Masala Peanut : मूंगफली और बेसन का चटकारेदार स्वाद

Masala Peanut |मूंगफली खाने में सब से अच्छी होती है. लोगों को इस को हर रूप में खाना पसंद आता है. ज्यादातर नमकीनों में मूंगफली का प्रयोग किया जाता है. मूंगफली के प्रयोग से नमकीन का स्वाद बढ़ जाता है. यह सेहत के लिए भी अच्छी होती है.

मूंगफली के बढ़ते हुए प्रयोग को देखते हुए अब केवल मूंगफली को ले कर प्रयोग होने लगे हैं. इस को मूंगफली नमकीन, मसाला पीनट जैसे कई नामों से जाना जाता है. यह छोटे और बड़े हर तरह के पैकेट में मिलता है. अच्छी क्वालिटी की मूंगफली, बेसन और मसालों के प्रयोग से यह बहुत टेस्टी बन जाता है. इस को रोजगार का जरीया भी बनाया जा सकता है.

देश में मूंगफली की खेती बडे़ पैमाने पर होती है. मूंगफली के बढ़ते प्रयोग से इस के किसानों का मुनाफा बढ़ता है. मूंगफली को ‘गरीबों का मेवा’ कहा जाता है. खासकर जाड़ों में इस को खाना बहुत गुणकारी होता है.

मूंगफली के इन गुणों के कारण ही मिठाई से ले कर नमकीन तक में इस का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. मसाला पीनट मूंगफली नमकीन का बदला हुआ रूप है. करीबकरीब पूरे देश में यह मिलता है. ऐसे में यह किसान और उपभोक्ता दोनों के लिए हितकारी है.

इसे बडे़ पैमाने पर बना कर रोजगार का जरीया भी बनाया जा सकता है. अगर माइक्रोवेव का प्रयोग नहीं करना चाहते हैं, तो मसाला लगे मूंगफली के दानों को तेल में हलका सा फ्राई कर लीजिए. ध्यान रहे कि मसाला जलने न पाए.

अगर मसाला जल गया तो इस का स्वाद अच्छा नहीं होगा. इस के साथ यह देखना भी बहुत जरूरी है कि जिस मूंगफली का प्रयोग किया जा रहा हो, उस की क्वालिटी बहुत अच्छी हो, खराब किस्म की मूंगफली के दाने स्वाद को खराब करते हैं.

बनाने की विधि : सब से पहले बेसन को किसी बड़े प्याले में डाल कर उस में नमक, लाल मिर्च पाउडर, गरम मसाला, धनिया पाउडर, अमचूर पाउडर, बेकिंग सोडा और हींग डाल कर अच्छी तरह मिला दीजिए. थोड़ा अमचूर पाउडर बचा कर रख लीजिए. इस का प्रयोग बाद में करेंगे.

मूंगफली के दाने जिस बरतन में भरे हैं, उस में इतना पानी भर दीजिए कि मूंगफली के दाने पानी में डूब जाएं और तुरंत छलनी से छान कर पानी हटा दीजिए. ध्यान रखें कि मूंगफली के दाने सिर्फ गीले होने चाहिए. मूंगफली के गीले दाने बेसन मसाला मिक्स में डाल कर मिक्स कीजिए. देख लीजिए कि बेसन मसाला मूंगफली के दाने के ऊपर अच्छी तरह कोट हो जाए. अगर बेसन सूखा बचा हुआ है, तो 1-2 छोटे चम्मच पानी छिड़कते हुए डाल कर मिला दीजिए, ताकि सारा बेसन और मसाले मूंगफली के दानों पर कोट हो जाएं. अब तेल डाल कर मूंगफली के दानों में मिला दीजिए.

माइक्रोवेव सेफ  ट्रे ले लीजिए और मसाला मिले मूंगफली के दाने ट्रे में अलगअलग करते हुए फैला दीजिए. ट्रे को माइक्रोवेव में रखिए और अधिकतम तापमान पर 4 मिनट माइक्रोवेव में गरम कीजिए. ट्रे को बाहर निकालिए और दानों को पलट दीजिए, अलगअलग कर दीजिए. ट्रे को फिर से माइक्रोवेव में रख दीजिए और 1 मिनट और माइक्रोवेव में गरम कर लीजिए. ट्रे को बाहर निकालिए. मसाला पीनट बन चुके हैं.

मसाला पीनट में चाट मसाला डाल कर मिला दीजिए. अगर आप महसूस करें कि अभी मसाला पीनट पूरी तरह से कुरकुरे नहीं हुए हैं, तो उन्हें 1 मिनट और माइक्रोवेव में गरम कर लीजिए.

मसाला पीनट को पूरी तरह ठंडा होने के बाद एयर टाइट कंटेनर में भर कर रख दीजिए. अगर आप मसाला पीनट में तेल नहीं डालना चाहें, तो न डालें. बिना तेल के भी मसाला पीनट अच्छे बनते हैं, लेकिन तेल डालने से मसाला पीनट का रंग और स्वाद दोनों ही बढ़ जाते हैं.

मसाला पीनट बनाने के लिए सामग्री : मूंगफली के दाने 1 कप, बेसन आधा कप, नमक स्वादानुसार, लाल मिर्च पाउडर  स्वादानुसार, आधा चम्मच गरम मसाला, आधा चम्मच चाट मसाला, आधा चम्मच धनिया पाउडर, आधा छोटा चम्मच अमचूर पाउडर, बेकिंग सोडा 2 चुटकी, हींग 1 चुटकी

Home Garden : बागबानी से महकाएं घरद्वार

Home Garden | बागबानी का शौक हर किसी को होता है. यह शौक पूरा करने के लिए कुछ समय तो देना ही पड़ता है. हम अगर पूरे बाग को रंगबिरंगे फूलों से सजाएं, तो हमें पेड़पौधों और गमलों का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा. ऐसा नहीं है कि सिर्फ 4-5 पौधे लगाए और पूरा बाग सज गया या सिर्फ गमले के बीच में पानी भर दिया तो हो गई बागबानी.

बाग लगाने के लिए उस की देखरेख भी जरूरी है. जरूरत पड़ने पर उस में खादों और कीटनाशकों का भी प्रयोग किया जाता है. किस तरह के बीज बोएं  कितनी धूप दिखाएं  कितना पानी और उर्वरक दें. बागबानी में इन सब बातों का ध्यान रखना पड़ता है.

बरसात के मौसम में जहां बालसम, गमफरीना, नवरंग व मुर्गकेश वगैरह के पौधे लगाए जा सकते हैं, तो वहीं सर्दी के मौसम में पैंजी, पिटुनिया, डहेलिया, गेंदा व गुलदाऊदी वगैरह के पौधे लगाए जा सकते हैं. इन के अलावा बारहमासी फूलों के पौधे जैसे गुड़हल, रात की रानी व बोगनवेलिया वगैरह भी लगाए जा सकते हैं. यह जरूरी नहीं है कि आप ढेरों पौधे लगाएं. आप उतने ही पौधे लगाएं, जिन की देखरेख आसानी से कर सकते हैं.

रंगबिरंगे फूल जो सितंबर से नवंबर तक खिलते हैं, वे कई तरह के होते हैं. उन में सेवंती और गेंदे के ढेर सारे विकल्प होते हैं. सितंबर से ले कर नवंबर के शुरुआती दिनों तक कभी भी इन्हें लगा सकते हैं.

यदि सिर्फ फूल वाले पौधे लगाना चाहते हैं, तो पिटूनिया, सालविया, स्वीट विलियम, स्वीट एलाइसम, चायना मोट, जीनिया, गुलमेहरी, गमफरीना, सूरजमुखी और डहेलिया जैसे पौधे चुन सकते हैं और यदि सजीले पौधों से बगीचे को सजाना है, तो कोलियस और इंबेशन लगाना बेहतर होगा.

कुछ पौधे जैसे मनीप्लांट, कैक्टस और ड्राइसीना इनडोर प्लांट हैं यानी हम ये पौधे छांव में, कमरे में या कहीं भी लगा सकते हैं. इन सब में मनीप्लांट आसानी से मिलने वाला, हमेशा हराभरा रहने वाला पौधा है. इस के हरे पत्तों पर हलके हरेसफेद धब्बे सुंदर लगते हैं.

ऐसा ही एक और इनडोर पौधा है कैक्ट्स. इस कांटेदार पौधे की भी देखभाल करनी पड़ती है. इसे लगाते समय मिट्टी में नीम की खली, गोबर की खाद और रेत बराबर मात्रा में मिलानी चाहिए. इसे काफी कम पानी देना पड़ता है. हर साल पौधे को निकाल कर उस की सड़ी जड़ें काट देनी चाहिए और फिर से गमले में लगा देना चाहिए. बहुत तेज धूप होने पर या तेज बरसात में पौधों को छाया में ही रखना बेहतर होता है. अपने समय में इन में फूल आते हैं, जिन की खूबसूरती देखते ही बनती है.

