स्टीविया की वैज्ञानिक खेती

स्टीविया को मीठी तुलसी, चीनी व मधुपत्र आदि नामों से भी जाना जाता है. स्टीविया लेमिएसी कुल का बहुवर्षीय, झाड़ीनुमा, शाकीय पौधा है.

भारत में अभी यह नया पौधा है. मौजूदा समय में इस की खेती खासकर कर्नाटक और महाराष्ट्र में ही होती है. औषधीय गुणों की वजह से इस के क्षेत्रफल और पैदावार में बढ़ोतरी की जरूरत है. स्टीविया एक छोटा पौधा है, जिस की लंबाई 60-70 सेंटीमीटर तक होती है. इस के फल छोटे, सफेद और कई आकार में लगते हैं.

स्टीविया का पौधा चीनी से तकरीबन 25-30 गुना ज्यादा मीठा होता है. इस की पत्तियों में मिठास के कई तत्त्व पाए जाते हैं, जिन में स्टीवियोसाइड, रीबाऊदिस, रीबाऊदिस साइड सी और डाल्कोसाइड खास हैं. इन के अलावा इस की पत्तियों में 6 अन्य तत्त्व भी पाए जाते हैं, जिन में इंसुलिन को संतुलित करने के खास गुण मौजूद होते हैं. स्टीविया की पत्तियों से निकाले जाने वाले स्टीवियोसाइड में चीनी से 250 गुना ज्यादा और सुक्रोज से 300 गुना ज्यादा मिठास पाई जाती है.

स्टीविया कैलोरी रहित होने के कारण मधुमेह रोगियों के लिए एक महत्त्वपूर्ण मीठा पदार्थ है. स्टीविया का सब से ज्यादा उपयोगी घटक स्टीवियोसाइड है.

स्टीविया की पत्तियों में स्टीवियोसाइड की मात्रा 3 से 20 फीसदी तक हो सकती है. स्टीविया की 9 फीसदी या इस से ज्यादा मात्रा वाली स्टीवियोसाइड प्रजातियों को अच्छा माना जाता है.

भारत में ज्यादातर लोग बिना मीठे के भोजन नहीं करते, इसलिए यहां स्टीविया के लिए बड़ा बाजार बन सकता है. चायकौफी में इस्तेमाल करने के साथसाथ इसे कई तरह की मिठाइयों और चाकलेट्स में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. स्टीविया मधुमेह के रोगियों के लिए काफी लाभदायक है.

खेती की तकनीक

जलवायु : स्टीविया का पौधा 11 से 41 डिगरी सेल्सियस तापमान पर ज्यादा बढ़ता है. 131-140 सेंटीमीटर सालाना बारिश वाले इलाकों में यह आसानी से उगाया जा सकता है.

जमीन : स्टीविया का पौधा ज्यादा पानी वाली मिट्टी में नहीं उगता है. इस के लिए सही जल निकास वाली रेतीली जमीन जिस का पीएच मान 6.5-7.5 हो, काफी अच्छी रहती है.

जमीन की तैयारी : स्टीविया बहुवर्षीय पौधा होने से 1 बार लगाने के बाद 4-5 सालों तक खेत में रहता है, इसलिए मिट्टी को अच्छी तरह तैयार करना चाहिए. खेत को 1 बार मिट्टी पलट हल से गहरा जोतने के बाद 4-6 जुताई हैरो और कल्टीवेटर या देशी हल से करनी चाहिए. आखिरी जुताई से पहले 20 टन गोबर की खाद, 6 से 8 टन कंपोस्ट खाद या 2-2.5 टन वर्मी कंपोस्ट डाल कर जुताई करनी चाहिए और हर जुताई के बाद पाटा लगा देना चाहिए ताकि खेत में ढेले न बनें और मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी हो जाए.

बोआई का तरीका और समय : इस की पौध बीज और कलम दोनों तरह से तैयार की जाती है. बीजों का अंकुरण कम होने से इसे ज्यादातर कलम से ही लगाया जाता है. इस की रोपाई मेंड़ों पर की जाती है. रोपाई के लिए तकरीबन 6 से 8 इंच ऊंची मेंडें़ बनाई जाती हैं. इन मेंड़ों पर पौधे से पौधे के बीच की दूरी 20 सेंटीमीटर रख कर कलमों की रोपाई की जाती है. रोपाई के तुरंत बाद हलकी सिंचाई करनी चाहिए.

इस की रोपाई का सब से अच्छा समय सितंबरनवंबर और फरवरीअप्रैल है. 15 सेंटीमीटर लंबी तने की कटिंग्स को 100 पीपीएम पैक्लान बूटेजाल से उपचारित कर के फरवरी में रोपाई करने से जड़ें ज्यादा और जल्दी निकलती हैं.

खाद और उर्वरक : स्टीविया की फसल को 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम पोटाश की प्रति हेक्टेयर जरूरत पड़ती है. फसल के इन जरूरी तत्त्वों की पूर्ति केवल कार्बनिक खादों से ही करनी चाहिए. स्टीविया में किसी भी तरह के रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. बोरोन और मोलिब्डेनम का खड़ी फसल पर छिड़काव करने से पत्तियों में स्टीवियोसाइड की संख्या में बढ़ोतरी होती है.

सिंचाई : स्टीविया को सालभर पानी की जरूरत होती है. गरमी में 6 से 8 दिनों और सर्दियों में 12 से 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए. यदि मुमकिन हो तो स्टीविया की सिंचाई के लिए टपक सिंचाई विधि का ही इस्तेमाल करना चाहिए.

stevia

प्रजातियां : स्टीविया का मूल्य उस में पाए जाने वाले स्टीवियोसाइड की मात्रा पर निर्भर करता है. इसलिए स्टीविया की खेती के लिए ऐसी किस्में जिन में स्टीवियोसाइड की ज्यादा मात्रा पाई जाती है, को ही चुना जाना चाहिए. मौजूदा समय में स्टीविया की 3 किस्में ज्यादा प्रचलित हैं.

बीआरआई 28 : स्टीविया की यह किस्म खेती के लिए काफी सही मानी जाती है, क्योंकि इस में 21 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं. यह प्रजाति जितनी अच्छी भारत के दक्षिणी इलाकों के लिए है, उतनी ही उत्तरी इलाकों के लिए भी है. यह किस्म बायोवेद संस्थान, इलाहाबाद ने विकसित की है.

बीआरआई 123 : स्टीविया की यह किस्म भारत के दक्षिणी पठारी इलाकों के लिए अच्छी है. इस में 9.12 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं. यह किस्म साल में 5 कटाई देती है.

बीआरआई 512 : इस प्रजाति की साल में 4 बार कटाई होती है. यह किस्म उत्तर भारत के लिए ज्यादा सही है. इस में 9 से 12 फीसदी तक ग्लूकोसाइड्स पाए जाते हैं.

खरपतवारों की रोकथाम : स्टीविया की फसल से हमेशा खरपतवारों को दूर रखना चाहिए. इस के लिए फसल की खुरपी आदि से निराईगुड़ाई करते रहना चाहिए. स्टीविया के पौधों के बीच से खरपतवार हाथ से ही हटा देना चाहिए.

स्टीविया की फसल में किसी भी तरह के रासायनिक खरपतवारनाशी का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

फसल सुरक्षा : ज्यादातर स्टीविया की फसल पर किसी तरह के रोग और कीट नहीं लगते, लेकिन कभीकभी जमीन में बोरोन की कमी की वजह से पत्ती धब्बा जैसी बीमारी हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए 6 फीसदी बोरेक्स का छिड़काव करना चाहिए.

स्टीविया को जमीन में पाए जाने वाले कीड़ों व दीमक वगैरह से बचाने के लिए 15-20 किलोग्राम बायोनीमा जैविक खाद का इस्तेमाल मिट्टी में करना चाहिए और गौमूत्र का भी समयसमय पर छिड़काव कर सकते हैं.

फूल तोड़ना : स्टीविया की पत्तियों में सब से ज्यादा स्टीवियोसाइड्स मौजूद होते हैं. इसलिए पत्तियों की ज्यादा बढ़त के लिए पौधों से फूलों को हटा देना चाहिए, क्योंकि फूल आने के बाद पौधे की वानस्पतिक बढ़त रुक जाती है. पौध रोपने के 30, 45, 60, 75 व 85 दिनों बाद और कटाई के समय फूल तोड़ देने चाहिए. पेड़ी फसल में पहली कटाई के 40 दिनों बाद फूल आने लगते हैं, लिहाजा 40 दिनों बाद कटाई के समय फूलों को तोड़ देना चाहिए.

कटाई : रोपाई के तकरीबन 110-120 दिनों बाद फसल कटाई लायक हो जाती है. फसल की कटाई फूल तोड़ने के बाद और दोबारा फूल आने से पहले कर लेनी चाहिए. फिर 3 से 4 कटाई 90-90 दिनों के बीच कर लेनी चाहिए.

उपज : बहुवर्षीय फसल होने से स्टीविया की उपज में हर कटाई के बाद लगातार बढ़त होती है. स्टीविया की सालभर में 4 कटाई में 10-12 टन प्रति हेक्टेयर सूखी पत्तियां हासिल हो जाती हैं.

बागबानी महोत्सव के जरीए बिहार ने उन्नत बागबानी से कराया रूबरू

बिहार सरकार द्वारा राज्य के किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए हर एक दिन  नए प्रयोग और योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है. इस के लिए पिछले दिनों राज्य लैवल से ले कर जिला और ब्लौक लैवल पर गोष्ठियां, प्रदर्शनियां और ट्रेनिंग कार्यक्रमों का बेहद सफल आयोजन किया गया.

इसी को ध्यान में रखते हुए बिहार के कृषि महकमे के उद्यान निदेशालय द्वारा पटना के गांधी मैदान में बीते 3 जनवरी से 5 जनवरी, 2025 तक तीनदिवसीय बागबानी महोत्सव का आयोजन किया गया. इस बागबानी महोत्सव में बिहार के सभी जिलों से तकरीबन 1500 किसान 14 हजार से ज्यादा प्रविष्टियों के साथ शामिल हुए.

