Field Fertility: खेत की उर्वराशक्ति बढ़ाने में गेहूं की नरई की भूमिका

Field Fertility| ग्लोबल वार्मिंग की वजह से मौसम गरम हो रहा है, गेहूं की फसल समय से पहले पक जाती है. गेहूं की कटाई किसान ज्यादातर कंबाइन मशीन द्वारा करते हैं, जिस से समय की बचत के साथसाथ बदलते मौसम के नुकसान से बचा जा सकता है. इस प्रकार कटाई करने से गेहूं के दाने मशीन द्वारा इकट्ठा कर के भंडारगृह में रख लेने से नुकसान कम होता है. लेकिन इस की नरई खेत में खड़ी रह जाती है, जिस को भूसा बनाने की मशीन द्वारा भूसा बना कर आमदनी बढ़ाई जा सकती है.

कई किसान नरई को नष्ट करने के लिए जानकारी न होने की वजह से खेत में आग लगा देते हैं. इस से खेत तो साफ हो जाता है, लेकिन नरई जलाने में जरा सी चूक हो जाए तो आसपास खड़ी हजारों एकड़ जमीन पर गेहूं की फसल जल कर राख हो जाती है. किसानों के परिवारों द्वारा साल भर सजाए अरमानों पर पानी फिर जाता है.

इन सभी से बचने के लिए किसानों को सलाह दी जाती है कि वे नरई प्रबंधन कर के मिट्टी में घटती हुई जीवांश पदार्थ की मात्रा को रोक सकते हैं.

नरई का प्रबंधन करने के लिए किसानों को चाहिए कि जब खेत कंबाइन द्वारा कट जाए तो उस के बाद भूसा बनाने वाली मशीन (रीपर) से नरई का भूसा बनवा लें. नरई को खेत में सड़ाने के लिए किसानों को चाहिए कि जैसे ही खेत की कटाई कंबाइन से हो जाए, उस के तुरंत बाद ही खेत में पानी लगा दें. शाम के समय 5-7 फीसदी यूरिया घोल यानी तकरीबन 200 लीटर पानी में 10-15 किलोग्राम यूरिया घोल कर प्रति एकड़ दर से छिड़काव कर दें. इस के बाद हैरो या मिट्टी पलटने वाले हल से खेत में पलट दें.

Field Fertility

इस समय किसान यूरिया का तकरीबन 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव जरूर करें. जब पलटाई को तकरीबन 15-20 दिन हो जाएं तब पानी लगा कर दोबारा पलटाई कर दें, जिस से खेत में खड़ी नरई सड़ कर खेत में मिल जाएगी. जिस खेत में अगली फसल धान की रोपाई करनी हो उस में हरी खाद के रूप में सनई या ढैंचा की बोआई कर दें और सही समय और नमी पर पलटाई कर के धान की रोपाई कर दें.

नरई को सड़ाने के बाद कार्बनिक पदार्थ 1092 किलोग्राम प्रति एकड़ पोषक तत्त्व दोबारा जमीन में वापस हो जाते हैं. यानी नाइट्रोजन 14.3 किलोग्राम प्रति एकड़ और अन्य पोषक तत्त्व भी जमीन को वापस हो जाते हैं. इस प्रकार से नरई का प्रबंधन अगर किसान करेंगे तो उन के खेतों की घटती उर्वरता व कार्बनिक पदार्थ की मात्रा 0.3-0.5 फीसदी से बढ़ा कर 0.8 फीसदी या इस से ज्यादा की जा सकती है और हरी खाद से तकरीबन 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की बचत कर सकते हैं, साथ ही खेत में खरपतवार भी कम हो जाते हैं.

नरई जलाने से नुकसान

Field Fertility

* नरई जलाने से पशुओं के चारे में रूप में साल भर इस्तेमाल में आने वाला भूसा नहीं मिल पाता है, जिस से किसानों को पशुपालन में अधिक खर्च उठाना पड़ सकता है.

* भूसा प्राप्त न होने की वजह से किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है, जो कि गेहूं की उत्पादन लागत को बढ़ा देता है.

* नरई जलाने से जमीन के अंदर मौजूद फायदेमंद असंख्य जीवाणु जल कर मर जाते हैं, जिस की वजह से आने वाली फसल का उत्पादन कम हो जाता है व जमीन में पोषक तत्त्वों की मौजूदगी कम हो जाती है.

* नरई जलाने से कार्बनिक पदार्थ व ह्यूमस नहीं मिल पाते हैं, जिस से जमीन की उर्वरता पर बुरा असर पड़ता है. साथ ही साथ जमीन में बारबार पानी लगाना पड़ सकता है.

* भूसे या गेहूं के पौधों की जड़ों के सड़ने से पौधों को जो जरूरी पोषक तत्त्व वापस मिल सकते हैं, वे नहीं मिल पाते, जिस से अगली फसलों के लिए किसान को पोषक तत्त्व फालतू मात्रा में डालने पड़ते हैं. नतीजतन उन्हें कम फायदा होता है.

* नरई जलाते समय अगर एक भी चिंगारी किसी दूसरे खेत में चली जाए तो पूरा खेत जल कर राख हो जाता है, जिस के कारण किसान को काफी घाटा उठाना पड़ता है.

* नरई जलाने से वायुमंडल में प्रदूषण फैलने के साथसाथ वायुमंडल के तापमान में बढ़ोतरी होती है.

नरई की रासायनिक संरचना

नरई में कार्बन 42.0, नाइट्रोजन 5.50, फास्फोरस 0.40, पोटाश 10.40, सल्फर 0.60, कैल्शियम 2.90, मैग्नीशियम 0.60, कार्बन/नाइट्रोजन 76.4, कार्बन/फास्फोरस 105.0, कार्बन/सल्फर 466.7, नाइट्रोजन/सल्फर 13.8 ग्राम प्रति किलोग्राम पाया जाता है.

इस के अलावा यदि किसान अपने खेत में फसल कंबाइन से काटने के बाद उस की नरई जमा कर लें, तो उस से बाद में नाडेप कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट या अन्य कंपोस्टिंग के द्वारा कंपोस्ट खाद बनाई जा सकती है.

उसे खेत में डाल कर बाद में फसल उत्पादन के समय जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

Award: डा.अपूर्वा को ‘फार्म एन फूड वुमन एग्री-इनोवेटर औफ द ईयर’ अवार्ड

Award |  छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठित बौद्धिक संपदा कानून विशेषज्ञ और नवाचार विशेषज्ञ डा. अपूर्वा त्रिपाठी को इसी 28 फरवरी को भोपाल के रवींद्र भवन में आयोजित ‘फार्म एंड फूड कृषि सम्मान समारोह’ में ‘वुमन एग्री-इनोवेटर औफ द ईयर अवार्ड – 2025’ से सम्मानित किया गया. यह पुरस्कार उन्हें कृषि क्षेत्र में किए गए उन के महत्वपूर्ण नवाचारों, महिलाओं के सशक्तीकरण और आदिवासी समाज के उत्थान में उन की असाधारण भूमिका के लिए प्रदान किया गया.

डा. अपूर्वा त्रिपाठी, प्रसिद्ध कृषिविद और पर्यावरणविद डा. राजाराम त्रिपाठी की बेटी हैं. वह बस्तर के कोंडागांव में स्थित अपने परिवार के लगभग 50 सदस्यों के संयुक्त परिवार में पलीबढ़ी हैं, जिस में 7 भाईबहनों का बड़ा परिवार है.

अपूर्वा त्रिपाठी के नवाचार और योगदान :

डा. अपूर्वा त्रिपाठी ने अपने पिता के मार्गदर्शन में कई उल्लेखनीय कृषि नवाचार किए हैं. उन के उल्लेखनीय कार्यों में बस्तर के आदिवासी समाज के साथ मिल कर वन औषधियों पर आधारित कई तरह की हर्बल चाय का निर्माण प्रमुख है, जो परंपरागत आदिवासी चिकित्सा पद्धति पर आधारित हैं. ये हर्बल चाय विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान में अत्यंत प्रभावी सिद्ध हुई हैं.

इस के अतिरिक्त, डा. राजाराम त्रिपाठी द्वारा विकसित की गई अत्यंत उत्पादक ‘मां दंतेश्वरी काली मिर्च-16’ (एमडीबीपी-16) प्रजाति के विकास में भी अपूर्वा त्रिपाठी का बड़ा योगदान रहा है. यह विशेष प्रजाति अन्य काली मिर्च की किस्मों की तुलना में चार से पांच गुना अधिक उत्पादन देती है और इस की गुणवत्ता भी अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है. इस विशेष प्रजाति को भारत सरकार के इंडियन प्लांट वैरायटी प्रोटैक्शन एंड रजिस्ट्रेशन अथौरिटी (Indian Plant Variety Protection and Registration Authority) में आधिकारिक रूप से पंजीकृत भी कराया गया है.