गेंदे के पौधे साल में 3 बार नवंबर, जनवरी और मईजून में लगा सकते हैं. इस तरह पूरे साल गेंदे के फूल मिल सकते हैं. यह कीड़ों से सुरक्षित रहता है. गेंदे की कई किस्में होती हैं, जैसे हजारा गेंदा, मेरी गोल्ड, बनारसी या जाफरानी.

यदि इस के फूलों को सुखा कर रख लें तो हम इस से अगली बार पौधे तैयार कर सकते हैं. असल में सूखा हुआ फूल बीज के लिए तैयार हो जाता है.

दूसरा फूल है गुड़हल का. इसे सितंबर से अक्तूबर में लगाना चाहिए. गुड़हल कई रंगों का होता है जैसे लाल, गहरा लाल, गुलाबी, बैगनी, नीला वगैरह. समयसमय पर इस में खाद डालते रहना चाहिए. इस की नियमित सिंचाई भी जरूरी है.

एक खूबसूरत सा पौधा है सूरजमुखी. इस के कई साइज होते हैं. बड़ा सूरजमुखी गोभी के फूल से भी बड़ा होता है. इस के बीजों से तेल भी निकाला जाता है. छोटा सूरजमुखी ढेर सारे पीले फूल देता है. इसे अप्रैल में लगाना चाहिए. यह घरों में बगीचे की शान बढ़ाता है.

एक और सुंदर दिखने वाला पौधा है जीनिया. यह 3 किस्मों में मिलता है. इस की छोटी किस्म पर्सियन कारपेट कहलाती है. इसे अगस्त या सितंबर में लगाना चाहिए ताकि इसे बरसाती कीड़ों से बचाया जा सके. इस के कागज जैसे रंगीन फूल पौधे पर कभी नहीं सूखते हैं.

एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पौधा है तुलसी. यह तकरीबन हर घर में मिलता है. इस की 3 किस्में होती हैं रामा तुलसी, श्यामा तुलसी और बन तुलसी. इसे साल में कभी भी लगा सकते हैं. यह औषधीय गुणों का वाला पौधा है. यह वातावरण को शुद्ध रखता है. इस की पत्तियों को चबाने से अनगिनत बीमारियों से बचा जा सकता है.

एक और पौधा है डहेलिया. डहेलिया को क्यारियों और गमलों दोनों में उगाया जा सकता है. इसे उगाने के लिए पूरी तरह खुला स्थान चाहिए, जहां कम से कम 4 से 6 घंटे तक धूप आती हो.

पौधा लगाने की विधि

पौधा लगाने की सब से अच्छी विधि कटिंग द्वारा पौधा तैयार करना है. पुराने पौधों की शाखाओं के ऊपरी भाग से 8 सेंटीमीटर लंबी कटिंगें काट लें. उन को मोटी रेत या बदरपुर में 2 इंच की दूरी पर, डेढ़ इंच गहराई में लगाएं. लगाने के बाद 3 दिनों तक कटिंग लगाए गए गमलों को छायादार जगह पर रखें. उन से 15 दिनों के बाद जड़ें निकल आती हैं. इस के बाद ही इन्हें 10 से 12 इंच के गमलों में लगाते हैं. ये पौधे ज्यादा धूप या पानी से मुरझा जाएंगे, लिहाजा इस बात का खास ध्यान रखें.

यदि पौधों को गमलों में उगाना है, तो गमलों में 3 हिस्से मिट्टी व 1 भाग गोबर की खाद मिला कर भर दें. गमले का ऊपरी हिस्सा कम से कम 1 से डेढ़ इंच खाली रखें, जिस से पानी के लिए जगह मिल सके. 1 गमले में 1 ही पौधा रोपें. पौधे रोपने के तुरंत बाद पानी देना चाहिए. यदि पौधे क्यारी में लगाने हों, तो उन्हें 40-50 सेंटीमीटर की दूरी पर रोपें. क्यारी को 10-12 इंच गहरा खोद लें. इस के बाद 100 ग्राम सुपर फास्फेट, 100 ग्राम सल्फेट पोटेशियम, 25 ग्राम मैग्नेशियम सल्फेट प्रति वर्गमीटर क्षेत्र के हिसाब से दें. साथ ही फूलों में चमक लाने के लिए खड़ी फसल में 1 चम्मच मैग्नेशियम सल्फेट को 10 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें.

क्यारियां कंकड़पत्थर रहित होनी चाहिए. क्यारियों की मिट्टी में 5 किलोग्राम प्रति वर्गमीटर के हिसाब से गोबर की खाद जरूर मिलानी चाहिए.

अगर आप डहेलिया को गमलों में उगाना चाहते हैं, तो गमले कम से कम 12 से 14 इंच के लें. मिट्टी व गोबर की खाद की बराबर मात्रा को गमलों में भर दें. गमले पूरी तरह मिट्टी से न भरें. उन का ऊपरी हिस्सा कम से कम 2 से ढाई इंच खाली होना चाहिए, जिस से गमलों में पानी के लिए जगह रहे.

गरमी पड़ने पर हफ्ते में 2 बार पानी देने की जरूरत होती है. सर्दी के मौसम में 8 से 10 दिनों के अंतर पर पौधों को पानी देना चाहिए.

नरवाई जलाने (Burning Stubble) से नुकसान

Burning Stubble |फसल काटने के बाद तने के जो अवशेष बचे रहते हैं, उन्हें नरवाई कहते हैं. पिछले सालों का तजरबा रहा है कि किसान फसल कटाई के बाद फसल अवशेष नरवाई को जला देते हैं. इस से आग लगने के हादसों के डर के साथसाथ भूमि में मौजूद सूक्ष्म जीव जल कर खत्म हो जाते हैं और जैविक खाद का निर्माण बंद हो जाता है.

हम खेतों की मिट्टी को सूक्ष्मदर्शी यंत्र से देखें, तो हमें मिट्टी में बहुत से सूक्ष्म जीव नजर आते हैं, जो नरवाई को जलाने से मर जाते हैं. फसलों के गिरते उत्पादन और किसानों को हो रहे घाटे के पीछे नरवाई जलना खास वजह है.

नरवाई को खेत में मिलाने के लाभ

* खेत में जैव विविधता बनी रहती है. जमीन में मौजूद मित्र कीट शत्रु कीटों को खा कर नष्ट कर देते हैं.

* जमीन में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ जाती है, जिस से फसल उत्पादन ज्यादा होता है.

* दलहनी फसलों के अवशेषों को जमीन में मिलाने से नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ जाती है, जिस से फसल उत्पादन भी बढ़ता है.

* किसानों द्वारा नरवाई जलाने के बजाय भूसा बना कर रखने पर जहां एक ओर उन के पशुओं के लिए चारा मौजूद होगा, वहीं अतिरिक्त भूसे को बेच कर वे आमदनी भी बढ़ा सकते हैं.

* किसान नरवाई को रोटावेटर की सहायता से खेत में मिला कर जैविक खेती का लाभ ले सकते हैं.

नरवाई जलने से नुकसान

* जमीन में जैव विविधता खत्म हो जाती है और सूक्ष्म जीव जल कर खत्म हो जाते हैं.

* जैविक खाद का निर्माण बंद हो जाता है.

* जमीन कठोर हो जाती है, जिस के कारण जमीन की जलधारण कूवत कम हो जाती है.

* पर्यावरण खराब हो जाता है और तापमान में बढ़ोतरी होती है.

* कार्बन से नाइट्रोजन व फास्फोरस का अनुपात कम हो जाता है.

* जीवांश की कमी से जमीन की उर्वरक कूवत कम हो जाती है.

* नरवाई जलाने से जनधन की हानि होने का खतरा रहता है.

* खेत की सीमा पर लगे पेड़पौधे जल कर खत्म हो जाते हैं.

आखिर क्या करें किसान

* नरवाई खत्म करने के लिए रोटावेटर चला कर नरवाई को बारीक कर के मिट्टी में मिलाएं.

* नरवाई को मिट्टी में मिला कर जैविक खाद तैयार करें, साथ ही स्ट्रारीपर का इस्तेमाल करें और डंठलों को काट कर भूसा बनाएं.

* भूसे का इस्तेमाल किसान अपने पशुओं को खिलाने के लिए करें और भूसा बेच कर अलग से आमदनी भी हासिल करें.

Deep Plowing : गरमी में करें खेत की गहरी जुताई

Deep Plowing | रबी और जायद की कटाई के बाद कुछ दिनों तक अधिकतर खेत खाली पड़े रहते हैं. इन खाली दिनों में खेतों की गहरी जुताई का बेहद महत्त्व है. गरमी की जुताई से अगली फसल को कई तरह के लाभ मिलते हैं. इस से फसल पर कीटों और रोगों का हमला कम होता है और उपज में इजाफा होता है.

