Jowar : जायद में ज्वार (sorghum) की खेती

ज्वार (Jowar) को देश में अलगअलग नामों से जानते हैं. इसे उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय भाषा में कर्बी, मराठी में ज्वारी, कन्नड़ में जोर और तेलुगू में जोन्ना कहते हैं. महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान व गुजरात जैसे सूबों में इस की खूब खेती की जाती है. उत्तरी भारत में इस की खेती खरीफ और रबी दोनों मौसमों में की जाती है. खास बात यह है कि इसे कम बारिश वाले इलाकों में भी उगाया जा सकता है. चारे के अलावा इसे अन्न और जैव उर्जा के लिए भी इस्तेमाल करते हैं. इस से साइलेज भी तैयार किया जाता है. इस की खास किस्म से स्टार्च व दानों से अल्कोहल भी हासिल किया जाता है. यही कारण है कि खाद्यान्न फसलों में कुल बोए जाने वाले रकबे में इस का तीसरा स्थान है.

मिट्टी : ज्वार की खेती के लिए दोमट, बलुई दोमट और हलकी व औसत काली मिट्टी जिस का पीएच मान सामान्य हो बेहतर होती है. अगर अधिक अम्लीय या अधिक क्षारीय मिट्टी हो तो ऐसे स्थानों पर इस की खेती करना सही नहीं होता.

खेत की तैयारी : पलेवा कर के पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से या हैरो से कर के 1 से 2 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई कर के पाटा लगा देना चाहिए.

बोआई का समय : हरे चारे के लिए जायद में बोआई का सही समय फरवरी के अंतिम हफ्ते से ले कर मार्च के अंत तक होता है.

बीज दर : मल्टीकट (कई बार कटने वाली) प्रजातियों के 25-30 किलोग्राम बीज और सिंगल कट (सिर्फ 1 बार कटने वाली) प्रजातियों के 30-40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करने चाहिए.

बीज उपचार : बीजजनित और मिट्टी रोगों से बचाव के लिए बोआई से पहले बीजों को 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेंडाजिम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए.

बोआई का तरीका : ज्वार की ज्यादातर बोआई छिटकवां विधि से की जाती है, जो कि वैज्ञानिक तरीका नहीं है. बेहतर होगा कि इसे हल के पीछे कूड़ों में लाइन से लाइन की दूरी 30 सेंटीमीटर रखते हुए बोएं.

खाद और उर्वरक : खाद और उर्वरकों का इस्तेमाल मिट्टी की जांच के बाद मिली रिपोर्ट के अनुसार ही करना चाहिए. यदि किसान के पास खूब सड़ी हुई गोबर की खाद, खली या कंपोस्ट वगैरह मौजूद हो, तो बोआई से 15-20 दिनों पहले इन का इस्तेमाल करें.

सिंगल कट वाली प्रजातियों में 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन बोआई के 1 महीने बाद सही नमी होने पर छिड़क कर देना चाहिए. मल्टीकट वाली प्रजातियों में 60-70 किलोग्राम नाइट्रोजन व 40 किलोग्राम फास्फोरस बोआई के समय और 15-20 किलोग्राम नाइट्रोजन हर कटाई के बाद प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए.

सिंचाई : बारिश होने से पहले फसल की हर 8-12 दिनों के अंतराल पर या जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

खरपतवार नियंत्रण : फसल की बोआई के तुरंत बाद 1.5 किलोग्राम घुलनशील एट्राजिन 50 फीसदी या सिमेजिन को 1000 लीटर पानी में घोल कर अंकुरण से पहले खेत में छिड़काव करना चाहिए.

कटाई : पशुओं को उम्दा चारा खिलाने के लिए सिंगल कट फसल की कटाई 5 फीसदी फूल आने पर या 60-70 दिनों के बाद करनी चाहिए. वहीं दूसरी ओर मल्टी कट प्रजातियों की पहली कटाई सामान्य प्रजातियों से तकरीबन 10 दिनों पहले कर लेनी चाहिए और बाद की कटाई 30-35 दिनों के अंतराल पर जमीन की सतह से 6-8 सेंटीमीटर की (तकरीबन 4 अंगुल) ऊंचाई से करनी चाहिए. इस से कल्ले आसानी से निकलते हैं.

उपज : सिर्फ हरे चारे की बात की जाए तो मल्टी कट वाली प्रजाति की उपज तकरीबन 750-800 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है. वहीं सिंगल कट वाली प्रजातियों की उपज तकरीबन 250-450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई जाती है.

Jowar

ज्वार की कुछ उन्नत प्रजातियां

यूपी चरी 1 : सिंगल कट वाली यह प्रजाति पत्ती रोगों के लिए सहनशील है. इस का तना रसीला और मिठास वाला होता है. यह तेजी से बढ़ोतरी करने वाली अगेती प्रजाति है, जो पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 330 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 115 से 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

एचसी 171 : सिंगल कट वाली यह प्रजाति पत्ती रोगों और कीटों के लिए सहनशील है. इस का तना मध्यम मोटा, मीठा और रसीला होता है. यह प्रजाति पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 520 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

पूसा चरी 1 : सिंगल कट वाली इस प्रजाति के बीज बहुत कठोर व सफेद होते हैं. इस का तना रसीला और मध्यम मोटाई का होता है. यह पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 280 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

एसएल 44 : सिंगल कट वाली इस प्रजाति का तना पतला, मिठास रहित व रसीला होता है. इस की पत्तियां लंबी और मध्यम चौड़ाई की होती हैं. इसे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान  व उत्तर प्रदेश में उगाया जा सकता है. इस की उपज 320 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह प्रजाति 75 से 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है.

पूसा चरी 23 : मल्टी कट वाली यह प्रजाति सूखा और पानी रुकने के प्रति सहनशील होती है. इस की पत्तियां संकरी, दाना नीलेलाल रंग का और तना पतला होता है. यह पूरे भारत में उगाई जा सकती है. इस की उपज 550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के पकने में 95 से 100 दिनों का समय लगता है.

Farming Work : मार्च महीने में करें ये जरूरी काम

Farming Work: गन्ने की बोआई का काम मार्च महीने में पूरा कर लें. गन्ने की देर से बोआई करने पर पैदावार में गिरावट आती है. बोआई के लिए 3 आंख वाले गन्ने के टुकड़ों का इस्तेमाल करें.

बीज सेहतमंद गन्ना फसल से ही लें और बीज के टुकड़ों को उपचारित कर के 60-70 सैंटीमीटर की दूरी पर कूंड़ों में बोआई करें. बोआई का काम शुगरकेन प्लांटर मशीन से करें तो ज्यादा बेहतर रहेगा.

गन्ने के साथ दूसरी फसलें जैसे मूंग, उड़द, लोबिया, चारे वाली मक्का वगैरह को 2 कूंड़ों के बीच वाली खाली जगह में बोआई करें. बोआई के लिए अपने इलाके की आबोहवा के मुताबिक ही किस्में चुनें.

जायद फसल मूंग की बोआई का काम भी इसी महीने पूरा करें. बोआई के लिए अच्छी उपज वाली किस्में जैसे पूसा बैसाखी, के-851, एसएसएल-668 वगैरह की बोआई करें. अगर खेत में नमी की कमी है तो बोआई से पहले खेत का पलेवा कर दें.

जायद फसल उड़द की बोआई का काम इस महीने में जरूर पूरा कर लें. बोआई के लिए अच्छी किस्में ही चुनें. अच्छी पैदावार हासिल करने के लिए प्रति हेक्टेयर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश का इस्तेमाल करें.

बेहतर होगा, अगर पोषक तत्त्वों की मात्रा तय करने से पहले मिट्टी की जांच करा लें. फसल को बीमारी से बचाने के लिए बीजोपचार के बाद ही उन्हें बोएं.

चारे के लिए लोबिया की बोआई इस महीने कर सकते हैं. बोआई से पहले बीज को राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर लें. खाद की मात्रा खेत के उपजाऊपन के आधार पर ही तय करनी चाहिए.

अगर मिट्टी जांच की सुविधा मौजूद नहीं है तो खेत की तैयारी के समय 20-30 क्विंटल सड़ी हुई गोबर की खाद मिट्टी में मिला दें. साथ ही, 30-40 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व पोटाश प्रति हेक्टेयर दें.

अभी तक अगर  सूरजमुखी की फसल नहीं बोई है तो बोआई का काम 15 मार्च तक जरूर पूरा कर लें.

सूरजमुखी में निराईगुड़ाई भी इसी माह करें. आल्टरनेरिया ब्लाइट, डाउनी मिल्डयू और सफेद रतुआ के उपचार के लिए 600 से 800 ग्राम डाइथेन या इंडोफिल एम 45 को 250 लिटर पानी में घोल कर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करें.