बागबानी महोत्सव में प्रदर्शनी में तकरीबन 60 स्टाल लगाए गए, जहां से खेतीबागबानी में रुचि रखने वाले लोगों ने अपने पसंद के फल, फूल, सब्जी के बीज/बिचड़ा, पौधा, गमला, मधु, मखाना, मशरूम आदि की खरीदारी भी की.

बागबानी महोत्सव का उद्घाटन राज्य के कृषि और स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने किया. इस मौके पर पटना के गांधी मैदान में आयोजित इस प्रदर्शनी में उन्होंने राज्‍य के भूमिहीन किसानों को ले कर बड़ी घोषणा की.

बिहार के कृषि मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि कृषि विभाग बिहार में जल्दी ही शहद के उत्पादन और प्रोत्साहन के लिए नीति बनाएगा, जिसे सरकार राज्यभर में बढ़ावा देगी खासकर भूमिहीन किसानों को शहद उत्पादन से जोड़ने की पहल को ले कर नीति बनाई जाएगी.

भूमिहीन किसान मधुमक्खीपालन कर खुद को सशक्त बनाएंगे. सूरजमुखी, सहजन, सरसों, लीची जैसे फल, फूलों के शहद का उत्पादन करने की नीति बनेगी.

कृषि मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि कृषि बिहार की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, जो राज्य के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों का आधार है. रंगबिरंगे फल, फूल, सब्जी और अन्य बागबानी उत्पादों से सुसज्जित बागबानी महोत्सव, 2025 किसानों के उत्साह का गवाह है.

प्रति व्‍यक्ति आय बढ़ाने में किसानों की भूमिका

कृषि मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि बिहार की अर्थव्यवस्था में बागबानी खासकर फल, फूल, सब्जी, मसाला आदि की भूमिका अहम साबित हो रही है. साल 2005 के समय राज्य में प्रति व्यक्ति आय 7,500 रुपए के करीब थी, वहीं आज इस राज्य की प्रति व्यक्ति आय 66,000 रुपए हो गई है.

उन्होंने आगे कहा कि बीते 20 वर्षों में मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य में लगभग 8 गुना से अधिक प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है, जिस में किसानों की बढ़ी आय का बड़ा योगदान रहा है. अगर हम सभी राज्य को सुखी और समृद्ध बनाना चाहते हैं, तो बागबानी के माध्यम से किसानों को समृद्ध कर उस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं.

कृषि मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि महोत्सव में सिर्फ बागबानी उत्पादों का प्रदर्शन ही नहीं, बल्कि फल, फूल, सब्जी के बीज, बिचड़ा, पौधा, बागबानी उपकरण, मधु, मखाना, मशरूम, चाय आदि की बिक्री की भी व्यवस्था की गई है. बिहार में कुल 13.50 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बागबानी फसलों की खेती की जाती है, जिस से तकरीबन 286.45 लाख मीट्रिक टन फल, फूल, सब्जी आदि का उत्पादन होता है, जिसे आने वाले समय में और बढ़ाने का लक्ष्य है.

बागबानी क्षेत्र को बढ़ाने पर दिया जोर

कृषि मंत्री मंगल पांडेय ने कहा कि कृषि रोडमैप के लक्ष्य से आगे बढ़ कर भी सोचने की जरूरत है. सालाना लक्ष्य निर्धारित करने की दिशा में भी हम सोच सकते हैं. हमें साल 2025 में बागबानी का लक्ष्य बढ़ा कर 18 लाख हेक्टेयर एवं 2026 में इसे बढ़ा कर 20 लाख हेक्टेयर पर ले जाने का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए.

बागबानी के क्षेत्र में बिहार लगातार आगे बढ़ रहा है. आज हमारे किसान पारंपरिक बागबानी फसलों के साथसाथ उच्च बाजार मूल्य वाले एक्जोटिक फल, ड्रैगन फ्रूट्स, स्ट्राबेरी आदि की खेती कर रहे हैं.

उन्होंने आगे कहा कि इन उत्पादों का उचित भंडारण हो, प्रसंस्करण यानी प्रोसैसिंग एवं मूल्य संवर्द्धन हो, बाजार की सुलभ उपलब्धता हो, इस दिशा में तीव्र गति से काम किया जा रहा है. इस कड़ी में राज्य सरकार के द्वारा कृषि विभाग के अंतर्गत कृषि मार्केटिंग निदेशालय का गठन किया गया है, जिस का उद्देश्य किसानों को उन की उपज का उचित मूल्य उपलब्ध कराना, किसानों को बाजार की व्यवस्था उपलब्ध कराना, किसानों के उत्पादों में मूल्य संवर्द्धन कराना, भंडारण की सुविधा, बेहतर पैकेजिंग आदि की व्यवस्था सुनिश्चित किया जाना है.

विभाग के सचिव संजय अग्रवाल ने बताया कि महोत्सव के आयोजन का उद्देश्य बाजारोन्मुख बागबानी उत्पादों के गुणवत्तायुक्त उत्पादन के लिए किसानों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाना है, वहीं बागबानी के क्षेत्र में नवीनतम तकनीकी उपकरण से रूबरू कराना और किसानों को उन के उत्पादों का सही मूल्य प्राप्त हो, इस के लिए निर्यात प्रोत्साहन के लिए किसानों और व्यापारियों को एक प्लेटफार्म उपलब्ध कराना है.

इस अवसर पर अभिषेक कुमार, निदेशक उद्यान, आलोक रंजन घोष, एमडी, बिहार राज्य बीज निगम, अमिताभ सिंह, आप्त सचिव, स्वास्थ्य मंत्री, संतोष कुमार उत्तम, निदेशक पीपीएम, वीरेंद्र प्रसाद यादव, विशेष सचिव, कृषि विभाग, पद्मश्री से सम्मानित किसान चाची राजकुमारी देवी, मनोज कुमार, संयुक्त सचिव समेत कई अधिकारी कार्यक्रम में मौजूद रहे.

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मन मोह लेने वाला रहा बागबानी महोत्सव, भाग लेने वाले प्रतिभागियों की प्रविष्टियां

पटना के गांधी मैदान में लगाए गए बागबानी महोत्सव में सब्जी, फल, फूल और सजावटी पौधों को ले कर किसानों और शहरी क्षेत्र के लोगों से प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए आवेदन मांगे गए थे, जिस में उन के प्रविष्टियों की कोडिंग की गई थी. निर्णायक मंडल द्वारा निष्पक्ष रूप से प्रतियोगिता में भाग लेने वाले लोगों के साथ इंसाफ किया जा सके.

16 वर्गों में आयोजित की गई प्रतियोगिताएं

बागबानी महोत्सव में भाग लेने लिए किसानों और बागबानी प्रेमियों के लिए 16 वर्गों में प्रविष्टियां आमंत्रित की गई थीं, जिस में सब्जी, मशरूम, फल, शहद, पान, कटे फूल डंठल सहित, औषधीय एवं सुगंधित पौधा, चित्रकला प्रतियोगिता, क्विज प्रतियोगिता, फल संरक्षण (घर की बनी), शोभाकार पत्तीदार पौधा, बोनसाई, जाड़े के मौसमी फूलों के पौधे, कैक्टस एवं सकुलेंट पौधा, विभिन्न तरह के पाम, कलात्मक पुष्प सज्जा एवं नक्काशी शामिल रहा. इन वर्गों को विभिन्न शाखाओं में बांटा गया था.

इस प्रतियोगिता में भाग लेने वाले प्रत्येक वर्ग से प्रथम, द्वितीय और तृतीय पुरस्कार के रूप में नकद इनाम भी दिया गया. इस के अंतर्गत महोत्सव में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले प्रतिभागियों को प्रथम पुरस्कार के रूप में 5,000 रुपए, द्वितीय पुरस्कार के रूप में 4,000 रुपए व तृतीय पुरस्कार के रूप में 3,000 रुपए  प्रदान किए गए.

रंगबिरंगे फूलों और सजावटी पौधों ने मोहा मन, ली जम कर सैल्फी

बिहार सरकार द्वारा पटना के गांधी मैदान में लगाए गए बागबानी महोत्सव में चारों तरफ रंगबिरंगे फूलों की खुशबू बिखरी रही और इन पौधों ने लोगों को सैल्फी लेने को मजबूर कर दिया.

प्रदर्शनी में ये पौधे विभिन्न प्रतियोगियों द्वारा प्रतियोगिता में इनाम पाने के लिए प्रदर्शित किए गए थे. इस के तहत कैक्टस, पाम, गुलाब, गेंदा, सकुलेंट, पान, क्रोटन, गुलदाउदी, जरबेरा, एलोवेरा, विभिन्न पेड़ों के बोनसाई के हजारों की संख्या में पौधे शामिल रहे, जबकि एक विशिष्ट पुरस्कार के लिए 10,000 रुपए का नकद इनाम दिया गया.

रंगीन और विदेशी सब्जियों को देख हैरान हुए लोग

गांधी मैदान में लगाए तीनदिवसीय बागबानी महोत्सव में प्रदेश के विभिन्न जिलों के किसान फल, फूल और सब्जियों के पौधे ले कर प्रतियोगिता में शामिल होने आए थे, जिन्हें प्रदर्शन के लिए आम दर्शकों के लिए रखा गया था. इन प्रतियोगिताओं में आदमकद और जंबो साइज की सब्जियां और फलफूल देखने को मिले.

इस में 20 से 40 किलोग्राम का कद्दू, 5 से 10 किलोग्राम की फूलगोभी, डेढ़ किलोग्राम तक की गांठगोभी, जंबो साइज के सूरन, लौकी, बैगन, टमाटर, बंदगोभी, सेम, गाजर, आलू, मटर, अदरक, हलदी, ड्रैगन फ्रूट के अलावा जैविक तरीके से उगाए गए फलफूल और सब्जी को देख कर लोग हैरान हो कर फोटो और वीडियो बनाने से खुद को रोक नहीं पाए.

प्रदर्शनी में विदेशी सब्जियों में पाकचोई, जुकुनी सहित कई सब्जियां भी प्रतियोगिता के लिए रखी गई थीं, जिस का परिचय जानने के लिए लोग उत्सुक रहे.

