प्रसार्ड ट्रस्ट द्वारा गणतंत्रता दिवस पर किसान गोष्ठी का आयोजन

देवरिया: किसानों एवं गांव वालों के उत्थान के लिए समर्पित स्वयं सेवी संस्था प्रो. रवि सुमन, कृषि एवं ग्रामीण विकास (प्रसार्ड) ट्रस्ट मल्हनी, भाटपार रानी, देवरिया के वरिष्ठ सदस्य सुरेश चंद्र मौर्य द्वारा 26 जनवरी को प्रातः 10 बजे राष्ट्रीय ध्वजारोहण ट्रस्ट सैंटर महुआवारी पर किया गया.

इस के उपरांत किसान गोष्ठी आयोजित की गई. बाहर रहने के कारण ट्रस्ट के निदेशक प्रो. रवि प्रकाश मौर्य ने डिजिटल माध्यम से सभी को शुभकामनाएं देते हुए कृषि एवं ग्रामीण विकास के उत्थान पर बल दिया. साथ ही, वर्तमान में पड़ रही शीत लहर एवं ठंड से आमजन, पशुओं एवं फसलों को बचाने के उपाय बताए.

गोष्ठी को संबोधित करते हुए चंद्र प्रकाश मौर्य ने कहा कि इस समय जैविक खेती पर विशेष बल देने की जरूरत है, जो पशुपालन से ही मुमकिन है. रासायनिक खेती से बहुत सी बीमारियां हो रही हैं. कृषक उत्पादक संगठन (एफपीओ) का गठन कर उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है.

डा. विकास कुमार मौर्य ने फिजियोथैरेपी पर प्रकाश डालते हुए बताया कि फिजियोथैरेपी के माध्यम से इनसान की बहुत सी बीमारियों को दूर किया जा सकता है.

नर्सरी उत्पादक ओमप्रकाश ने जायद की सब्जियों की खेती पर प्रकाश डालते हुए बताया कि फरवरी माह में भिंडी, लौकी, कद्दू, तुरई, खीरा, ककड़ी, करेला आदि की बोआई कर सकते हैं.

कार्यक्रम में सेवानिवृत्त लेखाकार, प्रदीप कुमार, सेवानिवृत्त मेजर चंद्र मोहन यादव, ग्राम प्रधान स्वामी प्रसाद, संजय यादव, जयराम, ब्रजेश गुप्ता सहित कई दर्जन वरिष्ठ नागरिक, सेवानिवृत्त लोगों ने भाग लिया.

किसानों को लुभा नहीं सकी ‘आंकड़ों की खेती’

हमारे देश में बड़े कोरोना संकट के दौरान जिन करोड़ों किसानों ने रातदिन मेहनत कर के अन्न भंडारों को भर दिया था, उन को मोदी सरकार के इस बार के आम बजट ने बेहद निराश किया. संसद में भी इसे ले कर काफी चर्चा हुई और किसानों में भी.

बजट सत्र का पहला चरण 29 जनवरी से 13 फरवरी के बीच चला. लेकिन अब संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति  22 और 23 फरवरी के दौरान कृषि एवं किसान कल्याण, कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग, मत्स्यपालन, डेरी एवं पशुपालन और खाद्य प्रसंस्करण के शीर्ष अधिकारियों को बजट की अनुदान मांगों पर तलब कर रही है. इस में भी बजट को ले कर काफी गंभीर चर्चा होगी और इस की रिपोर्ट बजट सत्र के दूसरे चरण में संसद में रखी जाएगी.

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब के किसानों ने जो आंदोलन शुरू किया था, उस का दायरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान होते हुए देश के तमाम हिस्सों में फैल चुका है. सरकारी स्तर पर आंदोलन को खत्म करने की सारी कोशिशें नाकाम रहीं.

हालांकि आम बजट किसान असंतोष को दूर करने का बेहतरीन मौका था, लेकिन सरकार इस में भी सफल नहीं हो सकी. देश के सभी प्रमुख किसान संगठनों ने इस बजट को बेहद निराशाजनक माना है.

संसद के बजट सत्र के पहले चरण में किसान असंतोष के साथ खेती की अनदेखी और निराशाजनक खास चर्चा में रहा.

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव और बजट पर सामान्य चर्चा में कई सांसदों ने कृषि और ग्रामीण विकास मद में धन आवंटन को असंतोषजनक माना. चंद योजनाओं को छोड़ दें, तो कृषि और संबद्ध क्षेत्र का आवंटन निराशाजनक रहा. सब्सिडी में कमी के साथ सरकार ने कृषि ऋण का लक्ष्य 16.5 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचा दिया है.

घाटे की खेती कर रहे किसानों को इस से आंशिक राहत भले ही मिले, लेकिन कर्ज के दलदल से बाहर आने का कोई रास्ता उन को नहीं दिखता है. इस नाते कृषि और ग्रामीण भारत के कायाकल्प का दावा फिलहाल इस बजट से दूरदूर तक पूरा होता नहीं दिख रहा है.

साल 2014 के बाद मोदी सरकार ने कृषि मंत्रालय का नाम बदल कर कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय करने के साथ साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए लंबे लक्ष्य तय किए. पीएम किसान, किसान मानधन, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई परियोजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, जैविक खेती, मृदा स्वास्थ्य कार्ड से ले कर जैविक खेती जैसी कई पहल की.

दूसरी हरित क्रांति और प्रोटीन क्रांति के दावे के साथ वंचित क्षेत्रों के विकास और उचित भंडारण व्यवस्था से ले कर एमएसपी के बाबत स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने का भी दावा किया गया.

बीज से बाजार तक कई अहम घोषणाएं हुईं और किसानों की आय बढ़ाने के लिए बड़े निवेश और 10,000 नए किसान उत्पादक संगठन यानी एफपीओ की स्थापना का लक्ष्य रखा गया. लेकिन ये सारे काम आधेअधूरे मन से हुए. खुद कृषि संबंधी स्थायी समिति ने अहम योजनाओं में आवंटन और प्रगति को असंतोषजनक माना है.

आंकड़ों के लिहाज से देखें, तो साल 2009 से 2014 तक यूपीए ने कृषि बजट में 1,21,082 करोड़ रुपए खर्च किए, जबकि मोदी सरकार के पांच सालों में 2014-19 के दौरान 2,11,694 करोड़ रुपए हो गए. लेकिन कृषि संकट के दौर में जब और मदद की दरकार थी, तो कृषि और ग्रामीण विकास बजट कम हो गया.

कृषि और संबद्ध गतिविधियों के लिए बजट आवंटन 2021-22 में 1,48,301 करोड़ रुपए कर दिया गया, जबकि इस मद में 2020-21 में 1,54,775 करोड़ रुपए का प्रावधान था.

इसे संशोधित अनुमान में घटा कर 1,45,355 करोड़ रुपए कर दिया गया. ग्रामीण विकास मद में भी अहम योजनाओं में कटौती कर दी गई. सब से बड़ी योजना मनरेगा का संशोधित बजट अनुमान 2020-21 में 1,11,500 करोड़ रुपए था, जिसे 2021-22 के बजट में घटा कर 73,000 करोड़ रुपए कर दिया गया.

राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम, जिस का संशोधित अनुमान वर्ष 2020-21 में 42,617 करोड़ रुपए था, उसे 2021-22 में घटा कर 9,200 करोड़ रुपए कर दिया गया.

मनरेगा योजना कोरोना संकट में वरदान बन कर उभरी थी, लेकिन सरकार ने जो आवंटन किया है, उस से लगता है कि गांव में रोजगार की अब दिक्कत नहीं रही.

खेती के उपयोग में आने वाली वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं. श्रम लागत, बीज, उर्वरक, कीटनाशकों, रसायनों से ले कर पेट्रोल और डीजल तक महंगे हुए हैं. ऐसे में खेती का बजट कम होने से इन की चुनौती और बढ़ी है.