अपूर्वा त्रिपाठी के प्रयासों के कारण अब तक दक्षिण भारत की फसल मानी जाने वाली काली मिर्च को मध्य भारत के छत्तीसगढ़ में सफलतापूर्वक उगाया जा रहा है, जिस से इस क्षेत्र को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है.

अपूर्वा त्रिपाठी का प्रेरणादायक सफर :

अपूर्वा त्रिपाठी की शिक्षा देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में हुई है, जहां उन्होंने कृषि विज्ञान, जैविक खेती और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया है. उन की उपलब्धियां यह दर्शाती हैं कि समर्पण, परिश्रम और नवाचार के माध्यम से कोई भी युवा कृषि क्षेत्र में सफलता के नए आयाम स्थापित कर सकता है.

महिलाओं के सशक्तीकरण में भूमिका  :

डा. अपूर्वा त्रिपाठी ने बस्तर क्षेत्र की आदिवासी महिलाओं को जैविक कृषि के माध्यम से आत्मनिर्भर बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उन्होंने इन महिलाओं को प्रशिक्षित कर उन के उत्पादों को प्रोसैसिंग, ब्रांडिंग और मार्केटिंग के माध्यम से राष्ट्रीय बाजार में पहचान दिलाई है. इस के चलते आदिवासी परिवारों की माली हालत में सुधार हुआ है.

पुरस्कार समारोह के मुख्य बिंदु :

भोपाल में आयोजित इस सम्मान समारोह में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के 150 से अधिक किसान, कृषि वैज्ञानिक और कृषि विशेषज्ञ उपस्थित रहे. कार्यक्रम के मुख्य अतिथि एवं मध्य प्रदेश सरकार के सहकारिता, खेल एवं युवा कल्याण मंत्री विश्वास सारंग ने कहा कि भारत के किसानों को नवाचार के माध्यम से सशक्त करना ही हमारी प्राथमिकता है. डा. अपूर्वा त्रिपाठी जैसी युवा महिलाएं कृषि क्षेत्र में नए आयाम स्थापित कर रही हैं, जो पूरे देश के लिए गौरव की बात है.”

विशिष्ट अतिथि एवं मध्य प्रदेश सरकार के कौशल विकास एवं रोजगार मंत्री गौतम टेटवाल ने अपने उद्बोधन में कहा कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है और डा. अपूर्वा त्रिपाठी जैसी नवाचारशील महिलाएं अन्य किसानों के लिए प्रेरणास्रोत हैं.

दिल्ली प्रैस के कार्यकारी प्रकाशक अनंत नाथ ने कहा कि डा. अपूर्वा त्रिपाठी का योगदान न केवल कृषि क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक विकास में भी सराहनीय है.

इस समारोह में कुल 17 श्रेणियों में 30 किसानों, कृषि वैज्ञानिकों और कृषि विज्ञान केंद्रों को सम्मानित किया गया.

Planter : पौधे लगाने का यंत्र

Planter| कुछ फसलें खेतीकिसानी में  ऐसी होती हैं, जिन के बीज सीधे जमीन में छिड़कवा तरीके या मशीनों से बो दिए जाते हैं, लेकिन कुछ फसलें ऐसी होती हैं, जिन के पौधे जमीन में लगाए जाते हैं, खासकर सब्जियों व फलों की खेती के लिए पौधारोपण ही किया जाता है.

पौधे की खेत में रोपाई करना खासा थकाने वाला काम है. इस में ज्यादा मजदूरों की भी जरूरत होती है. बड़े किसानों के लिए तो यह बात कोई माने नहीं रखती, क्योंकि उन के पास खेती के काम के लिए अनेक तरह के कृषि यंत्र मौजूद होते हैं और मजदूरों को देने के लिए पैसे भी होते हैं, लेकिन आम छोटे किसानों के पास ये सुविधाएं मौजूद नहीं होतीं.

हम यहां पौधे लगाने के एक ऐसे यंत्र के बारे में जिक्र कर रहे हैं, जिस के इस्तेमाल से समय व मजदूरों की बचत तो होती ही है, साथ ही काम भी जल्दी होता है. इस यंत्र की कीमत भी ज्यादा नहीं है और न ही यंत्र चलाने के लिए बिजली या डीजल का खर्च पड़ता है.

यह एक बहुत ही साधारण तरीके का प्लांटर है, बेहद आसानी से इस्तेमाल किया जाता है. अकेला आदमी भी इस यंत्र से पौधारोपण कर सकता है. खड़े हो कर चलते हुए इस यंत्र से पौधे लगाए जाते हैं.

यह लोहे या स्टील या स्टील पाइप का बना यंत्र होता है, जिस का निचला हिस्सा बंद व खुलने होने वाला होता है और ऊपरी हिस्से पर एक हैंडल लगा होता है, जिस को पौधा रोपाई के समय दबाना व छोड़ना पड़ता है.

पौधे लगाने का तरीका : जुताई किए हुए खेत में मेंड़ों पर पौधे लगाने के लिए सब से पहले हैंडल को बिना दबाए प्लांटर के निचले नुकीले भाग को जमीन में दबाएं. उस के बाद प्लांटर में पौधा डाल दें. फिर प्लांटर के हैंडल को दबाएं और प्लांटर को जमीन से ऊपर उठा लें. यही तरीका अपनाते जाएं और पौधे लगाते हुए आगे बढ़ते जाएं (देखें चित्र में पौधे लगाने का तरीका).

यह यंत्र खासा लोकप्रिय हो रहा है. कुछ लोग इसे खुद भी बना रहे हैं. अभी हाल ही में ट्रू नेस्ट एग्रो प्रोडक्ट्स कंपनी ने अपने इस यंत्र को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली में लगे कृषि उन्नति मेले में प्रदर्शित किया था, जिस की कीमत तकरीबन 4500 रुपए बताई गई. यंत्र का डेमो भी मेले में किया गया. कुछ लोग यंत्र खरीद भी रहे थे. आप भी यह यंत्र प्राप्त करने के लिए या अधिक जानकारी के लिए मोबाइल नंबरों 08605995511 व 8605995533 पर संपर्क कर सकते हैं.

इस यंत्र की खासीयतें

*             यह यंत्र इस्तेमाल के लिए बहुत सरल व वजन में हलका है.

*             किसान बिना झुके पौधे लगा सकते हैं.

*             पौधे की बोआई एक कतार में करें.

*             पौधों की जड़ों पर दबाव नहीं पड़ता, इसलिए पौधे मरते नहीं हैं.

*             एक किसान 7 घंटे में औसतन 5000 से 8000 पौधे आसानी से लगा सकता है.

*             बड़ी मात्रा में मजदूरी और पैसों की बचत.

*             सब्जियों में टमाटर, बैगन, पत्तागोभी, मिर्च, फूलगोभी, करेला, भिंडी और सेम वगैरह के पौधे लगा सकते हैं.

*             पपीता और गेंदा वगैरह के पौधे लगा सकते हैं

*             इस यंत्र का सीधा सा हिसाब है, एक किसान एक प्लांटर.

*             इस यंत्र से एक निश्चित क्षेत्र में बीज रोपण भी किया जा सकता है. तरीका वही है, जो पौधे लगाने का है.

किसानों की तकदीर बदलने में लगे हामिद को मिले कई सम्मान

बिहार में औषधीय व सुगंधित पौधों की खेती की ओर किसानों का झुकाव ज्यादा हुआ है, जिस का मुख्य कारण है लागत कम और मुनाफा ज्यादा. हालांकि राज्य स्तर पर इन पौधों या इन के बीजों के साथ इन की खेती से होने वाले उत्पादन की खरीदबिक्री की सुविधा न के बराबर ही है, पर किसानों में कुछ कर गुजरने की ललक ने उन्हें इन की खेती की जानकारी व इन के उत्पादों की बिक्री के लिए दूसरे प्रदेशों तक पहुंचा दिया. इसी का नतीजा है कि अब राज्य के प्रगतिशील किसान नई ऊंचाइयां छूने की ओर बढ़ रहे हैं.

परंपरागत खेती जैसे दलहन, तिलहन, धान व गेहूं आदि से इतनी कम आय होती है कि किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा बन कर रह गई है. परंतु कुछ प्रयोगधर्मी किसान हैं, जो खेती में नफानुकसान की ज्यादा चिंता न कर के नित नए प्रयोग करते रहते हैं. इन्हीं में से एक किसान हैं राज्य के सीवान जिले के हसनपुर प्रखंड के लहेजी गांव निवासी मोहम्द हामिद खां. वे जिला व राज्य स्तरीय कई पुरस्कार हासिल कर चुके हैं. हामिद का कहना है कि किसान वैसी खेती करना चाहते हैं, जिस में समय कम व मुनाफा अधिक हो. जिले के अधिकतर किसान मेंथा, घृतकुमारी, पोपुलर व पेपट्रा की खेती कर रहे हैं. इन का बाजार देश के अलावा विदेशों में भी है. कीमत भी अच्छी मिल जाती है. पेपट्रा 1500 रुपए प्रति किलोग्राम और मेंथा 900 रुपए प्रति किलोग्राम बिकता है, इसलिए किसान इन की खेती ज्यादा कर के मुनाफा कर रहे हैं.

