु रोग से बचाव के लिए रोगग्रसित पौधों को समयसमय पर उखाड़ कर जमीन के अंदर दबा दें या जला दें.

Flower Cultivation : गुणों से भरपूर है सदाबहार की खेती

Flower Cultivation| भारत में सदाबहार तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और असम में तकरीबन 3000 हेक्टेयर क्षेत्र में उगाया जाता है. सदाबहार बहुवर्षीय पौधा है, जो 2 से 3 फुट ऊंचाई वाला होता है. इस के फूल गुलाबी, सफेद होते हैं. तने हलके बैगनी व हरा दोनों रंगों में होते हैं. सदाबहार के बीज छोटेछोटे काले रंग के होते हैं, जो 1 ग्राम में तकरीबन 800 दाने होते हैं.

सदाबहार एक औषधीय पौधा है. इस का अनेक बीमारियों जैसे मधुमेह, मलेरिया, चर्म रोग, कैंसर वगैरह में इस्तेमाल होता है. इस के अलावा यह बागबगीचे की शोभा बढ़ाने वाला पौधा भी है. इस की फसल विभिन्न प्रकार की जलवायु और जमीन में सफलतापूर्वक की जा सकती है. अच्छी बढ़वार के लिए गरम व शुष्क मौसम फायदेमंद है. हालांकि यह अनेक प्रकार की मिट्टी  में उगाया जा सकता है, फिर भी हलकी दोमट मिट्टी में इस की अच्छी फसल ली जा सकती है. इस की फसल को क्षारीय, लवणीय और बाढ़ग्रस्त जमीन पर नहीं लगाना चाहिए.

खास किस्म

प्रभात (सलेक्शन 1) : यह किस्म चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार से है. सिमेप लखनऊ की धवल व निर्मल 2 किस्में हैं.

बोने का तरीका

खेत तैयार करने के बाद सदाबहार के बीज को भी सीधा खेत में बोया जा सकता है. 30 सेंटीमीटर की दूरी पर इस की बोआई करनी चाहिए. इस के लिए तकरीबन 1 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ की जरूरत होती है. पौध से रोपाई करने के लिए केवल 200 ग्राम बीज लगता है. 200 वर्ग मीटर क्षेत्रफल की नर्सरी में बीज की बीजाई करनी चाहिए. जब इस की पौध 5-6 इंच की हो जाए तो पौध को खेत में रोप देना चाहिए. इस के लिए आप पौध रोपाई यंत्र का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. पौध की रोपाई करने के बाद खेत में हलका पानी भी दें, ताकि पौधे मिट्टी पकड़ लें. नर्सरी तैयार करने का समय मईजून है, जिसे जुलाईअगस्त में रोपा जा सकता है.

खादपानी व तैयारी

खेत तैयार करते समय अच्छी तरह सड़ीगली गोबर की खाद जरूर डालनी चाहिए और आखिरी जुताई के समय 8 किलोग्राम नाइट्रोजन व 12 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ के हिसाब से खेत में डालें. जिस जमीन में पोटाश की कमी हो, वहां 12 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ खेत में डालें. उस के बाद 2 और 5 महीने बाद जरूरत के मुताबिक नाइट्रोजन की मात्रा भी खेत में डालें. समयसमय पर निराईगुड़ाई का भी ध्यान रखें और खरपतवारों को खेत से निकालते रहें. साथ ही जरूरत के मुताबिक खेत में सिंचाई करें. इस फसल की खासीयत है कि इस में किसी भी तरह के कीट और बीमारी नहीं लगती है.

फसल चुनना

पूरे सीजन के दौरान 3 बार पत्तों की चुनाई की जा सकती है. पहली बार 4 महीने पर, दूसरी बार 8 महीने पर और तीसरी कटाई के समय. फसल को जमीन से 15 सेंटीमीटर की ऊंचाई से काटना चाहिए, जिस से फसल में दोबारा फुटाव हो सके.

प्राप्त किए हुए पत्तों और तनों को सुखा लिया जाता है. सुखाने के बाद पत्तियां अलग कर ली जाती हैं. इस की विदेशों में अच्छीखासी मांग है. तकरीबन 8 से 10 क्विंटल प्रति एकड़ की पैदावार पत्तियों के रूप में मिलती है.

जड़ों का इस्तेमाल

सीजन की पूरी फसल लेने के बाद आखिर में पौधों को जड़ों सहित उखाड़ लिया जाता है और जड़ों को पानी में अच्छी तरह धोने के बाद अच्छी तरह सुखाया जाता है. सूखी जड़ों की औसत पैदावार 4 से 5 क्विंटल प्रति एकड़ है.

Barren Land : जिप्सम और पायराइट से सुधरेगा ऊसर

Barren Land| भारत में एक बड़ा हिस्सा ऊसर जमीन का है, जिस में खासतौर पर लवणीय और क्षारीय जमीन मुख्य रूप से पाई जाती है. एक अनुमान के मुताबिक देश में लवणीय और क्षारीय जमीन उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान समेत अन्य प्रदेशों के बड़े क्षेत्र में पाई जाती है. ऊसरीले इलाकों में खेती करना मुश्किल है या फिर मुमकिन ही नही है. ऐसे में इन समस्याग्रस्त जमीनों का जल्दी से सुधार करने के लिए एक अचूक तरीका है जिप्सम और पायराइट से जमीन का सुधार.

ध्यान देने वाली बात यह है कि जिप्सम और पायराइट न केवल ऊसर जमीन को सुधारते हैं, बल्कि नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के बाद सब से जरूरी द्वितीयक पोषक तत्त्व जैसे सल्फर, कैल्शियम, मैग्नीशियम और कुछ सूक्ष्म पोषक तत्त्वों जैसे लोहा वगैरह का भी अच्छा स्रोत हैं.

क्या है ऊसर जमीन की पहचान : ऐसी जमीन, जिस में लवण (सोडियम, सोडियम बाईकार्बोनेट, सोडियम क्लोराइड) वगैरह की अधिकता की वजह से ऊपरी सतह सफेद दिखाई देने लगती है या जमीन बहुत ही कठोर हो जाती है और फसलें नहीं उगाई जा सकती हैं, उसे ऊसर जमीन कहते हैं.