गरमी की गहरी जुताई के फायदे

जीवांश खाद की प्राप्ति : गरमी के समय में रबी व जायद की फसल कट जाने के बाद खेत की जुताई करने से फसल के अवशेष डंठल व पत्तियां आदि भूमि में दब जाते हैं, जो बारिश के मौसम में सड़ कर जमीन को जीवांश पदार्थ मुहैया कराते हैं.

हानिकारक कीटों से बचाव: गरमी की जुताई से रबी या जायद की फसलों पर लगे हुए हानिकारक कीटों के अंडे व लार्वा, जो जमीन की दरारों में छिपे होते हैं, मईजून की तेज धूप से नष्ट हो जाते हैं. इस से खेत कीटपतंगों से सुरक्षित हो जाता है और अगली फसल में कीटों के हमले की संभावना कम हो जाती है.

मिट्टी रोगों से बचाव : गरमी की जुताई से खरपतवारों के बीज तेज गरमी से नष्ट हो जाते हैं. बाकी बचे बीज ज्यादा गहराई में पहुंच जाने से उन का अंकुरण नहीं हो पाता. नतीजतन खेत को खरपतवार से नजात मिल जाती है.

कीटनाशकों के प्रभाव से मुक्ति : रबी या खरीफ फसलों में इस्तेमाल किए गए कीटनाशकों व खरपतवारनाशकों का असर जमीन में गहराई तक हो जाता है. गरमी में जुताई कर देने से खेत में उन का प्रभाव खत्म हो जाता है. तेज धूप से ये जहरीले रसायन विघटित हो जाते हैं और उन का खेत में असर नहीं रह जाता है.

रासायनिक उर्वरकों का विघटन : खेत में इस्तेमाल किए गए रासायनिक उर्वरकों का 65 फीसदी हिस्सा अघुलनशील हालत में खेत में पड़ा रह जाता है, जो धीरेधीरे खेत को बंजर बनाता है. गरमी की जुताई से सूर्य की तेज धूप से ये रसायन विघटित हो कर घुलनशील उर्वरकों में बदल जाते हैं और अगली फसल को पोषण देते हैं.

मिट्टी में वायु संचार : बारबार ट्रैक्टर जैसे भारी वाहनों से जुताई व सिंचाई करने से मिट्टी के कणों के बीच का खाली स्थान कम हो जाता है, यानी खेत की मिट्टी सख्त व कठोर हो जाती है. इस से मिट्टी में हवा का आनाजाना रुक जाता है, जिस से उस की उर्वरता कम हो जाती है. गरमी की जुताई से मिट्टी की नमी खत्म होने लगती है और कणों के बीच का खाली स्थान बढ़ जाता है यानी पोली हो जाती है. इस से उस में हवा का आनाजाना होने लगता है, जो फसल की सेहत के लिए अच्छा होता है.

जलधारण कूवत का विकास : गरमी की जुताई से खेत की नमी काफी गहराई तक सूख जाती है. मिट्टी के सूराख खुल जाने से बारिश का पानी जमीन द्वारा सोख लिया जाता है, जिस से मिट्टी की जलधारण कूवत बढ़ जाती है व नमी काफी मात्रा में खेत में मौजूद रहती है. यह नमी खरीफ की फसल के उत्पादन में काम आती है.

कैसे करें गरमी की जुताई : गरमी के समय में खेत की जुताई खेत के ढाल के विपरीत करें. इस से बारिश का पानी ज्यादा से ज्यादा खेत द्वारा सोखा जाएगा. इस से जमीन का कटाव रोकने में भी मदद मिलेगी. हलकी व रेतीली जमीन में ज्यादा जुताई न करें, क्योंकि इस से मिट्टी भुरभुरी हो जाती है और हवा व बरसात से मिट्टी का कटाव बढ़ जाता है.

Trench Method :ट्रैंच विधि से किया गन्ना उत्पादन

Trench Method | उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के रहने वाले शरद त्यागी एक ऐसे इनसान हैं, जिन में हमेशा आम लोगों से हट कर कुछ नया करने की ललक रहती है.

उन्होंने शिक्षा पूरी करने के बाद भारतीय सीमा सुरक्षा बल में नौकरी कर ली, लेकिन उन का मन नौकरी में नहीं लगा, लिहाजा उन्होंने नौकरी छोड़ दी और घर वापस आ कर अपने पिताजी के पैतृक व्यवसाय खेती में लग गए. उन के मन में जो आम लोगों से हट कर करने का जज्बा था, वह शांत नहीं हुआ, तो वे एक दिन कृषि विज्ञान केंद्र गए.

कृषि विज्ञान केंद्र ने दी नई दिशा : आधुनिक कृषि तकनीकों को जानने की इच्छा और कुछ करने के बुलंद हौसलों के साथ उन्होंने केंद्र के वैज्ञानिकों से गन्ना उत्पादन तकनीकों की विस्तार से जानकारी ली. केंद्र के वैज्ञानिकों ने समयसमय पर उन के खेत पर जा कर उन्हें नवीनतम तकनीकों से अवगत कराया.

आधुनिक तकनीकों से खेती की शुरुआत : खेती की नवीनतम जानकारी से प्रभावित हो कर शरद त्यागी ने ट्रैंच विधि से गन्ना उत्पादन करने की शुरुआत की. आज वे ट्रैंच विधि से गन्ना उत्पादन के लिए अपने जिले ही नहीं, बल्कि प्रदेश व देश के किसानों के लिए रोल माडल बन गए हैं. तकरीबन 5000 किसान उन से उन की तकनीकों के बारे में जानकारी ले चुके हैं. आज भी शरद कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों के संपर्क में रहते हैं और जो कृषि संबंधी समस्याएं आती हैं, उन का हल पूछते हैं.

trench method

ट्रैंच विधि से गन्ना उत्पादन के लाभ

* बीज की मात्रा आम विधि के मुकाबले कम लगती है.

* आम विधि के मुकाबले जमाव ज्यादा होता है.

* सिंचाई करने में कम समय लगता है, नतीजतन पानी की बचत होती है.

* उत्पादन खर्च में कमी आती है.

* उपज ज्यादा मिलती है.

Food processing : खाद्य प्रसंस्करण शौक को बनाया रोजगार

Food processing| तरक्की के नजरिए से खाद्य प्रसंस्करण काफी बड़ा क्षेत्र है. इस से तरक्की की अनेक संभावनाएं हैं. इस के तहत अनेक तरह की फलसब्जियों की प्रोसेसिंग कर अनेक उत्पाद तैयार किए जाते हैं, जिन की बाजार में अच्छी कीमत भी मिलती है. इस में खासकर अचार, मुरब्बे, जैम, चटनी, जूस, पापड़, बड़ी, चिप्स, बिसकुट जैसे अनेक उत्पाद हैं, जिन्हें गांवदेहात से ले कर बड़े शहरों तक बहुत पसंद किया जाता है. सरकार की भी प्रोसेसिंग के क्षेत्र में लोगों को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएं हैं.

फूड प्रोसेसिंग के तहत अनेक संस्थाओं व अनेक कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा इस तरह के कोर्स कराए जाते हैं, जहां से ट्रेनिंग ले कर कोई भी महिला या पुरुष इसे रोजगार का साधन बना सकता है और आमदनी ले सकता है. फूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले महिलाएं ज्यादा हाथ आजमा रही हैं और सफल भी हो रही हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में महिलाएं घरेलू तौर पर पहले ही दक्ष होती हैं.

ऐसी ही एक महिला हैं राजवंती, जो हरियाणा के जींद जिले की रहने वाली हैं. उन्होंने ‘सुप्रीम अचार उद्योग’ के नाम से अपनी इकाई लगा रखी है. पटियाला चौक रेलवे रोड पर स्थित इन की इकाई में तकरीबन 45 तरह के उत्पाद तैयार किए जाते हैं, जिन में 30 तरह के अचार, 6 तरह के मुरब्बे शामिल हैं. इन के अलावा वे अनेक तरह की चटनी, जैम, शर्बत, कैंडी वगैरह भी बनाती हैं. उन की इकाई में 15 से 20 लोगों को रोजगार भी मिल रहा है.

Food processing

हरियाणा के रोहतक व दादरी, पंजाब के चंडीगढ़ और दिल्ली के रोहिणी में इन के शोरूम हैं.

अभी हाल ही में चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय, हिसार में लगे कृषि मेले में राजवंती से मुलाकात हुई. उन्होंने बताया, ‘मुझे बचपन से ही तरहतरह के व्यंजन बनाने का शौक था.

‘यही शौक आज मेरा रोजगार बन गया और मैं इस लायक हो गई कि 15-20 लोगों को भी अपने साथ रोजगार दिया.’

हालांकि राजवंती ने सिलाईकढ़ाई में आईटीआई की है, लेकिन तरहतरह के पकवान बनाने के शौक ने उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया है.