किसानों को कम लागत  में हो रही लाखों की आय : आज से करीब 3 साल पहले खस की खेती की शुरुआत करने वाले हामिद खां सीवान, छपरा व गोपालगंज आदि जिलों के दर्जनों किसानों को प्रशिक्षण दे कर खस के अलावा मेंथा, पेपट्रा, घृतकुमारी व पोपुलर की खेती करा रहे हैं, जिस से इन किसानों के जीवन की तसवीर बदल गई है. इन की खेती से किसानों को कम लागत में हर साल लाखों रुपए की आय हो रही है.

खस, सतावर, कालमेघ, मेंथा, पामारोजा, सेट्रोनेला, लेमनग्रास, आर्टीमीसिया व कोलियस आदि की खेती से किसानों में कामयाबी की उम्मीद जगी है. बिहार के सीवान, छपरा व गोपालगंज जिलों में अभी लगभग 10 एकड़ में खस की खेती कर के तेल का उत्पादन किया जा रहा है. यह फसल 1 साल में तैयार हो जाती है. यदि अच्छी फसल हुई तो प्रति कट्ठा (1350 वर्ग फुट) 400 से 700 ग्राम तक तेल निकलता है, जिस की कीमत 15000 से 18000 रुपए प्रति लीटर होती है. फरवरी में इस फसल की खुदाई कर के आसवन विधि द्वारा तेल निकाला जाता है. इस मौसम में तेल की मात्रा ज्यादा मिलती है. जड़ निकाल कर बचे हुए पौधों को फिर से नई फसल के लिए खेत में लगाया जा सकता है.

इत्र बनाने वाली कंपनियां खरीदार : खस की खेती करने वाले ऐसे किसान जिन  के पास तेल निकालने का साधन नहीं है, उन के द्वारा उत्पादित जड़ें मोहम्द हामिद लगभग 6000 रुपए प्रति क्विंटल की दर से खरीदने के साथ ही 1000 से ले कर, 1500 रुपए प्रति कट्ठे की दर से खेत में लगी फसल खरीदने के बाद जड़ों की खुदाई कर के खुद तेल निकालते हैं. इस का तेल लखनऊ व बाराबंकी आदि स्थानों पर इत्र बनाने वाली कंपनियां और व्यापारी 10000 से 12000 रुपए प्रति लीटर खरीद कर ले जाते हैं.

हामिद सीमैप लखनऊ से 2 रुपए प्रति पौधे की दर से पौधे ला कर नर्सरी तैयार करने के बाद 1 रुपए प्रति पौधे की दर से किसानों को बेचते हैं. वैसे तो इस की रोपाई पूरे साल की जा सकती है, परंतु दिसंबर से मार्च तक का समय इस की रोपाई के लिए ज्यादा अच्छा होता है. इस की खेती 6 महीने तक जलजमाव वाले खेत में भी की जा सकती है. कई विशेषज्ञों का ऐसा भी मानना है कि खस के पौधे यदि 2-3 महीने तक पानी में पूरी तरह से डूबे रह जाते हैं, तब भी इस की फसल पर कोई खराब असर नहीं पड़ता है.

जुलाई में रोपाई

सीमैप लखनऊ के वैज्ञानिक वीरेंद्र कुमार सिंह तोमर का कहना है कि राज्य की मिट्टी, विशेष रूप से दियारा की मिट्टी के लिए यह फसल ज्यादा लाभकारी है.

जलजमाव वाली जमीन में फरवरी व मार्च और सामान्य जमीन में जुलाई में बारिश होने पर खस की रोपाई कर के अच्छी फसल तैयार की जा सकती है. यदि खस की नर्सरी तैयार करनी हो तो फरवरी या मार्च में पौधे लगाने के 1 महीने बाद डीएपी खाद की एक सीमति मात्रा डाल कर नर्सरी की गुड़ाई व सिंचाई के साथ 3 महीने में 1 पौधे में 18 से 20 कल्ले तक निकल आते हैं, जिन्हें बाद में दूसरे खेतों में फसल के रूप में लगाया जाना चाहिए. राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर के वैज्ञानिक डा. हांडू का कहना है कि बिहार की मिट्टी व जलवायु खस की खेती के लिए सही है. यहां के किसान इस की खेती कर के अपनी माली हालत सुधार सकते हैं. साथ ही उन का यह भी मानना है कि खस की खेती पर बाढ़ व सूखे का ज्यादा असर नहीं होता है. इस की खेती बंजर जमीन में भी की जा सकती है. पशु इस के कड़े डंठलों को नहीं खाते हैं, इसलिए इस की फसल की ज्यादा देखभाल की जरूरत नहीं पड़ती है.

वैज्ञानिकों का मिलता रहा सहयोग : अपनी इस सफलता का श्रेय सीमैप लखनऊ के वैज्ञानिक डा. कलीम अहमद, वैज्ञानिक वीरेंद्र कुमार सिंह तोमर व डा. एचपी सिंह आदि को देते हुए हामिद कहते हैं कि यदि आज के प्रगतिशील किसान वैज्ञानिकों के सहयोग व अपनी सूझबूझ के साथ औषधीय खेती करें, तो अच्छी कमाई कर सकते हैं.

प्रति एकड़ 40000 रुपए की आय : हामिद खां ने बताया कि खस, पोपुलर, घृतकुमारी, मेंथा व पेपट्रा की औषधीय खेती से 1 साल में प्रति एकड़ तकरीबन 40000 रुपए की आमदनी होती है. किसान यदि फरवरी में खस को काट कर मेंथा की सह फसल लेते हैं, तो प्रति एकड़ 15000 से 20000 रुपए की अलग से आमदनी की जा सकती है.

प्रयोग के तौर पर हामिद पापुलर के साथ पामारोजा, सेट्रोनेला व खस की खेती कर रहे हैं.

हामिद द्वारा 4 एकड़ में 6 से 14 फुट की दूरी पर पापुलर लगाया गया है, जिस के बीच में सह फसल ली जाती है. उन का मानना है कि पापुलर के 400 पौधे प्रति एकड़ लगा कर 7 सालों में 3000 रुपए प्रति पेड़ की दर से लाखों रुपए की आय हासिल की जा सकती है.

खस के पौधों में दीमक लगती है, जिस से बचाव के लिए ट्राइसेल 20 ईसी 200 ग्राम प्रति एकड़ डाल कर खेत की अच्छी तरह जुताई करनी चाहिए. खस के पौधे से पौधे की दूरी डेढ़ फुट व लाइन से लाइन की दूरी 2 फुट की होनी चाहिए.

केंद्रीय औषिध एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा आयोजित औषधीय एवं सुगंध पौधों के उत्पादन हेतु उन्नत प्रौद्योगिकी पर प्रशिक्षण कार्यक्रम लहेली गांव में किया गया था, जिस से यहां के किसानों को काफी जानकारी मिली.

हामिद द्वारा ढाई लाख की लागत से स्टील डिस्टलेशन प्लांट भी लगाया गया है. 1 टन की कूवत वाले इस प्लांट में 8 क्विंटल खस की जड़ें भर कर 72 घंटे में तेल निकाला जाता है. इसी प्लांट से लेमनग्रास, पामारोजा, सिट्रोनेला व मेंथा का भी तेल निकाला जाता है.

खरीफ के लिए फायदेमंद है रबी के बाद खेत की जुताई (Ploughing)

Ploughing | जब हम खेतखलिहान की बात करते हैं, तो हमें खेत की तैयारी से ले कर फसल की कटाई, गहाई और उपज भंडारण तक के कई स्तरों से हो कर गुजरना पड़ता है. खेती का हर काम  समय पर किया जाना बहुत ही जरूरी है, इसलिए अच्छी फसल पाने व खेती को फायदे का सौदा बनाने के लिए बेहद जरूरी है कि तय समय व योजना के मुताबिक खेतीकिसानी के काम किए जाएं.

मौजूद जमीन जलवायु व संसाधनों के अनुसार फसलों व उन की प्रमाणित किस्मों का चयन, सही  समय पर सही तकनीक से बोआई, मिट्टी परीक्षण के आधार पर संतुलित पोषक तत्त्व प्रबंधन, फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई, खरपतवार, कीट व रोग  नियंत्रण के जरूरी उपाय व समय पर कटाई, गहाई, उपज का सुरक्षित भंडारण तथा विपणन जितना जरूरी है, उतना ही खेत की समय पर जुताई भी जरूरी है.