ऊसर जमीन की मुख्य पहचान है, जमीन का कड़ा हो जाना, पानी न सोखना, जिस से जमीन पर कटाव होता है और नाले बन जाते हैं, जहां ऊसर क्षेत्र होता है, वहां मकानों में प्लास्टर जल्दी गिरने लगते हैं, यह धीरेधीरे ईंटों को गलाने लगता है. बारिश होने पर यह मिट्टी साबुन की तरह फिसलने लगती है.

ऊसर जमीन 3 प्रकार की होती है, लवणीय, क्षारीय और लवणीय व क्षारीय.

लवणीय जमीन : लवणीय मिट्टी का निर्माण आमतौर पर 55 सेंटीमीटर से कम बारिश वाले शुष्क और अर्द्धशुष्क इलाकों में होता है. इस मिट्टी में मृदा स्तर की ऊपरी सतह पर सब से ज्यादा लवण की मात्रा रहती है और सूखे मौसम में मिट्टी की सतह पर उजली पपड़ी सी नजर आती है. मिट्टी का पीएच मान 8.5 से कम पाया जाता है.

क्षारीय जमीन : इसे सोडिक मिट्टी या काली क्षारीय, अलवणीय क्षारीय मिट्टी भी कहते हैं. इस का रंग काला होता है. मिट्टी का पीएच मान 8.5 से 10 तक होता है. मिट्टी में कड़ी परत बनी होती है, जिस से ऐसी जमीन का सुधार करना मुश्किल होता है. लिहाजा, इस में जिप्सम या पायराइट का इस्तेमाल जमीन सुधारक के रूप में करना बेहतर रहता है.

Barren Land

लवणीय व क्षारीय जमीन : यह मिट्टी ज्यादातर भूरे रंग की पाई जाती है और शुष्क क्षेत्रों में ज्यादा देखने में आती है. इस में ऊपरी सतह पर लवण पाए जाते हैं, लेकिन नीचे की सतह पर क्षारीय जमीन की तरह कड़ी परत पाई जाती है. इस का पीएच मान 8.5 से कम, लेकिन नितारने के बाद 8.5 से अधिक होता है.

क्या है जिप्सम : जिप्सम को कैल्शियम सल्फेट के नाम से जानते हैं. इस में 29.2 फीसदी कैल्शियम, 18.6 फीसदी सल्फर व 20.9 फीसदी भारानुसार पानी होता है. इस की खास विशेषताएं निम्न प्रकार हैं:

* यह जमीन सुधारक के साथसाथ कैल्शियम और सल्फर का मुख्य स्रोत होने के कारण मिट्टी को कैल्शियम और सल्फर जैसे द्वितीयक पोषक तत्त्व देता है. इन दिनों ज्यादातर मिट्टी में इन दोनों तत्वों की भारी कमी है. इस की वजह से पैदावार पर नकारात्मक असर पड़ रहा है.

* यह जल में घुलनशील होता है.

* इस का कैल्शियम आयन क्षारीय मृदा में से विनिमेय सोडियम आयन को विस्थापित कर के सोडियम क्ले को कैल्शियम क्ले (खराब आयन को लाभदायक आयन) में बदल देने का माद्दा रखता है. कैल्शियम कार्बनिक पदार्थों को मृदा के क्ले कणों को बांधता है, जिस से मिट्टी के कणों में टिकाऊपन आता है, लिहाजा, मिट्टी में हवा का आनाजाना आसान हो जाता है.

* यह सस्ता और सुलभ है.

क्या है पायराइट : इसे आयरन सल्फाइड कहते हैं. इस में सब से ज्यादा 22 से 24 फीसदी सल्फर, 20 से 22 फीसदी आयरन, 0.5 से 0.6 फीसदी मैग्नीशियम, 35 से 40 फीसदी सिलिका होता है. इस की खास विशेषताएं निम्न प्रकार हैं.

* पायराइट में द्वितीयक पोषक तत्त्वों मैग्नीशियम व सल्फर के अलावा भरपूर मात्रा में आयरन जैसे सूक्ष्म पोषक तत्त्व भी पाए जाते हैं. मिट्टी को मिलने वाले पोषक तत्त्वों के आधार पर यह जिप्सम से ज्यादा बेहतर है.

* यह पानी व हवा से क्रिया कर के तुरंत ही सल्फ्यूरिक अम्ल और आयरन सल्फेट बनाता है. सल्फ्यूरिक अम्ल और आयरन सल्फेट मिट्टी की क्षारीयता को तेजी से घटा देते हैं.

* इस के द्वारा बनाया गया सल्फ्यूरिक अम्ल ऊसरीली मिट्टी में कैल्शियम कार्बोनेट से क्रिया कर के कैल्शियम सल्फेट बनता है, जो मिट्टी को कैल्शियम मिट्टी में बदल देता है.

* जमीन सुधार के समय जिप्सम के मुकाबले पायराइट जल्दी लगभग 7-10 दिनों में ही मिट्टी में क्रिया पूर्ण कर लेता है. वहीं दूसरी ओर जिप्सम को 10-15 दिनों तक पानी में डूबे रहने की जरूरत पड़ती है.

Barren Land

कब होगा प्रयोग : ऊसर जमीन का सुधार साल भर किया जा सकता है. मगर सब से मुफीद समय गरमियों का महीना है. इन दिनों में मिट्टी में पानी सोखने की कूवत ज्यादा होती है. साथ ही, इस से रिसने की क्रिया आसान हो जाती है. रिसाव होने से नुकसानदायक लवण जमीन की निचली सतह में चले जाते हैं, जिस से ऊपरी सतह में लवण की सांद्रता काफी कम हो जाती है.

साथ में क्या होगा प्रयोग : ऊसर जमीन को सुधारने के लिए संस्तुत मात्रा में जिप्सम अथवा पाइराइट की आधी मात्रा और 10 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद अथवा 10 टन प्रेसमड अथवा 10 टन फ्लाईएैश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें. यदि गोबर की खाद, प्रेसमड, फ्लाईएैश न हो, तो जिप्सम अथवा पायराइट की संस्तुत की गई पूरी मात्रा का प्रयोग करना चाहिए.