कटुआ सूंड़ी या हरे रंग की सूंड़ी का हमला हो तो 10 किलोग्राम फैनवालरेट 0.4 प्रतिशत प्रति एकड़ के हिसाब से स्पे्र करें. सफेद रतुआ या मृदुरोमिल रोग से ग्रसित टहनियों को काट कर जला दें.

इसी महीने गेहूं की फसल में दाने बनने लगते हैं. इस दौरान फसल को पानी की बहुत जरूरत होती है, इसलिए जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

Farming Work

अगर दिन में तेज हवा चल रही है तो सिंचाई रात के समय करें. खेत में बीमारी से ग्रसित बाली या पौधा दिखाई दे तो पूरा पौधा उखाड़ कर जला दें अन्यथा सेहतमंद पौधों को भी यह बीमारी अपनी चपेट में ले लेती है.

गेहूं में अमेरिकन सूंड़ी की रोकथाम के लिए कीटनाशक दवा का स्प्रे करें. गेहूं, सरसों व जौ में चेंपा या माहू कीट का हमला होने पर 400 मिलीलिटर मैटासिस्टाक्स या रोगर 30 ईसी को 300 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़कें. जिन स्थानों पर पत्तों में कांगियारी देखें, उन पौधों को काट कर जला दें.

चारे के लिए ज्वार, बाजरा, मक्का, सूडान घास वगैरह की बोआई इसी महीने करें. इसी महीने मेंथा की फसल में निराईगुड़ाई करें.

अगर अभी तक मेंथा की बोआई नहीं की गई है तो फौरन मेंथा की बोआई का काम पूरा करें.

बोआई के लिए उन्नतशील किस्में जैसे हिमालय, कुशल कोसी वगैरह को चुनें. ध्यान रहे कि बोआई के लिए इस्तेमाल होने वाली जड़ें सेहतमंद हों या सेहतमंद फसल से ली गई हों.

चने की फसल को पानी की जरूरत महसूस हो रही है तो हलकी सिंचाई करें. कीट व बीमारी से फसल को बचाने के लिए कारगर कीटनाशी दवा छिड़कें.

प्याज की फसल की निराईगुड़ाई भी इसी माह करें और जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें. हलदी व अदरक की बोआई भी इसी महीने पूरी कर लें. बैगन की रोपाई भी इसी महीने करें. पहले से रोपी गई फसल में निराईगुड़ाई करें व जरूरत के मुताबिक सिंचाई करते रहें.

अगर मटर के दाने वाली फसल तैयार हो गई है तो कटाई करें और हरी फलियों वाले खेत भी खाली हो गए हैं तो अगली फसल के लिए खेत तैयार करें.

आम के बागों को हौपर कीट की रोकथाम के लिए कारगर कीटनाशी दवा का स्प्रे करें, वहीं नीबू के पेड़ों को कैंकर बीमारी से बचाने के लिए कीटनाशी दवा का छिड़काव करें. पपीते की पौध तैयार करें. साथ ही, केले के बागों की सिंचाई करें. बीमारीग्रस्त पौधों को उखाड़ कर जला दें.

अंगूर की फसल की देखभाल अच्छी तरह करें. अंगूर के गुच्छों के फूल खिलते वक्त जिब्रेलिक एसिड के 50 पीपीएम वाले घोल में डुबाएं. तुलसी, गुलदाऊदी, सदाबहार वगैरह की बोआई भी इसी माह करें.

Mung Bean : ग्रीष्मकालीन मूंग की उन्नत खेती

Mung Bean  : दलहनी फसलों में मूंग का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है. इस में 24 फीसदी प्रोटीन के साथसाथ रेशा एवं लौह तत्त्व भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. आज जल्दी पकने वाली किस्मों एवं उच्च तापमान को सहन करने वाली प्रजातियों की उपलब्धता के कारण यह फायदेमंद सिद्ध हो रही है.

वर्तमान में सघन खेती, अंधाधुंध कीटनाशियों एवं असंतुलित खादों के इस्तेमाल से जमीनों की उर्वराशक्ति घट रही है. साथ ही, सभी फसलों की उत्पादकता में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है.

इस स्थिति से निबटने के लिए हरी खादों व दलहनी फसलों को अपनाएं और अपनी जमीनों की उर्वराशक्ति को बरकरार रखने व देश की बढ़ती हुई खाद्यान्न समस्याओं से निबटने में अपना भरपूर योगदान दें.

ग्रीष्मकालीन मूंग (Mung Bean) उगाने के फायदे

* अतिरिक्त आय

* कम समय के कारण धान व गेहूं फसल चक्र में उपयोगी

* खाली पड़े खेतों का सही उपयोग

* भूमि की उपजाऊ शक्ति में सुधार

* उगाने में कम खर्च

* पानी का सदुपयोग

* बीमारी व कीटों का कम प्रकोप

* भूमि कटाव से बचाव

* दलहन उत्पादन में वृद्धि

* विदेशी पैसों की बचत

उन्नत किस्में : मूंग की बिजाई के लिए के-851 (70-75 दिन) मुसकान (65 दिन), एसएमएल-668 (60-65 दिन), एमएच-421 (60 दिन) व नई किस्म एमएच-1142 (63-70 दिन) की खेती की जा सकती है जो धान व गेहूं चक्र के लिए बहुपयोगी पाई गई है.

भूमि : अच्छी मूंग की फसल लेने के लिए दोमट या रेतली दोमट भूमि सही रहती है. समय पर बिजाई वाले गेहूं से खाली खेतों में ग्रीष्मकालीन मूंग ली जा सकती है.

इस के अलावा धानगेहूं उगाने वाले क्षेत्रों में आलू, गन्ना व सरसों से खाली खेतों में भी मूंग की खेती की जा सकती है.

भूमि की तैयारी : गेहूं की कटाई के एक सप्ताह पहले रौनी/पलेवा करें और गेहूं की कटाई के तुरंत बाद 2-3 जुताई कर के खेत को अच्छी तरह तैयार करें.

इस बात का खास खयाल रखें कि खेत में बिजाई के समय समुचित नमी हो, ताकि समुचित जमाव हो सके.

बिजाई का सही समय : इस मौसम में वैसे तो मूंग की बिजाई फरवरी के दूसरे सप्ताह से मार्च तक की जाती है, लेकिन धानगेहूं बहुमूल्य क्षेत्रों में गेहूं की कटाई यदि 15 अप्रैल तक भी हो जाती है, तो इस के बाद भी मूंग की अच्छी पैदावार ली जा सकती है, क्योंकि ये किस्में 55-65 दिन में ही पक कर तैयार हो जाती हैं.

बीजोपचार : मृदाजनित रोगों से फसल को बचाने के लिए बोए जाने वाले बीजों को कैप्टान, थिरम या बाविस्टिन 3-4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से सुखा कर बीज तैयार करें.

दलहनी फसलें में राइजोबयिम (जीवाणु टीके) से बीज उपचार करने से बनने वाली गांठें अधिक मजबूत होती हैं, जो वायुमंडल में उपलब्ध नाइट्रोजन ले कर भूमि में जमा करती हैं. जीवाणु टीके से उपचार हेतु 50 ग्राम गुड़ को लगभग 250 मिलीलिटर पानी में घोल बना लें और छाया में पक्के फर्श पर बीज फैला कर हाथों से मिला दें, ताकि सभी बीजों पर गुड़ चिपक जाए.

बाद में इन बीजों पर जीवाणु टीके का पैकेट व घोल को गुड़ लगे बीजों पर डालें और हाथ से मिलाएं, जिस से सभी दानों पर कल्चर लग जाए. बीजों को छाया में सुखा कर बिजाई के काम में लाएं.

बीज की मात्रा : गरमी के मौसम में पौधों की बढ़वार पहले के मुकाबले कम हो जाती है, इसलिए अच्छी पैदावार लेने के लिए बीज अधिक डालें और फासला भी कम रखें.

पौधों की उचित संख्या के लिए बीज की मात्रा तकरीबन 10-12 किलो बीज प्रति एकड़ का प्रयोग करें.

खादों का प्रयोग : दलहनी फसलों को खाद की कम जरूरत होती है. बिजाई के समय तकरीबन 6-8 किलोग्राम शुद्ध नाइट्रोजन व 16 किलोग्राम फास्फोरस की जरूरत होती है जिसे 12-15 किलोग्राम यूरिया व 100 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट से पूरा किया जा सकता है.

अच्छी पैदावार लेने के लिए 10 किलो जिंक सल्फेट प्रति एकड़ का प्रयोग जरूर करें.

छंटाई : बिजाई के लगभग 2 सप्ताह बाद जब पौधे व्यवस्थित हो जाएं, तब पौधे से पौधे का फासला 8-10 सैंटीमीटर रख कर फालतू पौधे निकाल देने चाहिए. पौधों की सही बढ़वार के लिए छंटाई करना बहुत जरूरी है, ताकि हर एक पौधे को उचित हवा, नमी, सूर्य की रोशनी व पोषक तत्त्व पूरी मात्रा में मिल सकें.