रबी फसल की कटाई होने के साथ ही खेत खाली हो जाते हैं. ऐसे में खेत में कीट व रोग पर काबू पाने के लिए ग्रीष्मकालीन जुताई का खास महत्त्व है, इसलिए खेत की गहरी जुताई कर के आगामी खरीफ की अच्छी पैदावार ली जा सकती है.

खेत की तैयारी में गरमी की जुताई व पलटाई का खास योगदान होता है, क्योंकि इस से जमीन में 1 फुट नीचे मौजूद कड़ी परत टूट जाती है व इस से तमाम कीट व खरपतवार के बीज भी खत्म हो जाते हैं. इस के अलावा मिट्टी में पानी सोखने की कूवत भी बढ़ती है. मिट्टी नरम होने से जड़ों का विकास होता है. इस तरह से खेत की उत्पादन कूवत में बढ़ोतरी होती है.

ग्रीष्मकालीन जुताई 15 सेंटीमीटर गहराई तक किसी भी मिट्टी पलटने वाले हल से करें. जुताई हमेशा खेत के ढलान की उलटी दिशा में ढलान को काटते हुए करनी चाहिए, जिस से बरसात का पानी व मिट्टी नहीं बहे. मिट्टी के बड़ेबड़े ढेले रहने चाहिए व मिट्टी भुरभुरी न हो, इस बात का खास ध्यान रखें.

गहरी जुताई के लिए एक विशेष यंत्र रेवल ट्रिपल मोल्ड प्लाऊ का इस्तेमाल करें. इस के अलावा डिश प्लाऊ और मिट्टी पलटने वाले हल का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. जुताई के लिए मध्य अप्रैल से 15 मई तक का समय ठीक रहता है.

Ploughing

जुताई करने के बाद 4 से 5 हफ्ते तक खेत को खुला छोड़ दें. मानसून की पहली बारिश तक खेत को खुला रखें. बारिश होने से हफ्तेभर पहले खुले खेत में देशी खाद व गोबर भी डाल सकते हैं. बारिश होने पर खेत की जुताई करें.

गौरतलब है कि जुताई करने से मिट्टी में मौजूद कीटपतंगे मिट्टी की ऊपरी सतह पर आ जाते हैं. मईजून की तेज गरमी से कीटपतंगे खत्म हो जाते हैं. इस से खरपतवार की समस्या भी नहीं रहती है व खेत की जल ग्रहण कूवत बढ़ती है. मिट्टी में मौजूद जरूरी पोषक तत्व फसल को सही मात्र में मिलने लगते हैं. मिट्टी के ऊपरनीचे होने से मिट्टी के क्षारीय व अम्लीय गुण बराबर हो जाते हैं. इस से उत्पादन कूवत में बढ़ोतरी होती है व मिट्टी नरम होने से पौधे की जड़ का अच्छा विकास होता है.

खेतीबारी के माहिर भी किसानों को गरमी में खाली पडे़ खेतों की गहराई से जुताई करने की सलाह देते हैं. खेतीबारी के माहिर रामराय जाट का कहना है कि इस से फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले रोगाणु कीटों के अंडे ऊपरी सतह पर आ जाते हैं और गरमी से खत्म हो जाते हैं.

उन्होंने बताया कि रोगाणु, रोगजनक कीड़े, खरपतवारों के बीज वगैरह फसल की कटाई के बाद जमीन की दरारों में सोते से पड़े रहते हैं. जब अगली फसल की बोआई की जाती है, तो अनुकूल मौसम मिलने पर ये सक्रिय हो कर फसल को जम कर नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं.

रामराय जाट ने आगे बताया कि इस के अलावा जमीन को गहराई से जोतने पर जल संरक्षण भी होगा. फसल की बोआई के समय बारबार एक तय गहराई तक कल्टीवेटर चलाने से खेतों में नीचे एक कड़ी परत बन जाती है, जिस से बारिश का पानी खेत के बाहर चला जाता है और अपने साथ मिट्टी और पोषक तत्वों को बहा ले जाता है.

गरमी की जुताई 9 से 15 इंच तक मिट्टी पलटने वाले हल से करने पर यह कड़ी परत टूट जाती है और वर्षाजल खेत में अधिक मात्रा में सोख लिया जाता है. मिट्टी भी धूप लगने से भुरभुरी हो जाती है. इस में वायु संचार बढ़ जाता है और खेत की जलधारण कूवत में बढ़ोतरी हो जाती है. इस के अलावा जुताई से खरपतवार भी नष्ट होते हैं और मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है.

GulabJamun – मिनी गुलाबजामुन स्वाद का नया अंदाज

GulabJamun| रसीला गुलाबजामुन देश की सब से मशहूर मिठाई है. गुलाबजामुन (GulabJamun) बनाने वाले इसे ले कर नएनए प्रयोग करने लगे हैं. सब से ज्यादा प्रयोग इस के आकार को ले कर होने लगे हैं. पहले गुलाबजामुन (GulabJamun) नीबू के आकार बनता था. अब इस के आकार को छोटा कर दिया गया है. इसे मिनी गुलाबजामुन के नाम से जाना जाता है. छप्पन भोग मिठाई शाप के मालिक रवींद्र गुप्ता कहते हैं, ‘आज के समय में लोग मिठाई को भरपेट नहीं खाते. वे स्वाद लेने के लिए मिठाई खाते हैं. ऐसे में मिनी गुलाबजामुन भी चलन में आ गया.’

गुलाबजामुन का नाम गुलाब और जामुन से मिल कर बना है. यह अपनी तरह की अलग मिठाई है, जिस का नाम फल और फूल पर रखा गया है. गुलाबजामुन की चाशनी को बनाने के लिए गुलाबजल को खुशबू के लिए डाला जाता है और जामुन के गोल आकार और रंग के कारण इसे गुलाबजामुन कहा जाता है. गुलाबजामुन मुगल काल की मिठाई है. गुलाबजामुन भारत और दूसरे मुसलिम देशों की खास मिठाई है. अब दुनिया में जहांजहां भारतीय रहते हैं, वहांवहां मिठाई  की दुकानों में गुलाबजामुन मिलता है.

चाशनी में डूबा गुलाबजामुन गरमगरम खाने में ही मजा देता है. कोई दावत गुलाबजामुन के बिना अधूरी मानी जाती है. अगर आप गरम और ठंडा स्वाद एकसाथ लेना चाहते हैं, तो गुलाबजामुन और वनीला आइसक्रीम को मिला कर खाया जा सकता है. एक बार इस अंदाज में गुलाबजामुन का स्वाद लेंगे, तो किसी और मिठाई का स्वाद याद ही नहीं रहेगा.

गुलाबजामुन और कालाजाम में अंतर

मिठाई की दुकानों पर गुलाबजामुन से मिलतीजुलती एक और मिठाई दिख जाती है, जिसे कालाजाम कहा जाता है. आमतौर पर लोग कालाजाम और गुलाबजामुन को एक ही मिठाई समझ बैठते हैं, मगर इन में फर्क होता है. गुलाबजामुन चाशनी में डूबा होता है, जबकि कालाजाम सूखा होता है. गुलाबजामुन गरम खाया जाता है और कालाजाम सामान्य तापमान में रख कर खाया जाता है. गुलाबजामुन खोए से तैयार होता है और इस के अंदर कुछ भरा नहीं जाता, जबकि कालाजाम में अंदर मेवाइलायची जैसी दूसरी चीजें डाली जाती हैं. गुलाबजामुन को चांदी के वर्क से सजाया नहीं जाता है, जबकि कालाजाम को चांदी के वर्क और केसर पाउडर से सजाया जाता है. कालाजाम गोल आकार का ही बनता है, जबकि गुलाबजामुन गोल और लंबे दोनों आकारों में बनते हैं. इन के स्वाद में भी अंतर होता है. गुलाबजामुन पंजाबी मिठाई होती है, जबकि कालाजाम बंगाली मिठाई होती है.

कैसे बनता है गुलाबजामुन

गुलाबजामुन बनाने के लिए खोया, मैदा, बेकिंग पाउडर और इलायची पाउडर का इस्तेमाल किया जाता है. सब से पहले खोए को कद्दूकस कर लें. फिर उस में मैदा, बेंकिग पाउडर और इलायची पाउडर मिला लें. इस में थोड़ा दूध डालते हुए आटे की तरह गूंध लें. जब यह खूब चिकना जाए तो मनचाहे गोल या लंबे आकार में गुलाबजामुन तैयार कर लें. ध्यान रखें कि ये फटे नहीं.  फटने से इन में दरारें पड़ जाती हैं. तैयार कच्चे गुलाबजामुन को कपड़े से ढक  कर रख दें. इस के बाद कढ़ाई में जरू रत के अनुसार तेल डाल कर इन्हें तल लें. जब ये ब्राउन कलर के हो जाएं,  तो इन को बाहर निकाल लें और किचन पेपर पर रखें.

