एलोवेरा (Aloe Vera) से आमदनी

Aloe Vera एलोवेरा एक अफ्रीकी वनस्पति है. इस का वैज्ञानिक नाम एलो वार्बाडेंसिस है. यह देश के अलगअलग हिस्सों में अलगअलग नामों से जाना जाता है. इसे घृतकुमारी, घीकुंवार, ग्वारपाठा, कुमारी और एलोय सहित कुछ अन्य नामों से भी जानते हैं. शुरुआत में लोग इसे अनउपयोगी जमीनों पर लगाते थे, मगर अब इस की व्यावसायिक खेती जोर पकड़ चुकी है. एलोवेरा (Aloe Vera) की व्यावसायिक खेती का दायरा

बढ़ने की खास वजह इस का औषधीय महत्त्व है. एलोवेरा (Aloe Vera) को किसानों से बहुराष्ट्रीय कंपनियां ऊंची कीमत पर खरीद रही हैं.

तमाम आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं में इसे मुख्य रूप से इस्तेमाल किया जाता है. इस का इस्तेमाल चेहरे को चमकदार बनाने के अलावा पेट के रोगों, आंखों के रोगों और त्वचा के रोगों को ठीक करने में किया जाता है. इसे सौंदर्य प्रसाधन सामग्रियां बनाने में भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है.

कैसा होता है एलोवेरा (Aloe Vera): एलोवेरा छोटे तने और मांसल पत्तियों वाला तकरीबन 1 मीटर तक का पौधा होता है. पत्तियों की नसों पर कांटे पाए जाते हैं. इस में लाल और पीले रंग के फूल आते हैं.

कैसी हो मिट्टी : अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 8.5 के बीच हो इस की खेती के लिए बेहतर होती है. वैसे इस की खेती चट्टानी, रेतीली, पथरीली समेत किसी भी तरह की जमीन में की जा सकती है.

कैसी हो आबोहवा : गरम और शुष्क जलवायु एलोवेरा (Aloe Vera) की खेती के लिए सही होती है. जहां पर कम बारिश होती है और अधिक तापमान बरकरार रहता है, वहां भी इस की खेती आसानी से की जा सकती है.

रोपाई का समय : जहां पर सिंचाई की सुविधा मौजूद हो, वहां बरसात खत्म होने के बाद दिसंबर जनवरी व मईजून छोड़ कर कभी भी इस की रोपाई कर सकते हैं.

खेत की तैयारी : सब से पहले खेत को समतल कर लें. फिर 2 बार जुताई करने के बाद पाटा लगा कर ऊपर उठी हुई क्यारियां बना कर रोपाई करें.

प्रजाति : अपने इलाके के मुताबिक प्रजाति का ही चयन करें. इस के लिए आप जिला उद्यान कार्यालय या कृषि विज्ञान केंद्र के उद्यान विशेषज्ञ से मिल सकते हैं. वैसे केंद्रीय औषधि और सगंध पौध संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने सिम सीतल नाम की उन्नत प्रजाति विकसित की है, जिसे लगा सकते हैं.

रोपाई : 50 सेंटीमीटर लाइन से लाइन और 40 सेंटीमीटर पौध से की दूरी रखते हुए रोपाई करें.

खाद और उर्वरक : अच्छी पैदावार के लिए 5-10 टन खूब सड़ी हुई गोबर की खाद, वर्मी कंपोस्ट या कंपोस्ट का प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करना चाहिए. इस के अलावा 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश का प्रति हेक्टेयर हर साल इस्तेमाल करना चाहिए. नाइट्रोजन की मात्रा को 3 बार में दिया जाना चाहिए.

सिंचाई: रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई करना बहुत जरूरी है. इस के बाद जरूरत के मुताबिक सिंचाई करनी चाहिए. वैसे बीचबीच सिंचाई करने से फसल की बढ़वार कई गुना बढ़ जाती है.

देखभाल : कुछ समस्याओं के अलावा एलोवेरा (Aloe Vera) में कीड़ों और बीमारियों का कोई खास प्रकोप नहीं होता है. कई बार देखने में आता है कि बरसात के मौसम में पत्तियों पर फफूंद जनित सड़न और धब्बे पड़ जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए मैंकोजेब की 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए. कई बार जमीन के अंदर तने और जड़ों को ग्रब कुतरकुतर कर नुकसान पहुंचाते रहते हैं. इस की रोकथाम के लिए 60-70 किलोग्राम नीम की खली प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करनी चाहिए.

Aloe Vera

कटाई : तकरीबन 10-12 महीने बाद इस की पत्तियां कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं. बढ़त के मुताबिक नीचे की 2-3 पत्तियों की कटाई पहले करनी चाहिए. तकरीबन 2 महीने के बाद से परिपक्व हो चुकी 3-4 पत्तियों की कटाई करते रहना चाहिए.

उपज : एलोवेरा (Aloe Vera) की 50-60 टन ताजी पत्तियां प्रति हेक्टेयर हासिल हाती हैं, जिन से 35-40 फीसदी तक उपयोगी रस (बार्वेलोइन रहित) मिल जाता है. यदि इसे दूसरे साल के लिए भी छोड़ दिया जाए तो उत्पादन में 10-15 फीसदी की बढ़ोतरी पाई जाती है. वैसे असिंचित दशा में उत्पादन थोड़ा कम मिलता है.

भंडारण : ताजी पत्तियों को कम तापमान में 1-2 दिनों तक रखा जा सकता है.

मुनाफा : एलोवेरा (Aloe Vera) की खेती से होने वाली आय बाजार की समझ, मूल्य और खरीदार पर निर्भर होती है. फिर भी मोटे तौर पर इस से 1.5 लाख से 3 लाख रुपए प्रति हेक्टेयर सालाना कमाए जा सकते हैं. इस की खेती करने से पहले मार्केटिंग के बारे में गहराई से जानकारी हासिल कर लेनी चाहिए, ताकि बिक्री के लिए भटकना न पड़े और वाजिब कीमत भी मिल सके.

Pests of Mango: आम के खास कीट

फरवरी और मार्च आम के लिए खास महत्त्व वाले महीने होते हैं. इन्हीं महीनों में आम में बौर आने का समय होता है या बौर लग चुका होता है. बौर लगने से ले कर तोड़ाई तक आम के तमाम दुश्मन कीट (Pests of Mango) होते हैं, जो जरा सी सावधनी हटने पर बड़ा नुकसान कर देते हैं. आइए जानते हैं आम की फसल में लगने वाले खास कीटों और उन की रोकथाम के बारे में.

मैंगो हापर : इसे कुटकी, भुनगा या लस्सी कीट के नाम से भी जाना जाता है. इस कीट का प्रकोप बौर निकलते ही जनवरीफरवरी में शुरू हो जाता है. यह एक छोटा, तिकोने शरीर वाला भूरे रंग का आम का सब से खतरनाक कीट है. ये कीट आम की नई पत्तियों व फूलों का रस चूसते हैं. प्रभावित भाग पर इन के द्वारा छोड़े गए स्राव से सूटी मोल्ड (काली फफूंदी) उग जाती है. इस से पत्तियों का भोजन बनने का काम रुक जाता है.

इस की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 40 ईसी 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या डाईमेथोएट 30 ईसी 1.5-2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी या 50 फीसदी घुलनशील कार्बोरिल 3 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए. ध्यान रहे कि कीटनाशक का पहला छिड़काव बौर की 2-3 इंच अवस्था पर, दूसरा छिड़काव उस के 15-20 दिनों बाद और तीसरा छिड़काव जब फल सरसों के दाने के आकार के हो जाएं तब किया जाना चाहिए.

मैंगो मिली बग : इसे चेंपा के नाम से भी जानते हैं. यह कोमल शाखाओं व फूलों के डंठलों पर फरवरी से मई तक चिपका हुआ पाया जाता है. यह कोमल भागों का रस चूस कर एक लसलसा पदार्थ छोड़ता है, जो कि फफूंदी रोगों को बढ़ावा देता है. इस से ग्रसित फूल बिन फल बनाए ही गिर जाते हैं.

इस की रोकथाम के लिए यदि कीट पौधों पर चढ़ गए हों, तो डाईमेथोएट (रोगोर) नामक दवा 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में मिला कर 15 दिनों के अंदर 2 बार छिड़काव करना चाहिए या कार्बोसल्फान 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. वैसे इस कीट से बेहतर बचाव के लिए दिसंबर महीने के पहले पखवारे में आम के तने के चारों ओर गहरी जुताई कर देनी चाहिए. तने पर 400 गेज की पालीथिन की 25 सेंटीमीटर चौड़ी पट्टी लपेट देनी चाहिए. पट्टी के ऊपरी व निचले किनारों को सुतली से बांध देना चाहिए. निचले सिरे पर ग्रीस लगा कर सील कर के जनवरी महीने में ही 250 ग्राम प्रति पेड़ की दर से क्लोरपाइरीफास चूर्ण का तने के चारों ओर बुरकाव कर देना चाहिए.