किसानों की रासायनिक खाद मद में सब्सिडी घटा दी गई. इस मद में 2021-22 में 79,530 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जबकि 2020-21 का संशोधित अनुमान 1,33,947 करोड़ रुपए रहा. पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जाने वाली सब्सिडी का भी कम होने का असर कृषि क्षेत्र पर दिखेगा.

खुद खाद्य सब्सिडी मद में 2021-22 में 2,42,836 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया, जबकि इस मद में 2020-21 में 4,22,618 करोड़ रुपए का संशोधित अनुमान था. इस का असर गरीबों पर पड़ना तय है.

इस समय कृषि क्षेत्र में केवल प्रधानमंत्री किसान योजना ही ऐसी है, जिस को कहा जा सकता है कि यह एक मददगार योजना है. लेकिन सीमित मायनों में यह चुनावी लाभ के लिए आरंभ की गई थी. इस मद में 2019-20 में 48,714 करोड़ रुपए का बजट आवंटन था, जो जिस का संशोधित अनुमान 2020-21 में 65,000 करोड़ रहा. इतना ही आवंटन 2021-22 में किया गया है और अगर पश्चिम बंगाल भी इस योजना में शामिल हो जाता है, तो पैसा कम पड़ेगा.

राज्यसभा में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने माना कि आरंभ में योजना में 14.5 करोड़ किसानों का आकलन किया गया था, लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद 10 करोड़, 75 हजार किसान ही रजिस्टर्ड हो सके हैं. ऐसे में 65 हजार करोड़ रुपए में काम चलेगा.

इस बजट में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का आवंटन बढ़ा कर 16,000 करोड़ रुपए किया गया. यह योजना अभी किसानों को रिझा नहीं पा रही है, वहीं किसानों को मिलने वाले छोटी अवधि के कर्जों की ब्याज सब्सिडी के लिए 19,468 करोड़ रुपए का प्रावधान है.

कृषि शिक्षा और अनुसंधान के लिए बजट 2021-22 में मामूली बढ़ा कर 8,514 करोड़ रुपए पर लाया गया है, वहीं खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए आरंभ की गई प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना का बजट 700 करोड़ रुपए तक सीमित है. इस पर 2019-20 में 819 करोड़ रुपए का वास्तविक खर्चा हुआ था.

Farming

इस बजट में 2018-19 में घोषित 22,000 ग्रामीण हाटों के विकास की कोई दिशा नहीं है, जो छोटे किसानों के लिए सब से मददगार बन सकती थी. 29 जनवरी, 2021 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने अभिभाषण में 10 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों पर ही अपने भाषण का फोकस रखा था.

सरकार की मंशा है कि आजादी के 75वें साल में किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाए. लेकिन आमदनी बढ़ाने के लिए नीति निर्माताओं को जिन रास्तों पर संसाधन देना था, वह नहीं दिया गया है.

प्रधानमंत्री की एक बहुप्रचारित योजना 10 हजार किसान उत्पादक संगठनों या एफपीओ के गठन की रही है. इस से छोटे किसानों के जीवन को बदलने के लिए काफी उम्मीद जताई गई थी. लेकिन इस मद में इस साल 700 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया है. 2020-21 में 500 करोड़ रुपए का प्रावधान हुआ था, जिसे घटा कर 250 करोड़ रुपए कर दिया गया.

हकीकत यह है कि उत्पादकता बढ़ाने और खेती की लागत घटाने के साथ कई पक्षों पर अभी बहुत काम करने की जरूरत है. किसानों ने रिकौर्ड अन्न उत्पादन कर पुराने कीर्तिमानों को तोड़ा है. लेकिन अगर हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के किसान सड़क पर हैं, तो इस हकीकत को समझना होगा कि खेती किस चुनौती से जूझ रही है. खुद भाजपा ने साल 2019 में अपने संकल्पपत्र में जो वायदा किया था, वह इस बजट में नजर नहीं आता.

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी सकल घरेलू उत्पाद के प्रथम अग्रिम अनुमान के मुताबिक, कोरोना संकट के बावजूद कृषि और संबद्ध क्षेत्र का जीवीए में हिस्सा 19.9 फीसदी तक पहुंच गया है. 2020-21 में इस क्षेत्र में वृद्धि का अनुमान 3.4 फीसदी है, वहीं 2011-12 के आधार मूल्य पर 2014-15 में यह 0.2 फीसदी, 2015-16 में 0.6 फीसदी, 2016-17 में 6.3 फीसदी, 2017-18 में 5 फीसदी, 2018-19 में 2.7 फीसदी रही थी.

इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता है कि कृषि, उद्योग और सेवाएं अर्थव्यवस्था के सब से अहम क्षेत्र हैं और आपस में जुड़े हैं. वे एकदूसरे को प्रभावित करते हैं. इस नाते केवल आंकड़ों की बाजीगरी से कृषि क्षेत्र की चुनौतियों से पार पाना आसान नहीं दिखता है.

संसद की कृषि संबंधी स्थायी समिति की हाल ही में एक रिपोर्ट में कई अहम मसलों को उठाया गया है. समिति ने माना है कि बजट में कटौती की गई और प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में अपेक्षित किसान जोड़े नहीं जा सके.

पूर्वोत्तर भारत में पंचायती और सरकारी भूमि पर खेती करने वाले और बंटाई पर खेती करने वालों को इस के दायरे में नहीं लाया जा सका, वहीं पूर्वोत्तर जैविक खेती मिशन के दायरे में 71,492 हेक्टेयर भूमि लाई जा सकी, जबकि लक्ष्य एक लाख हेक्टेयर का था.

प्रधानमंत्री किसान मानधन योजना के तहत वृद्ध किसानों को 3 हजार रुपए तक पेंशन योजना के दायरे में कुल 20.35 लाख किसान शामिल होने को समिति ने निराशाजनक माना.

किसानों की तरक्की के लिए पायलट परियोजनाएं

चंडीगढ़: हरियाणा में कृषि व किसानों की प्रगति के लिए प्रदेश सरकार अब क्लस्टर मोड पर पायलट परियोजनाओं की रूपरेखा बना रही है, जिस से फसल विविधीकरण, सूक्ष्म सिंचाई योजना, पशु नस्ल सुधार व अन्य कृषि संबद्ध गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा. इस के अलावा जैविक खेती, प्राकृतिक खेती व सहकारी खेती की ओर किसानों का रुझान बढ़ाने के लिए भी हरियाणा किसान कल्याण प्राधिकरण नई योजनाएं तैयार करेगा.

मुख्यमंत्री मनोहर लाल हरियाणा किसान कल्याण प्राधिकरण की जनरल बौडी की तीसरी बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे. बैठक में ऊर्जा मंत्री रणजीत सिंह, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री जेपी दलाल, सहकारिता मंत्री डा. बनवारी लाल, विकास एवं पंचायत मंत्री देवेंद्र सिंह बबली और हरियाणा सार्वजनिक उपक्रम ब्यूरो व हरियाणा किसान कल्याण प्राधिकरण की कार्यकारी समिति के चेयरमैन सुभाष बराला उपस्थित रहे.

मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने अधिकारियों को निर्देश देते हुए कहा कि चूंकि आज के समय में जोत भूमि छोटी होती जा रही है, इसलिए छोटे व सीमांत किसानों की आय में वृद्धि व प्रगति के लिए परंपरागत खेती के साथसाथ नए दौर की कृषि प्रणाली अपनाने की जरूरत है.