मूंग (Mung Bean)

खरपतवार नियंत्रण : खरपतवार फसल के दुश्मन हैं, क्योंकि यह जमीन से नमी का शोषण करते है और फसल की बढ़वार में  बाधक साबित होते हैं. इसलिए पहली सिंचाई के बाद चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार उग आते हैं, जिन्हें कसोले से निकाल देना चाहिए.

पैंडीमेथिलीन नामक खरपतवारनाशी 1.25 किलोग्राम को 200 लिटर पानी में घोल बना कर बिजाई के तुरंत बाद छिड़काव करने से खरपतवारों पर काबू पाया जा सकता है.

सिंचाई : ग्रीष्मकालीन मूंग में सिर्फ 2 सिंचाई काफी रहती है. फसल में पहली सिंचाई 20-25 दिन बाद की जाती है, जबकि दूसरी सिंचाई 15-20 दिन के बाद करनी चाहिए.

ज्यादा सिंचाई करने से पौधों की बढ़वार अत्यधिक हो जाती है और फलियां कम लगती हैं और एकसाथ भी नहीं पकती.

कीड़े व बीमारी

ग्रीष्मकालीन मूंग में खरीफ मूंग की तुलना में कीड़ों का प्रकोप कम होता है. कभीकभार बालों वाली सुंडी, पत्ती छेदक, फली छेदक, हरा तेला व सफेद मक्खी आदि कीड़ों का प्रकोप देखने में आता है.

बालों वाली सुंडी की रोकथाम के लिए 200 मिली मोनोक्रोटोफास 36 एसएल या 500 मिली क्विनालफास का 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

हरा तेला व सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए 400 मिली मैलाथियान या 250 से 300 मिली रोगोर या मेटासिस्टोक्स का प्रयोग 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

बीमारी

ज्यादातर ग्रीष्मकालीन मूंग में बीमारियों का प्रकोप नहीं होता. कभीकभार पत्ती धब्बा रोग व पीला मौजेक रोग का प्रकोप देखने में आता है.

पत्ती धब्बा रोग : पत्तियों पर कोणदार व भूरे लाल रंग के धब्बे बन जाते हैं, जो बीच में धूसर या भूरे रंग के और सिरों पर लालजामुनी रंग के होते हैं.

इन धब्बों को रोकने के लिए ब्लिटौक्स-50 या इंडोफिल एम-45 की 600-800 ग्राम दवा की मात्रा 200 लिटर पानी में मिला कर प्रति एकड़ छिड़काव करें.

पीला मौजेक रोग : मूंग में लगने वाला यह एक भयानक रोग है और इस रोग को सफेद मक्खी फैलाती है. इस रोग से प्रभावित पौधों के पत्ते दूर से ही पीले नजर आने शुरू हो जाते हैं. रोग अधिक फैलने से पूरा पौधा पीला पड़ जाता है.

इस रोग को रोकने के लिए जब भी खेत में पीले पौधे दिखाई पड़ें, तो उन्हें तुरंत उखाड़ देना चाहिए, क्योंकि यह रोग सफेद मक्खी से फैलता है, इसलिए समयसमय पर इस के नियंत्रण के लिए रोगोर या मेटासिस्टोक्स कीटनाशी का 200 से 350 मिलीलिटर दवा का छिड़काव 100 से 200 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति एकड़ छिड़काव कर देना चाहिए.

उपज व कटाई

ग्रीष्मकालीन मूंग में बिजाई के लगभग 50-55 दिन बाद फलियां पकनी शुरू हो जाती है. पकने पर फलियों का रंग गहरा भूरा हो जाता है. एक एकड़ से तकरीबन 4 से 6 क्विंटल पैदावार मिल जाती है.

Toxic Chemicals : जमीन को जहरीला बनाते रसायन

इन खतरनाक रसायनों (Toxic Chemicals) के इस्तेमाल से धीरेधीरे जमीन की उर्वराशक्ति खत्म हो जाती है, जिस की वजह से पैदावार कम हो जाती है.

यही नहीं जहरीले रसायनों (Toxic Chemicals) के इस्तेमाल से कीटों की प्रतिरोधक कूवत बढ़ गई है और उन पर इन का अब कोई असर नहीं होता यानी कीट आसानी से इन रसायनों को हजम कर जाते हैं. रसायनों के इस तरह अंधाधुंध इस्तेमाल से जमीन के बंजर होने का खतरा बढ़ जाता है, साथ ही इस से इनसानों के स्वास्थ्य को भी नुकसान होता है.

इन रसायनों का असर फसलों पर भी पड़ रहा है. किसानों के स्वास्थ्य पर भी इन कीटनाशकों का असर देखने को मिल रहा है. हाल में ऐसी ही एक खबर महाराष्ट्र के यवतमाल जिले से सामने आई, जहां 18 किसानों और खेत में काम कर रहे मजदूरों की इन कीटनाशकों की चपेट में आ कर मौत हो गई. महीने भर में तकरीबन 500 मजदूर और किसान अस्पताल में भर्ती हो गए.

इस इलाके में कपास की खेती काफी मात्रा में होती है. इस बार कपास को गुलाबी कीड़ों ने काफी नुकसान पहुंचाया, जिन से फसल को बचाने के लिए किसानों ने मजबूरन प्रोफेनोफास जैसे जहरीले कीटनाशक का इस्तेमाल किया. इस छिड़काव के लिए उन्होंने चीन में बने पंपों का इस्तेमाल किया, जिन की कीमत कम थी और गति ज्यादा थी यानी दवा का छिड़काव ज्यादा हो रहा था. किसान व मजदूर इस छिड़काव के दौरान नंगे बदन, नंगे पांव बिना हाथों पर दस्ताने लगाए खेतों में काम कर रहे थे, जिस वजह से उन पर दवा का गंभीर असर हुआ. इस से कई किसानों की आंखें खराब हो गईं तो कई त्वचा रोग से पीडि़त हो गए.

नुकसान से बचने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा है, मगर ये जहरीले कीटनाशक देश के पर्यावरण को खराब कर रहे हैं. इन का तकरीबन एकतिहाई हिस्सा विभिन्न स्वास्थ्य कार्यक्रमों के तहत छिड़का जा रहा है.

60 के दशक में करीब साढ़े 6 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में कीटनाशकों का छिड़काव होता था, लेकिन 1988-89 के दौरान यह बढ़ कर 80 लाख हेक्टेयर हो गया और मौजूदा वक्त में इस का क्षेत्र तकरीबन डेढ़ करोड़ हेक्टेयर होने की आशंका है. ये कीटनाशक हवा, पानी, मिट्टी, जन स्वास्थ्य और जैविक विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं. दवाओं और रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है. दवाएं महज 10 से 15 फीसदी ही असरकारक होती हैं.

70 के दशक के आसपास कर्नाटक के मलनाड इलाके में एक अजीबोगरीब रोग फैला. लकवे से मिलतेजुलते इस रोग के शिकार अधिकतर मजदूर थे. इस रोग के कारण शुरू में तो उन की पिंडलियों और घुटने के जोड़ों में दर्द की शिकायत हुई, लेकिन धीरेधीरे रोगी खड़ा भी नहीं हो पाया.

साल 1975 में हैदराबाद के नेशनल इंस्टिट्यूट आफ न्यूट्रीशन ने चेताया कि ‘ऐंडमिक एमिलिइन आर्थ्रराइटिस आफ मलनाड’ नामक इस बीमारी का कारण ऐसे धान के खेतों में पैदा हुई मछली व केकड़े खाना है, जहां जहरीले कीटनाशकों का इस्तेमाल हुआ हो. इस के बावजूद वहां धान के खेतों में पैराशिया और एल्ड्रिन नामक कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल जारी है, जबकि बीमारी 1 हजार से ज्यादा गांवों को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है.

रसायन (Chemicals)

इन दिनों बेहतर किस्म के ‘रूपाली’ और ‘रश्मि’ किस्म के टमाटर सब से ज्यादा इस्तेमाल किए जा रहे हैं. इन प्रजातियों को सब से ज्यादा नुकसान हेल्योशिस अर्मिजरा नामक कीड़े से होता है.

टमाटर में सुराख करने वाले इस कीड़े की वजह से आधी फसल बरबाद हो जाती है. इन कीड़ों को मारने के लिए बाजार में रोग हाल्ट, सुपर किलर, रेपलीन और चैलेंजर नामक दवाएं मिलती हैं.

इन दवाओं पर बाकायदा निर्देश है कि इन का इस्तेमाल फसल पर 3 या 4 बार किया जाए, लेकिन किसान 20-25 बार इन का छिड़काव करते हैं, जिस की वजह से इन्हें खाने से अधिकांश लोग इन की चपेट में आ जाते हैं और गंभीर बीमारियां उन्हें घेर लेती हैं. इस की पुष्टि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा की जा चुकी है.