तना बेधक : इस का प्रौढ़ की करीब 5-8 सेंटीमीटर लंबा, मटमैला या राख के रंग का होता है. इस कीट की सूंडि़यां तने में नीचे से ऊपर की ओर छेद करती हैं, जिस से तने से बुरादा निकलता नजर आता है, नतीजतन तना व मोटी शाखाएं सूख जाती हैं.

इस की रोकथाम के लिए साइकिल की तीली या दूसरी किसी मजबूत तीली से सूंडि़यों को निकाल कर रुई को मिट्टी के तेल या पेट्रोल या 1 फीसदी की दर से मोनोक्रोटोफास के घोल में भिगो कर तने में किए छेदों में डाल कर छेदों को गीली मिट्टी से बंद कर देना चाहिए.

शूट बोरर : इसे शाखा बेधक या प्ररोह छिद्रक कीट के नाम से भी जानते हैं. इस की सूंड़ी नई शाखाओं और प्ररोहों में ऊपर से नीचे की ओर छेद कर के उन्हें खोखला कर देती है.

इस की रोकथाम के लिए प्रभावित भाग को काट कर जला देना चाहिए और नई बढ़वार के समय 4 ग्राम प्रति लीटर कार्बेरिल या 2 मिलीलीटर प्रति लीटर क्वीनालफास का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए.

गाल मिज : इसे पुष्पगुच्छ कीट भी कहते हैं. ये बहुत ही छोटे और हलके गुलाबी रंग के होते हैं. इन कीटों से प्रभावित बौर टेढ़े हो जाते हैं और वहां पर काले धब्बे दिखाई देते हैं. इन की रोकथाम के लिए डायमेथोएट 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी की दर से कलियां निकलने के समय पहली बार छिड़काव करना चाहिए और दूसरा छिड़काव जरूरत के हिसाब से 15 दिनों के बाद करना चाहिए.

फ्रूट फ्लाई : इसे फल मक्खी के नाम से भी जानते हैं. यह पीलेभूरे रंग की मक्खी होती है, जो पके या अधपके फलों की त्वचा के नीचे अंडे देती है. इन अंडों से सूंडि़यां निकल कर फलों के अंदर का गूदा खाती रहती हैं. इस से फल सड़ कर गिर जाते हैं. इस कीट का हमला पतली त्वचा वाली और देर से पकने वाली प्रजातियों पर ज्यादा होता है.

इस की रोकथाम के लिए फलों को पकने से पहले ही पेड़ से तोड़ लेना चाहिए और प्रभावित फलों को जमा कर के जमीन के अंदर करीब 1 मीटर गहराई तक दबा देना चाहिए. फल मक्खी को खत्म करने के लिए उसे जमीन के अंदर तकरीबन 1 मीटर गहराई पर दबाना चाहिए. फल मक्खी को मारने के लिए पेड़ों पर जहरीली गोलियां लटका देनी चाहिए. इस के लिए कार्बोरिल 4 ग्राम प्रति लीटर पानी या मिथाइल यूजीनाल के घोल को 1 फीसदी की दर से डब्बों में डाल कर बागों में अप्रैल से अक्तूबर तक लटकाने से नर कीट कीटनाशक की तरफ खिंच कर मर जाते हैं.

स्टोन वीविल: यह कीट आम बनने की शुरुआती दशा में हमला करता है. जब फल मटर के आकार के होते हैं, तो विविल फल की सतह पर अंडे देती है और अंडों से ग्रब निकल कर गुठली में छेद कर के घुस जाते हैं. ये अपना पूरा जीवनचक्र यहीं पूरा करते हैं व अपने मल पदार्थ से फल के गूदे को खराब कर देते हैं. इन की रोकथाम के लिए बगीचों की खूब अच्छी तरह से सफाई करनी चाहिए.

Diarrhea in Calf: बछड़े को डायरिया से ऐसे बचाएं

गाय के बछड़े बचपन से ही स्वस्थ हों, तो भविष्य में उन का दूध उत्पादन बेहतर होता है. लेकिन उन के जीवन के पहले 3 हफ्ते में दस्त (डायरिया) एक सामान्य और गंभीर समस्या बन कर सामने आ सकती है.

यदि इस समस्या पर समय रहते ध्यान न दिया जाए, तो यही उन के मरने का कारण बन सकता है. साल 2007 में यूएस डेयरी की एक रिपोर्ट में पाया गया है कि 57 फीसदी वीनिंग गोवत्सों की मृत्यु दस्त के कारण हुई, जिन में अधिकांश बछड़े 1 माह से छोटे थे.

दस्त लगने की कई वजहें हो सकती हैं. सही समय पर दूध न पिलाना, दूध का अत्यधिक ठंडा होना या ज्यादा मात्रा में देना, रहने की जगह का साफसुथरा न होना या फिर फफूंद लगा चारा खिलाना आदि. इस के अलावा बछड़ों में दस्त अकसर एंटरोपैथोजेनिक ई कोलाई नामक जीवाणु के कारण होता है. यह जीवाणु आंत से चिपक कर घाव पैदा करता है, जिस से आंत के एंजाइम की गतिविधि घट जाती है. इस वजह से भोजन का पाचन प्रभावित होता है और खनिज पदार्थ अवशोषित होने के बजाय मल के माध्यम से बाहर निकल जाते हैं.

कुछ ई कोलाई वेरोटौक्सिन का उत्पादन करते हैं, जिस से अधिक गंभीर स्थिति जैसे खूनी दस्त हो सकते हैं.आमतौर पर 2 सप्ताह से 12 सप्ताह के बछड़ों में साल्मोनेला प्रजाति के जीवाणुओं के कारण दस्त के लक्षण देखे जाते हैं. इस के अलावा कोरोना वायरस, रोटा वायरस जैसे वायरस और जियार्डिया, क्रिप्टोस्पोरिडियम पार्वम जैसे प्रोटोजोआ भी दस्त के सामान्य कारण हैं.

दस्त के लक्षणों को पहचानना बहुत महत्त्वपूर्ण है. बछड़े की धंसी हुई आंखें, तरल पदार्थों का सेवन कम होना, लेटना, हलका बुखार, ठंडी त्वचा और सुस्ती इस समस्या के संकेत हैं.

यदि बछड़ा बारबार लेट रहा हो, खुद से खड़ा नहीं हो पा रहा हो और खींचने पर आंखों के पास की त्वचा वापस आने में 6 सेकंड से अधिक समय ले रही हो, तो तुरंत पशु डाक्टर से सलाह लें.

दस्त से बचाव के लिए गर्भावस्था के अंतिम 3 महीनों में गाय के पोषण का विशेष ध्यान रखना चाहिए, ताकि बछड़ा स्वस्थ हो और मजबूत रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ जन्म ले.

बछड़े को जन्म के 2 घंटे से ले कर 6 घंटे के भीतर खीस पिलाना आवश्यक है. यदि बछड़ा डिस्टोकिया (कठिन प्रसव) से पैदा हुआ हो, तो उस के सिर और जीभ पर सूजन के कारण खीस को वह ठीक से नहीं पी पाएगा. ऐसे में बछड़े की विशेष देखभाल करनी चाहिए.

इस के अलावा बछड़े को बाहरी तनाव जैसे अधिक ठंड, बारिश, नमी, गरमी और प्रदूषण से बचाना चाहिए. साथ ही सही समय पर टीका भी लगवाना आवश्यक है, ताकि बछड़ा स्वस्थ रह सके.

यदि बछड़े को दस्त हो जाए, तो सब से पहले शरीर में पानी और इलैक्ट्रोलाइट्स की कमी को पूरा करना जरूरी है. इस के लिए हर दिन 2-4 लिटर इलैक्ट्रोलाइट घोल पिलाएं. घर पर ही इलैक्ट्रोलाइट घोल बनाने के लिए :

1 लिटर गरम पानी में 5 चम्मच ग्लूकोज, 1 चम्मच सोडा बाईकार्बोनेट और 1 चम्मच नमक मिलाएं यानी एक चम्मच = 5 ग्राम लगभग.

नेबलोन आयुर्वेदिक पाउडर (10-20 ग्राम) को सादा पानी या चावल के मांड में मिला कर दिन में 2-3 बार पिलाएं. यदि स्थिति गंभीर हो, तो हर 6 घंटे पर यह घोल दें. दस्त करने वाले आंतरिक परजीवियों से बचाव के लिए एल्बेंडाजोल, औक्सीक्लोजानाइड और लेवामिसोल जैसे डीवार्मर्स समयसमय पर देने चाहिए. यदि आवश्यक हो, तो पशु डाक्टर की सलाह से एंटीबायोटिक्स का उपयोग करें.