कैसे होगा प्रयोग : जिप्सम या पायराइट का प्रयोग करने से पहले खेत में 5-6 मीटर चौड़ी क्यारियां लंबाई में बना लेनी चाहिए. उस के बाद जिप्सम अथवा पायराइट को देशी हल अथवा कल्टीवेटर से जमीन की ऊपरी सतह में मिला कर और खेत को समतल कर के पानी भर कर के रिसाव क्रिया करनी चाहिए. पहले खेत में 12-15 सेंटीमीटर पानी भर कर छोड़ देना चाहिए. 7-8 दिनों बाद जो पानी बचे, उसे जल निकास नाली द्वारा बाहर निकाल कर फिर से 12-15 सेंटीमीटर पानी भर कर रिसाव क्रिया करनी चाहिए. ऊसर सुधार के बाद 2-3 साल अनिवार्य रूप से पहली फसल धान की लेनी चाहिए.

Women Farmers: मजदूर ही नहीं खेतिहर भी हैं महिला किसान

महिला किसानों (Women Farmers) को ले कर आमतौर पर यह सोचा जाता है कि वे केवल खेती में मजदूरी का ही काम करती हैं. असल में यह बात सच नहीं है. आज महिलाएं किसान भी हैं. वे खेत में काम कर के घर की आमदनी बढ़ा रही हैं. बैंक से लोन लेने के साथ ही साथ ट्रैक्टर चलाने, बीज रखने, जैविक खेती करने, खेत में खाद और पानी देने जैसे बहुत सारे काम करती हैं.

ऐसी महिला किसानों की अपनी सफल कहानी है, जिस से दूसरी महिला किसान भी प्रेरणा ले रही हैं. जरूरत इस बात की है कि हर गांव में ऐसी महिला किसानों की संख्या बढे़ और खेती की जमीन में उन को भी मर्दों के बराबर हक मिले.

महिलाओं की सब से बड़ी परेशानी यह है कि खेती की जमीन में उन का नाम नहीं होता. इस वजह से बहुत सी सरकारी योजनाओं का लाभ महिला किसानों को नहीं मिल पाता है. खेती की जमीन में महिलाओं का नाम दर्ज कराने के लिए चले ‘आरोह’ अभियान से महिलाओं में एक जागरूकता आई है. आज वे बेहतर तरह सेअपना काम कर रही हैं. तमाम प्रगतिशील महिला किसानों से बात करने पर पता चलता है कि वे किस तरह से अपनी मेहनत के बल पर आगे बढ़ीं.

मुन्नी देवी शाहजहांपुर की रहने वाली हैं. उन के परिवार में 2 बेटे व एक बेटी है. लेकिन घर के हालात कुछ ऐसे बदले कि मुन्नी देवी का परिवार तंगहाली में आ गया. घर में बंटवारा हुआ. पति के हिस्से में जो जमीन आई, उस से गुजारा करना मुश्किल था.

मुन्नी देवी को आश्रम से जुड़ने का मौका मिला. हिम्मत जुटा कर उन्होंने पति से बात कर आश्रम में वर्मी कंपोस्ट बनाने का प्रशिक्षण ले कर बाद में खुद ही खाद बनाने का काम शुरू कर दिया.

आर्थिक उन्नयन के लिए मुन्नी देवी फसलचक्र व फसल प्रबंधन को बेहद जरूरी मानती हैं. 3 बीघे खेत में सब्जी व 5 बीघे खेत में गेहूं 4 बीघे खेत में गन्ने की फसल उगा रही हैं. गन्ने के साथ मूंग, उड़द, मसूर, लहसुन, प्याज, आलू, सरसों वगैरह की सहफसली खेती करती हैं, जिस से परिवार की रसोई के लिए नमक के अलावा बाकी चीजों की जरूरत पूरी कर लेती हैं.

इसलावती देवी अंबेडकरनगर से हैं. उन्होंने कहा कि हम ने मायके में देखा था कि मिर्च की खेती किस तरह होती है और यह लाभप्रद भी है, उसी अनुभव से हम ने मिर्च की खेती शुरू की और आज हम अपने 7 बीघे खेत में सिर्फ सब्जी और मेंथा आयल की फसल उगाते हैं. मिर्च की खेती एक नकदी फसल है. दूसरी सब्जियां भी महंगे दामों में बिक जाती हैं. खेत में हमारा पूरा परिवार कड़ी मेहनत करता है. खेती कोई घाटे का काम नहीं है.

कुंता देवी सहारनपुर की एक साहसी, जुझारू व संघर्षशील महिला किसान हैं. 1 दिन जब वे पशुओं के लिए मशीन में चारा काट रही थीं, तो उन का हाथ घास की गठरी के साथ मशीन में चला गया और पूरी बाजू ही कट गई. कुंता ने उसे ही अपना नसीब समझा और सबकुछ चुपचाप सह लिया. लेकिन यहीं कुंता के दुख का अंत नहीं था. उस के देवर व जेठ की बुरी नजर उस पर थी. कुंता का पति मानसिक रोगी था, जिस के कारण कुंता का देवर धर्म सिंह उस का फायदा उठाना चाहता था. वह कुंता पर लगातार दबाव डालने लगा कि पति के साथसाथ वह देवर के साथ भी रहे.

एक दिन जब कुंता पति के साथ अपने खेत में काम कर रही थी, तभी उस का जेठ जय सिंह वहां आया और उस के पति को जबरदस्ती पेड़ से बांध दिया और कुंता के साथ जबरदस्ती करने लगा. लेकिन कुंता बहुत हिम्मतवाली महिला है. उस ने खेत में ही डंडा निकाल कर अपने जेठ को पीटना शुरू कर दिया. उस का जेठ वहां से जान बचा कर भाग गया.

मीरा देवी गोरखपुर की एक लघु सीमांत महिला किसान हैं. आरोह अभियान से पिछले 10 वर्षों से जुड़ी हैं. ग्राम जनकपुर की आरोह महिला मंच की अध्यक्ष भी हैं. आरोह अभियान से जुड़ने के बाद मीरा में जो साहस व हिम्मत आई है, वह एक मिसाल है.