इस के बाद चीनी और पानी बराबर मात्रा में ले कर चाशनी बनाएं. इसे धीमी आंच पर गरम करें. जब चाशनी तैयार हो जाए, तो तले गुलाबजामुन उस में डाल दें. चाशनी में कुटी इलायची, गुलाबजल और केसर डाल दें. जब गुलाबजामुनों के अंदर तक रस घुल जाए, तो उन को निकाल कर गरमगरम खाएं. चाशनी में भीगे होने के कारण इन को गरम करना आसान होता है.

Agricultural Waste : खेती के कचरे को बनाएं कमाई का जरीया

Agricultural Waste : चावल निकालने के बाद बची धान की भूसी पहले भड़भूजों की भट्ठी झोंकने में जलावन के काम आती थी, लेकिन अब मदुरै, तिरूनवैल्ली और नमक्कन आदि में उस से राइस ब्रान आयल यानी खाना पकाने में काम आने वाला कीमती तेल बन रहा है. इसी तरह गेहूं का भूसा व गन्ने का कचरा जानवरों को चारे में खिलाते थे, लेकिन अब उत्तराखंड के काशीपुर में उस से उम्दा जैव ईंधन 2जी एथनाल व लिग्निन बन रहा है.

फिर भी खेती के कचरे को बेकार का कूड़ा समझ कर ज्यादातर किसान उसे खेतों में जला देते हैं, लेकिन उसी कचरे से अब बायोमास गैसीफिकेशन के पावर प्लांट चल रहे हैं. उन में बिजली बन रही है, जो राजस्थान के जयपुर व कोटा में, पंजाब के नकोदर व मोरिंडा में और बिहार आदि राज्यों के हजारों गांवों में घरों को रोशन कर रही है. स्वीडन ऐसा मुल्क है, जो बिजली बनाने के लिए दूसरे मुल्कों से हरा कचरा खरीद रहा है.

तकनीकी करामात से आ रहे बदलाव के ये तो बस चंद नमूने हैं. खेती का जो कचरा गांवों में छप्पर डालने, जानवरों को खिलाने या कंपोस्ट खाद बनाने में काम आता था, अब उस से कागज बनाने वाली लुग्दी, बोर्ड व पैकिंग मैटीरियल जैसी बहुत सी चीजें बन रही हैं. साथ ही खेती का कचरा मशरूम की खेती में भी इस्तेमाल किया जाता है.

धान की भूसी से तेल व सिलकान, नारियल के रेशे से फाइबर गद्दे, नारियल के छिलके से पाउडर, बटन व बर्तन और चाय के कचरे से कैफीन बनाया जाता है यानी खेती के कचरे में बहुत सी गुंजाइश बाकी है. खेती के कचरे से डीजल व कोयले की जगह भट्ठी में जलने वाली ठोस ब्रिकेट्स यानी गुल्ली अपने देश में बखूबी बन व बिक रही है. खेती के कचरे की राख से मजबूत ईंटें व सीमेंट बनाया जा सकता है.

Agricultural Wasteजानकारी की कमी से भारत में भले ही ज्यादातर किसान खेती के कचरे को ज्यादा अहमियत न देते हों, लेकिन अमीर मुल्कों में कचरे को बदल कर फिर से काम आने लायक बना दिया जाता है. इस काम में कच्चा माल मुफ्त या किफायती होने से लागत कम व फायदा ज्यादा होता है. नई तकनीकों ने खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल करने के कई रास्ते खोल दिए हैं. लिहाजा किसानों को भरपूर फायदा उठाना चाहिए.

कचरा है सोने की खान

अमीर मुल्कों में डब्बाबंद चीजें ज्यादा खाते हैं, लेकिन भारत में हर व्यक्ति औसतन 500 ग्राम फल, सब्जी आदि का हरा कचरा रोज कूड़े में फेंकता है. यानी कचरे का भरपूर कच्चा माल मौजूद है, जिस से खाद, गैस व बिजली बनाई जा सकती है. खेती के कचरे को रीसाइकिल करने का काम नामुमकिन या मुश्किल नहीं है.

खेती के कचरे का सही निबटान करना बेशक एक बड़ी समस्या है. लिहाजा इस का जल्द, कारगर व किफायती हल खोजना बेहद जरूरी है. खेती के कचरे का रखरखाव व इस्तेमाल सही ढंग से न होने से भी किसानों की आमदनी कम है.

किसानों का नजरिया अगर खोजी, नया व कारोबारी हो जाए, तो खेती का कचरा सोने की खान है. देश के 15 राज्यों में बायोमास से 4831 मेगावाट बिजली बनाई जा रही है. गन्ने की खोई से 5000 मेगावाट व खेती के कचरे से 17000 मेगावाट बिजली बनाई जा सकती है. उसे नेशनल ग्रिड को बेच कर किसान करोड़ों रुपए कमा सकते हैं. 10 क्विंटल कचरे से 300 लीटर एथनाल बन रहा है. लिहाजा खेती के कचरे को जलाने की जगह उस से पैसा कमाया जा सकता है, लेकिन इस के लिए किसानों को उद्यमी भी बनना होगा.

Agricultural Wasteफसलों की कटाई के बाद तने, डंठल, ठूंठ, छिलके व पत्ती आदि के रूप में बहुत सा कचरा बच जाता है. खेती में तरक्की से पैदावार बढ़ी है. उसी हिसाब से कचरा भी बढ़ रहा है. खेती के तौरतरीके भी बदले हैं. उस से भी खेती के कचरे में इजाफा हो रहा है. मसलन गेहूं, धान वगैरह की कटाई अब कंबाइन मशीनों से ज्यादा होने लगी है. लिहाजा फसलों के बकाया हिस्से खेतों में ही खड़े रह जाते हैं. उन्हें ढोना व निबटाना बहुत टेढ़ी खीर है.

गेहूं का भूसा, धान की पुआल, गन्ने की पत्तियां, मक्के की गिल्ली और दलहन, तिलहन व कपास आदि रेशा फसलों का करीब 5000 टन कचरा हर साल बचता है. इस में तकरीबन चौथाई हिस्सा जानवरों को चारा खिलाने, खाद बनाने व छप्पर आदि डालने में काम आ जाता है. बाकी बचे 3 चौथाई कचरे को ज्यादातर किसान बेकार मान कर खेतों में जला कर फारिग हो जाते हैं, लेकिन इस से सेहत व माहौल से जुड़े कई मसले बढ़ जाते हैं.

जला कर कचरा निबटाने का तरीका सदियों पुराना व बहुत नुकसानदायक है. इस जलावन से माहौल बिगड़ता है. बीते नवंबर में दिल्ली व आसपास धुंध के घने बादल छाने से सांस लेना दूभर हो गया था. आगे यह समस्या और बढ़ सकती है. लिहाजा आबोहवा को बचाने व खेती से ज्यादा कमाने के लिए कचरे का बेहतर इस्तेमाल करना लाजिम है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के बागबानी महकमे ने ऐसे कई तरीके निकाले हैं, जिन से कचरा कम निकलता है.

चाहिए नया नजरिया

उद्योगधंधों में छीजन रोक कर लागत घटाने व फायदा बढ़ाने के लिए वेस्ट मैनेजमेंट यानी कचरा प्रबंधन, रीसाइकलिंग यानी दोबारा इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है. कृषि अपशिष्ट प्रबंधन यानी खेती के कचरे का सही इंतजाम करना भी जरूरी है. कचरे को फायदेमंद बनाने के बारे में किसानों को भी जागरूक होना चाहिए. इंतजाम के तहत हर छोटी से छोटी छीजन को रोकने व उसे फायदे में तब्दील करने पर जोर दिया जाता है.

अपने देश में ज्यादातर किसान गरीब, कम पढ़े व पुरानी लीक पर चलने के आदी हैं. वे पोस्ट हार्वेस्ट टैक्नोलोजी यानी कटाई के बाद की तकनीकों की जगह आज भी सदियों पुराने घिसेपिटे तरीके ही अपनाते रहते हैं. इसी कारण वे अपनी उपज की कीमत नहीं बढ़ा पाते, वे उपज की प्रोसेसिंग व खेती के कचरे का सही इंतजाम व इस्तेमाल भी नहीं कर पाते.

ज्यादातर किसानों में जागरूकता की कमी है. उन्हें खेती के कचरे के बेहतर इस्तेमाल की तनकीकी जानकारी नहीं है. ऊपर से सरकारी मुलाजिमों का निकम्मापन, भ्रष्टाचार व ट्रेनिंग की कमी रास्ते के पत्थर हैं. लिहाजा खेती का कचरा फुजूल में बरबाद हो जाता है. इस से किसानों को माली नुकसान होता है, गंदगी बढ़ती है व आबोहवा खराब होती है.