उन्होंने आगे यह भी कहा कि पशुपालन के क्षेत्र में आज अपार संभावनाएं हैं, जिस से किसान व पशुपालक बेहतर आय प्राप्त कर सकते हैं. साथ ही, किसानों को सहकारिता खेती अवधारणा की ओर बढ़ने की आवश्यकता है, जिस से कई किसान मिल कर एकसाथ खेती करें, इस से छोटी जोत भूमि की समस्या भी खत्म होगी और किसान खाद्य प्रसंस्करण उद्योग की दिशा में भी बढ़ सकेंगे. इसलिए प्राधिकरण संबंधित विभागों के साथ मिल कर पायलट योजनाएं तैयार करे. इजराइल की तर्ज पर सहकारिता खेती के लिए अधिक से अधिक किसानों को प्रेरित करें.

समेकित खेती के लिए तैयार करें डेमोस्ट्रेशन फार्म

मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने कहा कि राज्य सरकार फसल विविधीकरण व जल संरक्षण के लिए ‘मेरा पानी मेरी विरासत’ योजना व डीएसआर तकनीक से धान की बिजाई के साथसाथ विभिन्न प्रकार के प्रोत्साहन दे रही है, ताकि किसान परंपरागत खेती से हट कर अन्य फसलों की ओर जाएं.

उन्होंने आगे कहा कि विभाग समेकित खेती के लिए भी डेमोस्ट्रेशन फार्म तैयार करे और किसानों को ऐसे फार्म का दौरा करवा कर इस विधि की विस्तृत जानकारी दें.

उन्होंने यह भी कहा कि भूजल स्तर निरंतर कम हो रहा है. कई जगह यह स्तर 100 मीटर से भी गहरा चला गया है और हर वर्ष लगभग 10 मीटर नीचे जा रहा है. इसलिए ऐसे क्षेत्रों में सूक्ष्म सिंचाई परियोजनाएं स्थापित करने पर जोर दिया जाए. जहां पर भूजल स्तर 30 मीटर है, वहां पर भी कृषि नलकूपों को शतप्रतिशत सौर ऊर्जा पर लाया जाए, राज्य सरकार इस के लिए नई सब्सिडी देने को भी तैयार है. पानी और बिजली पर जितना भी खर्च होगा, सरकार उसे वहन करने के लिए तैयार है.

मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने कहा कि शिवालिक व अरावली पर्वत श्रृंखला में बरसात के पानी के संरक्षण के लिए रिजर्वायर बनाया जाना चाहिए, ताकि पहाड़ों से आने वाले पानी को जमा किया जा सके और बाद में इसे सिंचाई व अन्य आवश्यकताओं के लिए उपयोग किया जा सके.

उन्होंने सिंचाई एवं जल संसाधन विभाग के अधिकारियों को निर्देश दिए कि इस के लिए पायलट परियोजना तैयार करें.

मनोहर लाल ने कहा कि मृदा स्वास्थ्य के साथसाथ अनाज की गुणवत्ता की जांच भी जरूरी है. आज उर्वरकों व कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से उत्पन्न होने वाले अनाज से कई गंभीर बीमारियां बढ़ रही हैं. इसलिए हमें कैमिकलरहित अनाज पैदा करने की ओर बढ़ना होगा. इस का उपाय प्राकृतिक खेती ही है. जो पंचायत अपने गांव को कैमिकल फ्री खेती वाला गांव घोषित करेगी, उस के लिए हर प्रकार की फसल की खरीद सरकार सुनिश्चित करेगी, इस के लिए एमएसपी के अलावा 10 से 20 फीसदी से अधिक मूल्य पर खरीद होगी. साथ ही, फसल की ब्रांडिंग और पैकेजिंग खेतों में ही होगी.

किसान ने मोटे अनाज की खेती से कमाया भारी मुनाफा

बस्ती : देश के अनेक किसान कम लागत, कम उर्वरक और कम पानी से पैदा होने वाले मोटे अनाज की खेती से मोटा मुनाफा कमा रहे हैं. ऐसे ही एक किसान हैं राममूर्ति मिश्र. बस्ती जिले के सदर ब्लाक, गांव गौरा के बाशिंदे नैशनल अवार्डी किसान राममूर्ति मिश्र ने महज 12 हजार रुपए की लागत से मडुआ और सांवा की खेती कर के तकरीबन 78 हजार रुपए की आमदनी प्राप्त की है.

प्रगतिशील किसान राममूर्ति मिश्र द्वारा की जा रही मोटे अनाज की खेती पूरे इलाके में किसानों को आकर्षित करने में कामयाब रही है.

 

Mota Anaj

 

कृषि विभाग ने मुफ्त में मुहैया कराया था बीज

प्रगतिशील किसान राममूर्ति मिश्र ने बताया कि उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार के कृषि महकमे की तरफ से मुफ्त में सांवा और रागी यानी मडुआ का बीज उपलब्ध कराया गया था, जिसे उन्होंने तकरीबन 3 एकड़ खेत में बोआई की थी. इस से उन्हें तकरीबन 20 क्विंटल उपज प्राप्त हुई थी.

उन्होंने आगे बताया कि मोटे अनाज की खेती में उन्हें एक बार भी सिंचाई नहीं करनी पड़ी है और न ही उन्होंने फसल में किसी तरह को खाद व उर्वरक का प्रयोग किया था.

प्रगतिशील किसान राममूर्ति मिश्र ने बताया कि मोटे अनाज की फसल में किसी तरह का कीट व बीमारियों का प्रकोप नहीं होता है. इस से जुताई और मेहनत को छोड़ दिया जाए, तो लागत न के बराबर आती है. ऐसे में किसान को कम पूंजी में अधिक मुनाफा प्राप्त होता है.

कृषि मंत्री ने किया प्रोत्साहित

किसान राममूर्ति मिश्र ने बताया कि सूबे के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही के प्रोत्साहन से प्रेरित हो कर मोटे आनाज की पहली बार खेती की थी. इस के पहले वह खरीफ सीजन में केवल सुगंधित धान काला नमक और बासमती की खेती करते थे, जिस में खाद एवं उर्वरक के साथ ही मेहनत पर अधिक लागत आती है. इस से मुनाफा कम मिलता था.

उन्होंने बताया कि धान की खेती में अधिक पानी की जरूरत होती है, जबकि मोटे अनाजों को सूखे की दशा में भी आसानी से उगाया जा सकता सकता.

राममूर्ति मिश्र ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों से कम बारिश हो रही है, जिस के चलते किसानों के लिए मोटे आनाज की खेती काफी फायदेमंद हो सकती है.

सेहत के लिए लाभदायक है मोटा अनाज

किसान राममूर्ति मिश्र ने बताया कि मोटे अनाज का सेवन करना शरीर के लिए फायदेमंद है. यह बुढ़ापे के लक्षण को कम करता है. डायबिटीज सहित कई बीमारियों के खतरे को कम करता है. यह अनाज लौह और सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर होता है, इसलिए शरीर में यह खून की कमी व कुपोषण को दूर करने में सहायता करता है. वहीं ज्वार शरीर की हड्‌डियों के लिए अच्छी मात्रा में कैल्शियम, खून के लिए फौलिक एसिड के अलावा कई अन्य पोषक तत्व प्रदान करता है. इसी तरह से रागी एकमात्र ऐसा मोटा अनाज है, जिस में कैल्शियम की मात्रा भरपूर पाई जाती है.

आकर्षक मटके वाली पैकिंग

किसान राममूर्ति मिश्र मोटे सांवा और मडुआ के चावल को पारंपरिक रूप से खूबसूरत मटकों में पैक कर के बेचते हैं, जो देखने में काफी आकर्षक होने के साथ ही उस के मूल गुणों को बनाए रखने में भी काफी कारगर है.

राममूर्ति मिश्र द्वारा मटके में की जा रही मोटे अनाजों की पैकिंग की काफी मांग बनी हुई है. उन्होंने इस साल जितना मोटा अनाज पैदा किया था, उसे बेच कर उन्होंने तकरीबन 78 हजार रुपए की आमदनी प्राप्त की.