जगरानी देवी ललितपुर की एक महिला किसान हैं. उन की शहरी आदिवासी पट्टे की जमीन पर वर्षों से दंबगों का कब्जा था, जिस पर इन को कब्जा नहीं मिल रहा था. जब यह आरोह अभियान से जुड़ीं, उस के बाद आरोह अभियान द्वारा जनसुनवाई की गई, जिस में एसडीएम आए तब इन्होंने उन के सामने अपनी समस्या रखी. उस के बाद एसडीएम ने उन्हें कब्जा दिलाया. अब जगरानी देवी अपने खेत में सब्जी की खेती करती हैं और अपनी सब्जी को खुद ही बाजार में बेचती हैं.

Chilli Nursery : वैज्ञानिक विधि द्वारा मिर्च की पौधशाला करें तैयार

Chilli Nursery| हर दिन इस्तेमाल की जाने वाली मिर्च की खेती बरसात में जुलाई से अक्तूबर तक, सर्दी में सितंबर से जनवरी तक और जायद मौसम में फरवरी से जून तक की जाती है. मिर्च को सुखा कर बेचने के लिए सर्दी के मौसम की मिर्च का इस्तेमाल होता है.

मिर्च की खासीयत यह है कि यदि पौध अवस्था में ही इस की देखभाल ठीक से कर ली जाए तो अच्छा उत्पादन मिलने में कोई शंका नहीं होती है. भरपूर सिंचाई समयानुसार करने से ज्यादा फायदा लिया जा सकता है. टपक सिंचाई अपनाने से मिर्च की फसल से दोगुनी उपज हासिल की जा सकती है. टपक सिंचाई से 50-60 फीसदी जल की बचत होती है और खरपतवार से नजात मिल जाती है.

मिर्च की नर्सरी ऐसे लगाएं

पौधशाला, रोपणी या नर्सरी एक  ऐसी जगह है, जहां पर बीज या पौधे के अन्य भागों से नए पौधों को तैयार करने के लिए सही इंतजाम किया जाता है. पौधशाला का क्षेत्र सीमित होने के कारण देखभाल करना आसान व सस्ता होता है.

पौधशाला के लिए जगह का चुनाव

* पौधशाला के पास बहुत बड़े पेड़ न हों.

* जमीन उपजाऊ, दोमट, खरपतवार रहित व अच्छे जल निकास वाली हो, अम्लीय क्षारीय जमीन का चयन न करें.

* पौधशाला में लंबे समय तक धूप रहती हो.

* पौधशाला के पास सिंचाई की सुविधा मौजूद हो.

* चुना हुआ क्षेत्र ऊंचा हो ताकि पानी न ठहरे.

* एक फसल के पौध लगाने के बाद दूसरी बार पौध उगाने की जगह बदल दें यानी फसलचक्र अपनाएं.

क्यारियों की तैयारी व उपचार

पौधशाला की मिट्टी की एक बार गहरी जुताई करें या फिर फावड़े की मदद से खुदाई करें. खुदाई करने के बाद ढेले फोड़ कर गुड़ाई कर के मिट्टी को भुरभुरी बना लें और उगे हुए सभी खरपतवार निकाल दें. फिर सही आकार की क्यारियां बनाएं. इन क्यारियों में प्रति वर्गमीटर की दर से 2 किलोग्राम गोबर या कंपोस्ट की सड़ी खाद या फिर 500 ग्राम केंचुए की खाद मिट्टी में अच्छी तरह से मिलाएं. यदि मिट्टी कुछ भारी हो तो प्रति वर्गमीटर 2 से 5 किलोग्राम रेत मिलाएं.

मिट्टी का उपचार

जमीन में विभिन्न प्रकार के कीडे़ और रोगों के फफूंद जीवाणु वगैरह पहले से रहते हैं, जो मुनासिब वातावरण पा कर क्रियाशील हो जाते हैं व आगे चल कर फसल को विभिन्न अवस्थाओं में नुकसान पहुंचाते हैं. लिहाजा नर्सरी की मिट्टी का उपचार करना जरूरी है.

सूर्यताप से उपचार

इस विधि में पौधशाला में क्यारी बना कर उस की जुताईगुड़ाई कर के हलकी सिंचाई कर दी जाती है, जिस से मिट्टी गीली हो जाए. अब इस मिट्टी को पारदर्शी 200-300 गेज मोटाई की पौलीथीन की चादर से ढक कर किनारों को मिट्टी या ईंट से दबा दें ताकि पौलीथीन के अंदर बाहरी हवा न पहुंचे और अंदर की हवा बाहर न निकल सके. ऐसा उपचार तकरीबन 4-5 हफ्ते तक करें. यह काम 15 अप्रैल से 15 जून तक किया जा सकता है. उपचार के बाद पौलीथीन शीट हटा कर खेत तैयार कर के बीज बोएं. सूर्यताप उपचार से भूमि जनित रोग कारक जैसे फफूंदी, निमेटोड, कीट व खरपतवार वगैरह की संख्या में भारी कमी हो जाती है.

रसायनों द्वारा जमीन उपचार

बोआई के 4-5 दिनों पहले क्यारी को फोरेट 10 जी 1 ग्राम या क्लोरोपायरीफास 5 मिलीलीटर पानी के हिसाब से या कार्बोफ्यूरान 5 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से जमीन में मिला कर उपचार करते हैं. कभीकभी फफूंदीनाशक दवा कैप्टान 2 ग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से मिला कर भी जमीन को सही किया जा सकता है.

जैविक विधि द्वारा उपचार

क्यारी की जमीन का जैविक विधि से उपचार करने के लिए ट्राइकोडर्मा विरडी की 8 से 10 ग्राम मात्रा को 10 किलोग्राम गोबर की खाद में मिला कर क्यारी में बिखेर देते हैं. इस के बाद सिंचाई कर देते हैं. जब खेत का जैविक विधि से उपचार करें, तब अन्य किसी रसायन का इस्तेमाल न करें.

Chilli Nursery

बीज खरीदने में सावधानियां

* बीज अच्छी किस्म का शुद्ध व साफ हो, अंकुरण कूवत 80-85 फीसदी हो.

* बीज किसी प्रमाणित संस्था, शासकीय बीज विक्रय केंद्र, अनुसंधान केंद्र या विश्वसनीय विक्रेता से ही लेना चाहिए. बीज प्रमाणिकता का टैग लगा पैकेट खरीदें.