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकार ने खेती का कचरा बचाने के लिए राष्ट्रीय पुआल नीति बनाई थी. इस के तहत केंद्र के वन एवं पर्यावरण, ग्रामीण विकास व खेती के महकमे राज्यों को माली इमदाद देंगे, ताकि खेती के कचरे का रखरखाव आसान करने की गरज से उसे ठोस पिंडों में बदला जा सके. लेकिन सरकारी स्कीमें कागजों में उलझी रहती हैं. खेती के कचरे से उम्दा, असरदार व किफायती खाद बनाई जा सकती है.

Agricultural Waste

अकसर किसानों को दूसरी फसलें बोने की जल्दी रहती है, लिहाजा वे कचरे को खेतों में सड़ा कर उस की खाद बनाने के मुकाबले उसे जलाने को सस्ता व आसान काम मानते हैं. मेरठ के किसान महेंद्र की दलील है कि फसलों की जड़ें खेत में जलाने से कीड़ेमकोड़े व उन के अंडे भी जल कर खत्म हो जाते हैं, लिहाजा अगली फसल पर हमला नहीं होता.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के वैज्ञानिक खेतों में कचरा जलाना नुकसानदायक मानते हैं. चूंकि इस से मिट्टी को फायदा पहुंचाने वाले जीव खत्म होते हैं, लिहाजा किसान खेती का कचरा खेत में दबा कर सड़ा दें व बाद में जुताई कर दें तो वह जीवांश खाद में बदल जाता है. रोटावेटर मशीन कचरे को काट कर मिट्टी में मिला देती है.

आलू व मूंगफली की जड़ों, मूंग व उड़द की डंठलों और केले के कचरे आदि से बहुत बढि़या कंपोस्ट खाद बनती है. खेती के कचरे को किसी गड्ढे में डाल कर उस में थोड़ा पानी व केंचुए डालने से वर्मी कंपोस्ट बन जाती है, लेकिन ज्यादातर किसान खेती के कचरे से खाद बनाने को झंझट व अंगरेजी खाद डालने को आसान मानते हैं.

ऐसा करें किसान

तकनीक की बदौलत तमाम मुल्कों में अब कचरे का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. इस में अरबों रुपए की सालाना खरीदफरोख्त होती है. लिहाजा बहुत से मुल्कों में कचरा प्रबंधन, उस के दोबारा इस्तेमाल व कचरे से बने उत्पादों पर खास ध्यान दिया जा रहा है. अपने देश में भी नई तकनीकें, सरकारी सहूलियतें व मशीनें मौजूद हैं. लिहाजा किसान गांव में ही कचरे की कीमत बढ़ाने वाली इकाइयां लगा कर खेती से ज्यादा धन कमा सकते हैं.

खेती के कचरे से उत्पाद बनाने के लिए किसान पहले माहिरों व जानकारों से मिलें, कचरा प्रबंधन व उसे रीसाइकिल करने की पूरी जानकारी हासिल करें, पूरी तरह से इस काम को सीखें और तब पहले छोटे पैमाने पर शुरुआत करें. तजरबे के साथसाथ वे इस काम को और भी आगे बढ़ाते जाएं.

कृषि अपशिष्ट प्रबंधन आदि के बारे में खेती के रिसर्च स्टेशनों, कृषि विज्ञान केंद्रों व जिलों की नवीकरणीय उर्जा एजेंसियों से जानकारी मिल सकती है. पंजाब के कपूरथला में सरदार स्वर्ण सिंह के नाम पर चल रहे जैव ऊर्जा के राष्ट्रीय संस्थान में नई तकनीकों के बारे में बढ़ावा व ट्रेनिंग देने आदि का काम होता है.

पूंजी इस तरह जुटाएं

किसान अकेले या आपस में मिल कर पूंजी का इंतजाम कर सकते हैं. सहकारिता की तर्ज पर इफको, कृभको, कैंपको व अमूल आदि की तरह से ऐसे कारखाने लगा सकते हैं, जिन में खेती के कचरे का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके. खाने लायक व चारा उपज के अलावा होने वाली पैदावार व खरपतवारों से जैव ऊर्जा व ईंधन बनाने वाली बायोमास यूनिटों को सरकार बढ़ावा दे रही है. लिहाजा सरकारी स्कीमों का फायदा उठाया जा सकता है.

केंद्र सरकार का नवीकरण ऊर्जा महकमा भारतीय अक्षय ऊर्जा विकास संस्था, इरेडा, लोधी रोड, नई दिल्ली फोन 911124682214 के जरीए अपनी स्कीमों के तहत पूंजी के लिए माली इमदाद 15 करोड़ रुपए तक कर्ज व करों की छूट जैसी कई भारीभरकम सहूलियतें देता है. जरूरत आगे बढ़ कर पहल करने व फायदा उठाने की है.

मशीनें

खेती के कचरे की प्रोसेसिंग कर के उस की गैस से बिजली व ठोस से ब्रिकेट बनाने में काम आने वाली मशीनों व औजारों आदि के लिए उद्यमी किसान निम्न पतों पर संपर्क कर सकते हैं:

* मैं. एडवांस हाईड्राउ टेक, प्रा. लि. बी 91, मंगोलपुरी, इंडस्ट्रियल एरिया, फेज 2, नई दिल्ली-110034.

फोन 91-11-4757100-99

* मैं. टेक्नोकैम इंजीनियरिंग प्रा. लि. चैतन्यपुरी, हैदराबाद, मो. 08071676221.

* मैं. अली इंजी, वर्क्स, अहमदगढ़, लुधियाना, मो. 08071682911.

* मैं. रौनक इंजी. 275, निकट ग्रेविटी कास्टिंग, राजकोट, गुजरात, मो. : 08048601411.

Brinjal : बैगन की आधुनिक खेती

गरमी के मौसम की खास सब्जियों में बैगन, टमाटर, भिंडी व कद्दू वर्गीय सब्जियां शामिल हैं. बैगन (Brinjal) का आमतौर पर सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. इस के अलावा इस का इस्तेमाल भरता, पकौड़े, अचार कलौंजी बनाने में भी किया जाता है. इस में कुछ औषधीय गुण भी पाए जाते हैं. यह भूख बढ़ाने वाला और कफ के लिए फायदेमंद बताया गया है. सफेद बैगन की सब्जी डाइबिटीज के रोगियों के लिए फायदेमंद पाई गई है.

बैगन (Brinjal) का जन्म मध्य अमेरिका में माना जाता है. यह भारत में 4000 सालों से बोया जा रहा है. बैगन में सब से जयादा नुकसान चोटी व फल छेदक कीट के द्वारा होता है.

इस कीट के कारण करीब 60-70 फीसदी पौधों को नर्सरी से ले कर फलों की तोड़ाई तक नुकसान उठाना पड़ जाता है. यह कीट बढ़ते पौधों की नईनई कलियों को खाता है और फलों में सुराख कर के उन को नुकसान पहुंचाता है. बैगन की अच्छी उपज व ज्यादा आमदनी के लिए उन्नतशील किस्मों की वैज्ञानिक तरीकों से खेती करना आवश्यक है.

भूमि का चुनाव और तैयारी

बैगन की अच्छी उपज के लिए गहरी दोमट भूमि जिस में जल निकास का सही इंतजाम हो, सब से अच्छी समझी जाती है. भूमि की तैयारी के लिए पहली जुताई डिस्क हैरो से और 3 से 4 जुताइयां कल्टीवेटर से कर के पाटा लगा दें. खेत की तैयारी के समय पुरानी फसल के बचे भागों को इकट्ठा कर के जला दें जिस से कीटों व बीमारियों का प्रकोप कम हो.

खाद व उर्वरक

बैगन में खाद व उर्वरक  की मात्रा इस की किस्म, स्थानीय जलवायु व मिट्टी की किस्म पर निर्भर करती है. अच्छी फसल के लिए 8 से 10 टन सड़ी गोबर की खाद खेत को तैयार करते समय प्रति हेक्टेयर की दर से डालें.

80 किलोग्राम नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी तय मात्रा खेत की आखिरी जुताई के समय डालें. बची नाइट्रोजन को 2 भागों में बांट कर 30 व 45 दिनों बाद खरपतवार नियंत्रण के बाद खड़ी फसल में छिड़क दें.

बीज की मात्रा

1 हेक्टेयर में फसल की रोपाई के लिए 250 से 300 ग्राम बीजों की जरूरत होती है. बीजों को  पौधशाला में बो कर पौधे तैयार किए जाते हैं.

बोआई व रोपाई

उत्तर भारत में बैगन लगाने का सही समय जूनजुलाई है. अच्छी तरह से तैयार खेत में सिंचाई के साधन के अनुसार क्यारियां बना लें. क्यारियों में लंबे फल वाली प्रजातियों के लिए 70 से 75 सेंटीमीटर और गोल फल वाली किस्मों के लिए 90 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधों की रोपाई करें. रोपाई के समय यह ध्यान रखें कि पौधे कीट व रोग रहित हों. वर्षा के अनुसार रोपाई मेंड़ों या समतल क्यारियों में करें.