इन दिनों बाजार में मिल रही चमचमाती सब्जियों में भिंडी व बैगन प्रमुख हैं. ये देखने में जितने खूबसूरत व ताजे लगते हैं, खाने में उतने ही जहरीले हैं. बैगन को चमकदार बनाने के लिए उसे फोलिडज नाम के खतरनाक रसायन में डुबोया जाता है.

इसी तरह भिंडी को छेद करने वाले कीड़ों से बचाने के लिए एक जहरीली दवा का छिड़काव किया जाता है. ऐसी कीटनाशकयुक्त सब्जियों का लगातार इस्तेमाल करने से सांस की नली के बंद होने की आशंका रहती है.

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के फार्माकोलौजी विभाग के एक अध्ययन से पता चला है कि काक्रोच मारने वाली दवाओं का कुप्रभाव सब से ज्यादा 14 साल से कम उम्र के बच्चों पर होता है. ग्रीन पीस इंडिया की एक रिपोर्ट बताती है कि कीटनाशक बच्चों के दिमाग को घुन की तरह खोखला कर रहे हैं. संस्था ने कीटनाशकों के असर का बच्चों के मानसिक विकास पर अध्ययन करने के लिए देश के 6 अलगअलग राज्यों के जिलों में शोध किया. इस में पाया गया कि इन कीटनाशकों के अंधाधुंध असुरक्षित इस्तेमाल के कारण भोजन और पानी में रासायनिक जहर की मात्रा बढ़ रही है, जिस की वजह से इन का सेवन करने वाले बच्चों का मानसिक विकास काफी धीमा है.

इन जहरीले रसायनों के इस्तेमाल से जमीन की उर्वराशक्ति भी नष्ट हो रही है. विषैले और जनजीवन के लिए खतरा बन चुके कीटनाशकों पर विकसित देशों ने अपने यहां पाबंदी लगा दी है, लेकिन अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए इन्हें भारत में भेजना जारी रखा है.

साल 1993 में केंद्र सरकार ने 12 कीटनाशकों पर पूरी तरह रोक लगा दी थी और 13 कीटनाशकों के इस्तेमाल पर कुछ पाबंदियों की औपचारिकता निभाई थी. इन में सल्फास के नाम से कुख्यात एल्युमीनियम फास्फाइड भी है. आज सल्फास खा कर मरने वालों की तादाद काफी ज्यादा हो गई है. आएदिन ऐसी खबरें अखबारों की सुर्खियां बनती हैं. डीडीटी और बीएचसी जैसे बहुप्रचलित कीटनाशक भी प्रतिबंधित हैं.

रसायन (Chemicals)

सरकार ने भले ही इन दवाओं की बिक्री पर प्रतिबंध सिर्फ कागजों में लगाया हो, लेकिन इन का उत्पादन आज भी बेखौफ जारी है. सरकारी महकमों के लिए खरीद के नाम पर इन के कारखानों के लाइसेंस धड़ल्ले से जारी किए जा रहे हैं.

अफसोस की बात यह है कि देश में हरित क्रांति का झंडा लहराने वालों ने हमारे खेतों और खाद्यान्नों को विषैले रसायनों का गुलाम बना दिया है. इस से पैदावार जरूर बढ़ी है, लेकिन इन से जल्दी ही जमीन बंजर हो जाएगी. साथ ही इस से खेती की लागत बढ़ रही है और स्वास्थ्य पर खर्चे में बढ़ोतरी हो रही है. हमारा देश युगों से खेती करता आ रहा है.

हमारे पास कम लागत में अच्छी फसल उगाने के पारंपरिक तरीके हैं, लेकिन यह ज्ञान जरूरत तो पूरी कर सकता है, लेकिन ज्यादा पाने की इच्छा पूरी नहीं हो सकती.

हमारे पारंपरिक बीज, गोबर की खाद, नीम, गौमूत्र जैसे प्राकृतिक तत्त्वों से भले ही कम फसल पैदा होगी, लेकिन यह तय है कि इन जानलेवा रसायनों से मुक्ति मिल जाएगी और जहर नहीं उपजेगा.

Nematodes : नीम (Neem) से निमेटोड का समाधान

निमेटोड (Nematodes) एक तरह का बहुत ही सूक्ष्म धागानुमा कीट होता है, जो जमीन के भीतर पाया जाता है. वैसे, निमेटोड (Nematodes) कई तरह के होते हैं. हर किस्म के निमेटोड (Nematodes) नामक कीड़े फसलों को बरबाद करने के लिए कुख्यात हैं. ये वर्षों तक मिट्टी के नीचे दबे रह सकते हैं और पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. ये पौध की जड़ों का रस चूसते हैं, जिस के कारण पौधे को भूमि से खाद, पानी या पोषक तत्त्व पूरी मात्रा में नहीं मिल पाते हैं और पौधे की बढ़वार रुक जाती है.

वहीं दूसरी ओर निमेटोड (Nematodes) लगने से जड़ में गांठ बन जाती है, जिस से पौधे का विकास रुक जाता है और पौधा मर भी सकता है.

संसार की हर फसल पर निमेटोड (Nematodes) का प्रकोप होता है. जड़ गांठ रोग, पुट्टी रोग, नीबू का सूखा रोग, जड़ गलन रोग, जड़ फफोला रोग वगैरह प्रमुख हैं.

कीड़े द्वारा ग्रसित होने वाली फसलें

निमेटोड (Nematodes) द्वारा प्रभावित होने वाली मुख्य फसलें गेहूं, टमाटर, मिर्च, बैगन, भिंडी, परवल, धान इत्यादि हैं. फल में अमरूद, सीताफल, अनार, नीबू, किन्नू, अंगूर व समस्त प्रकार के फल व अन्य पौधे हैं.

कैसे पहचानें?

आप के पौधे बढ़ न पा रहे हों, पौधे सूख कर मुरझा जाते हैं और उन की जड़ों में गांठ पड़ गई हो व उन में फल और फूल की संख्या बहुत कम हो गई हो.

जैविक समाधान व पौध संरक्षण 

मिट्टी में रसायन छिड़क कर मारने का प्रयास महंगा ही नहीं, बल्कि निष्प्रभावी भी होता है. निमेटोड (Nematodes) और दीमक आदि कीड़ों को प्रभावी रूप से समाप्त करने के लिए नीम (Neem) खाद पाउडर का इस्तेमाल ही जरूरी है. इस के लिए नीम खली का तेलयुक्त होना आवश्यक है.

होता यह है कि नीम (Neem) खाद या नीम (Neem) खली के इस्तेमाल से निमेटोड (Nematodes) बनना रुक जाते हैं. नीम (Neem) खाद के इस्तेमाल से उपज में 40 फीसदी तक की वृद्धि भी होती है और फूलों का ज्यादा बनना और फलों की संख्या भी बढ़ती है. साथ ही, फल अधिक स्वादिष्ठ, चमकदार एवं बड़े आकार के साथसाथ और ज्यादा वजनदार बनते है.

फसलों के लिए उपचार

गरमियों के मौसम में मिट्टी की गहरी जुताई करें और एक हफ्ते के लिए खुला छोड़ दें. बोआई से पहले नीम (Neem) खली 2 क्विंटल प्रति एकड़ के हिसाब से डाल कर फिर से जुताई करें. इस के बाद ही बीज बोएं.

फलों में उपचार

अनार, नीबू, किन्नू, अंगूर व समस्त प्रकार के फलों व अन्य पौधे के रोपण के समय एक मीटर गहरा गड्ढा खोद कर नीम (Neem) खली व सड़े गोबर की खाद या बकरी की मिंगन आदि मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर पौध रोपण करें.

अगर पौधे पहले से लगा रखे हैं तो भी पौध की उम्र के हिसाब से नीम (Neem) खाद की मात्रा संतुलित करें. 1 से 2 साल तक के पौधे में 1 किलोग्राम व 3 से 5 साल तक के पौधे में 2 से 3 किलोग्राम प्रति पौधे के हिसाब से डाल कर पौधे की जड़ों के पास थाला बना कर मिट्टी में अच्छी तरह मिला कर पानी दें और नीम तेल घुलनशील भी ड्रिप के साथ दें.

नीम (Neem) खाद या नीम (Neem) खली व घुलनशील नीम (Neem) तेल की खरीद की अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें : अभिषेक गर्ग, 9993441010, 9826721248.

Vermi Compost : कमाई के हैं इस में मौके अपार

Vermi Compost : खेती में अंगरेजी खाद के साथ ही जहरीली दवाओं, रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से पैदावार तो बढ़ी, लेकिन इन का असर हवा, पानी, मिट्टी समेत पूरे माहौल पर पड़ा है. इन्हें जल्दीजल्दी और ज्यादा मात्रा में डालने से उपज का स्वाद, गुण, इनसानी सेहत व समूची खाद्य श्रंखला गड़बड़ा गई है. धरती थकहार कर जहरीली व बंजर बन गई है. अंगरेजी खाद व दवाएं अब अपना असर खोने लगी हैं, इसलिए दुनियाभर के वैज्ञानिक अब नए रास्ते निकालने में लगे हुए हैं.