राजवंती ने बताया कि वे घरेलू तौरतरीकों से आयुर्वेद की पद्धति के मुताबिक अपने उत्पाद तैयार करती हैं, जिन्हें पूरी शुद्धता के साथ तैयार किया जाता है. लोगों का उन पर विश्वास ही उन की सफलता की सीढ़ी है.

उन्होंने आगे बताया कि खुद का रोजगार शुरू करने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम योजना की जानकारी अपने क्षेत्र के जिला उद्योग केंद्र, जींद से ली, जहां से उन्हें पूरा सहयोग मिला और प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम के तहत साल 2012-13 में उन्हें 25 लाख रुपए लोन बैंक द्वारा मुहैया कराया गया. उस के बाद उन्होंने ‘सुप्रीम अचार उद्योग’ के नाम से अपनी इकाई स्थापित की. इस के बाद वे दिल्ली व हरियाणा में लगने वाले कृषि मेलों में भी पहुंचने लगीं, जहां उन्होंने स्टाल लगा कर अपने उत्पादों को आम लोगों तक पहुंचाया.

आज के समय में फूड प्रोसेसिंग खासा मुनाफे का सौदा है. कम पढ़ेलिखे लोग भी इस की ट्रेनिंग ले कर इसे अपने रोजगार का जरीया बना सकते हैं. अनेक संस्थाओं और कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा बहुत कम समय की ट्रेनिंग दी जाती है, जहां से टे्रनिंग ले कर कोई भी व्यक्ति अपना रोजगार शुरू कर सकता है.

बगीचे पर ऊंचे तापमान के असर का बचाव

फलों के पेड़ों को ज्यादा तापक्रम के कारण सनबर्न व सन स्काल्ड नाम के नुकसान होते हैं. पौधों की बढ़वार के समय तापक्रम अधिक होने पर धूप के सीधे संपर्क में आने वाली पत्तियों, तनों व फलों को नुकसान होता है. जब वायुमंडल में आर्द्रता कम हो व हवाएं तेज चलें, तब ज्यादा तापमान के प्रभाव से पौधों को बहुत ज्यादा नुकसान होता है. इस समय पौधों से ज्यादा भाप निकलती है, जिस से पौधों की पत्तियां व टहनियां सूख जाती हैं.

बाग की दक्षिणपश्चिम दिशा में सूर्य की किरणें अन्य दिशाओं की तुलना में दिन में ज्यादा समय तक सीधी पड़ती हैं, जिस के कारण पौधों में सन स्काल्ड होता है. सूर्यास्त के  बाद तापक्रम अचानक गिर जाता है, जिस से पौधों को नुकसान पहुंचता है. नीबू प्रजाति के पेड़ों को यह नुकसान ज्यादा होता है.

ऊंचे तापमान से पेड़ों का बचाव : गरमी के मौसम में जब तापक्रम 40 डिगरी सेंटीग्रेड से ऊपर पहुंचने लगता है, उस समय पौधों को गरमी से बचाने के लिए निम्नलिखित सावधानियां अपनानी चाहिए:

छाया करना: छोटे पौधों (नए रोपित) को कांस, मूंज, कड़वी आदि की टटियां बना कर ढक देना चाहिए. गमलों में लगे पौधों को बड़े पौधों की छाया में रख कर गरमी से बचाया जा सकता है.

पौधों को ढकना : यदि मुमकिन हो तो पौधों के तनों को ऊपर से नीचे तक अखबार लपेट कर ढक देना चाहिए, ताकि पौधों की ऊंचे तापमान से रक्षा की जा सके.

नियमित सिंचाई : पौधों को ऊंचे तापमान से बचाने के लिए मिट्टी की किस्म व तापमान को ध्यान में रखते हुए सिंचाई का अंतराल कम कर देना चाहिए. नियमित सिंचाई कर के हलकी नमी बनाए रखनी चाहिए.

सिंचाई के समय में बदलाव : गरमी में सिंचाई के शाम के समय में बदलाव कर देना चाहिए, क्योंकि दिन की गरमी के बाद अचानक पानी देने से पौधे मर जाते हैं. गरमी में रात 2 बजे से सुबह 9 बजे तक सिंचाई करनी चाहिए.

बगीचे (Garden)

विंड ब्रेक लगाना : बाग लगाते समय पश्चिम दिशा में लंबे सदाबहार पेड़ों की 2-3 पट्टियां जरूर लगाएं. सदाबहार पेड़ों में जामुन, कटहल, बांस, सफेदा, सूलबूल, पोपलर, महुआ व टीक आदि का चयन स्थानीय हालात के मुताबिक करना चाहिए. किसी कारण यह विंड ब्रेक सफल न हो, तो अगला विंड ब्रेक तैयार होने तक कच्ची या पक्की दीवार बना कर पौधों की रक्षा की जा सकती है.

सफेदी कर के : पेड़ों पर सफेदी कर के भी उन्हें गरमी से बचाया जा सकता है. जाड़े के मौसम के बाद पौधों पर बसंत के मौसम में सफेदी की दोहरी कोटिंग कर देनी चाहिए. सफेदी की कोटिंग करने से पौधों की गरमी के साथसाथ कीड़ों से भी सुरक्षा हो जाती है.

नर्सरी के पौधों की ग्रीन हाउस में सुरक्षा : नर्सरी के पौधों की ग्रीन हाउस में ऊंचे तापमान से सुरक्षा की जा सकती है. इस के लिए सस्ती सामग्री का इस्तेमाल कर के ग्रीन हाउस बना सकते हैं.

Onion Seed : प्याज बीज उत्पादन की वैज्ञानिक विधि

Onion Seed| प्याज के शुद्ध व विश्वसनीय बीज पैदा करने के लिए सही कृषि क्रियाओं, प्रजातियों, छंटाई, कीड़ों व बीमारियों की रोकथाम, परागण, कटाई, सुखाई, मड़ाई, बीज की सफाई, भराई व भंडारण के बारे में सही ज्ञान होना बहुत जरूरी है.

बीज उत्पादन के लिए प्याज को 2 वर्षीय कहा गया है. सभी जातियों का (जो भारत में उगाई जाती हैं) बीज उत्पादन मैदानी क्षेत्रों में आसानी से किया जाता है.

प्याज के बीजोत्पादन की विधि

कंद से बीज उत्पादन विधि : इस विधि में कंदों को बनने के बाद उखाड़ लिया जाता है और अच्छी तरह चुन कर के दोबारा खेतों में रोपा जाता है. इस विधि से गाठों की छंटाई संभव होती है, शुद्ध बीज बनता है और उपज भी ज्यादा होती है. लेकिन इस विधि में लागत ज्यादा आती है और समय अधिक लगता है.

1 वर्षीय विधि : इस विधि में बीजों को मईजून में बोया जाता है और पौधों की रोपाई जुलाईअगस्त में की जाती है. कंद नवंबर में तैयार हो जाते हैं. कंदों को उखाड़ कर छांट लिया जाता है. अच्छे कंदों को 10-15 दिनों बाद दोबारा दूसरे खेत में लगा दिया जाता है. इस विधि से मई तक बीज तैयार हो जाते हैं. क्योंकि इस से 1 साल में ही बीज बन जाते हैं, लिहाजा इसे 1 वर्षीय विधि कहते हैं. इस विधि से खरीफ प्याज की प्रजातियों का बीजोत्पादन होता है.

2 वर्षीय विधि : इस विधि में बीज अक्तूबनवंबर में बोए जाते हैं और पौधे दिसंबर के आखिर या जनवरी के शुरू में खेत में लगाए जाते हैं. कंद मई के अंत तक तैयार हो जाते हैं. चुने हुए कंद अक्तूबर तक भंडार में रखे जाते हैं.

नवंबर में फिर चुन कर अच्छे कंद खेत में लगा दिए जाते है. क्योंकि इस विधि के द्वारा बीज पैदा होने में तकरीबन डेढ़ साल लग जाते हैं, इसलिए इसे 2 वर्षीय विधि कहते हैं. इस विधि से रबी प्याज की प्रजातियों का बीजोत्पादन करते हैं.

प्याज कंद उगाने की उन्नत विधि

सही जलवायु : अच्छी पैदावार के लिए 14-21 डिगरी सेल्सियस तापमान, 10 घंटे लंबे दिन और 70 फीसदी आर्द्रता मुनासिब होती है.

जमीन और उस की तैयारी : बलुई दोमट, सिल्टी दोमट और गहरी भुरभुरी 6.5-7.5 पीएच वाली मिट्टी प्याज के लिए अच्छी होती है. 3-4 जुताइयां कर के खेत की अच्छी तैयारी कर लेते हैं.