बछड़ों में दस्त की समस्या को सही समय पर पहचान कर उचित देखभाल और उपचार से नियंत्रित किया जा सकता है.

Cowpea: पशुओं के लिए पौष्टिकता से भरपूर लोबिया

पशुओं के लिए लोबिया (Cowpea)  दलहन चारा है. अधिक पौष्टिक व पाचकता से भरपूर होने के कारण इसे घास के साथ मिला कर बोने से इस की पोषकता बढ़ जाती है.

इस की फसल उगाने से किसानों को कई फायदे होते हैं. पहला तो यह कि इस से पशुओं के लिए हरा चारा मिलता है, वहीं दूसरी ओर खेत के खरपतवार को खत्म कर के मिट्टी की उर्वरताशक्ति भी बढ़ाने का काम करती है.

लोबिया (Cowpea) की फसल को किसान खरीफ और जायद मौसम में उगा सकते हैं.

भूमि और खेत की तैयारी

लोबिया (Cowpea)  की खेती आमतौर पर अच्छे जल निकास वाली सभी तरह की जमीनों में की जा सकती है, लेकिन दोमट मिट्टी पैदावार के हिसाब से अच्छी मानी गई है. अच्छे उत्पादन के लिए खेत को हैरो या कल्टीवेटर से 2-3 जुताई करनी चाहिए, इस से बीज में अंकुरण जल्दी होता है और फसल अच्छी होती है.

बोआई का समय

लोबिया (Cowpea)  की फसल साल में 2 बार की जाती है. गरमियों की फसल के लिए बोआई का सही समय मार्च होता है, खरीफ मौसम में लोबिया (Cowpea) की बोआई बारिश शुरू होने के बाद जुलाई महीने में करनी चाहिए.

उन्नत किस्में

किसी भी फसल के ज्यादा उत्पादन के लिए कई कारक जिम्मेदार होते हैं, उन में से एक उन्नत किस्म का बीज भी है. अगर आप अच्छे किस्म का बीज बोएंगे तो अधिक पैदावार मिलेगी. इसलिए जब भी बोआई करें, अच्छे बीज ही इस्तेमाल करें. आप की जानकारी के लिए कुछ उन्नत बीजों के नाम इस प्रकार हैं:

कोहिनूर, बुंदेल लोबिया-2, बुंदेल लोबिया-3, यूपीसी-5287, आईएफसी-8503, ईसी- 4216, यूपीसी- 5286, 618 वगैरह.

बीज की मात्रा व बोआई

किसान पशुओं के चारे के लिए एक ही खेत में कई तरह के बीज मिला कर बोआई करते हैं. ऐसे में अगर सिर्फ लोबिया (Cowpea)  की फसल लेनी है, तब 40 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर सही होता है. अगर ज्वार या मक्का आदि के साथ बोना है तो 15 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर ठीक होता है.

सिंचाई

गरमियों के मौसम में 8-10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. पूरे सीजन में लगभग 6-7 सिंचाई करनी पड़ती है, जबकि खरीफ मौसम में आमतौर पर सिंचाई की जरूरत नहीं होती है, लेकिन लंबे समय तक बारिश न होने पर 10-12 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण

गरमी में ज्यादा खरपतवार की दिक्कत नहीं होती, लेकिन 20-25 दिनों में खुरपी या फावड़े से गुड़ाई कर के खरपतवार पर काबू पाया जा सकता है. बीज बोने से पहले ट्रीफ्लूरानिन (0.75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) का छिड़काव करने से खरपतवार की बढ़वार कम होती है.

फसल कटाई

खरीफ मौसम की फसल 50-60 दिनों में और गरमियों की फसल 70-75 दिनों में कटाई (50 प्रतिशत फूल आने पर) के लिए तैयार हो जाती है. लोबिया (Cowpea)  की फसल की कटाई तब भी शुरू की जा सकती है, जब पौधे बड़े हो जाएं और चारे के लिए इस्तेमाल किए जाने लगें.

Khoya Chocolate Barfi : गजब का स्वाद चाकलेट का अंदाज

Khoya Chocolate Barfi| तमाम तरह की मिठाइयां मूल रूप से खोए, अनाजों, मेवों और चीनी से ही मिल कर बनती हैं. मिठाइयां बनाने के शौकीन लोग तरहतरह के प्रयोग कर के खाने वालों को अलगअलग स्वाद का एहसास कराने की कोशिश करते रहते हैं. खोया चाकलेट बरफी (Khoya Chocolate Barfi) भी इसी कोशिश का नतीजा है.

यह 2 तरह बनती है. पहली खोया चाकलेट परतदार बरफी होती है, जो खोए और चाकलेट के दोहरे स्वाद का एहसास कराती है. यह परतदार बरफी खाने में जितनी स्वादिष्ठ होती है, उतनी ही दिखने में भी अलग होती है. दूसरी किस्म की बरफी खोया चाकलेट की साधारण बरफी होती है, जिस में खोए के स्वाद में चाकलेट का अंदाज दिखता है. दोनों ही तरह की बरफियों में खोए के साथ मेवों का इस्तेमाल किया जाता है. दोनों में फर्क यह होता है कि परतदार बरफी में चाकलेट और खोया अलगअलग परतों में दिखते हैं और दूसरी किस्म में केवल एक ही तरह की बरफी दिखाई पड़ती है.

खोया चाकलेट परतदार बरफी बनाने के लिए पहले खोए की परत तैयार की जाती है, फिर चाकलेट की परत तैयार होती है. दोनों को एकदूसरे के ऊपर रख कर जमा दिया जाता है. खोया चाकलेट की साधारण बरफी तैयार करने के लिए खोए में चाकलेट पाउडर और मेवे मिला कर एक जैसी ही बरफी तैयार की जाती है.

कुछ लोग परतदार बरफी पसंद करते हैं, तो कुछ लोग दूसरी बरफी पसंद करते हैं. चाकलेट खोया बरफी देखने में चाकलेट पीस की तरह लगती है. इसे और अच्छा बनाने के लिए चांदी के वर्क से सजा दिया जाता है. खाने वाले को क्रंची स्वाद का एहसास हो इस के लिए बरफी में अलगअलग तरह के मेवे मिलाए जा सकते हैं.

मिठाइयों की माहिर प्रिया अवस्थी कहती हैं, ‘मुझे तो चाकलेट खोया की साधारण बरफी ज्यादा अच्छी लगती है. परतदार बरफी देखने में बरफी जैसी ही लगती है, मगर साधारण चाकलेट खोया बरफी चाकलेट जैसी नजर आती है.’

जरूरी सामग्री : खोया 300 ग्राम, चीनी पाउडर, 100 ग्राम, 5-6 छोटी इलायचियों का पाउडर. चाकलेट बरफी परत के लिए : खोया 200 ग्राम, चीनी पाउडर 70 ग्राम, कोको पाउडर 2 टेबल स्पून, घी 2 टेबल स्पून.

विधि : खोया बरफी बनाने के लिए खोए को कद्दूकस कीजिए. फिर कढ़ाई में 1 छोटा चम्मच घी डाल कर गरम कर लीजिए. गैस एकदम धीमी रखिए. घी पिघलने के बाद कद्दूकस किया हुआ खोया और चीनी पाउडर डाल दीजिए.

लगातार चलाते हुए खोए चीनी के आपस में ठीक से मिलने तक भूनिए. सही तरह से मिलने के बाद मिश्रण को धीमी गैस पर 5-6 मिनट तक लगातार चलाते हुए पका लीजिए. फिर इस में इलायची पाउडर मिला दीजिए. प्लेट में घी लगा कर चिकना कीजिए और मिश्रण को जमने के लिए प्लेट में डालिए और घी लगे चम्मच से एक जैसा फैला कर 1 घंटे तक ठंडा होने दीजिए.

चाकलेट बरफी की परत तैयार करने के लिए कढ़ाई में एक छोटा चम्मच घी, कद्दूकस किया खोया, चीनी पाउडर और कोको पाउडर डालें. मिश्रण को धीमी आंच पर लगातार चलाते हुए खोया चीनी के मिलने तक भूनें. खोया व चीनी अच्छी तरह मिलने के बाद मिश्रण को धीमी आंच पर 4-5 मिनट तक लगातार चलाते हुए भूनें.

चाकलेट का मिश्रण बरफी जमाने के लिए तैयार है. चाकलेट वाले तैयार मिश्रण को ठंडे किए हुए बर्फी के मिश्रण के ऊपर डालिए और घी लगे चम्मच से फैला कर एक जैसा कर दीजिए. बरफी को जमने के लिए ठंडी जगह पर 2-4 घंटे के लिए रख दीजिए. इस के बाद बरफी तैयार हो जाएगी, जमी तैयार बरफी को अपने मनपसंद टुकड़ों में काट लीजिए.