* बीज खरीदते समय पैकेट पर लिखी किस्म, उत्पादन वर्ष, अंकुरण फीसदी, बीज उपचार वगैरह जरूर देख लें ताकि पुराने बीजों से बचा जा सके. बीज बोते समय ही पैकेट खोलें.

बीज उपचार : बीज हमेशा उपचारित कर के ही बोने चाहिए ताकि बीज जनित फफूंद से फैलने वाले रोगों को काबू किया जा सके. बीज उपचार के लिए 1.5 ग्राम थाइरम, 1.5 ग्राम कार्बेंडाजिम या 2.5 ग्राम डाइथेन एम 45 या 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरडी का प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से इस्तेमाल करना चाहिए. यदि क्यारी की जमीन का उपचार जैविक विधि (ट्राइकोडर्मा) से किया गया है, तो बीजोपचार भी ट्राइकोडर्मा विरडी से करें.

बीज बोने की विधि : क्यारियों में उस की चौड़ाई के समानांतर 7-10 सेंटीमीटर की दूरी पर 1 सेंटीमीटर गहरी लाइनें बना लें और उन्हीं लाइनों पर करीब 1 सेंटीमीटर के अंतर से बीज बोएं. बीज बोने के बाद उसे कंपोस्ट, मिट्टी व रेत के 1:1:1 के 5-6 ग्राम थाइरम या केपटान से उपचारित मिश्रण से 0.5 सेंटीमीटर की ऊंचाई तक ढक देते हैं.

क्यारियों को पलवार से ढकना : बीज बोने के बाद क्यारी को स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पुआल, सरकंडों, गन्ने के सूखे पत्तों या ज्वारमक्का के बने टटीयों से ढक देते हैं ताकि मिट्टी में नमी बनी रहे और सिंचाई करने पर पानी सीधे ढके हुए बीजों पर न पड़े, वरना मिश्रण बीज से हट जाएगा और बीज का अंकुरण प्रभावित होगा.

सिंचाई : क्यारियों में बीज बोने के बाद 5-6 दिनों तक हलकी सिंचाई करें ताकि बीज ज्यादा पानी से बैठ न जाएं. बरसात में क्यारी की नालियों में मौजूद ज्यादा पानी को पौधशाला से बाहर निकालना चाहिए. क्यारियों से पलवार घासफूल तब हटाएं जब तकरीबन 50 फीसदी बीजों का अंकुरण हो चुका हो. बोआई के बाद यह अवस्था मिर्च में 7-8 दिनों बाद, टमाटर में 6-7 दिनों बाद व बैगन में 5-6 दिनों बाद आती है.

खरपतवार नियंत्रण : क्यारियों में उपचार के बाद भी यदि खरपतवार उगते हैं, तो समयसमय पर उन्हें हाथ से निकालते रहना चाहिए. इस के लिए पतलीलंबी डंडियों की भी मदद ली जा सकती है. बेहतर रहेगा अगर यदि पेंडीमिथालिन की 3 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर बोआई के 48 घंटे के भीतर क्यारियों में छिड़क दें.

पौध विरलन : यदि क्यारियों में पौधे अधिक घने उग आएं तो उन को 1-2 सेंटीमीटर की दूरी पर छोड़ते हुए अन्य पौधों को छोटी उम्र में ही उखाड़ देना चाहिए, वरना पौधों के तने पतले व कमजोर बने रहते हैं. घने पौधे पदगलन रोग लगने की संभावना बढ़ाते हैं. उखाड़े गए पौधे खाली जगह पर रोपे जा सकते हैं.

पौध सुरक्षा : पौधशाला में रस चूसने वाले कीट जैसे माहू, जैसिड, सफेद मक्खी व थ्रिप्स से काफी नुकसान पहुंचता है. विषाणु अन्य बीमारियों को फैलाते हैं, लिहाजा इन के नियंत्रण के लिए नीम का तेल 5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में या डायमिथियेट (रोगोर) 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर बोआई के 8-10 दिनों और 25-27 दिनों बाद छिड़कना चाहिए. क्यारी और बीज उपचार करने के बाद भी यदि पदगलन बीमारी लगती है (जिस में पौधे जमीन की सतह से गल कर जमीन पर गिरने लगते हैं और सूख जाते हैं), तो फसल पर मैंकोजेब या कैप्टान 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

पौधे उखाड़ना : क्यारी में तैयार पौधे जब 25-30 दिनों के हो जाएं और उन की ऊंचाई 10-12 सेंटीमीटर की हो जाए और उन में 5-6 पत्तियां आ जाएं, तब उन्हें पौधशाला से खेत में रोपने के लिए निकालना चाहिए. पौध निकालने से पहले उन की हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए. सावधानी से पौधे निकालने के बाद 50 या 100 पौधों के बंडल बना लें.

पौधों का रोपाई से पहले उपचार : पौधशाला से निकाले गए पौध समूह या रोपा की जड़ों को कार्बेंडाजिम बाविस्टीन 10 ग्राम प्रति लीटर पानी में बने घोल में 10 मिनट तक डुबोना चाहिए, रोपाई के बाद सिंचाई जरूर करें.

गरमी के मौसम में कतार से कतार की दूरी 45 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंटीमीटर और बरसात में कतार से कतार की दूरी 60 सेंटीमीटर व पौधे से पौधे की दूरी 45 सेंटीमीटर रखें.

मिर्च से अधिकतम उत्पादन हासिल करने के लिए उस की नर्सरी लगा कर पौधशाला में स्वस्थ पौधे तैयार करने का अपना अलग महत्त्व है. जितनी स्वस्थ नर्सरी रहेगी, उतनी ही अच्छी रोप मिलेगी.

Phirni : फिरनी का स्वाद सदा रहेगा याद

Phirni| खास त्योहारों पर बनाई जाने वाली फिरनी अब खाने के बाद की सब से ज्यादा पसंद की जाने वाली मीठी डिश बन गई है. छोटेबड़े सभी किस्म के होटलों और रेस्त्राओं में इस को बनाया जा रहा है.

फिरनी एक मीठा व्यंजन है. इसे बहुत ही कम समय में बनाया जा सकता है. चावल की खीर की जगह यह खाने में बहुत अलग होती है. फिरनी खाने में जितनी स्वादिष्ठ लगती है, इसे बनाना उतना ही आसान है.