खेती के लिए खास वर्मी कंपोस्ट खाद

केंचुआ किसान का एक अच्छा दोस्त है. केंचुआ व दूसरे कार्बनिक पदार्थों, जैसे घरेलू कचरा, बाहरी कचरा, फसल के अवशेष, खरपतवार, पशुओं का गोबर, छिलके, जो गल सकें वगैरह के मिश्रण के बाद केंचुओं द्वारा छोड़े गए पदार्थ को वर्मी कंपोस्ट कहते हैं.

वर्मी कंपोस्ट में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के अलावा पौधों की बढ़वार व विकास में मददगार अनेक फायदेमंद सूक्ष्म तत्त्व व बैक्टीरिया, हार्मोंस और अनेक एंजाइम भी मौजूद होते हैं.

वर्मी कंपोस्ट तैयार करने के लिए सतही केंचुए, जो मिट्टी कम व कार्बनिक पदार्थ ज्यादा खाते हैं, इस्तेमाल किए जाते हैं. इन्हें एपीगीज के नाम से भी जाना जाता है. ये 2 तरह के होते हैं. एपिजाइक यानी सतह पर पाए जाने वाले केंचुए व एनिसिक यानी सतह के अंदर पाए जाने वाले केंचुए.

खूबियां : वर्मी कंपोस्ट में गोबर खाद के मुकाबले सवा गुना ज्यादा पोषक तत्त्व मौजूद रहते हैं. इस में मिलने वाला ह्यूमिक एसिड, मिट्टी के पीएच मान को संतुलित रखता है. यह वानस्पतिक पदार्थों को 40-45 दिन में ही खाद में बदल देता है. मिट्टी की भौतिक, रासायनिक और जैविक क्वालिटी में और बंजर मिट्टी में सुधार आता है.

मछलीपालन और नर्सरी में भी वर्मी कंपोस्ट फायदेमंद है. इस तरह से तैयार खाद में दीमक का हमला नहीं होता है. इस के इस्तेमाल से मिट्टी की पानी लेने की कूवत में भी बढ़वार होती है.

साथ ही, इस में अनेक तत्त्व ऐसे होते हैं, जो पौधों को बीमारी से बचाते हैं और फसल का उत्पादन बढ़ाते हैं. मिट्टी की संरचना व हवा संचार में सुधार हो जाता है. जलकुंभी की समस्या से पूरी तरह नजात मिलती है. इस के इस्तेमाल से नाइट्रोजन तत्त्व की मिट्टी में लीचिंग नहीं होती है.

बनाने का तरीका : वर्मी कंपोस्ट बनाने का काम गड्ढे, लकड़ी की पेटी, प्लास्टिक क्रेट या कंटेनर में किया जा सकता है. पेटी की गहराई एक मीटर से कम रखें. लकड़ी या प्लास्टिक की पेटी में नीचे 8 से 10 छेद पानी निकालने के लिए बनाएं. 10 फुट लंबा, 2.5 फुट चौड़ा, 1.5 से 2.0 फुट गहरा गड्ढा ऊंची व छायादार जगह पर बना लें. सब से निचली सतह पर 3-3.5 सैंटीमीटर मोटी ईंट या पत्थर गिट्टी बिछाएं.  इस के ऊपर 3-3.5 सैंटीमीटर मौरंग या बालू बिछाएं. बालू की परत के ऊपर 15 सैंटीमीटर अच्छी दोमट मिट्टी की परत बनाएं.

इस के बाद 1 किलोग्राम केंचुए बराबर की संख्या में डाल दें. नम मिट्टी के ऊपर गोबर का ढेर बना कर रख दें. गोबर के ऊपर 5-10 सैंटीमीटर पुआल या सूखी पत्तियां डाल दें. इस इकाई में बराबर 20-25 दिन तक पानी का छिड़काव करें. 26 दिन मेें हर हफ्ते में 2 बार 5-10 सैंटीमीटर कचरे की तह बनाएं व गोबर का ढेर बना कर रख दें. यह प्रक्रिया तब तक दोहराते रहें, जब तक कि गड्ढा भर न जाए. इसे हफ्ते में एक बार पलटते रहें और रोज पानी का छिड़काव करें.

Compostजब गड्ढा भर जाए, तो कचरा डालना बंद कर दें. 40-45 दिन बाद जब वर्मी कंपोस्ट बन जाए, तो 2 से 3 दिन तक पानी का छिड़काव बंद कर दें. उस के बाद इसे गड्ढे से निकाल कर छाया में ढेर लगा दें और हलका सूखने के बाद 2 मिलीमीटर छन्ने से छान लें. इस तैयार खाद में 20-25 फीसदी नमी होनी चाहिए.

निकालने का तरीका : खाद निकालने के 2-3 दिन पहले पानी का छिड़काव बंद कर दें. इस से केंचुए गड्ढे की तली में चले जाएंगे. ऊपर से खाद को 1-2 दिन बाद हाथ से अलग कर लें या मौरंग चलाने वाली छलनी से छान लें व फर्श में नीचे पड़े केंचुओं को दोबारा गड्ढे में डाल दें. छनी खाद को प्लास्टिक के थैलों में भर कर रखें.

इस्तेमाल करने का तरीका : वर्मी कंपोस्ट को फसलों की बोआई या रोपाई से पहले और खड़ी फसल में डाल सकते हैं. खाद्यान्न फसलों में 5-6 टन प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करें. 2.5 से 3 टन प्रति हेक्टेयर खेती की तैयारी के वक्त इस्तेमाल करें. 1.2 से 1.5 टन प्रति हेक्टेयर फसल की दूधिया अवस्था में इस्तेमाल करें.

फलदार पेड़ों में जरूरत के मुताबिक पेड़ के थाले में इस्तेमाल करें. गमलों में 100 ग्राम प्रति गमले की दर से इस्तेमाल करें. सब्जी फसलों में 10-12 टन प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करते हैं.

एहतियात : ताजा गोबर का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस के सड़ने से ऊर्जा निकलती है और गरमी से केंचुए मर जाते हैं. बैड में नमी, छाया, 8 से 30 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान व हवा का आनाजाना बनाए रखें. केंचुओं की मेढक, सांप, चिडि़या, कौआ, छिपकली व लाल चींटी से हिफाजत करें.

कूड़ाकचरा भी गीला व ठंडा कर के केंचुओं के भोजन के रूप में इस्तेमाल करें. बैड की गुड़ाई या पलटाई हर हफ्ते करें, जिस से पोलापन बना रहे व केंचुओं को हवा मिले. गड्ढे की भराई धीरेधीरे करें, नहीं तो तापमान बढ़ने से केंचुओं को नुकसान होता है. गड्ढा छायादार व ऊंची जगह पर बनाएं.

जैविक खादें गुणवत्ता से भरपूर

अधिक से अधिक पैदावार लेने के चक्कर में ज्यादातर किसान जैविक खादों के इस्तेमाल में जरा भी दिलचस्पी नहीं लेते, जिस का नतीजा यह होता है कि खेतों की मिट्टी की सेहत खराब होती जा रही है. इस बात को ध्यान में रख कर हर किसान को अपने खेतों में ज्यादा से ज्यादा जैविक खादों का इस्तेमाल करना चाहिए.

जैविक खादों का खेती में बहुत ही अहम रोल है. जैविक खाद खेतों को लंबे समय तक उपजाऊ बनाए रखती है. साथ ही, उत्पाद की क्वालिटी भी अच्छी होती है. खेती में बढ़ते खर्चों को कम करने के लिए भी जैविक खादों का इस्तेमाल फायदे का सौदा साबित होता है.

आइए जानें, कुछ जैविक खाद बनाने के तरीके :

काऊ पैट पिट

दुधारू गाय के गोबर से एक तय आकार के गड्ढे में बनाई जाने वाली खाद काऊ पैट पिट यानी सीपीपी कहलाती है.