अंगरेजी खाद व कैमिकल्स से तोबा कर के अब देशी कंपोस्ट खाद को तरजीह दी जा रही है. कंपोस्ट से उगाए गए और्गैनिक फल, सब्जी, दालों व अनाज आदि की मांग, जागरूकता व बाजार कीमत लगातार बढ़ रही है.

जाहिर है कि यह सिलसिला आगे और तेजी से बढ़ेगा. ऐसे में वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) बना कर बेचना कमाई का चोखा धंधा है.

कंपोस्ट खाद की मांग गांव के खेतों में ही नहीं, बल्कि कसबों और शहरों की नर्सरियों व कालोनियों में भी तेजी से बढ़ रही है. दरअसल, बहुत से लोग अंगरेजी खाद के असर से बचने के लिए अपने गमलों, किचन गार्डन आदि में अब कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल करने लगे हैं. सेहत के लिए जागरूक हो रहे लोग अब घर की छतों पर भी जैविक खाद से फल, फूल व सब्जियां आदि उगाने लगे हैं.

उत्तर भारत के मेरठ, नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गांव व दिल्ली में भी आंगन, दीवारों व छतों पर हरियाली रखने का चलन बढ़ रहा है, लेकिन इस मामले में बैंगलुरु पूरे देश में पहले स्थान पर है. वहां के बहुत से लोग कंपोस्ट की मदद से छतों पर और्गैनिक सब्जियां उगा कर दूसरे देशों को निर्यात कर के अच्छीखासी कमाई कर रहे हैं. वे अपनी उपज की क्वालिटी सुधारने के लिए वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) का इस्तेमाल करते हैं.

वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

क्या है वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

घास, पत्ती, मिट्टी व गोबर के ढेर में कुछ केंचुए छोड़े जाते हैं. वे उसे खा कर अपना जो मल निकालते हैं, उसे वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) कहते हैं. इस में नाइट्रोजन, सल्फर व पोटाश आदि पोषक तत्त्व होने के कारण यह खाद जमीन की सेहत व खेतीबागबानी के लिए बहुत ही फायदेमंद होती है. साथ ही, इसे तैयार करने में बदबू भी नहीं आती. कचरे का निबटारा भी आसानी से हो जाता है.

कचरे से कंपोस्ट बनाने का चलन सदियों पुराना है, लेकिन पहले गंवई इलाकों में लोग कंपोस्ट खाद बनाने के लिए कूड़ेकचरे को गड्ढे में दबा कर छोड़ देते थे. बहुत से लोग अब भी यही करते हैं. इस तरह से कंपोस्ट तैयार होने में तकरीबन 2 साल का वक्त लगता है, जबकि वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) 2-3 महीने में तैयार हो जाती है. 100 वर्गफुट जगह में 1 टन वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) बन जाती है, जो आधा हेक्टेयर जमीन में डालने के लिए काफी है.

इस काम की खासीयत यह है कि इसे घर के पिछवाड़े में छोटे पैमाने से ले कर बहुत बड़े पैमाने तक किया जा सकता है. वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) में बतौर कच्चे माल के तौर पर काम आने वाला कचरा खेती, बागबानी, होटलों, कालोनियों, पार्कों, केंचुए वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) बनाने वालों से व गोबर डेयरी व गौशालाओं आदि से मिल जाता है. विशेषज्ञों के अनुसार आइसेनियाफेटिडा किस्म के लाल केंचुए कंपोस्ट के लिए सब से बढि़या हैं, क्योंकि ये हर मौसम को आराम से सह लेते हैं.

1-2 किलोग्राम के पैकेट पौलीथिन की पन्नी में व बड़े 5,10 व 20 किलोग्राम को बैग या बोरे में पैक करें. अपने नाम, पते, ब्रांड और वजन आदि का लेबल लगा कर सप्लाई करें. बिक्री से पहले नियमकायदों की जानकारी के लिए अपने जिले के कृषि अधिकारी से सलाह ले सकते हैं.

वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost)

वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) ऐसे बनाएं

वर्तमान में कूड़ाकचरा जलाने से अच्छा है उसे वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) बनाना व उस से पैसे कमाना. इस के लिए समतल जगह पर रेत, मिट्टी की 6 इंची तह लगाएं. कचरे से कांच, धातु व पत्थर आदि निकाल कर अलग कर दें. घास, पत्ती, फल, सब्जियों आदि के गीले कचरे पर गोबर की तह लगा कर केंचुए छोड़ें. उन के ऊपर फिर गोबर व हरा कचरा डाल कर ढेर को पुआल, टाट या गन्ने की सूखी पत्तियों से ढक दें, ताकि सीधी व तेज धूप से नुकसान न हो.

इस के बाद रोज हजारे या स्प्रेयर से हलका पानी डालते रहें, ताकि थोड़ी नमी बनी रहे. हफ्ते में एक बार सावधानी से ढेर को पलट कर ऊपरनीचे कर दें. एक माह बाद केंचुए बढ़ने पर कचरे की और भी तह लगा सकते हैं. गोबर व हरे कचरे की मात्रा तकरीबन आधी आधी रख सकते हैं. साथ ही नमी भी 50 फीसदी से ज्यादा न हो.

वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) खाद को उलटतेपलटते रहें और अंत में छानते वक्त सावधानी बरतें ताकि केंचुओं का नुकसान न हो. डेढ़ माह बाद पानी छिड़कना बंद कर दें. अब आप देखेंगे कि धीरेधीरे कचरा बदल कर हलकी, भुरभुरी व कत्थई रंग की वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) में बदलने लगी है.

Micro-Irrigation : ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ माइक्रोइरीगेशन योजना

Micro-Irrigation : आजकल किसानों के सामने खेती में सिंचाई एक बड़ी समस्या है. दिनोंदिन पानी का लैवल नीचे पहुंचता जा रहा है. ऐसे समय में हमें खेती में कम पानी से सिंचाई हो, ऐसी तकनीक की दरकार है. इसी संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा सिंचाई के लिए माइक्रोइरीगेशन (Micro-Irrigation) योजना ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ के नाम से योजना चलाई जा रही है. राष्ट्रीय कृषि विकास योजना भी इस योजना के अंतर्गत ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी तरीके से अनेक फसलों में अपनाने पर जोर दे रहा है. इस सिंचाई पद्धति से 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत की जा सकती है.

हमारे देश में किसानों के विकास के लिए सरकार द्वारा अनेक कृषि योजनाएं चलाई जा रही हैं. चाहे बात खेत की बोआई की हो या खेत की सिंचाई की हो, फसल की निराईगुड़ाई की हो, फसल की छंटाई की हो, उस की गहाई की हो या खेत तैयार करने की हो, इन सब के बावजूद खेती के अनेक काम होते हैं, जिस के लिए अनेक आधुनिक तकनीकी पर आधारित कृषि यंत्र हैं, जिन के इस्तेमाल से न केवल फसल से अच्छी उपज मिलती है, बल्कि समय और मेहनत भी कम लगती है.

आजकल किसानों के सामने खादबीज के अलावा सिंचाई भी एक बड़ी समस्या है. दिनोंदिन पानी का लैवल नीचे पहुंचता जा रहा है. ऐसे समय में हमें खेती में कम पानी से सिंचाई हो, ऐसी तकनीकों की दरकार है.

इसी संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा सिंचाई के लिए माइक्रोइरीगेशन योजना ‘पर ड्रौप मोर क्रौप’ के नाम से योजना चलाई जा रही है. इसे सूक्ष्म सिंचाई तकनीक भी कहा जाता है.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना भी इस योजना के अंतर्गत ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली को प्रभावी तरीके से अनेक फसलों में अपनाने पर जोर दे रहा है. इस सिंचाई पद्धति से 40 से 50 फीसदी तक पानी की बचत की जा सकती है और 35 से 40 फीसदी तक अधिक पैदावार भी हासिल की जा सकती है.

यूपीएमआईपी पोर्टल से करें रजिस्टर

वर्तमान में इस योजना का संचालन यूपीएमआईपी पोर्टल के जरीए किया जा रहा है. जो किसान इस योजना का लाभ लेना चाहता है, वह  पोर्टल पर रजिस्टर कर सूक्ष्म सिंचाई पद्धति लगा सकते हैं.

योजना प्रभावी तरीके से लागू करने के लिए लाभार्थी किसानों के प्रक्षेत्रों (खेत) पर लगाई गई इस यूनिट का इंस्पैक्शन (जांच) थर्ड पार्टी द्वारा किया जाता है, जिस से सिंचाई यूनिट का बीमा भी किया जा सके.

ड्रिप सिंचाई पद्धति के लिए चुनी गईं फसलें

बागबानी फसल : फल उद्यान (फलों के बाग) : आम, अमरूद, आंवला, नीबू, बेल, बेर, अनार, अंगूर, आड़ू, लोकाट, आलूबुखारा, नाशपाती, पपीता, केला आदि.

