ज्यादातर किसान खेतीबारी करने के साथसाथ पशुपालक भी होते हैं. फसल कटने के बाद बची घास को चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, वहीं पशुओं का गोबर खेतों में खाद का काम करता है. इस तरह खेती और पशुपालन में चोलीदामन का साथ है.

जिस तरह अलगअलग मौसम के मुताबिक अलगअलग फसलें बोई जाती हैं, उन के पकने से ले कर खेतखलिहानों में जाने तक समयसमय पर उन की देखभाल की जाती है, उसी तरह पशुओं को भी मौसम के अनुकूल देखभाल की बहुत जरूरत होती है.

गरमियों में अकसर दुधारू पशुओं में दूध की कमी होने की शिकायत सुनने में आती है. इस की वजह और निवारण के बारे में हम ने ‘राजवास’ यानी राजस्थान यूनिवर्सिटी औफ वेटरनरी ऐंड एनिमल साइंस, बीकानेर के मैडिसिन विभाग के असिस्टैंट प्रोफैसर सीता राम गुप्ता से बात की. पेश हैं उन से हुई बातचीत के खास अंश:

इस बात में कितनी सचाई है कि गरमियों में दुधारू पशुओं में दूध की कमी हो जाती है?

वाकई यह बात सच है.

इस की कोई खास वजह?

गरमी के मौसम में दूसरे मौसम की तुलना में दिन बड़ा हो जाता है और तापमान भी सामान्य से ज्यादा हो जाता है. अगर हम राजस्थान की बात करें तो यहां तापमान 48-50 डिगरी सैल्सियस तक भी पहुंच जाता है. इस के अलावा देश के अनेक ऐसे हिस्से हैं जहां तापमान 40 से 48 डिगरी सैल्सियस तक हो जाता है.

तापमान बढ़ने से पशु ‘हीट स्ट्रैस’ यानी ‘तापजनित तनाव’ की स्थिति में आ जाते हैं. इस से उन के शरीर का तापमान बढ़ जाता है. ऐसी हालत में पशु खानापीना कम कर देते हैं. उन की सांस लेने की रफ्तार बढ़ जाती है. वे हांफने लगते हैं. उन के मुंह से लार गिरने लगती है. लार गिरने से पशुओं में खनिज लवण और पानी की कमी हो जाती है. इन सब की वजह से पशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और यही मुख्य वजह है कि गरमी में दुधारू पशुओं में दूध देने की कमी हो जाती है.

दुधारू पशुओं (Dairy Animals)

इस हीट स्ट्रैस को कम करने के कुछ आसान उपाय बताइए जो एक आम पशुपालक कर सकता है?

हीट स्ट्रैस को सिर्फ कुशल प्रबंधन यानी अच्छी सोच या समझदारी से ही कम किया जा सकता है. इस के लिए किसी तरह की कोई दवा या इंजैक्शन देने की जरूरत नहीं होती. कुछ साधारण उपाय हैं जिन्हें अपना सकते हैं:

* तापजनित तनाव यानी हीट स्ट्रैस के चलते चूंकि पशुओं में पानी की जरूरत बढ़ जाती है इसलिए उसे दिन में 3-4 बार पानी पिलाना चाहिए.

* पशुशाला में पानी की खेड़ी को हमेशा ठंडे पानी से भर कर किसी छायादार जगह पर रखना चाहिए, जहां सूरज की सीधी रोशनी न आती हो और पानी गरम न हो.

* पशु को नहला भी सकते हैं.

* यदि गरमी ज्यादा हो तो पशुशाला के फर्श पर पानी का छिड़काव भी किया जा सकता है. जरूरत पड़ने पर पशुशाला में कूलर व पंखों का भी इंतजाम होना चाहिए.

* पशुओं को अगर बाहर चरने के लिए भेज रहे हैं तो उन के चरने का समय बदल देना चाहिए यानी सुबह 10 बजे से पहले और शाम को 4-5 बजे के बाद. दोपहर में पशुओं को चरने न भेजें.

* यदि पशुओं को चारा पसंद नहीं आ रहा है तो उसे दाना खिलाना चाहिए. खिलाने से आधा घंटा पहले दानों को भिगो देना चाहिए और जब मौसम थोड़ा ठंडा हो जाए तब खिलाना चाहिए.

* यदि मुमकिन हो तो पशुओं को हरा चारा ही खिलाएं.

मगर, गरमी में तो हरे चारे का मिलना कम हो जाता है?

इस के लिए खेत में एकवर्षीय या दोवर्षीय घास को इस तरह लगाना चाहिए कि सालभर पशुओं को हरा चारा मिले. अगर यह भी मुमकिन न हो तो जिस मौसम में हरा चारा मिलता हो, उस समय उसे स्टोर कर के भी रखा जा सकता है.