जरूरी चीजें : जमीन में 100 सैंटीमीटर लंबा, 60 सैंटीमीटर चौड़ा व 45 सैंटीमीटर गहरा ईंट का गड्ढा. दुधारू गाय का ताजा गोबर 25 किलोग्राम. लगभग 50-60 ईंट या लकड़ी का डेढ़ फुट चौड़ा व 3 फुट लंबा 2 पटरा व डेढ़ फुट चौड़ा व 2 फुट लंबा 2 पटरा. 200 बोर स्वायल या बेसाल्ट या बेनटोनाइट. बायोडायनेमिक प्रिप्रेशन 502-507. हर एक की एकएक ग्राम मात्रा. 250 ग्राम अंडे के छिलके. 100 ग्राम गुड़ का घोल. चटाई या लोहे की टिन. टाट या जूट का बोरा. एक बालटी पानी .

बनाने का तरीका : जमीन में 100 सैंटीमीटर लंबा, 60 सैंटीमीटर चौड़ा व 45 सैंटीमीटर गहरा गड्ढा खोद लें. गड्ढे की भीतरी दीवारों पर ईंटों से दीवार बना लें. तैयार गड्ढे की दीवारों व नीचे के हिस्से को गाय के गोबर से लीप दें. गाय के ताजा गोबर में अंडे के छिलके का पाउडर व बोर स्वायल या बेसाल्ट मिला कर अच्छी तरह पानी डाल कर तब तक फेंटें, जब तक मिश्रण में लस न आ जाए.

तैयार गोबर के मिश्रण को गड्ढे में 6 से 9 इंच मोटा भर दिया जाए. गोबर में अंगूठे की मदद से छेद कर के बीडी प्रिप्रेशन 502 से 506 को चारों कोनों और बीच में डाल कर बंद कर दिया जाए. बीडी प्रिप्रेशन 507 को 350 मिलीलिटर पानी में गुड़ के साथ अच्छी तरह मिला कर 10 मिनट तक घड़ी की दिशा व विपरीत दिशा में भंवर बनाते हुए डंडी से हिला कर गोबर की सतह और दीवारों पर छिड़क देना चाहिए.

जूट के बोरे को गीला कर गड्ढे को ढक दें. बारिश व धूप से बचाने के लिए फूस के छप्पर से गड्ढे को ढक दें. एक महीने बाद गड्ढे की खाद को ऊपरनीचे पलट दिया जाए. यदि नमी कम हो तो पानी का छिड़काव किया जाए. खाद 2-3 महीने में तैयार हो जाती है. अच्छी खाद में मीठी खुशबू होती है.

तैयार खाद स्टोर करना : मिट्टी के बरतन में भर कर इसे छायादार जगह पर स्टोर करें. बरतन के मुंह पर पतला कपड़ा बांधें. नमी कम होने पर बीचबीच में पानी के छींटों से नमी बनाए रखें.

पोषक तत्त्व की कूवत : नाइट्रोजन 1.3-1.55 फीसदी, फास्फोरस 0.3-0.5 फीसदी और पोटाश 0.5-0.65 फीसदी.

इस्तेमाल का तरीका : इस की एक किलोग्राम खाद प्रति एकड़ खेत के लिए काफी होती है. एक किलोग्राम खाद को 45 लिटर साफ पानी में रातभर भिगोएं. सुबह 10 मिनट तक घड़ी की दिशा व विपरीत दिशा में डंडी से भंवर बनाते हुए हिलाएं, तब मिश्रण का छिड़काव करें.

आखिरी जुताई के समय खेत की बोआई या रोपाई से पहले मिट्टी में कूची या ब्रश की मदद से छिड़काव करें. एक किलोग्राम खाद को 40 लिटर पानी में मिला कर ट्री पेस्ट के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. इस का इस्तेमाल ग्राफ्टिंग, कलम बनाने व जड़ों को मजबूती देने वगैरह के लिए किया जा सकता है. फलों व सब्जियों के लिए 250 ग्राम खाद में 500 ग्राम प्रति एकड़ फफूंदीनाशक दवा को मिला कर इस्तेमाल किया जा सकता है.

मटका खाद

मटका खाद एक लिक्विड खाद है, जिसे छिड़काव के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. यह खाद मिट्टी के घड़े में दुधारू गाय के गोबर व पेशाब द्वारा तैयार की जाती है.

जरूरी चीजें : मिट्टी का घड़ा. दुधारू गाय का ताजा गोबर. दुधारू गाय का पेशाब. पानी, गुड़, कपड़ा या टाट का टुकड़ा वगैरह.

बनाने का तरीका : मिट्टी के घड़े में दुधारू गाय का 15 किलोग्राम ताजा गोबर, गाय का ताजा 15 लिटर पेशाब व 15 लिटर पानी डाल कर घोल लें. इस में आधा किलोग्राम गुड़ मिला दें. इस घोल को मिट्टी के बरतन में डाल कर ऊपर से कपड़ा या टाट का टुकड़ा व मिट्टी से पैक कर दें. 10-12 दिन बाद यह तैयार हो जाती है.

इस्तेमाल का तरीका : तैयार खाद में 200-250 लिटर पानी मिला कर एक एकड़ खेत में समान रूप से छिड़क दें. यह छिड़काव फसल बोने के 15 दिन बाद करें. फिर 7-7 दिन बाद दोहराते रहें.

मटका खाद के फायदे : यह सस्ता व जल्दी तैयार हो जाता है. बाहर से कोई सामान नहीं लाना पड़ता है. नाइट्रोजन की पूर्ति करता है.

वनराजा मुरगीपालन यानी बैकयार्ड पोल्ट्री फार्म

किसानों की आमदनी में इजाफा करने में पशुपालन पूर्व के समय से ही अहम भूमिका निभाता रहा है और वर्तमान समय में कृषि विज्ञान व खेती से जुड़े दूसरे घटक किसानों को माली रूप से मजबूत करने के लिए दृढ़संकल्पित हैं.

सरकार किसानों की आमदनी को दोगुना करने के लिए बहुत सी योजनाएं लागू कर रही है. किसानों की आय समृद्वि के लिए जैविक खेती, नवीनतम कृषि यंत्रों का उपयोग, फसल अवशेष प्रबंधन, संतुलित उर्वरक उपयोग, मिट्टी जांच, उन्नतशील प्रजातियों के बीजों के उपयोग, जैविक कीटनाशकों का उपयोग व तकनीकियों के प्रसार के लिए ज्यादा से ज्यादा कृषि गोष्ठियों, कृषि प्रदर्शनी, प्रशिक्षणों एवं प्रदर्शनों के जरीए किसानों को जागरूक किया जा रहा है.

ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत भूमिहीन एवं छोटी जोत वाले किसानों के जीविकोपार्जन एवं उन को माली रूप से मजबूत बनाने के लिए बैकयार्ड पोल्ट्री फार्म यानी वनराजा मुरगीपालन एक बेहतर विकल्प साबित हो रहा है, जिस में कम खर्च एवं कम व्यवस्थाओं में भी अच्छी आय अंडा उत्पादन और मांस उत्पादन से हासिल किया जा सकता है.

बैकयार्ड पोल्ट्री फार्म के लिए अच्छे द्विकाजी नस्ल की जानकारी की कमी में बैकयार्ड पोल्ट्री से छोटे किसान या महिला किसानों को समुचित लाभ प्राप्त नहीं हो पा रहा है.

ऐसे में भारतीय पक्षी अनुसंधान संस्थान की शाखा हैदराबाद द्वारा विकसित नस्ल वनराजा, जो कि छिकाजी नस्ल है, एक बेहतर विकल्प पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए साबित हो सकती है.