चोरमा गांव के बाशिंदे सुरेश गिरी इस महोत्व में हरी मिर्च के पौधे ले कर आए थे. उन के एक पौधे में 60 मिर्चें लगी हुई थीं. वे बताते हैं कि उन्होंने जैविक तरीके से 2 कट्ठे में मिर्च की खेती की. एक कट्ठा में मिर्च गाने में 10,000 रुपए खर्च होते हैं और कमाई तकरीबन 60,000 रुपए होती है.

gardening festivalप्रदर्शनी के स्टालों पर खूब बिकी बागबानी से जुड़ी चीजें

बागबानी महोत्सव में बागबानी से जुड़े उपकरणों, खाद, उर्वरक, बीज, पौधे, गमले इत्यादि से जुड़े लगभग 60 स्टाल लगाए गए थे. जिस में निजी कंपनियों से ले कर सरकारी संस्थान, विश्वविद्यालय, आईसीएआर से जुड़े संस्थान और महिला स्वयं सहायता समूह से जुड़े लोग शामिल रहे.

इन स्टालों पर लोगों ने बागबानी से जुड़े ब्रांडेड कंपनियों के छोटेछोटे मैनुअल उत्पाद और उपकरण तो खरीदे ही, साथ में उन्नत किस्मों के बीज और पौधों की भी जम कर खरीदारी की.

इस महोत्सव में राष्ट्रीय बीज निगम के स्टाल पर मोटे अनाज, फल, फूल और सब्जियों के प्रमाणित बीजों की खूब बिक्री हुई, जिस में मंडुआ, सांवा, मटर, धनिया, कैलेंडुला, बैगन, मूली, लाल साग और  प्याज के बीज आदि शामिल रहे.

इसी तरह 3 रुपए प्रति पौध की दर से टमाटर, बैगन, पत्तागोभी, लाल फूलगोभी का पौधा भी खूब बिका. एक स्टाल पर बिना बीज वाला खीरा 40 रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिका, जो खाने में बिलकुल भी तीखा नहीं होता. इसी तरह आम, अमरूद, चीकू और आंवला के पौधों की बिक्री भी जम कर हुई.

gardening festivalबिहारी व्यंजनों का स्वाद

बागबानी महोत्सव न केवल किसानों और बागबानी में रुचि रखने वाले लोगों के लिए खास रहा, बल्कि यह महोत्सव खानेपीने वाले लोगों को भी अपनी तरफ खींचने में कामयाब रहा.

महोत्सव में बिहार के स्थानीय पारंपरिक व्यंजनों का भी स्टाल लगाया गया था, जहां लिट्टीचोखा, मशरूम के व्यंजन, मंगोड़े इत्यादि का भी लोगों ने जम कर स्वाद लिया.

छत पर फार्मिंग बैड योजना एवं गमले पर मिल रहा अनुदान

बिहार सरकार द्वारा चुनिंदा जनपदों में छत पर खेती किए जाने को प्रोत्साहित करने के लिए छत पर बागबानी योजना के तहत सहायता अनुदान मुहैया कराया जा रहा है, जिस का उद्देश्य शहरों में रहने वाले लोगों में जैविक उत्पादों के प्रयोग को बढ़ावा देने सहित छत पर खेती के जरीए शहरी प्रदूषण में कमी लाना और सब्जियों, फलों के ऊपर लोगों की बाजार पर निर्भरता को कम करना भी है.

यह योजना उन के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रही है, जिन के पास अपनी खुद की खेती के लिए जमीन नहीं है. वे लोग अगर खेती और बागबानी में रुचि रखते हैं, तो अपने घर की छत पर शौक को अमलीजामा पहना कर अपने इस शौक को पूरा कर सकते हैं.

बागबानी महोत्सव में इस योजना के प्रचारप्रसार के लिए लाइव डैमो प्रदर्शन किया गया था, जहां इस योजना से जुड़ी सभी जानकारियों सहित योजना का लाभ लेने के इच्छुक लोगों का मौके पर ही पंजीकरण किया गया.

योजना से जुड़ी खास बातें

योजना से जुड़े उपकरण, बीज पौधे व अन्य जरूरी संसाधन मुहैया कराने वाली एक कंपनी से जुड़े विकास कुमार ने महोत्सव में उक्त योजना का डैमो प्रदर्शन लगा रखा था. इस दौरान उन्होंने बातचीत में बताया कि अभी केवल बिहार के पटना सदर, दानापुर, फुलवारी एवं खगौल और भागलपुर, गया एवं मुजफ्फरपुर जिले के शहरी क्षेत्र में इस योजना का लाभ लिया जा सकता है. जिस के पास अपना घर हो अथवा अपार्टमेंट में फ्लैट हो, जिस की छत पर 300 वर्ग फुट की जगह हो, वे फार्मिंग बैड योजना का लाभ ले सकते हैं.

उन्होंने आगे बताया कि स्वयं के मकान की स्थिति में छत पर 300 वर्ग फुट खाली स्थल, जो किसी भी हस्तक्षेप से स्वतंत्र हो और अपार्टमेंट की स्थिति में अपार्टमेंट की पंजीकृत सोसाइटी से अनापत्ति प्रमाणपत्र प्राप्त होना जरूरी है.

विकास कुमार ने बताया कि फार्मिंग बैड योजना के अंतर्गत प्रति इकाई (300 वर्ग फुट) का इकाई लागत 48574 रुपए एवं अनुदान 75 फीसदी  और शेष 12143.50 रुपए लाभार्थी द्वारा दिया जाना है. इसी तरह गमले की योजना के अंतर्गत प्रति इकाई लागत 8975 रुपए एवं अनुदान 75 फीसदी और शेष 2243.75 रुपए लाभार्थी द्वारा देय होगा.

उन्होंने यह भी बताया कि आवेदन करने के बाद फार्मिंग बैड योजना के अंतर्गत प्राप्त रसीद पर लाभार्थी को अपने अंश की राशि 12143.50 रुपए प्रति इकाई (300 वर्ग फीट) और गमले की योजना के अंतर्गत प्राप्त रसीद पर लाभुक को अपने अंश की राशि 2243.75 रुपए प्रति इकाई जमा करने के लिए बैंक खाता संख्या एवं विस्तृत विवरणी प्राप्त होगी.

संबंधित जिले के संबंधित खाता संख्या में लाभुक अंश की राशि जमा होने के बाद  ही आगे की कार्रवाई की जाएगी. इस योजना का लाभ प्राप्त करने वाले लाभार्थी द्वारा छत पर लगे बागबानी इकाई का रखरखाव स्वयं के स्तर से करना अनिवार्य होगा.

उन्होंने बताया कि फार्मिंग बैड योजना के अंतर्गत स्वयं के मकान की स्थिति में 2 इकाई और अपार्टमेंट एवं शैक्षणिक/अन्य संस्थान के लिए अधिकतम 5 इकाई का लाभ दिया जाएगा. गमले की योजना का लाभ संस्थाओं को नहीं दिया जाएगा और  गमले की योजना का लाभ किसी आवेदक द्वारा अधिकतम 5 यूनिट तक लिया जा सकेगा.

विकास कुमार ने बताया कि इस योजना की गाइडलाइन के अनुसार चयन के लिए  जिले के लक्ष्य के अंतर्गत 78.60 फीसदी सामान्य जाति, 20 फीसदी अनुसूचित जाति और 1.40 फीसदी  अनुसूचित जनजाति की भागीदारी सुनिश्चित की गई है, जिस में कुल भागीदारी में 30 फीसदी  महिलाओं को प्राथमिकता दिए जाने का प्रावधान है.

गमला योजना में शामिल हैं ये चीजें

गमला योजना के तहत 30 गमले में अलगअलग तरह के पौधे लगा कर दिए जाएंगे. इस में तुलसी, अश्वगंधा, एलोवेरा, स्टीविया, पुदीना, स्नेक प्लांट, मनी प्लांट, गुलाब, चांदनी, एरिका पाम, अपराजिता, करीपत्ता, बोगनविलिया, अमरूद, आम, नीबू, चीकू, केला, रबर आदि के पौधे रहेंगे. इन में 10 इंच के 5, 12 इंच के 5, 14 इंच के 10 और 16 इंच के 10 गमले दिए जाएंगे. इस योजना की लागत 8,974 रुपए की है, लेकिन 75 फीसदी अनुदान के बाद आवेदक को केवल 2,244 रुपए ही देने होंगे.

 12,000 रुपए में छत पर बागबानी का सपना होगा सच

फार्मिंग बैड योजना के तहत लाभार्थी के घर की छत पर कई तरह के फार्मिंग बैड और बैग लगाए जाएंगे. इन में 10 फुट लंबा और 4 फुट चौड़ा 3 फार्मिंग बैड, 2 फुट लंबा और एक फुट चौड़ा एक फार्मिंग बैग, 2 फीट लंबा और 2 फीट चौड़ा 6 बैग लगाए जाएंगे. इस में ड्रिप सिस्टम और मोटर लगा कर दिया जाएगा. ड्रिप सिस्टम में लगे स्विच को चालू करते ही पौधों की सिंचाई हो जाएगी. साथ ही, 30 किलोग्राम कोकोपिट और 50 किलोग्राम वमीं कंपोस्ट दिया जाएगा.

फार्मिंग बैड योजना के तहत लोगों को मौसमी सब्जी और फल के पौधे लगा कर इस योजना के तहत 9 माह तक प्रबंधन का काम एजेंसी ही करेगी. इस दौरान एजेंसी के लोग 18 बार निरीक्षण करने आएंगे. पौधों का विकास, उन की जरूरत के हिसाब से वे काम करेंगे.

एजेंसी पूरी करेगी जरूरतें

सरकार द्वारा इस योजना का लाभ लोगों को आसानी से मुहैया हो पाए, इस के लिए ऐसी व्यवस्था की है कि आवेदन के लिए कहीं चक्कर लगाने की जरूरत न पड़े. इस के लिए सबकुछ एजेंसी पहुंचाने का काम कर रही है. इस योजना के लिए आवेदक को निदेशालय की वैबसाइट https:// horticulture.bihar.gov.in पर जाना होगा. इस वैबसाइट पर ही औनलाइन आवेदन करना होगा. इस के बाद आवेदन किए जाने के 10 दिन के अंदर ही आप के घर की छत पर बागबानी कर दी जाएगी.