बोआई और रोपाई का समय

खरीफ के प्याज की बोआई जूनजुलाई और रोपाई जुलाईअगस्त में करनी चाहिए. रबी के प्याज की बोआई अक्तूबरनवंबर और रोपाई दिसंबरजनवरी में करनी चाहिए.

दूरी : रोपाई करते समय लाइन से लाइन की दूरी 15 सेंटीमीटर और लाइन में पौधों की दूरी 10 सेंटीमीटर रखते हैं. रोपाई के फौरन बाद हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए.

बीज की मात्रा : 1 हेक्टेयर की रोपाई के लिए 6-8 किलोग्राम बीज सही होता है.

खाद : गोबर की खाद 50 टन, कैल्सियम अमोनियम नाइट्रेट 400 किलोग्राम या यूरिया 200 किलोग्राम, सिंगल सुपर फास्फेट 300 किलोग्राम और म्यूरेट आफ पोटाश 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए. नाइट्रोजन खाद को 2 भागों में रोपाई के 30 और 45 दिनों के अंतर पर देना चाहिए.

सिंचाई: सिंचाई समय पर जरूरत के मुताबिक 8-15 दिनों के अंतर पर करते हैं.

खरपतवार निकालना : अच्छी फसल के लिए शुरू में 2-3 बार खरपतवार निकालना आवश्यक होता है. रोपाई के 3 दिनों बाद या रोपाई से पहले 3.5 लीटर स्टांप खरपतवारनाशी 800 लीटर पानी में डाल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से खरपतवार खत्म करने में मदद मिलती है.

फसल सुरक्षा: प्याज में थ्रिप्स नामक कीट लगने पर 500 लीटर पानी में 750 मिलीलीटर मैलाथियान या 375 मिलीलीटर मोनोक्राटोफास या सैंडोविट मिला कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करते हैं.

स्टेमफिलियम झुलसा और पर्पल ब्लाच रोग से बचाव के लिए डाईथेन एम 45 या इंडोफिल एम 45 की 2.5 किलोग्राम मात्रा या कवच की 2 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करते हैं.

खुदाई : 50 फीसदी पत्तियां जमीन पर गिरने के 1 हफ्ते बाद खुदाई करने से भंडारण में होने वाली हानि कम होती है. खुदाई कर के पौधों को कतारों में रख कर सुखा लेते हैं. पत्तों को गर्दन से 2.5 सेंटीमीटर ऊपर से अलग कर लेते हैं और फिर 1 हफ्ते तक सुखाते हैं.

कंदों को सीधे सूर्य की रोशनी में नहीं सुखाना चाहिए और भीगने से बचाना चाहिए, वरना भंडारण में काफी नुकसान होता है.

भंडारण : अच्छी, समान रंग की पतली गर्दन वाली, दोफाडे़ रहित प्याजों का भंडारण करते हैं. 4.5 सेंटीमीटर से 6.5 सेंटीमीटर व्यास के प्याज कंद बीज उत्पादन के लिए सही होते हैं. उन्हीं का भंडारण करते हैं. इस से छोटे व बड़े कंदों को बाजार में बेच देना चाहिए.

गांठों का चयन और बोआई : बीजोत्पादन के लिए 4.5 से 6.5 सेंटीमीटर व्यास वाले कंद लगाने से पैदावार अच्छी होती है. कंद एक जैसे और स्वस्थ होने चाहिए.

बीजोत्पादन के लिए कंदों को लगाने का समय : नवंबर का पहला हफ्ता या दिसंबर के मध्य तक का समय बीज उत्पादन के लिए होता है. रबी प्रजातियों को नवंबर के मध्य और खरीफ की प्रजातियों को दिसंबर मध्य तक लगाना चाहिए. चुने हुए कंदों का एक तिहाई हिस्सा काट कर गांठों को 0.1 फीसदी कार्बेंडाजिम के घोल में डुबा कर लगाया जाता है. कंदों को अच्छी तरह तैयार किए गए खेतों में समतल क्यारियों में 45×30 सेंटीमीटर की दूरी पर 1.5 सेंटीमीटर गहरा लगाया जाना चाहिए. बोआई के बाद हलकी सिंचाई करनी चाहिए.

1 हेक्टेयर जमीन में लगने के लिए तकरीबन 25-30 क्विंटल कंद काफी होते हैं. खरीफ के प्याज को लगाने से पहले कंदों को 1 फीसदी केएनओ के घोल में मिला कर रखें, इस से अंकुरण अच्छा होता है.

खाद व उर्वरक : कंदों को लगाने से 20-25 दिनों पहले 20 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देनी चाहिए. बाद में 100 किलोग्राम यूरिया, 300 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट व 100 किलोग्राम म्यूरेट आफ पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में कंदों के लगाने के स्थान पर खुरपी से बनाए गए गड्ढों में अच्छी तरह मिलाने के बाद कंदों को लगाते हैं. यदि ऐसा न किया जाए तो कंद खाद के संपर्क में आने पर सड़ने शुरू हो जाते हैं. कंदों के लगाने के 30 दिनों बाद 100 किलोग्राम यूरिया या 200 किलोग्राम किसान खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से पौधों की जड़ों के पास मिला देते हैं.

राष्ट्रीय बागबानी अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान ने अपने प्रयोगों द्वारा पूसा रेड की गांठों को 30×45 सेंटीमीटर की दूरी पर लगा कर और 60 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर दे कर करनाल और नासिक क्षेत्रों में सब से अच्छी बीज की पैदावार हासिल की है. नासिक में एग्रीफाउंड डार्क रेड प्रजाति के बीजोत्पादन में 30×30 सेंटीमीटर दूरी रखने और 120 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की दर से डालने से ज्यादा पैदावार मिली है. खेत में 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से पीएसबी का इस्तेमाल भी करना चाहिए.

खरपतवारनाशक दवाओं का इस्तेमाल : स्टांप प्रति हेक्टेयर 3.5 लीटर की दर से कंद लगाने से पहले क्यारियों में छिड़कते हैं. 1 बार खरपतवारों को हाथों से निकालते हैं, इस से खरपतवारों पर नियंत्रण रहता है और पैदावार भी अच्छी होती है.

सिंचाई व फसल की देखभाल : मौसम व मिट्टी के अनुसार हर 7-10 दिनों के अंतर पर बराबर सिंचाई करनी चाहिए. बोआई के 2 महीने बाद पौधों की जड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.

इस से उन्हें सहारा मिलता है और फूल निकलते समय गिरने से बच जाते हैं. ड्रिप इरीगेशन से भी प्याज का बीजोत्पादन किया जाता है.

अलगाव दूरी : प्याज में परपरागण होता है, इसलिए जब 2 जातियों के प्रमाणित बीज पैदा करने हों, तो उन के बीच में कम से कम 500 मीटर की दूरी होनी चाहिए.

खराब पौधों की छंटाई : रोगग्रस्त और उन पौधों को जो उस जाति से अलग दिखाई पड़े जिस का बीज बनाया जा रहा है, फूल आने से पहले ही निकाल देना चाहिए. इस से शुद्ध बीजोत्पादन में मदद मिलती है.

परागण को सुधारने के लिए ध्यान देने वाली बातें : प्याज में परपरागण होता है, इसलिए मधुमक्खियों का अधिक संख्या में होना जरूरी होता है. अच्छी तरह पर परागण के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

* मधुमक्खियों की कालोनी खेत के बीच में रखनी चाहिए.

* फूल आने के समय और बीज बनने के समय सिंचाई बराबर करनी चाहिए.

* फूल आने के समय किसी ऐसी दवा का छिड़काव नहीं करना चाहिए, जो मधुमक्खियों के लिए हानिकारक हो.

* अधिक तेज हवा से भी मधुमक्खियां फूलों पर बैठ नहीं पाती इस से परागण अच्छी तरह नहीं होता.

तेज हवा से बचाने के लिए प्याज बीजोत्पादन के खेत के चारों तरफ ऊंचे पौधों की बाड़ लगानी चाहिए.

फसल की सुरक्षा : थ्रिप्स और शीर्ष छेदक कीटों के आक्रमण के समय इंडोसल्फान या जोलोन की 2 मिलीलीटर मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए.

बैगनी धब्बा और स्टेमफिलियम झुलसा रोग की रोकथाम के लिए मैंकोजेब की 2 किलोग्राम मात्रा को प्रति 800 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 15 दिनों के अंतर पर छिड़काव करना चाहिए. दवा छिड़कने से पहले घोल में चिपकने वाली दवा अवश्य मिला दें. नासिक और करनाल में मैंकोजेब 0.25 फीसदी और मोनोक्रोटाफास 0.05 फीसदी का 5-6 बार छिड़काव करने से रोगों का नियंत्रण अच्छा रहा और उत्पादन बढ़ा.