इस नस्ल की विशेषताएं:
– यह एक बहुवर्षीय एवं आकर्षक पक्षी है.
– बेहतर रोगप्रतिरोधक क्षमता.
– निम्न आहार उपलब्धता पर अच्छी बढ़वार.
– देशी मुरगी की अपेक्षा अधिक अंडा उत्पादन.
– वनराजा का मांस स्वादिष्ठ और कम चरबी वाला होता है और टांगें लंबी होने के चलते दूसरे पक्षी से हिफाजत करने मेें माहिर होते हैं.
– वनराजा  फ्री रेंज यानी खुले विचरण में उत्तम प्रदर्शन करते हैं.

वनराजा मुरगी का प्रदर्शन
उम्र                      :           वजन
एक दिन का चूजा  :          35-40 ग्राम
6 सप्ताह               :         700-800 ग्राम
8 सप्ताह               :        1.00 किलोग्राम

अंडों की प्रतिशतता     :  70-75 फीसदी
अंडा उत्पादन उम्र      :   तकरीबन 6 माह
अंडों से चूजा उत्पादन :  80 फीसदी
औसत वजन अंडा      :  45-50 ग्राम

ब्रूडिंग: अंडों से चूजा प्राप्त होते ही उस के शरीर का तापमान नियंत्रित करने के लिए ब्रूडर की जरूरत होती है. इस के लिए ब्रूडर का उपयोग करना चाहिए. ब्रूडिंग के लिए पहले सप्ताह तापमान 95 डिगरी फोरेनहाइट रखा जाता है, जिसे हर सप्ताह 5 डिगरी फोरेनहाइट कम करते हुए 70 पर लाया जाता है. चूजों के बिखराव पर नियंत्रण के लिए चिक गार्ड का प्रयोग करना चाहिए. चिक गार्ड के अंदर चूजों का एकसमान फैलाव आदर्श तापमान का सूचक है.

आवास: गंवई इलाकों में चूजे को शुरू से बाजार भेजने तक एक शेड में रखा जाता है. स्थानीय उपलब्ध संसाधन से आवास का निर्माण कम लागत पर किया जा सकता है. आवास में उचित हवा का संचार, रौशनी की उचित व्यवस्था और दूसरे पक्षी से सुरक्षा की व्यवस्था रखी जाती है. रोग की रोकथाम में बिछाली का सूखा रहना बहुत जरूरी है. बिछाली को समयसमय पर पलटते रहना चाहिए, जिस से बिछाली को सूखा बनाए रखा जा सके, अन्यथा संक्रमण फैलने की संभावना रहती है. बिछाली के रूप् में धान की भूसी या लकड़ी के बुरादे का प्रयोग किया जाता है और गरमी में बिछाली की मोटाई 2 इंच से 3 इंच तक रखनी चाहिए.

आहार: शुरू के 2-5 दिनों तक बिछाली पर अखबार बिछा कर प्रीस्टार्टर राशन देना चाहिए. शुरू के 6 सप्ताह तक विटामिन और खनिज लवण से भरपूर संतुलित आहार दिया जाता है. आहार की उपापचयी ऊर्जा 2400, प्रोटीन प्रतिशत लाइसिन 0.77 फीसदी, मेथियोनिन 0.36 फीसदी, फास्फोरस 0.35 फीसदी और कैल्शियम 0.7 फीसदी रखा जाता है. पक्षीपालक स्थानीय उपलब्ध आहार की चीजों को ले कर खुद भी शुरुआती 6 माह तक बना सकते हैं.

अवयव मात्रा फीसदी में
मक्का, बाजरा, रागी, चावल कूट       : 50-70
चावल का चोकर या गेहूं का चोकर   : 10-15
खल                                              : 15-20
डाईकैल्शियम फास्फेट                   : 1.2
चूना पत्थर                                      : 1.3
नमक                                            : 0.5
विटामिन एवं खनिज प्रीमिक्स           : 0.3

बाजार में उपलब्ध ब्रायलर मैंस का भी प्रयोग किया जाता है. पक्षी को शुरुआती 4-6 सप्ताह अवस्था में इच्छाभार आहार प्रदान किया जाता है, जिस से इनके पंख, केकाल और प्रतिरक्षा तंत्र का उचित विकास हो. फ्री रेंजपालन में 6 सप्ताह के बाद पक्षी को दिन में खुले वातावरण में छोड़ देते हैं, ताकि वह चराई कर सकें.

टीकाकरण: मुरगे या मुरगी को सेहतमंद बनाए रखने के लिए संक्रामक बीमारियों से बचाने के लिए इन का टीकाकरण बहुत जरूरी है. इन को उम्र की अलगअलग अवस्थाओं में निम्न टीकाकरण करना जरूरी है:

उम्र –  रोग  – स्ट्रेन  – खुराक  – मार्ग

1 दिन  –   मैरेक्स – एचएमटी –  0.2 एमएल  – अधोत्वचीय
5-7 दिन –  रानीखेत – एफ1  – एक बूँद – आंख में
14 दिन  – गमबोरो  -लसोटा  – एक बूंद  – मुंह में
9वां सप्ताह  – रानीखेत  – आर2बी – 0.5 एमएल – अधोत्वचीय
10 से 12 सप्ताह  – चेचक – मुरगीमाता  – 0.2 एमएल – अधोत्वचीय

इस के साथ ही मुरगीशाला को कीटमुक्त करने के लिए 15 दिनों के अंतराल पर कीटनाशी दवा का छिड़काव करते रहें.

लाल भिंडी की खेती से किसान संजीव को मिली अलग पहचान

युवा किसान संजीव कुमार का कहना है कि लाल भिंडी की खेती से न सिर्फ फसल अच्छी मिलती है, बल्कि धरती की उर्वराशक्ति भी पहले से बेहतर हुई है. लाल भिंडी इम्यूनिटी बूस्टर के तौर पर काम करती है.

कृषि विज्ञान केंद्र, हरिहरपुर, वैशाली के प्रधान एवं वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डा. सुनीता कुशवाहा के निर्देशन पर उद्यान वैज्ञानिक स्वप्निल भारती की देखरेख में हाजीपुर नगर के चकवारा गांव निवासी राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित युवा किसान संजीव कुमार को लाल भिंडी का बीज परीक्षण के लिए उपलब्ध कराया गया था, जिसे उन्होंने अपने किचन गार्डन में लाल भिंडी का प्रयोग किया, जिस का नतीजा बेहद अच्छा रहा.

बोआई के 60 दिन बाद होती है तैयार फसल

लाल भिंडी की बोआई 15 फरवरी से 15 मार्च एवं 15 जून से 15 जुलाई तक की जाती है. इसे दोनों ही मौसमों में बोया जा सकता है. खरीफ रबी के लिए इस की बोआई का काम किया जा सकता है. उन्होंने बताया कि तैयार फसल को प्रत्येक 2 दिन पर तुड़ाई की जाती है. किसानों को लाल भिंडी की खेती के लिए ऊंची एवं जल निकास वाला खेत का चयन करना चाहिए. इस की खेती दोमट मिट्टी में करने से फसल बहुत ही अच्छी होती है. भिंडी की खेती लाइन से लाइन की दूरी 45 से 60 सैंटीमीटर पौधे से पौधे के बीच की दूरी 25 से 30 सैंटीमीटर पर बोआई करनी चाहिए.

गुणों से भरपूर लाल भिंडी

हाजीपुर नगर के चकवारा गांव के निवासी राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित युवा किसान संजीव कुमार का कहना है कि काशी लालिमा प्रजाति लाल भिंडी का प्रयोग वैशाली जिले की मिट्टी एवं आबोहवा में अच्छी फसल मिलती है. हरे रंग की भिंडी की अपेक्षा लाल भिंडी में आयरन, पोटैशियम, प्रोटीन, कैल्शियम और फाइबर पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है.

कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं संजीव कुमार

फार्म एन फूड एग्री अवार्ड 2023, ग्रास रूट इनोवेटिव अवार्ड 2019 ;राष्ट्रपति पुरस्कारद्ध एनआईएफ-गुजरात आईएलआरआई फेलो फार्मर अवार्ड – 2019, आईसीएआर आईएआरआई, नई दिल्ली ग्रास रूट इनोवेटिव अवार्ड-2018, धानुका इनोवेटिव अवार्ड-2020 ;बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर, भागलपुरद्ध, प्लांट जीरोम सेवियर अवार्ड -2017 ;धानुका एग्रो कैमिकल, मुंबईद्ध, पीपीवी और एफआरए-नई दिल्ली, जगजीवन राम इनोवेटिव अवार्ड-2017 आईसीएआर, नई दिल्ली, अभिनव किसान पुरस्कार 2014, सर्वोत्तम किसान पुरस्कार-2013, सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार-2013, गुजरात कृषि विभाग महिंद्रा इंडिया एग्री अवार्ड 2012, 2012 तक सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार वैशाली जिला प्रशासन, उद्यान रतन प्रोग्रेसिव फार्म अवार्ड 2013, प्रगतिशील किसान पुरस्कार 2010, आईसीएआर, आईएआरआई जी टीवी से पूसा, नई दिल्ली किसान पुरस्कार, राष्ट्रीय रजत पुरस्कार 2009, आईसीएआर-आईआईवीआर, वाराणसी से सम्मानित हो चुके हैं.

साढे़ 5 फुट की लौकी आकर्षण का केंद्र

हाल ही में बिहार सरस मेले में हाजीपुर वैशाली से आए संजीव कुमार द्वारा उगाई गई साढे़ 5 फुट की लौकी ने लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया. और्गैनिक तरीके से उगाई गई लौकी अपनेआप में खास है. वे इस तरह के काम करते हैं, जिस की वजह से उन्हें राष्ट्रपति ये भी सम्मानित किया जा चुका है.

मीणा परिवार ने खेती में अपनाए प्राकृतिक तौरतरीके

भरतपुर जिले की भरतपुरबयाना सड़क पर गांव पना के पास कमल मीणा परिवार ने अपने 16 बीघा खेत यानी फार्महाउस में विभिन्न प्रकार के फल व फूलदार पौधे, औषधीय व सब्जियों और खाद्यान्नों की फसलें लगा कर किसानों के लिए समन्वित खेती का बेहतरीन उदाहरण सामने रखा है.

गांव पना में कमल मीणा के इस फार्महाउस को लोग मिनी कृषि विश्वविद्यालय के नाम से अधिक जानते हैं. इस मिनी कृषि विश्वविद्यालय को रोजना दर्जनों लोग देखने आते हैं, ताकि वे इन विधियों को अपने खेतों पर अपना कर आमदनी बढ़ा सकें.

इसी तर्ज पर उन्होंने अपने खेतों में अधिक आमदनी देने वाली फसलें उगाने का मन बनाया, जिसे भरतपुर की लुपिन फाउंडेशन नामक स्वयंसेवी संगठन ने तकनीकी जानकारी दी और उन्नत किस्म के फल व फूलदार पौधे और खाद्यान्नों के बीज मुहैया कराए. उन्होंने अपने फार्महाउस के चारों तरफ की तकरीबन 8 फुंट ऊची दीवार बनाई, ताकि फार्महाउस में लगाई जाने वाली फसलें महफूज रह सकें.

फल व फूलदार पौधे बने अधिक आमदनी का जरीया

गांव पना के सड़क के किनारे बने कृषि फार्महाउस में कमल मीणा ने मलिहाबाद लखनऊ से ललित, कोलकाता से थाई 7, सवाई माधोपुर से बर्फखान व धवन किस्मों के अमरूद के पौधे ला कर लगाए. ये पौधे अभी डेढ़ साल के हैं. जब वे फल देने लगेंगे, तो निश्चय ही तकरीबन 5 लाख रुपए की आमदनी शुरू हो जाएगी.

इसी प्रकार उन्होंने पुष्कर से जामुन, सऊदी अरब से खजूर के पौधे मंगा कर लगाए और काजरी से बेर के रैड कश्मीरी एपल किस्मों के और नीबू के सीडलैस व कागजी किस्मों के पौधे मंगवा कर अपने फार्महाउस में लगाए.

इस के अलावा कमल मीणा ने अपने फार्महाउस में आंवला, अनार, चीकू, शहतूत, सहजन, कचनार, अमलतास के अलावा इमारती लकड़ी व सजावटी किस्मों के सागवान, नीम, फाइकस, मछलीपाम, पाम, अर्जुन, शीशम, बांस वगैरह के पौधे लगाए हैं.

फूलदार पौधों से महका फार्महाउस

कृषि फार्महाउस में गुलाब, गेंदा, मोरपंखी, बारहमासी समेत विभिन्न किस्मों के फूलदार पौधे लगाए हैं, जिस से पूरा फार्महाउस महक रहा है. इन फूलों की बिक्री से

कमल मीणा के परिवार को हर महीने तकरीबन 8,000 से 10,000 रुपए की आमदनी अलग से  हो जाती है.

जैविक सब्जियां व खाद्यान्न बिक रहे हैं अधिक दामों पर

कमल मीणा ने अपने फार्महाउस पर गेहूं की देशी किस्म के बंशी, काली मूंछ वाला, बोधका व काला प्रजाति के गेहूं और देशी किस्म के चना व मसूर की बोआई की है, वहीं सब्जियों में मिर्च, बैगन, टमाटर, गाजर, मेथी, मटर, पालक, धनिया, बथुआ, पत्तागोभी, फूलगोभी, लहसुन व प्याज के साथ गन्ना भी लगा रखा है.

इन सभी फसलों में कैमिकल खादों और कीटनाशक दवाओं के स्थान पर जैविक खाद व डाक्टर सुभाष पालेकर द्वारा विकसित की गई प्राकृतिक कृषि विधि को अपनाया है. सब्जियों और खाद्यान्न की बिक्री से उन्हें हर साल 3 लाख से 4 लाख रुपए की आमदनी हासिल हो रही है.

औषधीय सतावर की खेती से 6 लाख की हुई आमदनी

गांव पना के कमल मीणा ने अपने फार्महाउस में तकरीबन आधा एकड़ खेत में औषधीय फसल सतावर लगाई, जिन की जड़ों की बिक्री से उन्हें आसानी से 6 लाख रुपए की आमदनी हासिल हो गई. वे अपने फार्महाउस में दूसरे औषधीय पौधे भी इस साल लगाएंगे, जिस के लिए जमीन तैयार कर ली गई है.

खुद बनाते हैं प्राकृतिक कीटनाशक व जैविक खाद

‘पद्मश्री’ अवार्ड से नवाजे गए डाक्टर सुभाष पालेकर के टे्रनिंग कैंप में कमल मीणा ने प्राकृतिक खेती की तकनीकी जानकारी हासिल की. लुपिन फाउंडेशन के कृषि वैज्ञानिकों की देखरेख में कमल मीणा ने प्राकृतिक कीटनाशक जीवामृत, नीमास्त्र, अग्नि अस्त्र, दशापणी अर्क, ब्रहा्रास्त्र वगैरह तैयार किया और खुद की फसलों, फल व फूलदार पौधों पर छिड़काव करते हैं, ताकि कीटनाशक दवाओं से उत्पाद जहरीले नहीं हो सकें. कैमिकलखादों के स्थान पर उन्होंने वर्मी कंपोस्ट का प्रयोग करने के लिए अपने फार्महाउस पर वर्मी कंपोस्ट यूनिट लगा रखी है.

Farming

 

खेती में आधुनिक उपकरणों का कर रहे हैं इस्तेमाल

कमल मीणा ने अपने फार्महाउस पर सिंचाई के लिए सोलर पंप सैट लगा रखा है और बूंदबूंद व फव्वारा सिंचाई पद्धति का उपयोग करते हैं, ताकि सिंचाई में पानी की बचत हो और उत्पादन बढ़ सके. इस के अलावा वे जुताई के लिए पावर टिलर, गुड़ाई के लिए हैंड हो साइकिल, ट्रिबलर वगैरह का उपयोग कर रहे हैं.