सब्जी फसल : टमाटर, बैंगन, भिंडी, मिर्च, शिमला मिर्च, गोभीवर्गीय एवं कद्दूवर्गीय सब्जियां.

फूल और औषधीय फसल : खुशबूदार और औषधीय फसलों में अनेक तरह के फूलों की खेती जैसे ग्लैडियोलस, गुलाब, रजनीगंधा, सगंध पौधे और अनेक औषधीय फसलें आती हैं. इन फसलों के अलावा आलू, गन्ना और अनेक कृषि फसलें भी हैं, जो इस ड्रिप सिंचाई की योजना के अंतर्गत आती हैं.

स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति

इस में मुख्य रूप से मटर, आलू, गाजर, पत्तेदार सब्जियां और कृषि फसलों में माइक्रो, मिनी, पोर्टेबल, सैमी, परमानैंट एवं रेनगन स्प्रिंकलर का इस्तेमाल होता है.

सिंचाई यंत्र पर सब्सिडी का पैमाना

माइक्रोइरीगेशन योजना के तहत किसान को इस योजना का लाभ उस की श्रेणी के अनुसार मिलता है. इस के लिए राज्य सरकार और केंद्र सरकार अपनेअपने हिस्से की सब्सिडी किसान को देती है. शेष राशि जो लाभार्थी को उठानी होती है, वह काफी कम होती है. विस्तार से सारणी में जानकारी दी गई है.

Kesarbati : केसरबाटी – मेवों का स्वाद चीनी का अंदाज

Kesarbati: आजकल मिठाई बनाने और उसे पेश करने का अंदाज अलग होने लगा है. यही वजह है कि मिठाई की दुकानों के मालिक और मिठाई बनाने के कारीगर कुछ न कुछ नया करने की कोशिश में रहते हैं. इस तरह के ज्यादातर प्रयोग खोए और मेवों के साथ किए जाते हैं. खोया जब मेवों के साथ मिल जात है, तो उस से तैयार मिठाई की लाइफ और कीमत दोनों बढ़ जाती हैं. ग्राहक भी नए तरीके से तैयार की गई मिठाई को खूब पसंद करते हैं. ऐसी ही एक मिठाई केसरबाटी (Kesarbati) है. मेवों, खोए और चीनी से तैयार होने वाली यह मिठाई अपने नाम से ही कुछ अलग लगती है.

लखनऊ की छप्पन भोग मिठाई के मालिक विनोद गुप्ता कहते हैं, ‘बाटी और चोखा उत्तर प्रदेश और बिहार का बहुत मशहूर पकवान है. उसी में से बाटी के आकार को ले कर हम ने केसरबाटी तैयार की है, जो आकार में बाटी की तरह दिखती है. इस के अंदर मेवे भरे होते हैं. बाटी को सेहत के लिए कारगर बनाने के लिए केसर का इस्तेमाल करते हैं. चीनी के छोटेछोटे दाने ले कर उन को केसर के रंग में रंग देते हैं. तैयार बाटी के ऊपर रंगे चीनी के दानों को चिपका दिया जाता है, जिस से बाटी देखने में पूरी तरह से केसरिया नजर आने लगती है. इस के जरीए हम ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की बाटी को अलग स्वाद में पेश करने की बेहद कामयाब कोशिश की है.’

केसरबाटी का स्वाद ले चुकी उमा आदिल कहती हैं, ‘केसरबाटी में केसर की भीनीभीनी खुशबू के साथसाथ खोए और मेवों का स्वाद मिलता है. सब से अच्छे बाटी के ऊपर लगे चीनी के दाने लगते हैं. वे इस मिठाई को पूरी तरह से अलग कर देते हैं. उसे खा कर लगता है जैसे हम मेवों से भरपूर कोई बहुत उम्दा मिठाई खा रहे हों. सब से अच्छी बात यह है कि यह दूसरी मिठाइयों के मुकाबले काफी किफायती है. मेवे मिले होने के कारण इसे खोऐ की दूसरी मिठाइयों के मुकाबले ज्यादा दिनों तक रख सकते हैं.’

कैसे बनती है केसरबाटी

केसरबाटी को बनाने के लिए सब से पहले कलाकंद बरफी बना लेते हैं. इस के बाद छोटे दाने की सफेद रंग वाली साफ चीनी लेते हैं. चीनी को केसर के रंग में रंग देते हैं. केसर के रंग के लिए केसर का ही इस्तेमाल करें. केसरिया खाने वाले रंग का इस्तेमाल न करें. अब कलाकंद बरफी को बाटी का आकार देते हुए छोटेछोटे गोलगोल आकार में बना लेते हैं. कुछ बारीक कटे मेवे अंदर रख कर बाटी को बंद कर देते हैं. ऊपर से चीनी के केसरिया दाने चिपका देते हैं. हाथ से दबा कर बाटी के ऊपर गड्ढा सा बना देते हैं. गड्ढे में पिस्ते और बादाम के टुकड़े काट कर रख देते हैं.

विनोद गुप्ता कहते हैं, ‘आजकल लोगों को उन मिठाइयों का स्वाद ज्यादा पसंद आ रहा है, जो कम मीठी होती हैं. केसरबाटी में चीनी का इस्तेमाल बेहद कम किया जाता है. मेवों के मिलने से चीनी की मिठास कम हो जाती है. अपने नाम और आकार के अलावा केसरबाटी देखने में बहुत अच्छी लगती है, इसीलिए इस को लोग खूब पसंद कर रहे हैं.

इस की कीमत करीब 500 रुपए प्रति किलोग्राम है. अपने खास नाम की वजह से यह लोगों को आसानी से याद रहती है.’

फूलों की खुशबू (Fragrance of Flowers) से खिला किसान का भविष्य

मध्य प्रदेश के गांव करसरा के किसान रामसुजान कुशवाहा की कहानी संघर्ष, मेहनत और उम्मीदों की अनोखी मिसाल है. छोटे से गांव से बड़े सपने देखने वाले रामसुजान का जीवन संघर्षों और कठिनाइयों से भरा रहा, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी. खेती, परिवार और विपरीत हालात के बीच उन की जद्दोजेहद प्रेरणा देती है.

रामसुजान का गांव सतना जिला मुख्यालय से तकरीबन 28 किलोमीटर दूर सतना पन्ना स्टेट हाईवे पर बसा हुआ है. उन्होंने अपनी ससुराल से लिया गया कर्ज चुकाने के लिए उन्हीं की जमीन पर खेती कर के यह मुकाम पाया है.

शुरुआत का संघर्ष

रामसुजान कुशवाह का जीवन साधारण किसान परिवार में शुरू हुआ. उन के पिता  लल्लू कुशवाहा खुद संघर्षशील किसान थे. रामसुजान के पास अपनी जमीन नहीं थी, इसलिए उन्होंने 2 एकड़ जमीन ठेके पर ले कर खेती शुरू की. सालाना 12,000 रुपए ठेका भर कर उन्होंने आलू, प्याज और टमाटर की खेती की.

रामसुजान बताते हैं, ‘‘हमारे पास जमीन नहीं थी, लेकिन मेहनत करने का हौसला था. मैं ने सोचा कि खेती ही हमारा सहारा है, इसलिए आलू, टमाटर और प्याज की खेती शुरू की.’’ रामसुजान कुशवाहा ने साल 2018 में  पहली बार प्याज की खेती में हाथ आजमाया.

2 एकड़ में 15,000 रुपए लगा कर उन्होंने 100 क्विंटल प्याज का उत्पादन किया. यह उन का पहला बड़ा मुनाफा था, जिस में उन्होंने 50,000 रुपए कमाए. लेकिन अगले साल हालात बदल गए.

साल 2019 में प्याज की खेती में लागत बढ़ गई. बीज, कटाई, निदाई और खुदाई पर 30,000 रुपए खर्च हुए, लेकिन पैदावार घट गई. उन्हें 50 क्विंटल प्याज के उत्पादन से 20,000 रुपए का घाटा हुआ. यह पहली बार था, जब उन्होंने खेती में इतना बड़ा नुकसान देखा था.

दुर्घटना और माली परेशानी

साल 2020 रामसुजान कुशवाहा की जिंदगी का सब से कठिन वर्ष साबित हुआ. एक दिन जब वह प्याज ले कर सतना बाजार जा रहे थे, तो उन की गाड़ी करसरा के पास ट्रक से टकरा गई. इस दुर्घटना में उन की पसलियां टूट गईं और इलाज में एक लाख रुपए से ज्यादा का खर्च आया.

माली तंगी के इस दौर में उन के ससुर ने उन की मदद की, लेकिन जो पैसे दिए थे, वे कर्ज के रूप में दिए थे. इसे चुकाने के लिए ससुर की जमीन में ही रामसुजान ने खेती शुरू कर दी. ससुर भगवती प्रसाद का खेत सतना शहर से सटे महदेवा गांव में है. अब यह गांव सतना नगरनिगम का वार्ड नंबर 41 है.