Guava Garden: पथरीली जमीन पर उगाया अमरूद का बगीचा

Guava Garden| मध्य प्रदेश के सतना जिले से तकरीबन 40 किलोमीटर दूर उत्तरपूर्व में बसे खुटहा गांव के किसान कृष्ण किशोर त्रिपाठी ने अपनी दूरदृष्टि, मेहनत और मजबूत इरादे से आज वह कर दिखाया है, जो कई किसानों के लिए प्रेरणा बन गया है. पथरीली जमीन पर खेती करना हमेशा से चुनौती भरा होता है, लेकिन आज कृष्ण किशोर ने इस जमीन को उपजाऊ बना दिया है. उन्होंने 30 साल से बंजर पड़ी इस जमीन पर अमरूद का बगीचा (Guava Garden) लगाया है और अब वे हर साल लाखों रुपए की आमदनी कर रहे हैं.

पहली बार लगाए 75,000

कृष्ण किशोर त्रिपाठी ने साल 2022 में अपने एक एकड़ खेत में अमरूद के 400 पौधे लगाए थे. इस के लिए उन्होंने रतलाम से सुनहरा (गोल्डन) अमरूद की किस्म के पौधे 85 रुपए प्रति पौध की दर से खरीदे थे. पौधों को लगाने के लिए गड्ढे खोदने, खाद डालने और मजदूरी का खर्च मिला कर प्रति पौधा 150 रुपए का खर्च आया था. इस के अलावा ड्रिप इरिगेशन (टपक सिंचाई) प्रणाली लगाने पर तकरीबन 12,000 रुपए का खर्च आया. इस प्रकार पहले साल उन्हें कुल 75,000 रुपए खर्च करने पड़े थे. उन के बगीचे में अब 3 फुट ऊंचे पेड़ों पर

12 किलोग्राम तक के फल लग चुके हैं.

किसान कृष्ण किशोर झुके हुए अमरूद के पेड़ को संभालते हुए बताते हैं कि जमीन तो पथरीली थी, लेकिन मैं ने ठान लिया था कि इसे उपजाऊ बनाना है. अमरूद के पौधे लगाते वक्त हर पौधे के लिए गड्ढे खोदने, खाद डालने और पानी की व्यवस्था में काफी मेहनत लगी. ड्रिप इरिगेशन सिस्टम लगा कर पानी की समस्या को भी हल किया. पहले साल में 75,000 रुपए का खर्च हुआ, लेकिन यह मेरी मेहनत का आधार था. अब हर पेड़ पर 12 किलोग्राम के फल आ रहे हैं, जो मेरी उम्मीद से भी ज्यादा हैं.

1.44 लाख रुपए की कमाई

कृष्ण किशोर त्रिपाठी ने इस समय 400 अमरूद के पेड़ों से प्रति पेड़ 12 किलोग्राम फल निकाले हैं. कुलमिला कर 4.8 टन फल का उत्पादन हुआ, जो थोक बाजार में 30 रुपए प्रति किलोग्राम के भाव से 1.44 लाख रुपए में बिका. आने वाले 2 सालों में जब पेड़ 5 फुट से अधिक ऊंचे हो जाएंगे, तब प्रति पेड़

20 किलोग्राम फल मिलने की उम्मीद है. ऐसे में कुल उत्पादन 8 टन होगा और तकरीबन 2.4 लाख रुपए की कमाई होगी.

कृष्ण किशोर ने कहा कि अमरूद की खेती ने हमें एक नई दिशा दी है. पहली फसल में ही 1.44 लाख रुपए की कमाई ने हमारी मेहनत पर भरोसा बढ़ाया है. आने वाले 2 सालों में उत्पादन और आय दोनों में बढ़ोतरी की उम्मीद है. इस से हमें कृषि के क्षेत्र में और भी नए प्रयोग करने की प्रेरणा मिल रही है.

सतना जिले के अमरूद उत्पादन का डाटा शेयर करते हुए उद्यानिकी एवं खाद्य प्रसंस्करण विभाग के उद्यानिकी अधिकारी नरेंद्र सिंह बताते हैं कि साल 2022-23 के अंतिम अनुमान में 971 हेक्टेयर में 11,364 मीट्रिक टन अमरूद का उत्पादन दर्ज किया गया है, जबकि मध्य प्रदेश राज्य देश में अमरूद उत्पादन के मामले में दूसरे स्थान पर है. पहले स्थान पर उत्तर प्रदेश है. राष्ट्रीय उद्यानिकी बोर्ड द्वारा जारी 2021-22 के पहले अतिरिक्त अनुमान के मुताबिक मध्य प्रदेश में 776.75 लाख मीट्रिक टन का उत्पादन हुआ.

मेहनत से हासिल की सफलता

खुटहा गांव के किसान कृष्ण किशोर त्रिपाठी की जमीन के नीचे केवल 2 फुट खेती लायक ही मिट्टी थी. इस के नीचे पत्थर ही पत्थर थे. इस जमीन पर खेती करना लगभग नामुमकिन था. किसान कृष्ण किशोर के परदादा ने तकरीबन 50 साल पहले इस जमीन को उपयोगी बनाने के लिए 3 फुट मिट्टी डलवाई थी, जिस में कोदोकुटकी जैसी मोटे अनाज की फसलें उगाई जाती थीं, लेकिन बाद में यह जमीन बंजर हो गई.

इस के बाद कृष्ण किशोर ने 30 साल बाद इस जमीन को फिर से खेती लायक बनाने का फैसला किया. वे बताते हैं कि जमीन पर पड़ी मिट्टी को उन्होंने दोबारा उपयोगी बनाया. अब इस में अमरूद का बगीचा लगा कर वे हर साल लाखों रुपए की आमदनी ले रहे हैं.

कृष्ण किशोर त्रिपाठी ने बताया कि यह विचार उन के मन में तब आया था, जब उन की बेटी की तबीयत खराब थी और वे फल खरीदने बाजार गए थे. उस समय सेब का दाम 280 रुपए प्रति किलोग्राम था. उन्होंने तभी तय किया कि वे फलों की खेती करेंगे.

जल संकट से निबटने के लिए ड्रिप योजना खुटहा गांव में पानी की कमी हमेशा से एक बड़ी समस्या रही है. किसान कृष्ण किशोर त्रिपाठी को भी इस का सामना करना पड़ा. उन्होंने 3 बार बोरिंग कराई. पहले 2 बार वे असफल रहे, लेकिन तीसरी बार 150 फुट की गहराई पर पानी मिला. इस के बाद उन्होंने इसे 300 फुट गहराई तक कराया. बोरिंग पर कुल 2.4 लाख रुपए का खर्च आया.

पानी की कमी के कारण किसान कृष्ण किशोर ने टपक सिंचाई प्रणाली का सहारा लिया. यह विधि पानी की बचत में सहायक है और इस से पेड़ों को जरूरत के अनुसार पानी मिलता है. वे बताते हैं कि पानी की कमी हमारे इलाके की सचाई है, लेकिन तकनीक और मेहनत से इस का समाधान संभव है.

सागौन और सेब के पौधे भी लगाए

किसान कृष्ण किशोर ने 2,000 सागौन के पौधे लगाए, जो अब बड़े हो चुके हैं. इस के अलावा उन्होंने सेब के पौधे भी लगाए हैं. सेब के पौधों पर फिलहाल फूल नहीं आए हैं, लेकिन अगले 2 सालों में फल मिलने की संभावना है.

वे बताते हैं कि सागौन के पौधे बड़े हो गए हैं. खेती से जुड़ कर मन को शांति मिलती है.

Buckwheat: कुट्टू उगाने की नई तकनीक

Buckwheat कुट्टू की खेती दुनियाभर में की जाती है. चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, यूरोप, कनाडा समेत अन्य देशों में भी इस की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है. वहीं भारत की बात करें, तो उत्तरपश्चिमी हिमालयी क्षेत्रों में इस की खेती अधिक की जाती है.

किसान इस की खेती परंपरागत तरीके से करते हैं, जिस के चलते बेकार गुणवत्ता वाली कम पैदावार मिलती है. अधिक पैदावार लेने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली नई तकनीक को अपना कर कुट्टू (Buckwheat) की खेती की जानी चाहिए.

भूमि का चयन

कुट्टू (Buckwheat) को विभिन्न प्रकार की कम उपजाऊ मिट्टी में उगाया जा सकता है. वैसे, उचित जल निकास वाली दोमद मिट्टी इस के सफल उत्पादन के लिए सर्वोत्तम मानी गई है, लेकिन अधिक अम्लीय और क्षारीय मिट्टी इस के उत्पादन के लिए अच्छी नहीं होती है.