फसल से ज्यादा उत्पादन के मूलमंत्र

आमतौर पर खेती का उत्पादन मौसम व खेती के तरीकों पर टिका होता है. वर्षा, तापमान, सूर्य का प्रकाश व हवा आदि हमारी पहुंच से बाहर हैं, लेकिन खेती के तरीके हमारी पहुंच में हैं. समय पर सही ध्यान दे कर फसलों की मौजूदा उत्पादकता में बढ़ोतरी की जा सकती है. ज्यादा उत्पादन के निम्न मूलमंत्र हैं, जिन पर गौर फरमा कर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है:

समय

फसल उत्पादन में समय एक महत्त्वपूर्ण पहलू है. फसल की बोआई से ले कर कटाई तक फसल संबंधी सभी क्रियाएं सही समय पर करनी चाहिए. कभीकभी जानकारी न होने से मजबूरी या लापरवाहीवश बोआई, खरपतवारों की रोकथाम, कीड़ों की रोकथाम और सिंचाई जैसे जरूरी कामों को किसान समय पर नहीं कर पाते हैं, जिस वजह से उत्पादन में भारी कमी आती है.

कृषि विज्ञान केंद्रों और कृषि विभाग द्वारा चलाए जा रहे कई प्रशिक्षणों द्वारा किसान भाई खेती की नवीनतम तकनीक का ज्ञान हासिल कर सकते हैं. किसानों को कभीकभी कृषि की कई जरूरी चीजें जैसे उन्नत बीज, उर्वरक, फफूंदनाशक, कीटनाशक, खरपतवारनाशक वगैरह समय पर नहीं मिल पाते हैं, जिस से वे सही समय पर खेती के सभी काम नहीं कर पाते हैं. ऐसे हालात में फसल के उत्पादन में कमी आती है. इसलिए ऐसी हालत से बचने के लिए जरूरी सामान का प्रबंध सही समय पर करें.

production from crops

उम्दा बीज

बीजों की गुणवत्ता का उत्पादन पर 20 से 30 फीसदी असर पड़ता है. इसलिए किसान भाइयों को स्थानीय और परंपरागत बीजों के बजाय अच्छे प्रमाणिक बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि ऐसे बीज ज्यादा उत्पादन और गुणवत्ता वाले होते हैं. इसलिए जहां तक हो सके विभिन्न फसलों के अच्छे और प्रमाणिक बीजों का ही इस्तेमाल करें. विभिन्न फसलों की संकर किस्मों के बीजों को दोबारा बोआई के काम में न लें, क्योंकि उन की उत्पादन कूवत कम हो जाती है. इसलिए हर साल प्रमाणिक बीज ही खरीद कर बोएं.

बीजों को बोने से पहले घरेलू तकनीक से उन की अंकुरण कूवत परख लें और पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही बीज बोएं ताकि अंकुरण संबंधी किसी भी समस्या का हल बोआई से पहले ही हो जाए.

यदि किसान अपना पैदा किया बीज इस्तेमाल में लेते हैं तो बीज की बोआई से पहले ग्रेडिंग जरूर करें. बोआई से पहले बीज का उपचार भी फायदेमंद रहता है.

पोषक तत्त्व प्रबंधन

उर्वरक और खाद खेती के महत्त्वपूर्ण, हिस्से हैं. ये पौधों की बढ़त के साथसाथ पौधों द्वारा पानी सोखने की कूवत में भी वृद्धि करते हैं. विभिन्न फसलों में ज्यादातर किसान बिना मिट्टी की जांच के अपनी इच्छा से अंधाधुंध उर्वरकों का इस्तेमाल करते हैं, जिस से धीरेधीरे मिट्टी की उर्वरता में कमी आ जाती है. लिहाजा किसानों को कम से कम 2 से 3 साल में खेतों की मिट्टी की जांच जरूर करानी चाहिए, जिस से खेतों में मौजूद पोषक तत्त्वों के सही स्तर का पता चल सके.

मिट्टी की जांच के मुताबिक ही फसलों में उर्वरकों का इस्तेमाल करें. इस से उस की लवणीयता और क्षारीयता का भी पता चलता है और ऐसी मिट्टी को सही तरीके से सुधारने में मदद मिलती है.

उर्वरकों को फसल की सही अवस्थाओं में सही तरीके से देना चाहिए, जिस से मिट्टी की कूवत बढ़ती है. उर्वरकों को बीज के साथ कभी न मिलाएं और हमेशा बीज से 2 इंच नीचे दबाएं.

लगातार उर्वरकों के ज्यादा इस्तेमाल से फसलों की पैदावार में कमी आने लगी है, क्योंकि उर्वरकों के इस्तेमाल से मिट्टी के भौतिक गुणों पर उलटा असर पड़ने लगा है. लिहाजा ज्यादा उत्पादन और टिकाऊ खेती के लिए उर्वरकों के साथसाथ कार्बनिक खादों पर समुचित ध्यान देना जरूरी है.

इस के लिए कम से कम 3 सालों में 1 बार गोबर की सड़ी या कंपोस्ट खाद का जरूर इस्तेमाल करें या फिर सनई, ग्वार या ढैंचा को वर्षाऋतु में उगा कर फूल आने पर खेत में दबा कर हरी खाद के रूप में काम में लें.

खाद और उर्वरक के अलावा विभिन्न फसलों में निर्धारित जीवाणु खादों जैसे राइजोबियम जीवाणु, एजेटोबैक्टर या एजोस्पाइरिलम, फोस्फोबैक्टेरियम जीवाणु, नील हरित शैवाल, एजोला, फर्न, माइकोराइजा आदि का भी इस्तेमाल करना चाहिए, क्योंकि इन के इस्तेमाल से विभिन्न पोषक तत्त्वों की मौजूदगी बढ़ती है. जीवाणु खाद न केवल किफायती है, बल्कि यह पर्यावरण को भी सुरक्षित रखती है. जीवाणु खाद वायु से नाइट्रोजन ले कर पौधों को मुहैया कराती है.

खरपतवार प्रबंधन

फसल में मौजूद खरपतवार पौधों से हवा, पानी, सूर्य की रोशनी और पोषक तत्त्वों के लिए मुकाबला कर के उन की बढ़वार पर असर डाल कर उत्पादकता कम कर देते हैं और कभीकभी फसल को भी नष्ट कर देते हैं. इसलिए ज्यादा उत्पादन के लिए फसलों को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए. खरपतवार नियंत्रण के लिए कुदाली, कुल्फा और खरपतवारनाशी रसायनों का प्रयोग कर सकते हैं. इस के अलावा गरमी में गहरी जुताई कर के भी खरपतवार की रोकथाम कर सकते हैं.

सिंचाई प्रबंधन

सिंचाई प्रबंधन सब से महत्त्वपूर्ण होता है. प्रकृति के सीमित साधनों का रखरखाव कर किफायत से पानी इस्तेमाल करना चाहिए. इस के लिए खेतों को पूरी तरह समतल कर के चारों तरफ मजबूत मेंड़बंदी करनी चाहिए ताकि खेत का पानी खेत में ही रुक सके.

पानी का सही इस्तेमाल करने के लिए फसलों की क्रांतिक अवस्थाओं में सिंचाई करनी चाहिए. फसल में जरूरत से ज्यादा पानी न दें और सिंचाई के नए तरीकों जैसे फव्वारा, ड्रिप और पाइपों का इस्तेमाल करें.

फसल संरक्षण

बीजजनित कीटों और रोगों की कारगर रोकथाम के लिए बीज उपचार एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है.

सभी फसलों के बीजों को बोआई से पहले खास रसायनों से उपचारित करने के बाद बोआई करें. बीजों को पहले फफूंदनाशी, फिर कीटनाशी और आखिर में जीवाणु कल्चर से उपचारित कर बोआई करें.

इस क्रम में किसी प्रकार का बदलाव न करें. कीटों और रोगों की रोकथाम के लिए 3 साल में एक बार गरमी में गहरी जुताई कर के खेत तपने के लिए कुछ दिनों के लिए खुला छोड़ दें.

किसी भी तरह का कीटनाशक अपनी इच्छा या विक्रेता के कहने पर इस्तेमाल में नहीं लेना चाहिए. विभिन्न फसलों में संबंधित जानकारों की सलाह से ही रसायनों का इस्तेमाल करें.

रसायनों को खरीदते समय दवा का असर खत्म होने की तारीख जरूर देखें और बिल जरूर लें. मित्र कीटों का रखरखाव करें. प्रकाशपाश व फेरामोनट्रेप को काम में लें. इस से रसायनों का इस्तेमाल कम होगा और बिना रसायनों के कीड़ों की रोकथाम होगी, जिस से लागत में कमी आएगी.

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फसल बीमा

किसानों की फसल कुदरती आपदाओं जैसे सूखा, बाढ़ आदि से बरबाद हो जाती है, जिस से किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है. कुदरती कारणों से होने वाले नुकसान की भरपाई का सीधा तरीका है फसल बीमा.

फसल बीमा होने से किसान फसल की नई किस्मों और नई तकनीकों को इस्तेमाल में ले सकते हैं, क्योंकि यह जोखिम बीमा द्वारा रक्षित होता है. भारत सरकार ने देशभर में विभिन्न योजनाओं की शुरुआत की है.

इन में व्यापक फसल बीमा योजना, प्रायोगिक फसल बीमा, कृषि आय बीमा योजना, राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना आदि शामिल हैं.

जमीन और फसल की उत्पादकता बढ़ाने और उत्पादन लागत कम करने के लिए निम्न बातों पर गौर करना चाहिए:

* ज्यादा उत्पादन पाने के लिए समय पर बोआई करें.

* प्रमाणित उन्नत बीज ही बोएं, इस से उपज में बढ़ोतरी होती है.

* कम खर्च में निरोग व स्वस्थ फसल पाने के लिए बीजोपचार जरूर करें.

* बारिश का पानी ज्यादा से ज्यादा जमीन के अंदर संरक्षित करने के लिए जुताई व बोआई ढलान के विपरीत करें.

* पौधों की सही संख्या व सही दूरी से अच्छी बढ़वार व उपज पाने के लिए अच्छी बीज दर रखें.