बच्चों को भी ये डिश बहुत पसंद आती है. फिरनी पंजाबी लोग बहुत पसंद करते हैं. अब यह धीरेधीरे हर जगह के लोगों को पसंद आने लगी है. जिस समय नया चावल बाजार में आता है, उस समय बहुत सारे लोग खुशी में फिरनी बनाते और खाते हैं. अलगअलग स्वाद के लिए कभी पिस्ता फिरनी, तो कभी मैंगो फिरनी भी तैयार की जाती है. इस से फिरनी के साथ मेवों और ताजा फलों के स्वाद का भी एहसास मिलता है.

लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में चल रहे करीम रेस्त्रां में फिरनी को बहुत ही अच्छी तरह से बनाया जाता है. अनुराग सिंह और श्वेता सिंह बताते हैं कि वैसे यहां आने वाले करीम के नानवेज व्यंजन सब से ज्यादा पसंद करते हैं. खाने के बाद मिठाई के रूप में फिरनी लोगों को खूब पसंद आती है. फिरनी को मिट्टी की छोटी सी कटोरी में रख कर दिया जाता है. जो खाने के स्वाद को और भी बढ़ा देती है.

खाने से पहले इसे फ्रिज में रख कर ठंडा किया जाता है. फिरनी में पड़े मेवे इसे और भी खास बना देते हैं. खोए की जगह इस में दूध का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में यह अलग किस्म का स्वाद देती है, जो ताजगी का एहसास कराता है.

फिरनी बनाने की सामग्री : फुल क्रीम दूध 1 लीटर, चावल 100 ग्राम, चीन 1 मध्यम कटोरी, काजू 50 ग्राम, बादाम 50 ग्राम किशमिश 25 ग्राम, छोटी इलायची 2, पिसा नारियल 20 से 30 ग्राम.

फिरनी बनाने के लिए सब से पहले चावल को 30 मिनट के लिए भिगो कर रख दें. दूध को उबाल कर थोड़ा गाढ़ा कर लें और उस में चीनी डाल कर धीरेधीरे मिलाएं. काजू, बादाम को छोटेछोटे टुकड़ों में काट लें.

अब उबलते हुए दूध में काजू, बादाम, छोटी इलायची, किशमिश और पिसा नारियल डाल दें. इस में पिस्ता और केसर भी डाल सकते हैं.

सब कुछ डालने के बाद दूध को अच्छे से मिला लें और दूध को उबलने दें. अब जो चावल भिगो कर रखा था, उसे थोड़ा सा पानी डाल कर पीस लें. पिसे हुए चावल को दूध के मिक्सचर में धीरेधीरे डालें, ध्यान रखें कि इसे लगातार चलाते रहें, नहीं तो इस में गांठ पड़ जाएगी.

जब दूध गाढ़ा हो जाए, तो गैस की आंच बंद कर दें. ध्यान रखें, फिरनी सूखे नहीं. अब फिरनी को थोड़ा ठंडा होने दें. जब फिरनी ठंडी हो जाए, तो बाउल में डाल कर काजू, किशमिश, बादाम और पिसे गोले से सजा दें. अब इस बाउल को 5 से 10 मिनट के लिए फ्रिज में ठंडा होने के लिए रख दें. जब फिरनी ठंडी हो जाए, तो सर्व करें. फिरनी को ठंडा ही खाया जाता है. अगर फिरनी ज्यादा सूख जाए, तो इसे पतला करने के लिए ठंडा दूध डाल कर मिला लें.

फिरनी के फायदे

चावल में कार्बोहाइड्रेट होता है, जो इंस्टेंट एनर्जी देता है. फिरनी में काजू डालते हैं, जो शरीर के लिए बहुत ही फायदेमंद होता है. काजू दिल के मरीजों के लिए बहुत फायदेमंद होता है. काजू ब्लडप्रेशर को कम करने में मदद करता है. काजू हमारी हड्डियों को मजबूत बनाता है. काजू वजन कम करने में मदद करता है. ऐसे में फिरनी खाने से शरीर को लाभ होता है. यह दूसरी मिठाइयों की तरह नुकसान नहीं करती है.

Guava Processing : अमरूद की प्रोसैसिंग – बनाए स्वादिष्ठ उत्पाद

Guava Processing| अमरूद सेहद के लिए एक लाभकारी फल है और इस की प्रोसैसिंग कर सालोंसाल इस का जायका लिया जा सकता है.

अमरूद का पल्प (गूदा) : हर मौसम में फल के गूदे को संरक्षित किया जा सकता है, ताकि इसे टाफी, स्लैब, नेक्टर व पेय वगैरह बनाने में काम लाया जा सके. नेक्टर या पेय बनाने के मकसद से संरक्षित गूदे को निकालने के लिए फल को पानी के साथ पकाया नहीं जाता, क्योंकि इस से गूदे में ताजगी का गुण कम हो जाता है. फलों को धोकाट कर पल्पर से गूदा निकालें, ताकि बीज व छिलके निकल जाएं. गूदे के संरक्षण के लिए प्रति किलोग्राम के लिए 1 ग्राम साइट्रिक एसिड और 2 ग्राम पोटेशियम मेटाबाईसल्फाइड थोड़े पानी में घोल कर भलीभांति मिलाएं. फिर इसे अच्छी तरह साफ की गई शीशे या पालीथीन के जारों में भर कर मुंह को रुई और ढक्कन से बंद करें और मोम से अच्छी तरह सील करें. इसे ठंडे स्थान पर भंडारित करें.

अमरूद का रस : अमरूद का रस निकालना कठिन होता है. संस्थान में साफ व पारदर्शक रस निकालने की विधि खोजी गई है. पहले कम से कम पानी इस्तेमाल करते हुए अमरूद का गूदा निकालें. गूदे को तोल लें और भार का 0.1 फीसदी पेक्टिक इंजाइम भलीभांति गूदे में मिला दें. अब इसे सामान्य तापमान पर 18-20 घंटे के लिए रख दें. इस के बाद एक मोटे कपड़े से छानें और बोतलों में भर कर रखें. इस से गूदा नीचे बैठ जाता है. सावधानी से रस निकाल लें या साइफन कर लें. रस को बोतलों में भर कर 82-85 डिगरी सेंटीगे्रड तक गरम करें और गरमगरम सूखी, सट्रालाइज की हुई बोतलों में भर कर क्राउन कार्क लगा दें. इन बोतलों को एक पतीले में मोटी कपड़े की गद्दी के ऊपर रख कर 80 डिगरी सेंटीग्रेड पर पानी में तकरीबन 30 मिनट गरम करें. आंच से उतार कर ठंडी हो जाने पर इन को सूखे व ठंडे स्थान पर रखें.