कटाई, मड़ाई, बीज की सफाई, सुखाई, भंडारण और पैकिंग : बोआई के 1 हफ्ते बाद अंकुरण शुरू हो जाता है. तकरीबन ढाई महीने बाद फूल वाले डंठल बनने शुरू हो जाते हैं. फूल गुच्छ बनने के 6 हफ्ते के अंदर ही बीज पक जाते हैं.

गुच्छोें का रंग जब मटमैला हो जाए और 20 फीसदी कैपसूल के काले बीज दिखाई देने लगें, तो गुच्छों को कटाई लायक समझना चाहिए.

फूलों के गुच्छे समान रूप से नहीं पकते, इसलिए उन्हीं गुच्छों को काटना चाहिए जिन के बीज छितरने वाले हों. कटे हुए गुच्छों को कैनवास के कपड़े पर या हवादार और छायादार जगह पर बने पक्के फर्श पर फैला कर सुखाना चाहिए. इस के बाद बीजों की सफाई मशीन से कर देनी चाहिए. यदि बीज अच्छी तरह साफ न हो पाएं तो ग्रेविटी सेपरेटर से दोबारा साफ करने चाहिए.

साफ बीजों को यदि टीन के डब्बों, अल्यूमिनियम फायलों या मोटे प्लास्टिक के लिफाफों में भरना हो, तो उन्हें 5 फीसदी नमी तक सुखाना चाहिए.

सुखाने के बाद बीजों को 2-3 ग्राम थाइरम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के लिफाफे या डब्बों में बंद करना चाहिए.

अगर बीजों को अच्छी तरह से सुखा कर बंद डब्बों या मोटे प्लास्टिक के लिफाफे में भरा गया हो, तो 18 से 20 डिगरी सेल्सियस तापमान और 30 से 40 फीसदी नमी में 2 सालों तक सुरक्षित रखा जा सकता है.

औसत उपज : औसत उपज 8 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

Marigold : गेंदा उगाएं अच्छी आमदनी पाएं

मशहूर फूल गेंदा (Marigold) की उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका और मैक्सिको की मानी जाती है. गेंदे (Marigold) की खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु और मृदा में सफलतापूर्वक की जा सकती है. गेंदे (Marigold) के पौधे में पुष्पन की अवधि अधिक होने के साथ ही साथ सुंदर पुष्प व इस के पुष्प का जीवनकाल अच्छा होने से पूरे विश्व में गेंदे (Marigold) के फूल की मांग दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.

मुख्य तौर पर गेंदे की 3 प्रजातियों टैंजेटिस इरेक्टा (अफ्रीकन गेंदा), टैंजेटिस पेटुला (फ्रेंच गेंदा) और टैंजेटिस माइन्यूटा (जंगली गेंदा) का इस्तेमाल विभिन्न मकसदों के लिए किया जाता है. अफ्रीकन और फ्रेंच गेंदे के फूलों का इस्तेमाल माला बनाने, पार्टी या शादी के पंडाल को सजाने, शादी में गाड़ी की सजावट और धार्मिक जगहों में पूजा के लिए किया जाता है. इस के अलावा इसे गमलों और क्यारियों में लगा कर घर, पार्क वगैरह जगहों को सजाया जाता है.

अफ्रीकन गेंदे की कुछ प्रजातियां, जिन की पुष्प डंडी लंबी होती है, उन के पुष्पों को डंडी के साथ काट कर घर के अंदर गुलदस्तों में लगा कर सजावट के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

पिछले कुछ सालों में दक्षिण भारत में अफ्रीकन गेंदे का क्षेत्रफल इस के फूलों की पंखुडि़यों से प्रसंस्करण विधि द्वारा कैरोटिनोएड्स निकालने के कारण बढ़ा है और कैरोटिनाएड्स का अधिकांश इस्तेमाल पोल्ट्री फीड (मुरगी के दाने) में किया जा रहा है. इस प्रकार का पोल्ट्री फीड मुरगी को खिलाने से उस के अंडे के योक और मांस का रंग पीला हो जाता है. ऐसे अंडों और मांस की मांग बाजार में ज्यादा है. दक्षिण भारत से कैरोटिनोएड्स को लगातार बाहर के तमाम देशों में भेजा जा रहा है.

ज्ांगली गेंदे के पौधों से प्रसंस्करण विधि द्वारा सुगंधित तेल निकाला जाता है. जंगली गेंदा दक्षिणपश्चिमी हिमालय में 1000 से 2500 मीटर समुद्र तल की ऊंचाई तक हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड एवं जम्मूकश्मीर के विभिन्न भागों में जंगली तौर पर पाया जाता है और इस क्षेत्र के कुछ किसान कारोबारी फसल के तौर पर इस की खेती भी कर रहे हैं.

फ्रांस, केनिया और आस्ट्रेलिया मुख्यतौर पर जंगली गेंदे से तेल निकालने का काम बड़े पैमाने पर कर रहे हैं. गेंदे का प्रयोग इस की पंखुडि़यों के रस को आंख की बीमारी और अल्सर के उपचार के लिए भी किया जाता है. गेंदे की खेती करने से खेत में निमेटोड का प्रकोप बहुत कम हो जाता है.

अफ्रीकन और फ्रेंच गेंदे की खेती भारत के कई हिस्सों में की जाती है. निचले पहाड़ी इलाकों में गेंदे के फूलों का उत्पादन उस समय होता है, जब मैदानी इलाकों में (गरमी का मौसम) उत्पादन घट जाता है, लेकिन मांग बढ़ जाती है. साथ ही, गरमियों में मैदानी इलाकों में इस के पुष्प उत्पादन की लागत अधिक सिंचाई करने के कारण बढ़ जाती है.

जलवायु

अफ्रीकन और फ्रेंच गेंदा दूसरे मौसमी फूलों जैसा नहीं है, जो साल में 1 बार ही पुष्प उत्पादन करेगा, बल्कि यह विभिन्न समय पर पौध रोपण करने पर हर साल पुष्पोत्पादन करता रहता है. खुली जगह जहां पर सूर्य की रोशनी सुबह से शाम तक रहती हो, ऐसी जगह पर गेंदे की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है. छायादार जगहों पर इस के पुष्प उत्पादन की दर बहुत कम हो जाती है और क्वालिटी भी घट जाती है. शीतोष्ण जलवायु को छोड़ कर अन्य जलवायु में इस की खेती पूरे साल की जा सकती है. शीतोष्ण जलवायु में इस का पुष्पोत्पादन केवल गरमी के मौसम में किया जाता है.

प्रवर्धन

गेंदे का प्रवर्धन बीज और वानस्पतिक भाग शाखा से कलम विधि द्वारा किया जाता है. वानस्पतिक विधि द्वारा प्रवर्धन करने से पौधे पैतृक जैसे ही उत्पादित होते हैं. व्यावसायिक स्तर पर गेंदे का प्रवर्धन बीज द्वारा किया जाता है.

गेंदे का बीज प्रति हेक्टेयर लगभग 800 ग्राम से 1000 ग्राम (1 किलोग्राम) की दर से लगता है. गेंदे का प्रवर्धन कलम विधि द्वारा करने के लिए 6 से 8 सेंटीमीटर लंबी कलम पौधे के ऊपरी भाग से लेते हैं.

पौधे से कलम को अलग करने के बाद कलम के निचले हिस्से से 3 से 4 सेंटीमीटर तक सभी पत्तियों को ब्लेड से काट देते हैं और कलम के निचले भाग को तिरछा काटते हैं. इस के बाद कलम को बालू में 2 से 3 सेंटीमीटर गहराई पर लगा देते हैं. कलम को बालू में लगा देने के 20 से 25 दिनों के बाद कलम में जडें़ बन जाती हैं. इस तरह वानस्पतिक प्रवर्धन विधि से पौधा बन कर रोपण हेतु तैयार हो जाता है.

मिट्टी

गेंदे की खेती हर तरह की मिट्टी में की जा सकती है. बलुई दोमट मिट्टी जिस का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच हो और जीवांश पदार्थ की प्रचुर मात्रा के साथसाथ पानी के निकलने का सही इंतजाम हो, अच्छी  मानी गई है.

क्यारी की तैयारी

क्यारी बनाने से पहले मिट्टी की लगभग 30 सेंटीमीटर गहरी खुदाई कर के भुरभुरी और खरपतवाररहित कर लेते हैं. रासायनिक उर्वरक और गोबर की सड़ी खाद जरूरत के मुताबिक मिट्टी में डाल कर 15 से 20 सेंटीमीटर गहराई तक अच्छी तरह मिला देते हैं. क्यारी की चौड़ाई और लंबाई सिंचाई के साधन व खेत के आकार पर निर्भर करती है.

खेत समतल होने पर क्यारी लंबी और चौड़ी बनानी चाहिए, लेकिन खेत ऊंचेनीचे होने पर क्यारी का आकार छोटा रखना लाभदायक होता है. अच्छी तरह तैयार भुरभुरी मिट्टी में 2 से 3 मीटर चौड़ी और सुविधानुसार लंबी क्यारी बनानी चाहिए. 2 क्यारियों के बीच में 1 से डेढ़ फुट चौड़ी मेंड़ बनानी चाहिए.