खेत की तैयारी

कुट्टू (Buckwheat) की अधिक पैदावार लेने के लिए खेत की तैयारी अच्छी तरह करनी चाहिए. पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. उस के बाद 2 जुताई कल्टीवेटर या हैरो से आरपार करनी चाहिए, फिर पाटा लगा कर भूमि को समतल कर लेना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक

कुट्टू (Buckwheat) उत्पादन के लिए खाद एवं उर्वरकों की कम मात्रा में जरूरत होती है. वैसे, मिट्टी जांच के बाद ही खाद एवं उर्वरक का उपयोग करना सही रहता है.

यदि किसी कारणवश मिट्टी की जांच न हो सके, तो यहां दी गई मात्रा के अनुसार खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए :

गोबर की खाद : 10 टन

नाइट्रोजन : 40 किलोग्राम

फास्फोरस : 20 किलोग्राम

पोटाश : 20 किलोग्राम

गोबर की खाद को खेत की तैयारी से पहले खेत में समान रूप से बिखेर कर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए. साथ ही, फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा को अंतिम जुताई से पहले खेत में डालें. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा को बोआई के 50-60 दिन बाद खड़ी फसल में टौप ड्रैसिंग के दौरान डालें.

प्रवर्धन

ध्यान रखें कि कुट्टू (Buckwheat) का विस्तारण बीज द्वारा किया जाता है.

बीज दर

कुट्टू (Buckwheat) के उत्पादन के लिए प्रति हेक्टेयर 60-80 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है.

बीजोपचार

कुट्टू (Buckwheat) के बीज को खेत में बोने से पहले कैपरौन 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करना चाहिए. इस से फसल को फफूंदी से होने वाले रोगों से बचाया जा सकता है.

बीजों को उपचारित करने के 10-15 मिनट बाद 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से दोबारा उपचारित करने के 15-20 मिनट बाद बीज की बोआई कर देनी चाहिए.

आपसी दूरी व उचित समय

कुट्टू (Buckwheat) के बीजों को हमेशा पंक्तियों में बोना चाहिए. पंक्तियों और पौधों की आपसी दूरी 20×10 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. इस के अंकुरण के लिए 35 सैंटीमीटर सही माना जाता है. पर्वतीय क्षेत्रों में इस की बोआई मईजून माह में करनी चाहिए.

सिंचाई एवं जल निकासी

आमतौर पर कुट्टू (Buckwheat) को वर्षा आधारित फसल के रूप में उगाया जाता है. इस के सफल उत्पादन के लिए इस की फसल अवधि में फूल आने व दाने बनने के समय सिंचाई करनी चाहिए.

फसल सुरक्षा

खरपतवार नियंत्रण

चूंकि कुट्टू (Buckwheat) की फसल को खरीफ मौसम में उगाया जाता है, जिस के कारण फसल के साथसाथ खरपतवार भी उग जाते हैं, जो फसल के विकास की बढ़ोतरी और उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं.

फसल की शुरुआती अवस्था में खेत को खरपतवारों से मुक्त रखना बहुत जरूरी है, इसलिए जरूरत के अनुसार निराईगुड़ाई करनी चाहिए.

रोग नियंत्रण

पत्ती झुलसा: यह एक फफूंदीजनित रोग है. यह रोग फूल बनने या फसल की शुरुआती अवस्था में होता है. रोग की शुरुआती अवस्था में पत्तियों पर छोटेछोटे धब्बे आ जाते हैं, फिर बाद में पत्तियां गिर जाती हैं. ये छोटे धब्बे बाद में बड़े हो जाते हैं. इस वजह से पौधे की भोजन बनाने की प्रक्रिया पर बुरा असर पड़ता है. बाद में पूरा पौधा सूख जाता है.

इस रोग की रोकथाम के लिए रोग का शुरूआती लक्षण दिखाई देने पर 0.2 फीसदी कौपरऔक्साइड के घोल का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए.

कीट नियंत्रण

आमतौर पर इस फसल पर कोई कीट नहीं पनपता है.

फसल की कटाई

बीज बोने के 40-50 दिन बाद फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है. जब फसल में फूल आने शुरू हो जाते हैं, तो यह कटाई की सर्वोत्तम अवस्था होती है.

कुट्टू (Buckwheat) की फसल की कटाई का सब से बढि़या समय सितंबरअक्तूबर माह का होता है यानी दानों के बनने से पहले इस की कटाई कर लेनी चाहिए.

यदि कटाई देरी से की जाती है, तो उस में रूटीन की मात्रा 6 फीसदी से घट कर 3.8 फीसदी रह जाती है. यह कटाई का समय औषधि उत्पादन के लिए सब से बेहतर है. जब कुट्टू (Buckwheat) को इस के दाने के लिए उगाया जाता है, तब दाने पूरी तरह से पक जाने के बाद ही फसल की कटाई करनी चाहिए.

मड़ाई

फसल को 2-3 दिन सुखा कर फिर उस की गहाई करनी चाहिए. फसल के दाने और भूसे को अलगअलग कर लेना चाहिए.

उपज

कुट्टू (Buckwheat) की उपज कई बातों पर निर्भर करती है, जिस में भूमि की उर्वराशक्ति, फसल उगाने की विधि और फसल की देखभाल प्रमुख है.

यदि बताई गई नई तकनीक से इस की खेती की जाए, तो तकरीबन 10-12 क्विंटल दाने की उपज मिल जाएगी.

Poultry Farming: मुरगीपालन से आमदनी में इजाफा

Poultry Farming| हमारे देश में अभी भी प्रति व्यक्ति अंडा सेवन व मांस सेवन अन्य विकासशील पश्चिमी देशों की तुलना में बहुत ही कम है, इसलिए भारत में मुरगीपालन (Poultry Farming) से रोजगार की अपार संभावनाएं हैं.

मुरगीपालन (Poultry Farming) से देश के तकरीबन 6-7 लाख लोगों को रोजगार मिल रहा है. मुरगीपालन (Poultry Farming) के बहुत से लाभ हैं. इस से परिवार को अतिरिक्त आमदनी, कम खर्च कर के ज्यादा मुनाफा लिया जा सकता है.

अंडे के उत्पादन के लिए ह्वाइट लैग हौर्न सब से अच्छी नस्ल है. इस नस्ल का शरीर हलका होता है और यह प्रजाति जल्दी ही अंडा देना शुरू कर देती है, वहीं मांस उत्पादन के लिए कार्निश व ह्वाइट प्लेमाउथ रौक नस्ल उपयुक्त हैं. ये कम उम्र में अधिक वजन प्राप्त कर लेती हैं. इस नस्ल में आहार को मांस में परिवर्तन करने की क्षमता होती है.

मुरगीपालन (Poultry Farming) के लिए और भी बहुत सी जरूरी बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रख कर व्यवसाय करना चाहिए, जैसे मुरगीपालन (Poultry Farming) के स्थान से निकट बाजार की स्थिति व मुरगी उत्पादन की मांग प्रमुख है. मुरगीपालन (Poultry Farming) के स्थान पर मांस व अंडे की खपत जहां ज्यादा होती हो, वह जगह पास हो तो ठीक रहती है.

मुरगीबाड़ा ऊंचाई पर व शुष्क जगह पर बनाना चाहिए. मुरगीबाड़ा में आवागमन की सुविधा होनी चाहिए. मुरगीशाला में स्वच्छ व साफ पानी के साथ बिजली का उचित प्रबंध होना चाहिए. मुरगीबाड़े में अधिक नमी नहीं होनी चाहिए. वहां का तापमान 27 डिगरी सैंटीग्रेड के आसपास ठीक रहता है.

मुरगीशाला पूर्वपश्चिम दिशा में मुख करते हुए बनाना चाहिए. मुरगीशाला में 2 प्रकार की विधि प्रचलित है. पहली, पिंजरा विधि और दूसरी, डीपलिटर विधि.

मुरगीपालन (Poultry Farming) के लिए महत्त्वपूर्ण अंग है मुरगियों की छंटनी नियमित रूप से करते रहना.

मुरगी के उत्पादन रिकौर्ड को देख कर और उस के बाहरी लक्षणों को ध्यान में रखते हुए खराब मुरगियों को हटाया जा सकता है.

मुरगी के आहार में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन व वसा के साथसाथ खनिज पदार्थ और विटामिन प्रमुख होते हैं. आहार सामग्री में जरूरी पदार्थ को उचित मात्रा में मिला कर प्रयोग में लाया जाता है.