अमरूद का पेय : इसे बनाने के लिए ऊपर बताई विधि से प्राप्त गूदे को छोटेछोटे छेदों वाली स्टेनलेस स्टील या अल्यूमिनियम की छलनी से छान कर गूदे को एकरस कर लें और तोल लें. 12-13 फीसदी शक्कर का शरबत बनाएं. इस में 0.3 फीसदी साइट्रिक एसिड और 10 फीसदी अमरूद का गूदा मिलाएं. इसे गरमगरम ही 200 मिलीलीटर की बोतलों में भर कर क्राउन कार्क लगा कर बंद कर दें. अब इन को 15-20 मिनट तक उबलते पानी में एक पतीले में मोटी गद्दी पर रख कर गरम करें. फिर आंच से उतार कर ठंडा होने दें.

अमरूद का नेक्टर: यह भी अमरूद के गूदेसे बनाया जाता है. गूदा निकाल कर इस के लिए 15 फीसदी चीनी का घोल बनाएं. घोल में 0.25-0.35 फीसदी साइट्रिक एसिड मिलाएं. इस में 20-25 फीसदी गूदा मिलाएं. गरमगरम ही 200 मिलीलीटर की बोतलों में भर कर क्राउन कार्क लगा कर बंद कर दें. अब इन को 15-20 मिनट उबलते पानी में एक पतीले में मोटी गद्दी पर रख कर गरम करें. आंच से उतार कर ठंडा होने दें.

अमरूद का पाउडर : पहले अमरूद का गूदा निकाल कर तोल लें. इस के वजन के मुताबिक 20 फीसदी चीनी और 0.2 फीसदी पोटेशियम मेटाबाई सल्फाइट अच्छी तरह मिला दें. इसे 1 पौलीथीन की शीट पर फैला कर अल्यूमिनियम या स्टेनलेस स्टील की ट्रे में रखें और धूप में या डीहाइडे्रटर में सुखा लें. पल्प के शीट के रूप में सूख जाने पर उसे छोटेछोटे टुकड़ों में तोड़ लें. इन टुकड़ों को थोड़ा और सुखाएं और एक ग्राइंडर की सहायता से पाउडर बनाएं. इस पाउडर को पौलीथीन की थैलियों में भर कर रखा जा सकता है. यह पाउडर कार्बोहाइड्रेट्स व मिनरल्स का सही जरीया होने के कारण बालाहार बनाने में इस्तेमाल किया जाता है.

अमरूद की जेली

जरूरी सामान : 1 किलोग्राम अमरूद, डेढ़ लीटर पानी, 750 ग्राम चीनी, 3 ग्राम सिट्रिक एसिड या खट्टा नीबू.

बनाने की विधि : अमरूदों को पानी से अच्छी तरह धो कर गोलगोल आकार में कई टुकड़ों में काटिए और डेढ़ लीटर पानी में 20-25 मिनट तक धीमी आंच पर पकाइए. उबालते समय टुकड़ों को चम्मच से कुचलते भी जाइए, जिस से रस अच्छी तरह निकल आए. उबालने के बाद मारकीन के कपड़े से छानिए. रस को अपनेआप छनने दीजिए. इस के लिए कपड़े को साफ जगह पर लटका दें ताकि रस बरतन में आसानी से इकट्ठा हो जाए.

छने हुए जूस से 1 लीटर जूस ले कर रस में 750 ग्राम चीनी मिला कर आंच पर रख कर अच्छी तरह घोलें. घुल जाने पर रस को फिर से छानिए, जिस से चीनी की गंदगी निकल जाए. अब रस को देगची सहित मध्यम आंच पर रख कर पकने दें. कुछ मिनट बाद सिट्रिक एसिड या नीबू का छना रस मिला दीजिए. कुछ देर बाद आप देखेंगे कि पकतेपकते बुलबुले उठना शुरू हो जाते हैं. उस समय चम्मच से जूस को ले कर ठंडा कर के गिराएं. जब आप देखें कि चम्मच के दोनों छोरों पर तार बन कर लटक रहे हैं, तो समझ लें कि जेली तैयार हो गई है. अब इसे बोतल में भर लें. बोतल की ऊपरी सतह पर सफेद पदार्थ आ जाए तो उसे छोटे चम्मच से धीरे से हटा दें. फिर जेली को ठंडी होने के लिए रख दें. 4-5 घंटे बाद आप इसे इस्तेमाल कर सकते हैं.

Guava Processing

अमरूद की चीज या टौफी

जरूरी सामान : 1 किलोग्राम अमरूद का गूदा, 1 किलोग्राम चीनी, 50 ग्राम मक्खन, आधा चम्मच नमक, सिट्रिक एसिड, जरूरत के मुतबिक नारंगी रंग.

बनाने की विधि : देगची की तली में थोड़ा सा मक्खन लगाएं. फिर थोड़ीथोड़ी मात्रा में गूदे को बर्तन में डालें.

इसी तरह चीनी की मात्रा का इस्तेमाल करें. थोड़ा मक्खन डालें और रंग, सिट्रिक एसिड व नमक मिलाएं. 30-40 मिनट के अंदर चीज तैयार हो जाएगी. तैयार होने की पहचान यह है कि वह तली छोड़ने लगेगी. ट्रे या थाली में मक्खन लगा कर गूदे को पलट कर ऊपर मक्खन द्वारा चिकना कर के कुछ समय के लिए छोड़ दें. जम जाने पर छोटेछोटे टुकड़ों में काट कर बटर पेपर में लपेट कर टौफी का रूप दे दें. यह अमरूद टौफी या चीज पाचन के लिए बहुत फायदेमंद होती है.