जिस तरह हम औफ सीजन के लिए सब्जियां रखते हैं, क्या उसी तरह?

जी बिलकुल. इस के 2 तरीके हैं. पहला तो यह कि ‘हे’ बनाना और दूसरा है ‘साइलेज’

क्या इसे पशुपालक आसानी से कर सकते हैं? इन का तरीका बताइए?

‘हे’ बनाने के लिए बरसीम, रिजका, मक्का, जई, ज्वार, बाजरा वगैरह का इस्तेमाल हरा चारा के रूप में किया जाता है. इसे तकरीबन 4-5 इंच मोटी परत के रूप में बिछाना होता है. इसे गट्ठर के रूप में बांध भी सकते हैं. इसे 1-2 दिन में उलटपलट करते रहना चाहिए ताकि सब तरफ समान रूप से हवा और ताप लगे.

इस में खास बात यह है कि इस प्रक्रिया में घास में नमी की मात्रा 70-80 फीसदी से घटा कर 15-20 फीसदी तक लाना है यानी घास में इतनी नमी रहनी ही चाहिए. नमी के इस स्तर पर चारे में मौजूद पादक कोशिकाएं और एंजाइम निष्क्रिय हो जाते हैं और उस की पौष्टिकता बनी रहती है. अब इसे स्टोर कर के रख सकते हैं.

दूसरा तरीका है ‘साइलेज’. इस के लिए ध्यान देने वाली बात यह है कि जो भी घास इस के लिए ली जाए, उस में घुलनशील कार्बोहाइड्रेट की मात्रा अच्छी होनी चाहिए. इस के लिए ज्वार और मक्की बेहतर है. इन दोनों तरीकों में फर्क यह है कि साइलेज में घास को तकरीबन गीला रखा जाता है यानी नमी की मात्रा 50-60 फीसदी तक रखी जाती है. चारे को 2-5 सैंटीमीटर के छोटेछोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है, फिर जमीन में पक्का गड्ढा खोद कर उस में पौलीथिन लगा कर चारे को दबादबा कर भर दिया जाता है. इसे बिना काटे भी रखा जा सकता है, मगर उस में हवा रहने की संभावना रहती है. इसलिए टुकड़ों में काटना सही तरीका है.

गड्ढों में चारा भरने के बाद जब यह जमीन से 18-20 सैंटीमीटर ऊपर आ जाए तब मिट्टी और गोबर से लीप कर ‘डोम शेप’ बना देते हैं, फिर इसे 50-60 दिन के लिए छोड़ दिया जाता है.

अब साइलेज तैयार है. एक जगह से डोम में चारा निकालने के लिए उस में छेद बना दिया जाता है और फिर जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल किया जा सकता है.

जगह की कमी हो तो आजकल साइलेज के लिए एयर टाइट बैग भी मिलते हैं. उन का भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इन्हें घर या बाहर कहीं भी रखा जा सकता है.

इस के अलावा और क्या उपाय हैं जिन्हें अपना कर पशुओं के दूध देने की कूवत को बरकरार रखा जा सकता है?

मौसम के मुताबिक पशुशाला में थोड़ाबहुत बदलाव करते रहना चाहिए जैसे कि पशुशाला के चारों तरफ छायादार पेड़ लगाना. मगर पेड़ रातोंरात तो बड़े होंगे नहीं. इस के लिए शुरू से ही तैयारी रखनी चाहिए. हवा भी होनी चाहिए. कूलरपंखे भी लगाए जा सकते हैं. कृत्रिम फव्वारों का भी सहारा लिया जा सकता है. पशुशाला की खिड़कियों पर टाट की पट्टियां या बोरियां लगा कर उन्हें भिगो कर ठंडक बनाई जा सकती है.

यदि पशुशाला की छत पक्की हो तो उस पर सफेदी करें. टिन या ऐस्बेस्टस की छत हो तो उस पर बचाखुचा चारा डाल कर उस की ठंडक को बरकरार रखा जा सकता है.

खास बात यह है कि ये हीट स्ट्रैस की समस्या संकर नस्ल के पशुओं में ज्यादा देखने को मिलती है, बनिस्पत देशी के. देशी पशुओं में हीट रैजिस्टैंस पावर बहुत अच्छी होती है.

कहने का मतलब यह निकला कि न दवा और न ही कोई इंजैक्शन. पशुओं के दूध देने की कूवत उन के तापजनित तनाव यानी हीट स्ट्रैस के प्रबंधन से ही बरकरार रखी जा सकती है. हमें किसी भी तरह उन के शरीर के तापमान को सामान्य बनाए रखना है.

जी बिलकुल.

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