सिंचाई

रोपाई के बाद फुहारे की सहायता से पौधों के थालों में 2 से 3 दिनों तक सुबह और शाम के वक्त हलका पानी दें. इस के बाद हलकी सिंचाई करें ताकि पौधे जमीन में अच्छी तरह जड़ पकड़ लें. बाद में जरूरतानुसार सिंचाई करते रहें. साधारणतया गरमी के मौसम में 10 से 15 दिनों और सर्दी के मौसम में 15 से 20 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करें. यदि पौधे मेड़ों पर लगाए गए हैं, तो सिंचाई आधी मेड़ तक करें और सिंचाई का अंतर कम रखें. बारिश के मौसम में यदि बारिश अधिक हो रही हो, तो खेत से पानी निकालने के लिए निकास नाली की सही व्यवस्था होनी चाहिए.

Mango Orchards : आम के बागों में कीड़ों व रोगों की रोकथाम जरूरी

Mango Orchards : आम की बागबानी में स्वस्थ्य और अच्छी उपज लेने के लिए कीटरोगों की रोकथाम समय रहते कर देनी चाहिए अन्यथा आम की मिठास कड़वाहट में बदलने में समय नहीं लगेगा.

कीड़ों की रोकथाम

भुनगा: इस कीट के बच्चे व वयस्क दोनों ही मुलायम टहनियों, पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. इस की वजह से फूल सूख कर गिर जाते हैं. यह कीट एक प्रकार का मीठा पदार्थ निकालता है, जो पेड़ों की पत्तियों, टहनियों आदि पर लग जाता है. इस मीठे पदार्थ पर काली फफूंदी पनपती है, जो पत्तियों पर काली परत के रूप में फैल कर पेड़ों के प्रकाश संश्लेषण पर खराब असर डालती है.

इलाज : बाग से खरपतवार हटा कर उसे साफसुथरा रखें. घने बाग की कटाईछंटाई दिसंबर में करें. बौर फूटने के बाद बागों की बराबर देखभाल करें. पुष्पगुच्छ की लंबाई 8-10 सेंटीमीटर होने पर भुनगे का प्रकोप होता है. इस की रोकथाम के लिए 0.005 फीसदी इमिडा क्लोप्रिड का पहली बार छिड़काव करें. 0.005 फीसदी थायामेथोक्लाज या 0.05 फीसदी प्रोफेनोफास का दूसरा छिड़ाकाव फल लगने के बाद करें.

गुजिया: इस के बच्चे और वयस्क पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. जब इन की तादाद ज्यादा हो जाती है, तो इन के द्वारा रस चूसे जाने के कारण पेड़ों की पत्तियां व बौर सूख जाते हैं और फल नहीं लगते हैं. इस कीट का हमला दिसंबर से मई महीने तक देखा जाता है.

इलाज : खरपतवारों और अन्य घासों को नवंबर में जुताई द्वारा बाग से निकालने से सुप्तावस्था में रहने वाले अंडे धूप, गरमी व चीटियों द्वारा नष्ट हो जाते हैं. दिसंबर के तीसरे हफ्ते में पेड़ के तने के आसपास 250 ग्राम क्लोरपाइरीफास चूर्ण 1.5 फीसदी प्रति पेड़ की दर से मिट्टी में मिला देने से अंडों से निकलने वाले निम्फ मर जाते हैं. पालीथीन की 30 सेंटीमीटर चौड़ी पट्टी पेड़ के तने के चारों ओर जमीन की सतह से 30 सेंटीमीटर ऊंचाई पर दिसंबर के दूसरेतीसरे हफ्ते में गुजिया के निकलने से पहले लपेटने से निम्फों का पेड़ों पर ऊपर चढ़ना रुक जाता है. पट्टी के दोनों सिरों को सुतली से बांधना चाहिए. इस के बाद थोड़ी ग्रीस पट्टी के निचले घेरे पर लगाने से गुजिया को पट्टी पर चढ़ने से रोका जा सकता है. यह पट्टी बाग में मौजूद सभी आम के पेड़ों व अन्य पेड़ों पर भी बांधनी चाहिए. अगर किसी वजह से यह विधि नहीं अपनाई गई और गुजिया पेड़ पर चढ़ गई, तो ऐसी हालत में 0.05 फीसदी कार्बोसल्फान 0.2 मिलीलीटर प्रति लीटर या 0.06 फीसदी डायमेथोएट 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर का छिड़काव करें.

Mango Orchards

पुष्प गुच्छ मिज : आम के पेड़ों पर मिज के प्रकोप से 3 चरणों में हानि होती है. इस का पहला प्रकोप कली के खिलने की अवस्था में होता है. नए विकसित बौर में अंडे दिए जाने व लार्वा द्वारा बौर के मुलायम डंठल में घुसने से बौर पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं. इस का दूसरा प्रकोप फलों के बनने की अवस्था में होता है. फलों में अंडे देने व लार्वा के घुसने की वजह से फल पीले हो कर गिर जाते हैं. तीसरा प्रकोप बौर को घेरती हुई पत्तियों पर होता है.

इलाज : अक्तूबर व नवंबर में बाग में की गई जुताई से मिज की सूंडि़यों के साथ सोए पड़े प्यूपे भी नष्ट हो जाते हैं. जिन बागों में इस कीट का हमला होता रहा है, वहां बौर फूटने पर 0.06 फीसदी डायमेथोएट का छिड़काव करना चाहिए. अप्रैलमई में 250 ग्राम क्लोरपाइरीफास चूर्ण प्रति पेड़ के हिसाब से छिड़काव करने पर पेड़ के नीचे सूंडि़यां नष्ट हो जाती हैं. फरवरी में भुनगे के लिए किए जाने वाले कीटनाशी के छिड़काव से इस कीट की भी अपनेआम रोकथाम हो जाती है.

डासी मक्खी : वयस्क मक्खियां अप्रैल में जमीन से निकल कर पके फलों पर अंडे देती हैं. 1 मक्खी 150 से 200 तक अंडे देती है. 2-3 दिनों के बाद सूंडि़यां अंडों से निकल कर गूदे को खाना शुरू कर देती हैं.

इलाज : इस कीट के असर को कम करने के लिए सभी गिरे हुए व मक्खी के प्रकोप से ग्रसित फलों को इकट्ठा कर के नष्ट कर देना चाहिए. पेड़ों के आसपास सर्दी के मौसम में जुताई करने से जमीन के अंदर के प्यूपों को नष्ट किया जा सकता है. काठ से बने यौनगंध ट्रैप को पेड़ पर लगाना इस की रोकथाम में बहुत कारगर है. इस ट्रैप के लिए प्लाईवुड के 5×5×1 सेंटीमीटर आकार के गुटके को 48 घंटे तक 6:4:1 के अनुपात में अल्कोहल, मिथाइल यूजिनाल, मैलाथियान के घोल में भिगो कर लगाना चाहिए. यौनगंध ट्रैप को 2 महीने के अंतर पर बदलना चाहिए. 10 ट्रैप प्रति हेक्टेयर लटकाने चाहिए.

रोगों की रोकथाम

पाउडरी मिल्ड्यू (खर्रा, दहिया) : इस रोग के लक्षण बौरों, पत्तियों व नए फलों पर देखे जा सकते हैं. इस रोग का खास लक्षण सफेद कवक या चूर्ण के रूप में जाहिर होता है. नई पत्तियों पर यह रोग आसानी से दिखता है, जब पत्तियों का रंग भूरे से हलके हरे रंग में बदलता है. नई पत्तियों पर ऊपरी और निचली सतह पर छोटे सलेटी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं, जो निचली सतह पर ज्यादा होते हैं. बौरों पर यह रोग सफेद चूर्ण की तरह दिखाई पड़ता है और बौरों में लगे फूलों के झड़ने की वजह बनता है. इस रोग की वजह से फूल नहीं खिलते हैं और समय से पहले ही झड़ जाते हैं. नए फलों पर पूरी तरह सफेद चूर्ण फैल जाता है और मटर के दाने के बराबर हो जाने के बाद फल पेड़ से झड़ जाते हैं.

इलाज : पहला छिड़काव 0.2 फीसदी घुलनशील गंधक का घोल बना कर उस समय करना चाहिए, जब बौर 3-4 इंच का होता है. दूसरा छिड़काव 0.1 फीसदी डिनोकोप का होना चाहिए, जो पहले छिड़काव के 15-20 दिनों के बाद हो. दूसरे छिड़काव के 15-20 दिनों के बाद तीसरा छिड़काव 0.1 फीसदी ट्राईडीमार्फ का होना चाहिए.