Field Fertility: खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाने में गेहूं की नरई की भूमिका

Field Fertility| ग्लोबल वार्मिंग की वजह से मौसम गरम हो रहा है, गेहूं की फसल समय से पहले पक जाती है. गेहूं की कटाई किसान ज्यादातर कंबाइन मशीन द्वारा करते हैं, जिस से समय की बचत के साथसाथ बदलते मौसम के नुकसान से बचा जा सकता है. इस प्रकार कटाई करने से गेहूं के दाने मशीन द्वारा इकट्ठा कर के भंडारगृह में रख लेने से नुकसान कम होता है. लेकिन इस की नरई खेत में खड़ी रह जाती है, जिस को भूसा बनाने की मशीन द्वारा भूसा बना कर आमदनी बढ़ाई जा सकती है.

कई किसान नरई को नष्ट करने के लिए जानकारी न होने की वजह से खेत में आग लगा देते हैं. इस से खेत तो साफ हो जाता है, लेकिन नरई जलाने में जरा सी चूक हो जाए तो आसपास खड़ी हजारों एकड़ जमीन पर गेहूं की फसल जल कर राख हो जाती है. किसानों के परिवारों द्वारा साल भर सजाए अरमानों पर पानी फिर जाता है.

इन सभी से बचने के लिए किसानों को सलाह दी जाती है कि वे नरई प्रबंधन कर के मिट्टी में घटती हुई जीवांश पदार्थ की मात्रा को रोक सकते हैं.

नरई का प्रबंधन करने के लिए किसानों को चाहिए कि जब खेत कंबाइन द्वारा कट जाए तो उस के बाद भूसा बनाने वाली मशीन (रीपर) से नरई का भूसा बनवा लें. नरई को खेत में सड़ाने के लिए किसानों को चाहिए कि जैसे ही खेत की कटाई कंबाइन से हो जाए, उस के तुरंत बाद ही खेत में पानी लगा दें. शाम के समय 5-7 फीसदी यूरिया घोल यानी तकरीबन 200 लीटर पानी में 10-15 किलोग्राम यूरिया घोल कर प्रति एकड़ दर से छिड़काव कर दें. इस के बाद हैरो या मिट्टी पलटने वाले हल से खेत में पलट दें.

Field Fertility

इस समय किसान यूरिया का तकरीबन 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव जरूर करें. जब पलटाई को तकरीबन 15-20 दिन हो जाएं तब पानी लगा कर दोबारा पलटाई कर दें, जिस से खेत में खड़ी नरई सड़ कर खेत में मिल जाएगी. जिस खेत में अगली फसल धान की रोपाई करनी हो उस में हरी खाद के रूप में सनई या ढैंचा की बोआई कर दें और सही समय और नमी पर पलटाई कर के धान की रोपाई कर दें.

नरई को सड़ाने के बाद कार्बनिक पदार्थ 1092 किलोग्राम प्रति एकड़ पोषक तत्त्व दोबारा जमीन में वापस हो जाते हैं. यानी नाइट्रोजन 14.3 किलोग्राम प्रति एकड़ और अन्य पोषक तत्त्व भी जमीन को वापस हो जाते हैं. इस प्रकार से नरई का प्रबंधन अगर किसान करेंगे तो उन के खेतों की घटती उर्वरता व कार्बनिक पदार्थ की मात्रा 0.3-0.5 फीसदी से बढ़ा कर 0.8 फीसदी या इस से ज्यादा की जा सकती है और हरी खाद से तकरीबन 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की बचत कर सकते हैं, साथ ही खेत में खरपतवार भी कम हो जाते हैं.

नरई जलाने से नुकसान

Field Fertility

* नरई जलाने से पशुओं के चारे में रूप में साल भर इस्तेमाल में आने वाला भूसा नहीं मिल पाता है, जिस से किसानों को पशुपालन में अधिक खर्च उठाना पड़ सकता है.

* भूसा प्राप्त न होने की वजह से किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है, जो कि गेहूं की उत्पादन लागत को बढ़ा देता है.

* नरई जलाने से जमीन के अंदर मौजूद फायदेमंद असंख्य जीवाणु जल कर मर जाते हैं, जिस की वजह से आने वाली फसल का उत्पादन कम हो जाता है व जमीन में पोषक तत्त्वों की मौजूदगी कम हो जाती है.

* नरई जलाने से कार्बनिक पदार्थ व ह्यूमस नहीं मिल पाते हैं, जिस से जमीन की उर्वरता पर बुरा असर पड़ता है. साथ ही साथ जमीन में बारबार पानी लगाना पड़ सकता है.

* भूसे या गेहूं के पौधों की जड़ों के सड़ने से पौधों को जो जरूरी पोषक तत्त्व वापस मिल सकते हैं, वे नहीं मिल पाते, जिस से अगली फसलों के लिए किसान को पोषक तत्त्व फालतू मात्रा में डालने पड़ते हैं. नतीजतन उन्हें कम फायदा होता है.

* नरई जलाते समय अगर एक भी चिंगारी किसी दूसरे खेत में चली जाए तो पूरा खेत जल कर राख हो जाता है, जिस के कारण किसान को काफी घाटा उठाना पड़ता है.

* नरई जलाने से वायुमंडल में प्रदूषण फैलने के साथसाथ वायुमंडल के तापमान में बढ़ोतरी होती है.

नरई की रासायनिक संरचना

नरई में कार्बन 42.0, नाइट्रोजन 5.50, फास्फोरस 0.40, पोटाश 10.40, सल्फर 0.60, कैल्शियम 2.90, मैग्नीशियम 0.60, कार्बन/नाइट्रोजन 76.4, कार्बन/फास्फोरस 105.0, कार्बन/सल्फर 466.7, नाइट्रोजन/सल्फर 13.8 ग्राम प्रति किलोग्राम पाया जाता है.

इस के अलावा यदि किसान अपने खेत में फसल कंबाइन से काटने के बाद उस की नरई जमा कर लें, तो उस से बाद में नाडेप कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट या अन्य कंपोस्टिंग के द्वारा कंपोस्ट खाद बनाई जा सकती है.

उसे खेत में डाल कर बाद में फसल उत्पादन के समय जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल में लाया जा सकता है.