* कतार में बोआई करें और लाइनों की दूरी बराबर रखें.

* फसलें बदलबदल कर बोएं जिस से कीट व रोग में कमी आएगी.

* दलहनी और तिलहनी फसलों में जिप्सम का इस्तेमाल करें.

* मिट्टी की जांच की सिफारिश के अनुसार उर्वरक का इस्तेमाल करें जिस से उर्वरक पर खर्च में कमी आएगी.

* जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ाने के लिए गोबर की खाद, कंपोस्ट, वर्मी कंपोस्ट आदि का इस्तेमाल करें.

* रासायनिक उर्वरकों से होने वाले नुकसानों से बचने के लिए जैविक खेती अपनाएं.

* कम पानी की स्थिति में फसल की समयसमय पर सिंचाई करें.

* सिंचित क्षेत्र बढ़ाने के लिए फव्वारा, ड्रिप व पाइपलाइन का इस्तेमाल करें, जिस से पानी की बचत हो.

* मित्र कीटों का रखरखाव करें. प्रकाशपाश व फेरामोनट्रेप काम में लें. इस से रसायनों का इस्तेमाल कम होगा और बिना रसायनों के कीड़ों की रोकथाम होगी, जिस से लागत में कमी आएगी.

* खरपतवार, रोग व कीट के असर में कमी लाने के लिए गरमी में गहरी जुताई जरूर करें.

* धोखाधड़ी से बचने के लिए खाद, बीज व दवा खरीदते समय बिल जरूर लें. इस से अनाज की गुणवत्ता भी पक्की होगी.

* उपज सुखा कर और अच्छी तरह साफ कर के बाजार में ले जानी चाहिए, जिस से उपज का ज्यादा मूल्य मिल सके.

* फसल बीमा जरूर करवाएं. इस से फसल जोखिम कम होता है.

* समय, मेहनत और पैसा बचाने के लिए उन्नत कृषि यंत्रों का इस्तेमाल करें.

* कृषि विज्ञान केंद्रों और कृषि विभाग द्वारा संचालित विभिन्न कृषि प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भागीदारी बढ़ाएं, नवीनतम जानकारी लें और समस्या का समाधान पाएं व उन्नत तकनीक का इस्तेमाल कर के उत्पादन बढ़ाएं.

शकरकंद (Sweet Potatoes) सर्दियों से बचाए

सर्दियां शुरू होते ही बाजार में तरहतरह की सब्जियां, फल और कंदमूल आने लगते हैं. सर्दियों से बचाव के लिए लोग कई तरह के उपाय करते हैं, इन में गरम कपड़ों से ले कर खानेपीने की चीजें भी हैं. अमीर तो जो चाहे वह खरीद कर खा सकते हैं, लेकिन गरीबों को अपने बजट के हिसाब से खर्च करना पड़ता है. हम आप को बता रहे हैं, ऐसी ही एक चीज जिसे आसानी से खरीद कर खा सकते हैं और सर्दियों में अपने शरीर को गरम रख सकते हैं.

हम बात कर रहे हैं शकरकंद की, जिसे स्वीट पोटैटो भी कहा जाता है. यह ऊर्जा का खजाना है. अकसर लोग इसे आलू से जोड़ कर देखते हैं, लेकिन पोषक तत्त्वों और सेहत के लिहाज से इस के कई फायदे हैं. शकरकंद खाने में मजेदार तो होता ही है, साथ ही काफी फायदेमंद भी है.

शकरकंद का इस्तेमाल सर्दियों में बहुत मुफीद होता है. सर्दियों में कंदमूल ज्यादा फायदेमंद रहते हैं, क्योंकि ये शरीर को गरम रखते हैं. इसलिए सर्दी के मौसम में शकरकंद खाना सेहत के लिए फायदेमंद है.

* शकरकंद विटामिन ‘डी’ का एक अच्छा सोर्स है. यह दांतों, हड्डियों, त्वचा और नसों की बढ़ोतरी और मजबूती के लिए जरूरी है. शकरकंद विटामिन ‘ए’ का भी काफी अच्छा माध्यम है. इस के इस्तेमाल से शरीर की 90 फीसदी तक विटामिन ‘ए’ की पूर्ति होती है.

*             शकरकंद में भरपूर आयरन होता है. आयरन की कमी से हमारे शरीर में ऐनर्जी नहीं रहती, रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित होती है और ब्लड सेल्स का निर्माण भी ठीक से नहीं होता. शकरकंद आयरन की कमी को दूर करने में मददगार रहता है.

*             शकरकंद पोटैशियम का अच्छा स्रोत है. यह नर्वस सिस्टम की सक्रियता को सही बनाए रखने के लिए जरूरी है. साथ ही किडनी को भी स्वस्थ रखने में यह खास योगदान देता है.

*             शकरकंद में आयरन, फोलेट, कौपर, मैगनीशियम, विटामिन्स आदि होते हैं. इसे खाने से त्वचा में चमक आती है और चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पड़तीं. इस में मौजूद विटामिन ‘सी’ त्वचा में कोलाजिन का निर्माण करता है जिस से आप हमेशा जवान और खूबसूरत दिखते हैं.

*             शकरकंद डायट्री फाइबर और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर है. शकरकंद खाने में मीठा होता है. इस के इस्तेमाल से खून बढ़ता है, शरीर मोटा होता है साथ ही यह कामशक्ति को भी बढ़ाता है. नारंगी रंग के शकरकंद में विटामिन ‘ए’ सही मात्रा में होता है. शकरकंद में कैरोटीनौयड नामक तत्त्व पाया जाता है जो ब्लड शुगर को कंट्रोल करता है.

*             अगर आप का ब्लड शुगर लैवल कुछ भी खाने से तुरंत बढ़ जाता है तो शकरकंद खाना ज्यादा अच्छा है. इसे खाने से ब्लड शुगर हमेशा कंट्रोल रहता है और इंसुलिन बढ़ने नहीं देता.

*             शकरकंद में कैलोरी और स्टार्च की सामान्य मात्रा होती है. वहीं, सैचुरेटेड फैट और कोलेस्ट्रौल की मात्रा इस में न के बराबर रहती है. इस में फाइबर, एंटीऔक्सीडेंट्स, विटामिन और लवण भरपूर होते हैं.

*             शकरकंद में भरपूर मात्रा में विटामिन ‘बी6’ पाया जाता है, जो शरीर में होमोसिस्टीन नाम के अमीनो एसिड के स्तर को कम करने में सहायक होता है. इस अमीनो एसिड की मात्रा बढ़ने पर बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है.

अरहर की फसल में कीड़ों की रोकथाम

दालों को प्रोटीन का सब से अच्छा जरीया माना जाता है. इसीलिए रोजाना खाने में दालों का सब से ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है. भारत दलहनी फसलों के उत्पादन के मामले में दुनिया में पहले स्थान पर होने के बावजूद प्रति हेक्टेयर उत्पादन के लिहाज से पिछड़ा हुआ है, जिस के चलते दलहन का उत्पादन देश में लगातार घट रहा है.

देश में दलहनी फसलों की खेती करीब 2 करोड़ 38 लाख हेक्टेयर रकबे में की जाती है, जिस से करीब 6.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर का औसत उत्पादन ही हासिल होता है, जो बेहद कम माना जा सकता है. दलहनी फसलों के कम उत्पादन के कारणों में उन्नत कृषि तकनीकी की कमी, उन्नतशील बीजों व उर्वरकों की कमी और फसल पर कीड़ों व रोगों का प्रकोप खास है. दलहनी फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों में छेदक, फली मक्खी, पत्ती लपेटक वीटल वगैरह खास हैं.

कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया (बस्ती) में विशेषज्ञ राघवेंद्र विक्रम सिंह बताते हैं कि दलहनी फसलों में अरहर की खेती देश के कई राज्यों में प्रमुख स्थान रखती है. वर्तमान में अरहर का औसत उत्पादन 8.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, जो बेहद कम है. इस की सब से खास वजह कीड़ों व रोगों का प्रकोप है. ऐसे में अगर समय रहते कीड़ों व रोगों को काबू कर लिया जाए तो उत्पादन 2 गुना किया जा सकता है.

राघवेंद्र विक्रम सिंह के मुताबिक दिसंबर से फरवरी तक का समय अगेती व पछेती फसलों में फली बनने व फूल आने का होता है. इस अवस्था में अरहर की फसल पर कीड़ों का सब से ज्यादा प्रकोप पाया जाता है, जिस के चलते कभीकभी अरहर की पूरी फसल खराब हो जाती है. ऐसी हालत में हमें अरहर में लगने वाले कीड़ों की पहचान कर के उन की रोकथाम के तरीके अपनाने चाहिए.

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खास कीड़े फली छेदक कीट : कृषि विशेषज्ञ

डा. प्रेम शंकर के मुताबिक जहां पर भी दलहनी फसलों की खेती की जाती है, वहां इस कीट का हमला ज्यादा होता है. यह कीट मध्यम आकार व सलेटीभूरे रंग का होता है. इस कीट की लार्वा अवस्था ही ज्यादा खतरनाक होती है. कीट की वयस्क मादा मिट्टी के ऊपर वाले पौधों के किसी भी भाग में अंडे देती है. अंडे से निकल कर लार्वा फली के ऊपर जालीनुमा आवरण बनाता है, जिस के नीचे से फलियों में घुस कर अंदर ही अंदर दानों को खाता रहता है. इस कीड़े की रोकथाम से पहले इस का सर्वेक्षण करना जरूरी हो जाता है. इस के लिए 5-6 और रोकथाम के लिए 15-20 फेरोमेन ट्रैप प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने चाहिए.

फली मक्खी : इस मक्खी की मादा फली में छेद कर के अंडे देती है. 1 हफ्ते के भीतर अंडे फूटने पर इस का शिशु कीट बाहर आ जाता है, जो खुद को रेशमी धागों से चिपका लेता है और उसे ही खुरचखुरच कर खाता है. यही मैगट यानी शिशु पत्तियों और फलियों में सुरंग बना कर उन्हें खाना शुरू कर देता है और फिर उस सुरंग में मल भर देता है. बाद में यही कीट फली के अंदर घुस कर बीजों को खाना शुरू कर देता है. जब यह कीट पूरी विकसित अवस्था में पहुंच जाता है, तो बीज से बाहर निकल कर फली में एक छेद के पास ही प्यूपा में बदल जाता है, जो तने में छेद कर के उसे भी नुकसान पहुंचाता है.