मुरगियों में होने वाले घातक रोगों में आंतरिक व बाह्य परजीवी प्रमुख हैं, जिन का समय पर ध्यान रखना आवश्यक है, वहीं विषाणु रोग भी अत्यंत घातक हैं. जैसे रानीखेत, चेचक, लिम्फोसाइट, मेरेक्स व इन्फैक्शंस, कोराइजा और ईकोलाई वगैरह.

इन सभी रोगों के अलावा खूनी पेचिश, जो कोक्सीडियोसिस कहलाती है, भी घातक है, इसलिए मुरगीपालन (Poultry Farming) के लिए लगातार विशेषज्ञों से संपर्क में बने रहना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है.

रोगों के बारे में जानकारी व बचाव और इलाज की व्यवस्था करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. विषाणुजनित रोगों के लिए टीका लगवाएं.

पशुपालन विभाग की ओर से विभिन्न प्रकार के रोगों की रोकथाम के लिए और रोगों के निदान व जांच के लिए यह सुविधा उपलब्ध है.

वहीं दूसरी ओर मुरगी उत्पादन के विपणन के लिए कई सहकारी समितियां भी बनी हैं. उन समितियों के द्वारा भी विपणन किया जा सकता है. अंडों को बाजार में भेजते समय पैकिंग कर ट्रे में ठीक तरीके से भेजना चाहिए.

मुरगी के आवास में विभिन्न प्रकार के उपकरण काम में आते हैं. जैसे, ब्रूडर कृत्रिम प्रकार से गरमी पहुंचाने की पद्धति में लोहे के मोटे तार द्वारा बने हुए पिंजरों में दो या उस से ज्यादा मुरगियों को एकसाथ रखा जाता है.

वहीं डीपलिटर विधि में एक बड़े से मकान के कमरों में सब से पहले धान के छिलके, भूसा  या लकड़ी का बुरादा बिछा दिया जाता है और फिर दड़बा, को मुरगियों के अंडे देने के लिए बनाया जाता है. अन्य उपकरण, जैसे पर्च मुरगियों के बैठने के लिए विशेष लकड़ी या लोहे से बनाया जाता है. आहार व पानी के लिए बरतन आदि.

एक और महत्त्वपूर्ण उपकरण है ग्रीट बौक्स. यह आवश्यक रूप से अंडे देने वाली मुरगियों के लिए रखा जाता है. इस बक्से में संगमरमर के छोटेछोटे कंकड़ रखे जाते हैं.

मुरगीपालन (Poultry Farming) में नए चूजे लाने व उन की देखभाल के लिए कुछ आवश्यक बातों को ध्यान में रखना होता है :

* मुरगीघर को कीटाणुनाशक दवा डाल कर पानी से धोना चाहिए और आंगन पर साफसुथरा बिछावन बिछा कर मुरगीघर का तापमान हीटर से नियंत्रित करना चाहिए.

* चूजों के लिए साफ व ताजा पानी हर समय उपलब्ध रखना होगा.

* चूजों का स्टार्टर दाना रखना सब से महत्त्वपूर्ण है.

* चूजों को समयसमय पर टीके लगवाने चाहिए. पहले दिन ही मोरेक्स रोग का टीका लगवाना चाहिए. इस के साथ ही चेचक का टीका व रानीखेत का दूसरा टीका 6 से 8 सप्ताह में लगवाना होगा.

* कोई भी चूजा मरे, इस के लिए विशेषज्ञों को दिखा कर उचित राय लेनी चाहिए. 8 सप्ताह की उम्र के बाद ग्रोवर दाना देना आवश्यक है, वहीं 19वें सप्ताह से विशेष लकड़ी या लोहे का बना पर्च रखना चाहिए, ताकि मुरगी उस में जा कर अंडे दे सके.

मुरगीपालन (Poultry Farming)

मुरगियों (Poultry Farming) की गरमियों में देखभाल

गरमियों में मुरगी दाना कम खाती है और इस से प्राप्त ऊर्जा का बड़ा हिस्सा उन के शरीर की गरमी बरकरार रखने के लिए खर्च हो जाता है, इसलिए उन का अंडा उत्पादन कम हो जाता है. अंडों का आकार और वजन भी कम हो जाता है. अंडों का कवच यानी छिलका पतला हो जाता है. इन सब के कारण अंडों को बाजार में कम कीमत मिलती है.

सभी विपरीत प्रभाव गरमी के कारण होते हैं, इसलिए गरमी का असर कम करने के लिए ये उपाय करें :

* बाड़े में ज्यादा तादाद में मुरगियां न रखें. इतनी ही मुरगियां रखें, ताकि वहां ज्यादा भीड़ न हो.

* बाड़े के इर्दगिर्द घने, छायादार पेड़ लगाएं.

* मुरगीफार्म के चारों ओर बबूल या मेहंदी या पूरे साल ज्यादातर हरेभरे रहने वाली वनस्पति की बाड़ लगाएं. इस से गरम हवाओं के थपेड़ों की गति कम हो जाती है और मुरगीफार्म के आसपास का वातावरण ज्यादा गरम नहीं होता.

* अगर मुरगीफार्म के आसपास पेड़पौधे नहीं हैं, तो चारों ओर छत से सट कर कम से कम 10-12 फुट चौड़ा हरे रंग के जालीदार कपड़े का मंडप लगवाएं. इस से धूप की तीव्रता कुछ कम होगी और वहां का वातावरण ज्यादा गरम नहीं होगा.

* मुरगीघर की छत ज्यादा गरम नहीं होने वाली चीज से बनी हो, जैसे सीमेंट की चादर, घासफूस, बांस इत्यादि. अगर टिन की छत है, तो ऊपर की सतह पर सफेद रंग लगवाएं. इस से छत ज्यादा गरम नहीं होती और मुरगीघर के भीतरी तापमान में 4 डिगरी सैंटीग्रेड की कमी आती है.

* मुमकिन हो, तो छत के ऊपर टाट या बोरियां बिछा दें और उन को पानी की फुहार छोड़ कर गीला रखें. इस से छत का तापमान कम हो जाता है और मुरगीघर के भीतरी तापमान में 4 से 14 डिगरी सैंटीग्रेड तक कमी आ सकती है. इस का मतलब बाहरी वातावरण का तापमान अगर 44 डिगरी सैंटीग्रेड भी है, तो वह घट कर 30 डिगरी सैंटीग्रेड तक नीचे आ जाएगा.

आगे अगर मुरगीघर के भीतर पंखा या फौगर लगाया गया है, तो यह तापमान और भी 2 से 3 डिगरी सैंटीग्रेड कम किया जा सकता है. आखिर में 27 डिगरी सैंटीग्रेड तक तापमान आ गया, तो वह मुरगियों के लिए काफी हद तक बरदाश्त करने लायक हो जाएगा और मुरगियों को गरमी से तकलीफ नहीं होगी.

* बाड़े के इर्दगिर्द घास की क्यारियां लगवाएं और उन पर फुहार पद्धति से सिंचाई करें, तो आसपास के वातावरण का तापमान काफी कम होगा.

* बाड़े के बगलों पर टाट या बोरियों के परदे लगवाएं और छिद्रधारी पाइप द्वारा उन पर पानी की फुहार दिनभर पड़ती रहे, ऐसी व्यवस्था करें. इस के लिए छत के ऊपर एक पानी की टंकी लगवाएं और वह पाइप उस से जोड़ दें, तो गुरुत्वाकर्षण दबाव से पानी परदों पर गिरता रहेगा. इस से कूलर लगाने जैसा प्रभाव पड़ेगा और मुरगीघर का भीतरी तापमान काफी कम होगा, जो मुरगियों के लिए सुहावना होगा.

* अगर मुरगियां सघन बिछाली पद्धति में रखी हैं, तो भूसे को सुबहशाम उलटपुलट करें.

* मुरगियों को हमेशा ठंडा पानी ही पीने के लिए दें.

* पीने के पानी में इलैक्ट्रोलाइट पाउडर घोल कर दें.

* मुरगियों के दाने को मैश कर के पानी के हलके छींटे मार कर मामूली सा गीला करें. दाने में प्रोटीन की मात्रा बढ़ाएं, ताकि मुरगियों के शरीर भार में, पोषण स्तर में और अंडों का आकार, छिलका व वजन सामान्य रहें.

* मुरगियों को पीने के पानी में विटामिन सी मिला कर दें.

यदि इस प्रकार प्रबंधन करेंगे, तो मुरगियों को गरमी के प्रकोप से काफी हद तक बचाया जा सकता है और इस से अंडा उत्पादन व आकार और वजन में कमी नहीं होगी. अंडों का छिलका पतला नहीं होगा और वे अनायास नहीं टूटेंगे. साथ ही, नुकसान कम होगा और अंडा उत्पादन व्यवसाय भी किफायती होगा.