दुधारू पशु भी आमदनी में बन रहे हैं मददगार

कमल मीणा ने अपने फार्महाउस में गिर नस्ल की गाय और मुर्रा नस्ल की भैंसें पाल रखी हैं, जिन्हें हरा चारा मुहैया कराने के लिए बरसीम व कांचनी भी अपने फार्महाउस में लगा रखी है.

अच्छी पैदावार के लिए कार्बनिक खादें

किसान के लिए मिट्टी उतनी ही जरूरी है, जितनी हमारे लिए हवा या पानी, लेकिन ज्यादा फसल लेने के चक्कर में ज्यादातर किसान कैमिकल खाद का अंधाधुंध इस्तेमाल कर के मिट्टी की ताकत को कमजोर कर देते हैं.

मिट्टी में कई तरह के खनिज तत्त्व पाए जाते हैं, जो जरूरी पोषक तत्त्वों का जरीया होते हैं. लेकिन लंबे समय तक मिट्टी पौधों के लिए पोषक तत्त्व नहीं दे सकती, क्योंकि लगातार फसल लेते रहने से मिट्टी में एक या कई पोषक तत्त्वों का भंडार कम होता जाता है.

एक समय ऐसा आता है कि मिट्टी में पोषक तत्त्वों की कमी का असर फसल पर दिखाई देने लगता है. ऐसी हालत से बचने के लिए जरूरी होता है कि जितनी मात्रा में पोषक तत्त्व व जमीन से पौधों द्वारा लिए जा रहे हैं, उतनी ही मात्रा में जमीन में वापस पहुंचें. जमीन में पोषक तत्त्वों को वापस पहुंचाने के लिए खाद सब से अच्छा जरीया है. खाद 2 तरह की होती हैं, कार्बनिक और अकार्बनिक.

अकार्बनिक खाद को कैमिकल खाद

भी कहा जाता है. यह सभी जानते हैं कि बढि़या बीज, कैमिकल खाद व सिंचाई का हमारे देश की खाद्यान्न हिफाजत में अहम भूमिका होती है.

हरित क्रांति से पहले भी हमारे देश में भुखमरी के हालात थे, लेकिन हरित क्रांति के बाद बढि़या बीज और कैमिकल खादों के इस्तेमाल से हमारी उत्पादकता साल 1990 तक खूब बढ़ी. लेकिन उस के बाद या तो उत्पादकता में ठहराव आ गया, या फिर उस में गिरावट आने लगी.

उत्पादकता में ठहराव या उस में गिरावट की खास वजह है कैमिकल खादों का लगातार असंतुलित यानी बेहिसाब और जरूरत से ज्यादा मात्रा में इस्तेमाल. मिट्टी में हो रहे बदलाव की पिछले 2 दशकों से लगातार चर्चा हो रही है. लगातार कैमिकल खादों के असंतुलित इस्तेमाल से मिट्टी बंजर हो रही है. मिट्टी का पीएच मान प्रभावित हो रहा है व फायदेमंद बैक्टीरिया की तादाद कम हो रही है.

मतलब, मिट्टी की भौतिक, कैमिकल व जैविक तीनों दशाएं प्रभावित हो रही हैं. अगर लगातार कैमिकल खादों का इस्तेमाल चलता रहा, तो एक समय ऐसा आएगा कि मिट्टी की उत्पादकता काफी घट जाएगी और हमारे देश की खाद्यान्न सुरक्षा और आत्मनिर्भरता पर सवालिया निशान लग जाएगा.

Compostअब सवाल यह उठता है कि क्या हम कैमिकल खादों के इस्तेमाल को कम कर अपनी उत्पादकता बनाए रख सकते हैं? इस का जवाब यह है कि हम उसी दशा में उत्पादकता बनाए रख सकते हैं, जब कैमिकल खादों की कमी के चलते होने वाले पोषक तत्त्वों की कमी की भरपाई दूसरे जरीए से करें यानी पौधों के लिए पोषक तत्त्वों की जरूरत में कोई बदलाव न हो, बदलाव जरीए में हो.

मौजूदा समय में कैमिकल खादों की जरूरत के कुछ भाग को कार्बनिक खादों का इस्तेमाल कर पूरा किया जा सकता है. लेकिन पूरी तरह कार्बनिक खादों के इस्तेमाल से परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. जैसे, इन परेशानियों में पहले कुछ सालों में पैदावार में गिरावट मुमकिन है. साथ ही, सौ फीसदी भरपाई के लिए कार्बनिक खादों की जरूरत बहुत होगी. इस वजह से लागत ज्यादा लगानी पड़ेगी.

जैसे, अगर 120 किलोग्राम नाइट्रोजन किसी फसल को देनी है, तो तकरीबन 260 किलोग्राम यूरिया की जरूरत पड़ेगी. लेकिन अगर कोई कार्बनिक खाद, जिस में नाइट्रोजन 1 फीसदी है, इस्तेमाल करनी है, तो उस की 12 टन की जरूरत होगी, जो बहुत बड़ी मात्रा है. ऐसे में कैमिकल खादों के कुछ भाग की भरपाई करना ही ठीक होगा.

कार्बनिक खादों का इस्तेमाल खेती के टिकाऊपन के लिए बहुत जरूरी है. मिट्टी में मौजूद जीवांश को मिट्टी का च्यवनप्राश माना जा सकता है. जैसे इनसानी शरीर के लिए च्यवनप्राश शरीर की सक्रियता के लिए अच्छा माना जाता है, उसी तरह मिट्टी की सेहत के लिए जीवांश की सही मात्रा में मौजूदगी जरूरी होती है.

आमतौर पर देखने में आ रहा है कि मिट्टी में लगातार जीवांश में कमी हो रही है, जिस का मिट्टी की सेहत पर बुरा असर दिख रहा है, इसलिए मिट्टी में जीवांश की मात्रा बनाए रखना बहुत ही जरूरी है.

मिट्टी में जीवांश की मात्रा को कार्बनिक खादों के इस्तेमाल से बनाए रखा जा सकता है या बढ़ाया जा सकता है. ये कार्बनिक खादें अलगअलग हो सकती हैं. जैसे, गोबर की सड़ी खाद, नाडेप कंपोस्ट या केंचुए की खाद.

इस के अलावा कई उत्पाद ऐसे हैं, जिन का कचरा पौधों की खुराक के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. जैसे, हरी खाद व फसल का कचरा जमीन में मिला कर भी मिट्टी में जीवांश की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है. हरी खाद के रूप में ढैंचा व सनई खास फसल हैं. ग्वार व लोबिया भी इस में लिया जा सकता है.

दलहनी फसलों के इस्तेमाल से जहां मिट्टी में जीवांश की मात्रा बढ़ाई जा सकती है, वहीं नाइट्रोजन व फास्फोरस की मौजूदगी को बढ़ाया जा सकता है.

जीवांश की मात्रा बढ़ने से मिट्टी की पानी लेने की कूवत बढ़ जाती है. जीवांश ही मिट्टी में मौजूद बैक्टीरिया की सक्रियता के लिए ऊर्जा का जरीया हैं. ये बैक्टीरिया जमीन में विभिन्न प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं, जिन से विभिन्न पोषक तत्त्वों की उपलब्धता पौधों के लिए सुनिश्चित होती है.

मिट्टी में होने वाले कैमिकल बदलाव का भी जीवांश विरोध करता है. पोषक तत्त्वों का जमीन से रिसाव भी जीवांश की पर्याप्तता से कम हो जाता है. इन सब गुणों के अलावा जीवांश का एक महत्त्वपूर्ण योगदान यह है कि यह विभिन्न पोषक तत्त्वों का जरीया है.