पत्ती लपेटक कीट : इस कीट को युकोस्मा क्रिटिका के नाम से जाना जाता है. इस की मादा पत्तियों की निचली सतह में अंडे देती है और 1 हफ्ते बाद जब अंडे फूट जाते हैं, तो उन से निकली सूंडि़यां पौधों की ऊपरी पत्तियों को लपेट कर सफेद जाला बुनती हैं और फिर उसी में छिप कर पत्तियों को खाती हैं. पत्तियों को खाने के बाद ये सूंडि़यां फूलों और फलियों को नुकसान पहुंचाती हैं.

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पलग मौथ : इस की मादा अरहर की फसल के कोमल भागों जैसे छोटी पत्तियों, छोटी फलियों व कलियों पर 1-1 कर के अंडे देती है. इन अंडों से 5-7 दिनों में शिशु निकलते हैं, जिन का रंग हराभूरा होता है. शिशु शुरू में पत्तियों को खाता है और बाद में फली को छेद कर बीजों को खा जाता है. पूरी तरह विकसित कीट फली से बाहर निकल कर प्यूपा में बदल जाता है. यह प्यूपा फली की सतह पर पाया जाता है.

बीटल : यह कीट अरहर की कलियों, फूलों व फलियों को खा कर नष्ट कर देता है, जिस से फसल उत्पादन तेजी से गिर जाता है.

डा. प्रेम शंकर का कहना है कि इन कीटों का हमला जैसे ही दिखाई पड़े, किसानों को शुरुआती अवस्था में ही सचेत हो जाना चाहिए और समय रहते इन कीटों की रोकथाम के उपाय करने चाहिए. इन कीटों की रोकथाम जैविक और रासायनिक दोनों विधियों से की जा सकती है. दोनों विधियों में 2 या 3 छिड़काव करने से इन कीड़ों के प्रकोप से अरहर की फसल को बचाया जा सकता है. पहला छिड़काव फसल में 50 फीसदी फूल निकलने पर और दूसरा छिड़काव 15 दिनों के बाद करना चाहिए. जरूरत होने पर तीसरा छिड़काव 15 दिनों के बाद करना लाभदायक होता है.

जैविक विधि: डा. प्रेम शंकर के मुताबिक अरहर में लगने वाले कीटों की अगर जैविक विधि से रोकथाम की जाए तो इस से फसल को कीटों के असर से पूरी तरह से बचाया जा सकता है और इस का सेहत पर भी कोई खराब असर नहीं पड़ता है. जैविक कीटनाशी के रूप में एनपीवी 250-300 एलई की 1 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोल कर 1 हेक्टेयर फसल में शाम के समय छिड़काव करना चाहिए. यह एक प्रकार का वायरस न्यूक्लियर होता है, जो फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को बीमार कर के नष्ट कर देता है.

इस के अलावा इन कीटों को नष्ट करने के लिए बैक्टीरियल जीवाणुओं का छिड़काव भी किया जा सकता है. इस के लिए बेसिलस थियुरेजेंसिस की 1 लीटर मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए. ये बैक्टीरियल जीवाणु फसल में लगे कीटों पर हमला कर के उन्हें नष्ट कर देते हैं.

नीमतेल (नीमारीन) : अरहर की फसल में लगने वाले कीड़ों की रोकथाम के लिए नीम का तेल भी बेहद कारगर रहता है. इस के लिए नीम के तेल की 5 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल कर 10-10 दिनों के अंतर पर फलियां बनते ही छिड़काव करना चाहिए.

रासायनिक विधि : डा. प्रेम शंकर के मुताबिक फली मक्खी की रोकथाम के लिए कार्बोसल्फान की 1 मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी में मिला कर 1 हेक्टेयर खेत के लिए 800 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

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इस के अलावा इंडोक्साकार्ब कीटनाशी की आधा मिलीलीटर मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना कर छिड़काव करें. 1 हेक्टेयर फसल के लिए इंडोक्साकार्ब कीटनाशी दवा की 325 मिलीलीटर मात्रा की जरूरत पड़ती है, जिसे 700-800 लीटर पानी में घोल कर 15 दिनों के अंतराल पर 2 बार छिड़काव करना जरूरी होता है.

फली मक्खी का प्रकोप दिखाई पड़ने पर पहला छिड़काव एसीटामिप्रिड 20 फीसदी की एसपी का करें. इसे धानप्रीत कीटनाशी के नाम से जाना जाता है.

इस की 250 ग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 800-1000 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें. दूसरा छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करना जरूरी होता है.

किसानों को अरहर की फसल से भरपूर पैदावार लेने के लिए कीड़ों के प्रकोप से बचाव के लिए सजग रहना चाहिए. जैसे ही अरहर की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों का प्रकोप दिखाई पड़े, तो जितनी जल्दी हो सके उन की रोकथाम के उपायों का इस्तेमाल करना चाहिए.

आलू के पापड़ (Potato Papad) बनाएं और बेचें

आलू देश की खास पैदावार है, लेकिन जिस दौरान आलू क फसल तैयार होती है, तब उस की कीमत काफी कम रहती है, जिस से किसानों को अकसर आलू की खेती में नुकसान उठाना पड़ता है.

ऐसे में यदि आलू के पापड़ बनाएं ता यह मुनाफे का सौदा होगा. पैदावार के समय ही आलू खरीद कर उन के पापड़ बनाए जा सकते हैं. इसे गृह उद्योग की तरह चलाया जा सकता है. ऐसे में आलू के पापड़ किसानों को अच्छा मुनाफा दे सकते हैं. पापड़ बनाने के लिए आजकल बड़ी मशीनें आने लगी हैं. शुरुआत में तो बड़ी मशीनों के बिना भी पापड़ तैयार हो सकते हैं. यह व्यवसाय ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार का साधन बन सकता है. सूखे पापड़ सही तरह से पैक कर के लंबे समय तक रखें जा सकते हैं.

देश में होली के मौके पर पापड़ों की अच्छी बिक्री होती है. पापड़ का इस्तेमाल चाय के साथ नमकीन के रूप में भी होता है. पापड़ बना कर बेचना किसानों के लिए रोजगार का अच्छा साधन है. इस से आलू किसानों को अपने आलू सड़क पर फेंकने पर मजबूर नहीं होना पड़ेगा.

पापड़ का सही रखरखाव और उसे बेचना ही सब से मुख्य काम है. कानपुर की नलिनी शर्मा कहती हैं, ‘आलू के पापड़ बनाना काफी सरल है. ये जल्दी खराब नहीं होते. इन्हें सफाई से सुखाना चाहिए. इस के बाद सब से अहम है इन की पैकिंग.

आलू के पापड़ बनाने की विधि

सामग्री : आलू बड़े 1 किलोग्राम, नमक स्वादानुसार, लालमिर्च आधा छोटा चम्मच, तेल 2 बड़े चम्मच.

विधि : पापड़ बनाने के लिए आलुओं को धो कर कुकर में डालें और 2 कप पानी डाल कर उबालने के लिए रखें. 1 सीटी आने के बाद धीमी आंच पर 3-4 मिनट उबलने दें. फिर कुकर को आंच से उतार लें. ठंउे होने पर आलुओं को छीलें और एकदम बारीक कद्दूकस कर लें. इस में नमक व लालमिर्च डालें और आटे की तरह गूंधें.

हाथ पर तेल लगा कर आलू की पिट्ठी का थोड़ा हिस्सा लें और एक ही आकार के गोले बनाएं. 1 किलोग्राम आलू से 20-22 गोले बन जाते हैं. आलू के पापउ़ बेलने और सुखाने के लिए बड़ी और थोड़ी सी मोटी पारदर्शक पौलीथिन शीट की जरूरत होती है. इस शीट को धूप में फर्श पर एक चादर बिछा कर उस के ऊपर बिछा दें. शीट को रोअी बनाने वाले चकले पर इस तरह रखें कि आधा भाग चकले पर हो और आधा चकले के बाहर.

पहली बार पौलीथिन शीट के ऊपर थोड़ा तेल लगा लें. आलू का एक गोला उठाएं. दोनों ओर थोड़ा सा तेल लगा दें. चकले के ऊपर रखी पौलीथिन शीट के ऊपर आलू के गोले को रखें और शीट के दूसरे हिस्से से ढक कर हथेली से पौलीथिन शीट को आलू के गोले के ऊपर से दबा कर चपटा कर दें. शीट को घुमाते हुए बेलन से आलू के गोले को बेलिए पापड़ को चपाती के जितना पतला बेलिए. ऊंगली से भी पापड़ को गोल आकार दिया जा सकता है.

तैयार पापड़ के ऊपर से पौलीथिन शीट हटाएं. पापड़ लगी पौलीथिन शीट का, पापड़ की तरफ से बड़ी पौलीथिन शीट पर रखें. पापड़ लगी पौलीथिन शीट को हाथ से हलका दबा कर पापड़ को और अच्छी तरह चिपका दें. पापड़ की दूसरी शीट हाथ से पकड़ कर खींच लें. पापड़ बड़ी पौलीथिन शीट पर चिपक जाता है. सारे पापड़ एकएक कर के इसी तरह बड़ी पौलीथिन शीट पर डाल दें और धूप में सुखाने के लिए रखें दें. 3-4 घंटे बाद जब पापड़ हलके से गीले रहें, तब उन्हें पलट दें. पापड़ पूरी तरह सूखने पर इकट्ठे कर लें.

बस्तर से निकला ‘ब्लैक गोल्ड’ : छत्तीसगढ़ को मिला खास तोहफा

देश के इतिहास में अब एक और नया अध्याय जुड़ गया है. नक्सली हिंसा के लिए कुख्यात बस्तर अब अपनी एक नई पहचान बना रहा है. छत्तीसगढ़ का यह इलाका अब “हर्बल और स्पाइस बास्केट” के रूप में दुनिया का ध्यान अपनी ओर खीँच रहा है. इस बदलाव के नायक हैं किसान वैज्ञानिक डा. राजाराम त्रिपाठी, जिन्होंने काली मिर्च की एक अद्भुत किस्म विकसित कर के पूरे देश को गौरवांवित किया है.