नर्सरी की क्यारी की तैयारी और बीज की बोआई : गेंदे की पौध तैयार करने के लिए सामान्य तौर पर 1 मीटर चौड़ी और 15 से 20 सेंटीमीटर जमीन की सतह से ऊंची क्यारी बनाते हैं. 2 क्यारियों के बीज में 30 से 40 सेंटीमीटर का फासला छोड़ देते हैं, जिस से नर्सरी में सुगमतापूर्वक निराई हो सके और क्यारी से पौधों को रोपण हेतु निकाला जा सके.

नर्सरी की क्यारी की मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी कर के उस में सड़ी हुई गोबर की खाद 10 से 12 किलोग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से मिला देते हैं. अगर बलुई दोमट मिट्टी न हो, तो क्यारी में आवश्यकतानुसार बालू की मात्रा भी मिला देते हैं.

बीज की बोआई से पहले 2 ग्राम कैप्टान प्रति लीटर पानी में घोल कर सभी क्यारियों में छिड़क देना चाहिए, इस से नर्सरी में कवक का प्रकोप कम हो जाता है. बीज के अंकुरण के बाद पौधों की मृत्यु दर कम हो जाती है. क्यारी में बीज की बोआई 2 लाइनों के बीच में 6 से 8 सेंटीमीटर का फासला रखते हुए 1.5 से 2 सेंटीमीटर की गहराई पर करनी चाहिए. पंक्तियों में बीज पासपास नहीं रखने चाहिए, क्योंकि पासपास बीज की बोआई करने से पौध कमजोर हो जाती है.

क्यारियों में गरमी के मौसम में सुबहशाम और सर्दी और बरसात के मौसम में सुबह पानी प्रतिदिन फुहारा विधि से देना चाहिए.

गरमी के मौसम का पुष्पोत्पादन करने के लिए फरवरी महीने के दूसरे हफ्ते और बारिश के मौसम में पुष्पोत्पादन के लिए जून के पहले हफ्ते में बीज की बोआई करनी चाहिए. सर्दी में पुष्पोत्पादन के लिए सितंबर महीने के दूसरे हफ्ते में बीज की बोआई करनी चाहिए.

पौध रोपण

नर्सरी में बीज की बोआई के 1 महीने बाद पौध रोपण के लिए तैयार हो जाती है. अफ्रीकन गेंदा 41×40 सेंटीमीटर और फ्रेंच 30×30 सेंटीमीटर पौध से पौध और लाइन से लाइन के फासले पर 4 से 5 सेंटीमीटर गहराई पर लगाना चाहिए.

पौध रोपण गरमी के मौसम में सांयकाल और सर्दी और बरसात में पूरे दिन किया जा सकता है. पौध रोपण के समय यदि पौध लंबा हो गया हो तो लगाने से पहले उस के ऊपरी हिस्से को काट देना चाहिए.

खाद और उर्वरक

गोबर की सड़ी खाद 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए. इस के अलावा प्रति हेक्टेयर 200 किलोग्राम नाइट्रोजन और 80 किलोग्राम फास्फोरस और पोटाश देने से पुष्पोत्पादन बढ़ जाता है. फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा के लिए सिंगल सुपरफास्फेट और म्यूरेट औफ पोटाश को क्यारी की तैयारी के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए. नाइट्रोजन की मात्रा को 3 बराबर भागों में बांट कर 1 भाग क्यारी की तैयारी के समय और 2 भाग पौध रोपते समय 30 और 60 दिनों पर यूरिया या कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट उर्वरक द्वारा देना चाहिए.

सिंचाई व जलनिकासी

गेंदे की खेती में पौधों की बढ़वार और पुष्पोत्पादन में सिंचाई का खास महत्त्व है. सिंचाई के पानी का पीएच मान 6.5 से 7.5 तक लाभकारी पाया गया है. पौध रोपने के बाद सिंचाई खुली नाली विधि से की जाती है. मिट्टी में अच्छी नमी होने से जड़ों की अच्छी बढ़वार होती है और पौधों को मिट्टी में मौजूद पोषक तत्त्व सही मात्रा में मिलते रहते हैं.

शुष्क मौसम में सिंचाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए. गरमी में 5 से 6 दिनों और सर्दी में 8 से 10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए. क्यारियों में पानी जमा नहीं होना चाहिए. बरसात में पानी की निकासी के लिए नाली पहले से तैयार रखनी चाहिए.

निराई कर निकालें खरपतवार :खरपतवार जब छोटे रहें, उसी समय खेत से बाहर निकाल देने चाहिए. पौधों की छोटी अवस्था में समय पर मिट्टी की गुड़ाई करनी चाहिए. ऐसा करने से मिट्टी भुरभुरी बनी रहती है और जड़ों की अच्छी बढ़वार होती है. मिट्टी की गुड़ाई बहुत गहरी नहीं करनी चाहिए.

यों करें शीर्षनोचन

ऐसा पौधों के फैलाव को बढ़ाने के लिए किया जाता है. शीर्षनोचन 2 बार करने से पुष्पोत्पादन बढ़ जाता है. अगर पौध रोपने में देरी हो रही हो, तो केवल पहला शीर्षनोचन करना चाहिए.

पहला शीर्षनोचन : पौध रोपण के समय यदि पौधों का शीर्षनोचन न किया गया हो, तो पौध लगाने के 12 से 15 दिनों बाद उन हर पौधों का शीर्षनोचन हाथ से करना चाहिए, जिन की लंबाई जमीन की सतह से 15 सेंटीमीटर से ज्यादा हो गई हो.

शीर्षनोचन के समय यह ध्यान रखा जाता है कि शीर्षनोचन के बाद पौध पर 4 से 5 पूर्ण विकसित पत्तियां बनी रहें. ऐसा करने से एक पौध पर 3 से 5 तक मुख्य शाखाएं आ जाती हैं. शाखाओं की संख्या बढ़ने पर पुष्पोत्पादन बढ़ जाता है.

दूसरा शीर्षनोचन : पहला शीर्षनोचन जैसा ही दूसरा शीर्षनोचन करते हैं. इस में मुख्य शाखाएं जब 15 से 20 सेंटीमटर लंबी हो जाती हैं, उस समय हर शाखा पर 4 से 5 पूरी विकसित पत्तियां छोड़ कर शीर्षनोचन कर देते हैं.

पुष्पों की तोड़ाई और उपज : गरमी के मौसम की फसल मई के मध्य से शुरू हो कर बरसात के समय तक चलती है. लेकिन यह देखा गया है कि जून में सर्वाधिक पुष्प उत्पादन होता है.

बरसात के मौसम की फसल में फूलों का उत्पादन सितंबर मध्य से शुरू हो कर लगातार दिसंबर तक और सर्दी में फसल जनवरी मध्य से शुरू हो कर मार्च तक लगातार पुष्पोत्पादन होता रहता है.  पहाड़ी इलाकों में गरमी और बरसात की फसल सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है. पुष्पों को पौध से तब अलग करते हैं, जब पुष्प पूरी तरह से खिल जाएं.

फूलों को तोड़ते समय यह ध्यान रखा जाता है कि फूल के नीचे लगभग 0.5 सेंटीमीटर तक लंबा हरा डंठल फूल से जुड़ा रहे. फूलों की तोड़ाई सुबह के समय करनी चाहिए और फूल किसी ठंडी जगह पर रखने चाहिए. अगर फूलों के ऊपर अतिरिक्त नमी या पानी की बूंदें हों, तो उन्हें छायादार जगह पर फैला देना चाहिए.

नमी कम हो जाने के बाद फूलों को बांस की टोकरी में बाजार भेज दिया जाता है. फूलों को अतिरिक्त नमी के साथ पैक करने पर उन की पंखुडि़यां काली पड़ने लगती हैं. इसी कारण ऐसे फूलों की कीमत बाजार में बहुत कम मिलती है. यदि सही तरीके से फसल पर ध्यान दिया गया हो, तो अफ्रीकन गेंदे से 200 से 250 क्विंटल और फ्रेंच गेंदे से 100 से 125 क्विंटल प्रति हेक्टेयर फूलों की उपज मिल जाती है.

Marigold

मुख्य कीट और रोकथाम

रेड स्पाइडर माइड : माइड गेंदे की पत्तियों का रस चूस लेते हैं, जिस से पत्तियां हरे रंग से भूरे रंग में बदलने लगती हैं और पौधों की बढ़वार बिलकुल रुक जाती है. इस का प्रकोप होने पर पुष्पोत्पादन भी नहीं हो पाता है. जो कलियां बनती भी हैं, वे खिल भी नहीं पाती हैं. इस की रोकथाम के लिए हिल्फोल 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

एफिड्स : एफिड्स रस चूसने वाला कीट है. इस का प्रकोप पत्तियों, टहनियों और पुष्प कलियों पर होता है. यह पौधे की बढ़वार को कम कर देता है. इस की रोकथाम के लिए मैलाथियान या इंडोसल्फान का छिड़काव 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर करना चाहिए.