एंथ्रेकनोज : यह रोग पत्तियों, टहनियों और फलों पर देखा जा सकता है. पत्तियों की सतह पर पहले गोल या अनियमित भूरे या गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. प्रभावित टहनियों पर पहले काले धब्बे बनते हैं और फिर पूरी टहनी सलेटी रंग की हो जाती है. पत्तियां नीचे की ओर झुक कर सूखने लगती हैं और बाद में गिर जाती हैं. बौर पर सब से पहले पाए जाने वाले लक्षण हैं, गहरे भूरे रंग के धब्बे, जो कि फूलों पर जाहिर होते हैं. बौर व खिले फूलों पर छोटे काले धब्बे उभरते हैं, जो धीरेधीरे फैलते हैं और आपस में जुड़ कर फूलों को सुखा देते हैं. ज्यादा नमी होने पर यह रोग तेजी से फैलता है.

इलाज : सभी रोगग्रसित टहनियों की छंटाई कर देनी चाहिए और बाग में गिरी हुई पत्तियों, टहनियों और फलों को इकट्ठा कर के जला देना चाहिए. मंजरी संक्रमण को रोकने केलिए 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम का 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना चाहिए. संक्रमण को रोकने के लिए 0.3 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव भी लाभकारी है. 0.1 फीसदी थायोफनेट मिथाइल या 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम का बाग में फल तोड़ाई से पहले छिड़काव करने से गुप्त संक्रमण को कम किया जा सकता है.

उल्टा सूखा रोग : टहनियों का ऊपर से नीचे की ओर सूखना इस रोग का मुख्य लक्षण है. विशेष तौर पर पुराने पेड़ों में बाद के पत्ते सूख जाते हैं, जो आग से झुलसे हुए से मालूम पड़ते हैं. शुरू में नई हरी टहनियों पर गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. जब ये धब्बे बढ़ते हैं, तब नई टहनियां सूख जाती हैं. ऊपर की पत्तियां अपना हरा रंग खो देती हैं और धीरेधीरे सूख जाती हैं. इस रोग का ज्यादा असर अक्तूबरनवंबर में दिखाई पड़ता है.

इलाज : छंटाई के बाद गाय का गोबर व चिकनी मिट्टी मिला कर कटे भाग पर लगाना फायदेमंद होता है. संक्रमित भाग में 3 इंच नीचे से छंटाई के बाद बोर्डो मिक्चर 5:5:50 या 0.2 फीसदी कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव रोग की रोकथाम में बेहद कारगर होता है.

Artificial Insemination : कृत्रिम गर्भाधान से मवेशियों की नस्लें सुधारें

Artificial Insemination : भारत में मुख्य रूप से गायों और भैंसों से ही दूध का उत्पादन होता है. यहां साहिवाल, हरियाणा, गिर, रेड सिंधी जैसी देशी नस्लों की गायें और जाफरावादी, मुर्रा और मेहसाना नस्ल की भैंसें पाई जाती हैं. सभी देशी नस्लों के दुधारू पशुओं की दूध उत्पादन कूवत विदेशी नस्ल के पशुओं की तुलना में काफी कम है. इस से पशुपालकों को उन की मेहनत और लागत के हिसाब से मुनाफा नहीं हो पाता है. पशुपालकों की माली हालत में सुधार तभी मुमकिन है, जब वे उम्दा नस्ल के शुक्राणुओं से कृत्रिम गर्भाधान द्वारा अपनी गायभैंसों को गाभिन कराएं.

कृत्रिम गर्भाधान (Artificial Insemination) के बारे में ज्यादातर किसानों और पशुपालकों के मन में यह शंका होती है कि इस से मवेशी को गर्भ नहीं ठहरता है और पैसे व समय की बरबादी होती है. वेटनरी डाक्टर सुरेंद्र नाथ कहते हैं कि अगर मवेशी को सही समय पर ट्रेंड मुलाजिम के द्वारा कृत्रिम गर्भाधान कराया जाए तो गर्भ ठहरने की गारंटी 100 फीसदी होती है. मवेशी अगर सुबह गरम हुआ हो तो शाम को और शाम को गरम हुआ हो तो सुबह के वक्त कृत्रिम गर्भाधान कराना चाहिए. मादा मवेशी का जोरजोर से रंभाना, पेशाब के रास्ते से चिपचिपा स्राव आना, बारबार पेशाब करना, दूसरे पशुओं पर चढ़ने की कोशिश करना, बेचैनी बढ़ना आदि उस के गरम होने के लक्षण हैं.

कृत्रिम गर्भाधान से गायभैंसों के गर्भधारण की उम्मीद काफी बढ़ जाती है. पशुओं के डाक्टर की मदद और देखरेख में शुक्राणुओं को गर्भाशय में डालना चाहिए. पाल खिलाने यानी शुक्राणु डालने के 60 दिनों बाद गर्भधारण हुआ या नहीं इस की जांच हाथ से की जा सकती है. 4 से 8 साल तक के भैंसे के शुक्राण सब से अच्छा नतीजा देते हैं. इस आयु में कम समय में अच्छे किस्म के शुक्राणु मिल जाते हैं. ध्यान रखें कि गरमी के दिनों में प्राप्त शुक्राणु अच्छे नतीजे नहीं देते हैं. भैंस को पहला पाल खिलाने के समय उस का वजन 321 से 360 किलोग्राम के बीच होना चाहिए. इस से कम या ज्यादा वजन होने से गर्भधारण में दिक्कतें आती हैं.

कृत्रिम गर्भाधान एक ऐसी विधि है, जिस में उन्नत नस्ल के सांड़ के वीर्य को कृत्रिम उपकरणों की मदद से मादा पशुओं के जनन अंगों में सही समय पर सही जगह डाला जाता है.

Artificial Insemination

कुदरती गर्भाधान में सांड़ अपने वीर्य को मादा पशु की योनि में सीधे छोड़ता है, जबकि कृत्रिम गर्भाधान में पहले सांड़ के वीर्य को कृत्रिम योनि में डाल कर जमा किया जाता है, उस के बाद उस वीर्य की जांच कर के उसे संरक्षित कर लिया जाता है. मादा पशु की योनि में कृत्रिम तरीके से यानी उपकरण की मदद से जमा किए गए वीर्य को डाल दिया जाता है.

कृत्रिम गर्भाधान का चलन शुरू हुए काफी समय हो चुका है, इस के बाद भी लोगों के मन में इसे ले कर कई तरह की शंकाएं बैठी हुई हैं. पशुपालकों का पढ़ालिखा नहीं होना और पोंगापंथी होना कृत्रिम गर्भाधान के रास्ते की सब से बड़ी रुकावट है.

कृत्रिम गर्भाधान के जरीए अपने मवेशियों की नस्लें सुधारने में कामयाबी हासिल करने वाले बिहार के नालंदा जिले के नूरसराय गांव के रहने वाले पशुपालक रामखेलावन कहते हैं कि अब पशुपालकों को यह जानना और समझना जरूरी है कि कृत्रिम गर्भाधान के कई फायदे हैं. इस के जरीए कम दूध देने वाली देशी नस्ल की गायों और भैंसों की नस्लों में सुधार किया जा सकता है. इस से गायभैंसों की दूध देने की कूवत पहले के मुकाबले 2-3 गुना ज्यादा हो जाती है.

कृत्रिम गर्भाधान का एक फायदा यह भी है कि उन्नत नस्ल के सांड़ से 1 बार इकट्ठा किए गए वीर्य को संरक्षित कर के कई सालों तक रखा जा सकता है. इसे कहीं भी आसानी से ले जाया जा सकता है. विदेशों से भी उम्दा नस्ल के सांड़ों के वीर्य को आयात किया जा सकता है.

कृत्रिम गर्भाधान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले वीर्य में एंटीबायोटिक दवा मिली होती है, जिस से मादा पशुओं के जननांगों में बीमारी फैलने का खतरा भी नहीं होता है. कृत्रिम गर्भाधान केंद्र पर कृत्रिम  गर्भाधान की सुविधा होने की वजह से पशुपालकों को अपने पशुओं को गाभित करने के लिए इधरउधर भटक कर समय बरबाद नहीं करना पड़ता है.

देश भर में दुधारू मवेशियों की नस्लों को सुधारने की मुहिम शुरू की गई है. इस के लिए कृत्रिम गर्भाधान केंद्र की संख्या बढ़ाने की कवायद चल रही है. बिहार जैसे पिछड़े राज्य में फिलहाल 800 कृत्रिम गर्भाधान केंद्र चल रहे हैं. इन्हें बढ़ा कर 1400 करने की योजना है.

बिहार सरकार के कृषि रोड मैप के मुताबिक हर साल 50 लाख पशुओं का कृत्रिम गर्भाधान किया जाना है और बचौर, गिर, साहीवाल, रेड सिंघी, देवौनी आदि नस्लों की गायभैंसों की नस्लों को बेहतर बनाया जाना है.