अधिक जानकारी के लिए अपने जनपद के कृषि विज्ञान केंद्र और पशुपालन विभाग से संपर्क करें.

Gobar Gas Plant: आधुनिक तकनीक से तैयार  गोबर गैस प्लांट

Gobar Gas Plant : आज के दौर में किसानों के सामने तमाम समस्याएं हैं. इन में खास समस्या है जमीन की उर्वरा शक्ति का कम होना और ईंधन की दिनबदिन होती कमी. इन दोनों खास समस्याओं का सरल और आसान समाधान है गोबर गैस प्लांट (Gobar Gas Plant).

गोबर में काफी मात्रा में ऊर्जा होती है, जिसे गोबर गैस प्लांट (Gobar Gas Plant)  की मदद से गोबर गैस बना कर निकाला जा सकता है. इस प्लांट से बनी हुई गैस से चूल्हा जलाया जा सकता है और इसे रोशनी के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

इस से कम हार्स पावर का इंजन भी चला सकते हैं. गोबर गैस प्लांट (Gobar Gas Plant) से निकला गोबर (सलरी) पूरी तरह सड़ा होता है. यह एक बढि़या खाद है. इस के इस्तेमाल से जमीन की उपजाऊ ताकत बढ़ती है, दीमक नहीं लगती है और खरपतवार के बीज भी नष्ट हो जाते हैं.

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार ने गोबर द्वारा चलने वाले जनता मौडल के बायोगैस प्लांट को सुधार कर ऐसा डिजाइन तैयार किया है, जो ताजे गोबर से चलता है. इस नए डिजाइन के प्लांट का गोबर डालने का पाइप 4 इंच की जगह 12 इंच चौड़ा है, ताकि इस में गोबर बिना पानी के सीधे ही डाला जा सके.

गोबर की निकासी की जगह काफी चौड़ी रखी गई है, जिस से गोबर गैस के दबाव से खुद बाहर आ सके. प्लांट से निकलने वाला गोबर काफी गाढ़ा होता है, जिसे कस्सी की सहायता से खेत में डाला जा सकता है. यह बेहतरीन खाद का काम करता है.

पहले गोबर गैस प्लांट (Gobar Gas Plant) बनाने के बाद उस में गोबर व पानी का घोल (1:1) डाल दिया जाता है. उस के बाद गैस की निकासी का पाइप बंद कर के 10-15 दिनों के लिए छोड़ दिया जाता है. जब गोबर की निकासी वाली जगह से गोबर आना शुरू हो जाता है, तो प्लांट में ताजा गोबर बिना पानी के प्लांट के आकार के मुताबिक सही मात्रा में हर रोज 1 बार डालना शुरू कर दिया जाता है और गैस को जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल किया जा सकता है. निकलने वाले गोबर को उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग, मौलिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा बनाया गया यह गोबर गैस प्लांट अपनेआप में तमाम खासीयतों वाला है. यह पुरानी तकनीक से हट कर है.

ज्यादा जानकारी के लिए यूनिवर्सिटी के फोन नंबरों 01662-285292, 285499 पर संपर्क कर सकते हैं.

उपयोगिता

* इस प्लांट को लगाने से पैसे की लागत दूसरी डिजाइनों के प्लांटों के मुकाबले कम आती है. इसे घर के आंगन में भी लगा सकते हैं. इस के आसपास की जगह साफसुथरी रहती है और बदबू नहीं आती.

* गोबर गैस प्लांट को लैट्रीन से साथ जोड़ कर भी गैस की मात्रा व खाद की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है.

* सलरी में नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा गोबर के मुकाबले ज्यादा होती है और इस का इस्तेमाल करने से जमीन की गुणवत्ता बढ़ती है. इस में नीम, आक या धतूरे के पत्ते मिला कर डालने से खेत में कीड़ों व बीमारियों का हमला नहीं होता.

* सर्दियों में मशरूम के बचे हुए अधस्तर को गोबर में मिला कर बायोगैस को बढ़ा सकते हैं.

Processing of Vegetables: गुणों की हिफाजत करे सब्जियों की प्रोसैसिंग

सब्जियों की प्रोसैसिंग (Processing of Vegetables) का खास मकसद उन का इस प्रकार रखरखाव करना है, ताकि उन्हें बाजार की मांग के हिसाब से कभी भी इस्तेमाल में लाया जा सके. ज्यादा हुई पैदावार की प्रोसैसिंग (Processing) कर के फसल के दौरान हुए नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है.

सेहत के प्रति लोगों की जागरूकता की वजह से सब्जियों की प्रोसैसिंग (Processing of Vegetables) में इजाफा हुआ है. लोगों के तेजी से शहरों में बसने व औरतों के घर से बाहर काम के लिए जाने की वजह से इतना समय नहीं होता कि सब्जियों को छील कर पकाया जा सके, इसलिए लोग प्रोसेस्ड सब्जियों को खरीदना पसंद करने लगे हैं. इस के अलावा सब्जियों की प्रोसैसिंग (Processing of Vegetables) किसानों की आमदनी बढ़ाने व गांवों में रोजगार देने में काफी मददगार साबित हो रही है.

खाने की चीजों को लंबे समय तक रखने के लिए तापमान का उपचार देना प्रोसैसिंग (Processing) कहलाता है. डब्बाबंदी उद्योग में डब्बों में गरम या ठंडा करने के उपचार देने को प्रसंस्करण कहते हैं. गरम या ठंडा करना जीवाणुओं को खत्म करने के लिए किया जाता है. ज्यादातर अम्लीय सब्जियों से भरे डब्बों को 110 डिगरी सैंटीग्रेड तापामन में उपचार कर प्रसंस्करित किया जाता है. अम्ल की वजह से जीवाणुओं का विकास रुक जाता है और उन के बीजाणु बनना भी बंद हो जाते हैं. डब्बों में इस्तेमाल की गई चीनी की चाशनी भी जीवाणुओं को रोकने में मददगार होती है.

प्रसंस्करण से सब्जियों का इस प्रकार रखरखाव किया जाता है, ताकि उन्हें बाजार की मांग के मुताबिक कभी भी इस्तेमाल में लाया जा सके. प्रसंस्करण द्वारा जरूरत से ज्यादा पैदावार व कटाई के बाद के नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है. प्रसंस्करण अपना कर हम सब्जियों के 100 फीसदी उत्पादन का इस्तेमाल कर सकते हैं. सब्जियों के प्रसंस्करण से निम्न फायदे हैं:

* कीमती उत्पाद बनाने के लिए उत्पादन का बिना खराब हुए पूरा इस्तेमाल किया जा सकता है.

* एक जगह से दूसरी जगह तक ले जाने और रखरखाव की लागत में काफी हद तक कमी की जा सकती है.

* बिना मौसम के और पूरे साल सब्जियों के संरक्षित उत्पादों द्वारा ताजी सब्जियों जैसा आनंद लिया जा सकता है.

* सब्जी उत्पादों में बेहतर गुणवत्ता नियंत्रण बनाए रखा जा सकता है.

सब्जी प्रसंस्करित उत्पादों को तैयार करने के लिए बहुत से तरीके हैं, जिन्हें अपना कर हम सब्जियों का पूरी तरह से फायदेमंद इस्तेमाल कर सकते हैं.

सब्जी गूदा और जूस : कुछ सब्जियों जैसे टमाटर को कई तरह के उत्पादों को तैयार करने के लिए उस और गूदे के रूप में परिरक्षित किया जा सकता है. सब्जी रस व गूदा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि उन्हें निकाले जाने के एकदम बाद सुरक्षित किया जाए.

टमाटर का इस्तेमाल पूरे साल सभी सब्जियों में व दूसरी खाने की चीजों में किया जाता है. बड़े कारोबारियों द्वारा टमाटर का परिरक्षण साबुत टमाटर या इस का रस निकाल कर और गाढ़े गूदे के रूप में किया जाता है. टमाटर का दूसरा खास उत्पाद चटनी या सास है. बाजार में टमाटर के ये पदार्थ काफी महंगे बिकते हैं, यही वजह है कि ये पदार्थ आम आदमी खरीद नहीं पाता है.

टमाटर का पकाया हुआ गाढ़ा गूदा (बीज और छिलके समेत) ताजे टमाटर जैसा ही काम करता है. इस गूदे को टमाटर क्रश या साबुत टमाटर का गूदा कहते हैं. पूरे साल में केवल कुछ हफ्ते ही टमाटर सस्ते और काफी मात्रा में मिलते हैं. ऐसे समय पर टमाटर का गूदा गाढ़ा कर के रखा जा सकता है. गाढ़े गूदे में ग्लेशियल ऐसेप्टिक एसिड डाल कर 5 मिनट तक आग पर पकाने के बाद रसायन डाल कर गूदे को परिरक्षित किया जा सकता है. यह रसायन फफूंदी और दूसरे जीवाणुओं को गूदे को खराब करने से रोकता है और उस के रंग, स्वाद व पौष्टिकता को ठीक बनाता है.