रामसुजान बताते हैं, ‘‘एक पल को लगा कि सब खत्म हो गया. पैसे नहीं थे, लेकिन ससुरजी ने मदद (कर्ज)  की और परिवार ने भी सहायता की. ससुर ने जो पैसे दिए, उन्हें आज नहीं तो कल चुकाना ही था, सो काम कर के चुका रहे हैं. अब यह कर्ज हम चुका चुके हैं, पर और कोई काम नहीं है तो उन्हीं का खेत ठेके पर ले कर काम कर रहे हैं.’’

ससुर भगवती प्रसाद रेलवे में नौकरी करते थे. वे अब रिटायर हो चुके हैं. वे बताते हैं, ‘‘दामाद की बीमारी में कर्ज ले कर ही पैसा दिया था. रेलवे की जो नौकरी थी, उस से बहुत पहले ही रिटायर हो गया था, इसलिए अपनी गारंटी पर पैसा ले कर दिया था, उसे तो चुकाना ही था. तो खेत में काम कर के दामाद ने वे पैसे चुका दिए हैं. अब तो जो कमाई आ रही है, उसी की है. हम बस खेत का किराया, जो कि 12,000 रुपए प्रति सीजन है, ले लेते हैं.’’

फूलों की खेती से उम्मीद की किरण

साल 2022 में रामसुजान कुशवाहा ने फूलों की खेती में कदम रखा. उन्होंने आधा एकड़ में गेंदे, गुलाब और सेवंती के पौधे लगाए. फूलों ने उन की जिंदगी में नई रोशनी बिखेरी.

रामसुजान ने बताया, ‘‘गेंदे के फूल से हमें उम्मीद की नई किरण मिली. हर सीजन में 50,000 रुपए तक की कमाई होने लगी. गुलाब और सेवंती भी अच्छी आमदनी देने लगे.’’

फूलों की खुशबू (Fragrance of Flowers)

गेंदे के 100 पौधे हर रोज लगभग 150-200 रुपए की कमाई देने लगे. एक सीजन में 50,000 रुपए की आमदनी हुई. नवंबर और अप्रैल में बोआई करने के बाद गेंदे के फूल 4 महीनों में तैयार हो जाते हैं. गुलाब और सेवंती ने भी अच्छी आमदनी दी है. गुलाब के पौधों से प्रति किलोग्राम 100 रुपए और सेवंती से प्रति किलोग्राम 30 रुपए की कमाई होने लगी.

उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग के उद्यानिकी अधिकारी नरेंद्र सिंह ने सतना जिले का डाटा शेयर करते हुए बताया कि साल 2022-23 का फाइनल डाटा आया है, उस के आधार पर 1744 हेक्टेयर में फूलों की खेती होती है. इस में 14192.5 मीट्रिक टन फूलों का उत्पादन हुआ है. इस में 684 हेक्टेयर में अकेले गेंदा फूल की खेती दर्ज की गई है.

इस रकबे में 8130 मीट्रिक टन गेंदा फूल का उत्पादन हुआ है. इस के अलावा ग्लैडियोलस 23 हेक्टेयर में 281.5 मीट्रिक टन, गुलाब 238 हेक्टेयर में 2048 मीट्रिक टन, ट्यूब रोज 11 हेक्टेयर में 100 मीट्रिक टन और अन्य फूल 788 हेक्टेयर में 3633 मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ है.

फूलों की खेती में पनपे सपने और उम्मीदें

आज रामसुजान और उन की पत्नी मुन्नी कुशवाहा अपनी मेहनत और दृढ़ता से आगे बढ़ रहे हैं. उन के परिवार की माली हालत धीरेधीरे सुधर रही है. गांव के 2 एकड़ खेतों और उन की मेहनत ने उन्हें अपने सपनों की ओर बढ़ने का साहस दिया है.

रामसुजान अपनी कमाई के बारे में कहते हैं, ‘‘अब फूलों की खेती से एक लाख रुपए तक आ जाते हैं. आलू और प्याज से 30 से 40 हजार रुपए और अन्य फसलों से भी 20-30 हजार रुपए मिल जाते हैं. कुलमिला कर हमारी सालाना आय 1.5 से 2 लाख रुपए तक पहुंच जाती है.’’

रामसुजान का मानना है कि जिंदगी में कितनी भी मुश्किलें आएं, उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए. उन की कहानी संघर्षशील किसानों के लिए प्रेरणा है, जो कम संसाधनों में बड़े सपने देखते हैं और उन्हें पूरा करने के लिए बड़ी शिद्दत से मेहनत करते हैं.

भावनात्मक पहलू

रामसुजान कुशवाहा की जिंदगी हमें यह सिखाती है कि असफलताएं जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन सच्चा योद्धा वही है, जो हर गिरावट के बाद फिर खड़ा हो जाए. उन की दुर्घटना, माली तंगी, और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच उन की मेहनत और हौसला काबिलेतारीफ है.

रामसुजान के खेत आज सिर्फ फसल ही नहीं, बल्कि उम्मीद और सपनों की फसल उगा रहे हैं. उन के फूलों की खुशबू उन की मेहनत और जज्बे की कहानी सुनाती है.

रामसुजान कहते हैं, ‘‘खेती में घाटा भी होता है और मुनाफा भी. सब से जरूरी है मेहनत और उम्मीद. मैं ने मुश्किल समय में भी अपने खेतों को नहीं छोड़ा और आज मेरे खेत हमारी उम्मीदों का सहारा बने हैं.’’

प्रदेश चौथे नंबर पर

रामसुजान की कहानी भारत में फूलों की खेती के बढ़ते महत्त्व को दर्शाती है. राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय बागबानी डाटाबेस के अनुसार, साल 2023-24 के दौरान भारत में पुष्पकृषि का क्षेत्र 285 हजार हेक्टेयर था, जिस में 2,284 हजार टन शिथिल फूलों  और 947 हजार टन कटे फूलों का उत्पादन हुआ.

मध्य प्रदेश में उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग के आंकड़ों के अनुसार, साल 2021-22 में 35,720 हेक्टेयर भूमि पर फूलों की खेती हुई, जिस से 4,12,730 मीट्रिक टन उत्पादन हुआ, वहीं साल 2023-24 में यह आंकड़ा 41,049 हेक्टेयर और 4,71,584 मीट्रिक टन तक पहुंच गया, जिस से 4 सालों में 58,854 मीट्रिक टन उत्पादन की वृद्धि दर्ज की गई.

मध्य प्रदेश अब फूलों के उत्पादन में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के बाद देश में चौथे स्थान पर है.

औषधीय फसल चंद्रशूर (Medicinal Crop Chandrashoor) की उन्नत खेती

सेहत के लिहाज से फायदेमंद मानी जाने वाली कई फसलें खेती न किए जाने से विलुप्त होने के कगार पर हैं. इन में कुछ ऐसी फसलें हैं, जो न केवल अपने औषधीय गुणों के चलते खास पहचान रखती हैं, बल्कि इन में उपलब्ध पोषक गुण व्यावसयिक नजरिए से भी बेहद खास माने जाते हैं.

ऐसी ही एक फसल का नाम है चंद्रशूर. इसे हालिम, हलम, असालिया, रिसालिया, असारिया, हालू, अशेलियो, चमशूर, चनसूर, चंद्रिका, आरिया, अलिदा, गार्डन-कैस,  लेपीडियम सेटाईवम आदि नामों से भी जाना जाता है.

इस औषधीय फसल की खेती पहले उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में व्यावसायिक स्तर पर खूब होती थी, लेकिन बीते 2 दशकों में इस की खेती सिमट कर छिटपुट रूप में होती है.

चंद्रशूर का औषधीय महत्त्व 

आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में चंद्रशूर के बीज का टूटी हड्डी को जोड़ने, पाचन प्रणाली और मन को शांत करने, सांस संबंधी रोगों, खूनी बवासीर, कैंसर, अस्थमा, सूजन, मांसपेशियों के दर्द आदि में प्रयोग किया जाता है. बच्चों के शरीर के सही विकास के लिए इस के बीज का पाउडर बहुत लाभकारी होता है.

इस के अलावा चंद्रशूर बच्चों की लंबाई बढ़ाने में भी खासा मददगार होता है. बच्चों की याददाश्त को बढ़ाने में भी यह सहायक है. इस के पौधे की ताजा पत्तियों को सलाद और चटनी के रूप में बना कर खाया जाता है. मूत्र संबंधी रोगों में पौधे का काढ़ा बना कर दिन में 3 बार सेवन करने पर लाभ मिलता है. दस्त में चंद्रशूर के बीज का चूर्ण बना कर चीनी अथवा मिश्री के साथ मिला कर उपयोग में लाया जाता है. इस के बीजों को एनीमिया से ग्रस्त मरीजों के इलाज के लिए भी उपयोग किया जाता है.