कोंडागांव के रहने वाले डा. राजाराम त्रिपाठी ने सालों की कड़ी मेहनत और शोध से काली मिर्च की ‘मां दंतेश्वरी काली मिर्च-16 (MDBP-16) उन्नत किस्म विकसित की है, जो कम बारिश वाले क्षेत्रों में भी औसत से 4 गुना अधिक उत्पादन देती है. इस प्रजाति को हाल ही में भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान (आईआईएसआर), कोझिकोड, केरल द्वारा मान्यता दी गई है.

इसे भारत सरकार के प्लांट वैरायटी रजिस्ट्रार द्वारा नई दिल्ली में भी पंजीकृत किया गया है. यह काली मिर्च की एकलौती उन्नत किस्म है, जिसे दक्षिणी राज्यों से अलग हट कर छत्तीसगढ़ के बस्तर में सफलतापूर्वक विकसित किया. साथ ही, इसे भारत सरकार ने नई किस्म के रूप में पंजीकरण कर मान्यता भी दे दी है. यह बस्तर और छत्तीसगढ़ के लिए एक बहुत बड़ी गौरवशाली उपलब्धि है.

सपने को सच कर दिया : 100 साल तक उत्पादन देने वाली काली मिर्च

डा. राजाराम त्रिपाठी की इस काली मिर्च को विकसित करने में 30 साल का समय लगा. यह लतावर्गीय पौधा है, जो सागौन, बरगद, पीपल, आम, महुआ और इमली जैसे पेड़ों पर चढ़ा कर उगाई जा सकती है. इन पेड़ों पर उगाई गई काली मिर्च न केवल 4 गुना अधिक उत्पादन देती है, बल्कि क्वालिटी में भी देश की दूसरी प्रजातियों से कहीं बेहतर है. इसलिए बाजार में भी इसे हाथोंहाथ लिया जा रहा है और दूसरी प्रजाति की काली मिर्च की तुलना में इस के दाम भी ज्यादा मिलते हैं.

उन्होंने आगे बताया कि इस किस्म ने सब से बेहतरीन परिणाम आस्ट्रेलियन टीक (सागौन) पर चढ़ कर दिए हैं. खास बात यह है कि यह प्रजाति कम सिंचाई और सूखे क्षेत्रों में भी बिना विशेष देखभाल के पनप सकती है.

मसालों की दुनिया में नई पहचान
कभी हिंसा और संघर्ष से प्रभावित बस्तर अब वैश्विक बाजार में मसालों का केंद्र बनने की ओर अग्रसर है. डा. राजाराम त्रिपाठी का यह भी कहना है कि आज उन की काली मिर्च की किस्म देश के 16 राज्यों और बस्तर के 20 गांवों में उगाई जा रही है. लेकिन सरकारी मान्यता मिलने के बाद इस खेती में और तेजी आने की उम्मीद है.

उन्होंने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि भारत अपने मसालों के लिए सदियों तक ‘सोने की चिड़िया’ कहलाता था. अगर सरकार और लोग मिल कर मसालों और जड़ीबूटियों पर ध्यान दें, तो भारत फिर से वह गौरव हासिल कर सकता है.

प्रधानमंत्री से मिलेंगे डा. राजाराम त्रिपाठी

अपनी सफलता से उत्साहित डा. राजाराम त्रिपाठी जल्दी ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिल कर इस विषय पर मार्गदर्शन चाहते हैं. उन का सपना है कि छत्तीसगढ़ और बस्तर की इस नई पहचान को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती मिले.

नए साल की शुरुआत में बस्तर से आई यह खबर भारत के हर किसान और कृषि वैज्ञानिक के लिए प्रेरणा है. यह सिर्फ एक काली मिर्च की कहानी नहीं, बल्कि संघर्ष, नवाचार और आत्मनिर्भरता की मिसाल है. 2025 का यह नया अध्याय भारतीय कृषि क्षेत्र को एक नई दिशा देने का वादा करता है.

चंबल महका गुलाब (Roses) की खुशबू से

गुलाब की खेती से यहां के किसानों को अच्छी आमदनी हो रही है और उन की मेहनत बंजर जमीन से सोना उगल रही है. इस से उन्हें एक साल में लाखों की आमदनी हो रही है. गुलाब के फूलों की बात करें तो कुछ साल पहले यहां अच्छे काम के लिए दूसरे इलाकों से फूल मंगाए जाते थे, लेकिन अब मुरैना गुलाब के फूलों की मंडी बन रहा है.

यहां के किसान अब वैज्ञानिक तरीके से गुलाब की खेती कर रहे हैं. इस काम में कृषि विज्ञान केंद्र व कृषि विभाग की मदद ले कर तकरीबन 55 किसानों ने 50 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर अच्छी किस्म की गुलाब की खेती की है. किसानों की इस पहल से आमदनी के साथ कई लोगों को रोजगार भी मिला है.

बीहड़ ऐसा इलाका है जहां पानी की कमी रहती है जबकि गुलाब की खेती में पानी की जरूरत पड़ती है. यहां दूसरी फसलों को तो नीलगाय के साथ अन्य जानवर नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन गुलाब में कांटे होने की वजह से उसे वे बरबाद नहीं करते. इस के अलावा यहां का वातावरण भी गुलाब की खेती के लिए माकूल है. किसान सुशील राजौरिया बताते हैं कि एक बीघा में उगाए गए गुलाब के फूलों से तकरीबन 12 सौ लीटर गुलाबजल बनता है, जिस की कीमत 100 रुपए लीटर से कहीं ज्यादा है और यह आसानी से बिक जाता है.

गुलाब देखने में जितना खूबसूरत लगता है, उतनी ही उस की खुशबू भी लोगों को लुभाती है. गुलाब के फूल गुलाबजल के अलावा गुलाबरूह भी निकलता है. गुलाबजल जहां 1 बीघा में 12 सौ लीटर निकलता है, वहीं गुलाबरूह मुश्किल से 180 ग्राम निकलता है. गुलाबरूह की मांग लखनऊ के साथ ही इत्र के शहर कन्नौज में काफी है. जो 8 से 10 लाख रुपए प्रति किलोग्राम की कीमत से बिकता है. इसलिए वे अच्छे किस्म के पौधों की रोपाई करने लगे हैं. एक बार लगे पौधे 14 से 15 साल तक फूल देते हैं.

लिली (Lily) से बढ़ती आमदनी

आकर्षक नजर आने वाले लिली के फूल लाल, पीला, गुलाबी, हलका लाल, सफेद व संतरी रंग के होते हैं. इन का इस्तेमाल खास कर गुलदस्ते बनाने के लिए किया जाता है. लिली के कटे हुए फूलों को अन्य फूलों की तुलना में ज्यादा समय तक संभाल कर रखा जा सकता है. लिली के पौधे की ऊंचाई 3 से 4 फुट तक होती है और 4-5 फूल प्रति पौधा आ जाते हैं. ठंडी जलवायु वाले इलाकों में लिली ज्यादा आसानी से उगाई जा सकती है. वैसे गरम जलवायु वाले क्षेत्रों में भी इस का उत्पादन किया जाता है.

लिली के पौधों पर ज्यादा तेज धूप का गंभीर असर होता है, अत: गरमी के मौसम में तेज धूप से बचाव के लिए पौधों के ऊपर जाली का इस्तेमाल करना चाहिए और पौधों को कम दूरी पर लगाना चाहिए. लिली की खेती के लिए सही तापमान 10 से 25 डिगरी सेंटीग्रेड सही रहता है.

लिली के फूल की बाजार में अच्छी मांग है, जिस से उस की कीमत भी अच्छी मिलती है. इस की खेती की तकनीक इस तरह है :

जमीन : लिली की खेती सभी तरह की मिट्टी में आसानी से की जा सकती है. लेकिन जिस मृदा का पीएच मान 6.0 से 7.0 हो वह लिली के लिए अच्छी मानी जाती है.

जमीन की तैयारी : जमीन की 3-4 बार जुताई करनी चाहिए और उस के बाद गोबर की अच्छी तरह सड़ी खाद प्रति एकड़ समान रूप से खेत में फैलाएं. खाद फैलाने के बाद एक बार जुताई कर के खाद को मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें फिर खेत समतल कर दें. इस के बाद 1 मीटर चौड़ी और 8-10 मीटर लंबी क्यारी बनाएं. यदि मिट्टी ज्यादा सख्त हो तो जुताई करने से पहले सिंचाई कर लें.

किस्में : लिली के 2 वर्ग हैं :

एशियाटिक लिली : इस की प्रमुख किस्में कोर्डिलिया, बीट्रीक्स, पेरिस, जेनेवा, लंदन, इलीट, लोट्स, अलास्का, फैस्टिवल, मोना, माउंटेन, वैरियंट, र्स्टलिंग स्टार, सोरबर्ट, यैलो जायंट और यैलो पीजेंट आदि मुख्य हैं.

ओरिएंटल लिली : इस की 2 प्रमुख किस्में हैं :

स्टार गैजर (सफेद) और स्टार गैजर (गुलाबी).

पौध लगाना : लिली की पौध कंद द्वारा लगाई जाती है. कंद अलगअलग व्यास के होते हैं. 10-12 सेंटीमीटर व्यास वाला कंद अच्छा माना जाता है, लेकिन रोगग्रस्त कंदों को पौध लगाने के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.

कंद लगाने का समय : कंदों को मैदानी क्षेत्रों में अक्तूबरनवंबर में लगाते हैं और पहाड़ी क्षेत्रों में इन्हें अप्रैलमई में लगाते हैं.

कंद लगाने के तरीके : सर्दी के मौसम में कंदों को 7-8 सेंटीमीटर गहराई पर और गरमी के मौसम में 8-10 सेंटीमीटर गहराई पर लगाना चाहिए. एक कंद की दूसरे कंद से दूरी 15-20 सेंटीमीटर और लाइन से लाइन की दूरी 25-30 सेंटीमीटर रखनी चाहिए. कंद लगाते समय मिट्टी में सही नमी रखनी चाहिए.