कम लागत वाले उपाय : रस और गूदे का परिरक्षण कम लागत वाला सब से बढि़या तरीका है, अगर उसे गरम या पाश्चुरीकृत कर के कार्क के ढक्कन वाली बोतलों में रखा जाए. इस के अलावा दूसरा उपाय यह है कि रस या गूदे के परिरक्षक के लिए उस में केएमएस के नाम से लोकप्रिय पोटैशियम मेटाबाइ सलफाइट जैसे रसायनिक परिरक्षण मिलाए जाएं.

उच्च तकनीक प्रसंस्करण : गूदा परिरक्षण के लिए मौजूद तकनीकों में त्वरित प्रशीतन (तेजी से ठंडा करने वाली) सब से अच्छी तकनीक है, क्योंकि इस से गूदे में कुदरती गुण बने रहते हैं. बरफ से ठंडी की जाने वाली सब्जियों की गुणवत्ता को बनाए रखने में प्रशीतन दर की खास भूमिका है. बेहतर गुणवत्ता हासिल करने के लिए त्वरित प्रशीतन की जरूरत होती है.

बल्क एसेप्टिक पैकेजिंग के उत्पादों को खास तरीके से पैकेज किया गया भोजन माना जाता है, जिस से कि गूदे को विसंक्रमित कर के उसे बिना दोबारा गरम किए विसंक्रमण के लिए एसेप्टिक वातावरण के तहत विसंक्रमित पैकेजिंग सामग्री में पैक कर दिया जाता है.  एसेप्टिक प्रसंस्करित भोजन में रस अलग नहीं होते जो कि आमतौर पर दोबारा गरम करने के दौरान हो जाते हैं, जिस से उन के स्वाद में इजाफा होता है और साथ ही ऊर्जा की खपत भी कम होती है. इस के अलावा इस से पैकेजिंग सामग्री और ढुलाई लागत में भी काफी बचत होती है. ज्यादातर सब्जी उत्पाद जैसे कि पेय, कैचअप, चटनी आदि गूदे या रस से तैयार किए जाते हैं. बल्कि एसेप्टिक पैक गूदे को इस्तेमाल करने का सब से बड़ा फायदा यह है कि इस से ऐसी सब्जियों जो जल्दी खराब होने वाली होती है, के रखरखाव से बचा जा सकता है. इस के अलावा छिलका व बीज के रूप में निकाली गई फालतू सामग्री को भी कई उत्पादों में इस्तेमाल किया जा सकता है.

टमाटर का गूदा बनाना

पके हुए लाल व सख्त टमाटरों को धो कर काला व हरा हिस्सा अलग करने के बाद छोटे टुकड़ों में काटें.

स्टील के भगोने में डाल कर कटे हुए टमाटरों को आग पर पकाएं और थोड़ा ठंडा होने पर मिक्सी में पीस कर गूदा बनाएं.

गूदे को तब तक उबालें जब तक कि उस का वजन एकतिहाई रह जाए और गाढ़ा पेस्ट बन जाए. उस के बाद 5 मिलीलीटर ग्लेशियल ऐसीटिक एसिड प्रति किलोग्राम गूदे के हिसाब से डाल कर 5 मिनट तक दोबारा पकाएं. 0.4 ग्राम पोटैशियम मेटाबाइसल्फाइट व 0.2 ग्राम सोडियम बेंजोइट प्रति किलोग्राम गूदे के हिसाब से थोड़े पानी में घोल कर गूदे में मिलाएं.

तैयार गूदे को सूखे कांच के जार में मुंह तक भर दें. जार को बंद करने के बाद सूखी व ठंडी जगह पर रखें.

सब्जी की प्रोसैसिंग (Processing of Vegetables)

सब्जियों को लवणीय जल या 3 फीसदी नमक, 0.8 फीसदी एसीटिक एसिड और 0.2 फीसदी पोटैशियम मेटाबाइसलफाइट के साधारण घोल में भिगो कर परिरक्षित किया जा सकता है. उस के बाद सब्जी के टुकड़ों को अचार या चटनी बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है.

सब्जियों के तरहतरह के रूप जैसे फांकें, क्यूब्स, कतरन आदि एल्यूमीनियम की ट्रे में रख कर डीहाइड्रेटर में रख कर सुखाए जा सकते हैं. सुखाने से पहले तैयार सब्जियों को पोटेशियम मेटाबाइसलफाइट के घोल में उपचारित कर दिया जाए तो अच्छा रहता है. ऐसा करने से कीड़े व फफूंदी आदि नहीं लगते और रंग भी चमकदार हो जाता है. सूखे पदार्थों को सील बंद कर के डब्बों में बंद कर के रखा जाता है, जिस से नमी की मात्रा सूखे पदार्थों को नुकसान नहीं पहुंचा पाती है.

किण्वन विधि से भी सब्जियों का प्रसंस्करण किया जाता है. इस विधि में न केवल सब्जियों को नष्ट होने से बचा सकते हैं, बल्कि इस से उन के पौष्टिक व खनिज तत्त्व भी कम नष्ट होते हैं. किण्वन के दौरान सब्जियों में लैक्टिक अम्ल बनाने वाले जीवाणुओं द्वारा सब्जियों की कुदरती शक्कर लैक्टिक अम्ल में बदल दी जाती है. यह लैक्टिक अम्ल सब्जियों को परिरक्षित करने में मददगार होता है.

खुंबी के प्रसंस्करण के लिए खुंबी को तोड़ कर साफ पानी से धोया जाता है. परिरक्षण से पहले 2-3 मिनट तक उबलते हुए पानी में डाला जाता है, ताकि भंडारण के समय इन का रंग अच्छा रहे. ताजे पानी में 2 फीसदी नमक, 2 फीसदी चीनी, 0.5 फीसदी साइट्रिक एसिड, 1 फीसदी ऐस्कोरबिक और 0.1 फीसदी पोटेशियम मेटाबाइसलफाइड मिला कर रासायनिक घोल तैयार किया जाता है. उपचारित खुंबी को शीशे के जार में भर देते हैं और तैयार किया गया घोल इतनी मात्रा में डालते हैं कि खुंबी उस में अच्छी तरह डूब जाए. जार को अच्छी तरह ढक्कन लगा कर बंद कर के ठंडी जगह पर रखा जाता है.

प्रसंस्करण और भंडारण में सब्जियों की गुणवत्ता को बनाए रखना बहुत जरूरी है. पहले छीलने और काटे जाने वाली सब्जियां आसानी से धोई जा सकने वाली होनी चाहिए ताकि उन की गुणवत्ता अच्छी बनी रहे. इसलिए अच्छी गुणवत्ता की तैयार सब्जियों के लिए प्रसंस्करण से पहले सब्जियों की सावधानी से छंटाई जरूरी है. गाजर, आलू, मूली और प्याज के लिए अच्छी किस्म का होना बहुत जरूरी है. उदाहरण के लिए गाजर और शलजम में रेशेदार भाग उत्पादों में इस्तेमाल नहीं किए जा सकते, क्योंकि ये उत्पाद की गुणवत्ता पर असर डालते हैं. प्रसंस्करण से पहले सब्जियों को क्लोरीन (25-50 पीपीएम) के घोल से धोना चाहिए और उस के बाद क्लोरीन की मात्रा कम करने के लिए उन को पेय जल में भिगो देना चाहिए. यदि छीलने की जरूरत हो तो चाकू से छीला जाना चाहिए. पहले से छीले हुए और फांकें किए गए सेबों और आलुओं का भूरा होना एक समस्या है, जिस से बचने के लिए उन्हें हलके सल्फाइट के घोल में डालना चाहिए.

जब सब्जियों की बहुतायत होती है, उस समय सब्जियों की वैज्ञानिक ढंग से प्रोसेसिंग कर के उन को उस वक्त इस्तेमाल किया जा सकता है, जब उन का मौसम नहीं होता है. इस प्रकार सब्जियों को इच्छानुसार कभी भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

प्रसंस्करण उत्पादों पर असर डालने वाली वजहें

*    सब्जियों की बाहरी और अंदरूनी गुणवत्ता (किस्म, बढ़वार के हालात, कटाई, नुकसान, आयु वगैरह.)

*    छीलने और काटने से पहले और बाद में सब्जियों की धुलाई.

*    छीलने व काटने का तरीका.

*    धुलाई के समय इस्तेमाल किए गए पानी की गुणवत्ता.

*    पैकिंग विधियां और सामग्री.

*    भंडारण का तापमान.