(Medicinal Crop Chandrashoor)

पोषक तत्त्वों से भरपूर

चंद्रशूर का वनस्पतिक नाम लेपीडियम सेटाईवम है. यह कुसीफेरी कुल का सदस्य है. इस का पौधा 30-60 सैंटीमीटर ऊंचा होता है, जिस की उम्र 3-4 माह होती है. इस के बीज लालभूरे रंग के होते हैं, जो 2-3 मिलीमीटर  लंबे, बारीक और बेलनाकार होते हैं. पानी लगने पर बीज लसलसे हो जाते हैं. यही लसलसा पदार्थ अरेबिक गम के विकल्प के रूप में उपयोग में लाया जाता है.

चंद्रशूर की खेती रबी के मौसम में की जाती है. इस का पौधा अलसी से मिलताजुलता है. बोआई अक्तूबर माह में की जाती है. इस के बीजों में प्रोटीन (25 फीसदी), वसा (24 फीसदी), कार्बोहाइड्रेट (33 फीसदी) और फाइबर (3 फीसदी) भी पाए जाते हैं. इस के अलावा इस में अन्य तत्त्व जैसे आयरन, कैल्शियम, फोलिक एसिड, विटामिन ए और सी भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं.

पशुओं के लिए भी है फायदेमंद

पशु डाक्टरों की मानें, तो चंद्रशूर के पौधों को बरसीम में मिला कर हरे चारे के रूप में उपयोग में लाने से बीजों में पाए जाने वाला गैलेक्टगौग तत्त्व लैक्टेशन (दूध) बढ़ाने में सहायक होता है और दूध में कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन एवं लैक्टोस में वृद्धि होती है.

यह डोपामिन रिसैप्टर के साथ क्रिया कर के प्रोलैक्टिन की मात्रा को बढ़ाता है. यह दूध की मात्रा बढ़ाने में भी सहायक होता है. इस से किसानों की आय में बढ़ोतरी की जा सकती है. चंद्रशूर को पशुओं को खिलाने से दूध की गुणवत्ता भी अच्छी हो जाती है.

उन्नत किस्में

चंद्रशूर की कुछ किस्मों, जिन की व्यावसायिक लैवल पर खेती की जाती है, में आरवीए-1007, जीए-1 एवं राज विजय-1007 प्रमुख हैं. हाल ही में हिसार के चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में विकसित की गई औषधीय फसल चंद्रशूर की उन्नत किस्म एचएलएस-4 पूरे देश विशेषकर उत्तरी हिस्से में खेती के लिए अनुमोदित की गई है.

विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बीआर कंबोज के अनुसार, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के उपमहानिदेशक (फसल विज्ञान) डा. टीआर शर्मा की अध्यक्षता वाली फसल मानक अधिसूचना एवं फसल किस्म अनुमोदन केंद्रीय उपसमिति द्वारा चंद्रशूर की इस किस्म को समस्त भारत विशेषकर उत्तरी भारत (हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में खेती के लिए जारी की गई है.

चंद्रशूर की एचएलएस-4 किस्म के विकसित होने से हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मूकश्मीर के किसान भी इस की खेती आसानी से कर सकेंगे.

इस वनस्पति का औषधि के रूप में प्रयोग होने वाला मुख्य भाग इस का बीज है. राष्ट्रीय स्तर पर एचएलएस-4 किस्म के बीज की पैदावार 10.58 फीसदी, जबकि उत्तरी भाग में 30.65 फीसदी अधिक दर्ज की गई है.

इस किस्म से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 306.71 किलोग्राम तेल प्राप्त होता है, जो चंद्रशूर की प्रचलित जीए-1 किस्म के लगभग समान (306.82 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) है.

चंद्रशूर की यह किस्म हकृवि के औषधीय, सगंध एवं क्षमतावान फसल अनुभाग के वैज्ञानिकों डा. आईएस यादव, डा. जीएस दहिया, डा. ओपी यादव, डा. वीके मदान, डा. राजेश आर्य, डा. पवन कुमार, डा. ?ाबरमल सुतालिया और डा. वंदना की कड़ी मेहनत का परिणाम है.

(Medicinal Crop Chandrashoor)

बोआई के लिए मिट्टी और खेत की तैयारी

चंद्रशूर की खेती करने के लिए अच्छे जल निकास और सामान्य पीएच मान वाली बलुईदोमट मिट्टी में इस की खेती होती है. मुख्य रूप से चंद्रशूर की खेती रबी सीजन वाली फसलों के साथ की जाती है. चंद्रशूर की बारानी और असिंचित अवस्था में पलेवा की गई नमीयुक्त मिट्टी में बिजाई की जाती है.

चंद्रशूर की बिजाई अक्तूबर माह के दूसरे पखवारे में की जा सकती है. सिंचित अवस्था में ही चंद्रशूर की बिजाई की जाए, तो वह सर्वोत्तम रहती है. चंद्रशूर की खेती के लिए सिंचित बलुईदोमट मिट्टी पर 2 बार हैरो से जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बनाने वाले यंत्र से भुरभुरा बना लेना चाहिए.

बीज की मात्रा

चंद्रशूर के बीज आकार में बहुत छोटे होते हैं, इसलिए एक एकड़ के लिए लगभग 1.5 से 2 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सैंटीमीटर और बीज की गहराई 1 से 2 सैंटीमीटर रखना उचित रहता है. बीज अधिक गहरा डालने पर अंकुरण पर बुरा प्रभाव पड़ने से कम जमाव होने का खतरा रहता है. बीजों का अंकुरण आमतौर पर 5 से 15 दिनों में हो जाता है.

खाद और उर्वरक की मात्रा

चंद्रशूर की खेती के लिए लगभग 6 टन प्रति एकड़ गोबर की अच्छी सड़ीगली खाद एकसाथ खेत की तैयारी से पहले भूमि में मिला दें. इस के साथसाथ खेत में 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 20 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ डाल कर मिला दें. पोटाश खाद बिजाई के समय जरूरत के मुताबिक डालना सही रहता है.

फसल की सिंचाई

चंद्रशूर की फसल असिंचित भूमि में ली जा सकती है, लेकिन अगर 2-3 सिंचाई उपलब्धता के आधार पर क्रमश: एक माह, 2 माह एवं ढाई माह पर सिंचाई करें, तो यह लाभकारी होता है.

बीज जमाव के समय मिट्टी में पर्याप्त नमी का रहना अति आवश्यक है. बोआई के समय अगर मिट्टी में पर्याप्त नमी न हो, तो बिजाई के तुरंत बाद हलका पानी लगाने से अंकुरण शीघ्र एवं पर्याप्त मात्रा में होता है. दूसरा जल छिड़काव दाना बनते समय अवश्य करना चाहिए. स्वस्थ फसल और अधिक पैदावार लेने के लिए 2 निराईगुड़ाई, बोआई के क्रमश: 3 एवं 6 हफ्ते बाद करनी चाहिए.

कीट व बीमारियों का नियंत्रण

चंद्रशूर की फसल में तेला (एफिड) और पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप देखा गया है. अगर फसल में तेला (एफिड) रोग का प्रकोप दिखाई देता है, तो एक मिलीलिटर मैलाथियान प्रति लिटर पानी में घोल कर छिड़काव करना लाभदायक रहता है. अगर फसल में पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप दिखाई पड़े, तो सल्फर डस्ट का छिड़काव करना भी हितकर रहता है.

90 से 120 दिन में पक कर तैयार होती है फसल

चंद्रशूर के पौधों में बोआई के 2 महीने बाद फूल आने शुरू हो जाते हैं. चंद्रशूर की फसल 90 से 120 दिन के भीतर पक कर कटाई के लिए तैयार हो जाती है. पत्तियां जब हरी से पीली पड़ने लगें या फल में बीज लाल रंग का हो जाए, तो यह समय कटाई के लिए उपयुक्त रहता है. हंसिए या हाथ से इसे उखाड़ कर खलिहान में 2-3 दिन सूखने के लिए डाल दें, फिर डंडे से पीट कर या ट्रैक्टर से मिंजाई कर बीज को साफ कर लें.

उपज

असिंचित भूमि में इस की उपज 10-12 क्विंटल और सिंचित भूमि में 14-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त की जा सकती है. इस के बीजों का बाजार भाव आमतौर पर 7,000 से 8,000 रुपए प्रति किलोग्राम तक रहता है.

चंद्रशूर के औषधीय महत्त्व को देखते हुए इस के संरक्षण और व्यासायिक खेती के महत्त्व को ले कर सरकार और कृषि संस्थानों को आगे आ कर किसानों को जागरूक करने की जरूरत है. इसी के साथ देश के सभी राज्यों में चंद्रशूर की खेती को बढ़ावा मिले, इस के लिए चंद्रशूर की नई किस्मों को विकसित कर किसानों की आय में इजाफा भी किया जा सकता है.