सिंचाई : फसल को जरूरत के मुताबिक पानी देना चाहिए. वैसे सर्दी के मौसम में 10-12 दिन और गरमी के मौसम में 5-6 दिन के बीच सिंचाई करनी चाहिए.

सिंचाई के लिए अच्छी गुणवत्ता वाला पानी इस्तेमाल करना चाहिए.

लिली (Lily)

खाद और उर्वरक : अच्छे फूलों की पैदावार के लिए कंद लगाने के 20-22 दिन बाद 40 किलोग्राम सीएएन खाद प्रति एकड़ की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए. पौधे की अच्छी बढ़त के लिए कंद लगाने के 40-45 दिन बाद 40 किलोग्राम नाइट्रोजन उर्वरक प्रति एकड़ की दर से डालना चाहिए. खाद और उर्वरक डालने के बाद सिंचाई जरूर करें.

निराईगुड़ाई व खरपतवार की रोकथाम : लिली की फसल में खरपतवार भी काफी उगते हैं. इन को जड़ से उखाड़ने के लिए निराईगुड़ाई करनी चाहिए. निराईगुड़ाई से जमीन में वायु संचार बढ़ जाता है, जिस से पौधों की बढ़त अच्छी होती है.

पौधों को सहारा देना : जब पौधों की लंबाई ज्यादा हो जाए और वे झुकने लगें तो उन के पास सहारे के लिए एक बांस या लकड़ी लगा दें व पौधों को इन से बांध दें ताकि पौधे सीधे खड़े रह सकें.

छाया के लिए जाल : ज्यादा तेज धूप से लिली के पौधों पर गहरा असर पड़ता है. अत: इन्हें तेज धूप से बचाने के लिए 50 फीसदी छाया के लिए जाल लगाना चाहिए ताकि पौधों को प्रकाश और सही छाया मिल सके और पौधों की बढ़त भी अच्छी हो सके.

फूलों की डंडियों की कटाई : फूलों की डंडियां तब काटें जब कली खिलनी शुरू हो जाए. फूलों की डंडियों को जमीन की सतह से तकरीबन 6 इंच ऊपर से काटना चाहिए. साथ ही डंडी के निचले हिस्से की कुछ पत्तियां भी काट दें. उस के बाद पैकिंग कर बाजार में भेजना चाहिए.

कंद निकालना : फूल की डंडियों को काटने के बाद जब पौधा पीला पड़ कर सूख जाए तब इन के कंदों की खुदाई कर निकालना चाहिए. कंदों की खुदाई के दौरान सावधानी बरतें. कंदों को कोई नुकसान न पहुंचे. कंदों को निकालने के बाद छाया में रखना चाहिए.

लिली (Lily)

कंदों का भंडारण : लिली के कंदों को 26 फीसदी केप्टान रसायन से उपचारित करने के बाद शीत भंडारगृह में रखें. शीत भंडारगृह में 2.0 डिगरी सेंटीग्रेड से 3.0 डिगरी सेंटीग्रेड तापमान और 70-75 फीसदी नमी रहनी चाहिए. कंदों के नीचे बालू डालना चाहिए. समयसमय पर कंदों को पलटते रहें अन्यथा नीचे के कंद खराब हो सकते हैं. इस दौरान देख लें कि कंद में कोई बीमारी तो नहीं लगी है. यदि कंद बीमारी से ग्रस्त हों तो उन्हें अलग कर भंडारगृह से बाहर फेंक दें. भंडारणगृह में कंद सूखने नहीं चाहिए.

आमदनी : 1 एकड़ खेत में लिली की खेती करने पर 2 से ढाई लाख रुपए तक की आमदनी हो सकती है.

विस्तृत जानकारी और वित्तीय सुविधा के लिए निम्न पते पर संपर्क करें:

* नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र.

* राज्य सरकार के उद्यान विभाग.

* पुष्प विज्ञान संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा, नई दिल्ली-12

* राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड, प्लाट नंबर 85 इंस्टिट्यूशनल क्षेत्र, गुरुग्राम (हरियाणा) यहां से वित्तीय सुविधा अनुदान सहित मिलती है.

एग्री बिजनेस (Agri Business) में किया कमाल

बिहार के एक किसान के बेटे ने ऐसा ही एक काम शुरू किया, जिस से आज हजारों फलसब्जी उत्पादक उस से फायदा उठा रहे हैं. अकेले इनसान के लिए यह करिश्मा करना आसान नहीं था, लेकिन एक ग्रामीण नौजवान ने अपनी सूझबूझ से यह मुमकिन कर दिया.

मिसाल

बिहार के नालंदा जिले के मौहम्मदपुर गांव के एक किसान ने अपने बेटे कौशलेंद्र को एग्रीकल्चर से इंजीनियरिंग करवाई. उस ने आईआईएम, अहमदाबाद से टौप किया. उसे कई नामी कंपनियों से मोटे वेतन पर नौकरी के औफर आए, लेकिन उस ने उन्हें ठुकरा दिया. कौशलेंद्र जानता था कि किसानों को उन की उपज की वाजिब कीमत नहीं मिलती, जिस वजह से परेशान किसान गांव छोड़ कर शहरों का रुख कर रहे हैं. इसलिए उस ने ऐसे रोजगार का फैसला किया जो खेती से जुड़ा हो और उस से किसानों का भी भला हो.

किसी भी काम को शुरू करने के लिए सब से पहले पूंजी की जरूरत होती?है, लेकिन उस के पास निवेश के लिए ज्यादा पैसा नहीं था बल्कि सिर्फ  एक नया विचार व सपना था. इसलिए उस ने कम पैसों में आसानी से शुरू होने वाला काम चुना. यह काम था आसपास के गांवों के छोटे किसानों और बागबानों से फल और सब्जियां खरीद कर उन्हें पटना शहर में बेचना.

इस काम में शुरुआत में कई दिक्कतें आईं. लोगों ने उसे बुराभला कहा और जलील किया कि इतना पढ़लिख कर तुम सब्जी बेचोगे. शुरू में तो ज्यादातर किसान कौशलेंद्र पर भरोसा करने व उसे अपनी उपज देने के लिए राजी नहीं थे, लेकिन इस नौजवान ने हिम्मत नहीं हारी. वह अपने रास्ते पर आगे बढ़ता रहा.

जीरो से हीरो

पहले दिन मात्र 22 रुपए की सब्जी बेचने वाले इस नौजवान की कंपनी का सालाना कारोबार अब करोड़ों रुपए में है. हालांकि सब्जी का काम काफी जोखिम वाला होता है, क्योंकि सब्जियां बहुत जल्दी खराब हो जाती हैं. उन्हें तरोताजा रखने के लिए काफी मुश्किल होती है. इसलिए किसान बिक्री के दौरान ही सब्जियां तोड़ते हैं, फिर उन्हें एक जगह पर इकट्ठा किया जाता है. यह सब काम तयशुदा तरीके से बिना देरी के होता है.

इस सब्जी चेन की कई खासियत हैं. मसलन, ग्राहकों की सहूलियत के लिए उन्हें प्रीपेड कार्ड मुहैया कराए गए हैं, जिन के जरीए सब्जी खरीदने के बाद वे चाहें तो नकदी की जगह आसानी से डिजीटल भुगतान भी कर सकते हैं. जल्दी ही इस काम को बढ़ा कर अब कौशलेंद्र बिहार के दूसरे इलाकों व राज्य से बाहर देशभर में फैलाना चाहता है.

एग्री बिजनेस से बेहतर बदलाव लाने के लिए कौशलेंद्र ने छोटे किसानों व उद्यमियों को खुशहाली से जोड़ा. इस के लिए उस का नाम देश के चुनिंदा उद्यमियों में गिना जाता है. राष्ट्रीय बागबानी मिशन ने सभी राज्य सरकारों को कौशलेंद्र का समृद्धि माडल अपनाने की सलाह दी है.

किसानों को सीख

यह तो सिर्फ एक नमूना है. यदि किसान चाहें तो अपनी सूझबूझ से अकेले ऐसा कोई भी कामधंधा कर सकते हैं. किसान छोटेबड़े उत्पादक संघ बना कर सरकार की मदद से खेती के सहयोगी कारोबार कर सकते हैं. अब फलसब्जी ताजा रखने के लिए कम कीमत वाले जीरो ऐनर्जी, पानी, वाष्प व सोलर ऐनर्जी आदि से चलने वाले कूल चैंबर्स की बहुत सी तकनीक मौजूद हैं. इस बारे में ज्यादा जानकारी भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान व भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, पूसा, नई दिल्ली से ली जा सकती है.

कूल चेन बनाने व कूल चैंबर खरीदने के लिए खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय व बागबानी मिशन अपनी स्कीमों के तहत किसानों व उद्यमियों की मदद करते हैं. इस की जानकारी संबंधित विभागों की वैबसाइट्स या जिले के बागबानी दफ्तर से ली जा सकती है.

मशीनें

फलसब्जियों को पकाने व देर तक तरोताजा रखने वाले कूल चैंबर अब देश में ही आसानी से मिल जाते हैं. इसलिए इन्हें खरीदते समय पूरी तसल्ली व जानकारी के बाद ही अच्छी साख वाली नामी कंपनी से खरीदें. इच्छुक किसान व उद्यमी मै. पीजी ओमेगा इंटरप्राइजेज, एसएस नगर, चेन्नई, तमिलनाडु, फोन : 08046034054 से जानकारी कर सकते हैं.

उपज की खरीदारी, ढुलाई, भंडारण व बिक्री तक का पूरा ढांचा खड़ा करने के लिए सब से बड़ी जरूरत पूंजी की होती है. किसान खुद आगे आ कर पहल करें. इच्छुक किसान कंपनी बनाने, बाजार तलाशने, पूंजी जुटाने व छूट आदि सरकारी सहूलियतें हासिल करने के लिए इस पते पर संपर्क कर सकते हैं:

प्रबंध निदेशक,

लघु कृषक कृषि व्यापार संघ,

एनसीयूआई आडिटोरियम भवन,

अगस्त क्रांति मार्ग, नई दिल्ली. फोन : 011-26966077, 26966037