लीफमाइनर : लीफमाइनर नर और मादा दोनों पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं. गेंदे में इस का प्रकोप होने पर पत्तियों में सफेद धारियां बन जाती हैं और पौधों की बढ़वार कम हो जाती है. इस की रोकथाम के लिए 1.5 से 2 मिलीलीटर इंडोसल्फान प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

कैटरपिलर : यह कीट हरे और भूरेकाले रंग का होता है. यह पत्तियों, टहनियों और कलियों को नुकसान पहुंचाता है. इस की रोकथाम के लिए 1.5 मिलीलीटर इंडोसल्फान या मैलाथियान 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए.

खास बीमारियां और रोकथाम

डैमपिंग आफ : यह बीमारी राइजोकटोनिया सोलेनाई कवक का प्रकोप होने पर नर्सरी में होती है. इस बीमारी का हमला होने पर नर्सरी में ही पौधे खत्म हो जाते हैं.

अधिकतर यह बीमारी नर्सरी में पौधों को बहुत ज्यादा पानी देने के कारण होती है. इस की रोकथाम के लिए क्यारी में बीज की बोआई करने से पहले कापर कवकनाशी कैप्टान के घोल (0.2 फीसदी सांद्रता) का छिड़काव करना चाहिए या मिट्टी को फार्मल्डीहाइड नामक कैमिकल के घोल (2 फीसदी सांद्रता) से संक्रमित कर देना चाहिए. इस बीमारी का प्रकोप होने के बाद निदान करना बहुत ही कठिन है.

फ्लावर बड राट : यह बीमारी अधिक आर्द्रता वाले इलाकों में देखी गई है. इस बीमारी में कलियों पर ब्राउन धब्बे पड़ जाते हैं. इस तरह की कलियां पूरी तरह से खिल नहीं पाती हैं. इस की रोकथाम के लिए डाइथेन एम 45 के 0.2 फीसदी सांद्रता के घोल का छिड़काव करें.

कालर राट, फूट राट और रूट राट : ये बीमारियां राइजोकाटोनिया सोलेनाई, फाइटोप्थेरा स्पेशीज, पीथियम स्पेशीज वगैरह कवकों के कारण होती हैं. कालर राट पौधे की किसी अवस्था में देखा जा सकता है. फूट राट एवं रूट राट अधिक आर्द्रता वाले इलाकों में और क्यारी में अधिक पानी होने के कारण भी पाई पाती है. इस की रोकथाम के लिए नर्सरी की मिट्टी को बीज की बोआई से पहले फार्मल्डीहाइड के घोल से साफ करें, रोगरहित बीज का प्रयोग करें, रोगग्रसित पौधों को उखाड़ दें, बहुत घनी नर्सरी या पौध रोपण न करें और बोआई से पहले कैप्टान से बीज को उपचारित करें.

लीफ स्पाट : यह बीमारी अल्टरनेरिया टैजेटिका कवक के प्रकोप होने पर गेंदे के पौधे पर देखी गई है. इस बीमारी से प्रभावित पौधों की पत्तियों के ऊपर भूरा गोल धब्बा दिखने लगता है. इस बीमारी की रोकथाम के लिए बाविस्टीन 1 से 1.5 ग्राम पाउडर प्रति लीटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़काव करना चाहिए.

पाउडरी मिल्ड्यू : गेंदा के फूल में पाउडरी मिल्ड्यू ओडियम स्पेशीज और लेविल्लुला टैरिका कवकों के प्रकोप होने के कारण होता है. इस बीमारी में पौधों की पत्तियों के ऊपर सफेद पाउडर दिखने लगता है. इस बीमारी की रोकथाम के लिए कैराथेन 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर पौधों पर छिड़काव करना चाहिए.

विषाणु रोग : विषाणु पौधों की क्वालिटी को धीरेधीरे कम कर देते हैं. गेंदे में कुकुंबर मोजेक वायरस का हमला देखा गया है. इस विषाणु रोग से बचाव के लिए रोगग्रसित पौधों को समयसमय पर उखाड़ कर जमीन के अंदर दबा दें या जला दें.

Flower Cultivation : गुणों से भरपूर है सदाबहार की खेती

Flower Cultivation| भारत में सदाबहार तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और असम में तकरीबन 3000 हेक्टेयर क्षेत्र में उगाया जाता है. सदाबहार बहुवर्षीय पौधा है, जो 2 से 3 फुट ऊंचाई वाला होता है. इस के फूल गुलाबी, सफेद होते हैं. तने हलके बैगनी व हरा दोनों रंगों में होते हैं. सदाबहार के बीज छोटेछोटे काले रंग के होते हैं, जो 1 ग्राम में तकरीबन 800 दाने होते हैं.

सदाबहार एक औषधीय पौधा है. इस का अनेक बीमारियों जैसे मधुमेह, मलेरिया, चर्म रोग, कैंसर वगैरह में इस्तेमाल होता है. इस के अलावा यह बागबगीचे की शोभा बढ़ाने वाला पौधा भी है. इस की फसल विभिन्न प्रकार की जलवायु और जमीन में सफलतापूर्वक की जा सकती है. अच्छी बढ़वार के लिए गरम व शुष्क मौसम फायदेमंद है. हालांकि यह अनेक प्रकार की मिट्टी  में उगाया जा सकता है, फिर भी हलकी दोमट मिट्टी में इस की अच्छी फसल ली जा सकती है. इस की फसल को क्षारीय, लवणीय और बाढ़ग्रस्त जमीन पर नहीं लगाना चाहिए.

खास किस्म

प्रभात (सलेक्शन 1) : यह किस्म चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार से है. सिमेप लखनऊ की धवल व निर्मल 2 किस्में हैं.

बोने का तरीका

खेत तैयार करने के बाद सदाबहार के बीज को भी सीधा खेत में बोया जा सकता है. 30 सेंटीमीटर की दूरी पर इस की बोआई करनी चाहिए. इस के लिए तकरीबन 1 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ की जरूरत होती है. पौध से रोपाई करने के लिए केवल 200 ग्राम बीज लगता है. 200 वर्ग मीटर क्षेत्रफल की नर्सरी में बीज की बीजाई करनी चाहिए. जब इस की पौध 5-6 इंच की हो जाए तो पौध को खेत में रोप देना चाहिए. इस के लिए आप पौध रोपाई यंत्र का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. पौध की रोपाई करने के बाद खेत में हलका पानी भी दें, ताकि पौधे मिट्टी पकड़ लें. नर्सरी तैयार करने का समय मईजून है, जिसे जुलाईअगस्त में रोपा जा सकता है.

खादपानी व तैयारी

खेत तैयार करते समय अच्छी तरह सड़ीगली गोबर की खाद जरूर डालनी चाहिए और आखिरी जुताई के समय 8 किलोग्राम नाइट्रोजन व 12 किलोग्राम फास्फोरस प्रति एकड़ के हिसाब से खेत में डालें. जिस जमीन में पोटाश की कमी हो, वहां 12 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ खेत में डालें. उस के बाद 2 और 5 महीने बाद जरूरत के मुताबिक नाइट्रोजन की मात्रा भी खेत में डालें. समयसमय पर निराईगुड़ाई का भी ध्यान रखें और खरपतवारों को खेत से निकालते रहें. साथ ही जरूरत के मुताबिक खेत में सिंचाई करें. इस फसल की खासीयत है कि इस में किसी भी तरह के कीट और बीमारी नहीं लगती है.

फसल चुनना

पूरे सीजन के दौरान 3 बार पत्तों की चुनाई की जा सकती है. पहली बार 4 महीने पर, दूसरी बार 8 महीने पर और तीसरी कटाई के समय. फसल को जमीन से 15 सेंटीमीटर की ऊंचाई से काटना चाहिए, जिस से फसल में दोबारा फुटाव हो सके.

प्राप्त किए हुए पत्तों और तनों को सुखा लिया जाता है. सुखाने के बाद पत्तियां अलग कर ली जाती हैं. इस की विदेशों में अच्छीखासी मांग है. तकरीबन 8 से 10 क्विंटल प्रति एकड़ की पैदावार पत्तियों के रूप में मिलती है.

जड़ों का इस्तेमाल

सीजन की पूरी फसल लेने के बाद आखिर में पौधों को जड़ों सहित उखाड़ लिया जाता है और जड़ों को पानी में अच्छी तरह धोने के बाद अच्छी तरह सुखाया जाता है. सूखी जड़ों की औसत पैदावार 4 से 5 क्विंटल प्रति एकड़ है.